Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागाये-जैनश्चर्यदिनाकर पूज्यनाचासालालजी महाराज विस्तिया प्रकाशिकायया व्याख्या समङ्कल हिन्दी-गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम् ॥ श्री-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमूत्रम् ।। (तृतीयो भागः) नियोजक:संस्कृत माना जैनागमनिष्णात-प्रियच्यास्यानित पण्डितमुनि श्रीकन्देशालालजी महाराजः। कोटडानिवासिडियोमूलचंद जेठालाल गहना प्रदतव्यमाहारयेन १० मा श्वे० या नशाखो धारसमितिमारखा। अधिोगन्तिलाल मालालाई यथा मुक अन्नदाबाद DOATSAAR प्रथम अधि: विक्रम संवत् Chacksee HERE Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OUR जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री- घासीलालजी महाराजविरचितया प्रकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम् MooooaaaYON ॥ श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रम् ॥ (तृतीयो भागः ) नियोजकः संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी महाराजः प्रथम - आवृत्तिः प्रत १२०० कोटडानिवासि श्रेष्ठश्रीमूलचंद जेठालाल महेता प्रदत्त - द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुखः श्रेष्ठिश्रीशान्तिलाल मङ्गलदास भाई-महोदयः मु० अहमदाबाद - १. प्रकाशकः वीर-संवत् २५०४ विक्रम संवत् २०३४ ईसवीसन् १९७८ मूल्यम् - रू० ३०-०० VOOOOOOOOOOOOCO KANOMINOVOVOMOOOOOOOOOOOC Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું : श्री म. सा. वे स्थानवासी જૈનશાસ્ત્રાદ્ધાર સમિતિ, है. छीपायोज अभहावाह- १, 卐 ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૫૦૪ વિક્રમ સવંત ૨૦૩૪ ઈસવીસન ૧૯૭૮ उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोयं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ Published by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Ghhipapole, AHMEDABAD-1. 5 हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्र कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥ 卐 भूयः ३. ३०-00 : मुद्र : મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ प्रेस, घीशंटा रेड, अभहावा. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमाङ्क सातवां वक्षस्कार १ चन्द्रसूर्यादिग्रह विशेषों की संख्या का कथन सूर्यमण्डलका निरूपण मेरुमंडल के अबाधाद्वारका निरूपण ३ ४ ७ ८ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति भाग तीसरे की विषयानुक्रमणिक विषय मण्डल के आयामादि वृद्धिहानिद्वार का निरूपण मुहूर्त गति का निरूपण दिनरात्रि वृद्धिहानि का निरूपण तापक्षेत्र का निरूपण दुरासन्नादि द्वार का निरूपण प्रकारान्तर से वापक्षेत्र का निरूपण इन्द्र के च्यवन के द्वारको व्यवस्था का कथन चन्द्रमण्डल की संख्या आदिका निरूपण प्रथादिमंडल की अबाधा का निरूपण सर्वाभ्यन्तरमण्डल के आयामादि का निरूपण मुहूर्त गति का निरूपण नक्षत्राधिकार का निरूपण सूर्य के उदयास्तमन का निरूपण संवत्सरों के भेदों का निरूपण एकसंवत्सर में मान संख्या का निरूपण करणों की संख्यादि का निरूपण संवत्सर की आदि का कथन नक्षत्राधिकार का निरूपण नक्षत्रों के देवताओं का निरूपण नक्षत्रों के गोत्र का कथन पृष्ठाङ्क १-७ ८-१६ १६-२६ २६-३७ ३७-६५ ६६-८२ ८४-१०६ १०७-१३२ १३२-१४० १४०-१४८ १४९-१५८ १५८-१६८ १६९-१८१ १८२-१९६ १९७-२३० २३०-२६३ २६३-२८८ २८९-३०३ १०४-३१३ ३१३-३२१ ३२२-३३५ ३३५-३४५ ३४५-३५३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ३५३-३६४ ३६५-४२० ४२०-४४४ ६ २७ ४४५-४४८ चन्द्र सूर्य के योगद्वार का निरूपण नक्षत्रों के कुलद्वार का निरूपण मासपरिसमापकनक्षत्र का निरूपण सोलहद्वारों के विषयार्थ संग्रह चन्द्रसूर्यादि के ताराविमान उनका उच्चत्वादि का निरूपण नक्षत्रों की गति का निरूपण चन्द्रसूर्य के विमानवाहक देवों की संख्या का निरूपण ग्रहादि के शीघ्रगत्यादि का निरूपण चन्द्र के अग्रमहिपी के नामादि का निरूपण चन्द्रसूर्यादि के अल्पबहुत्व का निरूपण जम्बूद्वीप के आयामादि का निरूपण जम्बूद्वीप इसप्रकार के नामकहने के कारण का निरूपण ४४९-४६० ४६०-४६७ ४६७-४९६ ४९६-५०१ ५५२-५१८ ५१८-५३० ५३१-५४३ ५४३-५५४ समाप्त Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વ. મૂલચંદ જેઠાલાલ મહેતા (કેટલાવાળા) ની જીવનઝરમર શ્રીયુત મૂલચંદભાઈને જન્મ ધર્માનુરાગી ધર્મપ્રેમી આદરણય જેઠાલાલ મહેતા ત્યાં રાજકોટમાં થયે. જેઠાલાલભાઈ કોટડાના વતની હોવા છતાં પિતાના વ્યાપાર વ્યવસાયને લઈ રાજકોટમાં નિવાસ કર્યો હતે. જેથી મૂલચંદભાઈની ઉમર છ વર્ષની થતાં તેઓને રાજકેટમાં એગ્ય વ્યવસાયી કેળવણીને લાભ મળ્યો. અને તેઓએ ઉચ્ચ સીવિલ એજીનિયરનું સારૂં જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું અને પિતાના વ્યવસાયમાં બ્રિટીશ સૌમાલીલેંડ (હાલનું સોમાલીયા)માં સીવીલ એંજીનીયર તરીકેની ઉમદા કારકીર્દિ જ.વી. પિતે ત્યાં નિવૃત્તિ લીધી. તે પછી પિતાને અસલ પહેઠાણ રાજકોટમાં જ આવી નિવાસ કર્યો. - રાજકોટમાં રહી તેઓએ સૌરાષ્ટ્રની જુની અને જાણીતી શ્રી દેવજી પ્રાગજી લેંગ લાયબ્રેરીમાં પતે માનદમંત્રી તરીકે ઘણે સમય સેવા આપી તેમજ રાજકોટમાં ગેંડલ રોડ પર આવેલ જૈન બાલાશ્રમના માનદ સેક્રેટરી તરીકે રહી લાંબા સમય સુધી પિતાના તન, મન, અને ધનથી સેવા આપી. આવી રીતે જનહિતાર્થ સેવા આપતા રહી પિતાના વ્યવસાયના અનુભવનું જ્ઞાન બીજાઓને પણ મળે તેવી ઉમદા ભાવનાથી “બાંધકામ” ને અંગેના બે પુરત કે ગુજરાતીમાં લખી જનહિતાર્થ પ્રગટ કર્યા છે. તેમજ તે પુસ્તકની યટી પણ જૈન બાલાશ્રમને અર્પણ કરેલ છે. તેમજ આ શિવાય શિક્ષણ ક્ષેત્રે પણ તેઓએ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર હાઈસ્કુલ રાજકેટને સારી એવી આર્થિક મદદ કરેલ છેતદુપરાંત ધાર્મિકક્ષેત્રે પણ નાની મોટી અનેક મદદે આપી પિતાની ધાર્મિક ભાવના પ્રગટ કરેલ છે. એજ રીતે પૂજય ઘાસીલાલ મહારાજ સા. તરફથી ચાલતા આગમ પ્રકાશનની હકીક્તની જાણ થતા તેઓએ તે તરફ પ્રેરાઈ આ પ્રકાશન સંસ્થાને પિતાના તરફથી રૂ. ૫૦૦૧ ની ઉદાર સખાવત કરી પિતાની ધાર્મિક ભાવના બતાવી છે. તેઓ સાહિત્ય પ્રત્યેની ઉચ્ચ ભાવનાથી જનહિતાર્થે અનેક શુભ કાર્યો કરતા રહે અને દીર્ધાયુ ભેગવી ઐશ્વર્યશાળી બને એજ ભાવના રાખીએ છીએ. અમે છીએ મંત્રીઓ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વ. મૂલચંદ જેઠાલાલ મહેતા (કોટડાવાળા) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પન્નાલાલજી છાગમલજી પારેખ નગરપાલીકા અધ્યક્ષ અમલનેર શ્રીમાન ભી કમચંદજી એલ. ચતુર બી. એસ . એલ. એલ. બી. સતેવાસી છે. અહમદનગર Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - બાઘમુરબ્બીશ્રીઓ શેઠ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ (રૂ.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી રાજકોટ શેઠ શ્રી પોપટલાલ માવજીભાઈ- મહેતા જામજોધપુર (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર–અમદાવાદ, શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી-રાજકેટ, बच्चे बेठेला-लालाजी किशनचंदजी सा. जौहरी કમેટા-યુપુત્ર ત્રિ. મહેતાવાની સા. नाना-अनिलकुमार जैन दोयत्ता दिल्ही Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધમુરબ્બીશ્રીએ (સ્ વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિ ભાણવડ. (સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહુ અમદાવાદ શે.શ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ માનવતા આદ્ય સુર્ખ્ખી શેઠ શ્રી માણેકલાલભાઈ અમુલખાઈ મહેતા ઘાટકોપર-મુંબઈ (સ્વ.) શેઠ ર્ગજીભાઈ માહનલાલ શાહ અમદાવાદ. ૧. શેશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ ૪૪૦), અમદાવાદ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यमुरब्बी श्रीओ (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ આરસી શેઠશ્રી લક્ષ્મીચંદભાઈ જશકરણભાઇ પાલણપુર નિવાસી શેઠશ્રી દેવચંદભાઈ ફાઈલાલભાઈ વલાણી–સુરત સ્વ. શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂલચંદભાઈ ધ્રાંગધ્રા શ્રી વીનેાદકુમાર વિરાણી રાજકોટ સ્વ. સુધીરભાઇ જયતીલાલ ઝવેરી સુઈ. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બી શ્રીઆ स्व. श्री साल मनापयशाल स्व. शेठ श्री ताराचंदजी साहेब गेलडा भभात. मद्रास. शेठमी चीमनलालजी अखभवंदजी अजीतवाले सपरिवार शेट श्री कीशनलालजी फुलचंदजो लुणिया बेंगलोरवाले बच्चे बेठेला-मोटाभाइ श्रीमान् मूलचंदजी जवाहीरलालजी बरडिया पाजुमां बेटेला-भाई मिश्रीलालजी बरडिया समेना-भाई पूनमचंदजी बरडिया श्रीमान् शेठश्री खींवराजजी सा. चोरडिया मु० मद्रास Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यमुरब्बीश्रीओ श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालजी श्रीमान् शेठ कानुगा घिगडमलजी-अमदावाद जांगडा, मु. जालना महाराष्ट्र) 5458885 331 शेठ श्री मिश्रीलालजो लालचंदजी सा. लुणिया श प्रभुसमा भूसलमाशी तथा शेठश्री जेवंतराजजी-अमदावाद રાજકોટ उरी २सायास भारत महता. स्व. श्रीमान् शेठश्री मुकनचंदजीसा० મદ્રાસ बालिया-पाली मारवाड Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधमुरब्बीश्रीओ શ્રીમાન શેઠ મણીલાલ પોપટલાલ વોરા આ મદાવાદ श्रीमान् शेठ लालाजी कपूरचन्दजी नाहटा, मु. देहली શ્રી વ્રજલાલ દુર્લભજીભાઈ પારેખ રાજકોટ, કેકારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ રાજકોટ શિઠશ્રી મણીલાલ જેઠુભાઈ શ્રીમાનું સ્થાન ઘરનાઋાજીની નાTY Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પટેલ ડાસાભાઇ ગોપાલદાસ સુ. માંદું (જી. અમદાવાદ) આધમુરબ્બીશ્રીએ शाहजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया मुः उदयपुर ૧૧. ગોડ માણેકચંદ નેમચંદભાઇ ૫. મગરોલ ૧ અમીથ દ્રભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઇ બાટવિયા મુ. એ ગલાને મદ્રાસવાલા સ્વસ્થ ન્યાયમૂતિ' રતીલાલભાઇ ભાયચંદભાઇ મહેતા अमलनेर पारख छोगमलजी मुलतानमलजी शेठ रघुनाथमलजी, शेठ बाबुलालजी " पन्नालालजी, शेठ सुगनचंदजी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાલનપુરવાલા કાહારી અમુલખચંદ મલુકચંદ આધમુરબ્બીશ્રીએ શેશ્રી કચરૂલાલજી દરડા-મુ. ચિ’ચાલા શેઠ જગજીત્રનભાઈ રતનસીભાઈ અગડિયા–દામનગર श्रीमान लालाजी हजारी लालजी जवेरी-देहली ભાનુભાઈ કેશવલાલ ભણસાલી પાલનપુર–મુ ઇ શેઠ ભાગીલાલ ઈંગનલાલ ભાવસાર સરસપુર-અમદાવાદ शेठ श्री भेरुदानजी अगरचंदजी शेठिया बीकानेर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर श्री घासीलाल महाराज विरचितया प्रकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥ श्री - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रम् ॥ (तृतीयो भागः ) अथ सप्तमवक्षस्कारः अथ जम्बूनामक द्वीपे ज्योतिष्कदेवाः परिचरन्तीति ज्योतिष्काधिकारः सम्प्रति प्रतिपाद्यते तत्र प्रस्तावनार्थमिदं चन्द्रसूत्र नक्षत्र महाग्रहतारासंख्याविषयकप्रश्नसूत्रं प्रथमं भवतीति । मूलम् - जंबूद्दीवेणं भंते! दीवे कइ चंदा पभासिंसु पभासंति पभासिस्संति, कइ सूरिया तवइंसु तवेंति तविस्संति, केवइया णक्खत्ता जोगं जोईसु जोयंति जोइस्संति, केवइया महाग्गहा चारं चरिंसु चरंति रिस्संति, केवइयाओ तारागगकोडाकोडीओ सोभिसु सोभंति सोभिसंति ?, गोयमा ! दो चंदा पभासिसु पभासंति पभासिस्संति, दो सूरिया तवसु तति तविस्संति, छप्पण्णं णक्खत्ता जोगं जोईंसु जोगं जोयंति जोगं जोइस्संति, छावत्तरं महग्गहस्यं चारं चरिंसु चारं चरंति चारं चरिस्सति ॥ एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साईं । णव य सया पण्णाला तारागण कोडि कोडोणं ॥ १ ॥ सू० १ || षष्ठं कारं समाप्य सप्तमो वक्षस्कारः आरभ्यते । छाया - - जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कतिचन्द्राः प्रभासितवन्तः प्रभासयति प्रभासयिव्यन्ति, कति सूर्याः अतपत् तर्पति उपयंति, कियन्ति नक्षत्राणि योगं युक्तवंति युञ्जन्ति योगं यक्ष्यन्ति, कियन्तो महाग्रहाः चारमचरत् चरन्ति वरिष्यन्ति, कियत्यस्तारागण कोटिकोटयः अशोभन्त शोभन्ते शोभिष्यन्ते ? गौतम ! द्वौ चन्द्र प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते, द्वौ सूर्यो तपताम् तपतः तप्स्यतः षट् पञ्चाशत् नक्षत्राणि योगमयुञ्जन्त योगं युञ्जन्ते योगं योक्षन्ति पट्ट सप्ततं महाग्रहशतं चारमचरत् चारं चरंति चारं चरिष्यन्ति, एकं च शतसहस्रं त्रयस्त्रिंशत् खलु भवन्ति सहस्राणि । नत्र च शतानि पञ्चाशानि तारागण कोटि कोटीनाम् || १ || सू० १ || ज० १ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे टीका-'जंबूद्दीदेणमित्यादि-'जंबूदीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे हे भदन्त जम्बूद्वीपनामके द्वीपे मध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः यद्यपि सन्ति असंख्याता द्वीपाः सर्वज्ञागमप्रसिद्धास्तत्र द्वीपेषु मध्ये योऽयं जम्बू नामको मध्य जम्बूद्वीप विशेषः तस्मिन् जम्बूद्वीपे 'कइ चंदा पभासिसु' कति चन्द्राः कियत्संख्यकाः चन्द्रमसः प्रभासितवन्तः अतीतकाले प्रकाशनीयं स्पर्शादि विशिष्टवस्तु जातं प्रकाशितवन्तः 'पभासंति' प्रभासयंति तथा वर्तमानकाले प्रकाशनीयं वस्तुजातं प्रकाशयंति उद्योतयन्तीत्यर्थः, 'पभासिरसंति' प्रभासयिष्यन्ति अनागतकाले प्रकाशनीय प्रकाशजातं प्रकाशयिष्यन्ति, प्रशाशननामकर्मोदयात् चन्द्रमंडलगतजीवानाम् अनुष्णस्पर्श हि तेजोलोके प्रकाशशब्देन व्यवहियते तेन तथा रूपको हि प्रश्नः। अनाद्यनन्तं जगतः स्थितिरिति जानतः शिष्यस्य तथा प्रश्न इति। तथा 'कइ सरिया तवइंसु' कति क्रियत्संख्मकाः सूर्या ताशिलवन्तः अतीत ाले स्वात्मव्यतिरिक्त पदार्थ नातं स्वतापेन तापितवन्तः तेषु वस्तुषु तापं जनितान्त इत्यर्थः 'तवेंति' सापयंति तथा 'तविस्संति' ॥ सप्तमवक्षस्कार का प्रारम्भ ।। जम्बुद्वीप नामके डीप में ज्योतिष्क देय रहते हैं वे चर हैं इस अभिप्राय से सूत्रकार ज्योतिषकाधिकार का प्रतिपादन करते हैं। इसमें सर्वप्रथम वे प्रस्तावना के निमित्त चन्द्र सूर्य, नक्षत्र महाग्रह और तारा इनकी संख्या के विषय का प्रश्नोत्तररूप सूत्र कहते हैं-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे कइ चंदा पभासिंसु पभासंति' इत्यादि टीकार्थ-इस सूत्रद्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जम्बूद्दीवेणं भंते! दीवे कई चंदा भासिनु पभासंति पभासिस्संति' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके मध्यद्वीप में कितने चन्द्र पहिले भूत काल में उद्योत देनेवाले हुए हैं ? वर्तमानकाल में कितने चन्द्रमा उद्योत देते हैं ? और भविष्यकाल में कितने चन्द्र उद्योत देगें ? इसी तरह 'कइ सूरिया तवइंसु, तवेति तविस्संति' कितने सूर्य भूतकाल में आतप प्रदान करने वाले हुए हैं ? वर्तमान में कितने સમયવક્ષસ્કાર ને પ્રારંભ જંબુદ્વીપ નામક દ્વિીપમાં તિષ્ક દે રહે છે. તેઓ ચર છે. આ અભિપ્રાયથી સૂત્રકાર તિષ્ઠાધિકારનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેઓશ્રી આમાં સર્વપ્રથમ પ્રસ્તાવના નિમિત્તે ચન્દ્ર, સૂર્ય, નક્ષત્ર, મહાગ્રહ અને તારા એ સર્વની સંખ્યા-વિષયક પ્રશ્નોત્તર રૂપસૂત્ર કહે છે 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे कइ चंदा पभासिंसु पभासंति' इत्यादि At-20 सूत्र 43 गौतमस्वामी प्रभुन त प्रश्न ये छ है जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे कइचंदा पभासिसु पभासंति पभासिस्संति' त ! माझी५ नाम मध्य દ્વીપમાં કેટલા ચંદ્રો પહેલાં ભૂતકાળમાં ઉદ્યોત આપનારા થયા છે ! વર્તમાનકાળમાં કેટલા ચન્દ્રમાઓ ઉદ્યોત આપે છે અને ભવિષ્યનું કાલમાં કેટલા ચન્દ્રો ઉદ્યોત આપશે ? આ प्रमाणे 'कइसूरिया तवइंसु, तवें ति तविरसंति' मा सूर्या भूतमा मतपमहान ४२ना। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १ चन्द्रसूर्यादिग्रहविशेषानां संख्यानिरूपणम् । अनागतकाले तापयिष्यन्ति, यथा वर्तमानकाळे तापयन्नि, तथा अनागतकाले पि स्वात्मव्य तिरिक्तपदार्थ नातं स्वतापेन तापयिष्यन्ति, आपनाम कोदयात् सूर्यमण्डलानो तापकत्वं भवति उष्णस्पर्शी हि प्रास्तापशब्देश लोके व्यवाहियते इति । तथा 'केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु कियन्ति कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि अश्विनी भरणीकृतकाप्रभृतिकानि योगं युञ्जन्ति अतीतकाले, तत्र योगो नाम स्यं नियतमण्डलचस्मशीलत्वेपि अनियतानेकमण्डलसंचरिष्णुभिः स्वकीय मण्मागतै ग्रहैः सह संवन्धविशेषः तादृशं योगमतीतकाले नक्षत्राणि संपादितवंति तथा 'जोगं जोयंति' योग संबंधविशेपं वर्तमानकाले युञ्जति प्राप्नुवति तथा 'जोगं जोइरसंति' तथा अनागतकाले योग संबन्धविशेष नक्षत्राणि योयन्ति प्राप्स्यन्ति । तथा 'केवहया महागहा चारं चरितु' वियन्तः क्रियाय का सहामाकादयः चारं मण्डलक्षेत्रपरिभ्रमणलक्षणमतीतकालेऽचरत् अनुभूतन्तः तथा 'चार वरंति' वर्तमानकाले ते भौमादयो महाग्रहाः चारं मण्डलक्षेत्रपरिभ्रमणलक्षणं चरति, 'चरिस्पति चरिष्यंति भौमादयो महाग्रहाः अनागतकाले मण्डलारिभ्रमणलक्षणं चारं चरिष्यन्त्यनुभविष्यन्ति किम् । सूर्य आतप प्रदान करते हैं ? और भविष्यत् काल में कितने सूर्य आतप देंगे? 'केवइया नक्खत्ता जोगं जोइंसु जोअंति, जोइस्संति' कितने नक्षत्रों ने अश्विनी भरिणी कृत्तिका आदि नक्षत्रों ने-योग सम्बन्ध विशेष प्राप्त किया हैस्वयं नियत मंडल चरणशीलता होने पर भी अनियत अनेक मंडलों पर चलने के स्वभाव वाले ऐसे अपने मंडल पर आगत ग्रहों के साथ उन्हों ने सम्बन्ध विशेष रूप योग को अतीतकाल में प्राप्त किया है। वर्तमान में ऐसे योगको कितने नक्षत्र प्राप्त करते हैं ? और भविष्यकाल में ऐसे योगको कितने नक्षत्र प्राप्त करेंगे ? 'केवइया महरमहा चारं चरिंसु' तथा-कितने महाग्रहों ने-मंगल आदि महाग्रहाने-मण्डलक्षेत्र पर परिभ्रममा रूप चारको अतीतकाल में आचारित किया है ? वर्तमानकाल में कितने महाग्रह चार का आचरण करते हैं ? जौर भविष्यत् काल में कितने महाग्रह चार का आचरण करेंगे ? यद्यपि समस्त થયા છે? વર્તમાનકાળમાં કેટલા સૂર્યો આપપ્રદાન કરે છે? અને ભવિષ્યકાળમાં કેટલા सूर्या मात५हान ४२शे ? 'केवइया नक्खत्ता जोगं जोइंसु जोअंति, जोइस्संति' हैं। નક્ષત્રોએ અશ્વિની, ભરિણું કૃત્તિકા વગેરે નક્ષત્ર–ગ સંબંધ–વિશેષ પ્રાપ્ત કરેલ છે ? સ્વયં નિયત મંડળચરણે શીલતા હોવા છતાંએ અનિયત અનેક મંડેલે ઉપર ચાલવાના સ્વભાવવાળા એવા પિતાના મંડળ ઉપર આવેલા ગ્રહોની સાથે તેમણે સંબંધ વિશેષ રૂપ ગને અતીતકાળમાં પ્રાપ્ત કર્યો છે? વર્તમાનકાળમાં એવા યુગને કેટલા નક્ષત્રે પ્રાપ્ત ४॥ २६॥ छ ? भने भविष्यत् सभा का योगना नक्षत्री पास ४२शे ? 'केवइया महग्गहा चारं चरिंसु' तमस डेटा मा - कोरे महाय-31 क्षेत्र ५२ પરિભ્રમણ રૂપ ચારને અતીતકાળમાં આચરિત કરેલ છે? વર્તમાનકાળમાં કેટલા મહાગ્રહ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यद्यपि सर्वेषां ज्योतिष्कदेवानां समयक्षेत्रवर्तिनां गतिश्चारशब्देन कथ्यते तत्कथम् महाग्रहगतेरेवात्र चारशब्देन व्यपदेशः कृतः तथापि धन्य विशेष व्यपदेशभावेन वक्रातिचारे स्वाभाविति विशेषैर्गतिमत्वाच्चैतेषां महाग्रहाणामेव सामान्यसन्देन प्रश्नो युज्यते एवेति । तथा 'hatar तारागणकोडीकोडीओ सोमिलु' किपत्यः कियत्संख्यास्तारागणकोटिhtcutsatara शोभितवत्यः शोभमाना अभवन्नित्यर्थः 'सोमंति' शोभन्ते वर्तमानकाले शोभां प्राप्नुवन्ति 'सोमिस्संति' शोभिणन्तेऽनागतकाले दीप्यमानता लक्षण शोभां धारfeosन्ति, यद्यपीमास्ताशः चन्द्रा प्रकाशिकास्त पिकावा न भवंद शुक्लपक्षे नाममात्रेण प्रतिभासमानत्वात् तथापि भास्वलमात्रेण प्रकाशमानत्वादित्यं प्रश्न कि यद्यपि विक ज्योतिष्क देवों की जो की समय क्षेत्र के भीतर ही चलते फिरते हैं गति को चार शब्द से कहा गया है तो फिर यहाँ पर महाग्रहों की गति को ही चार शब्द से क्यों कहा ? तो इसका उत्तर ऐसा है कि इनकी गति के सम्बन्ध में अन्य शब्द द्वारा विशेष व्यपदेश हुआ नहीं हैं तथा इसकी जो गति है वह स्वभावतः वन्द है इसलिये इनको गति में ही सामान्यतः चार शब्द का प्रयोग किया गया है और इसी शब्द को लेकर प्रश्न और उसका उत्तर दिया गया है तथा - 'केवइया तारागणको डाकोडीओ सोभिस सोमंति सोभिस्संति' कितने तारागणों की कोटाकोटी अतीतकाल में शोभित हुई है वर्तमान में वह कितनी शोभित होती है ? और भविष्यत्काल में वह कितनी शोभित होगी ? चन्द्रमण्डल का जो प्रकाश है उसका नाम उद्योत है उद्योत नाम कर्म का उदय चन्द्र मण्डल गत जीवों के होता है यह अनुष्ण स्पर्श वाला होता है आराम कर्म के उदय से सूर्य मण्डल गत जीवों के आतप होता है और यह उष्ण स्पर्श ચારનુ આચરણ કરે છે? અને ભવિષ્યકાળમાં કેટલા મહાગ્રડા ચારતું આચરણ કરશે ? જોકે સમસ્ત જન્મ્યાતિષ્ઠ દેવેી-કે જે સમય ક્ષેત્રની અંદર જ પરિભ્રમણ કરે છે-ગ તેને ‘ચાર' શબ્દ વડે અભિહિત કરવામાં આવી છે. તે પછી અહી શા કારણથી મહાગ્રહોની ગતિને જ ચાર' શબ્દ વડે અભિહિત કરવામાં આવી છે ? તે આના જવાબ આ પ્રમાણે છે કે એમની ગતિના સબંધમાં અન્ય શબ્દે વડે વિશેષ વ્યપદેશ થયેલે નથી તેમજ એમની જે ગતિ છે તે સ્વભાવતઃ વાખ્ત છે. એથી એમની ગતિમાં જ સામાન્યતઃ ચાર શબ્દના પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે, અને એ જ શબ્દને લઈને પ્રશ્ન અને તેને જવાખ आपवामां आवे छे तेभन 'केत्रइया तारागण को डाकोडीओ सोभिसु सोभंति संभिस्संति' કેટલા તારાગણેાની કાટાકાટી અતીતકાલમાં શેભિત થઈ છે? વર્તમાનકાળમાં તે કેટલી શોભિત થઈ રહી છે ? અને ભવિષ્યત્કાળમાં તે કેટલી શેર્ભિત થશે ? ચંદ્રમંડળના જે પ્રકાશ છે તેનું નામ ઉદ્યોત છે. ઉદ્યોત નામકર્માંના ઉદય ચન્દ્રમડળ ગત જીવાને થાય છે. એ અનુષ્ણુ સ્પર્શીવાળા હાય છે. આતપનામકર્મના ઉદયથી સૂર્યંમડળ ગત જીવાને Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १ चन्द्रसूर्या दिग्रह विशेषानां संख्यानिरूपणम् ५ लार्य को वा शब्दो दृश्यते तथापि अनुत्तोपि वा शब्दो विकल्पप्रतिपादनाथ प्रतिप्रश्नं ज्ञातव्य एवेति प्रश्नः। भगवान प्राह-गोय भेत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो चंदा पभासिसु पभासंति पभासिस्संति' जम्बूद्वीपनामके द्वीपे द्वौ चन्द्रौ अतीतकाले प्रभासित. वन्तौ प्रकाशात्मककार्य कृतबन्ती तथा वर्तमानकाले जंबूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासयतः प्रकाशकार्य कुरुतस्तथाऽनागत झालेऽपि जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रकाशयिष्यतः जम्बूद्वीपक्षेत्रमिति, जम्बूद्वीपक्षेत्रे सूर्यद्वयाक्रान्ताभ्यां दिग्भ्यामन्यत्र दिद्वये द्वाभ्यां चन्द्राभ्यां प्रकाश्यमानत्वात् यदा सूर्योऽस्तमेति एकत्र भागे तदा तदपरभागे सूर्यउदेति-तदतिरिक्तदिग्द्वये चन्द्रयोः प्रकाशनात् । 'दो सूरिया तबइंसु तवेंति तविस्तति' हे गौतम ! जम्बूद्वीपेऽतीतकाले द्वौ सूयौँ जम्बूद्वीपक्षेत्रं तापितवन्तौ स्वात्मव्यतिरिक्त वस्तुनि तापं जनितवन्तौ तथा द्वौ सूर्यो वर्तमानकाले जम्बूद्वीपक्षेत्रम् तापयतः स्वात्मव्यतिरिक्त वस्तुनि तापं जनयतः तथा अनागत कालेषि द्वौ यौँ जम्बूद्वीपक्षेत्रम् तापयिष्यतः स्यात्मव्यतिरिक्त वस्तुनि तापं करिष्यत एवं चन्द्रद्वयाक्रान्ताभ्याम् दिग्भ्यापन्यत्र शेषयोहिशोः सूर्याभ्यां तापप्रमाणत्वात् । वाला होता है इन प्रश्नवाचक सूत्रों में विकल्पार्थक वा शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है तब भी अप्रयुक्त हुए उस विकल्पार्थक वा शब्द का प्रयोग यहां पर हुआ समझलेना चाहिये इन सय प्रश्नों के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जोयमा ! दो चंदा पभासिसु पभासंति, पभासिस्संति' हे गौतम ! जम्बूदीप नामके इस मध्य द्वीप में ! पूर्व काल में दो चन्द्रमाओं ने प्रकाश दिया है अब भी वे प्रकाश देते हैं और भविष्यकाल में भी वे प्रकाश देंगे क्योंकि जम्बूद्वीप क्षेत्र में सूर्यद्वय से आक्रान्त दो दिशाओं से भिन्न दिगद्वय में दो चन्द्र प्रकाशित होते हैं। जब एक भाग में सूर्य अस्त होता है तब उसके दूसरे भाग में सूर्य उदित होता है इनसे अतिरिक्त दिगदय में दो चन्द्रमाओं का प्रकाश होता है इसी तरह इस जम्बूद्वीप में अतीत काल में दो सूर्यों ने ताप प्रदान किया है, वर्तमान में भी આપ હોય છે અને આ ઉષ્ણ સ્પર્શવાળ હોય છે. આ પ્રવાચક સૂત્રમાં વિકલ્પક વા શબ્દ પ્રયુક્ત થયેલ નથી. છતાં એ અપ્રયુક્ત થયેલા તે વિકલયાર્થક “વા શબ્દને પ્રાગ અહીં થયેલો છે એવું સમજી લેવું જોઈએ. આ બધા પ્રશ્નોના જવાબમાં પ્રભુ ४. छे. 'गोयमा ! दो चंदा पभासिसु पभासंति, पभासिस्संति' गौतम ! भूदीय नाम આ મધ્ય દ્વીપમાં પૂર્વકાળમાં બે ચન્દ્રમાઓએ પ્રકાશ આપે છે. અત્યારે પણ તેઓ પ્રકાશ આપી રહ્યા છે અને ભવિષ્યકાળમાં પણ પ્રકાશ આપશે કેમકે જંબુદ્વિીપ ક્ષેત્રમાં સૂર્યદ્વયથી આક્રાન્ત બે દિશાઓથી ભિત-ભિન્ન દિયમાં બે ચન્દ્ર પ્રકાશિત થાય છે. જ્યારે એક ભાગમાં સૂર્ય અસ્ત થાય છે ત્યારે તેના બીજા ભાગમાં સૂર્ય ઉદય પામે છે, એના સિવાય ઉગઢયમાં બે ચન્દ્રમાં પ્રકાશ થાય છે. આ પ્રમાણે આ જંબૂઢોપમાં અતીતકાળમાં બે સૂર્યોએ તાપ પ્રદાન કર્યું છે. વર્તમાનમાં પણ એટલા જ સૂર્યો તાપ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रचप्तिसूत्र 'छप्पण्णं णवत्ता जोगं जोइंसु जोयंति जोइस्संति' षट् पंचाशनक्षत्राणि योगं युक्तवन्ति योगं युञ्जन्ति योगं योक्ष्यति हे गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपेऽतीतकाले षट् पंचाशनक्षत्राणि योगं युक्तवंति योगं निजमण्डलमागतैग्रहैः सह संबन्धं युक्तर्वति प्राप्तवंति, वर्तमानकाले योगं नक्षत्राणि युञ्जन्ति प्राप्नुवन्ति तथाऽनागतकाले षट् पंचाशनक्षत्राणि योगं निजमण्डलक्षेत्रमागतैहैःसंबन्धं यौक्ष्यंति प्राप्स्यति एकैकस्य चन्द्रस्य प्रत्येक मष्टाविंशतिनक्षत्रपरिवारस्य सद्भावेन चन्द्रद्वयस्य परिवारसंकलनया षट् पंचाशनक्षत्राणि भवंतीति । 'छावत्तरं महग्गहसयं चारं चरिसु चरंति चरिस्संति' हे गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे षट्सप्ततं षट्सप्तत्युत्तरम् महाग्रहशतम् एकैकस्य चन्द्रस्य प्रत्येकमष्टाधिकाशी तेहाणं परिवारभावात् चारं मण्डलपरिभ्रमणलक्षणं चरितवत् अतीतकाले, तथा वर्तमानकालेपि षटसप्तत्यधिक महाग्रह शतं जंबूद्वीपे चरति तथाऽनागतकाले जंबूद्वीपे षट्सप्तत्यधिक महाग्रहशतं चारं चरिष्यतीति । फियत्यस्तारागण कोर्टिकोटय इति प्रश्नस्योत्तरं पद्येनाह-'एगं च सयेत्यादि-तारागणकोडिकोडीणं' तारागणकोटि इतने ही सूर्य ताप देते हैं और भविष्यकाल में भी इतने ही सूर्य यहां ताप देते रहेंगे। इस तरह चन्द्रद्वय से आक्रान्त दो दिशाओं से अतिरिक्त शेष दो दिशाओं में दो सूर्यो द्वारा ताप मिला करता है. 'छप्पण्णं णक्खत्ता जोगं जोइंसु जोअंति, जोइस्तंति' ५६-नक्षत्रों ने यहां पूर्वे काल में योग प्राप्त किया है वर्तमान में इतने ही नक्षत्र यहां योग प्राप्त करते हैं और भविष्यत् काल में इतने ही नक्षत्र यहां योग प्राप्त करेगे ५६ नक्षत्र यहां इसलिये कहे गये हैं कि एक एक चन्द्र मण्डल के २८-२८ नक्षत्र होते हैं-'छावत्तरं महग्गहसयं चारं चरिंसु, चरंति, चरिस्संति' इसी तरह १७६ महाग्रहों ने यहां पर पूर्व काल में चाल चली है वर्तमान में भी वे इतने ही संख्या में यहां चाल चलते रहेते हैं और आगामि काल में भी वे इतनी ही संख्या में चाल चलते रहेंगे 'एगंच सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साइंणव य सया पण्णासा तारागण कोडि कोडीणं' १३३९५० આપી રહ્યા છે અને ભવિષ્યત્કાળમાં પણ એટલા જ સૂર્યો અહીં તાપ આપશે આ પ્રમાણે ચન્દ્રદયથી આક્રાન્ત બે દિશાઓ શિવાય શેષ બે દિશાઓમાંથી બે સૂર્યો દ્વારા ता५ भगत। २ छ. 'छप्पणं णक्खत्ता जोगं जोइंसु जोअंति, जोइस्संति' ५६ नक्षत्रीय અહીં પૂર્વકાળમાં રોગ પ્રાપ્ત કરેલ છે, વર્તમાનકાળમાં એટલા જ નક્ષત્ર અહીં વેગ પ્રાપ્ત કરે છે અને ભવિષ્યકાળમાં એટલા જ નક્ષત્રે અહીં એગ પ્રાપ્ત કરશે. પદ નક્ષત્ર અહી એટલા માટે કહેવામાં આવેલા છે કે એક-એક ચંન્દ્રમંડળના ૨૮–૨૮ નક્ષત્રે હેય छ. छावत्तरं महग्गल्सयं चारं चारिंसु, चरति चरिस्संति' 21 प्रमाणे १७६ महायडाये અહીં પૂર્વકાળમાં ગતિ કરી છે, વર્તમાનમાં પણ તેઓ આટલી જ સંખ્યામાં ગતિ કરે છે, भने मागभी मां पते। माक्षी सध्यामा गति ४२ता २२. 'एगंच सयसइस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई णव य सया पण्गासा तारागणकोडि कोडीणं' १३३६५० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. १ चन्द्रसूर्यादिग्रहविशेषानां संख्यानिरूपणम् कोटीनाम् 'एगं च सय सहस्सं' एकं च शतसहस्रम् लक्षैकमित्यर्थः, ' तेत्तीसं खलु हवे सहरसाई' त्रयस्त्रिंशत् खलु - सहस्राणि भवन्ति, 'णव य सया' नवशतानि पण्णासा' पंचाशानि पंचाशदधिकानि १३३९५० एतावत् संख्यकास्तारागण कोटि कोटयः जम्बूद्वीपेऽतीतकाले शोभितवत्यस्तथा वर्तमानकाले शोभन्ते तथाऽनागतका लेपि एतावत्य एव शोभमाना भविव्यन्ति प्रतिचन्द्रं तारागण कोटिकोटीनां षट्षष्टिसहस्र नवशताधिक पंचसप्ततेर्लभ्यमानत्वात् चन्द्रद्रयसंबन्धितारागण कोटिकोटीनां संकलने १३३९५० पञ्चाशदधिकनवशोत्तरत्रयस्त्रि शत्सहस्राधिकं लक्ष्यम् एतावती संख्या लभ्यते इति ।। ० १ ॥ ननु प्रथमोद्दिष्टमपि चन्द्रमुपेक्ष्याधिकवक्तव्यत्वात् प्रथमं सूर्यप्ररूणां वक्तुमाह-तत्रैतानि पंचदशानुयोगद्वाराणि भवन्ति, मण्डल संख्या १ मण्डलक्षेत्रम् २ मण्डलान्तरम् ३ बिंबायामविष्कंभादि ४ मेरुमण्डक्षेत्रयोरबाधा ५ मंडलायामादिवृद्धिहानिः ६ मुहूर्त्तगतिः ७ दिनरात्रिवृद्धिहानिः ८ ताप क्षेत्र संस्थानादि ९ दूरासन्नादिदर्शने लोक प्रतीत्युपपत्तिः १० चारक्षेत्रेऽतीतारागणों की कोटाकोटी ने पूर्वकाल में यहां पर शोभा की है, वर्तमान में भी वे इतनी ही संख्या में शोभित हो रहे हैं और आगे भी वे इतनी ही संख्या में शोभित होगें एक एक चन्द्र मण्डल के परिवार में ६६९७५ तारागणों की कोटा कोटी है इसलिये दोनों चन्द्र मण्डल के परिवार में इन तारागणों का परिवार पूर्वोक्त संख्या की कोटाकोटी रूप में आता है ॥१॥ अब सूत्रकार प्रथमोदिष्ट चन्द्र मण्डल के सम्बन्ध में कथन की अपेक्षा करके सूर्य मण्डल की वक्तव्यता अधिक होने के कारण वे उसकी वक्तव्यता के सम्बन्ध में १५ अनुयोग द्वारों का कथन करते हैं वे १५ अनुयोग द्वार इस प्रकार से हैं१ मण्डल संख्या २, मण्डलक्षेत्र, ३, मण्डलान्तर, ४, विद्यायाम, ५, विष्कंभ्भादि, दो मेरु मण्डल क्षेत्रों की अबाधा ६, मण्डलायामादि वृद्धि, हानि, ७, मुहूर्त गति ८, दिनरात वृद्धि हानि, ९, ताप क्षेत्र संस्थानादि, १०, दूरासन्नादि दर्शन में लोक તારાગણે!ની કટાકેટીએ પૂ^કાળમાં અહીં શૈભા કરી છે, વમાનમાં પણ તે આટલી જ સ`ખ્યામાં શેભિત થઈ રહ્યા છે અને ભવિષ્યમાં પણ તેએ આટલી જ સંખ્યામાં શેભિત થશે. એક-એક ચંદ્રમંડળના પરિવારમાં ૬૬૯૭૫ તારાગણાની કાટાકૈટી છે. એથી બન્ને ચન્દ્રમ'ડળના પરિવારમાં એ તારાગણેાની પૂર્વોક્ત પરિવાર સખ્યા ફાટાકેાટી રૂપમાં આવી જ જાય છે. ાસૂત્ર-શા હવે સૂત્રકાર પ્રથમેાષ્ટિ ચન્દ્રમડળના સ ́દર્ભમાં કથન પેશયા સૂર્ય મંડળની વક્તવ્યતા અધિક હાવાને લીધે તેઓશ્રી તેની વક્તવ્યતાના સંદર્ભીમાં ૧૫ અનુયાગ દ્વારાનુ કથન કરે છે. તે ૧૫ અનુયાગ દ્વારા આ પ્રમાણે છે—૧ મંડળ સંખ્યા, ૨-મંડળ ક્ષેત્ર, 3 भयान्त२, ४ भिजायाम, य विष्लाहि मे भेरुभ क्षेत्रोनी समाधा, भंडायाभाद्वि वृद्धि हानि, ७ भुर्तगति, ८ हिवस-रात्र वृद्धि-हानि, द तायक्षेत्र संस्थानाहि, १० . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र तादि प्रश्नः ११ तत्रैव क्रियाप्रश्नः १२ ऊर्धादि दिक्षु प्रकाशयोजनसंख्या १३ मनुष्य क्षेत्रपतिज्योतिष्कस्वरूपं १४ इन्द्राधभावे स्थितिप्रकल्पः १५ । तत्रमंडलसंख्यायां प्रथमं सूत्रम् मूलम्-कइ णं भंते ! सूरमंडला पण्णत्ता गोयमा ! एगे चउरासीए मंडलसए पपणत्ते इति । जंबूदीवेगं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहित्ता केवइया सूरमंडला पण्णत्ता गोयमा ! जंबूदीवे दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता एस्थ णं पण्णट्टी सूरमंडला पण्णत्ता। लवणेणं भंते ! समुद्दे केवइयं ओगाहित्ता केवइया सूरमंडला पणत्ता, गोयमा ! लवणे समुद्दे तिणितीसे जोयणसए ओगाहित्ता एत्थणं एगूणवीसे सूरमंडलसए पण्णत्ते, एवमेव सयुव्वावरेण जंबूदीचे दीवे लवणे य समुद्दे एगे चुलसीए सूरमंडलसए भवंतोति मक्खायं । सव्वाभंतराओ णं भंते ! सूरमंडलाओ केवइयाए अबाहाए सव्वबाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते? गोषमा! पंचदसुत्तरे जोयणसए सव्वबाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते । सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडलस्स य केवइयं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते, गोयमा ! दो जोयणाई अबाहाए अंतरे पणत्ते ३। सूरमंडलेणं भंते केवइयं आया. मविश्वंभेणं केवइयं परिवखेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा! अडयालीसं एगसटिभाए जोयणस्स आयामरिक्वंभेणं तं तिगु सविसेसं परिक्खेवेणं चउरीसं एगसटिभाए बाहल्लेणं पण्णत्ते ॥सू० २॥ छाया-कति खलु भदन्त ! सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! एकं चतुरशीतं सूर्यमण्डलशतं प्रज्ञप्तमिति जम्बूद्वीपे खलु भदन्त द्वीपे कियन्तमवगाह्य कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि प्रतीति की उपपत्ति, ११ चार क्षेत्र के सम्बन्ध में अतीतादिका प्रश्न, १२ वहीं पर क्रिया का प्रश्न, १३ उर्धादि दिशाओं में प्रकाश योजन संख्या, १४ मनुष्य क्षेत्रवर्ती ज्योतिष्क स्वरूप, १५ इन्द्राद्यभाव में स्थिति प्रकल्प, मण्डल संख्या की वक्तव्यता में प्रथम सूत्र । 'कह गं भंते ! सूरमंडला पण्णत्ता' इत्यादि દરાસાદિ દર્શનમાં લેકપ્રતીતિ ની ઉપપત્તિ, ચાર ક્ષેત્ર, ના સંબંધમાં અતીતાદિથી સંબદ્ધ પ્રશ્ન, ૧૨ તે સ્થળે જ ક્રિયા વિષે પ્રશ્ન, ૧૩ ઉર્વાદિ દિશાઓમાં પ્રકાશ જન સંખ્યા, ૧૪ મનુષ્ય ક્ષેત્રવતી જ્યોતિક સ્વરૂપ ૧૫, ઈન્દ્રાધભાવમાં સ્થિતિ પ્રક૯૫. म सध्यानी १४तथ्यतामा प्रथम सूत्र-'कइणं भंते ! सूरमंडला पण्णत्ता' इत्यादि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका का-सप्तमवक्षस्कार सू. २ सूर्यमण्डलनिरूपणम् गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतं योजनशतमगाह्यात्र खलु पंनषष्ठिः सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि । लपणे खलु भदन्त समुद्रे कियन्तमवगाह्य कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! लवणे समुद्रे त्रीणि त्रिंशत् योजनशतान्यवगाह्यात्र खलु एकोनविंशतितमंसूर्यमण्डलशतं प्रज्ञप्तम्, एव. मेव सपूर्वापरेण जंबुद्वीपे द्वीपे लवणे च समुद्रे एकं चतुरशीतं सूर्यमण्डलशतं भवतीत्याख्यातम् । सर्वाभ्यन्तरात् खलु भदन्त सूर्यमण्डलात् कियत्या अबाधया सर्वबाह्यं सूर्यमण्डलं प्रज्ञ. प्सम गौतम ! पंचदशोत्तरं योजनशतमबाधया सर्वबाह्य मूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् । सूर्यमण्डलस्य खलु भदन्त सूर्यमण्डलस्य च कियदबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् , गौतम ! द्वे योजने अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । सूर्य मण्डलं खलु भदन्त कियदायामविष्कंभेन कियत्परिक्षेपेण कियद्वाहल्येन प्रज्ञप्तम्, गौतम ! अष्टचत्वारिंशत् एकषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कंभाभ्याम् तत्त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन प्रज्ञप्तमिति ॥ सू० २॥ टीका-पत्र चत्वारि द्वाराणि प्रथमं मंडलं द्वारम्, द्वितीयमंतरालद्वारं, तृतीयमायामविष्कभं, चतुर्थ वाइल्यद्वारम् । 'कडणं भंते' इत्यादि, 'कइणं भंते ! सूरमंडला पण्णत्ता' कति कियत्संख्यकानि खलु भदन्त ! सूर्यस्य मण्डलानि प्रज्ञप्तानि कथितानि, तत्र मण्डलनाम दक्षिणायनमुत्तरायणं कुर्वतो द्वयोः सूर्ययोः स्वप्रमाण चक्रवालविष्कम्भं प्रतिदिनं भ्रमिक्षेत्र स्वरूपमेव मण्डलत्वकथनं तु मंडलसदृशत्वादेषाम् नतु वस्तुतो मण्डलत्वम् यतो मंडल प्रथमक्षणे यत्क्षेत्र व्याप्तं तन्समश्रेण्येव यदि पुरः क्षेत्र व्याप्नुयात् वास्तविकीमण्डलता स्यात् एवं सति पूर्वमंडलापेक्षया यदुत्तरमंडलस्य योजनद्वयमन्तरं प्रतिपादयिष्यति तत् न टीकार्थ-गौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-'कडणं भंते ! सूरमंण्डला पण्णत्ता' हे भदन्त ! सूर्य मण्डल कितने कहे गये हैं ? दक्षिणायन और उत्तरायण करने वाले दो सूर्यो का प्रतिदिन का जो भ्रमिक्षेत्र स्वरूप स्वप्रमाण चक्रवाल विष्कम्भ है वहीं मण्डल शब्द से कहा गया है इस भ्रमिक्षेत्र को जो मण्डल शब्द से कहा गया है उसका कारण इस क्षेत्र का मण्डल के जैसा होना है वास्तव में यहां मण्डलता नही है क्योंकि मण्डल के प्रथम क्षण में जो क्षेत्र व्याप्त होता है वह यदि समश्रेणि में होता हुआ आगे के क्षेत्र को वह व्याप्त करता है तो वास्तविक रूप से मण्डलता उसमें आसकती है इस तरह की मण्डलता उसमें आने पर पूर्व मण्डल की अपेक्षा जो उत्तरमण्डलका योजन -गोलभे ॥ सूत्र ५ प्रमुने तना प्रश्न ध्या छ ? 'कइणं भंते ! सूरमंडला पण्णत्ता' 3 मत ! सूर्य भयो । ४ामा मासा छ ? ६क्षिणायन अन ઉત્તરાયણ કરનારા બે સૂર્યોનું પ્રતિપાદનનું જે ભ્રમિક્ષેત્ર સ્વરૂપ સ્વપ્રમાણુ ચક્રવાસ વિઝંભ છે તેજ મંડળ શબ્દથી કહેવામાં આવેલ છે. આનું કારણ આ ક્ષેત્રનું મંડલવત્ થવું છે. ખરેખર અહીં મંડળતા નથી કેમકે મંડળના પ્રથમ ક્ષપામાં જે ક્ષેત્ર વ્યાપ્ત થાય છે જે તે સમશ્રેણિમાં થઈને આગળના ક્ષેત્રને વ્યાપ્ત કરે છે, તે વારતવિક ૬૫માં તેમ ज० २ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्मूदीपप्रतिसे स्यात् प्रतिपादयिष्यति च योजनद्वयमन्तर मतो मण्डलसदृशत्वमेव न तु वस्तुतो मण्डलस्वमिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमेत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे चउरासीए मंडलसर पण्णत्ते' एक चतुरशीतं मण्डलशतं प्रज्ञप्तं कथितम्, चतुरशीत्यधिकमेकं शतं सूर्यमण्डल भवति । कथमेतद्भवतीति तत् अन्तरद्वारे स्वयमेव दर्शयिष्यति । अथैतान्येव मण्डमनि क्षेत्रविभागपूर्वकं द्विधा विभज्योक्त संख्या पुनरपि प्रकाशयन् आह-'जंबू हीवे' इत्यादि, "जंबूद्दीवेणं भंते ! दीवे' हे भदन्त जम्बूद्वीपनामके द्वीपे 'केवइयं ओगाहित्ता' कियन्तं कियसंख्यकं कियत्प्रमाणकं क्षेत्र स्थानमवगाह्यावगाहनं कृत्वा केवइया सूरमंडला पण्णत्ता' कियन्ति कियत्संख्यकानि सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ऋथितानीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमे' त्यादि, 'मयोमा' हे गौतम ! 'जंबूद्दीवेणं दीवे' जम्बूद्वीपे खल द्वीपे मध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता' अशीतं योजनशतम अशीत्यधिकं योजनानां शतमवगाह्य ‘एत्थ णं व्य का अन्तर प्रतिपादित होनेवाला है फिर वह नहीं बन सकेगा इसलिये मण्डल के जैसा ही यहां मण्डल कहा गया जानना चाहिये वास्तविक रूपमें मण्डलता नहीं जाननी चाहिये इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! एगे चउरसीए मंडलसए पण्णत्ते' हे गौतम ! १८४ सूर्यमण्डल कहे गये हैं ! यह कैसे होते है ? इस बातका कथन सूत्रकार अन्तर द्वार में स्वयं करने वाले हैं। अब इन्हीं मण्डलों को क्षेत्र विभागपूर्वक दो प्रकार से विभक्त करके उक्त संख्या के विषय में प्रश्न करते हुए गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'जंबूद्दीवे णं भंते ! दीये केवइयं ओगाहित्ता केवइया सूरमंडला पण्णत्ता' हे भदन्त ! जम्बू. द्वीप नामके द्वीप में कितने क्षेत्र को अवगाहित करके कितने सूर्यमंडल कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोषमा! जंबुद्दीवेणं दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता एत्थणं पण्णट्ठी सूरमंडला पण्णत्ता' हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामके મંડળતા આવી શકે છે. આ જાતની મંડળતા તેમાં આવવાથી પૂર્વમંડળની અપેક્ષાએ જે ઉત્તરમંડળના પેજન દ્રયનું અંતર પ્રતિપાદિત થનાર છે તે પછી તે બનશે નહિ. એથી મંડળની જેમ જ અહીં મંડળ કહેવામાં આવ્યું છે. આમ જાણી લેવું જોઈએ. વાસ્તવિક ३५मा मसता तवी २४ ना. ये प्रश्नना २४ाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! एगे चउरसीए मंडलसए पण्णत्ते' 3 गौतम! १८४ सूर्य भ3.१ ४९वामा माया छे. सेवी રીતે સંભવી શકે તેમ છે? આ વાતનું કથન સૂત્રકાર અંતર કારમાં સ્વયમેવ કરનાર છે. હવે એજ મંડળને ક્ષેત્ર વિભાગ પૂર્વક બે પ્રકારથી વિભક્ત કરીને ઉક્ત સંખ્યાના सदमा प्रश्न ४२ता गौतमस्वामी प्रभुने सतना प्रश्न ४२ छ , 'जंबूद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइयं ओगा हित्ता केवइया सूरमंडला पण्णत्ता' हुमत ! यूझी५ नाम द्वीपमा टा ક્ષેત્રને અવગાહિત કરીને કેટલા સૂર્યમંડળ કહેવામાં આવેલા છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ ४. छ. 'गोयमा ! जंबूद्दीवेणं दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता एत्थ णं पण्णट्ठी सूरमंडला Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २ सूर्यमण्डलनिरूपणम् पण्णट्टी सूरमंडला पण्णत्ता' अत्र खलु अनान्तरे पंचषष्ठिः सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि कथितानीति । 'लवणे भंते समुद्दे' कवणे-खलु भदन्त समुद्रे 'केवइयं ओगाहित्ता' कियक्षेत्रमवगाह्य 'केवइया-सूर्यमंडला पण्णत्ता' कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमे त्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'लवणे समुद्दे तिण्णितीसे जोयणसए ओगाहित्ता' त्रीणि त्रिंशत् योजनशतानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि अष्टचत्वारिंशशदेकषष्ठि भागानवगाह्य 'एत्थ णं एगणवी से सूरमंडलसए पण्णत्ते' अत्र खलु अत्रान्तरे एकोनविशदधिकं सूर्यमण्डलशतं प्रज्ञप्तं कथितम् अत्रहि पंचषष्ठया सूर्यमण्डलैरेकोनशी त्यधिक योजनानां शतं नवचैकपष्ठिभागाः योजनस्थ पूर्यते जम्बूद्वीपे तु अवगाहक्षेत्रं चाशीत्यधिक योजनशतम् तेन अवशिष्टाः पञ्चाशद्भागाः षट्षष्टितमस्य सूर्यप्रण्डलस्य भवन्तीति ज्ञातव्याः। अत्र पञ्चष्ठि सूर्यमण्डलानां विषयविभागव्यस्थामयं खलु प्राचीनाचार्याणां संप्रदायः तथाहि मेरुपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि निषधमर्द्धन त्रिपष्ठिण्डलानि सन्ति, हरिवर्ष जीवाकोटयां द्वीप में १८० योजन क्षेत्र को अवगाहित करके आगतक्षेत्र में ६५ सूर्यमण्डल कहे गये है। 'लवणेणं भंते ! समुद्दे केवइयं ओगाहित्ता केवड्या सूरमंडला पण्णसा' हे भदन्त ! लवणसमुद्र में कितने क्षेत्र को अवमाहित करके कितने सूर्यमंडल कहे गये है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! लवणसमुद्दे तिणि तीसे जोयण सए ओगाहित्ता एत्थणं एगूणवीले सूरमंडलसए पण्णत्ते' हे गौतम ! लवणसमुद्र में आयोजन प्रमाण क्षेत्र को अवगाहित करके आगत स्थान में ११९ सूर्यमंडल कहे गये हैं। यहां ६५ सूर्यमंडलो द्वारा १७१. योजन पूरे हो जाते हैं परन्तु जम्बूद्वीप में अवगाह क्षेत्र १८० योजन प्रमाण है इससे अवशिष्ट जो पचास भाग हैं वे ६६ वें सूर्यमंडल के होते हैं। ऐसा जानना चाहिये यहां ६५ सूर्यमंडलों के विषय विभाग की व्यवस्था में ऐसा प्राचीन आचार्यों कामत है मेरुपर्वत की दक्षिणदिशा में निषध पर्वत के मस्तक पर ६३ मंडल है और हरिवर्ष Tomત્તા” હે ગૌતમ ! જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં ૧૮૦ જન ક્ષેત્રને અવગાહિત કરીને and Aत्रमा ६५ सूर्य भो ४ामां छे. 'लवणेणं भंते ! समुदे केवइयं ओगाहित्ता केवइया सूरमंडला पण्णत्ता' महत ! सपा समुद्रमा । क्षेत्रने माहितरीन सूर्य भो ४ामा मासा छ ? सेन पामा प्रभु ४९ छे-'गोयमा ! लवणसमुद्दे तिणि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता एत्थ णं एगूणवीसे सूरमंडलसए पण्णत्ते' गौतम! લવણસમુદ્રમાં ૨૪ જન પ્રમાણુ ક્ષેત્રને અવગાહિત કરીને આવેલા સ્થાનમાં ૧૧૯ સૂર્યમંડળે આવેલા છે. અહીં ૬૫ સૂર્યમંડળ દ્વારા ૧૭૯ જન પૂરા થઈ જાય છે, પણ જંબુદ્વીપમાં અવગાહ ક્ષેત્રમાં ૧૮૦ એજન પ્રમાણ છે. આથી અવશિષ્ટ જે પચાસ ભાગ છે તે ૬૬ માં સૂર્યમંડળને હોય છે એમ જાણવું જોઈએ. અહીં ૬૫ સૂર્યમંડગેના વિષય વિભાગની વ્યવસ્થામાં પ્રાચીન આચાર્યોને એ અભિપ્રાય છે કે મેરુપર્વતની Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रतिसूत्र च द्वे मण्डले, मेरोद्वितीयपार्श्वे नीलगत् पर्वतमूर्द्ध न त्रिषष्ठिः सूर्यमण्डलानि, रम्यकजीवाकोटयां च द्वे सूर्यमण्डले । सर्पसंख्यया यद्भवति तदर्शयितुमाह-एवा मेवेत्यादि 'एवामेव सपु. व्यावरण' एवमेव सपूर्वापरेण पञ्चषष्ठये कोनविंशत्यधिकशतमण्डलसंकलनेन 'जंबूद्दीवे दीवे लवणे य समुद्दे' जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणे च समुद्रे 'एगे तुळसी र सूरमंडळसए भवंतीति मक्खायंति' चतुरशीत्याधिकमेकं सूर्यमण्डलशतं भवतीति मया अन्यैश्वादिनाथ प्रभृतिभिस्तीर्थकरैश्चेति इति महावीरेण प्रतिपादितम् । इति द्वितीयमंडलद्वारम् । ___ अथ तृतीयं मंडलक्षेत्रद्वारमाह-सव्वेत्यादि, 'सव्वाभंतराओ गं भंते ! सरमंडलाओ' सर्वाभ्यंतरात् प्रथमात् खलु भदन्त ! सूर्यमंडलात् 'केवइयाए अबाहाए' मियत्यया अबाधया कियता अन्तरेण 'सव्वबाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते' सर्वबा ह्यं सर्वेभ्यः सूर्यमण्डलेभ्यः बाह्यं परं यतोऽनन्तरमेकमपि इत्यर्थः सूर्यण्डलं प्रज्ञप्तं कथितमितिप्रश्नः, भगवानाह-गोयमे' त्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचदमुत्तरे जोयणसए' पश्चदशोत्तरं योजनशतम् दशाधिकानि पश्च. की जीवा कोटि पर दो मंडल हैं मेरु के द्वितीय पार्श्व में नीलपर्वत की चोटी पर ६३ सूर्यमंडल हैं और रम्यक की जीवाकोटी पर दो सूर्यमण्डल है इस प्रकार जम्बूद्वीपगत सूर्यमंडल ६५ और लवणसमुद्रगत ११९ मंडल जोडने पर १८४ सूर्यमंडल हो जाते हैं। यही बात 'एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दोवे लवणे समुद्दे एगे चूलसीए सूरमंडलसए भवंतीति मक्खायं' इस सूत्रपाठ द्वारा कही गई है इस प्रकार से यह द्वितीय मण्डल द्वार है अब तीसरा जो मण्डल क्षेत्र द्वार है वह इस प्रकार से है-'सव्वाभंतराओ णं भंते ! सूरमंडलाओ केवइयाए अवाहाए सव्वबाहिरए सूरमण्डले पन्नत्ते' हे भदन्त ! सर्वाभ्यन्तर प्रथम सूर्यमण्डल से कितने अन्तर के बाद सर्व सूर्यमण्डलों से बाह्य सूर्यमण्डल कहा गया है ? जिस सूर्यमण्डल के बाद फिर कोई और दूसरा सूर्यमण्डल नहीं है एसा सूर्यमण्डल यहां बाह्य शब्द से लिया गया है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैंદક્ષિણદિશામાં નિષધ પર્વતના મસ્તક ઉપર ૬૩ મંડળે છે અને હરિવર્ષની જીવાકેટિ પર બે મંડળે છે. મેરુના દ્વિતીય પાશ્વમાં નીલપર્વતની ચાટી પર ૬૩ સૂર્યમંડળે છે અને રસ્યકની જીવાટી ઉપર બે સૂર્યમંડળે છે. આ પ્રમાણે જંબુદ્વીપગત સૂર્યમંડળ ૬૫ અને લવણસમુદ્રગત ૧૧૯ મંડળે જોડવાથી ૧૮૪ સૂર્યમંડળે થઈ જાય છે. એજ વાત 'एवामेव सपुव्वावरेण जंबुद्दीवे दीये लवणे समुदे एगे चूलसीए सूरमंडलसए भवंतीति मक्खाय' આ સૂત્રપાઠ વડે કહેવામાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે આ દ્વિતીય મંડળ દ્વાર છે. २ तृतीय क्षेत्र छेते २प्रमाणे छे. 'सव्वाभंतराओ णं भंते ! सूरमंडलाओ केवइयाए अबाहाए सव्ववाहिरिए सूरमंडले पन्नत्ते' 3 मत ! सालयत२ प्रथम सूम કહેવામાં આવેલ છે? જે સૂર્યમંડળ પછી કઈ બીજું સૂર્યમંડળ નથી. એવું સૂર્યમંડળ થી કેટલા અંતર પછી સૂર્યમંડળેથી બાહ્ય સૂર્યમંડળ અહીં બાહા શબ્દ વડે ગૃહીત Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कार: सू. २ सूर्यमण्डल निरूपणम् योजनशतानीत्यर्थ; 'अबाहाए सव्ववाहिरए सूरमंडलसए पण्णत्ते' अवाधया अन्तरालत्वाप्रतिबंधरूपया सर्वबाह्यं सर्वतः परं सूर्यमंडलं प्रज्ञप्तं कथितम् । अत्रसूत्रे अकथिता अष्टचत्वारिंशदेष्टिभागाः संग्राह्याः 'ससिरविणो लवणंमि य जोयणसयतिणितीस अहियाई' शशिर व्यो लवणेच योजनशतानि त्रीणि त्रिंशदधिकानीतिवचनात् अन्यथा यथोक्तसंख्यकानां मंडलानामनवकाशप्रसंगात्, कथमेवं भवतीति चेत् अत्रोच्यते - सर्वसंख्यया चतुरशीत्युत्तरं मण्डलशतम्, एकैकस्य च मण्डलस्य विष्कंभोऽष्टचत्वारिंश देकषष्टिभागाः योजनस्य भवन्ति, ततश्चतुरशीत्यधिकं शतम् - अष्टचत्वारिंशत संख्यया गुण्यते ततो भवन्ति अष्टाशीतिः शतानि द्वात्रिंशदधिकानि - एतेषां योजन प्रमाणकरणार्थमेक षष्ठ्या भागो ह्रियते हृते च चतुश्चत्वारिंशदधिकं योजनशतं १४४ लब्धं भवति अवशिष्टमवतिष्ठतेऽष्टचत्वारिंशत् चतुरशीत्यधिक शत'गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए सूरमंडलसए पन्नत्ते' हे गौतम ! ५१० योजन के अन्तर से सर्वबाह्य सूर्यमण्डल कहा गया है । इस सूत्र में नहीं कहे गये भाग योजन के ग्रहण करलेना चाहिये क्योंकि- 'ससिरविणो लवणम्मिय जोयणसयाई तिष्णि तीस अहियाई' लवणसमुद्र में ३३० योजन प्रमाण क्षेत्र को छोडकर' ऐसा आचार्यों का वचन है । यदि ऐसा न माना जाय तो यथोक्त संख्यावाले मंडलो का कथन साबित नहीं हो सकता है। तो फिर यह कथन साबित कैसे होता है ? यदि ऐसा पूछा जाय तो सुनो हम बताते हैं सूर्य के समस्त मंडल १८४ कहे गये हैं । इनमें एक एक मंडल का विष्कम्भ एक योजन के ६१ भाग करने पर ४८ भाग प्रमाण है । अब १८४ को ४८ से गुणा करने पर ८८३२ भाग होते हैं इनके योजन बनाने के लिये इनमें ६१ का भाग देने पर १४४ योजन आजाते हैं। बाँकी ४८ भाग बचते हैं । १८४ मंडलों के अन्तराल १८३ होते हैं । सर्वत्र अन्तराल १ कम होता है यह हमे थयेस छे. मेना भवानां प्रभु डे छे. 'गोयमा ! पंचदमुत्तरे जोयणसए अबाहाए बाहिरए सूरमंडलसए पन्नत्ते' हे गौतम! ५१० योजना अ ंतस्थी सर्व मा સૂર્ય મડળ કહેવામાં આવેલું છે. આ સૂત્રમાં અકથિત ભાગ ચાજન અત્રે ગ્રહણ કરી होवा लेह थे. प्रेम हे 'ससिरविणो लवणंमि य जोयणसयाई तिणि तीस अहियाई' લવણુસમુદ્રમાં ૩૩૦ ચૈાજન પ્રમાણ ક્ષેત્રને બાદ કરીને એવું આચાર્યાંનુ વચન છે. એ આ પ્રમાણે માનવામાં આવે નહિ તે યથાક્ત સખ્યાવાળા મંડળનું કથન પ્રમાણિત થઈ શકશે નહિ તેા પછી આ કથન કેવી રીતે પ્રમાણિત થશે ? જો આ પ્રમાણે પૂછવામાં આવે તા સાંભળે, હું તમને આને જવામઆપુ છું. સૂર્યના સવ મડળે ૧૮૪ કહેવામાં આવેલા છે. એમાં એક-એક મંડળના વિધ્યુંભ એક ચેાજનના ૬૧ ભાગે કરવાી ૪૮ ભાગ પ્રમાણુ છે. હવે ૧૮૪ ને ૪૮ શ્રી જીણા કરવાથી ૮૮૩૨ ભાગ થાય છે. એના ચેાજન મનાવવા માટે એમાં ૬૧ ના ભાગાકાર કરવાથી ૧૪૪ ચેાજન આ જાય છે, શેષ ૪૮ ભાગ વધે છે. ૧૮૪ મંડળાના અંતરાળ ૧૮૩ થાય છે, સત્ર અ ** ६१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रचप्तिसूत्र संख्यानां च मण्डलानामपान्तरालानि व्यशीत्यधिक शतसंख्यकानि सर्वत्रैवचापान्तरालानि रूपोनानि भवन्ति तथा च प्रतीतमेतत् चतसृणामंगुलीनामपान्तरालानि त्रीणि भवंतीति एकैकं मण्डझापान्तराले द्वियोजनामाणकम् ततःव्यशीत्यधिकशतं यदा द्विकेन गुण्यते तदा त्रीणि शतानि षट् षष्ठयधिशानि ३६६ भवन्ति चतुःचत्वारिंशशतमत्र यदा प्रक्षिप्यते (संयोज्यते) तदा पंचशतानि दशाधिकानि योजनानि अष्टचत्वारिंशदेकषष्ठि भागा योजनस्य भवन्ति एतावता सूर्यमंडलक्षेत्रस्य प्रमाणं कथितम् मण्डलक्षेत्रं नाम सूर्यमण्डलैः सर्वाभ्यन्त रादिभिः सर्वबाह्य पर्यवसानैराकाशं व्याप्तं तत् चक्रवालविष्कंभाद् ज्ञातव्यमिति द्वितीयमण्डलक्षेत्रद्वारमिति ___ अथ तृतीयं मण्डलान्तरद्वारम्-'सूरमंडलस्से' त्यादि 'सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडस्स' सूर्यमण्डलस्य खलु भदन्त सूर्यमण्डलस्य 'केवइयं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' कियदबाधया अव्यवधानेनान्तरं प्रज्ञप्तं कथितम् हे भदन्त एकस्मात् सूर्यमण्डलादपरस्य सूर्यमण्डलस्य कियद बाधया व्यवधानं कथितमिति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमे त्यादि गोयमा' हे गौतम ! 'दो हमारी चार अंगुलियों के ३ हुए अन्तरालों से ज्ञात हो जाता है । एक एक मण्डल का अन्तराल दो योजन प्रमाण का है १८३ अंतरालों के साथ दो योजन का गुगा करने पर ३६६ आते हैं। इनमें १४४ को जोडने पर ५१० योजन होते हैं और एक योजन के ६१ भागों में से ४८ भाग होते हैं। इससे सूर्यमंडल का प्रमाग कहा। सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्य सूर्यमण्डलों द्वारा व्याप्त हुए आकाश का नाम मण्डल क्षेत्र है यह चक्रवाल विष्कम्भ से ज्ञातव्य है । द्वितीय मण्डल क्षेत्र द्वार समाप्त । तृतीयभण्डलान्तर द्वार इस प्रकार से है-इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडलस्स केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' हे भदन्त ! एक सूर्यमंडल का दूसरे सूर्यमंडल से अव्यवधान की अपेक्षा कितना अन्तर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! दो जोयणाई રાળ ૧ કમ હોય છે. એ અમારી ચાર આંગળીઓના ત્રણ અંતરાળ પરથી જ્ઞાત થાય છે. - એક–એક મંડળનું અંતરાળ બે જન પ્રમાણ જેટલું છે. ૧૮૩ અંતરાલેની સાથે બે એજનનો ગુણાકાર કરવાથી ૩૬૬ આવે છે. એમાં ૧૪૪ ને જોડવાથી ૫૧૦ એજન થાય છે અને એક એજનના ૬૧ ભાગમાંથી ૪૮ ભાગ થાય છે. એથી સૂર્યમંડળનું પ્રમાણુ સ્પષ્ટ થાય છે. સભ્યતર અને સર્વ બાહ્ય સૂર્યમંડળ વડે વ્યાપ્ત થયેલા આકાશનું નામ મંડળ ક્ષેત્ર છે. આ ચક્રવાલ વિઠંભથી જ્ઞાતવ્ય છે. દ્વિતીય મંડળ ક્ષેત્ર વડે સમાસ તૃતીય કંડલાન્તર દ્વાર આ પ્રમાણે છે. આમાં ગૌતસ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે प्रश्न या छ -'सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडलरस केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' . ભદત ! એક સૂર્યમંડળનું બીજા સૂર્યમંડળથી અવ્યવધાનની અપેક્ષાએ કેટલું અંતર वाम गाव छ। मेनपाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! दो जोयणाई अबाहाए अंतरे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. २ सूर्यमण्डलनिरूपणम् जोयणाई-अबाहार अंतरे पमत्ते' द्वे योजने योजनद्वयमित्यर्थः अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं कथितम् भवति च विशेषार्थेप्यन्तरशब्दः यथा अनयोर्महदन्तरम् ततश्चात्रापि तथा कस्या चिद शंका मा भवतु तदर्थमबाधयेतिविशेषणम् तथा च पूर्वस्मात् सूर्यमण्डलात् अपरं सूर्यमंडलं कियदरे वर्तने इति प्रश्नाशयः योजनद्वयं दूरे इति उत्तरमिति तृतीयं मण्डलान्तरद्वारमिति । अथ चतुर्थं बिंबायामविष्कंभादि द्वारमाह-'सूरमंडलेण' मित्यादि 'सूरमंडले णं भंते। सूर्यमंडलं खल भदन्त 'केवइयं आयामविक्खंभेणे' कियत् कियत्प्रमाणकायामविष्माभ्याम् दैर्ध्यविस्ताराभ्यामित्यर्थः, 'केवइयं परिक्खेवेण कियता परिक्षेपेण 'केवश्यं बाहल्लेणं पण्णत्ते कियता बाहल्येनोच्चापेन प्रज्ञप्तं कथित मिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमे' त्यादि 'गोयमा' अवाहाए अंतरे पनत्ते' हे गौतम ! एक सूर्यमण्डल से दूसरे सूर्यमण्डल का अन्तर अव्यवधान की अपेक्षा से दो योजन का कहा गया है। विशेषार्थ में भी अन्तर शब्द का प्रयोग होता है-जैसे 'उभयोर्महदन्तरम्' इन दोनों में बहुत विशेषता है इस तरह की किसी को यहाँ आशङ्का न हो जाय इसके लिये यहां 'अबाधा' यह पद रखा गया है । अतः इस प्रश्न का आशय यही है कि एक सूर्यमंडल से दूसरा मंडल कितनी दूर पर है ? तो इसका उत्तर यही दिया गया है कि पूर्वमण्डल से अपर सूर्यमण्डल दो योजन दूर है तृतीयमण्डलान्तरबार समाप्त। ___ चतुर्थ बिंबायाम विष्कम्भादि द्वार का कथन-इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है-'सूरमंडलेणं भंते ! केवइयं आयामविक्खभेणं' हे भदन्त ! सूर्यमण्डल आयाम विष्कम्भ की अपेक्षा कितना है-अर्थात् सूर्यमण्डल का आयाम और विष्कम्भ कितना है ? और केवइयं परिवखेवेणं' इसका परिक्षेप कितना है ? तथा 'वाहल्लेणं केवइयं पन्नत्ते' इसका बाहल्य ऊंचाइ-इसका कितना है ? इसके पन्नत्ते' ३ गौतम ! ४ सूर्य भथी भी सूर्य भनु तर भन्यवधाननी अपेक्षा બે જન જેટલું કહેવામાં આવેલું છે. વિશેષાર્થમાં પણ અંતર શબ્દનો પ્રયોગ થાય છે. भ3-'उभयोमहदन्तरम्' ये भन्नेमा ५ ४ विशेषता छे. सतनी साधन माश। थाय नलित माटे माही 'अबाधा' मा ५४ भू४वामां मावेस छ. मेथी मा પ્રશ્નને અર્થ આ છે કે એક સૂર્યમંડળથી બીજુ સૂર્યમંડળ કેટલે દૂર છે? તે આનો જવાબ આ પ્રમાણે આપવામાં આવેલ છે કે પૂર્વ સૂર્યમંડળથી અપર સૂર્યમંડળ બે જન દૂર છે. તૃતીય મંડલાન્તર દ્વાર સમાપ્ત. ચતુર્થ બિંબાયામ વિખંભાદિ દ્વારા કથન. मामा गौतमस्वाभीमे प्रभुने तन प्रश्न ४२० छ 3-सूरमंडलेणं भंते ! केवइयं आयामविक्खभेणं महन्त ! सूर्य भ31 मायाम मन विभनी अपेक्षा छ ? मेटले ४ सूर्य भगना मायाम मन ७ि४ डेटा छ ? भने 'केव हया परिक्खेवेणं' तेना परि३५ ३ १ तेभर 'बाहल्ले गं केवइयं पन्नत्ते' मान्य-यामा मा टयु छ ? मे। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महीपति हे गौतम ! 'अडयालीसं एगसट्टिभाए जोयणस्स आयामविक्खंभेणं' अष्टचत्वारिंशद्भागान् योजनस्यायामविष्कंभाभ्यां दैर्घ्यविस्ताराभ्यां प्रज्ञप्तम् - अयं भावः एकस्य योजनस्यैकषष्ठिभागाः कल्प्यन्ते तत्र येऽष्टचत्वारिंशद्भागाः तावत् प्रमाणको सूर्यमंडलस्यायामविष्कंभौ भवत इति । 'तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं' तत् त्रिगुणं आयामभिष्कंभाम्यां त्रिगुणितं सविशेषं साधिकं किंचिद्धिकमित्यर्थः परिक्षेपेण सूर्यमंडलं प्रज्ञप्तम् । अष्टचत्वारिंशत् त्रिगुणिता द्वे योजने द्वाविशतिरेकषष्टिभागा अधिका योजनस्येत्यर्थः । 'चडवीसं एगसट्टिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते' चतुर्विंशति रेकषष्ठिभागान् योजनस्य बाहल्येनोच्चत्वेन प्रज्ञप्तं कथितम् विमान विष्कं मयार्ध मागेनोच्चत्वादितिचतुर्थ विवायामविष्कंभद्वारम् || सू० २ ॥ अथ पंचमं मेरुमंडलयोरबाधाद्वारं तत्रेदं सूत्रम् मूलम् - जंबूदीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अवाहाए सव्वमंतरे सूरमंडले पण्णत्ते, गोयमा ! चोयालीसं जोयणसहस्साई अट्टयवीसे जोयणसए अबाहाए सव्वमंतरे सूरमंडले पण्णत्ते, जंबूदीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स फव्वयस्स केवइयाए अबाहाए सव्व - भंतराणंतरे सूरमंडले पण्णत्ते ? गोयमा ! चोयालीसं जोयणसहस्साइं उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा ! अडयालीस एगसट्टिभाए जोयणस्स आयामविखंभेणं' हे गौतम ! एक योजन के ६१ भाग करने पर उनमें से ४८ भाग प्रमाण एक सूर्यमण्डल के आयाम और विष्कम्भ हैं । 'तं तिगुणं सविसेसं परिवखेवेणं' तथा ४८ को तिगुना करने पर १४४ भाग जो योजन के आते हैं उनमें २ योजन और २२ भागबचते हैं-सो इस तरह कुछ अधिक योजन का परिक्षेप कहा गया है । 'चउवीसं एगसडियाए जोयणस्स बाहल्ले णं पण्णत्ते' एवं इसकी ऊंचाइ एक योजन के ६१ भागो में से कुछ अधिक २४ भागप्रमाण कही गई है । क्योंकि विमान से उसकी आधी ऊंचाई कही गई है। चतुर्थ बिंवायाम विष्कम्भ द्वार समाप्त ॥ २॥ वामां प्रभु टुडे छे - 'गोयमा ! अडयालीसं एगसट्टिभाए जोयणस्स आयामविक्खंभेणं' डे ગૌતમ! એક ચેાજનના ૬૧ ભાગ કરવાથી તેમાંથી ૪૮ ભાગ પ્રમાણુ એક સૂમડળના आायाभ-विष्ठुलो छे. 'तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं' तथा ४८ नेत्रशु गणु। ४२वाथी १४४ એકસા ચુમાળીસ ભાગ ચેાજન પ્રમાણ આવે છે. એમાં ૨ ચેાજન અને ૨૨ ભાગ શેષ રહે छे. तो या प्रमाणे ४४ वधारे २३३ नेटो परिक्षेय वामां आवे छे. 'चवीसं एसट्टिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते' तेभन मानी उभ्यता ४ योजना ६१ ભાગામાંથી કઈક અધિક ૨૪ ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે વિમાનથી આાની અધિઊ'ચાઈ કહેવામાં આવેલી છે. ચતુર્થાં ખંખાયામ વિષ્ણુભનામનું દ્વાર સમાસ ॥સા Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. ४ मण्डलयोरबाधाद्वारनिरूपणम् २५, प्रज्ञप्तं कथितम इति । एवं सूर्यमण्डलयेषु अबाधायानं दर्शयित्वा उक्तावशिष्टमण्डले घुअबाधामानं दर्शयितुमतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवं खलु' एवमुक्तप्रकारेण पूर्वोपदर्शितरीत्यर्थः, '९एणं आएणं एतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमण्डलपरित्यागरूपेण 'पविसमाणे सूरिए' प्रविशन् जम्बूद्वीपं सूर्यः 'तयाणंतरा मो मंडलाओ' तदनन्तरात्. मण्डलात 'तयाणतरं मंडलं' तदनन्तरं मंडलम् 'संक्रममाणे' संक्रामन् संक्रामन् 'दो दो जोयणाई द्वेद्वे योजने 'अडयालीसं च एगसहिभाए जोयणस्स' अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्ठिभागान् योजनस्य 'गमेगे मंडछे' एकैस्मिन् मण्डले 'अबाहावुद्धि' अबाधाधुद्धिम् 'णिबुद्धेमाणे णिबुद्धमाणे' निवर्द्धयन् निवर्द्धयन् हाययन् निवर्तयन् निर्तियन् त्यजन त्यजनित्यर्थः 'णिवुद्धमाणे-इत्यस्य निवर्द्धयन् इति छाया समवायांगवृत्यनुसारेण कृता-ततश्चपूर्वोक्तः अर्थः संभवति स्थानांगवृत्यदानुपूर्वी के अनुसार कहा गया है। इस तरह से सूर्यमण्डलत्रय में अबाधादूरी का-प्रमाण दिवाकर उक्तावशिष्ट मण्डलों में अबाधा के मान को दिखाने के लिये अतिदेशरूप वाक्य का कथन करते हैं-एवं एएणं उवाएणं पविसमाणे मूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे २ दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगसट्टियाए जोरणस्स एगमेगे मंडले अबाहाबुद्धिं णिबुद्धेमाणे २ सव्व तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' पूर्वोक्त रीति के अनुसार इस उपाय से-अहोरात्र मण्डल के परित्याग रूप उपाय से जम्बूद्वीप में प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल से तदनन्तर मण्डलपर संक्रमण करता २ दो योजन और एक योजन के ६१ भागों में से ४८ भाग प्रमाण एक २ मंडल पर अबाधा की वृद्धि को कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मंडल पर पहुंच कर गति करता है । 'णिवुद्धेमाणे' इसकी छाया 'निवर्द्धयन' ऐसी समवायाङ्गकी वृति के अनुसार की है सो इसका अर्थ 'कम कम करता हुआ ऐसा ही होता ર૬ ભાગ પ્રમાણની દૂર પર બાહ્ય તૃતીય સૂર્યમંડળ પશ્ચાદાનુપૂવ મુજબ કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે સૂર્યમંડળ ત્રયમાં અબાધા-દૂરનું પ્રમાણ સ્પષ્ટ કરીને ઉતાવશિષ્ટ મંડળમાં અબાધાના માપને બતાવવા માટે અતિદેશરૂપ વાક્યનું કથન કરે छ-'एवं एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरे मंडळे संकममाणे २ दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगसट्टियाए जोयणस्स एगमेगे मडले अबाहा. बुद्धि णिबुद्धमाणे २ सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरई' पूतिरीति भु આ ઉપાયથી અહેરાત્ર મંડળના પરિત્યાગરૂપ ઉપાયથી જંબુદ્વીપમાં પ્રવિષ્ટ થતા સૂર્ય તદનંતર મંડળથી તદનંતર મંડળ પર સંક્રમણ કરતે કરતો બે જન અને એકજનના ૬૧ ભાગમાંથી ૪૮ ભાગ પ્રમાણ એક-એક મંડળ પર અબાધાની બુદ્ધિને અ૫–અલ્પ ४२ सालयतर म४५ ५२ पडांयीन गति ४२ छे. 'णिबुद्धेमाणे' सनी छाया 'निव Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्ति नुसारेण तु निवृद्धयन् निवृद्धयन् इति छाया तदर्थोपि हाययनित्येव सूर्यप्रज्ञप्तिकृत्यनुसारेण तु निवेष्टयन निवेष्टयन्निति छाया तदर्थो पि हाययमित्येव । 'सबभंतरं मंडल' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् ‘उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य प्राप्य चारं चरति चारं गतिं चरति करोति सूर्यः । इत्यबाधाद्वारं समाप्तम् ॥ सू. ३॥ तदेवं क्रमेण गतमवाधाद्वारं संप्रति मण्डलायामादिवृद्धि हानिद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणमित्यादि। ..मूलम्-जंबुद्दीवे दीवे सबभंतरेणं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! णवणउइं जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिणि य जोयणसयसहस्साइं पण्णरस य जोयणसहस्साइं एगूण णउइं च जोयणाइं किंचि विसेसाहियाई परिक्खेवेणं । अन्भंतराणंतरेणं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते, गोयमा ! णवणवई जोयणसहस्साइं छच्च पणयाले जोयणसए पणतीणं च एगसद्विभाए जोयण स्त आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई पण्णरस जोयणसहस्साइं एगं सदुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । अब्भंतर तच्चे णं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? णव णउइं जोयणसहस्साइं छच्च एकावण्णे जोयणसए णव य एगसट्रिभाए जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि य जोयणसयसहस्साइं है स्थानाङ्ग वृत्ति के अनुसार तो 'निवृर्द्धयन् निवृद्धयन्' ऐसी संस्कृत छाया होती है इसका अर्थ भी 'कम कम करता हुआ ऐसा ही होता है तथा सूर्य प्रज्ञप्ति के अनुसार-'निवेष्टयन् २' ऐसी छाया होती है इसका भी अर्थ वही पूर्वोक्त होता है । सू०३ ॥ अबाधा द्वार समाप्त ટ્વચન આ રીતે સમવાયાંગની વૃત્તિ મુજબ સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે તે આને અર્થ (24E५-५६५ ४२ते। मेवा थाय छे. स्थानगत भुम तो 'निवृद्धयन्-निवृद्धयन्' मेवा સંસ્કૃત છાયા થાય છે. આનો અર્થ પણ “અ૯૫-અલ્પ કરતે એવો થાય તેમજ સૂર્યપ્રાપ્તિ મુજબ “નિવેક્ટય-નિષ્ટય' એવી છાયા થાય છે. આને પણ અર્થ પૂર્વોક્ત અર્થ મુજબ જ છે. અબાધા દ્વાર-સમાપ્ત-સૂત્ર ૩ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ४ मण्डलायामादि वृद्धिहानिनिरूपणम् २७ पण्णरसजोयणसहस्साइं एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं एवं खल्लु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं उवसंकममाणे उवसंकममाणे पंच पंच जोयणाइं पणतीसं ष एगसद्विभाए जोयणस्स एगमेगे मंडले विकखंभबुद्धिं अभिवद्धेमाणे अभिवढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाइं परिरयबुद्धिं अभिवढेमाणे अभिवद्धमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । सव्वबाहिरएणं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते. गोयमा! एगं जोयणसयसहस्सं छच्च सटे जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिणि य जोयणसयसहस्साई अटारस य सहस्साई तिणि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं । सव्वबाहिराणंतरेणं भंते ! सूरमंडले केव. इयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते गोयमा! एगं जोयणसयसहस्सं छच्च चउपपणे जोयणसए छठवीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि य जोयणसयसहस्साई अटारस य सहस्साई दोण्णि य सत्ताणउए जोयणसए परिक्खेवेणंति । बाहिर तच्चे गंभंते! सूरमण्डले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते, गोयमा ! एग जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगसटिभाए जोयणस्स आयामविखंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साइं दोणि य अउणासीए जोयणसए परिक्खेवेणं एवं खल्लु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाइं पणतीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्वंभबुद्धिं णिबुद्धेमाणे णिबुद्धे. माणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाइं परिरयबुद्धि णिबुड्डेमाणे णिबुड्डेमाणे सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ॥सू०४॥ छाया-जम्बूद्वीपे सभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं कियदायामविष्कंभाभ्यां कियत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् गौतम नव नवति योजनसहस्राणि षट्चचत्वारिंशत् योजनशतानि आयामविष्कंभाभ्याम् श्रीणि च योजनशतसहस्राणि पंचदशच योजनसहस्राणि एकोननवतिंच योजनानि किंचिद्वि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र शेषाधिकानि परिक्षेपेन । अभ्यन्तरान्तरं खलु भदन्त ! सूर्यमण्डलं कियदायामविष्कमाभ्यां किंयत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् गौतम : नवनवति योजनसहस्राणि षट्च पंचचत्वारिंशत् योजनशतानि पंचत्रिंशत् चै कषष्ठिभागान् योजनस्यायामविष्कभाभ्याम् त्रीणि योजनशतसहस्रागि पंचदशच योजनसहत्राणि एक सप्तोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् । अभ्यन्तरतृतीयं खलु भदन्त ! सूर्यमंडलं कियदायामविष्कमाभ्यां कियपरिक्षेपेण प्रज्ञातम् गौतम ! नव नवतियोजनसहस्राणि षट्चैक पंचाशत् योजनशतानि नवचै कषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कभाभ्याम् त्रीणि च योजनशनसहस्राणि पंचदशयोजनासहस्त्राणि एकं च पंचविंशति यो ननशां परिक्षेपेण । एवं खलु एतेनोपाये न निष्क्रामन् सूर्यः तदनतरुत् मंडलात् तदनन्तरं मण्डलमुपसंक्रामन् उपसंक्रामन् पंच पंचयोजनानि पंचविंशच्चैकप ष्ठभागान् योजनस्यैकैकस्मिन् मण्डले विष्कमबुद्धिमभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् अष्टादश ष्टादश योजनानि परिरयबुद्धिमभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् सर्वबाह्य मंडलमुपसंक्रम्य कारं चरति । सर्वबाह्य खलु भदन्त ! सूर्यमंडलं कियदायाम विष्कमान्यां कियता परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम ? गौतम ! एक योजनशतसहस्रं षट् च षष्ठियोजनशतानि आयामविष्कंभाभ्याम् त्रीणि च योजनशतसहस्त्राणि अष्टादश च योजनसहस्त्राणि त्रीणि च पंचदशोत्तर योजनशतानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं । पाह्यानन्तरं च .खल भदन्त सूर्यमंडलं कियदायामविष्कभाभ्यां कियता परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् गौतम ! एकं योजनशतसहस्रं षट् च चतुः ९श्चाशत् योजनशतानि षइविशं चैकषष्ठि मागान् योजनस्यायामविष्कमाभ्याम् त्रीणि च योजनशतसहस्राणि अष्टादश च सहस्राणि द्वे च सप्त नवति योजनशते परिक्षेपेणेति । बाह्यतृतीयं खलु भदन्त ! सूर्यमण्डलं कियदायामविष्कभाभ्यां कियता परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् गौतम ! एक योजनशतसहस्रम् ट चाष्टाचत्वारिंशत् योजनशतानि द्विपश्चाशच्चैकपष्टिभागान योजनस्यायामविष्कंभाभ्याम् त्रीणिच योजनशतसहस्राणि अष्टादशच सहस्राणि द्वे चैकोन नाति यो जनशते परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् एवं खलु एतेनोपायेन प्रविशन् सूर्यः तदनन्तरात् मंडलात् तदनन्तरम् मंडलम् संक्रामन् संक्रामन् पंच पंच योजनानि पंचत्रिंशच्चैक षष्ठिभागान् योजनस्यैकै कस्मिन् मंडलं विष्भबुद्धि निवृद्धयन् निवृद्वयन अष्टादशाष्टादशयोजना न परिरयवृद्धि नियन् निवर्तयन् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । सू०४॥ ___टीका-संपत्यायामविष्कभद्वारमाह-जंबूदी वेगमित्यादि, 'जंबुद्दोवे गं भंते सव्वन्भंतरे सूरमंडले' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वाभ्यन्तरम् सर्वेभ्योऽभ्यन्तरं सूर्यमण्डलम् 'केवइय' आयाम विक्खंभेणं' कियदायामविष्कंभाभ्याम् तथा 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' क्रियता मण्डलायामादिवृद्धि हानिद्वार कथन 'जंघुद्दीवे दीवे सव्वभंतरेणं भंते ! सूरमंडले' इत्यादि મંડલાયામાદિ વૃદ્ધિ હાનિદ્વાર કથન– 'जंधुदीवे दीवे सव्वन्भंतरेणं भंते ! सूरमंडले' इत्यादि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ४ मण्डलायामादि वृद्धिहानिनिरूपणम् - २९ कियत्प्रमाणकेन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयगेत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम ! ण णवउई जोयणसहस्साई' नवनवति योजनसहस्राणि 'छच्च छत्ताले जोयणसए' षट् च चत्वारिंशत् योजनशतानि षट् चत्वारिंशदधिकानि षड् योजनशतानीत्यर्थः 'आयामविक्खंभेणं पश्भत्ते' आयामविष्कभाभ्यां दैध्य विस्ताराभ्यां प्रज्ञप्तं कथितम्, नव नवतियोजन. सहस्राणि षट्चत्वारिंशदधिकानि पइयोजनशतानि आयामविष्कंभाभ्यां प्रज्ञप्तमिति । तथा 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं पण्णरस य जोयणसहस्साई त्रीणि च योजनशतसहस्राणि पंच दशच योजनसहस्राणि 'एगणणउइं च जोयणाई किंचि विसेसाहियाइं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' एकोननवति च योजनानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं कथितम् त्रीणि योजनशतसहस्राणि पंचदशयोजनसहस्राणि एकोन नवति योजनानि किचिद्विशेषाधिकानि परिधिना टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे स तरे सूरमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं, केवइथं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्रीप नामके द्वीप में सर्वाभ्यन्तर सूर्यमण्डल आयाम और विष्कम्भ को अपेक्षा कितने आयाम और विष्कम्भ वाला कहा गया है तथा परिक्षेप की अपेक्षा वह कितना परिक्षेपवाला कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णवणवउइं जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते' हे गौतम ! जम्बू'होप नामके द्वीप में सर्वाभ्यन्तर मंडल ९९६४० योजन प्रमाण आयाम विष्क म्भ वाला कहा गया है। _ 'तिष्णिय जोयणसयसहस्साइं पण्णरस य जोयणसहस्साई एगूण उई च जोयणाई किंचि विसेसाहियाई परिक्खेदेणं पनत्ते' तथा ३ लाख १५ हजार ८९ योजन से-कुछ विशेषाधिक परिक्षेपवाला कहा गया है। आयाम और विष्कम्भ की उत्पत्ति इस प्रकार से होती है जम्बूढीप का प्रमाण १ लाख योजन 10-20 सूत्र 3 गौतस्वामी प्रसुने २AL onतने प्रश्न ये छ है 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सव्वभंतरे सूरमडले केवइयं आयामक्खिंभेणं, केवइयं परिवेक्खेवेणं पण्णत्ते' महत! આ જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં સર્વાત્યંતર સૂર્યમંડળ આયામ અને વિખંભની અપેક્ષાએ કેટલા આયામ અને વિષ્કભાળે કહેવામાં આવ્યું છે. તેમજ પરિક્ષેની અપેક્ષાએ તે टमा परिवाणे ४वाभा मावेन छ ! सेनाममा प्रभु ४९ छ.-'गोयमा ! णव णवउइं जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते' है माम! - દ્વીપ નામક દ્વીપમાં સર્વાત્યંતર મંડળ ૯૯૬૪૦ એજન પ્રમાણ અન્યામ–વિઠંભવાળે ४पामा मावस छ. 'तिणि य जोयणसहस्साई पण्णरस य जोयणसहस्साई एगूणणउइंच जोयणाई किंचि विसेसाहियाई परिक्खेवेर्ण पन्नत्ते' ते साय १५ १२८९ सबसन કરતાં કંઈક વિશેષાધિક પરિક્ષેપવાળે કહેવામાં આવેલ છે. આયામ અને વિખંભની Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रज्ञप्तमिति । तत्रायामविष्कंभयोरुत्पत्तिरेवं भवति जंबूद्वीपस्य प्रमाणलक्षयोजनपरिमितं तस्मात् अशोत्यधिक यो ननशते द्विगुणिते शोधिते सति नव नवति शतानि चत्वारिंशदधिकानि षटू शता ने भवंति आयामविष्कंभप्रमाणम् परिक्षेपस्तु यदेकतो जम्बूद्वीपविष्कंभादशीत्यधिक योजनशत् यच्चापरतोपि तेषां त्रयाणां शतानां षष्ठयधिकानां ३६० परिरयः (परिक्षेपः) एका. दशशतानि अष्टत्रिंशदधिकानि ११३८, एतानि यदा जम्बूद्वीपपरिक्षेपात् शोध्यन्ते तदा त्रीणि योजनशतसहस्राणि एकोननवतियोजनानि परिक्षेपः परिधिर्भवतीति । संप्रति द्वितीयमंडलविषयकं प्रश्नमाह-अभंतरेत्यादि 'अभंतराणंतरे णं भंते सूरमंडले' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं खलु भदन्त ! सूर्यमंडलम् 'केवइयं परिक्खेणं पन्नत्ते' कियदायामविभाभ्याम् दैर्ध्य विस्ताराभ्यां कियता परिक्षेपेण प्रज्ञप्तमिति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमेत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णवणउई जोयणसहस्साई' नवनवतियोजनसहस्राणि 'छच्च पणयाले जोयणसए' षटूच पंचवारिंशत् योजनशतानि, पंचवारिंशदधिकानि षडूय जनका है इसमें १८० योजन को दुगुणा करने पर और उसमें से कम करने पर ९९६४० योजन आयाम विष्कम्भ का प्रमाण होता है तथा परिक्षेप का प्रमाण १८० योजन को द्विगुणित करने पर ३६० योजन होते हैं सो इनका तथा ११३८ योजनको जम्बूद्वीप के परिक्षेप में से कम करने पर ३ लाख १५ हजार ८९ योजन की परिधि का प्रमाण आ जाता है। 'अभंतराणंतरेणं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! द्वितीय अभ्यन्तरानन्तर सूर्यमण्डल आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा कितने आयाम और विष्कम्भवाला है ? तथा परिधि की अपेक्षा कितनी परिधि वाला है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! गवणउइं जोयणसहस्साई छच्च पणयाले जोयणसए पणतीसं च एगसट्ठियाए जोयणस्स आयामविक्खंभे णं' हे गौतम ! द्वितीय आभ्यन्तरानन्तरसूर्यमंडल आयाम और विष्कम्भकी अपेक्षा ઉત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છે. જમ્બુદ્વીપનું પ્રમાણ એક લાખ જન જેટલું છે. આમાં ૧૮૦ એજનને દ્વિગુણિત કરવાર્થી અને તેમાંથી ઓછા કરવાથી ૯૯૬૪૦ જન આયામવિઝંભ પ્રમાણ થાય છે. તેમજ પરિક્ષેપનું પ્રમાણ ૧૮૦ જનને દ્વિગુણિત કરવાથી ક૬૦ યેાજન થાય છે. તે એમને તેમજ ૧૧૩૮ જનને જંબુદ્વીપના પરિક્ષેપમાંથી ઓછા કરવાથી ૩ લાખ ૧૫ હજાર ૮૯ જનની પરિધિનું પ્રમાણુ આવી જાય છે, 'अभंतराणंतरेणं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' 3 ભદંત ! દ્વિતીય અપંતરાનાર સૂર્યમંડળ આયામ અને વિષ્કભની અપેક્ષાએ કેટલા આયામ અને વિભા વાળા છે? તેમજ પરિધિની અપેક્ષાએ કેટલી પરિધિવા છે ? येना सभा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! णवणउई जोयणसहस्साई छच्च पणयाले जोयणसए पणतीसंच एगसट्ठियाए जोयणस्स आयामविक्खंभेणं' हे गौतम ! द्वितीय २५५तरानन्तर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टोका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ४ मण्डलायामादि वृद्धिहानिनिरूपणम् ३१ शतानीत्यर्थः, 'पणती संच एगसद्विभाए जोयणस्स आयामविवखंभेणं' पंचत्रिंशच्चै रुषष्ठि भागान योजनस्यायामविष्कंभाभ्यां भवति 'तिष्णि जोयणसयसहस्साई एगं सत्तुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं पद्मत्ते' त्रीणि योजनशतसहस्राणि पंचदशच योजनसहस्राणि एकं सप्तोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं कथितम्, अयं भावः- द्वितीयं सूर्यमंडलमायाविष्कंभाभ्यां नवनवति योजन सहस्राणि षट् च योजनशतानि पंचचत्वारिंशदधिकानि पंचत्रिशच्चैकषष्ठिभागान् योजनस्य ९९६४५ भवति, तद्यथा एकतोपि सूर्यमंडल सर्वाभ्यन्तरानन्तरं सर्वाभ्यन्तरमंडलगतान् अष्टचत्वारिंशत् संख्यकान् एकषष्ठिभागान् द्वे च योजने अपान्तराये परित्यज्य स्थितम् अपरतोपि ततः पंच योजनानि पंचत्रिंशच्चैकषष्ठिभागा योजनस्य पूर्वमंडलविष्कं भादस्य मंडलस्य विष्कंभे वर्द्धन्ते । तथा अस्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयसूर्यम डलस्य परिक्षेपः त्रीणि योजनशतसहस्राणि पंचदशसहस्राणि सप्ताधिकमेकं च शतं योजनानां भवति, तद्यथा पूर्वमंडलादस्य द्वितीयमंडलस्य विष्कंभे पंचयोजनानि पंचत्रिंशच्चैकषष्ठिभागा योजनस्य ९९६४५०५ योजनका है 'तिण्णिजोयणसहस्साइं पण्णरस य जोयणसहस्साई एगसत्तुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' और इसकी परिधिका प्रमाण ३ लाख १५ हजार १०७ योजन का है ' तात्पर्य इसकथनका ऐसा है- द्वितीय सूर्यमंडल आयाम और विष्कम्भकी अपेक्षासे ९९६४५३१ योजन का है - ऐसा जोड कहा गया है, सो वह द्वितीय सूर्यमंडल - एक तरफ सर्वाभ्यन्तर 'मण्डलगत ४८ भागों को एवं अपान्तरालके दो योजनों को छोडकर स्थित है दूसरी तरफ पांच योजन और एक योजन के ६१ भागों मे से ३५ भाग पूर्व मण्डल विष्कम्भ में से इस मण्डल के feosम्भ में बढ जाते हैं तथा इस सर्वाभ्यन्तरानन्तर द्वितीय सूर्य मण्डल का परिक्षेप ३ लाख १५ हजार १०७ योजन का इस प्रकार से होता है - पूर्व मण्डल से द्वितीय मण्डल के विष्कम्भ में पांच योजन और १ योजन- के ६१ भागों में સૂ`મ'ડળ આયામ અને વિષ્ણુભની અપેક્ષાએ ૯૯૬૪૫ યાજન જેટલે છે. તિળિ जोयणसहस्साइं पण्णरस य जोयणसहस्साईं एगसत्तुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' भने આની પરિધિનું પ્રમાણ ૩ લાખ ૧૫ હજાર ૧૦૭ ચેાજન જેટલું છે. આ કથનનુ તાપ્ત આ પ્રમાણે છે કે દ્વિતીય સૂ`મડળ આયામ અને વિષ્ણુભની અપેક્ષાએ ૯૯૬૪૫૫ ચાજન જેટલે છે. આ પ્રમાણે સરવાળે કહેવામાં આવેલ છે. તે આ દ્વિતીય સૂ`મ`ડળ એક તરફ સર્વાભ્યંતર મ`ડળગત ૪૮ ભાગેાના તેમજ અપાન્તરાલના એ યાજનાને બાદ કરીને સ્થિત છે. ીજી તરફ્ પ ચેાજન અને એક યેાજનના ૬૧ ભાગા માંથી ૩૫ ભાગ પૂમડળ વિષ્ણુભમાંથી આ મંડળના વિષ્ણુંભમાં અભિવૃધિત થઈ જાય છે. તેમજ આ સર્વાભ્યંતર દ્વિતીય સૂમ`ડળના પરિક્ષેપ ૩ લાખ ૧૫ હજાર ૧૦૭ ચૈાજનના આ પ્રમાણે છે, પૂ`મ`ડળથી દ્વિતીય મડળના વિષ્ણુ'ભમાં પાંચ ચેાજન Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जम्बूद्वीपमतिसूत्रे वर्द्धन्ते, पञ्चानां च योजनानां पंवत्रिंशत् संख्यैकभागाधिकानां परिक्षेपः सप्तदशयोजना नि अष्टत्रिंशचैषष्ठिभागाः योजनस्य समधिगताः परंतु व्यवहारतः परिपूर्णानि अष्टादश: योजनानि कथ्यन्ते, एतानि यदा पूर्वमण्डळ परिक्षेपे अधिकानि प्रक्षिष्यन्ते तदा यथोक्तं द्वितीय मंडलस्य परिक्षेपप्रमाणं भवतीति । संप्रति तृतीयमंडलविषयकं प्रश्नमाह- अन्भन्तरवच्चेणमित्यादि, 'अन्यंतरतच्चेणं भंते सूरमंडले' अभ्यन्तरतृतीयं खलु भदन्त ! सूर्यमण्डलम् 'केवइयं आयाम विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' कियदायामविष्कंभभ्यां कियता परिक्षेपेणच प्रज्ञप्तं कथितमितिप्रश्नः, भगवाair 'गोय' त्यादि 'गोया !" हे गौतम ! 'णब णवई जोयणसहस्साई' नवनव नवतियोजनसहस्त्राणि 'छच्च एकावणे जोपणसए' षट् चैक पञ्चाशत् योजनशतानि, एकपश्चादशधिकानिषड्योजनशतानीत्यर्थः, 'णव य एगसद्विभार जोयणस्ल' नवचैक पण्डिभागान् योजनस्य 'आयामविवखंभेणं' आयामविष्कं माभ्यामभ्यन्तरं दतीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम्, तथा 'तिष्णि से ३५ भाग बढ जाते हैं, ३५ संख्यक एक एक भाग अधिक पांच योजनों का परिक्षेप १७ योजन और एक योजन- के ६१ भागों में से ३८ भाग प्रमाण प्राप्त होता है. परन्तु व्यवहार से परिपूर्ण १८ योजन कहे जाते हैं ये जब पूर्व मण्डल के परिक्षेष मे अधिक प्रक्षिप्त हो जाते हैं तब यथोक्त द्वितीय मण्डलका परिक्षेप प्रमाण हो जाता है । 'अनंतरतच्येणं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामविवखंभेणं केवइयं परिक्खेत्रेणं पण्णले' गौतमस्वामीने इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है है भदन्त ! अभ्यन्तर जो तृतीय सूर्य मण्डल है, वह आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा कितने आयाम और विष्कम्भ वाला है ? तथा 'केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' परिक्षेपका प्रमाण इसका कितना है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! गव गवई जोयणसहस्साई छच्च एकावण्णे जोयणसए णव य एगसद्विभाए जोयणस्स અને એક ચેાજનના ૬૧ ભાગેામાંથી ૩૫ ભાગ શેષ રહે છે. ૩૫ સયંક એક-એક ભાગ અધિક પાંચ ચેાજનાના પરિક્ષેપ ૧૭ ચૈાજન અને એક ચેાજનના ૬૧ ભાગેામાંથી ૩૮ ભાગ પ્રમાણ પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ વ્યવહારથી પરિપૂર્ણ ૧૮ ચેાજન કહેવામાં આવે છે. એ જયારે પૂમડળના પરિક્ષેપમાં અધિક પ્રક્ષિપ્ત થઈ જાય છે. ત્યારે યથાક્ત द्वितीय भांडण परिक्षेय प्रमाणु या लय छे, 'अब्भंतरतच्चेणं भंते! सूरमंडले के इय आयाम विक्खभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' हे गौतम! या सूत्र वडे भेवी रीते प्रश्न કર્યાં છે કે હું ભ ત ! અભ્યંતર જે તૃતીય સૂર્યમંડળ છે. તે આયામ અને વિષ્ણુ ભની अपेक्षा टला यायाम सने विष्णुभवाजा छे ? तेभन 'केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' परिक्षेयनुं प्रमाणु खानु डेंटलु छे? सेना वामभां अलु हे छे - 'गोयमा ! णवणवई जोयणसहस्साइं छच्च एकावण्णे जोयणसए णवय एगसट्टिभाए : जोयणस्स आयाम विक्खंभेणं' Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ४ मण्डलायामादि वृद्धिहानिनिरूपणम् य जोयणसयसहस्साई पण्णरस जोय सहस्साई एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं'त्रीणि योजनशतसहस्राणि पंचदश योजनसहस्राणि पंचविंशत्यधिक मेकं योजनशतं परिक्षेपेण प्रज्ञसम् अयमर्थः-नवनवति योजनसहस्राणि षट् चैकपंचाशानि योजनशतानि नवचैक षष्ठिभागान् योजनस्याभ्यन्तरतृतीयमंडलमायामविष्कंभेण भवति तत्रोपपत्तिश्चैवं पूर्वमंडलायामविष्भे ९.६४५ योजन३५ इत्यारके एतन्मंडलवृद्धौ पंचयोजन प्रक्षिप्ताया यथोक्तप्रमाणं भवति इति । अत्रोक्तातिरिक्त मंडलायामविष्भादि परिज्ञानाय लाघवादतिदेशमाह-एवमि. स्यादि, 'एवं खलु' एवमुक्तेन मंडलत्रयप्रदर्शितप्रकारेण 'एएणं उवाएण' एतेनोपायेन 'णि. क्खममाणे सूरिए' निष्क्रामयमानः सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् मण्डलात् 'तयाणंतरं मंडलं उवसंकममाणे उवसंकममाणे' उपसंक्रामन् २ गच्छन् गच्छन् 'पंच पंचायणाई' पंच पंव योजनानि 'पणतीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स' पंच त्रिंशञ्चकपष्ठिभागान् आयाम विखंभेगं' हे गौतम ! आभ्यन्तर तृतीय सूर्यमण्डल का आयाम विष्क म्भ ९९६५१ योजन का है और एक योजन के ६१ भागों में से ९ भागप्रमाण है तथा 'तिणि य जोयणसयसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साइं एगं च पणवीसंजोयण सय परिक्खेवेणं' तथा इसकी परिधिका प्रमाण ३ लाख १५ हजार १ सौ २५ योजन का है जब पूर्वमण्डलायाम विष्कम्भ प्रमाण-९९६४५३५ में इस मण्डलकी वृद्विमें ५- जोड़ दिये जाते हैं तो पूर्वोक्त प्रमाण आ जाता है। अब यहां उक्त से अतिरिक्त मंडलों के आयाम विष्कम्भ आदि के परिज्ञान निमित्त अलिदेश वाक्य का कथन करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'एवं एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं उवसंकममाणे२' इस तरह मंडल त्रय के सम्बन्ध में प्रदर्शितरीति के अनुसार उपाय से निकलता हुआ सूर्य तदनन्तर मंडल पर जाते जाते पांच पांच योजन और एक योजन के ६१ भागों में रो ३५ भाग प्रमाणकी एक एक मंडल पर विष्कम्भ की वृद्धिको હે ગૌતમ! આત્યંતર તૃતીય સૂર્યમંડળના આયામ વિષ્ઠભ ૯ ૬૫૧ જન જેટલા છે भने ४ यानना ११ मागोमांथी ८ मा प्रमाण छ, तेमा 'तिण्णिय जोयणसयसहस्साई पण्णरस जोयणसहस्साई एगंच पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं' तम०४ यानी પરિધિકાનું પ્રમાણ ૩ લાખ ૧૫ હજાર ૧ સૌ ૨૫ પેજન જેટલું છે. જ્યારે પૂર્વમંડળના આયામ અને વિધ્વંભનું પ્રમાણ ૯૯૬૪૫ માં આ મંડળની વૃદ્ધિમાં પ૩ જેડ વામાં આવે છે, ત્યારે પૂર્વોક્ત પ્રમાણ આવી જાય છે. હવે અહીં ઉક્તાતિરિક્ત મંડળના આયામ વિધ્વંભાદિના પરિજ્ઞાન નિમિત્તે અતિદેશ વાક્યનું કથન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે, 'एवं एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं उवस. कममाणे २०' २प्रमाणे म त्रयना समयमा प्रदर्शित शत भुभम पायथी નીકળતો સૂર્ય તદનંતર મંડળથી પરે જતાં જતાં પાંચ-પાંચ જન અને એક એજનના ज० ५ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुद्वीपप्रालियो योजनस्य 'एगमेगे मंडले विक्खं भमबुद्धि अभिवद्धमाणे अभिवर्तमाणे' एकस्मिन् मण्डले प्रतिमंडलमित्यर्थः अभिवर्द्धयन् अभिवर्दयन् वृद्धिकुर्वन्नित्यर्थः, 'अट्ठारस अट्ठारस जोयणाई परिरयबुद्धिं अभिवढेमाणे अभिवद्धेमाणे' अष्टादशाष्टादशयोजनानि प्रतिमंडलपरिरयबुद्धिं परिक्षेपविषयकं ज्ञानम् अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् अधिकाधिकं कुर्वन् इत्यर्थः 'सम्बबाहिरं मंडलं' सर्वबाह्यं सर्वापेक्षया बहिर्भूतं सूर्यमण्डलम् 'उवसंकमित्ता' उपसंक्रम्य संप्राय चारं चरइ' चारं स्वकीयां गति चरति. सर्वान्तिममंडलपर्यन्तं गतिं करोतीति । अथ प्रकारान्तरेण कथितमेवार्थं बोधयितुं पश्चानुपूर्त्या प्रश्नयनाह-सव्वबाहिरए' इत्यादि 'सव्वबाहिरएणं सूरमंडले' सर्वबाह्यं खलु भदन्त ! सूर्यमण्डलम् 'केवइयं आयामविक्खंभेणं' कियदायामविष्कंभाभ्याम् दैध्य विस्ताराभ्याम् 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' कियता परिक्षेपेण कियत्प्रमाणक परिधिना प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमे' त्या द, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगं जोयणसयसहस्सं' एकं योजनशतसहस्रं लक्षक मित्यर्थः, 'छच्च सटे जोयणसए' षट् च षष्ठि योजनशतानि. षष्टयधिकानि षट् योजनशतानीत्यर्थः, 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कंभाभ्यां प्रज्ञप्तम् अयं भाव: करता २ और प्रतिमण्डल पर १८-१८-योजन की परिक्षेप वृद्धि को अधिक अधिक करता 'सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' सर्वबाह्य मंडलको प्राप्त करके अपनी गलिको करता है सर्वान्तिममण्डल पर्यन्तगति करता है। अव प्रकारान्तर से सूत्रकार इस कथित अर्थकों समम्झाने के लिये पश्चादानुप्बीद्वारा प्रश्न और उत्तर रूप में कथन करते हैं 'सव्ववाहिरएणं सूरमंडले केवइ यं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! सर्वबाह्य सूर्यमंडल कितने आयामवाला-लंबाईवाला और विस्तारवाला-चौडाईवाला-है ? तथा कितना इसका परिक्षेप हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! एगं जोयण सयसहस्सं छच्च सट्टे जोयणसए' हे गौतम! सर्वबाह्य सूर्यमंडल १ लास्त्र ६-सौ ६० योजन का लम्बा चौडा है यह इस प्रकार से-जम्बूद्वीप एक ૬૧ ભાગમાંથી ૩૫ ભાગ પ્રમાણની એક-એક મંડળ પર વિÉભની વૃદ્ધિ કરતે-કરતે અને પ્રતિમંડળ પર ૧૮-૧૮ યોજન જેટલી પરિક્ષેપ વૃદ્ધિને અધિકાધિક બનાવે 'सवबाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरई' साया मान प्राप्त शत जति रे છે–સક્તિમમંડળ પર્યત ગતિ કરે છે. હવે પ્રકારાન્તરથી સૂત્રકાર આ કથિત અર્થને સમજાવવા માટે પશ્ચાદાનુપૂર્વી દ્વારા प्रश्न भने उत्त२ ३५मां ४थन ४२ छ-'सव्वबाहिरएणं सूरमडले केवइयं आयामविक्खं. भेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' मत! सव माह सूर्य भ७ ८३॥ मायाम सुस्त લંબાઈ યુક્ત અને વિસ્તાર યુક્ત-ચેડાઈવાળો છે? તેમજ આને પરિક્ષેપ કેટલે છે? એના नाममा प्रभु ४३ -'गोयमा ! एगं जोयणसयसहस्सं छच्च सटे जोयणसए' 3 गौतम ! સર્વ બાણા સૂર્યમંડળ એક લાખ ૬ સે ૬૦ એજન જેટલું લાંબે અને પહેળે છે. આમ , Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. ४ मण्डलायामादि वृद्धिहानिनिरूपणम् जम्बूद्वीपयोलसयोजन प्रमाणकः तस्योभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकं त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रस्यातिक्रम्य परतो वर्तमानत्वात् अस्य यथोक्त मेवायामविष्कंभप्रमाण १००६६० भवतीति । 'तिष्णि य जोयणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई' त्रीणि च योजनशतसहस्राणि लक्षत्रयमित्यर्थः अष्टादशच सहस्राणि 'तिण्णि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए" त्रीणि च पं वदशोत्तराणि शतानि. पंचदशाधिकानि त्रीणि योजनशतानि किंचिदुनानीत्यर्थः 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिनेत्यर्थः प्रज्ञप्तं भवतीति । अथ द्वितीयमंडलविषयक प्रश्नमाह - बादराणंतरेणमित्यादि 'बाहिरागतरेण भते सूरमंडळे बाह्यानन्तरं खलु भदन्त सूर्यमंडलम् सर्वबाह्यात् सूर्यादनन्तरं द्वितीयं सूर्यमंडलमित्यर्थः 'केवईये आयाम विखंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पश्नत्ते' कियदद्यामविष्कंभाभ्यां कियता परिक्षेपेण परिरयेणं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमेत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'एगं जोयणसय सहस्सं' एकं योजनशतसहस्रम् लज़योजनमित्यर्थः, 'छच्च चउपन्ने जोयणसए' षट् च चतुः पंचाशत योजनशतानि चतुः पंचाशदधिकानि एड योजन शतानीत्यर्थः, ' छव्वीसं-लाख योजन का है इसकी दोनों बाजू पर ३३० योजन ३३० योजन छोडकर आगे लवण समुद्र वर्तमान है इस तरह इसका यथोक्तही आयामविष्कम्भ का १००६६० योजन का प्रमाण हो जाता है. 'तिष्णि य जोगणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई तिष्णिय पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं' तथा ३ लाख १४ हजार तीन सौ १५ योजन का इसका परिक्षेप हैं । 'बाहिराणंतरं भंते ! सूरमंडले केवइयं आयामक्खिंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं toणते' हे भदन्त ! द्वितीय जो सर्वबाह्य सूर्यमण्डल है. वह कितने आयाम और विष्कम्भ वाला है ? यथा केवहयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' कितना इसका परिक्षेप है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! एवं जोयणसघसहस्सं छच्च उपन्ने जोयणसए छव्वीसं च एगसडिभाए जोयणस्स आयमविक्रमेणं' આ જમૂદ્રીપ એક લાખ યાજન જેટલે છે. એની બન્ને તરફ ૩૩૦ ચેાજન ૩૩૦ યાજન સ્થાન છેડીને આગળ લવણુસમુદ્ર આવેલ છે. આ પ્રમાણે આના યથક્ત આયામ विष्णु १००६६० योजन भेटसु प्रमाणु या लय छे. 'तिष्णिय जोयणसयसहरसोई अट्ठारस सहस्साइं विणिय पण्णरसुत्तरे जोयणसर परिक्खेवेणं' तेभन उ लाम ૧૮ હજાર ૩સે ૧૫ યાજન જેટલા ના પરિક્ષેપ છે. 'बाहिरानंतर भंते! सूरमंडले वेवइयां आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' હૈ ભદત ! દ્વિતીય જે સ` બાહ્ય સૂર્યમડળ છે તે કેટલા વ્યાયામ અને વિષ્મભવાળે છે ? तथा 'केवइय' परिक्खेवेणं पन्नत्ते' टी यानी परिक्षेत्र छे ! सेना वामां प्रभु ४ छे 'गोमा ! एवं जोयणसयसहस्स छच्च चउपन्ने जोयणसए छव्वीस च एगसट्टिभाए जोयree आयामविक्खंभेणं' हे गौतम ! सर्व माह्य सूर्य पछी ने द्वितीय सूर्यमंड Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे च एगसद्विभाए जोयणराडू विंशतिश्चैकष्ठिभागान् एकस्य योजनस्य “आयामविखंभेणं' आयामविष्कंभाभ्यां प्रज्ञप्तं दैध्यविस्ताराभ्यां कथितम्, 'तिण्णि व जोयणसयसहस्साई' श्रीणि च योजनशतसहस्राणि लक्ष त्रयमित्यर्थः, 'अट्टारस य सहस्साई' अष्टादश च सहस्राणि 'दोण्णि य सत्ताणउए जोयणसए परिक देवेणत्ति' द्वेव सप्तनवतियोगनशते सप्तन्यत्यधिके द्वे योजनशतेइत्यर्थः परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तं कथितं सर्ववाद्यं द्वितीयं सूर्यमण्डलमिति । संप्रति तृतीयमंडलविषयकं प्रश्नमाह-'बाहिरतच्चेणमित्यादि 'बाहिरतचेणं भंते ! सूरमंडले' पाह्यतृतीयम् अभ्यन्त मण्डलात् सर्वतो बाह्य तृतीयं खलु भदन्त सूर्यमण्डलम् 'केवइयं आयाम विक्खंभेणं केवइयं परिक्वेवेणं पनत्ते' क्रियदायामविष्कंभाभ्यां कियत्प्रमाण देय विस्ताराभ्याम कियता परिक्षेपेण कियत्प्रमाणकेन परिरयेण च प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमेत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगं जोयणसयसहस्स' एक योजनशतप्त हस्रम् लकयोजन प्रमाणकमित्यर्थः, 'छच्च अडयाले जोयणसए' षट् चाष्टचत्वारिंशन योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि पइयोजनशतानीत्यर्थः, 'वावण्णं च एगसद्विमाए जायणस' द्वि पंचा. शच्चैकषष्ठिभागान् योजनस्य 'आयामविक्खभेष' आयामविष्कभाभ्यां सर्वाह्य तृतीयं सूर्यमंडल प्रज्ञप्तम् उपपत्तिश्चात्थं अनन्तरपूर्वमंडलात् पंचविंश देकषष्ठिभागाधिक द्वि पंचाशद् योजनवियोजने भवतीति । 'तिष्णि य जोयणसयसहस्साई' त्रीणि च योजनशतसहस्राणि लक्षत्रयाणीत्यर्थः, 'अट्ठारस य सहस्साई' अष्टादश च सहस्राणि 'दोणिय अउणासीए जोयणसए' द्वे चैकोनाशीतियोजनशते एकोनाशीत्यधिके द्वे योजनशते इत्यर्थः 'परिक्खेवेणं' सर्वबाह्य तृतीयं सूर्यमण्डलमुपयुक्तमाणक परिक्षेपेण परिक्षिप्तं प्रज्ञप्तम् ___ अत्र खलु पूर्वमंडल परिधेरष्टादशयोजनस्थ शोधने कृते सति यथोक्तं तृतीयसूर्यमंडस्य परिधिमानं भवतीति । शेषयाह्यसूर्यमण्डलानामायामादि प्रमाणम तदेशेन कथयितुमाह-एवं खलु एएणमित्यादि, 'एवं खलु' एवमुपरोक्त कथितप्रकारेण खलु 'एएणं उवारणं' एतेनो. हे गौतम ! सर्वग्राह्य सूर्य सेअनन्तर जो द्वितीय सूर्यमण्डल हैं उसकाआयाम विष्कम्भ १ लाख ६ सौ ४८५० योजन का है. 'तिणि य जोयणसयसहस्साई दोणि य अऊणासीए जोयणसए परिक्खेवेणं' तथा इसका परिक्षेप प्रमाण ३लाख १८ हजार दो सौ-७९ योजन का है. अब शेष बाह्य सूर्यमंडला केआयामादि के प्रमाण को अतिदेश वाक्य द्वारा प्रकट करने के लिये सूत्रकार 'एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे मूरिए' इस पूर्वोक्त कथित तना मायाम १०४ो १ . ६ स ४८५२ २४ २८६॥ छ. 'तिणि य जोयण सयसहस्साई दोण्णि य अऊणासीए जोयणसए परिक्खेवेणं' तेभ माने। परिक्षे५ प्रमाणु 3 લાખ ૧૮ હજાર રસો ૭૯ જન જેટલું છે. હવે શેષ બાહ્ય સૂર્યમંડળના આયા महिना प्रमाणने सतिश पाय द्वारा प्र४८ ४२वा माटे सू२ 'एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए' मा पूति थित पति भुम प्रदेश ४२तो सूर्य तहनतर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् पायेन क्रमेण 'पविसमाणे सूरिए' प्रविशन् सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् मंडलात् 'तयाणंतरं मंडळ संकममाणे संकममाणे' तदनन्तरं मण्डलम् एकस्मात् मंडलात् तदपरं मण्डलम् गच्छन् गच्छन् सूर्यः, 'पंच पंच जोयणाई पणती संच एगसद्विभाए जोयणस्स' पंच पंच योजनानि पंचत्रिशच्चैकषष्ठिभागान् एकयोजनस्य 'एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन् मंडले प्रतिमंडलम् 'विक्खंभबुद्धिं णिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे' विष्कं अबुद्धि निरर्द्धयन् निर्द्धयन् निवर्तयन् परित्यजनित्यर्थः, 'अट्ठारस अट्ठारसजोयणाई परिस्यबुद्धि मिव्वुढेमाणे णिचुट्टेमाणे' अष्टादशाष्टादशोजनानि परिरयबुद्धि परिधिबुद्धिं निवृद्धयन् निवृद्धयन् परित्यजन् 'सयान्भंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तर मण्डलमुपसंक्रम्प संप्राप्य स्वकीयं चार गतिं चरति करोति इति । गतमायादि वृद्धिद्वारम् । अनेनैवप्रकारेण द्वयोः सूर्ययोः परस्परमवाधाद्वारम् अभ्यन्तरबाह्यमंडलादिषु क्रमशो ज्ञातव्यमिति सू० ४ ॥ सम्प्रति सप्तम मुहूर्तगतिद्वारं वर्णयितुं पंचमसूत्रमाह-'जयाणं भंते' इत्यादि मूलम्-जयाणं भंते ! सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तयाणं एगमेगेण मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साइं दोणिय एगावण्णे जोयणसए एगणतीसंच सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तयाणं इहगयस्स मणूपद्धति के अनुसार प्रवेश करता हुआ सूर्य तदन्तर मंडल से तदनन्तर पर जाता २ एक मंडल से दूसरे मण्डलपर संक्रमण करता २ 'पंच पंच जोगणाई पणतीसं च एगसहिभाए जोयणस्स एगभेगे गंडले नियमबुद्ध णियुद्धेमाणे २, पांच पांच योजन और एक एक मंडल में विष्कम्भ बुद्धि का परित्याग करता २ 'अट्ठारस २ जोयणाई परिरय वुद्धिं णिचुडेमाणे २' एवं १८-१८ योजन की परिक्षेप बुद्धिका परित्याग करता २ 'सव्वभंतरं मंडलं उपसंकमित्ता 'चार चरई' सर्वाभ्यन्तर मंडलपर पहुंच अपनी गतिकरता है ।।सू०४॥ आयामादि वृद्धि हानिद्वार समाप्त મંડળથી તદનંતર મંડળ પર જતે-જતે એક મંડળથી બીજા મંડળ ૫ર સંસ્ક્રમણ કરતે४२ते'पंच पंच जोयणाई पणतीस च एगसद्विभार जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभबुद्धिं मिबुद्धमाणे २' पांच-पांय योरन मनस-ये योजना ११ मागोमाथी ३५ भाग प्रमाणु मे -४ मसभा (Axn मुद्धिन परित्या ४२-४२। 'अट्ठारस २ जोयणाइ परिरयबुद्धिं णिब्बुड्ढेमाणे २' तेम०८ १८-१८ याननी परिक्ष५ सुद्धिन परित्या ४२तो४२. 'सव्वमंतर मंडलं उपस कमित्ता चार चरइ' सत्यत२ भ७३ ५२ पलायन પોતાની ગતિ કરે છે. સૂ૦ ૪ આયામાદિ વૃદ્ધિ હાનિ દ્વારા સમાપ્ત Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मूदीपप्रज्ञप्तिसूत्र सस्स सोयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं एगवीसाए य जोयणस्स सटिभागेहिं सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छइ त्ति से णिस्खममाणे मूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि सबभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति। जयाणं भंते ! सूरिए अभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं एगमेगेर्ण मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई दोणि य एगावणे जोयणसए सीयालीसं च एगसहिभाए जोयणस्स एगमेगेण मुहुत्तेगं गच्छइ तयाणं इहगयस्स मणुसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं एगूणासीए जोयणसए सत्तावण्णाए य सट्टिभागेहिं जोयणस्स सट्ठिभागं च एगसट्ठिधा छेत्ता एगूणवीसाए चुणियाभागेहि सूरिए चकवुप्फासं हवमागच्छइ, से णिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ! जयाणं भंते ! सूरिए अभंतरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ, गोयमा! पंच पंच जोयणसहस्ताइं दोणि य बावणे जोयणसए पंच य सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तयाणं इहगयस्स मणूसस्त सीयालीसाए जोयणसहस्से हिं छण्णउइए जोयणेहिं तेत्तीसाए सदिमागेहिं जोयणस्स सटिभागं च एगसट्टिधा छेत्ता दोहिं चुणियाभागेहिं सूरिए चक्खुफासं हवमागच्छइ, एवं खलु एएणं उवाएणं मिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संक्रममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई अभिवुड्डेमाणे अभिवुवुडूमाणे चुलसीइं चुलसीई सयाइं जोयणाई पुरिसच्छायं गिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे सव्वबाहिरं. मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, जयाणं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ, गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई तिणि य पंचुत्तरे जोयण. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राशिका का-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् सए पफ्णरस य सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ तयाण इहगयस्स मणुसस्स एगतोसाए जोयणसहस्सेहिं अटूहि य एगतीसेहि जोयणसएहिं तीसाए य सटिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ ति, एस णं पढमे छम्मासे, एसणं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, से सूरिए दोच्चे छम्मासे अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। जयाणं भंते ! सूरिए बाहिरहणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ, गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई लिपिण य चउरुत्तरे जोयणसए सत्तावण्णं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तयाणं इहगयस्स मणुसस्स एगतीसाए जोयणसहस्सेहिं णवहि य सोलसुत्तरेहिं जोयणसएहिं दूगुणालीसाए य सद्विभागेहि जोयणस्स सद्विभागं च एगसट्टिधा छेत्ता सट्टीए चुण्णियाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फास हव्वमागच्छत्ति । से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, जयाणं भंते ! सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई तिणि य चउरुत्तरे जोयणसए दूगूणालीसं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्ते गच्छइ, तयाणं इहगयस्स मणुसस्स एगाएहिं बत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं एगूणपण्णाए य सद्विभाएहिं जोयणस्स सटिभागं च एगसट्टिधा छेत्ता तेवीसाए चुणियाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फ़ासं हवमागच्छइ त्ति, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सद्विभाए जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगइं निवटेमाणे निवढेमाणे सातिरेगाइं पंचासीइं जोय. णाई पुरिसच्छायं अभिवद्धेमाणे अभिवढेमाणे सयभंतरं मंडलं उव. संक्रमित्ता चारं चरइ, एसणं दोच्चे छम्मासे, एसणं दोच्चस्स छम्मा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूर्य सस्स पजवसाणे, एसणं आहच्चे संवच्छ रे, एसपां आइच्चस्स पज्ज. वसाणे पन्नत्ते ॥सू० ५॥ छाया-यदा खलु भदन्त ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल्लु एकैकेन मुहर्तेन कियन्त क्षेत्रं गच्छति गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्त्राणि द्वेचैक पंचाशत् योजनशते एकोनत्रिंशत् च षष्ठिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहर्तेन गच्छति, तदा खल इहगतस्थ मनुष्यस्य सप्तवत्वारिंशत् योजनासहस्राभ्यां च त्रिषष्ठाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्याच योजनस्य षष्ठिभागैः सूर्यः चक्षुः स्पर्श शीघ्रमागच्छृति, स निष्क्रामन् सूर्यौ नवं संवत्सरमयमानः प्रथमे अहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतीति । यदा खलु सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एककेन मुहूर्तन कियन्तं क्षेत्र गच्छु ति, गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपश्चाशे योजनशते सप्तचत्वारिंशत् षष्ठिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदा चलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशत् योजनसहौरेकोनाशीति योजनशतेन सप्तपश्चाशत् षष्ठिभागै योजनस्य षष्ठिभागं च छित्वा एकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुस्पर्श शीघ्रमागच्छति, च निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तरतृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चरं चरति । यदा खलु भदन्त सूर्यः अभ्यन्तरतृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियन्तं क्षेत्रं गच्छति, गौतम ! प पश्च योन स्वामि द्वे व द्विपंचाशत् योजनशते पंच च षष्ठिभागान् योजनस्यै कैकेज मुहूत्तन गच्छति, तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशत् योजनसहरीः पन ति योजनैः यः त्रिंशत् पष्ठिभागै योजनस्य पष्ठिभागं चैकषष्ठिश छित्वा द्वाभ्यां चूनिशाभागाभ्यां सूर्यश्च दुःस्पर्श शीघ्रमागच्छति, एवं खलु ५ तेनोपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदनन्तशत् भडलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन संक्रामन् अष्टादशाष्टादशपष्टिभागान् योजन स्यैकैस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् चतुरशीति शतानि योजनानि पुरुषछायं निवद्धपन नियन् सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । यदा खलु भदन्त ! सूर्यः सर्वच ह्यमण्डलमुपसंक्रम्पद चार चरति, तदा खलु एकैकेन महूर्तेन कियातं क्षेत्रं गच्छति, गौतम ! पश्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणिच पञ्चोत्तरयोजनशतानि पञ्चदश च पष्ठिभागान् योजनस्य केन मुहूर्तेर गच्छति, तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्यैकत्रिंशता योजनसहत्रैरष्टा भिश्चै त्रिशना योजनशतैः त्रिंशता च पष्ठिभागै योजनस्य सूर्यः चक्षुः स्पर्श शीघ्रमा गति, एपः खलु प्रथमः पामासः एतत् खलु प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम्, अथ सूर्यो द्वितीय पदासमयमानः प्रथो अहोरात्रे बाह्यानन्तरं मंडलमुपसंक्रम्य चारं चरति । यदा खलु भदन्त ! सूर्यः बयानन्तरं मंडलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहर्तन कियन्तं क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पंच पंच योजन सरस्राणि त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि सप्तपंचाशत् पचिपागा योजनस्यैकैकेन मुहत्तेन गच्छति, तदा खलु इह गतस्य मनुष्यस्यैक त्रिंशता योजनसहनै नवभिश्च पोडशोत्तरै योजनशतैरेकोनचत्वारिंशता च षष्ठिभागै योज Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् मस्य षष्ठिभागं चैकषष्ठिधा छि वा षष्ठया चूणि कामागैः सूर्यः चक्षुः स्पर्श शीघ्रमागच्छति, भथ प्रविशन् सूर्यों द्वितीये अहोरात्रे वाह्यतृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति । यदा खलु भदन्त ! सूर्यों बायतृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियन्तं क्षेत्रं गच्छति, गौतम ! पंच पंन योजनसहस्राणि त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशत् च षष्ठिभागान् योजनस्यै कैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदा खलु इहगतस्यमनुष्यस्य एकाधिकै त्रिंशता योजनसहरेकोनपंचाशत् च पष्ठिभागै यो जनस्य पष्ठिभागमेकषष्ठिया छित्वा त्रयोविंशत्या चूणिकाभागैः सूर्यः चक्षुः स्पर्श शीघ्रमागच्छतीति एवं खल्वेतेनोपायेन प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तरात्मंडलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् अष्टादशाष्टादशपष्ठि मागान योजनस्येकैकस्मिन् मंडले मुहर्तगति निवर्द्धयन् निवर्द्धयन् सातिरेकाणिपश्चाशीति योजनानि पुरुषच्छायामभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, एषः खल द्वितीयः षण्मासः एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् एषः खलु आदित्यः संवत्सरः एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानं प्रज्ञप्तम् ॥ सू०५॥ टीका-'जया णं भंते सुरिए' यदा यस्मिन्काले खलु भदन्त सूर्य आदित्यः 'सव्वभंतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरं सर्वमण्डलापेक्षया आभ्यन्तरं मंडलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य संप्राप्य चारं गतिंचरति करोति 'तयाणं तदा तस्मिन्काले खलु 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्त्तन प्रतिमुहूर्त्तमित्यर्थः, 'केवइयं खेत्तं गच्छइ' कियत् कियत् प्रमाणक क्षेत्रम् गच्छत्तीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमे' त्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पंच पंच योजनसहस्राणि 'दोणिय एगावन्ने जोयणसए' द्वे चैकपश्चाशत् योजनशते एक सातवें मुहूर्तगतिद्वार का वर्णन 'जयाणं भंते ! सरिए सव्वभंतरं मंडलं-इत्यादि' । टिकार्थ-गौतमने इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है-'जयाणं भंते ! सूरिए सन्चभंतरं मंडलं' हे भदन्त ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर-सव मण्डल की अपेक्षा आभ्यन्तर मण्डलपर 'उवसंकमित्ता चारं चरइ' आकर के अपनी गति करता है 'तयाणं' तब वह 'एगमेगेणं मुहत्तणं केवइयं खेत्तं गच्छुइ' एक एक मुहूत्ते में कितने क्षेत्र तक जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई સાતમા મુહૂર્ત ગતિ દ્વારનું વર્ણન. 'जयाणं भंते ! सूरिए सव्वभंतर मडल' इत्यादि ट -गोतमत्वामी से म। सूत्र 43 म तने प्रश्न ४ छ-'जयाणं भंते ! सूरिए सबभंतर मंडलं' हेत! न्यारे सूर्य सत्यन्त२ स भजनी अपेक्षा माश्यतर भ ने, 'उवसंकमित्ता चारं चरई' प्राप्त रीने गति ४२ छ, 'तयाणं' से समये 'एगमेगेणं मुहुत्तेग' 8-मे मुतभा 'केवइयं खेत्तं गच्छ' ४८६॥ प्रभाव क्षेत्रमा गति ४२ छ ? गौतमस्वामीन। सा प्रश्न उत्तरभां प्रभुश्री से 2-'गोयमा ! 3 गोतम ! पंच-पंच जोयणसहस्साई' पाय पाय M२ योन 'दोण्णिय एगावण्णे जोयणसए' मसो ज०६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % DEnd जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे पंचाशदधिकं योजनशतद्वय मित्यर्थः, पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे शते एक पञ्चाशदधिके एकोनत्रिंशत् भागान षष्ठिभागस्य प्रतिमुहर्त गच्छतीति । 'एगृणतीसं च सद्विभाए जोयण. स्त' एकोनत्रिंशतं षष्ठि पागान् योजनस्य 'एगमेगेण मुहुत्तेणं गच्छई' एकैकेन मुहूर्तेन प्रतिमुहूर्त्तमित्यर्थः, गच्छति चारं चरतीति । ___ अथ कथमेतावत् प्रमाणं भवतीति चेदत्रोच्यते अत्र खलु सर्वमपि मण्डल मेकेनाहोरात्रेण सूर्यद्वयाभ्यां परिसमाप्तं क्रियते प्रतिसूर्यमहोरात्रस्य गणनायां वस्तुतो द्वावेवाहोरात्रौ भवतः द्वयोरपि अहोरात्रयो मध्ये पष्टिमुहूर्ता भवन्ति तबो मण्डलपरिक्षेपस्य षष्ठिसंख्यया भागे कृते (हते) सति यल्लब्धं भवति तदेव मुहूर्त तिप्रमाणम् तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरसूर्यमण्डलस्य परिक्षेपः (परिरयः) त्रीणि लक्षाणि पंचदश सहस्राणि एकोननक्त्यधिकानि योजनानाम् ३१५०८९ भवति, एतःसां संख्यानां षष्ठिसंख्यया भागे दत्ते सति शेषं लब्धं भवति ५२५१:१ प्रमाणमिति । 'तया णं इह गयस्स मणुसस्स' तदा खलु इगतस्य मनुष्यस्य यत्तदो नित्य सम्बन्ध इति नियमात् यत्तच्छन्दो भवति अवश्यमेव यत् शब्दस्य सम्बन्धः ततश्च यदा सूर्य एकेन मुहूर्तेन एतावत् ५२५१२:प्रमाणकं गच्छति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डल. दोणि घ एगावण्णे जोयणसए एगूणतीसं च सद्विभाए जोयणस्स' हे गौतम! एक सूर्य एक मुहूर्त में ५२५१ २० योजन प्रमाण क्षेत्र तक गमन करता है। सूर्य के प्रतिमुहूर्त में इतने प्रमाणवाले क्षेत्र मे गमन करने का यह प्रमाण कैसे साबित होता है ? तो इसका समाधान ऐसा है कि एक अहोरात में स. मस्त मण्डल दो सूर्यो द्वारा समाप्त किया जाता है वस्तुतः प्रति सूर्यके अहोरात की गणना में दो ही अहोरात होते हैं । दो अहोरात के मध्य में ६० मुहूर्त होते हैं। मंडलपरिक्षेपका जो प्रमाण है उसमें ६० की संख्या का भागदेने पर जो लब्ध आता है वही एक मुहूर्त में गतिका प्रमाण कहा गया है-जैसे सर्वाभ्यन्तर सूर्य मण्डलका परिक्षेत्र प्रमाण ३ लाख १५ हजार ८९ योजन का है इसमें ६० का भाग देने पर ५२५१ योजन का हिसाब निकल आता है 'तयाणं इहએકાવન જન અર્થાત્ પાંચ હજાર બસે એકાવન (અને સાઠિયા ઓગણત્રીસ ભાગ) ४३४ मुतभा तय है. 'एगूणतीसंच सद्विभाए जोयणस्स' मे४ योजना साया मेंबासमा मा 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ' मे मुतभा अर्थात् प्रत्ये: भुतभा जय छे. આ પ્રમાણે કેવી રીતે થાય છે? તે બતાવે છે- અહીંયાં સંપૂર્ણ મંડળ એક રાત્રિ દિવસમાં સમાપ્ત કરવામાં આવે છે. દરેક સૂર્યના અહેરાત્રની ગણનામાં વાસ્તવિક બે અહોરાત્ર જ થઈ જાય છે. બે અહેરાત્રમાં ૬૦ સાઠ મુહૂર્ત થાય છે. પછી મંડળ પરિક્ષેપને ૬૦ સાડની સંખ્યાથી ભાગાકાર કરવાથી જે આવે છે એજ મુહૂર્ત ગતિનું પ્રમાણ છે. તે આ રીતે સમજવું-સર્વાયંતર સૂર્યમંડળને પરિક્ષેપ (પરિચય) ૩૧પ૦૮૯ ત્રણ લાખ પંદર હજાર નેવાસી થાય છે. તે સંખ્યાને સાઠથી ભાગવાથશેષ જે આવે છે. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् ४३ संक्रमणकाले इह गतस्यैतत् क्षेत्रादौ स्थितस्य मनुष्यस्य मनुष्यस्येत्यत्र जातावेकवचनम् तेनेह गतानां भरतक्षेत्रस्थितानां मनुष्याणाम् 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सप्तचत्वारिंशत् योजनest: 'दोहिय तेवद्वेहिं जोयणसएहिं' दाभ्यां च त्रिषष्टिभ्यां योजनशताभ्याम् त्रिषष्ठ्यधिकाभ्याम् द्वाभ्यां योजनशताभ्यामित्यर्थः, 'एमवीसाए य जोयणस्स सहिभाएहिं एकविंशत्या च योजनस्य षष्ठिभागैः एकस्य योजनस्य षष्ठिभागाः कल्प्यन्ते तेषु षष्ठिभागेषु मध्यात् एकविंशतिभागैरित्यर्थः 'सूरिए' उदयं गच्छन् सूर्यः 'चक्खुप्फासं हव्यमागच्छ ' चक्षुः स्पर्श चक्षुर्विषयं हव्वं शीघ्रमाच्छति लोकानां सूर्य:, अत्रस्पर्शशब्दो न इन्द्रियस्य विष यस मणुसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहिं : तेवद्वेहिं जोयणसहसेहिं एगवीसाए य जोयणस्स सहिभाएहि सूरिए चक्खुप्फार्स हव्वमाग च्छ्रइत्ति' जब सूर्य एक मुहूर्त में ५२५१ योजन प्रमाण क्षेत्र में भ्रमण करता है तब उस सर्वाभ्यन्तर मण्डल में संक्रमण काल में यह भरत क्षेत्रस्थ मनुष्यों की दृष्टि का विषय बनता है यहांसे वह ४७२६३ ? योजन को दूरी पर है यहां सूत्र में सूत्रकार ने जो चक्षुःस्पर्श" ऐसा पाठ रखा है वह चक्षु इन्द्रिय के विषयका वाचक है चक्षु इन्द्रिय के साथ उस पदार्थ के सन्निकर्षका वाचक नहीं है क्योंकि जैन दर्शकों ने चक्षुइन्द्रिय को अप्राप्यकारी माना है मन और ये दोनों इन्द्रियां ऐसी हैं जो पदार्थ के साथ प्राप्त नहीं होती हैं शेष इन्द्रि य पदार्थों से भिडकर ही अपने २ विषयका बोध कराती हैं । अत:- "चक्षुः स्पर्श" शब्द चाक्षुषज्ञान विषयता परक है । दिन के आधे समय में जितना क्षेत्र व्यास होता है उतने प्रमाण क्षेत्र में व्यवस्थितहुआ सूर्य दिखाई देता है ५२५१ ते मुहूर्त गतिनु प्रमाणु छे. 'तयाणं इह गयस्स मणुसहस' ते समये या ક્ષેત્રમાં અર્થાત્ ભરતક્ષેત્રમાં રહેલા મનુષ્ચાના (યંત્ તત્) શબ્દના નિત્ય સંબંધ હાવાથી જ્યાં યત્ શબ્દ હોય ત્યાં અવશ્ય જ તત્ શખ્ત હાય છે. એટલે અહીં પણ યત્ શબ્દને સબધ આવે છે. તેનાથી જ્યારે સૂર્ય એક મુહૂર્તમાં આટલા પર્૫૧૨૯ પ્રમાણુવાળા ક્ષેત્રની ગતિ કરે છે ત્યારે સર્વાભ્યન્તર મડળ એક જ કાળમાં અહીં રહેલા મનુષ્યને 'सीयालीस ए जोयणसहस्सेहिं' ४७ सुडतालीस डलर योजनथी 'दोहिय तेवद्वेहिं जोयण सहिं' २६३ असो त्रेसठ योजन 'एक्कवीसाए य जोयणस्स सहिभाएहिं मे योननना સાઠિયા એકર્વીસ ભાગ ર્ અર્થાત્ એક ચૈાજનના સાઠે ભાગની કલ્પના કરવી એ સાઠે भागोमांथी मेऽवीसभां लागना 'सूरिए' अतो येवो सूर्य' 'चक्खुप्फार्स हव्त्रमागच्छइ' सोनी દૃષ્ટિમાં આવે છે. અહીંયા સ્પર્શી શબ્દ ઈંદ્રિયોના વિષયાના સનિક જનક નથી, કારણ કે જૈનદર્શીનમાં ચક્ષુ ઇન્દ્રિય અપ્રાપ્યકારી માનેલા હેાવાથી વિષયાની સાથે તેના સંચાગના અભાવ છે. પરંતુ ચક્ષુ સંબંધી વિષયતાપરક છે. આ કથનના ભાવ એ છે કે-અર્ધો દિવસમાં જેટલા પ્રમાણવાળુ ક્ષેત્ર વ્યાપ્ત થાય છે એટલા ક્ષેત્રમાં વ્યવસ્થિતપણે સૂર્ય પ્રાપ્ત થાય છે. તેને જ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्द्वीपप्रकृतिसत्रे येण संनिकर्षबोधकः, चक्षुरिन्द्रियस्याप्राप्यकारितया विषयेण संयोगाद्यभावात् किन्तु चाक्षुषज्ञानविषयता परक एवेति । अयमर्थः अत्र खलु दिनस्यार्द्धन यावत्प्रमाणकं क्षेत्रं व्याप्त भवति तावति क्षेत्रे व्यवस्थितः सूर्य उपलभ्यते स एव लोके उदयमानो व्यवहियते सर्वान्तर मंडले तु दिनस्य प्रमाणमष्टादशमुहर्तास्तेषामष्टादशमुहर्तानामर्द्ध नवाहः , एकैकस्मिन मुहुर्ते चारं चरन् सूर्यः पंच योजनसहस्राणि द्वे योजनशते एक पंचाशोत्तरे एकोनविंशच पष्ठिभागान् योजनस्य गच्छति । एतावत् मुहूर्तगतिपरिमाणं यदा नवभिर्मुहूर्तेर्गुण्यते तदा भवति यथाकथितं दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमिति । दृष्टिपथप्राप्तता चक्षुःस्पर्श: पुरुषच्छायाः इत्येते समानार्थकाः, साच पूर्वतोऽपरतश्चतुल्य प्रमाणैव भवतीति द्विगुणितातापक्षेत्रमुदयास्तान्तरमित्यपि समानार्यकाः । इदं च सर्ववाद्यानन्तरमंडलात् पश्चानु. पूर्व्या गणितं सत् व्यशीत्यधिकशततमं भवति, प्रतिमंडलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोपि त्र्यशीत्यधिक शततमः तेनायमुत्तरायणस्य अंतिमो दिवसों भवति अयमेव च सूर्यवर्षस्य चरमदिवसः संवत्सरस्योत्तरायणपर्यवसानात्मकत्वादिति । इसे ही लोक में उदय हुआ सूर्य कहा जाता है सर्वाभ्यन्तर मण्डल में तो दिनका प्रमाण १८ मुहूर्त का होता है इन मुहूर्तों के आधे नौ मुहूर्त होते हैं एक मुहूर्त में गति करता हुआ सूर्ये ५२५५ योजन तक जाता है अब इस परिमाणको नौ से गुणाकरने पर जो चक्षुःइन्द्रिय का विषय प्रमाण कहा गया है वह निकल आता है दृष्टिपथ प्राप्तता, चक्षुःस्पर्श पुरुषच्छाया ये सब समानार्थक शब्द है यह दृष्टि पथ प्राप्तता पूर्व और पश्चिम की अपेक्षा तुल्य प्रमाणवाली ही होती है इसलिये द्विगुणता तापक्षेत्र उदयास्तान्तर ये भी समानार्थक शब्द है पश्चादानुपूर्वी के अनुसार यह सर्वयाह्यानन्तर मंडल से गिनने पर १८३ वां होता प्रति मंडल अहोरात्रकी गणना से एक अहोरात्रकी गिनती भी १८३ वां होता है इससे यह उत्तरायणका अन्तिम दिवस होता हैं और यही सूर्यवर्ष का લેકમાં ઉદય પામતે સૂર્ય એ પ્રમાણેને વ્યવહાર થાય છે. સભ્યન્તર મંડળનાં તે દિવસનું પ્રમાણુ અઢાર મુહૂતનું હોય છે. એ અઢાર મુહૂર્તના અર્ધા નવ મુહૂર્ત થાય છે. એક એક મુહૂર્તમાં ગતિ કરતો સૂર્ય પાંચ હજાર બસે પંચાવન જન અને એક જનના સાઠિયા એગણત્રીસ ભાગ ગમન કરે છે. આટલું મુહૂર્ત ગતિનું પરિમાણ જ્યારે નવ મુહૂર્તથી ગુણવામાં આવે ત્યારે પૂર્વોક્ત દષ્ટિપથ પ્રાપ્તતા સંબંધી પરિમાણુ થઈ જાય છે. દષ્ટિપથ પ્રાપ્તતા ચક્ષુઃ સ્પર્શ પુરૂષ છાયા આ શબે સરખા અર્થવાળા છે. તે પૂર્વ અને પશ્ચિમમાં તુલ્ય પ્રમાણુવાળા જ છે. તેથી બમણું તાપક્ષેત્ર ઉદય અને અસ્તાન્તર પણ સમાનાર્થક છે. સર્વ બાહ્યાભ્યન્તર મંડળથી પશ્ચાનુપૂવીથી ગણવાથી ૧૮૩ એકસે વ્યાસી થાય છે પ્રતિમંડળ અને અહેરાત્રની ગણના કરવાથી અહેરાત્ર પણ ૧૮૩ એકસે ભ્યાસી થાય છે. તેથી તે ઉત્તરાયણને છેલ્લે દિવસ થાય છે. એજ સૂર્ય વર્ષને છેલ્લો Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकप्रका टीका-वक्षस्कारः सू.सप्तम ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् __ अथ नवसंवत्सरप्रारंभप्रकारप्रज्ञापनाय सूत्रमाह-'से णिक्खममाणे इत्यादि 'से णिक्खमाणे सूरिए' अथ निष्क्रामन् सूर्यः अथाभ्यन्त मंडलात् निष्क्रामन् प्रसर्पन जम्बूद्वीपस्यान्तः प्रवेशेऽशीत्युत्तरलक्षयोजनप्रमाण के क्षेत्र चरमाकाशप्रदेशस्पर्शनानन्तरम् द्वितीयसमये द्वितीयमण्डलाभिमुखं प्रसर्पन इत्यर्थः, सूर्यः 'नवं संवच्छरं अपमाणे' नवं नवीनम् आगामिकालभाविनं संवत्सरमहोरात्रकूट स्वरूपं वर्षम् अयमानोऽयमानः आददान आददान इत्यर्थः 'पढमंसि अहोरशंसि' प्रथमे सर्वत आधे अहोरात्रे 'समभंतराणतरं मंडलं' सर्वाभ्यन्तरात् अनन्तरं द्वितीयं मंडलम् 'उवसंकमित्ता चारं चरई' उपसंक्रम्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलात अनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य संप्राप्य चारं गति चरति करोति अयमहोरात्रो दक्षिणायन संवत्सरस्याद्यः प्रथमोऽहोरात्रः संवत्सरस्य दक्षिणायनादिकत्वादिति । ___ अथात्र कीदृशीगतिः सूर्यस्य भवतीति दर्शनार्थ प्रश्नयनाह-'जयाण' मित्यादि 'जया चरम दिवस होता है क्योंकि संवत्सरका पर्यवसान उत्तरायण में होता है 'से णिक्खममाणे सूरिए' अब नवीन संवत्सर के प्रारम्भ प्रकार की प्रज्ञापना निमित्त सूत्रकार कहते हैं कि आभ्यन्तर मण्डल से निकलता हुआ सूर्य-अर्थात् जम्बूद्वीप के भीतर प्रवेश करने पर १ लाख ८० योजन प्रमाणक्षेत्र में चरम आकाश प्रदेशों की स्पर्शना के अनन्तर द्वितीय समयमें द्वितीय मडल की और पढता हुआ सूर्य-'नवं संवच्छरं अयमाणे २' आगामी काल भावी अहोरात्र कूट स्वरूप संवत्सरका प्रारम्भ करता 'पढमंसि अहोरत्तंसि सयभंतराणंतरं मंडलं उवमंकमित्ता' सर्वप्रथम अहोरात में सर्वाभ्यन्तर मण्डल से अनन्तर द्वितीय मंडल पर पहुंच कर 'चारं चरई' अपनी गति करता है यह अहोरात्र दक्षिणायन संवत्सर का अहोरात्र है क्योंकि संवत्सर दक्षिणायनादि स्वरूप ही तो होता है। सूर्य की कैसी गति होती है इसका कथन દિવસ છે. કારણ સંવત્સરની સમાપ્તિ ઉત્તરાયણમાં થાય છે. वे ना सवत्सरना प्रारमन प्र२ मता। माटे सूत्रधार है-'से णिवखममाणे सूरिए' 6 निभय ४२तो सूर्य मयत२ ममाथी नीजान दीपनी हर પ્રવેશ કરવામાં એક લાખ એંસી યેાજન પ્રમાણુવાળા ક્ષેત્રમાં અતિમ આકાશપ્રદેશના २५ ४२वाथी (भी समयमा पीक मामिभुम मस) सूर्य 'नवं संवच्छर अयમળે' નવા આગામી કાળ સંબંધી સંવત્સર અર્થાત્ અહેરાત્રના ફૂટસ્વરૂપને એટલે કે १पन ४२तो सूर्य 'पढमंसि अहोरत्तसि' सौथी पडसा मात्रमा 'सव्य तराणेतर मडल' सालयत२ मथी in भने 'उवस कमित्ता चार चरइ' प्राप्त धन जति કરે છે. આ અહેરાત્ર દક્ષિણાયન સંવત્સરને પહેલે દિવસ છે. કારણ કે-સંવત્સર દક્ષિણાયનાદિપણાવાળે છે. અહીંયા સૂર્યની ગતી કેવી હોય છે? એ બતાવવા માટે પ્રશ્ન Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CocommastANDAND uodam. मम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र णं भंते सुरिए' यदा यस्मिन् काले खलु भदन्त सूर्यः 'अभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरई' सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् दक्षिणायनापेक्षया प्रथमं मण्डलमुपसंक्रम्य प्राप्य चारं गतिं चरति करोति 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं' तदा तस्मिन् काले खलु एकैकेन मुहूर्तेन 'केवइयं खेत्तं गच्छई' केवइयं कियत् कियत्प्रमाणकं क्षेत्रम् प्रदेशं गच्छति चरतीति प्रश्नः भगवानाह-गोयमेत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंव पंच जोयणसहस्साई पंच पंच योजनसहस्राणि 'दोणि य एगावणे जोयणसए द्वे च एकपंचाशत् योजनशते एकपंचाशदधिक द्वे योजन शते इत्यर्थः, 'सीयालीसं च सहिभाए जोयणस्स' सप्तवत्वारिंशते च षष्ठिभागान् योजनस्य 'पगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैकेन मुहूर्तेन पर्यो गच्छतीति चेदत्रोच्यते एतस्मिन् मंडले परिरय(परिक्षेप परिधि) परिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पंचदशसहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरं व्यवहारनयापेक्षया परिपूर्ण निश्चयनयापेक्षया किंचित् न्यूनं ३१५१०६, ततोऽस्य पूर्वोक्तयुक्त्या _ 'जयाणभंते ! सूरिए। हे भगवन् जिस कालमें सूर्य 'अभंतराणंतरं मंडलं उसंकमिता चारं चरई' सर्वाभ्यन्तर मंडल से दूसरे मंडल से अर्थात् दक्षिणायन की अपेक्षासे प्रथममंडल को प्राप्त करके गति करता है, 'तयाणं एगमेगेणं मुहत्तणं' उससमय एक समयमें एकएक मुहूर्त से 'केवइयं खेत्तं गच्छह' कितने प्रमाण वाले प्रदेशमें जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं'गोयमा !' हे गौतम ! 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पांच पांच हजार योजन 'दोणिय एगावन्ने जोयणसए' २५१ दोसो इकावन योजन 'सीयालीसंच सहिभाए जोयणस्स' एक योजन का साठिया सेंतालीसवां भाग एक मुहूर्त में गमन करता है। इसका भाव यह है-इस मंडल में परिक्षेप-परिधि का परिमाण तीनलाख पंद्रह हजार एकसो सात व्यवहार नय की अपेक्षासे परिपूर्ण एवं निश्चय नय की अपेक्षासे कुछ कम ३१५१०६ कही है। इनमें पूर्वोक्त युक्ति से ६० की संख्यासे भाग देनेपर इसमंडल में यथोक्त मुहूर्त गति का प्रमाण ५२५१ १० मिल जाता है । अथवा पूर्व मंडल के परिधि के प्रमाणसे इसकी परिधि के द्वारा ४थन ४२ छ-'जयाणं भंते ! सूरिए' सन् ! न्यारे सूर्य 'अभंतराणंतरं मंडलं उबस कमित्तः चार चरई' साल्या तर मी मी भाभा अर्थात् दक्षिायननी अपेक्षाथी पडेसा भने प्रात ४रीने गति ४२ छ, 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं' से समये ४ समयमा ४ थे मुतथी केवइयं खेतं गच्छइ' सा प्रभावामा क्षेत्रमा जय छ ? २0 प्रश्न उत्तरमा महावीर प्रसुश्री ३ छ-'गोयमा ! गौतम ! 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पांय २ योन 'दोण्णि य एगावण्णे जोयणसए' २५१ पसे। सावन यापन 'सीयालीसच सद्विभाए जोयणस्स' मे४ योजना साया सुस्तालासमा ભાગ એક મુહૂર્તમાં ગમન કરે છે. આ કથનને ભાવ આ પ્રમાણે છે આ મંડળમાં પરિક્ષેપ-પરિધિનું પરિમાણ ત્રણ લાખ પંદર હજાર એકસો સાત પૂરા વ્યવહારની અપે Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् षष्ठि संख्यया भागे दत्ते सति लब्धं भवति यथोक्तमत्रमंडले मुहूर्तगतिप्रमाणं ५२५१ः । अथवा पूर्वमंडलपरिरयपरिमाणादस्य परिरयपरिमाणे व्यवहारतः परिपूर्णान्यष्टादशयोजनानिवर्द्धन्ते निश्चयनयापेक्षयातु किंचिदनानि अष्टादशयो जनानां पष्ठिसंख्यया भागे दत्ते सति लभ्यते अष्टादशभागा योजनस्य ते भागाः प्राक्तनमंडलगतमुहर्तगतिपरिमाणेऽधि. कतया प्रक्षिप्यन्ते ततो भवति यथोक्तं तत्र मंडले मुहर्तगतिप्रमाणमिति । अत्रापि दृस्टिपथप्राप्तता विषयं परिमाणं दर्शयितुमाह-तयाण मित्यादि, 'तयाणं इह गयस्स मणुसस्स' यदा खलु सर्वाभ्यन्तरद्वितीयमंडले सूर्यश्चरति तदा तस्मिन्काले खलु इह गतस्य मनुष्यस्य भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणाम् 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सप्तपंचाशता योजनसहरः 'एगृणासीए-जोयणसए' एकोनाशीति योजनशतेन एकोनाशीत्यधिक योजनशतेनेत्यर्थः 'सत्तावण्ण य सद्विभाएहिं जोयणस्स' सप्तपश्चाशत् पष्ठिभाग यॊजनस्य 'सद्विभागं च एगप्रमाण में व्यवहारसे पूरा अठारह योजनकी वृद्धि होतीहै, निश्चय नय की अपे. क्षातो कुछ कम अठाराह योजन को ६० का भाग देनेपर योजन का अठारह भाग प्राप्त होते हैं । वे भाग के मंडलगत मुहूर्त गति के परिमाणमें अधिक रूप से छोडेजाते हैं। उससे उसमंडल में मुहूर्मगति का प्रमाण यथोक्त रूप से हो. जाता है। यहां पर भी विषय को दृष्टिगोचर करने वाले परिमाण दिखाने के लिए कहते हैं-'तयाणं इह गयस्स मणुलस्स' जब सर्वाभ्यन्तर के दूसरे मंडल में सूर्य गति करता है, उस काल में इस मनुष्य लोकमें रहे हुए अर्थात् भरतक्षेत्र गत मनुष्यों को 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सेंतालीस हजार योजन 'एगूणासीए जोयणसए' उनासीसो योजन अर्थात् एकसो उनासी योजन 'सत्तावण्ण य सहिभाएहिं जोयणस्स एक योजनका साठिया सतावनवां भाग 'सट्टि भागं च एगसट्टिधा छेत्ता' एक योजनके साठवें भागको इकसठसे छेद देकर अर्थात् ક્ષાથી છે. તથા નિશ્ચયનયની અપેક્ષાથી કંઈક કમ ૩૧૫૧૦૬ કહેલ છે. તેમાં પૂર્વોક્ત યુક્તિથી ૬૦ ની સંખ્યાથી ભાગ કરવાથી આ મંડળમાં યક્ત મુહૂર્ત ગતિનું પ્રમાણ પ૨૫૧૬: મળી જાય છે. અથવા પૂર્વમંડળની પરિધીના પ્રમાણુથી આની પરિધીના પ્રમાણમાં વ્યવહારથી પૂરા અઢાર જન વધે છે. નિશ્ચયનયની અપેક્ષાએ તે કંઈક ઓછા અઢાર એજનને સાઠથી ભાગવાથી એજનને અઢારમે ભાગ મળી જાય છે, તે ભાગ પહેલાની મંડળગત મુહૂર્ત ગતિના પરિમાણમાં અધિકપણથી છોડવામાં આવે છે. તેથી એ મંડળમાં મુહૂર્તગતિનું પ્રમાણુ યક્તપણુથી થઈ જાય છે. અહીંયા પણ વિષયને दृष्टिगोय२ ४२वावाणा परिभा मत माटे ४ ४-'तयाणं इहगयस्स मणुसरस' જ્યારે સર્વાભ્યન્તરના બીજા મંડળમાં સૂર્ય ગતિ કરે છે. એ સમયમાં આ મનુષ્યલોકમાં २ना। अर्थात् १२तमा २९सा मनुष्याने 'सीयालीसाए जोयणसहस्सोह' सुतालीस १२ योन 'एगूणास्रीए जोयणसए' मगन्यासीसो योसन मात् मागण्यासी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे ४७ ६० सट्टा छेत्ता' एकस्य योजनस्य पष्ठिमानम् एकषष्ठित्रा छित्वा एकषष्ठिभागान् कृत्वा गुणने कृत्वेत्यर्थः तस्यै षष्ठिनागस्य 'एगूणवीसाए चुण्णियाभागेहिं' एकोनविंशत्या चूर्णि - काभागैः भागभागैरित्यर्थः अर्थात् एकस्य योजनस्य यः पष्ठितमभागः तस्यैकभागस्यैकोनविंशतिमागो यः स भागभागस्तैरिति । 'सूरिए' सूर्य: 'चवखुष्कासं हन्यमागच्छ' चक्षुः स्पर्श चक्षुविषयतां शीघ्रं गच्छति प्राप्नोतीति अयमर्थः सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीयमंडले दिवसप्रमाणं द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां हीना अष्टादशमुहूर्त्तास्तेषां मुहूर्त्तानामर्द्ध नवमुहूर्त्ता एकेनैकषष्ठिभागेन हीनास्ततः सामस्त्येनैकषष्ठिभाग करणार्थं नवापि मुहूर्त्ता एकषष्ठि संख्या yudda एकषष्ठि भागोऽपनीयते ततः शेषा जाता एकषष्ठिभागाः पंचाशतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि ५४८, प्रस्तुतमंडलमुहूर्त्तगतिः ५२५१ योजन अयं च राशिः पष्ठिछेद इकसठ भाग करके उस इकसठ वें भाग को 'एगूणवीसाए चुनियाभागे हिं' उन्नीस चूर्णिका भागसे अर्थात् एक योजन का जो साठवां भाग उसके एक भागका जो उन्नीसवां भाग वह भाग उससे 'सरिए' सूर्य 'चक्ष्फासं हव्वमागच्छद्द' नेत्रसे विषय को शीघ्र प्राप्त होता है । इस कथन का भाव इस प्रकार है- सर्वाभ्यन्तर के द्वितीय अन्तर मंडल में दिवस का प्रमाण दो इकसठ भागसे कम अठारह मुहूर्त का है। उन मुहूर्त का आधा नव मुहूर्त होता है। वह एक इकसठिया भागसे होता है। फिर समस्त का इकसठव भाग करने के लिए नव मुहूर्त को इकसठ की संख्यासे गुणा किया जाता है । उसमें से इकसठ भाग लेने पर शेष इकसठ भाग पांचसो अडतालीस रहते है । प्रस्तुत मंडल की मुहूर्तगति ५२५१ योजन है यह राशि साइट छे दात्मक है । योजन राशि को साठ की संख्या से गुणने पर ३१५१०७ होता है यही करणविभाव नामें परिधि राशि कह कर दिखालाई है । लघुकरने के लिए भाज्य राशि का योन 'सत्तावण्णय सट्टिभाएहिं जोयणस्स' से योजना साहिया सत्तावन भी लाग 'सट्टिभागं च एकसद्विधा छत्ता' योजना साहभा लागने मेथी छेद्दीने अर्थात् शोऽसड लाग पुरीने आ से सहमा लागने 'एगूणवीसाए चुण्णियाभागेहिं' भोगलीस यू शुभ ભાગથી અર્થાત્ એક ચેાજનને જે સામેા ભાગ તેના એક ભાગના જે એગણીસમે लाग ते लागथी 'सूरिए' सूर्य 'चक्खुफासं हवमागच्छ' नेत्रना विषयने शीघ्र प्राप्त थाय છે. આ કથનના ભાવ આ પ્રમાણે છે-સર્વાશ્વન્તરના ખીજા અંતર મંડળમાં દિવસનુ પ્રમાણુ એ એકસાઠ ભાગથી એછું અઢાર મુહૂત'નુ' છે. એ અઢાર મુહુર્તીના અડધા નવ મુહૂત થાય છે. તે એક એક સાડીયા ભાગથી થાય છે. પછી બધાના એકસામેા ભાગ કરવા નવ મુહૂર્તને એકસાઈની સખ્યાથી ગુણવામાં આવે છે. તેમાંથી એકઢ ભાગ લેવાથી શેપ એકસઠ ભાગ પાંચસે એકતાળીસ રહે છે. પ્રસ્તુત મંડળની મુહૂ ગતિ પર૫૧ ચાજન ૭ આ રાશી ૬૦ સાઈડથી છેદાત્મક છે, ચેાજન રાશીને સાઇડની સ ંખ્યાથી ४७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् पति योजनराशिं षष्ठिसंख्यया गुणयित्वा जातं ३१५१०७ । अयमेव राशिः करणविभावनायां परिधिराशिरिति कृत्वा दर्शितः लाघवात् भाज्यराशिलब्धस्य भाजक राशिना गुणने कृते मुलसशेरेव लाभादिति अयमेव राशिः पंचभिः शतैरष्टचत्वारिंशदधिर्यदा गुण्यते तदा माताः सप्तदशकोटयः पइविंशतिर्लक्षा अष्टसप्ततिः सहस्राणि षत्रिंशदधिकानि षट्शतानि १७२६७८६३६ । अयं च राशि र्भागभागात्मकतया न योजनानि प्रयच्छति इत्येकषष्ठेः पठया गुणिताया यावान् राशि भवति तेन भागो हियते इयंच गणितप्रक्रिया लाघवार्थिकाः अन्यथा अस्य राशेरेकषष्ठया भागे हृते पष्ठिभागा लभ्यन्ते तेषां च षष्ठिसंख्यया भागे इते योजनानि भवंतीति गौरवं स्यात् एक षष्ठयां च षष्ठिसंख्यया गुणितायां पत्रिंशत् शंसनि षष्ठयधिकानि ३६६०, ते भांगे हृते आगतं सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि शतमेक मेकोना श्रीत्यधिकं योजनानाम् ४७१६९ । शेषं ३४९६ लेदराशेः पठयाऽपवर्तना क्रियते जाता एकषष्ठिः ६१ तया शेषराशे र्भागो हियते लब्धा सप्तपंचाशत् षष्ठिभागाः एकोनविंशतिचैकस्य षष्ठिभागस्य सत्का एक षष्ठिभागा। जो लब्ध है भाजकराशि का गुणा करने पर मूलराशि ही लभ्य होती है । इसराशि को एकसे अडतालीस की संख्यासे जब गुणित की जाती है, तय सत्रह कोटि छवीस लाख इत्र्योत्तर हजार छसो छत्तीस १७२६७८ ६३६ । यह राशि भाग भागात्मक होनेसे योजन नहीं कहते हैं। इसप्रकार इकसठसो साठसे गुणा करने पर जितनी राशी होती है, उससे भाग किया जाता है, यह गणित प्रक्रिया संक्षेपार्थि का है, अन्यथा इस राशि को इकसठसे भाग करने पर साठ लभ्य होता है, उसका साठकी संख्यासे भाग करने पर योजन की संख्या आती है यह गौरव जैसा होता है इकसठ को साठ की संख्यासे गुणाकरने पर छत्रीससो साठ ३६६० से भागदेने पर सेंतालीस हजार एकसो उनासी ४७१. ७९ आता है। शेष ३४९६ की छेइराशि को साठसे अपवर्तना करने पर ६१ ગુણવાથી ૩૧૫૧૦૭ થાય છે. આજ રાશી કરણવિભાવનામાં પરિધિ રાશી કહીને બતાવેલ છે. સક્ષેપ કરવા માટે ભાજ્યરાશિનું જે લબ્ધ છે તેને ભાજક રાશી સાથે ગુણાકાર કરવાથી મૂળ રાશી જ લબ્ધ થઈ જાય છે. આ રાશિને એકસે અડતાલીસની સંખ્યાથી જ્યારે ગુણવામાં આવે છે ત્યારે સત્તરકરોડ છવીસ લાખ અઠોતેર હજાર છસે છત્રીસ ૧૭૨૬૭૮૬૩૬ આ સંખ્યાભાગ ભાગાત્મક હોવાથી જન કહેલ નથી. આ રીતે એકસઠને સાઠથી ગુણવાથી જેટલી રાશિ થાય તેનાથી ભાગ કરવામાં આવે છે. આ ગણિત પ્રક્રિયા સંક્ષેપાર્થ બતાવેલ છે. નહિંતર આ રાશિને એકસઠથી ભાગવાથી સાઠ ભાગ લબ્ધ થાય છે, તેને સાઈઠની સંખ્યાથી ભાગ કરવાથી એજનની સંખ્યા આવે છે, તે ગૌરવ જેવું થઈ જાય છે. એકસઠને સાઠની સંખ્યાર્થી ગુણવાથી છત્રીસસેસાઈઠ ૩૬૬૦ થાય છે તેનાથી ભાગવાથી સુડતાલીસ હજાર એકસે ઓગણસી ૪૭૧૭૯ આવે છે. શેષ ૩૪૬થી છેદ ज०७ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपति अथाभ्यन्तरतृतीयमंडळस्प चारं प्रष्टुमाह- 'से क्खिमपाणे सूरिए दोच्चं सीत्यादि, 'से णिक्aममाणे सरिए' अथानन्तरं द्वितीयमण्डलचारसमाप्त्यनन्तरं निष्क्रामन् अपसर्पन् सूर्य: 'दोच्चंसि अहोर तंसि द्वितीये अहोरात्रे प्रस्तुतायनापेक्षया द्वितीयमंडले इत्यर्थः 'अमंतरतच्चं मंडलं उनसे कमित्ता' अभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य संप्राप्य 'चारं चरई ' चारं गतिं चरति करोति जया णं भंते सूरिए' यदा खलु भदन्त सूर्य : 'असंतरतच्च मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ' अभ्यन्तस्तृतीयमंडलमुपसंक्रम्य चारं चरति ' तयाणं एगमेगेण मुहुतेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ' तदा तस्मिन् तृतीयमंडल संक्रमणकाले खलु एकैकेन मुहून कियत् प्रमाणकं क्षेत्रं गच्छतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमे' त्यादि 'गोगमा' हे गौतम ! 'पंच पंचजोयणसहसाई' पंत्र पंच योजनसहस्राणि 'दोणि य बावणे जोयणसए' इकसठ होता है। उससे शेष राशि का भाग करने पर साठिया सतावन भाग प्राप्त होता है साठ भाग के उन्नीसवा भाग सत्क सत्तरवां भाग ५० १७ --- अब अभ्यन्तर के तीसरे मंडल की गति को पूछने के हेतुसे कहते हैं'से क्खिमणे सूरिए' दूसरे मंडलकी गति समाप्त होने पर गमन करता हुआ सूर्य 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' दूसरे अहोरात्र में अर्थात् प्रस्तुत अपनकी अपेक्षा से दूसरे मंडल में 'अनंतरं तच्चं मंडल उपसंकमित्ता अभ्यन्तर के तीसरे मंडल में जाकर के 'चारं चरइ' गति करता है, 'जयाणमंते ! सूरिए' हे भदन्त जब सूर्य 'अभंतरतच्चं मंडल उबसंमित्त चारं चरद्द' अभ्यन्तर के तीसरे मंडल में जाकर गति करता है 'तयाणं एगमेगेण मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छद्द' उस समय अर्थात् तीसरे मंडल के संक्रमण काल में एक एक मुहूर्त में कितने प्रमाण का क्षेत्र में गमन करता है ? इसप्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं - 'गोमा ! | हे गौतम! 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पांच पांच हजार योजन ६१ રાશીને સાઇઠથી અપવતના કરવાથી એકસઠ થાય છે. તેનાથી શેષ રાશીને ભાગ કરવાથી સાડિયા પૃ ભાગ મળી જાય છે. સાઇડ ભાગના એગણીસમા ભાગ સત્ય એક સાઠિયા ભાગ ૭ हुवे आल्यन्तरना त्री मंडजनी गति पूछवाना हेतुथी उडे हे- 'से क्खिमाणे सूरिए' मील भडजनी गति समाप्त थ गया पछी गमन ठरतो सूर्य' 'दोच्चंसि अहोरत्त ं सि' जीन महोरात्रमां अर्थात् प्रस्तुत गयननी अपेक्षाथी पील भांडणमा 'अभंतर' तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता' सम्पन्तरना श्री भडजमां न्हाने 'चार' चरइ' गति ४२ छे.. 'जयाणं भंते! सूरिए' हे भगवन् ! न्यारे सूर्य' ' अभंतरतच्चं मंडल स्वसंकमित्ता चा चरइ' अभ्यन्तरना त्री भडजमां ने गति उरे छे. 'तथा णं एगमेगेण मुहुत्तेणं केवइयं खेत्त ं गच्छइ' मे समये अर्थात् त्रीन भांडजना सकुंभ अणमां ये भुहूर्त भां डेटा प्रभाणुवाणा क्षेत्रमां गमन हरे छे ? या प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु डे - 'गोयमा !" हे गौतम ! 'पंच पंच जोयणसहरसाई" पांच पांच र योजन 'दोणिय बावणे. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् द्वे च द्विपंचाशद् योजनशते द्विपं वाशदधिकं योजनशतद्वयमित्यर्थः 'पंचयसद्विभाए जोयणस्स' पंचपष्ठिभागान् योजनस्य 'एगमे गेणं मुहुत्तेणं गच्छ।' एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति 'तया गं इहगयस्स मणुप्सस्स' तदा यदा उपर्युक्त संख्यया एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति तदा इह भरत क्षेत्रगतानां मनुष्याणाम् 'सीयालीसाए जोयणसहस्से हि' सप्तचत्वारिंशता योजनसहौः 'छण्णउइए जोयणेहिं' पण्णनवत्या योजनैः 'तेत्तीसाए सट्ठिभागेहि-जोपणस्स' त्रयस्त्रिशता ये षष्ठिमागैजिनस्य 'सद्विभागं च एगसद्विधा हेत्ता' षष्ठि मागं चैकमेकपष्ठिधा छिला 'दोहि चुणिया भागेहि' द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्याम् 'सरिए चक्खुप्फासं हव्व मागच्छ३' सूर्यः चक्षुः स्पर्शम् चक्षुविषयतां शीघ्रमागच्छनीति, अयं भावः-अत्र खलु मडले दिवस प्रमाणमष्टादशमुहर्ता श्चभिरेकषष्ठिभागहीनास्तेषामर्दै च नव द्वाभ्यामेकपष्ठिभागाभ्यां हीनाः ततः सामस्त्येनैकषष्ठिभागकरणाय नवापि मुहर्ता एक षष्ठिसंख्यया गुण्यन्ते तेभ्यश्च द्वावेक दोण्णि य बावण्णे जोयणसए' दोसो बावन योजन 'पंच य सट्टिभाए जोयणस्स' योजन के पैंसठवां भाग 'एगमेगेणं मुहुतेणं गच्छद्द' एक मुहूर्त में जाता है 'तया णं इहगयस्स मणुलस्स' उपर्युक्त संख्यासे एक एक मुहर्त में गमन करे तब इस भरतक्षेत्र में रहे हुवे मनुष्यों को 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि सेंतालीस हजार योजनसे 'छण्णउइए जोयणेहिं, छियानवें योजनसे 'तेत्तीसाए सहिभागेहिं जोयणस्स' योजन के साठिया तेतीसवां भाग 'सहिभागं च एकसहिधा छेत्ता । साठवें भाग को इकसठसे छेदकर के 'दोहिं चुणिया भागेहिं' दो चूर्णिका भागसे 'सरिए चरखुप्फासं हव्यमागच्छइ' सूर्य शीघ्र चक्षु. गोचर होता है। ___ इस कथन का भाव इस प्रकार है-इसमंडल में दिवस का प्रमाण अठारह मुह में से इक सठिया चार भाग न्यून है, उसके आधे नव मुहूर्त में इकसठिया दो भाग न्यून है उसके इकसठ भाग करने के लिए नवमुहूर्त को इकसठ की जोयणसए' मसो मापन योन 'पंचय सटुिभाए जोयणस्स' योनने पांसभी मार 'एगमेगेगं मुहत्तेगं गच्छ।' २४ भुतमा लय छे. 'तया णं इह गयस्स मणुसस्स' पति સંખ્યાથી એક એક મુહૂર્તમાં ગમન કરે ત્યારે આ ભરતક્ષેત્રમાં રહેવાવાળા મનુષ્યને 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं सुतालीस २ योनिथी 'छण्णउइए जोयणेहि छन्नु या नथी तेत्तीसाए सद्विभागेहिं जोयणस्स' योजना साया तेत्रीसभी मा 'सद्रिभाग च एगमढ़िया छेत्ता' सा भागने मे४साथी छहीने 'दोहिं चुण्णियाभागेहि मे यूलिया माथी 'सूरिए चक्खुप्फास हबमागच्छई' सूर्य २५ यक्षु गाय२ थाय छे. આ કથનને ભાવ આ પ્રમાણે છે–આ મંડળમાં દિવસનું પ્રમાણ અઢાર મુહૂર્ત માંથી એકસાઠિયા ચાર ભાગ ઓછા કરવાના છે. તેના અર્ધા નવ મુહૂર્તમાંથી એકસાડિયા બે ભાગ ઓછા છે, તેના એકસાઈઠ ભાગ કરવા માટે નવ મુહૂર્તને એકસાડની સંખ્યાને Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रक्षप्तिसूत्रे षष्ठिभागौ अपनीयेते शेषाः पंवशतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि ५४७, प्रस्तुतमण्डले मुहर्तगतिः ५२५२० एतादृशीं योजनराशि षष्ठया गुणयित्वा सवण्यते तदा जातं ३१५१२५, अयमेवराशि रन्यत्र परिधिराशिरूपेण निरूपितः, अस्य राशेः सप्तचत्वारिंशदधिक पंचशतै ५४७ र्जानाः सप्तदशकोटयः त्रयोविंशतिः शतसहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणिशतानि पंचसप्तत्यधिकानि १७२३७३३७५ एतेषां षष्ठिगुणितया एक षठ्या ३६६० भागे हृते आगतानि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि ४७०९६- शेषं विंशतिशतानि पंचदशोत्तराणि २०१५, छेदराशे षष्ठिसंख्याऽपवर्तनाया जाता एकषष्ठिः, तया शेषराशे भजने लब्धाः प्रयस्त्रिंशत् षष्ठिभागाः, शेषौ च द्वौ एकस्य षष्ठिभागस्य सत्कावेकषष्ठिभागौ इति । संप्रति चतुर्थमंडलादिषु एकैकेन मुहूर्त्तन कियत्क्षेत्रगच्छतीति दर्शयितुमतिदेशमाह-'एवं खलुएएणं' इत्यादि ‘एवं खलु' एवं मंडलत्रयप्रदर्शितप्रकारेण खलु निश्चितम् ‘एएणं उवाएणं' संख्या से गुणा किया जाता है। उसमेसे एकसठिया दो भाग निकालने पर शेष पांचसो सेंतालीस प्रस्तुत मंडल में मुहर्त गति ५२५२ १५ इस योजन राशी को साठसे गुणितकर के कहने पर ३१५१२५ होता है। इसी राशी को अन्यत्र परिधि राशि के रूपसे कहा है। इसराशि को पांचसों संतालीससे गु. णा करने पर सत्रह करोड तेइस लाख तिहोत्तर हजार तीनसो पचोत्तर १७. २३७३३७५ होते हैं इस को साठसे गुणितकर के इकसठसे भाग देनेपर सेंतालीसहजार छियानवे ४७०९६ होते है और शेष वीससो पंद्रह २०१५ बचते हैं । छेद राशि को साठ की संख्यासे अपवर्तना करने पर इकसठ होता है । इकसठसे शेषराशि का भाग करनेपर साठिया तेतीसवां भाग लब्ध होता है। शेष दो बचते हैं। एक साठिया एक भागसे सक्त एक साठिया एक भाग होते हैं। __ अब चौथे मंडलादि में एक एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र में जाता है ? सो कहने के लिए अतिदेशसे कहते हैं-'एवं खलु' पूर्वोक्त तीनों मंडलों में प्रदर्शित ગુણવામાં આવે છે. તેમાંથી એકસાઠિયા બે ભાગ કહાડવાથી શેષ પાંચસે સુડતાલીસ રહે છે. પ્રસ્તુત મંડળમાં ગતિ પ૨૫૨૨૫ ની છે. આ જનરાશીને સાઠથી ગુણીને કહેવાથી ૩૧૫૧૨૫ થાય છે. આ રાશિને બીજે પરિધિ રાશિપણથી કહેલ છે. આ રાશિને પાંચ સુડતાલીસથી ગુણવાથી સત્તરકરે તેવી સલાખ તેતેરહજાર ત્રણસો પંચેતેર ૧૭૨૩૭૩૩૭૫ થાય છે. આને સાઈઠથી ગુણીને એકસાઈઠથી ભાગવાથી સુતડાલીસ હજાર છ– ૪૭૦૯૬ થાય છે. અને શેષ વીસસો પંદર ૨૦૧૫ બચે છે. છેદ રાશિને સાઈઠની સંખ્યાથી અપવર્તન કરવાથી એકસાઈઠ થઈ જાય છે. એકસાઠથી શેષ રાશિને ભાગ કરવાથી સાઠિયા તેત્રીસમે ભાગ લબ્ધ થાય છે. ૩ શેષ બે વધે છે. એકસાઠિયા એક ભાગથી સત્ય એકસાઠિયા એક ભાગ જ થાય છે. હવે ચેથા મંડલાદિમાં એક એક મુહૂર્તમાં સૂર્ય કેટલા ક્ષેત્રમાં જાય છે? એ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कार: सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् एतेनोपायेन एतेनानन्तरपूर्वकथितोपायेन शनैः शनैः तत्तद्बहिर्मण्डलाभिमुख गमनस्वरूपेण 'निक्खमाणे सूरिए' निष्क्रामन् गच्छन् सूर्यः 'तयाणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तरात् तृतीय चतुर्थीदितो मंडलात् ' तयानंतरं मंडल संकममाणे संक्रममाणे' तदनन्तरं यस्मात् मंडलात् निष्क्रामति तदपरमंडलं संक्रामन् संक्रामन् गच्छन् गच्छन् 'अट्ठारस अट्ठारस सहिभाए जोयणस्स' अष्टादशाष्टादशपष्ठिभागान योजनस्य व्यवहारनयापेक्षया परिपूर्णान् निश्चयनयापेक्षया किंचिदुनान् 'एगमेगे मंडले मुहुत्तगई' एकैकस्मिन् मंडले मुहूर्त्तगतिम् 'अभिबुड्डेमाणे अभिबुढेमाणे' अभिवर्द्धयन अभिवर्द्धयन् क्रमशोऽधिकमधिकं कुर्वन् 'चुलसीई चुलसीई सयाई जोषणाई' चतुरशीर्ति योजनशतानि किचिन्न्यूनानि 'पुरिसच्छायं णिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे ' पुरुषच्छायां निवर्द्धयन् निरर्द्धयन हाययन हाययन् त्यजनित्यर्थः, अर्थात् पूर्वपूर्व मंडलसम्बन्धि पुरुषच्छायातः बाह्य बाह्य मण्डलसम्बन्धि पुरुषच्छाया किंचिन्न्यूनैश्चतुरशीत्या योजनै नेति 'सव्ववाहिरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वव: मंडळमुपसंक्रम्य संप्राप्य चारं प्रकार से 'एएणं उवाएणं' इस उपाय से अर्थात् पूर्वकथित उपायसे धीरे धीरे उस उस बाहर के मंडलाभिमुख गमन रूप 'निक्खममाणे सूरिए' गमन करता हुवा सूर्य'तयाणंतराओ मंडलाओ' तृतीय चतुर्थादि मंडलसे 'तयाणंतरं मंडलं संकम माणे संकममाणे' तत्पश्चात् जिस मंडल से गति करता है उससे दूसरे मंडल में जाते जाते 'अट्ठारस अट्ठारस सहिभाए जोयणस्स' एक योजन का साठिया अठारह अठारह भाग व्यवहार नय की अपेक्षासे पूरे एवं निश्चय नय की अपेक्षा से कुछ न्यून 'एगमेगे मंडले मुहुत्तगई' एक एक मंडल में मुहूर्तगति को - 'अभिवुट्टेमाणे अभिवुट्टेमाणे' बढाता बढ़ाता क्रमशः अधिकाधिक करते करते 'चुलसीई चुलसीई सयाई जोयणाई' चोरासीसो योजन से कुछकम 'पुरिस च्छायं णिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे' पुरुष छायाको बढाता बढाता कम करते करते अर्थात् पूर्व पूर्व के मंडल संबन्धि पुरुषछाया से बाह्य बाह्य मंडलसंबन्धि पुरुष ખતાવવા માટે અતિદેશ દ્વારા કહે છે-છ્યું સજી' પૂર્વક્ત ત્રણે મડળમાં કહેવામાં આવેલ प्रारथी ‘एएणं उवाएणं' आ पायथी अर्थात् पूर्वोक्त उपायथी धीरे धीरे तेने महारना भउसनी सन्मुख गभन३५ 'निक्खममाणे सूरिए' गति हरतो सूर्य' ' तयाणंतराओ मंडलाओ' त्रीन्न यथा वि. मंडणथी ' तयानंतरं मंडल संकममाणे संक्रममाणे' पछीना ने भउजथी गति ४रे छे, तेनाथी जील भांडणां तां तां 'अट्ठारस अट्ठारस सट्टिभाए जोयणस्स' मे ચેાજનના સાઠિયા પૂરા અઢાર ભાગ વ્યવહારનયની અપેક્ષાથી અને નિશ્ચયનયની અપેક્ષાર્થી ४६४ माछा ‘एगमेगे मंडले मुहुत्तगई' ४ ४ भउणमां मुहूर्त गतिने 'अभिबुड्ढेमाणे अभिवुड्डेमाणे' वधता बघता उभयी अधिअधिक ४२ ४२ 'चुलसीई चुलसी साइ जोयणाई' या सीसो योजनथी ४४ योछा 'पुरिसच्छाय' णिबुद्धेमाणे' यु३ष छायाने વધારતા વધારતા અને ઓછા કરતાં કરતાં અર્થાત્ પહેલા પહેલાના મંડળ સબ'ધી પુરૂષ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपति गतिं चरति करोतीति । यदत्र चतुरशीति योजनानि किंचिन्न्यूनानि उत्तरोत्तरमंडळ संबंधिछायायां हीयन्ते इति कथितं तत् स्थूलदृष्ट्या कथितम् परमार्थतस्तु पुनरिदं ज्ञातव्यं तथाहि व्यशीति योजनानि त्रयोविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य तथा एकस्य योजनस्य षष्टिभागस्य एकपgिe छिन्नस्य सम्बन्धिनो द्विचत्वारिंशत् भागाचेति दृष्टिपथ प्राप्तता विषये हान ध्रुवम् ततः सर्वाभ्यन्तरमंडलात् तृतीयं यन्मंडलं तस्मादारभ्य यस्मिन् मंडले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातुमिष्टा भवेत् तत्तन्मंडलसंख्यया पदत्रिंशत् संख्या गुण्यते, तथाहि सर्वाभ्यन्तर मंडलात् तृती मंडळे एकेन चतुर्थमण्डले द्वाभ्यां पंत्रममंडले त्रिभवत् सर्ववामंडले शीताधिकशतेन गुणनं कृत्वा ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षेपानन्तरं यद् भवति तेन हीना पूर्व मंडल संबंधि दृष्टिपथप्राप्ता तस्मिन् विवक्षिते मंडले दृष्टिपथप्राप्तता भवतीति ज्ञातव्या । 3 ६० छाया कुछकम चोरासी योजनसे कम है 'सबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चारह' सर्वबाद्य मंडल को प्राप्त कर के गति करता है। यहां पर चोरासी योजन में कुछकम उत्तरोत्तर मंडल संबन्धि छाया में कम होता है ऐसा कहा है, वह स्थूल दृष्टिसे कहा है, वास्तविक रीत्या इस प्रकार समजना की तिरासि योजन एवं एक योजन का साठिया तेवीसवां भाग तथा एक योजन के साठ भाग में से इकसठ का छेद करने पर बयालीस भाग होते हैं दृष्टिगोचर प्राप्त विषय में हानियुक्त है वहांसे सर्वाभ्यन्तर मंडलसे जो तीसरा मंडल है वहांसे प्रारंभ करके दृष्टिपथ प्राप्तता जाननी हो तो उस उस मंडल संख्या से छत्तीस की संख्या का गुणा किया जाता है जैसे की - सर्वाभ्यन्तर मंडलसे तीसरे मंडल में एकसे चौथे मंडल में दोले पांचवे मंडल में तीनसे यावत् सर्वबाद्य मंडल में एकसो बासीसे गुणा करके ध्रुवराशि में प्रक्षेत्र करना प्रक्षेत्र करने पर जो आता है उससेहीन पूर्व मंडल संबन्धि दृष्टिपथ प्राप्ता-उस विवक्षित मंडल में दृष्टि છાયાથી ખાદ્ય ખાદ્ય મંડળ સંબંધી પુરૂષ છાયા કંઇક ઓછા ચાર્માસી ચેાજનથી કમ છે. 'सव्ववाहिर मंडल उवसकमित्ता चार चरई' सर्व बाह्य भउणने प्राप्त कुरीने गति रे છે. અહીંયાં ચાર્થાંશી ચેાજનમાં કંઇક ક્રમ એટલે કે ઉત્તરાત્તર મડળ સંબંધી છાયામાં ક્રમ થાય છે. એમ કહેલ છે. તે સ્થૂલ દ્રષ્ટિથી કહેલ છે. વાસ્તવિકપણાથી આ રીતે સમજવુ. જોઈએ . ત્ર્યાસી ચેજન અને એક ચેજનના સઠિયા તેવીસમા ભાગ રૃ તથા એક ચેાજનના સાઠે ભાગમાંથી એકસાઇડનેા છેક કરવાથી ખેતાલીસ ભાગ થાય છે. દૃષ્ટિગોચર પ્રાપ્ત વિષયમાં હાનિયુક્ત છે. ત્યાંથી સર્વાભ્યન્તર મડળથી જે ત્રીજું મડળ છે. ત્યાંથી આરંભ કરીને જે મંડળમાં દ્રષ્ટિપથ પ્રાપ્તતા જાણવી હાય તે તે મંડળ સ ંખ્યાને છત્રીસની સંખ્યાથી ગુણવામાં આવે છે. જેમ કે--સર્વાભ્યન્તર મડળથી ત્રીજા મડળમાં એકથી ચેાથા મંડળમાં બે થી પાંચમાં મ’ડળમાં ત્રણથી યાવત્ સર્વાં બાહ્ય મંડળમાં એકસામાસીથી ગુણીને વરાશિમાં ઉમેરવા તે ઉમેરવાથી જે. સંખ્યા આવે તેનાથી હીન Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् - अथ कथिते एव मंडल क्षेत्रे पश्चानुपूर्णरूपेण सूर्याय मुहर्त्तगति दर्शयितुमाह-'जयाण मित्यादि 'जयाणं मंते सूरि' यदा खलु भदन्त सूर्यः 'सव्वबाहिरमंडलं उपसंकमित्ता चारं चरई' सर्वत्र ह्यमंड समुपसंक्रम्य संपाप्य चारं गतिं चरति गतिं करोति, नगाणं एगमेगेणं' तदा खलु एकैकेन 'मुहलेण' मुहर्जन 'काइयं खेले गच्छइ' कियत् कियत्प्रमाणकं क्षेत्रं गच्छति, इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमे' त्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! पंच पंचजोणसहस्साई' पंच पंचयोजनसहस्राणि 'तिष्णि य पंचुतरे जोयणसए' त्रीणि च पंचोत्तराणि योजनशतानि 'पण्णरस य सद्विभाए जोयणस' पंचदश च षष्ठभागान् योजनस्य ५३०५१ 'एगमेगेण महत्तेणं गच्छइ' एकैकेन मुहर्तेन गच्छनीति । कथयत्रै भवतीति चेदत्रोच्यते अस्मिन् सर्वबाह्यमंडले परिरयपरिमाणत्रयोलक्षा अष्टादशसहस्राणि त्रीणिशतानि पंचदशोत्तराणि ३१८३१५ ततोऽस्य पूर्वकथितयुक्तिवशात् पष्ठिसंख्यया भागे दत्ते लब्धं यथोक्तमत्र मंडले मुहर्तपरिमाणमिति । पथ प्राप्तता होता है। __अब कथित मंडल क्षेत्र में पश्चानुपूर्विरूपसे सूर्य की मुहूर्तगति को दिखलाते हैं-'जयाणं भंते ! मरिए' हे भदन्त जिस समय सूर्य 'सव्वयाहिरमंडलं उपसंकमित्ता चारं चरई' सर्व बायमंडल में जाकर गति करता है 'तयाणं एगमेगेणं' उस समय एक एक 'मुलुत्तेण' मुहर्त से 'केवइयं खेतं गच्छद' कितने प्रमाणवाले क्षेत्र में गमन करता है ! इसप्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैंगोयमा !' हे गौतम ! 'पंच पंच जोयणसहस्साई' पांच पांच हजार योजन 'तिग्णिय पंचुसरे जोयणसए' तीनसो पांच योजन पनरसय सहिभाए जोयणस्स' एक योजन के साठिया पंद्रहवां भाग ५३०५ १५ 'एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छह ' एक एक मुह में जाता है । इस प्रकार कैसे होता है सो कहते हैंइस सर्वबाह्य मंडल में परिधिका प्रमाण तीन लाख अठारह हजार तीनसो पंद्रह ३१८३१५ है, इसमें पूर्व कथित युक्ति के अनुसार साठ की संख्या का भाग પૂર્વમંડળ સંબંધી દષ્ટિપથ પ્રાપ્તતા એ વિવક્ષિત મંડળમાં દષ્ટિપથ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. હવે કહેલા મંડળક્ષેત્રમાં પશ્ચાનુપૂપિણાથી સૂર્યની મુહૂર્ત ગતિને બતાવે છે– जयाणं भंते ! सूरिए' डे लावन् ! २ समये सूर्य 'सबब हिरमडलं उवस कमित्ता चार चरइ' स मा म मा १४७२ ति ४२ छ 'तयाण एगमेगेणं' से समये ४ मे४ मुहुतेणं' भुडून थी 'केवइयं खेत्तं गच्छइ' 21 प्रमाण मां गमन ४२ छ १ ॥ प्रश्नन। उत्तरमा प्रमुश्री ४९ छ-'गोयमा ! 8 गौतम! पंच 'पंच जोयणसहस्साई पाय पाय ॥२ यान “तिण्णिय पंचुत्तरे जोयणसए' से पांय यान 'पन्नरस सट्रिभाए जोयणस्स' ४ योनिन साठिया ५१२ मा ५३०५१. 'एगमेगेण मुहुतेण गच्छई' એક એક મુહૂર્તમાં જાય છે. આ પ્રમાણે કેવી રીતે થાય છે? તે બતાવે છે. આ સર્વ બાહા મંડળમાં પરિધિનું પ્રમાણ ત્રણ લાખ અઢાર હજાર ત્રણસે પંદર ૩૧૮૩૧૫ છે. તેમાં Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्ने 'तयाणं इहगयस्स मणुप्तस्स' तदा इह गतायां भरतक्षेत्र सम्बन्धिनां मनुष्याणाम्, 'एगतीसाए जोयणसहस्से हि' एकत्रिंशता योजनसहौः 'अहिय एगतीसेहिं जोयणसहरसेहि' अष्टमिरेकत्रिंशता योजनशतैः एकत्रिंशदधिकाष्टयोजनशतै रित्यर्थः 'तीसाए य सद्विभाएहिं जोयणस्स' त्रिंशताचैकषष्ठि भागै यो जनस्य 'सरिए चवखुफासं हव्वमागच्छइ' सूर्यः चक्षुः स्पर्श दृष्टिपथप्राप्तता हव्यं शं घमागच्छति तद्यथा एतस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति सति दिनं द्वादशमुहर्तप्रमाणकम् भवति दिनस्य चार्धभागेन यावत्प्रमाणकं क्षेत्रं व्याप्यते तावतिस्थिते उदयमानः सूर्यः समुपलभ्यते द्वादशमुहूर्तानां चा पमुहूर्ताः ततो यदस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणं पंचयोजनसहस्राणि त्रीणिशतानि पंचोत्तराणि पंचदश च षष्ठिभागा योजनस्य ५३०५१५ तत् पइभिर्गुण्यते दिवसार्द्धगुणिताया एव मुहूर्तगते दृष्टिपथप्राप्ततापरणत्वात् ततो यथोक्त मेवात्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता परिमाणं भवतीति । यद्यपि उपान्त्यमंडलदृष्टिपथदेने पर इसमंडल में यथोक्त मुहूर्त-परिमाण लब्ध हो जाता है, 'तयाणं इहगयस्स मणुसस्स' तब इस भरतक्षेत्र गत मनुष्यों के 'एगतीसाए जोयणसहस्सेहि' इकतीस हजार योजन 'अहिय एगतीसेहिं जोयणसएहिं' आठसो इकतीस योजन 'तीसाए य सहिभाएहिं जोयणस्स' एक योजन के साठिया तीस भागसे 'मूरिए ' सूर्य 'चक्खुप्फासं हव्वमागच्छद' शीघही दृष्टिगोचर होता है। वह इस प्रकार से है इस मंडल में सूर्य गतिकरता है तब बारह मुहूर्त का दिवस होता है। दिनके आधे भाग से जितने प्रमाण के क्षेत्र में व्याप्त होता है, उतनी स्थितिसे उदयमानसूर्य मिलता है। बारह मुहूत का आधा छ मुहर्त होता है। तब जो इस मंडल में मुहूर्त गति का प्रमाण पांच हजार तीनसो पांच तथा एक योजन के साठिया पंद्रहवां भाग ५३०५ १. होता है। उसको छ से गुणा करना दिवस के आधे का गुणा करने से ही मुहूर्त गति का दृष्टिपथप्राप्तता પહેલાં કહેલ યુક્તિ પ્રમાણે સાઈઠની સંખ્યાથી ભાગવાથી આ મંડળમાં યક્ત મુહૂર્ત परिभारी प्राप्त थ य छे. 'तयाणंतर इहगयस्स मणुसस्स' त्यारे 40 मरतक्षेत्रमा २सा मनुष्याने 'एगतीसाए जोयणसहस्से हिं' ४ीस ॥२ यो- 'अहिय एगतीसेहिं जायणसएहिं' माउस मेत्रीस योग- 'तीसाए य सद्विभाएहि जोयणस्स' से। यान साया त्रीस माथी 'सूरिए' सूर्य 'चक्खुप्फास्सं हव्वमागच्छई' तुरत शायर थाय छे. ते આ પ્રમાણે થાય છે. આ મંડળમાં સૂર્ય ગતિ કરે છે, ત્યારે દિવસનું પ્રમાણ બાર મુહુનું હોય છે. દિવસના અર્ધા ભાગથી જેટલા પ્રમાણુ ક્ષેત્રમાં વ્યાપ્ત થાય છે, એટલી સ્થિતિથી ઉદયમાન સૂર્ય મળે છે. બાર મુહૂર્તના અરધા છ મુહૂર્ત થાય છે. ત્યારે જે આ મંડળમાં મુહૂર્ત ગતિનું પ્રમાણ પાંચ હજાર ત્રણસે પાંચ તથા એક એજનના સાઠિયા પંદર ભાગ ૫૩ ૦૫૨ થાય છે. તેને છથી ગુણુવા દિવસના અર્ધાનો ગુણાકાર કરવાથી જ મુહૂર્તગતિનું દષ્ટિપથ પ્રાપ્તતાકરણ થઈ જાય છે. આ રીતે આ મંડળમાં દષ્ટિપથ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगति निरूपणम् ५७ प्राप्तता परिमाणात् पंचाशीतिर्योजनानि नव षष्ठिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सम्ब न्धिनः षष्टिभागाः इत्येवं राशौ शोधिते एतत् परिमाणमुपपद्यते एतच्च पूर्व कथितं तथाप्यत्र प्रस्तुत मण्डलस्योत्तरायणगतमण्डलानामवधिभूतत्वेनान्यमण्डलकरण निरपेक्षतया करणान्तरं कृतमिति । इदं च सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलात् पूर्वानुपूर्व्या गुणितं त्र्यशीत्यधिकशततमं भवति प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनात् अहोरात्रोपि त्र्यशीत्यधिकशततमः तेनायं दक्षिणायस्य चरमो दिवस इत्यावेदयितुमाह- 'एसणं पढमे छम्मासे इत्यादि 'एस णं पढमे छम्मा से ' एषः खलु प्रथमः षण्मासः एषो दक्षिणायनसम्बन्धि व्यशीधिकशतदिवसरूपो राशि: प्रथमषण्नासः अयनरूपः कालविशेषः षट् संख्यका मासाः पिंडीभूता यत्र स पण्मास इति । 'एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' एतत् खलु प्रथमस्य पण्मासस्य दक्षिणायनलक्षणस्य पर्यवसानम् ' से सूरिए' अथ सर्वबाह्यमंडलचारानन्तरं सूर्यः 'दोच्चे छम्मासे अयमाणे'करण होता है । इस प्रकार इस मंडल में दृष्टिपथप्रासता का यथोक्त परिमाण होता है । यद्यपि उपान्त्य मंडल के दृष्टिपथप्राप्तता परिमाण से पिचासी योजन एवं एक योजन के साठिया नव भाग एकसाठ के साठवां भाग इस प्रकार राशि को शोधित करने पर यह प्रमाण प्राप्त होजाता है यह पहले कहा गया है तो भी यहां प्रस्तुत मंडल के उत्तरायणगत मंडल की अवधिभूत होने से अन्य मंडल करण की निरपेक्षा होनेसे करणान्तर किया है। यह सर्वाभ्यन्तर मंडल से पूर्व्यानुपूर्वी से गुणित करने पर एकसो तिरासी होता है। प्रति मंडल का अहोरात्र की गणना से अहोरात्र भी एकसो तिरासी होजाता है । यह दक्षिणायन का अन्तिम दिवस है यह दिखलाने के लिए कहते हैं- 'एसणं पढमे छम्मासे' यह प्रथम छह मास अर्थात् यह दक्षिणायन संबंधि एकसो तीरासी दिवसरूप राशि पहला छ मास अयनरूप काल विशेष छमास का समूह षट्मास । 'एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' यह पहला छ मास दक्षिणायन लक्षण પ્રાપ્તતાનુ` યથાક્ત પરિમાણુ થઈ જાય છે. યદ્યપિ ઉપાંત્ય મંડળના દૃષ્ટિપથ પ્રાપ્તતા પરિમાણુથી પચાસી ચેાજન અને એક ચેાજનના સાઠિયા નવ ભાગ એકસાઠના સાઈડમા ભાગ આ રીતે રાશીને શેષિત કરવાથી આ પ્રમાણ મળી જાય છે. આ પહેલાં કહેવાઈ ગયેલ છે તે પણ અહીંયાં પ્રસ્તુત મડળના ઉત્તરાયણ ગતમડળની અવધિભૂત હાવાથી અન્યમ'ડળકરણની નિરપેક્ષા હાવાથી કરણાન્તર કહેલ છે, આ સર્વાભ્યન્તર મડળથી પૂર્ણાંનુપૂર્વિથીગુણવાથી એકસે ત્ર્યાસી થાય છે. દરેક મંડળના અહેારાત્ર ગણવાથી અહેારાત્ર પણ એકસા ત્ર્યાશીતમ થાય છે. આ દક્ષિણાયનના છેલ્લા દિવસ છે તે બતાવવા भाटे ४ छे- 'एसणं पढमे छम्मासे' या पडेना छमास अर्थात् मा दक्षिणायन संबंधी એકસ વ્યાસી દિવસ રૂપરાશિ પહેલા છ માસ અયનરૂપ કાળવિશેષ છ માસના સમૂહ षट्मास छे. 'एसणं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' या पडेसा छ भास दक्षिणुयानना ज० ८ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे द्वितीये षण्मासे अयमानः द्वितीयं षण्मासं गच्छन् 'पढमंसि अहोरसि' प्रथमे अहोरात्रे उत्तरायणस्पेतिशेषः 'बाहिराणंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ' बाह्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं गतिं चरति करोति यात्र गत्यादि ज्ञानार्थं प्रश्नवन्नाह जगामिदि 'जयाणं भने सूरिए' यदा खलु यस्मिन्काले भदन्त सूर्यः 'बाहिराणंतरं मंडल उवसंकमित्ता' बाह्यानन्तरं सर्वबाह्यमंडळापेक्षया द्वितीयं मण्डलमुपक्रम्य संप्राप्य 'चारं चरई ' चारं गतिं चरति करोति 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ' तदा तस्मिन् द्वितीयमण्डलसंक्रमणकाले खलु एकैकेन मुहूर्त्तेन कियत् कियत्प्रमाणकं क्षेत्रं गच्छतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमे' त्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंच पंनजोयणसहरसाई' पंत्र पंच योजनसहस्राणि 'तिष्णि य चउत्तरे जोयणसए' त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि चतुरचिकानि त्रीणि योजनशतानीत्यर्थः 'सत्तावणं च सहिभाए जोयणस्स' सप्तपञ्चाशच्च षष्ठभागान् योजनस्य ' एगमेगेणं मुहुत्तेगं गच्छइ एकैकेन मुहूर्तेन गच्छतीति ५३०४ तद्यथा का पर्यवसान है । 'से सूरिए' छम्मास सर्वबाह्य मंडल गति के अनन्तर सूर्य 'दोच्चे छम्मासे अयमाणे' दूसरे छह मास में गमन करता हुवा 'पढमंसि अहो - रत्तंसि' उत्तरयण के प्रथम अहोरात्र में 'बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' बाह्यानन्तर दुसरे मंडल में प्राप्त होकर गति करता है । अब गत्यादि के ज्ञान के लिए प्रश्न करते हुए कहते हैं 'जयाणं भंते ! सूरिए' हे भदन्त जिस समय सूर्य 'बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता' सर्व बाह्यमंडल की अपेक्षासे दूसरे मंडल को प्राप्त करके 'चारं चरइ' गति करता है 'तणं एगमेगेणं मुहुत्ते केवइयं खेत्तं गच्छ तब दूसरे मंडल के संक्रमण काल में एक एक मुहूर्त में कितने प्रमाण वाले क्षेत्र में जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'पंच पंच जोयण सहस्साई' पांच हजार योजन 'तिनिय चउरुत्तरे जोयणसए' तीनसो चार योजन 'सत्तावण्णं च सहिभाए जोयणस्स' एक योजन का साठिया सतावनवां भाग 'एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छइ' एक मुहूर्त में जाता हैं ५३०४ ५७ ६० अन्त३ छे से सूरिए' सर्वमाद्य गतिनी पछी सूर्य' 'दोच्चे छम्मासे अयमाणे' श्रील छभास गमन करता 'पढमंसि अहोरत्तंसि' उत्तरायणुना पडेला सडेरात्रमा 'बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरई' माह्यानन्तर जीन मंडणमां प्राप्त थहने गति ४२. वे गन्धाहिना ज्ञान भाडे प्रश्न र छे - 'जयाणं भंते ! सूरिए' हे भगवन् ! न्यारे सूर्य 'बाहिरा गंतर मंडलं उत्रसंकमित्ता' सर्व माघ भडजनी अपेक्षा थी जील भड - जने प्राप्त उरीने 'चार' चरइ' गति ४रे छे. 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ' ખીજા મંડળના સ’ક્રમણ કાળમાં એક એક મુહૂર્તમાં કેટલા પ્રમાણવાળા ક્ષેત્રમાં જાય છે ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ' हे 'गोयमा ! हे गौतम! 'पंच पंच जोयणसहस्सा ई' यां ५७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकunir टीका-वक्षस्कारः सु. सप्तम ५ मुहूर्तगति निरूपणम् ५९ ३९ ६० ६० अस्मिन् सर्वत्राह्यमण्डलद्वितीयमण्डले परिधिपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानाम् ३१८२९७, ततोऽस्य षष्ठिसंख्यया भागे हृते लभ्यते यथोक्तमस्त्रिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिप्रमाणमिति । अत्रापि दृष्टिपत्रप्राप्तता परिमाणमाह-तयाण मित्यादि 'तयाणं इहगयस्स मणुसस्स' अत्र जाता वेकवचनम् तेन तदा तस्मिन्काले इह भरत क्षेत्रगतानां भरत क्षेत्रस्थितानां मनुष्याणाम् ' एगतीसाए जोयण तहस्से हिं' एकत्रिंशतायोजनसहस्रैः 'णवहिय सोलमुत्तरेहिं जोयणसएहिं' नव च षोडशोत्तरै र्योजनशतैः षोडशाधिक नवभिर्योजन - शतैरित्यर्थः ' एगूणालीसा एय सद्विमाहिं जोयणस्प' एकोनचत्वारिंशता च पष्टिभागे यजनस्य 'सहभागं च एगसठिया छेत्ता' एकस्य योजनस्य च षष्ठिभाग मेकपटिया छित्वा 'सीए चुणिया मागेहिं' षष्ट्या चूर्णिकामातैः ३१९१६ 'रिए चक्खुफासं हव्त्रमागच्छ ' सूर्यचक्षुः स्पर्शम् चक्षुर्विषयतां दृष्टिपथप्राप्तता मित्यर्थः हव्वं शीघ्रमागच्छतीति, तथाहि अत्र वह इस प्रकार इस सर्वबाह्य मंडल के दूसरे मंडल में परिधिका परिमाण तीनलाख अठारह हजार दो सो सताणवे योजन ३१८२९७ इस संख्या का साठ से भाग देने पर इस मंडल का यथोक्त मुहूर्त गति का प्रमाण मिल जाता हैं। यहां भी दृष्टिपथ आनेका परिमाण कहते हैं- ' तयाणं इह्गयस्स मणुसस्स' तब इस भरतक्षेत्र में रहे हुए मनुष्य का 'एगतीसाए जोयणसहस्सेहि' इकतीस हजार योजन से 'नवहिय सोलसुत्तरेहिं जोयणसएहिं' नवसो सोलह योजन ' एगूगालीसाए य सहिभारहिं जोयणस्त्र' साठिया उनचालीस भाग 'सहि भागंच एसट्टिया छेत्ता' एक योजन के साठ भाग के इकसठ से छेद देकर 'हिए चुणिया भागेहिं' साठ चूर्णिका भागसे ३१९९६ 'सरिए चक्ष्फार्स हव्व मागच्छइ' सूर्य दृष्टिगोचर तुरंत आजाता है ' तथाहि - इस उत्तर न तिन्निय चउरुत्तरे जोयणसए' शुसो यार योजन 'सत्तावन्नं च सभाए जोयणस्स' योज्ननो साहिया सत्तावनभो लाग 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छ ये મુહૂર્તમાં જાય છે. ૫૩૦૪૭ ३९ ६० .. ६१ તે આ પ્રમાથે છે—આ સર્વ બાહ્ય મંડળના ખીન્ન મંડળમાં પરિધિનું પરિમાણુ ત્રણુલાખ અઢાર હજાર અસેાસત્તાણુ યાજન ૩૧૮૨૭નુ છે. આ સખ્યાને સડથી ભાગવાથી આ મંડળનું યથાક્ત મુહૂત ગતિનું પ્રમાણ મળી જાય છે. અહીંયા પણ દૃષ્ટિपथमां भाववा परिमाणु हे छे- 'तयाणं इहगयस्स मणुसरस' त्यारे मा भरतक्षेत्रमां रडेसा भनुष्येो ‘एगतीप्ताए जोयणसहस्सेहिं' स्त्रीस उत्तर योजनथी 'नवहिए सोलसुत्तरे हिं जोयणसएहिं' नत्रसोसोजन 'एगूणालीसाए य सट्टिभाएहिं जोयगरस' साहिया श्रोगाणुन्यासीसमा लाग 'सट्ठि भागं च एगसट्ठिधा छेत्ता' योजना सा लागने उसउथी छेट्टीने 'सट्टिए चुण्णियाभागेहिं' साठ यूर्थिक लागथी १७१६६ 'सूरिए चक्खुफा सं हृन्त्र मागच्छइ' तरत ४ सूर्य दृष्टिगोयर था लय हो, प्रेम है-माजी भउजमां Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र द्वितीयमंडले यदा सूर्यश्वारं चरति तदा दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणकः दाभ्यां मुहूर्तेकषष्ठिभागाभ्यामधिकः तेषां चार्द्धभागे षटूमुहूर्ता एकेन मुहः कपष्ठिभागेनाभ्यधिकः ततः स वर्णनार्थ षडपि मुहर्ता एकषष्ठया गुण्यन्ते तदा एकः षष्ठि भागस्तत्राधिकः प्रक्षिप्यते ततो जातानि त्रीणिशतानि सप्तषष्ठयधिकानि एकषष्ठिभागानाम् ३६७-ततः प्रक्रान्तमंडळे यत्परिमाणं त्रीणिलशाणि अष्टादश सहस्राणि द्वेशते शप्तनवत्यधिके ३१८२९७ इदंच योजनराशि षष्ठिसंख्यया गुणयित्वा सा वर्णिता मुहत्तंगति भवतीति प्रथममपि कथितम् एतदेवभिः त्रिभिः शतै षट् षष्ठयधिकैर्यदा गुण्यते तदा जाता एकादशकोटयः अष्ट षष्ठिर्लक्षाश्चतुर्दशसहस्राणि नव शतानि नव नवत्यधि कानि ११६८१४९९९ एतस्य एक षष्ठिसंख्यया गुणिताया पष्ठिसंख्यया ३६६० भागो हियते लब्धानि एकत्रिंशतसहस्राणि नवशतानि षोडशाधिकानि ३१९१६ शेषमुद्धरति चतुर्विंशतिशतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि २४३९ एतावता योजनानि नायातानि । ततः षष्ठिभागानयनाथ मेकषष्ठया भागो हियते लब्धा एकोनचत्वारिंशत दूसरे मंडल में जब सूर्य गति करता है तब दिवस बारह मुहूर्त प्रमाण का होता हैं, दो मुहूते के इकसठ भाग अधिक उसका आधा भाग छ मुहूते होता है। एक मुहूर्त का एकसठवां भाग अधिक होजाता है। उसको-छहों मुहतों को एकसठ से गुणा किया जाता है। तब एकसठवां भाग का वहां अधिक प्रक्षेप करने पर तीनसो सरसठ आता है । तब इस कथित मंडल में जो परिमाण तीन लाख अठारह हजार दोसो सताणु ३१८२९७ होता है उसे योजन राशि को साठ की संख्या से गुणित करलेने पर वह कथित मुहूर्त गति निकल आती है यह पहले भी कहा है। यही संख्या को तीनसो साठ से जब गुणित करते हैं तब ग्यारह करोड अठसठ लाख चौदह हजार नवसो नन्नाणु ११६८१४९९० इस संख्या को इकसाठवी संख्या से गुणित करके साठची संख्या से भाग देने पर एकत्रीस हजार नवसो सोलह ३१९१६ लब्ध होता है शेष चोवीस सो उन चालीस २४३९ रहते हैं । अतः साठ का भाग लाने के लिए एकसठ से भाग સૂર્ય જ્યારે ગતિ કરે છે, ત્યારે દિવસ બાર મુહૂર્ત પ્રમાણને હોય છે. બે મુહૂર્તના એકસઠ ભાગ અધિક તેના અર્ધા છ મુહૂર્ત અને એક મુહૂર્તને એકસઠમો ભાગ અધિક થઈ જાય છે. એ છએ મુહૂર્તને એકસઠથી ગુણવામાં આવે છે, ત્યારે એકસઠમા ભાગને ત્યાં અધિકરૂપે પ્રક્ષેપ કરવાથી ત્રણસો સડસઠ આવે છે. ત્યારે આ કહેલા મંડળમાં જે પરિમાણ ત્રણ લાખ અઢાર હજાર બસે સત્તાણુ ૩૧૮૨૯૭ થાય છે તે જન રાશીને સાઠની સંખ્યાથી ગુણવાથી તે કહેવામાં આવેલ મુહૂર્ત ગતિ નીકળી આવે છે. આ પહેલાં પણ કહેલ છે. આ સંખ્યાને ત્રણસે છાસઠથી જ્યારે ગુણવામાં આવે છે, ત્યારે અગીયાર કરોડ અડસઠલાખ ચૌદ હજાર નવસો નવાણુ ૧૧૬૮૧૪૯ આવે છે. આ સંખ્યાને એકસાઠની સંખ્યાથી ગુણિને સાઠની સંખ્યાથી ભાગ કરવાથી એકત્રીસહજાર નવસો સેળ ૩૧૯૧૬ આવે છે. શેષ વીસ ઓગણચાળીસ ૨૪૩૯ રહે છે. આ રીતે જનની સંખ્યા Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् षष्ठिभागाः ३९ एकस्य च षष्ठिभागस्य सम्मन्धिनः षष्ठिरेक पष्ठभागा । इति । सम्प्रति तृतीयमंडले संचरिष्णुः सूर्यस्य मुहूर्त गतिप्रमादर्शयितुमुपक्रमते 'से पवितमाणे' सूरिए' अथ द्वितीयमंडलप्रवेशादनन्तरम् प्रविशन् जम्बूद्वीपाभिमुखं गच्छन् सूर्यः 'दोचंसि अहोरसि' द्वितीये अहोरात्रे उत्तरायणतत्के इत्यर्थः, 'बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चाइ' बाह्य तृतीयमण्डलमुपसंकाय चारं गतिं चरति करोति ततः किं भवति तत्राह-जयाणमित्यादि, 'जयाणं भंते सूरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' यदा यस्मिन्काले खलु भदन्त बाह्य तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं गतिं चरति करोति 'तया एगमेगेणं मुहुत्ते केवइयं खेतं गच्छई' तदा तृतीयमंडलसंक्रमणकाले खलु एकैकेन मुहर्नेन खलु कियत् प्रमाणकं क्षेत्रं गच्छतीति प्रश्नः भगवाना-गोयमेत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंच पंचजोयण सहस्साई' पंच पंचयोजन सहस्राणि 'तिणि य चउरुत्तरे जोयणसए' त्रीणि करने पर साठिया उनचालीस भाग लब्ध होता है और एक साठ भाग के साठवां भाग होता है। अब तीसरे मंडल में संचहिष्णु सूर्य की गति के प्रमाण को कहनेका प्रारंभ करते हैं-'से पविसमाणे सूरिए' दूसरे मंडल में प्रवेश करने के पीछे जंबूद्वीप के सन्मुख गमन करता हुवा सूर्य 'दोच्चंसि अहोरसिं' दूसरे अहोरात्र में 'बाहितच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' बाह्य तीसरे मंडल में जाकर गति करता है। उससे क्या होता है सो बताते हैं-'जया णं भंते ! सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' हे भदन्त ! जिस काल में सूर्य बाह्य तीसरे मंडल में जाकर गति करता है-'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तणं केवइयं खेत्तं गच्छ।' तब तीसरे मंडल के संक्रमण काल में एक एक मुहूर्त में कितने प्रमाण क्षेत्र में गमन करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! મળતી નથી તેથી સાઠને ભાગ લાવવા માટે એકસાહથી ભાગ કરવાથી સાઠિયા એગણચાળીસ ભાગ લબ્ધ થાય છે, અને એકસઠ ભાગને સાઠ ભાગ ર થાય છે, હવે ત્રીજા મંડળમાં સંચાર કરનાર સૂર્યની મુહૂર્તગતિનું પ્રમાણ કહેવાને પ્રારંભ ४२ छ-'से पविसमाणे सूरिए' मी ममा प्रवेश ४ा पछी दीपनी सन्भुम गमन ४२ सूर्य 'दोच्चंसि अहोरत्तंसि' मी मराHi 'बाहिरतच्चं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरई' या त्री ममा गति ४रे छ, अनाथी शु थाय छ १ मे मतावे छे-'जयाणं भंते ! सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ' भगवन् ! न्यारे सूर्य मा श्री मा ४४ गत ४२ छ, 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तणं केवइयं खेत्तं જાઓ ત્યારે ત્રીજા મંડળના સંક્રમણ કાળમાં એક એક મુહૂર્તમાં કેટલા પ્રમાણવાળા क्षेत्रमा गमन ४२ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४३ छ-गोयमा! 'पंच पंच जोयण सहस्साई' पांय पांय 6M२ यौन तिन्निय चउरुत्तरे जोयणसए' सो यार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुद्वीपमातिसत्रे च चतुरुत्तराणि योजनशतानि चतुरधिकानि त्रीणि योजनशतानीत्यर्थः । 'दुगुणालीसं च सहिभाए जोयणस्स' एकोनचत्वारिंशच षष्ठिभागान् योजनस्य 'पगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छ।' एकैकेन मुहतेन गच्छतीति तद्यथा--भत्र खलु बाह्यतृतीयमण्डले परिरयपरिमाणं प्रयोलक्षाः अष्टादशसहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७९ अस्प च पष्ठिसंख्यया भागे हृते लब्धं यथाकथितमत्र मंडले मुहूर्त्तगति प्रमाणमिति । संप्रति दृष्टिपथप्राप्तता दर्शयितुमाह-'तयाणं इहायस्त' इत्यादि, 'तयाणं इहगयस्स मणुसस्त' तदा तस्मिन् काले खलु इह भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणाम् 'एगाहिएहि बत्तीसा जोयणसहस्सेहि' एकाधि त्रिंशता योजनसहौः 'एगूणपण्णाए य सहिमाएहिं जोयणस्स' एकोनपंचाता च षष्ठिभागै योजनस्य 'सट्ठिभागं च सद्विधा छित्ता' एक च पष्ठिभागमेक पष्ठिया छित्त्वा 'तेवीसाए चुणि या भागेहि' त्रयोविंशत्या चूणिकाभागैः 'मूरिए' सूर्य: 'चक्खुप्फासं हव्यमागच्छई' चक्षुः स्पर्श दृष्टिपथप्राप्तनां चक्षु वैषधतामित्यर्थः हवं शीघ्रमा'पंच पंच जोयणसहस्साई' पांच पांच हजार योजन 'तिमि य चउरुत्तरे जोयणसए' तीनसो चार योजन 'दुगुणालीसं च सटिभाए जोयणस' एक योजन का साठिया उनचालीसवां भाग 'एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छई' एक मुहर्स में जाता है। यह इस प्रकार-इस बाह्य तीसरे मंडल में परिधि का परिमाण तीन लाख अठारह हजार दोसो उनासी ३१८२७९ इस को साठ की संख्या से भाग देने पर पूर्वोक्त यथा कथित मुहर्त गति का प्रमाण इस मंडल का मिल जाता है। अब दृष्टिपथ में प्राप्तता दिखाने के लिए कहते हैं 'तयाणं हहगयस्स मणुसस्म' उस समय इस भरतक्षेत्र में रहे हुए मनुष्यों का 'एगाहिएहिं बत्तीसा जोयण सहस्से हिं' धत्तीस हजार एक योजन 'एगणपन्नाए य सहिभाएहि जोयणस्स' एक योजन का साठिया उनपचासवां भाग 'सहिभागं च सद्विधा छित्ता' एक साठ का भाग को साठ से छेदकर तेवोसाए चुपिणया भागेहिं' तेवीस चूर्णिका योभन 'दुगूणालीसं च सद्विभाए जोयणस्स' २४ योनिन सा मेरायाजी सभा मास 'एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छई' से भुतभा लय छे. २॥ प्रमाणे 41 माह की भ'मा પરિધિનું પરિમાણ ત્રણ લાખ અઢાર હજાર બસે અગણ્યાસી ૩૧૮૨૭૯ છે. તેને સાઠની સંખ્યાથી ભાગવાથી પૂર્વોક્ત યથાકથિત મુહૂર્તગતિનું પ્રમાણ આ મંડળનું મળી આવે છે. टिपथ प्राप्तता मतावाने भाटे ४ छ-'तयाणं इहगयस्स मणुसस्स' ते समये 40 मरतक्षेत्रमा २२सा मनुष्याने 'एगाहिएहिं बत्तीसा जोयणसहस्सेहिं' मत्रीस M२ . ४ योन 'एगूगपन्नाए य सद्विभाएहिं जोयणस्स' से योनी साया सोमपन्यासमा मा 'सद्विभागंच सद्विधा छित्ता' ४ साउना लागन साथी छेदीन 'तेवीसाए चुणिया भागेहिं तेवीस यू४ि मा ४२१॥थी 'सूरिए' सूर्य 'चक्खुप्फास हव्व માછો શીદ્ય ચક્ષુગોચર થઈ જાય છે. તે આ પ્રમાણે છે આ બાહા ત્રીજા મંડળમાં Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् गन्छतीति तद्यथा- अत्र खलु बाह्य तृतीयमंट ले दिक्सो द्वादश मुहर्त प्रमाण श्चतुभिर्मुहर्तेक षष्ठिभागेरधिकः तस्याई पदमुहर्ताः द्वाभ्यामेक पछिभागाभ्याम् अधि ': सामस्त्येनैकपष्ठिभागकरणार्थ पडपि मुहर्ता एकपष्ठिसंख्यया गुण्यन्ते गुणनानन्तरं तत्र द्वावे कपष्ठिभागौ प्रक्षि प्येते ततो भवंति त्रीणि शतानि अष्ट षष्ठयधिकानि एकपष्ठिभागानाम् ३६८, ततोऽस्मिन् तृतीयमंडले यत् परिधिपरिमाणं त्रयोलक्षा अष्टादशसहस्राणि द्वेशते एकोनाशीत्यधिक ३१८२७९ एतत् त्रिमिः शतैरष्टषष्ठयधिक गुंते जाता एकादशकोटयः एकसप्ततिः शतसहस्राणि पविंशतिः सहस्त्रःणि षटूशतानि द्वि सप्तत्य शिकानि ११७१२६६७२ अस्य चैकपष्टया गुणितया पठ्या ३६६० भागे लब्धानि द्वात्रिंशन्सहस्राणि एकाधिकानि ३२००१ शेष त्रीणि सदस्लाणि द्वादश धिकानि ३०१२ तेषां पहिभागानयनाथमेकपया मागे हृते लब्या एकोनपंचाशत् पष्ठिभागा १० एकस्य पष्ठिभागस्य सम्बन्धिनः त्रयोविंशतिच्चूर्णिकाभागा इति । संप्रत्पत्रापि चतुर्थमंडलादिष्वनिदेशं दर्शस्तुिमाह-एवं खलु एएणं उवाएणभाग करने से 'सरिए' सूर्य ' चाफामं हवमागच्छद' शीघ्र ही चक्षुगोचर आता है । यह इस प्रकार से है-इस बाला तीसरे मंडल में दिवस बारह मुहर्त प्रमाण का है-एवं साठिया चार मुहर्त अधिक होता है । उसका आधा छ मुहर्त साठिया दो मुहर्त अधिक है। उसका एकसाठवां भाग करने के लिए छहों मुहर्त एकसाठ की संख्या से गुणा किया जाता है । गुणा ब.रने पर उसमें एकसाठिया दो भाग का प्रक्षेप करने पर तीनसो अडसठ इकसठ भागों का ३६८, तत्पश्चात् इस तीसरे मंडल में जो परिधि का परिमाग तीन लाख अठारह हजार दोमो उन्नामी ३१८२७९ इसको तीनसो अडसठ से गुणा करने पर ग्यारह करोड इकोत्तर लाख छव्वीस हजार छसो बहतर ११७ २६६७२ होता है। इसको एकसठ से गुणा कर के ३६६० से भाग देने से बत्तीस हजार और एक ३२०००१ आता है, तीन हजार बारह ३०१२ शेष बचता है। उसका साठ का भाग लाने के लिए इकसठ से भाग देने से साठिया उनपचास: एक साठ का तेवीस चूर्णिका भाग लब्ध होता है। દિવરા બાર મહતું અને સાઠિયા ચાર મુહૂર્ત પ્રમાણને છે તેના અર્ધા છ મુહુર્ત અને સાઠિયા બે મુહૂર્ત છે. તેના એકમાઠ ભાગ કરવા માટે છ એ મુહૂર્તને એકસાઠથી ગણવામાં આવે છે, ગુણીને તેમાં એકસાઠિયા બે ભાગને પ્રક્ષેપ કરવાથી ત્રણસે અડસઠ એકસઠ ભાગ ૩૬૮ થાય છે આ ત્રીજા મંડળમાં પરિધિનું પરિમાણ જે ત્રણ લાખ અઢાર હજાર બસે અગણ્યાસી ૩૧૯૨૭૯ થાય છે તેને ૩૬૮ થી ગુણવાથી અગ્યાર કરેડ એકેતેર લાખ છવ્વીસ હજાર છો બેતેર ૧૧૭૧૧૨૬૭ર થાય છે. આને એકસાઠથી ગણીને ૩૬૬૦ થી ભાગવાથી બત્રીસ હજાર ને એક ૩૨૦૦૧ આવે છે ત્રણહજાર બાર ૩૦૧૨ શેષ વધે છે. તેને સાઠમો ભાગ લાવવા માટે એકસડથી ભાગવાથી સાડિયા ઓગણપચાસ ૪૬ એક સાઠના તેવીસ ચૂર્ણિકા ભાગ લબ્ધ થાય છે. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मित्यादि, ' एवं खलु - एएणं उनाएणं' एवमुक्तप्रकारेण खलु इति निश्चयेन एतेनोपायेन क्रमशः क्रमशस्तत्तदनन्तराभ्यन्तर मंडलाभिमुखगमनलक्षणेन 'पविसमाणे सूरिए' प्रविशन प्रवेशं कुर्वन् सूर्यः 'तयणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तगत् यस्मिन् स्थितस्ततोऽपरस्मात् मंडलात् 'तयणंतरं मंडलं' तदनन्तरमपरापरलक्षणं मण्डलम् 'संक्रममाणे संकममाणे' संक्रामन् संक्रामन् गच्छन् गच्छन् 'अट्ठारस अट्ठारस सहिमाए जोयणस्स' अष्टादशाष्टादशपष्ठभागान योजनस्य ' एगमेगे मंडले' एकैकस्मिन मंडले 'मुहुत्तगई' मुहूर्त्तगतिम् 'निवड्डेमाणे निवडूमाणे' निवर्द्धयन् निवर्द्धयन हाययन् त्यजन्नित्यर्थः 'साइरेगाई पंवासीति पंचासीति जोगाई' सातिरेकाणि पञ्चाशीतिः पञ्चाशीतिर्योजनानि 'पुरिसछायं अभिवद्धेमाणे अभिवद्धेमाणे' पुरुषछायामभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् 'सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता अब यहां भी चतुर्थ मंडलादि में अतिदेश दिखाने को कहते हैं - ' एवं खलु एएणं उबाएणं' उक्त प्रकार से इस उपाय से क्रम क्रम से तदनन्तर अभ्यन्तर मंडलाभिमुख गमनरूप 'पविसमाणे सूरिए' प्रवेश करता हुवा सूर्य 'तणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तर माने जिस मंडल में स्थित हो उससे दूसरे मंडल से 'तयतरं मंडल' दूसरे मंडल से दूसरे मंडल में 'संकममाणे संक्रमाणे' जाते जाते 'अट्ठारस अट्ठारस सहिभाए जोयणस्स' एक योजन का अठारह अठारह साठिया भाग 'एगमेगे मंडले' एक एक मंडल में 'मुहुत्तगई' मुहूर्त्तगति को 'निवडेमाणे निवडेमाणे' कम करता करता 'साइरेगाई पंचासीति पंचासीतिं जोयणाई' कुछ कम पचासी पचासी योजन 'पुरिसछायं' अभिवद्धेमाणे अभिवद्धेमाणे' पुरुषछाया को बढाते बढाते 'सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है । प्रतिमंडल को एवं अहोरात्र की गणनासे अहोरात्र भी एकसो तीरासीवां હવે અહીંયા પણ ચેાથા વિગેરે મંડલાદિમાં અતિદેશ ખતાવવાને માટે કહે છે– 'एवं खलु एएणं उवाएणं' उत प्रारथी या पायथी मयूर्व ४ तहन ंतर अल्यन्तर भंडेसालिमुख गमन३५ ' पविसमाणे सूरिए' प्रवेश ४२तो सूर्य' 'तयणंतराओ मंडलाओ' तहनन्तर थेट ने मंडमां होय तेनाथी जीन्न मांडणथी 'तयणंतरं मंडलं' जील भडमा 'संकममाणे संकममाणे तां तां 'अट्ठारस अट्ठारससट्टिभाए जोयणस्स' न्येष्ठ योजन साहिया मढार भढार भाग 'एगमेगे मंडले' ४ थे भडजमां 'मुहुत्ताई' मुहूर्त गतिने 'निवडूढे माणे' निवड्ढे माणे' ४५ ४२ ४२ 'साइरेगाई पंचासीति जोयणाई' ४६४ ४भ पंयासी पंयासी यन्न 'पुरिसछायं अभिवडूढे माणे अभिवद्धे माणे' ५३५ छायाने वधारता वधारता 'सव्वमंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' सर्वास्य तरभ डेजने પ્રાપ્ત કરીને ગતિ કરે છે. પ્રતિમંડળને અને અહેારાત્રિની ગણનાથી અÌરત્રી પણ એકસો બ્યાસીમે દિવસ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाधिका टीका-वक्षस्कारः सू.सप्तम ५ मुहूर्तगतिनिरूपणम् चार चरई' सर्वाभ्यन्तरमंडलमुपसंक्रम्य संप्राप्य चारं गतिं चरति करोतीति । प्रतिमंडलं चाहोरात्रगगनादहोरात्रोपियशीत्यधिक शततमस्तेनायमुत्तरायणस्य चरमो दिवसो भवतीति कथयितुमाह-'एम गं दोच्चे छम्मासे' इत्यादि 'एसणं दोच्चे छम्मासे' एषः खलु द्वितीयः षण्मासः उत्तरायणलक्षगोऽयन विशेषः 'एसणं दोच्चस्त छम्मास्स पज्जवसाणे' एतत् खलु द्वितीयस्य पण्मासस्योत्तरायणलक्षणस्य पर्यवसानम् व्यशीत्यधिकशततमोहोरात्ररूपत्वात् 'एस णं आइच्चे संवच्छ' एपः खलु आदित्यः संवत्सरः आदित्यचारोपलक्षितः संवत्सर इति एतावता नक्षत्रादि संवत्सरस्य निराकरणं कृतम् आदित्यादेव अहोरात्रपक्षमासऋतुअयनवर्षव्यवहारो नतु नक्षपादितो मासादि व्याहार इति 'एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज वयाणे पन्नत्ते' एतत् खलु आदित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानं चरमायनचरमदिवसलात् प्रज्ञप्तं कथितमिति । इति सप्तमं मुहूर्त्तगति द्वारं समाप्तम् । सू० ५ ॥ सम्प्रति अष्टमं दिनरात्रिवृद्धि हानिद्वारमाह-'जयाणं भंते सुरिए' इत्यादि । मूलम्-जयाणं भंते ! सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं के महालए दिवसे के महालिया राई भवइ ? गोयमा ! दिवस उत्तरायण का अन्तिम दिवस होता है यह कथन करने के लिए कहते हैं-'एसणं दोच्चे छम्मासे' यह उत्तरायण रूप दूसरा षट्मास है-'एसणं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' यह दूसरे षट्मास रूप उत्तरायण का अन्तिम दिवस है, अर्थात् एकसो तिरासीवां अहोरात्र होने से वह अन्तिम कहा गया है, 'एस णं आइच्चे संवच्छ रे' यह सूर्य संवत्सर है कारण की यह संवत्सर सूर्य की गति से उपलक्षित होता है। इस कथन से नक्षत्रादि संवत्सर का निराकरण हो जाता है, सूर्य से ही अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन एवं वर्ष का व्यवहार होता है। नक्षत्रादि से मासादि व्यवहार नहीं है, 'एसणं आहच्चस्स संवरस्स पज्जवसाणे घराणत्ते' यह आदित्य संवत्सर का अन्तिम अयन का अन्तिम दिवस होने से पर्यवसान रूप कहा है । ।सू ० ५॥ इस प्रकार यह सातवां मुहर्त गतिद्वार समाप्त ।। उत्तरायाना छ : ६१५ डाय छे. २॥ ४॥ ४२१॥ भाट र छ-'एसणं दोच्चे छम्मासे' આ ઉત્તરાયણ રૂપ બીજા છ માસ રૂપે ઉત્તરાયણનો છેલ્લે દિવસ છે. અર્થાત્ એસેવ્યાसीमा मा२।३ डापायीले हवस ४ामो सास छे. 'एसणं आइच्चे संवच्छरे' स. सूर्य स १२, १२७ - ! २२ सू तथी उपलक्षित थाय छे. या કથનથી નવા િસંવ સરનું નિરાકરણ થઈ જાય છે. સૂર્યથી જ અહોરાત્ર, પક્ષ, માસ, ઋતુ, २५यन, अने वर्षन व्यवहार थाय छे. 'एसणं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते' मा આદિત્ય સંવત્સરના છેલ્લા અયનને છેલ્લે દિવસ હોવાથી પર્યવસાનરૂપ કહેલ છે. સૂ૦ ૫ છે આ રીતે સાતમું મુહૂર્ત ગતિદ્વાર સમાપ્ત છે Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप सि तयाणं उत्तमकटुपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, से विखममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरतंसि अतराणंतरं मंडलं उनसंकमित्ता चारं चरइ । जयाणं भंते! सूरिए अभंतराणंतरं मंडल उपसंकमित्या चारं परइ तयाणं के महालय दिवसे के महालिया र ई भवइ ? गोयमा ! तयाणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एट्टिभागमुहुत्तेहि ऊणे दुबालस मुहुत्ता राई भवइ दोहि य एगसद्विभागमुहुत्तेहिं अह्नियति से निखममाणे सूरिए दो च्वंसि अन्यंतरानंतरं मंडल उपसंकमित्ता वारंवरइ तयाणं के महालए दिवसे के महालिया राइ भाइ, गोषमा ! तवाणं अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसट्टिभागमुह तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अदिति। एवं खलु एषणं उवाएणं विखममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ त्यानंतरं मंडलं संकममाणे दो दो एगसट्टिभागमुहुतेहिं एगमेगे मंडले दिवसखित्तस्स गिबुद्धेमाणे णिबु " माणे रयणिखित्तस्स अभिवमाणे अभिवद्धेनाणे सव्ववाहिरंमंडलं उवसंकमित्ता वारं वर३ ति । जयाचं सूरिए सव्वमंतराओ मंडलाओ सव्ववाहिरं मंडलं संकलित्ता वारं चरइ तयाणं सव्वमंतरमंडल पणिहाय एगेणं तेसीषणं राईदिसणं तिष्णि छावट्टे एगसट्टिभाग मुहुतस दिवसखेत्तस्स निबुद्धत्तः स्यणि खेत्तस्स अभिबुद्धेत्ता चारं चरइत्ति जयाणं भंते! सूरिए सव्ववाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं के महालए दिवस के महालिया राइ भवई ? गोयला ! तयाणं उत्तमकटुपत्ता उक्कोसिया अट्ठारम सुहुता राई भवइ जहष्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइति एस णं पढमे छम्मासे एसणं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे । से पविमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं के महालय दिवसे भव के महालया राई भवइ, गोयमा ! अट्ठारसमुहुत्ता राई भइ दोहिं एगसट्टिभागमुहुतेहिं अहिए से पविसमाणे सूरिए 1 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरात्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरत मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ । जया णं भंते ! सूरिए बाहिरतवं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं के महालए दिवसे भवइ के महालिया राई भवइ, गोयमा ! तया णं अट्ठारस मुहुत्ता शई भवइ चउहिं एगसटिभाग हुत्तेहिं ऊणा दुवालस मुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एसटिभागमुहुत्तेहिं अहिए त्ति। एवं खलु एएणं उबाएणं पविसमाणे सूरिए तथाणंतराओ भंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकमाणे संकममाणे दो दो एगलदिभागमुहुतेहिं एगमेगे मंडले रयणिखेत्तस्स निबुझेमाणे निबुदेलाणे दिवसखेत्तस्स अभिबुद्धेमाणे अभिबुद्धेमाणे सबभतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ त्ति। जया णं भंते ! सूरिए सव्ववाहिरामो मंडलामो सनातरं मंडलं उसकमित्ता चारं चरइ तयाणं सजवाहिरं मंडलं पणिहार तेसीए णं राइंदिवसेणं तिग्णि छाब एगसहिभागमुहत्तसए स्यणिखेत्तस्स णिव्बुद्धत्ता दिवस. खेलस्त अभिवत्ता चारं परइ एसणं दोच्चे छम्मासे एसणं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस णं आइच्चे संवच्छरे एसणं आइच्चस्स संवच्छरस्त पज्जवसाणे पण्णरे ॥५० ६॥ छाया-यदा खलु भदायः सर्वाभ्यन्तरब डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खल किं महालयो दिवसः किं महालया रात्रि भवति ? गौतम ! सदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्कर्षको. ऽष्टादश महत्तों दिवसो भवति, जयन्यिका बादशहूर्ता रात्रि भाति । अथ निष्क्रामन् सूर्यो नवं संवत्सरमयमानः प्रथमे अहोरात्रेऽम्यन्तसनन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । यदा खलु भदन्त सूर्योऽभ्यन्तरानन्तरं पण्डलमुपसंक्रम्य वारं चरति तदा खलु किं महालयो दिवसः किं महालया रात्रि भवति ? गौतम ! तदा खलु अष्टादश मुहूत्तौ दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहूर्ताभ्यामूना, द्वादशपुहूर्ता रात्रि भवति द्वाभ्यामेकपष्ठिभाग मुहूर्ताभ्यामधिकेति । अब निष्कासन सूमो द्वितीयेऽहोरात्रे यात्रतू चारं चरति तदा खलु किमहालयो दिवसः किं महालया रात्रि भाति गौतम ! तदा खलु अष्ट दशमुहू तो दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्ठिभागमुहूर्ता रात्रि भवति चतुभिरेक पटमाम मुहरधिकेति एवं खलु एतेनोपायेन निष्क्रामन् सूर्यः तदनन्तरामण्डलात्तदनन्तरं माडलं संक्रान् हौ द्वावेकप ठभागमुहूर्तावकैक स्मिन् मंडले दिवसक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् निबद्धयन् रमनिक्षत्रस्याभिवर्द्धगन् अभिवर्द्धयन् सर्वबाह्यमंडल Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮ जम्बूद्वीतिसूत्रे मुपसंक्रम्य चारं चरतीति । यदा स सूर्यः सर्वाभ्यन्तरात् मंडलात् सर्वच मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खद सर्वाभ्यन्तरमंडलं प्रणिधायैकेन व्यशीतेन रात्रिदिवशतेन त्रिणि षट् पष्टानि एक पष्ठिभागमुहूर्त्तशतानि दिवसक्षेत्रस्य निवद्धर्च रजनी क्षेत्रस्याभिवद्धर्च चारं चरतीति । यदा खलु भदन्त सूर्यः सर्वबाह्यमंडलमुपसंक्रम्य चारं चरति दखल कि महालय दिवसः किं महालया रात्रि भवति गौतम ! तदा खलूमष्ठा प्राप्ता उत्कर्षका ष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति जवन्यको द्वादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति इति एषः खलु प्रथमः पण्मास एतत् खलु प्रथमस्य स्वपर्यवसानम् । अब प्रविशन सूर्यः द्वितीयं समय मानः प्रथमे अहोरात्रे बाह्यानन्तरं मंडल संक्रम्य चारं चरति, सदालु भक्त सूर्योबाह्यानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरते ददा खलु कि महालय दिवसों भवति किं महालया रात्रि भवति ? गौतम ! अष्टादशमुहूर्ता रात्रि भवति द्वाभ्यामेकपष्टमुहूर्ताभ्यामूनाः द्वादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टिभागमुहर्त्ताभ्यामत्रिकः स प्रविशन सूर्यो द्वितीयेहोरात्रे व तृतीयं मण्डलमुपक्रम्य चारं चरति, यक्ष सलु भदन्त सूर्य व तुतीयमण्डल मुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु किं महालयो दिवसो भवति किं महालया रात्रि भवति गौतम ! तदा खलु अष्टादश मुहूर्ता रात्रि भवति चतुर्भिरेकपष्टिभागमुहूतैरुना द्वादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति चतुर्भिरे पष्ठिभाग मुहूर्तेरधिक इति एवं खल्वेतेनोपायेन प्रविशन सूर्यः तदनंतरान्मंडलात्तदनन्तरं मंडलं संक्रान् संक्रमन् द्वौ द्वावेकषष्टिमा मुहूर्ती एकैकस्मिन मंडले रजनीक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् निवर्द्धयन दिवसक्षेत्रस्यामिवर्द्धयत् अभिवर्द्धयन् सर्वाभ्यन्तरं मंडकमुपसंक्रम्य चारं चरतीति । यदा खलु मदन्त ! सूर्यः सवाह्यात मंडलात् सर्वाभ्यन्तरं मंडल संक्रम्य चारं चरति तदा खलु सर्वत्राह्यमंडल प्राणिधाय एतेन व्यर्श तेन रात्रि . दिवसशतेन त्रीणि पट्ट्षष्ठि एक पष्ठभाग मुहूर्ततानि रजनिक्षेत्रस्य निवृद्धय दिवस क्षेत्रस्याभिवद्ध चारं वरति एषः खलु द्वितीयः षण्मासः एतद् खलु द्वितीय पण्मासस्य पर्यव सानं एषः खलु आदित्यः संवत्सरः एतत् खलु यादित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानम् । सू० ६ || S टीका- 'जयागं भंते ! सूरिए' यदा खल-यस्मिन् समये किल भदन्त ! सूर्यः सरति गच्छति आकाशे इति सूर्यः अथवा - मुवति कर्मणि तत्तत्कार्ये लोकान् इति सूर्यः, अथवा अहोरात्रस्य व्यवस्था संपादिता भवति तदभावेऽहोरात्र व्यवस्थाया असंभवापत्ते रि'ते एतादृशः सूर्यो भगवान् यस्मिन् समये 'सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमिता' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्र 'जाणंभते ! सूरिए सकभंतरं मंडलं वसंकमित्ता' इत्यादिटीकार्थ- गौतम स्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है- 'जया णं भंते ! सूरिए सव्वमंतरं मंडल' हे भदन्त ! सूर्य जिस समय सर्वाभ्यन्तर मण्डलको 'जयागं भंते ! सूरिए सच्चतर मंडलं उवसंकमित्ता' इत्यादि टीअर्थ- गौतमस्वाभीये या सूत्र वडे प्रभुने मा लतनो प्रश्न है 'जयाणं भंते ! सूरिए सव्वमंतर मंडलं' हे लहांत ! सूर्य के समये सर्वास्यन्तर मंडजने प्राप्त Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरात्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् म्य-संप्राप्य 'चारं चरई' चारम्-गत चरति-करोति 'तयाणं के महालए दिवसे के महालिया राई तदा-तस्मिन् काले को महायः को महान् - अतिशयेनाधिक आलयः ब्याप्यक्षेत्रलक्षण आश्रयो यस्यासौ किं महालयः कियान इत्यर्थः दिवसो भवति, तथा-किं महालय-क्रियत्प्रमाणा गत्रि:-निशा च भवतीति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहूत्ते दिवसे भनइ' तदा-तस्मिन् काले खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः उत्तमां काष्ठाम्-अवस्थां प्राप्तः-आदित्यसंवत्सरसम्बन्धि पटू षष्टयधिक त्रिशतदिवसमध्ये यतो न कश्चिदपरोऽधिक इत्यर्थः, अत एवोत्कर्षक उ कृष्ट इत्यर्थः अष्टादश मुहूनों दण्डः तत्प्रमाण को दिवसो भवति, सर्वतोऽधिकोऽष्टादश मुहूर्त्तप्रमाणं दिनं भवति इत्यर्थः । तथा-'जहणिया दुवालसमुहुता राई भवई' जघन्या-सर्वतो न्यूना द्वादशमुहूर्त प्रमाणा रात्रि भवति, यत्र खलु मण्डले यावत्प्रमाणो दिवस स्तत्र मण्डले दिवसापेक्षया शेषा अहोरात्रप्रमाणा रात्रि रिति जघन्या द्वादश मुहूर्ता रात्रि रिति, सर्वस्मिन् क्षेत्रे काले वा त्रिंशप्राप्तकरके 'चारं चरइ' गति करता है 'तयाणं के महाल ए दिवसे' उस समय दिवस कितना बड़ा होता है ? और 'के महालिया राई' कितनी बडी रात्रि होती है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवई' हे गौतम ! उस काल में उत्तम अवस्था को प्राप्त हुआ. आदित्य संवत्सर सम्बन्धी ३६३ दिवसों के बीचमें जिससे कोई और दिन बडा न होता ऐसा सबसे बडा दिन १८ मुहर्त्त का होता है तथा-'जहणिया दुवालासमुहत्ता राई भवई' सर्व से जघन्य १२ मुहर्त की रात्रि होती है जिस मण्डल में जितने प्रमाण का दिन होता है उस मंडल में दिवस की अपेक्षा शेष अहोरात्र के प्रमाण से कमप्रमाणवाली रात्रि होती है इस कारण जघन्य प्रमाणवाली कही गई है? समस्त क्षेत्र में अथवा काल में तीस मुहर्त का रात दिन का प्रमाण नियत कहा गया है। तो जब दिवस १८ मुहत्ते का होता है तब रात्रि १२ मुहर्त की होने ४शन 'चार चरइ' गति ४२ छ. 'तागं के महालए दिवसे' मते हिवस शासना डाय छ ? मने 'के महालिया राई' रात सी सभीय छ ? १५मा प्रभु - 'गोचमा ! उत्तमकद्वपत्ते उक्कोस र अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवई' गौतम ! ते मां ઉત્તમ અવસ્થા પ્રાપ્ત થયેલ આદિત્ય સ વસર સંબંધી ૩૬૩ દિવસની વચ્ચે જેમાં બીજે કઈ દિવસ લાંબે થતું નથી એ લાંબે દિન ૧૮ મુહૂર્તને થાય છે. તેમજ 'जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई' सवयी धन्य १२ मुश्त नी त डाय छ.२ મંડળમાં જેટલા પ્રમાણને દિવસ થાય છે, તે મંડળમાં દિવસની અપેક્ષાએ શેષ અહેપાત્રના પ્રમાણથી અ૯પપ્રમાણુવાળી રાત હે ય છે. આથી રાત જઘન્ય પ્રમાણવાળી કહેવામાં આવી છે. સમસ્ત ક્ષેત્રમાં અથવા કાળમાં તીસ મુહૂર્તનું રાત-દિવસનું પ્રમાણ નિયત કરવામાં આવેલું છે. તે જ્યારે દિવસ ૧૮ મુહૂર્તને થાય છે ત્યારે રાત્રિ ૧૨ મુહુર્ત Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुहूर्त्त प्रमाण रात्रिंदिवस्य नियतत्वात् तदा यदा दिवसोऽष्टादशमुहूर्त्त प्रमाणकस्तदा रात्रि दशमुहूर्त्त प्रमाणा, यदा च रात्रि द्वादश मुहूर्त्त प्रमाणा तदा तत्र दिवसोऽष्टादश मुहूर्त्त प्रमाणक इति । अथ यदा भरतक्षेत्रेऽष्टादशमुहूर्त्त प्रमाणो दिवस स्तदा विदेहक्षेत्रेषु द्वादशमुहूर्त्त प्रमाणा रजनी तदा द्वादशमुहूर्तेभ्यः पररात्रे अतिक्रान्तत्वेन षड्मुहूर्त्तान् यावत् केन कालेन भवितव्यम् एवं भरतक्षेत्रेऽपि वक्तव्यम् । तत्रोच्यते अत्र मुहूर्त्तगम्यक्षेत्र ऽवशिष्टे सति तत्र सूर्यस्योदयमानत्वेन दिवसेनेति तच्च सूर्योदयास्तान्तरविचारणेन तन्मण्डलगत दृष्टिपथप्राप्तता विचारणेनोपपद्यते इति । नन्वेवं सति सूर्यस्योदयोऽस्तमयनं चानियतं प्राप्तम् ? इति चे दिष्टमेवतत् तदुक्तम्'जह जह समए समए पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे । तह तह इओ विनियमा जायइ रयणीइ भावत्थो ॥ १ ॥ एवं च सह नराणं उदयत्थमयणाई होतऽनियमाई | सर देसकाल कस्सर किंचीय दिस्सए नियमा || २ || فق लगती है और जब रात्रि १८ मुहूर्त की होती है तब दिन १२ मुहूर्त का होने लगता है भरतक्षेत्र में जब १८ मुहूर्त प्रमाण का दिन होता है तब विदेह क्षेत्रों में १२ मुहूर्त की रजनी - रात्रि होती है यहां ऐसी आशंका हो सकती है कि जब १२ मुहूर्त की पररात्रि अतिक्रान्त-समाप्त हो जाती है की ६ मुहूर्त्त तक कौन काल होता है ? इसी तरह भरत क्षेत्र में भी कहलेना चाहिये तो इस शङ्का का समाधान ऐसा है - मुहूर्त्तगम्य क्षेत्र के अवशिष्ट रहने पर वहां पर सूर्य के - उदय मान की अपेक्षा दिन होता है यह कथन सूर्योदय और उसके अस्तके अन्तर के विचार से उस मण्डलगत दृष्टिपथ प्राप्तता के विचार से बन जाता है। शङ्का - तो फिर इस तरह के समाधान से सूर्यका उदय और उसका अस्त नियमित नहीं बन पाता है-अनियत हो जाता है तो ऐसा हमें इष्ट ही है यही -इसका उत्तर है - कहा भी है જેટલી થવા માંડે છે. અને જ્યારે રાત્રિ ૧૮ મુહૂર્તની થાય છે ત્યારે દિવસ ૧૨ મુહૂત્તના થવા માડે છે. ભરતક્ષેત્રમાં જ્યારે ૧૮ મુહૂત્ત પ્રમાણ જેટલે દિવસ હોય છે ત્યારે વિદેહક્ષેત્રમાં ૧૨ મુહૂની રાત હોય છે. અહી એવી આશ ંકા ઉદ્ભભવી શકે તેમ છે કે જયારે ૧૨ મુહૂર્તની રાત પરરાત્રિ અતિકાન્ત-સમાપ્ત થઈ જાય છે તે ૬ મુહૂત્ત સુધી કયા કાળ હોય છે ? તે આ શ ંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે કે મુહૂ ગમ્યક્ષેત્ર અવશિષ્ટ રહે છે ત્યારે ત્યાં સૂર્યના ઉદયમાનની અપેક્ષાએ દિવસ હાય છે. આ કથન સૂર્યોંદય અને તેના અસ્તના અંતરને વિચારથી તે મંડળગતુ દષ્ટિપથ પ્રાપ્તતાના વિચારથી મની જાય છે. શંકા-તે પછી આ જાતના સમાધાનથી સૂર્યના ઉદય અને તેના અસ્ત નિયમિત ખની શકતા નથી. એટલે કે અનિયત થઈ જાય છે-તે આવુ જ અમારા માટે યાગ્ય છે આના જવાબ આ પ્રમાણે કહેલ છે Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. ६ दिनरात्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् सइ चेब निहिटो रुद्दमुहुत्तो कमेण सम्वेसि । केसिंचीदाणि पि अविसयपमाणो रवी जेसिं' ॥३॥ इति ॥ यथा यथा समये समये पुरतः सञ्चरति भास्करो गगने। तथा तथेतोऽपि नियमात् जायते रजनीति भावार्थः ॥१॥ एवं च सति नराणामुदयास्तमयनेऽनियते भवतः । __ सति देशकालभेदे कस्यापि कस्यापि किश्चिद्व्यवहार्यते नियमात् ॥२॥ सकृदेव च निर्दिष्टो रुद्रमुहूर्तः क्रमेण सर्वेशम् । केषाश्चिदिदानीमपि च विषयप्रमाणो रविर्येषां भवति ॥३॥ इतिच्छाया ॥ यत्तु सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां सूर्यमण्डलसंस्थित्यधिकारे समतुरस्रसंस्थितिवर्णने कथितं यत् युगादौ एक सूर्यः दक्षिणपूर्वस्यां दिशि, एकश्चन्द्रो दक्षिणापरस्यां दिशि द्वितीयः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यां दिशि, द्वितीयश्चन्द्र इत्यादि तत्सर्वं मूलोदयापेक्षया भवतीति ज्ञातव्यमिति । जह जह समये समये पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे। तह तह इओ वि नियमा जायइ रयणीइ भावत्थो ॥१॥ एवंच सइ नराणं उदयस्थमयणाई होतऽनियमाई । सइ देसकालभेए कस्सइ किंचीय दिस्सए नियमा ॥२॥ सह चेव निद्दिट्ठो रुद्दमुहुत्तो कमेण सव्वेसिं । केसिं चीदाणिपि अविसयपमाणो रवी जेसिं ॥३॥ जो सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका में सूर्यमण्डलसंस्थिति अधिकार में समचतुरस्र से स्थिति के वर्णन प्रसङ्ग में कहा गया है कि युग की आदि में एक सूर्य दक्षिणपूर्वदिशा में एक चन्द्र दक्षिणअपरदिशा में, द्वितीय सूर्य पश्चिम उत्तर दिशा में और द्वितीय चन्द्र-पश्चिम पूर्व दिशा में रहता है सो यह सब कथन मूलोदय की अपेक्षा से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये यह अष्टादश मुहर्त्त प्रमाण जह जह समये पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे। तह तह इओ वि नियमा जायइ रयणी इ भावत्थो ॥१॥ एवं च सइ नराणं उदयत्थमयणाई होतऽनियमाइं । सइ देसकालभेए कस्सइ किंचीय दिस्सए नियमा ॥२॥ सइ चेव निविद्रो रुद्दमुहुत्तो कमेण सव्वेसि । केसिंचीदाणिवि अविसयपमाणों रवी जेसि જે સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિની ટીકામાં સૂર્યમંડળ સંસ્થિતિ અધિકારમાં સમચતુરસથી સ્થિતિના વર્ણન પ્રસંગમાં કહેવામાં આવેલ છે કે યુગના પ્રારંભમાં એક સૂર્ય દક્ષિણપૂર્વ દિશામાં એક ચન્દ્ર દક્ષિણ અપરદિશામાં દ્વિતીય સૂર્ય પશ્ચિમ ઉત્તરદિશામાં અને દ્વિતીય ચન્દ્ર પશ્ચિમ પૂર્વ દિશામાં રહે છે, તે આ બધું કથન મૂલયની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલું Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जन्मदीपप्राप्तिसूत्रे अय चाष्टादशमुहूत्तप्रमाणः सर्वोत्कृष्टो दिवसः पूर्व संवत्सरस्य चग्मो दिवसः इति प्रति पादयितुमाह-से णिक्खममाणे सूरिए' अथ निष्क्रामन् सूर्यः यस्मिन् स्थाने स्थितः सर्वी स्कृष्टं दिवसं कृतवान् तस्मात् स्थानात् निष्क्रामन्-गच्छन् सूर्य इत्यर्थः 'णवं संवच्छरं अयमाणे' नवम्-नवीनं पूर्वसंवत्सरापेक्षया नवं द्वितीयं संवत्सरम्-वर्षपयमानः प्राप्नुवान् भाददान इत्यर्थः परमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमे अहोरात्रे 'अभंतराणं तरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उक्सकमित्ता चारं चरइ' उपसक्रम्प संप्राप्य चार-गतिं चरति-करोतीति । सम्प्रति-रात्रिदिवसयो वृद्धिहासं दर्शयितुमाह-'जयाणं' इत्य दि, 'जया णं भंते ! सुरिए' यदा-यस्मिन् काले खलु भदन्त ! सूर्यः 'अतराणतरंमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य-संप्राप्य चारं गतिं चरति-करोति तयाणं के महालए दिवसे' तदा-तस्मिन् काले खलु किं महालयः-को महान् आलयो व्याप्यक्षेत्र वाला सर्वोत्कृष्ट दिन पूर्वसंवत्सर का चरम दिवस है-इस-बातको प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं-'से णिस्खममाणे सरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अन्भंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता-चारं चरई' जिस स्थान पर स्थित होकर सूर्य ने सर्वोत्कृष्ट दिन किया है उस स्थान से निकलता हुआ वह सूर्य-नवीन-पूर्वसंवत्सर की अपेक्षा-द्वितीय संवत्सर-वर्ष को प्राप्त होकर प्रथम अभ्यन्तर अहोरात्र में अभ्यन्तर मण्डल के अनन्तर द्वितीय मंडल पर आकर के गति करता है रात्रि दिवस का वृद्धि हास कथनइसमें गौतमस्तानी ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है -'जया णं भंते ! मूरिए' हे भदन्त ! जिस काल में सूर्य 'अभंतरराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' अभ्यन्तरमंडल के अनन्तर द्वितीय मण्डल पर पहुंचकर गति किया करता है'तयाणं के महालए दिवसे, के महालया राई भवई' तब उस समय-उस सूर्य છે. આમ જાણવું જોઈએ. આ અષ્ટાદશ મુહૂર્ત પ્રમાણવાળે સર્વોત્કૃષ્ટ દિવસ પૂર્વ સંવત્સરને ચરમ દિવસ છે. આ વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે_ 'से णिक्खममाणे सूरिए णवं संबच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अब्भतराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ' २ २५॥२ स्थित थधन सूय सलिष्ट ६१स मनाये। છે, તે સ્થાન પરથી ઉદિત થયેલે તે સૂર્ય નવીન-પૂર્વસંવત્સરની અપેક્ષાએ દ્વિતીય સંવત્સર વર્ષને પ્રાપ્ત થઈને પ્રથમ અહોરાત્રમાં અત્યંતર મંડળ પછી દ્વિતીય મંડળ પર આવીને ગતિ કરે છે. रात्रि-हिस-वृद्धि-डास यन माम गौतमस्वामी प्रभुने मतने प्रश्न छ–'जया णं भंते ! सूरिए महत ! २४.१मा सूर तराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ' २५७५२ पछी बितीयwan ५२ पचान गति १२ छ-'तयाणं के महालए दिवसे, के महालया रई Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरात्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् रूप आश्रयो यस्यासौ किं महालयः कियानित्यर्थः दिवसो भवति तथा-' के महालया : राई भव' कि महालया कीदृशप्रमाणयुक्ता च रात्रिर्भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोपमा' हे गौतम ! ' तया णं भट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहि भागमुहुतेहिं ऊणे' तदा तस्मिन् अभ्यन्तरद्वितीयमण्डळ संक्रमणकाले अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति द्वाभ्यामेकपष्टि मागमुहूर्त्ताभ्या मूनः, अर्थात् अष्टादश मुहूर्त्त प्रमाणो द्वाभ्यां मुहूर्तेष्टाभ्यां दोनो दिवसो भवति 'दुवा समुहुत्ता राई भवइ दोहिय एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहियत्ति' द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणा द्वाभ्यां मुहूत्तैकपष्टिभागाभ्यामधिका रात्रिर्भवतीति अत्रायं भावः - अष्टादशमुहूर्ते दिवसे द्वादशध्रुमुहूर्त्ताः षट् चरमुहूर्त्ताः ते च मुहूर्त्ताः मण्डद्वारा कितना क्षेत्र - व्याप्त किया जाता है-अर्थात् उस समय कितना बडादिन होता है और कितनी बडी रात्रि होती है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! तयाणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवद्द दोहिं एगसट्टिभागमुहुतेहिंऊणे' हे गौतम! तब १८ मुहूर्त्त में से १ मुहूर्त के ६१ भाग में से २ भाग कम का दिन होता है अर्थात् इन अठारहमुहूतों में से एक मुहूर्त्त के ६१ भाग करने पर उन में से दो भाग कम रहते हैं इस तरह यह दिन पूरे १८ मुहूर्त्त का नहीं होता है किन्तु एक मुहूर्त्त के ६१ भागों में से २ भाग कम का होता है । 'दुवालसमुत्ता राई भवई दोहि य एगसद्विभागमुहुतेहिं अहियन्ति' तथा उस समय जो रात्रि होती है उसका प्रमाण १२ मुहूर्त्त का होता है जो ६१ भागों में से २ भाग दिन प्रमाण में कम हुए हैं वे यहां रात्रिमें आजाते हैं अतः रात्रिका प्रमाण १२ मुहूर्त से अधिक प्रकट किया गया है तात्पर्य ऐसा है कि अठारह मुहूर्तवाले दिवस में १२ मुहूर्त तो ध्रुव मुहूर्त्त है और ६ મ' ત્યારે તે સૂર્ય વડે કેટલા ક્ષેત્રે વ્યાપ્ત થાય છે એટલે કે તે વખતે કેટલે લાંખે हिवस होय छे भने डेंटली सांगी रात होय छे? सेना नवामां प्रभु हे छे - 'गोयमा ! तयाणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगनद्विमागमुहूतेहिं ऊणे' हे गौतम! त्यारे १८ મુહૂત્તમાંથી ૧ મુહૂત્તના ૬૧ ભાગામાંથી ૨ ભાગ ક્રમ દિવસ થાય છે. એટલે કે એ ૧૮ મુહૂર્તોમાંથી ૧ મુહૂતના ૬૧ ભાગેા કર્યાં પછી તેમાં ભાગા કમ રડે છે. આ પ્રમાણે આ દિવસ પૂરા ૧૮ મુહૂર્તના થતા નથી પણ એક મુહૂર્તીના ૬૧ ભાગમાંથી ૨ ભાગ ક્રમના હોય છે. 'दुवालसमुत्तार ई भइ दोहि य एगसट्टिभागमुहुत्तेहिं अहियत्ति' तेभन ते समये ने રાત હોય છે તેનું પ્રમાણુ ૧૨૬ મુહૂ જેટલું થાય છે. જે ૬૧ ભાગામાંથી ૨ ભાગ દિન પ્રમાણમાં ક્રમ થયા છે તેએ અહીં રાત્રિમાં આવી જાય છે. એથી રાત્રિનુ પ્રમાણે ૧૨ મુહૂર્ત કરતાં અધિક પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ૧૮ મુહૂર્ત વાળા દિવસમાં ૧૨ મુહૂત તે ધ્રુવ મુહૂત છે અને ૬ મુહૂર્તી ચર છે. એ મુહૂર્તો ज० १० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे arti sयशीत्यधिकशतेन वर्द्धन्ते हीयन्ते च तत्र च त्रैराशिकगणनावतारः, यदि मण्डलानां sitत्यधिकशते षड्मुहूर्ता वर्द्धन्ते चापवर्द्धते च तदा एकेन मण्डलेन किं वर्द्धते चापवर्द्धते च ? स्थापना -यथा १८३ । ६०१ अत्रान्त्याशिना एककलक्षणेन मध्यराशिः षट्कलक्षणों गुण्यते, गुणिते च एतेन गुणितं तदेव भक्तीति नियमेन षडेव स्थिताः ते च आदिराशिना मज्यन्ते अल्पत्वात् भागं न प्रयच्छतीति भाज्य भाजकराश्योः त्रिक्रेणापवर्त्तना कर्त्तव्या, जात उपरितनो राशिर्हि द्विकरूपः अधस्तन एकषष्टिरूपः समागतं द्वावेकषष्टिभागौं मुहूर्त, अतो दिवसे अपवर्द्धते रात्रौ च वर्द्धते इदि ॥ सम्प्रति- अग्रे तन मण्डलगते दिवसरात्रि वृद्धिहानी पृच्छन्नाह - ' से णिवखममाणे' इत्यादि, 'सेमिमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि' अथ निष्क्रामन् सूर्यः द्वितीये अहो - मुहूर्त्त चर मुहूर्त्त हैं ये मुहूर्त्त १८३ मंडलों पर बढते हैं और घटते हैं तो जब राशि विधिद्वारा इस की जांच की जाती है तो उस समय एक मण्डल पर ये कितने बढते घटते हैं यह स्पष्ट हो जाता है, इसकेलिये स्थापना इस प्रकार से करना चाहिये १८३/६, १, यहां अन्तिम राशि एक से मध्यकी राशि जो ६ है उसे गुणित करना चाहिये तब ६ ही गुण निकल आता है इस में आदि राशि का भाग करना चाहिये परं च यहाँ पर मध्य की राशि है वह भाजक राशि से हीन है इसलिये भाज्य भाजक राशि की त्रिकोण अपवर्तना करलेनी चाहिये इस तरह से आजाते हैं ये एक मुहूर्त्त के कृत ६१ भागों में से २ भाग हैं सो दिनके प्रमाण में से इन्हें कम किया गया है और रात्रि के प्रमाण में इन्हें बढाया गया है । 'से furanमाणे सूरिए दोच्चसि' हे भदन्त । द्वितीय मण्डल से निकलता हुआ सूर्य जब अभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है-तब ૧૮૩ મડળેા પર વધે છે અને ઘટે છે જ્યારે બૈરાશિ વિધિ વડે એની પરીક્ષા કરવામાં આવે છે ત્યારે એક મંડળ પર એ કેટલા વધે છે અને ઘટે છે. આ સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. આના માટે સ્થાપનો આ પ્રમાણે કરવી જેઈએ. ૧૮૩/૬, ૧, અહીં અંતિમ રાશિ એકથી મધ્યની જે ૬ છે તેને ગુણિત કરવી એઈએ. આમ કરવાથી ૬ જ ગુણનફળ આવે છે. આમાં આદિ રાશિને ભાગાકાર કરવા જોઇએ પરંતુ અહીં મધ્ય રાશિ છે. તે ભાજક રાશિ કરતાં હીન છે એથી ભાન્ય-ભાજક રાશિની ત્રિકણ અપવના કરી લેવી જોઇએ. આ પ્રમાણે ૨૬ આવી જાય છે. એ એક મુહૂર્તના કરવામાં આવેલા ૬૧ ભાગામાંથી ૨ ભાગે છે. તે દિવસના પ્રમાણુમાંથી એમને એછા કરવામાં આવેલા છે અને રાત્રિના પ્રમાણમાં એમને અભિવતિ કરવામાં આવેલા છે. .से क्खिमाणे सूरिए दोच्चंसि' हे लत ! द्वितीयभउजी नीउणतो सूर्य क्यारे अभ्य ंतर तृतीयभांडण आप्त उरीने गति उरे हे त्यारे 'के महालये दिवसे के महालया ६१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरात्रिवृद्धिबानिनिरूपणम् रात्रे 'अभंतरच्चं मंडलं उवसं कमित्ता चार वरइ' अभ्यन्तरतृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तया गं के महालए दिवसे के महालिया राई भवइ' तदा यदा सर्वाभ्यन्तरतृतीय मण्डल, पेक्षया चार-गतिं चरति-करोति तस्मिन् काले खलु किं महालय:-कियत्प्रमाणको दिवसो भवति, तथा-किं महालया कीदृशप्रमाणवती रात्रि भवतीति प्रश्नः, 'भगवानाह गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'तयाणं' यस्मिन् काले सर्वाभ्यन्तरतृतीयमण्डला पेक्षया सूर्यश्चारं चरति तस्भिन काले खलु ‘भद्वार समुहत्ते दिवसे भवइ चउहिं एकसहिभाग मुहत्तेहिं ऊगे' अष्टादशमुहूर्त:-अष्टादशशुहूर्तप्रमाणको दिसो भवति चतुर्मिरेकषष्टिभागमुहूर्तेरूनः, तत्र द्वाभ्यां सूर्यमण्डलसम्बन्धिभ्यां द्वाभ्यां च प्रस्तुतमण्डल सम्बन्धिभ्या मित्येवं प्रकार श्चतुभिर्मुहूर्तरेकषष्टि भागैरूनो न्यूनो दिवसो भवतीत्यर्थः, तथा-'दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं गलट्टिमुहुत्तेहि अहियत्ति' द्वादशमुहूर्तपमाणा चतुभिमुहूर्तेरेकपष्टि मागैरधिका रात्रिभवति इति ॥ उक्तमण्डलत्रयातिरिक्त चतुर्थादिमण्डलेषु अतिदेशेन दिवसरानिवृद्धिहानी कथयितुमाह-एवं खलु एएणं' इत्यादि, ‘एवं खलु एए णं उवाएणं' एवं-मण्डलत्रयदर्शितरीत्या 'के महालए दिवसे के महालया राई भवई' उस समय कितना बडा दिन होता है और कितनी हाडी रात होती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! तया अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवई चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवह, चउहिं एगसटिमुटुत्तेहिं अहियत्ति' हे गौतम ! जिस काल में सर्वाभ्यन्तर तृतीय मण्डल की अपेक्षा सूर्य गति करता है उस काल में अठा. रह मुहूर्त का दिन होता है परन्तु एक मुहूर्त के कृत ६१ भागों में से ४ भाग कम होता है दो भाग सूर्यमण्डल सम्बन्धी और दो भाग प्रस्तुत मण्डल सम्बन्धी यहां लिये गये हैं। तथा : भागों से अधिक १२ मुहूर्त की रात्रि होती है। अब सूत्रकार उक्त मण्डलत्रय से अतिरिक्त चतुर्थ आदि मण्डलों में अति. देश वाक्य द्वारा दिवस और रात्रि की हानि एवं वृद्धि का कथन करने के राई भवइ' ते मते मे दिवसाय छे मन सी सinी रात साय छ १ सना मम प्रभु ४३ हे-'गोयमा ! तया अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगसद्विभागमुहत्तेहि ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवई, चउहिं एगसद्विमुहुत्तेहि अहियत्ति' हे गौतम ! २ કાળમાં સર્વાત્યંતર તૃતીયમંડની અપેક્ષાએ સૂર્ય ગતિ કરે છે, તે કાળમાં ૧૮ મુહને દિવસ હોય છે પરંતુ એક મુહર્તાના કૃત ૬૧ ભાગમાંથી ૪ લાગ કેમ હોય છે. બે ભાગ સૂર્યમંડળ સંબંધી અને બે ભાગ પ્રસ્તુતમંડળ સંબંધી અહીં ગૃહીત થયા છે. તથા ભાગો કરતાં અધિક ૧૨ મુહૂર્તની રાત્રિ હોય છે. હવે સૂત્રકાર ઉક્તમંડળત્રય સિવાય ચતુર્થ વગેરે મંડળમાં અતિદેશ વાક્ય દ્વારા दिवस भने ति नतम वृद्धिनु ४थन ४२१॥ भाटे ‘एवं खलु एएणं उबाएणं' मा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्धीपप्रज्ञप्तिस्त्र खलु-निश्चितम् एतेनानन्तरपूर्वोक्तोगायेन प्रतिमण्डलं दिवसरात्रिसम्बन्धि मुहूत्तकपष्टिभाग द्वयवृद्धि हानिरूपेण 'णिक्खममाणे सूरिए' निष्क्रामन् दक्षिणाभिमुखं गच्छन् सूर्यः 'तयणंतराओ मंडलाओ' तदनन्तराम डलात् 'तयणतरं मंडलं संकममाणे' तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् -गच्छन् यत्रस्थितः तदनन्तरं दक्षिणाभिखमपरं मण्डलं प्रतिगच्छन् सूर्यः 'दो दो एगसट्ठिभाग हुत्तेहि' द्वौ द्वौ मुहकपष्टिभागौ 'एगमेगे मंडले' एकै कस्मिन् मण्डले प्रतिमण्डलम् इत्यर्थः 'दिवप्लखित्तस्त्र निवुद्धमाणे निवुद्धमाणे 'दिवससम्बन्धिनः क्षेत्रस्य निवर्द्धयन् निवईयन्-हापयन् हापयन् परित्यजन् परित्यजन् इत्यर्थः, तथा 'रयणिखित्तस्प अभिवद्धेमाणे अभिवद्धेमाणे' रजनीक्षेत्रस्य रात्रिसम्बन्धि व्याप्तक्षेत्रस्य द्वौ द्वो मुहत कपष्ठिभागौ अभिवद्धयन् अभिवर्द्धयन् एतावत्प्रमाणकवृद्धिम्-आधिक्यं कुर्वन, महत्तै फष्टि भागद्वयगम्यं क्षेत्र दिवसक्षेत्रे न्यूनं कुर्वन् तावदेव रात्रिक्षेत्रेऽधिकं कुर्वनित्यर्थः 'सत्यवादिरं मंडलं उवसंकमिचा चारं चरइत्ति' सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य-सम्याप चारं गति चरति-करोति इति ॥ सम्प्रति-सर्वमण्ड लेषु मुहूर्तभागानां हानि वृद्धि सर्वाचं दर्शयितुमाह-'जयाणं' इत्यादि, लिए-एवं खलु एएण उवाएणं' इस प्रदर्शित पद्धति के अनुसार प्रतिमण्डल पर दिवस एवं रात्रि सम्बन्धी - भागद्वय से जो कि एक जगह दिवस मेंहानिरूप हैं और-रात्रि में वृद्धिरूप है इस तरह से हानि वृद्धि करता हुआ सब दक्षिण की ओर गमन करता है-अर्थात् तदन्तर मण्डल पर जाने के लिये दक्षिणाभिमुख होता है तब 'दो दो एगसहिभागमुहुत्तेहिं एगमेगे मंडले दिवस खित्तस्स निवुद्धमाणे२' वहां पर दिवस का प्रमाण भाग:- भाग रूप से कमती २ हरएक मंडल पर होता जाता है तथा 'रयणिखित्तस्स अभिवद्वेमाणे' प्रतिमंडल में रात्रिका प्रमाण - भाग : भाग बढता जाता है इस तरह 'सव्व चाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सूर्य आभ्यन्तर मण्डलों से निकलता हुआ सर्वबाह्य मंडल पर पहुंच कर अपनी गति करता है। ___ 'जया णं सूरिए सव्वाभंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता પ્રદર્શિત પદ્ધતિ મુજબ પ્રતિમંડળ પર દિક્ષસ તેમજ રાત્રિ સંબંધી - ભાગદ્વયથી કે જે એક સ્થાને દિવસમાં હાનિરૂપ છે અને રાત્રિમાં વૃદ્ધિરૂપ છે, આ પ્રમાણે હાનિ-વૃદ્ધિ કરતે દક્ષિણ તરફ ગમન કરે છે. અર્થાત્ તદનંતર મંડળ પર જવા માટે દક્ષિણાભિમુખ थाय छे. 'दो दो एगस भागमुह तेहिं एगमेगे मंडले दिवसखित्तस्स निबुद्धेमाणे २' त्यां દિવસનું પ્રમાણ : ભાગ ૨ ભાગ રૂપ કરતાં અ૫– અલપ દરેક મંડળ પર થઈ જાય छ. तम०४ 'रयणिखित्तस्स अभिवढेमाणे' प्रतिभा २.त्रिनु प्रभाएर २ मामा पधी तय छ, मा प्रमाणे 'सव्वबाहिर मंडलं उपसंकमित्ता चार चरइ' सूर्य माल्यात. માંથી નીકળતે સર્વબાહ્ય મંડળે પર પહોંચીને પિતાની ગતિ કરે છે. 'जया णं सूरिए सव्यभंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरात्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् 'जयाणं मूरिए' यदा-यस्मिन् काले खलु सूर्यः 'सव्वब्भतरामो मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता' सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् सर्वबाह्य मण्डलघुपसंक्रम्य-सम्पाप्य चारं-गति चरतिकरोति 'तया णं सचभंतरं मंडलं परिहाय' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय-मर्यादीकृत्य ततः परस्मात् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थ, 'एगे तेसीए णं राइंदियसएणं' एकेन त्र्यशीतेन रात्रिदिवशतेन ज्यशीतेन-त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिंदिवाना महोरात्राणां शतेनेत्यर्थः 'तिण्णि छाबडे एगसट्ठिभागमुहुत्तसए' त्रीणि षट् षष्टानि षट्पष्टयधिकानि मुहुःषष्टिभागशतानि 'दिवस खेत्तस्स निव्वुद्धत्ता' दिवसक्षेत्रस्य निवद्धर्य षट्पष्टयधिकत्रिशतमुहूतषष्टिभागै वित्प्रमाणक क्षेत्रं गम्यते तावन्मानं क्षेत्रं हापयित्वा परित्यज्येत्यर्थः रियणिखेत्तस्स अभिबुद्धत्ता' तावदेव क्षेत्रं रजनी क्षेत्रस्याभिवद्धर्य-वृद्धिं नीत्वा 'चारं चरइत्ति' चारं गतिं चरतिकरोतीति, अयं भावः-दक्षिणायनसम्बन्धि ज्यशीत्यधिकमण्डलेतु प्रत्येकं हीयमान भाग द्वयस्य त्र्यशीत्यधिकशतगुणनेन षट् षष्टयधिकत्रिशतराशि रुपपद्यते इति तावदेव रजनिचारं चरह' अब सूत्रकार समस्त मंडलों में मुहर्त भागों की हानि और वृद्धि का प्रमाण बताते हुए कहते हैं-जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल से सर्वबाह्य मण्डल पर आकर के गति करता है 'तयाणं सयभंतरं मंडलं परिहाय' उस समय वह सर्वाभ्यन्तर मंडल की हद करके-मर्यादा करके इसके बाद द्वितीय मंडल की मर्यादा करके 'एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं तिण्णिच्छावढे एगसहिभाग. मुहुत्तसए दिवसखेत्तस्स निवुड्डत्ता रयणिखेत्तस्स अभिबुद्धत्ता चारं चरह १८३ रातदिनों के ३६६ मुहुर्त , भाग आदि होते हैं सो इतने मुहर्त तो दिवसों में प्रदर्शितरीति कम और एक मुहूर्त के अनुसार हो जाते हैं और रात्रि में इतने मुहर्त बढते जाते हैं। तात्पर्य यह है कि दक्षिणायन संबन्धी १८३ मंडलों में से प्रत्येक मंडल में २-२ भागहीन होते जाते हैं सो इन दो का १८३ में गुणा करने से ३३६ राशि उत्पन्न होती है सो इतनी हो रजनि क्षेत्र में वृद्धि होती है હવે સૂત્રકાર સમસ્ત મંડળમાં મુહૂર્ત ભાગની હાનિ અને વૃદ્ધિનું પ્રમાણ સ્પષ્ટ કરતાં કહે છે-જ્યારે સૂર્ય સર્વાત્યંતર મંડળમાંથી સર્વબાહ્યા મંડળ પર આવીને ગતિ કરે. छ. 'तया णं सबभंतर मंडलं परिहाय' ते मते ते सर्वायत२ भनी माह मनावीन त्या२ माह द्वितीय भजनी मर्या। ४रीन 'एगे णं तेसीएणं राइंदिवसएणं तिणि छावटे एगसट्रियभागमहत्तसए दिवसखेत्तास निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिबुद्धेत्ता चार चर ૧૮૩ રાત-દિવસના ૩૬ ૬ મુહૂર્ત ભાગ વગેરે થાય છે. તે આટલા મુહર્ત તે દિવસમાં પ્રદર્શિત રીતિ કમ અને એક મુહૂર્ત મુજબ થઈ જાય છે અને રાત્રિમાં આટલા મુહર્તા વધતા જાય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે દક્ષિણાયન સંબંધી ૧૮૩ મંડળમાંથી દરેક મંડળમાં ૨-૨ ભાગ હીન થતા જાય છે. તે આ બેને ૧૮૩ માં ગુણાકાર કરવાથી ૩૩૬ રાશિ ઉત્પન્ન થાય છે. તે આટલી જ રજનીક્ષેત્રમાં વૃદ્ધિ થાય છે. હવે સૂત્રકાર Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपप्रज्ञप्तिस्त्रे क्षेत्रे वृद्धिर्भवति इति ॥ प्रकृतमेव वस्तु पश्चानुपूर्व्या दर्शयितुं प्रश्नयनाह-'जयाणं' इत्यादि, "जयाणं भंते ! सूरिए' यदा-यस्मिन् काले खलु भदन्त ! सूर्यः 'सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्व बाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य-सम्प्राप्य चारं गतिं चरति-करोति 'तयाणं के महाळए दिवसे भवइ' तदा-तस्मिन् काले खलु किं महालयः-कियान्-कियत्प्रमाणक इत्यर्थः दिवसो भवति तथा-'के महालिया राई भवई' किं महालया-कियती कियत्प्रमाणा इत्यर्थः रात्री-रजनी भवतीति प्रश्नः भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तयाणं उत्तम टुपत्ता उक्कोसिया' तदा तस्मिन्काले उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-प्रकृष्टावस्थां गता अतएवोस्कर्पिका-सर्वत उत्कृष्टा, यतो न काचित्तदन्या प्रकर्षवती रात्रि भवति एतादृशी 'अट्ठारस बहुत्ता राई भवइ' अष्टादशमुहूर्तप्रमाणा एतादृशी तदा रात्री रजनी भवति । रात्रि दिवसस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तप्रमाणत्वात् त्रिंशन्मुहूर्त्तलक्षणसंख्यापूरणायाह-'जहण्णए' इत्यादि, 'जहण्णए दुवाल समुहुत्ते दिवसे भवइति' जघन्यकोऽल्पीयान् द्वादशमुहूर्तप्रमाणकस्तत्काले-दक्षिणा यनकाले दिवसो भवति त्रिंशन्मुहर्तखा दहोरात्रस्येति । अयं चाहोरात्रो दक्षिणायनस्य चरमो अब सूत्रकार इस प्रकृत विषय को ही पश्चानुपूर्वी द्वारा दिखाते हैं-इसमे गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जयाणं भंते ! सूरिए सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' हे भदन्त ! जिस समय सूर्य सर्ववाहय मंडल को प्राप्त कर गति करता है-'तयाणं के महालए दिवसे भवई तब उस समय कितना बडा दिन होता है और 'के महालिया राई भवई' कितनी बडी रात होती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तयाणं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' हे गौतम ! उस समय सब से अधिक प्रमाणवाली जिस से अधिक प्रमाणवाली और दूसरी रात्रि नहीं होती ऐसी रात्रि १८ मुहर्त की होती है रात और दिवस का-दोनों का काल प्रमाण ३० मुहूर्त का होता है। 'जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिव से भवई' सो दिनका प्रमाण जघन्य होता हैअर्थात् १२ मुहूर्त का तब दक्षिणायन काल में दिन होता है। यह दिन रात આ પ્રકૃત વિષયને જ પશ્ચાનુપૂવી દ્વારા પષ્ટ કરતાં કહે છે-આમાં ગૌતમસ્વામીએ प्रभुने मारीले प्रश्न ४ा छ-'जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिर मंडलं उघसंकमित्ता चार परमत! समये सूर्य सामने सात शने गति ४२ छ 'तयाणं के महालए दिवसे भवई' त्यारे ते मते eat ailो हिसाय छ भने 'के महालिया राई भवई' 321 isी 11 डाय छ ? सेनाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! तयाणं उत्तमकदुपत्ता उनकोसिया अदुरसमुहुत्ता राई भवई' 3 गौतम! ते मते सोथी पधारे प्रमाणવાળી જેનાથી વધારે પ્રમાણુવાળી બીજી કોઈ રાત હતી નથી એવી રાત્રિ ૧૮ મુહૂર્તની डाय छे. रात म विसतु-मन्ननु ल ३० भुडूत २९ सय छे. 'जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' तहसनु प्रभाय यन्य थाय छे. सटर १२ मुतना Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका रीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरांत्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् ७९ भवतीत्यादि प्रदर्शनार्थमाह-'एसणं' इत्यादि, 'एसणं पढमे छम्मासे' एषः खलु दक्षिणाय. नस्य प्रथमः षण्मासः 'एसणं पढ़मस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' एतत्खलु प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम् ‘से पविसमाणे सरिए' अथानन्तरं प्रविशन् सूर्यः 'दोच्चं छम्मासं अयमाणे' द्वितीय षण्मासम् अयमान:-गच्छन् 'पढमंसि अहोरतसि' प्रथमे अहोरात्रे 'बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' बाह्यानन्तरं द्वितीयं सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं परति । द्वितीय मंडलं सूर्यो गच्छतीति श्रुखा द्वितीयमण्डले दिवसरात्रिवृद्धिहानीज्ञानाय प्रश्नयभाई'जयाणं' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! मूरिए' यदा-यस्मिन् काले खलु भदन्त ! सूर्यः 'बाहिराणतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ' बाह्यानन्तरं द्वितीयं सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्यसम्प्राप्य चार गति चरति-करोति । 'तयाणं के महालए दिवसे भवइ' तदा-तस्मिन् सर्वबाह्य द्वितीयमण्डलसंक्रमणकाले खलु किं महालयः कियान्-कित्प्रमाणको दिवसो दिनं भवति, तथा-'के महालिया राई भवइ' किं महालया कियती कियत्प्रमाणा च रात्री-रजनी भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठारसमुहुत्ता राई दक्षिणायन का अन्तिम होता है-यही बात 'एसणं पढमे छम्मासे' इस सूत्र द्वारा प्रकट की गई है यह दक्षिणायन का प्रथम छह मास है 'एसणं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' और यहां पर प्रथम छहमास का पर्यवसान-समाप्ति होता है 'से पविसमाणे मूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' इसके बाद अनन्तर मंडल में प्रवेश करता हुआ सूर्य जब द्वितीय छहमास पर पहुंच जाता है तो प्रथम अहो. रात में द्वितीय सर्वबाहय मण्डल को प्राप्त करके वह अपनी गति करता है 'जयाणं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' इस सूत्रद्वारा अब गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है कि-हे भदन्त ! जब सूर्य द्वितीय बाहय मंडल को प्राप्त कर अपनी गति करता है तो उस समय दिन और रातका જ્યારે દક્ષિણાયનકાળમાં દિવસ હોય છે. આ દિવસ-રાત દક્ષિણાયનને અંતિમ હોય છે. मेरा पात 'एसणं पढमे छम्मासे' मा सूत्र द्वारा प्र४८ ४२पामा भावी छ. साक्षियायनना प्रथम १ मास छे. 'एसणं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' भने सही प्रथम भासन ५य सान थाय छे. 'से पविसमाणे सूरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरई' त्या२ पछी भाग में भी प्रवेश ४२ते। सूर्य જ્યારે દ્વિતીય ૬ માસ પર પહોંચી જાય છે તે પ્રથમ અહેરાતમાં દ્વિતીય સવ બાહ્યभजन प्राशन त पातानी गति ४२ छ. 'जयाणं भंते ! सूरिए बाहिराणंतर मंडल उवसंकमित्ता चार चरई' मासूत्र 3डवे गौतमसाभासमा जतने प्रश्न छ ! જ્યારે સૂર્ય દ્વિતીય બાહ્યમંડળને પ્રાપ્ત કરીને પોતાની ગતિ કરે છે તે તે સમયે દિવસ भने, तनु ४९ प्रभाय डाय छ ? सेना पाममा प्रभु ४३ थे-'गोयमा ! अवारस Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्राप्तिरले भवइ दोहिं एगस विभागमुहुत्तेहिं ऊणा' अष्टादशमुहर्त्तप्रमाणा रात्री रजनी भवति द्वाभ्या मेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्यामूना अष्टादशमुहूर्तप्रमाणा तथा द्वाभ्यां मुहूर्ते कषष्टिभागाभ्यां हीना रात्रि भवतीत्यर्थः, तथा-'दुवाल समुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमुत्तेहि अहिए' द्वादशमुहूर्तप्रमाणः द्वाभ्यामेकषष्टिभागमुहूर्ताभ्या मधिको विशिष्टो दिवसो भवतीति । संप्रति-तृतीयमण्डले दिनरात्रि वृद्धिहानी ज्ञातुं प्रश्नयनाह- से पविसमाणे' इत्यादि, 'से पविसमाणे सूरिए' अथ प्रविशन् सूर्यः 'दोचंसि अहोरत्तंसि' द्वितीये अहोरात्रे 'बाहिरसच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' बाह्य तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य-संप्राप्य चारं चरति' 'जयाणं भंते ! सरिए' यदा खलु भदन्त ! सूर्यः 'बाहिरतच्चं मंडलं उत्रसंकमित्ता चार चरई' बाह्य तृतीयं मण्डलमुप्रसंक्रम्य चारं-गतिं चरति-करोति' 'तयाणं के महालए दिवसे भवई' तदा-तस्मिन् बाह्य तृतीयमण्डलसंक्रमणकाले खलु किं महालयः कियान्-कियत्प्र. माणको दिवसो भवति तथा-'के महालिया राई भवइ' किं महालया-कियत्प्रमाणा रात्रि र्भवति, तदा दिवसमानं च कीदृशं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! 'तयाणं अट्ठारसम्म हत्ता राई भवइ चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा' कितना प्रमाण होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! अट्ठारस मुहत्ता राई भवई दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा' हे गौतम ! उस समय अठारह मुहर्त की रात्रि होती है-परन्तु एक मुहर्त के ६१ भागों में से २ भाग कम की यह होती है तथा-'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिए'- भाग अधिक १२ मुहर्त का दिन होता है। अब तृतीय मण्डल में दिन रातकी वृद्धि हानि जानने के लिये गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैं 'से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि' हे भदन्त ! द्वितीय अहोरात में प्रवेश होता हुआ सूर्य 'वाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' बाहय तृतीय मण्डल को प्राप्त करके जब गति करता है 'तयाणं के महालए दिवसे भवई' तब दिवस कितना बडा होता है और 'के महालिया राई मुहुत्ता राई भवद दोहि एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा' गौतम ! त समये १८ मुड़त ना રાત હોય છે પરંતુ એક મુહૂર્તના ૬૧ ભાગમાંથી ૨ ભાગ કમ જેટલી આ હોય છે. तर 'दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि अहिए' ३३१ मा मदिर ૧૨ મુહતને દિવસ થાય છે. હવે તૃતીય મંડળમાં દિવસ-રાત્રિની વૃદ્ધિ-હાનિ જાણવા भाट गौतमत्वामी प्रभुने प्रश्न ४२ छे. 'से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसिडे मत ! द्वितीय सत्रमा प्रविष्ट यते। सूर्य 'बाहिरतच्चं मंडलं अस कमित्ता चार चरइ' मा तृतीयमन प्राप्त शत न्यारे गति ४२ छ. 'तयाण के महालए दिवसे भाई' त्यारे विस से inाय छे. सने 'के महालिया राई भवई' २त सी मी डाय छ ? प्रश्नना नाममा प्रभुश्री छ. 'गोयमा ! तयाणं अदरसमुंहुत्ता राई Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ६ दिनरात्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् तदा-सर्ववाह्यत्तीयमण्डलसंक्रमणकाले खलु अष्टःदशमुहूर्तप्रमाणा तथा द्वाभ्यां पूर्वमण्डलसम्बन्धिभ्यां प्रस्तुतमण्डलसम्बन्धिभ्यामेवं प्रकारेण चतुभिर्मुहः कषष्टिपागै रूना-हीना रात्रि भवति, तथा-'दुवालसमुहुक्ते दिवसे भवइ चउहि एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिए त्ति' द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति चतुर्भिरेकषष्टिभागमुहूर्तेरधिकः अत्रापि द्वाभ्यां पूर्वमण्डल. सत्काभ्यां द्वाभ्यां प्रस्तुतमण्डलसत्काभ्यामित्येवं चतुःसंख्यकैर्महरधिको दिवसो भवतीति। सम्प्रति-उक्तातिरिक्तेषु मण्डलेषु अतिदेशमाह-एवं खलु एएणं' इत्यादि, एवं खलु एएणं उवाएण' एवम्-मण्डलत्रयदर्शितरीत्या खलु एतेनानन्तरवणितोपायेन प्रतिमण्डलदिवसरजनीसम्बन्धिमुहकषष्टिभागद्वयवृद्धिहानिरूपेण 'पविसमाणे सूरिए' प्रविशन् जम्बूद्वीपे मण्डलानि कुर्वन सूर्यः 'तयणंतराओ मंडलाओ तयणंतरं मंडलं' तदनन्तरात् भवई' रात कितनी षडी होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते है 'गोयमा! तयाणं अट्ठारसमुहत्ता राई भषइ चउहिं एगसहिभाए एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा' गौतम! उस समय अठारह मुहूर्त की रात होती है परन्तु यह रात एक मुहूर्त के कृत ६१ भागों में से ४ भाग कम होती है यहां पूर्व मण्डल के दो और प्रस्तुत मण्डल के दो इस तरह से ये ४ भाग लिये गये हैं। अर्थात् पूर्व मण्डल के एक मुहर्न के ६१ भागों में से २ भाग और प्रस्तुत मण्डल के एक मुहूर्त के ६१ भागों में से २ भाग इस प्रकार से ४ भाग गृहीत हुए हैं ! तथा 'दिवसे दुवाल. मुहुत्ते भवह चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिए' १२० मुहूर्त का दिन होता है। अर्थात् भाग जो रात्रि के प्रमाण में कम हुआ है वे यहां बढ़ जाता है। अब सूत्रकार उक्त से अतिरिक्त मण्डलों में अतिदेश का कथन करते हुए कहते हैं 'एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए' इस तरह अनन्तर वर्णित इस उपाय के अनुसार-प्रति मण्डल दिवस और रजनी सम्बन्धि मुहू. संकषष्टि भागय की वृद्धि और हानि के अनुसार-जम्बूद्वीप में मंडलों को भवइ चउहिं एगसद्विभाए एगसद्विभाग मुहुत्तहि ऊणा' गौतम ! a समये १८ मुतना ૨ત હેય છે. પરંતુ આ રાત એક મુહુર્તના કૃત ૬૧ ભાગોમાંથી ૪ ભાગ કમ હેય છે. અહીં પૂર્વમંડળના બ અને પ્રસ્તુતમંડળના બે આ પ્રમાણે એ ચાર ભાગ ગૃહીત દા છે. એટલે કે પૂર્વ મંડળના એક મુહૂર્તના ૬૧ ભાગમાંથી ૨ ભાગ અને આ પ્રમાણે ૪ माग गृहीत यया छे. तया 'दिवसे दुवालसमुहुत्ते भवइ चाहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहि કિd ૧૨ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે. એટલે કે ભાગ જે રાત્રિના પ્રમાણમાં કમ થયે છે, તે અહીં વધી જાય છે. હવે સૂરકાર ઉપર્યુક્ત સિવાયના બીજા મંડળમાં અતિ शिनु यन ४२di 3 छ-'एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए' मा प्रमाणे અનંતર વર્ણિત આ ઉપાય મુજબ પ્રતિમંડળ દિવસ અને રજની સંબંધી મુહુર્તક पष्टिमायनी वृद्धि मन हानि भुमरीयामा भगाने ४रते। सूर्य: 'तयणंतराओ ज० ११ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जम्बूद्धीपमति मण्डलात् तदनन्तरमेकस्मात् मण्डलात्तदपरं मण्डलम् 'संकममाणे संक्रममाणे' संक्रामन् संक्रा बन्- गच्छन् गच्छन् 'दो दो एकसद्विभागमुहुरोहि' द्वौ द्वौ मुहूर्त्तकषष्ठिभागौ 'एग मेगे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले - प्रतिमण्डलम् ' स्यणिखेत्तस्स निबुद्धेमाणे ' रजनी रात्रिः तत्सम्बन्धिक्षेत्रस्य- प्रदेशस्य निवर्द्धयन् निवर्द्धयन् परित्यजन् २ अत्यल्पं कुर्वन् तथा - 'दिवस खेत स अभिवृद्धेमाणे अभिवुद्धेमाणे' दिवससम्बन्धि क्षेत्रस्य अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् अधिकाधिकं कुर्बन् 'सन्त्रब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ त्ति' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं मूर्ति चरति - करोतीति । अत्रापि मण्डलेषु भागानां हानिवृद्धिसर्वाग्रं दर्शयितुमाह - ' जयाणं' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! सूरिए' यदा यस्मिन् काले खलु भदन्त ! सूर्यः 'सव्ववाहिराओ मण्डलाओ' सर्वबाह्यात् मण्डळात् 'सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य-संप्राप्य 'चारं चर' चारं गतिं चरति - करोति, 'तयाणं सव्ववाहिरं मंडलं पणिहाय' तदा तस्मिन् सर्ववाचात् सर्वाभ्यन्तरमण्डल संक्रमणकाले सर्वबाह्यं मण्डलं प्रणिधाय - मर्यादीकृत्य तदवकरता हुआ सूर्य'तयणंतराओ मंडलाओ तयणंतरं मंडलं संकममाणे २ दो दो एसडि भागमुहते' तदनन्तर मण्डल से तदनन्तर मण्डल पर एक मंडल से दूसरे मण्डल पर जाता हुआ दो दो मुहूर्ते कषष्ठिभाग को 'एगमेगे मंडले' प्रतिमण्डल पर 'रयणिखेत्तस्स निबुद्धेमाणे २' रजनी क्षेत्र का अत्यल्प करता २ तथा - 'दिवसखेत्तस्स अभियुद्धेमाणे २' दिवसक्षेत्र को वृद्धिंगत करता करता - अधिक अधिक करता- 'सव्वमंतरं मंडलं उवसंक्रमित्ता' सर्वाभ्यन्तर मण्डल पर पहुंच कर 'चारं चरइ' गति करता है । इस तरह मण्डलों में भागों की हानि वृद्धि कितनी होती है ? इस बात को प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहतें है - 'जयाणं भंते ! मंडलाओ' सर्वबाद्य मंडल से 'सकभंतरं मंडल उवसंकमित्ता' सर्वाभ्यन्तर मंडल पर पहुंच जाता है- अर्थात् वहां पर पहुंचकर गतिकरता है 'तयाणं सव्वबाहिरं मंडल पणिहाय' तब सर्वबाहय मंडल की मर्यादा मंडलाओ तयणंतर मंडल संक्रमणाणे २ दो दो एगसट्टिभागमुहुत्ते' तहनंतर भांडणथी - તદન તર મડળ પર એક મંડળથી બીજા મંડળ પર ગમન કરતે, બે-બે મુહૂતૅક ષષ્ટિ भगोने 'एगमेगे मंडले' प्रतिभांडण पर 'रयणिखेत्तस्स निबुद्धेमाणे २' २०४नीक्षेत्रने अत्यढ्य हरतरतो ते 'दिवसखेत्तस्स अभिवुद्धेमाणे २' हिवस क्षेत्रने वृद्धिगत रतो-रती अधि-धरतो 'सव्वमंतर मंडलं उवस कमित्ता' सर्वास्यतरमण पर पहचाने 'वार' चरइ' गति रेभ भांडणाभां लागोनी हानि - वृद्धि डेंटली थाय छे ? भावाने ४२वा भाटे सूत्रद्वार हे छे- 'जयाणं भंते ! सूरिए' में राणे सूर्य 'सबबाहिरियाओ मंडलाओ' सर्व माद्यम उजथी 'सव्वमंतर मंडलं उवस कमिसा' सर्वाल्यांवर. मन पर पड़ेगी यह खेदो } त्यां याने जति रे छे. 'तयाणं सव्वमाहिर Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू.६ दिनरात्रिवृद्धिहानिनिरूपणम् इतनादारभ्य इत्यर्थः 'एगेण तेसीएम राईदियसएण' एकेन ब्यशीतेन रात्रिन्दिवशतेम व्यशीत्यधिकैकरात्रिदिवशतेन 'तिण्णि छाटे एगसहिभागमुहुत्तसए' त्रीणि षष्टानि एक पष्टिभागमुहूर्तशतानि त्रीणि षट् षष्टयधिकानि महत्तैकपष्टिभागशतानीत्यर्थः 'रयणि खेतस्स णिवुद्धत्ता' रजनी सम्बन्धि क्षेत्रस्य निर्वयं-न्युनं कृत्वा 'दिवसखेत्तस्स अभिवदेवा' दिवसक्षेत्रस्य अभिवद्धर्थ-वृद्धिं कृत्वा 'चारं चरई' चारं गतिं चरति-करोति 'एसणं दोच्चे छम्मासे' एषः खलु अहोरात्रः द्वितीयः षण्मासः उत्तरायणस्य चरमः 'एसणं दोच. स्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' एतत् खलु द्वितीयस्य षण्मासस्योत्तरायणरूपस्य पर्यवसानम् 'एसणं आइच्चे संवच्छरे' एषः खलु आदित्यः संवत्सरः 'एसणं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते' एतदेव आदित्यस्य-आदित्योफ्लक्षितस्य संवत्सरस्य-वर्षस्य पर्यवसानं मज्ञप्तम्-कथितम् इत्यष्टमं दिनरात्रि द्धिहानि द्वारं समाप्तम् । सू० ६॥ अष्टमं दिनरात्रिहानिवृद्धिद्वारं निरूप्य नवमं तापक्षेत्रद्वारं निरूपयितुमाह मूलम्-जयाणं भंते ! सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार कर के 'एगेगं तेसीएणं राइंदिवसएणं' १८३ रात दिनों 'तिपिणछायढे एगसही भाग मुहत्तप्तए' ३६६ और एक मुहर्त के ६१ भागों तक की 'रणिखेत्तस्स. णियुद्धेसा' रात्रि के क्षेत्र में न्यूनता करता हुआ और 'दिवसखेत्तस्स अभिपद्धेसा' दिवस के क्षेत्र में वृद्धि करता हुआ सूर्य 'चारं चरई' अपनी गति करता है । 'एस णं दोरचे छम्मासे' यह द्वितीय षट् मास है अर्थात् उत्तरायण का चरम मास है। ___ 'एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे यहीं पर उसरायण की परिसमाप्ति हो जाती है। - 'एस णं आइच्चे संबच्छरे' यह आदित्य संवत्सर है 'एसणं आइच्चस्स संबच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते' और यहां पर आदित्य के संवत्सर की वर्ष को-समाप्ति हो जाती है ऐसा कहा गया है। ८ वा वृद्धिहानि द्वार समाप्त ॥६॥ मंडलं पणिहाय' त्यारे सव मामउगनी भयह शन 'एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं' १८३ २रात-हिसमा 'तिण्णि छावडे एगसट्ठीभागमुहुत्तसए' ३९९ मने मे भुतना ११ मा सुधीनी 'रयणिखेत्तस्स णिवुद्धत्ता' शतना क्षेत्रमा न्यूनता ४२ते। मन दिवसखेत्तस्स अभिवद्धत्ता' हसन क्षेत्रमा वृद्धि तो मा सूर्य 'चार चरई' गति ४२ छे. 'एसणं दोच्चे छम्मासे' द्वितीय पद मास छ. मेट उत्तरायणना २२म भास . 'एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे' मह उत्तरायनी परिसमाप्ति २४ गय छे. 'एस णं आइच्चे संवच्छरे' मा साहित्य संवत्सर छे. एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते' मन ही माहित्यमा सवत्सरचीવર્ષની-સમાપ્તિ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. અષ્ટમ વૃદ્ધિ-હાનિદ્વાર સમાપ્ત . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૪ जम्बूद्वीपति चरइ, तयाणं किं संठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुयापुप्फसंठाणसंठिया तावखेत्तसंटिई पन्नता अंतो संकुया बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं विहुला अंतो अंकमुहसंठिया बाहि सगडीमुहसंठिया उभयो पासेणं तीसे दो बाहाओ अवट्टियाओ पणयालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साइं आयामेणं दुवे यणं तीसे वाहाओ अणवट्टियाओ हवंति, तं जहा - सव्वन्तरिया चेत्र बाहा सव्ववाहिया चेव बाहा, तीसेणं सव्वमेतरिया बाहा मंदरपव्वयं तेणं णव जोयणसहस्साइं चत्तारि छअसीए जोयणसए णव य दसभाए जोयणस्स परिक्वेवेणं, एसणं भंते । परिक्खेवविसेसे कओ आहिएति वएजा ? गोयमा ! जं णं मंदरस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस परिक्खेवविसेसे आहिएति वएज्जा, तीसेणं सव्वबाहिरिया बाहा लवणसमुद्दतेणं चउणवई जोयणसहसाइं अस जोयणसए चत्तारि य दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं, से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिए ति वएज्जा ? गोयमा ! जे पणं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसभागे हीरमाणे, एसणं परिक्खेवविसेसे आहिए ति वएज्जा इति । तयाणं भंते! तावखित्ते केवइयं आयामेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! अदृहत्तरिं जोयणसहस्साइं तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसए जोयणस्स तिभागे य आयामेणं पण्णत्ते, मेरुस्स मज्झयारे जाव य लवणस्स रुंद छन्भागे । तावायामो एसो सगद्धी संठिओ नियमा १ तयाणं भंते! किं संठिया अंधकारसंठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआ पुप्फ संठाणसंठिया अंधकारसंठिई पण्णत्ता, अंतो संकुलया बाहिं वित्थडा तं चैव जाव तीसेणं सव्वब्र्भतरिया बाहा मंदरपव्वयं ते णं छ जोयणसहस्साइं तिणि य चउवीसे जोयणसए छच्च दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणंति, से णं भंते ! परिकखेवविसेसे कओ आहिए ति वए Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् ज्जा, गोयमा ! जे णं मंदरस्स पचयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहि भागे हीरमाणे, एसणं परिवखेवविसेसे आहिए ति वएज्जा तीसेणं सवबाहिरिया बाहा लवणसमुहं तेणं तेसट्री जोयणसहस्साई दोणि य पणयाले जोयणसए छच्च दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं, से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ अहिएति वएज्जा ? गोयमा ! जे णं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता जाव तं चेव । तयाणं भंते! अंधयारे केवइयं आयामेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्टहतरि जोयणसहस्साइं तिणि य तेत्तीसे जोयणसए ति. भागं च आयामेणं पण्णत्ते । जया णं भंते सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं किं संठिया तावखित्तसंठिई पण्णता ? गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआ पुप्फ़संठाणसंठिया पन्नत्ता, तं चेव सव्वं णेयव्वं, णवरं णाणत्तं जं अंधयारसंठिईए पुत्ववणियं पमाणं तंतावखित्तसंठिईए णेयव्वं, जं तावखित्तसंठिईए पुव्ववणियं पमाणं तं अंधयारसंठिईए णेयव्वं ति ॥ इति ॥सू० ७॥ छाया-यदा खलु भदन्त ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु कि सस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! ऊर्ध्वमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थानसंस्थिता तापक्षेत्र संस्थितिः प्रज्ञप्ता, अन्तः संकुचिता बहिर्विस्तृता अन्तो वृत्ता बहिर्विपुला अन्तरमुखसंस्थिता बहिः शकटोवीमुखसंस्थिता उभयपाद्येन तस्या द्वे बाहे अवस्थिते भवतः, पश्चचत्वारिंशद योजनसहस्राणि आयामेन, द्वे च खलु तस्या बाहे अवस्थिते भवतः, तद्यथा सर्वाभ्यंतराच बाहा सर्वबाह्या च बाहा, तथा खलु सर्वाभ्यन्तरी बाहा मन्दरपर्वतान्तेन नव योजनसहस्राणि चत्वारि षडशीति योजनशतानि नव च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, एषः खलु भदन्त ! परिक्षेपविशेषः कुत आख्यात इति वदेत् ? गौतम ! यः खलु मन्दरस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा दशमिश्छित्वा दशभिर्भागे हियमाणे एषः परिक्षेपविशेष भाख्यात इति वदेत, तस्याः खलु सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्तेन चतुर्नवति योजनसहस्राणि चत्वारि च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, स खलु भदन्त ! परिक्षेपविशेषः कुत आख्यात इति वदेत् ? गौतम ! यः खलु जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा दशमिच्छित्वा दशभिर्भागे हियमाणे एषः खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् । तदा खल्लु भदन्त ! तापक्षेत्रं कियदायामेन प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! अष्टसप्तति योजनसहस्राणि त्रीणि च Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे त्रयस्त्रिंशद् योजनशतानि योजनस्य त्रिभागं चायामेन प्रज्ञतम् मेरोमध्यकारे यावच्च लवणस्य रुंदषड्भागः 'तापायाम एषः शकटो/संस्थितो नियमात् १' तदा खलु भदन्त ! किं संस्थिता अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! ऊर्व मुखकलंबुकपुष्पसंस्थानसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ताः, अन्तः संकुचिता बहिर्विस्तृता तदेव यावत्, तस्याः खलु सर्वाभ्यन्तरिका बाहा, मन्दरपर्वतान्तेन षड्योजनसहस्राणि त्रीणि च चतुर्विशति योजन शतानि षट् च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति । स खलु भदन्त ! परिक्षेपविशेषः कुत भाख्यात इति वदेत् ? गौतम ! यः खलु मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिच्छित्वा दशभिः भागे हियमाणे एषः खलु परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत्, तस्याः खलु, सर्ववाह्या बाहा लवणसमुद्रान्तेन त्रिषष्टियोजनसहस्राणि द्वे च पश्चचत्वारिंशद् योजनशते षट् च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण । स खलु भदन्त ! परिक्षेपविशेषः कुत आख्यात इति वदेत् ? गौतम ! यः खलु जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः, तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा यावत् तदेव तदा खलु भदन्त ! अन्धकारः कियदायामेन प्रज्ञप्तः ? गौतम! अष्ट सप्तति योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशद् योजनशतानि त्रिभागं चायामेन प्रज्ञप्तः। यदा खलु भदन्त ! सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु किं संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम! ऊर्ध्वमुखकलंचुका पुष्प संस्थानसंस्थिता प्रज्ञप्ता, तदेव सर्व नेतव्यम्, नवरं नानात्वं यदन्धकारसंस्थितेः पूर्ववणितं प्रमाणं तत् तापक्षेत्रसंस्थिते नेतन्यम्, यत् तापक्षेत्रसंस्थितेर्वणितं प्रमाणं तदन्धकारसंस्थिते नेतव्यमिति ॥ सू० ७॥ टीका-'जया णं भंते ! सूरिए' यदा-यस्मिन् काले भदन्त ! सूर्यः 'सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता' सर्वाभ्यन्तरमण्डलघुपसंक्रम्य-संप्राप्य 'चारं चरइ' चारं गतिं चरति-करोति उत्तरायणाद् दक्षिणायनकरणसमये 'तया णं किं संठिया तावक्खित्तसंठिई पनत्ता' तदा ताप क्षेत्र द्वार का निरूपण 'जया णं भंते ! सरिए सव्वन्भंतरं मंडल उवसंकमित्ता'-इत्यादि. टीकार्थ-गौतमस्वामीने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-'जयाणं भंते! सरिए' हे भदन्त ! जब सूर्य 'सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता' सर्वाभ्यन्तर मण्डलपर पहुंचकर 'चारं चरइ' अपनी गति करता है-अर्थात् उत्तरायण से दक्षिणायन होता है 'तयाणं' उस समय 'कि संठिया तावखित्तसंठिई पण्णत्ता, તાપક્ષેત્રદ્વારનું નિરૂપણ 'जया गं भंते ! सूरिए सव्वन्भंतर मंडलं उबसंकमित्ता' इत्यादि राय-गीतस्वाभीये मासूत्र असुन मातना प्रश्न या छ है 'जया णं भंते ! सूरिए' 3 महत ! न्यारे सूर्य 'सव्वन्भंतर मंडलं उवस कमित्ता' साक्ष्यतरम ५२ पांची 'चार घरई' गति ४२ छ. मेट है उत्तरायथी ६क्षिणायन त२३ गति रे . 'तया गं ते समये 'कि सठिया तावखित्तसंठिई पण्णत्ता' तापक्षेत्री सूर्यना थी, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ प्रकाशिका टीका-सप्तम वक्षस्कारः सू.७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् खलु कि संस्थिता तापक्षेत्रस्य सूर्यप्रकाशप्रकाशितगगनखण्डस्य संस्थितिः व्यवस्था प्रज्ञप्ताकथिता सूर्यातपस्य कीदृशं संस्थानं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उद्धीमुहकलंबुआ पुप्फसंठाणसंठिया' ऊ/मुखक लम्बुकापुष्पसंस्थान संस्थिता, तत्र ऊर्ध्वमुपरि कृतं मुखं यस्य तत् ऊर्थीमुखम् अधोमुखत्वे तिर्यमुखत्वे वा वक्ष्यमाणाकारप्रदर्शनासंभवात्, एतादृशं यत् कलम्बुका पुष्पम्-पुष्पविशेषः कदम्बपुष्पमित्यर्थः तस्य कलम्बुकापुष्पस्य यत् संस्थानम्-आकारस्तेन संस्थिता-तादृश संस्थानविशिष्टा 'तावखेत्तसंठिई पन्नता' तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता-कथिता मया बर्द्धमानस्वा मिना शेपैरपि ती यव रैश्चति, इदमेव संस्थानं विविच्य दर्शयति 'अंतो संकुया' इत्यादि, 'अंतो संकुया' अन्तः मेरुपर्वतदिशि संकुचिता 'बाहिं वित्थडा' बहि विस्तृता तत्र बहिर्लेवणसमुद्रदिशि विस्तृता विस्तारक्ती तापक्षेत्रसंस्थितिः, तथा-'अंतो वट्टा बाहि विहुला' अंतो वृत्ता तापक्षेत्र की-सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हुए गगन खण्ड की क्या व्यवस्था होती है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! उद्धीमुह कलबुआ पुप्फसठाणसंठिया! हे गौतम ! ऊपर की ओर मुखवाले कदम्ब पुष्प का जैसा आ. कार होता है ऐसा ही आकार व्यवस्था-'तारखेत्तसंठिई पण्णत्ता' सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हुए गगन खण्ड का होता है "उर्वी मुख" इस विशेषण से सूत्रकारने अधोमुखवाले एवं तिर्यङ्मुखवाले कदम्य पुष्प का निराकरण किया हैं क्यों कि वक्ष्यमाण आकार प्रदर्शना ऐसे कदम्ब पुष्प के आकार से मिलती नहीं हैं 'अंतो संकुया, चाहिं विस्थडा, अंतो वट्ठा, बाहिं विष्टुला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सगडद्वी मुहसंठिया' इसीवात को सूत्रकार ने विवेचित कर के इस प्रकार से प्रकट किया है-मेरु पर्वत की दिशा में यह लोकसंस्थिति संकचित हो गई है और लवण समुद्र की दिशा में विस्तृत हो गई है। मेस की दिशा में यह अर्द्धवलय के आकार जैसी होगई है तथा लवण समुद्र की दिशा પ્રકાશિત થયેલા ગગનખંડની શી વ્યવસ્થા હોય છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! उद्धीमुह कलंदुआ पुष्फस ठाणसठिया' है गोतम ! अपनी त२५ असा ४६५ ५०पना वो मार डाय छ, तेव। २ व्यवस्था 'ताव खेत्तसंठिई पण्णत्ता' सूर्यना प्रशथी शत थये। गगनमाना थाय छे. 'ऊर्ध्वमुख' मा विशेषगुथी सूत्रકારે અધોમુખવાળા તેમજ તિય_મુખવાળા કદંબ પુષ્પનું નિરાકરણ કર્યું છે. કેમકે १६यभार मा२ प्रशना मेव। ४६५ पुष्पना मा२ साथे भगती सावती नथी 'अंतो संकुया, बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा बाहि विहुला, अंतो अंकमुहसठिया बाहिं सगडद्धी मुह સંઠિયા' આ વાતને સૂત્રકાર આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કરે છે કે મેરુ પર્વતની દિશામાં આ લોક સંસ્થિતિ સંકુચિત થઈ ગઈ છે. અને લવણસમુદ્રની દિશામાં વિરતૃત થઈ ગઈ છે. મેરુની દિશામાં આ અર્ધવલયના આકાર જેવી થઈ ગઈ છે તેમજ લવણસમુદ્રની દિશામાં Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिरने वदिविपुला, तत्रान्त मरुदेिशि वृत्ता अर्द्धवलयाकारा सर्वतो वृत्तमेरुगतान् त्रीन् द्वौवा दशभागान् अभिव्याप्त स्थितत्वात् बहिर्लवण समुद्रदिशि विपुला उत्कर्षभावेन विस्तारमुपगता प्राप्ता, एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्टयति 'अंतो अंकमुहसंठिया' अन्तरमुखसंस्थिता, तत्र अन्त मरुदिशि अङ्कः पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूप आसनबन्धस्तस्य मुखम् -अग्रभागोऽर्द्धवलयाकार स्तदेव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा अन्तरङ्कमुखसंस्थिता तथा-'बाहिं सगडद्धीमुहसंठिया' बाहिं शम्टोद्धीमुखसंस्थिता, तत्र पहिलेवणसमुद्रदिशि शकटोद्धिः शकटस्य उद्धि:धुरीति प्रसिद्धा तस्या मुखं यतः प्रभृति निःश्रेणिकाया: फलकानि वद्धचन्ते तच्चातिविस्तृतं भवति तत्संस्थाना अन्तर्बहिभागौ आश्रित्य यथाक्रमं संकुचिता विस्तृता चेतिभावः। ___ अथास्या स्तापक्षेत्र संस्थिते रायामादिकमाह-'उभयो' इत्यादि, 'उभभो पासेणं' उभयपार्श्वन 'तीसे दो बाहाओ अवटियाओ हवंति' तस्याः तापक्षेत्रसंस्थिते द्वे बाहे अवस्थिते भवतः, तत्रोभयपाधै मन्दरपर्वतस्य उभयोः पार्श्वयोः तस्या स्तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्विरुपतो व्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन द्वे गहे द्वे द्वे पायें अवस्थिते अवृद्धिहानि में यह विस्तारवाली बन गई है। मेरु की दिशा में यह अवलय के आकार की इसलिये कही गई है कि मेरु सर्व ओर से गोल है उसके तीन, दो अथवा दश भागों को व्याप्त करके यह स्थित है इसलिये यह जैसा पद्मासन से उपविष्ट हुए मनुष्य का उत्सङ्ग, रूप आसनषन्ध का मुख अग्र भाग अर्द्धवलयाकार हो जाता है उसी तरह का इसका संस्थान कहा गया है और वाहिर में इसका संस्थान गाडी के धुरा के मुख जैसा होता कहा गया है क्यों कि धुरा का मुख विस्तृत होता है अब सूत्रकार तापक्षेत्र की संस्थिति के आयाम आदि का कथन करते हैं-'उभयो पासेणं तीसे दो पाहाओ अवट्टियाओ हवंति' उभय पार्श्व की अपेक्षा मन्दर पर्वत की दायें बाये भाग की तरफ की उस तापक्षेत्र संस्थिति की दो दो बाहा सूर्य के दो होने के कारण अवस्थित कही गई है वृद्धि हानि स्वઆ વિસ્તારયુક્ત થઈ ગઈ છે. મેરુની દિશામાં આ અધવલયના આકારની એટલા માટે કહેવામાં આવી છે કે મેરુ બધી દિશાઓમાં ગળાકારવાળે છે. તેના ત્રણ, બે અથવા દશ ભાગેને વ્યાપ્ત કરીને આ સ્થિત છે. એથી આ જે પ્રમાણે પદ્માસનમાં આસન માણસને ઉત્સગરૂપ આસન બંધને મુખગ્રભાગ અર્ધવલયાકાર થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે જ આનું સંસ્થાન કહેવામાં આવેલ છે અને બહારમાં આનું સંસ્થાન ગાડીના ધુરાનું સુખ જે પ્રમાણે છે તે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલું છે. કેમકે ધુરામુખ વિસ્તૃત હોય છે. वे सूत्रधार तापक्षेत्री सस्थितिना मायाम मेरेना माटे ४थन ४३ छ. 'उभयो पासेणं तीसे दो बाहाओ अवट्ठियाओ हवंति' उभयपावनी अपेक्षाये म२५तनी भए। सन ડાબા ભાગ તરફની તે તાપક્ષેત્રની સ્થિતિની બે-બે બાહાઓ (સૂર્યો છે માટે) અવસ્થિત કહેવામાં આવી છે. અર્થાત્ વૃદ્ધિ-હાનિ સ્વભાવથી વિહીન કહેવામાં આવી છે. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार: सू. ७ तापक्षेत्र संस्थितिनिरूपणम् स्वभावे सर्वमण्डलेय्वपि नियतपरिमाणे भवतः, एका बाहा भरतस्थसूर्यकृता दक्षिणपार्श्वे, द्वितीया बाहा ऐरावतस्यसूर्यकृता उत्तरपार्थे, एवं प्रकारेण मेरोरुभयपार्श्वे द्वे बाहे भवत इति, 'पणयाली सं२ जोयणसहस्साई आयामेणं' पञ्चचत्वारिंशतं पञ्चचत्वारिंशतं योजनसहस्राणि आयामेन दैर्येण, ते उभे अपि बाहे यथोपरिपरिमाणविशेषे आयामेन भवतः, मध्यवर्त्तिनो मेरुपर्वतादारभ्य द्वयोर्दक्षिणोत्तरभागयोः पञ्चचत्वारिंशता योजन सहस्त्र वर्व्यवहिते जम्बूद्वीपपर्यन्ते व्यवस्थितत्वात् एवमेव दक्षिणोचरवत् पूर्वपश्चिम भागयोरपि, यदा तत्र सूर्यौ तदाsयमायानो भवतीति ज्ञातव्यः, एतत्सूत्रं जम्बूद्वीप तायाममपेक्ष्य बोध्यम्, लवणसमुद्रे तु त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणिशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनस्यैकविभाग इति एतचैकत्र संमिलित मष्टासप्ततिः सहस्राणि योजनानां त्रीणि शतानीत्यादिकं स्वयमेव सूत्रकारोऽग्रे - दर्शयिष्यतीति, अत्र विशेषतो नोपदश्यते तत्रैव दर्शयिष्यामीति ॥ भाव से विहीन कही गई हैं इनमें एक बाहा भरतक्षेत्रस्थ सूर्य के द्वारा की गई दक्षिण पार्श्व में है और दूसरी बाहा एरवतक्षेत्रस्थ सूर्य के द्वारा की गइ उतर पार्श्व में है । इस तरह मेरु के दो पावों में दो बाहा है । 'पणयालीसं जोयणसहस्सा आयामेणं' इन दोनों बाहाओं का आयाम ४५-४५ हजार योजन का है ये दोनों बाहा मध्यवर्ती सुमेरु पर्वत से लगाकर दोनों दक्षिण उत्तर के भाग में ४५ हजार ४५ हजार योजन से ये व्यवहित हैं क्योंकि ये जम्बूद्वीप पर्यन्त व्यवस्थित है। दक्षिण उत्तर की तरह पूर्व पश्चिम भाग में भी वाहा है जब वहां दो सूर्य होते हैं तब यह आयाम होता है । यह सूत्र जम्बूद्वीप -गत आयाम की अपेक्षा से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये लवण समुद्र में तो इनका यह आयाम ३३ हजार तीन सौ ३३ योजन से अधिक है यह एकत्र से मिलित किया गया इनका परिमाण ७८ हजार तीन सौ आदि रूप हो जाता है इस बातको सूत्रकार स्वयं ही आगे कहनेवाले हैं अतः वही पर यह प्रकट किया जायेगा । આમાં એક બાહા ભરતક્ષેત્રસ્થ સૂર્ય વડે કરવામાં આવેલી દક્ષિણપાર્શ્વમાં છે અને બીજી મહા આરત્રત ક્ષેત્રસ્થ સૂ વડે કરવામાં આવેલી ઉત્તરપાર્શ્વમાં છે. આ પ્રમાણે મેરુમાં એ मा. 'पणयालीस जोयणसहस्साई आयामेणं' से जन्ने महान आयाम ४५-४५ હજાર યેાજન જેટલે છે. એ બન્ને માહાએ મધ્યવતી સુમેરુપર્યંતથી માંડીને દક્ષિણ ઉત્તરના ભાગમાં ૪૫ હજાર-૪૫ હજાર ચેાજનથી એ વ્યવહિત છે. કેમકે એએ મને જંબુદ્વીપ સુધી વ્યવસ્થિત છે. દક્ષિણ ઉત્તરની જેમ પૂર્વ પશ્ચિમ ભાગમાં પણ માહા છે. જ્યારે ત્યાં એ સૂર્યો છે, ત્યારે આ આયામ હૈાય છે. આ સૂત્ર જ બુદ્વીપ ગત આયામની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલ છે. આમ જાણવું જોઇએ. લવણુસમુદ્રમાં તે એમના આ આયામ ૩૩ હજાર ત્ર°સે ૩૩ૐ ચેાજન કરતાં વધારે છે, આ બધાને એકડા કરીને મેળવ ज० १२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमीपप्रातिको सम्प्रति अनवस्थित बाहा स्वरूपं दर्शयितमाह-'दुवे य णं' इत्पादि, 'दुवे य णं तीसे बाहाओ अणवटियाभो हवंति' द्वे च तस्या बाहे अनवस्थिते भवतः, तस्या एकैकस्या स्वापक्षेत्रसंस्थिते द्वे च बाहे अन्वस्थिते-अनियतपरिमाणे भवतः प्रतिमण्डलं यथायोगं दीयमानवर्द्धमानपरिमाणमत्वात् । 'तं जहा-सबभतरिया चेव बाहा सबबाहिरिया वेव वाहा' सर्वाभ्यन्तरा चैव बाहा सर्वबाह्या चैत्र बाहा तत्र या बाहा मेरुपर्वतपार्थे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा बाहा, या तु लवणसमुद्रदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्तमधिकृत्य बाड़ा सा सर्वबाद्या बाहा, अोभयत्रापि 'चेव' शब्दौ प्रत्येकमनवस्थितस्वभावप्रद. नपरको, तायामो दक्षिणोत्तरायततया ज्ञातव्यः, विष्कम्भस्तु पूर्वायततयेति । संप्रतिसर्वाभ्यन्तरबाहायाः परिमाणं दर्शयितुमाह-'तीसे गं' इत्यादि, 'तीसेणं सबभंतरिया बाहा मंदरपब्वयं तेणं णव जोयणसहस्साई चत्तारि छलसीए जोयणसर णव य दसभाए परिक्खे अब सूत्रकार अनवस्थित याहा का स्वरूप प्रकट करते हुए कहते हैं 'दुवेघणं तीसे बाहाओ अणवट्ठियाओ हवंति उस एक एक तापक्षेत्र संस्थिति के बो चाहा अनवस्थित है-नियत परिमाणवाले नहीं हैं। क्योंकि प्रतिमण्डल में ये ग्रथायोग्य हीयमान वर्द्धमान परिमाणवाले हैं। 'तं जहा सकभतरिया चेव ग्राहा सव्ववाहिरिया चेव बाहा' वे दो बाहा इस प्रकार से हैं- एक समयतरामाहा और दूसरी सर्व बाह्या, बाह्य जो वाहा मेरु पर्वत के पार्श्व में विष्कस्म की अपेक्षा से है वह सर्वाभ्यन्तर वाहा है और जो लवण समुद्र की दिशा में जम्बूद्वीप पर्यन्त की अपेक्षा लेकर है वह सर्व बाह्यावाहा है यहां जो दोनों जगह 'चेव' शब्द का प्रयोग कियागया है वह प्रत्येक में अनवस्थित स्वभाव का प्रदर्शन करने के लिये किया गया है दक्षिण उत्तर तक ये लम्बे हैं पूर्व पश्चिम तक ये चौड़े हैं 'तीसे सबभतरिया बाहा मंदरपव्वयंतेणं णव जोयण सहવામાં આવેલું એમનું પરિમાણ ૭૮ હજાર ૩૦૦ વગેરે રૂપમાં થઈ જાય છે. આ વાતને સૂત્રકાર પોતે જ આગળ કહેવાના છે. એથી ત્યાંજ આ સંબંધમાં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવશે. હવે સૂત્રકાર અનવસ્થિત બાહાના સ્વરૂપના સંબંધમાં સ્પષ્ટતા કરતાં કહે છે'दुवे य णं तीसे बाहाओ अणवद्रियाओ हवंति' ते ४-४ तापक्षेत्र स्थितिनी यो माहास। અનવસ્થિત છે. તે નિયત પરિમાણવાળી નથી. કેમકે પ્રતિમંડળમાં એઓ યથાયોગ્ય दीयमान-भान परिमाणवाणी छे. 'तं जहा सव्वभतरिया चेव बाहा सव्व बाहिरिया चेव बाहा' ते मे माहा। ॥ प्रभारी छ-मे४ सास्य-त२ मा । अन मी सर्व બાહ્યા બાહા. જે બાહા મેરુપર્વતના પાશ્વમાં વિધ્વંભની અપેક્ષાએ છે તે સર્વ બાહ્યા બાહા છે. અહીં જે બન્ને સ્થાન પર રેવ' શબ્દને પ્રગ કરવામાં આવેલ છે, તે દરેકમાં અનવસ્થિત સ્વભાવનું પ્રદર્શન કરવા માટે કરવામાં આવે છે. દક્ષિણ ઉત્તર સુધી अमावी छ, पूर्व-पश्चिम सुधी प्रेम। ५३॥ छे. 'तीसे सव्वब्भंतरिया बाहा मंदर , Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाक्षिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् वेणं तस्याश्च खलु सर्वाभ्यन्तरा बाहा मन्दरपर्वतान्तेन नवयोजनसहस्राणि चखारिषडशीति थोजनशतानि नवच देशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण. तत्र तस्या एकैकस्या स्तापक्षेत्रसंस्थिते याँ सर्वाभ्यन्तरा बाहा सा मन्दरपर्वतपर्यन्ते-मेरुगिरिसमीपे नवयोजनसहस्राणि षड. शीत्यधिकानि चत्वारि योजनशतानि नव च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण भवति, एतादृश परिमाणं परिक्षेपतः सर्वाभ्यन्तरबाहाया भवतीति तत्रोत्पत्तिं दर्शयितुं प्रश्नयन प्राह-'एस में इत्यादि. 'एस णं भंते' एषः खलु भदन्त ! हे भदन्त ! अनन्तरपूर्वकथितप्रमाणः 'परि खेत्रविसे से' परिक्षेपविशेषः 'को आहिएत्ति वएन्जा' कुत:-कस्मात् कारणात् एवं प्रमाण आख्यातः कथितः नाधिको न वा हीनः कथं । कथित इति वदेदिति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे णं मंदरस्स परिक्खेवे' योऽयं खलु मन्दरस्य मेरुपर्वतस्य परिक्षेपः 'तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता' तं मन्दरपरिक्षेपं त्रिमि:-संख्यायण गुणयित्वा-ज्योतिशास्त्रप्रतिपादितपरिभाषाविशेषेण गुणनं कृत्वा 'दसहि छेत्ता' दशर्मिच्छित्वा-दशसंख्यया भागं दत्वा एतदेव पर्यायेण पुनरपि कथयति-'देसहि मागे हीरमाणे दशभिर्भागे ह्रियमाणे सति 'एस परिक्वेरविसेसे आहिएत्ति वए जा' एपः परिक्षेपविशेषः स्साई चत्तारि छलसीए जोयणसए णव य दसभाए परिक्खेवेणं' इनमें जो एक एक तापक्षेत्र सस्थिति की सर्वाभ्यन्तर याहा है वह मन्दर पर्वत के अन्त में मेरु गिरि के समीप में-९ हजार चारसौ ८६ योजन की परिक्षेपवाली है 'एसणं भंते ! परिक्खेवविसेसे को आहिएत्ति वएज्जा' हे भदन्त ! परिक्षेपे की अपेक्षा सर्वाभ्यन्तर बाहा का यह प्रमाण कैसे कहा गया है यह मुझको कहो इसके उत्तरमें प्रभु श्री कहते हैं परिक्षेपका यह प्रमाण इस प्रकार से कहा गया है सुनो-'गोयमा! जेणं मंदस्स परिक्खेवे तं तिहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहि भागे हीरमाणे एस परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा' हे गौतम! मंदरपर्वत का जो परिक्षेप है उसे तीन से गुणित करे। और फिर उसे गुणन फल में दर्शक भाग देदो तब इसके परिक्षेपका प्रमाण निकल आता है ऐसा शिष्यों को सपव्ययंतेणं णव जोयणसहस्साइं चत्तारि छलसीए जोयणसए णव य दसभाए परिक्खेवेणं' એમાં જે એક એક તાપક્ષેત્ર સંસ્થિતિની સર્વાત્યંતર બાહા છે, તે મંદર પર્વતના અંતમાં भगवनी पासे ८ MP यारसे ८६६. योन सी परिक्षेपवाणी छे. 'एस भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्ति वएज्जा' महत! परिक्षपनी अपेक्षा सालयतर બહાનું આ પ્રમાણ કેવી રીતે કહેવામાં આવેલું છે? તે મને કહે. એના જવાબમાં પ્રભુ ४३ छ-परिक्षेपमा प्रमाण मा प्रमाणे वामां आवे छे. सो -'गोयमा ! जेणे मंदस्प्त परिक्खेवे तं परिक्खे तिहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहि भागे हीरमाणे एस परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा' हे गौतम ! १२५ तना २ परिक्ष५ छ, तेने शुथी ગુણિત કરે અને પછી તે ગુણનફળમાં દશને ભાગાકાર કરે તેથી આના પરિક્ષેપણું Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ अम्मूद्वीपप्राप्तिसूत्र आख्यात इति वदेत्-स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयेत्, अयं भाव:-मन्दरपर्वतेन प्रतिहन्यमान सूर्यस्यातपः मन्दरपर्वतस्य य: परिधिस्तं परिक्षिप्य स्थित इति मेरुसमीपेऽभ्यन्तरतापक्षेत्रविष्कम्भचिन्ता क्रियते ननु एवं सति सर्वोऽपि मन्दरस्य परिधिः सत्रयोविंशति षट्शताधिकैकत्रिंशत्सहस्र ३१६२३ योजनमानः, अस्प तापक्षेत्रस्य विष्कम्भतामापद्येत इति चेदत्रोच्यते, सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तमानः सूर्यः दीप्तलेश्याकत्वात् जम्बूद्वीपचक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तत् चक्रवालक्षेत्रानुसारेण त्रीन् दशभागान् प्रकाशयति त्रयाणां दशभागानां संकलने (मीलने) यावत्प्रमाणं क्षेत्र तावत्पर्यन्तं तापयतीत्यर्थः । अथैवं सति मुझे मेरुपर्वत परिधेर्यत् त्रिगुणी करणं कृतं तत् किमर्थं दशभागानां त्रिधा गुणनेनैव चरितार्थत्वादिति चेदत्रोच्यते-शिष्याणां सुखावबोधाय तथाकरणस्य आवश्यकत्यादिति ननु दशभिर्भागकरणे मझना चाहिये-इसका भाव ऐसा है-मन्दर पर्वत के साथ टकराता हुआ सूर्यातपमंदर पर्वत की जो परिधि है उसे घेरलेता हैं अतः मेरु के समीप में आभ्यन्तर तापक्षेत्र के विष्कम्भ का विचार किया गया है। शंका-तो फिर इस तरह के विचार करने पर की जितनी भी परिधि है वह तब ३१६२३ योजन की है और यह इस तापक्षेत्र के विष्कम्भ रूप हो जावेगी? को इसका उत्तर ऐसा है कि सर्वाभ्यन्तर में वर्तमान सूर्य दीप्तलेश्यावाला होने से जम्बूद्वीप चक्रवाला के इधर उधर के प्रदेश में उस उस चक्रवाल क्षेत्र के अनुसार भागों को प्रकाशित करता है. भागों की संकलना में जितने प्रमाणवाला क्षेत्र होता है उतने क्षेत्र को वह प्रकाशित करता है, इस प्रकार होने पर मूल में जो मेरु पर्वत की परिधि को तिगुणित करने की बात कही गई है वह फिर किस लिए कही गई है क्यों कि १० भागों को तिगुणा करने पर वह चरितार्थ हो जाती है तो इस शंका का उत्तर ऐसा है कि शिष्य जनों को इस बात પ્રમાણ નીકળી આવશે. આ પ્રમાણે શિને સમજાવવા જોઈએ. આને ભાવ આ પ્રમાણે છે–મંદર પર્વતની સાથે અથડાતે સૂર્યાતપ મંદર પર્વતની જે પરિધિ છે તેને આવૃત કરી લે છે. એથી મેરુની પાસે આવ્યંતર તાપ-ક્ષેત્રના વિઠંભને વિચાર કરવામાં આવેલ છે. શંકા–તો પછી આ જાતનો વિચાર કરવાથી મેરુની જેટલી પરિધિ છે તે કુલ ૩૧૬૨૩ જન જેટલી છે અને આ પરિધિ આ તાપક્ષેત્રના માટે વિધ્વંભરૂપ થઈ જશે? તે આને જવાબ આ પ્રમાણે છે કે સર્વાત્યંતમાં વર્તમાન સૂર્યદીપ્ત વેશ્યાવાળો હેવાથી જંબુદ્વીપ ચક્રવાલની આસ-પાસના પ્રદેશમાં તત્ તત ચક્રવાલક્ષેત્ર મુજબ , ભાગોને પ્રકાશિત કરે છે . ભાગની સંકલનામાં જેટલા પ્રમાણુવાળું ક્ષેત્ર હોય તેટલા ક્ષેત્રને તે પ્રકાશિત કરે છે. આ પ્રમાણે થવાથી મૂળમાં જે મેરુપર્વતની પરિધિને ત્રિગુણિત કરવાની વાત કહેવામાં આવી છે. તે શા માટે કહેવામાં આવી છે? કેમકે ૧૦ ભાગેને ત્રિગુણિત કરવાથી તે ચરિતાર્થ થઈ જાય છે. તો આ શંકાનો જવાબ આ પ્રમાણે છે કે શિષ્યોને આ વાતનું જ્ઞાન સારી રીતે થઈ જાય એટલા માટે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् ९३. को हेतुरिति चेदत्रोच्यते - जम्बूद्वीपचक्र वालक्षेत्रस्य त्रयो भागा मेरोर्द क्षणपार्श्वे, तस्यैव मेरोरुत्तरपार्श्वे च त्रयो भागाः, मेरुपर्वतस्य पूर्वभागे द्वौ द्वौ भागौ च पश्चिमतः, एवं सर्वेषां भागानां संकलने कृते सति दश भागा भवन्ति, तत्र भरतक्षेत्रे वर्तमानः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले चरन् मेरोर्दक्षिणभागगतान् त्रीन् भागान् प्रकाशयति स्वकीयतापेन व्याप्नोति, त्रीन् भागान् उत्तरसम्बन्धिनः, यदा तु ऐवतगतः सूर्यो भवति तदा द्वौ भागौ पूर्वस्यां रात्रि भवति, द्वौ भागौ च पश्चिमायां रात्रिर्भवति, यथा यथाक्रमेण दाक्षिणात्य औत्तराहो वा सूर्यः संचरति, तथा तथा तयोरपि सूर्ययोस्तापक्षेत्रमग्रतो वर्द्धते पृष्ठतश्च हीयते । एवं क्रमेण संचरणस्वभावे तापक्षेत्रे यदा एकः सूर्यः पूर्वस्यां दिशि पर सूर्योऽपरस्यां दिशि वर्तते तदा पूर्वपश्चिम दिशोः प्रत्येकं त्रीन् भागान् तापक्षेत्रम् द्वौ भागौ दक्षिणोत्तरयोः का ज्ञान अच्छी तरह से हो जाय इस के लिये ऐसा कहा गया है। शंका- दश से भाग करनेका क्या कारण है ? तो इस सम्बध में ऐसा कहना हैं कि जम्बूद्वीप चक्रवाल क्षेत्र के तीन भाग मेरु के दक्षिण पार्श्व में हैं और मेरु के उत्तर पर्श्व में उसके तीन भाग हैं तथा मेरु के पूर्व भाग में दो भाग हैं और पश्चिम में दो भाग हैं इस तरह से ये सब भाग १० हैं इन में से भरत क्षेत्र में वर्तमान सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल में चलते समय मेरु के दक्षिण भाग में स्थित ३ भागों को प्रकाशित करता है और उत्तर सम्बन्धी तीन भागों को प्रकाशित करता है और जब सूर्य ऐरवत क्षेत्र गत होता है तब दो भागों तक पूर्व दिशा में रात्रि होती है और दो भागों तक पश्चिम दिशा में रात्रि होती है तथा जब दक्षिण दिशा में और उत्तर दिशा में सूर्य का संचार जैसा २ क्रमशः होता है उसी २ तरह से उन दोनों सूर्यो का तापक्षेत्र आगे बढता जाता है और पीछे कम होता है इस तरह क्रम से ताप क्षेत्र में जब एक सूर्य पूर्व दिशा શકા દશના જે ભાગાકાર કરવામાં આવેલ છે તેનુ શું કારણ છે? આ સંબ"ધમાં આમ કહેવુ છે કે જમૂદ્રીપ ચક્રવાલ ક્ષેત્રના ત્રણ ભાગેા મેરુના દક્ષિણપાશ્વ માં છે અને મેરુના ઉત્તરપા માં તેના ત્રણ ભાગેા છે. તેમજ મેરુના પૂર્વ ભાગમાં એ ભાગે છે અને પશ્ચિમમાં એ ભાગે છે. આ પ્રમાણે એ બધા ભાગે ૧૦ છે. એમાંથી ભરક્ષેત્રમાં વમાન સૂ સર્વાભ્ય:તરમંડળમાં ગતિ કરતી વખતે મેરુના દક્ષિણભાગમાં સ્થિત ૩ ભાગેને પ્રકાશિત કરે છે. અને ઉત્તર સ`બંધી ત્રઝુ ભાગેને પ્રકાશિત કરે છે અને જ્યારે સૂર્ય' અરવત ક્ષેત્રગત હાય છે ત્યારે એ ભાગે સુધો પૂર્વાદિશામાં રાત હૈાય છે અને બે ભાગ સુધી પશ્ચિમદિશામાં રાત હાય છે તેમજ જયારે દક્ષિણ દિશામાં અને ઉત્તરદિશામાં સૂર્યનું સંચરણુ જેમ-જેમ ક્રમશઃ થાય છે તેમ તેમ તે અન્ને સૂર્યાંનુ તાપક્ષેત્ર આગળ વધતુ જાય છે અને પાછળ ઓછા થતા જાય છે. આ પ્રમાણે ક્રમથ્ય તાપક્ષેમાં જ્યારે એક સૂર્ય પૂર્વદિશામાં હોય છે અને બીજો સૂય પશ્ચિમર્દિશામાં ડાય છે ત્યારે પૂર્વ-પશ્ચિમદિશામાં દરેકમાં ત્રણ-ત્રણ ભાગો Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिरो प्रत्येक रात्रिभवति इति ॥ गणितप्रयोगस्तु इत्यम् तत्र मेरुपर्वतस्यं व्यासो दशसहस्त्र १०००० योजनप्रमाणः, एषां च वर्ग: दसकोटयः १०००००००० ततो दशभिर्गुणिते सति जातं कोटिशतम् १००००००००, अस्य वर्गमूलानयते लब्धानि एकत्रिंशद् योजन सहस्राणि पटूशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि ३१६२३, एषां राशिः त्रिभिर्गुण्यते, जातानि चतुर्नवति सहस्राणि अष्टौशतानि एकोनसप्तत्यधिकानि ९४८६९, एपं दशभिर्भागे कृते सति लब्धानि नव योजनसहस्राणि चखारिशतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागाः योजनस्य ९४८६, योजनस्येति ॥ सर्वाभ्यन्तरवाहायाः प्रमाणं दर्शयित्वा सर्वबाह्यवाहाप्रमाणं दर्शयितुमाह-तीसेणं' इत्यादि, 'तीसेणं सम्बबाहिरिया बाहा' तस्याः तापक्षेत्रसंस्थितेः खलु सर्वबाह्या बाहा 'लवणसमुदंतेणं' लवणसमुद्रान्तेन लवणसमुद्रस्य अन्ते-समीपे 'चउणवई जोयणसहस्साई चतुर्नवति योजनसहस्राणि 'अट्ठसटे जोयणसए' अष्टौ षष्टिः योजनशतानि षष्टय धिकानि अष्टौ योजनशतानि 'चत्तारि दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' चतुरश्च दशभागान् योजनस्य परिमें होता है और दूसरा सूर्य पश्चिम दिशा में होता है तब पूर्व पश्चिम दिशा में प्रत्येक में तीन तीन भाग तक ताप क्षेत्र होता है और दक्षिण उत्तर के दो भाग तक प्रत्येक भाग में रात्रि होती है। गणित का प्रयोग इस प्रकार से है-मेह पर्वत का व्यास १०००० दश हजार योजन कहा है इसका वर्ग १०००००००० दश करोड इतना होता है इस में दश का गुणा करने पर १००००००००० इतनी राशि आती है इस राशि का वर्ग मूल निकालने पर ३१६२३ लब्ध होते हैं हन में ३ से गुणा करने पर ९४८६९ आते हैं फिर इनमें १० का भाग देने पर ९४८६, योजन आजाते हैं। अब सर्वबाह्य का प्रमाण सूत्रकार प्रकट करते हुए कहते हैं-'तीसे गं सव्ववाहिरिया बाहा' उस तापक्षेत्र संस्थिति की जो सर्ववाय बाहा है वह 'लवणसमुदंतेणं चउणवई जोयणसहस्साइं अट्ठसठे जायणसए चत्तारी दस भाए जायणस्स परिक्खेवेणं) लवणसमुद्र के अन्त मे ९४८६० योजन के સુધી તાપક્ષેત્ર હોય છે અને કક્ષિણ ઉત્તરના બે ભાગ સુધી દરેક ભાગમાં રાત હોય છે. ગણિતનો પ્રયાગ આ પ્રમાણે છે-મેરુપર્વતને વ્યાસ–૧૦૦૦૦ દશ હજાર જન જેટલું છે. આ વર્ગ ૧૦૦૦૦૦૦૦૦ દશકરોડ જેટલું છે. આમાં દશને ગુણાકાર કરવામાં આવે તો ૧૦૦૦૦૦૦૦૦૦ એક અબજ જેટલી રાશિ આવે છે. આ રાશિને વર્ગમૂલ કાઢીએ તે ૧૯૨૩ લબ્ધ હોય છે. આમાં ત્રણથી ગુણાકાર કરવામાં આવે તે ૮૪૮૬૯ આવે છે પછી એમાં ૧૦ ને ભાગ કરવાથી ૯૪૮૬% યેજન આવે છે. હવે સર્વબાહ્યનું પ્રમાણ સૂત્રકાર પ્રકટ કરે छ. त। ४ छ-'तीसेणं सव्वयाहिरिया बाहा ते तापक्षेत्र स्थितिनी २ स मा मार त 'लषणसमुदंतेणं चउणवई जोयण सहस्लाई अटुसटे जोयणसए चत्तारि सभार जोयणस्स Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार: सू. ७ तापक्षेत्र संस्थितिनिरूपणम् क्षेपेण चतुर्नवति सहस्राणि षष्ट्यधिकानि अष्टौ शतानि चतुरश्च दशभागान् ९४८६० योजनस्य परिक्षेपेण भवति इत्यर्थः । सम्प्रति - एतादृशपरिक्षेपसंख्याया उपपादकं सूत्रमाह'से णं भंते ! इत्यादि से णं भंते ! परिक्खेवविसेसं' सः अनन्तरपूर्वोक्तः सर्वबाह्य बाहा परिक्षेपविशेषः खलु भदन्त ! 'कओ आहिए ति वएज्जा' कुतः - कस्मात् कारण विशेषाम् एवं प्रकारेणाख्यातः, इति गौतमो वदेत्, गौतमस्यैतादृशः प्रश्नः इति, भगवानाह - 'गोयमा !' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे णं जंबुडीवस्स परिक्खेवे' योऽयं जम्बूद्वीपस्य खलु परिक्षेपः- परिधिः 'तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता' तं जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपं त्रिभिर्गुणत्वा-त्रिख्यया तस्य गुणनं कृत्वा 'दसहि छेता' दशभिच्छित्वा - दशसंख्यया भागं दत्वा, इदमेव वस्तु पुनरपि पर्यायशब्देनाह - 'दसहि' इत्यादि, 'दसहि भागे हीरमाणे' दशभिर्भागे ह्रियमाणे क्षति 'एस णं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा' एषोऽनन्तरपूर्वोक्तः परिक्षेपविशेष आख्यातः प्रतिपादितो मया वर्द्धमानस्वामिना तथा अन्यैरपि तीर्थकरैरादिनाथप्रभृतिभिरिति वदेत् स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयेदिति । अयं भावः - तापक्षेत्रस्य परमविष्कम्भः प्रतिपादनीयः सच जम्बूद्वीपपर्यन्त इति तत्परिधिः स्थाप्यः योजन ३१६२२७ क्रोश ३ धनूंषि १२८ अङ्ग्गुलम् १३-अर्धाङ्गुलम् १ - एतावता योजनमेकं किञ्चिन्न्यूनमिति व्यवहारतः के परिक्षेप वाली है इसका ऐसा प्रमाण कैसे आता है ? 'सेणं भंते ! परिक्खेविसेसे कओ आहिए तिबएज्जा' यही बात गौतम ने इससूत्र द्वारा पूछी है इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! जं णं जंबुद्दीबस्स परिक्खेवं तं परि क्खेवं तिहिं गुणेज्जा' हे गौतम! जम्बूद्वीप का जो परिक्षेप है उसे तीन से गुणित करो और गुणित करके 'दसहिं लेता' आगत राशि के १० छेद करोअर्थात् 'दसहिं भागे हीरमाणे' १० का उस में भाग दो 'एसणं परिक्खेवविसेसे आहिए ति वएज्जा' तब यह पूर्वोक्त परिक्षेत्र का प्रमाण निकलता है ऐसा शिष्य से कहना चाहिये इसका तात्पर्य ऐसा है जबूद्वीप की परिधि का प्रमाण ३१६२२७ योजन ३ कोश १२८ धनुष और १३|| अंगुलका है । इस तरह कि परिक्खेवेणं' सवाभुसभुद्रना संतमा ८४८६० योन नेटला परिक्षेषवाली प्रभावी रीते आवे छे ? 'से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएतिवरज्जा' येथ बात गौतमस्वाभीमे आ सूत्र वडे चूडी छे. सेना भवामभां अलु मधे 'गोयमा ! जं णं जंबुद्दीवरस परिक्खेवं तं परिवखेवं तिहिं गुणेज्जा' हे गौतम! द्रोपनाले परिक्षेष छे. तेने डेस्थित हरो, भने गुथित हरीने 'दसहिं छेत्ता' लागत राशिना १० छेड़ ४० भेटसे 8 'दसहि भागे हीरयाणे' १० थी लाज़ार ४२ । 'एसणं परिक् वेवविसेसे आहिए શિવજ્ઞા' ત્યારે આ પૂર્વોક્ત પરિક્ષેપનું પ્રમાણ નીકળી આવે છે. આ પ્રમાણે શિષ્યને કહેવુ જોઈએ. તાપય આ પ્રમાણે છે કે જમૂદ્રીપની પરિધિનું પ્રમાણ ૩૧૬૨૨૭ ચેાજન રૂ ગાઉ, ૧૨૮ ધનુષ અને ૧૩૫ અંશુલ જેટલું છે. એથી ફિચિન્સૂન ચેાજન એક પ્રા Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे पूर्ण विवक्ष्य ते सांशराशितो निरंशराशेर्गणितस्य सुलभत्वात्, ततो जातम् ३१६२२८, एतत् त्रिगुणितं क्रियते, तदा जाताः नवलक्षाः अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि षट्शतानि चतुरशीत्यधिकानि ९४८६८४, एतेषां दशभिर्भागे कृते लब्धानि चतुर्नवतिर्योजनसहस्राणि अष्टौं शतानि अष्टषष्टयधिकानि चत्वारश्च दशभागा योजनस्य ९४८६८..॥ सम्प्रति सामस्त्येन-सर्वरूपेण आयामत स्तापक्षेत्रपरिमाणं ज्ञातुं प्रश्नयमाह-'तयाणं भंते ! तावक्खित्ते केवइयं' इत्यादि, 'तयाणं भंते ! तावक्खित्ते केवइयं आयामेणं पन्नसे' यदा खलु भदन्त ! एतावान् तापक्षेत्रस्य परमो विष्कम्भः तदा खलु भदन्त ! तापक्षेत्र सामस्त्येन दक्षिणोत्तरायततया कियत्प्रमाणकम् आयामेन दैव्येण प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाइ-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठहत्तरि जोयणसहस्साई' अष्टसप्तति योजनसहस्राणि 'तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसए' त्रीणि च त्रयस्त्रिंशद योजनशतानि प्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि इत्यर्थः 'जोयणस्त तिभागं च' योजनस्यैकस्य त्रि. श्चिन्यून योजन एक पूरा ही योजन व्यवहार से मानलेना चाहिये अंश राशि से निरंश राशिका गणित सुलभ होता है तब ३१६२२८ योजन पूरे हो जाते हैं इसे तिगुणित करने पर ९४८६८४ की संख्या आती है इस संख्या में १० का भाग देने पर ९४८६८ भाजन फल आता है। अब सम्पूर्ण रूप से आयाम की अपेक्षा ताप क्षेत्र के परिमाण को जानने के लिये गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'तयाणं भंते ! ताव क्खित्ते केवइयं आयानेणं पन्नते' हे भदन्त ! जब इतना तापक्षेत्रका परम विष्कम्भ है तो तापक्षेत्र सम्पूर्ण रूप से दक्षिण उत्तर तक लम्बा होने के कारण आयाम की अपेक्षा कितने प्रमाण वाला है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! अट्ट हत्तरी जोयण सहस्साई तिणि य तेत्तीसे जोयणसए जोयणस्स तिभागंच' हे गौतम !ताप क्षेत्र आयाम की अपेक्षा ७८३३३ योजन प्रमाण है इनमें ४५ हजार योजन तो द्वीप જન જેટલું પ્રમાણ વ્યવહારમાં માની લેવું જોઈએ. અંશ રાશિથી નિરંશ રાશિનું ગણિત સુલભ હોય છે. ત્યારે ૩૧૬૨૨૮ જન પૂરા થઈ જાય છે. આને ત્રિગુતિ કરવાથી ૯૪૮૬૮૪ જેટલી સંખ્યા આવે છે. આ સંખ્યામાં ૧૦ ને ભાગાકાર કરવાથી ८४८९८४ासनण आवे छे. હવે સંપૂર્ણ રૂપમાં આયામની અપેક્ષાએ તાપત્રના પરિણામને જાણવા માટે ગૌતમ स्वामी प्रभुन तनी प्रश्न ये छे-'तयाणं भंते ! तावक्खित्ते केवइयं आयामेणं पन्नत्ते' હે ભદંત! જ્યારે આટલે તાપક્ષેત્રને પરમવિકેભ છે તે તાપેક્ષેત્ર સંપૂર્ણ રૂપમાં દક્ષિણ ઉત્તર સુધી દીઘ લેવાથી આયામની અપેક્ષાએ કેટલા પ્રમાણવાળે છે? એનાં જવાબમાં प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! अदृहत्तरि जोयणसहस्साई तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसए जोयणस्स ति મા ” હે ગૌતમ! તાપક્ષેત્ર આયામની અપેક્ષાએ ૭૮૩૩૩૩ એજન પ્રમાણે છે. એમાં Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाचिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् भागं च 'आयामेणं पन्नत्ते' आयामेन-दर्येण प्रज्ञप्तं कथितम्, अष्ट सप्तति सहस्राणि त्रयवि. शदधिकानि त्रीणि योजनशतानि एकस्य योजनस्य त्रिभाग ७८३३३, योजनस्यायामेन भवती यर्थः, तत्र पञ्चचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि द्वीपगतानि, त्रयस्त्रिंशद योजनसहस्राणि श्रीणि च योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि, उपरि च योजनस्य त्रिभागयुक्तानि लवणसमुद्रगतानि द्वयोः संकलनायां यथोक्तं ७८३३३, योजनस्य मानं भवति, इदं च दक्षिणो. तरत आयामपरिमाणमवस्थितं न कुत्रापि मण्डलाचारे विपरिपत्ततेति ॥ ___ अमुमेवार्थ दृढीकर्तमाइ-'मेरुस्स मज्झयारे' इत्यादि, 'मेरुस्स मज्झयारे' मेरोथ मध्यकारे 'जाव य लवणस्स रुंदछम्भागे' यावच लवणस्य रुंदपइभागः 'तावायामो एसो' तापायाम एषः 'सगड्डद्धी संठिो नियमा' शकटोदि संस्थितो नियमात्, अयमर्थः, अत्र खलु मन्दरपर्वतेन सूर्यप्रकाशः प्रतिहन्यमानो भवतीति, एकस्य मतम्, मेरुणा सूर्यप्रकाशो न प्रतिहन्यते इत्यपरस्य मतम्, तत्राधमते इयम् सम्प्रतिरूपागाथा-इत्थं व्याख्यायते, मध्यकारे, तत्र करणं कारः मध्ये कारो मध्य कारः मध्ये करणं मेरो स्तस्मिन् सति, चक्रवालक्षेत्रत्वात तापक्षेत्रस्य मध्ये मेरुं कृत्वेत्यर्थः, यावल्लवणसमुद्रस्य रुन्द षड्भागः रुन्दस्य-हन्दताया विस्तारस्य कवणसमुद्रस्य यो विस्तार स्तादृशविस्तारस्य यः षड्भागः पष्ठो भागः एषः-एतावत्प्रमाण: तापस्य-तापक्षेत्रस्य आयामो दैर्घ्यम्, तत्र मेरुपर्वतादारभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्तं यावत् पश्चचत्वागत है और बाकी ३३३३३ लवण समुद्र गत है। इन दोनों के मिला देने पर ७८३३३% योजन हो जाते हैं। यह जो दक्षिण उत्सर में आयाम का परिमाण प्रकट किया गया है वह अवस्थित परिमाण प्रकट किया गया है क्योंकि यह परिमाण कहीं पर भी मण्डलाचार में घटता बढता नहीं है । इसी बातको दृढ करने के लिये 'मेरुस्स मज्झयारे जाव य लवणस्स रुंदछन्भागे तावायामो एसो सगडद्धी संठियो नियमा' सूत्रकार ने यह कथन किया है इसका भाव ऐसा है कि मन्दर पर्वत से सूर्य प्रकाश प्रतिहन्यमान होता है ऐसा किसी २ का मत है और किसी किसी का ऐसा मत है कि मेरु से सूर्य प्रकाश प्रतिहन्यमान नहीं होता है अब प्रथम मत के अनुसार इस गाथा का भाग इस प्रकार से है-कि-मेरु पर्वत से लेकर ૪ હ. ૨ જન તે દ્વીપગત છે અને શેષ ૩૩૩૩૩ લવણસમુદ્ર–ગત છે. એ બન્નેને એકત્ર કરીએ તે ૭૮૩૩૩૩ એજન થાય છે. આ જે દક્ષિણ ઉત્તરમાં આયામનું પરિણામ પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે. તે અવસ્થિત પરિમાણ પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે, કેમકે આ પરિણામ કેઈ પણ સ્થાને મંડલાચારમાં વધારે કે કમ થતું નથી. આ વાતને દઢ કરવા भाटे मेरुस्स मज्झयारे जाव य लवणस्स रुंदछन्भागे तावायामो एसो सगडुद्धी संठियो नियमा' सूत्रधारे मा ४थन युछे-मानी मा मा प्रभारी छ , मह२५ तथा सूर्य પ્રકાશ પ્રતિહન્યમાન થાય છે. આવો કેટલાકને મત છે. અને કેટલાક આ પ્રમાણે પણ વિચારે છે કે મેરુથી સૂર્યપ્રકાશ પ્રતિહન્યમાન થતું નથી. હવે પ્રથમ મત મુજબ આ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ९८ रिंशद् योजनसहस्राणि तथा - लवणसमुद्रस्य विस्तारो द्वौ योजनलक्षौ तयोः षष्ठो भागः, त्रयस्त्रिंशद्] योजनसहस्राणि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रीणि यो जनशतानि एको योजनस्य त्रिभागः, इति रूपः, तत् उभयोः परिमाणयोः संकलने भवति ७८३३३ योजनस्य यथोक्त आयाम - परिमाण इति । एष आयामो नियमात् शकटोद्धि संस्थितः शकटोद्धिसंस्थानः अन्तः संकुचितो बहिर्विस्तृतो भवतीति तेनास्य तुल्यतेति ॥ यस्य मते मेरुपर्वतेन सूर्यस्य प्रकाशो न प्रतिहन्यते इति तेषामर्थान्तरसुचनाय इयं गाथा एवं व्याख्येया, तथाहि - मेरो : - मेरुपर्वतस्य मध्यभागो मंदरा यावत् चलवणरुन्दतायाः षड्भागः एतेन मन्दरपर्वतार्द्ध सम्बन्धि पश्चाशद् योजनराशौ प्रक्षिप्यन्ते ततो जायते त्र्यशीति सहस्रयोजनानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि णि योजनशतानि एक योजनस्य त्रिभागः ८३३३३ । एतन्मते मन्दरपर्वतगतकन्दरादीनामपि अन्तः प्रकाशः स्यादिति लभ्यते । बाहर जम्बूद्वीप पर्यन्त ४५ हजार योजन का विस्तार है और लवण समुद्र का विस्तार दो लाख योजन का है इन दोनों का छठा भाग ३३३३३ ] योजन रूप है दोनों परिमाणों को जोडने पर ७८३३३ योजन का आयाम परिमाण आजाता है । यह जो आयाम है वह शकट की धुरा का जैसा आकार होता है नियम से वैसे ही आकार का है इस तरह यह भीतर में संकुचित और में विस्तृत होता है इसी कारण शकट की धुरा के साथ इसकी समानता प्रकट की गई है। जिसके मन में मेरु पर्वत से सूर्य का प्रकाश प्रतिहन्य मान नहीं होता है उसकी मान्यता के अनुसार इस गधा का भाव ऐसा है मेरु पर्वत का मध्य भाग मंदरार्ध और लवण समुद्र की रुन्दता - विस्तार का छठा भाग ये सब मन्दर पर्वत सम्बन्धी पञ्चाशत् योजन राशि में जोड दिये जाते है तब ८३३३३ योजन आते हैं इस मत के अनुसार मन्दर पर्वत गत कन्दरादि कों के भीतर भी प्रकाश होता है ऐसा फलितार्थ निकलता है। इस प्रकार ગાથા આ પ્રમાણે છે કે મેરુપર્વતથી માંડીને જમૂદ્રીપ સુધી ૪૫ હજાર ચેાજન વિસ્તાર થાય છે અને લવણુસમુદ્રના વિસ્તાર બે લાખ ચેાજન જેટલે છે. એ બન્નેને ષષ્ઠમાંશ ૩૩૩૩૩′ ચેાજન છે. બન્ને પરિમાણાના સરવાળા કરવાથી ૭૮૩૩૩ ચેાજન જેટલુ આયામ પરિમાણુ આવી જાય છે. આ જે આયામ છે તે શકટની ધુરાના જે પ્રમાણે આકાર હાય છે તેવા જ પ્રકારના આકારના છે. આ પ્રમાણે આ અંદર સંકુચિત અને મહાર વિસ્તૃત હાય છે. માટે શકટની ધુરા સાથે આની તુલના કરવામાં આવી છે. જેના મતમાં મેરુપર્યંતથી સૂય ના પ્રકાશ પ્રતિહત્યમાન થતુ નથી, તેની માન્યતા મુજબ આ ગાથાના ભાવ આ પ્રમાણે છે–મેરુપર્યંતના મધ્યભાગ મંદરા અને લવણુસમુદ્રની ટુ ઇંતા–વિસ્તારના ષષ્ઠભાગ ચે બધા મઢરપ સંબધી પચાશત્ ચેાજન રાશિમાં જોડવામાં આવે છે. ત્યારે ૮૩૩૩૩′ ચેાજન આવે છે. આ મત મુજબ મંદરપતગત ક ંદરાદિની અંદર પણ પ્રકાશ હાય છે, એવા ફલિતાં નીકળે છે, આ પ્રમાણે સર્વાભ્ય તરમંડળમાં તાપક્ષેત્ર સંસ્થિતિનુ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् तदनेन प्रकारेण सर्वाभ्यन्तरमण्ड ले तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रतिपादिता, सम्प्रति-प्रकाशस्य प्रश्वाभावित्वात् प्रकाशविरोधित्वाच सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽन्धकारस्थितिं ज्ञातुं प्रश्नयमाह-'तयाणं भंते' इत्यादि, 'तया णं भंते' तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डलसञ्चरणकाले कर्कसंक्रान्तिदिवसे खलु भदन्त ! 'कि संठिया अंधयारसंठिई पनत्ता' किं संस्थिता-किमाकारक संस्थानवती अन्धकारस्य-तमसः संस्थिति:-संस्थानं प्रज्ञप्ता कथितेति प्रश्नः, यद्यपि प्रकाश तमसी परस्परं विरुद्ध इति तयोः सहावस्थायित्वविरोधात् समानकालीनत्वं न संभवति तथापि अवशिष्टेषु चतुषु जम्बूद्वीपचक्रवाल दशभागेषु संभावनाया पृच्छत आशयात् न कोऽपि विरोध इति । ननु प्रकाशाभावरूपस्यान्धकारस्य संस्थानाभावेन, अन्धकारस्य संस्थानविषयकः प्रश्नोऽनुपपन्न इति चेदत्रोच्यते-तमालमालावत् श्यामलं तमश्चलति इति प्रतीतेरवाषितसर्वजनानुभवसिद्धत्वेनास्य अन्धकारस्य पौदुगलिकत्वसिद्धौ अन्धकारस्य संस्थानविषयकप्रश्नसंभवादिति ॥ से सर्वाभ्यन्तर मण्डल में तापक्षेत्र संस्थिति का प्रतिपादन किया अब प्रकाश का विरोधी जो प्रकाश के बाद होने वाला अंधकार है उसकी स्थिति सर्वाभ्यन्तर मंडल में जानने के लिये गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैं-'तयाणं भंते !' हे भदन्त ! सर्वाभ्यन्तर मण्डल में सचरण के समय में कर्क संक्रान्ति के दिन 'कि संठिया अंधकारसंठिई पनत्ता' किस आकार के संस्थान वाली अन्धकार संस्थिति कही गई है ? यद्यपि प्रकाश और अन्धकार ये दोनों परस्पर में विरुद्ध है अतः सहावस्थायित्व का विरोध इन में होने के कारण समान कालीनता इन में संभवित नहीं होती है तथापि अवशिष्ट चार जम्बूद्वीप के चक्रवाल के दश भागों में इसकी संभावना होने से इस प्रकार से पूछने में कोई विरोध नहीं है। शंका-अन्धकार तो प्रकाश के अभावरूप होता है अतः इसके संस्थान के विषय में पूछा गया यह प्रश्न ठीक प्रतीत नहीं होता है क्योंकि अभाव रूप પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું. હવે પ્રકાશ વિરોધી કે જે પ્રકાશ પછી અસ્તિત્વમાં આવે છે એટલે કે અંધકાર, તેની સ્થિતિનું સર્વાધંતર મંડળમાં જાણવા માટે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને प्रश्न ४२ -'तयाणं भंते !' 8 मत ! सत्यत२ मा सय२९] समये । सी . तिना हिवसे 'किं संठिया अंधकारसंठिई पन्नत्ता' च्या मा२ना संस्थानवाजी महारानी સંસ્થિતિ કહેવામાં આવી છે? જે કે પ્રકાશ અને અંધકાર એઓ બને પરસ્પર વિરુદ્ધ છે. એથ સહાવસ્થાયિત્વનો વિરોધ એ બનેમાં હોવાથી સમાન કાલીનતા આમાં સંભવિત નથી. તે પણ અવશિષ્ટ ચાર જંબુદ્વીપના ચક્રવાલના દશ ભાગોમાં આની સંભાવના હોવાથી આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કરવામાં કોઈ પણ જાતને વિરોધ નથી. શંકા-અંધકાર તે પ્રકાશના અભાવ રૂપમાં હોય છે. એથી આના સંસ્થાનની બાબતમાં પૂછવામાં આવેલ આ પ્રશ્ન બરાબર લાગતું નથી, કેમકે અભાવરૂપ પદાર્થના Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . . अम्वृद्धीपप्रतिसून भगवानाह-'गोरमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'उद्धीमुहकलंबुआ पुप्फसंठाणसंठिया अंधकारसंठिई पन्नत्ता' उद्ध्वीमुखकलम्बुका पुष्पसंस्थानसंस्थिता अन्धकारसंस्थिति: प्रज्ञप्ता, शकटस्य या उद्धी-धरी तद्वत् ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पं कदम्बपुष्पं तद्वत् संस्थानं तेन संस्थानेन संस्थिता अन्धकारस्य तमसः संस्थितिः-संस्थानम्-प्रज्ञप्ता-कयिता, अतएव 'अंतो संकुया बाहिं वित्थडा' अन्तः संकुचिता, बहिः-बाह्यभागे विस्तृता इत्यादि, 'तं वेव जाव' तदेव तापसंस्थित्यधिकारे यत् कथितं तदेव सर्व ज्ञातव्यम्, कियत्पर्यन्तं तापपदार्थ का कोइ आकार हो नहीं होता है ? उत्तर-ऐसा कहना उचित नहीं हैक्योंकि अन्धकार अभाव रूप पदार्थ नहीं हैं किन्तु प्रकाश की तरह वह भी एक भाव रूप ही पदार्थ है "तमालमालावत् नीलं तमश्चलति" तमालमालाकी तरह नील रूपवाला अन्धकार चलता है इस प्रकार को प्रतीति अवाध रूप से समस्त जीवों को उस सम्बन्ध में होती है जैनदर्शनकारोंने अन्धकारको पौद्गलिक पदार्थ माना है अतः अन्धकार में भी पौद्गलिकपदार्थ होने के कारण संस्थान विषयक प्रश्न करने में कोई बाधा नहीं हैं अतः अन्धकार के संस्थान के सम्बन्ध में प्रभु कहते हैं (गोयमा! उद्धीमुहकलंधुआ पुष्फसंठाणसंठिया अंधकार संठिई पण्णत्ता) हे गौतम! अन्धकार का संस्थान जैसा उर्ध्वमुखकरके रखे गये कदम्ब पुष्प का संस्थान होता है वैसा हो कहा गया है अतः यह संस्थान इसका शकट की धुरा के जैसा हो जाता है इस तरह इसका अन्तः संस्थान (संकृया-बाहिं वित्थडा) संकुचित होता है और बाहिर में वह विस्तृत होता है (तंचेव जोव) अत एव ताप संस्थिति के प्रकरण में जैसा पहिले कहा जाचुका है वैसा ही वह सब प्रकरण यहां पर भी 'उसकी दो अनवस्थित बाहा है एक जतना मार डात नथी ? ઉત્તર–આમ કહેવું બરાબર નથી કેમકે અંધકાર અભાવરૂપ પદાર્થ નથી. પરંતુ प्राशनी मते ५५ वाप३५ ५हाथ छे. 'तमालमालावत् नीलं तमश्चलति' तमासમાલાની જેમ નીલરૂપ યુક્ત અંધકાર ચાલે છે. આ પ્રમાણેની પ્રતીતિ અબાધારૂપે સમસ્ત ને આ સંબંધમાં થાય છે. જૈનદર્શનકારોએ અંધકારને પીગલિક ગયો છે. એથી અંધકારમાં પણ પિદુગલિક પદાર્થ હેવાને લીધે સંસ્થાન વિષયક પ્રશ્ન કરવામાં કઈ પણ जतनी माया नथी. मेथी महान संस्थानना समयमा प्रभु छ 'गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआ पुप्फसंठाणसंठिया अंधकारसठिई पण्णत्ता' गौतम ! भानु संस्थान नेम ઉર્વમુખના રૂપમાં મૂકવામાં આવેલ કદંબ પુછપનું સંસ્થાન હોય છે, તેવું જ કહેવામાં આવેલું છે. એથી આ સંસ્થાન આનું શટ ધરાવત્ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આનું सन्त: संस्थान संकुया-बाहिं वित्थडा' सथित डाय छे भने महाभात पितृत जय है. 'तं थेव जाव' भेटमा भाटे ५ स्थितिना ४२४ मा २ प्रमाणे पक्ष वामi Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् संस्थित्यधिकारोक्तं ग्राह्यं तत्राह-जाव' इति, यावत्पर्यन्तम् 'तीसेणं' इत्यादि, यावत् शब्देन 'अंतो वृत्ता बहि विपुला अन्तः अङ्कमुखसंस्थिता वहिः शकटोद्धीमुखसंस्थिता, उभयपान तस्या द्वे बाहे अवस्थिते भवतः, पञ्चचत्वारिंशत् पञ्चचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि आयामेन द्वे च ते बाहे अनवस्थिते भवतः तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरिका च बाहा सर्वेबाह्या च बाहा, एतत्पर्यन्तस्य तापसंस्थित्यधिकारोक्तस्य संग्रहणं भवतीति । 'तीसेणं सव्वन्भंतरिया बाहा' तस्या अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरिका बाहा 'मंदरपञ्चतं तेण' मन्दरपर्वतान्ते-मेरुपर्वतसमीपे मेरुपर्वतदिशीत्यर्थः 'छज्जोयणसहस्साई' षड़योजनसहस्राणि 'तिण्णिय चउवी से जोयणसए' त्रीणिव चतुर्विशतिर्योजनशतानि चतुर्विशत्यधिकानि त्रीणि योजनशतानि 'छच्च दसभाए जोयणस्स, षटू च दशभागान् योजनस्य 'परिक्खेवेणं ति' परिक्षेपेणेति, तस्या अन्धकारसंस्थिते सर्वाभ्यन्यतरिका बाहा मेरुपर्वतदिशिषइयोजनसहस्राणि चतुर्विशत्यधिकानि त्रिणी योजनशतानि षट् च दशभागान् ६३२४, योजनात्य परिधिना भवतीत्यर्थः। कथमेतादृशं सर्वाभ्यन्तरबाहायाः परिक्षेपप्रमाणं भवति तत्र युक्तिं सूत्रकारः स्वयमेव दर्शयति-से गं मंते' इत्यादि, 'सेणं भंते ! परिक्खेवविसेसे' स खलु भदन्त ! परिक्षेपविशेषः 'को पाहिएत्ति वएज्जा' कुतः-कस्मात् कारणात् एतादृश प्रकारक आख्यात इति एवं प्रकारेण सर्वाभ्यन्तर थाहा और दूसरी सर्ववाह्य बाहा' यहां तक का ग्रहण करलेना चाहिये-यही सब-यावस्पद द्वारा समझाया गया है (तीसे णं सळभंतरिया बाहा) उस अन्धकार संस्थिति की जो सर्वाभ्यन्तर थाहा है वह (मंदरपब्वतंतेणं छ जोयणसहस्साई चउवीसे जोयणसए छच्च दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणंति) मन्दर पर्वत के अन्त में परिधि की अपेक्षा मेरुपर्वत के समीप में-मेरुपर्वत की दिशा में छह हजार तीनसौ चौवीस योजन की तथा एक योजन के १० भागों में छ भाग प्रमाण है इतना परिधि का प्रमाण इसका कैसे होता है ? यही बात गौतमने प्रभु से (सेणं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्ति वएज्जा) इस सूत्रपाठ द्वारा पूछी है-इसके उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं-(जे ण આવેલું છે, તેવું જ આ બધું પ્રકરણ અહીં પણ તેની બે અનવસ્થિત બહાએ છે, એક સર્વાયંતર બાહા અને બીજી સર્વ બાહ્ય બાહા” અહીં સુધી ગ્રહણ કરી લેવું ये मा मधु यावत् ५४ प समजवामां आवे छे. 'तीसेणं सबभंतरिया बाहा' त म २ सस्थितिमा सत्यत२ मा । छे, ते 'मंदरपव्ययंतेणं छ जोयणसहस्साई चवीसे जोयणसए छच्च दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणंति' म १२५तिना परिधिनी અપેક્ષાએ મેરુપર્વતની પાસે મેરુપર્વતની દિશામાં ૬ હજાર ત્રણસે ૨૪ જન જેટલી તેમજ એક જનના ૧૦ ભાગમાં ૬ ભાગ પ્રમાણ છે. આટલું પરિધિનું પ્રમાણ આનું हैवी शते थाय छ ? ये पात गौतभाभीसे असुने ‘से भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएत्ति वएज्जा' मा सूत्रा6 43 पूछी छे. सेना सम प्रमुछे-'जेणं मदरस्स Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अम्बूद्वीपप्रतिस्त्र आख्यात:-कथित इति गौतमो बदेदिति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे' योऽयं खलु मन्दरपर्वतस्य-मेरुगिरेः परि• क्षेपः-परिधिः 'तं मंदरपरिक्खे' तं मन्दरपरिक्षेपं परिधिम्, त्रयोविंशति षट्शताधिकैकत्रिंशयोजनसहस्र ३१६२३ योजनप्रमाणकम् परिधिम् 'दोहिं गुणेत्ता' द्वाभ्यां गुणयित्वाद्वि संख्यया गुणनं कृत्वा सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थे सूर्ये तापक्षेत्रसंवन्धिनां त्रयाणाम् अपान्तराले (मध्यभागे) रजनीक्षेत्रस्य दशभागद्वय प्रमाणत्वात् 'दसहिं छेत्ता' दशभिच्छित्वा-दशसंख्यया भागं दत्वा, एतदेव पर्यायशब्देन पुनदर्शयति-'दसहि भागे हीरमाणे' दशभिर्भागे हियमाणे 'एसणं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वए जा' एषः पूर्वोक्तः परिक्षेपविशेषः-परिघिविशेष आख्यात:-कथित इति वदेदिति । सर्वाभ्यन्तरान्धकारवाहायाः परिधि दर्शयित्वा तस्या एवान्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्यबाहायाः परिक्षेपविशेष दर्शयितुमाह-'तीसेणं' इत्यादि, 'तीसेणं सचबाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेण' तस्या अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्ते लवणसमुदसमीपे तद्दोशीत्यर्थः 'तेसट्ठी जोयणसहस्साई' त्रिषष्टि योजनमंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे) हे गौतम ! मंदर पर्वत का जो परिक्षेप-परिधिका प्रमाण ३१६२३ योजन का कहा गया है (तं मंदरपरिक्खेवं) उस परिमाण को (दोहिं गुणेसा) दो से गुणित करके क्योंकि सर्वाभ्यन्तर मंडलस्थ सूर्य के होनेपर तापक्षेत्र संबन्धी तीनों के मध्य भाग में रजनीक्षेत्र का प्रमाण होता है फिर उस गुणित राशि में (दसहिं छेत्ता)१० का भाग देकरके (दसहि भागे हीर. माणे) अर्थात् उसके दश छेद करके (एसणं परिक्खेवविसेसे पाहिएति वएज्जा) यह पूर्वोक्त ६३२४. प्रमाण परिधि की अपेक्षा अन्धकार संस्थिति का आजाता है सर्वाभ्यन्तर अन्धकार बाहा की परिधि प्रकट करके उसी अन्धकार संस्थिति कीजो सर्ववाह्य वाहा है उसके परिक्षेप विशेष को प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं-(तीसेगं सम्वबाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेणं) उस अन्धकार संस्थिति की सर्वचाय पाहा लवणसमुद्र के अन्त में-लवणसमुद्र के पास-उसकी दिशा पव्वयस्स परिक्खे वे' हे गौतम ! म४२५ तना र परिश५ मे परिचित प्रभार 3१९२७ योन ४३वाभा मावस छे. 'तं मंदरपरिक्खे' ते परिमाणुन 'दोहिं गुणेत्ता' બે સંખ્યા વડે ગુણિત કરીને-કેમકે સર્વાત્યંતર મંડલસ્થ સૂર્ય જ્યારે થાય ત્યારે તા પક્ષેત્ર સંબંધી ત્રણેના મધ્યભાગમાં રજનીક્ષેત્રનું પ્રમાણ હોય છે–પછી તે ગુણિત રાશિમાં सहि छेत्ता' १० ॥४२ ४शत 'दसहिं भागे हीरमाणे' मेट , ४श-छ। शत 'एसणं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा' 20 पूर्वरित ६३२४ प्रमाण પરિધિની અપેક્ષાએ અંધકાર સંસ્થિતિનું આવી જાય છે. સભ્યન્તર અંધકાર બહાની પરિધિ પ્રકટ કરીને તેજ અંધકાર સંસ્થિતિની જે સર્વબાહ્ય બાહા છે, તેના પરિક્ષેપ विशेष प्रट ४२१। भाट सूत्रा२ ४ छ-'तीसेगं सव्व बाहिरिया बाहा लवणसमुदंते ते અંધકાર સંસ્થિતિની સર્વબાહ્ય બાહા લવણસમુદ્રના અંતમાં–લવણસમુદ્રની પાસે તેની Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् १०३ सहस्राणि 'दोणिय पणयाले जोयणसए' द्वेच पश्चचत्वारिंशद् योजनशते पञ्चचत्वारिंशदषिकं योजनशतद्वयमित्यर्थः 'उच्च दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' षट् च दशभागान् योजनपरिक्षेपेण भवति, तस्या अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्य बाहा पूर्वतोऽपरतश्च परमविष्कम्भः लवणसमुद्रान्ते त्रिपष्टिं योजनसहस्राणि द्वेच पश्चचत्वारिंशदधिके योजनशते षट्च ६३२४५,. दशभागान् योजनपरिक्षेपेण-परिधिना भवतीत्यर्थः। कथमेतादृशः परिक्षेपविशेषः, तत्र युक्ति स्वयमेव सूत्रकारः प्राह-'सेणं' इत्यादि, 'से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे को पाहिएति वएज्जा' सोऽयं भदन्न! अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्य शहाया एतादृशः परिक्षेपविशेष:परिधिः कुतः-कस्मात् कारणात् एतादृश आख्यात इति वदेत् इत्यं गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! जे णं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता जाव तं चेव' योऽयं जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः ३१६२२८ एतावत्प्रमाणकः तं जम्बूद्वीपपरिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिच्छित्वा दशभिर्भागे ह्रियमाणे एषः परिक्षेप में हैं और (तेसट्ठी जोयणसहस्साई दोणि य पणयाले जोयणसए छच्च दस भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं) इसके परिक्षेप का परिमाण ६३२४५ :- योजन का है यह अन्धकार संस्थिति की सर्वबाहय बाहा पूर्व से पश्चिम तक है और इसकी परिधिका प्रमाण पूर्वोक्त है। (सेणं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिए तिवएज्जा) अब गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! अन्धकार संस्थिति की सर्ववाहय बाहा का इतना परिक्षेप विशेष किस कारण कहा गया है कहिये? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा! हे गौतम! (जे णं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता जाव तं चेव) जम्बूद्वीपका जो परिक्षेप ३१६२२८ योजन का कहा गया है-उसे द्विगुणित करके उस में १० का भाग देना चाहिये इस तरह अन्ध संस्थिति की सर्व बाहय बाहा का परिक्षेप निकल आता है अब तम अन्धकार-के आयामादि को जानने के लिये गौतमस्वामी प्रभु से प्रश्न करते हैं शामा छे भने 'तेसदी जोयणसहस्साई दोण्णि य पणयाले जोयणसए छच्च दसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' माना प२ि२५नु परिभाएर १३२४५३१. यौन २८९ छे. मा અંધકાર સંસ્થિતિની સર્વબાહ્ય બાહા પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી છે અને આની પરિધિનું प्रमाण पूर्वरित छ 'से भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएति वएज्जा' गौतमस्वामी પ્રભુને આ જાતને પ્રશ્ન કર્યો છે કે-હે ભદંત! અંધકાર સંસ્થિતિની સર્વબાહ્ય બહાને આટલે પરિક્ષેપ વિશેષ શા કારણે કહેવામાં આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा !' 3 गौतम ! 'जे णं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता जाव तं चेव' જંબદ્વીપને જે પરિક્ષેપ ૩૧૬૨૨૮ જન જેટલું કહેવામાં આવે છે–તેને દ્વિગુણિત કરીને તેમાં ૧૦ ને ભાગાકાર કરે જોઈએ. આ પ્રમાણે અંધકાર સંસ્થિતિની સર્વબાહ્ય બહાને પરિક્ષેપ નીકળી આવશે. હવે તમ-અંધકારના આયામરિના સંબંધમાં જાણવા Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिरले विशेष आख्यात इतिवदेत् इति ॥ ___ सम्प्रति-तमस आयामादिकं ज्ञातुं प्रश्नयनाह-'तयाणं' इत्यादि, 'तयाणं भंते ! अंधयारेकेवइए आयामेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! तदा सर्वभ्यन्तरमण्डलसश्चरकाले अन्धकारः कियता आयामेन-दैर्येण प्रज्ञप्त:-कथित इति गौतमस्य प्रश्नः,भगानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठहत्तर जोयणसहस्साई' अष्ट सप्तति योजनसहनाणि 'तिणि य तेत्तीसे जोय जसए' श्रीणि च यस्त्रिंशद् योजनशतानि, प्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजन शतानीत्यर्थः, 'सिमाग च आया मेणं पण्णते' त्रिभागं च योजनस्यायामेन-देर्येण प्रज्ञप्त:-कथितः, अन्धकारस्तु अष्ट सप्ततिसहस्राणि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि त्रिभागं चैकस्य योजनस्य ७८३३३, केन आयामेन प्रज्ञप्त इत्यर्थः। अवस्थिततापक्षेत्र संस्थित्यायामवद् अत्रापि आयामो ज्ञातव्या, तेन मेरुपर्वत संबन्धि पञ्चसहस्रयोजनानि अधिकानि मन्तव्यानि,सूर्यप्रकाशाभाववति क्षेत्रे स्वभावत एव अन्धकार साम्राज्यात् गिरिकन्दरादौ तथा प्रत्यक्षतो दर्शनादिति ॥ ___ यथा पूर्वानुपूर्वी व्याख्यानाङ्गं तथैव पश्चानुपूर्वी अपि व्याख्यानाङ्गमिति कृत्वा सम्पति(लयाणं भंते । अंधयारे केवइए आयामेणं पण्णत्ते) हे भदन्त सर्वाभ्यन्तर मंडल में संचकरण काल में अन्धकारका आयाम कितना कहा गया है ? इसके उत्सर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! अट्टहत्तरि जोयणसहस्साई) हे गौतम ! ७८ हजार (तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसए) ३३३ (तिभागं च आयामेणं पण्णत्ते) योजन जितना है, अवस्थित तापक्षेत्र की संस्थिति के आयाम की तरह यहां पर भी आयाम जानना चाहिये इस से मेरुपर्वत संबंधि पांच हजार योजन अधिक मानना चाहिये सूर्य प्रकाशाभाव वाले क्षेत्र में स्वभाव से ही अन्धकार का साम्रल्प होने से गिरिकन्दरादि कों में-ऐसा प्रत्यक्ष से हो देखा जाता है. जिस तरह पूर्वानुपूर्वी व्याख्यानका अङ्ग होता है उसी प्रकार पश्चानुपूर्वी भी व्याख्यान का अङ्ग है ऐसा समझकर अब गौतमस्वामी पश्चानुपूर्वी के द्वारा भाटे गौतमस्वामी प्रभुने प्रश्न ४३ छ-'तयाणं भंते ! अंधयारे केवइए आयामेणं पण्णत्ते है ભદંત! સર્વાયંતર મંડળમાં સંચરણકાળમાં અંધકારનો આયામ કેટલે કહેવામાં આવેલ છે ? भेना पक्षमा प्रभु डे 2-'गोयमा ! अदुहत्तरि जोयणसहस्साई' गौतम ! ७८ तर 'तिण्णि य तेत्तीसे जोयणस्स' 333 'तिभागं च आयामेणं पणत्ते' ३ योशन सा छे. અવસ્થિત તાપક્ષેત્રની સંસ્થિતિના આયામની જેમ અહીં પણ આયામ જાણુ જોઈએ. આથી મેરુપર્વત સંબંધી પાંચ હજાર ચેજને અધિક માનવા જોઈએ. સૂર્યપ્રકાશના અભાવવાળા ક્ષેત્રમાં સ્વભાવથી જ અંધકારનું સામ્રાજ્ય હોવાથી ગિરિ કંદરાદિકમાં-આ પ્રમાણે પ્રત્યક્ષ રૂપમાં જોવામાં આવે છે. જે પ્રમાણે પૂર્વાનુપૂર્વી વ્યાખ્યાનનું અંગ હોય છે, તે પ્રમાણે પશ્ચાનુપૂર્વી પણ વ્યાખ્યાનનું અંગ છે, આમ સમજીને હવે ગૌતમસ્વામી ! પશ્ચાનુપૂર્વી દ્વારા તાપક્ષેત્રની Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् पश्चानुपूा तापक्षेत्रपंस्थिति प्रष्टुम ह-जवाणं' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! सूरिए' यदा खल भदन्त ! मयः 'सव्वधाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' सर्वबाह्यमण्डलमुषसंक्रम्यसम्प्राप्य चारं गतिं चरति-करोति 'तयाणं किं संठिा तावविश्वत्तसंठिई एन्नत्ता' तदातस्मिन् झाले कि संस्थिता कीदृशी तापक्षेत्रस्य संस्थितिः संस्थान प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः, भगवानाह-'गो यमः' इत्यादि. 'गोयमा' हे गौतम ! 'उद्धी हकलंबुयापुप्फसंठाणसंठिया पन्नत्ता' ऊर्यमुखकलम्बुका पुष्पवदेव पुष्प संस्थानसंस्थिता प्रज्ञप्ता 'तं चेव सव्वं णेयध्वं' तदेव सर्वं नेतव्यम्, अयं भावः-सर्वाभ्यन्त मण्डलसंक्रमणकाले यादृशं तापक्षेत्रादेः संस्थान कथितम् अन्तः संकुचिता बहि विस्तृता अन्तवृत्ता बहिर्विपुला इत्यादिकं प्रकरणसमाप्तिपर्यन्तं तत् सर्वपत्रापि पश्चानुपूर्वीप्रकरण तम् ज्ञातव्यम्, बिस्तरभया दनुपयोगाश्च न तत्सर्वमत्र पुनख्यिते, विशेषजिघृक्षुभिः स्वयमेवोहनीयमिति । यदत्र पूर्वप्रकरणापेक्षया वैलक्षण्यं तद्द. ताप क्षेत्रकी संस्थिति के सम्बन्ध में पूछते हैं (जशाणं भंते ! सरिए सव्वबाहिरियं मंडलं उजसंकमित्ता चारं चरइ) हे भदन्न ! जब सूर्य सर्वबाद मंडलको प्राप्तकर अपनी गति करता है। तया णं किं संठिगा सावक्वित्तसंठिइ पन्नत्ता) तब-उस काल-तापक्षेत्र की संस्थिति कैसी कही गई है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोधमा ! उद्धीमुटकलंघुयापुप्फ संठोण संठिया पन्नत्ता) हे गौतम! उर्ध्वमुख किये गये कदम्ब पुष्प का आकार जैसा होता है उसी तरह का आकार तापक्षेत्र की संस्थिति का होता है। तात्पर्य इसका यही है कि सर्वाभ्यन्तर संडल में संक्रमण काल के जैसा लारक्षेत्रादि का संस्थान कहा गया है-अन्त: संकुचित और बाहर विस्तृत हादि प्रकरणको समाप्ति पर्यन्त वह सब यहां पर भी पश्चानुपूर्वी के अनुसार जानलेना चाहिये विस्तार होजाने के भय से तथा अनुपयोगी होने से वह सब यहां हम पुनः नहीं लिख रहे हैं। जानने की इच्छा वालों को वह प्रकरण वहीं से समझ लेना चाहिये उस पूर्व समितिका प्रश्न ४२-'जयाण ते ! सूरिए सव्वबाहिरिए मंडले उवसंकमित्ता चर चरइ' हे म..! ज्या सू 111307 पास ४ीने पोत गति ४२ छे. 'तया णं किं संउिशा ताबस्तिलटिई पन्नत्ता' ते म पनी स्थिति दी ४३मा सोना /Mi प्रमुछे-'गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुया पुप्फस ठाणसंठिया पन्नना' ३ गौतम ! येस ४६५ ५५५।२ प्रमाणे २४१२ लायछे, तो 15 २ प्रमाणे हे सर्वात्य तर મંડળમાં સંક ણ કા' . જે તા પક્ષે વશે નું સંસ: ન કહેવામાં આવેલું છે-અન્તઃ સંકુચિત અને બહારમાં વિસ્તૃત-ઇત્યાદિ પ્રકરણની સમાપ્તિ સુધી તે બધું અહીં પણ પનુપૂર્વે મુજબ વણી લેવું જોઈએ. વિસ્તાર ભયથી તેમજ અનુપયોગી હોવા બદલ તે બધું અહીં અમે ફરી લખતા નથી. જિજ્ઞાસુ લે કે આ પ્રકરણ વિશે ત્યાંથી જ જાણવા Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शयति- 'णवरं' इत्यादि, 'णवरं णाणतं जं अंधयारडिईए पुव्ववणियं पमाणं तं तावक्खित्तसंठिए णेraj' यदन्धकारस्थिते: पूर्वानुपुर्वी व्याख्यानावसरे वर्णितं प्रमाणम् ६३२४५ - इत्येवं रूपम्, तदत्र पश्चानुपूर्वी व्याख्यानावसरे तापक्षेत्रसस्थितेः प्रमाणं ज्ञातव्यम्, 'जं तावखित्तसंठिईए पुन्ववणियं पमाणं तं अंग्यारसंठिण पव्वंति' यत् प्रमाणं सर्वाभ्यन्तरमण्डलसञ्चरणकाले तापक्षेत्रसंस्थितेः पूर्ववर्णितम् ९४८६८० इत्येवं रूपं तदत्रान्त्रकारस्थि तेर्ज्ञातव्यम्, यदत्र तापक्षेत्रस्यात्पत्वमन्धकार संस्थितेचाधिक्यं दर्शितं तत्र मन्दasurari कारणम् । एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽभ्यन्तरवाद्या विष्कम्भे यत् तापक्षेत्रपरिमाणं ९४८६ इत्येवं रूपं तदत्रान्धकारसंस्थिते ज्ञतिव्यम्, यच्च तत्र विष्कम्भं अन्धकार संस्थितेः ६३२४, इत्येवं रूपं कथितं तदत्र तापक्षेत्रस्य ज्ञातव्यमिति । सू० ७ ॥ इति नवमं तापक्षेत्रद्वारं समाप्तम् ॥ 99 प्रकरण की अपेक्षा इस प्रकरण में जो विलक्षणता है वह (णवरं णाणत्तं जं अंधयारडई पुव्ववणियं पमाणं तं तावखित्तसंठिहए णेयच्वं ) इस प्रकार से हैपूर्वानुपूर्वी के अनुसार जो अन्धकार संस्थिति का प्रमाण ६३२४५, वर्णित किया गया है वह इस पश्चानुपूर्वी के अनुसार व्याख्यान करने पर तापक्षेत्र संस्थिति का प्रमाण जानना चाहिये (जं तावखित्तसंठिईए पुत्र्ववण्णियं पमाणं तं अंधार (संठिईए पति) तथा जो प्रमाण सर्वाभ्यन्तर मंडल में संचरण काल में ताप - क्षेत्र संस्थिति का पहिले वर्णित हुआ ९४८६८ है वह अन्धकार संस्थितिका जानना चाहिये जो यहां तापक्षेत्र में अल्पता और अन्धकार संस्थिति में आधिक्य प्रकट किया गया है उसमें मन्दलेश्याकत्व कारण है इसी तरह सर्वाभ्यन्तर मण्डल में अभ्यन्तर बाहा के विष्कम्भ में जो तापक्षेत्र का परिमाण ९४८६. ऐसा कहा गया है वह यहां अन्धकार संस्थिति का जानना चाहिये और जो वहां विष्कम्भ में अन्धकार संस्थिति का ६३२४, ऐसा प्रमाण कहा अयत्न पुरे ते पूर्व अरनी पपेक्षा या अरमां ने सिक्षणुता हे ते 'वर' णात्तं जं अधयारट्ठिए पुव्ववणियं पमाणं तं तावखित्त ठिए यव्वं ' या प्रमाणे छे. पूर्वाનુપૂર્વી મુજબ જે અંધકાર સસ્થિતિનું પ્રમાણ ૯૩૨૪૫ ત કરવામાં આવેલુ' છે તે આ પશ્ચાતુપૂર્વી મુજબ વ્યાખ્યાન કરવાથી તાપક્ષેત્ર સ ંસ્થિતિનુ' પ્રમાણ જાણી લેવું लेध्ये 'जं तावखित्तस ठिईए पुव्ववण्णियं पमाणं तं अंधयारस ठिईए णेयव्वंति' तेभ જે પ્રમાણુ સર્વોતર મડળમાં સંચરણુ કાળમાં તાક્ષેત્ર સ ંસ્થિતિનું પહેલાં વર્ણિત થયેલુ ૯૪૮૬૮ છે. તે અંધકાર સસ્થિતિનું જાણવુ જોઇએ. જે અહી તાપક્ષેત્રમાં અલ્પતા અને અધકાર સંસ્થિમાં આધિક્ય પ્રકટ કરવામાં આવેલુ છે તેમાં મલેશ્યાત્વ કારણ છે. આ પ્રમાણે સર્વાંતરમંડળમાં અભ્યંતર ખાઢાના વિષ્ણુભમાં જે તાપક્ષેત્રનું પરિમાણુ ૯૪૮૬૧ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલું છે તે અહીં અંધકાર Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् १०७ तापक्षेत्रद्वारं नवमं निरूप्य सम्प्रति-सूर्याधिकारादेतत्सम्बन्धिनं दुरासन्नादिदर्शनरूपं विचारं वक्तु कामो दशमं दूरासन्नादिद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं भंते ! सूरिया' इत्यादि, मूलम्-जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दोसंति मज्झंति य मुहत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति ? अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ? हंता गोयमा ! तं चेव जाव दीसंति । जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया उगमणमुहुत्तंसि य मज्झंति य मुहुर्तसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थसमा उच्चत्तेणं हंता तं चेव जाव उच्चत्तेणं । जइ णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि य मज्झंति य मुहुत्तंसि य अस्थमणमुहुतंसि सव्वत्थसमा उच्चतेणं, कम्हा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति मज्झंति य मुहुत्तंसि मूले दूरे य दोसंति अत्थमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दोसंति ? गोयमा! लेस्सापडिघाएणं उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति इति लेस्ताहितावेणं मझंति य मुहुतंसि मूले य दूरे य दीसंति लेस्सापडिघाएणं अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति एवं खलु गोयमा! तं चेत्र जाव दीसंति। जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति अगागयं खेतं गच्छति ? गोयमा ! णो तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पणं खेत्तं गच्छंति णो अणागयं खेत्तं गच्छंति । तं भंते ! किं पुटुं गच्छंति जाव नियमा छदिसिं. एवं ओभासेंति, तं भंते ! के पुटुं ओभासेंति, एवं आहारपयाइं णेयवाई पुट्ठोगाढमणंतर अणुमह आदि विसयाणुपुत्वीय जाव नियमा छदिसिं, एवं उज्जोवेति तवेंति पभाति । जंबुद्दीवे गं गया है वह यहां तापक्षेत्र का जानना चाहिये ॥७॥ तापक्षेत्र द्वार समाप्त ॥ સંસ્થિતિનું જાણવું જોઈએ. અને જે ત્યાં વિષ્ઠભમાં અંધકાર સંસ્થિતિનું ૬૩૨૪ આવું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલું છે તે ત્યાં તાપક્ષેત્રનું જાણવું જોઈએ. સૂત્ર—છા તાપક્ષેત્રદ્વાર-સમાસ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे छाया- 3 भंते ! दीवे सूरियाणं किं तीते खेत्ते किरिया कज्जइ पटुष्पणे किरिया कजइ अाए किरिया कजइ ? गोयमा ! यो तीए खेत्ते किरिया कज्जइ uscood कज्ज णो अणागए, सा भंते! किं पुट्टा कज्जइ गोयमा ! पुट्ठा कजइ णो अपुट्ठा कज्जइ जाव णियमा छद्दिसिं ति ॥ सू० ८ ॥ - जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सूर्यो उगमनमुहूर्ते दुरे व मूले च दृश्येते मध्यान्तिकमुहूर्ते मूले च दुरे दृश्येते अस्तमय मुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्ये ते हन्त गौतम ! तदेव यावद् दृश्येते जम्बूद्वीपे खलु मदन्त ! द्वीपे सूर्यो उद्नमुह चसध्यन्तिक मुहूर्ते चास्तमयनमुहूर्त्ते च सर्वत्र सम उवत्वेन हन्त तदेव यावदुत्वेन । यदि खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यो उद्गमनमुहूर्ते च मध्यान्तिकमुहूर्ते चास्ते च सर्वत्र समौ उच्चत्वेन कस्मात् खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यौ उद्गमनहु दूरे च मूले च येते माध्यातिमुहूर्ते दूरे च मूले दृश्येते अस्तमय मुहूर्ते दूरे व गूले च दृश्येते गौतम ! लेश्याप्रतिघान उद्गमनमुहूर्ते दूरे व मूले च दृश्येते इति लेश्याभितापेन मध्या न्तिकमुहूर्ते मूले च दूरे च दृश्ये ते, लेश्या प्रतिवातेनास्तमयन मुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्येते एवं खलु गौतम ! तदेव यावद्दृश्येते ! जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सूर्यौ किमतीतं क्षेत्र गच्छतः प्रत्युत्पन्नं क्षेत्रं गच्छतोऽनागतं क्षेत्रं गच्छतः ? गौतम ! नो अतीतं क्षेत्रं गच्छतः प्रत्युत्पन्नं क्षेत्रं गच्छतः नो अनागतं क्षेत्रं गच्छतः । तद् भहन्त ! किं स्पृष्टं गच्छतो यावत् नियमात् षदिशि, एवमवभासयतः, तद् भदन्त ! किं स्पृष्टमवमालयतः, एवमाहारपदानि तव्यानि स्पृष्टवान्वष्णुपदादिविषयः नुपूर्वीच यावनियमात् पइदिशि, उद्योतयतस्ततः प्रभास्यतः जम्बूद्वीपे खलु मदन्त ! द्वीपे कि सूर्ययोस्ती क्षेत्रे क्रिया क्रियते, प्रत्युत्पन्ने क्षेत्रे क्रिया क्रियते, अनागते क्षेत्रे क्रिया क्रिपते ? औतम ! नो अतीते क्षेत्रे क्रिया क्रियते प्रत्युत्पन्ने क्षेत्रे क्रिया क्रियते नो अनागते, सा भदन्त । किं स्पृष्टा क्रियते ? गौतम ! स्पृष्टा क्रियते नो अस्पृष्टा क्रियते यावनियमात् पदशि । सू० ८ ॥ टीका- 'जंबुद्दीवे ण भंते! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदना ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः ' सूरिया' सूर्यो - द्वौ आदित्यो ' उग्गममुहुत्तंसि दुरे य मूले य दीसंति' उद्गमनदूरान्नादि द्वार निरूपणम् 'जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि' इत्यदि टीकार्थ - गौतम स्वामी ने नवनतापक्षेत्र द्वार के सम्बन्ध में कथन सुनकर अब वे सूर्याधिकारके सम्बन्ध को लेकर ही इस सम्बन्धी दूरातनादि दर्शन रूप દૂરાસન્નાદિદ્વારનુ નિરૂપણ 'जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि' इत्यादि ટીકા –ગૌતમસ્વામીએ નવમ તાપક્ષેત્ર દ્વારના સ’ખ`ધમાં કથન સાંભળીને હવે તેઓ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाdिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् मुहतें दूरे च मूले च दृश्येते, तत्रोद्गमनमुदयः तथाचोदयोपलक्षिते मुहूर्ते समये दूरे च दृष्ट्रस्थानापेक्षया दूरे-व्यवहिते मूले च द्रष्टुः प्रतीत्यपेक्षया समीपे (भासन्ने) दृश्ये तेदृष्टिविषयौ क्रियेते, दर्शका हि जनाः स्वरूपतः सप्तचत्वारिंशद् योजनसहस्त्रैः समधिकैः व्यवहितम् उद्गमनास्तमयनसमये सूर्ग पश्यन्ति, तथापि आसन्नं समीपतरं मन्यन्ते, दरस्थितमपि अयं दूरे वर्तते इति न प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः । 'मशंति य मुहुर्तसि मूले य दुरे य दीसंति' मध्यान्तिकाहूर्त च मूले च दुरे च दृश्येते, तत्र मध्यो मध्यमः अन्तो विभागो गमनस्य दिवसस्य स मध्यान्तः स मध्यान्तो यस्य मुहूर्तस्य विद्यते स मध्यान्तिकश्चासौ मुहर्तश्चेति ममान्तिको मुहर्तः मध्यान्तिकमुहूर्तः मध्याहमुहत इत्यर्थः मध्यान्तिकमुहूर्त मुले द्रष्ट्रस्थानापेक्षया आसन्नदेशे दूरे च विप्रकृष्टे देशे द्रष्ट प्रतीत्यपेक्षया सूयौं दृश्येते, द्रष्टाहि विचार को जानने के अभिप्राय से प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया) हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके इसद्वीप में वर्तमान (सूरिया) दो सूर्य (उग्गमणमुहत्तंसि) उदय के समय-उदय काल से उपलक्षित मुहूर्त रूप समय-में (दरे य मूल य दोसंति) दृष्टा के स्थान की अपेक्षा दूर-व्यवहित रहने पर भी मूल दृष्टा की प्रतीति की अपेक्षा पास मे दिखलाई देते हैं। दर्शक जन स्वरूप से कुछ अधिक ४७ हजार योजन से व्यवहित भी सूर्य के उदगमन और अस्तमयन के समय में उसे दखते हैं तथापि वे उसे आसन्न सभीपतर-मानते हैं दूर रहने पर भी 'यह दूर है' ऐसा नहीं मानते हैं । (मज्झंति य मुहसि मले य दरे यदीमंति) मध्यह काल में दृष्टा जनों द्वारा अपने स्थान की अपेक्षा आसन्न देश में और दृष्टा जन की प्रतीति की अपेक्षा दूर देश में ये रहे हए हैं इस प्रकार से दो सूर्य देखे जाते हैं दृष्टा जन मध्याह्न समय में उदय और अस्तमयन प्रतीति को अपेक्षा आसन-पास सूर्य को देखता है क्योंकि उस સૂર્યાધિકારના સંબંધને લઈને આ સંદર્ભમાં કુરાસાદિ દર્શનફળ વિચારને જાણવાના मनिमाथी प्रभुने मा प्रमाणे पूछे छ-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया' ७ मत ! - दीपनाम २॥ द्वीपमा वर्तमान सूरिया' में सूर्यो 'उगामणमुहुत्तंसि' य मतेअध्ययी Salक्षत मुश्त ३५ समयमा 'दूरे य मूले य दीसति' ४टाना स्थाननी અપેક્ષાએ દૂર- અવહિત રહે છતાંએ મૂવ દટાની પ્રતીતિની અપેક્ષાએ સમીપમાં જોવા મળે છે. દર્શક સ્વરૂપ કરતાં કંઈક વધારે ૪૭ હજાર એજન કરતાં વ્યવહિત પણ સૂર્યના ઉદ્દગમન અને અસ્તમયનના સમયમાં તેને જુએ છે. તથાપિ તે તેને આસન્ન-સમીપતર માને છે, દૂર રહેવા છતાં એ-“આ દૂર છે એવું માનતા નથી. અહીં સર્વત્ર કાકુ વડે પ્રશ્નો કરવામાં આવેલા છે. એવું માનવું જોઈએ. એ પ્રશ્નોના मम प्रभु गौतमने ४ छ-'हंता गोयमा ! माडी 'हंत' श६ स्पीति भाट Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अम्बूद्वीपप्रचप्तिसूत्रे पुरुषो मध्याह्नसमये उदयास्तमयनप्रतीत्यपेक्षया आसन्ने सूर्य पश्यति तस्मिन् समये योजनशताष्टकेनैव व्यवहितत्वात्-मन्यते पुनरुदयास्तमयन प्रतीत्यपेक्षया व्यवहितमिति । 'अत्यमणमुहुत्तंसि दूरे य मूछे य दीसंति' अस्तमयनमुहूर्त सूत्रे यकारलोप आर्षत्वात्, दूरे द्रष्टस्थानापेक्षया विप्रकृष्टे, मूले च द्रष्ट्रप्रतीत्यपेक्षया आसन्ने दृश्येते, द्रष्टारो हि पुरुषाः स्वरूपतः सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्त्रैः समधिकैः ब्यवहितमस्तमयनकाले सूर्यं पश्यन्ति समीपतरं च मन्यन्ते विप्रकृष्टं सन्तमपि न प्रतिपद्यन्ते इति । अत्र सर्वत्र काक्वा प्रश्नो ज्ञातव्य इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त, गौतम ! हन्तशब्दः स्वीकारे 'तं चेव जाव दीसंति' तदेव यद्भवता अनन्तरमेव प्रश्नविषयीकृतं तत् तथैव यावद् दृश्येते, अत्र यावच्छन्देन जम्बूद्वीपे द्वीपे सूयौँ उद्गमन मुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्येते, मध्यान्तिकमुहूर्चे मूले च दूरे च दृश्येते अस्तमयनमुहूतं च दूरे च मूले च दृश्यते इति समय सूर्य १०८ योजनों से व्यवहित रहता है परन्तु वह उद्य और अस्तमयन प्रतीति की अपेक्षा उसे व्यवहित मानता है (अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले दीसंति) तथा अस्तमन काल में दृष्टा जन के स्थान की अपेक्षा विप्रकृष्ट दूर देश में रहने पर भी दृष्टा जन प्रतोति की अपेक्षा आसन्न देशमें वे देखे जाते हैं। देखने वाले मनुष्य स्वरूपतः कुछ अधिक ४७ हजार योजनों से व्यवहित भी अस्तमयन काल में सूर्य को देखते हैं। और उसे समीपतर रहा हुआ मानते हैं। दूर रहने पर भी यह दूर है ऐसा नहीं मानते हैं। यहां सर्वत्र ये काकु द्वारा प्रश्न किये गये हैं ऐसा जानना चाहिये इन प्रश्नों के उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं-'हंता गोयमा!' यहां हन्त शब्द स्वीकारोक्ति में प्रयुक्त हुआ है तथा च-हां गौतम ! 'तं चेव जाव दीसंति' जैसा तुमने इस प्रश्नों द्वारा हमसे पूछा है वह सब विषय वैसा ही है वही बात यहां यावत्पद द्वारा प्रकट की है-अर्थात् इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में दो सूर्य हैं-और वे उदय के समय में दृष्टा जनके प्रयुत येत छ, तथाय- गौतम ! 'तं चेव जाव दीसति' रेयुतमे अमन मा प्रश्नो દ્વારા પૂછયું છે તે બધું જ છે. એજ વાત અહીં યાવત્ પદ વડે પ્રકટ કરવામાં આવી છે. એટલે કે આ બુદ્ધી પનામક દ્વીપમાં બે સૂર્યો છે અને તેઓ ઉદયના સમયમાં દર્શકના સ્થાનની અપેક્ષાએ દૂર વ્યવહિત હોય છે, પરંતુ દષ્ટાની પ્રતીતિની અપેક્ષાએ તેઓ પાસે રહેલા જોવામાં આવે છે. મધ્યાહ્નકાળમાં દર્શક વડે પિતાના સ્થાનની અપેક્ષાએ આસન્ન દેશમાં રહેલા તે સૂર્યો દષ્ટાચનની પ્રતીતિની અપેક્ષાએ દૂર દેશમાં રહેલા છે, એવી રીતે જોવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે અસ્તનના સમયે તેઓ દૂર દેશમાં રહેવા છતાંએ સમીપ જોવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે જે પ્રમાણેને પ્રશ્ન ગૌતમસ્વામીએ કર્યો છે તે જ આ જવાબ પ્રભુએ આપે છે. હવે અહીં ચર્મચક્ષુવાળા અમારા જેવાની જાયમાન Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् १११ सम्पूर्णस्य प्रश्नसूत्रस्य संग्रहो भवति तथाच योऽयं प्रश्नः भवता कृतः स तथैवेति उत्तरम् । भत्र चर्मचक्षुषां मादृशानां जायमाना प्रतिती ज्ञानदृशां प्रतीत्या सह विरोधं माकरोतु इति संवादाय पुनः पृच्छति गौतमः 'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'सूरिया' सूर्यो 'उग्गमणमुहुत्तंसि य' उद्गमनमुहू च मध्यान्हकाले इत्यर्थः 'अत्थमणमुहूत्र्तसि य' अस्तमयनमुहूर्त च अस्तकाले इत्यर्थः 'सव्वत्थसमा उच्चत्तेणं' सर्वत्रोद्गमनादिकाल त्रयेऽपि समौ उच्चत्वेन, सर्वत्र सूयौं उच्चस्वेन समानौ-समानप्रमाणौ विषमप्रमाणौ वेतिप्रश्नः, अत्रापि काक्वा प्रश्नावगति भवतीति, भगवानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता तंचेव जाव उच्चत्तेणं' हन्त गौतम! तदेव यावदुच्चत्वेन, त्वया यत् पृष्टं तत् तथैव सर्वत्र सूर्य उच्चत्वेन, सर्वत्रोद्गममुहूर्त्तादिषु समौ-समव्यवधानी उच्चत्वेन, समभूतलापेक्षया, अष्टौ अष्टौ योजनशतानीति कृखा नहि अबाधितलोकप्रसिद्धी स्थान की अपेक्षा दूर व्यवहित होते हैं परन्तु दृष्टा की प्रतीति की अपेक्षा वे पास में रहे हुए दिखलाई देते हैं। मध्याह्न काल में दृष्टा जनों द्वारा अपने स्थान की अपेक्षा आसन्न देश में रहे हुए वे दृष्टाजन की प्रतीति की अपेक्षा दूर देश में रहे हुए दिखलाई पडते हैं। इसी तरह अस्तमयन के समय वे दूर देश में रहते हुए नजदीक दिखलाई देते हैं। इस तरह जैसा प्रश्न गौतमस्वामीने किया वैसा ही यह उत्तर प्रभुने दिया है। अब यहां चर्मचक्षु वाले हमारे जैसों की जायमान प्रतीति ज्ञानदृष्टि वालों की प्रतीति के साथ विरुद्ध न बनें इस ख्याल से गौतमस्वामी संवादक रूप में पुनः प्रभु से पूछते हैं-(जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तसि य मज्झंति य मुहुत्तसि य अत्थमणमुहत्तंसिय सव्वत्थ समा उच्चत्तण) हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में दो सूर्य उदय काल में, मध्याह्न काल में और अस्त काल में इस तरह तीनों कालों में ऊंचाईकी अपेक्षा समान है-समान प्रमाण वाले हैं ? या विषम प्रमाण वाले है ? इस પ્રતીતિ જ્ઞાનદષ્ટિવાળા લોકેની પ્રતીતિની સાથે વિરુદ્ધ બને નહીં આ વિચારથી ગૌતમસ્વામી संपा६४ ३५मा ३३ प्रभुने प्रश्न ४२ छे. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया उगामण मुहुत्तसि य मझंतिय मुहुत्तंसिय अस्थमणमुहुत्तंसिय सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं' 3 महत ! 20 दी५. નામક દ્વીપમાં બે સૂર્યો ઉદયકાળમાં અને અસ્તકાળમાં આ પ્રમાણે ત્રણે કાળમાં ઉચ્ચતાની અપેક્ષાએ સમાન છે–સમાન પ્રમાણવાળા છે ? અથવા વિષમ પ્રમાણુવાળા છે? એના rqाममा प्रमुश्री ४३ छ–'हंता, एवं जाव उच्चत्तण' i गौतम ! यम, मध्याहકાળમાં અને અસ્તકાળમાં અને સૂર્યો ઉચ્ચતાની અપેક્ષાએ સમાન પ્રમાણુવાળા છે–વિષમ પ્રમાણુવાળા નથી. સમભૂતલની અપેક્ષાએ તેઓ આઠ-આઠસો જન જેટલે દૂર છે. આ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र प्रतीतिं वयमपलपामः, अत्र यावत्पदेन-जम्बूद्वये सूयौं उद्गमनमुहर्ते अस्तमयन मुहूर्ते च समौ सर्वत्रोच्चत्वेनेति संपूर्णस्यैव प्रश्नवाक्यस्य संग्रहो भवति, स्वीकारेण प्रश्नवाक्यस्यैवोत्तरवाक्यरूपत्वादिति ॥ - तीर्थङ्करोक्तमनुवदन् गौतमोऽत्र संविप्रतिवीज प्रष्टुमाह-'जइर्ण' इत्यादि, 'जइणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया' यदि खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपनाम के द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे सूर्यो 'उग्गमण हुत्तंसि य मज्झंति य मुहूत्तंसि य अत्यमणमुहुत्तंसिग समा उच्चत्ते उद्गमनमुहूर्ते च मध्यान्तिकमुहूर्ते चास्तमयनमुहूर्ते च समौ तुल्यावेवोच्चत्वेन तदा-'कम्हाणं भने ! जंबु. दीवे दीवे सूरिया' कस्मात् कारणान खलु भदन्त ! जम्बूद्वी नागके द्वीपे सूयौं 'उग्गमणमुहत्तंसि दूरे मूले य दीसंति मज्झंति य मुसि मूठे दूरे यदीसंति अत्थमणमुरतं सि य दरे मूले य दीसंति' उद्गमनमुहूर्ते च दुरे मूले च दृश्य मध्यान्तिकहूर्ते च मूले च दूरे च दृश्येते अस्तमयनमुहूर्ते च दूरे मूले च दृश्येते, अर्थात् यदि सूर्यः सर्वत्रोच्चत्वेन समान के उत्तर में प्रभु कहते हैं-(हंता, तं चेव जाव उच्चत्तेण) हां गौतम ! उदय काल में मध्याह्न फाल में और अस्तकाल में दोनों सूर्य ऊंचाई की अपेक्षा समान प्रमाणवाले हैं-विषमप्रमाणवाले नहीं हैं। सम भूतल की अपेक्षा वे आठ सौ योजन की दूरी पर हैं। इस तरह हम अबाधित लोक प्रतीति का अपलाप नहीं करते हैं। .. अब गौमत्वमी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(जहणं भंते ! जंबुद्दीवे दीये सूरिया) हे भदन्त ! यदि जम्बूद्रीप नाम के द्वोप में दो सूर्य (उग्गमणमुहु तसि य) उदयका में (मति य मुहत्तंसि य अत्यप्रणाहुतंति व समा. उच्चत्तेगं) मध्याह काल में और अस्त काल में उच्चताकी अपेक्षा समान प्रमग वाले हैं (कम्हागं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे सूरिया) तो फिर किस कारण से वे दो सूर्य (उग्गमणमुहुरासि दूरे मूले य दीसंति, मज्झति य मुहत्तंसियमूले दूरे य दीसंति अत्थमगनुहुत्तंसिय दूरे भूले ५ दी संति) उदयकाल में दूर रहते પ્રમાણે અમે અબાધિતક પ્રતીતિને આલાપ કરતા નથી. હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને આ प्रमाणे प्रश्न छ-'जइणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया' महत ! भूद्री५ नाम द्वीपमा में सूर्यो 'उग्गमणमुहुत्तंसि य' उ६५४मा 'मज्झति य मुहुत्तंसि य अस्थमणमुहुत्तंसि य समा उच्चत्तेणं' भयानमा मन मतमा २यतानी अपेक्षा समान प्रमाणपाणी छे. 'कम्हाणं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे सूरिया' तो पछी ॥ ॥२९४थी ते मे सूर्यो 'उगमणमुहुत्तसि दूरे मूले य दीसंति मज्ज्ञंति य मुहुत्तसि मूले दूरेय दीसंति अत्थमण मुहुरंसिय दूरे मूले यदीसंति' ઉદયકાળમાં દૂર રહેવા છતાં તેઓ સમીપ દેખાય છે. મધ્યાહ્નકાળમાં પાસે રહે છે છતાંએ દર જોવામાં આવે છે અને અતકાળમાં દૂર રહેવા છતાંએ પાસે દેખાય છે? તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જે સૂર્ય સર્વત્ર ઉચ્ચતાની અપેક્ષાએ બરાબર પ્રમાણુ વાળે છે Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् एव तदा उद्गमनादिमुहूर्तेषु कथं भिन्नरूपेण लोकानां प्रतीतिविषयो भवति, प्रतीयते च प्रातः काले सायङ्काले च दूरसमीपवर्ती मध्याह्नसमये च दूरवर्तीति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम! 'लेस्सापडिघाएणं उगामणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंतित्ति' लेश्या प्रतिघातेन, तत्र लेश्यायाः सूर्यमण्डलगततेजसः प्रतिघातेन दृरतरत्वा दुदयदेशस्य तदपसरणेनेत्यर्थः उद्गमनमुहूतं च दुरे मूले च दृश्येते, लेश्यायाः प्रतिघाते सुखदृश्यत्वेन स्वभावतो दूरस्थोऽपि सूर्यः लोकानामासनप्रतीति समुत्पादयति, 'लेस्साहितावेणं' लेश्याभितापेन लेश्यायाः सूर्यमण्डलगततेजसः अभितापेन प्रतापेन सर्वत स्तेजसो विसर्पणेनेत्यर्थः ‘मझंति य मुहुत्तंसि मूले दुरे य दीसंति' मध्यान्तिकमुहूर्ते मूले च दूरे च दृश्येते, मध्याह्नसमये समीपस्थोऽपि सूर्यः तीव्रतेजसा दुर्दर्शत्वेन लोकानां दूरप्रतीतिं जनयति, एवमेव समीपत्तित्वेन दीप्तलेश्याकत्वं दिवसवृद्धि धर्मादयश्च, तथादूरतरत्वेन मन्दलेपाकत्वं दिवसहानि शीतादयश्च भावा वक्तव्याः, इति । 'लेस्सापडिघाएणं अस्थमणमुहत्तंसि दूरे मूले य दीसंति' लेश्याप्रतिघातेन लेश्यायाः-सूर्यमण्डलगततेजसः प्रतिघा तेन दुरतरत्वात् अस्तमयनमुहर्ते दूरे च मृले च दृश्यते, लेश्याप्रतिघातात् सुखदृश्य स्वेन स्वभावतो दूरस्थोऽपि सूर्यः लोकानां समीपबुद्धिं जनयतीति, 'एवं खलु गोयमा ! तंचेव हुए पास में दिखते हैं, मध्याह्नकाल में पास में रहते हए दर दिखते हैं और अस्तकाल में दूर रहते हुए पास में दिखाते हैं ? तात्पर्य इस प्रश्न का यही है कि यदि सूर्य सर्वत्र ऊंचाई की अपेक्षा घराबर प्रमाणवाला है तो उद्गमनादि कालों में वह भिन्न रूप से लोकों की प्रतीति का विषय क्यों होता है ? प्रातः काल और सायंकाल वह दूर समीपवर्ती एवं मध्याह्न काल में वह दूरवर्ती प्रतीत तो होता ही है इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं (गोयमा! लेस्सा. पडिघाएणं उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंतित्ति) हे गौतम ! सूर्यमण्डल गत तेज के प्रतिघात से उदय देश के दूरतर होने के कारण तेज के नहीं તે પછી ઉમિનાદિકાળમાં તે ભિન્ન રૂપથી લેકેની પ્રતીતિને વિષય શા માટે થાય છે? પ્રાતઃકાલમાં અને સાયંકાલે તે દૂર-સમી પવતી તેમજ મ દ્વકાળમાં નિકટવતી હોવા छतांमे २वती प्रतीत थाय है. सेना वासभा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! लेस्सा पडिघाएणं उगमणगुहुत्तंसि दुरे यह मूले बीसंतीत्ति' ३ गीत ! भात तेना प्रतिवातथा ઉદય પ્રદેશ દ્વરતર હોવાશે તે ની અાપ્તિથી ઉદયકાળમાં તે સ્વભાવતઃ દૂર હોય છે પરંતુ લેસ્થાના પ્રતિઘાતના કારણે સુખદશ્ય હેવાથી તે પાસે છે એવું દેખાય છે. 'लेस्साहितावेणं' मने न्यारे सूर्य भगत ते प्रय' २६ लय छे तम सत्र व्यास थ/ Mय छे त्यारे ते 'मज्झतिय गुहुतंसि मूले दूरेय दीसंति' मध्याह्नमा २१वत: Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जाव दीसंति' एवम्-उपर्युक्तप्रकारेण बलु गौतम ! तदेव याद् दृश्यते इति । अत्रापि यावत्पदेन सम्पूर्णस्य प्रश्नवाययस्योत्तरवाक्यस्य ग्रहणं भवति संगृह्य चोपसंहरन् प्रकरणार्थ परिसमापयतीति दशमं दुरासन्धादि द्वारं समाप्तमिति ॥ १० द्वारम् ।। उद्गमनास्तमयनादीनि सूर्यादिज्योतिष्कदेवानां संचरणतो भवतीति सूर्यादीनां गमन प्रश्नाय एकादशं गतिद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मरिया' फैलने से उदय काल में वह स्वभावतः दूर होता है परन्तु लेश्या के प्रतिघात के कारण सुख दृश्य होने से वह पास में रहा हुआ है ऐसा प्रतीत होता है 'लेस्साहितावेणं' और जब सूर्यप्रण्डलगन तेज प्रचण्ड हो जाता है तथा सर्व और फैल जाता है तब वह 'मज्झति य सुदुत्तंसि नूले दूरे य दीसंति' मध्याह्न काल में स्वभावतः पास रहने पर भी दूर दिखाई देता है क्योंकि वह प्रचण्ड तेज के कारण दुर्दर्शनीय हो जाता है अतः वह दूर रहा हुआ है ऐसी लोकों को प्रतीति उत्पन्न होने लगती है। इसी कारण सूर्य के समीपवती होने पर वह प्रचण्डतेजवाला हो जाता है, उस समय दिवस की वृद्धि हो जाती है तथा गर्मी बढ़ जाती है और जब वह दूरतर होता है उस समय वह मन्द तेजबाला रहता है, दिवस की हानि हो जाती है और शीत आदि पडने लगती है 'लेस्सा. पडिघाएणं अस्थमणमुहुसि दुरे मूले यदीसंति' अस्तमन काल में सूर्यमण्डल गत तेज के प्रतिघात हो जाने से वह स्वभावतः दूरतर हो जाता है परन्तु वह पास रहा हुआ है ऐसा प्रतीत होता है (एवं खलु गोयमा ! तं चेव जाव दी संति' इस कारण हे गौतम ! जहा तुमने प्रश्न किया है उसी के अनुसार यह उत्तर वाक्य है अर्थात तुम्हारा प्रश्न ही स्वीकृलि के रूप में मेरा उत्तर है दूरासन्मादि द्वार समाप्त । પાસે રહેવા છતાંએ દૂર જોવામાં આવે છે કેમકે તે પ્રચંડ તેજને લીધે દુર્દશનીય હાય છે. એથી તે દૂર રહે છે, એવી લોકોને પ્રતીતિ થવા માંડે છે. આ કારણથી જ સૂર્ય સમીપવત હોવા છતાં તે પ્રચંડ તેજવાળે થઈ જાય છે, તે વખતે દિવસની વૃદ્ધિ થઈ જાય છે તેમજ ગરમી વધી જાય છે અને જ્યારે તે દૂરતર થઈ જાય છે, તે સમયે તે મંદ તેજવાળ થઈ જાય છે. દિવસની હાનિ થાય છે અને શીત વગેરે પડવા માંડે છે. 'लेस्सा पडिघाएणं अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे मूले य दीसंति' २५स्तानमा सूर्य भगत भने। પ્રતિઘાત થઈ જાય છે તેથી તે સ્વભાવતઃ દૂરતર હોય છે, પરંતુ તે પાસે રહે છે એવી प्रताति थाय छे. 'एवं खलु गोयमा ! तं चेत्र जाव दीसंति' मा ४१२९थी २ प्रमाणे तमे प्रश्न કર્યો તે પ્રમાણે આ ઉત્તરવાય છે. એટલે કે તમારા પ્રશ્નની સ્વીકૃતિના રૂપમાં મારે જવાબ છે. છે દૂરાસન્નાદિદ્વાર સમાન છે Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्यनम्बूद्वीपे सूर्यो 'fiतीय खेतं गच्छंति' किमतीत क्षेत्रं गच्छतः तत्र किमतीतं पूर्वमेव गतिविषयोकृतं यत् क्षेत्रं तत् गच्छतोऽतिक्रामतः किम्, अथवा 'पडणं खेतं गच्छति' प्रत्युत्पन्नं वर्तमान गतिविषयी क्रियमाणं क्षेत्र गच्छतः, स्वकीयगत्या अतिक्रामतः अथवा अनागतम्-गति विपधीकारिण्यमाणं क्षेत्रं गच्छतः स्वकी यगत्याऽतिक्रामतः, एतावता यत् आकाशखण्डं सूर्यः स्वकीयतेजसा व्याप्नोति तत् क्षेत्रपदेनोच्यते तेनास्य अतीतादि व्यवहारविषयत्वं न सम्भवति अनाद्यनन्तत्वादिति शङ्का निराकृता भवति, गतेरतीतादिव्यवहारविषयत्वसंभवादिति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो तीयं खेतं गच्छंति' अत्र 'अमानोना प्रतिषेधे' गति द्वार कथन 'जंबुद्दोवे णं दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छंति' हे-भदन्त ! उद्गमन अस्तमयन आदि जो द्वार प्रकट किये गये हैं वे सूर्यादि जो ज्योतिष्क देव हैं उनके संचरण से होते हैं-अतः इस सम्बन्ध में मेरी ऐसी जिज्ञासा है कि जम्बूद्वीप में जो दो सूर्य हैं वे क्या अतीत क्षेत्र पर-पूर्व काल में जिस क्षेत्र पर उनका संचरण हुआ है-संचरण करते हैं ? या 'पडप्पन्नं खेत्तं गच्छति' वर्तमान क्षेत्र पर-जिस पर वे चल रहे हैं-संचरण करते हैं ? या 'अनागतम्' अनागतक्षेत्र पर-जो उनकी गति का विषय होने वाला है संचरण करते हैं ? जितना आकाश खण्ड सूर्य के तेज से व्याप्त होता है वह यहां क्षेत्र पद से गृहीत हुआ है इस कारण इस में अतीतादि का व्यवहार होना संभवित नही होता हैं क्यों कि क्षेत्र तो अनादि अनन्त है सो इस प्रकार की शंका निरस्त हो जाती है क्यों कि गति में अतीतादि का व्यवहार हो सकता है अब गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! नो तीयं खेत्तं गच्छंति' हे गौतम ! ગતિદ્વારનું કથન __ 'जंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छंति' है महत शमन अतिभयन वगैरे જે દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવેલા છે, તે સૂર્યાદિ જે તિષ્ક દેવે છે, તેમના સંચરણથી થાય છે. એથી આ સંબંધમાં મારી એવી જિજ્ઞાસા છે કે જે બૂદ્વીપમાં જે બે સૂર્યો છે તે શું અતીત ક્ષેત્ર પર પૂર્વકાળમાં જે ક્ષેત્ર પર તેમનું સંચરણ થયેલું છે-સંચરણ કરે छ ? अथवा 'पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छति' पतभान । ५२-रेन। ५२ ते। यासी २॥ हैसय२९५ ४२ छ ? अथवा 'अनागतम् ' मनायत क्षेत्र ५२२ तभनी गतिना विषय थनार છે. સંચરણ કરે છે? એટલે આકાશખંડ સૂર્યના તેજથી વ્યાપ્ત થાય છે તે અહીં ક્ષેત્ર પદ વડે ગૃહીત થયેલ છે. આ કારણથી આમાં અતીતાદિને વ્યવહાર સંભવિત નથી કેમકે ક્ષેત્ર તે અનાદિ-અનંત છે, તેથી આ જાતની શંકા નિરસ્ત થઈ જાય છે કેમકે ગતિમાં અતીતાદિને વ્યવહાર થઈ શકે છે, હવે ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં પ્રભુ કહે Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र इति नियमात् नो शब्दो निषेधार्थ : ततश्च हे गौतम ! तौ सूयौं अतीतं क्षेत्रं नातिक्रामतः अतीतक्रियाविषयीकृते वस्तुनि वर्तम निकक्रियाया असंभषेन तादृशक्रियाया व्याप्तेरभावात्, किन्तु 'पडुप्पणं खेत्तं गच्छंति' प्रत्युत्पन्न वर्तमानकालिक क्षेत्रं सूर्यो गच्छतोऽतिक्रामतः स्वकीयगत्या, वर्तमानक्रियायोग्ये वस्तुनि वर्तमानक्रियायाः संभवात् ‘णो अणागयं खेत्तं गच्छंति त्ति' नो अनागतं क्षेत्रं गच्छत इति, अत्रापि नो शब्दो निषेधार्थकः तथाच सूर्यो अनागतं भविष्यदगतिक्रियोपलक्षिनं क्षेत्रं स्वकीय वातैमानिक गति क्रयया न व्याप्नुतः, भविष्यत् क्रियायोग्ये वस्तुनि वर्तमानक्रियाया असंभवादिति । ____ सम्प्रति-गतिविषयी कृतं क्षेत्र कीदृग्भवेदिति प्रष्टुमाइ-'तं भंते' इत्यादि, 'तं मंते ! किं पुढे गच्छंति जाव नियमा छद्दिसिं' तत क्षेत्रं खलु भदन्त ! सूयौं स्पृष्टं-स्पर्शनक्रिया विषयीकृतं गच्छतः, आहोसिद-स्पृष्टं गच्छतो यावनिषणात् षइदिशि, अत्र यावत्पादेन 'किं अपुढे गच्छति, गोयमा ! पुढे गच्छं ते नो अपुढे गच्छंति, तं भंते ! भोगाई गच्छति जम्बूद्वीपस्थ दो सूर्य अतीत क्षेत्र पर संचरण नहिं करते हैं । 'अमानोना प्रतिषेध' के अनुसार यहां नो शब्द निषेधार्थक है । अतीत क्रिया द्वारा विषयी कृत वस्तु में वर्तमान काल तक क्रिया की असंभवता है अतः ऐसी क्रिया द्वारा व्याप्ति की असंभवता से 'पडुप्पन्न खेत्तं गच्छति' वे दो सूर्य वर्तमान कालिक क्षेत्र पर संचरण करते हैं, तथा वर्तमान क्रिया योग्य वस्तु में वर्तमान क्रिया की ही संभवता होती है अतः 'णो अणागयं खेत्तं गच्छंति ति' वे दो सूर्य-अनागतक्षेत्र पर संचरण नहीं करते हैं। __'तं भंते ! कि पुटुं गच्छंति जाव नियमा छद्दिसिं' अब गौतमस्वामी प्रभु श्री से ऐसा पूछते हैं कि गति विषयी कृत क्षेत्र कैसा होता है ? क्या हे भदन्त ! वह उन दो सूर्यो को स्पर्शन क्रिया द्वारा स्पृष्ट होता है उस पर ये मंचरण करते हैं ? या वह उनकी स्पर्शन क्रिया द्वारा अस्पृष्ट छ-'गोयमा ! नो तीयं खेत्तं गच्छंति' गौतम ! बी५२५ मे सूर्या मातीत क्षेत्र ५२ संय२५ ४२ता नथी. 'अमानोना प्रतिषेध' भुम बही 'नो' श निषेधार्थ छे. अतीत ક્રિયા વડે વિષયીકૃત વસ્તુમાં વર્તમાનકાળ સુધી ક્રિયાની અસંભવતા છે એથી આવી ક્રિયા 43 व्यासिनी असमाथी ‘पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति' मे सू पत मानस क्षेत्र પર સંચરણ કરે છે તેમજ વર્તમાન કિયા યોગ્ય વસ્તુમાં વર્તમાન ક્રિયાની જ સંભવતા खराय छे. मेथी ‘णो अणागयं खेत्तं गच्छति ति' ते मे सूर्या मनात क्षेत्र ५२ सय२५ ४२॥ नथी. 'तं भंते ! किं पुटुं गच्छंति जाव नियमा छदिसिं' के गीतमस्वामी प्रसुन की રીતે પ્રશન કરે છે કે ગતિ વિષયી કૃત ક્ષેત્ર કેવું હોય છે ? હે ભદંત ! શું તે બે સૂર્યોની સ્પર્શન ક્રિયા વડે પૃષ્ટ હોય છે. તેની ઉપર તે સંચરણ કરે છે? અથવા તે તેમની પન ક્રિયા વડે અપૃષ્ટ હોય છે. તેની ઉપર તે સંચરણ કરે છે? અહીં યાવત્ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् अणोगाढं गच्छंति, गोयमा ! ओगाढं गच्छंति णो अणोगाढं गच्छति, तं भंते ! कि अणंतरोग.ढं गच्छंति परंपरोगाढं गच्छति ? गोयमा ! अगंतरोगाढं गच्छंति णो परंपरोगाढं गच्छति, तं भंते ! किं अणुं गच्छंति बायरं गच्छंति, गोयमा ! अणुपि गच्छंति बायरंपि गच्छंति, तं भंते ! किं उद्धं गच्छंति अहेगच्छंति ? तिरियं गच्छंति, गोयमा ! उद्धंपि गच्छंति तिरियपि गच्छंति, अहेवि गच्छंति, तं भंते ! किं आई गच्छंति, मज्झे गच्छंति पजवसाणे गच्छति ? गोयमा ! आइंपिगच्छति, मज्झे वि गच्छति, पज्जवसाणे वि गच्छंति, तं भंते ! कि सविसयं गच्छंति अविसयं गच्छंति ? गोयमा ! सविसयं गच्छति णो अविसयं गच्छंति, तं भंते ! किं आणुपुब्धि गच्छंति अणाणुपुधि गच्छंति ? गोयमा ! आणुपुचि गच्छंति णो अणाणुपुब्धि गच्छंति, तं भंते ! किं एगदिसिं गच्छति छदिसि गच्छंति ? गोयमा! होता है-उस पर ये संचरण करते हैं ? यहां यावत्पद से इस प्रकार का यह पाठ गृहीत किया गया है-'किं अपुढे गच्छंति ? गोयमा ! पुटुं गच्छंति, नो अपुटुं गच्छंति तं भंते ! ओगाढं गच्छंति, अणोगाढं गच्छंति ? 'गोयमा! ओगा गच्छंति नो अणोगाढं गच्छंति तं भंते ! कि अणंतरोगाढं गच्छति परंपरोगाढं गच्छंति ? तं भंते ! किं अणुं गच्छति, बायरं गच्छंति ? गोयमा ! अगुपि गच्छंति बायरं पि गच्छति तं भंते ! कि उद्धं गच्छति अहे गच्छति तिरियं गच्छंति ? गोयमा! उद्धं पि गच्छंति अहे वि गच्छंति तिरिय पि गच्छंति तं भंते ! किं आइं गच्छंति, मज्झं गच्छंति, पज्जवसाणे गच्छति ? गोयमा ! आई पि गच्छति मज्झे वि गच्छति, पज्जवसाणे वि गच्छति तं भंते ! किं सविसयं गच्छति, अविसयं गच्छंति ? गोयमा ! सवि. संयं गच्छति, णो अविसयं गच्छंति तं भंते ! किं आणुपुबि गच्छति अणाणुपुचि गच्छंति ? गोयमा ! आणुपुर्दिव गच्छंति णो अणाणुपुदिव गच्छंति तं भंते ! किं एगदिसि गच्छंति छद्दिसिं गच्छंति ? गोयमा ? नियमा छदिसिं गच्छंति' ५४थी 20 प्र४२ने। ५४ गृहीत ये! छे. 'किं अपुढे गच्छंति ? गोयमा ! पुटुं गच्छंति, नो अपुटुं गच्छति तं भंते ! ओगाढं गच्छति, अणोगाढं गच्छंति ? गोयमा ! ओगाढं गच्छंति नो अणोगाढं गच्छंति तं भंते ! कि अणंतरोग.ढं गाच्छंति परंपरोगाढं गच्छंति ? गोयमा ! अणंतरोगाढं गच्छति णो पर परोगाढं गच्छति तं भंते ! कि अणुं गच्छति, बायर गच्छंति ? गोयमा । अणुपिं गच्छंति बायर पि गच्छंति तं भंते ! किं उद्धं गच्छति अहे गच्छंति तिरियं गच्छंति? गोयमा ! उद्धपि गच्छंति अहे वि गच्छंति तिरियं वि गच्छंति तं भंते ! किं आई गच्छंति, मझं गच्छंति, पजवसाणे, गच्छति ? गोयमा! आईपि गच्छंति मज्झे वि गच्छति, पज्जवसाणे वि गच्छंति तं भंते ! किं सविसयं गच्छंति, अविसयं गच्छंति ? गोयमा ! सविसयं गच्छंति, णो अविसयं गच्छति तं भंते ! किं आणुपुधि गच्छंति अणाणुपुर्दिव गच्छंति ? गोयमा ! आणुपुरि गच्छति णो अणाणुपुद्धि गच्छंति तं भंते ! किं एगदिसिं गच्छति छहिसि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे नियमा छदिसि । एतत्पर्यन्तस्य प्रकरणस्य यावत्पदेन ग्रहणं भवति । स्पृष्टं गच्छतः अस्पृष्टं वा गच्छतः, गौतम ! स्पृष्टं गच्छतो नो अस्पृष्टं गच्छतः, तत् भदन्त ! किमवगाढं गच्छतोऽनवगाढं गच्छतः ? गौतम ! अवगाढं गच्छतो नो अनवगाढं गच्छतः, तद्भदन्त ! किमनन्तरावगाढं गच्छतः परंपरावगाढं गच्छतः ! गौतम ! अनन्तरावगाढं गच्छतः नो परम्परा वगाढं गच्छतः । तद् भदन्त ! किमणुं गच्छतः बादरं गच्छतः ? गौतम ! अणुमपि गच्छतः बादरमपि गच्छतः, तद् भदन्त ! किमूवं गच्छन: अधोगच्छतः तिर्यग् गच्छतः ? गौतम ! ऊर्ध्वमपि गच्छतः तिर्यगपि गच्छतः अधोऽपि गच्छतः, तद् भदन्त ! किमादि गच्छतो मध्ये गच्छतः पर्यवसाने गच्छतः गौतम ! आदावपि गच्छतो मध्येऽपि गच्छतः, पर्यवसानेऽपि गच्छतः, तद भदन्त ! कि सविषयं गच्छतोऽविषयं गच्छतः ? गौतम ! सविषयं गच्छनो नो अविषयं गच्छतः, तद् मदन्त ! किपानुपूर्व्या गच्छतः अनानुपूर्व्या गच्छतः ? गौतम ! आनुपूर्व्या गच्छतो नो अनानुपूर्व्या गच्छतः, तद् भदन्त ! किम् एकदिशि गच्छतः षडदिशि गच्छतः ? गौतम ! नियमतः षड्दिशि इतिच्छाया ॥ ___अथास्य प्रकरणस्य यावत्पदग्राह्यसहितस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते,-तथाहि-तं भंते ! किं पुढे गच्छंति अपुटुंति' हे भदन्त ! तौ सयौँ किं तत् क्षेत्रं गम्यमानं क्षेत्रं किञ्चित् स्पृष्टमति क्रम्य ते यथा अपवरकक्षेत्रम् किम्वा गम्यमानं तत् क्षेत्रमस्पृष्टं गच्छतो यथा देहलीक्षेत्रम् तदत्रका प्रकार इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पुढे इस पाठ की व्याख्या इस प्रकार से है-उस गम्यमान क्षेत्र में जो वे सूर्य सञ्च रण करते हैं सो क्या उस क्षेत्र को वे छूते हुए संचरण करते हैं या विना छूते हए सश्चरण करते हैं ? जिस प्रकार कोई व्यक्ति जब अपनी कोठो आदि में सञ्चरण करता है तो वह उसके कितनेक प्रदेशों को स्पृष्ट करता है और देहली आदि की तरह कितनेक प्रदेशों को स्पृष्ट भी नहीं करता है इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-गौतम ! वे गम्यमान क्षेत्र को छूते हुए चलते हैं विना छूते हए नहीं चलते हैं । जिस गम्यमान क्षेत्र को ये स्पृष्ट करते हुए चलते हैं वह क्षेत्र ओगाढ-सूर्यबिम्ब के द्वारा आश्रयोकृत होता है या अनवगाढ-आश्रयी कन नहीं होता है. अनधिष्ठित होता है ? गच्छंति ! गोयमा ! नियमा छद्दिसि गच्छंति' म पनी व्याभ्या या प्रमाणे छ. यमान ક્ષેત્રમાં જે તે સૂર્યો સંચરણ કરે છે તે શું તે ક્ષેત્રને સ્પર્શીને તે સંચરણ કરે છે. અથવા અસ્કૃષ્ટ થઈને સંચરણ કરે છે? જે પ્રમાણે કોઈ વ્યક્તિ જ્યારે પિતાના મકાન વગેરેમાં સંચરણ કરે છે તે તેના કેટલાક પ્રદેશને સાશ કરે છે અને ઉંબરા વગેરે કેટલાક પ્રદેશોને સ્પર્શ કરતું નથી એના જવાબમાં પ્રભુશ્રી કહે છે. હે ગૌતમ! તે ગમ્યમાન ક્ષેત્રને સ્પર્શતા ચાલે છે, સ્પર્શ કર્યા વગર ચાલતા નથી. જે ગમ્યમાન ક્ષેત્રને એ સ્પર્શ કરતાં ચાલે છે તે ક્ષેત્ર એગાઢ-સૂર્યબિંબ વડે આશ્રયીકૃત હોય છે અથવા અનવગાઢ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ द्रासन्नादिनिरूपणम् गच्छंति नो अपुढे गच्छंति' स्पृष्टमेव क्षेत्रं गच्छतो नो अस्पृष्टं क्षेत्रं गच्छत इति । इह खलु सूर्यस्य बिम्बेन सह स्पर्शनं सूर्यबिम्बावगाहक्षेत्रादन्यत्रापि संभव स्पर्शनाया-अवगाहनातोऽधिकविषयत्वात् तस्मात् कारणात् पुनः प्रश्नयति-'तं भंते' इत्यादि, 'तं भंते !' तत् क्षेत्रं खलु भदन्त ! 'ओगाढं गच्छंति, अणोगाढं गच्छति' स्पृष्टं क्षेत्रमवगाढम् -सूर्यबिम्बेनाश्रयीकृतमधिष्ठितं गच्छतोऽथवा-अनवगाढं सूर्यबिम्बेन सहानाश्रयीकृत मनधिष्ठितं गच्छत इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ओगादं गच्छंति नो अणोगाढं गच्छति' अवगाढमेव क्षेत्रं गच्छतः सूयौं, नो अनवगाढं क्षेत्रं गच्छतः, आश्रितस्यैव क्षेत्रस्य त्याग संभवात् ननु अनाश्रितस्य त्यागो भवतीति । 'तं भंते ! किं अणंतरोगाढं गच्छंति परंपरोगाढं गच्छति' तद भदन्त ! किम् अनन्तरावगाढम् अव्यवधानेनाधिष्ठितं क्षेत्रं गच्छतः अथवा परम्परावगाढं व्यवधानेनाधिष्ठितं क्षेत्रं गच्छत इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणंतरोगाढं गच्छंति णो परंपरोगाढं गच्छंति' अनन्तरावगाद क्षेत्र गच्छतः सूयौं न परम्परावगाढं क्षेत्रं गच्छतः, अयं भावः-यस्मिन आकाशखण्डे यः सूर्यमण्डलावयवः अव्यवधानेनावगादः स सूर्यमण्डलावयवः तमेवाकाशखण्डं गच्छति नतु पुनरपर मण्डलावयवावगाढम् तस्य व्यवहितत्वेन परम्परावगाढत्वादिति । तच्चानन्तरावगाढं क्षेत्रमल्प इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम ! वे सूर्य अबगाढ क्षेत्र पर ही चलते हैं अनवगाढ क्षेत्र पर नहीं चलते हैं। क्योंकि आश्रित क्षेत्र का ही त्याग संभव है, अनाश्रित क्षेत्र का नहीं । 'तं भंते किं अणंतरोगाढं गच्छंति परंपरो गाढं गच्छंति' हे भदन्त ! उन सूर्यों द्वारा जो क्षेत्र अबगाढ होता है कि जिस पर ये चलते हैं वह अनन्तरावगाढ-किसी व्यवधान से अव्यवहित होता है, या व्यवधान से व्यवहित होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! वह क्षेत्र व्यवधान विना का होता है व्यवधान सहित नहीं होता है। तात्पर्य ऐसा है कि जिस आकाश खण्ड में जो सूर्य मण्डलावयव अव्यधान से अव गाढ है वह सूर्यमण्डलावयव उसी आकाश स्वण्ड में चलता है अपर मण्डलागाढ आकाश खण्ड में नहीं चलता है । क्योंकि व्यवहित होने से उसमें परम्पराઆશ્રયીકૃત હેતા નથી–અનધિષ્ઠિત હોય છે? એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે હે ગૌતમ ! તે સૂર્યો અવગાઢ ક્ષેત્ર પર જ ચાલે છે, અનવગાઢ ક્ષેત્ર પર ચાલતા નથી. કેમકે माश्रित क्षेत्रमा त्या समवे छे. मनाश्रित क्षेत्र न. 'तं भंते ! कि अणंतरो गाढं गच्छंति पर परोगाढं गच्छंति' 8 महत! ते सूर्या १३२ क्षेत्र साढ जाय छ, કે જેના પર એ સૂર્યો ચાલે છે–તે અનંતરાવગાઢ-કઈ પણ જાતના વ્યવધાનથી અવ્યવહિત હોય છે. અથવા વ્યવધાનથી વ્યવહિત હોય છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે હે ગૌતમ ! તે ક્ષેત્ર વ્યવધાન વગરનું હોય છે. વ્યવધાન સહિત થતું નથી. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જે આકાશખંડમાં જે સૂર્યમંડલાવયવ અવ્યવધાનથી અવગાઢ છે તે Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्पद्वीपप्रतिसत्रे मपि स्थूलमपि सम्भवतीत्याशयेन पुनः प्रश्नयनाह-'तं भंते' इत्यादि, 'तं भंते ! किं अणुं गच्छंति बायरं गच्छति' हे भदन्त ! तदनन्तरावगादं क्षेत्रं किमणुरूपं गच्छतो बादरलक्षणं वा गच्छतः सूर्याविति प्रश्नः, भगवानाह-‘गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणुंपि गच्छंति बायरंपि गच्छंति' अप.पि क्षेत्रं सर्वाभ्यन्तरसूर्यमण्डलक्षेत्रापेक्षया गच्छतः बादरमपि क्षेत्रम् सर्वबाह्यमण्डळापेक्षया गच्छतः। तत्तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण गमनसंभवादिति । सूर्यस्य गमनंतु ऊर्धाधस्तिर्यग्र गतित्रयेऽपि संभवतीत्याशयेन पुनः पृच्छति-'तं भंते' इत्यादि, 'तं भंते ! किं उद्धं गच्छंति, अहे गच्छंति, तिरियं गच्छंति' हे भदन्त ! तत्अणुबादरलक्षणं क्षेत्रमूर्ध्व गच्छतः, किम्वा अधः क्षेत्र प्रतिगच्छतः, किम्वा तिर्यक् क्षेत्र वगाढता आती है। अनन्तरावगाढ क्षेत्र सूक्ष्म भी होता है और बादर भी होता है अतः गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है 'तं भंते ! कि अणुं गच्छंति बायरं गच्छंति" हे भदन्त ! वह अणुरूप अनन्तरावगाढ क्षेत्र पर चलता है या बादर रूप अनन्तरावगाढ क्षेत्र पर चलता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! अणुंपि गच्छंति, बायरंपि गच्छंति' हे गौतम ! वे अणुरूप अनन्तरावगाढ क्षेत्र पर भी चलते हैं और बादर रूप अनन्तरावगाढ क्षेत्र पर भी चलते हैं। अनन्तरावगाढ क्षेत्र में जो अणुता प्रतिपादित हुई है वह सर्वाभ्यन्तर सूर्यमण्डलकी अपेक्षा से प्रतिपादित हुई है और वादरता सर्व पाह्य मण्डल की अपेक्षा से प्रतिपादित हुई है। सूर्यो का गमन उस उस चक्रवाल क्षेत्र के अनुसार होता है अतः गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है "तं भंते ! किं उद्धं गच्छंति अहे विगच्छंति तिरियवि गच्छति' हे भदन्त ! सूर्य क्या अणुवादर रूप उध्यक्षेत्र में गमन करते हैं? या अधः क्षेत्र से गमन करते हैं? या तिर्यक क्षेत्र में गमन करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं સૂમંડલાવયવ તેજ આકાશખંડમાં ચાલે છે. અવર મંડલા વગાઢ આકાશખંડમાં ચાલતે નથી. કેમકે વ્યવહિન હોવાથી તેમાં પરંપરાગાઢતા આવે છે. અનંતરાવગાઢ ક્ષેત્ર સૂકમ પણ હોય છે, અને બાદર પણ હોય છે. એથી ગૌતસ્વામીએ પ્રભુને આવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે 'तं भंते ! कि अणुगच्छति बादरं गच्छति' महत! ते १३५ मनताद क्षेत्र પર ચાલે છે અથવા બાદર રૂ૫ અનંતરાવગઢ ક્ષેત્ર પર ચાલે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ -'गोयमा ! अणु पि गच्छति, बायर पि गच्छति' गीतम! ते २१३५ मनात. ગાઢ ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે અને બાદરૂપ અનંતરાવગાઢ ક્ષેત્ર ઉપર પણ ચાલે છે. અનંતરાવગઢ ક્ષેત્રમાં જે અણુ ના પ્રતિપાદિત થઈ છે તે સર્વાત્યંતર સૂર્યમંડળની અપેક્ષાએ પ્રતિપાદિત થયેલ છે અને બાદરતા સર્વ બાહ્યમંડળની અપેક્ષાએ પ્રતિપાદિત થયેલી છે. સૂર્યોનું ગમન તતત્ ચક્રવાલ ક્ષેત્રો મુજબ હોય છે. એથી ગૌતસ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે प्रश्न : छ. 'तं भंते ! कि उद्धं गच्छंति अहे गच्छंति तिरियं गच्छति' मत!शु सूर्य અણુનાદર રૂ૫ ઊર્ધ્વ ક્ષેત્રમાં ગમન કરે છે ? અથવા અધઃ ક્ષેત્રમાં ગમન કરે છે ? અથવા तिय क्षेत्रमा गमन ४२ छ ? उत्तरमा प्रभु ४ छे--'गोयमा ! उद्धंवि गच्छंति अहे वि गच्छंति, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् १२१ प्रतिगच्छतः सूर्याविति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोममा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! "उद्धपि गच्छति, अहेवि गच्छति, तिरियंपि गच्छति' ऊर्ध्वमपि गच्छतोऽधोऽपि गच्छत स्तिर्यगपिं गच्छतः, ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्त्वं च योजनैकषष्टिभागलक्षणचतुर्विंशतिभागप्रमाणोत्सेधापेक्षया भवतीति ज्ञातव्यमिति । अत्र गमनं नाम क्रियाविशेषः, क्रिया च बहुसामयिकीत्वात् त्रिकाळ - संपाचा अतः भादिमध्यान्तविषयक प्रश्नमवतारयति - 'तं भंते' इत्यादि, 'तं भंते ! आई गच्छति मझे गच्छति पज्जवसाणे गच्छति' तत् क्षेत्र खलु भदन्त ! किमादौ गच्छतो यहांमध्ये गच्छतः किम्बा पर्यवसाने गच्छत इतिप्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आईपि गच्छेति मझेवि गच्छंति पज्जरसाणेवि गच्छति' आदावपि गच्छतो मध्येsपि गच्छतः पर्यवसानेऽपि गच्छतः, अर्थात् षष्टिमुहूर्त्त प्रमाणकस्य सूर्यमण्डल संक्रमणकालस्य आदावपि मध्येऽपि अन्तेऽपिच तौ सूर्यो गच्छत इति । 'तं भंते! किं सविसयं गच्छंति अविसयं गच्छति' अथ तद्भदन्त ! स्वविषयं स्वोचितं क्षेत्र गच्छतः अथवा 'गोयमा ! उद्धपि गच्छंति, अहे वि गच्छंति, तिरियं वि गच्छंति' हे गौतम! वे उर्ध्व क्षेत्र में भी गमन करते हैं अधः क्षेत्र में भी गमन करते हैं और तिर्यक क्षेत्र में भी गमन करते हैं। क्षेत्र में उर्ध्वता अवस्ता और तिर्यक्ता योजन के ६१ भागों में से २४ भाग प्रमाण उत्सेधकी अपेक्षा से होती है । गमन यह किया विशेष रूप है और क्रिया बहुत समय वाली होती है इसलिये वह त्रिका द संपाचा होती है. इस कारण गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है 'तं भंते! आई गच्छंति, मज्झे गच्छंति, पज्जवसाणे गच्छंति' हे भदन्त ! उस क्षेत्र पर वे सूर्य षष्टि मुहूर्त प्रमाण वाले सूर्य मंडल संक्रमण काल की आदि में चलते हैं या मध्य में चलते हैं ? या अन्त में चलते हैं ? इसके अन्तर में प्रभु कहते हैं है गौतम ! वे सूर्य उसकाल की आदि में भी उस क्षेत्र पर चलते हैं मध्य में भी वे उस क्षेत्र पर चलते हैं और अन्त में भी वे उस क्षेत्र पर चलते हैं ! 'तं भंते ! सिरियं बि गच्छंति' डे गौतम! तेथे उर्ध्व क्षेत्रमां पशुगमन रैछे, अधः क्षेत्रमां पशुगमन पुरै . છે અને તિય’ઇંગ ક્ષેત્રમાં પણ ગમન કરે છે. ક્ષેત્રમાં `તા, અધસ્તા અને તિયા ચેાજનના ६१ लागोभांथी २४ लोग प्रभाणु उत्सेधनी अपेक्षाये होय छे. 'गमन' मा डिया विशेष રૂપ છે અને ક્રિયા અધિક સમયવાળી થાય છે. એથી તે ત્રિકાલ સ’પાઘા હેાય છે. આ કાણુથી गीतभस्वाभीये प्रभुने मा लतने प्रश्न छे- 'तं भंते! आई गच्छंति, मज्झे गच्छति, पज्जवसाणे गच्छंति' हे महंत ! ते क्षेत्र पर ते सूर्ये षष्टि भुहूर्त प्रभाणुवाणा सूर्यभडण સક્રમણકાળના પ્રાર'ભમાં ચાલે છે. અથવા મધ્યમાં ચાલે છે ? અથવા અન્તમાં ચાલે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે હે ગૌતમ ! તે સૂર્યાં તે કાળના પ્રારંભમાં પણુ તે ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે મધ્ધમાં પશુ તે ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે અને અંતમાં પણ તે ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે. ज० १६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जम्मूहापासिर अचिसयं वा स्वानुचितं क्षेत्रं गच्छति इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' है गौतम ! 'सविसयं गच्छंति णो अविसयं गच्छंति' स्वविषयं स्पृष्टावगाढनिरन्तरावगार स्वरूपं क्षेत्र गच्छतो न तु अविषयमस्पृष्टानवगाढपरम्परावगाढं क्षेत्र गच्छतः, अस्पृष्टानकगाढपरम्परावगाढक्षेत्राणां गमनायोग्यत्वात् इति । 'तं भंते ! किं आणुपुब्बिं गच्छति अणाणुपुर्वि गच्छंति' तत् क्षेत्र भदन्त ! सूयौं आनुपूर्व्या क्रमेण यथासन्नं गच्छतः, अथवा अनानुपा अक्रमेण अनासन्नं गच्छतः, अत्र सूत्रे 'आणुपुषि' इत्यत्र यद्यपि द्वितीयाविभक्ति देश्यते. तथापि सा तृतीया विभक्तौ परिणेतव्या इतिप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'पोयमा' हे गौतम ! 'आणुपुवि गच्छंति णो अणाणुपुन्धि गच्छंति' आनुपूर्व्या-क्रमेण गच्छतः सूयौं नतु अनानुपूर्त्या गच्छतः लोकप्रसिद्धव्यवस्थाहानिप्रसङ्गात् । किं सविसयं गच्छंति, अविसयं गच्छंति' हे भदन्त ! वे सूर्य स्वविषय स्वोचित क्षेत्र पर चलते हैं या स्वानुचित क्षेत्र पर चलते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा! सविसयं गच्छंति णो अविसयं गच्छंति' हे गौतम ! वे स्व विषय क्षेत्र पर चलते हैं अविषय क्षेत्र पर नहीं चलते हैं । अर्थात् जो क्षेत्र स्पृष्ट अव. माड एवं निन्तरावगाढ होता है वही क्षेत्र इनका स्व विषय है और इससे भिन्न अस्पृष्ट, अनवगाढ एवं परम्परावगाढ रूप है उस पर ये नहीं चलते हैं। क्योंकि ऐसे गमन के अयोग्य होते हैं 'तं भंते ! कि आणुपुन्धि गच्छंति अ. पासणुपुलिंब गच्छंति' हे भदन्त ! ये दोनों सूर्य आनुपूर्वी से-क्रम से आसविकट भूत हुए क्षेत्र पर चलते हैं या अक्रम से निकट भूत नहीं हुए क्षेत्र पर बसते हैं? यहां सूत्र में "आणुपुब्धि" यह द्वितीया विभक्ति तृतीया विभक्ति के रूप में परिणत करलेना चाहिये इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! आणु पुछि गच्छति णो अणाणुपुब्धि गच्छंति' हे गौतम ! ये दोनों सूर्य आनुपूर्वी से तभंते ! कि सविसय गच्छंति, अविसयं गच्छंति महत! ते सूर्या स्वविषय स्वायित ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે અથવા સ્વાનુચિત ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छ-'गोयमा ! सविसयं गच्छंति णो अविसयं गच्छंति' गौतम ! ते। स्वविय क्षेत्र ઉપર ચાલે છે, અવિશય ક્ષેત્ર ઉપર ચાલતા નથી. એટલે કે જે ક્ષેત્ર પૃષ્ટ અવગાઢ તેમજ નિરંતરાવગાઢ હોય છે, તેજ ક્ષેત્ર એમને વિષય હોય છે અને એનાથી ભિન્ન અસ્પષ્ટ અનવગાઢ તેમજ પરંપરાગઢરૂપ છે, તેની ઉપર એ ચાલતા નથી. કેમકે सेवा समन भाट अयोग्य डा छ 'तं भंते ! किं आणुपुब्धि गच्छंति, अणाणुपुट्विं गच्छंति' હે ભદંત ! એ બને સૂર્યો આનુપૂવથી કમપૂર્વક–આસન્ન-નિકટભૂત થયેલા ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે અથવા અક્રમ પૂર્વક નિકટભૂત નહિ થયેલા ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે? અહીં સૂત્રમાં 'आणुपुब्धि' मा द्वितीय nिlin तृतीया विमतिना ३५मा परिणत ४Na नये. अंना वाममा प्रय ४३ छ-'गोयमा ! आणुपुद्वि गच्छति णो अणाणुपुल्विं गच्छति' के Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सु. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् १२३ पूर्वोक्तमेव दिक्प्रश्नमाह - 'तं भंते ! किं एगदिसि गच्छंति छद्दिसिं गच्छति' तद् भदन्त ! froster विषयकं क्षेत्र गच्छतोऽथवा यावत् पद्दिग् विषयकं क्षेत्र गच्छत इतिप्रश्नः, मगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नियमा छद्दिसिं गच्छति' नियमात् ऋदिशि-नियमतः षदिविषयकं क्षेत्र गच्छतः, तत्र पूर्वादिषु तिर्यग्रदिक्षु च उदितः सम् स्फुटमेव गच्छन् दृश्यते सूर्यः ऊर्ध्वाधोदिगगमनं च यथा भवति तथा पर्वमेव दर्जितमिति पावत्पदग्राय प्रकरणं समाप्तम् ॥ सम्प्रति-प‍ - एतदेव वस्तु अतिदेश पूर्वक मवभासनादि सूत्राण्याह - ' एवं ओभासेंति' इत्यादि, 'एवं ओभार्सेति' एवं गमनसूत्रप्रदर्शितप्रकारेण सूर्यो अवभासयतः ईषदुद्योतयतः, यथा स्थूलतरमेव वस्तु दृश्यते तमेव प्रकारं संक्षेपेण सूत्रकारो दर्शयति- 'तं भंते' इत्यादि, 'तं 7 आसन्न हुए क्षेत्र पर ही चलते हैं अनानुपूर्वी से अनासन्न क्षेत्र पर नहीं चलते है। यदि ऐसा होने लगे तो लोकप्रसिद्ध व्यवस्था में हानि होने का प्रसङ्ग प्राप्त हो जाता है । 'तं भंते । किं एगदिसिं गच्छति छद्दिसि गच्छंति' हे भदन्त ! ये दोनों सूर्य क्या एक दिशा में एक दिशा विषयक क्षेत्र में चलते हैं या यावद छह दिशा विषयक क्षेत्र में चलते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! नियमा छद्दिसि' हे गौतम ! ये दोनों सूर्य नियम से छह दिशा विषयक क्षेत्र में चलते हैं। पूर्वादि दिशाओं में एवं तिर्यक्र आदि दिशाओं में उदित हुआ सूर्य स्फुट रूप से चलता हुआ दिखलाई देता है तथा उर्ध्व दिशा अधो दिशा में सूर्य का गमन जैसा होता है वैसा वह हमने पहिले प्रकट कर दिया है इस प्रकार यायस्वद ग्राह्य प्रकरण यहां तक समाप्त हुआ है 'एवं ओभासेति' इस प्रकार गमन सूत्र में प्रदर्शित प्रकार के अनुसार ये दोनों सूर्य ईषत् रूपमें स्थूलतर वस्तुको प्रकाशित करते हैं कि जिससे वह वस्तु दिखलाई देने लगती है इसी विषय को ગૌતમ ! એ બન્ને સૂર્ય આનુપૂર્વીથી આસન્ન થયેલા ક્ષેત્ર ઉપર જ ચાલે છે, અનાનુપૂર્વીથી અનાસન ક્ષેત્ર ઉપર ચાલતા નથી. જો આ પ્રમાણે થવા માંડે તે લેપ્રસિદ્ધ व्यवस्थाभां हानि थवानी स्थिति उत्पन्न थाय छे. 'तं भंते! किं एगदिसि गच्छति छद्दिसि રાજ્જીતિ' હું ભઈત ! એ બન્ને સૂર્યાં શુ એક દિશામાં—એક દિશાવિષયક ક્ષેત્રમાં ચાલે છે. अथवा यावत् छद्विशा विषय क्षेत्रमां न्यासे हे ? सेना स्वाभां प्रभु डे - 'गोयमा ! नियमा छद्दिसि डे गौतम ! से मन्ने सूर्यो नियमपूर्व ६ हिशाविषयक क्षेत्रमां या छे. पूर्वाह દિશાઓમાં તેમજ તિર્ વગેરે દિશાઓમાં ઉદિત સૂર્યાં સ્ફુટ રૂપમાં ચાલતા જોવા મળે છે. તેમજ ઉર્ધ્વ દિશા, અધાદિશામાં સૂતું ગમન જેવું હોય છે તેવું તે અમેએ પહેલા अरे छे. साप्रमाणे 'यावत् पद' थी ग्राह्य प्र४२ अत्रे समाप्त थयुं छे. 'एवं ગોમúતિ' આ પ્રમાણે ગમનસૂત્રમાં પ્રદર્શિત પ્રકાર મુજબ એ મને સૂર્યાં ઈષરૂપમાં સ્થૂલતર વસ્તુને પ્રકાશિત કરે છે. જેથી તે વસ્તુ જોવામાં આવે છે. એજ વિષયન સૂત્ર Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जम्बूद्वीपप्रतिस्त्रे भंते ! किं पुढे ओमासेंति' हे भदन्त ! तत् क्षेत्रं सूर्यो स्पृष्ठं-स्वस्य तेजसा व्याप्तम् अव. भासयतः किंवा अस्पृष्टं तेजसाऽव्याप्तं क्षेत्र मवभासयत इति प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! सूयौं स्वतेजसा व्याप्तमेव क्षेत्र मवभासयतो नतु स्वतेजसाऽव्याप्तं क्षेत्र मवभासयतः, दीपादि तैजसद्रव्याणां प्रकाशस्य गृहादिद्रव्यस्पर्शपूर्वकमेकावभासकत्वस्य दर्शनात् । ‘एवं आहार पयाई णेयव्वाई' एवं स्पृष्टपदप्रदर्शितप्रकारेण आहारपदानि चतुर्थोपाङ्गगताष्टाविंशतितमपदे आहारग्रहणविषयकानि द्वाराणि नेव्यानि, तद्यथा-'पुट्ठोगाढमणंतर अणुमहआदि विसयाणुपुत्वीय जाव णियमा छदिसिं' स्पृष्टावगाढ मनन्तरमणुमहदादि विषयाणुपूर्वी च यावभियमात् पदिशम्, प्रथमतोऽवभासनाहारादि द्वारेषु स्पृष्टविषयकं सूत्रं स्वमनसा प्रकल्प्य तद्सूत्रकार अब संक्षेप से प्रकट करते हैं 'तं भंते किं पुटुं ओभासें ति' हे भदन्त ! ये दोनों सूर्य उस क्षेत्र रूप वस्तु को स्पृष्ट करके प्रकाशित करते हैं अर्थात् अपने तेज से उसे व्याप्त करके उसका प्रकाशन करते हैं या अस्पृष्ट करके उसे प्रकाशित करते हैं ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम ! वे दोनों सूर्य अपने तेज से व्याप्त हुए ही उस क्षेत्र रूप वस्तुका प्रकाशन करते है अपने तेज से अव्याप्त हुए क्षेत्ररूपवस्तु का प्रकाशन नहीं करते हैं। यह तो हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि दीपादिक जो तैजस द्रव्य विशेष है उनका प्रकाश ग्रहादि द्रव्यों का जो प्रकाश करता है वह उनसे स्पृष्ट होकर ही करता हैअस्पृष्ट होकर नहीं करता है। 'एवं आहारपयाई णेयवाई स्पृष्टपद प्रदर्शित प्रकार के अनुसार अहारपदों को-चतुर्थ उपाङ्गगत अष्टाविंशतितमपद में आहार ग्रहण विषयक द्वारों को भी समझ लेना चाहिये-जैसे 'पुट्ठोगाढमणंतर अणु. मह आदि विसयाणुपुत्वीय जाव नियमा छद्दिसिं' अवभासन आहार आदि द्वारों में स्पृष्ट विषयक सूत्र अपने मन से बनाकर उसका व्याख्यान करना, २ व ५i ४८ ४२ छे. 'तं भंते ! कि पुटू ओभासेति' त ! ये मन्न સૂર્યો તે ક્ષેત્ર રૂપ વસ્તુને ધૃષ્ટ કરીને પ્રકાશિત કરે છે. એટલે કે પિતાના તેજથી તેને ભ્યાસ કરીને તેને પ્રકાશમાન કરે છે અથવા અસ્પષ્ટ કરીને તેને પ્રકાશિત કરે છે? એના पाममा प्रभु ४ छे. 'गोयमा !' 3 गौतम ! ते मन्न सूर्या पोताना तेश्या व्यास થયેલા તે ક્ષેત્રરૂપ વસ્તુનું પ્રકાશન કરે છે પિતાના તેજથી અવ્યાપ્ત થયેલી વસ્તુનું પ્રકાશન કરતા નથી. આ તે અમે સ્પષ્ટ રૂપમાં જોઈ શકીએ તેમ છીએ કે દીપાદિક જે તૈજસ દ્રવ્ય વિશેષ છે, તેમને પ્રકાશ ગૃહદિ દ્રવ્યોને જે પ્રકાશિત કરે છે, તે તેમના વડે પૃષ્ટ य ४२ छ. मष्ट ने नलि. 'एवं आहारपयाईणेयव्वाइ' स्पृष्ट ५४-प्रहશિત પ્રકાર મુજબ આહાર પદને-ચતુર્થ ઉપાંગગત અષ્ટવિંશતિતમ પદમાં આહાર अस विषय४ दारोने ५ सम नये. रेभ. 'पुढोगाढमणंतर अणुमहआदि विसयाणुपुब्धी य जाव नियमा छदिसि' अलासन माहार बोरे बारामा २Yष्ट विषय - Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् १२५ व्याख्यानं कर्तव्यम् तदनन्तरम् अवगाढसूत्रम् तदनन्तरम् अन्तरसूत्रम्, तदनन्तरम् अणुबादर सूत्रम्, तदनन्तरम् आदिमध्यपर्यवसानविषयकं सूत्रम्, तदनन्तरम् आनुपूय॑नानुपूर्वीसूत्रम्तदनन्तरं दिगादिसूत्रम्, तदनन्तरं नियमात् पदिग विषयकं सूत्रं निर्मातव्यम्, तत्रालापप्रकारस्तु इत्थम्-तथाहि-तं भंते ! पुढे ओभासेंति, अपुढे ओभासेंति ? गोयमा ! पुढे ओभासेंति णो अपुढे ओभासेंति, तं भंते ! भोगाद ओभासेंति अणोगाढं ओभासेंति ? गोयमा! ओगाढं ओभाति णो अगोगाढं ओभासेंति, तं भंते ! कि अणंतरोगा ओभासेंति परंपरो. गाढं ओभासेंति ? गोयमा ! अणंतरोगाढं ओभासेंति णो परंपरोगाढं ओभासेंदि, तं भंते ! किं अणुं ओभासेंति बायरं ओभासेंति ? गोयमा ! अणुंपि ओभासेति बायरंपि ओभासेंति, तं उसके बाद अवगाढ सूत्र अपने मन से बनाकर उसका व्याख्यान करना उसके पाद अन्तर सूत्र अपने मनसे रचकर उसका व्याख्यान करना इसके बाद अनु चादर सूत्र आने मन से रचकर उसका व्यख्यान करना उसकेबाद आदि मध्य और आत विषक सूत्र अपने मन से बनाकर उसका व्याख्यान करना, उसके याद विषय सूत्र उसके बाद आनुपूर्वी अनानुपूर्वी सूत्र उसके बाद दिगादि सूत्र उसके बाद नियम से छह दिशा विषयक सूत्र बनाकर उसका व्याख्यान करना इनका आलाप प्रकार इस प्रकार से है-'तं भंते ! पुढे ओभाति णो अपुढे ओभासेंति ? गोयमा! पुढे ओभासेंति जो अपुढे ओभासेंति तं भंते । ओगाढं ओभासेंति अणोगाढं ओभासेंति ? गोयमा! ओगाई ओभासेंति को अयो. गाढं ओभासेंति तं भंते ! किं अणंतरोगाई ओभासेंति परंपरोगा ओभाति गोयमा! अणंतरोगाढं ओभासेंति णो परंपरोगाढं ओभाति तं भंते ! कि ओभाति बायरं ओभासंति ? गोयमा ! अणुंपि ओभासेंति, वायरंपि ओभा. સત્ર પિતાના મત મુજબ બનાવીને તેનું વ્યાખ્યાન કરવું, ત્યાર બાદ અવગાઢ સત્ર પિતાના મત મુજબ બનાવીને તેનું વ્યાખ્યાન કરવું, ત્યાર પછી અન્તરસૂત્ર પિતાના મત મજ મ બનાવીને તેનું વ્યાખ્યાન કરવું, ત્યાર પછી અનુદાદર સૂત્ર પોતાના મનથી રચીને તેનું વ્યાખ્યાન કરવું, ત્યાર પછી આદિ, મધ્ય અને અન્તવિષયક સૂત્ર પિતાના મનથી બનાવીને તેનું વ્યાખ્યાન કરવું, ત્યાર બાદ વિષયસૂત્ર, ત્યાર બાદ આનુપૂર્વી – અનાનપવી સવ, ત્યાર પછી દિગાદિસૂત્ર, ત્યાર પછી નિયમપૂર્વક ૬ દિશાઓ વિષયક સૂત્ર બનાવીને तभन ॥ध्यान ४२ मा अधाना माता २ मा प्रभाव छ-'तं भंते ! ओभासे ति अपुटू' ओभासे ति ? गोयमा ! पुटुं ओभासे ति णो अपुटू ओभासे ति त भने। ओगाद ओभासे ति अणोगाढ ओभ से ति ? गोयमा ! ओगाढ ओभासेति णो अयोग ओभासेति त भंते ! कि अणंतरोगाढ ओभासे ति परंपरोगाढ ओभासे ति ? गोयमा। अांतरोगर्ट ओभासे ति णो पर परोगाढं ओभासें ति त भंते । कि अण'ओभर . ओमासे ति गोयमा ! अणुपि ओभासे ति, बायरंपि ओभासे ति त भंते ! कि उद्धं ओभामेंस Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जम्बूद्वीपप्रतिको भंते ! कि उद्धं ओभासेंति अहे भोभासेंति तिरिय ओभासेंति ? गोयमा ! उद्धं पि ओभासेंति अहेवि ओभासेंति तिरियपि ओभाति, तं भंते ! किं आई ओभातृ ति मज्झे ओभासेंति पज्जवसाणे ओभासेंति ! गोयमा ! आइपि ओभासेंति माझेवि ओमासेंति पजवसाणे वि ओभासें ति, तं भंते ! किं सविसयं ओभासेंति अविसयं ओभासेंति ? गोयमा' सविसयं ओभासेंति णो अविसयं आभासेंति, तं भंते ! किं आणुपुधि ओमासेंति अणाणुपुब्बि ओभासेंति ! गोयमा ! आणुपुब्धि ओभासेंति पो अणाणुपुब्धि ओमासेंति, तं भंते ! एगदिसिं ओभासेंति जाव छदिसि ओभासें ति ? गोयमा ! नियमा जाव छदिसि ओभासेंति' तद्भदन्त ! किं स्पृष्ट मवभासयतोऽस्पृष्टं वा अवभापयतः, गौतम ! स्पृष्ट मवभा सयतो नोऽपृष्टमवभासयतः, तद्भदन्त ! किमवगावरावभासयतोऽनवगाढमवभासयतः ? गौतम ! अवगाढमवभासयतो नो अनवगाढमत्रभासयतः, तद् भदन्त ! किमनन्तरावगाढमवभासयतः परम्परावगाढमवभासयतः ? गौतम ! अनन्तरावगाढमवभासयतो नो परम्परावगाढ मवभासयतः, तद् भदन्त ! किमणु-अवभासयतो बादर मवभासयतः ? गौतम ! अण्वपि अवभासयतो बादरमपि अवभासयतः, तद् भदन्त ! किमूर्ध्वमवभासयतोऽधोऽववभासयतः तिर्यग् अवभासयतः ? गौतम ! ऊर्ध्वमपि अबभासयतोऽधोऽपि अवभासयत स्तिर्यगपि अवमासयतः, तद् भदन्त ! किमादौ अवभासयतो मध्येऽवभासयतः पर्यवसा. नेऽप्रभासयतः, तद् भदन्त ! किं स्व विषय मवभासयतोऽविषयं वा अवभासयतः १ गौतम ! स्वविषयमवभासयतो नो अविषयमवनासयतः, तद भदन्त ! किमानुपूर्या अवभासयतो ऽनानुपाऽवमासयतः ? गौतम ! आनुपूर्व्या अभासयतो नो अनानुपूर्त्या अवभासयतः, से ति तं भंते ! किं उद्धं ओभासे ति अहे ओभासे ति, तिरियं ओभासे ति ? गोयमा ! उद्धपि ओभासें ति, अहेवि ओभासे ति, तिरियपि ओभासे ति 'तं भंते! कि आई ओभासें ति, मज्झे ओभासे ति, पज्जवसाणे ओभासें ति गोयमा ! आइंपि ओभासे ति, मझे वि ओभासें ति, पज्जवसाणे वि ओभासे तितं भंते ! किं सविसयं ओभासे ति, अविसयं ओमासे ति ? गोयमा! सविसयं ओभासे ति णो अविसयं ओभासे ति तं भंते ! किं आणुपुद्धि ओभासे ति, अणाणुपुलिंच ओभासेंति ? गोयमा ! आणुपुचि ओभासें ति णो अणाणुपुत्वि ओभासेंति तं भंते ! कि एगदिसि ओभासे ति जाव छद्दिसिं ओभासेति? अहे ओभासें ति, तिरियं ओभासे ति ? गोयमा ! उद्धंपि ओभासे ति, अहेवि ओभासे ति, तिरियवि ओभासें ति, त भंते ! कि आई ओभासे ति, मज्झे ओभासें ति, पज्जवसाणे ओभासें ति, गोयमा ! आइंवि ओमासे ति, मज्झे वि ओभासें ति, पज्जवसाणे वि ओभासे ति तं भंते ! कि सविसयं ओमासे ति, अविसयं ओभासे ति ? गोयमा ! सविसय ओमासे ति णो अविसय ओभासे ति त भते ! कि' आणुपुट्वि ओभासे ति, अणाणुपुब्बि ओभासे ति ? गोयमा ! आणुपुव्विं ओभासे ति णो अणाणुपुब्धि ओमासे ति त भते ! कि एगदिसि ओभा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू.८ दूरासन्नादिनिरूपणम् तद् भदन्त ! किमेकदिशमवभासयतः षड् दिशमवभासयतः ? गौतम ! नियमात् यावद् पइदिशमवभासयत इतिच्छाया ॥ अस्य प्रकरणस्य व्याख्यानं गमनसूत्रवत् स्वयमेव कर्तव्यं विस्तरभयात् नात्र व्याख्यायते। एवमाहारादि पदेष्वपि गमनसूत्रवदेव स्पृष्टादि विषयकं सूत्रपि निर्मातव्यम् निर्माय च सद व्याख्यान मालापादि प्रकारं च स्वयमेवोहनीयम् विस्तरभयानात्र प्रपञ्च्यते। 'एवं उज्जोति तवेंति पभासेंति' एवं गमनादिसूत्रवदेव उद्योतयतः भृशं प्रकाशयतो यथा स्थूलमेव दृश्यते, तापयतः-अपनीतशीतं कुरुतः यथा सूक्ष्म पिपीलिकादि दृश्यते तथा कुरुत इति। प्रभास. यतः, अतितापयोगात् अविशेषतोऽपनीतशीतं कुरुतो अथ सूक्ष्मतरमपि दृश्यते । प्रकाशतापप्रभासपदेषु स्पृष्टादिपदं निवेश्यालापप्रकारः स्वयमेव कर्तव्यः विस्तरमयाभात्र लिख्यते इति॥ इत्येकादशं द्वारं समाप्तम् ॥ गोयमा ! णियमा जाव छदिसि ओभासे ति' इस प्रकरण का व्याख्यान गमन सूत्र के व्याख्यान की तरह स्वयं ही करलेना चाहिये यहां हम विस्तार होजाने के भय से उसे नहीं कर रहें हैं इसी तरह आहार आदि पदों में भी गमन सूत्र की तरह स्पृष्ट आदि विषयक सूत्र भी निर्मित करलेना चाहिये और उनका ग्याख्यान तथा अलाप आदि प्रकार अपने आप ही उद्भाषित करलेना चाहिये हम विस्तार होजाने के भय से उन्हे यहां लिखकर प्रकट नहीं करते हैं । 'एवं उज्जोवेति तवेंति पभासेति' इसी तरह से वे दो सूर्य गमनादि सूत्र में कथित प्रकार के अनुसार वस्तुका अच्छीतरह से प्रकाशन करते हैं जिससे स्थूल की वस्तु दिखलाइ पड़ने लगती हैं उसे तपाते हैं अपनीत शीतवाली उसे करते हैं कि जिससे सूक्ष्म पिपीलिकादि भी दष्टिपथ-होने लगते हैं बहुत अच्छी तरह से उसे सम्पूर्णरूप से तापको दूर करके प्रकाशित करते हैं कि जिससे सूक्ष्मतर वस्तु से ति जाव छदिसिं ओभासे ति ? गोयमा ! णियमा जात्र छदिसि ओभासें ति' मा ४ानु વ્યાખ્યાન ગમન સૂત્રના વ્યાખ્યાનની જેમ જાતે જ કરી લેવું જોઈએ. અહીં અમે વિસ્તારભયથી આ વિશે સ્પષ્ટતા કરતા નથી. આ પ્રમાણે જ આહાર વગેરે પદમાં પણ ગમન સૂત્રની જેમ સ્પષ્ટ વગેરે વિષયક સૂત્ર પણ નિર્મિત કરી લેવા જોઈએ. અને તેમનું વ્યાખ્યાન તથા આલાપ વગેરે પ્રકારો પિતાની મેળે જ ઉદ્દભાવિત કરી સમજી લેવા ये. अभे विस्तारमयथी २८ समान २५७ट ४२ता नथी. 'एवं उज्जोवेति तति पभासे ति' 20 प्रमाणे मे सूर्या गमनाहि सूत्रमा थित ४१२ भुस पस्तुनुसारी शेते પ્રકાશન કરે છે, જેથી સ્થૂલ વરતુ જ જોવામાં આવે છે. તેને તપ્ત કરે છે, તેને અપનીત શીતવાળી કરે છે કે જેથી સૂમ પિપીલિકા વગેરે પણ દષ્ટિગોચર થવા માંડે છે. ખૂબજ સારી રીતે તેને સંપૂર્ણ રૂપમાં તાપને દૂર કરીને પ્રકાશિત કરે છે કે જેથી સૂક્ષમતર વસ્તુ પણું પ્રતીતિ કોટિમાં આવી જાય છે એટલે કે સૂફમતર વસ્તુને પણ સારી રીતે જોઈ શકાય Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे सम्प्रति-उक्तमेबाथै लोकहिताय प्रकारान्तरेण दर्शयितुं द्वादशद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मरियाणं' सूर्ययोः 'कि तीते खेते किरिया कज' किमतीते क्षेत्रे क्रिया क्रियते, द्वयोः पर्ययोः या अवभासनादिका क्रिया सा क्रियते-भवतीत्यर्थः किम्बा-'पडुप्पण्णे खेत्ते किरिया फजई' प्रत्युत्पन्ने वर्तमाने क्षेत्रे क्रिया क्रियते भवति यद्वा 'अणागए खेते फिरिया कन्जइ' अनागते क्षेत्रे क्रिया क्रियते इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो तीए खेते किरिया कजह नो अतीते क्षेत्रे सूर्ययोः क्रिया क्रियते, अतीत भी प्रतीति कोटि में-देखने में आजाती है । प्रकाश ताप, और प्रभास पदों स्पृष्ट आदि पदका निवेश करके आलाप प्रकार अपने आपही उद्भावित करलेना चा. हिये क्योंकि विस्तार भय से हम उसे यहां नहीं लिख रहे हैं। ११वां द्वार समाप्त अब इसी कथित अर्थ को लोकहित के निमित्त प्रकारान्तर से प्रकट करने के लिये सूत्रकार १२ वें द्वार का कथन करते हैं ... इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरियाणं कितीते खेत्ते किरिया कज्जई' हे भदन्त ! जम्बूद्वीर नामके द्वीप में इन दों सूर्यो की अवभासनादि क्रिया होती है सो क्या वह अतीत क्षेत्र में उनके द्वारा की जातो है ? या 'पडुप्पण्णे खेत्ते किरिया कज्जई' प्रत्युत्पन्न क्षेत्र में वर्तमान में उनके द्वारा वह की जाती है ? या 'आगागए खेत्ते किरिया कज्जई' अनागत क्षेत्र में वह उनके द्वारा की जाती है ? इन प्रश्नों के उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं'गोयमा! णो तीए खेत्ते किरिया कजई' हे गौतम! उन दोनों सूर्यो द्वारा जो अव. भासनादि क्रिया की जाती है वह अतीत क्षेत्र में नहीं की जाती है क्योंकि अतीत છે. પ્રકાશ, તાપ અને પ્રભાસ પદે સ્પષ્ટ વગેરે પદને નિર્મિત કરીને આલાપ પ્રકાર પિતાની મેળે જ ઉભવિત કરી લેવો જોઈએ. કેમકે વિસ્તારભયથી અમે અત્રે લખતા નથી. એકાદશદ્વાર સમાપ્ત હવે એજ કથિત અર્થને કહિત માટે પ્રકારાન્તરથી પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકાર ૧૨ મા દ્વારનું કથન કરે છે __ा १२ भाद्वारमा गौतमस्वामी प्रसुन साततनी प्रश्न ४ छ-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सरियाणं किं तीते खेत्ते किरिया कज्जई' महत! पूदी५ नाम दीपमा समे સની જે અવભાસનદિ કિયા થાય છે, તે શું અતીત ક્ષેત્રમાં તેમના વડે કરવામાં આવે छ. अथवा 'पडुप्पण्णे खेत्ते किरिया कजई' प्रत्युत्पन्न क्षेत्रमा वर्तमान क्षेत्रमा तमना कडे ते ४२वामां आवे छे ? अथवा 'अणागए खेत्ते किरिया कज्जई' मनायत क्षेत्रमा ते तेमना पडे ४२वामा भाव छ ? 2 प्रश्नोन वामभ प्रभु गौतमस्वामी ४४ छ-'गोयमा ! णो तीए खेत्ते किरिया कज्जई गौतमते मे सूर्या ५३२ ममासना या ४२वामा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ - प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् क्रिया विषयीकृते वस्तुनि वर्तमानकालिक क्रियाया असंभवात् किन्तु ‘पडुप्पण्णे किरिया कज्जइ' सूर्ययोः प्रत्युत्पन्ने-वर्तमानकालिके वस्तुनि क्रिया क्रियते-क्रियाभवति, वर्तमान क्रियाविषये वर्तमान क्रियायाः संभवात् । 'णो अणागर किरिया कज्जई' नो अनागते क्रिया क्रियते, अनागतक्रियाविषये वर्तमानक्रियाया असंभवात् । अत्र प्रस्तावात् क्रियाविषयीभूतं क्षेत्र कीदृशं स्यादिति प्रष्टुमाह-'सा भंते' इत्यादि, 'सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ अपुट्ठा कज्जइ' हे भदन्त ! सा क्रिया किं स्पृष्टा सूर्यतेजसा स्पृष्टा क्रियते उत सूर्यतेजसा अस्पृष्टा क्रियते इतिप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो अपुट्ठाकज्जइ पुट्ठा कज्जइ'नो अस्पृष्टा क्रिया क्रियते किन्तु स्पृष्टा एव क्रिया क्रियते तत्र स्पृष्टा तेजसा स्पर्शनं स्पृष्टं भावे क्तप्रत्ययविधानात् तद्योगात् सा क्रिया स्पृष्टा कथ्यते, अयंभावः-सूर्यतेजसा क्षेत्रस्पर्शनम् अवभासनमुद्योतनं तापनं प्रभासनं चेत्यादिका क्रिया स्यात् क्रिया विषयक क्षेत्र में वर्तमान कालिक क्रिया के होनेकी असंभवता है किन्तु वह अवभासनादि क्रिया 'पटुप्पन्ने किरिया कज्जई' प्रत्युत्पन्न वर्तमान-क्षेत्र में ही की जाती है क्योंकि वर्तमान क्रिया के विषयभूत क्षेत्र में ही वर्तमान क्रिया का होना संभवित होता है 'गो अणागए किरिया कजइ' इसी तरह अनागत क्षेत्र में वह क्रिया नहीं की जातीहै क्योंकि अनागत क्रिया के विषय में वर्तमान कालिका क्रिया होती नहीं है अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि क्रिया विषयी भूत क्षेत्र कैसा होता है-'सा भंते! किं पुट्ठा कज्जइ अपुट्ठा कज्जई' हे भदन्त ! वह क्रिया क्या सूर्य तेज से स्पृष्ट हुइ वहां की जाती है या अस्पृष्ट हुई वहां की जाती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णो अपुट्ठा कज्जइ पुट्ठा कज्जइ' हे गौतम ! वह क्रिया वहां सूर्य तेज से स्पृष्ट हुई ही की जाती है सूर्य तेज से अस्पृष्ट हुई नहीं की जाती है। इसका तात्पर्य ऐसा है सूर्य के तेज से क्षेत्र का स्पर्शन આવે છે તે અતીત ક્ષેત્રમાં કરવામાં આવતી નથી, કેમકે અતીત કિયા વિષયક ક્ષેત્રમાં पतभान यानी ममता छे. परंतु ते अमासनाहिया 'पडुप्पन्ने किरिया कज्जइ' प्रत्युत्पन्न-वत भान-क्षेत्रमा १ ४२॥मां मारे छ. उभ वतमान लियाना विषय. भूत क्षेत्रमा तभान या याय येवी शयता छ. 'णो अण्णागए किरिया कज्जई' मा પ્રમાણે અનાગત ક્ષેત્રમાં તે ક્રિયા કરવામાં આવતી નથી કેમકે અનાગત કિયાના સંબંધમાં વર્તમાનકાલિક ક્રિયા થતી નથી. હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન કરે છે કે ठिया विषयाभूत क्षेत्र डाय छ ? 'सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ अपुट्ठा कज्जई' 3 महत! તે ક્રિયા શું સૂર્ય તેજથી સ્પષ્ટ થઈને ત્યાં કરવામાં આવે છે અથવા અપૃષ્ટ થઈને ત્યાં ४२वामां आवे छ ? सना नाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! णो अपुट्ठा कज्जइ पुट्ठा कज्जई' હે ગૌતમ ! તે ક્રિયા ત્યાં સૂર્ય તેજથી સ્પષ્ટ થયેલી જ કરવામાં આવે છે. સૂર્ય તેજથી અસ્પૃષ્ય થયેલી તે કરવામાં આવતી નથી, તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે સૂર્યના તેજથી ज० १७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे यद्वा स्पृष्टात् स्पर्शनात् क्रिया क्रियते नतु अस्पृष्टात् क्रिया क्रियते इति ॥ 'जाव णियमाछद्दिसिं' यावनियमात् षदिशम् । अत्र यावत्पदेनाहारपदानि प्रज्ञापनासूत्रगतानि ग्राह्याणि, तत्रेयं प्रक्रिया-तथाहि-सा णं भंते ! fr औगाढा कजइ अगोगाढा कजइ ? गोयमा ! ओगाढा कज्जइ णो अणोगाढा कज्जइ' सा खलु भदन्त ! क्रिया अवगढा क्रियते उतानवगाढ़ा क्रियते ? भगवानाह-हे गौतम ! सा क्रिया अवगाढा क्रियते नो अनवगाढा क्रियते । 'सा कि भंते ! अणंतरोगाढं क जइ परंपरोगाढं कज्जाइ ? गोयमा ! अणंतरोगाढं कजइ नो परंपरोगादं कजइ, सा णं भंते ! कि अणुं कज्जइ बायरं कज्जइ ? .गोपमा ! अणुंपि कज्जइ बायरंपि कज्जइ', साणं भंते !' सा खलु भदन्त ! अवभासनादिका क्रिया अणुर्वा बादरावा क्रियते ? होता है उसका अवभासन होता है उसका उद्योतन होता है उसका तापन होता और उसका प्रभासन होता है इस तरह ये सब होने रूप क्रियाएं उसमें अथवा क्षेत्र के साथ सूर्य का स्पर्शन होता है इससे स्पर्शन होनेरूप क्रिया होती है, विना सार्शन के यह क्रिया नहीं होती है 'जाव णियमा छद्दिसिं' यावत् नियम से ये स्पर्शनादि क्रियाएं छहों दिशाओं में होती हैं। यहां यावत्पद से प्रज्ञापना सूत्रगत आहार पद ग्राह्य हुए हैं वहां पर ऐसी प्रक्रिया है 'सा णं भते! किं ओगाढा कज्जइ अणोगाढा कज्जह ? गोयमा! ओगाढा कज्जइ णो अणोगाढा कज्जई' हे भान्न! वह क्रिया वहां पर अवमाढ हुई की जानी है ? या अनवगाट की जाती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम ! वह क्रिया वहां अवगाद हुइ की जाती अनवगाढ हुइ नहीं की जाती है। 'सा किं भते! अणंतरोगा कज्जह,परंपरोगा कज्जइ ? गोयमा ! अणंतरोगाढं कज्जइ, णो परंपरोगाढं कज्जइ सा गं भते ! किं अणु कज्जइ, थायरंपि कज्जइ, गोयमा ! अणुपि कज्जइ बायरपि कज्जइ' हे भदन्त ! वहक्रिया अनन्तरावगाढ रूप ક્ષેત્રનું પર્શન થાય છે, તેનું વિભાજન થાય છે, તેનું ઉદ્યોતન થાય છે, તેનું તાપન થાય છે અને તેનું પ્રભાસન થાય છે. આ પ્રમાણે આ બધું થવું એ રૂપ ક્રિયાઓ તેમાં અથવા ક્ષેત્રની સાથે સૂર્યનું ૫શન થાય છે. એથી સ્પર્શન થયા પછી ક્રિયા હોય છે, पशन २ माया थती नथी. 'जाव णियमा छदिसिं' यावत् नियमथी थे २५शनाल याशियोमी थाय छे. मी.' यावत् ' पहथी प्रज्ञापन सूत्रात माह।२५४ श्राह्य थये। छे. त्यां मेवी प्रठिया छ ?-'साणं भंते ! किं ओगाढा कज्जइ, अणोगाढा कज्जइ ? गोयमा ! ओगाढा कज्जइ, णो अणोगाढा कज्जइ' महत! ते ठिया त्या भा थी કરવામાં આવે છે. કે અનવગાઢ થયેલી કરવામાં આવે છે? આના જવાબમાં પ્રભુ કહે હે ગૌતમ! તે કિયા ત્યાં અવગઢ થયેલી કરવામાં આવે છે. અનવગાઢ થયેલી કરવામાં भावती नथी. 'सा किं भंते ! अणंतरोगाढं कज्जइ, परंपरोगाढं कज्जइ ? गोयमा ! अणंतरोगा काइ णो पर परोगाढ कज्जइ सा णं भंते ! कि अणु कज्जइ, बारर पि काजइ, 'गोयमा ! अपि कज्जइ बायरंपि कज्जइ' ३ महत! ते या मन तरागाढ ३५भा यामा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् गौतम ! अणुरपि सर्वाभ्यन्तर मण्डलक्षेत्रावभासनापेक्षया, बारापि सर्वबाह्य मण्डलक्षेत्राव भासनापेक्षया क्रियते । ऊर्ध्वाधतिर्यक् सूत्रनिरूपणं सूत्रकारोऽनन्तरमेव करिष्यति, अतोऽत्र तस्य निरूपणं न क्रियते । 'साणं भंते ! किं आई कजइ, मज्झे कज्जइ, पज्जवसाणे कज्जइ ? गोयमा ! आईपि कज्जइ मज्झेवि कन्जइ पज्जवसाणे वि काजइ' सा खलु भदन्त ! क्रिया किमादौ क्रयते, मध्ये क्रियते, पर्यवसाने क्रियते ? गौतम ! पष्टिमुहूर्तप्रमाणस्य मण्डल. हुई वहां की जाती है या परम्परावगाढरूप हुई वहां की जाती है ? इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! वह क्रिया वहां अनन्तरावगाढरूप हुई ही की जाती है परम्पराबगाढरूप हुइ क्रिया वहां नहीं की जाती है हे भदन्त ! अणुरूप वह भवभासनादिरूप क्रिया वहां की जाती है या बादर रूप अवभासनादि क्रिया वहां जाती है? सर्वाभ्यन्तर मण्डल क्षेत्र की अवभासना की अपेक्षा उस अवभासनादि क्रिया में अणुरूपता और सर्वबाह्य मंडल क्षेत्र की अवमासना की अपेक्षा बादरता कही गई है। उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! सर्वाभ्यन्तर मण्डल क्षेत्र की अवभासना को अपेक्षा अणु भो और सर्वबाह्य मंडल क्षेत्र की अवमासना की अपेक्षा बादर भी अवमासनादिक क्रिया वहां की जाती है। उर्ध्व अधः और तिर्यक सूत्रों का निरूपण सूत्रकार अभी करने वाले हैं इस कारण वहाँ उनका निरूपण हम नहीं कर रहे हैं। ___ 'साणं भंते ! किं आई कज्जा मज्झे कज्जइ, पज्जवसाणे कज्जह, गोयमा आईपि कज्जइ, मज्झे वि कज्जइ, पज्जवसाणे वि कज्जह' हे भदन्त ! वह अव. भासनादिरूप क्रिया वहां पहिले की जाती है? या मध्य में की जाती है ? या अन्त में की जाती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! आइंपि कज्जा આવે છે અથવા પરંપરાગાઢ રૂપમાં ત્યાં કરવામાં આવે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે–હે ગૌતમ ! તે કિયા ત્યાં અનંતરાવગાઢ રૂપમાં ત્યાં કરવામાં આવે છે. પરંપરાવગાઢ રૂપમાં ત્યાં તે ક્રિયા કરવામાં આવર્તી નથી. હે ભદંત ! અણુરૂપ તે અવભાસનાદિરૂપ ક્રિયા ત્યાં કરવામાં આવે છે–અથવા બાદરરૂપ અવભાસનદિ ક્રિયા ત્યાં ઠરમામાં આવે છે? સર્વાત્યંતરમંડળ ક્ષેત્રની અવાસનાની અપેક્ષાએ તે અવભાસનાદિ ક્રિયામાં અણુરૂપતા અને સર્વ બાહ્યમંડળ ક્ષેત્રની અવભાસનાની અપેક્ષાએ બાદરતા કહેવામાં આવી છે. જવાબમાં પ્રભુ કહે છે. હે ગૌતમ ! સર્વાત્યંતરમંડળ લેત્રની અવભાસનાની અપેક્ષાએ અણુ પણ અને સબાહ્યમંડળ ક્ષેત્રની અવભાસનાની અપેક્ષાએ બાદર પણ અવભાસનાદિ ક્રિયા કરવામાં આવે છે. ઊર્ધ્વ અધઃ અને તિયક સૂનું નિરૂપણું સૂત્રકાર હમણું કરે છે એથી ત્યાં તેમનું નિરૂપણ અમે કરી શકતા નથી. 'सा णं भंते ! किं आई किज्जइ मज्झे कज्जइ पज्जवसाणे कज्जइ, गोयमा ! आईवि कज्जइ, मझे वि कज्जइ, पज्जवसाणे वि कज्जई' मत! ते मनाना ३५ लिया त्या પહેલાં કરવામાં આવે છે? અથવા મધ્યમાં કરવામાં આવે છે? અથવા અંતમાં કરવામાં Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र संक्रमणकालस्यादावपि क्रियते, मध्येऽपि क्रियते, अवसानेऽपि क्रियते इति । एवमेव विषय सूत्रमानुपूर्वीसूत्रं दिकसूत्रं च वक्तव्यम्, गमनसूत्रवदेव, विस्तरभयात् नाबालापप्रकारो वर्ण्यते स्वयमेवोहनीयः, इति द्वादशं द्वारं समाप्तम् ॥ सू० ८॥ अष्टमसूत्रपर्यन्तप्रकरणे द्वादशं द्वारं निरूप्य तदनु त्रयोदशं द्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, मूलम्-जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया केवइयं खेत्तं उद्धं तवयंति अहे तिरियं च, गोयमा ! एगं जोयणसयं उद्धं तवयंति अट्ठारस जोयणसहस्साइं अहे तवयंति सीयालीसं जोयणसहस्साइं दोपिण य तेवढे जोयणसए एगवीसे य सट्ठिभाए जोयणस्त तिरियं तवयंति त्ति । अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरियग्गहगणणक्खत्ततारारूवाणं भंते ! देवा किं उद्घोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोबवपणगा चारोववण्णगा चारद्विइया गइरइया गइसमावण्णगा, गोयमा ! अंतोणं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम सूरिय जाव तारारूवे तेणे देवा णो उद्घोववण्णगा णो कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा णो चारदिईया गइरइया गइसमावण्णगा उद्दीमुहकलं. बुया पुप्फसंठाणसंठिएहिं जोयणसाहस्सिएहिं ताव खेत्तेहिं साहस्सियाहिं वेउव्वियाहिं बाहिराहिं परिसाहिं महयाहयणगीयवाइयतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेगं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा महया मज्झे वि कज्जइ पज्जवसाणे वि कज्जइ' हे गौतम ! वह अवभासनादिरूप क्रिया षष्टि मुहूर्त प्रमाण मण्डल संक्रमण कालकी आदि में भी की जाती है, मध्य में भी की जाती है और अन्त में भी की जाती है। इसी तरह से विषय सूत्र आनुपूर्वीसूत्र एवं दिक सूत्र भी कहलेना चाहिये जैसा कि गमनसूत्र कहा गया है उसी प्रकार को लेकर १२ वा द्वार समाप्त ॥८॥ भाव छ १ सेना वामम प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! आई वि कज्जइ मज्झे वि कज्जइ, पज्जवसाणे वि कज्जइ ३ गौतम! ते अवमासना६३५ या 46 भुत प्रभाम સંક્રમણકાળના પ્રારંભમાં કરવામાં આવે છે. મધ્યમાં પણ કરવામાં આવે છે અને અંતમાં પણ કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે વિષયસૂત્ર, આનુપૂર્વી સૂત્ર તેમજ દિફ સૂત્ર પણ કહી લેવું જોઈએ. જેમ કે ગમનસૂત્રમાં કહેવામાં આવેલું છે, તે પ્રમાણે જ તે પ્રકારને લઈને આ દ્વાદશ દ્વાર સમાસ, માસૂત્ર-૮ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमस्कार: सू. ९ तापक्षेत्रादिनिरूपणम् १३३ उकि सीहणाय बोलकलकलरवेणं अच्छे पच्चयरायं पयाहिणावत्तमंडलचारं मेलं अणुपरियति ॥सू० ९॥ छाया-जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सूयौं कियत क्षेत्रमय तापयतः, अधस्तिर्यक् च गौतम ! एकं योजनशतमू तापयतः, अष्टादश योजनसहस्राणि अधस्तापयतः सप्तचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि द्वे च त्रिषष्टियोजनशते एकविंशतिश्च षष्टिभागान् यो जनस्य तिर्यक्तापयतः ? अन्तः खलु भदन्त ! मानुषोत्तास्य पर्वतस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाः खलु भदन्त ! देवाः किमूर्बोपपन्नकाः कल्पोपपत्र का विमानोपपन्नका-श्वारोपपनका चार स्थितिकाः गतिरतिकाः गतिसमापनकाः, गौतम ! अन्तः खलु मानुषोत्तरस्य ये चन्द्रसूर्य यावत् तारारूपास्ते खलु देवाः नो ऊर्वोपपन्नकाः नो कल्पोपपत्रकाः विमानोपपन्ना:चारोपपन्नका नो चारस्थितिकाः गतिरतिकाः गतिसमपन्नकाः ऊवमुखकलंबुकाः पुष्पसंस्थानसंस्थित योजनसाहसिकः साहसिकाभि वैकुर्विकाभि बाह्याभिः पर्षद्भिः मह ताहतनृत्यगीतवादिततन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः, महता उत्कृष्ट सिंहनाद बोलकल कलरवेण अच्छं पर्वतराजं प्रदक्षिणावर्त मण्डलचारं मेरुमनुपर्यटन्ति ॥ सू०९॥ ___टीका-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दोवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे-सर्वद्वीपमध्यजम्बू. द्वीपे इत्यर्थः 'मरिया' सूयौं द्वौ 'काइयं खेतं उद्धं तवयंति' कियत्-कियत्प्रमागर्क क्षेत्रम् ऊर्ध्वम्-ऊर्ध्वदिगभागं तापयतः स्वकीयतेजसा व्याप्नुतः 'अहे तिरियंच' तथा कियत्प्रमाणक क्षेत्र मधोभागे तिर्यगभागे च तापयतः, इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, त्रयोदशद्वार का कथन | ___ अष्टमसूत्र पर्यन्त के प्रकरण में १२ वे द्वारका निरूपण करके अब सूत्रकार इस १३ वें द्वार का निरूपण करते हैं जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया के इथं खेत' -इत्यादि टीकार्थ-हे भदन्त ! इस जम्बूदोप नामके द्वीर में 'मूरिया' वर्तमान दो सूर्य 'केवइयं खेत्तं उद्धं तवयंति' उर्ध्व में कितने क्षेत्र को अपने तेज से तपाते हैं ? अर्थातू अपने तेज से वे कितने प्रमाग वाले क्षेत्र को व्याप्त करते हैं ? 'अहे ત્રયોદશદ્વારનું કથન અષ્ટમ સૂત્ર પર્યન્ત પ્રકરણમાં ૧૨ મા દ્વારનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર આ ૧૩ મા દ્વારનું નિરૂપણ કરે છે 'जम्बुदीवे णं भंते ! दीवे सूरिया केवइयं खेत्तं' इत्यादि A2-3 महन्त ! . दी५ नाम द्वीपमा 'सूरिया' पतमान सूर्या 'केवइयं खेत्तं उद्धं तवयंति' मा क्षेत्र पोताना तेथी तपाव छ? मेटले, पोताना तेथी तोटा प्रभावामारने व्यास ४२ छ ? 'अहे तिरियं च तभर Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३४ जम्मूछीपप्रचप्तिसूत्र 'गोयमा' हे गौतम ! 'एग जोयणसयं उद्धं तवयंति' एक योजनशतमू तापयतः, सूर्यविमानस्योपरिभागे योजनैकशतप्रमाणस्यैव तापक्षेत्रस्य सद्भावात् 'अट्ठारस जोयणाई अहे तवयं ते' द्वावपि सूयौं अष्टादशशत योजनानि अधोभागे स्वतेजसा तापयतः प्रकाशयतः, कथमेतावदेव तापयत इति चेदित्थम्-सूर्यद्वयाभ्यामष्टसु योजनशतेषु अधोगतेषु भूतलं भवति, तस्माच्च योजनसहस्रे भयोग्रामाः स्युः तान् ग्रामान यावत् तापनात् अतएतावदेवाधोभागे सूर्याभ्यां तापयत इति । 'सीयालीसं जोयणसहस्साई' सप्तचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि 'दोण्णि य तेवढे जोयणसर' द्वेच त्रिपष्टयधिक योजनशते, त्रिषष्टयधिक योजनशतद्वमित्यर्थः 'एगवीसंच सटिमाए जोयणस्त' एकविंशतिश्च पष्टिभागान् योजनस्य, 'तिरियं तवयंतित्ति' तिर्यक्तापयत इति, एतत्खलु सर्वोत्कृष्टदिनचक्षुः स्पर्शापेक्षया तिरियं च तथा अधो भाग में और तिर्यग् भाग में वे कितने प्रमाण वाले क्षेत्र को अपने तेज से व्याप्त करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! एगं जोयणसयं उद्धं तवयंति' हे गौतम ! उर्ध्व में वे एकसो योजन प्रमाण वाले क्षेत्र को अपने तेज से व्याप्त करते हैं क्योंकि सूर्य विमान के ऊपर एकसौ योजन प्रमाणवाला क्षेत्र ही तापक्षेत्र माना गया है 'अट्ठारस जोयणसहस्साइं अहे सवयंति' तथा अधो भाग में वे अपने तेज से १८ हजार योजन प्रमाणवाले क्षेत्र को तपाते हैं-व्याप्त करते हैं अधोभाग में वे इतने ही क्षेत्र को क्यों तपाते हैं-प्रकाशित करते हैं ? तो इसका उत्तर ऐसा है-आठसौ योजन नीचे तक भूतल है इससे १ हजार योजन में नीचे ग्राम है सो ये दो सूर्य वहीं तक के प्रदेशको अपने तेज से व्याप्त करते है 'सीआलीसं जोयणसहस्साइं दोण्णि य तेवढे जोयणसए एगवीसंच सहिभाए जोयणस्स तिरियं तवयंति' तथा तियग् दिशा में ये दो सूर्य ४७२६३ २. योजन प्रमाणक्षेत्र को अपने तेज से અધેભાગમાં અને તિયભાગમાં તેઓ કેટલા પ્રમાણવાળા ક્ષેત્રને પિતાના તેજથી વ્યાસ २ छ ? उत्तरमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! एगं जोयणसयं उद्धं तवयंति' 8 गौतम ! qwi તેઓ એક જન પ્રમાણુવાળા ક્ષેત્રને પિતાના તેજથી વ્યાપ્ત કરે છે કેમકે સૂર્ય વિમાનની ઉપર એક જન પ્રમાણુવાળું ક્ષેત્ર જ તાપક્ષેત્ર માનવામાં આવેલું છે. 'अटारस जोयणसहरसाई अहे तवयंति' तम अघालाम तो पाताना तेथी १८ હજાર જન પ્રમાણુવાળા ક્ષેત્રને તપ્ત કરે છે–વ્યાપ્ત કરે છે. અધેભાગમાં તેઓ આટલા જ ક્ષેત્રને શા માટે તપ્ત કરે છે–પ્રકાશિત કરે છે ? તે આને જવાબ આ પ્રમાણે છે કે આઠ જન નીચે સુધી ભૂતલ છે. એથી ૧ હજાર યેજનમાં નીચે ગ્રામ છે. તે એ मे सूर्या त्या सुधीनप्रशन पोताना तेस्थी व्यास ४२ छ. 'सीआलीसं जोयणसहस्साई दोणिय तेवढे जोयणसए एगवीसं च सद्विभार जोयणस्स तिरियं तवयंति' तेभा તિય દિશામાં એ બે સૂર્યો ૪૭૨૬૩૨ જન પ્રમાણ ક્ષેત્રને પિતાના તેજથી વ્યાસ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. ९ तापक्षेत्रादिनिरूपणम् १३५ भवतीति ज्ञातव्यम्, अत्र तिर्यक्कथनेन पूर्वपश्चिमयोरेवेदं ग्राह्यम्, उत्तरतस्तु १८० न्यून ४५ पश्चचारिंशद् योजनसहस्राणि, दक्षिणतः पुनद्वपे १८० योजनानि, लवणसमुद्रेतु त्रयत्रि. शद् ३३ योजनसहस्राणि त्रीणि ३ शतानि त्रयस्त्रिंशत् ३३ अधिकानि योजनस्य त्रिभागतानि इति । सम्प्रति मनुष्यक्षेत्रवर्त्ति ज्योतिष्कदेव स्वरूपं ज्ञातुं प्रश्नयन चतुर्दशद्वारमाह'अंतोणं मंते' इत्यादि, 'अंतोणं भंते ! माणुस्मुत्तरस्स पव्वयस्स' अन्तर्मध्ये खलु भदन्त ! मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य तत्र मनुष्येभ्य उत्तरोऽग्रवर्ती यः स मानुषोत्तरः, एनं पर्वतमवत्रीकृत्य मनुष्याणामुत्पत्ति स्थिति विनाशप्रभृति भावात् यद्वा मनुष्यजीवानामुत्तरः विद्यादिशक्तेरभावे उल्लङ्घयितुमयोग्यो यः स मानुषोत्तरः स चासौं पर्वतश्चेति मानुषोत्तर पर्वतस्तस्य व्याप करते हैं। चक्षु इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय की अपेक्षा यह प्रमाण कहा गयाहैं यहां तिर्यक् कथन से पूर्व और पश्चिम का ही यह क्षेत्र प्रमाण गृहीत हुआ है ऐसा जानना चाहिये उत्तर दिशा में इन दोनों सूर्योों का तापक्षेत्र १८० योजन न्यून ४५ हजार योजन का है तथा दक्षिण दिशा की तरफ इनका तापक्षेत्र १८० योजन का है लवणसमुद्र में ३३३३३, योजन प्रमाण इनका तापक्षेत्र है । त्रयोदशद्वार समाप्त. १४ वें द्वारका कथन मनुष्यक्षेत्रवर्तीज्योतिष्क देवों के स्वरूपको प्रगट करने के लिये इस १४ वें द्वार को सूत्रकार ने कहा है - इस में गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'अंतोणं भंते! माणुस्सुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरियगहगणणक्खन्ततारारूवाणं भंते! देवा उद्घोववण्णगा, कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारडिया, गहरइया, गइसमादण्णगा,' हे भदन्त मनुषोत्तर पर्वत के मध्य मेंકરે છે. ચક્ષુર્તિન્દ્રિયના ઉત્કૃષ્ટ ત્રિષયની અપેક્ષાએ આ પ્રમાણ કહેવામાં આવેલુ છે. અહીં તિયક્ કથનથી પૂર્વ અને પશ્ચિમનું જ ક્ષેત્ર પ્રમાણુ ગૃહીત થયેલુ છે, એવુ જાણવું જોઈ એ. ઉત્તરદિશામાં એ અને સૂર્યનું તાપક્ષેત્ર ૧૮૦ ચૈાજન કમ ૪૫ હજાર ચેાજન જેટલુ છે. તેમજ દક્ષિદિશા તરફ એમનુ' તાપક્ષેત્ર ૧૮૦ યેાજન જેટલુ છે, લવણુसमुद्रमां 33333 योन प्रभाश भनु तयक्षेत्र छे. ત્રયેદશદ્વાર સમાપ્ત ચતુર્દ શદ્વારનું કથન મનુષ્ય ક્ષેત્રવતી નૈતિક દેવાના સ્વરૂપને કરવા માટે આ ૧૪ મા દ્વારને સૂત્રકાર धुं छे. यामां गौतमस्वामी प्रभुने या प्रमाणे प्रश्न यछे ! - 'अंतोणं भंते! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरियग्गहगणणक्खत्ततारारूत्राणं भंते! देवा उद्घोववण्णगा, कप्पोववण्णा, विमाणोववण्णगा, चारोत्रवण्णगा, चारट्ठिइया, गइरइया, गइसमावण्णगा' ભદ ́ત ! માનુષેત્તર પતના મધ્યમાં એટલે કે માનુષાત્તર પર્યંત સંબંધી જે ચન્દ્ર, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सम्बन्धिनः 'जे चंदिमन रियगहगणणक्खत्ततारारूवा देणं भंते' ये चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्र तारारूपाः ते खलु भदन्त ! 'देवा' देवाः ज्योतिष्काः, अत्रै कस्मिन् प्रश्नवाक्ये यद् वारद्वयं भदन्त ! इति भगवतः संबोधनं कृतं तत् पृच्छकस्य भगवन्नित्युच्चारणेऽतिप्रीतिमत्त्वं बोधयतीति । हे भदन्त ! ये इमे मानुषोत्तर पर्वत सम्बन्धिन चन्द्रादयस्तारारूपा ज्योतिष्क देवा इत्यर्थः । ते 'किं उद्घोववण्णा' ऊर्ध्वोपपन्नाः तत्र - ऊर्ध्वम् सौधर्मादि द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्ध्वं ग्रैयकानुत्तर विमानेषु उपपन्नाः समुत्पन्नाः कल्पातीताः किम्, अथवा 'कप्पविवणगा' कल्पोपपद्मकाः सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्ना इत्यर्थः, विमाणोववन्नगा' विमानोपपन्नकाः विमानेषु, ज्योतिष्क देवसम्बन्धिषु उपपन्नाः- उत्पन्नाः किम् अथवा - 'चारोदवन्नगा' चारोपपन्नकाः, तत्र चारो मण्डलगत्या परिभ्रमणम् तादृशं भ्रमणमुपपन्न: - आश्रितवन्तः किम् अथवा - 'चारद्वितीया' चारस्थितिकाः, तत्र चारस्य मण्डळगल्या परिभ्रमणलक्षणस्य स्थितिरभावो येषां ते चारस्थितिकाः, तत्र चारस्थिते: - वाराभावोऽर्थः कथंभतीति वेदत्रोच्यते - स्थाधातोरर्थः गतिनिवृत्तिः गतिश्च चलनपर्यायरूपा, तथा चारस्थिते: गमनाभावरूपत्वेन चारस्थितिकेति कथनेन चाराभावस्य ज्ञापनात् स्थितेरभावरूपार्थस्य संभवादिति । ' गइरइया' गतिरतिका: तत्र गतौ - गमने रतिः - आसक्तिः प्रीतिर्येषां ते गतिरतिकास्ते देवाः किम् । एतावता गतौरतिमात्रं कथितम् सम्प्रति - साक्षादेव गतिं प्रश्नपति - 'गइसमावग्गा ' गतिसमापन्नकाः अनवरतं गतियुक्ताः किमितिप्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अंतो अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत सम्बन्धी - जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा हैं वे सब ज्योतिष्क देव हैं वे क्या उर्ध्वोपपनक हैं सौधर्मादि १२ कल्पों से ऊपर ग्रेवेयक और अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? अर्थात् क्या ये कल्पातीत हैं ? अथवा कल्पोपन है - सौधर्मादि देवलोकों में उत्पन्न हुए हैं - क्या ? अथवा-बिमानो. पपन्नक है - ज्योतिष्क देव सबन्धी विमानों में उत्पन्न हुए हैं क्या ? अथवा चारोपपन्नक हैं- मण्डलगति से परिभ्रमण करने वाले हैं क्या ? अथवा - चारस्थितिक हैं - मण्डलगति से परिभ्रमण करने के अभाव वाले हैं क्या ? अथवागतिरतिक हैं - गमन में आसक्ति - प्रीति वाले हैं क्या ? अथवा गतिसमापन्नक हैं - निरन्तर गतियुक्त हैं क्या ? यहां सूत्र में जो दोबार भदन्त शब्द प्रयुक्त સૂર્યાં, ગ્રહ, નક્ષત્ર અને તારાએ છે, તે સર્વે જાતિક દેવા છે, તેઓ શું ઉ પપન્નક છે. સૌધર્માદિ ૧૨ પેાથી ઉપર ત્રૈવેયક અને અનુત્તર વિમાનામાં ઉત્પન્ન થયેલા છે? એટલે કે શુ તેએ પાતીત છે? અથવા કલ્પાપપન્નક છે. સૌધર્માદિ દેવલેકેમાં ઉત્પન્ન થયેલા છે ? અથવા વિમાન પપનક છે જ્યેાતિષ્ઠ દેવ સંબધી વિમાનામાં ઉત્પન્ન થયેલા છે? અથવા ચ રપપન્તક છે-મંડળ ગતિથી પરિભ્રમણ કરનારા છે? અથવા ચારસ્થિતિક —મડડળ ગતિથી પરિભ્રમણ કરવાના અભાવવાળા છે? અથવા ગતિરતિક છે-ગમનમાં આસક્તિ-પ્રીતિવાળા છે? અથવા ગતિ સમાપન્નક છે-નિર ંતર ગતિ યુક્ત છે ? અહીં Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ९ तापक्षेत्रादिनिरूपणम् णं माणुस्सुत्तरस्स पन्बयस्स' अन्तर्मध्ये खलु मानुषोत्तरस्य सम्बन्धिनः 'जे चंदिमसरिय जाव तारारूवे' ये चन्द्रसूर्यग्रहनक्षतारारूपाः ज्योतिष्काः 'तेणं देवा' ते खल्लु उपर्युक्ता देवाः 'नो उद्घोषवनगा नो कप्पोववभगा' नो ऊोपपत्रकाः सौधर्मादिद्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्ध्वम्-उपरि यानि वेयकानुत्तरविमानानि तत्र नोत्पनाः न वा कल्पोपपभकाः सौधर्मादि विमानेषु नोत्पन्ना इत्यर्थः। किन्तु 'विमाणोक्वनगा' विमानोपपत्रका, विमानेषु-चन्द्रसूर्यहुभावह गौतमस्वामी में भगवान के प्रति अति प्रीति का द्योतक है मनुष्यो का सद्भाव-उत्पत्ति स्थिति मरण आदि-मानुषोत्तर पर्वत के पहिले २ तक है मानु. षोत्तर पर्वत के बाद उस तरफ मनुष्यों का सद्भाव उत्पत्ति स्थिति मरण आदि नहीं है इसलिये इसका नाम मानुषोत्तर ऐसा हुआ है-अथवा-विद्या आदि शक्ति के अभाव में मनुष्य इसे किसी भी प्रकार से उल्लङ्घन नहीं कर सकते है इसलिये भी इसका नाम मानुषोत्तर हुआ है वैमानिक देवों के कल्पोपपन्न और कलातीत के भेद से दो भेद प्रतिपादित हुए है यही बात यहां 'उद्घोषवः न्नगा कप्पोववन्नगा' इन पदों द्वारा प्रकट की गई है चारस्थिति" पदमें जो मण्डलगति परिभ्रमण करने रूप चार-गतिका अभाव प्रकट किया गया है वह स्था धातु का अर्थ गति निवृत्ति को लेकर किया गया है इस तरह से किये गये इन प्रश्नों का उत्तर प्रभु देते हुए कहते हैं-'गोयमा ! अंतोणं माणुसुत्तरस्स पवयस्स जे चंदिम सूरिय जाव तारारुवे तेणं देवा णो उद्घोषवण्णगा, जो कप्पोवषण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, णो चारद्विईया गइरईया गहसमावण्णगा' हे गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत सम्बन्धि चन्द्र, सूर्य यावत् तारा येસૂત્રમાં જે બે વખત “ભદન્ત શબ્દ પ્રયુક્ત થયું છે તે ગૌતમમાં ભગવાન પ્રત્યે જે અતિપ્રીતિ છે તે બતાવે છે. માણસને સદ્ભાવ-ઉત્પત્તિ-સ્થિતિ મરણ આદિમાનુત્તર પર્વતની પહેલાં પહેલાં સુધી છે. માનુષેત્તર પર્વત પછી તે તરફ મનુષ્યને સાવ ઉત્પત્તિ-સ્થિતિ મરણ વગેરે નથી. એથી આનું નામ માનુષેત્તર એવું થયું છે. અથવા વિદ્યા વગેરે શક્તિના અભાવમાં મનુષ્ય અને કોઈ પણ પ્રકારથી ઉલંઘન કરી શકતા નથી એટલા માટે પણ આનું નામ માનુષેત્તર થયેલું છે. વૈમાનિક દેના કપ૫૫ન भने ४८पातीत महथा मे सेहो प्रतिपाहित थये। छ. मे वात मही 'उद्धोववन्नगा कप्पोववन्नगा' से ५४ ५ ४८ ४२वामा मावेसी छे. 'यास्थिति' मा २ मति પરિભ્રમણ કરવા રૂપ ચાર–ગતિનો અભાવ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે તે “થા ધાતુને म 'गति-निवृत्ति'२ र ४२वाम मावस छे. या प्रमाणे प्रश्री ४२वामा मासा छे तना नपामा प्रभु माशते माथे छ-'गोयमा ! अंतोणं माणुसुत्तररस पव्वयस्स जे चंदिम सूरिय जाव तारारूवे तेणं देवा णो उद्घोववण्णगा, णो कप्पोववष्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, णा चारदिईया, गइरइया, गइ समावण्णगा' 3 गौतम ! भानुषोतर पति ज० १८ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपमातिर ज्योतिष्कादि सम्बन्धिविमानेषु समुत्पन्नाः, तथा-'चारोक्वनगा' चारोपपन्नकाः, चारोमण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुत्पन्ना स्तदाश्रितवन्तः 'नो चारटिईया' नो चारस्थितिकाः मण्डळगत्या परिभ्रमणलक्षणचारस्याभाववन्तो न किन्तु चारवन्त एवेत्यर्थः, अतएव 'गइरइया' गतिरतिका:-गतिसमायुक्ताः 'उदीमुहकलंबुयायुप्फसंठाणसंठिएहि' ऊर्ध्वमुखकलंबुका पुष्पसंस्थानसंस्थितैः, ऊर्धमुखं यत् कलम्बुकापुष्पं कदम्बपुष्पं तस्य यत् संस्थानं तद्वत् संस्थानेन संस्थितै रवस्थितैः 'जोयगसाहस्सिएहि' योजनसाहसिके रनेकयोजनसहस्रप्रमाणे: 'तावखेत्तेहिं' तापक्षेत्रः, अत्रेत्थं भावे तृतीया, तेनेत्थंभूत में परिवर्तन्ते इति क्रियान्वयः अर्थात् उक्तस्वरूपाणि तापक्षेत्राणि कुन्तिो जम्बूद्वीपगतं मेरुं परितो भ्रमन्ति इदं च विशेषणं चन्द्रसूर्याणामेव नतु नक्षत्रादीनाम्, यथासम्भवमेव विशेषणानां संबन्धात् । सम्प्रति-एतान् सब देव है और ये सब न उर्योपपन्नक हैं और न कल्पोपपन्नक हैं किन्तु ज्योतिष्क विमानोपपन्नक है चन्द्र.-सूर्य ज्योतिष्क आदि सम्बन्धी विमानों में उत्पन्न हुए हैं तथा चारों पपन्नक है-मण्डल गति से परिभ्रमण करने वाले हैं "नो चारहिईया" अतएव ये चारस्थितिक नहीं हैं। किन्तु गतिशील ही हैं। इसी कारण इन्हे गतिरतिक और गति समापन्नक कहा गया हैं 'उद्धीमुहकलंधुयापुप्फसंठाणसंठिएहिं जोयणसाहस्सिएहिं तावखेत्तेहिं, साहस्सियाहिं वेउब्वियाहिं वाहिराहि परेसाहिं' ये कदम्बपुष्प का जैसा आकार उसे उर्ध्वमुखवाला स्थापित करने पर हो जाता है ऐसे ही आकारवाले अनेक हजार योजन प्रमाण वाले क्षेत्र को ये अपने ताप से तपाते हैं-प्रकाशित करते हैंइनका कार्य यही है कि ये अनवरत ११२१ योजन छोडकर सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते रहे । अनेक हजार योजन प्रमाण वाले तापक्षेत्र को तपाते हैंप्रकाशित-करते हैं ऐसा जो कहा गया है वह चन्द्र सूर्यो की अपेक्षा से ही कहा સંબંધો ચન્દ્ર, સૂર્ય, ચાવત્ તારાઓ એ બધાં દેવે છે અને એ બધાં ઉપપનક નથી તેમજ કપનક પણ નથી. પરંતુ એ બધાં તિષ્ક વિમાનપપનક છે. ચન્દ્ર-સૂર્ય જતિ વગેરેથી સમ્બદ્ધ વિમાનમાં ઉત્પન્ન થયેલાં છે. તેમજ ચારો૫૫નક છે. મંડળतिथी परिश्रम ४२ना। छ. 'ना चारदिईया' या समेया२ स्थित नथी. परंतु ગતિશીલ છે. એથી જ એમને ગતિરતિક અને ગતિ સમાપનક કહેવામાં આવેલ છે. 'उद्धीमुहकलंबुयापुप्फपठाणसं ठेहिं जोयणसाहिस्सिएहिं तावखेत्तेहि, साहास्सियाहिं वेउव्वियाहि वाहिराहिं परिसाहिं' ४४५ १०५ने भुष समान स्थापित ४२वामां आवे તેવા આકારવાળા અનેક હજાર જન પ્રમાણવાળા ક્ષેત્રને એઓ પિતાના તાપથી તત કરે છે–પ્રકાશિત કરે છે. એમનું કાર્ય આ પ્રમાણે છે કે એઓ અનવરત ૧૧૨૧ એજન ત્યજીને સુમેરુ પર્વતની પ્રદક્ષિણા કરતા રહે. અનેક હજાર એજન પ્રમાણુવાળા તાપક્ષેત્રને એએ તપ્ત કરે છે પ્રકાશિત કરે છે એવું જે કહેવામાં આવેલું છે તે ચન્દ્ર સૂર્યોની Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ९ तापक्षेत्रादिनिरूपणम् १३९ चन्द्रादीन् साधारण्येन विशेषयन्नाह - 'साइस्सिए हिं' सादस्रिकाभिः - अनेक सहस्रसंख्यकाभिः 'उन्वियादि' वैकुर्विकाभिः - विकुर्वितानेक कारकरूपधारिणीभिः ' बाहिरहि' बाह्याभि:आभियोगिक कर्मकारिणीभिः नाट्यगीतवादनादिकर्मणस्यात् नतु तृतीयपर्षद् रूपाभिः 'परिसाहिं' पर्षद्भिर्देवसमूहरूपाभिः कर्तृभूताभिः 'महयाइयणट्टगीयवाइय' महताहत नाट्यगीतवादित्र, महता - अतिशयेन आहतानि - ताडितानि वादित्राणि नाट्यगीते वादित्रे च वानरूपे त्रिविधेऽपि सङ्गीते इत्यर्थः ' तंतीतलतालतुडियघगमुईंग' तन्त्री तळतालत्रुटितघनमृदङ्गानाम् 'पडुपव्वाइयरवेणं' पटुप्रवादितरवेण - शब्देन 'दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा' दिव्यान - विलक्षणान् भोगभोगान् भुञ्जाना: 'महया उकिसीहणाय बोल कलकलकरवेणं' महता उत्कृष्टसिंहनाद बोल कलकलरवेण तथा स्वभावतो गतिरतिकैः - बाह्य पर्षदन्तर्गत देवेन गच्छत्सु विमानेषूत्कृष्टो यः सिंहनादो मुच्यते यौच बोलकलकलौ क्रियेते तत्र बोलोनाम मुखे हस्तं दत्वा महताशब्देन पूतकरणम्, कलकलश्च व्याकुलशब्दशब्दसमुदायः तादृशगया है नक्षत्रादि कों की अपेक्षा से नहीं क्योंकि विशेषण यथा संभव ही योजित किये जाते हैं। ये चन्द्रादिक ज्योतिषी देव अनेक हजार की संख्यावाली एवं विकुर्वित अनेक प्रकार के रूपों को धारण करनेवाली तथा नाट्यगीत, वादन आदिकार्यो में प्रविण होने से आभियोगिक के कर्म की करनेवाली परिषदाभ से घिरे हुए देवसमूहों से परिवृत हुए 'महयाहयणहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुष्पवाइयर वेणं froars भोग भोगाई भुंजमाणा महया song सीहणाय बोलकलकलरवेणं अच्छं पञ्चयरायं पयाहिणावत मंडलचारं मेरु अररियति' अतिशयरूप से ताडित कियेजा रहे नाट्य गीत में, एवं वादन कार्य में त्रिविध संगीत में-तंत्री, तलताल, त्रुटित, घन, मृदङ्ग - इनके जोर जोर के शब्दों के साथ २ दिव्य भोग भीगों को भोगते हुए तथा उत्कृष्ट सिंहनाद करते हुए एवं बोल - मुख में हाथ देकर सीटीकीसी जोर जोर की. અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલુ છે. નક્ષત્રાદિકની અપેક્ષાએ નહિ. કેમકે વિશેષણ યથા સ ંભવ જ ચાજિત કરવામાં આવે છે. એ ચન્દ્રાદિક જ્યાતિષી દેવા અનેક હજારની સંખ્યાવાળી, તેમજ વિદ્યુતિ અનેક પ્રકારના રૂપને ધારણ કરનારી તેમજ નાટ્યગીત, વાદન વગેરે કાર્યોમાં પ્રાણુ ચાવા બદલ આભિયોગિકના ક્રર્મોને કરનારી પરિષદાએથી आवृत ठेवसभूडोथी परिवृत थयेला 'महया णट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइ' भोगभोगाइ भुजमाणा महया उकिट्ट सीहणाय बोलकलकलरवेणं अच्छं पव्ययं पयाहिणावत्तमंडलचार मेरु अणुपरियति' अतिशय ३५थी ताडित ३२वाभां भ्यावेद्या नाट्यमां, गीतमां ते वाहन भी, त्रिविध संगीतमां-तंत्री, तसतास, त्रुटित, ઘન, મૃદંગ એમની તુમુલ ધ્વનિ સાથે દિવ્ય લાગેાના ઉપભેગ કરતા તેમજ ઉત્કૃષ્ટ સિ’હનાદો કરતા તથા ખેલ-એટલે કે માંમા હાથ નાખીને સિસેટીએ જેવા અવાજ કરતા તેમજ કુલ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे रवेण-शब्देन महता महता समुद्रः शब्दभूतमिव कुर्वाणाः मेरुं परिवर्तन्ते इति क्रियासम्बन्धः, किं विशिष्टं मेरुं तत्राह-'अच्छं' इत्यादि, 'अच्छं पव्ययरायं' अच्छम् अतीव निर्मलं जाम्बूनदमयत्वात् रत्नबहुलत्वाच्च पर्वतराज-पर्वतेन्द्रम् ‘पयाहिणावत्तमंडलचार' प्रदक्षिणावर्त मण्डलचारम्, तत्र प्रकर्षेण सर्वामु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमणं कुर्वतां चन्द्रादीनां दक्षिण दिग्भागे एव मेरुर्भवति यस्मिन् आवर्तने मण्डलपरिभ्रमणलक्षणे स प्रदक्षिणः, प्रदक्षिण आवत्तों येषां मण्डलानां तानि प्रदक्षिणावर्तमण्डलानि रोषु यथाचारो भवति तथा, क्रिया विशेषणम् तेन प्रदक्षिणावर्तमण्डले चारं-गमनं यथा स्यात् तथा 'मेरुं अणुं परियमुति' मेरु पर्वतराज मनुपर्यटन्ति-परिवर्तन्ते, अर्थात् सर्वेऽपि चन्द्रादयो ज्योतिष्कदेवाः समयक्षेत्रवर्तिनः मेरु परितः प्रदक्षिणावर्तमण्डलचारेण भ्रमन्तीति चतुर्दशं द्वारम् ।। पू० ९॥ . चतुर्दशद्वारे नवमं सूत्रं व्याख्याय पञ्चदशद्वारे दशमं सूत्रं व्याख्यातुमाह-'तेसिणं भंते' इत्यादि, मूलम्-तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ से कहमियाणि पकरेंति ? गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिया देवा ते ठाणं उव. संपजित्ताणं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ । इंद टाणे णं भंते ! केवडयं कालं उववागणं विरहिए ? गोयमा ! जहणणेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए । बहियाणं भंते ! माणु. स्सुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम जाव तारारूवा तं चेत्र णेयव्वं णाणत्तं विमाणोववपणगा जो चारोववण्णगा चारट्रिइया णो गइरइया णो आवाज करते हुए तथा कल कल शब्द करते हुए उस सुवर्णमय होने से एवं रत्न बहुल होने से अत्यन्त निर्मल-ऐसे पर्वतराज की-समय क्षेत्रवता मेरु की प्रदक्षिणावर्त मण्डलगति से नित्य प्रदक्षिणा किया करते हैं। जिस मंडल परिभ्रमण में मेरु दक्षिण दिग्भाग में ही होता है वह प्रदक्षिण है यह प्रदक्षिण भावर्त जिस मंडलों का होना है वे प्रदक्षिणावर्त मण्डल हैं इन में जैसे गति होती हैं इस गति के अनुसार वे मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते है। "प्रदक्षिणावर्त मंडल चार" यह क्रिया विशेषण है ? १४ वां द्वार समाप्त ॥ કલ શબ્દ કરતા તે સુવર્ણમય હોવાથી તેમજ રત્ન બહુલતાથી અત્યંત નિર્મળ એવા પર્વતરાજની–સમય ક્ષેત્રવત મેરુની પ્રદક્ષિણાવર્ત મંડળ ગતિથી નિત્ય પ્રદક્ષિણા કરતા રહે છે. જે મંડળ પરિભ્રમણમાં મેરુ દક્ષિણ દિભાગમાં જ હોય છે તે પ્રદક્ષિણ છે. આ પ્રદક્ષિણ આવર્ત જે મંડળના હોય છે. તે પ્રદક્ષિણાવર્ત મંડળ છે એમાં જેવી ગતિ હોય છે આ ગતિ મુજબ तेसो ३५तनी प्रक्षि। ४२ता २३ छे. 'प्रदक्षिणावर्तमंडलचार' ! यि विशेषय छे. ॥६॥ છે ચતુદશ દ્વાર કથન સમાપ્ત છે Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १० इन्द्रच्यवनान्तरीयव्यवस्था निरूपणम् १४१ इस माणगा पक्किमसंठाणसंठिएहिं जोयणसय साहस्सिएहिं तावखितेहिं सबसाहस्सियाहिं वेउच्चियाहिं वाहिराहिं परिसाहिं महयाहयणटुजाव भुंज माणा सुहस्सा मंदलेस्सा चि तंतरलेस्सा अण्णोष्णसमोगाढाहिं लेस्साहिं कुडाबिच ठाणठिया सव्वओ समंता ते पए से ओभासेंति उज्जो - वेंति पभाति त्ति । तेसि णं भंते! देवाणं ताहे इंदे चुए से कह मियाणि पकरेंति जात्र जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं छम्मासा इति ॥ सू. १० ॥ छाया - तेषां खलु भदन्त ! देवानां यदा इन्द्रश्च्युतो भवति ते कथमिदानीं प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! तदा चत्वारः पञ्च वा सामानिकादेवाः तत्स्थानमुपसंपद्य खलु विहरन्ति, यावत्तत्रान्य इन्द्र उपपन्नो भवति । इन्द्रस्थानं खलु भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन विरहितम् गौतम ! जघन्येनैकं समयमुत्कर्षेण पण्मासान उपपातेन विरहितम् । बाह्याः खलु भदन्त ! मानुषोतरस्य पर्वतस्य ये चन्द्र यावतारारूपाः तदेव नेतव्यम्, नानात्वं विमानोपपन्नका श्वारस्थितिका नो गतिरतिकाः, नो गति मापन्नाः पक्वेष्टका संस्थान संस्थितै र्योजनशतसाहस्रके स्वापक्षेत्रैः शतसाहस्राभि कुर्विकाभि बयाभिः पर्षद्भिः महताहतनृत्ययावद् भुञ्जानाः सुखश्या मन्दश्याः मन्दातपलेश्याः चित्रान्तरलेश्याः अन्योन्य समवगाढा भिर्लेश्याभिः कूटानिवस्थानस्थिताः सर्वतः समन्तात् तान् प्रदेशान् अवभासयन्ति उच्द्योतयन्ति प्रभास - यन्ति । तेषां खलु भदन्त ! देवानां यदा इन्द्रश्च्युतः, ते कथमिदानों प्रकुर्वन्ति यावत जघन्येन एकं समयमुत्कर्षेण षण्मासान् ॥ सू० १०॥ टीका- 'ते सिणं भंते ! देवाणं' हे भदन्त ! तेषां चन्द्रादित्यादितारारूपाणां खलु ज्योतिष्कदेवानाम् ' जाहे इंदे चुए भवई' यदा यस्मिन्काले इन्द्रोऽधिष्ठायकश्च्युतो भवतिच्यवते तदा - ' से कहमियाणि पकरेंति' ते ज्योतिष्कदेवाः कथं केन प्रकारेण इदानी मिन्द्र इस प्रकार १४ द्वारों में नौवां सूत्र व्याख्या युक्त करके अब १५ वे द्वार में १० वे सूत्रका सूत्रकार व्याख्यान करते हैं "तेसिणं भंते! देवाणं जाई इंदे चुए भव" इत्यादि अब गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'तेसिणं भंते ! देवाणं' इन चन्द्र आदित्य-सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों का 'जाहे' जब 'इंदे चुए भवद्द' इन्द्र च्युत આ પ્રમાણે ૧૪ દ્વારેથી નવમા સૂત્રની વ્યાખ્યા કરીને હવે ૧૫ માં દ્વારમાં દસમાં सूत्र सूत्रार व्याख्यान ४रे छे- 'तेसिणं भंते! देवाणं जाई इंदे चुए भवइ' इत्यादि टीडार्थ-हुवे गौतमस्वाभीये अमुने या प्रमाणे प्रश्न पूछे - 'तेसिणं भंते ! देवाणं' से यन्द्र साहित्य-सूर्य वगेरे ज्योतिष्ड हेवाना 'जाहे' न्यारे 'इंदे चुए भवइ' ४न्द्र Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जम्मूतीपप्रशसिसत्रे विरहकाछे किं प्रकुर्वन्ति इति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तहा चत्तारिपंच वा सामाणिमा देवा' सदा चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः तदा तस्मिन् इन्द्रच्यवनकाले चत्वारः-चतुः संख्यकाः पञ्च-पञ्चसंख्यका वा सामानिका देवाः, एकमत्येन मिलित्वा 'तं ठाणं उवसंवन्जित्ताणं विहरंति' तत्स्थानमुपसंपद्य खलु विहरन्ति, तस्य च्युते न्द्रस्य स्थानमुपसंपद्य अधिष्ठाय विरहन्ति तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, कियत्कालपर्यन्त मिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव तत्थ अण्णे इंदे उवाण्णे भवइ' यावत्तत्रान्य इन्द्र उपपन्नो भवति, यावत्कालपर्यन्तम् अन्योऽपर इन्द्रोऽधिष्ठायक उपपन्नः समुत्पन्नो भवतीति । सम्पति, इन्द्रविरहकालं प्रश्नयन्नाह-'इंदट्ठाणेणं' इत्यादि, 'इंदट्ठाणेणं भंते' इन्द्र. स्थानं खलु भदन्त ! केवइयं कालं उववाएणं विरहिए' कियन्तं कालं कियत्कालपर्यन्तम् उप पातेन-इन्द्रस्योत्पादेन विरहितं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं छम्माल उववाएणं विरहिए' जघन्येनैकं समय मुत्कर्षण होता है 'से कहमियाणिं पकरेंति' तब वे उस समय क्या करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं 'गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिया देवा ते ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरति' हे गौतम ! उस समय चार या पांच सामा. निकदेव एक संमति से मिलकर उस च्युत हुए इन्द्र के स्थानकी पूर्ति कर देते हैं। 'जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ' फिर वहां पर कोई दूसरा इन्द्र उत्पन्न हो जाता है तात्पर्य कहने का यही है कि इन्द्र से रिक्त हुए इन्द्र स्थान पर चार या पांच सामानिक देव स्थानापन्न इन्द्र के रूप में तब तक ही काम संचालित करते रहते हैं कि जब तक कोई दूसरा इन्द्र उस स्थान पर उत्पन्न नहीं होता है। 'इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइयं कालं उववाएणं बिरहिए' है भदन्त ! इन्द्रस्थान कितने काल तक इन्द्र के उत्पाद से विरहित रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासे' हे गौतम! इन्द्र च्युत थाय छे. 'से कहमियाणि पकरें ति' त्यारे तमा त सभये शु ४२ छ ? अना नवासमा प्रभु ४३ छे. 'गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिया देवा ते ठाणं उवसंपज्जिताणं विहरति' गौतम!ते समये यार पांय सामानि हेवास भतिथी भणीन त श्युत थयेा छन्द्रना स्थाननी पूति ४२ छे. 'जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ' પછી ત્યાં કેઈ બીજે ઈદ્ર ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઈન્દ્રથી રિક્ત થયેલા ઈન્દ્રના સ્થાન પર ચાર કે પાંચ સામાનિક દેવ સ્થાનાપન ઈન્દ્રના રૂપમાં ત્યાં સુધી જ કામનું સંચાલન કરતા રહે છે કે જ્યાં સુધી કેઈ બીજે ઇન્દ્ર તે સ્થાન 6५२ 64न्न थता नथी. 'इंद द्वाणेणं भते ! केवइयं कोलं उबवाएणं विरहिए' के सहत! ઈન્દ્ર સ્થાન કેટલા કાળ સુધી ઈન્દ્રના ઉત્પાદથી વિરહિત રહે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ -'गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसे गं छम्मासे' 3 गौतम ! ईन्द्रनु स्थान छन्द्रना Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाधिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. १० इन्द्रच्यवनान्तरीयव्यवस्थानिरूपणम् १४३ पण्मासान् उपपानेन विरहितम्, जघन्यत एकसमयं यावदिन्द्रोपपातेन तथोत्कर्षतः षण्मासान् यावत् उगपातेन विरहितं भवतीन्द्रस्थानम्, ततः परमवश्य मन्यस्येन्द्रस्य उत्पादादिति । सम्प्रति समयक्षेत्रबहिर्बति ज्योतिष्कदेवानां स्वरूपं प्रष्टुमाइ-बहियाणं' इत्यादि, 'बहियाणं मंते ! माणुस्मुत्तरस्स पव्ययस्स' बाहिः खलु (बहिस्ताद खलु) भदन्त ! मानुषो. त्तरस्य पर्वतस्य, मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिर्भागे इत्यर्थः 'जे चंदिम जाब तारारूवा तंवेव णेयवं' ये चन्द्र याव तारारूपास्त देव, ये चन्द्रसूर्य ग्रहनक्षत्र तारारूपा देवस्ते किमृध्वोपपत्रका:कल्पो. पपन्नाः विमानोपपनकाः चारोपपन्नकाः चारस्थितिका गतिरतिरकाः गतिसमापनकाः किमिति संपूर्ण प्रश्न शक्यस्य याव पदेन संग्रहः तथा, भगवानाह-हे गौतम ! नो ऊध्वोंपपनकाः नापि कल्पोपपन्न हाः, एनपर्यन्नं यावत्पदेन संगृह्य ते 'णाणत' नानात्वं पूर्वसूत्रापेक्षया एतत्, यत् 'विमाणोक्ण्ण मा' ते मानुषोत्तर पर्वतस्य वहि ये चन्द्रादयो ज्योतिष्कदेवास्ते नो ऊोपपन्नका न वा कल्योपपन्नकाः किन्तु विमानोपपत्रकाः 'णो चारोववण्णगा' नो चारोपपन्नकाः 'चारदिईया' चारस्थितिकाः गतिवर्जिता इत्यर्थः, अतएव 'णो गतिरइया' का स्थान इन्द्र के उत्पाद से कम से१ एक समय तक और अधिक से अधिक ६ माह तक रिक्त रहता है इसके बाद तो अवश्य ही अन्य इन्द्रका वहां उत्पाद हो ही जाता है। अब गौतम स्वामी समय क्षेत्र से बहिवेती ज्योतिष्क देवों के स्वरूप के सम्बन्ध में पूछने के लिये 'याहियाणं भंते ! माणुसुत्सरस्स पव्वयस्स जे चंदिम जाव तारारूवा तं चेव णेयत्व' प्रभु से ऐसा अपना अभिप्राय प्रकट कर रहे हैं कि-हे भदन्त ! मानुपांतर पर्वत से बाहिर जो चन्द्र सूर्य, ग्रह नक्षत्र एवं तारा है वे क्या उर्वोपपन्नक है ? या कल्पोपपन्नक है ? या विमानोपपन्नक हैं ? या चारोपपन्नक है ? या चारस्थितिक है ? या गतिरतिक हैं ? या गति समापन्नक है ? इसके उत्तर में प्रभु ने उन से कहा है कि हे गौतम ! ये मानुषोत्तर पर्वत के बाहिर के जो ज्योतिषी देव हैं वे न उर्बोपपन्नक हैं न कल्पोपपन्नक हैं किन्तु ઉત્પાદથી ઓછામાં ઓછું એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે ૬ માસ સુધી રિક્ત રહે છે. એના પછી તે ચેકસ બીજે ઇન્દ્ર ત્યાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. હવે ગૌતમસ્વામી સમય ક્ષેત્રમાંથી બહિર્વતી તિષ્ક દેના સ્વરૂપ સંબંધમાં प्रश्न ४२१। भाटे 'बाहियाणं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम जाव तारारूवा तं चेव णेयव्वं' प्रमुनी साम पोताना सव। मालप्राय ४८ ४. छे । त ! भानुषोत्तर પર્વતથી બહાર જે ચન્દ્ર, સૂર્ય ગ્રહ, નક્ષત્ર તેમજ તારાઓ છે, તેઓ શું ઉપપન્નક છે? અથવા કપનક છે? અથવા વિમાને પપનક છે? અથવા ચારોપપન્નક છે? અથવા ચાર સ્થિતિક છે! અથવા ગતિરતિક છે? અથવા ગતિ સમાપનક છે? એના જવાબમાં પ્રભુએ તેમને કહ્યું છે કે હે ગોતમ ! એઓ માનુષત્તર પર્વતની બહારના જે જતિષી દે છે તેઓ ઉપનિક નથી તથા કલ્પપપન્ન પણ નથી પરંતુ વિમાને ૫૫નક છે, એ ચારો Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मो गतिरतिकाः ‘णो गइसमावष्णगा' नो गतिसमापनकाः 'पकिट्ठगसंठाणसंठिपहि' पक्वे. प्टकासंस्थानसंस्थितैः 'जोयणसयसाहस्सिएहि' योजनशतसाहसिकः-लक्षयोजनप्रमाणैः 'तावखित्तेहि' तापक्षेत्रः, तान् प्रदेशान् अवमासयन्तीति क्रियासम्बन्धः, अत्र पकवेष्टकासंस्थानं यथा पकवेष्टका आयामतो लम्बायमाना विष्कम्भतः स्तोका चतुष्कोणा च भवति, तेनैव प्रकारेण तेषां मनुष्य क्षेत्रवत्तिनां चन्द्रसूर्याणां तापक्षेत्राणि आयामतोऽनेकयोजनलक्ष प्रमाणानि, विष्कम्भतो योजनशतसहस्रमाणानि भवन्ति, अयं भावः-मानुषोत्तरपर्वतात् योन नलक्षस्या तिक्रमे सति प्रथा चन्द्रसूर्यपाक्ति स्तदनन्तरं योजनलक्षातिक्रमे द्वितीयापछक्तिः, विमानोपपन्नक हैं चारेपपन्नक भी ये नहीं है किन्तु चारस्थितिक हैं गतिवर्जित है, अत एव ये गतिरतिक भी नहीं हैं और न गतिसमापन्नक भी है। तात्पर्य यही है कि अढाई द्वीप के ही ज्योतिषी देव गतिरतिक गतिसमापन्नक और चारोपपन्नक कहे गये हैं-ढाई द्वीप से बाहर के ज्योतिषी देव गतिवजित कहे गये हैं। 'पकिटगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खित्तेहिं सयसाहस्सियाहिं वे उब्वियाहि वाहिराहि परिसाहिं महयाहयण? जाव भुंजमाणा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदानवलेस्सा चित्तंतरालेस्सा' ये ज्योतिषी देव पक्व ईट के जैसे संस्थान वाले ऐसे एक लाख योजन प्रमित ताप क्षेत्र को अवभासित करते है पकी हुई ईट का संस्थान आयाम की अपेक्षा लम्बा होता है और विष्कम्भ की अपेक्षा स्तोक-कम-होता है एवं चार कोनों वाला होता हैं इसी प्रकार से मनुष्य क्षेत्रवती चन्द्र सूर्यो के ताप क्षेत्र आयाम की अपेक्षा अनेक योजन लक्ष प्रमाण लम्बे होते हैं और विष्कम्भ की अपेक्षा वे एक लाख योजन के प्रमाण वाले होते हैं तात्पर्य यह है कि-मानुषोत्तर पर्वत से आधे लाख योजन પપનક પણ નથી પરંતુ ચાસ્થિતિક છે, ગતિવર્જીત છે એથી એ ગતિતિક પણ નથી અને ગતિસમાપનક પણ નથી. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અઢઈ દ્વીપના જ તિષી દેવ ગતિરતિક, ગતિસમાપનક અને ચારેપ પન્નક કહેવામાં આવેલા છે. અઢાઈ औपनी महान ज्योतिषी हे। गतिवलित वामां आवे छे. 'पकिदुगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खित्तेहिं सयसाहस्सियाहिं वेउब्वियाहि बाहिराहिं परिसाहि महया यणढ जाव भुंजमाणा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदातवलेस्सा चित्तंतरलेस्सा' से ज्यो તિષ્ક દેવો પક્વ ઇંટ જેવા સંસ્થાનવાળા, એવા એક લાખ જન પ્રમિત તાપેક્ષેત્ર ને અવભાસિત કરે છે. પફવ ઈટનું સંસ્થાન આયામની અપેક્ષાએ સ્નેક-કમ-હોય છે, તેમજ ચતુકેણુ યુક્ત હોય છે. આ પ્રમ ણે મનુષ્ય ક્ષેત્રવતી ચન્દ્ર સૂર્યના તાપક્ષેત્ર આયામની અપેક્ષાએ અનેક જન લક્ષ પ્રમાણુ દીર્ઘ હોય છે અને વિષ્કભની અપેક્ષાએ તેઓ એક લાખ જન જેટલા પ્રમાણવાળા હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે માનુષોત્તર પર્વતથી અર્ધા લાખ જન પછી પ્રથમ ચન્દ્ર, સૂર્ય, પંક્તિ છે. ત્યાર પછી એક એજન Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १० इन्द्रच्यवनानन्तरीयव्यवस्थानिरूपणम् १५५ तेन प्रथमपक्तिस्थितचन्द्रपुर्यमण्डलानामेतावान् तापक्षेत्रस्यायामो विस्तारश्च भवति, एकस्मात् सूर्यादपरः सूर्यों लक्षयोजनस्यातिकमे भवति तेन लक्षयोजनप्रमाणउक्त इति । _ 'सयसाहस्सियाहिं' शतसाहतिकाभिः-लक्षप्रमाणाभिः 'वेउब्वियाहि वैकुर्विवाभि:वैक्रियलन्ध्या संपादितामिः 'परिसा हिं' पर्षद्भिः 'महयाइयणट्ट जाव भुंजमाणा' महता हत नृत्यगगीतवादित्रतत्रीतलतालत्रुटितघनभृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः ते चन्द्रादयः 'मुहलेस्सा' सुखलेश्याः अत्र मुखलेश्येति.विशेषणं चन्द्रस्यैव योग्यत्वात् तेन नातिशीततेजसो मनुष्यलोकइत्र शीतकालादौ, एकान्ततः शीतरश्मयो नेत्यर्थः मन्दलेश्याः , एतच विशेषणं सूर्य प्रति, तेन नात्युष्णतेजसो मनुष्यलोकदव निदाघसमये। एतके बाद प्रथम चन्द्र सूर्य पङ्क्ति है इसके बाद एक योजन आगे जाने पर दूसरी चन्द्र सूर्य पंक्ति है इस कारण प्रथम पंक्ति में रहे हुए चन्द्र सूर्य मंडलों का इतना तापक्षेत्र का आयाम और विष्कम्भ होता है एक सूर्य से दूसरा सूर्य एक योजन के अतिक्रम करने पर आता है इस कारण एक लाख योजन का तापक्षेत्र का विष्कम्भ कहा गया है ये चन्द्रादिक एक लाख की संख्यावाले तथा विकृवित अनेक प्रकार के रूपों को धारण करने वाले ऐसे आभियोगिक कर्मकारी देवसमूहों के द्वारा बडे जोर जोर से ताडित किये गये नाटय गीत एवं वादित्र वादन कार्य में-त्रिविध सङ्गीत के समय में-तंत्री तल ताल, टित, घन,मृदंग इन सब बाजों की ध्वनि पूर्वक दिव्य भोगों को भोगते हैं। ये चन्द्रादिक सुखलेश्यावाले होते है'यहां 'सुखलेश्या' यह विशेषण योग्य होने से चन्द्र के ही लागू होता है इससे मनुष्यलोक की तरह ये शीतकाल आदि में आति शीत तेज वाले नहीं होते हैं अर्थात् एकान्त से शीतरश्मि वाले नहीं होते हैं। 'मंदलेश्या,' यह विशेषण પછી બીજી ચન્દ્ર સૂર્ય પંક્તિ છે. આ કારણથી પ્રથમ પંક્તિમાં રહેનારા ચન્દ્ર-સૂર્ય મંડળને આટલા તાપેક્ષેત્રો આયામ અને વિષ્કભ હોય છે. એક સૂર્યથી બીજો સૂર્ય એક એજનને અતિક્રમ કરવાથી આવે છે. આ કારણથી એક લાખ જન ત પક્ષેત્રને વિષ્ઠભ કહેવામાં આવે છે. એલાખ જેટલી સંખ્યાવાળા એ ચન્દ્રાદિક તેમજ વિકર્વિત અનેક પ્રકારના રૂપને ધારણ કરનારા એવા આભિયમિક કર્મકારી દેવ સમૂહ વડે ખૂબજ જોર-શોરથી તાડિત કરવામાં આવેલા નાય, ગીત તેમજ વારિત્રવાદન કાર્યમાં ત્રિવિધ સંગીતના સમયમાંતંત્રી, તલ, તાલ, ત્રુટિત, ઘન, મૃદંગ એ બધા વાઘોની વનિપૂર્વક દિવ્ય ભેગોને ભોગવે છે. मे यन्द्रह सुमवेश्यावा डाय छे. मी 'सुखलेश्य' मा विशेष योग्य वा महल ચન્દ્રોને જ એ લાગૂ પડે છે, એથી મનુષ્યલકની જેમ એઓ શીતકાય આદિમાં અતિશીત तपात नथी मर्यात होतथी शतभिqा हात नथी. 'मंदलेश्य' या विशेष Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देव पुनर्देर्शयति विशेषणान्तरेण 'मंदातवलेस्सा' मन्दतपलेश्याः तत्र मन्दाः-न तीक्ष्यणस्वभावा आतपरूपाले श्या-किरणसमुदायो येषां ते मन्दातपलेश्याः 'चित्तंतरलेस्सा' चित्रान्तरलेश्या: चित्रमन्तरं च लेश्या येषां ते चित्रान्तरलेश्याः, अर्थात् चित्रमन्तरं सूर्याणां चन्द्रान्तरितत्वात् चित्रलेश्यातु चन्द्राणां शीतरश्मित्वात् सूर्याणामुष्णकिरणवत्वात् । ते च चन्द्रादयः काभिरपभासयन्ति तत्राह-'अण्णोण्ण' इत्यादि, 'अण्णोग्ण समोगाढा हिं' छेस्साहि' अन्योन्य समवगादाभिलेश्याभिः, तत्रान्योन्यं परस्परं समवगाढाभिः-संश्लिष्टाभिः लेश्यामिः मिमितप्रकाशैः चन्द्राणां सूर्याणां च लेश्याः योजनशतसहसप्रमाण विस्ताराः चन्द्रसूर्याणां सूची. पंक्त्या व्यव स्थतानां परस्परमन्धरं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि ततश्च चन्द्रस्य प्रभया मिश्रिताः चन्द्रप्रभाः, एवं प्रकारेण चन्द्रसूर्ययोः प्रभानां परस्परमिश्रीभावः प्रतिपादित इति ॥ एतेषां सूर्य के प्रति है-इस से ये अति उष्णतेज वाले नहीं होते हैं जैसे कि ये मनुध्यलोक में निदाघ के समय में-गर्मी के समय में हो जाते हैं 'मंदातवलेश्या' ये मन्द आतपरूप लेश्यावाले -किरणोंवाले होते हैं-तीक्षण किरणों वाले नहीं होते हैं 'चित्तंतरलेस्ता' इनका अन्तर विचित्र होता है और लेश्या भी इन की भिन्न २ ही होती है क्यों कि सूर्य चन्द्रों से अन्तरित होते हैं तथा चन्द्र शीतरश्मिवाले होते हैं और सूर्य उष्ण किरणों वाले होते हैं। 'अण्णोणं समोगाढाहिलोसहि कुडविषाणठिया सचओ समंता ते पएसे ओभासंति उज्जो ति पभासे तित्ति' परस्पर में मिलित प्रकाश वाले ये चन्द्र और सूर्य कूट पर्वताग्रस्थित शिखरों की तरह सर्वदा एकत्र अपने २ स्थान पर स्थित है-अर्थात् चलन क्रिया से रहित हैं। चन्द्र और सूर्यो का प्रकाश एक लाख योजन तक विस्तृत विस्तार वाला कहा है सूची पंक्ति की रचना के अनुसार व्यवस्थित हुए चन्द्र और सूर्यो का परस्पर में अन्तर ५० हजार योजन का है चन्द्र की प्रभा સૂર્ય-પ્રતિ છે. એથી એ અતિઉષ્ણ તેજવાળા હોતા નથી. જેમ કે એ મનુષ્યaswi नि५ *तुना समयमां-भीमा २६ नय छे. 'मंदातवलेश्या' असा भर आत५३५ से १-२ उय छे. तीक्ष्णु शिवाय डोतो नथी. चित्तंतर રા’ એમનું અંતર વિચિત્ર હોય છે. અને એમની વેશ્યા પણ ભિન્ન-ભિન્ન જ હોય છે. કેમકે સૂર્ય-ચન્દ્રોથી અંતરિત હોય છે. તથા શીતરશ્મિવાનું હોય છે અને સૂર્ય Byटिपण डाय छे. 'अण्णोण्णं समोगाढाहिं लेस्साहिं कुडाविव ठाणठिया सव्वओ सता ते परसे ओभासे ति उज्जोवेंति पभासें तित्ति' ५२२५२मा मिसित प्रशाणा से ચન્દ્ર અને સૂર્યકૂટ પર્વતાગ્રથિત શિખરોની જેમ સર્વદા એકત્ર પિત-પોતાના સ્થાન ઉપર સ્થિત છે. એટલે કે ચલન ક્રિયાથી રહિત છે. ચન્દ્ર અને સૂર્યોને પ્રકાશ એકલાખ ચિજન સુધી વિસ્તૃત-વિસ્તારવાળે કહેવામાં આવેલ છે. સૂચી પંક્તિની રચના મુજબ વ્યવસ્થિત થયેલા ચન્દ્ર અને સૂર્યોનું પરસ્પરમાં અંતર ૫૦ હજર જન જેટલું છે. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कार: सू. १० इन्द्रच्यवनानन्तरीयव्यवस्था निरूपणम् १४७ स्थिरत्वं दृष्टान्त द्वारा दर्श ति - कूडाविव' इत्यादि, 'कूडाविव ठाडिया' कूटानीव स्थान स्थिताः मनुष्यक्षेत्र वहिवति चन्द्रादयः तत्र कूटानीव पर्वताग्रस्थित शिखराणीव स्थान स्थिताः सर्वदैव - एकत्र स्वकीयस्थाने एव स्थिता वर्तमानाः चचनधर्मरहिता इत्यर्थः । इत्थंभूतास्ते चन्द्रादयः 'सव्वत्र संमता तेपर से' सर्वतः समन्तात् तान् प्रदेशान् स्वस्व समीप वर्तिनः 'ओभासेंति उज्जोवेंति तवेंति पभासेति त्ति' अवभासयन्ति उद्योतयन्ति तपन्ति प्रभासयन्ती । मनुष्यक्षेत्र वहिर्भूत चन्द्रादीनां ज्योतिष्कदेवानां स्वकीय स्वकीयेन्द्राभावे व्यवस्थां दर्शयितुं प्रश्नयन्नाह - 'तेसि णं मंते' इत्यादि, 'तेसि णं भंते' तेषां मानुषक्षेत्र बहिर्भूतदेवानां खलु भदन्त ! 'देवाणं' देवानां ज्योतिष्कानाम् 'जाहे इंदे चुए भवइ' यदा यस्मिन् - काले इन्द्रच्युतो भवति तत्स्थानात् च्युतः परिभ्रष्टो भवति ' से कहमियाणि पकरेंति' ते देवामन्द्रादयः इदानी मिन्द्रच्यवनकाले कथं केन प्रकारेण व्यवस्थां प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'जाव जहणेण एगं समयं उक्कोसेगं छम्मासा (ति' यावत् जघन्येनैकं समयम् उत्कर्षेण से मिश्रित सूर्य की प्रभा है और सूर्य की प्रभा से मिश्रित चन्द्र की प्रभा है इस तरह से यह चन्द्र और सूर्य की प्रभा का यह आपस में मिश्री भाव कहा गया है । इनकी स्थिरता समझाने के लिये ही कूट का दृष्टान्त दिया गया है मनुष्य क्षेत्र बहिर्वत चन्द्रादिक सब ही ज्योतिषी देव हलन चलन क्रिया से रहित कहे गये हैं इस प्रकार से ये चन्द्रादिक सर्वतः चारों ओर उन २ प्रदेशों कोअपने अपने समीपवर्ती स्थानों को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, तपाते हैं, और चमकाते रहते हैं । अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते है- 'तेसि णं भंते! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ' हे भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र बहीर्वर्ती इन ज्योfrom देवों का जब इन्द्र अपना अपना इन्द्रच्युत होता है अपने अपने स्थान से परिभ्रष्ट होता है - 'से कहमियाणि पकरेंति' तो वे ज्योतिषी देव इन्द्रादिक के अभाव में अपने यहां की कैसे व्यवस्था करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते ચન્દ્રની પ્રભાથી મિશ્રિત સૂર્યની પ્રભા છે અને સૂર્યની પ્રભાથી મિશ્રિત ચન્દ્રની પ્રથા છે. આ પ્રમાણે આ ચન્દ્ર અને સૂર્યની પ્રભાનેા આ પરસ્પરમાં મિશ્રીભાવ કહેવામાં આવેલ છે. એમની સ્થિરતા સમજવા માટે જ ફૂટનું દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવેલુ' છે. મનુષ્ય ક્ષેત્ર બહિવતી ચન્દ્રાદિક સર્વ જ્યાતિષી દેવે! હલન-ચલન ક્રિયાથી રહિત કહેવામાં આવેલા છે. આ પ્રમાણે એ ચન્દ્રાદિક સર્વાંતઃ ચામેરથી તત્ તત્ પ્રદેશાને પાત-પાતાના સમીપવતી સ્થાનાને અવભાસિત કરે છે-ઉદ્યોતિત કરે છે તપ્ત કરે છે અને ચમકાવે છે. डवे गौतभस्वामी प्रभुने या भतना प्रश्न ४रे छे- 'ते सिणं भंते ! देवाणं जाहे इदे भवइ' हे लडन्त ! भनुष्य क्षेत्र महिवर्ती थे ज्योतिष्ठ देवानी इन्द्र न्यारे पोतपोताना स्थान परथी स्युत थाय छे-पोताना स्थान परथी परिभ्रष्ट थाय छे. 'से कहमियाणि पकरे 'ति' તા તે જ્યતિથી દેવા ઇન્દ્રાદિકના અભાવમાં પાતાની વ્યવસ્થા કેવી રીતે કરે છે ? એના Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे षण्मासान्, अत्र यावत्पदेन 'गोयमा ! ताहिं चतारि पंच वा सामाणिया देवा तं ठाणं उपसंपजित्ताणं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उबवण्णे भवइ । इंदट्ठाणं भंते ! के इयं कालं उववारणं faree गोमा " गौतम ! चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवा स्वत्स्थानमुपसंपद्य खलु विहरन्ति यावत्तत्रान्य इन्द्र उपपन्नो भवति । इन्द्रस्थानं खलु भदन्त ! कियन्तं काल मुपपातेन विरहितं गौतम ! एतत्पर्यन्तप्रकारणस्य ग्रहणं भवति यावत्पदग्राह्यप्रकरणस्य व्याख्यानमित्यम्'गोमा' हे गौतम! 'ताहे' तदा इन्द्रविरहसमये ' चत्तारि पंच वा सामाणिया देवा' चत्वारः पश्च वा सामानिकाः देवाः 'तं ठाणं उत्रसंवज्जित्ताणं' तत् स्थानं च्युतेन्द्रस्थानम् उपसंपद्य खलु 'बिहरंति' विहरन्ति - तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति तत्राह - 'जाव' इत्यादि, 'जाव तत्थ अण्णे इंदे उनवणे भव' यावत्कालपर्यन्तमन्यो द्वितीय इन्द्र: 'तत्य' तत्र तदिन्द्रस्थाने उपपन्नः समुत्पन्नो भवति इति । सम्प्रति महेन्द्रविरहकाले प्रश्नयन्नाह - 'इंदट्ठाणेणं' इत्यादि, 'इंदद्वाणे णं भंते ! harयं कालं उववाणं विरहिए' इन्द्रस्थानं खलु भदन्त । कियन्तं कालमुपपातेन विरहितम् हे भदन्त ! इन्द्रस्थानं कियत्कालपर्यन्तं यावत् उपपातेन इन्द्रोत्पादेन विरहितं भवतीति प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! इति यावत्पदग्राह्य प्रकरणस्यार्थः, उत्तरम् - हे गौतम ! जघन्येनैकं समयम् उत्कर्षेण षण्मासान् यावदिन्द्रोत्पादेन विरहितं प्रज्ञप्तं तदनन्तरमवश्यमपरेन्द्रस्योत्पादसंभवादिति । इति पञ्चदशं द्वारं समाप्तम्, दशमसूत्रमपि व्याख्यातम् । तदेवं प्रकारेण पञ्चदशानुयोगद्वारैः सूर्यप्ररूपणं कृतमिति । सू. १०। तदेवं पञ्चदशानुयोगद्वारैः सूर्यप्ररूपणा कृता, तदनन्तरमवसर प्राप्तां चन्द्रप्ररूपणामाहतत्र सप्तानुयोगद्वाराणि १, मण्डल संख्या प्ररूपणा २, मण्डक्षेत्र प्ररूपणा ३, प्रतिमण्डल हैं- 'जाब जहणणेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासा' हे गौतम ! उस समय चार या पांच सामानिक देव उस स्थान पर रहकर वहां की व्यवस्था करते हैं इन्द्र से विरहित इन्द्र का स्थान कम से कम एक समय तक रहता है और अधिक से अधिक छहमाह तक रहता है इसके बाद वहाँ इन्द्र अवश्य ही उत्पन्न हो जाता है इत्यादि यह सब पूर्वोक्त प्रकरण यहां यावत् पद से गृहीत हुआ है । १५ वां द्वार समाप्त १० सूत्रो का व्याख्यान समाप्त इस तरह १५ अनुयोग द्वारों द्वारा सूर्य प्रकरण समाप्त किया गया है ॥ १० ॥ भवाणभां अलु हे छे - 'जात्र जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं छम्मासा' हे गीतभ ! ते સમયે ચાર કે પાંચ સામાનિક દેવે તે સ્થાન પર ઉપસ્થિત રહીને ત્યાંની વ્યવસ્થા કરે છે. ઇન્દ્ર-વિરહિત ઇન્દ્રનુ સ્થાન ઓછામાં એન્ડ્રુ એક સમય સુધી રહે છે અને વધારેમાં વધારે ૬ માસ સુધી રહે છે. ત્યાર બાદ ત્યાં ઈન્દ્ર અવશ્ય ઉત્પન્ન થઈ જાય છે ઈત્યાદિ આ બધું પૂર્વોક્ત પ્રકરણ અહીં યાવત્ પર્શી ગૃહીત થયેલુ છે. આ પ્રમાણે ૧૫ અનુયાગદ્વારાથી સૂર્ય પ્રકરણ સમાપ્ત કરવામાં આવ્યું છે. "સૂ.૧૦મા પંદરમુદ્વાર સમાપ્ત Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक्राशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ११ चन्द्रमण्डलसंख्यादिनिरूपणम् मन्तरप्ररूपणा ४, मण्डलायामादिमानम् ५, मन्दरपर्वतमधिकृत्य प्रथमादिमण्डलाबाधा ६, सर्वाभ्यतरादि मण्डलायामादिः ७, मुहर्तगतिः। तत्रादौ मण्डल संख्याप्ररूपणां ज्ञातुं प्रश्नयनाह-'कइणं भंते' इत्यादि, मूलम्-कइ णं भंते ! चंदमंडला पन्नत्ता ? गोयमा ! पण्णरस चंदमंडला पन्नत्ता । जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहित्ता केवइया चंदमंडला पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता पंच चंदमंडला पन्नत्ता । लवणेणं भंते ! पुच्छा, गोयमा! लवणेणं समुदे तिणि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमंडला पन्नत्ता, एवामेव सपुत्वावरेण जंबुद्दीवे दीवे लवणे य समुद्दे पन्नरस चंदमंडला भवंतीति मक्खायं ॥१॥ सव्वभंतराओणं भंते ! चंदमंडलाओगं केवइयाय अबाहाए सबबाहिरए चंदमंडले पन्नत्ते ? गोयमा! पंचदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए चंदमंडले पन्नत्ते (२) चंदमंडलस्स णं भंते! चंदमंडलस्ल केवइयाए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते? गोयमा ! पगतीसं पणतीसं जोयणाइं तीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणियाभाए चंदमंडल स्स अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।३। चंदमंडलेणं भंते ! केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! छप्पण्णं एगसद्विभाए जोयणस्स आयामविक्ख. भेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अट्ठावीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥४॥ ॥सू० ११॥ ___ छाया-'कति खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! पश्चदशचन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियदवगाध कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशोतं योजनशतमवगाह्य पञ्च चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि । लवणे खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! लवणे च समुद्रे त्रीणि त्रिशद् योजनशतानि अवगाह्यात्र खलु दश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणे च समुद्रे पञ्चदशचन्द्रमण्डलानि भवन्तीत्याख्यातम् ॥१॥ सर्वाभ्यन्तरात्खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलात् कियत्या अबाधया सर्ववाद्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! पञ्चदशोत्तरं योजनशतम् अबाधया सर्वबाह्य चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ।।२।। चन्द्रमण्डलस्य खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलस्य कियत्या अपाधया Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पञ्चत्रिंशत् पञ्चत्रिंशद् योजनानि, शिव एकषष्टिभागान् योजनस्य एकपष्टिभाग च सप्तधा हित्वा चरणिकाभागान् चन्द्रमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्याबाधा अन्तरं प्रज्ञप्तम् । ३॥ चन्द्रमण्डलं खलु भदन्त ! कियता आयामविष्कम्भेण, क्रियता परिक्षेपेण, कियत् बाइल्येन प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पइपश्चाशदेकपष्टिभागान् योजनस्य आयामविष्कम्भेण तत् त्रिगुणितं सविशेष परिक्षेपेण अष्टाविंशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ॥४॥ ११॥ टीका-'कइणं भंते ! चंदांडली पन्नता' कति-कियत्संख्यकानि खलु भदन्त ! चन्द्र मण्डलानि प्रज्ञप्तानि-कयितानीति चन्द्रमण्डलसंख्याविषयकः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पनरसचंदमंडला पन्नत्ता' पञ्चदशसंख्यकानि चन्द्रस्य मण्ड. लानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि । जिस तरह से १५ अनुयोग द्वारों द्वारा सूर्य की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से अब सूत्रकार अवसर प्राप्त चन्द्र प्ररूपणा भी करते हैं इस में ७ अनुयोगदार हैं (१) मंडलसंख्या प्ररूपगा है (२) मंडल क्षेत्र प्ररूपणा है (३) प्रतिमंडल अन्तर प्ररूपणा है (४) मंडल अयामादिकामान है (६) मन्दरपर्वत को लेकर प्रथमादि मंडलों की अबाधा हैं (६) सर्वाभ्यान्तर मंडलों का आयामआदि है (७) मुहूर्त गति है। "कइ णं भंते ! चंद मंडला पन्नत्ता'--इत्यादि टीकार्य-गौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-'कइणं भंते ! चंदमंडला पन्नसा' हे भदन्त ! चन्द्रमण्डल कितने कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पन्नरस चंदमंडला पन्नता' हे गौतम ! १५ चन्द्रमंडल कहे गये हैं। अब गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जंबुद्दीवेणं भंते ! 'केवइयं ओगाहित्ता केवइया चंद मण्डला पन्नत्ता' दे भदन्त ! जम्बूद्वीप જે પ્રમાણે ૧૫ અનુગ દ્વારે વડે સૂર્ય પ્રરૂપણ કરવામાં આવેલી છે, તે પ્રમાણે હવે સૂત્રકાર અવસર પ્રાપ્ત ચન્દ્ર પ્રરૂપણું પણ કરે છે. આમાં ૭ અનુગદ્વારે છે–(૧) મંડળ સંખ્યા પ્રરૂપણ છે. (૨) મંડળક્ષેત્ર પ્રરૂપણ છે. (૩) પ્રતિમંડળ અંતર પ્રરૂપણ છે. (૪) મંડળ આયામાદિનું માન છે. (૫) મંદર પર્વતને લઈને પ્રથમાદિ મંડળની समाधा छ. (6) साल्यातरम गाना यामाह छे. (७) भुतति छे. __ 'कइणं भंते ! चंडमंडला पन्नत्ता' इत्यादि साथ-गौतमस्वाभाये २॥ सूत्र १७ प्रभुन २ गतना प्रश्न ध्या छ ? 'कइणं भंते ! चंदमंडला पन्नत्ता' मत ! यन्द्रभट वामां माता ? मेना नाममा प्रमु ४ छे. 'गोयमा ! पन्नरस चंद मंडला पन्नत्ता' ७ गौतम ! १५ यन्द्रमा पामा मासा छे. गौतमयामी में प्रभुने 240 तो प्रश्न ये छ'जंबुद्दीवे गं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमबक्षस्कारः सू. ११ चन्द्रमण्डलसंख्यादिनिरूपणम् १५१ सम्प्रति-पश्चदशचन्द्रमण्डलाना मध्ये कतिचन्द्रमण्डलानि जम्बूद्वीपे भवन्ति कतिचन्द्र मण्डलानि लवणसमुद्रे च भवन्तीति दर्शयितुं प्रश्नयनाइ -'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंयुद्दीवेणं भंते! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइयं ओगाहिता' कियत्क्षेत्रं जम्बूद्वीपस्यावगाह्य 'केवइया चंदमंडला पन्नत्ता' कियन्ति-कियसंख्यकानि चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवेणं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपेइत्यर्थः 'असीयं जोयणसपं ओगाहित्ता' अशीति योजनशतमवगाह्य अशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्य-तस्याकगाहनं कृत्वा 'पंच चंदमंडला पत्ता' पश्च-पञ्चसंख्यकानि चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि-कथि तानीति । 'लवणे णं भंते ! पुच्छ।' लवणे खलु भदन्त ! पृच्छा, हे भदन्त ! लवण समुद्रे कियदवगाद्य कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञतानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'लवणेणं समुद्दे' लवणे खलु समुद्रे 'तिण्णि तीसे जोयणसए' त्रीणि त्रिंशद योजनशतानि, अर्थात् त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि 'ओगाहित्ता' अवगाह्यत्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि लवण समुद्रेऽवगाह्येत्यर्थः 'एत्थणं' अत्र खलु-अत्रान्तरे खलु 'दसचंदमंडला पन्नत्ता' दशसंख्यकानि चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति । नामके द्वीप में कितने क्षेत्र को घेर करके-कितने क्षेत्र को अवगाहित करकेकितने चन्द्र मंडल कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जंधुहीवेणं दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहिता पंच चंदमंडला पन्नत्ता' हे-गौतम! इन जम्बूद्वीप नामके द्वीप में १८० योजन क्षेत्र को अवगाहित करके पांच चन्द्र मण्डल कहे गये हैं 'लवणेणं भंते! पुच्छा' हे भदन्त ! लवणसमुद्र में कितने क्षेत्र को अवगाहित करके कितने चन्द्रमण्डल कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! लवणेणं समुद्दे तिणि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता एस्थणं दस चंदमंडला पन्नता' हे गौतम ! लवणसमुद्र में ३३० योजन अवगाहित करके आगत स्थान पर दश चन्द्रमंडल कहे गये हैं। 'एवामेव भंते ! केवइयं ओगाहित्ता केवइया चंदमंडला पन्नत्ता' 3 महत! पूदी५ नाम दीपमा કેટલા ક્ષેત્રને આ વ્રત કરીને કેટલા ક્ષેત્રને અવગાહિત કરીને-કેટલા ચન્દ્રમંડળે કહેવામાં मावा छ ? सेना पसभा प्रभु ४३ छ-'गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे असीयं जोयगसय ओगाहित्ता पंच चंद मंडला पन्नत्ता' के गोतम ! यूदीमा १८० यान क्षेत्रने अवशालिनशन पांय यन्द्रभावामा माया छे. 'लवणे णं भते ! पळा' ભદંત! લવણસમુદ્રમાં કેટલા ક્ષેત્રને અવગાહિત કરીને કેટલા ચંદ્રમંડળો કહેવામાં આવેલા छ १ सेना याममा प्रभु ४३ छे-'गोयमा ! 'लवणे णं समुद्दे तिणि तीसे जोयणसए ओगा हित्ता एत्थ गं दस चंदमंडला पन्नत्ता' 3 गोम! समुद्रमा 330 यान सहित उशन भागत स्थान ५२ ४२॥ यद्रमा वामां मावे। छे. 'एवामेव सपुव्वावरेणं Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - १५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ सम्प्रति उभयत्र संकलनया कति चन्द्रमण्डलानीति कथयितुं संकलनामेव दर्शयति-'एवामेव' इत्यादि, 'एवामेव सपुवावरेणं' एवमेव सपूर्वापरेण-पूर्वापरसंकलनया 'जंबुद्दीवे दी लवणसमुद्देय' जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणसमुद्रे च जम्बूदीपे लवणसमुद्रे उभयत्रापि मिलित्वा पनरस चंद-मंडला भवंतीतिमक्खायं' पश्चदशचन्द्रमण्डलानि भवन्तीत्याख्यातम् मया महावीरस्वा. मीना तीर्थकरेणान्यैरपि आदिनाथादिभिस्तीर्थकरैश्च प्रतिपादितमिति ॥१॥ सम्प्रति-द्वितीयं मण्डलक्षेत्रमरूपणाद्वारमाह-'सबभंता' इत्यादि, 'सबभंतराओ णं भंते ! चंदमंडलाओ' सर्वाभ्यन्तरात् खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलात् 'केवइयाए अबाहाए सव्वबाहिरए चंदमंडले पन्नते' कियत्या अबाधया अव्यवधानेन सबाह्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, सर्वाभ्यन्तर चन्द्रमण्डलात् कियद्रे सर्वबाह्यं चन्द्रमण्डलं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा हे गौतम ! 'पंचदमुत्तरे जोयण पए' पञ्चदशोत्तरागि योजनशतानि, दशाधिकानि पञ्च योजनशतानीत्यर्थः 'अबोहाए सव्ववाहिरए चंदमंडले पनते' अवाधया सर्वबाह्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञसम्, अयं भाव:-सर्वाभ्यन्तरादिभिः चन्द्रमडलैः सर्वबाह्यान्तै यत् व्याप्तमाकाशं तन्मण्डलसपुव्वावरेणा जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे य पन्नरस चंदमंडला भवंतीति मक्खायं इस प्रकार सष चन्द्र मण्डल जम्बूदीप के ५ और लवणसमुद्र के १० मिलकर १५ हो जाते हैं ऐसा आदेश श्री आदिनाथ तीर्थकर से लेकर मुझ महावीर तीर्थकर तक के अनन्त केलियों का है 'सधभतराओ णं भंते! चंदमंड. लाओ केवड्याए अबाहाए सव्ववाहिरए चंदमंडले पण्णत्ते' हे भदन्त ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्रमण्डल से कितनी दूर सर्वेबाह्य चन्द्रमंडल कहा गया है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पंचदसुत्तरे जोयणसए अवाहाए सव्ववाहिरए चंदमंडले पन्नते' हे गौतम ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्रमण्डल से सर्वबाह्य चन्द्रमंडल ५१० योजन की दूरी पर कहा गया है-अर्थात् ५१० योजन दूर कहा गया है सर्वबाह्य चन्द्र मण्डलान्त तक जो सर्वाभ्यन्तर चंद्र मण्डलादि हैं उनके द्वारा व्याप्त जो आकाश है वह मण्डल क्षेत्र कहलाता है ५१० योजन का जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे य पन्नरस चंदमडला भवंतीति मक्खाय' २८ प्रमाले । यद्रમંડળ જંબુદ્વીપના ૫ અને લવણસમુદ્રના ૧૦ આમ બધા મળીને ૧૫ થઈ જાય છે. એ આદેશ શ્રી આદિનાથ તીર્થકરથી માંડીને મારા સુધી અનંત કેવળીઓને છે. 'सव्वभंतराओ णं भते! चंदमंडलाओ केवइयाए अबहाए सवबाहिरए चंदमंडले पण्णत्ते' હે ભદંત ! સર્વાત્યંતર ચન્દ્રમંડળથી કેટલે દૂર સર્વબાહ્ય ચંદ્રમંડળ કહેવામાં सावले छ ? सेना समां प्रभु ४ छ -'गोयमा! पंवदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्व बाहिरए चंदमंडल पन्नत्ते' गीत ! समय२ यद्रमी सर्व प यन्द्रम ૫૧૦ એજન જેટલું દૂર આવેલ છે. એટલે કે ૫૧૦ એજન દૂર કહેવામાં આવેલ છે. સર્વબાહા ચન્દ્રમંડલાન્ત સુધી જે સભ્યતર ચંદ્રકંડલાદિ છે, તેમના વડે વ્યાપ્ત છે Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ११ चन्द्रमण्डलसंख्यादिनिरूपणम् १५३ क्षेत्रम्-तत्र व चन्द्रकबासया विष्कम्भः पश्चयोजनशतानि दशाधिकानि, अष्टचत्वारिंशबैकपष्टिभागाः योजनस्य ५१०८ एतच्च व्याख्यातोऽधिकं ज्ञातव्यम्, तथाहि-पञ्चदशचन्द्रस्य मण्डलानि चन्द्रपिम्बस्य विष्कम्भः एकषष्टिभागात्मक योजनस्य षट्पश्चाशद्भागाः, तेन ते ५६ पापभिर्गुण्यन्ते, गात ८४० तदनन्तरमेतेषां योजनानयनार्थम् एकपष्टया मागे हते सति सम्धानि प्रयोदश योजनानि शेषा भवतिष्ठन्ति सप्तरसारिंशत्, तथा पचत्रिवार योजनानि त्रिंशष एकषष्टिभागाः योजनस्य, एकस्य च षष्टिभागस्य सप्तधा छिमस्य संवन्धिनश्चत्वारो भागाः, ततो यदा पञ्चत्रिंशत् चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते तदा जातानि चत्वारि योजन सतानि नवत्यधिकानि, येऽपि च त्रिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते, जातानि चत्वारिशतानि विंशत्यधिकानि, अयंचराशिरेक षष्टिभागात्मकस्तेन एकषष्टया भागो हियते, लब्धानि पइयोजनानि, एषु पूर्वराशौ प्रक्षिप्तेषु जातानि ४९६ योजनानि शेषाश्चतुःपञ्चाजो यह मंडल क्षेत्र कहा गया है सो इस में एक योजन के ६१ भाग कर उसके ४८ भाग और अधिक कर देना चाहिये इस तरह यह मंडल क्षेत्र ५१. योजन का होता है ऐसा जानना चाहिये इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से हैचन्द्रमण्डल १५ कहे गये हैं चन्द्रषिम्यका विष्कम्भ एक योजन के कृत ११ भागों में से ५६ भाग प्रमाण है सो १५ को ५६ से गुणित करने पर ८४. होते हैं अप ८४. भागों के योजन बनाने के लिये ६१ का भाग देने पर ४७ भाग बचते हैं और १३ योजन बन जाते हैं १५ मंडलों की अन्तर संख्या १४ होती है एक एक मंडल का अन्तर ३५%, योजन का है और ६१ भागके १ भाग के ७ टुकडे करने पर ४ भाग प्रमाण है जब ३५ में १४ से गुणा करते हैं तष ४९० योजन आते हैं जो भाग है इन्हें भी जव १४ से गुणित करते है तब ४२० आते हैं यह राशि ६१ भागात्मक है इसलिये ६१ का भाग देने पर આકશ છે તે મંડળશેત્ર કહેવાય છે. તે આમાં એક એજનના ૬૧ ભાગે કરીને તેના ૪૮ ભાગે બીજા વધારાના કરવા જોઈએ. આ પ્રમાણે આ મંડળક્ષેત્ર ૫૧૦Yર જન જેટલું થાય છે. આમ સમજવું જોઈએ. આનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે. ચન્દ્રમંડળ ૧૫ કહેવામાં આવેલા છે. ચન્દ્રબિંબને વિકુંભ એક એજનના ૬૧ ભાગમાંથી ૫૬ ભાગ પ્રમાણ છે. તે ૧૫ ને ૫૬ સાથે ગુણિત કરવાથી ૮૪૦ થાય છે. હવે ૮૪૦ ભાગોના જન બનાવવા માટે ૬૧ ને ભાગાકાર કરવાથી ૪૭ ભાગ અવશિષ્ટ રહે છે અને ૧૩ જન બને છે. ૧૫ મંડળની અંતર સંખ્યા ૧૪ થાય છે. એક-એક મંડળનું અંતર ૩૫ જન જેટલું છે. અને ૬૧ ભાગ પૈકી એક ભાગના ૭ કકડા કરવાથી ૪ ભાગ પ્રમાણ થાય છે. જ્યારે ૩૫ માં ૧૪ ગુણિત કરવામાં આવે છે ત્યારે ૪૯૦ જન આવે છે. જે ૨ ભાગ છે. આ બધાને પણ જ્યારે ૧૪ થી ગુણિત કરીએ છીએ ત્યારે ૪૨૦ આવે છે. આ રાશિ ૬૧ ભાગાત્મક છે, એટલા માટે ૬૧ ને ભાગાકાર કરવાથી ૬ યજન બને ज०२० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शदेकषष्टिभागा स्थिष्ठन्ति, ये च एकस्यैकष्ठिभागस्य सम्बन्धिन श्चत्वारः सप्तभागा स्तेऽपि च चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जाताः षट्पञ्चाशत्, तेषां सप्तभिर्भागे हृते लब्धा अष्टौ एकषष्टि भागाः ते अनन्तरोक्तचतुःपञ्चाशति प्रक्षिप्यते, जाता द्वापष्टिः ६२, तत्रैकषष्टिभागै योजनं लब्धं. तञ्च योजनराशौ प्रक्षिप्यते एक कपष्टभागः शेषः ४९७ योजन', इदं च मण्डलान्तर क्षेत्रम्, योऽपि च विम्बक्षेत्रराशिः योदश योजन सप्तचत्वारिंशदेकषष्टिभागात्मकः सोऽपि मण्डलराशौ प्रक्षिप्यते, जातं योजनानि ५१० यश्चर्वोद्धरित एकः एकपष्टिभागः स सप्त चत्वारिंशति प्रक्षिप्यते, जातं ४८ एकपष्टिभागः । ____ अथ पञ्चदशसु मण्डलेषु चतुर्दशस्यैवान्तरालस्य संभवात् चहुर्दशभिरेव भाजनं युक्तम् सप्तचत्वारो भागा इति कथं संगच्छते इति चेदत्रोच्यते-मण्ड लान्तरक्षेत्रराशेः ४९७%, ६ योजन बनते हैं। पूर्व राशि में इन्हें मिलाने पर ४९६ योजन होते हैं। बाकी जो ५४ बचे हैं वे ६१भाग के हैं । तथा ६१ भाग में से १ भाग के भाग हैं वे जब १४.से गुणित होते हैं तब ५६ आते हैं अब इन मे ७ का भाग देने पर आते हैं वे अनन्तरोक्त ५४ से मिला देने पर ६२ होजाते हैं एक गोजन के ६१ भाग किये गये हैं सो ६२ भागों का तो एक योजन बनजाता है इसे योजन रशि में मिला देने पर४९७२ योजन हो जाते हैं । यह मण्डलान्तर क्षेत्र है तथा जो विम्ब क्षेत्र राशि १ योजन की है उसे भी मण्डलराशि में जोड देना चाहिये इस तरह ५१० योजन आ जाते हैं ! जो एक भाग है उसे ४७ में जोड देने पर हो जाते हैं। अब कोई यहां पर ऐसी आशंका करता है-१५ चन्द्र मण्डलों में अन्तराल १४ ही होता हैं तो फिर १४ का ही भाग देना चाहिये तय : भाग होते हैं ऐसा आपका कथन कैसे संगत होता है तो इस शंका का परिहार-ऐसा है-मण्डलान्तरक्षेत्र राशि ४९७ को मण्डलान्तर ४ द्वारा विभक्त किये जाने पर ३५ છે. પૂર્વરાશિમાં એમને જેડવાથી ૪૯૬ થાય છે. શેષ જે પ૪ રહે છે તે ૬૧ ભાગના છે. તેમજ જે ૬૧ ભાગમાંથી ૧ ભાગના ૪ ભાગો છે તે જ્યારે ૧૪ થી ગુણિત થાય છે. ત્યારે પર આવે છે. હવે એમાં ૭ ને ભાગાકાર કરવાથી ડ આવે તે અનંતરેક્ત ૫૪ માં જોડવાથી દૂર થઈ જાય છે. એક એજનના ૬૧ ભાગો કરવામાં આવે છે. તે ૬૨ ભાગેને તે એક પેજન બને છે. આને જન રાશિમાં જોડવાથી ૪૯૭ જન સંખ્યા થાય છે. આ મંડલાન્તર ક્ષેત્ર છે, તેમજ જે બિંબક્ષેત્ર રાશિ ૧૩ એજન જેટલી છે તેને પણ મંડળ રાશિમાં જોડી દેવી જોઈએ. આમ ૫૧૦ એજન આવી જાય છે. જે એક , ભાગ છે તેને ૪૭ માં જોડવાથી ૬ થઈ જાય છે. હવે કોઈ અહીં એવી આશંકા કરે કે ૧૫ ચંદ્રમંડળમાં અંતરાલ ૧૪ જ હોય છે તે પછી ૧૪ નો જ ભાગાકાર કરવા જોઈએ. તેથી હું ભાગ થાય છે. એવું આપનું કથન કેવી રીતે સંગત થાય છે તે આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે–મંડલાન્તર Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमबक्षस्कारः सू. ११ चन्द्रमण्डलसंख्यादिनिरूपणम् मण्डलान्तरै श्चतुर्भिाजन लब्धानि भवन्ति पञ्चत्रिंशत ३५ योजनानि, उद्धरितस्य योजनराशेरेकषष्टया गुणने मूलशशि संबन्ध्ये कषष्टिभागप्रक्षेपे च जातमष्टाविंशत्यधिक चतुः शतम् ४२८, एषां चतुर्दशभिर्भाजने आगतः अंशराशिः त्रिशत् ३० शेषा अष्टौ, तेषां चतुदेशभिर्भागस्यासंभवात्, लाघवार्थ द्वाभ्यामपवर्तने जाते भाज्यभाजकराश्योः - इति सर्व मनवधमिति मण्डलक्षेत्रप्ररूपणाद्वारं द्वितीयं समाप्तम् ॥ सम्प्रति-तृतीयं मण्डलान्तरप्ररूपणाद्वारं दर्शयितुं प्रश्नयनाह-चंदमंडलस्स गं' इत्यादि, 'चंदमंडलस्स णं भंते ! चंदमंडलस्स' चन्द्रमण्डलस्य खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलस्य, हे भदन्त ! एकं चन्द्रमण्डलमपेक्ष्यापरस्य चन्द्रमण्डलस्येत्यर्थः 'केवइयाए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' कियत्या अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्, द्वयोश्चन्द्रमसोः कियदन्तरम् इति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'यणतीसं पणतीसं जोयणाई' पञ्चत्रिंशत्पश्चत्रिंशद योजन लब्ध होते हैं उद्धरित योजन राशि को ६१ से गुणा करने पर और मूलराशि सम्बन्धी ६१ मिलाने पर ४२८ होते हैं अब इन में १४ का भाग देने पर अंशराशि ३० आती है और शेष स्थान में ८ बचते हैं क्योंकि इन में आठ का भाग नही जाता है। लघुता के निमित्त दो के द्वारा इन का अपवर्तन करने पर भाज्य भाजक राशि प्रमाण आजाता है अतः पूर्वोक्त कथन अनवद्य है। इस प्रकार से यह द्वितीय प्ररूपणा द्वार समाप्त हुआ - तृतीय मण्डलान्तर प्ररूपणा द्वारइस में गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'चंदमंडस्स णं भंते ! चंदमलस्स केवड्याए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' हे भदन्त ! एक चन्द्रमण्डल का दसरे चन्द्रमंडल से कितनी दूरका अन्तर कहा गया है ? अर्थात् दोनों चन्द्रमाओं का परस्पर में कितना अन्तर है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! पणतीसं ક્ષેત્ર રાશિ ૪૭ ને મંડલાન્તર ૪ વડે વિભક્ત કરવાથી ૩૫ પેજને લબ્ધ થાય છે. ઉદ્ધરિત જન રાશિને ૬૧ થી ગુણિત કરવાથી અને મૂવ રાશિ સંબંધી ૬૧ ને જોડવાથી ૪૨૮ થાય છે. હવે એમાં ૧૪ ને ભાગાકાર કરવાથી અંશ રાશિ ૩૦ આવે છે અને શેષ સ્થાનમાં ૮ વધે છે કેમકે એમાં આઠને ભાગી જતે નથી લઘુતા માટે નિમિત્ત વડે એમનું અપવર્તન કરવાથી ભાજ્ય-ભાજક શશિનું પ્રમાણુ હું આવી જાય છે. એથી પૂર્વોક્ત કથન અનવદ્ય છે. આ પ્રમાણે આ દ્વિતીય પ્રરૂપણાદ્વાર સમાપ્ત. તૃતીય કંડલાન્તર પ્રરૂપણોદ્ધાર मामा गीतभस्वामी प्रभुन मागतना प्रश्न छ -'दमंडलरस गं भंते ! चंदमंडलस केवइयाए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' मत ! ४ यन्द्रभानु मी यन्द्रમંડળથી કેટલે દૂર અંતર કહેવામાં આવેલું છે? એટલે કે બને ચન્દ્રમાઓનું પરસ્પરમાં १ मत छ ? सेना नाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! पणतीसं पणतीसं जोयणाई तीसं Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे योजनानि 'तीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स' त्रिंशच्चैकपष्टिभागान योजनस्प 'एगं च एगसद्विभागं सत्तहा छेत्ता' एक चैकषष्टि भागं सप्तधा-सप्तप्रकारेण छित्वा 'चत्तारि चुण्णिया भागे' चतुरश्चूर्णिकाभागान् 'चंदमंडलस्म अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' चन्द्रमण्डलस्य चन्द्र - मण्डलस्याबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्, अर्थात् पञ्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशच्चैकपष्टिभागान् योजनस्यैकं चैकषष्टिभाग सप्तशा विभिद्य चतुरश्चूर्णिका भागान्, एतावच्चन्द्रमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्याबाधया अन्तरं भवतीति तृतीयं मण्डलान्तरद्वारं समाप्तम् ।। ___ सम्प्रति-चतुर्थमण्डलायामादिमानद्वारमाह-'चंदमंडलेणं भंते !' इत्यादि, 'चंदमंडळे पणतीसं जोयणाई तीसंच एगसद्विभाए जोयणस्स' हे गौतम! ३५-३५ योजन का तथा एक योजन के ६१ भागों में से ३५ भाग प्रमाण अन्तर कहा गया है इस तरह ३५ योजन का अन्तर वाच्य हो जाता है इस में इतना और संशोधन करलेना चाहिये-'एगं च एगसहिभागं सत्सहा छेसा यत्सारि सुणिया भागे' ६१ भागों में से एक भाग के ७ दुकडे करना और उन में से ४ भाग लेना इस तरह इतना और अधिक अन्तर में प्रक्षिप्त कर देना-इस प्रकार से 'चंदमंडलस्स चंदमंडलस्स अचाहाए अंतरे पण्णसे' एक चन्द्रमंडल का दूसरे चन्द्रमंडल से अन्तर कथन स्पष्ट हो जाता है समुदितार्थ इसका ऐसा हो जाता है कि एक चन्द्रमंडल का दूसरे चन्द्र मंडल से ३५० योजन का और ६१ योजन भागों में से १ भाग के ७ भाग करने पर ४ भाग प्रमाण अन्तर है। तृतीयमण्डलान्तर द्वार कथन समाप्त. चतुर्थमंडल आयामादि द्वार कथन इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है 'चंदमंडलेणं भंते ! केवइयं च एगसद्विभाए जोयणस्स' गौतम ! ३५, ३५ योजना तथा ४ योजना ६१ ભાગમાંથી ૩૫ ભાગ પ્રમાણુ અંતર કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે ૩૫ જનનું भत२ पाच्य थ य छे. मामा मामी साधन ४२ मे, 'एग च एगसद्विभागं सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणिया भागे' ११ मागोमांथी मे भागना ७६ કરડાએ કરવા અને તેમાંથી ૪ ભાગ લેવા. આ પ્રમાણે કે આટલું વધારે અંતરમાં प्रक्षिात ४३ हे. भाम 'चंदमंडलस्स चंदमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' । यद्रम. ળનું બીજા ચન્દ્રમંડળથી અંતર કથન સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. આને સમુદિતાર્થ આ પ્રમાણે થઈ જાય છે કે એક ચંદ્રમંડળને બીજા ચંદ્રમંડળથી ૩૫૪ જનને અને ૬૧ જન ભાગોમાંથી ૧ ભાગના ૭ ભાગ કરવાથી ૪ ભાગ પ્રમાણ અંતર છે. તૃતીયમંડળાન્તરદ્વાર કથન સમાપ્ત ચતુર્થમંડળ આયામા દિદ્વાર કથન मामा गौतस्वामी प्रभुने म तना प्रश्न या छ -'चंदमंडले णं भंते ! केवयं Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ११ चन्द्रमण्डलसंख्यादिनिरूपणम् णं भने चन्द्रमण्डलं खलु भदन्त ! 'केवइयं आधामविखंभेण' कियता आयामविष्कम्भेणआयामविष्कम्भाभ्यां दैर्व्य वस्ताराभ्या मित्यर्थः केवइयं परिवखेवेणं' कियता-कियत्प्रमाणकेन परिक्षेपेण-परिधिना केवइयं बाहल्लेणं पन्नते' कियता-कियत्प्रमाणकेन बाहल्येनो चत्वेन प्रज्ञप्तं कथितम्, अर्थात् चन्द्रमडलस्य आयामः कियत्प्रमाणकमिति प्रश्नः, भगवानाह-गोरमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'छप्पणं एगसद्विभाए जोयणस्स' षट्पञ्चाशदेपष्टिभागान् योजनस्य 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भाभ्यां दैर्घ्य विस्ताराभ्यां प्रज्ञप्तं कथितमिति, एकस्य योजनस्य एकपष्टिभागकृतस्य यावत्प्रमाणका भागा स्तावत् प्रमाणं षट्र पञ्चाशद्भागप्रमाण मित्यर्थः 'तं तिगणं सविसेसं परिक्खेवेणं' तत् त्रिगुणं सविशेष साधिक परिक्षेपेण-परिधिना भवति, गणितप्रकारेण द्वे योनने पञ्चपञ्चाशद्भागाः साधिकपरिधिप्रमाण आयामविक्खंभेणं केवइय परिक्खेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! चन्द्र मंडल आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा कितना लम्बा और चौडा है? भौर कितना इसका परिक्षेप है ? तथा कितनी इसकी ऊंचाई है ? प्रश्न कर्ता का भाव यह है कि चन्द्रमण्डल का आयाम किनना है विस्तार कितना है इसकी परिधि कितनी है और ऊंचाई में यह कितना ऊंचा है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! छप्पण्णं एगसट्ठिभाए जोयणस्स आयामधिक्खंभेणं, तं तिगु. णं सविसेस परिक्खेवेणं अट्ठावीसंच एगसहिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं' हे गौतम! एक योजन के ६१ भाग करने पर जो उसके एक २ भाग का प्रमाण आता है उतने ५६ भाग प्रमाण इसका आयाम और विस्तार है 'तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं' इन छप्पन भागों को तिगुना करने पर जो प्रमाण आता है उनसे कुछ अधिक प्रमाण की इसकी परिधि है गणित की प्रक्रिया के अनुसार यह प्रमाण दो योजन और एक योजन के ६१ भागो में से कुछ अधिक आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं केवइयं वाहल्लेणं पन्नत्ते' 3 महत ! यन्द्रम આયામ અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ કેટલું લાંબા અને પહેળે છે અને આને પરિક્ષેપ કેટલું છે તેમજ આની ઊંચાઇ કેટલી છે? પ્રશ્ન કર્તાને ભાવ આ પ્રમાણે છે કે ચન્દ્રમંડળને આયામ કેટલે છે, વિસ્તાર કેટલો છે, આની પરિધિ કેટલી છે, અને ઊંચાઈમાં वो या छ ? मेन पाम प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! छप्पणं एगसद्विभाए जोयणस्स आयामविक्खभेणं तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं अट्ठावीस च एगसद्रिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं' गौतम ! ४ योनिन ६१ लागे। ४२पाथी तेना :ભાગ પ્રમાણ આવે છે, તેટલા ૫૬ ભાગ પ્રમાણ એનો આયામ અને વિસ્તાર છે. જ तिगुणं सविसेस परिक्खेवेण' मे ५६ सागाने या ४२वायी २ प्रमाण सावे, त પ્રમાણ કરતાં કંઈક વધારે પ્રમાણ જેટલી આની પરિધિ છે. ગણિતની પ્રક્રિયા મુજબ આ પ્રમાણે બે જન અને એક જનના ૬૧ ભાગમાંથી કંઈક વધારે પપ ભાગ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे मित्यर्थः 'अट्ठावीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स बाहल्ले' अष्टाविंशतिमेकषष्टि भागान् योजनस्य वाहल्येनोच्चत्वेन चन्द्रमण्डलं प्रज्ञतम् इति चतुर्थमायामादि मानद्वारमिति ॥९०११॥ __ सम्प्रति-मन्दरपर्वतमधिकृत्य प्रथमादि मण्डलाबाधादि द्वारं दर्शयितुं द्वादशसूत्रमाह'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्य पन्धयस्स' इत्यादि । ___ मूलम्-जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्ल केवइयाए अबाहाए सव्वमंतरए चंदमंडले पन्नत्ते? गोयना ! चोयालीसं जोय सहस्साई अट्टयवीसे जोरणसए अवाहाए समांतरे चंदमंडले पन्नत्ते, जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए अभंतराणंतरे चंदमंडले पन्नत्ते ? गोयमा! चोयालीसं जोयणसहस्लाइं अट्टय छप्पण्णे जोयणसए णपवीसं च एगसद्विभाए जोयणस्त एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणिया भागे अबाहाए अभंतराणंतरे चंदमंडले पन्नत्ते । जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए अभंतरतच्चे चंदमंडले पच्नत्ते ? गोयमा ! चोयालीसं जोयणसहस्साइं अट्याणउए जोयणसए एगावणं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुणियाभागं अबाहाए अभंतरतच्चे मंडले पन्नते, एवं खल्लु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे छत्तीस छत्तीसं जोयणाई पणवीसं च एग सटिभाए जोयणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेता चत्तारि चुपिणयाभागे एगमेगे मंडले अबाहाए बुद्धिं अभिवढेमाणे २ सयबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्त पव्वयस्त केवइयाए अवाहाए सव्वबाहिरे चंदमंडले पन्नत्ते ? गोयमा ! पणयालीसं जोयण५५ भाग होता है 'अट्ठावीसंच एगसहिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं' तथा इसकी ऊंचाई भाग प्रणाण है अर्थात् एक योजन के कृत ६१ भागों में २८ भाग प्रमाण है यह चतुर्थ आयामादिभान द्वार समाप्त हुआ. ॥११॥ थाय छे. 'अट्ठावीस च एगसद्विभाए जोयणस्स बाहल्लेणं' तम मानी या २६ मा પ્રમાણ છે. એટલે કે એક જનના કૃત ૬૧ ભાગેમાં ૨૮ ભાગ પ્રમાણ છે. ચતુર્થ આયામાજિદ્વાર સમાપ્ત મસૂત્ર ૧૧૫ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १२ प्रथमादिमण्डलाबाधानिरूपणम् सहस्साई तिग्णि य तीले जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए चंदमंडले पन्नत्ते । जंबुद्दीचे दीधे मंदरस्स पव्वयस्ल केवइयाए अबाहाए, बाहिराणंतरे चंदमंडले पन्नत्ते ? गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साई दोषिण य तेगउए जोयणसए पणतीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगसटिभागं च सत्तहा छेत्ता तिणि चुरिणयाभाए अबाहाए बाहिरा गंतरे चंदगडलं एन्नत्ते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमंडलं एन्नत्ते ? गोयमा! पणयालीसं जोयणसहस्साई दोणिय सत्तावपणे जोयणसए णक्य एगसट्रिभागे जोयणस्स एगसट्रिभागं च सत्तहा छेत्ता छचुरिणयाभागे अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमंडले पन्नत्ते एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे छत्तीसं छत्तीसं जोयणाइं पणवीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणियाभाए एगमेगे मंडले अबाहाए बुद्धिं गिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ त्ति ॥सू० १२॥ ___ छाया-जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वाभ्यन्तरं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद् योजनसहस्राणि अष्टौ च विंशति योजनशतानि अबाधया सर्वाभ्यन्तरं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दर पर्वतस्य कियत्या अबाधया मभ्यन्तरानन्तरं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद् योजनसहस्राणि अष्टौ च पटू पश्चाशद् योजनशतानि पञ्चविंशतंचैषष्टिभागान् योजनस्य एकपष्टिभागं च सप्तधा छित्त्वा चतुरश्चुणिकाभागान्, अवाधया अभ्यन्तरानन्तरं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया अभ्यन्तरतृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद् योजनसहस्राणि अष्टौ च द्वि पश्चाशद् योजनशतानि एकपश्चाशदेकषष्टिभागान् योजनस्य, एकपष्टिभागं च सप्तधा छित्वा एकं चूर्णिकाभागम् अवाधया अभ्यन्तरतृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, एवं खलु एतेनोपायेन निष्क्रामन् चन्द्रः तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् पत्रिंशत् षट्त्रिंशद् योजनानि पञ्चविंशतं चैकषष्टिभागान योजनस्य एकषष्टिभागं च सप्तधा छिला चतुरश्चूर्णिकाभागान् एकैकस्मिन् मण्डले. बाधया बुद्धिमभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारंचरति । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वबाह्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पश्चचत्वारिंशद Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रिंशद् योजनशतानि अबाधया सर्ववाद्यं चन्द्रमण्डलं प्राप्तम् । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दस्य पर्वतस्य फियत्या अबाधया सर्वबाह्यानन्तरं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पञ्चचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि द्वे च त्रिनवत्यधिक योजनश ते पञ्चत्रिंशच्चैकपष्टिभागान् योजनस्य, एकपष्टिभागं च सप्तधा छिला जीन चूर्णिकामागान अवाधया सर्ववासानन्तरं चन्द्रमण्डल प्रज्ञप्तम् । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अवाधया सर्ववाद्य तृतीयंपन्द्रमण्डलं प्रज्ञतम् ? गौतम! पञ्चवखारिंशद् योजनस इस्राणि द्वे च सप्तपश्चाशद योजनशते नन चैकषष्टिभागान् योजनस्य, एकषष्टिभागं च सप्तधा छित्वा षट्चूर्णिकाभागान अबाधया सर्व बाह्य तृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् । एवं खलु एतेनोपायेन प्रविशन् चन्द्रः तदनन्तराद् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् पत्रिंशत् पशिद् योजनानि पञ्चविंशच्चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकपष्टिभागं च समधा छित्वा चतुरश्चूर्णिकाभागान् एकैकस्मिन् मण्डले अबाधया वृद्धिनिवर्द्धयन् निवर्द्धयन् सर्वाभ्यन्तर भण्डलप्नुपसंक्रम्य चारं चरति । सू० १२॥ ___टीका-'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे, हे भदन्त ! जम्बूद्वीपनामके द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पव्ययस्स' मन्दरस्य पतिस्ग-मेरुपर्वतस्य 'केवइयाए अबाहाए' शियत्या अबाधया 'सयभंतरे चंदमंडले पन्नत्ते' सर्वाभ्यन्तरं प्रथमं चन्द्रमण्डलं प्राप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चोयाळीसं जोयणसहस्साई चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि 'अट्ठवीसे जोयणसए' अष्टौ च विशद् योजन अब मन्दरपर्वत को आश्रित करके सूत्रकार प्रथमादिमण्डलायाधादि द्वार प्रकट करने के लिये १२ वें सूत्र का कथन करते हैं 'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स केवइयाए अवाहाए' इत्यादि गौतम स्वामीने यहां ऐसा पूछा है- 'जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त' हे भदन्त ! जम्बुद्वीप नामके द्वीप में-सर्वद्वीप मध्यगत जंबूद्वीप में स्थित जो सुमेरुपर्वन है उससे 'केवइयाए अबाहार' कितनी दूर पर 'सव्वभंतरे चंद मंडले पण्णत्ते' सर्वाभ्यन्तर चन्द्र मण्डल कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! चोयालीसं जोयणसहस्साई अट्ठयतीसे जोयणसए' हे હવે મદર પર્વતને આશ્રિત કરીને પ્રથમાદિ મંડળ અબાધારિદ્વારનું કથન કરવા માટે સત્રકાર ૧૨ મા સૂત્રનું કથન કરે છે. 'जंबुद्दीचे दीये मंदरस्स पब्वयस्स केवइयाए अबाहाए' इत्यादि गौतभस्वामी मत्री रीते प्रश्न ये छ -'जंबुद्दीवे दीवे मंदरम्स पव्वयस्स' महत ! दी५ नाम द्वीपमा सबबी५ मध्यात यूद्वीपमा स्थित सुभे२५त छे तनाथी केवइयाए अब हाए' से २ 'सव्यभंतरे चंदमंडले पण्णत्ते' सर्वास्यतर यन्द्रमामा आवत छ ? मेनाममा प्रभु ४४ छ- 'गोयमा ! चोयालीस जोयणसहरसाई अद्वय तीसे जोयणसए' ३ गौतम ! सुभेप तथा अाल्यातर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १२ प्रथमादिमण्डलाबाधानिरूपणम् १६१ प्रतानि 'अपाराए सम्मभंतरे चंदमंडले पमत्ते' एनावत्प्रमाणया अवाथया सर्वाभ्यन्तरं प्रथमं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् -कथितमिति । सम्पति सर्वाभ्यन्तरद्वितीयचन्द्रमण्डलगताबा दर्शयितुं प्रश्नयनाह-'जंबुडी वे दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे, हे भदन्त ! जम्बूद्वीपनामके सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे 'मंदरस्स पब्वयस्त' मन्दरस्य पर्वतस्प-मेरुगिरेः 'केवइयाए भवाहाए' कियत्या-कियत्प्रमाणया अधिया-अव्यवधानेन 'अभंतराणंतरे चंदमंडले पमत्ते' अभ्यन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चोयालीसं जोयणसहस्साई चत्वारिंशद् योजनसहस्राणि 'अट्ठय छप्पण्णे जोयणसए 'अष्टौ च षट् पश्चाशदयोजनशतानि षट्पञ्चाशदधिकानि अष्टौ योजनशतानीत्यर्थः 'पणवीसंच एगसहिभाए जोयणस्स' पश्चाविंशतिश्चैकषष्टिभागान् योजनस्य अर्थात् एकस्य योजनस्य एकषष्टिभागाः कल्पनीया स्तेषु एकपष्टिभागमध्यात् ये पञ्चविंशतिभांगा स्तावन्तो भागा अपि अबाधायां ज्ञातव्याः तथा-'जोयणस्स एगसद्विभागं च सतहा छेता चत्तारिचुणियामागे' योजनस्यैक पष्टिभागं च सप्तधाछित्ता चतुरश्चूर्णिकामागान् 'अबाहया अभंतराणंतरे चंदमंडले पन्नत्ते गौतम! सुमेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर चन्द्रमंडल ४४८३. योजन की वरीपर कहा गया है 'जंबुद्दीये दीवे मंदरस्स पव्ययस्त केवल्याए अवाहाए अन् मंतराणतरे चंदमंडले पन्नत्ते' गौतमस्वामीने इस सन द्वारा ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित जो सुमेरु पर्वत है उस से कितनी दर पर अभ्यन्तरानन्तर द्वितीय चन्द्र मण्डल कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! चोयालीसं जोयणसहस्साई अठ्ठय छप्पण्णे जोयणसए पणवीसं च एगसहि भाए जोयणस्स, जोधणस एगसहिभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणिया भागे अबाहया अभंतराणंतरचंदमंडले पण्णत्ते' हे गौतम ! सुमेरुपर्वत से अभ्यन्तरानन्तर-द्वितीय चन्द्रमंडल ४४८५६ २७ योजन दूर कहा गया है तथा योजन के ६१ वें भाग को ७ से विभक्त करके उसके ४ भाग यद्रम४४८३० यो २ सासु छे. 'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए अभंतराणंतरे चंदमंडले पन्नत्ते' गौतमथाभीये २॥ सूत्र 43 An andन प्रश्न કર્યો છે કે હે ભદત! આ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં સ્થિત જે સુમેરુપર્વત છે તેનાથી કેટલે દૂર અત્યંતરાનેતર દ્વિતીય ચન્દ્રમંડળ કહેવામાં આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ ४९ छ-'गोयमा ! चोयालीस जोयणसहस्साई अदृय छप्पण्णे जोयणसए पणवीसच एगसट्ठिभाए जोयणस्स, जोयणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणिया भागे अया हया अनंतराणंतरे चंदमंडले पण्णत्ते हे गौतम ! सुभे२५ तथी २०७य-तरानन्तर द्वितीय ચંદ્રમંડળ ૪૪૮૫૬૨; જન જેટલે દૂર કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ એજનના ૬૧ મા ભાગોને ૭ વડે વિભક્ત કરીને તેને ૪ ભાગ પ્રમાણુ દૂરમાં જોડવા જોઈએ. ત્યારે દ્વિતીય ज० २१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे एतावत् प्रमाणया अबाधया अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितम्, चत्वारि सद योजनसहस्राणि षट्पञ्चाशदधिशानि अौशतानि योजनस्यैस्पष्टिमागकल्पितस्य पत्र विंशतिभागान् तथा एकभागस्य सप्तधा जिन्नस्य चतुरोभागान् एतावत्प्रमाणकायाधया सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं कथितमितिभावः । अयं भावः-पूर्वोक्ताभ्यन्तरमण्डलगत. राशौ मण्डलान्तरक्षेत्रमण्डलविष्कम्भराश्योः प्रक्षेपे जायते तद्यथा-४४८२० चतुश्चत्वारिशद योजनानि विंशत्यधिकाष्टशतलक्षण पूर्वमण्डलयोजनराशिः अस्पिनराशौ मण्डलान्तरक्षेत्रयोजनानि पश्चत्रिंशत् ३५, अथ अन्तरसत्कत्रिंशदेकषष्टिभागानां मण्डलक्ष्किम्म सम्बन्धि षट्पश्चाशदेकपष्टिभागानां च परस्परसंमेलने जाते षडशीतिः ८६, एकपटण्याभागे कृते सति समागतं योजनमेकम्, तच्च पूर्वोक्तायां संख्यायां पञ्चविंशतिः २५ प्रक्षि. प्यते जाता पत्रिंशद् योजनानाम शेषाः पञ्चविंशतिः ए.पष्टिभागाश्चत्वारश्चूर्तिकाभागा इति द्वितीयमण्डलविचारः॥ ____ अथ सर्वाभ्यन्तरतृतीयमण्डलं दर्शयितुमाह-'जंबुद्दी वे दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे दीवे जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्यवर्ति जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पचयस्त' मन्दरस्य पर्वप्रमाण और भी दूरी में मिलाना चाहिये तब कहीं जा कर द्वितीय चन्द्र मंडल की दूरी का पूरा प्रमाण आता है। तात्पर्य इसका ऐसा है कि पूर्वोक्त अभ्यन्तरमण्डलगत रशि में मण्डलान्तर क्षेत्र और मण्डल विष्कम्भकी राशि के प्रक्षेप करने से यह दूरी का प्रमाण निकाला गया है-यह इस प्रकार से है-४४८२० पूर्वमंडल योजन की राशि है इस राशि में मण्डलान्तर क्षेत्र के योजन ३५ को तथा अन्तर सभी भागों को एवं मण्डल विष्कम्भसंबंधी भागों को परस्पर में मिलाने पर ८६ आते हैं इन में ६१ का भाग देने पर १ योजन आता है पूर्वोक्त सं २५ प्रक्षित करने पर ३६ योजन होते हैं बाकी और चार चूर्णिका भाग बचे रहते है. सर्वाभ्यन्तर तृतीय मंडल का कथन-इस में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा ચંદ્રમંડળના અંતરનું સંપૂર્ણ પ્રમાણ આવે છે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વોક્ત અત્યંતરમંડળગત રાશિમાં મંડલાન્તર ક્ષેત્ર અને વિષ્કભની રાશિને પ્રક્ષિપ્ત કરવાથી આ અંતરનું પ્રમાણ નીકળી આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે-૪૪૮૨૦ પૂર્વમંડળ જનની રાશિ છે. આ રાશિમાં મંડલાન્તર ક્ષેત્રનાં જન ૩૫ ને તેમ જ અન્તર સંબંધી ૧૦ ભાગને તેમજ મંડળ વિકંભ સંબંધી આ ભાગને પરસ્પરમાં જોડવાથી ૮૬ આવે છે. આમાં ૬૧ ને ભાગાકાર કરવાથી ૧ યોજન આવે છે. ઉપરોક્ત સંખ્યામાં ૩૫ પ્રક્ષિત કરવાથી ૩૬ જન થાય છે. શેર ૨; અને ચાર ચૂર્ણિકા ભાગ અવશિષ્ટ રહે છે. સર્વાત્યંતર તૃતીયમંડળનું કથન मामा गौतमस्वामी प्रभुने सेवा शते प्रश्न ज्यों छे-'जंव्हीवे दीवे मंदरस्स पव्व. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १२ प्रथमादिमण्डलावाधानिरूपणम् तस्प-मेरुनामकपर्वतस्य 'केवइयार अबहाए' कियत्या-कियत्प्रमाणया अबाधया-अव्यवधानेन 'अभंतरतच्चे चंदमंडले पनत्ते' सर्वाभ्यन्तरततीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाद-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चोयालीसं जोयणसहस्साई चतुश्चत्वारिंशद् योजनसहस्राणि 'अट्ट व गउए जोयणसए' अष्टौ च द्विनवतियोजनशतानि द्विनवत्यधिकानि अष्टौ शतानीत्यर्थः 'एगावणं च एगसद्विभाए जोयणस्स' एकपश्चाशदेक. पष्टिभागान् योजनस्य 'एगसट्ठिभागं च सत्तहा छे ।' एकषष्टिमाां च सप्तधा छिखा 'एग दुणियामागं' एकं च चूर्णिकामागम् 'भबाहार अभंतरतच्चे चंदमंडले पन्नते' अवाधया अभ्यन्तरं तृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, चतुश्चत्वारिंशद् योजनानि विनवत्यधिकाष्टौंसतानि एकपश्चाशदेकषष्टिभागान् चतुरश्चूर्णिकाभागान् ४४८९२: एतावत्प्रमाणया अबाधया तृतीयं सर्वाभ्यन्तरचन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तमित्यर्थः। अयं भावः-द्वितीयमण्डलसम्बन्धिराशौ ट्त्रिंशत् ३६ योजनानि पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागाश्चत्वारश्चूर्णिकाभागा इत्यस्य प्रक्षेपे कृते सति यथा कथितमभ्यन्तरतृतीयमण्डलपरिमाणं भवतीति तृतीयमण्ड विचारः॥ पूछा है 'जंबुद्दी वे दीवे मंदरस्स पव्वयस्ल केवइयाए अबाहाए अन्भंतरतच्चे चंदमंडले पन्नत्ते' हे भदन्त ! जम्बूद्रोप नामके द्वीप में स्थित जो सुमेरु पर्वत है उससे कितनी दूर पर अभ्यन्तर तृतीय चन्द्र मण्डल कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! चोयालीसं जोयणसहस्साइं अट्ठय बाणउए जोयणसए एगावण्णं च एगसहिभाए जोयणस्स' हे गौतम ! सुमेरु पर्वत से तृतीय अभ्यन्तर चन्द्र मंडल ४४८९२७ योजन दूर है तथा (एगसटिभागं च सत्ताह छेता एगं चुणियाभाग) एक योजन के ६१ वें भाग को ७ से विभक्त करके उसके एक चूर्णिका भाग प्रमाण और दूर है इसका तात्पर्य ऐसा है कि द्वितीय मंडल सम्बन्धी राशि में ३६ योजन तथा एक योजन के ६१ वे भागों में से एक भाग को प्रक्षिप्त करने पर यह तृतीय अभ्यन्तर चन्द्र मंडल का परिमाण निकल भाता है। यस्स केवइयाए अबाहाए अब्भतरतच्चे चंदमंडले पन्नत्ते' 3 लत ! jी५ नाम: દ્વીપમાં સ્થિત જે સુમેરુ પર્વત છે તેનાથી કેટલે દૂર અત્યંતર તૃતીય ચંદ્રમંડળ કહેવામાં मा छ १ सेना वाम प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! चोयालीस जोयणसहस्साई अट्टय वाणउए जोयणसए एगावण्णं च एगसद्विभाए जोयणस्स' हे गौतम ! सुभे२५ तथा तृतीय सस्यत२ यन्द्रम ४४८८२५१ योगनरेट ६२ छ तभा 'एगसद्विभागं च सत्तहा छेता एगं चुण्णिया भाग' से यातना ६१ मा मायने ७ थी विलत रीने तेना मे ચૂર્ણિકા ભાગ પ્રમાણ વધારે દૂર છે. તાત્પર્ય આમ છે કે દ્વિતીયમંડળ સંબંધી રાશિમાં ૩૬ ચેાજન તેમજ એક એજનના ૬૧ મા ભાગમાંથી એક ભાગ પ્રક્ષિપ્ત કરવાથી આ તૃતીય આત્યંતર ચંદ્રમંડળનું પરિણામ નીકળી આવે છે Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे सम्प्रतिः-चतुर्थादिमण्ड लेपु माने दर्शयितुमतिदेशेनाह-एवं खलु' इत्यादि, ‘एवं खलु एएणं उवाएणं' एवं मण्डलमयदर्शितप्रकारेण खलु एतेन प्रत्यहोरात्रमेकैक मण्डलपरित्याग रूपेण 'णिक्खममाणे' निष्क्रामन-लक्षणसमुद्राभिमुखमण्डलं कुर्वन् 'चंदे' चन्द्रः 'तयाणंतराभो मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं' तदनन्तरात् विधक्षितपूर्वमण्डलात् तदनन्तरं विवक्षितमुत्तरं मण्डलम् 'संकममाणे संकममाणे संक्रामन् संक्रामन् गच्छ गच्छन् 'छत्तीसं छत्तीसंजोयणाई' पत्रिंशत् पत्रिंशयोजनानि 'पणवीसं च एगसहिमाए जोयणस्त' पञ्चविंशतिंचैकषष्ठिभागान् यो ननस्य 'एगसहि भागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणियाभागे' योजनस्यैकषष्ठिभागं च सप्तधा छित्वा चतुरश्चूर्णिकाभागान 'एगो गे मंडले' एकैकस्मिन् मण्डले 'अबा. हाए बुद्धि अभिवद्धमाणे अभिवर्तमाणे' अबाधाया:-अव्यवधानरूपाया वृद्धिम्-आधिक्यम् अभिवर्दयन् अभिवर्द्धयन्-आधिक्यं कुर्वन् २ 'सव्यबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' अब चतुर्थादि मंडलों में क्या प्रमाण है-इस बात को सूत्रकार अतिदेशवाक्य द्वारा स्पष्ट करते हैं 'एवं खलु एएणं उवाएगं णिक्खममाणे चंदे तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संक्रममाणे' इसी पूर्वोक्त रोतिके अनुसारमण्डलत्रयमें प्रदर्शित पद्धति के अनुसार अहोरात्र में एक एक मंडल के परित्याग करने से लवणसमुद्र की तरफ मंडल करता हुआ चन्द्र विवक्षित पूर्व मंडल से विवक्षित आगे के मंडल पर संक्रमण करता २ (छत्तीसं २ जोयणाई पणवीसं घ एगसटिभाए जोयणस्स एगसहिभागं च सत्सहा रेता चत्तारि चुणियाभागे एगमेगे मंडले अथाहाए बुद्धि अभिवढेमाणे २' २६ योजन तथा ६१ वें भाग को ७ से विभक्त कर उसके ४ चूर्णिका भाग प्रमाण एक एक मंडल में दूरी की वृद्धि करता रहना है इस तरह से दूरी की वृद्धि करता हुआ वह चन्द्र 'सव्ववाहिरं मंडलं उवसंऋमिता चारं घरई' सर्वबाह्य मंडल पर प्राप्त होकर गति करता है इस प्रकार से यह दर का प्रमाण एक मंडल से હવે ચતુર્થીદિમંડળમાં પ્રમાણ શું છે–એ વાતને સૂત્રકાર અતિદેશ વાકય દ્વારા १५७८ १२-एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खनमाणे चंदे तयाणंतराओ मंडळाओ तयाणंतरं मंडलं संक्रममाणे' र पूर्वात रीति भुराम भसयम प्रशित पद्धति भु४५ અહોરાત્રમાં એક-એક મડલના પરિત્યાગથી લવણસમુદ્રની તરફ મંડળ કરતે ચંદ્ર विक्षित भयी विक्षित मानब म ५२ भएर ४२ते। ४२ 'छत्तीसं २ जोयणाई पणवीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुणिया भागे एगमेगे मंडले अबाहाए बुद्धिं अभिबद्धेमाणे २५ २६१५ यो तेम ६१ मा ભાગને ૭ થી વિભક્ત કરીને તેને ૪ ચૂર્ણિકા ભાગ પ્રમાણ એક–એક મંડળમાં દરીની वृद्धि ४रतो २३ छ.. प्रमाणे दूरीनी वृद्धि ४२ ते यन्द्र 'सव्वबाहिरं मंडलं उवस. कमित्ता चार चरई' समाहम उ२ प्रान्त धन गात ४२ छे. या प्रमाणे मा દૂરનું પ્રમાણ એક મંડળથી બીજા મંડળ સુધી પૂર્વાનુ૫વી દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવેલું Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १२ प्रथमादिमण्डलाबाधानिरूपणम् १६५ सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य संप्राप्य चारं गतिं चरति-करोतीति ॥ अथ यथा पूर्वानुपूर्वीव्याख्यानाङ्गं भवति तथैव पथानुपू. यपि व्याख्यानाङ्गं भवतीत्येतन्मण्डलात् मण्डलस्याबाधा पृच्छन्नाह-'बुद्दी वे दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्यनम्बूद्वीपे इत्यर्थः मदरस्स पव्ययस्स' 'मन्दरस्य पर्वतस्प-मेरुनामकार्वतस्य 'केवइयाए अबाहाए' किय या-कियत्प्रमाणया अवाश्या 'सव्वबाहिरे चंदमंडले पन्नत्ते' सर्वबाह्यं यदपेक्षया अन्यद्वाद्यं न विद्यते तादृशं चन्द्रम डलं प्रज्ञप्तं कथितम्, हे भदन्त ! यदिदं सर्वबाह्यं चन्द्रमण्डलं तत् मन्दरपर्वतस्य कियत्याबाधया भवतीति प्रश्ना, भगवानाह- गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पण यालीसं जोयणसहस्साई' पञ्चचत्वारिंशद योजनसहस्राणि 'तिण्णि य तीसे जोयणसए' त्रीणि च त्रिंशद् योजनशतानि, त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानीत्यर्थः 'अबाहाए सव्ववाहिए चंदगडले पन्नत्ते' एतावत्प्रमाणकाबाधया सर्वबाह्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितम्, पश्चचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि त्रिशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि ४५३३० एतावदयाधया सर्ववाद्यं प्रथमं चन्द्रमण्डलं कथितमित्यर्थः केन प्रकारेणैतावद् योजनं प्रमाणं भवतीति सर्वबाह्यमूर्यमण्डलप्रकरणाज्ज्ञातव्यम् विस्तरभयान पुनरत्र लिख्यते इति । दूसरे मंडल तक का पूर्वानुपूर्वी द्वारा प्रकट किया गया है क्योंकि पूर्वानुपूर्वी ग्याख्यान का अङ्ग कही गई है अब सूत्रकार पश्चानुपूर्वी भी पूर्वानुपूर्वी की तरह व्याख्यान का अङ्ग कही गई है इसी अभिप्राय को लेकर पश्चानुपूर्वी के अनुसार एक मण्डल से दूसरे मंडल की दूरी कितनी है इस बात को गौतमस्वामी 'जंबुद्दीवे दीवे मंदस्स पव्वयस्स केवइयाए अवाहाए सव्वबाहिरे चंदमंडले पण्णत्ते' इस सूत्र द्वारा पूछ रहे है हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित मेरु पर्वत से सर्वबाह्य चंद्र मण्डल कितना दूर हैं ? इसके उत्सर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! पणयालीमं जोयणसहस्साई तिण्णि य तीसे जोयणसए अबाहाए सधवाहिरे चंदमंडले पण्णत्ते' हे गौतम ! मेरु पर्वत से सर्वबाह्य चन्द्र मण्डल ४५३३० योजन दूर कहा गया है यह इतना दूर का अन्तर, कैसे आता है यह बात सर्वबाह्य सूर्यमंडल के प्रकरण से जान लेना चाहिये हम विस्तार हो છે. હવે સૂત્રકાર પશ્ચાપૂવ પણ પૂર્વાનુની જેમ વ્યાખ્યાનમાં કહેવામાં આવેલી છે. એ અભિપ્રાયને લઈને જ પશ્ચાનુપૂર્વી મુજબ એક મંડળથી બીજું મંડળ કેટલે દૂર छ.2 पातर गौतमस्वामी 'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयरस केवइयाए अबाहाए सव्वबाहिरे चंदभंडले पण्णते' २॥ सूत्र ५ पूछी २द्या छ. सत! मा यूद्वी५ नामा દ્વિપમાં સ્થિત મેરુપર્વતથી સર્વબાહ્યચંદ્રમંડળ કેટલે દૂર છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छ-'गोयमा ! पणयालीस जोयणसहस्साई तिणि य तीसे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरे चंदमंडले पण्णते' 3 गोतम ! भे५ तथा समाहा यन्द्रमा ४५330 यान २ કહેવામાં આવેલ છે. આ આટલું દૂરનું અંતર કેવી રીતે આવે છે આ વાત સર્વબાદા સૂર્યમંડળના પ્રકરણમાંથી જાણી લેવી જોઈએ. વિસ્તારભયથી અમે તેને અહીં પ્રકટ કરતા નથી. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे सम्प्रति-द्वितीयं सर्वबाद्यं चन्द्रमण्डलं प्रश्नयन्नाह - 'जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य-मेरुनामकपर्वतस्य केवइयाए अबहाए' कियत्या अवाधया 'बाहिरागंतरे चंद मंडले पनते' बाह्यानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! ' पणयालीसं जोयणसहस्साई' पञ्चचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि 'दोणि उणए जोयणसए' द्वे च त्रिनवतियोजनशते त्रिनवत्यधिके द्वे योजनशते इत्यर्थः ' पणती सं च एगभर जोयणस्व' पञ्चत्रिंशच्चैकपष्टिभागान् योजनस्य अर्थात् एकस्य योजनस्य एकषष्टिभागाः कल्प्यन्ते तन्मध्यात् पञ्चत्रिंशद्भागाः, 'एगसद्विभागं च सतहा छेत्ता तिष्णि चुण्णियामाए' एकपष्टिभागं च सप्तधा छित्वा एकस्य ये एकषष्ठिभागा कल्पिताः तन्मध्यात् य एको भाग स्तस्य पुनः सप्तभागाः क्रियन्ते तेषु ये त्रयो भागास्ते एव चूर्णिका भागास्तान् 'अबाहार बाहिराणंतरे चंदमंडले पन्नत्ते' अवधिया वाह्यानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् सर्वबाह्य मण्डराशेः षद त्रिंशद् योजनानि पञ्चविंशतिश्च योजनैक षष्टिभागा एकस्यैक षष्टिभागस्य संबन्धिनश्वत्वारः सप्तभागाः पात्यन्ते तदा जायते यथोक्त राशिरिति द्वितीयमंडलविचारः ॥ १६६ जाने के भय से उसे यहां पुनः नहीं प्रकट करते हैं । अब गौतमस्वामी द्वितीय सर्वबाह्य चन्द्र मण्डल की दूरी जानने के लिये प्रभु से पूछते हैं - 'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वग्रस्त केवइयाए अबहाए बाहिरा नंतरे चंदमंडले पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप में स्थित मन्दर पर्वत से द्वितीय सर्वबाह्य चन्द्र मंडल कितना दूर हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साइं दोणि य तेउणर जोयणसए' हे गौतम! सुमेरु पर्वत से द्वितीय सर्वबाह्य चन्द्र मंडल ४५२९३ योजन तथा 'पणतीसं च एसट्टिभाए जोयणस्स' एक योजन के ६१ भागों में से ३५ भाग प्रमाण दूर है इसमे 'एगसद्विभागंच सत्तहा छेत्ता तिष्णि चुण्णियाभाए' ६१ वें भागको ७ से विभक्त करके उसके ३ भागों को और इस दूरी में मिला देना चाहिये, इस तरह ४५२९३ योजन का एवं एक भाग के ७ भागों में से ४ भाग હવે ગૌતમસ્વામી દ્વિતીય સખાહ્ય ચન્દ્રમડળનું અંતર જાણવા માટે પ્રભુને પ્રશ્ન ४२ - 'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए बाहिराणंतरे चंदमडले पण्णत्ते' હું ભ ત ! આ જંબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં સ્થિત મદરપવતથી દ્વિતીય સ`બાહ્ય ચન્દ્રमंडज डेट से दूर छे ? सेना वाणमां प्रभु उडे छे - 'गोयमा ! पणयालीस जोयणसहस्साइ दोण्णि य तेउणए जोगसए' हे गौतम! सुमेरु पर्वतथी द्वितीय सर्वमाह्य यन्द्रभउज ४५२43 योन ते 'पणतीस च एगसट्टिभाए जोयणस्स' मे४ योजना ११ लोगोमांथी उप लाग प्रभाणु दूर छे यामां 'एगसट्टिभागं च सत्तहा छेत्ता तिष्णि चुण्णियाभाए' ६१ भा ભાગને છ સાથે વિભક્ત કરીને તેના ત્રણ ભાગોને આ ફ્રીમાં જોડી દેવા જોઈએ. આ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारःस. १२ प्रथमादिमण्डलाबाधानिरूपणम् सम्प्रति-तृतीयमण्डलं प्रश्नयनाह-"जंबुद्दो ने दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः ‘मंदररस पञ्चयस्स' मन्दरस्य पर्वास्य-मेरोः 'केवइयाए अबाहार' कियत्या-कियत्प्रमाणया अबाधया 'बाहिरतच्चे चंदमंडले पन्नत्ते' सर्वबाह्य तृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगनानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पणयालीसं जोयणसहस्साई पञ्चचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि 'दोण्णि य सत्तावण्णे जोयणसए' द्वे च सप्तपञ्चाशत् योजनशते, सप्तपश्चाशदधिके द्वे योजनशते इत्यर्थः, 'णव य एगसद्विभाए जोयणस्स' नवचैकषष्ठिभागान् योजनस्य 'एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता' एकषष्टिभागं च सप्तधा छित्वा तन्मध्यात् 'छचुणियाभा' षट्चूर्णिमाभागान 'अशहाए बाहिरतच्चे चंदमंडले पन्नत्ते' उपर्यु प्रमाणया अबाधा सर्वेबाह्यं तृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितम् पञ्च क्त्वारिंशत्सःस्राणि त्रिनवत्यधिक द्वे योजनशते ४५२९३ एकषष्टिभागान् योजनस्य चुणिकाभागान् अयाधया प्रज्ञप्तं तृतीयं चन्द्रमाड मिति । सम्प्रति-चतुर्थादि सर्ववाह्यमण्डलेषु अतिदेशेनाबाधां दर्शयितुमाह- एवं खलु' इत्यादि, प्रमाण अन्तर है द्वितीय चन्द्र मंडल अन्तर विचार समाप्त. ___'जंबुद्दीवे दीवे मंदस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमंडले पण्णत्ते' गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित जो सुमेरु पर्वत है उससे तृतीय सर्यबाह्य चन्द्रमंडल कितना दूर है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पणयालीसं जोयणसहस्साई दोणि य सत्तावणे जोयणसए पय य एगसहिभाए जोयणस्स एगसहि भागं च सत्तहा छेत्ता छ चुगियाभाए अथाहाए बाहिरए तच्चे चंदमंडले पन्नत्ते' हे गौतम ! मंदर पर्वत से तृतीय सर्वबाह्य मण्डल ४५२५७ योजन दर हैं तथा ६१ भाग में के एग भागको ७ से विभाजित कर उस के ६ भाग प्रमाण है एवं खलु एएणं उदाएणं पविसमाणे पविसमाणे चंदे तयाणंतराओ પ્રમાણે ૪૫૨૯૨ જન તેમજ એક ભાગના ૭ ભાગમાંથી ૪ ભાગ પ્રમાણુ અંતર છે દ્વિતીય ચંદ્રમંડળ અંતર વિચાર સમાપ્ત. _ 'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमंडले पण्णत्ते' ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુએ આ જાતને પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભદંત ! આ જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં સ્થિત જે સુમેરુપર્વત છે તેનાથી તૃતીય સર્વબાહ્ય ચન્દ્રમંડળ કેટલે દર આવેલ છે? सेना पाममा प्रभु ४३ छ–'गोयमा ! पणयालीस जोयण सहस्साई दोण्णि य सत्तावण्णे जोयणसए णवय एगसद्विभाए जोयणम्स एगस विभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुणियाभाए अबाहाए बाहिरए तच्वे चंदमंडले पन्नत्ते' गौतम! भ६२५ तथा तृतीय समाहाभ ૪૨૫૭૬ જન દૂર છે. તેમજ ૬૧ ભાગમાંના એક ભાગને ૭ થી વિભાજિત કરીને तेना मा प्रमाण छ. 'एवं खलु एणं उवाएणं पविसमाणे पविसमाणे चंदे तयाणंतराओ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'एवं खलु' एवं खलु 'एएणं उवाए' एतोनोपायेन प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलवर्द्धनरूपेण 'परिमाणे पविसमाणे' प्रविशन् प्रविशन् 'चंदे' चन्द्र: 'तयागंतरात्र मंडला तयानंतरं मंडलं' तदनन्तरात्- विवक्षितपूर्व मण्डलात् तदनन्तरम् - विवक्षि मुत्तरमण्डलम् 'संकममाणे संकममाणे' संक्रामन् संक्रामन् - मण्डलाभिमुखं मण्डलानि कुर्वत् २ 'छत्तीसं छत्तीसं जोयणाई' पत्रिंशत् पट्त्रिंशद् योजनानि 'पणवीसं च एगसट्टिमाए जोयणस्स' पञ्चत्रिंशर्ति षष्टिभागः योजनस्य 'एगसद्विभागं च सत्ता छेता चनारि चुण्णियाभाए' एकषष्टिभागं च सप्ता छित्वा चतुरश्चुर्णिका भागान ' एगमेगे मंडले अबाहाए बुद्धि णिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे' एकैकस्मिन् मण्डले - प्रतिमण्डलम् अवघिया वृद्धिं निवर्द्धयन् निवर्द्धयन् हापयन २ त्यजन २ इत्यर्थः ' सव्यन्मंतरं मंडलं उवसंक्रमिता चारं चर३' सर्वाभ्यन्तरं म डलमुपसंक्र म्य-संप्राप्य चारं गतिं चरति - करोतीति अबाधाद्वारं समाप्तम् इति द्वादशसूत्रम् ॥सू० १२ ॥ सम्प्रति- सर्वाभ्यन्तरादि मण्डलायामादि दर्शयितुं त्रयोदश सूत्रमाह-मंतरे णं भंते' इत्यादि । , मूलम् - सव्वभंतरे णं भंते ! चंदमंडले केवइयं आयामविवखंभेणं harयं परिकखेवेगं पन्नत्ते ? गोयमा ! णवणवई जोयणसहस्साइं छच मंडलाओ ताणंतरे मंडले संक्रममाणे २ छत्तीस २ जोयणारं पणवीसंच एगसहभागं च सत्तहा छेता चतारी चुष्णियाभाए एगमेगे मंडले अवाहाए बुद्धिं णिबुद्धेमाणे २ ' इन तीन सर्वबाह्य चन्द्रमंडलों में प्रदर्शित पद्धति के अनुसार प्रति अहोरात एक एक मंडल को बढाता हुआ चन्द्र तदनन्तर मंडल से-विवक्षित पूर्व मण्डल से विवक्षित उतर मंडल के संमुख मंडलों को करके ३६ योजनों की तथा एक योजन के ६१ भागों में से २५ भाग एवं ६१ भागों मे से किसी एक भागको ७ से विभक्त कर उस के ४ भाग प्रमाण को एक एक मंडल में दूरी की वृद्धि छोडकर 'समंतरं मंडल उवसंमत्ता चारं चरड़' सर्वाभ्यन्तर में पहुंच करके अपनी गति करता है अबाधा द्वार समाप्त | १२|| ओ रे मंडले स कममाणे २ छत्तीस २ जोयणाई पणवीस च एगसद्विभागे च सत्ता छेत्ता बसारि चुण्णिय भए एगमेने मंडले अबाहाए बुद्धि णिबुद्धेमाणे २' से शु સબાહ્યમ`ડળામાં પ્રદર્શિત પદ્ધતિ મુજબ પ્રતિ અહેારાત એક-એક મડળને અભિવૃદ્ધિ ત ક્રૂરતા ચન્દ્ર તટન તરમંડળથી વિવક્ષિત પૂર્વમંડળથી વિક્ષિત ઉત્તરમ'ડળની સન્મુખ મડળેને કરીને ૩૬ યોજનાની તેમજ એક ચેાજન ૬૧ ભાગેામાંથી ૨૫ ભાગ તેમજ ૬૧ ભાગામાંથી કેઇ એક ભાગને છથી વિભક્ત કરીને તેને ૪ ભાગ પ્રમાણુ જેટથી એકगोठ भडमा दूरी भेटजी वृद्धिने छोडीने 'सव्वमंतर मंडले उवस' कमित्ता चार चरइ' સર્વાભ્ય'તરમાં પહેાંચીને પેાતાની ગતિ કરે છે. સૂ॰ ૧૨ા અધાદ્વાર સમાપ્ત Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवसस्कारः रु. १३ सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामादिनिरूपणम् १९ चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिपिण य जोयणसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साई अउणाणउतिं च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते । अभंतराणंतरे सा चेव पुच्छा, गोयमा! णवणउइं सहस्साई सत्त य बारसुत्तरे जोयणसए एगावण्णं च एगसद्विभागे जोयणस्त एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुणियाभागं आयामविक्खंभेणं तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं पन्नरस सहस्साई तिणि य एगूणवीसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । अभंतरतच्चेणं जाव पन्नत्ते, गोयमा! णवणउइं जोयणसहस्साई सत्त य पंचासीए जोयणसए, इगतालीसं च एगसठिभाए जोयणस्स एगसहिभागं च सत्तहा छेत्ता दोणि य चुणियाभागे आयामविक्खंभेणं तिणि य जोयणसयसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साइं पंच य इगुणापण्णे जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं त्ति । एवं खलु एएणं उवाएणं मिक्खममाणे चंदे जाव संकममाणे संकममाणे बावत्तरि जोयणाई एगावण्णं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगसठिभागं च सत्तहा छेत्ता एगं च चुणिया भागं एगमेगे मंडले विखंभबुद्धिं अभिवर्तमाणे अभिवद्धेमाणे सव्वपाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । सव्वबाहिरएणं भंते ! चंदमंडले केवइयं आयामविखंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते ? गोयमा! एग जोयणसयसहस्सं छच्च सट्टे जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं अट्ठारससहस्साइं तिणि य पण्णरसुत्तरे जोयगसए परिवखेवेणं । बाहिराणंतरे पुच्छा, गोयमा! एगं जोयणसय. सहस्सं पंचसत्तासीए जोयणसए णवय एगसद्विभाए जोयणस्स एगसट्रि भागं च सत्तहा छेत्ता छचुणियाभाए आयामश्विखंभेणं तिणि य जोय. गसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साइं पंचासीई जोयणाई परिक्खेवेणं । बाहिरतच्चेणं भंते! चंदमंडले पन्नत्ते ? गीयमा ! एगं जोयणसयसहस्सं पंच य चउदसुत्तरे जोयणसए एगूणवीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एग ज० २२ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिको सट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता पंच चुणिया भागे आयामविक्खंभेणं तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं अट्रय पणपणे जोयणसए परिक्खेवेणं, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे जाव संकममाणे संकममाणे बावतरि बावत्तरि जोयणाई एगावणं एगसद्विभाएँ जोयणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुणियामागं एगमेगे मंडले विक्खंभबुद्धिं णिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे दो दो तीसाइं जोयणसयाई परिरयबुद्धिं गिबुद्धेमाणे णिबुद्धेमाणे सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति, ॥सू० १३॥ ... छाया-सर्वाभ्यन्तरं खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भेण कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! नवनवति योजनसहस्राणि षट् च चत्वारिंशद्योज नशतानि आयाम विष्कम्भेण त्रीणि च योजनशतसहस्राणि पञ्चदशयोजनसहस्राणि एकोननवति च योजनानि किश्चिद विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् ! अभ्यन्तरानन्तरं सैव पृच्छा, गौतम ! नवनवति योजनसहस्राणि सप्त च द्वादशोत्तरयोजनशताति एकपश्चाशचैक षष्टिभागान योजनस्य, एकषष्टिभागं च सप्तधा छिस्वा एकं चूर्णिकाभाग मायामविष्कम्भेण, त्रीणि प योजनशतसहस्राणि पञ्चदशसहस्राणि त्रीणि चैकोनविंशति योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण असन्तरतृतीयं बुलु गावद प्रज्ञप्तम्। गौतम ! नवनवति योजनसहस्राणि सप्त च पश्चाशीति योजनशतानि एकचत्वारिंशच्चैकषष्टि भागान् योजनस्य एकषष्टिभागं च सप्तधा छित्त्वा द्वौ च चूणिकाभागौ आयामविष्कम्भेण, त्रीणि च योजन शतसहस्राणि पश्चदश योजसहस्राणि पश्च चैकोनपश्चाशद् योजनशतानि किश्चिद्विशे. षाधिकानि परिक्षेपेणेति । एवं खलु एतेन उपायेन निष्क्रामन् चन्द्रो यावत् संक्रामन् संक्रा. मन् द्वासप्तति व सप्तति योजनानि एकपश्चाशच्चै कषष्टिभागान् योजनस्य एकषष्टिभागं च सप्तधा छित्वा ए च चर्णिकामाग मेकै कस्मिन् मण्डले विष्कम्भ बुद्धिमभिवर्द्धयन् अभिवर्धयन् द्वे द्वे विशद् योजनशते परिस्यबुद्धिमभिवर्तयन् अभिवर्तयन् सर्वबाह्य मण्डल मुपसंक्रम्य चारं चरति । सर्ववाद्यं खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भेण कियत् परिक्षेपेग प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! एक योजनशतसहस्रं षट् षष्टि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रीणि च योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तर णि योजनशतानि परिक्षेपेण । बाह्यानन्तरं खलु पृच्छा, गौतम ! एकं योजनशतसहस्रं पञ्चसप्ताशीर्ति योजनशतानि नव चैकपष्टिभागान् योजनस्य, एकषष्टिभागं च सप्तधा छित्त्वा पट् चूर्णिा भागान् आयामविष्कम्भेण, त्रीणि च योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि पश्चाशीति च योजनानि परिक्षेपे । बाह्यतृतीयं खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलं यावत् प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! एकं योजनशतसहस्रं, पञ्च च चतुर्दशोत्तराणि योजन Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १३ सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामादिनिरूपणम् १७५ शतानि एकोनविंशतिं च एकाष्टि भागान् योजनस्य एक पष्टिभागं च सप्तधा छित्वा पञ्च चूर्णिकाभागान आयामविष्कम्भेण त्रीणि च योजनशतसहस्राणि सप्तदशसहस्राणि अष्टौ च पञ्च पश्चाशयोजनशतानि परिक्षेपेण एवं खलु एतेन उपायेन प्रविशन् चन्द्रो यावत् संक्रामन् संक्रामन् द्वासप्ततिं द्वासप्तति योजनानि एकपञ्चाशदेकषष्टिभागान् योजनस्य एकषष्टिभागं च सप्तधा छित्या एकं चूर्णिका भाग मकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भबुद्धिं निवर्द्धयन् निवर्द्ध यन् द्वे द्वे त्रिंशदयोजनशते परिश्यबुद्धिं निवर्द्धयन् निवर्द्धयन सर्वाभ्यन्तरं मण्डल गसंक्रम्य चारं चाति ॥ सू० १३ ॥ टीका-'सव्वन्भंतरे णं भंते ! चंदमंडले' सर्वाभ्यन्तरं खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलम् तत्र सर्वेभ्यो मण्डलेभ्योऽभ्यन्तरं यदपेक्षया अन्यद् अन्तरं न भवेत् तादृशं चन्द्रमण्डलमित्यर्थः 'केवइयं आयामविक्खंभेणं' कियदायामविष्कम्भेण-कियत्प्रमाणकाभ्यामायामविष्कम्भाभ्याम्-दैर्ध्य विस्ताराभ्या मित्यर्थः, तथा-'के इयं परिक्खेदेणं पन्नत्ते' कियता-कियत्प्रमाणकेन परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्त-कथित मिति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णवणउइं जोयण सहस्साई' नवनवति योजनसहस्राणि 'छच्च चत्ताले. जोयणसए' षट् च चत्वारिंशद्यो जनशतानि चत्वारिंशदधिकानि षड्योनशतानीत्यर्थः 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भाभ्यां दैर्ध्यविस्ताराभ्यामित्यर्थः, सर्वाभ्यन्तरं चन्द्रमण्डलं नवनवतियोजनसहस्राणि चत्वारिंशदधिक षड्योजनशतानि ९९६४• आयामवि सर्वाभ्यन्तरादिमंडलायामादि द्वार कथन'सब्वन्भंतरे णं भंते ! चंदमंडले केवइयं आयामविखंभेणं केवइयं परिक्खेघेणं पण्णत्ते' इत्यादि. टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'सयभंतरेणं भंते चंदमंडले' हे भदन्त जो सर्वाभ्यन्तर चन्द्रमण्डल है वह लम्बाई चौडाई में कितने प्रमाण वाला है तथा इसका परिक्षेप-परिधि कितनी है, इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! णवणउइंजोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसए' हे गौतम ! सर्वाभ्यन्तर जो चन्द्र मण्डल है वह ९९६४० योजन की 'आयाम विक्खंभेणं पण्णत्ते' लम्बाई चौडाइवाला है तथा 'तिणिय जोयणससयहस्साई સર્વાત્યંતરાદિમલાયામાદિકાર કથન'सव्यभंतरेणं भंते ! चंदमंडले केवइयं आयामविखंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' इ. साथ-सा सूत्र : गौतमस्वामी प्रभुने सेवी शत प्रश्न छ, 'सव्व. भंतरेणं णं भंते ! चंदमडले' मतसर्वात्य तर यन्द्रमण छ मतमा પહોળાઈમાં કેટલા પ્રમાણવાળે છે? તેમજ અને પરિક્ષેપ-એટલે કે આની પરિધિ-કેટલી छे १ सेना Vanwi प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! णवणउइं जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयमसर' गौतम ! Aaleयत२ २ यन्द्रभ3 छ ते ८६४० योनी आयाम Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जम्बूद्वीपप्रजातिसूत्र कम्भाभ्यां भवतीति भावः 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई पप्णरसजोयणसहस्साई अऊणाणउई च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिवखेवेणं पन्नत्ते' त्रीणि च योजनशतसहस्राणि त्रीणि योजनलक्षसंख्यकानि, इत्यर्थः पञ्चदशयोजनसदस्राणि एकोननवति योजनानि ३१५०८९ किचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्-कथितम् यदा आयामविष्कम्भयोः ९९६४० एतावन्मानं भाति तदा परिक्षेप ३१५०८९ प्रमाणमेतावत् कथं भवतीति जिज्ञा मुना सूर्यमण्ड लाधिकारकथितोपपत्तिरनुशीलनीया विस्तरभयाद् अनुपयोगाच्च नात्र पुनयक्तिः प्रदर्शितेति प्रथमसर्वाभ्यन्तरचन्द्रमण्डलविचार इति । अथ द्वितीयसर्वाभ्यन्तरचन्द्रमण्डलं दर्शयितु माह-'अभंतराणंतरे' इत्यादि, 'अभंतराणंतरे साचेव पुच्छा' अभ्यन्तरानन्तरे सै। पृच्छा, हे भदन्त ! अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्काभ्यां कियता परिक्षेपेण प्रज्ञप्तमितिपृच्छा-प्रश्नः संगृह्यते, भगवानाह-'गोयमा' पण्णरस जोयणसहस्साइं अऊणाणउइं च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खे. वेषां पण्णत्ते' ३१५०८९ योजन से कुछ अधिक परिधिवाला है। यदि यहां पर ऐसी आशंका की जाये कि-'जब ९९६४० योजन का इसका आयाम और विष्कम्भ है तो परिधिका इतना प्रमाण कैसे होता है ? तो इस के समाधान निमित्त सूर्यमण्डलाधिकार में कथित युक्ति-अनुशीलनीय है। विस्तार होजाने के भय से हम उसे यहां पुनः प्रकट नहीं कररहे हैं। प्रथम सर्वाभ्यन्तर चन्द्र मंडल के आयामादि का विस्तार समाप्त द्वितीय सर्वाभ्यन्तर चन्द्र मंडल के आयामादिका विचार 'अभंतराणंतरे साचेव पुच्छा' हे भदन्त ! सर्वाभ्यन्तर चंद्र मंडलके अनन्तर जो द्वितीय चन्द्र मण्डल है वह आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा कितने प्रमाण वाला है तथा विखंभेणं पण्णत्ते' मा तमा पाणी छ, तमा 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई पण्णरस जोयणसहस्साई अउणाणउइं च जोयणाई किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते' ઉ૧૫૦૮૯ એજન કરતાં કંઈક અધિક પરિધિવાળે છે. જે અહીં એવી આશંકા કરવામાં આવે કે જ્યારે ૯૯૬૪૦ એજન જેટલે આને આયામ અને વિષ્ક છે તે પરિધિનું આટલું પ્રમાણ કેવી રીતે સંભવી શકે? એના સમાધાનના નિમિત્તે સૂર્યમંડળમાં કથિત– યુક્તિ અનુશીલનીય છે. વિસ્તારભયથી અમે અહીં તે ફરી સ્પષ્ટ કરતા નથી. પ્રથમ સત્યંતર ચન્દ્રમંડળના આયામા દિને વિસ્તાર સમાપ્ત. દ્વિતીય સર્વાત્યંતર ચંદ્રમંડળના આયામાદિ વિશે વિચાર 'अभंतराणतरे सा चेव पुच्छा' 3 लत ! सालयतर म पछी २ द्वितीय ચંદ્રમંડળ છે. તે આયામ અને વિખંભની અપેક્ષાએ કેટલા પ્રમાણુવાળે છે તેમજ આની पनि प्रभार ४८ छ १ मेन पाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! णवणउई जोयण Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सु. १३ सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामादिनिरूपणम् 粤心我 इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'णवणऊइ' जोयणसहरसाई' नवनवतिं योजनसह - त्राणि 'सत्तय वारसुत्तरे जोयणसए' सप्त च द्वादशोत्तराणि योजनशतानि 'एगावण्णं एगसद्विभागे जोयणस्स' एकपञ्चाशचे कषष्टिभागान् योजनस्य ' एगसडिभागं च सत्तहा छेत्ता' योजनस्यैकं पष्टिमार्ग सप्तधा पुनश्छित्वा - विभिद्य 'एगं चुणियाभागं आयामविक्खं मेणं' एकंच चूर्णिका भागमायामविष्कम्भाभ्यां दैर्घ्यविस्ताराभ्याम् सर्वाभ्यन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् तद्यथा - एकतश्चन्द्रौ द्वितीयमण्डले संक्रमणं कुर्वन् पत्रिंशद् योजनानि पञ्चविंशतिं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकस्य चैकषष्टिभागस्य सप्तत्रा छिन्नस्य संबन्धि चतुरोभागान् परित्यज्य संक्रमणं करोति, अपरतोऽपि एतावत्प्रमाणकान्येव योजनानि परित्यज्य संक्रमणं करोति द्वितीयश्चन्द्रः उभयोः संकळने सति भवति द्वासप्तति यजनानि एकपञ्चाशदेकपष्टि भागाः योजनस्य एकस्यैकपष्टि भागस्य सप्तधा छिन्नस्य सम्बन्धी परिधि का प्रमाण इसका कितना है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा णवउई जोयणसहस्साई समय बारमुत्तरे जोयणसए' गौतम । ९९६१२ योजन at 'erravi एगसद्विभागे जोयणस्स' और एक योजन के ६१ भागों में से ५१ भाग प्रमाण का तथा 'एग सहि भागंच सत्तहा हित्ता एवं चुण्णियाभागं आयाविक्खंभेणं' ६१ भागों में से किसी एक भाग के कृत किये गये ७ टुकडो में से एक टुकडे प्रमाण का द्वितीय चन्द्रमण्डलका आयामविष्कम्भ है ! इसका तात्पर्य ऐसा है कि एक तरफ चन्द्र का द्वितीय चन्द्रमण्डल पर संक्रमण करता हुआ ३६ योजन को तथा १ भागके विभक्त किये गये ७ भागों में से ४ भागो को छोडकर संक्रमण करता है, दूसरी तरफ दूसरा चन्द्र भी इतने ही प्रमाण योजन को छोडकर संक्रमण करता है दोनों का योग ७२ है, योजन का तथा एकषष्ठि भागों में गृहीत १ भाग के कृत ७ भागों में से एक भाग जो कि सहस्साई सत्तय बारमुत्तरे जोयणसए' हे गौतम! ८६७१२ योगनना 'एगावण्णं एगसट्ठि भागे जोयणस्स' अने खेड योजनना ११ लोगोमांथी ५१ भाग प्रभाणुना तेभन 'एसट्टिभागं च सत्ता छित्ता एगं चुण्णियाभागं आयाम विक्खंभेर्ण' ११ लागोभांधी કોઇ એક ભાગના કરવામાં આવેલા ૭ કકડાએમાંથી એક કકડા જેટલા પ્રમાણના દ્વિતીય ચદ્રમંડળના આયામ–વિષ્કલ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે એક તરફ ચન્દ્ર દ્વિતીય ચન્દ્રમંડળ પર સંક્રમણ કરતા-કરતા ૩૬૫ યજનને તેમજ ૧ ભાગના વિભક્ત કરવામાં આવેલા ૭ ભાગેામાંથી ૪ ભાગાને છોડીને સક્રમણ કરે છે. ખીજી ખાજુ ખીજો ચન્દ્ર પણ આટલા જ પ્રમાણમાં ચેનેાને મૂકીને સંક્રમણ કરે છે. બન્નેના યોગ ૭૨૫૧ ચેાજન જેટલે તેમજ એક ષષ્ઠ ભાગેામાં ગૃહીત એક ભાગના કૃત છ ભાગેામાંથી એક ભાગ કે જે દ્વિતીય ચન્દ્રમ ડળમાં આયામ વિષ્ણુભના વિચારમાં પ્રથમ મંડળની અપેક્ષાએ અધિક Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जम्बूद्वीपप्रतिर एको भागो द्वितीयचन्द्रमण्डले आयामविष्कम्भचिन्तायामधिकत्वेन प्राप्तो भवति :प्रथम मण्डलापेक्षया एतच्च प्रमाणे पूर्वमण्डलराशौ प्रक्षिप्यते तदा नवनति योजनसहस्राणि द्वादशाधिकानि सप्तयोजनशतानि एकञ्चाशतं चैकषष्टिभागान् यो ननस्यैकं चैकंपष्टिभागं सप्तधा छित्वा एकं चूर्णिकाभागमायमविष्कम्भमानं भवतीति । 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई त्रीणि च योजनशतसहस्राणि लक्षात्रयमित्यर्थः 'पण्णाससहस्साई' पञ्चदश योजन सहस्राणि 'तिण्णिय एगृणवीसे जोयगसए' त्रीणिचैकोनविंशति योजनशतानि, एकोनविंशत्यधिकानि त्रीणि योजनशतानि, इत्यर्थः 'किंचि विसेसाहियाई परिक्खेवेणं' किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, ३१५३१९ किश्चिद्विशेषाधिकानि, एतावत्प्रमाणानि परिक्षेपेण भवतीत्यर्थः, इति द्वितीयं मण्डलं कथित मिति । युक्तिस्तु-प्रथम मण्डलपरिधी द्वासप्तति योजनादीनां परिरये त्रिंशदधिक द्वि योजनशतरूपे प्रक्षिप्ते सति यथोक्तं प्रमाणं भवतीति द्वितीयं मण्डलम् ॥ अथ तृतीयं मण्डलं वक्तुमाह-'अभंतरतच्चेणं जाव पन्नत्ते' अभ्यन्तरतृतीयं यावत्प्रज्ञप्तम्, अत्र यावत्पदेन संपूर्णोऽपि प्रश्नः संग्रहीतव्यः, 'चंदमंडछे केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं द्वितीय चन्द्र मण्डल में आयाम विष्कम्भ के विचार में प्रथम मण्डलकी अपेक्षा अधिक रूप से प्राप्त होता है, इस प्रमाण को पूर्व मण्डल राशि में प्रक्षिप्त कर देने पर ९९७१२ १० योजन का तथा एक योजन के कृत ६१ भागों में से एक भाग के ७ टुकड़ों में से १ टुकडे अधिक का आयामविष्कम्भ प्रमाण हो जाता है 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई पन्नरस सहस्साई तिणि य एगूणवीसे जोयणसए किंचि विसेसाहियाइं परिक्खेवेणं' तथा परिक्षेप का प्रमाण ३१५३१९ योजन से विशेषाधिक हो जाता है प्रथम मण्डल की परिधि में २३० प्रक्षिप्स करने पर कुछ इतना इसकी परिधि का प्रमाण निकल आता है, द्वितीय मण्डल आयामादि कथन समाप्त तृतीयनंडल वक्तव्यता "अभंतरतच्चेणं जाव पन्नत्ते' तृतीय मडल की वक्तव्यता में यहां यावत्पदसे ऐसा पाठ संगृहीत हुआ है-हे भदन्त ! तृतीय जो अभ्यन्तर चन्द्र मंडल રૂપમાં પ્રાપ્ત થાય છે. આ પ્રમાણને પૂર્વમંડળ રાશિમાં પ્રક્ષિપ્ત કરવાથી ૯૮૧૨૫ જનને તેમજ એક એજનના કરવામાં આવેલા ૬૧ ભાગમાંથી એક ભાગના કકડાઓमाथी १४४१ मधिनी मायाम-१०४ प्रभाए थ य छे. 'तिणि य जोयणसयसहस्साई पण्णरससहस्साई तिण्णिय एगूणवीसे जोयणसए किंचिविसेसाहियाइं परिक्खेवेणं' તેમજ પરિક્ષેપનું પ્રમાણ ૩૧૫૩૧૯ એજન કરતાં કંઈક વિશેષ થઈ જાય છે. પ્રથમ મંડળની પરિધિમાં ૨૩૦ પ્રક્ષિપ્ત કરવાથી આટલું આની પરિધિનું પ્રમાણ નીકળી આવે છે. દ્વિતીયમંડળ આયામાદિ કથન સમાપ્ત 'अभंतरसच्चेणं जाव पन्नत्ते' तृतीयमनी xn०यतामा मही यावत् ५४थी ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १३ सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामादिनिरूपणम् १७५ परिक्खेवेणं' इत्यस्य ग्रहणं भवंतीति 'चंदमंडले' चन्द्रमण्डलमभ्यन्तरतृतीयम 'केवइयं आयामविक्खंभेणं' कियदायामविष्कम्भाभ्याम्, 'केवइयं परिक्खेवेणं' कियता परिक्षेपण सम्पूर्णप्रश्नस्तु इत्यम्-तथाहि-हे भदन्त ! अभ्यन्तर तृतीयं खलु चन्द्रमण्डलहम्, कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियता परिक्षेपेण च कथित मिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णवण उइं जोयणसहस्साई नवनवति योजनसहस्राणि नवाधिकानि नवति योजनसः स्राणीत्यथः 'सत्तय पंचासीए जोयणसए' सप्त च पञ्चाशीति योजनशतानि पश्चाशीत्यधिकानि सप्त योजनशदानीत्यर्थः 'इगतालीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स' एकचत्वारिशच्चैकषष्ठिभागान् योजनस्य 'एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता' एकस्य योजस्य चैकपष्टिभागरतं सप्तधा छित्वा 'दोणि य चुण्णियाभाए आयामविक्खंभेणं, द्वौ च चूर्णिकामागो आयामविष्कम्माभ्यां भाति नवनवतियोजनसहस्राणि पश्चाशीत्यधिकानि सप्त योजनशतानि एकचत्वारिंशतं चैरूपष्टिभागान् योजनस्य एकं चैकषष्टिभागं सप्तधा छित्वा द्वौ चूर्णिकाभागौ ९९७८५१७ आयामविष्फम्भाभ्यां भवतीत्यर्थः, द्वितीयमण्डलगतराशी द्वा सप्तति योजनानि एकपञ्चाशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकं च चूर्णिकाभागमधिकं प्रक्षिप्य यथोक्तं मानं भवतीति ज्ञातव्यम् । 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई' त्रीणि च योजनशतसहस्राणि 'पण्णरस जोयणसहस्साई' पञ्चदश योजनसहस्राणि 'पंचपइगुणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं ति' पञ्चय एकोन पञ्चाशद् योजनशतानि एकोन है वह आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा कितना वडा है-तथा परिधि इसकी कितनी बडी है ? इसके उत्तर में प्रभु ने ऐसा कहा है-हे गौतम! 'णवणउई जोयणसहस्साई सत्तय पंचासीए जोयणसए इगतालीसंच एगसद्विभाए जोयणस्स एगसद्विभागंच सत्तहा छेत्ता दोणि य चुणियाभाए आयामविक्खंभेणं' तृतीय अभ्यन्तर चन्द्र मंडल का आयाम विष्कम्भ ९९७८५ : योजन का है द्वितीय मंडल की आयाम विष्कम्भ की राशि प्रमाण में-७२ योजन को तथा ५: और एक चुणिका भाग को प्रक्षिप्त करने पर यह पूर्वोक्त तृत्तीय मंडल का आयाम विष्कम्भ का प्रमाण निकल आता है 'तिण्णिय जोयणसयसहस्साई જાતને પાઠ સંગૃહીત થયો છે કે હે ભદંત! તૃતીય જે અત્યંતર ચન્દ્રમંડળ છે તે આયામ અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ કેટલું વિશાળ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે-હે गौतम ! 'णवणउइं जोयणसहस्साई सत्तय पंचासीए जोयणसए इगतालीस च एगसहि भाए जोयणस्स एगमट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता दोणि य चुण्णियाभाए आयामविक्खंभेण' તૃતીય અત્યંતર ચંદ્રમંડળને આયામ વિષ્કમ ૯૯૭૮૫ ૩ એજન જેટલું છે. દ્વિતીય મંડળની આયામ વિધ્વંભની રાશિ પ્રમાણમાં ૭ર પેજનને તેમજ ૫૦ અને એક ચુર્ણિકા ભાગને પ્રક્ષિપ્ત કરીને આ પ્રકૃતિ તૃતીયમંડળના આયામ–વિખંભનું પ્રમાણ नीजा सावे छ. 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई पण्णरसजोयणसहस्साई पंचय इगुणापणे Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रजातिसूत्रे पश्चाशदधिकानि पञ्चयोजनशतानीत्यर्थः फिश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण भवति अत्र च पूर्व मण्डलपरिरयराशौ द्वे योजनशते त्रिंशदधिक प्रक्षिप्य उपपत्तिः कर्तव्येति तृतीयमण्डलमिति । अथ चतुर्थादि मण्डलेषु अतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, ‘एवं खलु एएणं उवाएणं' एवं खलु एतेनोपायेन पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण 'णिक्खममाणे चंदे' निष्क्रामन् चन्द्रः, एकस्माद मण्डलादपरमण्डलं गच्छन् चन्द्रमाः 'जाव संकममाणे संकममाणे' यावत संक्रामन् संक्रामन् गच्छन् २, अत्र यावत्पदेन 'तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मण्डलं' इत्यस्य ग्रहणं भवति, तदर्थश्च-तदनन्तराद मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं निष्क्रामन्-गच्छन् 'बावत्तरि बावत्तरि जोयणाई द्वासप्तति द्वासप्तति योजनानि 'एगावणं च एगसद्विभाए जोयणस्स' एकपश्चा. शञ्चैकषष्टिभागान् योजनस्य 'एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेता' एकपष्टिभागं च सप्तधा छित्वा 'एगं च चुणियाभार्ग' एकं च चूर्णिकाभागम् ‘एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं अभिवढे माणे २' एकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भबुद्धिमभिवर्द्धयन् २-कुर्वन् २ 'दो दो तीसाइं जोयणसवाई' द्वे द्वे त्रिंशदयोजनशते त्रिशदधिकं योजनशतद्वयमित्यर्थः 'परिरयबुद्धिअभिवर्तमाणे२' परिरयवृद्धिम्-परिक्षेपाधिक्यम् अभिवर्द्धयन् २ 'सन्चबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता' सर्वबाह्य मण्डलपण्णरस जोयणसहस्साइं पंच य इगुणापण्णे जोयणसए किंचि बिसेसाहिए परिक्खेवेगंति' तथा इसके परिक्षेप का प्रमाण ३१५५४९ योजन से अधिक है। यह प्रमाण पूर्व मण्डल के परिक्षेप प्रमाण में २३० योजन के प्रक्षिप्त करने पर आजाता है। अब चतुर्थादि मंडलों में अतिदेश का कथन करते हुए सूत्रकार कहते हैं 'एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे जाव संकममाणे २ तया. गंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं णिक्खममाणे बाबत्तरि २ जोयणाई एगा बण्णं च एगसहिभाए जोयणस्स एगसहिभागं च सत्तहा छेत्ता एगं च चुणिया भागं' तीन आभ्यन्तर मण्डल से निकल कर तदनन्तर मण्डल पर जाता हुआ चन्द्र ७२० योजन की एवं एक भाग के ७ भागों में से १ चुणिका भाग की एक एक मंडल पर विष्कम्भवृद्धि करता हुआ तथा २३० योजन की परिक्षेप में जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणंति' मान परिपनु प्रमाण ३१५५४८ यौन રતાં કઈક વધારે છે. આ પ્રમાણ પૂર્વમંડળના પરિસે ૫ પ્રમાણમાં ૨૩૦ એજન પ્રક્ષિપ્ત કરવાથી આવી જાય છે. હવે ચતુર્નાદિ મંડળોમાં અતિદેશનું કથન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે ___ 'एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे जाव संकममाणे २ तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं णिखिममाणे बावत्तरि २ जोयणाई एगावणं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता एगं च चुणियाभार्ग' र माय तर यन्द्रमामा प्रहશિત પદ્ધતિ મુજબ યાવત્ તદનંતરમંડળમાંથી નીકળીને તદનંતરમંડળ ઉપર ગતિ કરતા ચન્દ્ર ૭૨ પેજન જેટલી તેમજ એક ભાગના ૭ ભાગમાંથી ૧ ચૂર્ણિકા ભાગની એક-એક મંડળ ઉપર વિર્ક વૃદ્ધિ કરતે તેમજ ૨૩૦ એજનના પરિક્ષેપમાં વૃદ્ધિ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १३ सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामादिनिरूपणम् १७७ मुपसंक्रम्य-संप्राप्य 'चारं चरइ' चारं गति चरति करोति ॥ यथा पूर्वानुपूर्वीव्याख्याना भवति तथा पश्चानुपुर्यपि व्याख्यानाङ्ग भवतीति पश्चानुपूर्व्या पृच्छन्नाह-'सव्वबाहिरएण' इत्यादि, 'सव्वबाहिरएणं भंते ! चंदमंडले' सर्वबाह्यं खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डम् 'केवइथं आयामविक्खंभेणं' कियदायामविष्कम्भाभ्याम् 'केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' कियता-कियत्प्रमाणकेन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा हे गौतम ! 'एगं जोयणसयसहस्स' एक योजनशतसहस्रं लक्षैकयोजनमित्यर्थः 'छच्च सहे. जोयणसए' षट्पष्टानि योजनशतानि षष्टयधिकानि षड्योजनशतानीत्यर्थः 'आयाम विक्खंभेणं' आयामविष्कम्भाभ्यां दैर्घ्य विस्ताराभ्यां सर्ववाद्यं चन्द्रमण्डल प्रज्ञप्तम् , एकं योजन लक्षं पष्टयधिकानि पह योजनशतानि १००६६० एतावत्प्रमाणकाभ्यायामविष्कम्भाभ्यामित्यर्थः। तत्रोपपत्तिस्तु जम्बूद्वीपो लक्षप्रमाणकः उभयोः प्रत्येकं त्रीणि योजनशतानि वृद्धि करता हुआ सर्व बाह्य मंडल पर पहुंच कर अपनी गति करता है-यही बात 'दो दो तीसाइं जोयणयाइं परिरयधुड़ि अभिवद्वेमाणे २ सव्वयाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकर की गई है । अब गौतमस्वामी पूर्वानुपूर्वी के अनुसार चन्द्रमंडल के आयामादिसम्बन्ध में पूछकर और उसका उत्तर प्राप्त कर पश्चानुपूर्वी के अनुसार इसी सम्बन्ध में प्रभु से पूछते हैं-'सध्यबाहिरएणं भंते ! चंदमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेर्ण पण्णत्ते' हे भदन्त । पश्चानुपूर्वी के अनुसार सर्व बाहय चन्द्र मण्डल का आयाम और विष्कम्भ कितना है और परक्षेप कितना है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! एगं जोयणसयसहस्सं उच्च सट्टे जोयणसए आयामविक्खंभेणं हे गौतम ! सर्वबाहय चन्द्रमंडल का आयाम और विष्कम्भ १ लाख ६ सौ साठ योजन का है इसे यों समझना चाहिये जम्बूद्वीप का विस्तार १ लाख योजन का है तथा प्रत्येक पार्श्व भाग ३३० योजन का है दोनों का जोड १ लाख કરતે સર્વબાહ્ય મંડળ ઉપર પહોંચીને પિતાની ગતિ આગળ ધપાવે છે. એજ વાત 'दो दो तीसाई जोयणसयाई परिरयवुदि अभिबद्धेमाणे २ सव्य बाहिर मंडलं उसकमित्ता चार चरई' मा सूत्रा द्वारा प्र४८ ४२वामा माकी छे. हुवे गौतमयामी पूर्वानु. પૂર્વી મુજબ ચન્દ્રમંડળના આયામાદિ વિશે પ્રશ્ન કરીને અને તે સંદર્ભમાં ઉત્તર મેળવીને ५श्वानुपूती भुम । समयमा प्रमुने पूछे छे-'सब्ब बाहिरएणं भंते ! चंदमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिवखेवेणं पण्णत्ते' लत ! ५श्वानु का भु४५ सवार ચન્દ્રમંડળને આયામ અને વિષ્કમ કેટલું છે અને પરિક્ષેપ કેટલું છે ? એના જવાબમાં प्रभु ४९ छ-'गोयम! ! एगं जोयणसयसहस्स छच्च सट्टे जोयणसए आयामविखंभेणं હે ગૌતમ! સર્વબાહ્ય ચન્દ્રમંડળના આયામ વિષ્ક ૧ લાખ ૬ સે ૬૦ એજન જેટલું છે. આને એવી રીતે સમજવું જોઈએ કે જંબુદ્વીપને વિસ્તાર એક લાખ યે જન જેટલું ज० २३ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्रे त्रिंशदधिकानि, उभयोः संकल ने षट्शतानि षष्टयधिकानीति ॥ 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई' त्रीणि योजनशतसहस्राणि लक्षत्रयमित्यर्थः 'अट्ठारससहस्साई' अष्टादश सहस्राणि 'तिण्णि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं' त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण, त्रयोलक्षाः अष्टादशसहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण भवति, अत्र जम्बूद्वीपपरिधौ षष्टयधिकषट्शतपरिधेः प्रक्षेपे सति त्रयो योजनलक्षा अष्टादशसहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजतशतानि ३१८३१५ परिक्षेपो भवतीत्यर्थः । सम्प्रति द्वितीयं सर्वबाह्यमण्डलं दर्शयितुमाह-वाहिराणंतरेणं पुच्छा' बाह्यानन्तरं द्वितीय मण्डलं पृच्छा, हे भदन्त ! बाह्यानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियता परिक्षेपेण च प्रज्ञप्तमिति पृच्छापदेन संगृह्यते प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगं जोयणसयसहस्स' एकं योजनशतसहस्रं लक्षकयोजनमित्यर्थः 'पंचसत्तासीए जोयणसए' पश्चसप्ताशिति योजनशतानि, सप्ताशीत्यधिकानि पञ्चयोजन. शतानीत्यर्थः 'णवय एगसद्विभाए जोयणस्स' नवचैकपप्टिभागान् योजनस्य 'एगसद्विभार्ग च सत्तहा छेत्ता' एकपष्टिभागं च सप्तधा छित्त्वा 'छ चुणियाभाए' षट् च चूर्णिकाभागान् ६ सौ ६० योजन का होजाता है। 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई अवारससह स्साई तिणिय प्रण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं' तथा इसका परिक्षेप का परिमाण ३१८३१५ योजन का है जम्बूद्वीप की परिधि में ६६० परिधि के प्रमाण को मिला देने पर पूर्वोक्त परिधि का प्रमाण निकल आता है। द्वितीय सर्ववाहयचन्द्रमंडल के सम्बन्ध में विचार 'बाहिराणंतरेणं पुच्छा' हे भदन्त ! बाह्यानन्तर द्वितीय चन्द्र मण्डल का आयाम और विष्कम्भ कितना है ? और इसका परिक्षेप कितना है? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतमस्वामोसे कहते हैं-'गोयमा ! एगं जोयणसयसहस्सं पंच सत्तासीए जोयणसए व एगसहिभाए जोयणस्स एगसहिभागं च सत्तहा છે તેમજ દરેક પાર્ધભાગ ૩૩૦ એજન જેટલું છે. બન્નેને એગ ૧ લાખ ૬ સો ૬૦ योसनछ. 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई तिणि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवण' ते माना परिव ५४ परिभाए 31८3१५ यापन रे छ. दीपनी પરિધિમાં ૬૬૦ પરિધિના પ્રમાણને જોડવાથી પૂર્વોક્ત પરિધિનું પ્રમાણ નીકળી આવે છે. દ્વિતીય સર્વબાહ્ય ચન્દ્રમંડળના સંબંધમાં વિચાર___ 'बाहिराणतरेणं पुच्छा' 8 मत ! माह्यानन्त२ द्वितीय यन्द्रमा मायामવિષ્કમે કેટલા છે? અને આને પરિક્ષેપ કેટલે છે? એ પ્રશ્નના જવાબમાં પ્રભુ ગૌતમस्वामी ४३ छ-'गोयमा! एगं जोयणसयसहस्स पंचसत्तासीए जोयणसए णवय एगसद्धि भाए जोयणस्स एगसद्विभागं र सत्तहा छेत्ता छ चुण्णियाभाए आयामविक्खंभेणं' ३ गौतम ! Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारःसू. १३ सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामादिनिरूपणम् १७९ 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्माभ्याम् एकं लक्षं सप्ताशीत्यधिकपश्चयोजनशतानि नवचैकषष्टिभागान् योजनस्यैकं षष्टिभागं सप्तधा छित्वा षट चूर्णिकाभागान् १००५८७१ एतावत्प्रमाणकायामविष्कम्भाभ्यां सर्वबाह्य द्वितीयचन्द्रमण्डलं भवतीति भावः । अत्र पूर्वराशे सप्ततिं योजनानि, एकपञ्चाशतं चैकषष्टि भागान् योजनस्य एकस्यैकस्यैकपष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य एकं भागमपनीयोपपत्तिः कर्तव्या मूर्यनिरूपणाधिकारे कृता विस्तरभयानात्र पुनर्विशेषतो लिख्यते इति । 'तिणि य जोयण सयसहस्साई' त्रीणि च योजनमतसहस्राणि त्रयो लक्षा इत्यर्थः 'अट्ठारससहस्साई अष्टादशसहस्राणि 'पंचासीइंच मोयणाई परिक्खेवेणं' पश्चाशीति च योजनानि परिक्षेपेण लक्षत्रयम् अष्टादशसहस्राणि पञ्चाशीति योजनानि ३१८०८५ एतावत्प्रमाणकपरिक्षेपेण द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तमित्यर्थः सर्वबाह्य द्वितीयमण्डलपरिधे द्वेशते त्रिंशदधिके योजनानामपनयने यथोक्तं परिक्षेपमानं भवतीति सर्वबाह्य द्वितीयमण्डलमिति । अथ तृतीयं सर्वबाह्यमण्डलं दर्शयितुमाह'बाहिरतच्चेणं' इत्यादि, 'बाहिरतच्चेणं भंते ! चंदमंडले पन्नत्ते' सर्ववाद्यं तृतीयं खलु भदन्त ! चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियता परिक्षेपेण च प्रज्ञप्तमिति प्रश्न; छेसा छ चुण्णियाभाए आयामविक्खंभेणं' हे गौतम ! १००५८७४, योजन का तथा १ भाग के ७ भागों में से ६ भाग का द्वितीय चन्द्र मण्डल का आयाम और विष्कम्भ है तथा 'तिणि य जोयणसयसहस्साई अट्ठारसहस्साइं पंचासीइंच जोयणाई परिक्खेवेणं' ३१८०८५ योजन का इसका परिक्षेप है। इसका जो आयाम और विष्कम्भ का प्रमाण कहा गया है वह पूर्वमण्डल राशि में से ७२० योजन को तथा एक षष्टि भाग को ७ से विभक्त कर १ भाग को घटा करके हुआ कहा गया है। यह विषय हमने सूर्यनिरूपण के अधिकार में किया है अतः वहीं से इसे जानलेना चाहिये उसे यहां पर लिखने में ग्रन्थ का कलेवर बढजाने का भय है तथा-सर्वबाहय द्वितीय मंडल की परिधि मे से २३० से कुछ अधिक योजनों के घटाने से पूर्वोक्त प्रमाण परिक्षेप का निकल आता हैं। ૧૦૦૫૮૭ યોજનને તેમજ એક ભાગના ૭ ભાગમાંથી ૬ ભાગે ને દ્વિતીય ચંદ્રभजन मायाम-nि छ. तेभर 'तिण्णि य जोयणसयसहस्साई अद्वारस सहस्साई पंवासीईच जोयणाई परिक्खेवेणं' 3१८०८५ यासन से माना परिक्ष५ छे. अनुरे આયામ અને વિખંભનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલું છે તે પૂર્વમંડળ રાશિમાંથી ૭૨ ચજન તેમજ એકષષ્ટિ ભાગને ૭ માંથી વિભક્ત કરીને એક ભાગ જેટલું કામ કરીને કહેવામાં આવેલું છે. આ વિષયનું પ્રતિપાદન અને સૂર્ય નિરૂપણના અધિકારમાં કરેલું છે એથી જિજ્ઞાસુ મહાનુભાવે ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે. ગ્રન્થ વિસ્તારભયથી અહીં પુનઃ તેની સ્પષ્ટતા કરવામાં આવતી નથી. તેમજ સર્વબાહ્ય દ્વિતીયમંડળની પરિધિમાંથી ૨૩૦ કરતાં કંઈક વધારે જનને ઘટાડવાથી પૂર્વોક્ત પ્રમાણુ પરિક્ષેપનું નીકળી આવે છે, Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम ! 'एगं जोयणसयसहस्स' एकं योजनशतसहस्त्रम् एकं लक्षयोजनमित्यर्थः 'पंच व चउदसुत्तरे जोयणसए' पञ्च च चतुर्दशोत्तराणि योजनशतानि 'एगूणवीसं च एगसट्टिमाए जोयणस्स' एकोनविंशर्ति च एकषष्टिभागान् योजनस्य ' एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता' पंच चुण्णियामागे आयामविक्खंभेणं' एकं षष्टिभागं च सप्तधा छत्वा पञ्चचूर्णिकाभागान् आयत्मविष्कंभाभ्याम् एकं लक्षं चतुर्दशोत्तराणि पञ्च योजनानि एकोनविंशति चैकषष्टिभागान् योजनस्यैकषष्टिभागं च सप्तधा छत्वा पञ्चचूर्णिका भागान् १००५१४६२५ एतावत्प्रमाणकाभ्यामायामविष्कं माभ्यां बाह्य तृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तमित्यर्थः ' तिण्णिय जोयणसय सहस्सा ई' त्रीणि च योजनशतसहस्राणि 'सत्तरससहस्साई' सप्तदशसहस्राणि 'अट्टयपणपणे जोयणसए परिवखेवेणं पन्नत्ते' अष्टौ - च पञ्चपञ्चाशद् योजनशतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि अष्टौ योजनशतानीत्यर्थः परिक्षेपेण सर्वबाह्य तृतीयचन्द्रमण्डलम् भवतीति सर्वबाह्य तृतीयमण्डलमिति । तृतीय सर्वबाहयचन्द्रमंडल कथन 'बाहिरतच्चे णं भंते! चंदमंडले पन्नत्ते' हे भदन्त ! सर्वबाहय जो तृतीय चन्द्रमण्डल है उसका आयाम और विष्कम्भ कितना है और कितना इसका परिक्षेप है ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा है- 'गोधमा ! हे गौतम ! 'एगं जोयणसयसहस्सं पंच चउद्दसुत्तरे जोयणसए' इसका एक लाख पांच सौ चौदह योजन तथ 'एगूणवीसं च एगसहिभाए जोयणस्स' एक योजन के ६१ भागों में से १९ भाग 'एसट्टिभागं च सत्तहा छेत्ता पंच चुण्णिया भागे आयामविकखंभेणं ! और १ भाग के सात भागों में से ५ चूर्णिका इतना इसका आयाम और विष्कम्भ है । इस तरह १००५१४३ अङ्को में लिखना चाहिये तथा - 'तिण्णि य जोयणसथसहस्साई सत्तरस सहस्साइं अट्ठय पणपण्जे जोघणसए परिक्खेवेणं पश्नत्ते' इस तृतीय बाहय चन्द्रमण्डलका ३१७८५५ तीन लाख सत्तरह हजार आठ તૃતીય સ`બાહ્ય ચદ્રમંડળનું કથન ५ 'बाहिरतच्चे णं भंते ! चंदमडले पन्नत्ते' हे लत ! सर्वमाद्य ने तृतीय भांडण छे तेना આયામ અને વિષ્કભા કેટલા છે અને આના પરિક્ષેપ કેટલા છે? એના જવાખમાં પ્રભુ ४ छे - 'गोयमा ! हे गौतम! 'एगं जोयणसयसहस्स पंच च चउदसुत्तरे जोयणसए' भने। मेसा यांयसेो यो योजन तेम४ ' एगूणवीस' च एगसट्टिभाए जोयणस्स में४ યેાજનના ૬૧ ભાગેામાંથી ૧૯ लागो 'एगसट्टिभागं च सत्तहा छेत्ता पंच चुण्णियाभागे आयाम विक्खंभेणं' याने शोठ ભાગના સાત ભાગે માંથી ૫ ચૂર્ણિકા આટલું. એના આયામ–વિષ્ટ ભનું પ્રમાણ છે. આ પ્રમાણે આ સંખ્યા ૧૦૦૫૧૪o o અકામાં લખી शाय छे. तेभन 'तिष्णि य जोयणसयसहस्साइ सत्तरससहस्साइं अट्ठय पगपणे जोयण सए परिक्खेवेणं पन्नत्ते' मा तृतीय माह्य चन्द्रभउजनी ३१७८५ ला सत्तर Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १३ सर्वाभ्यन्तरमण्डलायामादिनिरूपणम् १८१ सम्प्रति-चतुर्थादिमण्डलेषु अतिदेशं दर्शयशि-एवं खलु इत्यादि, ‘एवं खलु एएणं उवाएणं' एवं खलु एतेन-उपर्युक्तदर्शितो गायेन प्रकारेण 'पदिसमाणे चंदे' प्रविशन्-अन्तरा मुखं गच्छन् चन्द्राः 'जात्र संकय पागे संक्रममाणे सावत्संहामन् संक्रामन् अत्र यावत्पदेन 'तयाणंतरामो मंडलाओ तयाणतरं मंडलं' तदनन्तराद् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलम् इत्यस्य संग्रहः संक्रामन्-तस्य संक्रमणं कुर्वन 'बालत्तरि जोयणाई' द्वासप्ततिं द्वासप्ततिं योजनानि 'एगावण्णं च एगसहिभाए जोयणस्स' एकपञ्चाशच्च एकषष्टिभागान् योजनस्य 'एगसहि. भागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुष्णियाभार्ग' एक चैकपष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा एकं चूणिका. भागम् ‘एगमेगे विश्ख मबुद्धि णिवुद्धमाणे णि बुद्धमाणे' एकैकस्मिन् मण्ड ले विष्कम्भवृद्धिं निवर्द्धयन् निवर्द्धयन्-त्यजन् त्यजन् 'दो दो तीसाई जोयणसयाई द्वे द्वे त्रिंशद् योजनशते त्रिंशदधिके द्वे द्वे योजनश ने इत्यर्थः 'परिरगवुदिं णिवुद्धेमाणे णिवुद्धेमाणे' परिरयवृद्धिंपरिक्षेपवृद्धिं निवर्तयन् निवर्द्धयन्-हापयन् हापयन् त्यजन् त्यजन् इत्यर्थः 'समभंतरं मण्डलं उपसं मित्ता चारं चरई' सर्वाभ्यनारमण्डलमुपसंक्रम्य-चारं गति चरति-करोतीति मण्डलायामादिद्वारम् इति ॥ सू० १३ ॥ सौ पचपन योजन का परिक्षेप है। अब सूत्रकार अतिदेश का चतुर्थादि बाहय मंडलों में कथन करते हुए कहते हैं-'एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे संकममाणे' इस तरह-प्रदर्शित प्रति के अनुसार अभ्यन्तर चन्द्र मण्डल की ओर जाता हुआ चन्द्र तदनन्तरभंडल से तदनन्तर मंडल पर संक्रमण करके ७२ योजन की तथा १ भाग के कृत ७ भागो में से एकचूर्णिका रूप भाग की 'एगमेगे विक्खंभवुड़ेि निबुद्धेमाणे' मंडल पर विष्कम्भ वृद्धि को छोडता छोडता 'दो दो तीसाई जोयणसयाइं परिरयवृद्घि णिबुद्धेमाणे २' तथा २३० योजन की परिरय-परिक्षेप-की वृद्धि को छोडता २ 'सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चाई' सर्वाभ्यन्तर मंडल पर प्राप्त होकर अपनी गति करता है।१३॥ मण्डलायामादि द्वार समाप्त હજાર આઠસે પંચાવન જન એટલે આને પરિક્ષેપ છે. હવે સૂત્રકાર અતિદેશનું सतुति साह्यभामा ४थन ४२i ४३ छ-एवं खलु एएणं उबाएणं पविसमाणे चंदे जाव संकममाणे' या प्रमाणे प्रशित पद्धति भु०४५ अभ्यत२ यद्रभ त२३ प्रयाण કરતે ચન્દ્ર તદનંતર મંડળથી તદનંતર મંડળ તરફ ગતિ કરીને ૭૨ જન જેટલી तभ०४ १ भान त ७ माinी मे यूणुि ४५३५ मा 'एगमेगे विक्खंभवुढिं निबुद्धेमाणे' भ31 ५२ 1ि0 वृद्धिने भूत-भूते। 'दो दो तीसाई जो यणसयाई परिरयवुडढिं णिवुद्धमाणे २' तम४ २३० यानी ५६२२य-परिझपनी दिन भू-'सव्वाभंतरमंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ' सत्य तभ31 6५२ प्राप्त न पोताना ति ४३ ॥१॥ મંડળ યામાદિદ્વાર સમાપ્ત Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे त्रयोदशसूत्रं व्याख्याय मुहूर्तगतिप्ररूपणार्थ चतुर्दशसूत्रमाह 'जयाणं' इत्यादि, ॥ मूलम्-'जयाणं भंते ! चंदे सव्वभंतरमंडलं उवसंकमित्ता वारं चरइ, तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंचजोयणसहस्साइं तेवत्तरिं च जोयणाई सत्ततरं च चोआले भागसए गच्छइ. मंडलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहिय पणवीसेहिं सएहिं छेत्ताइति । तयाणं इहगयस्त मणुस्सस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणेहिं एगवीसाए य सट्रिभाएहिं जोयणस्स चंदेचक्खुप्फासं हव्वमागच्छद । जयाणं भंते ! चंदे अभंतराणंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं घरइ जाव केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच जोय. णसहस्लाइं सत्ततरिं च जोयणाइं छत्तीसं च चोयत्तरे भागसए गच्छइ. तेरसहिं सहस्सेहिं जाव छेत्ता । जयाणं भंते ! चंदे अभंतर तच्च मंडलं उक्संकमित्ता चारं चरइ तयाणं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा! पंच जोयणसहस्लाइं असीइं च जोयणाइं तेरस भाग सहस्साई तिणि य एगूणवीसे भागसए गच्छइ, मंडलतेरसहिं जाव छेत्ता एवं खलु एएणं उववाएणं णिवरखममाणे चंदे तयाणंतराओ मंड. लाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे तिण्णि तिण्णि जोयणाई छण्णउइं च पंचावण्णे भागसए एगमेगे मंडले मुहुत्तगइ अभिवद्धेमाणे अभिवद्धेमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ॥ जयाणं भंते चंदे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच जोयणसहस्साइं एगं च पणवीसं जोयणसयं अउणत्तरिं च णउए भागसए गच्छइ मंडलं तेरसहिं भागसहस्सेहिं सत्तहियजाव छेत्ता इति तयाणं इहगयस्स मणुः स्तस्स एगतीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहिय एगतीसेहिं जोयणसएहिं चंदे चखुप्फासं हव्वमागच्छइ । जयाणं भंते ! बाहिराणंतरं पुच्छा. गोयमा! पंच जोयणसहस्साई एक्कं च एगवीसं जोयणसयं एक्कारसय Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १४ मुहूर्तगतिनिरूपणम् सट्टे भागसहस्से गच्छइ मंडलं तेरसहिं जाव छेत्ता ॥ जयाणं भंते ! बहिरतच्चं पुच्छा, गोयमा ! पंव जोयणसहस्साइं एगं च अट्ठारसुत्तरंजोयणसयं चोदसय पंचुत्तरे भागसए गच्छइ मंडलं तेरसहिं सहस्से हिंसत्तहिं पणवीसेहिं सएहिं छेत्ता एवं खलु एएणं उवाएणं जाव संकममाणे संकममाणे तिणि तिणि जोयणाई छण्णउतिं च पंचावणे भागसए एगमेगे मंडले मुहत्तगई णिवुद्धमाणे णिवुद्धेमाणे सवभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ॥ सू० १४॥ छाया-यदा खलु भदन्त ! चन्द्रः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहर्तन कियत क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पञ्चयोजनसहस्राणि त्रि सप्ततिं च योजनानि सप्तसप्ततिं च चतुःवखारिंशद् भागशतानि, मण्डलं त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिश्च पञ्चविंशत्याशतैः छित्वा इति तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसहनै नाच त्रिषटया योजनशताभ्या मेकविंशत्याच षष्टिभागै योजनात्य चन्द्रश्चक्षुः स्पर्श हव्यमागच्छति ॥ यदा खलु भदन्त ! चन्द्रः अभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति यावत् कियत् क्षेत्र गच्छति ? गौतम ! पश्चयोजनसहस्राणि सप्तसप्ततिं योजनानि षट्त्रिंशतं च चतुः सप्ततिभागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिः सहस्रैर्यावत् छित्वा । यदा खलु भरन्त ! चन्द्रः अभ्यन्तरतृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पञ्चयोजनसहस्राणि अशीति च योजनानि त्रयोदश च भागसहस्राणि त्रीणिचैकोनविंशतिभागशतानि गच्छति मण्डलं त्रयोदशभिर्यावत् छित्त्वा इति । एवं खलु एतेनोपायेन निष्क्रामन् चन्द्रः तदनन्तरात् मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् श्रीणि त्रीणि योजनानि षण्णवति च पश्चपञ्चाशदभागशतानि एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् बाह्यमण्डल ग्रुपसंक्रम्य चारं चरति ॥ यदा खलु भदन्त ! चन्द्रः सर्ववाद्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पश्चयोजनसहस्राणि एकंच पंचविंशति योजनम् एकोनसप्ततिं च नवति भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिर्भागसहस्त्रैः सप्तभिश्च यावत् छित्वेति, तदा खलु इहगतस्य मनुष्यस्य एकविंशता योजनसहरै रष्टभिश्चैकत्रिंशतायोजनशतै चन्द्रश्चक्षुः स्पर्श हव्यमागच्छति । यदा खलु भदन्त ! बाह्यानन्तरं पृच्छा, गौतम ! पश्चयोजनसहस्राणि एकंचैकविशति योजनशतम् एकादश च पष्टिभागसहस्राणि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिर्यावत् छित्वेति । यदा खलु भदन्त ! बाह्य तृतीयं पृच्छा, गौतम ! पञ्चयोजनसहस्राणि एकं च दशोत्तरं योजनशतं चतुर्दशच पश्चोत्तराणि भागशतानि गच्छति मण्डलं त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिश्च पञ्चविंशत्याशतैः छिवा, एवं खलु एतेनोपायेन यावत् संक्रामन् संक्रामन् त्रीणि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे श्रीणियोजनानि षण्णवति च पञ्चपञ्चाशद्भागशतानि एकैकस्मिन मण्डले मुहूर्त्तगति निवर्द्धयन निवर्द्धयन सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतीति ॥ चतुर्दशसूत्रम्, सू० १४ ॥ टीका- 'जायणं भंते!" यदा खलु भदन्त !, हे भदन्त ! यदा यस्मिन् काले 'चंदे' चन्द्रः 'सव्वतरं मंडलं उवर्धकमित्ता' सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य सर्वेभ्योऽभ्यन्तरं यदपेक्षया अन्यदभ्यन्तरं न विद्यते तादृशं मण्डल गगनक्षेत्रम् उपसंक्रम्यसंप्राप्य 'चारं चाई' चारं गतिं चरति करोति 'तक्षणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेतं गच्छइ' तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्र गच्छति, तत्र तदा तस्मिन्काले सर्वा भ्यन्तरं मण्डल' सम्प्राप्य चारं चरति तस्मिन् एकैकेन मुहूर्तेन - स्वशास्त्रप्रतिपादितकाल - विशेषेण कियत् कियत्प्रमाणकं क्षेत्र माकाशमण्डलं गच्छति एकमुहूर्तेन कियत्पर्यन्तं गमनं भवति चन्द्रमस इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'पंचजोयणसहस्साई' पञ्च योजन सहस्राणि 'तेवत्तरिं च जोयणाई' त्रिसप्तति च योजनानि 'सत्ततरिं च चोयाले भागसए गच्छ३' सप्तसप्ततिं च चतुश्चत्वारिंशद् भागशतानि गच्छति -तत्र - चतुश्चत्वा रिंशदधिकानि सप्तर्ति भागशतानीत्यर्थः अथ भागशब्दोऽवयववाची तत्वेह भागशब्देन १८४ " इस तरह १३ वें सूत्रका व्याख्यान करके अब सूत्रकार मुहूर्तगति की प्ररूपणा के निमित्त १४ वें सूत्र का कथन करते हैं। 'जयागं भंते ! चंदे सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' इत्यादि टीकार्थ- गौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वार प्रभु से ऐसा पूछा है- 'जयाणं भंते !" हे भदन्त ! जय 'चंदे' चन्द्र 'सच्क तिरे मंडलं उदकमित्ता' सर्वाभ्यन्तर मंडल पर - गमनक्षेत्र पर पहुंच कर 'चारं चरइ' गति करता है 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तणं केवइयं खेतं गच्छर' तब वह एक एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र के पार करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई तेत्तारं च जोयणाई सत्तारं च चोयाले भागसए गच्छई' हे गौतम! उस समय ५०७३ योजन और ७७४४ भाग तक जाता है भाग शब्द આ પ્રમાણે ૧૩ માં સૂત્રનું વ્યાખ્યાન કરીને હવે સૂત્રકાર મુહૂ ગતિની પ્રરૂપણા માટે ૧૪ મા સૂત્રનુ કથન કરે છે टीडार्थ - 'जयाणं भंते ! चंदे सव्वमंतरमंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ' इत्यादि गौतमश्वाभीये या सूत्र वडे अभुने सेवी रीते प्रश्न हे ! 'जयाणं भते ।' डे लहन्त ! न्यारे 'चंदे' यन्द्र 'सव्वव्भतरमंडले उनसंकमित्ता' सर्वास्यांतर भांडण पर गमन क्षेत्र ५२ पडथीने 'चार चर३' गति हरे छे 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ' ત્યારે તે એક એક મુહૂર્તમાં કેટલા ક્ષેત્રને પર્ કરે છે? એના જવા"માં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साइं तेवत्तार च जोयणाई सत्ततरिंच चोयाले भागसर गच्छई' હું ગૌતમ ! તે સમયે તે ૪૦૭૩ યાજન અને ૭૪૪ ભાગ સુધી જાય છે, ભાગ શબ્દ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्राशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १४ मुहूर्तगतिनिरूपणम् स्याषयविन इमे भागा इत्याशङ्कायामाह-'मंडलं' इत्यादि, 'मण्डल तेरसहि सहस्सेहि मण्डलम् सर्वाभ्यन्तरमण्डलम्-त्रयोदशभिः सहस्रः 'सत्तहिय पणवीसेहि छेत्ता इति' सप्तभिश्च पञ्चविंशत्या शतैः छित्वेति, सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागैश्छित्वा-विभागं कृत्वा पञ्चायोजनसहस्राणि त्रिसप्ततिं च योजनानि, सप्तसप्ततिं च चतुश्चत्वारिंशदधिकानि भागशतानि गच्छंति चन्द्र इति । कथमेवं भवतीति चेदत्रोच्यते-प्रथमतस्तावत् सर्वाभ्यन्तर-- मण्डस्य परिक्षेपः क्षत्रयं पश्चदशयोजनसहस्राणि एकोन नवति ३१५०८९ संख्यका सच परिक्षेपः द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां २२१ गुण्यते तदा ६९६३४-६६९ एता. वाप्रमाणं जायते, अस्य राशेः त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तमिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैः भाने कुते सति लब्धानि भवन्ति, पश्चयोजनसहस्राणि त्रिसप्तत्यधिकानि अंशाश्च सप्तसप्ततिशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५०७३,७४९॥ ___ अथ यदि मण्डलस्य परिधिः त्रयोदश सहस्रादिकेन भाजकेन राशिमा भाज्यास्तथा किमर्थ मेकविंशत्यधिकाभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां मण्डलपरिधि गुण्यते-तत्रोच्यते-चन्द्रस्य मण्डसमूरणकालो द्वापष्टिमुहूर्ताः एकस्य च मुहर्तस्य संबन्धिनत्रयोविंशतिरेकर्विशत्यधिकतवयभामा मुहूर्तानां सवर्णनार्थमेकविंशत्यधिकशतदयेन गुणने त्रयोविंशत्यंशप्रक्षेपेक अवयव वाची होता है तो ये भाग यहां किस अवयवी के लिये कहे गये हैं। इस प्रकार की आशंका होने पर कहा गया है-'मंडलं तेरसहि सहस्सेहि सत्तस्वि पणवीसेहिं छेता' सर्वाभ्यन्तर मण्डल को १३७२५ भागों से विभक करके इन भामों को लिया गया है-इसका तात्पर्य ऐसा है कि सर्वाभ्यन्तर मण्डल की परिधि ३१५०८९ योजन की है इस में २२१ का गुणा करना चाहिये तष यह मण्डल परिधि की राशि ६९६३४६६९ इतनी हो जाती है इस में १३७३५ से भाग देने पर ५०७३ १३४५६ इतने लब्ध होते हैं यदि मंडल की परिधि-१३. ७२५ से विभक्त की जाती है तो फिर उसमें २२१ से गुणा क्यों किया गया है तो इसका उत्तर ऐसा है-चन्द्र का मण्डलपूरण काल ६२ मुहूर्त का है एक અવયવવાચી હોય છે તે અત્રે એ ભાગે યા અવયવી માટે કહેવામાં આવેલા છે ? તે 24 Anu समाधान भाटे ४ामा माथुछ -'मंडलं तेरसहि सहस्सेहिं सत्तहिय पणकीसेहिं छेत्ता' सालयतरमले १३७२५ मागोमा विसत ४शन 24 मागाने લેવામાં આવ્યા છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે સર્વાઅંતરમંડળની પરિધિ ૩૧૫૩૮૯ જન જેટલી છે. આમાં ૨૨૧ને ગુણાકાર કર જોઈએ ત્યારે આ મંડળ–પરિધિની રાશિ ૬૯૬૩૪૬૬૯ આટલી થઈ જાય છે. આમાં ૧૩૭૨૫ ને ભાગાકાર કરવાથી ૫૦૭૩૭૭૪૪ આટલી ઉપલબ્ધી થાય છે. જે મંડળની પરિધિ ૧૩૭૨૫ વડે વિભક્ત કરવામાં આવે છે. તે તેમાં ૨૨૧ ને ગુણાકાર શા માટે કરવામાં આવેલ છે? તે આને જવાબ આ પ્રમાણે છે–ચન્દ્રને મંડળ પૂરણકાળ ૬૨ મુહૂર્ત જેટલું છે. એક મુહૂર્તના ज०२५ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ . जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे जातम् १३७२५, अतः समभागानयनार्थ मण्डलस्यापि एकविंशत्यधिकशतद्वयेन गुणनं युक्तमेव भवतीति । अयं भावः-यथा सूर्यः षष्टि पुरते मण्डल समापयति शीघ्रगतित्वात् लघुविमानगामित्वाच्च तथा चन्द्रो द्वापष्टिमुहूर्ते स्त्रयोविंशत्येकविंशत्यधिकशतद्वयभागे मण्डल पूरयति मन्दगतित्वाद् गुरुविमानगामित्वाच, तेन मण्डलपूर्तिकान मण्डलपरिधि भैक्तः सन् मुहूर्तगतिं प्रयच्छति इति । अत्राह-कश्चित्, एकविंशत्यधिकशतद्वयभागकरणे किं प्रमाणमिति चेत् तत्रोच्यते-मण्डलकालस्यानयने अस्यैव छेदकराशेः समानयनात् । मण्डल. कालनिरूपणार्थमिदं त्रैराशिकम् -- यदि सप्तदशभिः शतैः अष्टषष्यधिकैः सकलयुगवर्तिभि रर्द्धमण्डलै रष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिंदिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्याममण्डलाभ्याम् (एकेन मण्डलेनेति) कति रात्रिदिवानि लभ्यन्ते ? तत्र राशित्रयस्थापना १७६८ ॥ १८३० । मुहूर्त के २३ अंश अधिक २२१ भाग है अतः सर्य मुहतों के भाग २२१ से गुणित किये जाने पर और २३ अंश मिलाने पर १३७२५ होते हैं इसलिये सम भागों को लाने के लिये मण्डल की परिधि के साथ २२१ को गुणित किया गया है। तात्पर्य इस कथन का ऐसा है- जैसे सूर्य ६० मुहर्मो मे मंडलकी समाप्ति करता है क्योंकि वह शीघ्र गतिवाला है और लघुविमान गामी है उसी प्रकार चन्द्र ६२ मुहूर्तों में जो कि एक मुहूर्त के २३ अंश अधिक २२१ भागों वाले हैं मंडल की पूर्ति करता है क्योंकि इसकी गति मन्द है और यह गुरुविमान गामी है इसलिये मंडलकी पूर्ति काल से मंडलकी परिधि को विभक्त किया गया है इस ले मुहर्त गति आजाती है अब यहां पर कोह ऐसी आशंका करता है-आपने जो एक मुहूर्त के २२१ भाग किये हैं सो उनके करने में क्या प्रमाण है ? तो इसका उत्तर यही है कि मंडल काल के लाने में इसी की छेदक राशि को लिया गया है मंडल काल के निरूपण के लिये यह राशि क है- यदि १७६८ सकल युगवर्ती अर्द्ध मंडलों के द्वारा १८३० रातदिन आते ૨૩ અંશ અધિક ૨૨૧ ભાગો છે. એથી સર્વ મુહુર્તોના ભાગ ૨૨૧ વડે ગુણિત કરવાથી અને ૨૩ અંશ જોડવાથી ૧૩૭૨૫ થાય છે એથી સમભાગોને લાવવા માટે મંડળની પરિધિની સાથે ૨૨૧ ને ગુણિત કરવામાં આવે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જેમ સૂર્ય ૬૦ મુહૂર્તો માં મંડળની સમાપ્તિ કરે છે કેમકે તે શીવ્ર ગતિ કરનાર છે અને લઘુવિમાન ગામી છે, તેમજ ચન્દ્ર ૬૨ મુહૂતમાં કે જે એક મુહૂર્તને ૨૩ અંશ અધિક ૨૨૧ ભાગેવાળા છે. મંડળની પૂર્તિ કરે છે કેમકે એની ગતિ મંદ છે અને એ ગુરુ વિમાનગામી છે એથી મંડળના પૂર્તિકાળથી મંડળની પરિધિનું વિભાજન કરવામાં આવ્યું છે. આનાથી મુહુર્ત ગતિ આવી જાય છે. હવે અહીં કોઈ એવી આશંકા કરે છે કે તમે જે એક મુહૂર્તના ૨૨૧ ભાગ કર્યા છે. તે આ સંદર્ભમાં પ્રમાણ શું ? એનો જવાબ એજ છે કે મંડળકાળને લાવવા માટે આની જ છેદક રાશીને લેવામાં આવી છે. મંડળકાળના નિરૂપણ માટે આ રેશિક છે જે ૧૭૬૮ સકલ યુગવતી અદ્ધમડળ વડે ૧૮૩૦ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १४ मुहूर्तगतिनिरूपणम् १८७ २। एतत् राशित्रयम् अत्रान्त्येन द्विकलक्षणेन राशिना मध्यस्याः १८३० रूपस्य गुणने कृते जातानि षट्त्रिंशत् शतानि पष्टयधिकानि ३६६० । तेपामाधेन १७६८ लक्षणेन राशिना भागे हृते लभ्यते द्वे रात्रिंदिवे, शेषं तिष्ठति चतुर्विशत्यधिकं शतम् १२४, तत एकस्मिन् रात्रिदिवे त्रिंशद्गुहूर्ता इति तस्य त्रिंशत्संख्यया गुणने जातानि सप्तत्रिंशत्शतानि विधत्यधिकानि ३७२० तेषां सप्तदशभिः शतै रष्टपष्टयधिकै भर्भागे हृते लब्धौ द्वौ मुहूत्तौं, शेषाः १८४, ततश्च छेद्यछेदकराश्यो रष्टकेनापवर्तने जातः छेद्यो राशिः प्रयोविंशतिः छेदकराशिरेकविंशत्यधिकशतद्वयरूप इति ॥ सम्प्रति चन्द्रस्य दृष्टिपथप्राप्ततां दर्शयितुमाह-'तयाणं इहगयस्स' इत्यादि, 'तयाणं इहगयस्स मण्सस्स' तदा खलु इहगताना मनुष्याणाम् 'मणूसस्स' इत्यत्रैकवचनं जात्यमिप्रायेण मन्तव्यम् तेनेहगतानां मनुष्याणामित्यर्थः यस्मिन् काले चन्द्रः, सर्वाभ्यन्तरमण्डले चारं चरति तदा-तस्मिन्काले खलु इइ भरता क्षेत्रगतानां तत्र स्थितानां मनुष्याणाम 'सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि' सप्तचत्वारिंशता योजनसहरः .दोहिय तेक्टेहिं जोयणेहि हैं तो दो अर्द्ध मंडलों से एक मंडल से कितने रातदिन आवेंगे- इसके लिये राशित्रय की स्थापना इस प्रकार से करनी चाहिये १७६८/१८३० (२) अब यहां अन्त्यराशि २ से मध्य राशि १८३० को गुणित करने पर ३६६० आते हैं इनमें १७६८ का भाग देने पर २ आते हैं सो ये २ रातदिन निकल आते हैं वांकी १२४ शेष में रहते हैं सो एक रात दिन मे ३० मुहूर्त होते हैं १२४ को ३० से गुणित करने पर ३७२० आते हैं इन में १७६८ का भाग करने पर २ मुहर्त आते हैं शेष स्थान में १८४ बचे रहते है ये १८४ छेद्य राशि है इसमें ८ का भाग देने पर २३ छेद्य राशि आजाती है और छेदक राशि १७६८ में का भाग देने पर २२१ रूप आजाती है अब चन्द्र में दृष्टि पथ प्राप्तता को दिखाने के लिये सूत्रकार कहते हैंરાત-દિવસ આવે છે તે અદ્ધમંડળેથી (એક મંડળથી) કેટલા રાત-દિવસ આવશે-તે આના માટે રાશિત્રયની સ્થાપના આ પ્રમાણે કરવી જોઈએ–૧૭૬૮/૧૮૩૯/૨/ હવે અહીં અત્યરાશિ ૨ વડે મધ્યરાશિ ૧૮૩૦ ને ગુણિત કરવાનું આવે તે ૩૬૬૦ આવે છે. આમાં ૧૭૬૮ ને ભાગાર કરવાથી ૨ આવે છે. તે આમ એ બે રાત-દિવસમાં રે, મુહર્ત થાય છે. ૧૨૪ને ૩૦ વડે ગુણિત કરવાથી ૩૭૨૦ આવે છે. આમાં ૧૭૬૮ન, ભાગાકાર કરવાથી ૨ મુહૂર્ત આવે છે. શેષસ્થાનમાં ૧૮૪ અવશિષ્ટ રહે છે. એ ૧ છેદ્યરાશિ છે. આમાં ૮ ને ભાગાકાર કરવાથી ૨૩ છેદ્યરાશિ આવી જાય છે અને છેક રાશિ ૧૭૬૮ માં ૮ને ભાગાકાર કરવાથી ૨૨૧ રાશિ આવી જાય છે. वे यन्द्रमा टि५५ प्राप्ततान मत माटे २ ४९ छ-'तयाणं इह गयस्स Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ मम्बू द्वाभ्यां त्रिषष्टिभ्यां योजनशताभ्याम् त्रिषष्ट्यधिकाभ्यां द्वाभ्यां योजनशताभ्यामित्यर्थः 'एग साय समाएहिं जोयणस्स' एकविंशत्या एकषष्टिभागैः र्यो जनस्य 'चंदे चक्खुप्फासं -हन्त्रमागच्छइ' चन्द्रचक्षुः- स्पर्श दृष्टिपथप्राप्ततां हवं- शीघ्रमागच्छति, इति । अयं भावःयथा सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले जम्बूद्वीपचक्रवालपरिधेदेश मागी कृतस्य दशरात्रिभागान् यावत् तापक्षेत्रम्, तथा चन्द्रस्यापि प्रकाशक्षेत्रं तावत्प्रमाणकमेव, पूर्वतोऽपरस्थ तस्यार्द्धे चक्षुः पथप्राप्तता परिणाममायातीति ॥ सम्प्रति द्वितीयमण्डले मुहूर्तगतिं प्राह - 'जया' इत्यादि, 'ज्याण भंते ! चंदे' यहा खलु भदन्त ! चन्द्र: 'अभ्यंतराणंतरं मंडल' उवसंक्रमित्ता चारं चरइ' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डप संक्रम्य संप्राप्य चारं गतिं चरति - करोति 'जाव केवइयं खेत्तं गच्छई' यावत् 'तया इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहिं लेबहिं ate पणवीस य सहिभाएहिं जोयणस्स चंदे वक्खुप्फार्स हव्वमागच्छछ' जय चन्द्र सर्वाभ्यन्तर मंडल पर गति करता है तब इस भरतार्द्ध क्षेत्र में रहे हुए मनुष्यों की वह ४७२६३ योजन दूर से ही दृष्टि का विषय बनता है अर्थात् इतनी योजन की दूरी पर रहा हुआ चन्द्र यहां के मनुष्यों की दृष्टि का विषय बनता है जितना सूर्य का तापक्षेत्र है उतना ही चन्द्र का प्रकाशक्षेत्र है इसीलिये दोनों को चार क्षेत्रका प्रमाण बराबर है। सूर्य का सर्वाभ्यन्तर मण्डल में जम्बूद्वीप की चक्रबाल परिधि के दश भाग में से तीन भाग प्रमाण लापक्षेत्र है उसी तरह से चन्द्र का भी इतना ही प्रकाश क्षेत्र हैं इसलिये पूर्व से पश्चिम तक भरता में यह चक्षुष्पथ प्रासता का परिमाण आजाता है । अब सूत्रकार द्वितीय मंडल में मुहूर्त गति का कथन करते हैं- 'जयाणं भंते! बंदे कतराणंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरड़ जाय केवइय ं खेतं गच्छ मणूसरस सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहिं तेवट्ठेहिं जोयणेहिं एगवीसाए य सहिमाल नोयणस्स च दे चक्खु फासं हव्वमागच्छर' न्यारे यन्द्र सर्वास्यांतरभड पर जति पुरे છે ત્યારે આ ભરતાદ્ધ ક્ષેત્રમાં રહેનારા મનુષ્યને તે ૪૭ર૬૩ ચેજનો દૂરથી જ દૃષ્ટિપથમાં આવી જાય છે એટલે કે ઉપર્યુક્ત યાજન જેટલે દૂર ઉપર રહેનાર ચન્દ્ર અહી રહેનારા માણસને દેખાય છે. જેટલું સૂર્ય નુ તાપક્ષેત્ર છે તેટલું જ ચન્દ્રનુ પ્રકાશક્ષેત્ર છે. એટલા માટે બન્નેનુ ચારક્ષેત્ર જેટલુ' પ્રમાણ ખરાખર છે સૂર્યનું સર્વાંજ્યાંતરમ ડળમાં જ ખૂઢીપની ચક્રવાલ પરિધિના દશ ભાગેમાંથી ત્રણ ભાગપ્રમાણુ તાક્ષેત્ર છે. આ પ્રમાણે જ ચન્દ્રનું પણ આટલું જ પ્રકાશક્ષેત્ર છે. એટલા માટે પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી ભરતામાં આ ચક્ષુષ્પથ પ્રાપ્તતાનું પરિણામ આવી જાય છે. हवे सूत्रभर द्वितीय भांडणां भुहूर्त गतितुं न रे छे. 'जयाणं भते ! दे अभ तरानंतर मंडले उ संकमित्ता चारं चरइ जाव केवइयं खेत्तं गच्छइ' डे आहेत ! જ્યારે ચન્દ્ર અભ્યંતરમંડળના અન"તર દ્વિતીયમડળમાં પ્રાપ્ત થઇને પેાતાની ગતિ કરે Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १४ मुहूर्तगतिनिरूपणम् कियत् क्षेत्रं गच्छति, अत्र यावत्पन-तयाणं एगमेरोणं' मुहुत्तेणं' तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन, इत्यस्य ग्रहणं भवति इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचजोयण महस्साई' पञ्चयोजनसहस्राणि 'सत्ततरं च जोयणाई' सप्तसप्तति च योजनानि 'छत्तीसं च चोअत्तरे मागसए गच्छई' पटत्रिंशत् च चतुःसप्तति योजनानि भागशतानि, चतुः सप्तत्यधिकानि षट्त्रिंशद्भागशतानीत्यर्थः गच्छति-चारं करोतीति । कस्य भागशतानि तत्राह-मंडल' इत्यादि, 'मण्डल तेरसहिं सहस्से हिं जाव छेत्ता' मण्डल त्रयोदशभिः सहस्रैर्यावत छित्वा, अत्र यावत्पदेन 'सत्तहिय पणवीसे हिं सरहिं' सप्तभिः सप्तविशश शतैः पञ्चविंशत्यधिकैः सप्तभिः शतैरित्यर्थः, एतत्पर्यन्तस्य ग्रहणं भवतीति । अयं भावः-द्वितीयचन्द्रमण्डले परिधिपरिमाणं लक्षत्रयं पञ्चदशसहस्राणि त्रीणिशतानि एकोनविंशत्यधिकानि ३१५३१९, एतद् द्वाभ्यामेव विंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातम्, षट्कोटिः षण्णवतिलक्षाः पञ्चाशीति सहस्राणि चत्वारिंशतानि नवाधिका नवतिः ६९६८५४९९ । एषां त्रयोदशभिः सहस्त्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिक र्भागेदत्ते सति लब्धानि पञ्चयोजनसहस्राणि सप्तसप्तत्यभिकानि ५०७७, शेषे षट्त्रिंशच्छतानि चतुःसप्तत्यधिकानि भागानाम्, १३७२५ । इति । अथ तृतीयमण्डपमधिकृत्याऽऽह-'जयाणं' इत्यादि, हे भदन्त ! जब चन्द्र अभ्यन्तर मंडल के अनन्तर द्वितीय मंडल में प्राप्त हो कर अपनी गति करता है तो यावत्-वह एक एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र तक जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पंच जोयणसहस्साई सत्ततरिंच जोयणाइं छत्तीसं च चोअत्तरे भागसए गच्छई' हे गौतम ! उस समय वह ५०७७ योजन ३६७४ भाग तक जाता है यहां पर भी पूर्व कथन के अनुसार ऐसा समझना चाहिये-कि द्वितीय चन्द्र मण्डल की परिधि का प्रमाण ३१५३. १९ है इनमे २२० का गुणा करने पर यह राशि ६९६८५४९९ हो जाती है इस में १३७२५ का भाग देना चाहिये तब ५०७७ योजन आजाते हैं और शेष में ३६७४ बचते हैं इस तरह यह चन्द्र द्वितीय मण्डल में प्राप्त होकर गति करता है तब यह एक मुहूर्त में ५०७७ योजन २६७४ भाग तक गमन करता है। છે તે યાવત્ તે એક–એક મુહૂર્તમાં કેટલા ક્ષેત્રે સુધી જાય છે? એના જ જવાબમાં प्रभु ४ छ-'गोरमा ! पंच जोयणसहस्साई सत्ततरं च जोयणाई छत्तीसं च चोअत्तरे भागसए गच्छइ' गौतम ! ते समय त ५०७७ यो ३९७४ लागी सुधी नय . અહીં પણ પૂર્વ કથન મુજબ એવું સમજી લેવું જોઈએ કે દ્વિતીય ચન્દ્રમંડળની પરિધિનું પ્રમાણ ૩૧૫૩૧૯ છે. આ સંખ્યામાં ૨૨૦ ને ગુણિત કરવાથી આ રાશિ ૬૯૬૮૫૪૯ થાય છે. આમાં ૧૩૭૨૫ ને ભાગાકાર કરવાથી ૫૦૭૭ જન આવે છે. અને શેષમાં ૩૬૭૪ વધે છે. આ પ્રમાણે આ ચન્દ્ર દ્વિતીયમંડળમાં પ્રાપ્ત થઈને ગતિ કરે છે ત્યારે આ એક મુહૂર્તમાં ૫૦૭૭ જન ભાગ સુધી ગમન કરે છે. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जम्मूदीपप्राप्ति 'जयाणं भंते ! चं' यदा-यस्मिन् काले खलु भदन्त ! चन्द्रः 'अभंतर तच्चे' सर्वाभ्यन्तर तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य-संप्राप्य चारं गतिं चरति करोति 'तयाण एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवड्यं खेतं गच्छइ ! तदा खलु एकैकेन मुहूर्तन कियत्क्षेत्रं गच्छतीति प्रश्नः, भगवानार-गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'पंचजोयणसहस्साई' पञ्चयोजनसहस्राणि 'असीइंच जोषणाई' अशीतिं च योजनानि 'तेरस य भागसहस्साई त्रयोदश च भागसहस्राणि 'तिण्णि य एगूणवीसे भागसए गम्छई' त्रीणि चै कोनविंशति भागशतानि, एकोनविंशत्यधिकानि त्रीणि भागशतानीत्यर्थः गच्छति, कस्य भागशतानीति जिज्ञासायामाह-मंडल' इत्यादि, 'मंडलं तेरसहि जाव छेत्ता इति' अत्र यावत्पदेन 'सहस्सेहि सत्तहिय पणवीसेहिं सरहिं' इत्यस्य ग्रहणं भवति तथा च मण्डल त्रयोदश सहस्रैः सप्तभिश्च पञ्चविंशत्यधिकैः शतै मण्डल छिखा गच्छतीति। ३१५५४९ एतद् यदा द्वाभ्या मेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातम् ६९७३६३२९॥ तृतीय मंडल में मुहर्तगति का कथन 'जयाणं भंते! चंदे अभंत०' हे भदन्त ! जब चन्द्र सर्वाभ्यन्तर तृतीय मंडलको प्राप्तकर अपनी गति करता है तब वह कितने क्षेत्र तक एक मुहूर्त में गमन करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई असीई च जोयणाई तेरसयभागसहस्साई तिण्णिय एगूणवीसे भागसए गच्छइ' हे गौतम ! उस समय वह चन्द्र एक मुहूर्त में ५०८० योजन और १३३२९ भाग तक गमन करता है। यहां यह किसका भाग लिया गया है तो इसका समाधान प्रभु कहते हैं--'मंडलं तेरसहिं जाव छेत्ता' यहां यावत् पद से इस पाठको इस प्रकार से पूर्णकर समझना चाहिये-'मंडलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहियपणवीसेहि सएहिं तृतीय मंडल की परिधि का जितना प्रमाण कहा गया है उस में २२१ का गुणा करना चाहिये जो राशि उत्पन हो फिर उस में १३७२५ से भाग देना તૃતીયમંડળમાં મુહૂર્ત ગતિનું કથન - 'जयाणं भाते ! च दे अभंत०' 3 Addयारे यन्द्र सालयतर तृतीयभजन પ્રાપ્ત કરીને પિતાની ગતિ કરે છે. ત્યારે તે કેટલા ક્ષેત્ર સુધી એક મુહૂર્તમાં ગતિ કરે छ१ सेना वासभा प्रभु से छे-'गोयमा ! पंचजोयणसहस्साई असीइं च जोयणाई तेरसय भागसहस्साई तिण्णि य एगूणवीसे भागसए गच्छइ' गीतम! ते समये ते यन्द्र મહત્તમાં ૫૦૮૦ જન અને ૧૩૩૨૯ ભાગ સુધી ગમન કરે છે. અહીં આ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે આ ગૃહીત ભાગ શાથી સંબદ્ધ છે? તે આના જવાબમાં પ્રભુ કહે छे-'मडलं तेरसहिं जाव छेत्ता' ही यावत् ५४थी मा पाइने या प्रमाणे संपूर्ण शत सभा मे-'मंडल तेरसहि सहस्सेहिं सत्तहिय पणवीसेहिं सएहिं तृतीयभनी परि. ધિનું જેટલું પ્રમાણું કહેવામાં આવેલું છે તેમાં ૨૨૧ ને ગુણાકાર કરવો જોઈએ. આનાથી જે રાશિ ઉત્પન્ન થાય તેમાં ૧૩૭૨૫ વડે ભાગાકાર કરવું જોઈએ. ત્યારે પૂર્વોક્ત Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमबक्षस्कारः सू. १४ मुहूर्तगतिनिरूपणम् एषां त्रयोदशभिः सहस्त्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिक ः भागे कृते सति लब्धानि पञ्चसहसणि अत्रीत्यधिकानि ५०८०, शेषम् त्रयोदशसहस्राणि त्रीणिशतानि एकोनत्रिंशदधिकानि १३३२९ भागानाम् १९७२९ । अथ चतुर्थादि मण्डलेवति देशमाह-'एवं खलु एएणं' इत्यादि, "एवं खलु एएणं उवारणं' एवम्-उपर्युक्तप्रकारेण खलु एतेन प्रदर्शितेन उपायेन प्रकारेण 'णिक्खममाणे चंदे निष्कामन् एकस्मात् मण्डलात् मण्डलान्तरं प्रतिगच्छन् चन्द्रः 'तयाणतराभो मण्डलाओ जाव संकममाणे संकममाणे' तदनन्तरात् पूर्वस्मात् मण्डलात् तदनन्तरं तदपरं मण्डलं यावत् संक्रामन् संक्रामन् गच्छन् गच्छन्, अत्र यावत्पदेन 'मंडलाओ तयाणरं मंडळ' मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलम्, एतत्पर्यन्तस्य ग्रहणं भवति 'तिण्णि तिण्णि जोयणाई' त्रीणि त्रीणि योजनशतानि 'छण्णउइं च पंचावण्णे भागसए' पण्णवति च पश्च पश्चाशद्भागशतानि, पञ्च पश्चाशदधिकानि पण्णवतिभागशतानीत्यर्थः 'एगमेमे मंडले मुहुत्तगई अभिवढेमाणे अभिवढेमाणे' एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिम् अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन्-अधिकाधिकं कुर्वन् 'सव्वबाहिरं मंडल उसंकमित्ता चारं चरइ' सर्वबाद्यं मण्डल. मुपसंक्रम्य-संप्राप्य चारं गतिं चरति-करोति इति ॥ चाहिये तब पूर्वोक्त प्रमाण १ मुहूर्त में क्षेत्र में जाने का निकल आता है इसे यों समझना चाहिये तृतीय मंडल में परिधि का प्रमाण ३१५५४९ है इसमें २२१ का गुणा करने पर ६९७३६२९ राशि आती है इस में १३७२५ का भाग देने पर ५०८० योजन आजाते हैं और शेष में १३३२९ भाग आजाते हैं। अब सूत्रकार चतुर्थादि मंडलों में अतिदेश वाक्य का कथन करते हुए कहते हैं 'एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे' इस तरह पूर्व के कथन के अनुसार एक मंडल से दूसरे मंडल पर जाता हुआ चन्द्र 'तयाणंतराओ मंडलाओ जाव संकममाणे' अर्थात् तदनन्तर मंडल से तदनन्तर मंडल पर संक्रमण करता हुआ चन्द्र 'तिणि तिणि जोयणाई छण्णउइं च पंचावण्णे भागसए' योजन ५५ भागों तक की 'एगमेगे मंडले मुहत्त गई अभिवढेमाणे अभिवढेमाणे' अक. एक मण्डल पर मुहूर्त गति की वृद्धि करता करता 'सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकપ્રમાણ એક મુહૂર્તમાં ક્ષેત્રમાં ગમન કરવું તે નીકળી આવે છે. આને એવી રીતે સમજવું જોઈએ કે તૃતીયમંડળમાં પરિધિનું પ્રમાણ ૩૧૫૪૯ છે. આમાં ૨૨૧ ને ગુણિત કરવાથી દ૯૭૩૬૩૨૯ રાશિ આવે છે. આમાં ૧૩૭૨૫ને ભાગાકાર કરવાથી ૫૦૮૦ જન આવે છે–અને શેષમાં ૧૩૩૨૯ ભાગો આવી જાય છે હવે સૂત્રકાર ચતુર્ણાદિभी अतिश पायनु थन ४२di डे छे-'एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे જરે આ પ્રમાણે પૂર્વના કથન મુજબ એક મંડળથી બીજા મંડળ પર ગતિ કરતા ચન્દ્ર 'तयाणंतराओ मंडलाओ जाव संकममाणे' सेटसे , तहनतरम थी तहनतरम' ५२ संभए । यन्द्र 'तिमि तिणि जोयणाई छण्णउइंच पंचावण्णे भागसए' 3 यानि ५५ मा सुधानी ‘एगमेगे मडले मुद्दत्तगई अभिवढेमाणे अभिवढेमाणे' मे: Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपति ननु कथमेतज्ज्ञायते इति चेदत्रोन्यते, प्रतिचन्द्रमण्डल परिधिवृद्धिः देशते त्रिंशदपिके २२३०, अस्य च त्रयोदशसहस्राधिकेन राशिना भागे हृते सति लब्धानि त्रीणि योजनानि शेषे षण्णवतिः पश्च पञ्चाशदधिकानि भागशतानीति ३,६५५. ॥ _ यथा पूर्वानुपूर्वी व्याख्यानांगं भवति तथा पश्चानुपूर्व्यपि व्याख्यानमिति अत: पश्चानुः पूा प्रष्टुमाह-'जयाणं' इत्यादि । 'जयाण भंते ! चंदे सव्ववाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चार चाइ यदा खलु भदन्त ! चन्द्रः सबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, यदा-यस्मिन काले चन्द्रः सर्व वाद्य सर्वेभ्योष ह्य यदपेक्षया पुनरपरंवाद्य नास्ति तादृशं मण्डलमुपसंक्रम्यसंप्राप्य चारं गतिं चरति-करोति 'तयाणं एगमे गेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ' तदा खल एकेकेन मुहूर्तन कियत् कियत्प्रमाणक क्षेत्रं गच्छनीति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचजोयणसहस्साई' पञ्चयोजनसहस्राणि 'एगं च पणवीसं जोयणसर्य' एकं च पश्चविंशति योजनशतम् पञ्चविंशत्यधिकमेकं योजनशतमित्यर्थः 'उणसरि च णउए भागसए गच्छइ' एकोनसप्तति च नवति भागशतानि, एकनत्यधिक मेकोनसप्तति मित्ता चारं चरई' सर्ववाह्य मंडल पर पहुंच कर अपनी गति करता है। यह प्रमाण आपने कैसे निकाला है तो इसका समाधान ऐसा है-प्रति मंडल पर परिधि की वृद्धि २३० होती है १३७२५ का भागदेने पर ३ आते है नीचे ९६५५बचते हैं। जिस प्रकार पूर्वानुपूर्वी व्याख्यान का अङ्ग है उसी प्रकार पश्चानुपूर्वी भी व्याख्यानका अङ्ग है अतः अब पश्चानुपूर्वी के अनुसार इसी विषय को गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैं-'जयाणं भंते ! चंदे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चस्ई' हे भदन्त ! जय चन्द्र सर्वबाह्य मंडल को प्राप्त कर अपनी मति करता है 'तयाणं एनमेगे गं मुहत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छद' तब वह एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र पर पहुंच जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा! पंच जोयणसहस्साई एगच पणवीसं जोयणसयं' हे गौतम! तब वह ५१२५ योजन मा ७५२ मुतगति २८मा वृद्धि ४२॥ ४२तो 'सव्यबाहिर मडल उवस कमिला જાદં ર સર્વબાહ્યમંડળ પર પહોંચીને પિતાની ગતિ કરે છે. આ પ્રમાણ આપશ્રીએ કેવી રીતે કહાર્યું છે. તે આનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે-કેપ્રતિમંડળ ઉપર પરિધિની વૃદ્ધિ ૨૩૦ જેટલી થાય છે. ૧૩૭૨૫ ને ભાગાકાર કરવાથી ૩ આવે છે અને રોષ ૯૯પપ અવશિષ્ટ રહે છે. જે પ્રમાણે પૂર્ણાનુપૂર્વી વ્યાખ્યાનનું અંગ છે તે પ્રમાણે પઢાનુપૂવ પણ વ્યાખ્યાનનું અંગ છે. એથી હવે પશ્ચાતુપૂર્વી મુજબ એજ વિષયને સમજવા गौतमस्वामी प्रभुन प्रश्न ४२ छे. 'जयाणं भंते ! च दे सव्वबाहिर मंडलं उवस कमिस: चार चरई' 3 मत ! न्यारे 2न्द्र साहभजन प्रात जरीन पातानी गति ४२ छ 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ' त्यारे ते मे मुहूतभा सा क्षेत्र ६५२ श्री जय छ ? मेन runwi प्रभु गौतमस्वामीन छ-'गोयमा ! पंचजोरण सहरसाई Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ प्रमाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. १४ मुहूर्तगतिनिरूपणम् भागशतानि गच्छति ‘मंडलं तेरसहिं भागसहस्सेहि सत्तहिय जाव छेत्ता इति' मण्डल त्रयोदशभिः भागसहः सप्तभिश्च यावत् छिखा इति, अत्र यावत्सदेन 'पणवीसेहिं सदहि' पञ्चविंशतिभिः शतै रित्यस्य ग्रहणं भवति - ततश्च स तरमण्डल त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तमिश्च शतैः पञ्चविंशत्यधिकै आँगैश्छित्वा गच्छतीति । सम्प्रति सर्वबाह्य मण्डले रष्टिपथप्राप्ततां दर्शयति-'तयाणं इहरायस्स मणूसस्स' तदामण्ड संचरणकाले इगतानां भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणाम् ‘एक्कतीसाए जोयणसहस्सेरि' एकत्रिंशता योजनसहरीः 'अहिय एगतीसेहिं जोयगसएहिं' अष्टभिश्चैकत्रिंशता योजनशतैः 'चंदे' चन्द्रः 'चक्खुप्फास घमागच्छ।' चक्षुः स्पर्श चक्षुरिन्द्रिय विषयता हवं शीघ्रं गच्छतीति सर्वबाह्यमण्डल प्रथमम् ॥ . सम्प्रति द्वितीयमण्डलवक्तव्यामाह-'जयाणं' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! बाहिराणंतरं पुच्छा' यदा खलु भदन्त ! वाह्यानन्तरं पृच्छ हे भान्त ! यदा खलु चन्द्रः सर्वबाह्यानन्तरं 'उणतरिंच णउए भागसए गच्छइ' तथा ६९९० भाग तक क्षेत्र में एक मुहूर्त में जाता है। 'मंडलं तेरसहिं भागसहस्सेहिं सत्तहिय जाव छेत्ता पणवीसेहिं सएहिं तथा सर्वयाह्यमंडल की जितनी परिधि हो उस में २३० का गुणा करके आगत राशि मे १३७२५ का भाग देना चाहिये इस तरह वह ५१२५ १९९० योजन तक आ जाता है। 'तयाणं इहगयस्स मणुस्सस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहिय एगतीसेहिं जोयणसएहिं चंदे चक्खुप्फासं हव्वमागच्छई' तब वह चन्द्र यहां के मनुष्यों के द्वारा ३१८३१ योजन से देखा जाता है प्रथम सवेबाहय मंडलवक्तव्यता समाप्त द्वितीय बाहय मंडलवक्तव्यता 'जयाणं भंते ! वाहिराणंतरं पुच्छा' हे भदन्त ! जब चन्द्र द्वितीय सर्ववाहय मंडल पर पहुंच कर अपनी गति करता है तब वह कितने क्षेत्र तक एक मुहूर्त एवं च पणवीप्त जोयणस' गौतम ! त्यारे ते ५१२॥ ये 'उणतरिं च ण उए भागसए गच्छइ' तेभर ६ मा सुधा क्षेत्रमा से मुडूतमi on छे. मडलं तेरसहिं भागसह स्सेहिं सत्तहिय जाव छेत्ता पणवीसेहिं सरहिं' तम समाहभनी २८सी ५२ हाय તેમાં ૨૩૦ ને ગુણિત કરીને આગતરાશિમાં ૧૩૭૨૫ને ભાગાકાર કરવો જોઈએ. આ પ્રમાણે ते ५१२५१५५ योन सुधी भावी ५ छ 'तयाणं इह गयरस मणुस्सस्स एकतीसाए जोयणसहस्सेहिं अदुहिय एगतीसेहि जोयणसएहिं चंदे चाखुष्कासं हव्व मागच्छइ' त्या ते ચન્દ્ર અહીંના મનુષ્યો વડે ૩૧૮૩૧ જન જેટલે દૂરથી દેખાય છે. પ્રથમ સખાદ્યમંડળ વક્તવ્યતા સમાપ્ત દ્વિતીયબાહ્યમંડળ વક્તવ્યતા 'जयाणं भैते ! बाहिराणंतर पुच्छा' मा ! «यारे यन्द्र मीण समारभनी १३७२५ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्धीपप्रतिस्चे द्वितीयमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियत्प्रमाणकं क्षेत्रं गच्छ. तीति प्रश्नः, पृच्छया संगृह्य ते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचजोयण सहस्साई' पञ्चयोजनसहस्त्राणि 'एकं व एकवीसं जोयणसयं' एकंचैकविंशति योजना शतम्, एकविंशत्यधिकमेकं योजनशतमित्यर्थः 'एकारसयसट्टे भागसहस्से गई' एकादश षष्टिभागसहस्त्राणि पष्चधिकानि एकादशभागसहस्राणि गति, 'मंडलं तेरसहि जान छेत्ता' मण्डलं च त्रयोदशभि भांगसहस्रः सप्तभिश्च शतैः पञ्चविंशत्यधिकमागैश्छित्वा-विभज्येति । कथमेतावत्प्रमाणं भवतीति सूर्यप्रस्तावे उपपत्तिपूर्वकं प्रदर्शितम् महापि तेनैव रूपेण ज्ञातव्यं विस्तरभयान पुनलिख्यते इति द्वितीयमण्डलम् २॥ सम्प्रति तृतीयं सर्वबाह्यमण्डलं दर्शयितुमाइ-'जयाणं' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! बाहिर तच्चं पुच्छा, हे भदन्त ! यदा खलु चन्द्रः सर्वबाह्यं तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियत्प्रमाणकं क्षेत्रं गछतीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते, भगवा में जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पंच जोयणसहस्साई एक्कं च एक्कवीसं जोयशसयं' हे गौतम ! तब वह '५१२१ योजन और 'एक्का रस य सढे भागसहस्से गच्छई' ११६० भाग तक जाता है 'मंडलं तेरसहिं जाव छेत्ता' तथा इसे १३७२५ से विभक्त करके ऐसा कहना चाहिये कि वह ५१२१ ११. योजनउ नंडल पर जाता है। इतना इसका चार क्षेत्र कैसे होता है तो यह सब कथन सूर्य प्रकरण में देखलेना चाहिये विस्तार होने के भय से हम यहां उसे नहीं प.ट कर रहे हैं। तृतीय सवबाह्य मंडलवक्तव्यता इस में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पछा है-'जया णं भंते ! वाहिरतच्चं पुच्छा' हे भदन्त ! जब च द्र सर्वव्या हय तृतीय मंडल पर पहुंच कर अपनी गति क्रिया करता है तब वह एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पार कर देता है ? इस ઉપર પહોંચીને પિતાની ગતિ કરે છે, ત્યારે તે એકમુહૂર્તમાં કેટલા ક્ષેત્ર સુધી જાય છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४३ छ है-'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई एकंच एक्कवीस जोयण मयं' म ! त्या३ ते ५१२१ १ अने 'एक्क रस य सट्टे भागसहस्से गच्छई' १९० मा पर्या-1 Mय छ, 'मडलं तेरसहिं जाव छेत्ता' तथा ते२ १३७२५ था वित કરીને એમ કહેવું જોઈએ કે ૫૧૨૧ કફ જન સુધી એ મંડલ પર જાય છે. એનું ચ ર ક્ષેત્ર કેવી રીતે થાપ છે? તો આ વિષયમાં સઘળું કથન સૂર્યપ્રકરણમાં જઈ લેવું જોઈએ વિસ્તાર થવાના ભયથી અમે અહિંયા તે દર્શાવેલ નથી. તૃતીય સર્વબાહ્યમંડળ વક્તવ્યતા आम गोतम भी प्रभुने या प्रश्न या छ, 'जयाणं भंते ! बाहिरतच्च gછો? હે ભદંત ! જ્યારે ચન્દ્ર સર્વબાહ્યા તૃતીયમંડળ ઉપર પહોંચીને પિતાની ગતિ-ક્રિયા Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. १४ मुहूर्तगति निरूपणम् नाह - गोयम' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंत्र जोणतहस्ताई' पञ्च योजनसहस्राणि 'एगं च अट्ठारसुतरं जोयस' एकं च अष्टादशोत्तरं योजनशतम् 'चोदय पंचुत्तरे भागसए गच्छइ' चतुर्दशच पश्चोत्तराणि पञ्चाधिकानि भागशतानि गच्छति । कस्य सम्बन्धिन इमे भागा स्तत्राह - ह - 'मंडल' इत्यादि, 'मंण्डलं च तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहि पणवी से हि सरहिं छेत्ता' मण्डलं सर्वत्र ह्यां तृतीयमण्डलं च त्रयोदशभिः सहस्रैः पञ्चविंशत्यधिकैः सप्तभिः शतैश्छित्वेति । अयं भावः - अत्र सर्व बाह्यतृतीयमण्डले परिधेः प्रमाणं लक्षत्रयं सप्तदशसह - स्त्राणि अष्टौ शतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि ३१७८५५, एतत् परिधिप्रमाणं द्वाभ्यामेकविंशगुण्यते जातं सप्तकोट्यो द्वौलक्षौ पञ्चचत्वारिंशत् सहस्रणि नवशतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि ७०२४५९५५, आसां च संख्यानां त्रयोदशसहस्रैः पञ्चविंशत्यधिक सप्तशतैः : १३७२५, भागे हृते लब्धं भवति पञ्च सहस्राणि अष्टादशाधिकमे कशतम् ५११८, शेष भागा ॥ विशेषतस्तु सूर्यप्रस्तावे द्रष्टव्यं विस्तरभयान्भात्र लिख्यते ॥ १४०५ १७२५ प्रश्न के उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं- 'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई एगंच अट्ठारसुसरं जोयसयं चोदस्य पंचुत्तरे भागसए गच्छइ' हे गौतम ! वह उस समय ५११८ योजन एवं १४०५ भाग तक जाता है 'मंडलं च तेरसहिं सहस्ते हिं सतहिं पणवीसेहिं एहिं छेत्ता' ये भाग १३७२५ से मंडल की परिधि को विभक्त करने पर प्राप्त होते हैं इसका भाव ऐसा है सर्वबाह्य जो तृतीय मंडल है उसकी परिधि का प्रमाण ३१७८५५ है इस प्रमाण में २२१ का गुणा करने पर सीत्तर करोड चौवीस लाख पांच हजार नौ सौ पचपन ७० २४५९५५ इतनी संख्या आती है इस संख्या में १३७२५ का भाग देने पर ५११८ लब्ध आते हैं और शेष स्थान पर १४०५ भाग बचते हैं । इस सम्बन्ध में और विशेष जानने के लिये सूर्य प्रकरण देखना चाहिये । विस्तार हो जाने के भय से हम उसे यहां पुनः नहीं लिख रहे हैं કરે છે ત્યારે તે એક મુહૂર્તમાં કેટલા ક્ષેત્રને પાર કરે છે? આ પ્રશ્નના જવાબમાં પ્રભુ छे- 'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई एगं च अट्ठारसुत्तर जोयणसयं चोदसय पंचुतरे भागखए गच्छइ' ગૌતમ ! તે વખતે તે ૫૧૧૮ ચૈાજન તેમજ ૧૪૯૫ ભાગ સુધી જાય छे. 'मंडल' च तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहिं पणवीसेहिं सएहिं छेत्ता' से लागो १३७२५ थी મડળની પરિધિને વિભક્ત કર્યાં બાદ પ્રાપ્ત થાય છે. આના ભાવ આ પ્રમાણે છે-સવ બાહ્ય જે તૃતીયમ'ડળ છે–તેની પરિધિનું પ્રમાણ ૩૧૭૮૫૫ છે. આ પ્રમાણમાં ૨૨૧ ને ગુણિત કરવાથી સિત્તેર કરાડ ચેવીસ લાખ પચહજાર નવસો પંચાવન ૭-૨૪૫૯૫૫ આટલી સખ્યા આવે છે. આ સંખ્યામાં ૧૩૭૨૫ના ભાગાકાર કરવાથી ૫૧૧૮ લખ્યું આવે છે. અને શેષસ્થાન ઉપર ૧૪૦૫ ભાગ વધે છે. આ સબંધમાં અને વિશેષ જાણવા માટે સૂ પ્રકરણ ોઈ લેવુ જોઈએ. વિસ્તાર-ભયથી અમે અહીં પુનઃ સ્પષ્ટ કરતા નથી. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जम्बूद्वीफाबतिस्त्र सम्प्रति चतुर्थमण्डलादिष्यतिदेशमाह - एवं खलु एएणं उवाएणं' इत्यादि, ‘एवं खलु एएणं उवाएणं' एवं खलु एतेन मण्डलदर्शितोपायेन प्रकारेण 'जाव संकममाणे संकममाणे' अत्र यावत्पदेन 'पवित्रमाणे चंदे तयाणंतरामो मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं' इत्यस्य ग्रहणं भवति, ततश्च प्रविशन् मेरोरभिमुखं गछन् चन्द्रः तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् 'तिष्णि तिष्णि जोयणाई' त्रीणि त्रीणि योजनानि 'छण्ण उइंच पंचावण्णे भागसए' पण्णवतिं च पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतानि 'एगमेगे मंडले मुहत्तगई णिवुद्धेमाणे णिवुद्धमाणे' एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगति निवर्द्धयन् निवर्द्धयन्-हापयन् हापयन् त्यजन् त्यजन् 'सबभंतरं मंडलं उपसंक्रमित्ता चार चरई' सर्वामान्तरमण्डल पुपसंक्रम्य संप्राप्य चारं गति चाति-करोति । अत्र विशेषत उपपत्तिः सूर्यप्रस्तावे प्रदर्शिता न पुनरत्र प्रदर्श्यते विस्तरभयादिति चरदेशसूत्रम्-सू० १४ ॥ चन्द्राधिकारं निरूप्य नक्षत्राधिकारं दर्शयति, तत्र-नक्षत्राधिकारे अष्टौ द्वाराणि भवन्ति, तथा मण्डलसंख्या प्ररूपणा १, मण्डल चारक्षेत्रप्ररूपणा २, अभ्यन्तरादि मण्डल अब सूत्रकार चतुर्थ मंडलादि कों में अतिदेश का कथन करते हैं-एवं खलु एएणं उवाएणं जाव संकममाणे २' इस तरह से इन पूर्वोक्त तीन मंडलों में प्रदर्शित रीति के अनुसार मेरु के सन्मुख जाता हुआ चन्द्र तदनन्तर मंडल से तदनन्तर मंडल पर संक्रमण करता हुआ 'तिणि जोयणाई तीन तीन योजन एवं 'छण्णउइं च पंचावण्णे भागसए' ९६५५ भागों तक 'एगमेगे मंडले मुहुसगई निवुद्रेमाणे २' एक एक मंडल पर मुहूर्त गति को कम करता हुआ 'सव्वाभंतरं मंडलं उवसंक्रमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तर मंडल पर आकर अपनी गति करता है। यहां पर विशेष और सब कथन सूर्य प्रकरण में प्रकट किया जा चुका है उसे यहां ग्रन्थ के विस्तार होजाने के भय से पुनः हम प्रकट नहीं करते हैं ॥१४॥ चन्द्र के अधिकार का निरूपण करके अब सूत्रकार नक्षत्र के अधिकार का निरूपण करता हैं इस नक्षत्राधिकार में ८ द्वार हैं-(१) मंडलसंख्याप्ररूपणा (२) व सूत्रा२ यतु म म अतिर्नु ४३न ४२ छ. 'वं खलु एएणं उवाएणं जाव संकममाणे २' मा प्रमाणे से पूर्वात अY भाभा प्रशित शत भुस મેરુની સન્મુખ જ ૨ન્દ્ર તદનંતર મંડળથી તદનંતર મંડળ ૫ર સંક્રમણ કરતાં-કરતે 'तिणि जोयणाई' त्र-त्र] योन तम०८ 'छण्णःइं च पंचावणे भागसए' ८६५५ मामी सुधी 'एगमेगे मंडले मुहुत्तगई निद्धे पाणे २' मे४-४ भ31 3५२ मुहूत गति अ६५१५ ४२। सव्वभंत मडल स्वन कमिता चार चरई' सालयतरम ५२ मावीन . પિતાની ગતિ કરે છે. અહીં વિશેષ બધું કથન સૂર્ય પ્રકરણમાં પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે. અન્ય વિસ્તારભયથી પુનઃ તે કથન અત્રે પ્રકટ કરતા નથી. ૧૪ ચન્દ્રના અધિકારનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર નક્ષત્રના અધિકારનું નિરૂપણ કરે Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् स्थायिना मष्टाविशते नक्षत्राणां परस्परमन्दनिरूपणा ३, नक्षत्रविमानानामायामादि निरूपणा ४, नक्षत्रमण्डलानां मेरुतोऽआधानिरूपणा ५, तेषामेवायामादि निरूपणा ६, मुहूर्तगतिप्रमाणनिरूपणा ७, नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डले सवारनिरूपणा ८, तत्राष्टसु द्वारेषु मण्डलसंख्या प्ररूपणां प्रश्नयन्नाह कद णं भंते' इत्यादि । मूलम्-कइ णं भंते णक्खत्तमंडला पन्नत्ता ? गोयमा! अट्ठणक्ख त्तमंडला पन्नत्ता,१ । जंबुद्दीवे दीवे केवइयं ओगाहिता केवइया णक्खत्तमंडला पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीचे दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता एस्थ णं दो णक्खत्तमंडला पन्नत्ता। लवणेणं भंते ! समुदे केवइयं ओगाहित्ता केवइया णक्खत्तमंडला पन्नत्ता ? गोयमा! लवणेणं समुद्दे तिषिण तीसे जोयणसए ओगाहित्ता, एत्थ पं छ णक्खत्तमंडला पण्णत्ता एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे अट्ठ णक्खत्तमंडला भवंतीति मकवायमिति २ ॥ सबभतराओ णं भंते ! णवत्तमंडलाओ केवइयाए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते इति । णक्वत्तमंडलस्सणं भंते! णक्खत्तमंडलस्त य एसणं केवइयाए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा! दो जोयणाई णवत्तमंडलस्त य णक्खत्तमंडलस्त अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ३। णक्खत्तमंडलेणं भंते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा! गाउयं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेदेणं अद्धगाउयं बाहल्लेणं मंडल चार क्षेत्र प्ररूपणा (३) अभ्यन्तर आदि मंडलों में स्थायी २८ नक्षत्रों की पारस्परिक अन्तर प्ररूपणा, (४) नक्षत्र विमानों की आयामादि प्ररूपणा (५) नक्षत्र मंडलों की मेरु से अयाधानिरूपणा (६) उन्हीं के आयामादि की प्ररूपणा, (७) मुहूर्त गति प्रमाण निरूपणा, एवं (८) नक्षत्र मंडलों के साथ समवतार प्ररूपणा छे. या नक्षाविमा ८ वाछ-1) भ31 सभ्य। ५३५४ा. (२) भ७१ या क्षेत्र પ્રરૂપણા (૩) અત્યંતર આદિ મંડળમાં ૨૮ નક્ષત્રની પારસ્પરિક અંતર પ્રરૂપણ. (૪) નક્ષત્ર વિમાનની આયામાદિ પ્રરૂપણ. (૫) નક્ષત્રમંડળોની મેરુથી અબાધા નિરૂપણ. (૬) तेम। आयामादिनी ५३५. (७) मुहूर्त गति प्रभार नि३५४ () नक्षत्रમંડળની સાથે સમાવતાર પ્રરૂપણ. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पन्नत्ते, ४ | जंबुद्दीवेण भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अवाहाए सव्वमंतरे णक्खत्तमंडले पन्नत्ते ? गोयमा ! बोयालीसं जोयणसहस्साइं अट्ठयत्री से जोयणसए अबाहाप सव्वबाहिरए सव्वन्तरे खत्तमंडले पन्नत्ते इति । जंबुद्दीवेगं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए सव्ववाहिरए णक्खत्तमंडले पन्नत्ते ? गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साइं तिष्णि य तीसे जोयणसए अवाहाए सव्व बाहिरए णक्खत्तमंडले पन्नत्ते इति ५ । सव्वमंतरे णक्खत्तमंडले केबइयं आयाम विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते ! गोयमा ! णवणउइं जोयणसहस्साईं छच्च चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिष्णि य जोयणसय सहस्लाई पण्णरससहस्लाई एगूणणवतिं च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिषखेवेणं पण्णत्ते । सव्वबाहिरएणं भंते ! णक्खत्तमंडले hari आयामविवखंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! एग जोयणसय सहस्सं छच्त्र जोषणसए आयामविवखंभेणं तिष्णि य जोयणसय सहस्साइं अट्ठारस य सहस्साइं तिष्णि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं । जयाणं भंते ! णत्रखत्ते सव्वमंतरमंडले उवसंकमित्ता चारं चरइ, तयागं एगमेगेणं मुहुत्तेणं वइयं खेत्तं गच्छइ, गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य पण्णट्ठे जोयणसए अट्ठारस य भागसहस्से दोणि य तेवढे भागसए गच्छइ मंडलं एकवीसाए भागसहस्सेहिं वहिय सहिं सएहिं छेत्ता । जयाणं भंते ! णक्खत्ते सव्व बाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच जोयणसहस्साइं तिष्णिय एगूणवीसे जोयणसए सोलसय भागसहस्से तिष्णि य पण्डे भागसए गच्छइ, मंडलं एगबोसाए भागसहरूपे हिं णवहिय सहिं सएहिं छेत्ता । एएणं भंते! अटु णक्खत्तमंडला कहहिं चंदमंडलेहिं समोयरंति ? गोयमा ! अहिं चंदमंडलेहिं समोयरंति तं जहा पढमे चंदमंडले तइए छो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकार निरूपणम् १९९ सत्तमे अट्ठमे दशमे इक्कारसमे पण्णरसमे । एगमेगेणं भंते! मुहुत्तेणं केवइयाई भागस्याहिं गच्छ ? गोयमा ! जं जं मंडलं उवसंकमित्ता वारं चरइ तस्स तरूप मंडल परिक्खेवरस सत्तरस अ अट्ठसट्टे भागसए गच्छइ, मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउईए य सएहिं छेत्ता इति । एगमेगेणं भंते ! मुहुत्तेणं सूरिए केवइयाई भागसयाई गच्छ गोयमा ! जं जं मंडलं उवसंकभित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारसतीसे भागसए गच्छइ, मंडलं सयसहस्सेहिं अट्ठा उतीए य सएहिं छेत्ता । एगनेगेणं भंते! मुहुत्तेणं णक्खते केवयाई भागसयाई गच्छइ ? गोयमा ! जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स मंडल परिकखेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छइ मंडलं सयस हस्सेणं अद्वाणउईए य सएहिं छेत्ता । सू० १५॥ छाया कति खलु भदन्त ! नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अष्टौ नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि १ । जम्बूद्वीपे द्वीपे कियदवगाह्य क्रियन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतं योजनशतमवगाह्य, अत्र द्वे नक्षमण्डले प्रज्ञप्ते । लवणे खलु भदन्त ! समुद्रे कियगा किन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! लवणे समुद्रे त्रीणि त्रिंशद योजनशतानि अवगाह्यात्र खलु षण्णत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि । एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवण समुद्रे चाष्टौ नक्षत्रमण्डलानि च भवन्तीत्याख्यातम् २ | सर्वाभ्यन्तरात् खलु भदन्त ! नक्षत्रमण्डलात् कियत्या अवाधया सर्व वाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि अबाधया सर्वत्र हा नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तमिति नक्षत्र मण्डलस्य खलु भदन्त ! नक्षत्रमण्डलस्य चैतत् खलु कित्या अन्तरं प्रज्ञतम् गौतम ! द्वे योजने नक्षत्रमण्डलस्य चावाया अन्तरं प्रज्ञतम् ३ | नक्षत्रमण्डलं खलु भदन्त ! कियदायामविष्कम्भेण कियता परेक्षेपेण कियता बाल्येन च प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! गव्यूतमायामविष्कम्भेण तत् त्रिगुणं सविशेषं परिक्षेपेण, अर्द्धगव्यूतं बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ४ । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अवाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद् योजनसह - स्राणि अष्टौ च विंशति योजनशतानि अबाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तमिति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अवघिया सर्व बाह्य नक्षत्रम०डलम् प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पञ्चत्वारिंशद्योनन्सहस्राणि त्रीणि च त्रिंशद् योजनशतानि अबाधया सर्व बाह्य नक्षत्रमण्डल ं प्रज्ञप्तम् ६ । सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भेण कियता परिक्षेपेण ज्ञम् ? गौतम ! नवनवर्ति योजनसहस्राणि षट् च चत्वारिंशद् योजनशतानि आयामविष्कम्भेण त्रीणि च योजनशतसहस्राणि पञ्चदश सहस्राणि एकोननवतिं च योजनानि किञ्चिद्वि Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. जम्बूसपप्रज्ञप्तिसूत्रे शेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् सर्वबाचं खलु भदन्त ! नक्षत्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भेण कियता परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् ? गौतम! एकं योजनशतसहस्रं षट् च षष्टि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रीणि च योजनशतसहस्राणि अष्टादश च सहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशो. त्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेग । यदा खलु भदन्त ! नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरमण्डल मुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहूर्तन कियन्त क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पश्चयोजनलहस्राणि द्वे च पञ्चषष्टियोजनशते अष्टादश च भाग सहस्राणि द्वे च त्रिषष्टि भागशते गच्छति, मण्डल मेकविंशत्या भागसहौः नवभिश्च शष्टयाशते श्छित्वा । यदा खलु भदन्त ! नक्षत्रं सर्ववाह मण्डमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पश्च. योजनसहस्राणि त्रीणि च एकोनविंशति योजनशतानि षोडश च भागसहस्राणि त्रीणि च पञ्चषष्टि भागशतानि गच्छति, मण्डलमेकविंशत्या भागमौः नवभिश्च षष्टयाशतै शित्वा, एतानि खलु भदन्त ! अष्टौ नक्षत्रण्डलानि कतिभिश्चन्द्रमण्डलैः समवतरन्ति ? गौतम ! अष्टभिश्चन्द्रमण्डलैः समवतरन्ति, तद्यथा प्रथमे चन्द्रमण्डले तृतीये षष्ठे सप्तमे अष्टमे दशमे एकादशे पञ्चदशे एकैकेन भदन्त ! मुहूर्तेन कियन्ति भागशनानि गच्छति ? गौतम ! यद् यन्मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्य सप्तदशाष्टषष्टिभागशतानि गच्छति, मण्डलं शतसहरष्ट नवत्या च शतै श्छित्वेति । एकैकेन भदन्त ! मुहतेन सूर्य: फियन्ति भागशतानि गच्छति ? गौतम ! यद् यन्मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्याष्टादश त्रिंशद्भागशतानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रैरष्टनवत्या च सतै छित्वा एकैकेन खलु भदन्त ! मुहूर्तेन नक्षत्रं शियन्ति भागशतानि गच्छति ? गौतम ! यद यमण्डलप्नुपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्याष्टादश पञ्चत्रिंशद्भाग शतानि गच्छति, मण्डलं च शतसहस्रेणाप्टनरत्या च शतै शित्वेति । सू. १५॥ टीका-'कइ णं भंते ! णखत्तमंडला एनत्ता' कति खलु भदन्त ! नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि हे भदन्त ! कति-किय संख्याकानि नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञतानि कथितानीति नक्षत्र म डलसंख्या विषयकः प्रश्नः, भगवानाद-गोयमा' इत्यादि. 'पोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठ णक्खत्तमंडला पनत्ता' अष्टौ नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञतानि-कथितानि, यद्यपि अष्टाविंशति 'कइणं भंते ! णक्खत्तमंडला पन्नत्ता' इत्यादि टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कइणं भंते ! णक्खत्तमंडला पन्नत्ता' हे भदन्त ! नक्षत्र मंडल कितने कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! अट्ट पक्खत्तमंडला पण्णत्ता' हे गौतम ! नक्षत्र मंडल आठ कहे गये हैं। यधपि नक्षत्र २८ है और इनके प्रत्येक १-१ मंडल होने से २८ मंडल 'कइणं भंते ! णखत्तमंडला पन्नत्ता' इत्यादि Ast-गौतभस्वामी प्रभुन २ गतना प्रश्नध्य छ-'कइणं भंते ! णक्खत्तम डला નિત્તા હે ભદંત નક્ષત્રમંડળે કેટલા કહેવામાં આવેલા છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका बका-सप्तमवक्षस्कारः स. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् नक्षत्राणि तेषां प्रत्येकमेकैकमण्डलस्य सद्भावनाष्टाविंशति मण्डलानीति कथयितुं युक्तं न वष्टौ मण्डलानि, तथापि अष्टाविंशतेरपि नक्षत्राणां प्रतिनियतस्वस्वमण्डले षु एतावत्स्वेव संचरणाद, यथा चाष्टमण्डलेष्वेव सर्वेषां नक्षत्राणां सश्चरणं भवति तथा दर्शयिष्यति । एतदेव क्षेत्रविमा गेन दर्शयति-'जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे दी वे केवइयं भोगाहित्ता' जम्बूद्वीपे द्वीपेसर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे कियत् कियत्प्रमाणकं क्षेत्रमागाय 'केवइया णक्खत्तमंडला पन्नत्ता' कियन्ति-कियत्संख्यकानि नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, इति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे 'भसीयं जोयणतयं मोगाहित्ता' अशीत योजनशतमवगाध -अशीत्यधिकमेकं योजनशतं जम्बूद्वीपमध्ये अवगाहनं कृखा, 'एत्य णं दो णक्खत्तमंडला पत्ता' अत्र-एतस्मिनसरे दे नक्षत्रमण्डले प्रज्ञप्ते-कथिते 'लवणे णं भंते ! समुद्दे' लवणे खलु भदन्त ! समुद्रे, हे भदन्त ! क्वणनामके प्रथमसमुद्रे 'केवइयं ओगाहित्ता' कियत्प्रमाणकं क्षेत्रमवगाह्य-तत्र कहना चाहिये-परंतु ऐसा जो यहां पर कहा गयाहै उसका कारण ऐसा है कि ये २८ नक्षत्र इतने ही प्रतिनियत अपने २ मंडलों में सश्चरण करते हैं कि जिससे इनका संचरण ८ मंडलों में ही हो जाता है इसी बातको सूत्रकारने क्षेत्र विभाग द्वारा इस प्रकार से प्रकट किया है इस में सर्व प्रथम गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जंबुद्दीवे दीये केवइयं ओगाहित्ता केवइयं णक्खत्त मंडला पन्नता' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में कितने प्रमाण क्षेत्र को अवगाहित करके कितने नक्षत्र मंडल कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रनु ने उन से कहा-'गोयमा ! जंघुद्दीवे दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्सा एत्थ णं दो णक्खत्तमंडला पन्नत्ता' हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में १८० योजन प्रमाण क्षेत्र को अवगाहित करके दो नक्षत्र मंडल कहे गये हैं। 'लवणेणं भंते ! 'गोयमा ! अढ णखत्तम डला पण्णत्ता' 3 गौतम ! नक्षत्रमा ४ अपामा मावा छे. યદ્યપિ નક્ષત્રો ૨૮ છે અને એમનામાંથી દરેકને એક-એક મંડળ હેવાથી ૨૮ મંડળ કહેવામાં આવ્યા છે પરંતુ એવું જે અહીં કહેવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે એ ૨૮ નક્ષત્ર આટલા જ પ્રતિનિયત પત–પિતાના મંડળમાં સંચરણ કરે છે. જેથી એમનું સંચરણ ૮ મંડળમાં જ થઈ જાય છે. એજ વાતને સૂત્રકારે ક્ષેત્ર વિભાગ વડે આ પ્રમાણે પ્રકટ કરી છે. આમાં સર્વ પ્રથમ ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન ४ी छ-'जंबुद्दीवे दीवे केवइयं ओगाहित्ता केवइयं णक्खत्तडला पन्नत्ता 8 मत ! ॥ જંબુદ્ધી નામક દ્વીપમાં કેટલા પ્રમાણક્ષેત્રને અવગાહિત કરીને કેટલા નક્ષત્ર મંડળ કહેવામાં भावना छ १ मा वामम प्रभु तेने -'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असीयं जोयणस्यं ओगाहित्ता एत्थणं दो नक्खत्तमंडला पन्नत्ता' गौतम ! 40 दी५ नाम द्वीपमा १८० योगन प्रमाण क्षेत्रने अाहित ४श मे नक्षत्रमा ५३पामा मावा छे ? 'लवणेणं ज० २६ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मबीपप्रतिस्त्र अवगाहनं कृत्वा 'केवइया णखत्तमंडला पन्नत्ता' फियन्ति-कियत्संख्यकानि नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोरमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'लवणे णं समुद्दे' लवणे समुद्रे लवणनामके प्रामे समुद्रे 'तिणितीसे जोयणसए ओगाहित्ता' त्रीणि त्रिंशद् योजनशतानि अवगाह्य त्रिंशदधिनानि त्रीणि योजनशतानि अवगाव-तत्रावगाइनं कृता "एत्थणं छ णक्खत्तमंडला पन्नत्ता' अत्र खलु अत्रान्तरे षटू पटूसंख्यकानि नक्षत्रमण्डानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति, अत्र खलु उपसंधारवाक्चेन उपयुक्तामेव संख्यां सकलबति-'एवामेव सपुत्वावरेण' एवमेव सपूर्वापरेण पूर्वापरसंकलनेन 'जंबुद्दीवे दीवे लणसमुद्देय' जम्दद्वीपे द्वीपे तथा लवणसमुद्रे च 'अढ णक्खत्तमंडला भांतीति मक्खाय' अष्टौ अष्टसंख्यकानि नक्षत्रमण्डलानि भवन्तीत्याख्यातं मया वर्द्धमानस्वामिनाऽन्यैरपि तीर्थकरै कथितमिति मण्डकसंख्या प्ररूपणमिति द्वितीयं द्वारम् २ ॥ -- सम्प्रति मण्डलचारक्षेत्रप्ररूपणायाह-'सबभंतराओ गं' इत्यादि, 'सकभंतरामोणं भं!' सर्वाभ्यन्तरात् खलु भदन्त ! 'णखत्तमंडलाओ' नक्षत्रमण्डलात् 'केवइयाए आबाहाए' समुद्दे केवयं ओगाहित्ता केवइया णखत्तमंडला पत्ता' हे भदन्त ! लवण समुद्र में कितने प्रमाणक्षेत्र को अवगाहित करके कितने नक्षत्र मंडल कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'लवणेणं समुद्दे तिण्णितीसे जोयणसए ओगा. हित्ता पत्य छ जसत्तमंडला पनत्ता' हे गौतम ! लवण समुद्र तीन सौ तीस योजन प्रमाण क्षेत्र को अवगाहित कर के ६ नक्षत्र मंडल कहे गये हैं। 'एव मेव सपुवावरे जंबुद्धीवेदीचे लवण समुद्दे व अट्टणक्खत्तमंडला भवंतीति' इस प्रकार सब मिलाकर नक्षत्र मंडल ८ हो जाते हैं ऐसा अन्य तीर्थकरोंने एवं मैंने कहा है। मण्डलसंख्या प्ररूपणा द्वार समाप्त मंडलचारक्षेत्र प्ररूणा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है.'सव्वम्भंतराओणं भंते ! णक्खत. भंते ! समुद्दे केवइयं ओहित्ता केवइया णक्खत्तमंडला पन्नत्ता' 8 मत! समुद्रमा કેટલા પ્રમાણ ક્ષેત્રને અવગ હિત કરીને કેટલા નક્ષત્ર મંડળે કહેવામાં અવેલા છે? એના वासvi प्रभु ४३ छ-'लपणेणं समुदे तिण्णि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता एत्थणं छ णक्खत्त मंडला पन्नत्ता' 8 गोतम ! समुद्रमा से श्रीस योग- प्रभाव क्षेत्रने अवाहित ४श ६ नक्षत्र भग। ४ाम यावे॥ छ. 'एगमेव सपुव्वारेण जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुइय अद्र णखत्तमंडला भवंति' ॥ प्रमाणे मधा भजीने नक्षत्र मउ ८ २ जनय छे. અમ મેં અને બીજા તીર્થકરેએ કહ્યું છે. મંડળ સંખ્યા પ્રરૂપણુદ્વાર સમાપ્ત મંડળ ચાર ક્ષેત્ર પ્રરૂપણ गौतभाभीय प्रभुने सेवी शत प्रश्न ये है-'सव्वन्भंतराओ गं भंते ! णक्खत्त Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार: सू. १५ नक्षत्राधिकार निरूपणम् ३ कियत्या वाया कियत्प्रमाणकेन व्यवधानेनेत्यर्थः 'सव्ववाहिरए णखत्तमंडले पत्ते ' सर्व बाह्यं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्त कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचदसुन रे जोयणसए' पञ्चदशोत्तरं योजनशतं 'जबाहार सव्ववाहिरए णक्खत्तमंडले पश्नत्ते' अबाधया सर्व बाह्यं नक्षत्रमण्डलं प्राप्तं कथितम्, सूत्रमिदं नक्षत्रजात्यपेक्षया ज्ञातव्यम्, भन्यथा सर्वाभ्यन्तरमण्डलवर्त्तिनाम् अभिजित् प्रभृति द्वादशन्क्षत्राणां सर्वदेवानस्थित मण्डलकत्वेन सर्वाह्य मण्डलस्यैवाभावात् तदयमर्थः सर्वाभ्यन्तरनक्षत्रमण्डलजातीयात् सर्व चाह्य नक्षत्रमण्डल जातीयं पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि अबाधया प्रज्ञप्तमिति तृतीय द्वारम् || सम्प्रति-अन्तरद्वारमाह-'णक्खत्तमंडलस्स णं' इत्यादि, 'णक्खत्तमंडलस्स णं भंते ! मंडलाओ केवइयाए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्त मंडले पण्णत्ते' हे भदन्त ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मंडल से कितनी दूर सर्व वाह्य नक्षत्र मंडल कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है 'गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोयणमए अबाहाए सव्व बाहिरए णवखप्तमंडले पन्नत्ते' हे गौतम ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मंडल से सर्वबाहय नक्षत्र मंडल ११५ योजन दूर कहा गया है यह सूत्र नक्षत्रजाति की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये नहीं तो सर्वाभ्यन्तर मंडलवर्ती जो अभिजित आदि १२ नक्षत्र हैं ये सर्वदा ही अवस्थित मंडल वाले रहते हैं इसलिये उनके सर्वबाहध मंडल का अभाव रहता है तो फिर यह सूत्र कथन कैसे संगत हो सकेगा, इसलिये इस कथन को सामान्य नक्षत्रमंडल की अपेक्षा से ही कहा गया जानना चाहिये अर्थात् सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमंडल जातीय नक्षत्र मंडल से सर्ववाय नक्षत्रमंडल जातीय नक्षत्र मंडल ११५ योजन दूर पर है । अन्तरद्वार कथन गौतमखामी ने प्रभु से इस में ऐसा पूछा है - 'णक्खत्त मंडलस्स णं भंते ! मंडळाओ केवइयाए अबाहाए सन्नबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते' हे लत! सर्वाल्यांतर નક્ષત્ર મ`ડળથી કેટલે દૂર સબાહ્ય નક્ષત્ર મંડળ કહેવામાં આવેલ છે ? એના જવાખમાં अ - 'गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पन्नत्ते' ૪ ગૌતમ ! સર્વાં૫તર નક્ષત્ર મડળથી સબાહ્ય નક્ષત્ર મંડળ ૧૧૫ ચૈાજન દૂર કહેવામાં આવેલ છે. આ સૂત્ર નક્ષત્ર જાતિની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલુ છે, એવુ જાણવુ જોઈએ નહિતર સર્વાભ્યંતરમંડળવતી જે અભિજિત વગેરે ૧૨ નક્ષત્ર છે તે સદા અવસ્થિત મડળવાળા રહે છે. એટલા માટે તેમને સબાહ્યમ ડળના અભાવ રહે છે, તે પછી આ સૂત્રનુ કથન કેવી રીતે સંગત કહી શકાય. એટલા માટે આ કથનને સામાન્ય નક્ષત્ર મંડળની અપેક્ષાએ જ કહેવામાં આવેલુ છે એવુ' જાણવુ જોઇએ. એટલે કે સર્વાભ્ય તર નક્ષત્રમ ડ જાતીય નક્ષત્રમ’ડળથી સ`બાહ્ય નક્ષત્રમ`ડળ જાતીય નક્ષત્રમડળ ૧૧૫ ચૈાજન દૂર છે, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર अम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे 'णक्खत्तमंडलस्स' नक्षत्रमण्डलस्य खलु भदन्त ! नक्षत्रमण्डलस्य हे भदन्त ! नक्षत्रमण्डलस्य नक्षत्रविमानस्य नक्षत्र विमानस्य चेत्यर्थः 'एसणं केबइयाए अवाहाए अंतरे पनते' एतत् खलु कियत्या अबाधया अन्तरं व्यवधानं प्रज्ञतम् एकस्मात् नक्षत्रविमानात् अपरस्य नक्षत्रविमानस्य कियत्प्रमाणमन्तरं व्यवधानं भवति इति प्रश्न, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'दो जोयणाई' द्वे योजने योजनद्वयमित्यर्थः 'णक्खत्तमंडलस्स य णक्खत्तमंडलस्स य' नक्षत्रमण्डलस्य च नक्षत्रमण्डलस्य च एकस्माद् मण्डलात् अपरस्य नक्षत्रमण्डलस्येत्यर्थः 'अबाहार अंतरे पत्ते' अवाधवा अन्तरं प्रज्ञप्तम् एकस्मान्नक्षत्रविमानात् तदपरमण्डलस्य च योजनद्वयपरिमितमन्तरं प्रज्ञप्तमिति, अयं भावः - अष्टास्वपि मण्डलेषु यस्मिन् यस्मिन् मण्डले यावन्ति नक्षत्राणां विमानानि तेषामन्तरबोधकमिदं सूत्रम् यथा अभिजित् नक्षत्र विमानस्य श्रवणनक्षत्र विमानस्य परस्परं द्वे योजने अन्तरं भवति नतु नक्षत्र संबन्धि सर्वाभ्यन्तरादि मण्डलानां परस्परमन्तर सूचकमिदं सूत्रम् अन्यथा नक्षत्रमण्डलानां णक्खत्त मंडलस्स एसणं केवइयाए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' हे भदन्त ! एक नक्षत्र मंडल का दूसरे नक्षत्रमण्डल से - अर्थात् एक नक्षत्र विमान का दूसरे नक्षत्र विमान से कितना व्यवधान अन्तर- कहा गया है ? इसके उत्तर मे प्रभु कहते हैं'गोमा ! दो जोयणाई णक्खत्तमंडलस्स य णक्खत्तमंडलस्स य अबाहाए अंतरे पणन्ते' एक नक्षत्र विमान का दूसरे नक्षत्र विमान से विना किसीव्यवधान के दो योजन का अन्तर है तात्पर्य इसका ऐसा है-आठ मंडलों में जिस जिस मंडल में जितने २ नक्षत्रों के विमान हैं उनके अन्तर का बोधक यह सूत्र है जैसे अभिजित् नक्षत्र के विमान का और श्रवण नक्षत्र के विमान का परस्पर दो योजन का अन्तर होता है नक्षत्र सम्बन्धी जो सर्वाभ्यन्तरादि मंडल हैं उनका परस्पर में अन्तरका सूचक यह सूत्र नहीं है यदि ऐसा माना जावे तो फिर नक्षत्र અંતરદ્વાર-કથન गीतभस्वाभीमे प्रभुने सभां सेवी रीते प्रश्न ये छे-'णक्खत्तमंडलस्स णं भंते ! णक्खत्तमंडलस्स एसणं केवइयाए अब हाए अंतरे पण्णत्ते' हे लढत ! 5 नक्षत्रम उणना ખીજા નક્ષત્રમંડળથી એટલે કે એક નક્ષત્ર વિમાનનું ખીજા નક્ષત્ર વિમાનથી–કેટલું व्यवधान-अ ंतर हेमां आवे छे? सेना नवामां अलु उडे छे- 'गोयमा ! दो जोयगाईं णक्खत मंडलस् य णक्खत्तम' डलरस य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते' ये नक्षत्र विभाननु जील નક્ષત્ર વિમાની વગર વ્યવધાને એ યેાજન જેટલુ અંતર છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કેઆઠ મ`ડળામાં જે-જે મંડળમાં જેટલા જેટલા નક્ષત્રોના વિમાના છે, તેના અંતરને બતાવનાર આ સૂત્ર છે, જેમ અભિજિત નક્ષત્રના વિમાનનું અને શ્રવણ નક્ષત્રના વિમાનવું પરસ્પર એ ચેાજન જેટલું અંતર હોય છે. નક્ષત્ર સંબંધી જે સર્વોભ્ય તરાક્રિમ'ડળે છે, તેમનુ પરસ્પરમાં સૂચક આ સૂત્ર નથી. જો આવુ માનવામાં આવે તે પછી નક્ષત્ર Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् वक्ष्यमाणचन्द्रमण्डलसमवता: सूत्रेण राह विरोधादिति तृतीय पन्तरद्वारम् ३ ॥ ___ सम्प्रति नक्षत्रविमानानामायामादि प्ररूपणार्थ चतुर्थद्वारे आह-'णक्खत्तमंडलेणं' इत्यादि, 'णक्खत्तमंडलेणं भंते ! केवइयं' नक्षत्रमण्डलं खलु भदन्त ! कियता-क्रियत्प्रमाणकेन 'आयामविखंभेणं' आयामविष्कम्भेण-आयामविष्कम्भाभ्यां दैयविस्ताराभ्याम् 'केवइयं परिक्खेवेण' कियता-कियत्प्रमाणकेन परिक्षेपेण-परिधिना केवइयं बाहल्लेणं पन्नते' कियता-कियत्प्रमाणकेन बाहल्येन-उच्चत्वेन प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'गाउयं आयामविक्खंभेगं ग-यूतमायामविष्कम्भेण-आयाम विष्कम्भाभ्यां दैर्घ्य विस्ताराभ्यां ग यूतं क्रोशयुगलप्रमाण नक्षत्रमण्डलं भवतीत्यर्थः, 'तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं' तत् त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, आयामविष्कम्भापेक्षया त्रिगुणं किञ्चिदधिकं तत् नक्षत्रमण्डलं परिक्षेपेण-परिधिना भवतीत्यर्थः ‘अद्धगाउयं वाहल्लेणं पणते इति' अर्द्धगव्यूतं वाहल्येन-उच्चत्वेन प्रज्ञप्तम्, तत् नक्ष मण्डलमुञ्चत्वेनार्द्धगव्यूतं क्रोशैकपरिमितं भवतीति चतुर्थमायामादि द्वारम् । मंडलों का वक्ष्यमाण चन्द्रमण्डल समवतार सूत्र के साथ विरोध हो जावेगा। नक्षत्र विमानायामादिप्ररूपणा इस में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'णक्खत्तमंडलेणं भंते। केवइयं आयामविखंभेणं केवइयं परिक्खंवेणं केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! नक्षत्र मंडल का आयाम और विष्कम्भ कितना है तथा इसका परिक्षेप कितना है? एवं इसकी ऊंचाई कितनी है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! गाउयं आयामविश्वंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं' हे गौतम ! नक्षत्र मंडल के आयाम विष्कम्भ का प्रमाण दो कोश का है इसके परिक्षेप का प्रमाण आयाम विष्काम के प्रमाण से कुछ अधिक तिगुना है अर्थात् छ कोश से कुछ अधिक है 'अद्धगाउय बाहल्लेणं पण्णत्ते' तथा इसकी ऊंचाई १ कोश की है। इसकी मेरु से अबाधा कितनी है इसका कथन-इस में गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा મંડળનું વર્ષમાણુ ચન્દ્રમંડળ સમવત ૨ સૂત્રની સાથે વિરોધ થઈ જશે. નક્ષત્ર વિમાનાયામાદિ પ્રરૂપણ मामा गौतमस्वामी प्रसुने पी रीते ५ -'णक्ग्यत्तमडले णं भंते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिवखेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पन्नते हैं महत! नक्षत्र મંડળનો આયામ અને તેને વિખંભ કેટલું છે તેમજ આને પરિક્ષેપ કેટલો છે? તથા ती या सी छ ? मेना ममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! गाउयं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणा सविसेसं परिक्खेवेणं' जोनम ! नक्षामना मायामपि मनु प्रमाण ગાઉ જેટલું છે. એના પરિક્ષેપનું પ્રમાણ એના આયામ-વિખંભના પ્રમાણ કરતાં કંઈક पधारे छे. 'अद्ध गाउयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' तम यानी या5 से 13 की थे. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अम्बूद्वीपप्रतिस्त्र सम्प्रति एषामेव मेरुपर्वतमवधीकृत्यावाधां दर्शयितुमाह-'जंबुद्दीवेणं इत्यादि, 'जंबु दीवेणं भंने ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे द्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरस्य-मेरुनामकस्य पर्वतस्य 'केवइयाए अबाहार कियत्या-कियत्प्रमाणकया अबाधया 'सव्वभंतरे णक्खत्तमंडले पन्नत्ते' सर्वाभ्यन्तरम्-सर्वमण्डलापेक्षया अभ्यन्तरवत्ति नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चोयालीसं जोयणसहस्साई चतुश्चखारिंशद् योजनसहस्राणि 'अट्ठयवी से जोयणसए' अष्टौ च विंशति योजनशतानि विंशत्यधिकानि अष्टौ योजनशतानीत्यर्थः 'अबाहाए सबभंतरे णखत्तमंडले पमत्ते' भवाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तं कथितम्, चतुश्चत्वारिंशद् योजनसहस्त्राणि विंशत्यधिकानि अष्टौ योजनशतानि एतावत्प्रमाणकाबाधया मेरुपर्वतमवधी. कृत्य सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रसण्डलं कथितमिति भावः । अत्रत्योपपत्ति यथा सूर्यमण्डलाधिकारे प्रदर्शिता तयैवात्रापि ज्ञातव्या विस्तरभयानात्र पुनरावर्त्यते इति । पूछा है-'जंबुद्दीवेणं ते' ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए सव्वभतरे णखत्तमंडले पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बुद्धीप नाम के द्वीप में स्थित सुमेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर सर्वमडलों की अपेक्षा अभ्यन्तर मंडल मे स्थित नक्षत्र मंडल कितना दूर है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं -'गोयमा ! चोया. ली जोयणसहस्साई अट्ठय वीसे जोयणसए अबाहाए सव्वभंतरे णक्खत्तमंडले पनत्ते' हे गौतम! सुमेरु से चवालीस हजार आठसौ वीस योजन दूर सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मंडल है। इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण सूर्य मण्डलाधिकार में जैसा किया जा चुका है-वैसा ही वह यहां पर भी जानलेना चाहिये हम विस्तार हो जाने के भय से उसे यहां पुनःप्रकट नहीं कर रहे हैं। सर्वबाह्य नक्षत्र मंडल की अबाधा का कथन-इस में गौतमस्वामी ने प्रभु से આની મેથી અબાધા કેટલી છે? આનું કથન–આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આ જાતને प्रश्न छ 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए सव्वभंतरे णक्खत्तमंडले पण्णत्ते' Ra! | दीप नाम दीपम स्थित सुमेरपतिथी સર્વવ્યંતર સર્વમંડળની અપેક્ષાએ અત્યંતરમંડળમાં સ્થિત નક્ષત્રમંડળ કેટલા દૂર પર स्थित छ ? आना नाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! चोयालीसं जोयणसहस्साइं अट्ठय वीसे जोयणसए अबाहाए सव्वभंतरे णक्खत्तमंडले पन्नत्ते' हे गौतम ! सुभेथी ४४ ७२ ૮ મે ૨૦ એજન દૂર સર્વાત્યંતર નક્ષત્રમંડળ છે. આ સંબંધમાં સ્પષ્ટીકરણ સૂર્યમંડળાધિકારમાં જે પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું છે, તેવું જ અત્રે પણ સમજી લેવું જોઈએ. વિસ્તારભયથી અત્રે પુનઃ સ્પષ્ટીકરણ કરતા નથી. સર્વબાહ્ય નક્ષત્રમંડળની અબાધા-કથન भामा गौतमस्वाभीसे प्रभुने मेवी रीत प्रश्न छ 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् सम्प्रति-सर्वबाह्यमण्डलनक्षत्रस्याबाधां प्रष्टुमाह-'जंबुद्दीवे णं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वोपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पवयस्स' मन्दरस्य-मेरुनामकपर्वतस्य 'केवइयाए अबाहाए' कियत्या-कियत्प्रमाणकयाऽवाधया 'सबबाहिरए णक्खत्तमंडले पभने' सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलं यतः परमन्यन्दाद्यं न भवेत् ताह सर्वचालनक्षत्रमण्डलं प्राप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोरमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पणयालीसं जोयणसहस्साई' पश्चचवारिंशद् योजनसहस्राणि 'तिम्णिय तीसे जोयणसए' त्रीणि च त्रिंशद योजनशतानि त्रिशदधिकानि त्रीणि योजनशतानीत्यर्थः 'अवाहाए सबहिरए णखत्तमंडले पमते' एतावत्प्रमाणक पाऽवाध्या सर्वचायं नक्ष मण्डसं प्रज्ञप्तं कथितम्, पश्चचत्वारिंशद् योजनसत्राणि त्रिंशदधिशानि त्रीणि योजनशतानि एता. बत्प्रमाणकाबाधया सवेव ह्य नक्षत्रमण्डलं भरतीति अशा निरूपणनामकं पञ्चमं द्वारम् ५॥ सम्प्रति-एतेषामेव:भ्यन्तरादि नक्षत्रमण्डलानामायामादि निरूपणार्थ प्रश्नय नाह'सबभतरे णं' इत्यादि, 'सम्भंतरेणं भंते ! णक्खत्तमंडले' सर्वाभ्यन्तरं खलु भदन्त ! नक्षत्रमण्डलम् 'केवइयं आयामविक्खंभेणं केवश्यं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' कियदायामविष्कम्भाऐसा पूछा है-'जबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मंदपव्वयस्स केवइयाए अथाहाए सबबाहिरए णक्खत्तम डले पनत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्धीप नामके द्वीप में स्थित जो सुमेरु पर्वत हैं उसकी कितनी अबाधा से अर्थात् उस से कितनी दूर-सर्वबाद्य नक्षत्र मण्डल जिससे परे और कोइ याय न हो ऐसा नक्षत्र मण्डल-कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साई तिष्णिय तीसे जोयणसए सव्वयाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णसे' हे गौतम ! सुमेरु पर्वत से सर्वबाहय नक्षत्र मंडल ४५३३० योजन दूर कहा गया है। अभ्यन्तरादि नक्षत्र मण्डल के आयामादि का निरूपण इस में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'सबभंतरेणं भंते ! णखत्त मंडले केवइयं आयामविक खभेणं केवड्यं परिक्खेवेणं पन्नते' हे भदन्त ! सर्वाभ्यः मंदरपब्वयस्स घेवइयाए अबाहाए सव्यबःहिरए णक्खत्तमडले पन्नत्ते' र महत ! ॥ જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં સિથત જે સુમેરુપર્વત છે. તેની કેટલી અબાધાથી એટલે કે તેનાથી કેટલે દૂર સર્વબાહ્ય નક્ષત્રમંડળ-જેનાથી પર અન્ય કોઈ બાહ્ય હેય નહિ એવું नक्षत्र -४ाम मावेस छ ? माना मा प्रभु ४३ छे-'गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साई तिण्णि य तीसे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते' ३ ગૌતમ! સુમેરુ પર્વતથી સર્વબાહ્ય નક્ષત્રમંડળ ૪૫૩૩૦ એજન દૂર કહેવામાં આવેલ છે. અભ્યન્તરાદિ નક્ષત્રમંડળના આયામાદિનું નિરૂપણ – ___सामा गोतसाभीय प्रभुने मेवी रीते प्रश्न या छ-'सव्वभंतरेणं भंते ! णक्खत्तमडले केवयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' 5 मत ! साक्ष्यत२ नक्षत्र Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे भ्यां दैर्ध्यविस्ताराभ्याम् कियता परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्नं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाद - गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णवणउई जोयणसहस्साई' नवनवति योजन सहस्राणि 'छच्चचत्ताले जोयणसए' पटू च चत्वारिंशद योजनशतानि चत्वारिंशदधिकानि षड्यो जनशतानीत्यर्थः ' आयाम विक्खमेणं' आयामविषम्भाभ्यां दैर्ध्यविस्ताराभ्यां कथितम् तथा - 'तिष्णिय योजनसयस इस्साई' त्रीणि च योजनशतसहस्राणि लक्षत्रयमित्यर्थः 'पण्णरस सहरलाई' पञ्चदशसहस्राणि 'रगूणणवई जोयणाई' एकोन नवति च योजनानि 'किचि विसेसाहिए परिवखेवेणं पण्णत्ते' किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञतम् लक्षत्रयं पञ्चदशसहस्राणि एकोननरति योजनानि किञ्चिद्विशेपाधिकानि परिक्षेपेण सर्वाभ्यन्तरनक्षत्रमण्डलं भवतीत्यर्थः विशेषत उपपत्तिस्तु सूर्याधिकारे दृष्टव्या । 'सव्वा हिरणं भंते ! णक्खत्तमंडले' सर्वबाह्यं खलु मदन्त ! नक्षत्रमण्डलम् 'केवश्यं आयाम विक्खंभेणं' कियत्कियत्प्रमाणकाभ्यामायामविष्कम्भाभ्याम् दैर्घ्यविस्ताराभ्यामित्यर्थः ' केत्रइयं परिखेवेणं पनते' कियता - कियत्प्रमाणकेन परिक्षेपेण-- परिधिना प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह - न्तर नक्षत्रमंडल कितने आयाम और विष्कम्भ वाला कहा गया है ? तथा इसकी परिधिका प्रमाण कितना कहा गया हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! raणउई जोयणसहस्साइं छच्च चताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिष्णि य जोघणसयसहस्साई पण्णरससहस्साई एगूणणवई जोयणाई किंचि विसेसा हिए परिक्खेणं पण्णत्ते' हे गौतम । ९९३४० योजन का इसका आयाम fasaम्भ कहा गया है और ३ लाख १५ हजार ८९ योजन से कुछ अधिक इसकी परिधि कही गई है। इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण देखना हो तो सूर्याधिकार में किये गये स्पष्टीकरण को देखलेना चाहिये 'सव्वबाहिरएणं भेते ! क्खसमंडले केवइयं आयामविक्त्रभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पनते' हे भदन्त ! सर्ववाह्य नक्षत्रमंडल आयाम और विष्कंभ भी अपेक्षा कितना बडा " ૧૫ મડળ કેટલા આયામ અને વિષ્ઠભવાળુ કહેવ માં આવેલું છે ? તેમજ તેની પરિધિનું प्रभालु वामां आवे छे ? सेना श्वासां प्रभु आहे हे 'गोयमा ! णवणउईं जोयणसहस्साईं छच्च चत्ताल्ले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिष्णि य जोयणसह सहस्साई पण्णरसहस्साइं एगूणणवई जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते' हे गौतम! ૯૯૬૪૦ યાજન જેટલા એના આયામવિષ્ણુભ કહેવામાં આવેલ છે અને ૩ લાખ હજાર ૮૯ ચેાજન કરતાં કઇંક અધિક આની પરિધિ કહેવામાં આવેલી છે. આ સબંધમાં સ્પષ્ટીકરણ જાણવું હાય તે। સૂર્યાધિકારમાં કરવામાં આવેલા સ્પષ્ટીકરણને જોઇ લેવુ' ले. 'सव्वबाहिरएणं भंते ! णक्खत्तम'डले केवइथं आयाम विक्खंभेणं, केवइयं परि क्लेवेणं पन्नते' डे महंत ! सर्वगाह्य नक्षत्रमंडण आयाम मने निष्ठलनी अपेक्षाये ફૈટલું વિસ્તૃત કહેવામાં આવેલુ છે ? અને તેની વિધિનું પ્રમાણ કેટલું કહેવામાં આવેલુ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमबक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् २०९ 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगं जोयणसयसहस्सं' एक योजनशासमा लक्षमेकं यो ननमित्यर्थः 'छच्च सट्टे जोयणसए' षट् च षष्टिं योजनशतानि षष्टयधिकानि पहयोजनशतानि इत्यर्थः 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भाभ्यां दैर्घ्य विस्ताराभ्यामित्यर्थः प्रज्ञप्तम्, लक्षैकं षष्टयधिकं पड्रयोजनशतम् आयाम विष्कम्भाभ्यां सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलं भवतीति भावः । तथा-'तिम्णिय जोपण सयसहस्साई अरससहस्साई' त्रीणि च योजनशतसहस्राणि अष्टादश च सहस्राणि 'तिण्णिय पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं' त्रीणि च पश्चदशोत्तराणि योजनशतानि पञ्चदशाधिकानि त्रीणि योजनशतानीत्यर्थः परिक्षेपेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि पञ्चदशाधिकानि त्रीणि योजनशतानि ३१८३१५ एतावत्प्रमाकपरिक्षेपेण सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलं भवतीत्यर्थः। __ सम्प्रति-मुहूर्तगतिद्वारमाह-'जयाणं भंते ! णक्खत्ते' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! णक्खत्त' यदा खलु भदन्त ! नक्षत्रम्, हे भदन्त ! दा-यस्मिन्काले नक्षत्रम्, नक्षत्रमित्यत्रैकवचनम् नक्षत्रत्व जत्यपेक्षया ज्ञातव्यम् अन्यथा-नक्षत्राणामष्टाविंशतिसंख्यकतया एकवचनप्रयोगस्यायोग्यत्वात् 'सव्वम्भंतरमंडलं उसंझमित्ता चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तरमण्डलं मेरुपर्वतमकहा गया है ? और इसकी परिधि का प्रमाण कितना कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! एगं जोयणसयसहस्सं छच्च सट्टे जोयणसए आयामविक्खंभेणं' हे गौतम ! सर्वबाह्य नक्षत्र मण्डल आयाम विष्कम्भ की अपेक्षा एक लाख ६ सौ ६० योजन का कहा गया है और 'तिणि य जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई तिणि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खे. वेण' ३ लाख १८ हजार तीन सौ १५ योजन की परिधि वाला कहा गया है -मुहूर्तगति द्वार प्ररूपणा- इस में गौतमस्वामोने प्रभु से ऐसा पूछा है 'जयाणं भंते ! णक्खत्ते सव्वन्भनरमंडलं उपसंकमित्ता चारं चरई' हेभदन्त ! जिस समय नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्राप्त होकर अपनी गतिक्रिया करते हैं 'तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेतं छ ? सेना समभ प्रभु डे छ-'गोयमा! एग जोयणसयसहस्सं छच्च सटे जोयणसए आयामविक्खंभेणं' 3 गौतम ! समा नक्षम मायाम मन वि०४मनी अपेक्षाये १ ६५ ६ ६० या २९ वामां आवे छे भने 'तिण्णिय जोयण सयसह. स्साई अद्वारससहस्साई तिष्णिय पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं' 3 ९५ १८ र ૩ સે ૧૫ પેજન જેટલી પરિધિવાળું કહેવામાં આવેલું છે. મુહૂર્ત ગતિદ્વાર–પ્રરૂપણા मामा गौतमकभी प्रभुने मेवी शते प्रश्न या छ-'जयाणं भंते ! णक्खते सव्व. भंतरमडल उवस कमित्ता चार चरई' हुमत!२ समये नक्षत्र सायतर ममा भास. ते पाता त य ४२ छ. 'तयाणं एगमेगेण मुहुत्तेणं केवइयं खेतं गच्छा ! Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपतियों भिलक्ष्योपसंक्रम्य चारं गतिं चरति-करोति, 'तयाणं' तदा तस्मिन काले सर्वाभ्यन्तरमण्डल संक्रमणकाले खलु ‘एगमेगेणं मुहुत्तेणं' एकैन मुहर्तेन प्रतिमुहर्त मित्यर्थः 'केवइयं खेत्तं गच्छइ' कियत्-वियाप्रमाण क्षेत्रं गच्छति-चरतीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंच नोयणसहस्साई' पञ्चयोजनसहस्राणि 'दोणि य पण्णटे जोयणसए' द्वे च पञ्चषष्टि योजनशते, पञ्चषष्टयधिक योजनशते इत्यर्थः 'अट्ठारसयभागसहस्से' अष्टादश च भागसहस्राणि 'दोष्णि य तेवढे मागसए गछइ' द्वे च त्रिषष्टिभागशते, त्रि षष्टयधिके द्वे भागशते इत् थः गच्छति एकैकेन मुहूर्तेन, भागपदं चावयववाचकम्, अवयवभावयविन विना न संभवति, ततश्च कस्य अवयविन इमे इत्याशङ्कायामाह-मंडलं' इत्यादि, 'मंडलं च एकवीसाए भागसहस्से हि' मण्डलञ्चै कविंशत्या भागसा: 'नवहिय सटेहिं सएहि' नवभिश्च षष्टयधिकैः तैश्छित्वा तस्य च्छेदं कृत्वा इति, अयं भावः-अत्र खलु नक्ष मण्डलगच्छई' उस समय वे एक एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र पर जाते हैं ? इमके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पंच जोयणसहस्साई दोणि य पगटे जोयणसए' हे गौतम ! उस समय वे ५२६९ योजन क्षेत्र तक चले जाते हैं 'अट्ठारसय भाग सहस्से दोणि य तेवढे भागसए गच्छई' और १८२६३ भाग तक चले जाते हैं भाग पद अवयव वाचक है, अतः ये भाग यहां किसके गृहीत किये गये हैं इस प्रकार की आशंका के उत्तर के निमित्त 'मंडलं च एकवीसाए भाग सदस्तहिं नवहिय सहेहि सएहिं' ऐसा सूत्र कहा गया है इसका भाव ऐसा है कि नक्षत्र मंडल का काल ५९ मुहूर्तात्मक है मुहूर्त के ३६७ भाग कर लेना चाहिये इसके अनुसार मुहूर्त गति का विचार इस प्रकार से किया गया है-रात्रि और दिवस के मध्य में तीस मुहूर्त होते हैं अर्थात एक दिन रात ३० मुहूर्त क होता है इन में २९ मुहूर्त और मिलाये जाते हैं तब दोनों का जोड ५९ होजात તે સમયે તેઓ એક એક મુહૂર્તમાં કેટલા ક્ષેત્રે ઉપર ગતિ કરે છે? એના જવાબમાં प्रभु छ-'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई दोणिय पण्णदे जोयणसए' गौतम ! ते समये तेयो ५२१५ यौन क्षेत्र सुधी गति ४२ छ. "अद्वारसय भाग सहस्से दोष्णिय तेवढे भ ग सए गच्छइ' भने १८२६3 Min सुधी 21 गति ४२ ०८ २3 छ '' પદ અવયવ વાચક છે. એથી અત્રે એ “ભાગો યા પદાર્થના ગૃહીત કરવામાં આવેલા छ ? Al and it आना भित्ते ‘मडलं च एकरुवीसाए भागसहस्सेहिं नाहिय सद्वेहिं सहि' । सूत्र५७ ४ i मा छे. मान। माप प्रमाणे छे , नक्षत्र મંડળનો કાળ ૫૯ મુહૂર્નાત્મક છે. મુહૂર્તના ૩૬૭ ભાગ કરી લેવા જોઈએ. આ મુજબ મુહૂર્ત ગતિને વિચાર આ પ્રમાણે આવેલ છે–રાત્રિ અને દિવસના મધ્યમાં ત્રીસ મુહુર્ત હોય છે એટલે કે એક દિવસ-રાત ૩૦ મુહૂર્તના હોય છે. આમાં ૨૯ મુહૂર્તો બીજા એડવામાં આવે છે ત્યારે બન્નેને વેગ ૫૯ થાય છે, ૫૯ ને ૩૬૭ વડે ગુણાકાર કરવાથી Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् रुपलभ्यते, उत्कृष्टेन तु अनन्तकाळपर्यन्तम्, तस्त्र चानन्तस्य कालस्य कालतः क्षेत्रतश्च द्विधा प्ररूपणम्, तत्र कालापेक्षया अनन्ता उत्सापिण्यासपिण्यः, क्षेत्रापेक्षया अनन्ता लोकाः, अनन्तेषु लोका काशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे क्रियमाणे यावत्योऽनन्ता उत्सपिण्यवपिण्यो भवन्ति तावतीरनन्ता उत्सपिण्यासपिणी र्यावत् तिर्यग्योनिकस्तिर्यग्योनिकत्वेना. वतिष्ठते, तच्च कालपरिमाणम् असंख्येयपुद्गलपरावर्तरूप बोध्यम् असंख्येयपुद्गलपरावर्ताश्च आवलिकाया असंख्यभागरूमा बोध्याः, तथाचावलिकाया असंख्येयतये भागे यावन्तः समयास्तावप्रमाणा असंख्पेयपुद्गलपरावर्ताः, इदश्च तिर्यग्योनिकस्य कायस्थितिपरिमाण वनस्पत्यपेक्षयाऽवगन्तव्यं नो तद्भिनतिर्यग्योनिकापेक्षया, वनस्पतिव्यतिरिक्तानां तिर्यग्यो. निकानामेतत्कालप्रमाण कायस्थितेरसद्भावादिति भावः । कायस्थिति अनन्त काल की है। यद्यपि तिर्यंच की कायस्थिति अधिक से अधिक एक भव संबंधी तीन पल्योपम की है, उससे अधिक नहीं, किन्तु जो तिर्यंच तिर्यच भवको त्याग कर लगातार तिर्य व भर में ही उत्पन्न होते रहते हैं-बीच में किसी अन्य भव में उत्पन्न नहीं होते, वे अनन्त काल तक तिर्यंच ही बने रहते हैं। उत अनन्त काल का यहां काल और क्षेत्र से, दो प्रकार से सटी करण किया गया है। काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अब. सपिणियां व्यतीत हो जाती हैं, फिर भी तिर्यग्योर्मिक तिर्यग्योनिक ही बना रहता है। काल का यह परिमाण असंख्यात पुलपरावर्त समझना चाहिए और आवलिका के असंख्यान वें भाग में जितने समय होते हैं, उतने असं रूपात पुद्गलपरावर्त समझने चाहिए। नियंग्योनिक की यह जो कायस्थिति बालाई गई है, वह वनस्पति की अपेक्षा से है, उससे भिन्न तिर्यग्योनिकों की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि वनस्पति काय के सिवाय अन्य तिर्यचों की काय. स्थिति इतनी नहीं होती है। અધિકથી અવિક એક ભવ સમ્બન્ધી ત્રણ પામની છે, તેનાથી અધિક નથી હોતી, પરંતુ તિર્યંચ તિર્યંચ ભ ને ત્યાગીને નિરન્તર તિય ચભવમાં જ ઉત્પન્ન થયા કરે છેવચમાં કે અન્ય ભવમાં ઉત્પન્ન નથી થતા, તેઓ અનન્તકાલ સુધી તિર્યંચ બની રહે છે. તે અનન્તકાળનું અહી કાલ અને ક્ષેત્રથી, એમ બે પ્રકારે સપષ્ટીકરણ કરાયેલ છે. કાળની અપેક્ષાએ અનન્ત ઉત્સર્પિણી અને અનન્ત અવસર્પિણી વ્યતીત થઈ જાય છે, પછી પણ તિર્થનિક તિવેગેનિક જ બની રહે છે. કાળનું આ પરિમાણ અસંખ્યાત પુદ્ગલ પરાવર્તન સમજવું જોઈએ અને આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગમાં એટલે સમય થાય છે, તેટલાં અસંખ્યાત પુલ પરાવર્તન સમજવા જોઈએ. તિર્યપેનિટની આ જ કાયસ્થિતિ બતાવાયેલી છે, તે વનસ્પતિની અપેક્ષાએ છે, તેનાથી ભિન્ન તિર્થગેનિકની અપેક્ષાએ નહીં, કેમકે વનસ્પતિકાયના સિવાય અન્ય તિર્યંચની કાયસ્થિતિ એટલી નથી હોતી, . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ अम्पप्रति गौतमः पृच्छति - 'तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! 'तिरिक्खजोणिणित्ति कालओ केवचिरं होइ ?' हे भदन्त ! तिर्यग्योनिकी खलु 'तिर्यग्योनिकी' इति - तिर्यग्योनिकीत्व पर्यायव शिष्टतया कालतः - काल/पेक्षया कियचिवरं - कियत्कालपर्यन्तं भवति-तिर्यग्योनिकीत्वेन व्यपदिश्यते ? भगवानाह - 'गोयमा !' हे गीत ! 'जहणजे अंनोमुहुर्त उक्कोसेणं तिनिपचिओमाई पुत्रको डिपुहुत्तममहियाई' जघन्येन अन्तर्मुहुर्तम् उत्कृष्टेन त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटी पृथक्त्वाभ्यधिकानि बोध्यानि, तथाहि - तिर्यग्योनिकमनुष्याणां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम् उत्कृष्टेनापि अष्टौ भवाः कार्यस्थितिसवेन असंख्येयवर्षायुष्कस्य मरणानन्तरं नियमेन देववत्पदेन तिर्यग्योनिकेऽनुत्पादात् सप्तभवा: पूर्व कोट्यायुषोऽवसेयाः, अष्टमस्तु पर्यन्तवर्तिदेवकुर्यादिषु अस्त्रीणि पल्योपमाणि पूर्वकोटी पृथक्त्वाभ्यधिकानि भवन्ति, ' एवं मस्से वि मस्सी वि एवं चेव' एवम् तिर्यग्योनिकरीत्या मनुष्योऽपि मनुष्यपि एवञ्चैवपूर्वोक्तप्रकारेणैव वक्तव्या तथा च जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्टेन त्रीणि पल्योपमानि पूर्व गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! तिर्यचयोनिक स्त्रियां तिर्यचयोनिक स्त्रियों के रूप में कितने काल तक रहती हैं ? भगवान् - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट पृथक्त्व करोड पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक । संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों की कायस्थिति अधिक से अधिक आठ भवों की है। असंख्यात वर्ष की आयु वाले मृत्यु के पश्चात् नरक से देवलोक में उत्पन्न होते हैं, तिर्यचयोनि में नहीं, अतएव सात भव करोड पूर्व की आयु वाले समझना चाहिए और आठवां अन्तिम भव देवकुरु आदि में । इस प्रकार सात करोड पूर्व अधिक तीन पल्योपम समझना चाहिए । इसी प्रकार मनुष्य और मनुष्यनी के विषय में भी समझलेना चाहिए, अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पृथक्त्व पूर्व कोटि अधिक तीन पत्योपम શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે હું ભગવન્ ! તિય ́યેાનિક સ્રિયા તિયચયેાનિક સિયાના રૂપમાં કેટલા સમય સુધી રહે છે ? શ્રી ભગવાન—ડે ગૌતમ ! જયન્ય અન્તમુહૂર્ત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટ પૃથકત્વ કરેડ પૂર્વ અધિક ત્રણ પક્ષ્ચાપમ સુધી, સંજ્ઞી પચેન્દ્રિય તિય ચે અને મનુષ્ચાની કાયસ્થિતિ અધિકથી અધિક આડ ભવેાની છે. અસખ્યાત વની આયુવાળા મૃત્યુના પછી નિયમી તૈલેકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તિય થયેાનિમાં ની, તેથી જ સાત ભવ કરાડ પૂર્વી આયુવાળા સમજવા જોઇએ. અને આઠમે અન્તિમ ભવ દેવકુરૂ આદિમાં, એ પ્રકારે સાત કરોડ પૂર્વ અધિક ત્રણ પાપમ સમજવું જોઇએ. એજ પ્રકારે મનુષ્ય અને મનુષ્ય ના વિષયમાં પણ સમજી લેવુ' જોઇએ. અર્થાત્ જઘન્ય અન્તર્મુહૂત અને ઉત્કૃષ્ટ પૃથકત્વ પૂર્વકાટિ અધિક ત્રણ પત્યેાપમની કાયસ્થિતિ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् काल एकोन पष्टमुहूर्तात्मकः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपष्टयधिक त्रिशतभागानां त्रीणि शतानि सप्ताधिशानि ५९३७ अयं च नक्षत्राणां पहूर्त भागः स च मुहूर्तभागो गत्यवसरे प्रदर्शयिष्यते, सम्प्रति-एतदनुसारेण मुहुर्तगति विचार्य ने-तत्र रात्रिदिवसयो मध्ये त्रिंशन्मुहूर्ता भवन्ति, तेषु उपरि विद्यमाना एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते तदा भवति एकोनषष्टिमुहूर्तानाम्, ततः संकलनार्थ त्रिभिः शतैः सप्तषष्टयधिकै गुणयित्वा उपरि विद्यमानानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातानि एकविंशति सहस्त्राणि नवशतानि षष्टयधिकानि २१९६०, अयं च प्रतिमण्डलं छेदकराशिः, तनूः सर्वाभ्यन्तर मण्ड लपरिधिः लक्षअयं पञ्चदशसहस्त्राणि एकोननवतियोजन ३१५०८९ प्रमाणकः, अयश्च योजनात्मको राशिः भागात्मकेन राशिना भजनार्थ त्रिभिः सप्तषष्टयधिकैः ३६७ गुण्यते, तदा जातम् ११५६३७६६३, अस्य राशे रेकविंशति सहनै नत्रभिः शतैः षष्टयधिकै आँगे कृति सति लब्धं भवति ५२६५, शेषम् १८२६. भागाः, एतावत्संख्यक सर्वाभ्यन्तरमण्डले अभिजित्प्रभृ. तीनां द्वादशनक्षत्राणाम् एकैकेन मुहूर्तेन गति भवतीति ॥ सम्प्रति-बाह्य नक्षत्रमण्डले मुहर्तगतिं ज्ञातुं प्रश्नयनाह-'जयाणं भंते इत्यादि, 'जयाणं भंते ! णक्खत्ते' यदा-यस्मिन्काले खलु भदन्त ! नक्षत्रम्-अभिजित् प्रभृतिकम् 'सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' सर्ववाह्य' सर्वापेक्षया बाह्य बहिर्भूतं यन्मण्डलं तदुपराक्रम्यहै । ५९ को ३६७ गुणा करने पर ११५६३७६६३ रूप राशि होजाती है इस में २१९६० का भाग देने पर ५२६५ आते हैं और शेष में १८२६३ बचते हैं सो १८२६३ इतने संख्यक भाग प्रमाण सर्वाभ्यन्तर मंडल में अभिजित आदि १२ नक्षत्रों की एक एक मुहूर्त मे गति होती है। घाय नक्षत्र मंडल में मुहूर्तगति प्ररूपणा-इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-(जयाणं भंते ! नवखत्ते) हे भदन्त ! जिसकाल में अभिजित् आदिनक्षत्र (सव्ववाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता) सर्वबाह्यमंडल को प्राप्तकर (चारं चरह) બધા મુહૂર્તીના ભાગે થઈ જાય છે. આમાં ૩૦૭ જોડવાથી ૨૧૯૬૦ ભાગ રાશિ આવી જાય છે. આ ભાગ રાશિ દરેક મંડળમાં છેદક રાશિ છે. સર્વાત્યંતરમંડળની પરિધિ ૩૧૫૦૮ પેજન જેટલી છે. આ યાજન રાશિમાં ૩૬૭ વડે ગુણકાર કરવાથી ૧૧૫૬૩૭૬ ૬૩ આ રૂપ સંખ્યા આવે છે. આમાં ૨૧૯૬૦ ને ભાગાકાર કરવામાં આવે તે પ૨૬૫ આવે છે અને શેષમાં ૧૮૨૬૩ અવશિષ્ટ રહે છે. તે ૬૩ આટલી સંખ્યાભાગ પ્રમાણ સર્વાત્યંતરમંડળમાં અભિજિત વગેરે નક્ષત્રેની એક–એક મુહૂર્તમાં ગતિ થાય છે. બ હા નક્ષત્રમંડળમાં મુહૂર્તગતિની પ્રરૂપણું मामा गौतमस्वामी प्रसुन सेवी रीते प्रश्न या छ 'जयाणं भंते ! नक्खत्ते महत! २ मा ममि मेरे नक्षत्र 'सत्वबाहिरं मडलं उबसंकमित्ता' समा. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जम्बूद्वीपप्रा सिस्ने संप्राप्य चारं गतिं चरति-करोति, 'तयाणं एगपेगेणं मुहुत्तेणं' तदा-तस्मिन् सर्वबाह्यमण्डलसंक्रमणकाले एके न मुहू तेन प्रतिशुहर्तम् 'केवइयं खेत्तं गच्छ३' कियत्प्रमाणक क्षेत्रं गच्छतीति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंच जोयण सहस्साई' पञ्चयोजनप्सहस्त्राणि 'तिणिय एगूगी से जोपण तए' श्रोणिचै कोनविंशतानि योजनशतानि, एकोनविंशत्यधिकानि त्रीणि योजनशतानि इत्यर्थः 'सोलसय भाग सहस्से' पोडश च भागसहस्त्र णि 'तिणि य पणस्हे भागसए गच्छइ' त्रीणि च पञ्चषष्टानि भागशतानि पञ्चषष्टयधिकानि त्रीणि भागवतानीत्यर्थः गच्छति-एकैकेन मुहूत्तेन गमनं करोति, पञ्च. योजनसहस्राणि एकोनविंशत्यधिकानि त्रीणि योजनशतानि, पोडश च भागसहस्राणि पश्चषष्टयधिकानि त्रीणि भागशतानि प्रतिमुहूर्त नक्षत्रं सर्वबाह्य बलग्रीत्यर्थः । भागशब्दस्यावयक्वाचित्तात् अवश्यस्य चावयविनं विना अवस्थानामा मात् कस्यावयविनो भागा इति शङ्काया. माह-मंडलं' इत्यादि, मंडलं एगवीसाए भागसहस्से हिं' एकविंशत्या भागसहौः 'णबहिय सद्देहि सरहिं छेत्ता' नवभिश्च षष्टैः शतैः-पष्टयधिकैनवभिः शतैरित्यर्थः छित्या-भागं कवा अयं भाव:--अत्र सर्वबाह्यमण्डले नक्षत्रस्य परिधिः-लक्षत्रयम् अष्टादशसहस्राणि पश्च. दशाधिकानि त्रीणि शतानि ३१८३१५, अयं च परिधिराशिः सप्तषष्टयधिकैः त्रिभिश्शतैः गतिक्रिया करते हैं 'तयाणं एगमेगे गं मुहत्तगं' तब एक २ मुहर्त में वे 'केवड्यं खेतं गच्छह कितने क्षेत्र तक जाते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई तिष्णिय एगूगवीसे जोयणसए' हे गौतम ! तब वे ५३१९ योजन तथा 'सोलला भाग सहस्ते' सोलह हजार 'तिपिणय पगसढे भागसए गच्छई' तीनसौ पैसठ भाग तक जाते हैं। भाग शब्द अवयववाची होता है अतः यह भाग किम का यहां पर लिया गया है-इस के निमित्त सूत्रकार 'मंडलं वीसाए भागसहस्सेहिं णवाहिय सहिं सएहिं छेत्ता' ऐसा कहा है इसका भाव ऐसा है कि सर्वबाहय मण्डल में नक्षत्र की परिधि ३१८३१५ है इस परिधि को ३६७ से गुणा करने पर ११६८२१६०५ राशि हो जाती है इसमें २१९६० जन प्रति शने 'चार चरइ' गति &िया ४२ छ. 'तयाण एगमेगेणं मुहुत्तण' त्यारे - भुतभा तसा 'केवइयं खेत्त गच्छइ' तये॥ ८॥ क्षेत्री सुधी नय छ ? सेना Mani प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! पंच जोयण पहस्साई ति:ण्णय एगूणवीसे जोयणसए' जातभा त्यारे तया ५३१८ यासन तर 'सोलसय भाग सहस्से' सेण हुन 'तिणिय पणसट्टे भागसए गच्छइ' शुस ५i8 मा सुधी जय छे. 'मा' श४ . યવાચી હોય છે. એથી આ ભાગ અત્રે કયા પદાર્થને ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. આ नभित्ते सूत्रा 'मडल एगवीसाए भागसहस्सेहिं णवहिय सटेहिं छेत्ता' 241 प्रमाणे धु છે એને ભાવ આ પ્રમાણે છે કે સર્વબાહ્યમંડળમાં નક્ષત્રની પરિધિ ૩૧૮૩૧૫ છે. આ " પરિધિને ૩૬૭ સાથે ગુણિત કરવાથી ૧૧૬૮૨૧૬૦૫ રાશિ આવે છે. આમાં ૨૧૯૬૦ ને Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् शेषाणिनु द्वितीयादीनि द्वितीय चतुर्थ पञ्चम नवम द्वादश त्रयोदश चतुर्दश पर्यन्तानि सप्तचन्द्रमण्डलानि नक्षत्ररहितानि भवनि केवलं प्रथमतृतीयषष्ठ पप्तम भष्टमदशमेकादश पञ्चदशैतेषु अष्ट चन्द्रमण्डलेष्वेव नक्षत्राणि भवन्तीति । तत्र प्रथमचन्द्रमण्डले द्वादशनक्षत्राणि भवन्ति, तद्यथा-अभिजित् श्रवणः धनिष्ठा शतभिषा पूर्वभाद्रपदा उत्तरभाद्रपदा अश्विनी भरणी पूर्वाफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनीस्वातिश्चे ते। द्वितीयचन्द्रमण्डले पुनर्वसुः मघा च द्वे एवं नक्षत्रे, तृतीये चन्द्रमण्ड ले कृतिकामात्रम्, चतुर्थे रोहिणी चित्रा च, पश्च मे विशाखा, षष्ठे अनुराधा, सप्तमे ज्येष्ठा, अष्टमे मृगशिरः आर्द्रापुष्यः अश्लेषा मूलो हस्तश्च पूर्वाषाढोसरा. पाढया। द्वे तारे अभ्यन्तरतः, द्वे द्वे च बाह्यत इति । एवं स्वस्त्रमण्डलाक्तारसम्बन्धि भूत होता है १५ वें चन्द्र मंडल में आठवां नक्षत्र मंडल अन्तर्भूत होता है। बाकी के द्वितीयादि-द्वितीय-चतुर्थ-पंचम-नवम, द्वादश, त्रयोदश, और चतु. देश तक के सप्त चन्द्रमंडल-नक्षत्र रहित होते हैं केवल प्रथम, तृतीय, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, दशम, एकारश, और पञ्चदश, इन आठ चन्द्रमंडलों में ही नक्षत्र होते हैं ! प्रथम चन्द्रमण्डल में १२ नक्षत्र होते हैं जैसे-अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा, पूर्व भाद्रपदा, उतर भाद्रपदा, अश्विनी, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, और स्वाति द्वितीयचन्द्रमंडल में पुनर्वसु, और मघा ये दो नक्षत्र होते हैं तृतीय चन्द्र मंडल में एक कृत्तिका नक्षत्र होता है चतुर्थ चन्द्र मण्डल में रोहिणी नक्षत्र होता है और चित्रा नक्षत्र होता है पञ्चम चन्द्र रण्डल में विशाखा नक्षत्र होता है छटवे चन्द्र मण्डल में अनुराधा, सप्तम में ज्येष्टा, अष्टम में मृगशिरा, आद्री पुष, अश्लेषा मूल और हस्त ये नक्षत्र होते हैं। पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा इन के भीतर में दो दो तारा होते हैं और बाहर થાય છે. અગિયારમાં ચન્દ્રમંડળમાં સાતમું નક્ષત્રમંડળ અન્તર્દૂત થાય છે. પંદરમાં ચન્દ્રમંડળમાં આઠમું નક્ષત્રમંડળ અંતભૂત થાય છે. શેષ દ્વિતીયાદિ દ્વિતીય-ચતુર્થપંચમ-નવમ દ્વાદશ, ત્રયોદશ અને ચતુર્દશ સુધીના સાત ચદ્રમંડળ-નક્ષત્ર રહિત હોય છે. ફક્ત પ્રથમ, તૃતીય, પઠ, સપ્તમ, અષ્ટમ, દશમ, એકાદશ અને પંચદશ એ આઠ ચંદ્રમંડળમાં જ નક્ષત્ર હે છે. પ્રથમચંદ્ર મંડળમાં ૧૨ નક્ષત્ર હોય છે. જેમ કે मभिनित श्रधान, शतभिष, ५ ५ही, हत्तरभाद्रपह, मश्विनी. स२०ी. પૂર્વાફાગુની, ઉત્તરાફાલગુની અને સ્વાતિ દ્વિ ય ચન્દ્રમંડળમાં પુનર્વસુ અને મઘા એ બે નક્ષત્ર હોય છે. તૃતીય ચંદ્રમંડળમાં એક કૃત્તિકા નક્ષત્ર હોય છે. ચતુર્થીમંડળમાં રોહિણી નક્ષત્ર હોય છે અને ચિત્રા નક્ષત્ર હોય છે. પંચમ નક્ષત્રમંડળમાં વિશાખા નક્ષત્ર હોય છે. ષષ્ઠ– ચંદ્રમંડળમાં અનુરાધા, અસમમાં ઠા, અષ્ટમમાં મૃગશિરા, આ, પુષ્ય, અશ્લેષા, મૂલ અને હસ્ત એ નક્ષત્ર હોય છે. પૂર્વાષાઢા અને ઉત્તરાષાઢા એમની અંદર બબબે તારાઓ હોય છે–અને બહાર બબ્બે તારાઓ હોય છે. આ પ્રમાણે Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे चन्द्रमण्डल परिध्यनुसारेण पूर्वोक्तक्रमेण द्वितीयादीनामपि नक्षत्रमण्डलानां मुहूर्त्तगति ज्ञातव्या ॥ कथितं प्रतिमण्डलं चन्द्रादीना योजनात्मकं प्रतिमुहूर्त्ते गमनम् ॥ सम्प्रति तेषामेव चन्द्रादीनां प्रतिमण्डलं भागात्मकं छुहूर्त्तगमनं कथयितुं प्रश्नयन्नाह' एगमेगेणं मंते' इत्यादि, 'एगमेगेणं भंते! मुहुत्तेणं' एकैकेन भदन्त ! [हूर्तेन 'केवइयं भागसयाई गच्छ३' किन्ति भागशतानि गच्छति, हे भदन्त ! एकैकेन मुहूर्तेन चन्द्रः कियन्ति भगशतानि गच्छतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जं जं मंडलं उवसंकमिता चारं चरइ' यद् यन्मण्डलं प्रथमं वा द्वितीयादिकं वा मण्डल ग्रुपसंक्रम्य - संप्राप्य चन्द्रश्चारं गतिं चरति करोति 'तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स' तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्य तस्य तस्य मण्डलस्य संबन्धिनो ये परिक्षेवा स्तत्संबन्धिन इत्यर्थः 'सत्तरस अट्ठि भागसए गच्छ३' सप्तदशाष्ट षष्टि भागशतानि गच्छति, अष्टष्टिमागैरधिकानि सप्तदश भागशतानीत्यर्थः गच्छति - गमनं करोति प्रतिहतमिति । 'मंडलं सय सहर सेणं' में दो दो तारा होते हैं । इस तरह अपने अपने मण्डल में अवतार सम्बन्धी चन्द्र की परिधि के अनुसार पूर्वोक्त क्रम से द्वितीयादिक नक्षत्र मंडलों की मुहूर्त गति जान लेनी चाहिये । हरएक मंडल में चन्द्रादिकों का योजनात्मक गमन कहकर अब सूत्रकार उन्हीं चन्द्रादि कों का हरएक मण्डल में मुहूर्त गमन कहते हैं। इस में गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया हैं- 'एगमेगेणं भंते! मुहुत्तेणं' हे भदन्त ! एक एक मुहूर्त में चन्द्र 'केवइथं भागसयं गच्छछ' कितने सौ भाग तक जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जं जं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चर' हे गौतम! जिस जिस मंडल पर पहुंच कर चन्द्र अपनी गति क्रिया करता है 'तस्स तस्स मंडल परिक्खेबस्स' उस उस मंडल की परिधि के 'सत्तरसअट्ठसट्टिभागसए गच्छ३' १७६८ भाग तक हर एक मुहूर्त में वह जाता है 'मंडल सयसहस्सेणं अट्ठाणउइएय सएहिं छेता' तथा १ लाख ९८ वे हजार भागों को विभक्त પોતપોતાના મંડળમાં અવતાર સંબંધી ચન્દ્રમંડળની પરિધિ મુજબ પૂર્વોક્ત ક્રમથી દ્વિતીયાદિ નક્ષત્રમ`ડળેાની મુહૂત ગતિ જાણી લેગી જોઇએ. દરેક મંડળમાં ચન્દ્રાદિકનુ ચેનાત્મક ગમન કહીને હવે સૂત્રકાર તેજ ચન્દ્રાદિકનુ દરેક મડળમાં મુહૂ ગમન કહે છે. श्राभां गौतमस्त्राभीञे प्रभुने मेरी रीने प्रश्न अर्थो छे ! ' एगमेगेणं भंते ! मुहुत्तेणं' हे लढत ! ये!-! मुहूर्त भां यन्द्र 'केवइयं भागस्यं गच्छइ' डेटा सो लाग सुधी लय हे भेटले है डेटा सेो भाग सुधी गति हरे ! सेना श्वाश्रभां प्रलु उडे - 'गोयमा ! जं जं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' हे गौतम! थे ? भांडण पर हथीने यंद्र पोतानी गति डिया ४३ छे. 'तास तस्स मंडलप रिक्खेवस्स' तत् तत् भउजनी परिधिना 'सत्तरस अट्ठसट्टिभागसए गच्छ' १७६८ लागी सुधी हरे: भुर्तभां ते लय छे. 'मंडलं सयस हरसेणं अट्टाइए सहि छेत्ता' ते १ लाख ४८ हुनर लागोने विलत मरीने प्रतिमुहूर्त भां ते गति हरे Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ मक्षत्राधिकारनिरूपणम् २१७ ३६७ गुण्यते यदा तदा भवति एकादशकोटयः अष्टषष्टि लक्षा: एकविंशति सहस्राणि पञ्चाधिकानि षट्शतानि ११६८२१६०५, अस्य च राशेरेकविंशतिसहस्रैः षष्ट्यधिकैर्नवभिः शतैः २१९६० भागे कृते सति लब्धानि भवन्ति पञ्चसहस्राणि एकोनविंशत्यधिकानि त्रीणि शतानि ५३१९ योजनानि भवन्ति शेषम् २९६ भागाः, एतावत् प्रमाणकम् सर्वबाह्ये नक्षत्रमण्डले मृगशीर्ष प्रभृतीनामष्टानां नक्षत्राणां प्रतिमुहूर्त गतिर्भवतीति । उक्तक्रमेण सर्वाभ्यन्तरमण्डलवर्त्तिनां सर्वबाह्य मण्डलवर्त्तिनां च नक्षत्राणां प्रतिमुहूर्त कियती गतिर्भवतीति प्रतिपादितम्, १६३६५ सम्प्रति-नक्षत्रतारकाणामवस्थितमण्डलकत्वेन प्रतिनियतगतिकत्वेन च, अवशिष्टेषु षट्सु मण्डलेषु मुहूर्त्तगतिपरिज्ञानं दुष्करमिति तत्कारणभूतं मण्डलपरिज्ञानं कर्तु नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डलेषु समवतार प्रश्नमाह - 'एएणं भंते' इत्यादि, : 'एएणं भंते ! अट्टणवखतमंडळा' एतानि उपर्युक्तानि खलु भदन्त ! अष्टौ नक्षत्रमण्डलानि कहहिं चंदमंडळेहिं समो अरंति' कतिभिः कियत्संख्यकै चन्द्रमण्डलैः कतिषु चन्द्रमण्डलेषु इत्यर्थः 'कइहिं' इत्यत्र तृतीया विभक्तिः सप्तमीविभक्त्यर्थे ज्ञातव्याः इत्थमेव प्रश्नसारस्यावगमात् समवतरन्ति - अन्तर्भवन्तीत्यर्थः, हे मदन्त ! चन्द्रनक्षत्राणां साधारणपण्डानि कानीति प्रश्नः, भगवानाह - का भाग देने पर ५३१९ योजन आते हैं । एव शेष भाग बचे रहते हैं । इतने प्रमाण वाली सर्वबाह्य नक्षत्र मंडल में मृगशीर्ष आदि १८ नक्षत्रों की प्रति मुहूर्त में गति होती है उक्त क्रमके अनुसार सर्वाभ्यन्तर मण्डलवर्ती नक्षत्रों की एवं सर्वबाहय मण्डलवर्ती नक्षत्रों की प्रतिमुहूर्त गति प्रतिपादित कर अब सूत्रकार नक्षत्र एवं ताराओं की अवस्थित मंडलवाले होने के कारण और प्रतिनियत गति वाले होने के कारण अवशिष्ट ६ मंडलों में मुहूर्तगति का परिज्ञान दुष्कर है इस कारण उस मुहूर्त गति के कारणभूत मण्डल परिज्ञान करने के लिये नक्षत्रमंडलों के चन्द्रमंडलों में समवतार होने के प्रश्न को प्रभु से 'एएणं भंते! अट्ठणक्खत्तमंडला कहहिं चंदमंडलेहिं समोअरंति' इस सूत्र द्वारा पूछते हैं - हे भदन्त ! ये उपर्युक्त आठ नक्षत्र मंडल कितने चन्द्रमडलों में ભાગાકાર કરવાથી ૫૩૧૯ ચેાજન જેટલી સંખ્યા આવે છે. તેમજ શેત્ર રૃક્ૐ ભાગ વધે છે. આટલા પ્રમાણવાળી સ`બાહ્ય નક્ષત્રમડળમાં મૃગશીષ આદિ ૧૮ નક્ષત્રાની પ્રતિ મુહૂત'માં ગતિ હોય છે. ઉક્ત ક્રમાનુસાર સભ્યંતર મંડળવતી નક્ષત્રની તેમજ સર્વબાહ્યમંડળવતી નક્ષત્રની પ્રતિ મુહૂત ગતિ પ્રતિપાદિત કરીને હવે સૂત્રકાર નક્ષત્ર તેમજ તારાએ અવસ્થિતમડળવાલા છે અને પ્રતિનિયત ગતિવાળા છે તેથી અવશિષ્ટ ૬ મડળામાં મુહૂ ગતિનું પરિજ્ઞાન દુષ્કર છે. એથી તે મુદ્ભૂત ગતિના કારણુભૂત મંડળના પરિજ્ઞાન માટે આ નક્ષત્રમ‘ઢળેના ચન્દ્રમડળામાં સમવતાર હેાવાના પ્રશ્નને પ્રભુને ते ! अट्ठणक्खत्तमंडला कहहिं चंदमडलेहिं समोअरंति' । सूत्रपाई वडे पूछे छे. डे ભત ! એ ઉયુક્ત આઠ નક્ષત્રમઢળે કેટલા ચન્દ્વમડળામાં અવતરિત હાય છે ?–અન્ત ન ज० २८ १६३६५ २१९६० Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मवीपमतिर 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अहिं चंदमंडले हिं समोअरंतिः अष्टसु चन्द्रमण्डलेषु समवतरन्ति-अन्तर्भवन्ति । तत्र कस्मिन् चन्द्रमण्डछे कस्य नक्षत्रमण्डलस्यान्ताव इति दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पढमे चंदमंडले' प्रथमे चन्द्रमण्डले 'ताए छठे' तृतीये चन्द्रमण्डले पष्ठे चन्द्रमण्डले 'सत्तमे अट्टमे' सप्तमे चन्द्रमण्डले अष्टमे पन्द्रमण्डले 'दसमे इक्कारसमे' दशमे चन्द्रमण्डले एकादशे चन्द्रमण्डले 'पण्णरस्मे चंदमंडले' पञ्चदशे चन्द्रमण्डले । अयं भावा-प्रथमे चन्द्रमण्डले प्रथम नक्षत्रमण्डल मन्तर्भवति चारक्षेत्र रारिणामनवस्थितचारिणां च सर्वेषां ज्योतिष्कदेवानां जम्बूद्वीपे अशीत्यधिकयोजनशत मवगाथैव मण्डलस्य प्रवर्तनात, तृतीये चन्द्रमण्डले द्वितीयं नक्षत्रमण्डलं समवतरति, एते च 'हे जम्बूद्वीपे नक्षत्रमण्डले, षष्ठे लवणे भाविनि चन्द्रमण्डले तृतीयं नक्षत्रमण्डलमन्तर्भवति लवणे (तत्रैव) भाविनि सप्तमे चन्द्रमण्डले चतुर्थ नक्षत्रमण्डलमन्तर्भवति, अष्टमे चन्द्रमण्डले पञ्चमं नक्षत्रमण्डलं समवतरति, दशमे चन्द्रमण्डले षष्ठं नक्षत्रमण्डलमन्तर्भवति, एकादशे चन्द्रमण्डले सप्तमं नक्षत्र मण्डलमवतरति, पञ्चदशे चन्द्रमण्डले अष्टमं नक्षत्रमण्डलमवतरति, अवतरित होते हैं ? अन्तर्भून होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु गौतमस्वामो से कहते है-'गोयमा! अट्टहिं चंदमडलेहिं समोअरंति' हे गौतम ! ये आठ चन्द्र मंडलों में अन्तर्भूत होते हैं 'तं जहा' जैसे-'पढमे चंदमडले' प्रथम चन्द्र मंडल में प्रथम नक्षत्र मण्डल अन्तर्भूत होता है क्योंकि चार क्षेत्र में चलनेवाले और अनबस्थित चलने वाले समस्त ज्योतिष्क देवों के इस जम्बूद्वीप में १८० योजन अवगाहन करके मडलकी प्रवृति होती है तृतीय चन्द्रमंडल में द्वितीय नक्षत्र मडल का अन्तर्भाव होता है ये दो नक्षत्रमण्डल जम्बूद्वीप में हैं। लवणसमुद्र में भावी छठे चन्द्रमंडल में तृतीय नक्षत्रमण्डल अन्तर्भूत होता है लवणसमुद्रभावी सातवें चन्द्रमंडल में चतुर्थनक्षत्रमंडल अन्तर्भूत होता है। आठवें चन्द्रमंडल में पांचवां नक्षत्रमंडल अन्तर्भूत होता है दशवें चन्द्रमंडल में छठवा नक्षत्रमंडल अन्तर्भूत होता है ११वे चन्द्रमंडल में सातवां नक्षत्रमंडल अन्तभूति ५ छ १ सेना पाममा प्रभु गौतभस्वाभान मा प्रभाए । छ-'गोयमा ! अहिं चंदमडलहिं समोअर ति' गौतम ! ये माई यन्द्रमामा मतभूति हाय छे. 'तं जहा' से पढमे चंदमंडले' प्रथम य द्रममा प्रथम नक्षत्र मतभूत थाय छ, भो ચાર ક્ષેત્રમાં ચાલનારા અને અનવસ્થિત ચાલનારા સમરત તિષ્ક દેવોની આ જબ દ્વીપમાં ૧૮૦ એજન અવગાહિત કરીને મંડળની પ્રવૃત્તિ થાય છે. તૃતીય ચંદ્રમંડળમાં દ્વિતીય નક્ષત્રમંડળને અન્તર્ભાવ થાય છે. એ બે નક્ષત્રમંડળે જંબૂદ્વીપમાં છે. લવણસમમાં ભાવી છઠ્ઠા ચન્દ્રમંડળમાં તૃતીય નક્ષત્રમંડળ અન્તભૂત થાય છે. લવણસમુદ્ર ભાવી સપ્તમ ચન્દ્રમંડળમાં ચતુર્થ નક્ષત્રમંડળ અન્તત થાય છે. અષ્ટમ ચન્દ્રમંડળમાં પંચમ નક્ષત્રમંડળ અન્તભૃત થાય છે. દશમ ચન્દ્રમંડળમાં ષષ્ઠ નક્ષત્રમંડળ અંતર્ભત , Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टाका-सप्तमवक्षस्कार:स, त्रा - - - मण्डल यन्मण्ड समुपसंक्रम्य चारं चरति तन्मण्डलं शतसहस्रग-लौके नेत्यर्थः, तथा-'अट्ठा उइएय मएहि छेता इति' अष्टनवत्या च शतेच्छिया-विभागं कृत्वा प्रतिमुहतं गच्छ तीति पूर्वेणान्वयः । ___ अयं भावः-अत्र खलु प्रथमत श्चन्द्रस्य मण्डलकाल एव निरूपणीयः तदनन्तरं तदनुसारेण मुहूर्तपरिमाणं विचारणीयम्, तत्र मण्डलकालनिरूपणार्थ मिदं त्रैराशिकं भवति, यदि सप्त दशभिः शतैरष्टषष्टयधिकैः सफलयुगवर्तिभिरर्द्धमण्डलै चन्द्रद्वयापेक्षया तु पूर्णमण्डलै रष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिदिवसानां लभ्यते ततो द्वाभ्यामद्धमण्डलाभ्या मेकेन मण्डखेन कति रात्रिदिवसा लब्धा भवन्ति, तत्रेयं राशित्रयस्थापना १७६८ । १८३९।२ अत्र खलु चरमेण राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेः १८३० लक्षणस्य गुणने सति षट्त्रिंशच्छ. तानि षष्टयधिकानि भवन्ति एतेषां प्रथमेन १७६८ लक्षणेन राशिना भागे कृते सति द्वौ रात्रिदिवसौ लब्धौ भवतः, शेषतिष्ठति चतुर्विशत्यधिकमेकं शतम् १२४ । तत्रैकस्मिन् रात्रि दिवसे त्रिंशन्मुहूर्ता भवन्ति इति तस्य त्रिंशत्संख्यया गुणने कृते सति जातानि सप्तत्रिंशच्छतानि विंशत्यधिकानि ३७२०, तेषां सप्तदशभिः शतैरष्टषष्टयधिकैः १७६८ भागे दत्ते सति लब्धौ भवतो द्वौ मुहूत्तौं, ततच्छेधछेदकराश्योरष्टकेनापवर्तना, ततो जातश्छे यो राशि करके प्रतिमुहर्त में वह जाता है-इस विषय को स्पष्ट करने के लिये यहां सब से पहिले चन्द्र के मण्डल का काल बाद में उसके अनुसार मुहूते का परिमाण निकाला गया है मण्डल काल के विचार के लिये त्रैराशिक का विधान इस प्रकार से है सकलयुगवर्ती अर्द्ध मंडलों द्वारा १७६८ तथा चन्द्र द्वय की अपेक्षा पूर्ण मंण्डलों द्वारा १८३० रात्रि दिवस प्राप्त होते हैं तो दो अर्द्ध मण्डलों द्वारा कितने रात्रि दिवस प्राप्त होंगे तो इसके लिये राशि त्रय की स्थापना १७६८ । १८३० । २ इस प्रकार से होगी, चरम राशि दो से मध्य राशि १८३० गुणित किये जाने पर ३६६० आते हैं, इनमें १७६८ का भाग देने पर दो रात दिन और शेष में १२४ बचे रहते हैं एक रातदिन में ३० मुहर्त होते हैं सो ३० का १२४ में गुणा करने पर ३७२० होते हैं, इन में १७६८ का છે. આ વિષયને સ્પષ્ટ કરવા માટે અહીં સર્વપ્રથમ ચન્દ્રના મંડળને કાળ તેમજ પછી તે મુજબ મુહૂર્તનું પરિમાણ કાઢવામાં આવેલ છે. મંડળ કાળના વિચાર માટે રાશિન વિધાન આ પ્રમાણે છે–સકલ યુગવતી અદ્ધમંડળ વડે ૧૭૬૮ ચન્દ્રયની અપેક્ષાએ પૂર્ણ મંડળે વડે ૧૮૩૦ રાત્રિ-દિવસ પ્રાપ્ત થાય છે, તે પછી બે અદ્ધમંડળ વડે કેટલા રાત્રિ-દિવસે પ્રાપ્ત થાય છે. તે આના માટે રાશિત્રયની સ્થાપના ૧૭૬૮/૧૮૩૦/આ પ્રમાણે થશે. ચર મરાશિ બે થી મધ્યરાશિ ૧૮૩૦ ને ગુણિત કરવાથી ૩૬૬૦ આવે છે. આમાં ૧૭૬૮ નો ભાગાકાર કરવાથી બે રાત-દિવસ અને શોષમાં ૧૨૪ અવશિષ્ટ રહે છે. એક રાત-દિવસમાં ૩૦ સુહર્તા હોય છે. તે ૩૦ ને ૧૨૪ સાથે ગુણિત કરવાથી ૩૭૨૦ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति त्रयोविंशतिः छेदकराशिर्देशते एकविंशत्यधिके २२१, ततः प्राप्यते - मुहूर्तस्यैकविंशत्यधिकशतद्वयभागाः २.२३ एतावता कालेन द्वे अर्द्ध मण्डले परिपूर्णे चरति चन्द्र इति । अर्थात् एतावता कालेन परिपूर्णमेकं मण्डलं चन्द्रश्चरतीति । तदेवं चन्द्रमण्डलकालस्य प्ररूपणम्, एतदनुसारेणैव मुहूर्त्तगतिरपि भवति, तत्र यौ द्वौ राशिदिवसौ तौ मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिशत्संख्यया गुण्यते तदा षष्टिमुहूर्त्ता भवन्ति उपरि विद्यमानयो द्वयोः क्षेपे कृते जाता द्वाषष्टिः, एतेषां संकलनार्थे द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा च उपरितनांशत्रयोविशतिः प्रक्षिप्यते, जातानि त्रयोदशसहस्राणि सप्तशतानि पञ्चविंशत्यधिकानीति, एतत् एकमण्डल कालगत मुहूर्त्तमम्बन्धि एक विंशत्यधिकशतद्वय भागानां परिमाणम्, तत राशिकरणम्, तत्र यदि त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकै रेकविंशत्यधिकशतद्वय भाग देने पर दो मुहूर्त लब्ध होते हैं। छे छेदक - राशियों में आठ से अपवर्तना-भाग करने पर छेद्य राशि २३ और छेदक राशि २२१ आती है। इस तरह एक मुहूर्त के २३ भाग प्राप्त होते हैं इतने काल में परिपूर्ण दो अर्ध मंडल पर चन्द्र अपनी गति करता है अर्थात इतने काल में एक मंडल परिपूर्ण होता है और उस पर चन्द्र गति क्रिया करता है । यह चन्द्र मण्डल काल की प्ररूपणा है । इस के अनुसार ही मुहूर्त गति भी होती है यहां जो दो राशिरूप दिवम आये है उनके मुहूर्त्त करने के लिये ३० को २ से गुणित करने पर ६० मुहूत होते हैं इनमें २ को जोडने पर ६२ मुहूर्त्त हो जाते हैं इन सब की संकलना करने के लिये २२१ गुणा करने पर और २३ को आगत राशि में जोडने पर १३७२५ संख्या आती है यह संख्या एक मण्डलकाल के मुहूर्त्त सम्बन्धी जो २२१ हैं उनके भागोंका परिमाण है यहां वैराशिक विधान इस प्रकार से है यदि १३७२५ के द्वारा २२१ भागों के मंडल भाग १०९८०० प्राप्त होते આવે છે. આમાં ૧૭૬૮ ના ભાગાકાર કરવાથી એ મુહૂર્તો લક્ષ્ય હેય છે. છેવ છેઠક રાશિઓમાં આઠથી અપના ભાગાકાર કરવાથી છેદ્યરાશિ ૨૩ અને છેદકરાશિ ૨૨૧ આવે છે આ પ્રમાણે એક મુદ્નના ૨૨ ભાગેા પ્રાપ્ત થાય છે. આટલા કાળમાં પરિપૂર્ણ એ અધ મડળા ઉપર ચન્દ્ર પોતાની ગતિ કરે છે, એટલે કે આટલા કાલમાં એક મ`ડળ પરિપૂર્ણ થાય છે અને તેની ઉપર ચન્દ્ર ગતિ ક્રિયા કરે છે. આ ચન્દ્ર-મડળ–કાળની પ્રરૂપણા છે. એ મુજબ જ મુહૂત ગતિ પણ થાય છે. અહીં જ બે રાશિરૂપ દિવસે આવ્યા છે તેમના મુહૂતાં કરવા માટે ૩૦ ને એ વડે ગુણિત કરવાથી ૬૦ મુહૂત થાય છે. આમાં ૨ ને સરવા કરવાથી ૬૨ મુહૂતો થાય છે. એ બધાની સંકલના કરવા માટે ૨૨૧ સાથે ગુણિત કરવામાં આવે અને ૨૩ ને આગત રાશિમાં જોડવામાં આવે તે ૧૩૭૨૫ જેટલી રહેશ આવે છે. આ રાશિ એક મ`ડળ કાળના મુહૂત સંબંધી જે ૨૨૧ છે તેના ભાગાનું પરિમાણ છે. અહી Àરાશિક વિધાન આ પ્રમાણે છે ને ૧૩૭૨પ વડે ૨૨૧ ભાગેાના મડળ ભાગ ૧૦૯૯૦૦ પ્રાપ્ત થાય છે તેા એક Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राधिकार निरूपणम् શ્ય भागानां मण्डलभागा एकं शतसहस्रमष्टा नवतिशतानि लभ्यन्ते, तत् एकेन मुहूर्त्तेन कियलभ्यते तत्र राशित्रयस्थापना १३७२५ । १०९८०० । १ । अत्राद्यो यो राशिः १३७२५ लक्षण: मुहूर्तगतैकविंशत्यधिकशतद्वय भागस्वरूपः ततः संकलनार्थमन्त्यो राशिरेकलक्षरूपो द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्याम् २२१ गुण्यते ततो भवति द्वे शते एकविंशत्यधिके २२९, ताभ्यां मध्य राशि: १०९८०० गुभ्यते, ततो भवति द्वे कोट्यौ द्विचत्वारिंशल्लक्षाः पञ्चषष्टिसहस्राणि अष्टौ शतानि २४२६५८०० । तेषां त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागो ह्रियते, लब्धानि सप्तदशशतानि अष्ट षष्ट्यधिकानि १७६८ एतावतो भागान् यत्र तत्र वा मण्डले चन्द्रो मुहर्त्तेन गच्छति, अयं भावः - अत्र ष्टाविंशति नक्षत्रैः स्वगत्या स्वस्व कालपरिमाणेन क्रमशो यावत्क्षेत्रं बुद्धचा व्याप्यमानं संभाव्यते तावदेकमर्द्धमण्डमुष कल्प्यते एतावत् प्रमाणमेव द्वितीयमर्द्धमण्डलं द्वितीयाष्टाविंशति नक्षत्र संबन्धित, तत्तभाग जनितमित्येवं प्रमाण बुद्धिपरिकल्पित मे कमण्डलच्छेदो ज्ञातव्यः, एको लक्षः परिपूर्णानि है तो एक मुहूर्त्त के द्वारा ये कितने प्राप्त होंगे इस के लिये १३७२५-१०९८००-१ ऐसी राशि की स्थापना करनी चाहिये यहां जो आद्यराशि १३७२५ है वह मुहूर्त गत २२१ के भाग स्वरूप है संकलना के निमित्त अन्त १ रूप राशि २२१ से गुणित होकर २२१ रूप ही आती है इस में १०९८०० को गुणित करने पर २४२६५८०० राशि आती है इस में १३०२५ का भाग देने पर १७६८ आते हैं शेष में कुछ नहीं बचता इतने भाग तक चाहे जिस किसी मंडल में चन्द्र एक मुहूर्त में गमन - क्रिया करता है । भाव यह है कि २८ नक्षत्र अपनी अपनी गति द्वारा अपने अपने काल के परिमाण से क्रमशः जितने क्षेत्रको अपनी कल्पना के अनुसार व्याप्त कर सके उसका नाम अर्ध मंडल है इतने प्रमाण ही द्वितीय २८ नक्षत्र संबंधी द्वितीय मंडल तत्तद्भाग जनित होता है इस प्रमाण बुद्धि से परिकल्पित हुआ एक मंडल छेद होता है और वह १०९८०० મુહૂત વડે એ કેટલા પ્રાપ્ત થશે એના માટે ૧૩૭૨૫/૧૦૯૮૦૦/૧ એવીરીતે રાશિત્રયની સ્થાપના કરવી જોઈએ, અહીં જે આદ્યરાશિ ૧૩૭૨૫ છે તે મુહૂતગત ૨૨૧ ના ભાગ સ્વરૂપ છે. સકલના માટે અંત ૧ રૂપ રાશિ ૨૨૧ થી ગુણિત થઈને ૨૨૧ રૂપ આવે છે. આમાં ૧૦૯૮૦૦૦ ને ગુણિત કરવાથી ૨૪૨૬૫૮૦૦ સંખ્યા આવે છે. આ રાશિમાં ૧૩૭૨૫ ના ભાગાકાર કરવાથી ૧૭૬૮ આવે છે. શેષમાં કેઈ સંખ્યા રહેતી નથી. આટલા ભાગ સુધી ગમે તે મ`ડળમાં ચન્દ્ર એક મુહૂર્તીમાં ગમન-ક્રિયા કરે છે. ભાવ આ પ્રમાણે છે કે ૨૮ નક્ષત્રા પોત-પોતાની ગતિ વડે પોતપોતાના કાળના પરિગ્રામથી ક્રમશઃ જેટલા ક્ષેત્રને પોતાની કલ્પના વડે ભ્યાસ કરી શકે તેનુ નામ અ મંડળ છે. આટલા પ્રમાણમાં જ દ્વિતીય ૨૮ નક્ષત્ર સંબંધી દ્વિતીય અમંડળ તત્ તત્ ભાગજનિત ઢાય છે. આ રૂપ પ્રમાણુ બુદ્ધિથી પરિકલ્પિત થયેલ એક મંડળ એક હાય Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र चाष्टानवतिशतानि । कथमस्योत्पत्तिरिति चेत्रोच्यते त्रिप्रकाराणि खलु नक्षत्राणि, तद्यथा-समक्षेत्राणि, अद्धक्षेत्राणि द्वच क्षेत्राणि च, अत्र यावत्प्रमाणं क्षेत्रमहोरात्रेण सूर्येण गम्यते तावत्प्रमाणं चन्द्रेण सह योगं यानि यानि नक्षत्राणि गच्छन्ति तानि तानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि, सममहोराश्प्रमितं क्षेत्रं येषां नक्षत्राणां तानि समक्षेत्राणि कथ्यन्ते, समक्षेत्राणि च नक्षत्राणि पश्चदश भवन्ति तद्यथा-श्रवणं धनिष्ठा पूर्वभाद्रपदा रेवती अश्विनी कृत्तिका मृग शिरः पुष्यो मघा पूर्वाफाल्गुनी हस्तः चित्रा अनुराधा मूल: पूर्वाषाढा इति । तथा-यानि नक्षत्राणि अर्द्धम् अहोरात्रप्रमितस्य क्षेत्रस्य चन्द्रेण समं योगं प्राप्नुवन्ति तानि नक्षत्राणि अर्द्धक्षेत्राणि, अर्द्धम-अर्द्धप्रमाण क्षेत्रं येषां नक्षत्राणां तानि अर्द्धक्षेत्राणि, तानि च षट् तद्यथाशतभिक भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वातिः, ज्येष्ठा । तथा-द्वितीयमर्द्ध येषां नक्षत्राणां रूप होता है। इसकी उत्पत्ति कैसे होती है ? सुनो ऐसे-होती है-नक्षत्र तीन प्रकार के होते हैं-एक सभ क्षेत्र वाले दूसरे अर्ध क्षेत्रवाले और तीसरे वध क्षेत्र वाले जिनना प्रमाण क्षेत्र अहोरात में सूर्य के द्वारा गम्य होता है उतने प्रमाण क्षेत्रको चन्द्र के साथ योग रखने वाले जो २ नक्षत्र पार करते हैं बे सम क्षेत्र वाले नक्षत्र हैं अहोरात प्रमित क्षेत्र जिन नक्षत्रों का सम होता है वे समक्षेत्री नक्षत्र हैं ऐसा निष्कर्षार्थ है। समक्षेत्री नक्षत्र १५ होते है-उनके नाम इस प्रकार से हैं-श्रवण धनिष्ठा, पूर्वभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढा, जो नक्षत्र अहोरात्र प्रमित क्षेत्र के अर्ध योग को चन्द्र के साथ प्राप्त करते हैं वे नक्षत्र अर्द्धक्षेत्री हैं आधाक्षेत्र जिन नक्षत्रों का होता है वे अर्ध क्षेत्री नक्षत्र हैं यही इसका निष्कर्षार्थ है । ये अर्ध क्षेत्री नक्षत्र छह होते हैं-उनके नाम इस प्रकार से हैं-शतभिषक, भरणी, आद्रा, अश्लेषा, स्वाति, और ज्येष्ठा तथा અને તે ૧૦૯૮૦૦૦ રૂપ હોય છે. એની ઉત્પત્તિ કેવી રીતે થાય છે? તો એના જવાબમાં સાંભળે. એની ઉત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છે-નક્ષત્ર ત્રણ પ્રકારના હોય છે. એક સમક્ષેત્રવાળા, બીજા અર્ધક્ષેત્રવાળા અને ત્રીજા કયર્ધક્ષેત્રવાળા અહોરાતમાં સૂર્ય વડે જેટલું પ્રમાણ ક્ષેત્ર ગમ્ય હોય છે, તેટલા પ્રમાણુ ક્ષેત્રને ચન્દ્રની સાથે એગ રાખનારા જે-જે નક્ષત્ર પાર કરે છે તે બધા સમક્ષેત્રવાળા નક્ષત્ર છે. અહોરાત પ્રમિત ક્ષેત્ર જે નક્ષત્રોનું સમ હોય છે તે સમક્ષેત્રી નક્ષત્ર છે. આ પ્રમ ણે નિષ્કર્ષાર્થ છે. સમક્ષેત્રી નક્ષત્ર ૧૫ डाय छे. तेभना नामी प्रमाणे -१९], निष्ठा, पूर्वाभाद्रपा, ३ती, अश्विनी, કૃત્રિકા, મૃગશિરા, પુષ્ય, મઘા, પૂર્વાફાલ્ગની, હસ્ત, ચિત્રા, અનુરાધા, મૂલ અને પૂર્વાષાઢા જે નક્ષત્ર અહોરાત્ર પ્રમિત ક્ષેત્રના અર્ધગને ચન્દ્રની સાથે પ્રાપ્ત કરે છે. તે નક્ષત્ર પદ્ધક્ષેત્રી છે. અર્ધક્ષેત્ર જે નક્ષત્રોનું હોય છે તે અર્ધક્ષેત્રી નક્ષત્ર છે. એજ આને નિકર્ષાર્થ છે. એ અર્ધક્ષેત્ર નક્ષત્ર ૬ છે. તેમના નામે આ પ્રમાણે છે-શતભિષક, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् तानि द्वयर्थान्यपि नक्षत्राणि षट् तद्यथा-उत्तरभाद्रपद उत्तरफल्गुनी उत्तराषाढा रोहिणी पुन: वसुः विशाखा चेति । तदत्र सीमापरिमाणाचारे अहोरात्रः सप्तषष्टी भागी ततः परिकरूप्यते इति समक्षेत्राणां सर्वेषां नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टि भागाः परिकल्प्यन्ते, अर्द्धक्षेत्रणां नक्षत्राणां तु त्रयस्त्रिंशदर्द्धश्च, द्वय क्षेत्राणां नक्षत्राणाम् एशरमर्द्धश्च, अभिनिनक्षत्रस्य तु एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, समक्षेत्राणि नक्षत्राणि पश्चदश इति सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गु. ण्यते तदा सहस्र पश्चोत्तरं १००५ भाति, अर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणि पडि ति सार्दाः त्रयस्त्रिं. शत् षड्भिर्गुण्यते तदा भाति एकमधिकं द्विशतम् । द्वयर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणि षट् ततः ५६ शतमद्धश्च षडूभिर्गुणितं जातानि षट्शतानि व्युत्तराणि ६०३. अभिनिनक्षत्राविंशतिः, सर्व संख्यया जातानि अष्टादराशतानि त्रिंशदधिकानि १८३० । एतावद्भागपरिमाणमेकद्वितीय अर्ध जिन नक्षत्रों का होता है वे दद्य नक्षत्र हैं-ये भी छह हैं-इनके नाम इस प्रकार से हैं- उत्ता भाद्रपदा, उत्तर फाल्गुनी उत्तराषाढा, रोहिणी, पुनर्वसु और विशाखा इन सीमा परिमाण विचार में अहोरात ६७ भागोवाला परिकल्पित किया गया है इसलिये समक्षेत्री जितने भी नक्षत्र हैं वे प्रत्येक प्रत्येक ६७ भागों वाले परिकल्पित किये गये हैं । अर्धक्षेत्री जो नक्षत्र हैं वे सब हर एक ३३।।-३३॥ भागों वाले परिकल्पित किये गये हैं व्यर्ध क्षेत्री जो नक्षत्र हैं उनके १००॥ भाग प्रत्येक के कल्पित किये गये है परन्तु अभिजित नक्षत्र के तो भाग कल्पित किये गये हैं समक्षेत्री नक्षत्र १५ है इसलिये ६७ से १५ गुणित होने पर १०७५ होते हैं अर्ध क्षेत्री नक्षत्र छह हैं इसलिये ३३॥ को ६ से गुणित करने पर एक अधिक दो सौ होते हैं द्वयर्ध क्षेत्री नक्षत्र ६ है १००॥ को छसे गुणित होने पर ६.३ होते हैं अभिजित नक्षत्र २१ भागों वाला कल्पित किया गया हैं इन सब भागों का जोड १८३० होता है। ભરણ, આદ્ર, અશ્લેષા, સ્વાતિ અને જયેષ્ઠા તેમજ દ્વિતીય અર્થ જે નક્ષત્રોનું હોય છે. દ્વર્ય નક્ષત્રે છે. દ્રય નક્ષત્રે પણ ૬ છે. તેમના નામ આ પ્રમાણે છે–ઉત્તરભાદ્રપદા, ઉત્તરફાગુની, ઉત્તરાષાઢા, રોહિણી, પુનર્વસુ અને વિશાખા આ સીમાં પરિણામ વિચારમાં અહેરાત ૬૭ ભાગોવાળ પરિકપિત કરવામાં આવેલ છે. એથી સમક્ષેત્રી જેટલા પણ નક્ષત્ર છે તેમાંથી દરેક ૬૭ ભાગવાળા પરિકલ્પિત કરવામાં આવેલા છે. અર્ધોત્રી જે નક્ષત્રે છે તેઓ સર્વેમાંથી દરેક ૩૩-૩યા ભગવાળા પરિકપિત કરવામાં આવેલા છે. હય ક્ષેત્રી જે નક્ષત્ર છે તેમના ૧૦૦ ભાગ દરેકના પરિકર્ષિત કરવામાં આવેલા છે. પરંતુ અભિજિત નક્ષત્રના તે ૨૪ ભાગ જ કપિત કરવામાં આવેલા છે. સમક્ષેત્રી નક્ષત્રે ૧૫ છે. એટલા માટે ૬૭ થી ૧૫ ગુણિત કરવાથી ૧૦૦૫ હેય છે. અર્ધક્ષેત્રી નક્ષત્ર ૬ છે. એટલા માટે ૩૩ ને ૬ થી ગુણિત કરવાથી એક અધિક બસે થાય છે. કય ક્ષેત્ર નક્ષત્ર ૬ છે, ૧૦ ને ૬ સાથે ગુણિત કરવાથી ૬૦૩ થાય છે. અભિજિત Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जम्बूद्वीपप्रतिस्त्र मण्डलम्, एतावत्प्रमाणकमेव द्वितीयमपि मण्डलमिति त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि, तानि च यदि द्वाभ्यां गुणपते तदा जातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्टयधिकानि ३६६० एकैक स्मिन रात्रिदिक्षसे त्रिंशन्ह भवन्तीति प्रत्येकमेतेषु षष्ट्यधिक षट् त्रिंशत् संख्यया गुण्यन्ते तदा भवति लौकमष्टानबति शतानि १०९८० ० । तदनेन क्रमेण मण्डलस्य परिच्छेद. परिमाणं कथितमिति । ननु यानि यानि नक्षत्रानि यन्मण्डलस्थायीनि तेषा नक्षत्राणां तन्मण्डलेषु चन्द्रादि योगयोग्यमण्डलभागस्थापनं युक्तिमत्वात् श्रद्धेयम् नतु सर्वेष्वपि मण्डलेषु सर्वेषा नक्षत्राणां भागकल्पनं युक्तमिति चेदत्रोच्यते नहि नक्षत्रां चन्द्रादिभिः सह सम्बन्धो नियते दिने नियते देशे नियते काले वा भवति, किन्तु अनियते दिनेऽनियते देशेऽनियते इतने भागरूप परिमाण वाला एक मण्डल होता है द्वितीय मंडल भी इतने ही भाग रूप परिमाण वाला होता है दोनों मंडलो के भागों का जोड ३६६० होता है एक २ रात्रि दिवस में ३० मुहर्त होते हैं तब ३६६० संख्यक भागों में से प्रत्येक मे ३० भाग की कल्पना करने पर ३६६० में ३० का गुणा करने से १०९८०० सब भाग होते हैं इस क्रम से मंडल का परिच्छेद परिमाण कहा है। शंका-जो जो नक्षत्र जिन जिन मंडलों पर स्थायी है उन उन नक्षत्रों का उन मंडलों पर चन्द्रादि योग योग्य मण्डल भागों की स्थापना युक्तिमतू होने से श्रद्धेय है पर समस्त मण्डलों में समस्त नक्षत्रों के भागकी कल्पना युक्तिमत् नहीं हैं ? तो इस शङ्का का समाधान ऐसा है-नक्षत्र का चन्द्रादिकों के साथ सम्बन्ध नियतदिन में नियत देश मे या नियत कालमें तो होता नहीं है किन्तु अनियत दिन में अनियत देश में या अनियत काल में होता है इस कारण उन उन मंडलों में उन उन नक्षत्र संबंधी जो सीमाविष्कम्भ है उसमें નક્ષત્ર ૨૧ ભાગેવાળું કપિત કરવામાં આવેલું છે. આ બધા ભાગોને સરવાળે ૧૮૩૦ હોય છે. આટલા ભાગરૂપ પરિમાણવાળું એક મંડળ હેય છે. દ્રિતીયમંડળ પણ આટલા જ ભાગરૂપ પરિમાણવાળું હોય છે. બન્ને મંડળોના ભાગોને સરવાળે ૩૬૬૦ થાય છે. એક–એક રાત્રિ દિવસમાં ૩૦ મુહૂર્ત હોય છે, ત્યારે ૩૬ ૬૦ સંખ્યક ભાગમાંથી દરેકમાં ૩૦ ભાગની કલ્પના કરવાથી ૩૬૬૦ માં ૩૦ ને ગુણિત કરવાથી ૧૦૯૦૦૦ બધા ભાગો થાય છે. આ ક્રમથી મંડળનું પરિછેદ પરિમાણ કહેવામાં આવેલ છે. ४-२-२ नक्षत्र 2-2 भयो ५२ स्थायी छे ते ते नक्षत्राना ते मो ९५२ ચન્દ્રાદિગ 5 મંડળ ભાગની સ્થાપના યુક્તિમત હોવાથી શ્રદ્ધેય છે, પરંતુ સમસ્ત મંડળોમાં સમસ્ત નક્ષત્રના ભાગની કલ્પના યુક્તિમતું નથી ? તે આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે-નક્ષત્રને ચન્દ્રાદિકની સાથે લેબ નિયત દિવસમાં નિયત દેશમાં અથવા નિયત કાળમાં થતું નથી પરંતુ અનિયત દિવસમાં, અનિયત દેશમાં અથવા અનિયત કાળમાં થાય છે. આથી તે તે મંડળોમાં તેમજ તે તે નક્ષત્ર સંબંધી જે સીમા વિર્ષાભ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ प्रकाशिका कीटा-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् काले, तेन तत्तन्मण्डलेषु तत्तन्नक्षत्रसंबन्धि सीमा विष्कम्भे चन्द्रादि प्राप्तौ सत्यां योगः संपद्यते इति मण्ड लच्छेदश्च सीमा विष्कम्भादौ सप्तयोजनो भवतीति ॥ _____ सम्प्रति सूर्यस्य भागात्मिकां गतिं प्रश्नयितुमाह-'एगमेगेणं' इत्यादि। 'एगमेगेणं भंते ! मुहुनेणं' एकैककेन खलु भदन्त ! मुहर्तेन 'सूरिए' सूर्यः 'केवइयाई भागसयाई गच्छइ' कियन्ति भागशतानि गच्छति, हे भदन्त ! सूर्यः एकेन मुहूर्तेन कियन्ति भागशतानि गच्छतीति प्रश्नः, 'भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' यद् यन्मण्डलमुपसंक्रम्य-संप्राप्य चारं गतिं चरति-करोति 'तस्स तस्स मंडलपरिवखेस्स' तस्य तस्य मण्डलपरिक्षेपस्य 'अट्ठारसतीसे भागसए गच्छइ' अष्टादश त्रिंशद्भागशतानि गच्छति त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि गच्छतीत्यर्थः 'मंडलं सय सहस्से हिं' मण्डलं शतसहस्त्रैः लक्षैकसंख्याभिरित्यर्थः 'अट्ठाणउईएय सएहिं छेत्ता' अष्टानवति शतैश्च छित्त्वा-विभागं कृत्वा गच्छतीति, कथमेवं भवतीति चेदत्रोच्यते त्रैराशिककरणात, तथाहि-पष्टिमुहूर्ते रेक शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यन्ते, तदा एकेनचन्द्रादिकी प्राप्ति होने पर योग बन जाता है और मण्डलच्छेद सीमा विष्कम्भादि में सात योजन का होता है ____ अब गौतमस्वामी सूर्य की भागात्मिक गति के सम्बन्ध में (एगमेगेणं सरिए केवइयाइं भागसयाइं गच्छद) हे भदन्त ! एक मुहूर्त में सूर्य कितने सौ भाग तक जाता है ? ऐसा पूछ रहे हैं इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स मंडलपक्खेवस्स अट्ठारस तीसे भागसए गच्छइ) हे गौतम ! सूर्य जिस जिप्त मंडल को प्राप्त करके अपनी गति करता है वह उस उस मंडल परिक्षेप के १८३० भाग तक गति करता है। यहां मंडलों के १ लाख ९८०० भागों को विभक्त करके वह सूर्य इतने भाग तक जाता है-गति करता है ऐसा समझना चाहिये उसका भाव ऐसा है कि ६० मुहूर्तों द्वारा १०९८०० मंडल भाग प्राप्त होते हैं तो एक मुहूर्त के द्वारा किनने मंडल भाग છે તેમાં ચન્દ્રાદિની પ્રાપ્તિ થવાથી યેશ બની જાય છે. અને મંડળછેટ સીમા વિષ્કભાદિમાં સાત જન જેટલું હોય છે. व गौतमस्वामी सूर्यनी भाभि तिना समयमा प्रश्न ४२ छ- 'एगमेगेणं सूरिए केवइयाई भागसयाई गच्छई' हे महत ! ४ भुतभा सूर्य सेमा सुधी तय छ ? मेना 14 प्रभु ३ -'गोयमा जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्रारस तीसे भागसए गच्छइ' 3 गौतम! सूर्य २२ भजन પ્રાપ્ત કરીને પોતાની ગતિ કરે છે તે તત્ તત્ મંડળ પરિક્ષેપના ૧૮૩૦ ભાગે સુધી ગતિ કરે છે. અહીં મંડળોના ૧ લાખ ૯ હજા૨ ૮સે ભાગને વિભક્ત કરીને તે સૂર્ય આટલા ભાગ સુધી જાય છે-ગતિ કરે છે. આમ સમજવું જોઈએ. આને ભાવ આ પ્રમાણે છે કે ૬ મુહર્તા ज० २९ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२६ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे मुहूर्त्तेन कविभागान् लभते, तत्र राशित्रयस्थापना इत्थम् - ६० / १०९८०० / १ / अत्र चरमेनैकलक्षणेन राशिना यदा मध्यस्थ १०९८०० राशे र्गुणनं क्रियते तदा तदेव भवति 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति नियमात् तदा एकेन गुणितस्य मध्यमराशे राधेन पष्टिलक्षणराशिना भागो ह्रियते तदा लब्धानि अष्टादशशतानि त्रिंशदुत्तराणि १८३०, एतावतो भागान एकस्य मण्डलस्य सूर्य एकेन मुहूर्तेन गच्छतीति ॥ सम्प्रति नक्षत्राणां भागात्विकां गतिं प्रश्न येतुमाह-' एगमेगेणं मंते' इत्यादि, 'एगमेगेणं भंते! मुहुत्तेणं णक्खते' एकैकेन खलु भदन्त ! मुहूर्तेन नक्षत्रम् 'केवइयाई भागसयाई गच्छर' कियन्ति - कियत्संख्यकानि भागशतानि गच्छति, हे भदन्त ! नक्षत्र मेकेन मुहूर्त्तेन मण्डलस्य कियत्संख्यकानि भागशतानि गच्छतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जं जं मंडलं उरकमित्ता चारं चाइ' यद् यन्मण्डलमुपसंक्रम्य-संप्राप्य नक्षत्रं प्राप्त होंगे तो इस बात को जानने के लिए यहां पर त्रैराशिक करना चाहियेइस विधि में तीन राशियों की स्थापना इस प्रकार से करनी होती है-६०१०९०००-१ अब यहां अन्तिम राशि १ के द्वारा मध्यकी राशि जो १०९८०० है उसे गुणित करने पर १०९८०० ही आते हैं क्यों कि १ से गुणित हुई राशि में कोई संख्या परिवर्तित नहीं होती है ऐसा नियम है। फिर अन्तिम राशि से गुणित हुई मध्य की राशि में ६० का भाग देना चाहिये । तब १८३० लब्ध होते हैं इस तरह सूर्य एक मुहूर्त में एक मंडल के १८३० भागों तक जाता है। अब गौतमस्वामी नक्षत्रों को भगात्मिक गति को जानने के लिये प्रभु से 'एग मे गेणं भंते! मुहणं णखते केवइयाई भागसयाई' ऐसा पूछते हैं कि हे भरन्त ! नक्षत्र १ मुहूर्त्त में मण्डल के किनने सौ भागों तक जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोमा ! जं जं मंडल उपसंकमित्ता चारं वरह- तस्स २ मंडलपरिक्खेयस्स ६. વડે ૧૦૯૮૦૦ મંડળ ભ ગેા પ્રાપ્ત થાય છે. તેા એક મુર્હુત વડે કેટલા મડળ ભાગ પ્રાપ્ત થશે ? તે એ વાતને જાગુત્રા માટે અડી Àરાશિ કરવી જોઇએ. આવિધિમાં ત્રઝુ રશિયાની સ્થાપના આ પ્રમાણે કરવી પડે છે. ૬૦/૧૦૯૮૦૦૦/૧ હવે અહીં અ ંતિમ રાશિ ૧ વડે મધ્યની રાશિ જે ૧૦૯૮૦૦૦ છે તેને ગુણત કરવી ૧૦૯૮૦૦૦ સખ્યા આવે છે. કેમકે ૧ થી ગુણિત યેલી સખ્યામાં કાઇ પણ જાતનું પરિવર્તન થતુ નથી. પછી અંતિમ રાશિથી ગુણિત થયેલી મધ્યની રાશિમાં ૬૦ ને ભાગાકાર કરવા જોઇએ. તેનાથી ૧૮૩૦ લખ્ય था। छे. આ પ્રમાણે સૂર્ય એક મુહૂર્તમાં એક મંડળના ૧૮૩૦ ભાગા સુધી જાય છે. હવે ગૌતમસ્વામી નક્ષત્રો ભગાત્મિક, ગતિને જાણવા માટે પ્રભુને ‘[• ! ते क्खते केवइयाए भागस्य ई वी रीते प्रश्न ४२ ४ } हे लढत ! નક્ષત્ર એક મુર્હુતમાં મ`ડળના કેટલા સે। ભાગા સુધી ગતિ કરે છે? એના જવાખમાં प्रभु उडे छे - 'गोयमा ! जं जं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ तरस तरस मंडलपरिक्खेवरस Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सु. १५ नक्षत्राधिकार निरूपणम् ३३७ चारम् - गतिं चरति - करोति ' तस्स तस्स मंडलारिक वेवस्स अड्डारसपणती से भागसए गच्छ३' तस्य तस्य मण्डल परिक्षेपस्य मण्डलपरिवेरित्यर्थः अष्टादश पञ्चत्रिंशत् पञ्चत्रिंशदधिकानि अष्टदशभः शतानि गच्छतीति 'मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउईए य सएहिं छेत्ता' मण्डलं शतसहस्रेष्टा नवत्या च शतै चित्वा-छेदं कृत्वा । अत्रापि खलु एवं राशित्रयस्थापना- १८३०/१८३० / २ / अत्र चरमेण द्विलक्षणराशिना मध्यस्य १८३५ राशेर्यदागुणनं क्रियते तदा भवति षट् त्रिंशच्छतानि षष्ट्यविनि ३६६०, ततचरमराशिना गुणि तस्य मध्यमराशेः ३६६० लक्षणस्य, आद्येन १८३५ एतल्लक्षणेन राशिना भागे कृते लब्धं भवति एकं रात्रिं दिवम् १, ततः शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टादशशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १८२५ | तदनन्तरं मुहूर्त्तानयनार्थ मेतानि त्रिशत्संख्यया गुण्यन्ते, ततो जातानि चतुः पञ्चाशत् सहस्राणि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि ५४७५०, तेषामष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकै र्भागे हृते सति लब्धा एकोनत्रिंशमुहर्त्ताः, ततश्चेद्यछेदकराश्योः पञ्च केनापवर्तना, ततो जातः उपरितनो राशि:, त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि ३०७-छेदकराशिः - त्रीणि शतानि अट्ठारसरणती से भागतए गच्छई' हे गोतन ! नक्षत्र जिस २ मंडल को प्राप्त करके अपनी गति करता है वह उस उस मंडल परिक्षेत्र के १८३५ भागों तक जाता है 'मंडलं सयसहस्त्रेणं अडाणउईए य सएहिं छेत्ता' यहां जो एक मंडल के १८३५ भाग कहे गये हैं वे समस्त मंडलों के १ लाख ९८०० भागों को विभक्त करके कहे गये हैं यहां पर भी राशित्रय की स्थापना करनी चाहिये जो इस प्रकार से होगी १८३५ - १८३० - २ - अब अन्तिमराशिरूप दो से मध्यकी राशिरूप १८३० को गुणित करने पर ३६६० होते हैं इन में १८३५ का भाग देने पर १ दिन रात लब्ध होता है और शेष स्थान में १८२५ बचते हैं इनमें मुहूर्त लाने के लिये ३० का गुणा करने पर ५४७५० मुहूर्त आते हैं इन में १८३० का भाग देने पर २९ मुहूर्त आते हैं फिर छे और छेदक राशि में ५ से अपवर्तनकी अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छइ' हे गौतम ! नक्षत्र ने ने मंडजने प्राप्त गरीने पोतानी गति ४३ छे ते तत् तत् भज परिशेषता १८३५ लोगो सुधी गति ४रे छे. 'मंडलं यस हस्सेणं अट्ठाण उईए य सएहिं छेत्ता' यहीं ने थोड मंडजना १८३५ लोगो કહેવામાં આવેલા છે તે સમસ્ત મંડળના ૧ લાખ ૯ હજાર ૮ સેા ભાગાને વિભક્ત કરીને કહેવામાં આવેલા છે. અહીં પણ રાશિત્રયની સ્થાપના કરવી જોઇએ. તે આ પ્રમાણે થશે. ૧૮૩૫/૧૮૩૦/ર હુવે અંતિમ રાશિરૂપ એની સાથે મધ્યની રાશિ ૧૮૩૦ ને ગુણિત કરવાથી ૩૬૦ થાય છે. આમાં ૧૮૩૫ના ભાગાકાર કરવાથી ૧ દિવસ-રાત લબ્ધ થાય છે અને શેષ સ્થાનમાં ૧૮૨૫ અવશિષ્ટ રહે છે. આમાં મુહૂર્ત લાવવા માટે ૩૦ની સાથે ગુણિત કરવાથી ૫૪૭૫૦ મુહૂર્ત આવે છે. આમાં ૧૮૩૦ના ભાગાકાર કરવાથી ર૯ મુહૂર્તો આવે છે, પછી છેવ અને એઇકરાશિમાં ૫ ની સાથે અપવ ના કર. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ . अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सप्तषप्ट थधिकानि ३३७-तत् आगतमेकं रात्रिदिवम्, एकस्य बाहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तषष्टयधिकत्रिशतभागानां त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि १२९३० इति। सम्प्रति-एतदनुसारेण मुहर्तगतिपरिमाणं विचार्य ते तत्र रात्रिंदिवे त्रिंशमुहूर्ताः ३० भवन्ति, तेषु उपरित । एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, तदा जाता एकोनषष्टिः मुहूर्तानाम् ततः सा सवर्णनाथ त्रिभिः शतैः पष्टयधिकैः गुण्य ते गुणयित्वा चोपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते तदा जातानि एकविंशतिः सहस्राणि नवशतानि षष्टयधिकानि २१९६० । तदनन्तरं त्रैराशिकम् यदि मुहूर्तगतसप्तपष्टयधिकभागानामे कविंशत्या सहस्रनवभिः शतैः षष्ट्यधिकैः एकशासहस्रमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लब्धानि भवन्ति तदा एकेन मुह सेन किं लब्धं भवेत् तत्रेयं शशित्रयस्थापना २१९६०/०९८००/ १/ अत्राघो राशिः मुहूर्तगतसप्तपष्टयधिकत्रिशत भागरूप स्ततोऽन्त्योऽपि राशिः त्रिमिः तो उपरितन राशि छेद्य राशि-३०७ और छेदक राशि ३६७ होती है इससे १ रात दिन आजाता है एक अहोरात के ३० मुहूर्त होते हैं एक मुहर्त के ३६७ भागों के १३ भाग प्राप्त होते हैं । अव इसो के अनुसार मुहूर्त गति के परिमाण का विचार किया जाता है-रात दिन के ३० मुहूर्तो में ऊपरके २९ मुहर्त प्रक्षिप्त करने पर ५९ मुहूर्त हो जाते हैं इनमें ३६० का गुणा करने पर सब मुहूतों का परिमाण निकलता है इन में ३६७ जोड देने पर सब मुहर्मों की संख्या २१९६० आजाती है फिर त्रैराशिक विधि के अनुसार “यदि मुहूर्त गत ६७ भागों के २१९६० भागों के द्वारा १०९८०० मंडल प्राप्त होते हैं तो एक मुहूर्त में वे कितने प्राप्त होंगे" इस प्रकार पूछन पर यहाँ राशि तय की स्थापना इस प्रकार से करना चाहिये-२१९६०-१०९८००-१ यहां आदि राशि मुहर्त गत ३६७ रूप है इस राशिका अन्तिमराशिरूप जो १ है उसके साथ गुणा करने पर ३६७ ही વામાં આવે તે ઉપરિતનરાશિ ધરાશિ ૩૦૭ અને છેદક ૩૬૭ થાય છે. આનાથી ૧ રાત-દિવસ આવી જાય છે. એક અારતના ૩૦ મુહૂર્તી હોય છે. એક મુહૂર્તના ૩૬૭ ભાગને ૧૭ ભાગે પ્રાપ્ત થાય છે. હવે એ મુજબ જ મુહૂર્ત ગતિના પરિમાણ વિશે વિચાર કરવામાં આવે તે રાત-દિવસના ૩૦ મુહુમાં ઉપરના ૨૯ મુહુર્તી પ્રક્ષિપ્ત કરવાથી ૫૯ મુહૂર્તો થઈ જાય છે. આમાં ૩૬૦ ની સાથે ગુણિત કરવાથી બધા મુહૂર્તોનું પરિમાણ નીકળી આવે છે. આમાં ૩૬૭ જેડવાથી બધા મુહૂર્તોની સંખ્યા ૨૧૯૬૦ આવી જાય છે. પછી રાશિક વિધિ મુજબ જે મુહૂતગત ૬૭ ભાગોના ૨૧૬૦ ભાગ વડે ૧૦૯૮૦૦ મંડળ ભાગે પ્રાપ્ત થાય છે તે એક મુહૂર્તમાં તેઓ કેટલા પ્રાપ્ત થશે? આ રીતે પ્રશ્ન કરવાથી અહીં રાશિત્રયની સ્થાપન આ પ્રમાણે કરવી જોઈએ. ૨૧૯૬૦/૧૦૯૮૦૦/૧ અહીં આદિ રાશિ મુહુ ગત ૩૬૭ રૂપ છે. આ રાશિનું અંતિમ રાશિરૂપ જે ૧ છે તેની સાથે ગુણિત કરવાથી ૩૬૭ આવે છે. હવે આ ૩૬૭ રાશિ વડે Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १५ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् शतैः सप्तषष्ठयधिकानि ३६७ तैमध्यः १८९८८०, एकलक्षोऽष्टानवति योजन लक्षणो राशि गुण्यते तदा चतस्रः कोटो द्वौ लक्षौ षण्णवतिः सहस्राणि षट्शतानि ४०२९६६.० एतेषा माघेन राशिना एकविंशतिसहस्राणि नवशतानि पष्टयधिकानि इत्येवं भागो हियते तदा लब्धानि अष्टादश शनानि पश्चत्रिंशदधिकानि १८३५, एतावतो भागान् योजनस्य प्रतिमुहूर्त नक्षत्रं गच्छतीति । इदञ्च भागात्मक गतिविचारणं चन्द्रसूर्यनक्षत्रत्रयाणां यथोत्तरं गतिशीघ्रत्वे सायो ननं भवति तथाहि-सोभ्यः शीघ्रगतिकानि नक्षत्राणि भवन्ति मण्डलयोक्तभागीकृतस्य पश्चत्रिंशदाधिकाप्टदशशतभागाना मेकै कस्मिन् मुहूर्त आक्रमणात् नक्षत्रापेक्षया मन्दगतयः चन्द्रापेक्षया शीघ्रगतयः सूर्या भवन्ति, एकैकस्मिन् मुहूर्ते त्रिंशदधिकाष्टादशशतभागानामेव सूर्येणाक्रमणात् सूर्यापेक्षयाऽपि मन्दगतय श्चन्द्रा भवन्ति, एकै कस्मिन् मुहूर्ते अष्टषष्टयधिक सप्तशतभागानामेव चन्दैराकमणात् । भौमादिग्रहास्तु वक्रानुवक्र दिगते भावतोऽनिस्तगतिकाः तस्मात् कारणात् न तेषां ग्रहाणां मण्डलादि आते हैं। अब इस ३६७ राशि द्वारा १०९८०० राशि को गुणित किये जाने पर ४०२९६६०० राशि आजाती है इस राशि में २१९६० का भाग देने पर १८३५ भाग आते हैं। इनने एक योजन के भागों तक नक्षत्र प्रति मुहर्त में जाता है इस प्रकार से यह भागात्मक गति का विचार चन्द्र सूर्य और नक्षत्र इन तीनों की शीघ्रगति की विचारणा में प्रयोजन सहित है जैसे सर्व से शीघ्र गति वाले नक्षत्र हैं क्योंकि वे उक्त भागीकृन मंडल के १८३५ भागों तक एक मुहूर्त में गति करते हैं। नक्षत्रों की अपेक्षा मन्द गतिवाले तथा चन्द्र की अपेक्षा शीघ्र गतिवाले सूर्य हैं क्योंकि वे एक एक मुहूर्त में मंडल के १८३० भागों तक गति करते हैं सूर्य की अपेक्षा मन्द गति वाले चन्द्र हैं क्योंकि वे एक एक मुहर्त में मंडल के ७६८ भाग तक ही गति कर पाते हैं। भौम आदि जो ग्रह हैं ये वक्रानु वक्रादि गति वाले होने के कारण अनियत गतिवाले होते हैं। इसीलिये उनके ૧૦૯૮૦૦૦ રાશિને ગુણિત કરવાથી ૪૦૨૯૬૬૦૦ રાશી આવી જાય છે. આ રાશિમાં ૨૧૯૬૦ નો ભાગ કરવાથી ૧૮૩૫ ભગ આવે છે. આટલા એક યોજનના ભાગો સુધી નક્ષત્ર પ્રતિ મુહૂર્તમાં જાય છે. આ પ્રમાણે આ ભાગાત્મક ગતિને વિચાર ચન્દ્ર સૂર્ય અને નક્ષત્ર એ ત્રણેની શીવ્ર ગતિની વિચારણામાં પ્રજન સહિત છે. જેમ બધાથી શીઘગામી નક્ષત્ર છે કેમકે તેઓ ઉક્ત ભાગીકૃતમંડળના ૧૮૩૫ ભાગો સુધી એક મુહૂર્તમાં ગતિ કરે છે. નક્ષત્રની અપેક્ષાએ મંદગતિવાળા તેમજ ચન્દ્રની અપેક્ષાએ શીવ્ર ગતિવાળા સૂર્યો છે. કેમકે તે બો એક-એક મુહૂર્તમાં મંડળના ૧૮૩૦ ભાગો સુધી ગતિ કરે છે. સૂર્યની અપેક્ષાએ મંદગતિવાળા ચંદ્ર છે કેમકે તેઓ એક મુહૂર્તમાં મંડળના ૭૬૮ ભાગે સુધી જ ગતિ કરવામાં સમર્થ છે. ભીમ વગેરે જે ગ્રહો છે તે વકાનુવક્રાદિ ગતિવાળા હોવાથી અનિયત ગતિવાળા હોય છે એથી તેમના સંબંધમાં Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. जम्मवीपमालिसा विचारः कृतो नवा गति प्ररूपगमेव कृतम्, तार काणामपि अवस्थितमण्डलकत्वात् चन्द्रादिभिः सह योगाभावचिन्तनाच न मण्डलादिप्ररूप कृतमिति पञ्चदशसूत्रम् ॥ सू० १५॥ सम्प्रति-सूर्यस्योदयास्तमयने अधिकृत्य बहवो मिथ्याभिनिविष्ट दृष्टयो विप्रतिपद्यन्ते तेषां तो विप्रतिपत्रां बुद्धिं व्यपोहितु प्रश्नमाह 'जंबुद्दीवे' इत्यादि । मूलम्-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईण दाहिशमागच्छंति १ पाईण दाहिणमुगच्छ दाहिण पडीणं आगच्छंति२ दाहिणपडीणमुग्गच्छ पड़ीण उदीणमागच्छंति ३ पडीण उदीणमुग्गच्छ उदीण पाईणमागच्छंति४, हंता गोयमा ! जहा पंचमसए पढमे उसे जाव णेवथि उस्सप्पिणी अवट्टिएणं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो ! इच्चेसा जंबुद्दीवपण्णत्ती सूरपण्णत्ती वत्थुसमासेणं संम्मत्तं भवइ, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे चंदिमा उदीगपाईणं उग्गच्छ पाईणदाहिण मागच्छंति जहा सूरवत्तव्वया जहा पंचमसयस्त दसमे उद्देसे जाव अवट्रिएणं तत्थ काले पन्नत्ते समजाउसो! इच्चेसा जंबुद्दीवपण्णत्ती वत्थु समासेणं संमत्ता भवइत्ति ॥सू० १६॥ छाया-जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सूयौं उदीचीन प्राचीन मुद्गत्य दक्षिणप्राचीन मागच्छतः १ प्राचीनदक्षिणाद्गत्य दक्षिणप्रतीचीनमागच्छतः २ दक्षिणप्रतीचीन मदगत्य प्रतीचीनोदीचीनमागच्छेतः ३, प्रतीचीनोदीचीनमुद्गत्योदीचीनप्राचीन मागच्छतः४, हन्त, गौतम ! यथा पञ्चमशतके प्रथमे उद्देशे यावन्नवास्ति उत्सर्पिणो खलु तत्र कालः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्न् ! इत्येषा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिः वस्तु समासेन समाप्तं भवति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे चन्द्रौ उदीचीनप्राचीन मुद्गत्य प्राचीनदक्षिणमागच्छतः यथा सूर्यवक्तव्यता यथा पञ्चमशतकस्य दशमे उदेशे यावदनवस्थितः खलु काल: प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन् ! इत्येषा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिः वस्तु समासेन समाप्तं भवति ॥ सू०१६ ॥ सम्बन्ध में मंडलादि का विचार करने में नहीं आया है । और न उनकी गति की ही प्ररूपणा की गई है । तथा जो तारक है वे अवस्थित मण्डलवाले हैं इसलिये और चन्द्रादिको के साथ इनके योग के अभाव का चिन्तन किया गया है इसलिये इनके भी मंडलादिको प्ररूपणा नहीं की गई है। ॥१५॥ મંડળદિને વિચાર કરવામાં આવ્યું નથી. તથા તેમની ગતિની પ્રરૂપણ પણ કરવામાં આવી નથી. તથા જે તારાઓ છે, તે અવસ્થિત મંડળવાળા છે. એથી અને ચન્દ્રાદિકની સાથે એમના ગના અભાવનું ચિંતન કરવામાં આવ્યું છે. એથી એમના મંડળાદિકનું પણ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું નથી. સૂ૦ ૧પા Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् २३१ टोका-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सरिया' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सूर्यो प्राकृते द्विवचनाभावाद् बहुवचनप्रयोगः 'उदीणपाईण उग्गच्छ' उदी चीनप्राची। मुद्गत्य अत्र उदगेव उदी चीनम् उदीच्या सह प्रत्यासम्नत्वात् प्राचीनं च प्राच्यादिशया प्रत्यासन्नत्वात् उदीचीनप्राचीनं दिगन्तरं क्षेत्रदिगपेक्षया उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे इत्यर्थः उद्गत्य पूर्व विदेहक्षेत्रापेक्षयोदयं प्राप्य 'पाईणदाहिणं आगच्छति' प्राचीन दक्षिणमाच्छतः प्राचीन दक्षिणे दिगन्तरे पूर्वदक्षिणस्याम् आग्नेयकोणे इत्यर्थः आगत:-क्रमेणास्तं गच्छतः किमि त्यर्थः, अयं भावः- त्र खलु उद्गम नमस्तमयनं चन्द्रदृष्टपुरुषविरक्षया ज्ञातव्यम्, तथाहियेषां पुरुषागाम दृश्यो सन्तौ तौ सयौं दृश्यौ भवेताम् ते पुरुषा स्तयोः सूर्ययोरुदयं व्यहरन्ति, येषांतु पुरुषाणां दृश्यौ तौ अदृश्यो भवेतां ते पुरुषारतयोः सूर्ययोरस्तमयनं व्यवहरन्तीति सूर्य के उदय और अस्तको लेकर अन्य कितनेक मिथ्याभिनिवेश वाले जन विरुद्ध प्ररूपणा करते हैं अतः उस विरुद्ध प्ररूपणा को ध्वस्त करने के लिये सूत्रकार १६ वें सूत्रमा कथन कर रहे हैं "जंबुद्दीवेणं ते ! दीवे सूरिया उदीण पाईण मुग्गच्छ' इत्यादि टीकार्थ-इस में गौतमस्वामी ने प्रभुसे ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में दो ' सूर्य 'उदोणपाईणं उग्गच्छ' ईशान दिशा में उदित होकर -पूर्व विदेह क्षेत्र की अपेक्षा उदय को प्राप्त होकर 'पाईण दाहिणं आग छति' अग्नेय कोण में आते हैं क्या ? क्रमशः अस्त होते हैं क्या? तात्पर्य यह है कि उदय और अस्त दृष्टा पुरुषो की अपेक्षा जानना चाहिये इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है-जिन पुरुषों को अदृश्य हुए वे सूर्य दृश्य हो जाते हैं સૂર્યના ઉદય તેમજ અસ્તને લઈને બીજા કેટલાક મિથ્યાભિનિવેશવાળા લોકો વિરુદ્ધ પ્રરૂપણ કરે છે, એથી તે વિરુદ્ધ પ્રરૂપણને ધાસ્ત કરવા માટે સૂત્રકાર ૧૬ મા સૂત્રનું ४थन ४२ छ-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया उदीण पाईण मुग्गच्छ' इत्यादि ટીકાળું—આ માં ગૌતમસામીએ પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે. હે ભદંત ! આ दी५ नाम दीपम मे सूर्या 'उदीणपाईणं उग्गच्छ' शान हिशामा महत थ७२-विहेड क्षेत्रनी अपेक्षाये हयने प्रास ५४ने 'पाईणदाहिणं आगच्छंति' शु આગ્નેય કાણમાં આવે છે? શું કમશઃ અરત થાય છે ? આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઉદય અને અસ્ત દષ્ટા પુરુષોની અપેક્ષાએ જણવા જોઈએ. આનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે-જે પુરુષને અદશ્ય થયેલા તે સૂર્યો દશ્યમાન થઈ જાય છે. તે પુરુષે । 'प्राकृत में द्विवचन नहीं होता है इसलिये मूल में 'सूरिया' ऐसे बहुवचनका प्रयोग किया गया है। १ प्रतिभा द्विवयन नथी, मेथी भूभा 'सूरिया' २॥ प्रमाणे मधुपयनन। प्रयोग કરવામાં આવેલ છે. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ 1 जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे उदयास्तमयने अनियते एवेति । सर्वत्र काकुपाठात् प्रश्नोऽवगन्तव्यः, ततो भरतादि क्षेत्रा पेक्षया पूर्वदक्षिणस्या मुदयं प्राप्य दक्षिण प्रतीच्य मस्तं गच्छतः तत्रापि दक्षिणप्रतीच्यामपरविदेह क्षेत्रापेक्षयोदयं प्राप्य प्रतीचीनोदीचीने वायव्यकोणे आगच्छतः 'उदोणपाईणमागच्छति' उदीचीनप्राचीनमागच्छतः तत्रापि च वायव्यकोणे एखतादि क्षेत्र पेक्षया उद्गत्योदीचीनप्राचीने इशानकोणे आगच्छतः किम्, एवंप्रकारेण सामान्यतो द्वयोः सूर्ययो रुदयविधिः प्रतिपादितः, विशेषतः पुनरेवं यदा एक सूर्य आग्नेयकोणे उद्गच्छति तत्र समुदित भरतादीनि मेरुपर्वत दक्षिणदिगुवर्त्तनि क्षेत्राणि प्रकाशयति तदा परोऽपि सूर्यो वायव्यकोणे समुदितो मन्दरवतोत्तर दिग्वत्तनि ऐरखतादीनि क्षेत्राणि प्रकाशयति भारतश्च वे पुरुष उन सूर्यो में उदय होनेका व्यवहार करते हैं और जिन पुरुषों को दृश्य हुए वे सूर्य अदृश्य हो जाते हैं वे उन में अस्त होनेका व्यव हार करते हैं इस कारण उदय अस्त यह व्यवहार अनियत ही है यहां सूत्र में काकु के पाठ से प्रश्न का निर्धारण करलेना चाहिये भरत आदि क्षेत्र की अपेक्षा पूर्व दक्षिण कोण में उदय को प्राप्त होकर वे दो सूर्य दक्षिण पश्चिम कोण में अस्त होते हैं ? अपर विदेह क्षेत्र की अपेक्षा दक्षिण पश्चिम कोण में उदय को प्राप्त करके वे दोनो सूर्य पूर्व उत्तर दिग्कोण में वायव्य कोण में अस्त होते हैं ? 'उदीण पाइण मागच्छति' ऐरवनादिक्षेत्र की अपेक्षा वायव्यकोण में उदय को प्राप्तकर ईशानकोण में अस्त होते हैं ? इस प्रकार सामान्यरूप से दो सूर्यो की उदय विधि प्रतिपादित की अब विशेष रूप से यह इस प्रकार से हैं-जब एक सूर्य आग्नेय कोण में उदित होता है तब वह मेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में रहे हुए भरतादिक्षेत्रों को प्रकाशित करता है उस समय दूसरा सूर्य वायव्यकोण में उदित होकर मन्दरपूर्ष की उत्तर दिशा में रहे हुए ऐरवतादि क्षेत्रों को प्रकाशित करता है । भरत क्षेत्र सम्बन्धी सूर्य मंडलभूमि તે સૂર્યોમાં ઉદય હોવા સબધી વ્યવહાર કરે છે અને જે પુરુષ!ને દૃશ્યમાન થયેલા તે સૂર્ય અદૃશ્ય થઈાય છે તે પુરુષો તેમનામાં અસ્ત હોવા સબંધી વ્યવહાર કરે છે. આથી ઉદય અને અસ્ત એ વ્યવહાર અનિયત જ છે. અહીં' સૂત્રમાં કાકુના પાઠથી પ્રશ્નનું નિર્ધારણ કરી લેવુ જોઈએ. ભરત વગેરે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પૂર્વ-દક્ષિણકણમાં ઉદયને પ્રાપ્ત કરી તેએ બે સૂર્યાં દક્ષિણ-પશ્ચિમ ણમાં અસ્ત થઈ ન્તય છે ? અપવિદેહ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ દક્ષિણ-પશ્ચિમકેણમાં ઉદિત થઈને તે અન્ને સૂર્ય પૂર્વ ઉત્તર કેણુમાં વાયવ્યકણમાં अस्त थ∫ लय छे ? 'उदीणपाईण मागच्छति' भैरवाहि क्षेत्रनी अपेक्षाओ વાયવ્યકેણુમાં ઉદયને પ્રાપ્ત કરીને ઇશનકેમાં અસ્ત પામે છે ? આ પ્રમાણે સામાન્ય રૂપમાં એ સૂર્યોની ઉદય વિધિ પ્રતિપાદિત કરી છે. હવે વિશેષ રૂપી તે આ પ્રમાણે છે. જ્યારે એક સૂર્ય આગ્નેય પણુમાં દિત થાય છે ત્યારે તે મેરુપર્વતની દક્ષિણદિશામાં આવેલા ભરતાદિ ક્ષેત્રને પ્રકાશત કરે છે. તે સમયે બીજો સૂક્ષ્મ વાયવ્યકેણમાં ઉદિત થઇને મ`દર્ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् २३३ सूर्यो मण्डलभ्राम्या भ्रमन् नैऋतकोणे उद्गतः सन् अपरमहाविदेहान् प्रकाशयति ऐरवतस्तु सूर्यः ईशान दिगविभागे समुद्गतः सन् पूर्व विदेहान् प्रकाशयति तदा अयं पूर्व विदेहप्रकाशकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां भरतादिक्षेत्रापेक्षयोदयं प्राप्नोति अपरविदेहप्रकाशस्तु सूर्यः अपरोत्तरस्यां दिशि ऐरवतादि क्षेत्र पेक्षयोदयति, अत्रैशान्यादि दिग्रव्यवहारो मन्दरपर्वतापेक्षया ज्ञातव्यः, अन्यथा भरतादिजनानां स्वस्व सूर्योदयदिशि पूर्वदिकत्वे आग्नेयकोणव्यवहारानुपपत्तेरिति प्रश्नः, भगबानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! अत्र हन्तेत्यव्ययं स्वीकारार्थे, तेन हे गौतम ! यत्त्वं यथा प्रश्नयसि तत् तथैवेति, एतावता च व सूर्यस्य तिर्यग गतिः कथिता ननु 'तत्थ रवीदसजोयण' इत्यादि गाथोक्तस्वस्थाना वंन प्यधः। तेन ये एवं मन्यन्ते -सूर्यः पश्चिमपमुद्रं प्रविश्य पातालमार्गेण गखा पुनः पूर्वसे भ्रमण करता हुआ नैऋत कोण में उद्त हो जाता है और अपर महाविदेहो को प्रकाशित करता है । तथा ऐरवत क्षेत्र सम्बन्धी सूर्य भ्रमण करता हुआ ईशानकोण में पहुंच जाता है वहां वह पूर्व विदेहों का प्रकाशित करने लगता है तब पूर्वविदेह का प्रकाशक यह सूर्य दक्षिण पूर्वदिशा के कोण में भरतादि क्षेत्रों की अपेक्षा उदय को प्राप्त होता है और अपरविदेह का प्रकाशक जो सूर्य है वह अपर उत्तर दिशाके कोने में ऐरवतादि क्षेत्रों की अपेक्षा उदय को प्राप्त होता है यहां ऐशान आदिरूप जो दिग्व्यवहार है वह मन्दर पर्वत की अपेक्षा से है ऐसा जानना चाहिये नहीं तो भरतादिजनों के अपने अपने सूर्योदय की दिशा में पूर्वदिक्त्व मानने पर अग्नेयकोण के व्यवहार का अभाष मानना पडेगा इस प्रकार के इन गौतमस्वामी के प्रश्नों के उत्तर में प्रभु कहते हैंहंता, गोयमा! हां, गौतम! तुमने जैसे प्रश्न किये हैं उनका उत्तर वही है एताबता सूर्यकी तिर्यग्गति कही गई है 'तत्थ रवी दस जोयण" के अनुसार उर्ध्वगति પર્વતની ઉત્તર દિશામાં આવેલા અરવલ ટિ ક્ષેત્રને પ્રકાશિત કરે છે. ભરતક્ષે સંબંધી સૂર્ય મંડળ ભૂમિથી ભ્રમણ કરતું નેત્ર કેણમાં ઉદિત થાય છે. અને અપર મહા વિદેહે ને પ્રકાશિત કરે છે. તેમજ અરવત ક્ષેત્ર સંબંધી સૂર્ય ભ્રમણ કરતા-કરતે ઈશાનકે ણમાં પહેરે છે. ત્યાં તે પૂર્વ વિદેહને પ્રકાશિત કરવા માંડે છે. ત્યારે તે પૂર્વ વિદેહને પ્રકાશક આ સૂર્ય દક્ષિણ-પૂર્વ દિશાના કેણમાં ભરતાદિ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ ઉદય પામે છે અને અપરવિદેહને પ્રકાશક જે સૂર્ય છે, તે અપર ઉત્તરદિશાના કેણમાં ઍરવતાદિ ક્ષેત્રોની અપેક્ષાએ ઉદય પામે છે. અહીં ઈશાન વગેરે રૂપ જે દિવ્યવહાર છે તે મંદર પર્વતની અપેક્ષાએ છે, એવું જાણવું જોઈએ. નહીંતર ભરત દિ લોકેના પિતપિતાના સૂર્યોદયની દિશામાં પૂર્વદિવ માન્યા પછી આગ્નેયકેના વ્યવહારને અભાવ માનવે પડશે. આ જાતના ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નના नाममा प्रमुड छ-'हंता! गोयमा !' डi, गौतम ! ते भने रे प्रश्न ४ छ तेरा वाम ते प्रमाणे छ, सताता सूर्य नीतियति वाम गावी छ. 'तत्थ रखी. ज०३० Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ D जम्बूद्वीपप्राप्तिक्षधे समुद्र उदयमासादयतीति तन्मतं निराकृतं भवतीति । एतस्य प्रश्नध्योत्तरं सूत्रकारोऽतिदेशमुखेनाह-'जहा पंचम ए' इत्यादि, 'जहा पंचमसए पढमे उद्देसे' यथा पञ्चपशतके प्रथमोदेशके, एतस्यैव जम्बूद्वीपस्य पञ्चमशत के प्रथमोदेशके कथितं तेनैव प्रकारेणात्रापि सूर्यस्योदयास्तमयनं ज्ञातव्यम्, कियत्पर्यन्तं पश्चमोदेशकस्य प्रथमोद्देशकप्रकरण मिह वक्तव्यं तत्राह'जाव' इत्यादि, 'जाव णेवत्थि उस्सप्पिणी अद्विएणं तत्थ काले पानते समणाउसो' यावन्नैवास्ति उत्सर्पिणी अवस्थितः खलु तत्र कालः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन् ! एतत्सूत्रपर्यन्तं पञ्चम शवकस्य प्रथमोद्देशकस्य प्रकरण मनुसन्धेयम्, तथाहि-तत्रत्यं प्रकरणम् 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे दिवसे भवइ तयाण उत्तरद्धे वि दिवसे भवई । जयाणं भंते ! उत्तरद्धे दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पम्बयस्स पुरिस्थिः पञ्चत्थिमगं राई भवइ ? हंता गोया ! जयाणं जंबुद्दो वे दीवे दाहिणद्धे दिवसे जान राई भवइ । जयागं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स एव्यस्प पुत्थिमेण दिवसे भवइ तयाणं पञ्चत्थिमेणावि दिवसे भवइ, जयाणं पञ्चस्थि मेणं दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदर पधयस्स उत्तरदाहिजेणं र ई भाइ । हेना, गोयमा ! जयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स पुरस्थिमे दिवसे जाम राई भइ । जय गं भो ! जंबुद्दीवे दीदे दाहिपद्धे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तयाणं उत्तर वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जयाणं उत्तरद्ध उक्कोसए अट्ठार समुडुत्ते दिवसे भवइ तयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स या अधोगति नहीं कहो गई है । इसलिये जो ऐसा मानते हैं कि "सूर्य पश्चिम समुद्र में प्रवेश करके पाताल मार्ग से होकर, पुन: पूर्व सत्रुद्र में उदित होताहै" सो इस सैद्धान्तिक कया से उनका इस प्रकार का कथन निरस्त हो जाता है इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार ने इस अतिदेशमुख के द्वारा दिया है-'जहा पंचमसए पढमे उद्देसे' जिस प्रकार इसी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के पंचमशतक में प्रथम उद्देशक में कहा गया है उसी प्रकार से सूर्य के उदय अस्त के सम्बन्ध में यहां पर भी जानना चाहिये पंचमशतक के प्रथम उद्देशक का प्रकरण "जाव णेवत्थि उस्तपिगो अवहिरणं तत्थ काले पपणत्ते “समणाउसो' इस सूत्र तक का यहां ग्रहण करना चाहिये जिज्ञासुओं के निमित्त हम वहां का बह प्रकरण दसजोयण' भु४५ Sound मा अधोगति वा पापी छ. मेथी २ ॥ प्रभारी માને છે કે “સૂર્ય પશ્ચિમસમુદ્રમાં પ્રવિષ્ટ થઈને પાતાલ માર્ગમાં થઈને પુનઃ પૂર્વ સમુદ્રમાં ઉદય પામે છે.” તે આ સૈદ્ધાતિક કાનથી તેમનું આ જાતનું કથન નિરસ્ત थ, जय छे. मा प्रश्न उत्तर सू४.२ मा ACश भुभ व माय है-'जहा पंचम सए पढमे उद्देसे' २ प्रमाणे पूदी५ प्रशसिना ५ यम शतना प्रम देशमा કહેવામાં આવેલું છે, તે પ્રમાણે જ સૂર્યના ઉદય-અસ્તના સંબંધમાં અહીં પણ જાણવું नये. ५यम शतना प्रथम देशनु र 'जाव णेव त्थि उस्लप्पिणी अवविएणं Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टोका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् पवयस्स पुरित्थिमपञ्चस्थिमेणं जहणिया दुबालप्तमुहुत्ता राई भवइ, हंता, गोयमा ! जयाण भंते ! जंबुद्दोवे दीवे जाव दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमंणं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जाव तयागं जंबुद्दोवे दीवे दाहिणेणं जाव राई भवइ, जयाण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे अट्ठारस मुहुत्तागंतरे दिवसे भवई, तयाणं उत्तरद्धे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जयाणे उत्तरद्धे अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दी वे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स पुरस्थिमेणं साइरेगा दुवालस हुत्ता राई भवइ, हंना, गोयमा ! जयाणं जंबुद्दी वे दीये जाव राई भवइ । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स पुरत्यिमेणं अट्ठारसमुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तयाणं पच्चस्थिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जयाणे पच्चस्थिमेणं तयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स उत्तरदाहिणेणं साइरेगा दुबासाहुत्ता राई भवइ, एवं एएण कमेणं उ सारेयव्यं । सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई सत्तरसमुहुत्तातरे दिवसे साइरेगा तेरसमुहुत्ता राई, सोलसमुहुत्ते दिवसे चोद समुहुत्ता राई सोल समुहुताणतरे दिवसे साइरेगा चोद्दसमुहुत्ता राई पगरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राइ, पण्णरसमुहुत्ताणतरे दिवसे साइरेगपण्णरसमुहुत्ता राई,चोदसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राई भवइ, जयाणं चोद्द समुहुत्त.णंतरे दिवसे भवइ तयाणं सातिरेगा सोलस हुत्ता राई भवइ, जयाणं तेरसमुहुते दिवसे भवइ तयाण सत्तरमुहुत्ता राई भवई, जयणं तेरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ तयाणं सातिरेगा सत्तरसमुहुत्ता राई भवइ । जयाणे भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तय गं उत्तरद्धे वि । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धे जहण्णएणं दुवालमुहुत्ते दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवे दीपे मंदरस्स पव्ययस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं उक सिश अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, हंता गोयमा ! एवंचेव उच्चारएयव्वं जाव राई भवइ । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरपुरथिमेणं दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवद जयाणं पच्चत्थिमेण वि जहगए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जयाणं पच्चस्थिमे जहण्णएण दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्म पनयास उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुता राई भाइ ? हंता, गोयमा ! जाव राई भवइ । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तयाणं उत्तरद्धे वि वासाणं पढमे समए पडिवनइ जयाणं उत्तरद्ध वासाणं पढमे समए पडिवजा, तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं अर्णतरपुरेक्खडसमयसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ ? हंता, गोयमा ! जयाणं भंते ! जंबु हीबे दीवे दाहिगद्धे वासाणं पढमे समए पडिवज्जद तहेव जाव पडिबज्नइ । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पायाप पुरथिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवाज तयाणं पच्चस्थिमेणवि वासाणं पढमे समए, तयाणं जाव मंदरस्स पव्ययस्त उत्तरदाहिणणं अणंतरपच्छाक डसमयंसि वासा पढमे समए पडिवण्णे भवइ ? हंता, गोयम! जयाणं मंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरथिमेगं एवं चेव सर्व उच्चारेयव्वं जाव पडिवण्णे भवइ । एवं जहा समरणं अभिलावो भणिो वासाांतहा भावलियाए वि भाणिगयो, आणापाणण Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जम्वृद्धीपप्रतिस्त्र वि, थोवेण वि, लवेग वि, मुइत्तेण वि, अहोरत्तेण वि, पक्खेण वि, मासेण वि, उऊण वि, एएसिं सन्वेसिं जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणियव्यो । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जा, जहेव वासाणं अभिलायो तहेव हेमंताण वि, गिम्हाण वि, भाणिययो जाव उत्तराण वि, एवं एर तिण्णि वि, एते सिं तीसं आलावगा भाणियव्या । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणद्धे पढमे अयणे पडिवज्जइ तयाणं उत्तरद्धे वि पढमे अयणे पडिवाजइ जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेण वि भाणियव्वो, जाव अर्गतरपच्छाकडसमयंसि पढ मे अयणे पडिवण्णे भवइ, जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणियो, जुएणवि वाससरण वि वासपहस्सेण वि वाससयसहस्से. णवि पुव्वंगेग वि पुत्वेणावि तुडियंगेण वि तुडिएण वि, एवं पुठवे पुव्वांगे तुडिए तुडियंगे अववे अक्वांगे हुहूए हुहूयंगे उप्पले उप्पलांगे पड मे पडमंगे णलिगे णलियंगे अत्थणिउरे २ अड९२ ण उए२ पउए अ२ चुलिएअ२ सीसपहेलिय२ पलिभोवमेणवि सागरोवमेणवि भाणियब्यो । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमा भोसप्पिणी पडिवज्जइ तयाण उत्तरः वि पढमा ओसप्पिणी पडियज्जइ जयाणं उत्तर पढमा तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं णेवत्थि ओसप्पिणी णेवत्थि उस्सपिणी अवढिएणं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो !, हंता गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्यं जाव समणाउसो ! जहा ओस्सप्पिणीए आलावगो भणियो एवं उस्सप्पिणीए वि, भाणियन्वो त्ति' एतत्पर्यन्तं पश्च. मशतकप्रथमोदेशकप्रकरणस्य मूलं यावत्पदेन गृह्यते । (अस्य च्छाया-यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्द्धऽपि दिवसो भवति, यदा खल यहाँ प्रकट करते हैं वह प्रकरण इस प्रकार से हैं-'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहि णद्धे दिवसे भवइ तयाणं उत्तरद्धे वि दिवसे भवई' गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! जब इस जम्बू द्वीप नामके द्वीपमें दक्षिणार्द्ध में दक्षिणदिग्भाग में दिवस होता हैं तो क्या तब उत्तरार्ध में भी दिवस होता है ? 'जयाणं भंते ! उत्तरद्धे दिवसे भवइ, तथाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं राई भवई' हे भदन्त ! जब उत्तरार्ध में दिवस होता है तो क्या तब इस जंबूद्वीप नामके द्वीप में मंदर पर्वत की पूर्व पश्चिम दिशा में रात्रि होती सत्य काले पण्णत्ते समणाउसो' मा सूत्र सुधा मही प ४२ मे. विज्ञासुम। भाट समेत प्र.२४ भत्रे ४८ ४श छीये. ते ५४२११ मा प्रभारी छ-'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे दिवसे भवइ तयाणं उत्तरी वि दिवसे भवई' गौतमस्वामी प्रसुने એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે–ડે ભદંત ! જ્યારે આ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં, દક્ષિણદ્ધમાં, इक्षिण हिभागमा हस होय छे त्यारे शुत्तमा ५ हिस होय छे ? 'जयाणं भंते ! उत्तरद्धे दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयस्स पुरथिमपच्चस्थिमेणं राई भवई' मत ! न्यारे उत्तराभा हवस डोय छे. त्यारे शुभा द्वी५ नाम: દ્વપમાં, મંદર પર્વતની પૂર્વ-પશ્ચિમ દિશામાં રાત્રિ હોય છે? એના જવાબમાં પ્રભુ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् २३७ उत्तरार्द्ध दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वेण पश्चिमेन रात्रि भवति, हन्त गौतम ! यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा दिवसो भवति यावद्रात्रि भवति । यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिवसो भवति तदा खलु पश्चिमायामपि दिवसो भवति रदा सलु पश्चिमायां दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरदक्षिणस्यां रात्रि भवति, हन्त गौतम ! यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं-'हंता गोयमा! जयाणं जंबुद्दीवे दाहिणद्धे दिवसे जाव राइ भवई' हां गौतम ! जय जम्बूद्वीप नामके द्वीप में दक्षिणार्ध में दिवस होता है तब उत्तरार्ध में भी दिवप्त होता है और जब उत्तरार्ध में दिवस होता है तब मंदर पर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशा में रात्रि होती है। 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स पवयस्स पुरस्थिमे णं दिवसे भवइ, तयाणं पच्चत्थिमेण वि दिवसे भवई' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नामके द्वीप में स्थित मन्दर पर्वतकी पूर्व दिशा में जब दिवस होता है तब 'पच्चत्थिमेण वि दिवसे भवई' पश्चिम दिशा में भी दिवस होता है क्या? और 'जयाणं पच्चत्थिमेणं दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवई' जब पश्चिम दिशा में दिवस होता है तब क्या जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की उत्तर और दक्षिण दिशा में रात्रि होती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'हंता, गोयमा !' हा गौतम ! ऐसा ही होता है अर्थात् जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित मन्दर पर्वत को पूर्व दिशा में दिवस होता है तब पश्चिम दिशा में भी दिवस होता है और जब पश्चिम दिशा में दिवस होता है तब जम्बूद्वीप नामके गौतमस्वामीर ४३ छ-'हंना गोयमा ! जयणं जंबुद्दीवे दाहिणद्धे दिवसे जाव राइ भवइ' i, ગૌતમ! જ્યારે જંબૂરપ નામક કપમાં દક્ષિણુદ્ધમાં દિવસ હોય છે ત્યારે ઉત્તરાદ્ધમાં પણ દિવસ હોય છે અને જ્યારે ઉત્તરાર્ધમાં દિવસ હોય છે, ત્યારે મંદર પર્વતની પૂર્વ અને पश्चिमशिम रात्रि डाय छे. 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स पुरथि मेणं दिवसे भवइ, तयाणं पच्चत्थिमेण वि दिवसे भवई' लत ! दी५ नाम४ दीपमा स्थित म४२५ तनी पूर्व दिशामा सिराय छ त्यारे पच्चत्थिमेण वि दिवसे भवई' शु पश्चिमहिशाम ५ ६१ डाय छ ? मने 'जयाणं पच्चत्थिमेग दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदास पव्वयात उत्तरदाहिणेणं राई भवई' ॥२ पश्चिमाहिशाम हस થાય છે ત્યારે શું જરબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતની ઉત્તર અને દક્ષિણદિશામાં रात बोय छ ! मेन पाम प्रभु ४ छे-हंता गोयमा !' i, भोतम! मा प्रमाणे હોય છે. એટલે કે જંબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં સ્થિત મંદર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં દિવસ હોય છે ત્યારે પશ્ચિમ દિશામાં પણ દિવસ હોય છે અને જ્યારે પશ્ચિમ દિશામાં દિવસ હોય છે ત્યારે જંબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં સ્થિત મંદર પર્વતની ઉત્તર અને દક્ષિણદિશામાં રાત્રિ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्वृद्धीपप्राप्तिसूत्रे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिवसो यावत् रात्रि भवति, यदा खलु भान्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिगार्दै उत्कर्पतोऽष्टादशमुदतों दिवालो भवति तदा खलु उत्तरार्द्धऽपि उत्कृर्षतोऽष्टादश मुहूत्तों दिवसो भाति, यदा खलु उत्तरार्दै उत्कृष्टतोऽष्टादशमुहतों दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पूर्वेस्यां पश्चिमायां जघन्य द्वादशमुहर्ता रात्रिभवति ? हंत गौतम ! यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वोपे द्वीपे याद् द्वादशमुहूर्ता रात्रि भवति । यदा खलु भदन्त ! द्वीप में स्थित मन्दर पर्वतकी उत्तर और दक्षिण दिशा में रात्रि होती है 'जयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स पुरथिमेगं दिवते जाव राई भवई' यही बात इस सूत्रपाठ द्वारा प्रभु की ओर से उत्तर रूप में प्रकट की गई है। 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, तयाणं उत्तरद्धे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' हे भदन्त ! जब जम्बूद्वीप नामके द्वीप में दक्षिण दिग्भाग में उत्कृष्ट रूप से मुहूर्त का दिन होता है तब उत्तरार्ध में भी उत्कृष्ट रूप १८ मुहूर्त का दिवस होता है और 'जयाणं उत्तरद्धे उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त पुरस्थिम. पच्चत्थिमेणं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई' जब उत्तरार्द्ध में उत्कृष्ट दिवस १८ मुहूर्त का होता है तब क्या जम्बूद्रीप नामके द्वीप है मन्दरपर्वत का पूर्व पश्चिम दिशा में जघन्य १२ मुहूर्त की रात्रि होती है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'हंता गोयमा' हां गौतम ! ऐसा ही होता है-जब मेरु की दक्षिण दिशा में अठारह मुहर्त का दिवस होता है तब उसको उत्तर दिशा में भी १८ मुहर्त का दिवस होता है और जब मेरु की उत्तर दिशा में १८ मुहूर्त का दिवस होता है तब इस जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें मन्दर पर्वत के पूर्व भागमें और पश्चिम भाग में जघन्य सोप छ. 'जयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयात पुरथिमेणं दिवसे जाव राई भवई' मे२४ पात मा सूत्र 43 प्रभुमे ५४८ ४३ छ. 'जयागं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे दाहिणद्धे उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, तयाणं उत्तरद्धे वि उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवई' 3 ભદંત! આ જંબુદ્વીપ નામક કંપમાં દક્ષિણ દિભાગમાં ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી ૧૮ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે ત્યારે ઉત્તરાદ્ધમાં પણ ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી ૧૮ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે અને 'जयांणं उत्तरद्धे उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई' ४॥Sत्तराद्धमा अष्ट દિવસ ૧૮ મુહૂર્તને થાય છે ત્યારે શું જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતની પૂર્વपश्चिमहिशाम 4.५ १२ मुतना विसीय छ ? सेना उत्तम प्रभु ४ छ-'हता गोयमा !' , गौतम ! माम थाय छे. न्यारे भेउनी क्षिदिशामा १८ मुतना દિવસ હોય છે ત્યારે તેની ઉત્તર દિશામાં પણ ૧૮ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે. અને જ્યારે મેરુની ઉત્તરદિશામાં ૧૮ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે ત્યારે આ જંબુદ્વીપ નામક Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामुत्कर्पतोऽष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति यावत् तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणस्यां यावद्रात्रि भाति यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा? अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तक्ष खलु उत्तरस्य म् अष्टादश मुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, या खलु उत्तर.द्देऽष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीषे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां सातिरेका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति ? हंत गौतम ! यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे यावद्रात्रिभवति यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पूर्वस्या मष्टादशमुहूर्तानन्तो दिवसो भवति तदा खलु पश्चिणायाम् यदा खलु पश्चिमायां ददा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे सन्दरस्य पर्वतस्योत्तरस्यां दक्षिणस्यां सातिरेका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति । एवमेतेन क्रमेणोत्सारयितव्यम् । सप्त दशमुहत्तौ दिवसः त्रयोदशमुहूर्त्ता रात्रिः सप्तदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः सातिरे त्रयोदश मुहर्तारात्रिः षोडशमुहूतौ दिवस श्चतुर्दशमुहूर्ता रात्रिः पोडशमुहूर्तानन्तरो दिवसः सातिरेक चदेशमुहूर्ता रात्रिः पञ्चदशमुहतों दिवस: पश्च. दशमुहर्ता रात्रिः, पञ्चदशमुहूर्तानंतरो दिवसः सातिरेक पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः चतुर्दशमुहूतों दिवसः षोडशमुहर्ता राति चतुर्दशमुहानन्तरो दिवसः सातिरेकषोडशमुहर्ता रात्रि भवति त्रयोदश मुहूत्तौ दिवसः सप्तदशमुहूर्ता रात्रिः त्रयोदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः सातिरेक सप्तदशमुहूर्ता रात्रिः। यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्ध जघन्यो द्वादशमुहूत्तौ दिवसो भवति तदा खलु उत्तरार्मोऽपि, यदा खलु उत्तरार्द्धऽपि तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पूर्वस्यां पश्चिमायाम् उत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति ? हंत गौतम ! एवमेवोच्चारयितव्यं यावद् रात्रिभवति । यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पूर्वस्यां जघन्यो द्वादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा खलु पश्चिमायामपि० यदा वलु पश्चिमायामपि० तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दग्स्योत्तरस्यां दक्षिणस्यामुन्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभवति ? इन्त गौतम! यारद्रात्रि भवति, यदा खळु भदत ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाः वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तदा खलु उतराद्धेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते यदा खलु उत्तरार्द्धऽपि पर्याणां प्रथमः समयः प्रतिपर्धते तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पवनस्य पूर्वस्यां पश्चिपाया मनन्तरपुस्कृतसमये वर्षाणां प्रथमः समय: प्रतिपद्यते, हन्त गौतम ! यदा खलु भवन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाः वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तथैव यारत् प्रतिपद्यते । यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्थ पर्वतस्य पूर्वस्यां वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा खलु पश्चिमायामपि वर्षाणां प्रथमः समयः, यदा खलु पश्चिमायां वर्षायां प्रथमः समयः तदा खलु यावन्मन्दरस्य पर्वतस्यो. त्तरदक्षिणेनानन्तरवश्वात्कृतसमये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपन्नो भवति, हन्त गौतम ! यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दर य पर्वतस्य पूर्वस्याम् एवमेव सर्व मुच्चारयि. तमम् यावत् प्रतिपनो भवति । एवं यथा समये नाभिलापो भणितो वर्षाणां तथा आवलि. कयाऽपि भणितव्यः । आनतप्राणतेनापि, स्वोकेनापि लवेनापि मुहूर्तेनापि अहोरात्रेणापि, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जम्बूद्धीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पक्षेणापि मासेनापि, ऋतुनाऽपि एतेषां सर्वेषां यथा समयस्याभिलाप स्तथा भणितव्याः। यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हेमन्ता प्रथमः समयः प्रतिपद्यते रथैव वर्षागामभिलाप स्तथैव हेमन्ते नापि ग्रीष्मेणापि भणिनव्यः सावदुत्तरेण • एश्मे ते त्रयेऽप, एतेषां त्रिंशदभिलापाः भणितव्याः । यदा खलु भडन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षि. णाः प्रथममयनं प्रतिपद्यते, तदा खलु उत्तरार्द्धऽपि प्रथममयनं प्रतिपद्यते, यथा समयेनामिलाप स्तथैवायने नापि भणितव्यो यावदनन्तर पश्चात् कृतसमये प्रथममयनं प्रतिपन्न भवति । यथाऽयनेनाभिलार स्तथा संवत्सरेणापि भणितव्यः युगेनापि वर्षशतेनापि, वर्ष सहस्रेणापि वर्षशतसहस्रेणापि, पूर्वाङ्गेनापि पूर्वेणापि त्रुटिताङ्गेनापि त्रुटितेनापि, एवं पूर्व२त्रुटितम् २ अडडम् २ अवम् २ हहूकम् २ उत्पलम् २ पद्मम् २ नलिनम् २ अर्थनिपुणम् २ चूलिकंच २ शीर्षप्रहेलिकं च २ एल्योपमेनापि सागहोपमेणापि भणितव्यः । यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा प्रथमा अवसर्पिणी प्रतिपद्य ते. तदा खलु उत्तराद्धेऽपि प्रथमा अव िणी प्रतिपद्यते, यदा खलु उत्तरार्द्ध प्रथमा तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां पश्चिमायां नैवा स्ति अवसर्पिणी नैवास्ति उत्सर्पिणी, अवस्थितः खलु तत्रकाल: श्रमणायुष्मन् ! हे गौतम ! तदेवोच्चारयितव्यं यावत् श्रमणायुष्मन ! यथा अवसर्पिण्या आलापको भणितः एवं उत्सर्पिण्या अपि भणितव्य इति । एतत्पर्यन्तं यावत्पदग्राह्य पञ्चमशतकीयप्रकरणस्य छाया ॥ सम्प्रति एतत्प्रकरणस्य व्याख्यानं प्रस्तूयते-तथाहि-अथोक्तक्षेत्र विभागानुसारेण रात्रिदिवसविभागं दर्शयितुमाह-'जयाण' इत्यादि, 'जयाणं भंते' यदा-यस्मिन काले खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे-सर्व द्वीपमय जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'दाहिणद्धे दिवसे भवइ' दक्षि णार्द्ध दक्षिणदिग विभागे दिवमो भवति, 'तयःणं उतरद्धे वि दिवसे भवइ तदा खलु तस्मिन् समये उत्तरार्दैऽपि दिवसो भवति एकस्य सूर्यस्यै कस्वां दिशि मण्डलचारे अपरस्य मर्यस्य १२ मुहूर्त की रात्रि होती है । 'जधाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मन्दस्स पब्वयस्स. पुरस्थिमेणं उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, जाव तयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणेणे जावराई भवई' हे भदन्त ! जब जंबुद्धीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिवस होता है तब पश्चिम दिशा में भी १८ मुहूर्तका उत्कृष्ट दिवस होता है और जब पश्चिम दिश में १८ मुहूर्त का उत्कृष्ट दिवस होता है तब जम्बूदोप नामके द्वीप में स्थित सुमेरु पर्वत की उत्तर દ્વીપમાં મંદર પર્વતના પૂર્વ ભાગમાં અને પશ્ચિમ ભાગમાં જઘન્ય ૧૨ બાર મુહૂર્તની રાવિ डोय छे. 'जयाणं भंते ! जंबुदीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, जाव तयाणं जंबुदीवे दीवे दाहिणेणं जाव रई भरइ' 3 महत! જ્યારે જંબૂરપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં ઉત્કૃષ્ટ ૧૮ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે ત્યારે પશ્ચિમ દિશામાં પણ ૧૮ મુહૂર્તને ઉત્કૃષ્ટ દિવસ હોય છે અને જ્યારે Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमबक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् पूर्वसूर्य संमुखीनायमे वापरस्यां दिशि मण्डचारसंभवात् 'जयाणं पञ्चस्थिमेण दिवसे भवइ' यदा खलु पश्चिमायां दिशि दिवसो भवति 'तयाणं' तदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पयस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवई' मन्दरस्य मेरोः पर्वतस्योत्तरदक्षिणेन उत्तरस्यां दक्षिणस्यां दिशि रात्रि भवतीति प्रश्ना, भगवानाह'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हंत गौतम ! 'जयाणं जंबुद्दीवे दीवे' यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्प पचयस्स पुरस्थिमेणं जाव राई भवई' मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वेण पूर्वस्यां दिशि यावद्रात्रि भवति अत्र यावत्पदेन-पूर्वस्यां दिवसो भवति तदा खलु पश्चिमायामपि दिवसो भवति, यदा खलु पश्चिमायां दिशि दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्व तस्योत्तरस्यां दक्षिणस्यां चेति प्रश्नवाक्यस्य संग्रहो भवतीति उत्तरम् । 'जयाणं भंते ! जंबुदीवे दीवे' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे वाहिगद्धे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवई' दक्षिणार्द्ध मेरो दक्षिण दिग् विभागे उत्कर्षतोऽष्टादशमुहत्तौऽष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणको दिवस:-दिनं भवति 'तयाणं उत्तरद्धे वि अटारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' तदा-यस्मिनकाले मेरो दक्षिण भागेऽष्टादशमुहूर्त प्रमाणको दिवसो भवति तस्मिन् काले खलु उत्तरार्द्ध मेरोरुत्तरभागेऽपि उत्कर्षनोऽष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणको दिवसो भवति 'जयाणं उत्तरद्धे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' यदा खलु उत्तरार्द्ध मन्दरस्योनरभागे अष्टादशमुहूर्तप्रमाणको दिवसो भवति अत्र दक्षिणार्द्ध उत्तरार्दै चोभयत्रापि अर्द्धशब्दो भागवचन स्तेन मेरोदक्षिणभागे उत्तर भागे चेत्यर्थः अर्द्धशब्दस्य भागमागर्थत्वात् यदि कदाचित् मेरो दक्षिणाढे उतरार्दै च समग्र एक दिवसः स्यात तदा कथं पूर्वेणापरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत-अर्द्धद्वयग्रहणेन और दक्षिण दिशा में १२ मुहूर्त प्रमाणवाली जघन्य रात्रि होती है। इस तरह क्षेत्र परावृति से दिवस रात्रि के प्रमाण विषय में प्रश्नोत्तर वाक्य का समन्वय करके सब अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये सूत्र में जो उत्तरार्ध और दक्षि णार्ध ऐसे शब्द आये हैं मो वहाँ अध शब्द भागका वाचक जानना चाहिये आधेका वाचक नहीं। सूर्य के १८४ मंडल होते हैं इनमें जम्बूद्वीप में ६५ मंडल हैं ११९ मंडल लवण समुद्र में हैं। सूर्य जब सर्वाभ्यन्तर मंडल में पहुंच कर गति क्रिया करता है तब दिवस १८ मुहूर्त का होता है और जब सर्वबाह्यપશ્ચિમદિશામાં ૧૮ મુહૂર્તને ઉત્કૃષ્ટ દિવસ હોય છે ત્યારે જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં સ્થિત સુમેરુ પર્વતની ઉત્તર અને દક્ષિણ દિશામાં ૧૨ મુહૂર્ત પ્રમાણવાળી જઘન્ય રાત્રિ હોય છે. આ પ્રમાણે ક્ષેત્ર પરાવૃત્તિથી દિવસ-રાત્રિના પ્રમાણ વિષયમાં પ્રત્તર વાક્યને સમન્વય કરીને બધું સારી રીતે સમજી લેવું જોઈએ. સૂત્રમાં જે ઉત્તરાદ્ધ અને દક્ષિણાદ્ધ એવા શબ્દો આવેલા છે અર્ધ શબ્દ ત્યાં ભાગના વાચક છે, એવું જાણવું જોઈએ. અર્ધાને વાચક આ શબ્દ નથી. સૂર્યના ૧૮ મંડળ હોય છે આમાં જંબુદ્વીપમાં ૬૫ મળે છે. ૧૧૯ મંડળે લવણુસમુદામાં છે. સૂર્ય જ્યારે સભ્યતર મંડળમાં પહોંચીને Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मूखीपप्राप्तिको सर्वक्षेत्रस्य गृहीतत्वात्, तस्मात् दक्षिगार्दादि शब्देन दक्षिणादि भागमात्रमेव ज्ञातव्यं नतु भर्द्धमिती 'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पन्धयस्स' तदा तस्मिन्काले यस्मिन् काले मेरो दक्षिणोत्तरभागे अष्टादशमुहूर्तप्रमाणको दिवसो भवति तस्मिन्काले मन्दरस्य मन्दरनामकस्य पर्वतस्य 'पुरथिमपञ्चत्यिमेणं' पूर्वपश्चिमेन पूर्वस्या पश्चिमायां पूर्वभागे पश्चिमभागे चेत्यर्थः, 'जहाणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' जयन्यिका अतिशयेन जघन्या स्वल्पा द्वादशमुहूर्ता-जघन्येन द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणा रात्रि भवति तत्रैकस्यापि सूर्यस्याभावादित्येवं काक्वा प्रश्नः, भगवानाह-'हता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! यदा खलु मेरो दक्षिणभागे अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, यदा खलु मेरोरुत्तरभागेऽपि अष्टादश मुहर्तप्रमाणको दिवसो भवति तदा अस्मिन् जम्बूद्वीपे मन्दस्य पूर्वभागे मन्दस्य पश्चिमभागे च जयन्या द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रि भवतीति भगवत उत्तरमिति । सम्प्रति क्षेत्र परावृत्त्या दिवस रात्रिविभागं प्रश्नयनाह-'जयाणं भंते' इत्यादि, 'जयाणं भंते' यदा खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पबयस्स पुरस्थिमेणं' मन्दरस्य मन्दरनामकस्य पर्वतस्य पूर्वेण पूर्वस्मिन् दिग विभागे 'उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ' उत्कर्षतोऽष्टादश मुहूर्त।-अष्टादशमुहूर्त प्रमाणको दिवसो भवति 'जाव तयाणं जंबुद्दीवे दीवे' यदा खलु मन्दरपर्वतस्य पश्चिमदिर भागे उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणको दिवसो भवति यदा खलु पश्चिम भागेऽष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति एतत्पर्यन्तं यावत् पदग्राह्य भवति, तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे 'दाहिणेणं जाव राई भवइ' दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि जघन्या द्वादशमुहर्ता रात्रि भाति यदा खलु दक्षिणस्यां द्वादशमुहूर्त प्रमाणा रात्रि भवति तदा मेरोरुत्तरभागे द्वादशमुहर्तप्रमाणा रात्रि भवति मण्डल में सूर्य होता है तब सबसे कम दिवस १२ मुहूर्त का होता है फिर द्वितीय मण्डल से लेकर हर एक मंडल में एक महर्त के ६१ भागों में से २-२ भाग प्रमाण वृद्धि होते होते १८३ वें मण्डल पर ६ छ मुहूर्त बढ जाते हैं । इस प्रकार अठारह मुहूर्त का दिवस उत्कृष्ट रूप से होता है और रात्रि तब १२ मुहूत की होती है। इस तरह अहोरात के ३० मुहूर्त हो जाते हैं क्योंकि १ अहोरात ३० मुहर्त का होता है। जब १८ मुहूर्त का दिवस होता है-तब १२ मुहर्त की रात्रि होती है और जब १८ मुहूर्त की रात्रि होती है-तब १२ मुहूर्त का दिन होता है ગતિ ક્રિયા કરે છે ત્યારે દિવસ ૧૮ મુહૂર્તને થાય છે અને જ્યારે સર્વબાહ્યમંડળમાં સૂર્ય હોય છે ત્યારે સૌથી કમ સમયને દિવસ ૧૨ મુહૂર્તને હોય છે. પછી દ્વિતીયમંડળથી માંડીને દરેક મંડળમાં એક મુહૂર્તના ૬૧ ભાગમાંથી ૨–૨ ભાગપ્રમાણુ વૃદ્ધિ થતાં ૧૮૩ મા મંડળ ઉપર ૬ મુહૂર્ત વધી જાય છે. આ પ્રમાણે ૧૮ મુહુર્તનો દિવસ ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી હોય છે અને રાત્રિ ત્યારે ૧૨ મુહૂર્ત જેટલી હોય છે. આ પ્રમાણે અહેરાતના ૩૦ મુહુર્તી થાય છેકેમકે ૧ અહોરાત ૩૦ મુહૂર્તનું થાય છે. જ્યારે ૧૮ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् तदा मेरोः पूर्वपश्चिम भागेऽष्टादशमुहूर्तप्रमागको दिवसो भवतीति, एवं प्रकारेण क्षेत्रपरावृत्या दिवसरात्रिप्रमाणविषये प्रश्नोत्तरवाक्यस्य समन्वयं कृत्वा सर्व सम्यग् ज्ञातव्यम् इति सामान्यतो दिवसरात्रिविभाग इति । अत्र खलु सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति, तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चषष्टिमण्डलानि भवन्ति एकोनविंशत्यधिकं च शतं मण्डलानां लवणसमुद्र पध्ये भवति, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले तदाऽष्टादशमुहूर्त. प्रमाणको दिवसो भवति, यदा तु सर्वबाह्य मण्डले तदाऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणको दिवसो भवति, ततश्च द्वितीयमण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहकपष्टिभागाभ्यां दिवसस्य वृद्धौ यशीत्यधिकशततममण्डले षड् मुहूर्ता बद्धन्ते इत्येवं प्रकारेणाष्टादशमुहूर्त प्रमाको दिवस उत्कर्षतो भवति अत एव तदा द्वादशमुहूर्ता रात्रि भवति त्रिंशन्मुहूर्त्तमात्रप्रमाणकत्वादेवाहोरात्रस्य एषु यदा अष्टादशमुहूत्तों दिवस स्तदा द्वादशमुहूर्ता रात्रि यंदातु द्वादशमुहूत्तों दिवस स्तदाऽष्टदशहूर्ता रात्रि भवतीति । सम्प्रति-दिवसरात्र्योर्वृद्धिहासविषये प्रश्नयनाह-'जयाणं भंते' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे-सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'दाहिणद्धे अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ' ६क्षिणाः-मेरोः दक्षिणभागे अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा खलु सर्वाभ्यन्तर मण्डलानन्तरे मण्डले सूर्ये भवति तदा मुहूर्तकषष्टि भागद्वयहीनोऽष्टादशमुहत्तों दिवसे भवति स चाष्टादशमुहदिनन्तरोअष्टादशमुहानन्तर इति कथ्यते इति । 'तयाणं उत्तरद्धे वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ' तदा खलु मन्दरपर्वतस्योत्तरार्द्ध-उत्तरभागेऽपि अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति 'जयाणं उत्त_ 'जयाणं मते ! जंबुद्दीवे दीवे' हे भदन्त ! जब इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में 'दाहिणद्धे अट्ठारस मुहुत्ता णं दिवसे भव' मेरु के दक्षिण भाग में अठारह मुहर्तानन्तर १८ मुहूर्त से कुछकम प्रमाण का दिवस होता है अर्थात् यहां जब सर्वाभ्यन्तर मंडल से अनन्तर मण्डल में सूर्य होता है जाता है तब एक मुहूर्त के ६१ भागों में से २ भाग हीन अठारह मुहूर्त का दिन होता है सो वही दीन अष्टादश मुहूर्त से अनन्तर होने के कारण अष्टादश मुहूर्त से कुछकम प्रमाण वाला होने के कारण अष्टादश मुहूर्तानन्तर कहा गया है 'तयाणं उत्तरद्धे वि अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवई' तब मन्दर पर्वत के उत्तर दिग्भाग में भी १८ મુહૂર્તને દિવસ થાય છે. ત્યારે ૧૨ મુહૂર્તની રાત્રિ થાય છે. અને જ્યારે ૧૮ મહત્વની रात्रि थाय छे त्यारे १२ मुडूत नाहिस थाय छे. 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीबे' मत! न्यारे 4 बी५ नाम दीपमा 'दाहिणद्धे अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवई' भेना દક્ષિણ ભાગમાં ૧૮ મુહૂર્તાનન્તર ૧૮ મુહૂર્ત કરતાં કંઈક કમ પ્રમાણને દિવસ થાય છે. એટલે કે અહીં જ્યારે સર્વાત્યંતરમંડળથી અનંતરમંડળમાં સૂર્ય ગતિ કરે છે ત્યારે એક મુહૂર્તના ૬૧ ભાગમાંથી ૨ ભાગહીન ૧૮ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે. તે તેજ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे रद्धे अद्वारसमुत्ताणंतरे दिवसे भवइ' यदा खल उत्तरार्द्ध-मन्दरदिग्भागे अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः- अष्टादशमुहूर्तात् चिनो दिवसो भवति, 'तयाणं जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स पव्त्रयस्स पुरस्थि देणं साइरेगा दुसत्ता राई भाइ' तदा खलु मन्दरस्य दक्षिणे उत्तरे यदाऽष्टादशमुहूर्त्तावन्तरी दिवसो भवति तस्मिन् काभ्रे खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दास्य पर्वतस्य पूर्वेण पूर्व विभागे सातिरेका-किञ्चिदधिका द्वादशमुहूर्ताद्वादशहूर्तप्रमाणा रात्र व किमिति काक्वा प्रश्नः, भगवानाह - 'हंत' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त, गौतम ! 'जयाणं जंबुद्दीवे दीवे जाव राई भाई' यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे यावत् मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे भागे उत्तरे भागे चाष्टादशधुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे मन्दरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि सातिरेका द्वादशमुहूर्तप्रमाणा शनि भवतीति । मुहूर्तानन्तर दिवस होता है। तात्पर्य कहने का यह है कि सर्वाभ्यन्तर मंडल से अनन्तर मंडल में जब सूर्य पहुंचता है तब वहां पूरे १८ मुहूर्त का दिवस नहीं होता हैं किन्तु ६१ भागों मे से २ भाग कम १८ महूर्त का दिवस होना प्रारम्भ होजाता है इस तरह जब दक्षिण दिग्भोग में ऐसा होता है तब उत्तर दिग्भाग मे भी ऐसा ही दिवस होता है ऐसा दिवस ही अष्टादश मुहूर्तानन्तर दिवस कहा गया है । 'जयाणं उत्तरद्धे अट्ठारसमुहस्ताणंतरे दिवसे भव३' हे भदन्त ! जब उत्तर दिग्भाग में - मन्दर पर्वत की उन्नर दिशा में कुछकम १८ मुहूर्त्त का दिवस होता है 'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं साइरेगा दुबालसमुहुत्ता राई भवद' तब इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में ६१ भागों में से २ भाग अधिक १२ मुहूर्त की रात्रि होती है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुने कहा है- 'हंता, गोयमा ! जवाणं जंबुद्दीवे दीवे जाव દિવસ અષ્ટાદશ મુહૂત' પછી હોવા બદલ અષ્ટાદશ મુહૂત કરતાં કઈક અલ્પપ્રમાણવાળા होवा महस गष्टादृश मुहूर्तानन्तर हेवामां आवे छे. 'तयाणं उत्तर वि अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ' त्यारै भन्दरपर्वतमा उत्तर लिगमा १८ मुहूर्तानंन्तर દિવસ હોય છે. તાપ કહેવાનું આ પ્રમાણે છે કે સર્વાભ્ય તરમ`ડળથી અન તરમડળમાં જ્યારે સૂર્ય પહાંચી જાય છે ત્યારે ત્યાં પૂરા ૧૮ મુહૂર્તના દિવા હોતા નથી પરંતુ ૬૧ ભાગામાંથી ૨ ભાગ કમ ૧૮ ચુહૂતના દિવસના પ્રારંભ થાય છે. આ પ્રમાણે જ્યારે દક્ષિણદિભાગમાં આ પ્રમાણે થાય છે ત્યારે ઉત્તરદિમાગમાં પણ એવા જ દિવસ થાય छे. सेवा द्विवसने अष्टादश मुहूर्तानन्तर हिवस हवामां आवे छे. 'जयाणं उत्तरद्धे अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ' हे महंत ! क्यारे उत्तरहिमागमा भन्दरपर्वतनी उत्तरहिंशामा १८ मुहूर्तन दिवस थाय छे. ' तयार्ण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' त्यारे ४ अभ्यूद्वीप नाभा द्वीपभां भं४२પતની પૂર્વાદિશામા ૬૧ ભાગેામાંથી શુ ૨ ભાગ અધિક ૧૨ મુહૂર્તની રાત્રિ હોય છે ? सेनाभवाभां प्रभु डे छे - 'हंता, गोयमा ! जयाणं जंबुद्दीवे दीवे जाव राई भवई' हां, Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् सम्प्रति क्षेत्रपशवृत्या दिवसरात्र्यो विभागं न्यूनाधिकभावं च ज्ञातुं प्रश्नयन्नाह'जयाणं भंते' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्ययास पुरथिमेणं' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य भेरुपर्वतस्य पूर्वेण पूर्वस्मिन् दिविभागे' अट्ठारसमुहुत्ताणंबरे दिवसे भवइ' अष्टादश मुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति 'तयाणं पञ्चस्थिमेण वि' तदा खलु मन्दरस्थ पर्वतस्य पश्चिमेन-पश्चिमदिग्विभागेऽपि अष्टाद मुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति 'जयाणं पच्चत्थिमेणं' यदा खलु जम्बूद्वीपे अन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिषायां दिशि अष्टा दशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति 'तयाण जंबुद्दीवे दीवे गदरस्स पायस' सदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य-मेरोः पर्वतस्य 'उत्तरदाहिजेणं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवई' उत्तरदक्षिणेश उत्तरस्यां दक्षिणस्यां च दिशि सातिरेका द्वादशमुहूर्त माणा रात्रि भवति तदा द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रि भवति यावता यावता भागेन राई भवह' हां, गौतम ! ऐसा ही होता है जब जंबुद्धीप नामके इस द्वीप मे मन्दर पर्वतके दक्षिण भाग में और उत्तर दिग्भाग मे कुछकम १८ मुहूर्त का दिवस होता है-तब जम्बूद्वीप नामके इस द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में कुछ अधिक १२ मुहूर्त की रात्रि होती है। "जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्यस्स पुरथिमेणं अट्ठारस मुहता. णंतरे दिवसे भवई' हे भदन्त ! जब जम्बूद्वीप नामके इस द्वीप में मन्दर पर्वतकी पूर्व दिशा में कुछ कम १८ मुहूर्त का दिवस होता है 'ताण पच्चस्थिमेणवि' तब मन्दर पर्वत की पश्चिम दिशा में भी कुछ कम १८ मुहर्त का दिवस होता है और जब मन्दर पर्वत की पश्चिम दिशामें कुछ कम १८ मुहूर्त का दिवस होता है 'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंद्रस्त पचयस् । उत्तरदाहिणेणं साइरेगा दुषाल समुहत्ता राई भवई' तब इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में और दक्षिण दिशा में कुछ अधिक १२ मुहर्त की रात्रि होती है क्यों कि जितने २ भाग से हीन दिवस होने लगता है उतने उतने भाग ગૌતમ ! આ પ્રમાણે જ થાય છે. જ્યારે જમ્બુદ્વીપ નામક આ દ્વીપમાં મંઢરપર્વતના દક્ષિણ ભાગમાં અને ઉત્તરદિભાગમાં કંઈક કમ ૧૮ મુહૂર્તને દિવસ થાય છે ત્યારે જંબુદ્વિપ નામક આ દ્વીપમાં મંદર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં કંઇક અધિક ૧૨ મુહૂની રાત્રિ હોય છે. 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेण अद्वारस रहुशाणंतरे दिवसे भवइ' 3 Asa ! न्यारे पूदी५ नामAn Elvi ४२५ ५६ मा ४४४ १८ भुताना स थाय छ 'तयाणं पच्चत्थिमेणं वि' त्यारे भ२५ तनी पश्चिमशामा ५ ४४ ४ १८ भुतना हिसाय छ. 'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर दाहिणेणं साइरेगा दुवालस मुहुन्ता राई भवई' सारे मामूदी नाम દ્વીપમાં મંદર પર્વતની ઉત્તરદિશામાં અને દક્ષિણ દિશામાં કંઈક અધિક ૧૨ મુહૂર્ત જેટલી Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र दिवसो हीयते तावता तावता भागेन रात्रि वर्द्धते त्रिंशन्मुहूर्त्तवादेवाहोरात्रस्येति । ‘एवं एएणं कमेणं ऊ सारेयवं' एवमित्युपसंहारे एतेनानन्तरोक्तेन क्रमेण उपायेन 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे' यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्द्ध-दक्षिणभागे सातिरेका द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रि भवतीति क्रमेण 'ऊ सारेयव्वं दिनमानं हस्वीकार्यम्-दिनमाने अल्पता कर्तव्या, रात्रिमाने वृद्धिश्च कर्तव्येति । तामेव दिनमानस्य हूस्वतां दर्शयितु माह-'सत्तरस' इत्यादि, 'सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई' सप्तदशमुहूर्तो दिवस स्त्रयोदशमुहूर्ती रात्रिः यदा खलु सर्वाभ्यन्तरमण्डलान्तरमण्डलादारभ्यैकत्रिंशत्तममण्डलाद्ध सूर्यों भवति तदा सप्तदशमुहूत्तों दिवसो भवति पूर्वोक्तप्रकारेण त्रयोदशमुहूर्तप्रमाणा रात्रि. र्भवति शिन्मुहूर्त्तमात्रप्रमाणत्वादेवाहोरात्रस्येति । 'सत्तरसमुहूत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगतेरसमुहुत्ता राई' यदा खलु जम्बूद्वीपे मेरोः दक्षिणोत्तरदिग्विभागे सप्तदशमुहर्त्तानन्तरो दिवसो अधिक रात्रि होती जाती है। क्योंकि अहोरात का प्रमाण तो ३० मुहूर्त का ही है। 'एवं एएणं कमेणं ऊ सारेयव्वं' इस प्रकार के क्रम से 'जयाणं भंते ! जंबुहीवे दीवे दाहिणद्वे' जब जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा में कुछ अधिक १२ मुहूर्त की रात्रि होने लगती है-तब दिनमान में हस्वता आने लगती है और रात्रिमान में वृद्धि होने लगजाती है इसे इस प्रकार से सझना चाहिये-'सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई' जब १७ मुहूर्त का दिन होता है तब १३ मुहूर्त की रात होती है जब सर्वाभ्यन्तर मण्डल से अनन्तर मंडल को लेकर ३१ वें मंडलार्द्ध में सूर्य होता है, उस समय १७ मुहूर्त का दिवस होता है और १३ मुहूर्त की रात्रि होती है इस तरह होने से दिन रात का प्रमाण ३० मुहूर्त का सध जाता है। 'सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे साति रेग तेरसमुहत्ता राई' और जब इस जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व पश्चिम રાત્રિ હોય છે કેમકે જેટલા જેટલા ભાગથી હીન દિવસ થવા માંડે છે તેટલા-તેટલા ભાગથી અધિક રાત્રિ થતી જાય છે. કેમકે અહોરાતનું પ્રમાણ તે ૩૦ મુહૂર્ત જેટલું જ છે. 'एवं एएणं कमेणं उ सारेयव्वं' ! प्राना Hथी 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे જ્યારે જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં કંઇક અધિક ૧૨ મુહૂર્ત જેટલી રાત્રી થવા લાગે છે ત્યારે દિમાનમાં હસ્વતા આવવા માંડે છે. અને રાત્રિ માનમાં वृद्धि था भाउ छ. म पातने मेवी शते समय मे. 'सत्तरसमहुत्ते दिवसे तेरस मुहुत्ता राई' यारे १७ भुट्टत नाहिस होय छे त्यारे 13 मुहूतनी रात सोय छे. न्यारे સભ્યતરમંડળથી અનંતરમંડળને લઈને ૩૧ મા મંડલાદ્ધમાં સૂર્ય હોય છે તે સમયે ૧૭ મુહૂર્તનો દિવસ હોય છે. ૧૩ મહિનાની રાત્રિ હોય છે. આ પ્રમાણે દિવસ-રાતનું પ્રમાણ ૩૦ भुत अथित ३५ सय ५ छ. 'सत्तरस मुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेग तेरसमुहुत्ता તા અને જ્યારે આ જંબુદ્વીપમાં મંદર પર્વતની પૂર્વ-પશ્ચિમ દિશામાં કંઈક અધિક ૧૩ મુહૂર્ત Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् २५७ भवति तदा जम्बूद्वीपे मन्दरपर्वतस्य पूर्वपश्चिमदिग्भागे सातिरेका त्रयोदशमुहूर्त्तप्रमाणा रात्रि र्भवतीति । तत्र मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयहीन सप्तदशमुहूर्तप्रमाणो दिवसोऽयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्दै भवति एवमेव प्रकारेणानन्तरत्वमन्यत्रापि ज्ञातव्यमिति । रात्रेश्च मुहर्तेक पष्टिभागद्वयेन हीनत्वात् सातिरेकत्वं तेन सातिरेकस्त्रयोदश मुहर्ता रात्रि भवतीति । 'सोलसमुहुत्ते दिवसे' षोडशमुहूत्तॊ दिवसो भवति, 'चोद्द समुहुत्ता राई' चतुर्दशमुहूर्ता रात्रि भवतीति । 'सोलसमुहतानंतरे दिवसे साइरेगा चउद्दसमुहुत्ता राई' यदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे उत्तरे च भागे षोडशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा मन्दरस्य पूर्व पश्चिमे च भागे सातिरेका चतुर्दशमुहूर्त्तप्रमाणा रात्रि भवति । 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई' यदा खलु द्विनवतितममण्डलार्दै सूर्यों भवति तदा मन्दरस्य दक्षिणे उत्तरे च पञ्चदश. दिशा में कुछ अधिक १३ मुहूर्त की रात्रि होती है-तब दिवस कुछ कम १७ मुहूर्त का होता है यह द्वितीय मंडल से लेकर ३२ वें मण्डलार्द्ध में होता है। इसी प्रकार से अनन्तरता अन्यत्र भी जान लेनी चाहिये रात्रि प्रमाण में मुहूर्तेकषष्ठिभाग द्वय की वृद्धि होने से सातिरेकता है और दिवस प्रमाण में मुहूतैकषष्ठि भागद्वय की हीनता है इसलिये कुछ कम १७ मुहूर्त प्रमाणता है 'सोलसमुहुत्ते दिवसे चोद्दसमुहत्ता राई' द्वितीय मंडल से लेकर ६१ वें मंडलार्ध में १६ मुहूर्त का दिन होता है और १४ मुहर्त की रात्रि होती 'सोल. समुहुत्ताणतरे दिवसे साइरेगा च उद्दसमुहुत्ता राई' जब जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा में और उत्तर दिशा में कुछ कम १६ मुहर्त का दिवस होता है तब मन्दर पर्वत की पूर्व पश्चिम दिशा में कुछ अधिक १४ मुहूर्त की रात्रि होती है 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई' जब ९२ वें मण्डलाध में सूर्य होता है, उस समय मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा मे और उत्तर જેટલી રાત્રિ હોય છે ત્યારે દિવસ કંઇક કમ ૧૭ મુહુર્ત જેટલે થાય છે. આ દ્વિતીયમંડળથી માંડીને ૩૨ મા મંડલાદ્ધમાં થાય છે. આ પ્રમ ણે અનંતરતા અન્યત્ર પણ જાણવી જોઈએ. રાત્રિ પ્રમાણમાં મુહૂર્તક ષષ્ઠિભાગ દ્રયની વૃદ્ધિ હવા બદલ સાતિરેકતા છે અને દિવસ પ્રમાણમાં મુહૂર્તેક ષષ્ઠિ ભાગ કયની હીનતા છે એથી કંઇક કમ ૧૭ भुत प्रभात छ. 'सोलसमुहुत्ते दिवसे चोदसमुहुत्ता राई' द्वितीयममाथी भांडन ૬૧ મા મંડલાદ્ધમાં ૧૬ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે અને ૧૪ મુહૂર્ત જેટલી રાત્રિ હોય छ. 'सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे साइरेगा चउद्दसमुहुत्ता राई' न्यारे भूदीप नाम दीपमा મંદર પર્વતની દક્ષિણદિશામાં અને ઉત્તરદિશામાં કંઈક કમ ૧૬ મુહૂર્તને દિવસ થાય છે ત્યારે મંદિર પર્વતની પૂર્વ-પશ્ચિમ દિશામાં કંઈક અધિક ૧૪ મુહૂર્ત જેટલી રાત્રિ હોય છે. 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई' न्यारे ८२ मा माद्धमा सूर्य डाय छे, ते સમયે મંદર પર્વતની દક્ષિણદિશામાં અને ઉત્તરદિશામાં ૧૫ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र मुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा मन्दरस्य पूर्व पश्चिमे च पञ्चदशहूर्तप्रमाणा रात्रि भवति । 'पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेग पण्णरसमुहुत्ता राई' यदा खलु पञ्चदशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा सा तिरेकपञ्चदशमुहर्तप्रमाणा रात्रि भवति इति । 'चोइसमुहुत्ते दिवसे' यदा खलु चतुर्दशमहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति द्वाविंशत्युत्तरशततममण्डले सूर्ये, तदा 'सोलस मुहुत्ताराई' षोडशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिर्भवति यदा खलु मदरस्य पर्वतस्य दक्षिणे चोत्तरे च विभागे चतुर्दशमुहूर्तप्रमाणको दिवसो भवति तदा मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वे: पश्चिमेच दिग्भागे पोडशमुहूर्त्तप्रमाणा रात्रिर्भवतीत्यर्थः 'चोदसमुहुत्ताणंतरेदिवसे भवइ साइरेग सोलसमुहत्ता राई भवई' यदा खलु चतुर्दशमुहानन्तरो दिवसो भवति तदा सातिरेकषोडश मुहूर्ता रात्रिर्भवति यदा खलु मन्दरस्य दक्षिणे उत्तरे च भागे चतुर्दशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा मन्दरस्य पूर्व पश्चिमेच भागे सातिरेक षोडशमुहूत्तप्रपाणपती रात्रिर्भवतीत्यर्थः। दिशामें १५ मुहूर्त का दिन होता है और मन्दर पर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशामें १५ मुहूर्त की रात्रि होतो है 'पण्णरसहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेग पण्णरसमुहत्ता राई' और जब १५ मुहूर्त से कुछ कम दिन होता है त १५ मुहूर्त से अधिक रात्रि होती है। 'चोद्दसमुहुत्ते दिवसे' जब १२२ वें मंडल में सूर्य होता है तष १४ मुहूर्त का दिवस होता है और 'सोलसमुहत्ता राई' सोलह मुहर्स की रात्रि होती है. तात्पर यह है कि जब मन्दर पर्वत की दक्षिण और उत्तर दिशा में १४ मुहर्त का दिन होता है तब मन्दर पर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशा में १६ नं को रात्रि होनी है 'चोद्दरामुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ साइरेग सोलस मुहत्ता राई भवर' तथा जब कुछ कम सोलह मुहर्त का दिन होता है तब कुछ अधिक सोलह मुहूर्त की रात्रि होती है अर्थात् मन्दर पर्वत की दक्षिण और उत्तर दिशा में जब कुछ कम १४ मुहर्त का दिवस होता है तब मन्दर पर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशा में कुछ अधिक सोलह मुहर्त की भने म४२५ तनी पूर्व भने पश्चिमहिशामा १५ मुतती विडोय छे. 'पण्णरस महत्ताणतरे दिवसे साइरेग पण्णरसमुहुता राई' भने पारे १५ मुड़त ४२त ४४ ४म हिवसाय छ त्यारे १५ मुडूत ४२: मधि४ विडाय छे. 'चोदस मुहुत्ते दिवसे' न्यारे १२१ मा भ'भः सूर्य उदय छे त्यारे १४ मुहूतना हसराय छ भने 'सोलस महत्ता राई, सो भुइतनी गन डाय छे. त५ मा प्रमाणे छ है न्यारे २५ तनी દક્ષિણ અને ઉત્તરદિશામાં ૧૪ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે ત્યારે મંદિર પર્વતની પૂર્વ અને पश्चिमाशामा १६ भुडूतनी त्रि होय छे. 'चोदसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ साइरेग सोलसमुहुत्ता राई भवइ' तथा न्यारे ४६ ४भ सोप मुतना हि होय छे त्यारे કંઈક વધારે સાળ મુહુર્તની રાત્રિ હોય છે. અર્થાત્ મન્દર પર્વતની દક્ષિણ અને ઉત્તરદિશામાં જ્યારે કંઈક કમ ૧૪ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે, ત્યારે અંદર પર્વતની પૂર્વ અને Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् २४९ 'तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई' यदा खलु सार्द्धद्विपश्चाशदुत्तरशततमे मण्डले सूर्यो विद्यमानो भवति एवं यदा मन्दरस्य दक्षिणे उत्तरे च भागे त्रयोदशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा मन्दरस्य पूर्व पश्चिमे च भागे सप्तदशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिर्भवतीति । 'तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगतेरसमुहुत्ता राई' यदा खलु त्रयोदशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा खलु तदपरभागे सातिरेक त्रयोदशमुहूर्तप्रमाणा रात्रि भक्तीति । 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे दाहिणद्धे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्द्ध-दक्षिणभागे जघन्यो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भाति 'तयाणं उत्तरद्धे वि' तदा तस्मिन् काले मन्दरस्य पर्वस्य उत्तरार्द्ध-उत्तरदिगभागेऽपि जघन्यो द्वादशमुहूर्तप्रमाणको दिवसो भवति 'जयाणं उत्तरद्धे०' यदा खल भदन्त ! मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरभागे जघन्यो द्वादशमुहूर्तप्रमाण को दिवसो भवति 'तयाणं जंबुद्दीवे रात्रि होती है 'तेरसमुहत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई' जब तेरहमुहूर्त का दिवस होता है अर्थात् सूर्य जव १५२॥ वे मंडल पर विद्यमान होता है, तब मन्दर पर्वत की दक्षिण और उत्तर दिशा में १३ मुहूर्त का दिवस होता है-तब मन्दर पर्वत के पूर्व और पश्चिम भाग में १७ मुहूर्त की रात्रि होती । 'तेरसमुहुत्ता. णंतरे दिवसे साइरेग तेरसमुहूत्ता राई जब कुछ कम १३ मुहूर्त का दिवस होता है तब दूसरे भाग में कुछ अधिक तेरहमुहूर्त की रात्रि होती है। ___'जयाणं भंते ! जबुहोवे दीवे दाहिणद्धे जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवई तयाणं उत्तरे वि' हे भदन्त ! जब जम्बूद्वीप नामके द्वीप मे दक्षिणार्द्ध में जघन्य १२ मुहूर्त का दिवप्त होता है उस समय उत्तर दिशा में भी जघन्य १२ मुहर्त का दिवस होता है ? ___'जयाणं उत्तरद्धे' हे भदन्त ! जब मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में जघन्य १२ मुहूर्त का दिवस होता है-'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पञ्चयस्स पुरस्थिम पश्चिम दिशामा us मणि मुहूतनी विडोय छे. 'तेरसमुहत्ते दिवसे सत्तर समुहुत्ता राई' न्यारे १३ मुतना ६१ होय छे अटले सूर्य न्यारे १५२॥ मा મંડળ ઉપ૨ વિદ્યમાન હોય છે ત્યારે મંદિર પર્વતની દક્ષિણ અને ઉત્તરદિશામાં ૧૩ મુહતને દિવસ હોય છે ત્યારે મંદિર પર્વતના પૂર્વ અને પશ્ચિમ ભાગમાં ૧૭ મુહર્તની રાત્રિ कीय छे. 'तेरस मुहुत्ताणतरे दिवसे साइरेग तेरसमुहुत्ता राई' न्यारे ४४४ ४ १३ मुह ને દિવસ હોય છે ત્યારે બીજા ભાગમાં કંઈક અધિક ૧૩ મુહૂર્તની રાત્રિ હોય છે. 'जयाणं भंते ! जंबुद्द वे दीवे दाहिणद्धे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तयाणं રૂત્તરે વિર હે ભરંત ! જ્યારે જંબુદ્વપ નામક દ્વીપમાં દક્ષિણાદ્ધમાં જ ઘન્ય ૧૨ મુહને દિવસ હોય છે, તે સમયે ઉત્તરદિશામાં પણ જઘન્ય ૧૨ મુહૂર્તનો દિવસ હોય છે. 'जयाणं उत्तरद्धे०' ३ मत ! या मह२५ तना उत्तराम धन्य १२ मुड़ताहि होय छे. 'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्न पुरथिमपच्चस्थिमेणं उक्को. ज० ३२ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्रे दीवे मंदरस्स पब्वयस्प' तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य मेरोः पर्वतस्य 'पुरथिमपच्चत्थिमेणं उक्कोसिया अहारसमुहुत्ता राई भवइ' पूर्वपश्चिमेन पूर्वस्यां दिशि पश्चिमायां च दिशि उत्कर्षतः किमष्टादशहूर्त प्रमाणा रात्रि भवति, इति प्रश्नः, भगवानाह-'हंता गोयमा' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त, गौतम ! 'एवं चेव उचारेयव्यं जाव राई भवइ' एवमेवोच्चारयितव्यं यावद्रात्रि भवति, अब यावत्पदेन संपूर्णमपि प्रश्नवाक्यं संगृद्य ते । 'जया णं भो ! जंबुद्दीवे दीवे मंदापुरस्थिमेग' रदा खलु भदन ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि जघन्येन द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति 'तयाणं पञ्चत्थिमेण वि' तदा खलु मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमदिवि मागेऽपि जघनोन द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, 'जगाणं पच्चश्मेिण वि' यदा खलु जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिदिग्भागे आदशमुहूर्त प्रमाणो दिवसो भवति 'तया णं जंबुद्दीवे दीवे मदरस्त पमयस्स उत्तर दाहिणेण उक्को. पच्चस्थिमेगं उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवई' तय क्या जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशा में उत्कृष्ट अठारह मुहर्त की रात्रि होती है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हंता गोयमा ! एवं चेष उच्चारेयव्वं जाव राई भवई' हां गौतम ! ऐसा ही होता है अर्थात् जब मंद्र पर्वत के उत्तर भागमे जघन्य १२ मुहर्त का दिवस होता है तब जम्बुद्धीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशा में उत्कृष्ट १८ मुहर्त की रात्रि होती है। 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे मंदरपुरथिमेण' हे भदन्त ! जब इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में जघन्य १२ मुहर्न का दिन होता है 'तयाण पच्चस्थिमेणं वि' तब मन्दर पर्वत की पश्चिम दिशा में भी जघन्य १२ मुहूर्त का दिन होता है. 'जयाणं पच्चत्थिमेण वि' जब जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चिम दिग्भाग में १२ मुहूर्त का दिन होता है 'तयाणं जवुद्दीवे. दीवे मंदरस्स पव्वयस्त उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भइ सिया अट्ठारसमुडुत्ता राई भवई' त्यारे शु द्री५ नम४ दी५मा भ४२५तनी पूर्व भने पश्चिमाहिशामा ४७८ १२ मुडूतनी रात्रि डोय छ ? शासभा प्रभु ४३ छ–'हंता गोयमा ! एवं चेव उच्चारे यव्वं जाव राई भवइ' i, गौतम ! साम । थाय छे थेट है જ્યારે મંદર પર્વતના ઉત્તરભાગમાં જઘન્ય ૧૨ મુહૂર્તનો દિવસ હોય છે ત્યારે જંબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતની પૂર્વ અને પશ્ચિમદિશામાં ઉત્કૃષ્ટ ૧૮ મુહની રાત્રિ હોય छ. 'जयणं भंते ! जंबुदीवे दीवे मंदरपुर थिमेणं' हु महत ! न्यारे मा दीप नाम द्वा५मा म २५ तनी पूर्व वन्य १२ मुहूतना हिसाय छे. 'तयाणं पच्च त्थिमेगं बि' त्यारे भ४२५ तिनी पश्चिममा ५५ ४३न्य १२ भुङ्कत न स होय छे. 'जयाणं पच्चत्यिमेगं वि' पारे पूदी५ नाम दीपभों म४२५ तन। पश्चिम मा १२ मुतना दिवस. होय छे. 'तयाणं जंबुद्दीवे दीबे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम २५१ : सिया अद्वारसमु हुत्ता राई भवइ' तदा-तस्मिन् काले जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर दक्षिणेन उत्तरस्या दक्षिणस्यां च दिशि उत्कर्षतोऽष्टारशमुहूर्तप्रमाणा रात्रि भवति किमिति प्रश्नः, भगनाह-'हंता 'गायमा' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्न गौतम ! 'जाव राई भवई' यावद्रावि भवति, अत्र यावत्पदेन संपूर्णवः यस्य सङ्ग्रहः--यदा खलु जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वस्यां दिशि जघन्येन द्वादशप्नुहूत्तों दिवसो भवति यदा खलु मन्दरस्य पश्चिमस्यामपि जघन्येन द्वादशाहतप्रमाणो दिवसो भवति, यदा खलु पश्चिमायामपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरभागे दक्षिणभागे चोत्कर्षतोऽष्टा. दशमुहूर्तप्रमागा रात्रि भवतीति । सम्प्रति-कालाधिकारादिदमाह-'जपाणं भंते ! 'जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे' यदा खलु भद. न्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्द्ध-दक्षिणभागे 'वासाणं पढमे समए पडिवजइ' वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते-तत्र वर्षाणां चतुर्मास प्रमाणवर्षाकालस्य संबन्धी प्रथम:आधः समयः- क्षणः प्रतिपद्यते-संसद्यते भवति, 'तयाणं उत्तर वि वासाणं पढमे समए पडितब क्या इस जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत को उत्तर और दक्षिण दिशा में उत्कृष्ठ अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतम स्वामी से कहते हैं-हंता गोयमा ! जाव राई भवह' हां गौतम ऐसा ही होता है-अर्थात् जब इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में जघन्य से १२ मुहूर्त का दिवस होता है तब पश्चिम दिशा में भी १२ मुहूर्त का दिन होता है तब जंबूदीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की उत्तर और दक्षिण दिशा में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है _ 'जयाण भंते ! जंबुद्दोवे दीवे दाहिणद्धे हे भदन्त ! जब जम्बुद्वीप नामके द्वीप मे मन्दर पर्वत की दक्षिणदिशा में 'वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ' चतुर्मास प्रमाण वर्षाकाल संम्बन्धी प्रथ-आद्य-समय क्षण दक्षिण भाग में लगता है, 'तयाणं उत्तरद्धे वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ' तब मन्दर पर्वत के उत्तर दाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवई' त्यारे शुमा दीपभा भ२५ तनी ઉત્તર અને દક્ષિણદિશામાં ઉત્કૃષ્ટ ૧૮ મુહૂર્તની રાત્રિ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतमस्वामीन ४ छ 'हंता, गोयमा ! जाव राई भवई' i, गौतम ! २ाम . थाय छ એટલે કે જ્યારે આ જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં જધન્યથી ૧૨ મુહૂર્તને દિવસ હોય છે. તે વખતે જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતની ઉત્તર અને દક્ષિણદિશામાં ૧૮ મુહૂર્તની રાત્રિ હોય છે. __'जयाण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणढे' 3 Mra ! न्यारे यूद्री५ नाम दीपमा म४२५ तनी क्षY ६शमा 'वासाणं पढमे समए पडिवज्जई' यतुर्मास प्रमाण form सधी प्रय-- माध-समय-A क्षयमासमा खाणे . 'तयाणं उत्तरद्धे वि वासाणं पढमे Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जम्बूद्वीपप्रशसिस्त्रे वज्जई' यदा दक्षिणभागे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते-भवति तदा खलु मन्दरपर्वतस्योत्तरभागेऽपि वर्षाणां चतुर्मासप्रमाणवर्षाकालस्य सम्बन्धी प्रथम:-आधः समयः क्षणः प्रतिपद्यतेभवति, 'जाणं उत्तरद्धे बासा पढभे समए पडिजाइ' या खलु उत्तर भागे वर्षाकालस्य संबन्धी प्रथमः समयो भवति तयाण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पायस पुरथिमपञ्च त्थिमेणं' तदा-तस्मिन् काले यस्मिन् काले मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे भागे उत्तरभागे च वर्षाकालस्थ प्रथमः समयो भवति, तदा-तस्मिन् काले जम्बूद्वीपे द्वोपे मन्दरपर्वतस्य पूर्वपश्चिमेन-पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि 'अणंतरपुरेक्खडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जई अनन्तरपुरस्कृते समये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तत्र अनन्तरो व्यवधानरहितः सच दक्षिणावर्षा प्रथमतापेक्षया सचातीतोऽपि स्यादत आह-पुरस्कृतः पुरोवर्ती भविष्यन् इत्यर्थ इति प्रश्नः, भगवानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'जयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे भाग में भी चतुर्मास प्रमाण वर्षाकाल का प्रथम क्षण आद्य समय लगता है ? 'जयाणं उत्तरद्धे वासाणं पढमे समए पडिवज्जई' जव उत्तरार्द्ध में-उत्तर भाग में वर्षाकाल सम्बन्धी प्रथम समय होता हैं 'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्छत्थिमेणं' तब उसकाल में जब कि मन्दर पर्वत के उत्तर भाग में और दक्षिणभागमें प्रथम समय होता है जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें मन्दरपर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशा में 'अणंतरपुरेक्खड समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जई' अनन्तरपुरस्कृत समय में वर्षा काल सम्बन्धी प्रथम समय होता है ? व्यवधान रहित समय का नाम अनन्तर समय है और पुरस्कृत समय का नाम-अव्यवहित आगे के समय का नाम-पुरस्कृत समय है दक्षिणार्ध वर्षा की प्रथमता की अपेक्षा से समय को अव्यवहित कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, गोयमा!' हां गौतम! ऐसा ही होता है अर्थात् 'जयाणं जंबुसमए पडिवज्जइ' त्यारे महतन हत्त२ म १५ यतुर्मास प्रमाण वर्षानी प्रथम क्ष-माध समय साणे छे. 'जयाणं उत्तरद्धे यासाणं पढमे समए पडिवज्जइ' न्यारे उत्तराभां-उत्तरभागभां-वर्षा समधी प्रथम समय डोय छे. 'तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं' शरे ते मा २ समये म२५ तना उत्तरભાગમાં અને દક્ષિણ ભાગમાં પ્રથમ સમય હોય છે. ત્યારે જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં મંદિર पतनी पूर्व भने पश्चिमाशामा 'अणंतर पुरेक्खडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जई' અનંતર પુરસ્કૃત સમયમાં વર્ષાકાળ સંબંધી પ્રથમ સમય હોય છે ? વ્યવધાન રહિત સમયનું નામ અનંતર સમયે છે અને પુરસ્કૃત સમયનું નામ અવ્યવહિત, આગળના સમયનું નામ પુરસ્કૃત સમય છે. દક્ષિણા વર્ષોની પ્રથમતાની અપેક્ષાએ સમયને सय१खित ४डेवाभां मावत छ ? सेना वाममा प्रभु ४ छे-'हंता, गोयमा !' i, गौतम ! माम । थाय छे. मेटले है 'जयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे वासाणं पढमे समए Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् वासाणं पढमे समए पडिकजाइ तहेव जाव पडिजाइ' दा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य दक्षिणाई-दक्षिणमागे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते-भवति तथैव यावत् प्रतिपद्यते यदा उत्तरमागे वर्षाणां प्रथमः समयो भवति तदा खलु मन्दरस्य पूर्वस्या पश्चिमाया मनन्तरपुरस्कृतसमये वर्षाणां प्रथमः सागो भवतीति । 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरम्स पव्ययम्स पुरथिमेण' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूरण पूर्वस्यां दिशि 'वासाणं पढमे समए पडिनजइ' वर्षाणां सम्बन्धी प्रथम आद्यः समयः प्रतिपद्यते भाति 'तयाणं पञ्चत्यिमेणवि वासाणं पढमे साए पडिवजह' तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पश्चिमेऽपि वर्षायाः प्रथमः समयः प्रतिपद्यते भवति, 'जयाणं पञ्चस्थिमेणं वासाण पढमे समए' यदा खलु पश्चिमेन पश्चिमभागे वर्वाणां प्रथमः समयो भवति, 'तयाणं जाव मंस पव्वयस्स उत्तरदाहिणे अणंतरपच्छाक डसमयंसि वासा पढमे समए पडिवण्णे हीवे दीचे दाहिणद्वे वालाणं पढने सबए पडिबज्जइ, तहेव जाव पडिवज्जइ' जब जंयुद्धीप नामके द्वीप में मन्दरपर्वत के दक्षिण भाग में वर्षा कालका प्रथम समय होता है तब उत्तर भाग मे भी, वर्षा कालका प्रथम भाग होता है और जब उत्तर भाग में वर्षा कालका प्रथम समय होता है तब मन्दर पर्वतकी पूर्व और पश्चिमदिशा में अनन्तर पुरस्कृत समय में अव्यवहित रूप से आगे आने वाले भविष्यत्कालमें वर्षाकालका प्रथम समय होता है 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं' हे भदन्त ! जब जम्बूदीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में 'वासाणं पढमें समए पडिबज्ज वर्षाकालका प्रथम समय होता है 'तयाणं पच्चस्थिमेण वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ' तब जम्बू. द्वीप नामके दीपमें मन्दर पर्वत की पश्चिम दिशामे भी वर्षा कालका प्रथमसमय होता है 'जयाणं पचत्थिमेणं वासाणं पढ़मे समए' और जब पश्चिमदिशा में वर्षा कालका प्रथम समय होता है 'तयाणं जाव मंदरस्स पब्बयस्स उत्तर पडिवज्जइ, तहेव जाव पडिवज्जइ' पारे यूनी५ नाम दीपमा, म२५तना क्षिભાગમાં વર્ષાકાળને પ્રથમ સમય હોય છે ત્યારે ઉત્તરભાગમાં પણ વર્ષાકાળને પ્રથમ ભાગ હોય છે અને જ્યારે ઉત્તરભાગમાં વર્ષાકાળને પ્રથમ સમય હોય છે ત્યારે મંદરપર્વતની પૂર્વ અને પશ્ચિમદિશામાં અનંતર પુરસ્કૃત સમયમાં અવ્યવહિત રૂપથી આગળ भावना२। भविष्यमा पनि प्रयभ समय हाय छे. 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स पुरस्थिमेणं' मत ! यारे दी५ नाम दीपमा भ२५ तनी ५ दिशामा 'वासाणं पढमे समये पडिबज्जइ' वर्षाचन प्रयभ समय हाय छे. 'तयाणं पच्चत्थिमेण वि वासाणं पढमे समर पडिवाइ' त्याद्वीप नाम द्वीपमा भ१२५ तना पश्चिमहिशामा ५५ वर्षाने प्रथम समय हाय छे. 'जयाणं पच्चधिमेगं वासाणं पढमें समए' अन यारे पश्चिमHिi lama प्रथम समय डाय छे 'तयाणं जाव मंदरस्स Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम्बूद्वीपप्रशसिसूत्र भवइ' तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरदक्षिणेन उत्तरस्यां दक्षिणस्यां च दिशि अनन्तरपश्चात्कृतसमये पूर्वापरविदेश्वर्षाप्रथमसमयापेक्षया योऽनन्तरः पश्चात्कृतः अतीत: समयः तत्र दक्षिणोत्तरयोर्वकाल प्रथमसमयो भवतीति, प्रथमः समयः प्रतिपनो भातीति प्रश्नः, भगवानाह-हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा हन्त गौतम! हे गौतम ! यतखपा कथितं तत् तदेव, तदेवदर्शयति-'जयाणं भो ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरथिरेणं एवं चेव सव्वं उच्चारेयव्वं जार पडिवण्णे भवइ' तदा ख्लु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वेण एवमेव सर्वमुच्चारयितव्यम्, यावत्प्रतिपन्नो भवति अब आवत्पदेन प्रश्ने यत् कथितं तत्सर्वमेव अत्रोत्तरपक्षेऽपि वक्तव्यमेव, प्रतिपन्नस्यैवोत्तरपक्षतया तीर्थकरेण स्वीकृतत्वात् इति । 'एवं जहा समरणं अभिलायो भणिो वासाणं' एवं यथा येन पूर्वप्रकारेण समयेन सह वर्षागामभिलापो भणित:-कथितः 'तहा आवलियाए वि भाणियो' तथा-तेनैव प्रकारेण दाहिणेणं अतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवण्णे भवइ' तब यावत् मन्दर पर्वत की उत्तर दक्षिण दिशा में अनन्तर पश्चात्कृत समय में अव्यवहित रूप से व्यतीत हुए समय मे-वर्षा कालका प्रथम समय होता है ? यहां जो समय में पश्चात्कृतता कही गई है वह पूर्वापर विदेह क्षेत्र के वर्षा काल के समय की अपेक्षा से कही गई है अर्थात् अतीत समय का नाम ही पश्चात्कृत समय है वहां मन्दर पर्वत के दक्षिण और उत्तर में वर्षा काल का प्रथम समय होता है क्या? ऐसा प्रश्न है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'हता, गोयमाहां गौतम ! ऐसा ही होता है-अर्थात्-'जयाणं भंते ! हे गौतम ! जैसा तुमने हे भदन्त आदिरूप से प्रश्न किया है वैसाही वह सब वहां पर होता है ऐसा ही इस सम्बन्ध में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। 'एवं जहा समएण अभिलायो भणिओ वासाणं' जिस प्रकार समय के साथ यह वर्षा काल का अभिलाप कहा गया हैं 'तहा आवलियाए वि भाणियव्यो' पव्ययस्स उत्तरदाहिणेणं अगंतरपच्छाकडप्सनयंसि वासाणं पढमे समए पडिवण्णे भवई ત્યારે યાવત્ મંદર પર્વતની ઉત્તર-દક્ષિદિશામાં અનંતર પશ્ચાતકૃત સમયમાં અવ્યવહિત ઉપથી વ્યતીત થયેલા સમયમાં-વર્ષાકાળને પ્રથમ સમય હોય છે ? અહીં જે સમયમાં પશ્ચાત્ કૃત પદ કહેવામાં આવેલ છે તે પૂર્વાપર વિદેહક્ષેત્રના વર્ષાકાળના સમયની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલ છે એટલે કે અતીત સમયનું નામ જ પશ્ચાતકૃત સમય છે. ત્યાં મંદર પર્વતના દક્ષિણ અને ઉત્તરમાં વર્ષાકાળને શું પ્રથમ સમય હોય છે ? આ પ્રશ્નના rani प्रभु ४३ छे. 'हंता, गोयमा !' २माम थाय छे. भेटले, 'जयाणं भंते ! ગૌતમ! જે પ્રમાણે તમે “હે ભત ” વગેરે રૂપમાં પ્રશ્ન કર્યો છે, તે પ્રમાણે જ ત્યાં હોય છે. આમ જ આ સંબંધમાં તમારા પ્રશ્નનો જવાબ છે. एवं जहा समरण अभिलाओ भणिओ वासाणं' २ प्रमाणे समयनी सा2 मा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमबक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् आवलिकयाsपि अभिलापो भणितव्यः स चाभिलाप एवम् 'जाणं भंते ! जंबुद्दी वे दीवे दाहिणद्धे वासाणं पदमा आवलिया पडिवज्जइ तयाणं उत्तरदे वि वासाणं पढमा आवलिया पडिवाइ, जयाणं उत्तरद्धे वासाणां पढमा आवलिया पडिवज्ज्इ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पु. त्थिमपच्चरिथमेणं अतर पुरेक्खड समसिवासा पढमा अवलिया पडिवज्जइ जयाणं जंबुद्दी ने दी वे मंदरस्स पव्त्रयस्स पुरथिम पच्चस्थिमेणं अनंतर पुरेक्खडसमयं से वासाणं पढ़मा आवलिया पडिवज्जइ ? हंता गोयमा ! जयाणं भंते ! जंबुद्दी दीवे दाहिणद्धे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जः तदेव जाव परिवज्जर, जाणं भंते! जंबुद्दीवे दीने मंदरस्स पव्त्रयस्त पुरत्थि पेणं वासाणं पढमा आव लिया पडिवजह जयाणं पच्चत्यिमेणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वरूप उत्तरदाहिणेगं अगंतरपच्छाकडसमयंसि वासानं पदमा आवलिया पडिवण्णा भवइ र्हता गोयमा !" २५५ उसी प्रकार से आवलिका के साथ भी अभिलाप कहलेना चाहिये जो इस प्रकार से कहा जायगा 'जयःणं भंते! जंबुद्दीचे दीवे दाहिणद्वे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जह, तयाणं उत्तरद्वे वि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, 'जयाणं उत्तरद्वे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पचयस्स पुरस्थिमवच्चस्थिमेगं अगंतरपुरक्खड समयंसि वासाणं पढमा आवलिया परिवज्जइ जयाणं जंबुदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम पच्चस्थिमेणं अनंतर पुरे क्खडमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ ? हता, गोयमा ! जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्वे वासानं पढमा आवलिया परिवज्जइ तहेव जाय पडिवज्जइ, जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पत्रयस्स पुरत्थमेणं वासाणं पढमा अवलिया पडिज्जइ जयाणं पच्चत्थिमेणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स उत्तर दाहिणेणं वर्षाणनो अभिदाय वामां आवे छे. 'तहा आवलियाए वि भाणियन्त्रो' ते प्रभाव જ આવલિકાની સાથે પણ અભિલપ કહી લેવે જોઇએ જે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ छे. 'जयाणं भंते! जंबुद्दीचे दीवे दाहिणद्वे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तयाणं उत्तरद्धे विवासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, जयाणं उत्तरद्धे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पञ्चरस पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं अनंतरपुरक्खडे समयं सि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, जगाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम पच्चत्थिमेगं अगंतर पुरेक्खडसमयं से वासणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ ? हंता, गोयमा ! जयाणं भंते! जंबुद्दीचे दीवे दाहिणद्वे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तहेव जाव पडिवज्जइ, जयाणं भंते! जंबुद्दीवे दोघे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं वासणं पढमा आवलिया पवन, जयाणं पच्चत्थिमेणं पढमा अवलिया पडित्रज्ञ्जइ, तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मं रस्स 4 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे (यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे दक्षिणा वर्षाणां प्रथमा आवलिका प्रतिपद्यते तदा खलु उत्तराद्धेऽपि वर्षाणां प्रथमा आवलिका प्रतिपद्यते, यदा खलु उत्तरार्दै वर्षाणां प्रथमा आवलिका प्रतिपद्यते तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दःस्म एवंटस्य पूर्वपश्चिमेन अन्तः पुरस्कृतसमये वर्षाणां प्रथमा आलिका प्रतिपद्यते तदा खलु जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वपश्चिमेनानन्दरपुरस्कृतसमये वर्षाणां प्रथमा आवलिका प्रतिपद्यते, हन्त, गौतम ! यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे २ दक्षिणाद्धे वर्षाणां प्रथमा आवलिका प्रतिपद्यने तथैव यावत् प्रतिपद्यते यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वेण वर्षाणां प्रथमा आव. लिका प्रतिपद्यते तदा खलु जम्बूद्वीपे पे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरदक्षिणेन अनन्तरपश्चात् कृतसमये वर्षाणां प्रथमा आवलिका प्रतिपन्ना भवति हन्त गौतम ! इति च्छाया । . व्याख्या-स्वयमूहनीया, एवं सर्वत्रापि आलापकप्रकार: स्वयमूहनीयः, विस्तरभयात् न पुनर्लिख्यते इति । .. एवम् 'आणापाणूण वि' आनतप्राणतेनापि वर्षाणामभिलापो भणितव्यः योदेण वि' स्तोकेनापि 'लवेण वि' लवेनापि 'मासेण वि' मासेनापि 'उऊएण वि' ऋतुनापि 'एएसि सम्वेसि जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणिययो' एतेषामानप्राणादीनां सर्वेषां तथातेनैव रूपेणाभिलापो भणितव्यो यथा-येन प्रकारेण समयस्याभिलापो भणितस्तथैव, अणंतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवण्णा भवइ, हता गोयमा ! इस सूत्रकी व्याख्या सरल और स्पष्ट है अतः स्वयंही यह समझ में आसक्ती है जिस तरह का यह आलाप-प्रकार आवलिका के साथ कहा गया है "एवं आणापाणूण वि, लवेण वि, मासेणं पि उ ऊएण वि' इसी तरह का आलाप प्रकार वर्षाकालका आनप्राण के साथ, लव के साथ, मास के साथ और ऋतु के साथ भी कहलेना चाहीये यही बात 'एएसि सव्वेसिं जहा समयस्स अभिलावो तहा आणियबो' इस सूत्र द्वारा कही गई है समय के साथ जैसा पहिले अभिलाप कहा जाचुका है वैसा ही अभिलाप इन सबके साथ कहलेना चहिये इस अभिलाप का प्रकार आवलिका के साथ ऊपर में लिखाही जा चुका है। पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं अणतरपच्छाकडसमयसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवण्णा भवइ हंता गोयमा !' मा सूनी व्याच्या स२॥ मने स्पष्टीते समय तवी छे. मेथी स्वयમેવ આ સમજવામાં આવી જાય તેમ છે. આ પ્રમાણે આ આલાપ પ્રકાર આવલિકાની સાથે वामां मावा छे. 'एवं आणापाणूण वि, लवेण वि, मासेण वि उऊरण वि' मा तने। જ આલાપ પકાર વર્ષાકાળના આનપ્રાણુની સાથે, લવની સાથે માસની સાથે અને ત્રતુની साथै ५५५ ४डी नये. 20 पात एएसिं सव्वेसिं जहा समयस्स अभिलावा तहा भाणियव्वो' २॥ सूर 43 वाममावत छे. सभयनी साथे प्रमाणे पडसा माता કહેવામાં આવે છે, તે જ અભિલાય આ બધાની સાથે પણ કહી લેવું જોઈએ, આ , Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ - प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् ___ आलापप्रकारस्तु सर्वत्र पूर्ववदेव स्वयमूहनीयो विस्तरभयान लिख्यते । वर्षाकाले समयादीनां प्रतिपत्ति प्रदर्य शीतकालादौ समयादीनां प्रतिपति दर्शयितुमाह-'जयाणं भंते !" इत्यादि, 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हेमन्तानां शीत कालिकचतुर्मासानाम् प्रथमः समय:-क्षणः प्रतिपद्यते-भवति 'जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताण वि गिम्हाण वि भाणियव्यों' ययैव वर्षाणामभिलापो भणितः तथैव हेमन्तानामपि ग्रीष्माणामपि भणितपः, कियत्पर्यन्तं पूर्ववदेव अभिलापो वक्तव्य स्तत्राह-'जाव उत्तरे वि' यावदुत्तरेऽपि उत्तरभागपर्यन्तं सर्व वक्तव्यमिति ‘एवं एए तिण्णि वि' एवमे ते त्रयोऽपि वर्षा हेमन्तग्रीष्मकाला अपि वक्तव्याः 'एएसि तीसं आलावगा भाणियवा' एतेषां त्रयाणामपि वर्षादि ग्रीष्मान्तकालानां त्रिंशदाविस्तार हो जाने के भय से हम उसे यहां नहीं लिख रहे हैं! इस तरह वर्षा काल में समयादिकोंकी प्रतिपत्ति को प्रकट कर के अब सूत्रकार शीतकाल आदि में समयादिकोंकी प्रतिपत्ति को प्रकट करते हैं-इस में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमंताणं पढमे समए पडिज्जह' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में शीत काल के चार माहिनों का प्रथम समय होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं, 'जहेव वासाण अभिलावो तहेव हेमंताण वि गिम्हाण वि भाणियब्यो' हे गौतम ! जैसा वर्षा काल के चार मासों के सम्बन्ध में अभिलाप कहा गया है उसी तरह से हेमन्त के चार मासों के सम्बन्ध में एवं ग्रीष्मकाल के चार मासों के सम्बन्ध में भी अभिलाप पूर्व की तरह कहलेना चाहिये और इनके सम्बन्ध के ये अभिलाप 'जाव उत्तरे वि' यावत् उत्तर भागतक कहना चाहिये 'एवं एए तिणि वि' इस तरह ये तीन भी-वर्षा हेमन्त और ग्रीष्मकाल भी कहना चाहिये और 'एएसिं तीसं आलापगा भाणियઅમિલાપને પ્રકાર આવલિકાની સાથે પહેલાં લખવામાં આવેલ છે. વિસ્તારભયથી અમે અહીં લખતા નથી. આ પ્રમાણે વર્ષાકાળમાં સમયાદિકેની પ્રતિપત્તિને પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર શીતકાળ વગેરેમાં સમયાદિકની પ્રતિપત્તિને પ્રકટ કરે છે. આમાં ગૌતમસ્વામીએ प्रभुने सेवी शते प्रश्न य है-'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमंताणं पढमे समए पडि. वज्जई' 3 सहत !दी५ नाम द्वीपमा शीतन या२ भासाना शु. प्रथम समय डाय छ ? मेन। म प्रभु ४ छ-'जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताण वि गिम्हाण वि भाणियव्वो' गौतम !रे प्रभारी वर्षाना यार मासाना समयमा અમિલાપ કહેવામાં આવેલ છે તેમજ હેમંતના ચાર માસના સંબંધમાં ગ્રીષ્મકાળના ચાર માસના સંબંધમાં પણ અભિશાપ પૂર્વની જેમજ કહી લેવું જોઈએ અને એમનાથી सम में अभिसाप 'जाव उत्तरे वि' यावत् उत्तरमा सुधा डा न. 'एवं પણ તfor fa' આ પ્રમાણે એ ત્રણે પણ વર્ષ, હેમંત અને ગ્રીષ્યકાળ પણ કહી લેવા ज०३३ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्यूद्धीपप्रचप्तिसूत्रे लापका भणितव्याः समयावलिका आनतप्राणतस्तोकलयमुहूर्ताहोरात्रपक्षमासऋतुभिर्दशभिमेलयित्वा त्रिंशदालापका भवन्ति आलापप्रकारः स्वयमेवोहनीयः। 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमे अयणे प'डरज्जइ' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे प्राममाघमयनं दक्षिणायनम् , श्रावणादित्वात्संवत्सरस्य प्रतिपद्यते-भवति 'जहाणं समएणं अभिलावो तहेव श्रयणेणा वि भाणियध्वो जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवणे भवई' यथा-येन प्रकारेण समयेन सह अभिलापो दर्शित स्तथैव-तेनैव प्रकारेणायनेनापि अभिछापो भणितव्यः, कियत्पर्यन्तं समयवत् अभिल:पो वक्तव्य सत्राह-'जाव' इत्यादि, यावत् अनन्तरपश्चात्कृतसमये प्रथममयनम्-दक्षिणायनं प्रतिपन्नं भवतीति । 'जहा अयणेणं अभिलावो तहा संक्च्छरेण वि भाणिययो' यथा-येन प्रकारेणायनेन अभिलापो भणित स्तथा तेन प्रकारेण संवत्सरेण द्वादशमासात्मकेन काललक्षणेनापि भणितव्यो वक्तव्यः । 'जुरणवि' ब्वा' इनके तीस आलापक भी कहना चाहिये समय आवलिका आन प्राण स्तोक लव मुहूत अहोरात्र पक्ष मास, और ऋतुये दश मिलाकर तीस आला. पक होते हैं। आलार प्रकार अपने आप बनालेना चाहिये । 'जयाणं भंते ! जंबु हीवे दीवे दाहिणद्धे पढमे अयणे पडिवज्जई' हे भदन्त ! जब जम्बूहीप नामके इस द्वीप मे दक्षिण दिग्भाग मे प्रथम अयन-दक्षिणायन होता है 'जहाणं समएणं अभिलायो तहेब अयणेगा वि मागियव्यो जाब अगंतर पच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवण्णे भवई' तो जैसा समय के साथ अभिलाप दिखाया गया है उसी प्रकार से अयन के साथ भी अभिलाप यावत् अनन्तर कृत पश्चात् समय मे प्रथम अयन है यहां तक का सब कथन कहलेना चाहिये इसके उत्तर रूपमें हे गौतम! 'जहा अयणेणं अभिलावो तहा संबच्छरेण वि भाणियशे' जिस प्रकार अयन के साथ अभिलाप समय के अभिलाप के अनुसार कहने के लिये नमे. सन 'एएसिं तीसं आलावगा भाणियव्वा' अमनत्रीस साता। पर ही मे. समय, सा४ि , मान-पाय, स्तts, aq, भुत मडारा ५६, भास भने ઋતુ એ દસેને એકત્ર કરીને ત્રાસ આલાપ થાય છે. આલાપના પ્રકારે પિતાની મેળે જ मनावी . 'जयाणं भो ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमे अयणे पडिवज्जइ' ભદંત! જયારે જંબૂઢીપ નામક આ દ્વીપમાં, દક્ષિણદિગ્યાગમાં પ્રથમ અયન-દક્ષિણાયન डाय छ -'जह णं समरणं अभिलावो तहेव अयणेणा वि भाणियवो जाव अणंतरपच्छाकड सनयंसि पढमे अागे पडिवणे भवई' तो २ प्रमाणे समयका साथै ममिan५ मतावामा આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ અયનની સાથે પણ અભિલાપ યાવત્ અનંતરકૃત પશ્ચાત સમયમાં પ્રથમ અયન હોય છે. અહીં સુધીનું કથન કહી લેવું જોઈએ. તેના ઉત્તર રૂપમાં છે गौतम ! 'जहा अयणेणं अभिलागो तहा संपच्छरेण विभाणियव्वो' २ प्रमाणे भयननी साथे અમિલાપ સમયના અભિલા૫ મુજબ કહેવા માટે કહેવામાં આવેલ છે, તેમજ સંવત્સરની Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १६ सूर्यस्योदयास्तमननिरूपणम् युगेनापि तत्र युगं पञ्च संवत्सरमानम् तेनापि समामिलापो वक्तव्यः, अत्र युगेन सहातिदेशकरणात् युगस्यापि दक्षिणोत्तरयोः पूर्वसमये प्रतिपत्तिः प्रागपरयोस्तु तदनन्तरे पुरोवर्तिनि समये प्रतिपत्तिरिति । 'वाससरण वि' वर्षयतेनापि अभिलापो वक्तव्यः 'वाससा स्सेण वि' वर्षसहस्रेणापि 'वाससयसहस्सेण वि' वर्षश सहस्रेणापि लक्षेगापि 'पुव्वंगेण वि' पूर्वाङ्गेनापि तत्र पूर्वाङ्गम् चतुरशीति वर्षलाप्रमाणम् 'पुव्वेण वि' पूर्वेणापि तत्र पूर्व पूर्वाङ्गमेव चतुरशी तिवर्षलक्षणितम् । एवं त्रुटताङ्गादारभ्य सागरोपमपर्यन्तेनापि सर्वत्रालापको भणितव्यः। 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जई' यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा मन्दरस्य दक्षिणभागे प्रथमा उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते भवति 'तयाणं उत्तरद्धे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवजई तदा खलु जम्बूद्वीपे मन्दर पर्वतस्योत्तरार्दै उत्तरभागेऽपि प्रथमा कहा गया है उसी प्रकार से संवत्सर के साथ भी अभिलाप कहलेना चाहिये 'जुएण वि' इसी प्रकार युग के साथ भी पंचसंवत्सरात्मक काल के साथ भी अभिलाप कहलेना चाहिये यहां युग के साथ अतिदेश के कथन से दक्षिण और उत्तर में उस युग की भी पूर्व समय मे और पूर्व पश्चिम में तदन्तर पुरो बर्ती समय में प्रतिपत्ति होती है ऐसा समझाया गया है 'बासप्तएण वि' इसी तरह से बर्ष शत के साथ भी 'वाससहस्सेण वि, वाससयसहस्सेण वि पुधङ्गण वि' वर्ष सहस्र के साथ भी लक्ष वर्ष के साथ भी, पूर्वाह्न के साथ भी पूर्वके साथ भी तथा त्रुटिताङ्ग से लेकर सागरोपम काल के साथ भी आलापक कहलेना चाहिये ८४ लाख पूर्वाङ्ग का एक पूर्वकाल होता है। 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जई अब गौतम स्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! जब जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिणार्ध में प्रथम उत्सर्पिणी होती है 'तयाणं उत्तरद्धे साथै ५ मा ४१ वा नये. 'जुएणवि' मा प्रभारी युसनी साथै पर पथ સંવત્સરાત્મકકાળની સાથે પણ અભિલાપ કહી લેવું જોઈએ. અહીં યુગની સાથે અતિદેશના કથનથી દક્ષિણ અને ઉત્તરમાં તે યુગની પણ પૂર્વ સમયમાં અને પૂર્વ-પશ્ચિમમાં તદનંતર પુરેવતી સમયમાં પ્રતિપત્તિ થાય છે, આ પ્રમાણે સમજાવવામાં આવ્યું છે. 'वाससएणवि' मा प्रभारी २ वर्ष शतनी साथे पर 'वाससहस्सेणवि, वाससयसहस्सेण वि पुव्वंगेण वि' १ सहसती साथे ५ सपना साथे पण, पूगिनी साथे पर, તેમજ ત્રુટિતાંગથી માંડીને સાગરોપમકાળની સાથે પણ આલાપક કહી લેવું જોઇએ. ८४ सम पूर्वाना र पूण डाय छे. 'जयाणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ' हुवे गौतमवाभीमे प्रभुने मेवी रीते प्रश्न या ले કે હે ભત! જ્યારે જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં મંદર પર્વતના દક્ષિણાદ્ધમાં પ્રથમ ઉત્સર્પિણી डाय छे 'तयाणं उत्तरद्धे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जई' त्यारे २५१तन उत्तराभा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जम्बूद्वीप उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते 'जयाणं उत्तरद्धे पढमा तयाणं जंबुदोवे दीवे मंदरस्स पायस्स पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं' यदा खलु मन्दरस्योत्तरार्द्ध उत्तरदिग्भागे प्रथमा उत्सर्पिणी प्रतिपद्यते भवति तदा खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वपश्चिमेन पूर्वस्यां पश्चिमायाश्च दिशि अवसर्पिणी प्रथमा भवति । 'नत्थि ओसप्पिणी णेवत्थि उस्सप्पिणी' नैवास्ति अवसर्पिणी नैवास्ति उत्सर्पिणी, कुतः अवसर्पिणी उत्सर्पिणी च कथंन भवत स्तत्राह - ' अवट्ठिएणं' इत्यादि, 'अवद्विणं तत्थ काले पन्न ते समणाउसो' अवस्थितः - सर्वथा एकत्वरूपः कालस्तत्र प्रज्ञप्तः कथितः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् इति प्रश्न, भगवानाह - 'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त, गौतम ! 'तं चेव उच्चारेयव्धं जाव समगाउसो' तदेव सर्व प्रश्नप्रकरणमुच्चार यितव्यम् - बक्तव्यम् यावत् हे श्रमण ! हे आयुष्मन् 'जहा ओसविणीए आलावगी भणिओ एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियव्वो' यथा येन प्रकारेण अवसर्पिण्या आलापको भणित एवं प्रकारेण उत्सर्पिण्या अपि आलापको भणितव्यो वक्तव्य इति पञ्चमशतकप्रथम देशकप्रकरणस्यातिदेशादागतस्य व्याख्यानं समाप्तमिति ॥ वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जह' तब मन्दर पर्वत के उत्तरार्ध में भी प्रथम उत्सर्पिणी होती है और 'जयाणं उत्तरद्धे पढमा तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं' हे भदन्त ! जब मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में प्रथम उत्सर्पिणी होती है तब जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की पूर्व और पश्चिमदिशा मे प्रथम अवसर्पिणी होती है ? इसके उत्तर मे प्रभु कहते हैं - 'वत्थि ओसपिणी वत्थी उस्सपिणी' हे गौतम! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में और पश्चिम दिशा में न उत्सर्पिणी होती है और न अवसर्पिणी होनी है- क्योंकि 'अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते' वहां पर काल अवस्थित कहा गया है सर्वधा एक रूप कहा गया है इत्यादि रूप से भगवतिसूत्र के पञ्चम शतक के प्रथमोद्देशक प्रकरण का जो कि यहाँ अतिदेश द्वारा गृहीत किया गया है यह व्याख्यान समाप्त हुआ यह सब पाठ यहां पर "जहा पंचमसए पढमे उद्देसे प्रथम उत्सर्पिणी होय छे भने 'जयाणं उत्तरद्धे पढमा तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं' हे महांत ! न्यारे भौंहरपर्यंतनी उत्तरद्विशामां प्रथम ઉત્સર્પિણી હાય છે ત્યારે જ બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં મઢરપર્યંતની પૂર્વ અને પશ્ચિમदिशाभांशु प्रथम अवसर्पिणी होय हे ? सेना वाणमां अलु उडे छे - 'णेवत्थि ओसपिणी वत्थी उत्सर्पिणी' हे गौतम! यूद्रीपना भरपर्वतनी पूर्व हिशामां ने पश्चिमहिशाभां न उत्सर्पिणी होय हे भने न अवसर्पिणी होय छे. प्रेम ' अवट्ठिएणं तत्थ काले पण्णत्ते' त्या अण अवस्थित वामां आवे छे. सर्वथा ४३५ वा आवे छेઇત્યાદિ રૂપમાં ભગવતિ સૂત્રના પાંચમા શતકના પ્રથમૈદ્દેશક પ્રકરણનું કે જે અહીં' અતિદેશ વડે ગૃહીત કરવામાં આવેલ છે. અહીં આ વ્યાખ્યાન સમાપ્ત થયું છે. આ સ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सतमREकारः सू. १६ सूर त्यो प्यास्तमननिकरणम् ___ सम्प्रति-प्रस्तुताधिकार पसंहरनाह-'इच्चेसा' इत्यादि, 'इच्चेसा जंबुद्दीव पण्णत्ती सर पण्णत्तो वस्तु समासेगं समत्ता भवइ' इत्येषा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिः वस्तु समासेन समाप्ता भवति-इत्येपा मनन्तरपूर्वस्वरूपा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः प्रथमद्वीपस्य यथावस्थित स्वरूपनिरूपिका ग्रन्थ पद्धतिरस्मिन् उपाने सूर्यप्रज्ञप्तिः सूर्याधिकारप्रतिबद्धा पदपद्धतिः वस्तुनां मण्डलसंख्यादीनां समासः सूर्यप्रज्ञप्तिः महाशास्त्रापेक्षया संक्षेपः तेन समाप्त भवतीति ॥ सम्प्रति चन्द्रवक्तव्यता प्रश्नमाह-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इत्यादि, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' 'चंदिमा उदीणपाईण मुग्गच्छ पाईणदाहिण मागच्छंति' चन्द्रमसौ उदीचनप्राचीन मुद्गत्य-उदीचीनप्राचीनदिग्भागे ईशानकोणे इत्यर्थः उद्गत्य-उदयमासाद्य तदनन्तरं प्राचीनदक्षिण पूर्वदक्षिणयोः कोणे आग्नेय दिशीत्यर्थः आगच्छतः किम् 'जहा सूरवत्तव्बया जाव णेवथि उस्लप्पिणी अवढिरणं तत्य काले पण्णत्ते" इस सत्र में आगत यावस्पद से गृहीत हुआ उसे यहां प्रकट किया गया है। उत्सर्पिणी और अवसपिणी के सम्बन्ध में आलापक स्वयं उद्भवित कर लेना चाहिये अब सूत्रकार प्रस्तुत अधिकारका उपसंहार करते हुए कहते हैं 'इच्चेसा जंबुद्दीवपण्णत्ती सूर पण्णत्तोवत्थुसमासेण समत्ता भवई' इस तरह इस जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति-प्रथम होप के यथावस्थित स्वरूप का निरूपण करने वाली ग्रन्थ पद्धति में कथित यह सूर्य प्रज्ञप्ति-सूर्याधिकार प्रतिबद्ध पद पद्धति सूर्यप्रज्ञप्ति महाशास्त्र की अपेक्षा से सूर्य के वस्तुसमास मंडल संख्या आदि के संक्षेप कथन को लेकर समाप्तहुइ । अब चन्द्र के सम्बन्ध में सूत्रकार कथन करते हैं-इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जंबुद्दोवे णं ते! दीवे चंदिमा उदीण पाईण उग्गच्छ पाईण दाहिण मागच्छंति' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में जो दो चन्द्रमा कहे गये हैं वे ईशान कोण में उदित होकर बाद में आग्नेय कोण में आते हैं 41s मी 'जहा पंचमसए पढमे उदेसे जाव णेवस्थि उस्सप्पिणी अवढिएणं तत्थ काले पण्णत्ते' આ સૂત્રમાં આવેલા યાવત્ પદથી ગૃહીત થયેલ છે. ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણીના સંબંધમાં આલાપકની ઉદ્દભાવના યમેવ કરવી જોઈએ. હવે સૂકાર પ્રસ્તુત અધિકારનો ५२ ४२di ४ छ-'इच्चेसा जंबुदीपणती सूरपण्णत्ती वत्थु समासेण समत्ता भवई' मा प्रमाणे मापूदी५ प्रशति-प्रथम दीनां यथास्थित २१३५नु नि३५ કરનારી ગ્રન્થપદ્ધતિમાં કથિત આ સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ-સૂધિકાર પ્રતિબદ્ધ પદ પદ્ધતિ, સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ મહ શાસ્ત્રની અપેક્ષાએ સૂર્યના વસ્તુ સમા મંડળ સંખ્યા વગેરેના સંક્ષિપ્ત કથનથી માંડીને અહીં સમાપ્ત થઈ. હવે ચન્દ્રના સંબંધમાં સૂત્રકાર કથન કરે છેઆમાં गौतमस्वामी प्रभुने मेवी ने प्रश्न छ-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे चंदिमा उदीण पईणउगाच्छाईग दाहिण मागच्छंति' मत ! दी५ नाम द्वीपभा २ मे यन्द्रमाया કહેવામાં આવેલા છે, તેઓ ઈશાન કેણમાં ઉદિત થઈને તે પછી શું આને કણમાં આવે Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जम्बुद्धीपप्राप्तिसूत्रे जहा पंचम सयस्स दसमे उद्दे से जाव अबएणं तत्थ काले पन्नते समणाउसो' यथा सूर्यवक्तव्यता यथा पञ्चमशतस्य दशमे उदेशके यावदास्थितः खलु तत्र कालः प्रज्ञप्तः हे श्रमण ! हे आयुष्मान !, यथा सूर्यवक्तव्यता इति कयनेन एवमर्थो ज्ञातव्यः ‘पाईणदाहिण पुग्गच्छ दाहिणपडीणमागच्छंति' प्राचीन दक्षिणम्-आग्नेय कोणे उद्गत्य-उदयमासाद्य दक्षिण प्रतीचीनम् दक्षिणपश्चिमयोः कोणमागच्छाः किम् २, 'दाहिणपडीण मुग्गन्छ पडीगउदीण मागच्छंति ३' दक्षिणप्रतीचीनमुद्गत्य प्रतिवीनोदीचीनमागच्छतः ३ किम्बा-प्रतीचीनो दीचीन मुद्गत्य उदीचीन प्राचीनमागच्छत इति चन्द्रोदयविषयकः प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! पश्चमशतस्य दशमे चन्द्रनामके उद्देशके यथाकथित स्तथैवात्रापि ज्ञातव्यः अर्थात्यत् यथात्वया चन्द्रोदय विषये पृच्छयते तत् तथैव-यित्पर्यन्तं दशमोदेशकप्रकरणमत्रानुसधातव्यं तत्राद यावदवस्थितः तत्र खलु काः प्रज्ञप्तः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् एतत्सर्वमत्रैव सूर्यप्रस्ताव विस्तरेणास्माभिः प्रतियादितं तत एव द्रष्टव्यम्, इति । क्या ? 'जहा सूरवत्तव्वया जहा पंचमसयस्त दसमे उद्देसे जाब अबटिएणं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो' इसी प्रकार सूर्यवक्तव्यता की तरह आग्नेय कोण में उदित होकर दक्षिण पश्चिम के कोण में आते हैं क्या ? दक्षिण पश्चिम के कोण में उदित होकर पश्चिम उत्तर के कोण में आते हैं क्या ? और पश्चिम उत्तर के कोण में उदित होकर वे उत्तर और पूर्व के कोण में आते हैं क्या? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम ! भगवती सूत्र के पश्चम शतक के १० वें उद्देशक में कि जिसका नाम चन्द्र उद्देशक है इन सब चन्द्र विष यक प्रश्नों का उत्तर दिया गया है सो वैसा ही उत्तर यहां पर भी जानलेना चाहिये तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार से तुमने ये प्रश्न चन्द्र के सम्बन्ध मे किये हैं सो इनका उत्तर इन प्रश्न का वैसा ही स्वीकार.करलेना है। वह सब प्रकरण यहां "वहां काल अवस्थित है" यहां तक जैसा कि वह अभी अभी सूर्य प्रस्ताव छ ? 'जहा सूवित्तव्वया जहा पंचमसयस्स दसमे उद्देले जाव अवट्ठिएणं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो' मा प्रमाणे सूर्य परततानी रेम माग्नेयमield न शु દક્ષિણ-પશ્ચિમકેણમાં આવે છે? દક્ષિણ-પશ્ચિમનાકેણમાં ઉદિત થઈને શું પશ્ચિમ-ઉત્તરના કાણુમાં આવે છે? અને પશ્ચિમ ઉત્તરના કેણમાં ઉદિત થઈને શું તેઓ ઉત્તર તેમજ પૂર્વના કેણમાં આવે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે-હે ગૌતમ ! ભગવતી સૂત્રના પાંચમા શતકના ૧૦ મા ઉદ્દેશકમ-કે જેનું નામ ચન્દ્ર ઉદ્દેશક છે એમાં બધા ચન્દ્ર વિષયક પ્રશ્નોના ઉત્તરો આપવામાં આવેલા છે. તે તે પ્રમાણે જ અહીં પણ જવાબ સમજી લેવા, જોઈએ. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે જે પ્રમાણે તમેએ ચન્દ્રવિષયક આ પ્રશ્નો કર્યા છે તે એમના જવાબે પણ તે પ્રમાણે જ સ્વીકારી લેવા જ જોઈએ. તે પ્રકરણ અત્રે ત્યાં કાલઅવસ્થિત છે. અહીં સુધીનું કથન જે પ્રમાણે હમણા-હમણું જ સૂર્યપ્રસ્તાવમાં Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स्. १७ संवत्सरभेदनिरूपणम् सम्प्रति-प्रकरणमुपसंहरबाह-'इच्चेसा' इत्यादि, 'इच्चेसा' इत्येषा अनन्तरपूर्वकथित स्वरूपा 'जंबुद्दीवपन्नत्ती' जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः प्रथमद्वीपस्य यथावस्थितस्वरूपनिरूपिका प्रकरणपद्धतिः अस्मिन् उपाङ्गे कथिता, चन्द्रप्रज्ञप्तिः चन्द्राधिकारप्रतिबद्धा पदपद्धतिः वस्तु समासेन वस्तूनां मण्डलसंख्यादीनां समासः चन्द्रप्रज्ञति महाशास्त्रापेक्षया संक्षेपः तेन समाप्ता भवतीति ॥ सू० १६॥ एतेषां ज्योतिष्कदेवानां सूर्यचन्द्र नक्षत्रग्रहतारारूपाणी चारविशेषात् संवत्सरविशेषाः प्रवर्तन्ते इति संवत्सर भेदं प्रश्नयनाह-'य इणं भंते !' इत्यादि, मूलम्-कणंभंते ! संवच्छरा पण्णत्ता ? गोयमा पंच संवच्छरा पण्णता? तं जहा-णवखत्तसंवच्छरे जुगसंसच्छरे पमाणसंवच्छरे लक्खणसंवच्छरे सणिच्छरसंवच्छरे । णक्खत्तसंवच्छरेणं भंते | कइविहे पन्नत्ते ! गोयमा! दुवालसविहे पन्नत्ते तं जहा-सावणे भदवए आसोए जाव आसाढे जंवा विहप्फई महग्गहे दुवालसे हिं संबच्छरेहिं सव्वक्त्तमंडलं समाणेइ सेत्तं णक्खत्तसंवच्छरे जुगसंवच्छरेणं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते तं जहा-चंदे चंदे अभिवद्धिए चंदे अभिवद्धिए चेवेत्ति । पढमस्स णं भंते ! चंदसंवच्छरस्स कइ पव्वा पन्नत्ता ? गोयमा! चोवीसं पव्वा पन्नत्ता, वितीयस्स गं भंते । वंदसंबच्छरस्म कइ फव्वा पन्नत्ता? गोयमा! चउवीसं पव्वा पन्नत्ता, एवं पुच्छा, तईयस्स, गोयमा ! छठवीसं पव्वा पन्नत्ता, चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स चोवीसं पव्वा, पंचमस्स णं अहि. वद्धियस्स छठवीसं पा पन्नत्ता, एवामेव सपुत्वावरेणं पंच संवच्छरिए जुए एगे चउव्वीसे पठसए पण्णत्ते से तं जुगसंबच्छरे । पमाणसंवच्छरेणं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते तं जहाणक्षते१ चंदे२ उऊ ३ आइच्चे४ अभिवद्धिए५, से तं पमाणसंवच्छरे में विस्तार से प्रकट कर दिया गया है वैसा वह सब इस उमङ्ग में कथित चन्द्र प्रज्ञप्ति के चन्द्र मंडल संख्या आदि के संक्षेप कथन से इस चन्द्र प्रज्ञप्ति को समाप्त किया गया है ॥ ० १६ ।। સવિસ્તૃત પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે તેવું જ બધું આ ઉપાંગમાં કથિત ચન્દ્રપ્રજ્ઞપ્તિના ચન્દ્રમંડળ સંખ્યા વગેરેના સંક્ષેપ કથનથી–આ ચન્દ્રપ્રજ્ઞપ્તિને અને સમાપ્ત કરવામાં આવેલ છે, સૂ૦ ૧૬ , Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जम्बू इति । लक्खणसंवच्छरेणं भंते ! कइविहे पन्नते ? गोयमा : पंचविहे पन्नत्ते तं जहा समयं णक्खत्ता जोगं जोयंति समयं उजुपरिणामति । णच्चुण्हणा इसीओ बहूदओ होइ णक्खत्ते ॥१॥ ससि समगपुण्णमासिं जोएंति विसमचारिणवखत्ता। कडुओ बहूदओय तमाहु संवच्छरं चंदं ॥२॥ विसमं पवालिणो परिणमंति अणुजूसु दिति पुप्फपलं। वासं न सम्मवासइ तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥३॥ पुढवीदगाणं च रसं पुप्फफलाणं च देइ आइचो । अप्पेण वि वासेणं सम्मं निप्फज्जए सस्सं ॥१॥ आइच्च तेयतविया खणलवदिवसा उजूपरिणमंति । पूरेइय णिण्णप्पले तमाहु अभिवद्धियं जाण ॥ ५॥ सणिच्छरसंवच्छरेणं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! अट्ठावि. सइविहे पन्नत्ते तं जहा अभिई सवणे धणिट्ठा सयभिसया दोय होति भदवया । रेवइ अस्तिणी भरणी कत्तिया तह रोहिणी चेव ॥१॥ जाव उत्तराओ आसाढाओ जं वा सणिचरे महग्गहे तीसाए संव. च्छरेहिं समाणेइ, सेत्तं समिच्छरसंघच्छरे त्ति । सू० १७॥ छाया-कति खलु भदन्त ! संवत्सराः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सरः १, युगपंवत्सरः प्रमाणसंवत्सरः ३ लक्षणसंवत्सरः ४, शनिश्चरसंवत्सरः ५, नक्षत्रसंवत्सरः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! द्वादशविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-श्रावणो भाद्रपदः अश्विनो यावदापाढः यंका बृहस्पति महाग्रहो द्वादशभिः संवत्सरैः सर्वनक्षत्रमण्डलं समानयति सोऽयं नक्षत्रसंवत्सरः । युगसंवत्सरः खलु भदन्त ! कति विधः प्रज्ञप्तः गौतम! पश्चविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रः अभिवद्धितः चन्द्रो ऽभिवद्धितश्चैवेति । प्रथमस्य खलु भदन्त ! चन्द्रसंवत्सरस्य कतिपर्वाणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चतुर्विंशतिः पाणि प्रज्ञप्तानि; द्वितीयस्य खलु भदन्त ! चन्द्रसंवत्सरस्य कतिपर्वाणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चतुर्विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि, एवं पृच्छा तृतीयस्य, गौतम ! षड्डू Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका का-सप्तमवक्षस्कारद. १७ संवत्सर मेदानरूपणम् २६५ विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि, चतुर्थस्य चन्द्रसंग सरस्य चतुर्विशतिः पर्वाणि पश्चमस्य खल्लु अभिवदितस्य षइविंशतिः पर्वाणि च प्रज्ञप्तानि एवमेव सपूर्वापरेण पञ्चसंवत्सरे युगे एकस्मिन् चतुर्विशं पर्वशतं प्रज्ञप्तम्, सोऽयं युगसंवत्सरः। प्रमाणसंवत्सरः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञयः, तद्यथा-नक्षत्र-चन्द्रः-ऋतुरादित्योऽभिवद्धितः सोऽयं प्रमाणसंवत्सरः । नक्षत्रसंवत्सरः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा समकं नक्षत्राणि योगं युञ्जन्ति, समकम् ऋतवः परिणमन्ति । नात्युषणो नाति शीतो बहूदको भवति नक्षत्रः १ । शशि समक पौर्णमासी योजयन्ति विषमचारि नक्षत्राणि । कटुको बहूद कश्च तमाहुः संवत्सरं चान्द्रम् ॥ २ ॥ विषमे प्रवालिनः परिणमनित अनृतुषु ददतिपुष्पफलम् । वर्ष न सम्यग्र वर्षति तमाहुः संवत्सरे कर्म ॥३॥ पृथिव्युदकानां च रसं पुष्पफलानां च ददात्यादित्यः । अल्पेनापि वर्षेण सम्यग् निष्पद्यते सस्यम् ॥ ४॥ आदित्य तेजस्तप्ताः क्षणलव दिवसा ऋतवः परिणमति । पूरयति च निम्नस्थले तमाहुरभिवदितं जानीहि ॥५॥ शनैश्वरसंवत्सरः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! अष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा __ अभिजित् श्रवणः धनिष्ठा शतभिषक द्वे च भवतो भाद्रपदे । रेवती अश्विनी भरणीकृत्तिका तथा रोहिणी चैत्र ॥१॥ यावद् उत्ता आषाढाः यंहा शनैश्चरो महाग्रह स्त्रिंशता संवत्सरैः सर्व नक्षत्रमण्डलं समानयति सोऽयं शनैश्वरसंवत्मरः॥सू. १७॥ ___टीका-'कइणं भंते ! संबच्छरा पम्मत्ता' कति खलु भदन्त ! संवत्सराः प्रज्ञप्ता:___ अब सूत्रकार "ज्योतिष्क देवों के-सूर्य चन्द्र नक्षत्र ग्रह और तारा के भेद से पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के चार :विशेष-गति विशेष से संवत्सर विशेष होते हैं इस अभिप्राय से संवत्सर के भेदों का कथन करते हैं 'कइणं भंते ! संवच्छरा पण्णत्ता' इत्यादि टोकार्थ-इसमें गौतमस्वामी ने यही बात प्रभु से पूछो है 'कहणं भंते ! હવે સૂત્રકાર “તિષ્ક દેન-સૂર્ય, ચન્દ્ર, નક્ષત્ર, ગ્રહ અને તારાઓના ભેદથી પાંચ પ્રકારના તિષી દેના ચાર વિશેષ-ગતિ વિશેષથી, સંવત્સર વિશેષ થાય છે – मे अभिप्रायथा सवत्सरना नहानुन ४रे छे--'कइणं भंते ! संवच्छरा पण्णत्ता' इत्यादि। साथ-सामा गौतमस्थानीय प्रभुन म पात छी छ-'कहणं भंते ! संवच्छत ज. ३४ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ gurusafiree कथिताः, हे भदन्त ! संवत्सरो कतिप्रकारको भवतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'पंच संच्छरा पद्मत्ता' पञ्च संवहाराः प्रज्ञप्ताः - कथिताः पञ्चप्रकारकाः संवत्सरा भवन्तीत्यर्थः तमेव पञ्च भेदं दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'णवखत्त संवच्छ रे' नक्षत्र संवत्सरः 'जुगसंवच्छ रे' युगसंवत्सरः ' पमाण संवत्सरे: प्रमाण संवत्सरः 'लक्खण संवच्छ रे' लक्षण संवत्सरः 'सणिच्छर संवच्छ रे' शनैश्वरसंवत्सरः तत्र नक्षत्रेषु भवः संवत्सरो नाक्षत्र संवत्सरः अर्थात् चन्द्रवारं चरन यावत्प्रमाणकेन कालेन अभिजिम्न्नक्षत्रादारभ्योत्तराषाढा नक्षत्रपर्यन्तं गच्छति प्रत्प्रमाणो मासो नाक्षत्रमासः, अथवा नक्षत्रमण्डले परिवर्तनतानिष्पन्न इत्युपचारात् मासोऽपि नक्षत्रम्, सच द्वादशगुणो नक्षत्रसंपत्सरः । तथा युगसंवत्सरः पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं तदेकदेशभूतो वक्ष्यमाणलक्षणः चन्द्रादियुगपूरकत्वाद् युगसंवत्सरः तथा प्रमाण संवत्सरः, तत्र प्रमाणं परिमाणं दिवसादीनां तदुपलक्षितो वक्ष्यमाणो नक्षत्र संवत्सरादिः प्रमाणसंवत्सरः स एव लक्षणानां वक्ष्यमाण स्वरूपाणां प्रधानतया लक्षण संवत्सरः । यावता कालेन शनैश्वर एकं नक्षत्र मथवा द्वादशापि राशीन् भुङ्क्ते स शनैश्वरसंवत्सर इति ॥ संवत्सराणां नामनिर्वचनं कृत्वा सम्प्रति संवत्सराणां भेदानाह - 'णक्खत्त संवच्छरे भंते ! कइविहे पत्ते' नक्षत्रसंवत्सरः खलु भदन्त ! कति विधः प्रज्ञप्त, हे भदन्त ! योऽयं नक्षत्रनामकः संवत्सरः सतिविधः कतिप्रकार कः प्रज्ञप्तःकथित इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुवालसविहे पश्नत्ते' द्वादशवि द्वादशप्रकारकः प्रज्ञप्तः कथितः, 'तं जहा ' तद्यथा - 'सावणे भद्दवए आसोए संवच्छरा पण्णत्ता' हे भदन्त ! संवत्सर कितने प्रकार के कहे हैं ? उत्तर में प्रभु ने कहा है- 'गोमा ! पंत्र संच्छरा पण्णत्ता' हे गौतम ! संवत्सर पांच प्रकार के कहे हैं - तं जहा 'जैसे- 'णक्खत्त संवच्छ रे' एक नक्षत्र संवत्सर 'जुग संघच्छरे 'दूसरा युग संवत्सर, 'पमाण संवच्छरे' तीसरा प्रमाण संवत्सर 'लक्खणसं वच्छरे ' चतुर्थ लक्षणसंवत्सर और 'सणिच्छर संवच्छरे' पाचर्चा शनैश्चर संस्सर, 'क्खत्तरसंवच्छरे णं भंते! कइविहे पन्नत्ते' हे भदन्त । इनमें से नक्षत्र संवत्सर कितने प्रकार का है ? 'गोयमा ! णक्खत्तसंवच्छरे दुवालसविहे पण्णत्ते' उत्तर प्रभु ने कहा है- हे गौतम! नक्षत्रसंवत्सर १२ बारह - प्रकार का है नक्षत्रों पण्णत्ता' हे महंत ! संवत्सर फुटला प्र४२ना छे ? उत्तरमा प्रभु छे - 'गोयमा ! पंचसंत्रच्छरा पण्णत्ता' हे गौतम! संवत्सर यांय प्रेम 'णाखत्त संवच्छरे' से नक्षत्र संवत्सर 'जुग संच्छरे' द्वितीय युग संवत्सर 'पमाण संघच्छरे ' तृतीय प्रमाणु संवत्५२, 'लक्ख गवच्छरे' अनुभ' सक्षशु स ंवत्सर मने 'सणिच्छर संवच्छरे' पथमं शनैश्चर संवत्सर 'णक्खत्तसंवच्छरे णं भंते! कइविहे पन्नत्ते' हे लत ! आम नक्षत्र संवत्सरे। डेंटला प्रभार! छे ? 'गोयमा ! णक्खत्तसंवछरे दुवालसविहे पण्णत्ते' ઉત્તરમાં પ્રભુએ કહ્યું છે-હે ગૌતમ ! નક્ષત્ર સંવત્સરના ૧૨ પ્રકારો છે. નક્ષત્રમાં જે સવત્સર प्रहारना छे. 'तं जहां' Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १७ संवत्सर निगम में होने वाले संवत्सर का नाम नाक्षत्र संवत्सर है इसका तात्पर्य ऐसा है-गति करता हुआ चन्द्र जितने प्रमाण वाले समय में अभिजित् नक्षत्र से लेकर उत्तराषाढा नक्षत्र तक जाता है उतने प्रमाण वाले कालका नाम एक मास है इसीको नाक्षत्रमास भी कहा गया है अथवा यह नक्षत्रमंडल में परिवर्तनता से निष्पन्न होता है इस कारण उपचार से मास को भी नक्षत्र मास कह दिया जाता है, यह मास जब १२ से गुणित होना है तब यह नक्षत्र संवत्सर होजाता है पांच संवत्सरों का एक युग होता है इस युगका एक देशभूत कि जिसका लक्षण आगे कहा जानेवाला है चन्द्रादि युगका पूरक होने से युगसंव. त्सर कहा गया है दिवसादिकों के परिमाण से उपलक्षित जो वक्ष्यमाण नक्षत्र संवत्सरादि है वही प्रमाणसंवत्सर है यही वक्ष्यमाण स्वरूप वाले लक्षणों की प्रधानता से लक्षण संवत्सर होता है। जितने समय में शनिश्चर एक नक्षत्र को अथवा १२ राशियों को भोगता है वह शनैश्वर संवत्सर है इस तरह से संवत्सरों के नामों का निर्वचन करके अब सूत्रकार इनके प्रभेदों का वर्णन करते हैं इसमें गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'नक्खत्तसंवच्छरेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! नक्षत्र संवत्सर कितने प्रकार का है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! दुवालसविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! नक्षत्र संवत्सर १२ प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जो इस तरह से हैं-'सावणे, भद्दवए, आसोए, जाव છે, તેનું નામ નક્ષત્રસંવત્સર છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે-ગતિ કરતે ચન્દ્ર જેટલા પ્રમાણવાળા સમયમાં અભિજિત નક્ષત્રથી માંડીને ઉતરાષાઢા નક્ષત્ર સુધી જાય છે, તેટલા પ્રમાણુવાળા કાળનું નામ એક માસ છે. આને જ નક્ષત્ર માસ પણ કહેવામાં આવે છે. અથવા આ નક્ષત્રમંડળમાં પરિવર્તનતાપૂર્વક નિપન્ન હોય છે એથી ઔપચારિકતાના કારણે માસને પણ નક્ષત્ર કહેવામાં આવેલ છે. આ માસ પારે ૧૨ વડે ગુણિત કરવામાં આવે છે ત્યારે આ નક્ષત્ર સંવત્સાર થઈ જાય છે. પાંચ સવત્સરેને એક યુગ થાય છે. આ યુગનો એક દેશમૂત કે જેનું લક્ષણ આગળ કહેવામાં આવશે ચન્દ્રાદિયુગને પૂરક હેવાથી યુગ સંવત્સર કહેવામાં આવેલ છે. દિવસાદિકના પરિમાણથી, ઉપલક્ષિત જે વફ્ટમાણ નક્ષત્ર સંવત્સરાદિ છે, તે જ પ્રમાણુ સંવત્સર છે. એજ વાક્યમાણ સ્વરૂપવાળા લક્ષણોની પ્રધાનતાથી લક્ષણ સંવત્સર થાય છે. જેટલા સમયમાં શનિશ્ચર એક નક્ષત્રને અથવા ૧૨ રાશિઓને ભેગવે છે, તે શનૈશ્ચર સંવત્સર છે. આ પ્રમાણે સંવત્સરના નામેનું નિર્વચન કરીને હવે સૂરકાર એમના પ્રણેનું વર્ણન કરે છે. આમાં ગૌતમस्वाभीये प्रभुने मेवी रीते प्रश्न ४य छ-'नक्खत्तसंवच्छरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' 3 महत ! नक्षत्र संवत्स२ मा ४२ना छ १ सेना सभी प्रभु ४३ छ- गोयमा ! दुवालसबिहे पण्णत्ते' 3 गौतम! नक्षत्र सरस२ १२ १२ना ४ामा मा छे. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जाव आसाढे' श्रावण भाद्रपदः आश्विनो यावदापाठः, अत्र यावत्पदेन कार्तिकमार्गशीर्ष पौष माघफाल्गुन चैत्र वैशाखज्येष्ठमासानां संग्रहो भवति, अयमर्थः अत्र खलु सकल नक्षत्रयोगपर्याय: द्वादश संख्यया गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः ततः श्रावणादि द्वादश सकनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रवणादारभ्य आषाढान्तनामान: तेऽपि अवयवे समुदायोपवारात् नक्षत्र संवत्सरः ततः श्रावणादि द्वादशविधो नक्षत्र संवत्सर इति, एवं भाद्रपदादारभ्य श्रावणान्तो वर्षोभाद्रपदवर्षः एवमाश्विनादारभ्य भाद्रपदान्तः कार्त्तिकादारभ्य आश्विनान्त इत्यादि, क्रमेण आषाढान्त वर्षो ज्ञातव्यः । अथवा प्रकारान्तरेण नक्षत्र संवत्सरस्य निर्वचनं कर्तुमाह - 'जं वा' इत्यादि, 'जं वा बिहफ महग्गहे' यद्वा बृहस्पति बृहस्पति नामको महाग्रहः 'दुवालसेहिं संगच्छरेहिं' द्वादआसाढे' श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, और आषाढ सकल नक्षत्रों के योग की पर्याय कि जो १२ से गुणित की जाती है नक्षत्र संवत्सर कही गई है श्रावणादि १२ नक्षत्रों की योग पर्यायों के नाम श्रावण से लेकर आषाढ तक के महिनों के नामवाली है इसलिये वे अवयवों में समुदाय के उपचार से नक्षत्र संवत्सर इस नाम से कहा जाता है इस तरह नक्षत्रसंवत्सर श्रावणादि के भेद से १२ प्रकार का कहा गया है भाद्रपद से लेकर श्रावण तक के महिनों में अन्त को प्राप्त हुआ वर्ष भाद्रपद वर्ष, आश्विन से लेकर भाद्रपद तक के महिनों में अन्त को प्राप्त हुआ वर्ष आश्विन वर्ष, कार्तिक से लेकर आश्विन तक के महिनों में समाप्त हुआ वर्ष कार्तिक वर्ष इत्यादि क्रम से आषाढान्त तक के सब वर्ष जानना चाहिये अथवा प्रकारान्तर से नक्षत्र संवत्सर का निर्वचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि 'जंवा बिष्फ६ महग्गहो दुवाललेहिं संच्छरेहिं सव्वनक्खसमंडलं समाणेह 'तं जहा' ?भडे 'सावणे, भद्दवर, आसोए, जब आसाढें श्रावण, भाद्रयत्र, अश्विन, अर्तिष्ठ, भार्गशीर्ष, पौष, माघ, शगुन, चैत्र, वैशाण, भ्येष्ड भने आषाढ सम्स નક્ષત્રાના યાગની પર્યાય કે જે ૧૨ સાથે ગુણિત કરવામાં આવેલ છે-તેને નક્ષત્ર સંવત્સર કહેવામાં આવેલ છે. શ્રાવદિ ૧૨ નક્ષત્રના રાગ પર્યાયાના નામેા શ્રાવણથી માંડીને આષાઢ સુધીના માસેાની નામાવલી પ્રમાણે છે. એથી અવયવમાં સમુદાયના ઉપચારથી તેને નક્ષત્ર સવત્સર આ નામથી કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે નક્ષત્ર સ ́વત્સર શ્રાવણાદિના ભેદથી ૧૨ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. ભાદ્રપદથી માંડીને શ્રાવણ સુધીના મસામાં સમાપ્ત થયેલ વભાદ્રપદ વ તથા આશ્વિનથી માંડીને ભાદ્રપદ સુધીના માસેામાં સમાસ થયેલ વર્ષ આશ્વિનવ અને કાતિક મહીનાથી આરભી અશ્વિન સુધીના માસાનાં સમાસ થયેલ વર્ષ કાર્તિક વ વગેરે ક્રમથી આષાઢાન્ત સુધીના બધા વર્ષે વિશે પણ જાણવું लेऽथे. अथवा प्रारान्तरथी नक्षत्र स ंवत्सरनु निर्वाचन हरतां सूत्रहार ४ छे है- 'जंवा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सु. १७ संवत्सरभेद निरूपणम् २६९ शभि: द्वादश संख्याविशष्टैः संवत्सरैः वः 'सव्वणक्खत्तमंडलं समाणे ' सर्व नक्षत्रमण्डलम् अभिजिदाद्यष्टाविंशति नक्षत्राणि समानयति--परिसमापति बृहस्पतिर्महाग्रहः, एतावान् कालविशेषो द्वादवर्षमाणः नक्षत्र वत्सरपदेन विवक्षितो भवति, अथ द्वितीयं संवत्सरस्वरूपं निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह 'जुगसंवच्छ रे' इत्यादि, 'जुगसंच्छरे णं भंते ! कइ विहे पन्नत्ते' युगसंवत्सरः खलु भदन्त ! कतिविधः- कतिप्रकारकः प्रज्ञप्तः - कथित इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहे पन्नते' पञ्चविधः - पञ्चप्रकारकः प्रज्ञप्तः कथितः तमेव पंचभेदं दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'चंदे चंदे अभिवद्धिए चंदे अभिवद्धिए चेवेति' चन्द्रः चन्द्रोऽभिवर्द्धितः चन्द्रोऽभिवर्द्धित श्रेति, रात्र चन्द्रे भवान्द्रः युगस्यादौ श्रावणमासे कृष्णपक्ष प्रतिपत् तिथित आरभ्य यावत् पौर्णमासीपरि समाप्तिः तावत्कालप्रमाणो मास चान्द्रमास: एक पूर्णमासी परावर्त्तः चान्द्रमास इत्यर्थः अथवा चन्द्रेण निष्पन्नत्वात् गौणीवृत्त्या मासोऽपि चन्द्र इति कथ्यते, सच चन्द्रमःसो द्वादशगुणचन्द्र संवत्सरः चन्द्रमास निष्पन्नत्वात् । एवमेव द्वितीय से त्तं णक्खत्तसंवच्छ रे' बृहस्पति नामका महाग्रह १२ वर्षों के द्वारा सर्वनक्षत्र मंडल को - अभिजित् आदि २८ नक्षत्रों को परि समाप्त करदेता है इतना द्वादश वर्ष प्रमाण वाला यह काल विशेष नक्षत्र संवत्सरपद से विवक्षित होता है 'जुगसंवच्छरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! युगसंवत्सर कितने प्रकार का कहा गया है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं - 'गोयमा ! पंचविहे पण ते तं जहा - चंदे चंदे अभिवद्धिए, चंदे अभिबद्धिएचेव' चन्द्र में हुए को चान्द्र कहा जाता है युग की आदि में श्रावण मास में कृष्णपक्ष की प्रतिपदातिथि से लेकर पौर्णमासी की परिसमाप्ति तक चान्द्र मास होता है चान्द्रमास पूरे एक माह का होता है अथवा चन्द्र द्वारा निष्पन्न होने के कारण गौणीवृत्ति को लेकर मास भी चन्द्र कह दिया जाता है यह चान्द्र मास द्वादश - १२ से farmer महगो दुवालसेहिं संवच्छरेहिं सव्वनवत्तमंडल समाणेइ सेत्तं णक्खत्तसंवच्छरे ' બૃહસ્પતિ નમક મહાગ્રહ ૧૨ વર્ષોં વડે જે સ નક્ષત્રમંડળતે-અભિજિત વગેરે ૨૮ નક્ષત્રને પરિસમાપ્ત કરે છે. આટલા દ્વાદશ વર્ષોં પ્રમાણવાળા તે કાળ વિશેષ નક્ષત્ર પદ वडे वित्रक्षित थयेस छे. 'जुगसंवच्छरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' हे लत ! युग संवत्सर કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલા છે ? એ પ્રશ્નના જવાબમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે'गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते - तं जहा चंदे चंदे अभिवद्धिए चंदे अभिवद्धिए चेव' यन्द्रमां थयेस તે ચાન્દ્ર કહેવામાં આવેલ છે. ચુગના પ્રારંભમાં શ્રાવણ માસમાં કૃષ્ણ પક્ષની પ્રતિપદા તિથિથી માંડીને પૌમ.સીની પરસમાપ્તિ સુધી ચાન્દ્રમાસ હેાય છે. ચાન્દ્રમાસ પૂરા એક માસના હોય છે. અથવા ચન્દ્ર વડે નિષ્પન્ન હાવા અકલ ગૌણીવૃત્તિને લઇને માસ પશુ ચન્દ્ર કહેવામાં આવેલ છે. આ ચાન્દ્રમાસ ૧૨ થી ગુણુત થઈને ચાન્દ્રમાસ વડે Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 - अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे चतुर्थश्च चन्द्रमासः चन्द्रसंवत्सरात्वपि ज्ञातव्या इति । तृतीयस्तु युगसंवत्सरः अभिवर्द्धित. नामकः मुख्यतया त्रयोदशचन्द्रमास प्रमाणः संवत्सरो द्वादशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सर उपजायते एतादृशः संवत्सरः कदा भवतीति चेदत्रोच्यते अत्र खल युगं चन्द्र चन्द्राभिवर्द्धित चन्द्राभिवर्द्धितलक्षण पञ्चसंवत्सरात्मकं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभायमानमन्यू नानतिरिक्तानि पञ्चवर्षाणि भवन्ति, सूर्यम सश्च सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः चन्द्रमःसस्तु एकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिवसस्य, ततो गणितक्रमेण सूर्यसंवत्सर सम्बन्धि त्रिंशन्मास ति क्रमे एकान्द्रमासघको भवति, सच चान्द्रमासो यथाऽधिको भवति तथापूर्वाचार्यैः प्रदर्शितः, तथाहि 'चंदरस जो विसेसो आइचस्स य विज्जमासस्त्र | तीस गुणिओ संaters हु अहिमासगो एको' | चन्द्रस्य यो विशेष आदित्यस्य च भवति मासस्य । त्रिशता गुणितः सन् भवति हु अधिमासक एक इतिच्छाया) गुणित होता हुआ चन्द्र मास सेनिष्पन्न होने के कारण संवत्सर रूप कहा गया है इसी प्रकार द्वितीय और तृतीय चतुर्थ चन्द्र मात भी चन्द्र संवत्सर रूप होते है ऐसा जानना चाहिये परन्तु तृतीय युग संवत्सर कि जिसका नाम अभिवर्द्धित है मुख्यरूप से, १३मासों का होता है यह अभिहित नामका युग संवसर कब होता है ? तो इसका उत्तर ऐसा हैं कि चन्द्र संवत्सर द्वितीय चन्द्र संवत्सर अभिवर्द्धित संवत्सर चन्द्र चतुर्थ संवत्सर और अभिवर्द्धित संवत्सर इस प्रकार संवत्सर रूप जो युग है उस में सूर्य संवत्सर की अपेक्षा विचारित होने पर न कमती न बढती ऐसे केवल पांच हा वर्ष होते हैं सूर्यमास ३० ॥ अहोरात का होता है परन्तु जो चन्द्र मास है वह २९ दिनका तथा एक दिन के ६२ भागों मे से ३२ भाग प्रमाण होता है गणित क्रम के अनुसार सूर्य संवत्सर सम्बन्धी ३० मास जब अतिक्रमित समाप्त हो जाते हैं तब एक चन्द्र मास अधिक होजाता નિષ્પન્ન હાવા બદલ સત્તર રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે દ્વિતીય અને તૃતીય ચતુર્થ ચન્દ્રમાસ પણ ચન્દ્ર સંવત્સર રૂપ હાય છે, આ પ્રમાણે જાણી લેવુ જોઇએ પરંતુ તૃતીય યુગ સંવત્સર કે જેનુ નામ અભિવત છે, મુખ્ય રૂપ થી ૧૩ ચાન્દ્રમાસેના થાય છે. આ અભિવૃદ્ધિત નાખ઼ક યુગ સંવત્સર કયારે હાય છે? તે આને જવામ આ પ્રમાણે છે કે ચન્દ્ર સંવત્સર દ્વિતીય ચન્દ્ર સવસર અભિવૃતિ સાંવત્સર ચન્દ્ર ચતુર્થાં સવત્સર અને અભિવૃતિ સવત્સર આ રીતે પાંચ સવત્સર રૂપ > યુગ છે તેમાં સૂ સંવત્સરની અપેક્ષાએ વિચ.ર કરવામાં આવે ત્યાર બાદ એછા પશુ નહિં અને વધારે પણ નહિ આમ ફ્ક્ત પાંચ જ વર્ષોં દાય છે. સૂર્ય માસ ૩૦ના અહેારાતના હાય છે, પરંતુ જે ચાંદ્રમાસ છે તે ૨૯ દિવસના તેમજ એક દિવસના ૬૨ ભાગોમાંથી ૩૨ ભાગ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १७ संवत्सरभेदनिरूपणम् अस्यर्थस्तु-चन्द्रस्य-चन्द्रमासस्य या भवति विश्लेषः, इह विश्लेषे कृते सति यावदवशिष्यते तदपि उपचाराद् विश्लेषः कथ्यते, सच विश्लेषः त्रिंशता-त्रिंशत्संख्यया गुणितः सन् एकोऽधिमासो भवतीति विज्ञेयम् । तत्र सूर्यमासपरिमाणात् सार्द्धत्रिंशदहोरात्रलक्षणात् चन्द्रमास परिमाणमेकोनविंशदिवसाः द्वात्रिंशच्च पष्टिभागा दिवसस्य, इत्येवं रूपं शोध्यते तदा स्थितं पश्चादिममेकम् एकेन द्वापष्टिभागेन न्यूनम्, सच दिवसः त्रिंशत्संख्यया गुण्यते तदा जातानि त्रिंशदिनानि एकश्च द्वापष्टिभागः सच त्रिंशत्संख्यया गुणितः तदा भवन्ति त्रिंशद द्वाषष्टिभागाः, ते भागा यदा त्रिशदिनेभ्यः शोध्यन्ते, ततः स्थितानि शेषाणि एकोनविंश दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य, एतावत् परिमाण श्चन्द्रमास इति, भवति सूर्यसंव. है यह चन्द्रमास जिस प्रकार से अधिक होता है वह प्रकार पूर्वाचार्यो ने” चंदस्स जो विसेसो आइस्चत्सय हविज्ज मासस्स ! तीसह गुणिओ संतो वह अहिमासगो एको' इस गाथा द्वारा प्रकट किया है इसका अभिप्राय ऐसा है चन्द्र मासके विश्लेष करने पर जो बांकी वचता है वह भी विश्लेष ही उपचार से मान लिया जाता है यह विश्लेष जब ३० से गुणित होता है तब एक अधिक मास होता है सूर्यमास का परिमाण ३०॥ अहोरात्र का ऊपर प्रकट किया जाचुका है-इसकी अपेक्षा चन्द्रमास का परिमाण २९ दिनका और एक दिनके ६२ भागों में से ३२ भाग प्रमाण है यह बतलाया जा चुका है सो सूर्यमास के प्रमाण में से यह चन्द्र मास का प्रमाण कम करने पर एक दिन ६२ भागों मेसे १ भाग कम १ दिन बांको वचता है इसे दिनका ३० से गुणित करने पर ३० दिन हो जाते हैं और एक दिन के ६२ भागों में से १ भाग आ जाता हैं। अब ३० से इसे गुणित करने पर ६२ भागों में से ३० भाग आ जाते हैं પ્રમાણ વાળો હોય છે. ગણિત ક્રમ મુજબ સૂર્ય સંવત્સર સંબંધી ૩૦ માસે જ્યારે અતિકમિત–સમાપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે એક ચન્દ્રમાસ અધિક થાય છે. આ ચન્દ્ર भास २ मारे मधिर थाय छे ते प्रारे पूर्वाय येथे 'चंदस्स जो विसेसो आइच्चास य हविज्ज मासस्स तीसइ गुणिओ संतो हवइ हु अहिमासगो एक्को, આ ગાથા વડે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. અને અભિપ્રાય આ પ્રમાણે છે કે ચન્દ્રમાસને વિષ કરવાથી જે શેષ રહે છે તે પણ ઉપચારથી વિશ્લેષ જ માની લેવામાં આવે છે. આ વિરલેષ જ્યારે ૩૦ વડે ગુણિત થાય છે ત્યારે એક અધિક માસ હોય છે. સૂર્ય માસનું પરિણામ ૩૦ના અરાત્રનું ઉપર પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે. આની અપેક્ષાએ ચન્દ્રમાસનું પરિમાણ ૨૯ દિવસ અને એક દિવસના ૬૨ ભાગોમાંથી ૩૨ ભાગ પ્રમાણ છે. આમ એટ કરવામાં આવેલું છે. તે સૂર્યમાસના પ્રમાણમાંથી આ ચન્દ્રમાસન પ્રમાણ કમ કરવાથી એક દિવસ ના ૬૨ ભાગમાંથી ૧ ભાગ કમ ૧ દિવસ શેષ વધે છે. આ દિવસને ૩૦ સાથે ગુણિત કરવાથી ૩૦ દિવસ થઈ જાય છે–અને એક દિવસના દર ભાગોમાંથી ૧ ભાગ આવી જાય છે. હવે આને ૩૦ સાથે ગુણિત કરવાથી ૬૨ ભાગમાંથી Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७२ जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्रे त्सरसंबन्धि त्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासो भवति, एकस्मिन् युगेच द्वापष्ठिः सूर्य मासा भवन्ति ततः पुनरपि सूर्यसंबन्धि त्रिंशन्मासःतिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति, तदुक्तम् 'सट्ठीए अइयाए सवइ हु अहिमागो जुगद्धं म । बावीसए पयस ए वाय बीभो जुगंतं म' ॥१॥ (षष्टावतीतायां भवति हु अधिमासको युगाढ़ें। द्वाविंशे पर्वशते भवति च द्वितीयो युगान्त) इतिच्छाया ॥ अस्यार्थ:-एकस्मिन् युगे पञ्चवर्षप्रमाणके पर्वाणां-पक्षाणां षष्टौ अतीतायां पष्टिसंख्यकेषु पक्षेषु अती तेषु इत्यर्थः एतस्मिन् अबसरे युगाड़े युगापमाणे एकोऽधिकमासो भवति द्विनीयस्तु अधिकमासः द्वाविशे-द्वाविंशत्यधिके पर्वशने पक्षश तेऽतिक्रान्तयुगस्यान्ते युगस्य ये भाग जब ३० दिनों में से कम किये जाते तो २९ दिन बचे रहते हैं और दिन के ६२ भागों में से ३२ भाग बचे रहते हैं ! चन्द्रमास का यही परिमाण है सूर्य संवत्सर संबंधी ३० मासों के अति क्रम हो जाने पर एक अधिक मास होता है एक युग में ६२ सूर्य मास होते हैं। पुनः सूर्य संबंधी ३० मासों के अतिक्रम होने पर द्वितीय अधिक मास होता है तदुक्तम् सट्ठीए अइयाए हवा हु अहिमाप्तगो जुगदमि। बावीसए पव्वसए हवह य धीओ जुगंतभि ॥१॥ इस गाथा का अर्थ इस प्रकार से हैं-पांच वर्ष प्रमाण वाले एक युग में ६० पक्षों के व्यतीत हो जाने पर एक अधिक मास होता है यहां जो युगार्थ ऐसा कहा है सो ६० पक्षों के व्यतीत हो जाने पर आधा युग व्यतीत हो जाता हैं क्योंकि एक युग में १२० पक्ष होते हैं १२० के आधे ६० होते हैं इन ६० पक्षों ૩૦ ભાગો આવી જાય છે. એ ભાગો જયારે ૩૦ દિવસમાંથી ઓછા કરવામાં આવે છે તે ૨૯ દિવસ શેષ રહે છે અને દિવસના ભાગમાંથી ૩૨ ભાગે અવશિષ્ટ રહે છે. ચન્દ્રમાસનું એ જ પરિમાણ છે. સૂર્ય સંવત્સર સંબંધી ૩૦ માસના અતિક્રમ બાદ એક અધિક માસ હોય છે. એક યુગમાં ૬૨ સૂર્ય માસો હેય છે પુનઃ સૂર્ય સંબંધી ૩૦ માસોના અતિક્રમથી દ્વિતીય અધિકમાસ હોય છે. તદુત सट्ठीए अइयाए हवइ हु अहिमासगो जुगद्धमि । बावीसए पव्यसए हाइ य बीओ जुगंतमि ॥१॥ આ ગાથાને અર્થ આ પ્રમાણે છે. પાંચ વર્ષ પ્રમાણુવાળા એક યુગમાં ૬૦ પક્ષે યતીત થઈ જાય ત્યારે એક અધિકમાસ હોય છે. અહીં યુગાધ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે તે ૬૦ પશે વ્યતીત થઈ જાય ત્યારે અદ્ધ યુગ વ્યતીત થઈ જાય છે કેમકે એક યુગમાં ૧૨૦ પક્ષે હોય છે. ૧૨૦ ના અર્ધા ૬૦ થાય છે. એ પક્ષની સમાપ્તિ થઈ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १७ संवत्सरमेद नेरूपणम् २७३. पर्यवसाने परिसमाप्तौ भवति, सेन युगमध्ये तृतीयसंवत्सरे अधिकमासः पञ्च मे वावर्षेऽधिकमास-इति द्वौ अभिवतिसंवत्सरौ एकस्मिन् युगे भवत इति । यद्यपि सूर्यश्च वर्षात्मयुगे यथा चन्द्रमासद्वयस्य वृद्धिर्भवति तथा नक्षत्रमासद्वयस्यापि वृद्धिर्भवति तत्कथं नक्षत्रमासे आधिक्य न कथितम्, तथापि चन्द्रमासवत् नक्षत्रमासस्य लोके प्रचुरतरव्यवहाराविषयत्वेन नक्षत्रमासेऽधिकमासद्वयस्योल्लेखो न कृत इति । एतेषां च नक्षत्रादि संवत्सराणां मासदिनादिमानप्रतिपादनं प्रमाणसंवत्सराधिकारे कथयिष्यते इति नात्रैतत्सर्व प्रपञ्चितमिति ।। __एते च चन्द्रादयः पञ्चयुगसंवत्सराः पर्वभिः पक्षैः पूरिता भवन्ति इति तानि पणि प्रतिवर्ष कति भवन्तीति पृच्छन्नाह-पढमस्स णं भंते !' इत्यादि, 'पढमरस णं भंते ! चंद की समाप्ति होने पर आधा युग और रह जाता है आधा तो समाप्त हो जाता है तथा द्वितीय अधिक मास १२२ पक्षों के व्यतीत हो जाने पर होता है अर्थात् युग के अन्त में होता हैं। इस तरह युग के बीच में तृतीय संवत्सर में अधिक मास होता है अथवा पंचम वर्ष में अधिक मास होता है इस प्रकार ये दो अभिवर्द्धित संवत्सर एक युग में होते हैं । यद्यपि सूर्यपञ्चवर्षात्मक युग में जैसे चन्द्रमास द्वय की वृद्धि होती है वैसे नक्षत्रमासयकी भी वृद्धि होती है तो फिर आपने नक्षत्र मास में आधिक्य क्यों नहीं कहा तो इसका समाधान यही है कि चन्द्रमास की तरह नक्षत्र मास लोक में प्रचुरतर रूप से व्यवहारका विषय होता है इसलिये नक्षत्र मास में अधिकमास व्यका उल्लेख नहीं किया गया है इन नक्षत्रादि संवत्सरों के मास दिन नक्षत्रादि के मान का प्रतिपादन प्रमाण संव. स्सराधिकार में किया जाने वाला है इसलिये यह सब यहां नहीं कहा गया है। ये चन्द्रादिक पांच युग संघल्सर पक्षों से परिपूर्ण होते हैं इस बातको अब ગયા બાદ અર્થો યુગ શેષ રહે છે. અર્ધો યુગ તે સમાપ્ત થઈ જ જાય છે. તેમજ દ્વિતીય અધિકમાસ ૧૨૨ પક્ષે જયારે વીતી જાય ત્યારે એટલે કે યુગના અંતમાં હોય છે. આ પ્રમાણે યુગના મધ્યમાં તૃતીય સંવત્સરમાં અધિકમાસ હોય છે. અથવા પંચમવર્ષમાં અધિક માસ હોય છે. આ પ્રમાણે એ બે અભિવદ્ધિત સંવત્સરે એક યુગમાં હોય છે. યદ્યપિ સૂર્ય પંચવર્ષાત્મક યુગમાં જેમ ચન્દ્રમાસ દ્રયની વૃદ્ધિ થાય છે, તેમજ નક્ષત્રમાસ વયની પણ વૃદ્ધિ થાય છે તે પછી તમે નક્ષત્રમાસમાં આધિક્યનું કથન શા માટે નથી કર્યું? તે આનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે કે ચન્દ્રમાસની જેમ નક્ષત્રમાસ લેકમાં પ્રચુરતર રૂપમાં વ્યવહાર વિષય હોય છે એવી નક્ષત્રમાસમાં અધિકમાસ દ્રયનો ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યું નથી. આ નક્ષત્રાદિ સંવત્સરીના માસ દિવસ નક્ષત્રાદિના માનનું પ્રતિપાદન પ્રમાણુ સંવત્સરાધિકારમાં કરવામાં આવશે એથી આ બધું અહીં કહેવામાં આવેલું નથી એ ચન્દ્રાદિક પાંચ યુગે સંવત્સર પક્ષેથી પરિપૂર્ણ થઈ જાય છે. એથી તે પક્ષે ४२४ पसरमा ३८॥ य छ ? से पातने २ गोतमस्वामी प्रभुने 'पढ़मस्स णं भंते ! Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे संवच्छरस्स कइ पन्या पन्नत्ता' प्रथमस्य खलु भदन्त ! चन्द्रसंवत्सरस्य कति पर्वाणि प्रज्ञप्तानि, हे भदन्त ! प्रथमस्य युग दौ प्रवृत्तस्य चन्द्रसंवत्सरस्य कति-कियत्संख्यकानि पर्वाणि पक्षरूपाणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चोवीसं पव्वा पन्नत्ता' चतुर्विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञतानि, तत्र चविंशति श्चतुर्वि. शतिसंख्यकानि पर्वरूपाणि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, प्रतिमासं पक्षद्वयसंभवेन द्वादशमासात्मके वर्षे चतुर्विंशति पर्वसंभवादिति । 'बिईयस्त णं भंते ! चंदसंवच्छरस्स कइपच्या पत्नत्ता' द्वितीयस्य खलु भदन्त ! चन्द्रसंवत्सरस्य कति पर्वाणि-कियत्संख्यकानि पर्वाणि पक्ष रूपाणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चउव्वीसं पव्या पन्नत्ता' चतुर्शितिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि-कथितानि प्रतिमासं पर्वद्वयसंभवेन द्वादशभासात्मके वर्षे चतुर्विंशति पर्वाणां संभादिति ‘एवं पुच्छा तईयरस' एवं पृच्छा तृती. यस्याभिवद्धितनामकसंत्सरस्य, हे भदन्त ! तृतीयस्याभिवद्धितनामकसंवत्सरस्य खलु कति पर्वाणि प्रज्ञप्तानीति पृच्छया संगृह्य ते प्रश्नः, भगवामाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' गौतमस्वामी प्रभु से 'पढप्तस्स णं ते ! चंदसंवच्छरस्त कहपव्वा पन्नत्ता' इस सूत्रद्वारा पूछते हैं हे भदन्त ! प्रथम चन्द्रसंवत्सर के कितने पर्व-पक्ष होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! चोवीसं पचा पन्नत्ता' हे गौतम ! प्रथम चन्द्र संवत्सर में चौबीस रक्ष होते हैं। क्योंकि हर एक मासमें दो पक्ष होते है और वर्ष १२ मासका होना है अतः १ वर्ष में २४ पर्व होते हैं यह कथन सध जाता है 'बिईयस्स णं भंते ! चंदसंबच्छरस्सका पब्वा पन्नत्ता' हे भदन्त ! द्वितीय चन्द्र संवत्सर के कितने पक्ष होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा ! च उव्वीसं पव्वा पन्नता' हे गौतम ! द्वितीय चन्द्र संवत्सर के २४ पक्ष होते हैं। 'एवं पुच्छा तईयरस' इसी तरह की पृच्छा जो अभिवद्धित नामका तृतीय संवत्सर है उसके सम्बन्ध में गोतमस्वामीने की है-तथाच हे भदन्त जो तृतीय अभिवति नामका संवत्स है उसके कितने पक्ष होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु चंदसंवच्छरस्स कइ पव्या पन्नता' मा सूत्र 3 पूछे ४-3 मत ! प्रथम यन्द्रसवत्सरना Beau - डाय छ ? अन पासमा प्रभु ई छ-'गोयमा ! चोवीसं पव्वा पन्नत्ता' હે ગૌતમ ! પ્રથમ ચન્દ્રસંવત્સરમાં ૨૪ પક્ષે હોય છે. કેમકે દરેક માસમાં બે પક્ષો હેય છે અને એક વર્ષમાં ૧૨ માસ હોય છે. એથી ૧ વર્ષમાં ૨૪ પર્વો હોય છે. આ કથન દ્ધિ થઈ જાય છે. ___ बिई यस्स णं भंते ! चंदसंवच्छरस्स कइ पव्वा पन्नत्ता' मत ! द्वितीय सवत्स. २ ९॥ पक्षी डाय छ ! सेना वासभा प्रभु ४३ थे-'गोयमा ! चउव्वीसं पव्वा पन्नत्ता' गौतम ' द्वितीय यस वत्स२॥ २४ ५। डाय छे. 'एवं पुच्छा तईस्स' मा तनी પૃચ્છા- અભિવદ્ધિ ત નામક તૃતીય સંવત્સર છે, તેના સંબંધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને કરી છે, તથા ચ હે ભદંત ! જે તૃતીય અભિરદ્ધિત નામક સંવત્સર છે, તેના કેટલા પક્ષો Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका सप्तमय कारः पू. १७ संबलपमे इनिगर हे गौतम ! 'छब्योसं पव्वा पन्नता' षड्विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि । 'चउत्यस चंदसंवच्छरस्स चोवीसं पवा' चतुर्थस्य चन्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विशतिः पर्याण, हे भदन्त ! चतुर्थ स्य चन्द्रसंवत्सरस्य कति पर्वाणि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः, चतुर्थस्य चन्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति प्रतिमासं पक्षद्वयसंभवेन द्वादशमासेषु चतुर्विशति पर्वाणामावश्यकत्वा दितिभगवत उत्तरम् । 'पंचमरसणं अभिवद्धियस्स छब्बीसं पव्या य पन्नत्ता' पञ्चमस्य खलु अभिवद्धितस्य पइविंशतिः पर्वा ण च प्रज्ञप्तानि, हे भदन्त ! पञ्चमस्याभिवर्द्धितनामकसंवत्सरस्य कति पर्वाणि भवनन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! पञ्चमस्याभिवद्धिनामकसंवत्सरस्य षडविंशतिः पर्वाणि भवन्ति, अत्र द्वादशसूर्य संवत्सरेषु त्रयोदश चन्द्रमासस्य समाविष्टत्वात् प्रतिमासं पर्वद्वयसंभवेन त्रयोदशमासेषु षविंशति पर्याणां संभवादिति भगवत उत्तरमिति ।। सम्प्रति-द्वितीयसंवत्सरे पर्वाणां संकलनां दर्शस्तुिमाह-'एवामेव' इत्यादि, 'एवापैच सपुवावरेणं पंच संवच्छीए जुगे एगे चउवीसे पव्वसए प्रश्नत्ते' एवमेव उपर्युक्तप्रमारेषा कहते हैं 'गोयमा ! छन्वीसं पव्वा पन्नता' हे गौतम ! अभिवति नामके तृतीय संवत्सर में छब्बीस पक्ष होते हैं दो पक्ष यहां अधिक मासके गृहीत हुए हैं। 'चउत्थस्स चंदसंबच्छरस्त चोवीसं पव्वा' चतुर्थ चन्द्र संवत्सर के २४ पक्ष होते हैं 'पंचमस्स णं अभिवद्धियस्त छयोसं पव्वा पन्नत्ता' पांचवां जो अभिवर्द्धित संवत्सर है उसके कितने पर्व होते हैं ? तो इस प्रश्न का उत्तर प्रभुने इस सूत्र द्वारा दिया है कि पांचवां अभिवद्धित संवत्सर है उसके २६ पक्ष होते हैं। यह पहिले ही कहा जाचुका है कि अधिक मास तृतीय में या पांचवें युग संवत्सर में होता है। अतः इस दृष्टि से यहां २६ पक्ष होते हैं ऐसा कहा गया हैं। यही बात द्वादश सूर्य संवत्सरों में त्रयोदश चन्द्रमास समाविष्ट होते हैं इसलिये इस संवत्सर में २६ पक्ष होते हैं। इस कथन द्वारा पुष्ट की गई हैं। क्योंकि प्रत्येक मास २ पक्ष का होता है अतः १३४२-२६ पक्ष होते हैं यह बात स्पष्ट य छ १ मेन म प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! छब्बीसं पव्या पन्नत्ता' गौतम ! અભિવર્જિત નામક તૃતીય સંવત્સરમાં ૨૬ પક્ષે હોય છે, જે પક્ષે અત્રે અધિકમાસના गुडी या छ. 'चउत्थरस दसंवच्छरस्स चोब्बीसं पव्वा' यतुर्थ यन्द्रसवत्स२न। २४ पक्षा जय छ. 'पंचमस्स णं अभिवद्धियस्स छन्त्रीसं पव्या पन्नत्ता' पायभा २ मलित સંવત્સર છે, તેના કેટલા પક્ષે હોય છે? તો આ શંકાને જવાબ પ્રભુએ આ સૂત્ર વડે આપે છે કે પાંચમો જે અભિવદ્ધિત સંવત્સર છે, તેના ૨૬ પક્ષે હેય છે. આ પહેલાં જ કહેવામાં આવેલું છે કે અધિકમાસ તૃતીમાં અથવા પાંચમાં યુગસંવત્સરમાં હોય છે. એથી આ દષ્ટિએ અહીં ૨૬ પક્ષે કહેવામાં આવેલા છે. એજ વાત ‘દ્વાદશ સૂર્યસંવત્સરોમાં ત્રદશ ચન્દ્રમાસ સમાવિષ્ટ થાય છે. એથી આ સંવત્સરમાં ૨૬ પક્ષે હોય છે.” આ કથન વડે પુષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. કેમકે દરેક માસ બે પક્ષેનો હોય છે. એથી १३४२२६ ५३ डोय छे. मापात २५ट २६ गय छे. 'एवामेव सपुव्वावरेणं पंच Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सपूर्वापरेण-पूर्वापरपर्यालोचनया पञ्चसाम्वत्सरिके युगे युगनामकसंवत्सरे चतुर्विंशत्यधिकमेकं पर्वशतं प्रज्ञप्तं भवति अर्थात् पञ्चसंवत्सरात्मकयुगनामकसंवत्सरे चतुर्विशत्यधिकमेकं पर्वशतं भवतीति । __सम्प्रति युगसंवत्सरस्योपसंहारमाह-'सेत्तं' इत्यादि, ‘सेत्तं जुगसंवत्सरे' सोऽयं पूर्वकथितो युगसंवत्सरो द्वितीय इति ॥ सम्प्रति-तृतीयप्रमाण संवत्सरं दर्शयितुमाह-'पमाण संवच्छ रेणं भंते !' इत्यादि, 'पपाणसंवच्छरेणं भंते ! कइविहे पन्नते' प्रमागसंवत्सरः खलु भदन्त ! कतिविध:-कति प्रकारकः प्रज्ञप्त:-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयना' त्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंचविहे पण्णत्ते' पञ्चविधः प्रज्ञप्तः पश्चविधः पश्चप्रकारकः कथित इति 'तं जहा' तद्यथा-णक्खत्ते चंदे उउ आइच्चे अभिवद्धिए' नाक्षत्रं चान्द्रम् ऋतु:-ऋतु संवत्सरः आदित्यः अभिवद्धितः, तत्र नक्षत्रसंबन्धि इति नाक्षत्रम् चन्द्र सम्बन्धि चान्द्रम् अभिवर्द्धितः प्रागुक्तस्वरूपः ऋतवो वसन्ताधाः षड् लोकप्रसिद्धाः तद्व्यवहार हेतुः ऋतु संवत्सरः एतस्यैव सावनसंवत्सरः कर्म संवत्सरश्चेतिनाम भवति, आदित्यस्य सूर्यस्य गत्या हो जाती है । (एवामेव सपुव्वावरेणं पंच संबच्छरीए जुगे एगे चउवीसे पव्वसए पभत्ते' इस प्रकार से इस पांच संवत्सरात्मक युग में युगनामक संवत्सर मेंसब मिलाकर १२४ पर्व पक्ष होते हैं। 'सेत्तं जुगसंवत्सरे' इस प्रकारका यह युग संवत्सर के सम्बन्ध में विचार किया गया है 'पमाण संवच्छरे णं भंते ! कइविहे पाणत्ते' हे भदन्त! प्रमाण संवत्सर कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! पंचविहे पन्नते' हे गौतम ! प्रमाण संवत्सर पांच प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे 'णक्खते चंदे उऊ आइच्चे, अभिवद्धिए' नक्षत्र प्रमाण संवत्सर चन्द्र प्रमाण संवत्सर, ऋतु प्रमाण संवत्सर आदित्य प्रमाण संवत्सर और अभिवति प्रमाण संवत्सर इनमें नक्षत्र सम्बन्धी संवत्सर नक्षत्र संवत्सर चन्द्रमा संबंधी संवत्सर चान्द्र संवत्सर षट्ऋतु के व्यवहार में कारणभूत संवत्सर ऋतु संव. संवच्छरीए जुगे एगे चवीसे पब्वसए पन्नत्ते' प्रमाणु २॥ ५in सत्स२।म युगभांयुश नाम संवत्सरमां-५॥ ५४२ १२४ ५ प होय छे. 'सेत्तं जुगसंवत्सरे' । પ્રકારને આ યુગ સંવત્સરના સંબંધમાં વિચાર કરવામાં આવેલ છે. ___'पमाणसंवच्छरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' 3 त ! प्रमाण सरस२ ३८॥ ४ारने। मां मावा छ ? सेना ४॥समा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते' गौतम! प्रभाए सवत्स२ पांय ४२ने। पामत मावेश छ. 'तं जहा' भई ‘णक्खत्ते चंदे उऊ आइच्चे, अभिवद्धिए' नक्षत्रप्रभार सव:स२ यन्द्रप्रमाण सपत्स२, अतुप्रमा सवत्सर, આદિત્ય પ્રમાણુ સંવત્સર અને અભિવદ્ધિતપ્રમાણુ સંવત્સર આમાં નક્ષત્ર સંબંધી સંવત્સર નાક્ષત્ર સંવત્સર, ચન્દ્રમા સંબંધી સંવત્સર, ચાન્દસંવત્સર, પડતુના વ્યવહારમાં Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १७ संवत्सरभेदानपणम् २७७ दक्षिणोत्तराभ्यामयनाभ्यां निष्पन्नः संवत्सर आदित्य संवत्तरः। प्रमाणप्रधानत्वात् अस्य संवत्सरस्य प्रमाणमित्यपिनाम भवति, इति, वर्षमानस्य मासप्रमाणाधीनत्वात् प्रथमतो मास प्रमाणं कथ्यते, तद्यथा-अत्र खलु चन्द्र चन्द्राभिवदित चन्द्राभिवर्द्धितनामक संवत्सर पञ्चकप्रमाणे युगे रात्रिंदिकरा शिः त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो भवति, कथमित्थं भवतीति चेदत्रोच्यते-अत्र खलु सूर्यस्य दक्षिण तरं वा अनं उपशीत्यधिकदिवसशतात्मकं भवति, एकस्मिन् युगे च पश्च दक्षिणायनानि एश्च वोत्तरायणानि, इति सर्वसंकलनया दशायनानि भवन्ति, ततः व्यशीत्यधिक दिवसशतम्, दशकेन गुण्यते ततो भवति यथोक्तो दिवसरा शिरिति, एवं प्रमाण दिवसराशि संस्थाप्य नक्षत्रचन्द्रऋत्यादि मासानां दिनानपनार्थ यथाक्रमं सप्तपष्टयेकवष्टिषष्टि द्वापष्टि लक्षणै र्भागहारै र्भागं हरेत् ततो यथोक्तं नक्षत्रादि मास चतुष्कगतदिन परिणामपागच्छति, तथाहि-युगदिनराशिः १८३ ० लक्षणः अन्य सप्तषष्टि युगे मासा इति सप्तषष्टया भागो ह्रियते यल्लब्धं तत् नक्षत्रमासप्रमाणम्, तथा अस्यैव युगदिनराशेः १८३० लक्षणस्य एस्पष्टियुगे ऋतुमासा इत्येकपट्या भागे हृते लब्धं तत् ऋतुमासमानम्, सर और सूर्य की गति से-दक्षिगान और उत्तरायण से-निष्पन्न संवत्सर आदित्य संवत्सर होता है यह संवत्सर प्रमाण प्रधान होता है इसलिये इसका नाम प्रमाण ऐसा कहा है वर्षका प्रमाण मास प्रमाण के आधीन होता है इस कारण अब हम भास के प्रमाण का कथन करते हैं-प्रथम चन्द्र संवत्सर रूप, द्वितीय चन्द्र संवत्सर रूप तृतीय अभिति संवत्सर रूप चतुर्थ चन्द्र संवत्सर रूप और पांचवें अभिवति संवत्सर रूप युग संवत्सर में रात्रि दिन की राशि का प्रमाण १८३० होता है यह प्रमाण कैसे होता है ? तो इस सम्बन्ध में स्पष्टी. करण इस प्रकार से है कि सूर्य का दक्षिणायन और उत्तरायण १८३ दिवस का होता है एक युग में ५ दक्षिणान और ५ उत्तरायण होते हैं दोनों अयनों का जोड १० आता है १८३ में १० का गुणा करने पर १८३० रात्रि दिन के प्रमाण કારણભૂત સંવત્સર હતુવન્સર અને સૂર્યની ગતિથી દક્ષિણાયન અને ઉત્તરાયણથી નિષ્પન્ન સંવત્સર આદિ ય સંવત્સર કહેવાય છે. આ સંવત્સર પ્રમાણે પ્રધાન હોય છે એટલા માટે આનું નામ પ્રમાણે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલું છે. વર્ષનું પ્રમાણ માસ પ્રમાણને આધીન હોય છે. આથી હવે અમે માસના પ્રમાણનું કથન કરીએ છીએ-પ્રથમ ચન્દ્રસંવત્સરરૂપ, દ્વિતીય ચન્દ્રરંવારરૂપ અને પંચમ અભિવદ્ધિત સંવત્સરરૂ૫ યુગ સંવત્સરમાં રાત્રિ-દિવસની રારિનું પ્રમાણ ૧૮૩૦ હોય છે. આ પ્રમાણ કેવી રીતે થાય છે? તે આ સંબંધમાં આ પ્રમાણે સ્પષ્ટીકરણ છે કે સૂર્યનું દક્ષિણાયન અને ઉત્તરાયણ ૧૮૩ દિવસનું થાય છે. એક યુગમાં ૫ દક્ષિણાયન અને ૫ ઉત્તરાયણ હોય છે. અને અયનેને સરવાળો ૧૦ થાય છે. ૧૮૩ માં ૧૦ ને ગુણાકાર કરવાથી ૧૮૩૦ રાત્રિ-દિનના પ્રમાણની રાશિ સમ્પન્ન થઈ જાય છે. આ પ્રમાણુવાળી દિવસ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૮ अम्बूद्वीपप्रति तथा युगे सूर्यमासाः षष्टिरिति ध्रुवराशेः १८३० लक्षणस्न पष्टिसंख्यया भागो ह्रियते तदा यल्लभ्यते तत् सूर्यमासमानम्, तथा अभिवर्द्धिते संवत्सरे तृतीये पञ्चमेवा त्रयोदश चन्द्र मासा भवन्ति तद्वर्षं द्वादशभागी क्रियते, तत् एकैको भागोऽभिवर्द्धितमास इति कथ्यते । अत्र खलु अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्रयोदश चन्द्रमास प्रमाणस्य दिवसप्रमाणं त्र्यशीत्यधि कानि त्रीणि शतानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागाः, कथमेवं भवतीति वेदत्रोच्यते चन्द्रकी राशि संपन्न हो जाती है इस प्रमाण वाली दिवस राशि को रखकर नक्षत्र चन्द्र, ऋतु आदि मासों के दिनों को लाने के लिये यथा क्रम ६७-६१, ६० और ६२ इन से उसमें भाग देना चाहिये तव यथोक्त नक्षत्रादि मास चतुष्क गत दिनों का प्रमाण आजाता है जैसे -युग दिनराशि १८३० है इस में एक युग के ६७ मासों का भाग देने पर जो लब्ध होता है वह नक्षत्र मामका प्रमाण आजाता है तथा इसी युग दिन राशि में एक युगके ६१ ऋतु मासका भाग देने पर जो लब्ध होता है वह ऋतु मासों का प्रमाण निकल आता है एक युग में सूर्य मास ६० होते हैं इसलिये ध्रुवराशि रूप १८३० में ६० का भाग देने पर जो लब्ध आता है वह सूर्य मास का प्रमाण आता है अभिवर्द्धित नामके तृतीय युग संवसर में और इसी नामके पांचवे संवत्सर में १३ चन्द्रमास होते हैं यह कथन पोछे समझाया जा चुका है इन में १२ का भाग देने पर जो लब्ध होता है वह अभिवर्द्धितमास अधिक मास आता है अभिवर्द्धित संवत्सर के१३ चन्द्र मासों के दिनों का प्रमाण ३८३ भाग होता है अर्थात् १३ चन्द्रमासों मे ३०३ दिन १ दिन के ६२ भागों में से ४४ भाग होते हैं यह प्रमाण इस प्रकार से निकलता રાશિને નક્ષત્ર, ચન્દ્ર, ઋતુ આદિ માસેાના દિવસેને લાવવા માટે યથાક્રમ ૬૭, ૬૧, ૬૦ અને ૬૨ એમના વડે તેમાં ભાગાકાર કરવા જોઇએ. ત્યારે યથાક્ત નક્ષત્રાદિમાસ ચતુષ્ટગત દિનાનું પ્રમાણ આવી જાય છે. જેમકે-યુદિન રાશિ ૧૮૩૦ છે. આમાં એક યુગના ૬૭ માસાના ભાગાકાર કરવાથી જે લબ્ધ થાય છે, તે નક્ષત્રમાડાનું પ્રમાણ છે, એવુ સમજવું. તેમજ એજ યુદિન રાશિમાં એક યુગના ૬૧ ઋતુષાસને ભાગાકાર કરવાથી જે લબ્ધ હોય છે તે ઋતુમાસાનું પ્રમાણ છે, આમ સમજવુ એક યુગમાં સૂ માટે ૬૦ હોય છે. એથી ધ્રુવરાશરૂપ ૧૮૩૦માં ૬૦ના ભાગાકાર કરવાથી જે લબ્ધ થાય છે તે સૂર્યમાસનુ પ્રમાણ આવે છે. અભિવૃતિ નામક તૃતીયયુગ સંવત્સરમાં અને એજ નામવાળા પાંચમા સંત્સવરમાં ૧૩ ચન્દ્રમાસા હોય છે. આ કથન પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે. આમાં ૧૨ ના ભગાકાર કરવાથી જે લબ્ધ થાય છે તે અભિવિદ્ધિતમાસ અધિકમાસ આવે છે. અભિવદ્ધિત સત્તના ૧૩ ચન્દ્રમાસાના દિવસેાનું પ્રમાણુ ૩૮૩′ ભાગ હોય છે. એટલે કે ચન્દ્રમાસેાનુ` ૩૮૩ દિવસ અને ૧ દિવસના ૬૨ ભાગોમાંથી ૪૪ ભાગેા થાય છે. આ પ્રમાણુ આ રીતે નીકળે છે. ચન્દ્રમાસમાં દિવસનું ૧૩ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः ६. २७ संवत्सरभेदानरूपणम् मास प्रशणम्, दिन २९३२ एतद्पम् त्रयोदशभियते ततो जातानि सप्तसहत्युत्तराणि त्रीणिशतानि दिवसानाम् षोडशोत्तराणि चत्वारिशतानि चांशानाम् ते च दिनस्य द्वाषष्टिभागास्तो दिनानयनाथ द्वाषष्टया भागो हियते लब्धानि प दिनानि तानि च पूर्वोक्त दिवसेषु योज्यन्ते ततो जातानि त्रीणिशतानि व्यशीत्यधिकानि दिनानां चतुश्चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागाः, ततो वर्षे द्वादशमासा इति मासानयनाय द्वादशसंख्यया भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्ति एकादशरात्रि दिवसाः ते च द्वादशानां भागं न ददति, तेन यदि एकादश चतुश्चत्वारिंशद् द्वा पष्टिभाग मीलनार्थ द्वा पष्टिसंख्यया गुण्यन्ते तदा पूर्णोगशिन त्रुटयति शेषस्य विद्यमानत्वात् तेन सूक्ष्मेऽधिकार्थ द्विगुणी कृतया द्वाषष्टया चतुर्विशत्यधिकशतरूपया एकादश गुण्पन्ते जातं १३६४, चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा है चन्द्रमास में दिन का प्रमाण २९ ३२ मुहूर्त का होता प्रकट किया गया है इस प्रमाणमे १३ का गुणा करने पर ३७७ दिनों का प्रमाण निकल आता है तथा ४१६ अंशों का प्रनाग निकल आना है ये दिनों के ६२ भाग रूप हैं इसलिये इनके दिनों को बताने के वास्ते इनमें ६२ का भाग देने पर ६ दिन लब्ध होते हैं ये दिन पूर्वोक्त दिनों में जोड देने पर ३८३ दिन आ जाते हैं और १ एक दिन के ६२ भागों में से ४४ भाग आजाते हैं। वर्ष में १२ मास होते हैं अतः इनके मासोंका प्रमाण जानने के लिये इनमें १२ संख्या का भाग देने पर एकत्रिंशत अहोरात लब्ध होते हैं और शेषस्थान में ११ दिन बचते हैं इनमें १२ का भाग नहीं जाता है अतः ये १२ यदि भागों में मिलाने के लिये ६२ से गुणित नहीं होते हैं तो पूर्णराशि टूटती नहीं है क्योंकि शेष स्थान में बाकी बचे रहते हैं इस कारग में अधिक के निमित्त ६२ को दुगुना करके आगत १२४ से ११ को गुणित करने पर १३६४ राशि आजाती है को भी संकलना के निमित्त दूना પ્રમાણુર મુહૂર્ત જેટલું પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે. આ પ્રમાણમાં ૧૩ ને ગુણિત કરવાથી ૩૭૭ દિવસનું પ્રમાણ નીકળી આવે છે. તેમજ ૪૧૬ અંશોનું પ્રમાણ નીકળી આવે છે. એ દિવસેના ૬૨ ભાગરૂપ છે. એથી એમના દિવસે બનાવવા માટે આમાં ૬૨ ને ભાગાકાર કરવાર્થી ૬ દિવસે લબ્ધ થાય છે. આ દિવસેને પૂર્વોક્ત દિવસમાં જોડવાથી ૩૮૩ દિવસ આવે છે. અને ૧ દિવસના ૬૨ ભાગોમાંથી ૪૪ ભાગે આવે છે. વર્ષમાં ૧૨ માસો હોય છે. એથી એમના માટેનું પ્રમાણ જાણવા માટે આમાં ૧૨ સંખ્યાને ભાગાકાર કરવાથી એક ચિંશત અહોરાત લબ્ધ હોય છે. અને શેષ સ્થાનમાં ૧૧ દિવસ અવશિષ્ટ રહે છે. આમાં ૧૨ ને ભાર જ નથી. એથી આ ૧૨ ની સંખ્યા જે ભાગમાં જોડવા માટે દર ની સાથે ગુણિત થતું નથી. એથી પૂર્ણ રાશિના કકડા થતા નથી. કેમકે શેષ સ્થાનમાં અવશિષ્ટ રહે છે. એથી અધિકના નિમિત્તે દ૨ ના બમણું કરીને જે રાશિ આવે છે તેનાથી ૧૧ને ગુણિત કરવાથી ૧૩૬૪ રાશિ આવી જાય છે. જેને પણ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अपि संकलनार्थं द्विगुणी किन्ने कृत्वाच मूळराशी प्रक्षिप्यन्ते जातम् १४५२, द्वादशभिर्भागे हृते लब्धनेकविंशत्युत्तरं चतुर्विंशत्युत्तरशत भागान म् एतावदभिरर्द्धितमाप्रमाणम् । एतेषां क्रमेणाङ्कम्यापना दिन. ३१ १२१ भाग. ५१ दिन. २७ २९ ३० ३० भाग. २१ ३२ ३० ० • ६२ ६२ ६०१२४, नक्षत्र, चन्द - ऋतु - सूर्य- अभिवर्द्धित नाक्षत्रादि संवत्सरमानम् । सम्प्रति उपसंहारमाह- 'सेत्तं' इत्यादि 'सेत्तं पमाण संच्छरे इति' सोऽयं पूर्ववर्जितः प्रमाणसंवत्सरः कथित इति । एतेषां मासानां वर्षाणां च मध्ये ऋतुमास ऋतु संवत्सरावेव लोकैः पुत्र वृद्धिकलान्तरवृद्धचादिषु व्यवह्रियेते निरंशकत्वेन सुबोकरने पर ८८ को मूल राशि में जोड दिया जाता है तब १४५२ होते हैं इन मे १२ का भाग देने पर १२१ लब्ध होते हैं और ये १२४ भागों के हैं । यह अभिवर्द्धित मासों का प्रमाण है । • o जम्बूद्वीपप्रज्ञमिसूत्रे ३२७ / ३५४ / ३६० / ३६६ / ३८३ १२ Q ४४ ६२ ६७ ६७ ● ० इनकी क्रम से अङ्कस्थापना दिन- २७, २९, ३०, ३१, दिन ३२७-३५४-३६०-३६६-३८३ भाग २१ ३२, ३०१२१ भाग ५११२००४४०, ६२, ६२, ०, ६०१२४ ०६७ ६७ नक्षत्र चन्द्र ऋतु सूर्य अभिवर्द्धित ० ० ६२ इस प्रकार से नाक्षत्रादि संवत्सर का प्रमाण कहकर अघ उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि 'सेत्तं पमागसं बच्छरे' इस पूर्वोक्तरूप से हमने प्रमाण संवत्सर के विषय में कथन किया है इन मास और वर्षों के बीच में ऋतु मास સંકલના માટે બમણા કરીને ૮૮ને મૂલરાશિમાં જોડવામાં આવે તે ૧૪પર થાય છે. આમાં ૧૨ ને ભાગાકાર કરવાથી ૧૨૧ લબ્ધ થાય છે. અને એ ૧૨૪ ભાગેાના છે. આ અભિવદ્ધિ તમાસનું પ્રમાણુ છે. એમની યથાક્રમ અંક સ્થાપના हिन २७, ३०, ३१, हिन ३२७/३५४ / ३६०/३२६/३८३ लाग २१, ३२, ३०१, २१, लाग ५१ १२०० ४४०, १२, १२, ०, ६०१२४, ० १७, १७०० १२ ० નક્ષત્ર, ચન્દ્રઋતુ સૂર્ય અભિવૃદ્ધિ ત આ પ્રમાણે નાક્ષત્રાદિ સંવત્સરનું પ્રમાણ કહીને હવે ઉપસંહાર કરતાં સૂ કાર કહે 'सेत्तं माणसं वच्छरे' मा पूर्वेति ३५थी समोसे प्रणाम संवत्सरना विषयभां થન કર્યું છે. એ માસ અને વર્ષોંના મધ્યમાં ઋતુમાસ અને ઋતુસ ંવત્સર એએ એ જ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ २८ २८१ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १७ संवत्सरभेदनिरूपणम् धात्, तथाचोक्तम् 'कम्मो निरंसयाए मासो ववहारगो लोए। सेसाउ संसयाए ववहारे दुकरा घेत्तुं ॥१॥ (वर्मनिरंशतया मासो व्यवहार कारको लोके । शेषास्तु सांशतया व्यवहारे दुष्कराः ग्रहीतुम्) ॥१॥ इतिच्छाया, अस्यार्थ:-आदित्यादिवर्षाणां मध्ये कर्मसंवत्सर संबन्धी मासः ऋतुमास: निरंशतया पूर्ण त्रिंशदहोरात्रप्रमाणतया लोके व्यवहारकारकः व्यवहारप्रयोजको भवति, शेषास्तु पर्यादयोमासा व्यवहारे ग्रहीतुं दुष्कराः सांशतया नव्यवहारायालं भवन्तीति, निरंशताचैवम्-पष्टिः पलानि घटिका ते च द्वे मुहूर्तः ते च त्रिंशदहोरात्रः ते च पञ्चदशपक्षः, तौ च द्वौ पक्षौ एको मासः ते च द्वादशमासाः संवत्सर इति शास्त्रज्ञातृभिस्तु सर्वेऽपिमासा स्तत्तत्कार्ये नियो और ऋतु संवत्सर ये दो ही लोको के द्वारा पुत्रवृद्धि एवं कलान्तर वृद्धि आदि कार्यो में व्यवहृत किये जाते हैं। क्योंकि ये निरंश होते हैं तथा चोक्तम् कम्मो निरंसयाए मासो ववहारगो लोए। सेसाउ संसयाए ववहारे दुक्करा घेत्तु ॥१॥ - इस गाथा का अर्थ ऐसा है कि आदित्यादि वर्षों के बीच में कर्म संवत्सर सम्बन्धी मास ऋतुमास निरंश होने के कारण पूर्ण ३० अहोरात का होने से लोक में व्यवहारका प्रयोजक होता हैं बाकी के जो सूर्यादिक मास हैं वे व्यब. हार में ग्रहीत होने के लिये दुष्कर है क्योंकि वे सांश हैं इस कारण वे व्यवहार के काम में नहीं आते हैं निरंशता इन में इस प्रकार से हैं-६० पलों की एक घडी होती है दो घड़ियों का एक मुहत होता है ३० मुहूर्त का १ दिन रात होता है १५ दिन रात का १ पक्ष होता है दो पक्षों का एक मास होता है और १२ मास का एक संवत्सर होता है शास्त्रज्ञों ने तो सब ही मासों को उन २ व्यावहारिक લેક વડે પુત્ર વૃદ્ધિ તેમજ કલાન્તર વૃદ્ધિ વગેરે કાર્યોમાં વ્યવહત કરવામાં આવે છે. કેમકે એ નિરંશ હોય છે. તથા ચામ कम्मो निरंसयाए मासो ववहारगो लोए । सेसाउ संसयाए ववहारे दुक्करा घेत्तुम् ॥१॥ આ ગાથાને અર્થ આ પ્રમાણે છે કે આદિત્યાદિ વર્ષોના મધ્યમાં કર્મ સંવત્સર સંબંધી માસ, તુમાસ નિરંશ હોવાને લીધે પૂર્ણ ૩૦ અહોરાતને હોવાથી લેકમાં વ્યવહારને પ્રાજક હોય છે. શેષ જે સૂર્યાદિકમાસ છે. તે વ્યવહારમાં ગૃહીત હોવા બદલ દુષ્કર છે. કેમ કે તેઓ સાંશ છે. એથી તેઓ વ્યવહારના કામમાં આવતા નથી. નિરંશના આમાં આ પ્રમાણે છે-૬૦ પલેની એક ઘડી હોય છે. બે ઘડીઓનું એક સુહર્ત હોય છે. ૩૦ મુહૂર્તના ૧ દિવસ-રાત હોય છે. ૧૫ દિવસ-રાતને ૧ પક્ષ હોય છે બે પક્ષેને એક માસ હોય છે અને ૧૨ માસને એક સંવત્સર હોય છે. શાસ્ત્રોએ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञतिसू जिताः, तथाहि - नक्षत्रमासप्रयोजनं तु संप्रदायादेव ज्ञातव्यम् । वैशाखे श्रावणे मार्गे पौषे फाल्गुन एवहि । कुर्वीतवास्तु प्रारम्भं नतु शेषेषु सप्तछु' इत्यादि स्थलेषु चान्द्रमासस्य प्रयोजनं प्रदर्शितम् ऋतुमासस्य प्रयोजनन्तु पूर्वे प्रदर्शितमेव " जीवे सिंहस्थे धनुमीन स्थितेऽर्के farm निद्राणे चाधिमासे न लग्न मित्यादौ सूर्यमासाभिवर्द्धितमासयोः प्रयोजनं प्रदर्शित मिति तु संक्षेपः ॥ अथ चतुर्थ लक्षण संवत्सर प्रश्नमाह - 'लक्खण पंवच्छरेणं मंते' इत्यादि, 'लक्खण संवच्छरे णं भंते कइविहे पश्नत्ते' लक्षण संवत्सरः लक्षणनामकः खलु भदन्त ! संवत्सरः कतिविधः कतिप्रकारकः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'पंचविहे पत्ते' पञ्चविधः - पञ्चप्रकारकः प्रज्ञप्तः - कथित इति, 'तं जहा' तद्यथा 'समयं णवखत्ता जोगं जोयंति समयं उउं परिणामंति, णच्चुला इसीओ बहूओ होइ णक्खत्तो' समकं कार्यों में नियोजित किया है नक्षत्रमासों का प्रयोजन संप्रदाय से जानलेना चाहिये 'वैशाखे श्रावणे मार्गे पौषे फाल्गुन एवहि । कुर्वीत वास्तु प्रारम्भं नतु शेषेषु सप्तसु । इत्यादि स्थलो में चन्द्र मालका प्रयोजन प्रदर्शित किया गया है ऋतुमासका प्रयोजन तो हमने पहिलेही दिखा दिया है, 'जीवे सिंहस्थेधनु मीना'स्थिash विष्णt निद्राणे चाघिमासे न लग्न' मित्यादि स्थलो में सूर्यमास और अभिवर्द्धित नासोका प्रयोजन दिखाया है । " लक्खण संच्छरे णं भंते ! कइविहे पण्णन्ते' हे भदन्त ! जो लक्षण संव"सर है वह कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोमा पंचविहे पत्ते' हे गौतम! लक्षण संवत्सर पांच प्रकार का कहा गया है। ''तं जहा' वे उसके पांच भेद इस प्रकार से हैं- 'समयं णक्खत्ता, जोगं जोयंतिसमयं उउ परिणामति णच्हणाइसीओ बहूदओ होइ णक्खत्तो' इस गाथा का તે બધા માસાને તત્ તત્ વ્યાવહારિક કાર્યોમાં નિયાજિત કર્યો છે. નક્ષત્રમાસાનું પ્રયાજન સંપ્રદાયથી જાણી લેવુ ર્જાઇએ. वैशाखे श्रावणे मार्गे पौधे फाल्गुन एव हि । कुर्वीत वास्तु प्रारम्भं न तु शेषेसु सप्तसु ॥ વગેરે સ્થળેામાં ચન્દ્રમાસનું પ્રયાજન પ્રદર્શિત કરવામાં આવેલુ છે. ઋતુમાસનુ प्रयोजन तो भोखे पडेस स्पष्ट उरी हीधु' छे. 'जीवे सिंहस्थे धनुमीनास्थिते ऽर्के विष्णौ निद्राणे चाधिमासे न लग्नमित्यादि स्थणामां सूर्यभास भने अलिवद्धितमासोनु પ્રત્યેાજન બતાવવામાં આવેલુ છે. 'लक्खणसंवच्छरणं भंते! कइविहे पण्णत्ते' हे लढत ! लक्षण संवत्सर छे ते सा • प्रकार डे - 'गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते' हे गौतम! लक्षण संवत्सर यांथ प्रहार वामां आवे छे. 'तं जहा' तेमना से प्रारे आ प्रमाणे छे- 'समयं णक्खत्ता, जोगं जोयंति, - Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १७ संवत्सरभेदनिरूपणम् नक्षत्राणि योग योजयन्ति समकम् ऋतुं परिणामयन्ति। नात्युष्णो नातिशीतो बहूदको भवति नक्षत्रम् अस्यार्थः-'समय' समकम् समतया नतु विषमतथा 'णक्खत्ता' नक्षत्राणिकृत्तिकादीनि 'जोगं जोयंति' योगं कार्तिकी पूर्णिमादितिथिभिः सह सम्बन्धं योजयन्ति घटयन्ति कुन्तिीत्यर्थः अयं भावः-यानि नक्षत्राणि यासु तिथिषु स्वभावतो भवन्ति यथा कार्तिकी पूर्णिमास्याः कृतिकाः तानि नक्षत्राणि तास्वेव तिथिषु यत्र भवन्ति तथोक्तम् 'जेट्ठो वच्चइ मूलेणं सावणो धणिट्ठाहि ।। अदासु य मग्गसिरो सेसा णक्खत्तनामिया मासा ॥१॥ (ज्येष्ठो तिष्ठत्ति मूलेन श्रावणो धनिष्ठया ।। आर्द्रायां मार्गशीर्षः शेषा नक्षत्रनामका मासा इतिच्छाया) अर्थ:-'समयं उउं परिणामंति' यत्र समः समतया ऋतकः परिणमन्ति- परिणाममाजो अर्थ इस प्रकार से है जो कृत्तिका आदि नक्षत्र समरूप से ही विषमरूप से नहीं कति की पूर्णिमासी आदि तिथियों के साथ सम्बन्ध करते हैं। अर्थात् जो नक्षत्र जिनतिथियों में स्वभाव से होते हैं वे समक नक्षत्र है जैसे-कार्तिकी पूर्णिमासी का कृत्तिका नक्षत्र वे नक्षत्र उन्ही तिथियों में जहाँ होते हैं-तथा चोक्तम् जेहो वच्च मूलेणे सावणो धणिहाहिं अद्दासु य मग्गसिरो सेसा णक्खत्तनामिया मासा ॥१॥ ज्येष्ठा मूल के साथ श्रवण धनिष्ठा के साथ मृगशीर्ष आर्द्रा के साथ, इस प्रकारका "समय णवत्ता जोगं जोयंति" यह कारिका गत प्रथम चरण का अर्थ है 'समयं उउं परिणामंति' इस द्वितीयपाद का ऐसा अर्थ है जिस में ऋतुएं समरूप से परिणमित होती है, विषम रूप से नहीं- जैसे कार्तिकी के अनन्तर हेमन्त ऋतु होती है, पौष की पूर्णिमा के अनन्तर शिशिरऋतु होती है इस समयं उउ परिणामंति णच्चुहाइसीओ बहूदओ होइ णखत्तो' मा थान मा પ્રમાણે છે. જે કૃત્તિકા વગેરે નક્ષેત્રે વિષમ રૂપમાં નહિ પરંતુ સમરૂપથી જ કાર્તિકી પૂર્ણમાસી વગેરે તિથિઓની સાથે સંબંધ કરે છે. એટલે કે જે નક્ષત્ર જે તિથિઓમાં સ્વભાવતા હોય છે તે સમય નક્ષત્ર છે જેમકે-કાર્તિકી પૂર્ણિમાસીનું કૃત્તિકા નક્ષત્ર એ નક્ષત્ર તેજ તિથિઓમાં જ્યાં હોય છે–તથા ચેકતમ जेट्ठो वच्चइ मूलेणं सावणो धणिवाहि । अदासुय मग्गसिरो सेसा णक्खत्तनामिया मासा ॥१॥ જયેષ્ઠા મૂલનક્ષત્રની સાથે, શ્રવણ ધનિષ્ઠાની સાથે, માર્ગશીર્ષ આદ્રની સાથે, આ । 'समयं णखत्ता जोगं जोयंति' मा ४२ प्रथम यशुन। छ. 'समयं उउं परिणामंति' मा द्वितीय पाइने। 0 प्रमाणे म छ. रेभ ऋतुमा विषम३५मा नाल પરંતુ સમરૂપમાં પરિણમિત થાય છે. જેમ કાર્તિકમાસની પુનમની અનંતર હેમન્તનતુ હેય Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भवन्ति नतु विषमतया यथा कार्त्तिक्या ! अनन्तरं हेमन्त ऋतुर्भवति पौषपूर्णिमाया अनन्तरं शिशिरर्तुः एवं प्रकारेण समतयैव ऋतवः परिणमन्तीत्यर्थः 'णच्चण्ह णाइसोओ' यश्च संवत्सरोनात्युष्णः नातिशयेन तापकः तथा नातिशीतः तथा 'बहूदओ' बहूदकः प्रभूतजलराशि संपन्नः स च संवत्सरो भवति लक्षणतो निष्पन्न इति नक्षत्रचारलक्षणलक्षितत्वात् नक्षत्रसंवत्सर इति । 'ससि समगपुण्णमासि जोएंति विसमचारि णक्खत्ता । कडूओ बहूदओ आ तमाहु संवच्छरं चंदं' ||२॥ शशिसमकं पौर्णमासीं योजयन्ति विषमचारि नक्षत्राणि । कटुको बहूदक स्तमाहुः संवत्सरं चान्द्रमितिच्छाया ॥ अस्यार्थस्तु - 'ससिसमग' शशिना समकं योगं सम्बन्त्रम् उपगतानि 'विसमचारि णक्खत्ता' विषमचारीणि मास विसदृशनामकानि नक्षत्राणि 'पुण्णमासि जोएंति' पौर्णमासीं तां तां पौर्णमास मासान्ततिथिम् योजयन्ति - परिसमापयन्ति यस्मिन् संवत्सरे 'कडुओ बहुदओय' कटुको बहूदकथ, यश्च संवत्सरः कटुकः शीतातपरोगादि प्रधानतया परिणाम दुःखदायकः प्रकार के समरूप से ही जिस ऋतु का जिस में परिणमन होता रहता है वह भी समक नक्षत्र है 'णचचुहणाइसीओ' जो संवत्सर न अति उष्ण होता है और न अतिशीत होता है किन्तु 'बहूदओ' प्रभुनजल राशि संपन्न होता है वह संवत्सर लक्षण से निष्पन्न होता है । इसकारण नक्षत्रों के चार रूप लक्षण से लक्षित होने के कारण नक्षत्र संवत्सर कहा जाता है 'ससि समग पुष्णमासि जोएंति विसम चारि णक्खत्ता कडुओ बहूदओ आ तमाहु संबच्छरं चंं' इस गाथा का अर्थ ऐसा है चन्द्र के साथ योग - सम्बन्ध को प्राप्त हुए विषम चारी नक्षत्र - मास से विसदृश नाम वाले नक्षत्र उस उस मासान्त की तिथिको जिस संवत्सर में समाप्त करते हैं तथा जो संवत्सर कटुक होता है-शीत-आतप, रोग आदि की प्रधानता को लेकर परिणाम में दुःख दायक होता है, तथा प्रभूत जलराशि से संपन्न होता છે, પૌષની પૂર્ણિમાં પછી શિશિરઋતુ હોય છે. આ જાતના સમરૂપથી જ જે ઋતુઓમાં परिशुभन थ रहे छे, ते यु समानक्षत्र छे. 'णच्चुणा णाइसीओ' ने संवत्सर अतिउष्णु होतुं नथी तेभन अतिशीत चालु होतुं नथी परंतु 'बहूओ' प्रभूत नजराशि सम्पन्न હોય છે, તે સંવત્સર લક્ષણથી નિષ્પન્ન હોય છે. આથી નક્ષત્રાના ચાર રૂપ લક્ષણથી दक्षित डावाने सीधे नक्षत्र संवत्सर हेवामां आवे छे. 'ससि समग पुण्णमार्सि जोएंति विसमचारि णक्खत्ता, कडुओ बहूदओ आ तमाहु संवच्छरं चंद' मा गाधाना अर्थ आ પ્રમાણે છે. ચન્દ્રની સાથે ચેાગ—સંબંધ–ને પ્રસ થયેલા વિષમચારી નક્ષત્ર -માસથી વિસશ નામવાળા નક્ષત્ર-તત્ તત્ માસાન્તની તિથિને જે સવત્સરમાં સમાપ્ત કરે છે, તેમજ જે સંવત્સર કટુક ડાય છે-શીત, તપ, રાગ, વગેરેની પ્રધાનતાને લીધે પરિણામમાં દુઃખ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. १३ संवत्सर भेद निरूपणम् तथा बहूदकः बहूनि उदकानि जलानि यस्मिन् स तथा, इत्थं भूतं संवत्सरं महर्षयः चान्द्र चन्द्रसंबन्धिनं संवत्सरमाहुः - कथयन्ति चन्द्रानुरोधात्तु चान्द्रमिति कथयन्ति यतस्तत्रैव मासानां परिसमाप्तेः न मास सदृशनामक नक्षत्रानुरोधत इति । सम्प्रति कर्माख्यसंवत्सरं दर्शयति- 'विस' इत्यादि, 'विसमं पवालिो परिणमंति अणुऊसु दिति पुप्फफलं । वासन सम्म वास तमाहु संवच्छरं कम्मं' ||३|| इति ॥ (विषमं प्रवालिनः परिणमन्ति अनृतुषु ददति पुष्पफलम् ॥ वर्षे न वर्षति सम्यक् तमाहुः सम्वत्सरं कर्म || ३ || इतिच्छाया । अस्यार्थः- यस्मिन् कर्माख्यसंवत्सरे वनस्पतयो वृक्षाः 'विसमं' विषमं विषमकालम्, यो यस्य फलपुष्पदानसमयः तदतिरिक्तकालेऽपीत्यर्थः 'पवारिणो' प्रवालिनः 'परिणमंति' परिणमन्ति प्रवाला: पल्लवाङ्कुरा स्तदयुक्ततया परिणमन्ति-परिणामं प्राप्नुवन्ति, तथा'अणुऊसु दिति पुष्कफलं' अनृतुष्वपि ददति पुष्पफलम् तत्र अनृतुषु स्वस्व ऋत्वभावेऽपि फलं पुष्पं च ददति प्रयच्छन्ति वनस्पतयः, अकाले पल्लववान् अकाले पुष्पफलानि च धारयन्ति, तथा - 'वार्सन सम्मा' मेघः सम्यगुरूपेण वर्षे वृष्टिं न वर्षति न करोति है ऐसे संवत्सर को ऋषिजन चान्द्र संवत्सर कहते हैं क्योकि वहीं पर मासों की परि समाप्ति होती है। 'विसमं पवालिणो परिणमंति अणुऊसु दिति पुष्फफलं वासं न सम्मं वासह तमाहु संबच्छरं कम्मं ॥ ३ ॥ इस गाथा का अर्थ इस प्रकार से है - महर्षिजन उस संवत्सरको कर्म संवसर कहते हैं कि जिस संवत्सर में वृक्ष फल पुष्प आने के काल से भिन्न काल में भी फल पुष्प देते हैं - प्रवाल अङ्कुर आदि से युक्त नहीं होते हैं तात्पर्य यही हैं कि जिस संवत्सर में वृक्षादिक अकाल में पल्लवों से युक्त हों और अकाल में ही फलदायी हों तथा जिस में मेघ अच्छी तरह वर्षा न वरसावें દાયક હોય છે, તેમજ પ્રભૂત જળરાશથી સમ્પન્ન હેાય છે, એવા સંવત્સરને ૠષિજને ચાન્દ્ર, સંવત્સર કહે છે, કેમકે ત્યાંજ માસેાની પરિસમાપ્તિ ડાય છે. विसमं पवालिो परिणमंति अणुउसु दिति पुप्फफलं, वासं न सम्मं वासइ तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥३॥ આ ગાથાને અર્થ આ પ્રમાણે છે-મહર્ષિ જના તે સવત્સરને ક્રમ" સાંવત્સર કહે છે કે જે સ'વત્સરમાં વૃક્ષ, ફળ, પુષ્પ આપવાના કાળથી ભિન્નકાળમાં પણ ફળ-પુષ્પ આપે છે. પ્રવાલ અંકુર વગેરેથી યુક્ત થતા નથી, તાત્ક આ પ્રમાણે છે કે જે સવત્સરમાં વૃક્ષાદિક અકાલમાં પલ્લવાથી યુક્ત થાય અને અકાળમાં ફળ પ્રદાન કરતા હાય તેમજ જેમાં મેશ્વા સારી રીતે વતા નથી Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र यस्मिन् तं संवत्सरम 'कम्म' कर्माख्यम् 'भाइ' आहुः कथयन्ति महर्षय इति । सम्प्रति सौरं वर्ष दर्शयति-'पुढवीदगाणं' इत्यादि, 'पुढवी दगाणं च रसं पुप्फफलाणं च देइ आइयो । अप्पेण वि वासेणं सम्भं निफजए सस्सं' ॥४॥ (पृथिव्युदकानां च रसं पुष्पफलानां च ददात्यादित्यः । अल्पेनापि वर्षण सम्यग् निष्पधते सस्यम्) ॥४॥ इतिच्छाया । अस्यार्थस्तु 'पुढवीदगाणं च रसं पुप्फफलाणं च' पृथिव्युदकानां च रसं पुष्पफलानां च, तत्र पृथिव्या उदकस्य जलस्य तथा पुष्पाणां फलानो च रसम् 'आइच्चो' आदित्यः-सूर्यः 'देइ' ददाति, अर्थात् आदित्यनामकः संवत्सरः पृथिव्या उदकस्य फलपुष्पयोश्च रसं सर्प यति तथा; अप्पेणवि वासेगं' अल्पेन-स्तोकेनापि वर्षेण-वृष्टया 'सम्म सस्सं निप्फज्जए' सम्यग रूपेण सस्य धान्यममुरादिकं निष्पयते निष्पादयति, अयं भावः-यस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तादृश जलसंपर्कादतिशयेन रसपती भवति तथा जलमपि परिणाम सुन्दररसविशिष्टं सत् परिणमति, तथा पुष्पाणां पङ्कजादीनां फलानां चाम्रपनसादीनां रसः प्रचुरतरो भवति, तथा स्तोकेनापि वर्षेण धान्यं सर्वत्र सम्घा निष्पद्यते तमादित्यसंवत्सरं पूर्वमहर्षयः कथयन्ति इति॥ सम्प्रति अभिवतिसंवत्सरं दर्शयितुमाह-'आइच्चे' इत्यादि, 'आइच्चतेयतविया खणल दिवसा उऊपरिणमंति। पूरेइय णिण्णथले तमाहु अभिवद्धियं जाण' ॥५॥ पुढवी दगाणंच रसं पुप्फ फलाणंच देइ आइच्चो। अप्पेण वि वासेणं सम्मं निफज्जए सस्तं ॥४॥ जिस संवत्सर में आदित्य पृथिवी को, उदक को और फल पुष्पों को रस देता है उस संवत्सर का नाम आदित्य संवत्सर है इस संवत्सर में थोडी सी भी वर्षा से अनाज की उत्पत्ति अच्छी हो जाती हैं। आइच्चतेयतविया खणलवदिवसा उऊ परिणमति । पूरेइ पिण्णथले तमाहु अभिवद्धियं जाण ॥५॥ 'पुढवी दगाणंच रसं पुप्फफलाणं च देइ आइच्चो । अप्पेण वि वासेणं सम्मं निप्फज्जए सस्सम् ॥४॥ જે સંવત્સરમાં આદિત્ય પૃથિવીને, ઉદકને અને ફળ પુને રસ આપે છે, તે સંવત્સરનું નામ આદિત્ય સંવત્સર છે. આ સંવત્સરમાં મામૂલી વર્ષોથી પણ અનાજ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. आइच्चतेयतविया खणलवदिवसा उऊ परिणमांत । पूरेइ णिण्णयले तमाहु अभिवद्धियं जाण ।।५।। જે સંવત્સરમાં સૂર્યના પ્રચંડ તાપથી ક્ષણ, લવ, અને દિવસ તપ્ત રહે છે અને જેમાં નિના Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १७ संवत्सरभेदनिरूपणम् आदित्य तेजस्तप्ताः क्षणलवदिवसा ऋतवः परिणमन्ति । पूरयति च निम्न स्थलं तमाहुरभिवद्धितं जानीहि ।।५॥ इतिच्छाया, अस्यार्थस्तु-यस्मिन् संवत्रे 'खण लवदिवसा' क्षणलयदिवसा 'उ' ऋतव - वसन्ताधाः 'इच्चते यतविया' आदित्यतेजस्तप्ता: आदित्यस्य संबन्धिन स्तेजमा-खरकिरणेन कृत्वा तप्ता-अतीव संतप्ताः सन्तः 'परिणपन्ति-परिणाममासादयन्ति, तथा यश्च संवत्सरः "णिण्णथले य पूरेइ' सर्वाप्यपि निम्नस्थ लानि-अधः स्थलानि जलेन पूरयति 'तमाहु अभिवद्धियं जाण' तमेतादृशं संवत्सरम् अभिवद्धित नामकं महर्षय पाहु:--अक्थयन्ति, इति जानीहि इति ॥ सम्प्रति शनैश्चरसंवत्सरं प्रश्नयमाह-'सणिच्छर' इत्यादि, सणिच्छरसंवच्छरेणं भंते ! कविहे पनत्ते' शनिश्चर संवत्सरः खलु भदन्त ! कतिविधः--कदिप्रकारकः प्रज्ञप्त:कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठावीसइविहे पन्नत्ते' अष्टाविंशतिविधोऽष्टाशिति प्रकारको भातीति प्रज्ञतः-ऋथितः, 'तं जहा' तद्यथा'अभिईवणे धणिट्ठा' अभिजित् श्रवणो धष्ठि, अभिजित् शनैश्चरसंपत्साः, श्रवणः शनैश्चर संवत्सरः, धतिष्ठा शनैश्चरसंवत्सरः 'साइभिसया' शतभिषक् शनैश्वरसंवत्सरः 'दो य होति भद्दक्या' द्वे च भवतो भाद्रपदे पूर्वाभाद्रपदशनैश्चरसंवत्सः उत्तरभाद्रपदशनैश्चरसंवत्सर इत्यर्थः, 'रेवई अस्सिणी भरिणी' रेवती अश्विनी भरिणी' रेवती शनैश्चरसंवत्सरः अश्विनी जिस संवत्सर में सूर्य के प्रखर लाप से क्षण, लव और दिवस तपे रहते हैं ओर जिसमें निम्नस्थल जल से परिपूर्ण बने रहते हैं ऐसे संवत्सर को महर्षि जन अभिवति संवत्सर कहते हैं । ___ अब गौतमस्वामी शनैश्चर संवत्सर के सम्बन्ध मे पूछते हैं 'सणिच्छरसंव च्छरेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! शनैश्वर संवत्सर कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! अठ्ठावीसइविहे पण्णत्ते' हे गौतम ! शनैश्चर संवत्सर २८ प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे 'अभिई संवणे धणिट्ठा' अभिजित् शनैश्चर संवत्सर, श्रवणशनैश्चर संवत्स, धनिष्ठा शनैश्चर संवत्सर, 'सयभिसया दोय होंति भद्दचया' शतभिषक शनैश्चर संव. સ્થળે જળથી પરિપૂર્ણ રહે છે. એવા સંવત્સરને મહર્ષિ અભિવાદ્ધત સંવત્સર કહે છે : व गौतमस्वाभी-शनैश्व२ संवत्सरना स भां पूछे छ-'सणिच्छरसंवच्छरेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते' हे मत ! शनिश्च२ संवत्सर । प्रारना ४ामा माटो छ ? सेना याममा प्रमुख -गोयमा ! अदाबीसइविहे पण्णते' हे गौतम ! शनैश्वर संवत्स२ २८ १४.२ने। ४ामा मासा छे. 'तं जहा' 43-'अभिई संवणे धणिवा' समिति शनैश्वर सत्स२, १९ शनैश्चर संवत्सर, पनिशन५२ सवत्सर, 'सयभिसया दो य होंति भवया' शतभिषः शनैश्वर सक्स२, पूर्व भाद्र ५६ शनैश्वर सवत्सर भने उत्तरमा ५४ शनेश्वर सवत्स२ 'रेवइ अस्सिणी भरिणी' ३वती शनैश्वर स२ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जम्बुद्वीपप्राप्तिसत्रे शनैश्चरसंवत्सरः भरिणी शनैश्चरसंवत्सरः। कित्तिय तह रोहिणी चेव' कृत्तिका तथा रोहिणी चैत्र, कृत्तिका शनैश्चरसंवत्सरः तथा रोहिणी शनैश्चरसंवत्सरः 'जाव उत्तराओ आसाढा मो' यावद् उत्तराषाढाः, उत्तराषाढशनैश्चर संवत्सरः, अत्र यावत्पदेन मृगशीर्दा पुष्य पुनर्वसु अश्लेषा मघा पूर्वादीनां संग्रहो भवति, तत्र यस्मिन् संवत्सरे अभिनिता नक्षत्रेण सह शनैश्चरः संबन्धमुपादत्ते सोऽभिजित् शनैश्चरसंवत्सरः, तथा श्रवणेन सह यस्मिन् संवत्सरे शनैश्चरो योगमुपादत्ते स श्रवणसंवत्सर इति, एवं सर्वत्रापि वक्तव्यम् । अथवा प्रकारान्तरेण शनैश्चरसंवत्सरं वक्तुमाह-'जवा' इत्यादि, 'जंवा सणिच्चरे महम्गहे' यद्वा शनैश्चरो महाग्रहः 'तीसाए संवच्छरेहि' त्रिंशता संवत्सरै वर्षेः 'सव्यं णखत्तमंडलं समाणेई' सर्व नक्षत्र मण्डलम् अभिजिदादि उत्तराषाढान्तं समापयति एतावान् कालविशेषः त्रिंशद्वर्षप्रमाणः शनैश्चरसंवत्सरः। उपसंहरबाह--'सेतं सणिच्छरसंवच्छरे' सोऽयं शनैश्चरसंवत्सर इति संवत्सरस्वरूपनिरूपणमिति ॥५० १७॥ स्सर, पूर्वभाद्रपद शनैश्चर संवत्सर और उत्तर भाद्रपद शनैश्वर संवत्सर, 'रेवई अस्सिणी भरिणी' रेवती शनैश्चर संवत्सर अश्विनी शनैश्चर संवत्सर, भरिणी शनैश्चर संवत्सर 'कित्तिय तह रोहिणीचेव' कृत्तिका शनैश्चर संवत्सर, रोहिणी शनैश्चर संवत्सर 'जाव उत्तराओ आसाढाओ,' यावत्-उत्तराषाढ शनैश्चर संव स्सर, तथा यावत्पद से गृहीत मृगशीर्ष शनैश्चर संवत्सर, आः शनैश्चर संवत्सर, पुष्य शनैश्चर संवत्सर पुनर्वसु शनैश्चर संवत्सर, अश्लेषा शनैश्चर संवत्सर मघा शनैश्चर संवत्सर में अभिजित नक्षत्र के साथ शनैश्चर संबंध का प्राप्त होता है वह अभिजित शनैश्चर संवत्सर है जिस संवत्सर में श्रवण नक्षत्र के साथ शनैश्चर का संबंध प्राप्त होता है वह श्रवणशनैश्चर संवत्सर है इसी प्रकार से और भी शेष संवत्सरों के निर्वचन में जानना चाहिये 'जं वा सणि कचरे महग्गहे' अथवा-शनैश्चर महाग्रह है 'तीमाए संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्त मंडलं समाणेई' यह ३० वर्षों में समस्त अभिजित् से लेकर उत्तराषाढान्त तक मश्विनी निश्वर संवत्स२ मारणी शनैश्वर संवत्स२, 'कित्तिय तह रोहिणी चेव' ति। शनैश्च२ सर२ डिशी शनश्वर सत्स२ 'जाव उत्तराओ आसाडाओ' यावत् उत्तराषाढा શનૈશ્ચર સંવત્સર તેમજ યાવત્ પદથી ગૃહીત મૃગશીર્ષ શનૈશ્ચર સંવત્સર, આદ્ર શનૈશ્ચર સંવત્સર પુષ્ય શનૈશ્ચર સંવત્સર, પુનર્વસુ શનૈશ્ચર સંવત્સર, અશ્લેષા શનૈશ્ચર સંવત્સર, મઘા શનૈશ્ચર સંવત્સર જે સંવત્સરમાં અભિજિત નક્ષત્રની સાથે શનૈશ્ચર સંબંધને પ્રાપ્ત કરે છે તે અભિજિત શનૈશ્ચર સંવત્સર છે. જે સંવત્સરમાં શ્રવણ નક્ષત્રની સાથે શનૈશ્ચર સંબંધને પ્રાપ્ત થાય છે. તે શ્રવણ શનૈશ્ચર સંવત્સર છે. આ પ્રમાણે બીજ પણ સંવત્સशना नियन। समयमा all सेन. 'जंबा सणिच्चरे महग्गहे' ११॥ शनैश्वर महाय छे. 'तीसाए संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमंडलं समागेइ' मा ३० वर्षामा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. १८ एक स्मम्संवत्सरे माससंख्यानिरूपणम् २८९ संवत्सराः कथिता सम्प्रति एतेषु संवत्सरेषु कतिमासा भवन्तीति पृच्छन्नष्टादश सूत्र माह-'एग मेगस्स णं भंते' इत्यादि । मूलम्-एगमेगस्स णं भंते ! संवच्छरस्त कई मासा पन्नत्ता? गोयमा! दुवालस मासा पन्नत्ता, तेलि णं दुविहा णामधेजा पन्नत्ता, ते जहालोइया लोउत्तरिया च, तत्थ लोइया णामा इमे तं जहा सावणे भादवए जाव आसाढे, लोउत्तरिया णामा इमे तं जहा अभिणंदिए पइट्रेय विजए पीइवद्धणे । सेयंसेय सिवे चेव सिसिरे य सहेभवं ॥१॥ . णवमे वसंतमासे दसमे कुसुमसंभवे । एकारसे निदाहे य वणविरोहे य वारसमे ॥६॥ एगमेगस्स भंते ! मासस्त कइ पक्खा पन्नत्ता ? गोयमा ! दो पक्खा पन्नत्ता तं जहा-बहुलपश्खे य सुकपक्खेय । एगमेगस्स णं भंते ! पक्खस्त कइ दिवसा पन्नत्ता ? गोयशा ! पामरस दिवसा पन्नत्ता तं जहा पडिवा दिवसे वितोया दिवसे जाव पण्णरसी दिवसे, एएसि णं भंते ! पण गरसण्हं दिवसाणं कई णामधेजा पन्नता ? गोयमा! पण्णरस णामधेजा पन्नत्ता तं जहा-दुवंगे सिद्धमणोरमे य तत्तोमणोहरे चेव जसभ य जसधरे छठे सत्रकामसमिद्धे य ॥१॥ इदमुद्धाभिसित्ते य सोमणस धणंजए य बोद्धलो। अस्थ सिद्धे अभिजाए अञ्चलणे सयं. जए चेत्र ॥२॥ अग्गिवेसे उसमे दिखाणं होंति णामधेजा।। के नक्षत्र मंडल को समाप्त कर देता है । अर्थात उन्हे प्राप्त कर लेता हैं । इस तरह इसके काल के प्रमाण ३० वर्ष का है । 'सेत्तं सणि चरसंवच्छरे' इस प्रकार से शनैश्चर संवत्सर के स्वरूप निरूपण होकर संवत्सर के स्वरूप का निरूपण समाप्त हो जाता है ॥१७॥ સમસ્ત અભિજિતથી માંડીને ઉત્તરાષાઢાત સુધીના નક્ષત્ર મંડળને સમાપ્ત કરી નાખે છે. એટલે કે તેમને પ્રાપ્ત કરી લે છે. આ પ્રમાણે એના કાળનું પ્રમાણ ૩૦ વર્ષ જેટલું છે. 'से त्तं सणिच्चरसंवच्छरे' । प्रभारी शनैश्वर संवत्सना ३५९४थी मी ५४ा सबस, ના સ્વરૂપનું નિરૂપણ સમાપ્ત થઈ જાય છે. ૧૭ ०३७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपमतिशे एएसि णं भंते! पण्णरसहं दिवसाणं कइ तिही पन्नता ? गोयमा ! पण्णरस तिही पन्नत्ता, तं जहा-नंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पत्रस्त पंचमी । पुणरवि णंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स दसमी । पुणरवि णंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पत्रखस्स पण्णरसी एवं ते तिगुणा तिहीओ सव्वेसि दिवसाणं त्ति । एगमेगस्स णं भंते ! पक्खस्स कइ राइओ पण्णताओ ? गोयमा ! पण्णरस राइओ पण्णत्ताओ तं जहापडिवा राई जाव पण्णरसी राई । पयासि णं भंते! पण्णरसहं राई णं कइ णामधेजा पण्णत्ता ? गोयमा ! पण्णरस णामधेजा पण्णत्ता, तं जहाउत्तमा य सुणक्खत्ता एला वच्चा जसो हरा । सोमणसा चेत्र तहा सिरिसयं भूया य बोद्धव्वा ॥ १ ॥ विजया य वेजयंति जयंति अपराजिया य । इच्छा य समाहारा चेत्र तहा तेया य तहा अईतेया ॥ ॥ देवानंदा णिरs रयणीणं णामधिजाई ॥ पयासि णं भंते! पण्णरसहं कइ तिही पणत्ता ? गोयमा ! पण्णरस तिही पण्णत्ता तं जहागवई भोगाई सवई सव्त्र सिद्धा सुहणामा, पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहगामा, पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सवसिद्धा सुहणामा, एवं तिगुणा एते तिहोओ सव्वेसिं राईणं । एगमेगस्स णं भंते! अहोरत्तस्स कइमुहुत्ता पन्नत्ता ? गोयमा ! तीस मुहुत्ता पन्नत्ता तं जहा - रु सेए मित्ते वाउसुवीए तहेव अभिचंदे । माहिंद बलवं बंभे बहुसच्चे चेव ईसाणे १ त य भावियप्पा वेसमणे वारुणे य आणंदे । विजय य वीससेणे पाया वच्चे उवसभे य २ । गंधव्व अग्गिदे से आयवेय अममेय । अणवं भोमे वसहे सव्वट्टे रक्खसे चेति ॥ सू० १८ || छाया - एकैकस्य खलु भदन्त ! संवत्सरस्य कति मासाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्वादशमासाः प्रज्ञाः तेषां द्विविधानि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - लौकिकानि लोकोत्तराणि च तत्र लौकिकानि नामानि इमानि तद्यथा-श्रावण भाद्रपदो यावदाषाढ, लोकोत्तराणि नामानीमानि तद्यथा - अभिनन्दितः प्रतिष्ठितो विजयः प्रीतिवर्द्धनः श्रेयांश्च शिवश्चैव शिशिरश्च सहेमहान् |१| नवनो वलन्त्सोधनः कुः । एकादशो निदाघश्च वनविशेवश्च द्वादशः Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमय सस्कारः सू. १८ एकस्न् िसंवत्सरे माससंख्यानिरूपणम् २९१ २॥ एकैकस्य खलु भदन्त ! मासस्य कतिपक्षाः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्वौ पक्षौ प्रज्ञप्तौ तद्यथाबहुलपक्षश्च शुक्लपक्षश्च । एकैकस्य खलु भदन्त ! पक्षस्य कति दिवसा: प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपदिवसो द्वितीया दिवसो यावत्पञ्चदशी दिवस: 'एतेषां खलु भदन्त ! पञ्च इशानां दिसाना तिनामधेयानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! पश्चदशनामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्या-पूर्वाङ्गः सिद्धमनोरमश्च ततो मनोहरश्चैव । यशोभद्रश्च यशोधरः षष्ठः सर्वकामसमृद्धश्च ॥१. इन्द्रमूर्धाभिषिक्तश्च सौमनसो धनञ्जयश्व बोद्धव्यः। अर्थसिद्धोऽभि जातोऽत्यशनः शतञ्जयश्चैव ।।२।। अग्निवेश्म उपशमो दिवसानां भवन्ति नामधेयानि । एतेषां खलु भदन्त ! पञ्चदशानां दिवसानां कति तिथयः प्रज्ञप्ताः ? हे गौतम ! पञ्च दशतिथयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-नन्दाभद्रा जयातुच्छा पूर्णापक्षस्य पञ्चमी । पुनरपि नन्दाभद्रा जयातुच्छा पूर्णापक्षस्य दशमी। पुनरपि नन्दाभद्रा जयातुच्छा पूर्णापक्षस्य पञ्चदशी । एवं ता स्त्रिगुणाः तिथयः सर्वेषां दिवसानामिति । एकैकस्य खलु भदन्त ! पक्षस्य कति रात्रयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पश्चदशः रात्रयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-प्रतिपदात्रिर्यावत्पश्चदशीरात्रिः । एतासां खलु भदन्त ! रात्रीणां पञ्च दशानां कतिनामधेयानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! पञ्चदशनामवेयानि प्रज्ञपानि तद्यथा-उत्तमा च मुनक्षत्रा एलापल्या यशोधरा । सौमनसा चैव तथा श्रीसंभूता च बोद्धव्या ॥१॥ विजया वैजयन्नी व जयती पाराजिता, चेच्छा च समाहारा तेजाश्च तथा अति तेजाः ॥२॥ देवानन्दा निरतिः रजनीनां नामधेयानि । एतासां खलु भदन्त ! पञ्चदशानां रात्रीणां कति तिथयः प्रज्ञप्ताः गौतम ! पञ्चदशतिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उग्रवती भोगवती यशोमती शुभनामा पुनरपि उग्रवती भोगवती यशोमती शुभनामा, पुनरपि अवती भोगवती यशोमती सर्वसिद्धा शुभनामा, एवं त्रिगुणास्तिथरः सर्वापां रात्रीणाम् । एकैकस्य खलु भदन्त ! अहो. रात्रस्य कतिमुहूर्ताः प्रज्ञप्ताः गौतम ! त्रिशन्मुहर्ताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- रुद्रः श्रेयान् मित्रोवायु: सुप्रीतस्तथैवाभिचन्द्रः। माहेन्द्रो बलवान् ब्रह्मा बहुसत्यश्चैवेशानः॥१॥ त्वष्टा च भावितात्मा वैश्रमणो व रुगवानन्दः । विजयश्च विश्वसेनः प्राजापत्य उपशमश्चैत्र २॥ गन्धोऽग्निवेश्म शत वृषभ आतपयानममश्च । ऋणवान् भीमो वृषभः सर्वार्थः राक्षस श्चैव ।। इति ।। सू. १८॥ ___टोका-'एएमेगस्स णं भंते ! संवच्छरस्स' एकैकस्य खलु भदन! सवत्सरस्य चान्द्रादि वर्षस्य 'कइमासा पन्नत्ता' कति-क्रियत्संख्यक मासाः ज्ञप्ताः कथिताः, हे भदन्त ! योऽय संवत्सरो में मासों का प्रतिपादन 'एगमेगस्सणं भंते ! संवच्छरस्स कइ मासा पन्नत्ता' इत्यादि टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछ। है-कि हे भदन्त एक एक संवत्सर के चान्द्रादि वर्ष के कितने कितने महिने होते हैं ? इसके उत्तर સંવત્સરમાં માસેનું પ્રતિપાદન 'एगमे गस्स णं भंते ! संबच्छरस्स कइ मासा पन्नत्ता' इत्यादि ટકાથ-આ સૂત્ર વડે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભલા Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र मनेकप्रकारकः पूर्व संवत्सरः प्रतिपादितः तस्य प्रत्येकै कस्य सम्बन्धिनः कियत्संख्यका मासा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-पोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुवालसमासा पन्नत्ता' द्वादश-द्वादशप्रकारका मासाः प्रज्ञप्ता:-कथित : 'तेलिणं दुविहाणामधेजा पन्नत्ता' तेषां खल द्विविधानि द्विप्रकारकाणि नामधेयानि नामानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, 'तं जहा' तद्यथा-'लोइया लोउतरियाय' लौक्षिकानि लोकोतरिकाणि च, तत्र लोकः सर्वज्ञप्रतिपादित प्रव वनवाह्यो म्लेच्छादि जनः तेषु प्रसिद्ध तथा तत्संबन्धीनि नामानि लौकिकानि, तथा लोकोत्तराणि लोकः प्रवचनबाह्यः तेभ्यो लाकेभ्य उनराः सम्यग् ज्ञानादिगुगयुक्तत्वेन प्रधानाः सर्वज्ञमतानुयायिनः श्र किस्तेषु प्रतिद्ध वेन तत्संबन्धीनि नामानि लोकोत्तराणि न.मधेयशब्दस्य नपुंसकतया नपुंसकेन व्यवहारइति । 'तत्थ लोइया णामा इमे' तत्र-तेषु नामद्वयेषु मध्ये लौकिक नि नाम नि इमानि-वक्ष्यमाणानि 'तं जहा' उद्यथा-'सावणे भदवए जाव आसाढे' श्रावगो भाद्रहः यावद् आषाढः, अत्र या पदेन आश्वयुजः कात्तिक मार्गशीर्षपौषमाघफाल्गुन चैत्र वैशाख ज्येष्ठमासानां ग्रहां भवति, ततश्च श्रावणा दारभ्याषाढान्तं द्वादशलौकिन म सानां नामानि भवन्तीति मासानां लौकिकनामानि में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! दवालसभामा एनसा' हे गौतम ! एक एक संवत्सर के १२-१२ महिने होते हैं । 'तेसिणं दुरिहा णामधेज्जा पन्नत्ता' इन महिनों के नाम दो प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं 'लोइया लोउत्तरियाय' लोकिक और लोकोत्तरिक सर्वज्ञ प्रतिपादित प्रवचन से जो बाह्य लौकिक आदिजन हैं उनजनों में जो इनके नाम प्रसिद्ध हैं वे लोकिक नाम है तथा जो लोक से उत्तर है-सम्यग्ज्ञानादि गुण विशिष्ट हैं ऐसे प्रधानव्यक्तियों में-सर्वज्ञमतानुयायी श्रावक जनों में जो इनके नाम प्रसिद्ध हैं वे लोकोत्तरिक नाम है। 'तत्थ' लोहया णामा इमे' इन दोनों नानों में से लौकिक नाम ये हैं 'तं जहा' जैसे 'मावणे भद्दवए जाव आसाढे' श्रावण भाद्रपद यावत् आषाढ, यहां यावस्पद से कुंआर कार्तिक, अगहन, पूष, माह, फल्गुन, चैत्र वैशाख, और ज्येष्ठ, એક- એક સંવત્સરના ચન્દ્રાદિ વર્ષે કેટલા માસના હોય છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छ-'गोयमा ! दुवालसमासा पन्नत्त' हे गौतम ! 8-मे; सवत्सना १२-१२ भास थाय छे. 'तेसिणं दुविहा णामधेज्जा पन्नत्ता' ये महीनासाना नाभा में ५४२॥ ४२पामा माता 2. 'तं जहा' 1 प्रमाणे छे-'लोइया लोउत्तरिया य' सौ४ि मन तरिक्ष સર્વ પ્રતિપાદિત પ્રવચની જે બાહ્યલૌકિક વગેરે જ છે, તે લોકોના જે નામે પ્રસિદ્ધ છે તે લૌકિક નામે છે–તેમજ જે લેકથી ઉત્તર છે–સમ્યજ્ઞાનાદિ ગુણ વિશિષ્ટ છે, એવી પ્રધાન વ્યક્તિઓમાં સર્વજ્ઞમતાનુયાયી શ્રાવકજનમાં જે એમના નામે પ્રસિદ્ધ છે, ते वाहत्तर४ नाम छ. 'तत्थ लोइया णामा इमे' से म-२ नाभीमाथी alls नामा ॥ -तं जहा' रेभ. 'सावणे भद्दवए जाव आसाढे' श्रावण, भाद्र ५६, यावत् भाषाढ मही યાત પદથી અશ્વિન, કાર્તિક માગશીર્ષ, પૌષ, માઘ, સાબુન, ચિત્ર, વૈશાખ અને જયેષ્ઠ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका सप्तमवझस्कारः सू. १८ एकस्मिन् संवत्सरे माससंख्यानिरूपणम् २९३ दर्शयिला लोकोत्तरिफनामानि दर्शयितुमाह--‘लोउत्तरिया' इत्यादि, 'लोउत्तरिया णामा इमे' लोकोत्तरकाणि न मानि इमानि वक्ष्यमाणानि भवन्ति तं जहा' तद्यथा'अभिणंदिर पइटेय' अभिनन्दितः प्रथमः द्वितीयः प्रतिष्ठितनामकः 'विजए पीइबद्धणे' तृतीयो विजयनामकः चतुर्थः प्रीतिवर्द्धनः सेयंसेष सिवे चे' श्रेयांतच शिवश्चैव पञ्चप्र. श्रेयान षष्ठः शिवः 'सिसिरेय सहम' शिशिरश्च सहेभवान, तत्र सप्तमः शिशिरः अष्टमो हिमवान् सूत्रे पदपूरणाय सहशब्देन समासः तेन हिमवता सह शिशिर इत्यर्थों भवति शिशिरो हिमः श्चि ते, 'अवमे वसंतमासे' नवमो वसन्तमासः 'दनमे कुसुमसंभवे' दशमः कुमुमसंभवः 'ए कारसे निदाहेय' एकादशो निदायो ग्रीष्मः, 'वणविरोहेय बारसमे' वनविरोधः वनविशेषः) द्वादशः, एतानि द्वादश नामानि लोकोत्तराणि भवन्तीति । सम्प्रति-प्रतिमासं कियन्तः पक्षा भवन्तीति जिज्ञासायां पक्षं निरूपयितुं पक्षसूत्रमाह'एगमेगस्स णं भंते ! मासस्स' एकस्य खलु भदन्त ! मासस्य 'कइ पक्खा पन्नत्ता' कतिकियत्संख्यकाः पक्षा:-मापावयाविशेषाः प्रज्ञशा-कथिताः, हे भदन्त ! ये एते द्वादशमासाः कथिता स्तेषामे कैकस्प मासा कियत्संख्या पक्षा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह'भोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दोपक्खा पन्नत्ता' द्वौ पक्षौ द्वि संख्यको पक्षौ इन महिनों का ग्रहण हुआ है। 'लोउत्तरिया णामा इमे' लोकोत्तरिक नाम इस प्रकार से हैं-' तं जहा' जैसे-'अभिनदिए पढे यह विजए पीइबद्धणे, सेयंसेय सिवे चेव सिसिरे य सहे भवं' (१) अभिनन्दित (२) प्रतिष्ठित, (३) विजय (४) प्रीतिवर्द्धन, (५) श्रेयांस (६) शिव (७) शिशिर (८) हिमवान् (९) 'णवमे वसंत मासे दसमे कुसुमसंभवे, एक्कारसे निदाहे य वणविरोहे य बारसमे' वसंतमास, (१०) कुसुन संभव, (११) निदाघ, और (१२) वनविरोह-'वर्नाव: शेष' ये १२ नाम,लोकत्तरिक हैं। प्रतिमासमें पक्षों का प्रतिपादन'एगमेगस्सणं भंते ! मासस्स कह पक्खा पन्नात्ता' इस के द्वारा गौतम स्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है हे भदन्त ! एक एक मासके कितने कितने पक्ष होते हैं ? से भासोना नामी येता छ. 'लोउत्तरिया णामा इमे' त्तरित नाम माप्रमाणे छ. 'तं जहा' म 'अभिनंदिए पइद्वेय विजए पीइवद्धणे, सेयंसेय सिवे, चेव सिसिरेय सहेभवं' (१) मलिनत, (२) प्रतिक्षित (3) वि४५ (४) प्रीतिवद्धन, (५) श्रेयान् (६) शिप (७) (शशि२ (८) (वान् (८) 'णवमे मासे दलमे कुसुमसंभवे, एक्कारसे निदाहे य वणविरोहे य बारसमे' सतभास, (१०) सुभ समय, (११) निहाय अने (१२) पनविश (4न विशेष) से १२ नाभी बोत्त२४ छे. પ્રતિમાનામાં પક્ષે નું પ્રતિપાદન 'एगमेगस णं भंते ! मासस्स कइ पक्खा पन्नत्ता' सेना 43 गौतभस्वामी प्रसुने એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભદંત ! એક–એક માસના કેટકેટલા પક્ષે હેય છે? Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रज्ञप्तौ कथिताविति । भेदद्वयमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-बहुल पनखेय सुकपक्खेय' बहुलपक्ष:-कृष्णपक्षश्च शुक्लपक्षश्च, इमावेव सिनासितशब्देन व्यवहि. येते, तत्र कृष्णपक्षो यत्र ध्रुवराहुः सवेमानेन चन्द्रविमानमावृणोति तेन योऽन्धकारबहुल. पक्षः स बहुलपक्षः कृष्णपक्षापपर्यायः, यत्र च स एव राहुः चन्द्रविमानमानावृत्तं करोति तेन चन्द्रिकावलिततया शुक्लपक्षः स शुक्लपक्ष इति । सम्प्रति कृष्णपक्ष शुक्लपक्षयोः दिवससंख्यां ज्ञातुं प्रश्नयनाह-एगमेगस्स ' इत्यादि, 'एगमेगस्स णं भंते ! पक्ख हस' एकैकस्य सलु भदन्त ! पक्षस्य 'कइदिवसा पन्नत्ता' कतिकियत्संख्यकाः दिवसा:-दिनानि प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्ना, भावानाह-'गोयमा' इत्य दि, 'गोयमा' हे गौता ! 'पन्नरस दिवसा पन्नत्ता' पञ्चदश संख्यका दिवसाः प्रज्ञप्ता:कथिताः । यच दिवसशब्दः अहोरात्रे प्रसिद्ध स्तापि प्रकृते सूर्यप्रकाशवतः कालविशेइसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! दो पक्खा पन्नत्ता' हे गौतम एक २ मास के दो पक्ष होते हैं । 'तं जहा' जैले-'बहुल परखेच सुपक्खे य' कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष जिस पक्ष में ध्रुव राहु अपने विमान से चन्द्र के विमान को ढक लेता है इस से जो पक्ष में अन्धकार बहुत होता है वह बहुलपक्ष है इसीका दूसरा नाम कृष्णपक्ष है और जिस पक्ष में ध्रुव राहु चन्द्र विमान को अपने विमान से अनावृत आवरण रहित-कर देता है-इस से जो पक्ष चन्द्रिका से धवलित बन जाता है वह शुक्लपक्ष है कृष्णपक्ष शुक्लपक्ष के दिवस संख्याकथन 'एगमेगस्स णं भंते । पक्खस्स कह दिवसा पन्नत्ता' हे भदन्त ! एक एक पक्षके कितने दिवस होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! पारसदिवसा पन्नत्ता' हे गौतम ! एक एक पक्ष के १५ दिवस होते हैं । यद्यपि दिवस सेना wwi xसु ४९ छ-'गोयमा ! दो पक्खा पन्नत्ता' गौतम ! मे मासना में पाय छे. 'तं जहा' गेम 'बहुलपक्खे य सुक्कपश्खे य' १९९५६ मने शु४६५क्ष ने પક્ષમાં યુવરાહુ પિતાના વિમાનથી ચદ્રના વિમાનને આછાદિત કરી લે છે, એનાથી જે પક્ષ અંધકાર બહુલ હોય છે તે બહુલ પક્ષ છે. એનું જ બીજું નામ કૃષ્ણપક્ષ છે. અને જે પક્ષમાં ધુરાહુ ચન્દ્ર વિમાનને પિતાના વિમાનથી અનાવૃત-આવરણ રહિત કરી નાખે છે એનાથી જે પક્ષ ચન્દ્રિકાથી ધવલિત બને છે તે શુફલપક્ષ છે. કુણપક્ષ શુકલ પક્ષમાં દિવસ સંખ્યા કથન 'एगमेगस्सणं भंते ! पक्खस्स कइदिवसा पन्नत्तो हुमत ! -४ पक्षना क्ष। सोडीय छ ? सेना वासभा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! पन्नरस दिवसा पन्नत्ता' ગૌતમ! એકએક પક્ષના ૧૫ દિવસ હોય છે ઘપિ દિવસ શબ્દ અહોરાત્રમાં પ્રસિદ્ધ છે તથાપિ પ્રકૃતિમાં સૂર્યપ્રકાશવાળ કાળ વિશેષને જ દિવસ શબ્દથી વિવક્ષા થયેલી છે. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कार: स्. १८ एकस्मिन्संवत्सरे माससंख्या निरूपणम् २९५ पस्यैव दिवसशब्देन विविक्षणात् यतो रात्रिविभाग प्रश्नस्य पार्थस्येन विधास्यमानत्वादिति । अत्र पञ्चदश दिवसा इति कथनं कर्ममा सापेक्षया द्रष्टव्यं तत्र पूर्णानां पञ्चदशाहोरात्राणां संभवात् तमेव पञ्चदशभेदं दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'पडिव दिवसे वितीया दिवसे जाव पन्नरसी दिवसे' प्रतिपदिवसो द्वितीया दिवसो यावत् पञ्चदशी दिवसः, तत्र मासस्याद्यतया प्रतिपद्यते इति प्रतिपन् प्रथमो दिवस इत्यर्थः तथा द्वितीय दिवस इति द्वितीया, यावत्पदेन तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी दशम्येक दशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशोना ग्रहणं भवति, अन्ते पञ्चदशी पञ्चदशो दास इति । 'एएसि भंते ! पण्णरसण्डं दिवसानं' एतेषां प्रतिपादादीनां खलु मदत ! पञ्चदत्र दिवसानाम् 'कइ णामधे जा पत्ता' कति-कियत्संख्यकानि नामधेयानि नामानि प्रप्त नि लोकोत्तरशास्त्रे कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'पण्णरस नामशब्द अहोरात्र में प्रसिद्ध है तथापि यहां पर सूर्य प्रकाश वाले कालविशेष की हो दिवस शब्द से विवक्षा हुइ है क्योंकि रात्रि विभाग प्रश्न अलग रूप से किया जाने वाला है यहां एक पक्ष में १५ दिन होते है ऐसा जो कथन किया गया वह कर्ममास की अपेक्षा किया गया है क्योंकि वहीं पर पूर्ण १५ अहोरात्र का होना संभावित है 'तं जहा' वे १५ दिन ये हैं- 'पडिवा दिवसे, वितीया दिवसे, जाव पनरसी दिवसे' प्रदिपादा दिवस, द्वितीया दिवस यावत् पञ्चदशी दिवस, प्रतिपदा यह मासका प्रथम दिवस है द्वितीया यह मास का द्वितीय दिवस है यहां यावाद से 'तृतीया, चतुर्थी पंचमी, षष्ठी सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, और चतुर्दशी' इन दिनों का ग्रहण हुआ हैं अन्त के दिनका नाम पञ्चदशी है यह पक्ष का १५ वां दिन है 'एएसिगं भंते ! पण्णरसहं दिवसाणं कइ णामघेजा पन्नत्ता' हे भदन्त ! इन १५ दिनों के लोकोत्तर शास्त्र में कितने कितने नाम कहे हैं ? उत्तर में प्रभु કેમકે રાત્રિ વિભાગ પ્રશ્ન અલગ રૂપમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવનાર છે. અહી એક પક્ષમાં ૧૫ દિવસ હોય છે એવું જે કથન કરવામાં આવેલુ છે. તે ક માસની અપેક્ષાએ ४२वामां आवे छे. उभडे त्यांना अहोरात्रणी राज्यता छे. 'तं जहा' ते १५ दिवसा याप्रमाणे छे पंडेि दिवसे वितीया दिवसे, जाव पन्नरसी दिवसे' प्रतियहा हिवस, દ્વિતીયા દિવસ યાવત્ પશ્ચદશી દિવસ પ્રતિપદા એ માસના પ્રથમ દિવસ છે. દ્વિતીયા या भामना जीले दिवस छे कहीं यावत् पहथी 'तृतीया, चतुर्थी, पंथभी, षण्डी, सप्तभी, अष्टमी, नवमी, दशमी, सेअहशी, द्वाःशी त्रयोदशी, मने यतुर्दशी या दिवसी थड થયા છે. અંતિમ દિવસનુ નામ પ'ચન્નુશી છે. આ એક પક્ષના ૧૫ મે દિવસ છે. 'एएसि णं भंते! पण्णरसहं दिवसाणं कइ णामवेज्जा पन्नत्ता' हे महंत ! मे १५ दिवसोना सोत्तर शाखां टटला नामी वामां आवे छे ? वाणां प्रभु हे छे- 'गोयमा ! Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपप्राप्तिसूत्रे धेजा पत्ता' पञ्चदशनामधेयानि प्रज्ञप्तानि लोकोत्तरशास्त्रे कथितानि, 'तं जहा' तद्यथा'पुच्वंगे सिद्धमणोरमेय' पूर्वाङ्गः सिद्धमनोरमश्च 'तत्तो मनोहरे चेव' तृतीयो मनोहाचैत्र 'जसभद्देय जसपरे' यशोभद्रश्चैा यशोधरः 'सढे मुख्यकामसमिद्धेय' एष्ठः सर्वकामसमृद्धश्च 'इंदमुद्धाभिसित्तेय' इन्द्र मूर्धाभिषिक्तश्च 'सोमणस धगंजए य बोद्धव्वे' सौमसो धनञ्जयश्च बोधव्यौ ज्ञातव्य इत्यर्थः 'प्रत्थरिद्धे अभिजाए' अर्थसिद्धोऽभिजात : 'अञ्चलणे सांजर चेव' अत्यशनः शतञ्जयश्च 'अग्गिवेसे' उवसमे' अग्निवेश्म उपशमः दिवसाणं होति नामधेन्जा' एतानि दिवसानां नामधेयानि भवन्ति, तत्रपूर्वाङ्गः प्रथमः सिद्धमन रमो द्वितीयो, मनोहरस्तृतीयः यशोभद्र चतुर्यः, यशोधर पञ्चमः, सर्वकामसमृद्धः षष्ठः, इन्द्रमु(भिषिक्तः सप्तमः, सौमनसोऽष्टमः, धनञ्जयो नवमः, अर्थसिद्धो दशमः, अभिजात एकादशः, अत्यशनो कहते हैं-'गोयमा! पन्नरस नामघेज्जा पन्नत्ता' हे गौतम ! इन पन्द्रह दिनों के लोकोत्तर शास्त्र में १५ नाम कहे हैं 'तं जहा' जैसे-'पुच्वंगे, सिद्धमणोरमे य तत्तो मणोहरे चेव, जसभद्दे य जसघरे सटे सव्वकामसमिद्धेय । इंदमुद्धावसित्तेव सोमणस धणंजए य बोधवो अस्थसिद्ध अभिजाए अच्चमणे सयंजए चेव' (१) पूर्वाङ्ग (२) सिद्धमनोरम, (३) मनोहर, (४) यशोभद्र (५) यशोधर सर्वकामसमृद्ध, (७) इन्द्रमूर्धाभिषिक, (८) सौमनस (९) धनञ्जय, (१०) अर्थ सिद्ध (११) अभिजात (१२) अत्यशन (१३) शतञ्जय (१४) 'अग्गिवेसे उव समे' अग्निवेश्म एवं (१५) उपशम 'दिवसाणं होति नाम धेज्जा' इस तरह से ये नाम उन १५ दिनों के होते हैं। पूर्वाङ्ग यह प्रथम दिन का नाम है, मिद्धम नोरम यह दूसरे दिनका नाम है मनोहर यह तृतीय दिन का नाम है यशोभद्र यह चतुर्थ दिनका नाम है यशोधर यह पांचवें दिनका नाम है सर्वकाम समृद्ध पन्नरस नामधेजा पन्नाता' 3 गौतम ! ५४२ सिन! तर शसभा १५ नाम अपामा मासा है. 'तं जहा' रेम'पुव्वंगे, सिद्धमणोरमे य तत्तो मणोहरे चेव, जस भद्देय जसधरे सटे सव्वकामसमिद्धे य इंदमुद्धावसित्तेव सोमणस धणंजए य बोधव्यो अत्थसिद्धे अभिजाए अच्च सणे सयंजर चे' (१) ५ , (२) सिद्धमना२म, (3) भनाई२, (४) यशानद्र, (५) यश५२, (९) सामसमृद्ध, (७) ४न्द्र भूानिषित, (८) सौमनस, (6) धनय, (10) मसिद्ध, (११) अभिनत, (१२) सत्यशन, (13) शतय, (१४) 'अगिावेसे असमे' वेश्म तेभ (१५) ७५०म. 'दिवस णं होती नामधेज्जा' ॥ प्रभा मे नाभी ते १५ दिशेन। छे. पूर्वा ॥ ये प्रथम दिनु नाम છે. સિદમનરમ એ બીજા દિવસનું નામ છે. મને હર ત્રીજા દિવસનું નામ છે. યશભદ્ર આ ચતુ દિવસનું નામ છે. યશોધર આ પાંચમાં દિવસનું નામ છે. સર્વકામ સમૃદ્ધ આ છ દિવસનું નામ છે. ઈન્દ્રમૂર્ધાભિષિક્ત આ સાતમા દિવસનું નામ છે. સીમનમ આ આઠમા દિવસનું નામ છે. ધનંજય એ નવમા દિવસનું નામ છે. અર્થસિદ્ધ એ ૧૧ માં Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १८ एकस्मिन् संवत्सरे माससंख्यानिरूपणम् २९७ द्वादश:, शतपञ्जयस्त्रयोदशः, अग्वेिशम चतुर्दशः, उपशमः पञ्चदशः, पतानि दिवसानों नामधेयानि भवन्तीति भावः । एषां पञ्चदश दिवसानां पश्चदशतिथीदर्शयितमाह-'एएसिणं' इत्यादि, 'एसिणं भंते ! पण्णरमण्हं दिवसाणं' एतेषां खलु भदन्त ! पञ्चदशानां दिवसानाम् 'कइतिही पन्नत्ता' कति-डियत्संरयका स्तिथयः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयम' हे गौतम ! 'पारसतिही पन्नत्ता' पञ्चदश संख्यका स्तिथयः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति, 'तं जहा' तद्यथा-'नंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पंचमी' नन्दा प्रथमा भद्रा द्वितीया जया तृतीया तुच्छा चतुर्थी तथा पूर्णा पञ्चमी सा च पूर्णापञ्चदश तिथ्यात्मकपक्षश्य पूरकत्वात् 'पुणरवि गंदे भद्दे गए तुम्छे पुणे पक्खस्स दसमी' पुनरपि नन्दापष्टी भद्रा सप्तमी, तश जमा अष्टमी तुझा नवनी पूर्णा, दशमी पक्षस्य पञ्चदशतिथ्यात्मकस्य पूरणात् 'पुनरविणंदे भद्दे जाए तुरळे पुण्णे पक्खस्स पण्णरसी' पुनरपि यह छठे दिनका नाम है इन्द्र मूभिषिक्त यह मातये दिन का नाम है सौमनस यह आठवें दिनका नाम है धनक्षम यह नौवे दिनका नाम है अर्थसिद्ध यह १० धे दिन का नाम है अभिजात यह ११ वे दिन का नाम है अत्यशन यह १२ वें दिनका नाम है, शतञ्जय यह १३ वे दिनका नाम है अग्निवेश्म यह १४ वे दिनका नाम है और उपशन यह १५ वें दिनका नाम है। इन १५ दिनों की १५ तिथियों का कथन इसमें गौतमस्वामीने प्रभुओ से ऐसा पूछा है-'एएलिणं भंते ! पण्णरसण्हं दिवसाणं कइ तिही पन्नता भदन्त ! इन १५ दिनों की कितनी निधियां होती है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा! पगार सतिही पन्नत्ता' हे गौतम! १५ तिथियां होती हैं। जहा' जैसे-'देगद्दे, जए, तुन्छे, पुण्णे, पक्खस्स पंचमी' नन्दा प्रथमा, भादा द्वितीया, जरा, तृतीया, तुच्छा चतुर्थी, पूर्णा पंचमी, पुनः नन्दा षष्ठी, भद्रा सप्तमी, जया अष्टमो, तुका मधनी, पूर्णा दशमी, पुनः દિવસનું નામ છે. અાશન, એ ૧૨ મા દિવસનું નામ એ. શતજયએ ૧૩ મા દિવસનું નામ છે અગ્નિવેશમ એ ૧૪ મા દિવસનું નામ છે. અને ઉપશમ એ ૧૫ મા દિવસનું નામ છે. એ ૧૫ દિવસની ૧૫ તિથિઓનું કથન मां श्रीगौतमस्वामी प्रभुन थेवी शो प्रश्न या छ । 'एएसि ण भंते ! पण्णरसण्हं दिवसाण कइतिही पन्नत्ता' म ! १५ पिसी की तिथि ४ामा ५.पी छ ? मेन पासमा प्रभु ई छ.-'गोयमा ! 'पण्णरसतिही पन्नत्ता' गौतम ! १५ ति । डाय हे. 'तं जहा' है 'नंदे, हे, जए, तुच्छे, पुण्णे पाखरस, पंचमी' ही प्रथा , लद्र द्वितीया, या तृतीया, तुम्छ। यतु , ५ ५यमी, पुन: नन्ह। पी, भद्रा ससभी, જ્યા અષ્ટમી, તુચ્છા નવમી, પૂર્ણાશગી, પુનઃ નન્દા એકાશી, ભદ્રા હાઇ શં, જ્યાં यशी, तुम्छ। यतुथी पू पयशी. 'एवं ते तिगुणा तिहिओ सचेसि दिवस.पं.दे' Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्ब्धीपप्रज्ञप्तिस्त्र भन्दा एकादशी, भद्रा द्वादशी, जया त्रयोदशी, तुच्छा चतुर्दशी, पुर्णा पश्चदशी सा च पक्षस्य पूरकत्वात् पूर्णा, 'एवं ते तिशुणा तिहीभो सम्वेति दिवसाणति' एवमुक्तप्रकारेण अ वृत्ति अयरूपेण एता अनन्तरपूर्वोक्ता नन्द द्य स्तिथयः पञ्चत्रिगुणाः पञ्चत्रिगुणाः पञ्चदश संख्या स्तिथयः, सर्वेषां पञ्चदशानामपि दिवसानां भवन्ति ता एताः पञ्चदशतिथयो दिवसतिथयः कथयन्ते । ननु दिवसरात्रितियोः को विशेषो येन तिथिप्रश्नसूत्रस्य पृथग विशनं कृतमिति चेद् अत्रोच्य ने पूर्वपूर्णिमा पर्यवसानं प्रारभ्य द्वाषष्टि भागीकृतस्य चन्द्रमण्डलस्य सर्वदैवानाघरणीयौ द्वौ भागौ तौ वर्जयित्वा शेषस्य षष्टिभागात्मकस्य चतुर्भागात्मकः पञ्चदशो भागो याता काले न घबराहुविमानेन आवृतो भवति अमावास्यायाः पर्यवसाने पुनः स एव भागा प्रकटितो भवति तावान् कालविशेषतिथिरिति । दिवसतिथिवक्तव्यता समाप्य रात्रितिथि: यतम्यतां वक्तुमाह-'एगपेगस्त णं' इत्यादि, ‘एगमेगस्स णं भंते ! पक्खस्स' एकैकस्य खलु भदन्त ! पक्षस्य 'काईभो पन्नत्ताओ' कति-कियत्संरुपकाः रात्रयः अदन्तरपूर्वोक्तदिवसा नन्दा एकादशी, भद्रा बादशी, जया त्रयोदशी तुच्छा चतुर्दशी और पूर्णा पञ्चदशी ‘एवं ते तिगुगा तिहीनो सम्वेति दिवसाणनि' इस प्रकार से वे पांच नन्दादिक तिथियाँ त्रिगुणित होती हुई सब १५ दिनों की हो जाती है इन तिथियों को दिवमतिथियों के नाम से भी कहा गया है शंका-दिवस और रात्रि की तिथियों में क्या अन्तर है कि जिस से तिथि प्रश्न सूत्रका अलग से विधान करना पडा है ? उत्तर-पूर्व की पूर्णिमा के अन्त से लेकर ६२ भाग कृत चन्द्र मंडल के दो भाग सर्वदा ही अनावरणीय रहते हैं उन दो भागों को छोड कर शेष ६० भागास्मक चन्द्रमंडल का चतुर्थ भागात्मक १५ वां भाग जितने काल में ध्रुवराहु के विमान द्वारा आवृत्त होता है और अमावास्या के अन्त में वही भाग पुनः प्रकटित होता है इतने कालविशेष का नाम तिथि हैं दिवस तिथि की वक्तव्यताको समाप्त करके अब सूत्रकार रात्रि આ પ્રમાણે એ પાંચ નંદાદિક તિષિઓ વિગુણિત થઇને ૧૫ દિવસની થઈ જાય છે. એ તિથિઓને દિવસ તિવિઓના નામથી પણ કહેવામાં આવેલ છે. શંકા-દિવસ અને રાત્રિની વિવિઓમાં શું અંતર છે કે જેથી તિથિ પ્રશ્નના સૂત્રનું સ્વતંત્ર રૂપમાં વિધાન કરવું પડયું છે? ઉત્તર-પૂર્વની પૂર્ણિમાના અંતથી માંડીને ૬૨ ભાગ કૃત ચંદ્રમંડળના ભાગો સર્વદા અનાવરણીય રહે છે. તે બે ભાગને છોડીને શેષ ૬૦ ભાગાત્મક ચંદ્રમંડળને ચતુર્થ ભાગાત્મા ૧૫ મો ભાગ જેટલા કાળમાં ધ્રુ રાહને વિમાન વડે આવૃત્ત થાય છે. અને અમાવસ્યાના અંતમાં તેજ ભાગ કરી પ્રકટિત થાય છે. આટલા કાલ વિશેષનું નામ તિથી છે. દિવસ તિથિની વક્તવ્યતાને સમાપ્ત કરીને હવે સૂત્રકાર રાત્રિ તિથિની વક્તयतानु ४थन ४रे छे. 'एगमेगस्स णं भंते ! पक्खस्स कइ राईओ पण्णत्ताओ' मत! ३ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १८ एकस्मिन्संवत्सरे माससंख्यानिरूपणम् २९९ नामन्तिम भागरूपाः प्रज्ञता:-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-भोरमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ‘पण्गरमराई भो पन्नगाओ' पश्चदश-पञ्चदश संख्यकाः रात्रयो रजन्यः प्रज्ञप्ला:कथिता इति 'तं जहा' तद्यथा-'पडिवाराई जाय पण्णरसीराई' पतिपद्रात्रिर्यावत् पञ्चदशीरात्रिः अत्र यावत्पदेन द्वितीया सविस्तृतीया रात्रि श्चतुर्थी रात्रिः पञ्चमी रात्रिः षष्ठी रात्रिः सप्तमी रात्रि रष्टमी रात्रि नवमी रात्रि देशमी रात्रि रे कादशो रात्रि दिशी रात्रि स्त्रयोदशी रात्रि श्चतुर्दशीरात्रिश्च तासां ग्रहणं भवति, तथा च प्रतिपद्रात्रित आरभ्य पञ्चदशी रात्रि पर्यन्त पञ्चदशरात्रयो भवन्तीति । 'एयासिणं भंते ! पंवदसण्ड राईणं' एतासां पूर्वोक्तानां खलु भदन्त ! पञ्चदशरात्रीणाम् 'कइणामधे जा पनत्ता' कति-कियत्संख्यकानि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पण्ण रसनामधेजा पन्नत्ता' पश्चदशनामधेयानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति, तमेव पञ्चदशभेदं दर्श. यति - 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'उतमाय सुणखत्ता' उत्तमा च मुनक्षत्रा तत्रो. तिथि की वक्तव्यता का कथन करते हैं-'एकगमेगस्स णं भंते ! पक्खस्स कई राईओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! एक एक पक्षमें कितनी रात्रियां होती कही गई हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पण्गरसराहओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ! एक एक पक्ष में १५ रात्रियां होती कही गई है 'तं जहा' जैसे 'पडि. घाराई, जाव पण्णरसीराई, प्रतिपदारात्रि वित् पञ्चदशी रात्रि यहां यावत्पद से द्वितीयारात्रि तृतीयारात्रि चतुर्थीरात्रि, पंचमोरात्रि, षष्ठीरात्रि सप्तमीरात्रि अष्टमीरात्रि नवमीरात्रि, दशमीरात्रि एकादशीरात्रि, द्वादशीरात्रि, त्रयोदशीरात्रि, और चतुर्दशीरात्रि, इन शेषरात्रियों का ग्रहण हुआ है। इस प्रकार प्रतिपदा की रात्रि से लेकर पश्चदशी रात्रि तक १५ रात्रियां होती है 'एयासि णं भंते ! पंचदसण्हं राई णं कह णामधेना पण्णत्ता' हे भदन्त ! इन १५ रात्रियों के कितने नाम कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! पण्णरसणामधेज्जा पण्णत्ता' हे गौतम! १५ नाम कहे हैं-'सं जहा' जैसे-'उस. माय सुणवत्ताय' उसमा सुनक्षत्रा-इनमें प्रतिपदा की रात्रि का नाम उत्तमा है ये ५२मा सी विमा वाम माबी छ । मेन पाममा प्रमुडे ठे-'गोयमा ! पण्णरस राईओ पण्णताओगौतम-23 पक्षमा १५-१५त्रिपामा मावशी. 'तं जहा' र 'पडिया राई जाव पगरतीराई' प्रति५६:२॥त्रि यावत् ५५ शात्रि मही यावत् ५४थी द्वितीयात्रि, तृतीयात्रि,यतुथी त्रि, ५.यभी।त्रि, पत्रि, सभीति, अभीરાત્રિ, નવમીરાત્રી દશમીરાત્રી એકાદશીર ત્રી, દ્વાદશીરવિ, ત્રયે શરાત્રિ અને ચતુર્દશ રાત્રિ આટલી શેષ રાત્રિનું ગ્રહણ થયું છે. આ પ્રમાણે પ્રતિપદાની રાત્રિથી માંડીને પંચદશીરાત્રિ सुधी १५ ॥त्रियो थय छे. 'एयासि णं भंते ! पंचदसण्हं राईणं कइ णामधेज्जा पण्णता' ભવંત! એ ૧૫ રાત્રિના કેટલા નામ કહેવામાં આવેલા છે? જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! पण्णरसणामवेज्जा पण्णत्ता' गोतम ! १५ नाभा वामां मावा छे. 'तं जहा' Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमा तमा प्रतिपदात्रिः सुमात्रा द्वितीयाराः 'एलायच्चा जमोहरा' एलापत्या यशोधरा, एलापत्या तृतीयारात्रि यशोधरा चतुर्षीरात्रिः 'सोमणमा चेव सहा' सौमनसा चैव तथा, तथा सौमनसा पञ्चमीरात्रिः 'सिरिसंभूयाय बोद्धव्या' श्रीसंघूना व षष्ठीरात्रिः बोद्धव्या, : 'विजयाय वेजयंति' विजया च सप्तमीरात्रिः, वैजयन्ती अष्टमी गतिः 'जयंति अपराजिया य इच्छाय' जयन्ती अपराजिता वेच्छा च, तत्र जयन्ती नवमोशतिः, अपराजिता दशमीरात्रि: इच्छा एकादशीरात्रिः 'समाहारा चेत्र तहा' समाहारा च तथा समाहारा द्वादशीरात्रिः 'तेयाय तहा अइतेया' तेजा योदशीरात्रिः, अति तेजा श्चतुर्दशीरात्रि : 'देवाणंदा णिरई' देवानन्दा पञ्चदशी रात्रिः सैव निरती शब्देनापि कथ्यते 'रयणीणं णाधिज्जाई' रजनीना रात्री णामेतानि उपयुक्तानि नामधेयानि पञ्चदश अवन्ति । यथा अहोरात्राणां दिनरात्रि विभागेन नामान्तराणि कथितालि तथादिन लिथीनामपि संज्ञान्तराणि पूर्व कथितानीति । सम्प्रति और द्वितीया की रात्रि का नाम सुनक्षत्रा है 'एलाबच्चा, जसोहरा' एलापत्यतृतीया की रात्रि, यशोधरा-चतुर्थी की शनि, 'सोमणसा चेव तहा' सौमनसा पंचमी की रात्रि, 'सिरिसंभूया योद्धया' श्री संभूता--षष्ठी की रात्रि, 'विजया य वेजयंति' विजधा-मसभी को रात्रि, वैजयन्ती अष्टमी की रात्रि 'जयंति अपराजिया य इच्छा य' जयन्ती-नवमी की रात्रि, अपराजिता दशमी की रात्रि इच्छा एकादशी की रात्रि, 'समाहारा चेव तहा' समाहारा-बादशी की रात्रि, 'ते या य तहा अइतेया य' तेजा-त्रयोदशी को रात्रि, अतितेजा-चतुर्दशी की रात्रि 'देवाणंदा णिरई' और देवानन्दा-पञ्चदशी की रात्रि का नाम है देवानन्द का दूसरा नाम निरती भी है। रयणीणं णामधिज्जाई' इस प्रकार से ये १५ नाम पन्द्रह तिथियों को रात्रियों के हैं। जिस प्रकार अहोरातों के दिन रात के विभाग को लेकर नामान्तर कहे गये हैं उसी प्रकार से दिन की तिथियों के भी नामा रेभो 'उत्तमाय सुणखता थ' उत्तम', सुन, ५ मा प्रति५हानी त्रिनु नाम उत्तमा छ भने द्वितीया त्रिनु ना सुनाना छ. 'एलावच्चा, जसोहरा' सेवा५त्या तृती यानीरात्रि, सोधिर। तुभानीरात्रि, 'सोमणा चव तहा' सौमनसा पयमीनीति, 'सिरिसंभूयाय बोद्धव्या' श्री समू--४ीनी२:त्रि, 'विजया य जयंति' वि सन्तभीनीत्रि, वैश्य-11 माटभीनी रात्रि ‘मयंति अपराजिया य इच्छा य' यती नवभीनी रात्रि, अ५२ता न २१, ४२७ ४: शीना त्रि, 'समाहारा चेव तहा' समाः ।-दाशीनारात्री, 'तेया य तहा अइतेया य' ते यशानी रात्रि, मतिते यतुशानी रात्रि, 'देवाणंदाજિ અને દેવાનંદ-પંચદશીની રાત્રિનું નામ છે. દેવાનંદાનું બીજું નામ નિરતી પણ छ. 'रयणीणं णामधिज्जाई' . प्रो १५ नमी १५ तिथिमानी त्रिसाना छे. જેમ અહોરાતના દિન-રાતના વિભાગેને લઈને નામાન્તરે કહેવામાં આવેલા છે, તે પ્રમાણે જ દિવસની તિથિઓના પણ નામાન્તરે પહેલાં પ્રગટ કરવામાં આવેલા છે. હવે રાત્રિ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- सप्तमवक्षस्कारः ६. १८ एकस्मिन्संवत्सरे माससंख्यानिरूपणम् ३०१ रात्रितिथि संज्ञान्तराणि प्रश्नपनाह'दयासिणं भंते ! पण्णर साहं राईणं' एतासा मुपयुक्तानामुत्तमादि पञ्चदशानां गत्री गाम् 'कइतिही पन्नता कति-कियत्संख्यका स्थितयः प्रज्ञप्ता:कथिता इति प्रश्नः, भगनाइ-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पन्नासतिही पन्नता' पश्चदम तिथयः प्रज्ञता--कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'उग्गवई भोगवई जावई सव. सिद्धा सुहणामा' उग्रवती प्रथमा नन्दातिथिरत्रिः भोगवतीद्वितीपा भद्रातिथिरात्रिः, तृतीया यशोमती जयातिथिरा त्रा, चतुर्थी सर्वसिद्धा तु छातिथिरात्रिः, पञ्चमी शुभनामा पूर्णातिथिरात्रिः 'पुणरवि उग्गवई भोगाई जसबई सव्वसिद्धा मुहणामा' पुनरपि उप्रवती भोगवती यशोमती ससिद्धा शुभनामा, तब उग्र ती पष्ठोगन्दातिथिरात्रिः, भोगवती भद्रातिथि: सप्तमीरात्रिः, यशोमती जयातिधि रष्टमीरात्रिः, सर्वसिद्धा तुच्छातिथि नवमीरात्रिः, शुभतर पूर्व में प्रकट कर दिये गये हैं। अब रात्रि तिथियों के नानान्तर प्रकट किये जाते हैं इसमें श्रीगौतमस्वामी ने प्रभुश्री से यही प्रश्न किया है 'एयामिण भते! पण्णरस, राइणं कइ तिही पणत्ता' हे सदन्त ! इन उत्तमादि १५ पंद्रह रात्रियों की कितनी तिथियां कही गई हैं ? इस के उतर मे प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पणरसतिही पन्नत्ता' हे गौतम! इन उत्तमादि १५ रात्रियों की तिथियां १५ कही गई हैं । 'तं जहा' जैसे-'उग्गवई, भोगवई, जमवई, सध्यसिद्धा, सुहणामा' उग्रवनी यह प्रथमा नन्दातिथि की रात्रि का नाम है, भोगवनी यह द्वितीया भद्रा तिथि की रात्रि का नाम है यशोमती यह तृतीया जयातिधि की रात्रि का नाम है सर्वसिद्धा यह चतुर्थी तुन्छा तिथि की रात्रि का नाम है शुभनामा यह पंचमी पूर्णातिथि की रात्रि का नाम है 'पुगरवि उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहणामा' उप्रवती यह षष्ठो नन्दातिथि की रात्रि का नाम है भोगवनी यह सातवी भद्रातिथि की रात्रि का नाम है તિથિઓના નામાન્તરો પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવી રીતે प्रश्न ये छ, 'एयासिणं भंते ! पगरसहं राईगं कइतिही पण्णत्ता' महत ! त्तभाव ૧૫ રાત્રિઓની કેટલી વિધિઓ કહેવામાં આવેલી છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! पण्णरसतिही पन्नता' गौत५ ! उत्तमा १५ रात्रिमानी तिथिमा १५ पामा मासी छ. 'तं जहा' गभई 'उगवई, भोगवई, जसबई, सबसिद्धा सुहणामा' ઉગ્રવતી આ પ્રથમ નંદા તિથિની રાત્રિનું નામ છે. ભગવતી આ દ્વિતીયા ભદ્રા તિથિની રાત્રિનું નામ છે. યશોમતી આ તૃતીયા યાતિથિની રાત્રિનું નામ છે. સર્વસિંદ્ધા આ ચતુથી તુચછા તિથિની રાત્રિનું નામ છે. શુભનામાં આ પાંચમી પૂર્ણતિથિની રાત્રિનું नाम छे. 'पुणरवि उग्गवई भोगवई जसबई सवसिद्धा सुहणामा' ती मा ५०४ी नन्हा તિથિની રાત્રિનું નામ છે. ભગવતી આ સાતમી ભદ્રાતિથિની રાત્રિનું નામ છે. યશોમતી Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्वृद्धीपप्राप्तिसूत्र नामा पूर्णातिथिदेशमीरात्रिः 'पुरणरवि उगवई भोगवई जसवई सबसिद्धा सुहणामा' पुनरपि उग्रवती भोगवती यशोमती सर्वसिद्धा शुभनामा, तत्र पुनरपि उग्रवती नन्द तिथिः एकादशी. तिथिरात्रिः भोगवती भद्रातिथि द्वादशीरात्रि, यशोमती जयातिथि स्त्रयोदशीरात्रिः, सर्व सिद्धा तुच्छातिथि चतुर्दशीरात्रिः, शुभनामा पूर्णातिथिः पञ्चदशीरात्रिरिति । ___ यथा नन्दादि पञ्चतिथिनां त्रिरावृत्त्या पश्चदश दिवस तिथयो भवन्ति तथैव उग्रवती प्रभृतीनां त्रिरावृत्या पञ्चदशरातितिथयो भवन्तीति तदर्शयितुमाह-एवं' इत्यादि, ‘एवं तिगुणा तिहीओ सम्मेसि र ईणं' एवमुपयुक्तक्रमेण त्रिगुणिता एता उग्रवती प्रभृतयः सर्वासां पञ्चदशानामपि रात्रीणां भरन्तीति ।। ___सम्प्रति एकस्याहोरात्रस्य मुहूर्तान् गणयितुमाह-'एग मेगस्सणं' इत्यादि, एगमेगस्स णं भो ! अहोरत्तस्स' ए कस्य खलु भन्न ! अहोरात्रस्य 'कइमुहुत्ता पन्नत्ता' कतियशोमती ८ आठवीं जयातिथि की रात्रि का नाम है सर्वसिद्धा यद ९ वीं तुच्छातिथि की रात्रि का नाम है शुभनामा यह १० वी पूर्णातिथि की रात्रि का नाम है। 'पुणरवि उग्गवई भोगवई जसबई, सञ्चसिद्धा, सुहणामा' उग्रवती यह ११ वी नन्दा तिथि की रात्रि का नाम है भोगवती यह १२ वी भद्रातिथि की रात्रि का नाम है यशोमती यह १३ वीं तुच्छा तिथि की रात्रि का नाम है सर्व मिद्धा यह १४ वीं तुच्छा तिथि की रात्रि का नाम शुभनामा यह १५ वीं पूर्णातिथि की रात्रि का नाम है। 'एवं तिगुणा लिहीओ सम्वेसिं राईण' जिस प्रकार नन्दा आदि पांच तिथियों के त्रिगुणित किये जाने पर १५ दिवस तिथियां होती कही गई है, उसी प्रकार उग्रवती आदि पांच रात्रियों को त्रिगुणित करने पर १५ रात्रि तिथियां हो जाती है। एक अहोरात के मुहतों की गणना'एगमेगस्सणं भंते ! अहोरत्तस्स कइ मुहता पण्णत्ता' गौतमस्वामी ने प्रभु से આ ૮ મી જાતિથિની રાત્રિનું નામ છે. સર્વસિદ્ધ આ ૯ મી તુચ્છા તિથિની રાત્રીનું नाम छ. शुमनामा ॥ १० मी तिथिनी रात्रिनु नाम . 'पुणरवि उग्गवई भोगवई, जसवई, सध्यसिद्धा, सुहणामा' यवती 1१ भी नहातिथिनी रात्रिनु नाम छे. ભગવતી આ ૧૨ મી ભદ્રાતિથિની રાત્રિનું નામ છે. યશોમતી આ ૧૩ મી તુચ્છાતિથિની રાત્રિનું નામ છે. સર્વસિદ્ધિા આ ૧૪ મી તુર છાદિની રાત્રિનું નામ છે. શુભનામાં આ १५ भी पूतिनी रात्रिनु नाम छे. 'एवं तिगुणा तिहीको सव्वेसिं राईगं' २ प्रमाणे નંદા વગેરે પાંચ તિથિઓને ત્રિગુણિત કરવાથી ૧૫ દિવસની તિથિએ થઈ છે, તે પ્રમાણે ઉગ્રવર્તી વગેરે પાંચ રાત્રિને ત્રિગુણિત કરવ થી ૧૫ રાત્રિતિથિએ થઈ જાય છે. એક અહેરાતના મુહૂર્તોની ગણના 'एगमेगस्स णं भंते ! अहोरत्तस्स कर मुडुत्ता पणत्ता' गौतमस्वामी में प्रभुने मेवी Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १८ एकस्मिन्संवत्सरे माससंख्यानिरूपणम् ॥ कियत्संख्यका मुहूर्ताः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! तीसं मुहुत्ता पन्नत्ता' निशन्मुहताः प्रज्ञता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा तृतीय गाथाया अर्थमाह-रद्दे से ए' स्द्रः श्रेयान प्रथमो रुद्रो द्वितीयः श्रेयान् मित्ते वाउ' मित्रस्तृतीयो वायुश्चतुर्थः 'सवीए त हेव अभिचंदे' सुप्रीतः पञ्चम स्तथैवाभिचन्द्रः सच षष्ठः 'माहिदे बलवं बंभे' माहेन्द्रः सप्तमः बवान् अष्टमः नवमो ब्रह्मा 'बहु सच्चे पेव ईसाणे' बहुसत्यो दशमः ईशान एकादशः 'तट्टेय भावियप्पा' त्वष्टा द्वादशः भावितात्मा त्रयोदशः, 'वेसमगे वारुणे य आगंदे' वैश्रमण चतुर्दशः वरुणः पश्चदशः आनन्दः षोडशः 'विजएय वोससेणे' विजयः सप्तदशः विश्व सेनोऽष्टादशः पायावच्चे उपसमगे' प्राजात्य एकोनविंशतितमः, उपशमो विंशतितमः 'गंधवे अग्निवेसे' गन्धर्व एकविंशतितमः, अग्निवेश्मः द्वाविंशतितमः 'सयवसहे' शतवृष प्रस्त्रयोविंशतितमः 'आर वेय अममेय' आतपवान् चतुर्विशतितमः, अमऐसा पूछा है-हे भइन्न ! एक अहोरात्र के कितने मुहूर्त होते हैं ? उनर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! तीसं मुहुत्ता पन्नत्ता' हे गौतम ! एक अहोरात के ३० मुहूर्त्त होते है 'रुदे, सेये, मित्ते, वाउ, सुबीए तहेव अभिचंदे, माहिंदे बलवं बंभे, बहुसच्चे चेव ईसाणे (१) रुद्रमुहर्त (२) श्रेयान मुहूर्त, (३) मित्रमुहूर्त, (४) वायुमुहूर्त (५) सुप्रीतमुहूर्त, (६) अभिचन्द्र मुहूर्त, (७) माहेन्द्र गुहूर्त, (८) बलवान् मुहूर्त (९) ब्रह्मामुहूर्त, (१०) बहुसत्य मुहूर्त, (११) ईशान मुहूर्त, 'तद्वेष भावियप्पा वेसमणे वारुणेय आणंदे' (१२) त्वष्टा मुहूर्त, (१३) भावितात्मा मुहूर्त (१४) वैश्रमण (१५) वारुण, (१६) :आनन्द 'विजएंय वस सेणे पायावच्चे उपसमे य, गंधब्वे अग्गिवेसे सयवस हे आयवेय अपने य' (१७) विजयमुहूर्त, (१८) विश्वसेनमुहूर्त (१९) प्राजापत्यमुहूर्त (२०) उपशममुहूर्त (२१) गन्धर्वमुह (२२) अग्निवेश्ममुहूर्त (२३) शतवृशभ मुहूर्त, (२४) आलपवान् (२५) अमम 'अणवं भोमे રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભદંત ! એક અહોરાતના કેટલા મુહૂર્તી થાય છે? એના જવાબમાં प्रभु डे-'गोयमा तीसं मुहुत्ता पन्नत्ता' गौतम ! २४ मई २रातन 3० मुड़ता थाय छे-'रुदे, सेये, मित्ते, वाउ, सुबीए तहेव अभिचंदे, माहिंदे, बलवं बंभे, बहु सच्चे चेव ईसाणे' (१) ३२भुत, २) अयान मुहूर्त, (3) भित्रभुत, (४) वायुमुहूत, (५) सुप्रीतमुहूत, (९) अभियन्त , (७) मान्द्रभुत, (८) मा भुत, (6) ब्रह्माभुत', (१०) महुसपमुत, (११) शानभुत', 'तट्टेय भावियप्पा वेसमणे वारुणेय आणंदे' (१२) वटामुत, (१३) मापिताम मुडूत, (1४) वैश्भभुत, (१५) १२१. भुतिः, (11) मानभुत, विजएय बीससेणे पायाच्चे उवसमेय, गंधव्वे अग्गिवेसे सय्वसहे आयवेय अममेय' (१७) विल्यमुहूर्त, (१८) विश्वसेनमुहूत्त, (१८) प्रापत्यभुत, (२०) ७५शममुहूत्त, (२१) अन्य मुहूर्त, (२२) निवेभमुहूत, (२३) शतपृशमभुत', (२४) मातवान् (२५) ममम 'अणवं भोमे वसहे, सव्वद्वे रक्खसे घेव' Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ - जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे मश्च पञ्चविंशतितमः 'अणवं भोमे वस हे' ऋणव न पडूविंशतितमः भौमः सप्तविंशतितमः वृपभोऽष्टाविंशतितमः 'सटे रक्खसे चेव' सार्थ एकोनविंशत्तमः, राक्षस स्त्रिंशत्तमः, । सू. १८ । मूलम् -काइ णं संते! करणा पन्नता? गोयमा! एकारस करणापण्णत्ता, तं जहा बवं बालवं कोलवं थोबिलोयणं गराइ वणिज विट्ठी सउणी चउप्पयं नागं कित्थुग्धं । एएलि णं भंते ! एक्कारसह करणाणं कइकरणा चरा कइकरणा थिरा पन्नत्ता ? गोयमा ! सत्त करणा चरा चत्तारिकरणा थिरा पन्नत्ता तं जहा- वालवं कोल थिरिलोयणं गराइवणिज विट्ठी, एतेगं सत्त करणा चरा चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता, तं जहा-सउणी चउप्पयं जागं किंथुग्धं एएणं चत्तारि करणा थिरा पन्नत्ता। एएणं भंते ! चरा थिरा वाकया भवति ? गोयमा ! सुक्क रक्ख. स्स पडिवाए राओ बवे करणे भवइ, बिलियाए दिवा बालवे करणे अवह राओ कोलवे करणे भरइ, तइयाए दिया थीविलोरणं करणं भवइ, राओ गराइ करणं मवइ चउत्थीए दिवा बणियं राओ चिली पंचमीए दिवा व राओ बालवं, ट्रीए दिवा कोलनं राओ थीविलोयणं, सत्तमीए दिवागराइ रायो चगिलं, अटुलीए दिवा विटी रायो बवं, नवमीए दिवा बालवं रायो कोल, दमानीए दिवा चौबिलोष रायो गराइं, एकारसीए दिवा वणिज रायो विट्ठी, बारसोए दिवा बवं रायो बलवं. ते सीए दिवा कोलवं रायो थीविलोयणं, चउसीए दिवा गराई करणं गयो वणिज, पुषिणमाए दिका विट्रेकरम रायो वयं करणं अन् । बहुल पक्षास पडिवःए दिवा बाल रायो कोल बितीयाए दिया थीक्लिो. यणं, गयो गराइं, ततीयाए दिवा वणिज्ज रायो विटी, चउत्थी दिवा बवं राओ बाल, पंचमीए दिवा कोलवं रायो थीक्लिोयणं छठ्ठीए दिवा गराई रायो बगिज्ज, सत्तभीए दिवा विट्रो रायो वई, उटबीए दिवा वालवं, रायो कोल नवनीए दिवा थीविलोग रायो गराइ, दसमीए वसहे सबढे रक्खसे चेव' (२६) ऋगवान्. (२७) भौम (२८) वृषभ (२२) सर्वार्थ एवं (३०) राक्षस ॥१८॥ . (२६) युवान्, (२७) सोम (२८) वृषस, (२८) साथ, तेम (३०) २६स ॥सू० १८॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवसस्कारः स्. १९ करणानां संख्यादिनिरूपणम् ३०५ दिवा वणिज्जं रायो विट्ठी, एकारसीए दिवा वयं रायो बालवं, वारसीए दिवा कोलवं रायो थीविलोयणं, तेरसीए दिवा गराई रायो वणिज्ञ्ज, उसी दिवा विट्टी रायो सउणी, अमावासाए दिवा चउष्वयं रायो णागं, सुकपक्खस्स पडिव दिवा कित्थुग्धं करणं भवइति ॥ सु० १९॥ छाया -कति खलु भदन्त । करणानि प्रज्ञप्तानि ! गौतम ! एकादश करणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - बवं बालवं कौलवं स्त्रीविलोचनं गरादिवणिजं विष्टिः शकुनिः चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नम् । एतेषां खलु भदन्त ! एकादशानां करणानां कति करणानि चराणि, कति करणानि स्थिराणि ? गौतम ! सप्तकरणानि चराणि चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - बबाल कोलवं स्त्रीविलोचनं गरादिवणिजं विष्टिः, एतानि खलु सप्तकरणानि चराणि । चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि । एतानि खलु भदन्त ! चराणि स्थिराणि वाकदा भवन्ति, गौतम ! शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि रात्रौ बवं करणं भवति, द्वितीयस्यां बालव करणं भवति, रात्रौ कोलचं करणं भवति, तृतीयायां दिवास्त्रीविलोचनं करणं भवति, रात्रौ गरादिकरणं भवति, चतुर्थ्यां दिवा वगिनं रात्रौ विष्टिः, पञ्चम्यां दिवा बवं रात्रौ बालवम्, षष्टयां दिवा कोलवं रात्रौ स्त्रीविलोचनम्, सप्तम्यां दिवा गरादिः रात्रौ वणिजम्, अष्टम्यां दिवा बालवं रात्रौ बवम् नवम्यां दिवा बालवं रात्रौ कौलवम्, दशम्यां दिवा स्त्रीविलोचनं रात्रौ गरादिः, एकदश्यां दिवा वणिजं रात्रौ विष्टिः, द्वादश्यां दिवा बवं रात्रौ बालवम्, त्रयोदश्यां दिवा कोळ रात्रौ स्त्रीविलोचनम्, चतुर्दश्यां दिवा गरादि करणं रात्रौ वणिजम् पूर्णिमायां दिवाविष्टिकरणम् रात्रौ बवं करणम् भवति । बहुलपक्षस्य प्रतिपादि दिवा बालवं रात्रौ htraम्, द्वितीयायां दिवा स्त्रीविलोचनं रात्रौ गरादि तृतीयायां दिवा वणिजं रात्रौ विष्टिः, चतुर्थ्यां दिवा व रात्रौ बालवम्, पञ्चम्यां दिवा कोलवं रात्रौ खोविलोचनम्, पष्ट्यां दिवा गरादि रात्रौ वणिजम् सप्तम्यां दिवा विष्टिः रात्रौ बवम्, अष्टम्यां दिवा बालवं रात्रौ कोळ. वम् नवम्यां दिवा स्त्रीविलोचनं रात्रौ गरादि, दशम्यां दिवा वणिजं रात्रौ विष्टिः, एकादश्यां दिवा व रात्रौ बालवम्, द्वादश्यां दिवा कोलवं रात्रौ स्त्रीविलोचनम्, त्रयोदश्यां दिवा गरादि रात्रौ वणिजम्, चतुर्दश्यां दिवा विष्टिः रात्रौ शकुनिः, अमावास्यायां दिवा चतुष्पदं रात्रौ नागम्, शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि दिवा किंस्तुघ्नं करणं भवति इति ।। सू० १९ ॥ ज्योतिः टीका- 'कणं मं' कति-कियत्संख्यकानि खलु भवन्त ! ' करणा पन्नत्ता' करणानि : शास्त्रस्य परिभाषा विशेषरूपाणि प्रज्ञप्तानि कथितानीति करणसंख्या विषयकः प्रश्नः, 'कइणं भंते! करणा पण्णत्ता' इत्यादि टोकार्थ - गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'कइणं भंते! करणा पण्णत्ता' हे भदन्त ! ज्योतिशास्त्र की परिभाषा विशेषरूप करण कितने कहे गये हैं ? ज० ३९ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिस्त्रे भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्कारसकरणा पन्नत्ता' एकादशएकादशसंह्या विशिष्टानि क रणाणि प्रज्ञप्तानि कथितानीति भगवत उत्तरम् । एकादश भेदानेव दर्शयितुमाह-'तं जहा इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'बवं बालवं' बवं बालवम् तत्र बवनामकं प्रथमं करणं द्वितीयतु बालबम् 'कोलवं थीविलोयण' कोलवं स्त्रीविलोचनम्, कोलवनामकं तृतीयं करणं चतुर्थं स्त्रीविलोचनम्, अस्य चतुर्थ करणस्यान्यत्र तैतिल मित्यपि नामकथ्यते, 'गराइवणिज' गरादि वणि नम्, पञ्चमं गरादि करम् अस्यैव स्थानान्तरे गर इति नाम्नापि व्यवहारो दृश्यते, वणिज षष्ठं करणम् 'विट्ठी सउणी' विष्टिः शकुनिः, सप्तमं करणं विष्टि रष्टमंतु शकुनिः 'चउप्पयं नागं तित्थुग्धं' चतुष्पदं नागं किंस्तुरघ्नम्, नवमंतु करणं चतुष्पदनाम दशमं नागनामकं करणम् एकादशं किंस्तुग्घ्ननामकं करणं भवतीति सदेतानि एकादश करणानि नामतः कथितानि इति। एतेषामुपर्युक्तकरणानां मध्ये कानि करणानि चराणि कानि च स्थिराणि, इति चरस्थिरखादि व्यक्ति प्रश्नस्तुिपाह-'एएसिणं' इत्यादि, 'एएसिणं भंते ! एक्कारसण्हं करणाणं' एतेषामुपयुक्तानां हे भदन्त ! एकादशानाम् एकादश संख्यकानां करणानां बवादीनां मध्ये 'कइकरणा चरा कइ करणा थिरा' कति किय. इसकेउत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! एक्कारसकरणा पण्णत्ता' हे गौतम ! करण ११ ग्यारह कहे गये हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'बवं बालवं ' (१) बव करण (२) बालवतरण (३) 'कोलवं थीविलोयगं' कौलवकरण, (४) स्त्री विलोचन करण-तैतिल करण 'गराइवणिज' (५) गरादि करण 'गरकरण-(६) वणिज करण 'विट्टी सउणी' (७) विष्टिकरण (८) शकुनिकरण (९) 'चउप्पयं नागं कित्थुग्छ' चतुष्पद करण (१०) नाग करण एवं (११) किंस्तुरघ्न करण इस प्रकार से इन करणों के नाम हैं । 'एए सिणं भंते! एगारसण्हं करणाणं मज्झे कह करणा चरा कई करणा थिरा' हे भदन्त ! इन पूर्वोक्त ११ करणों में कितने करण 'कइणं भंते ! करणा पण्णत्ता' इत्यादि Atथ-गौतभाभीय प्रभुने मेवी शत प्रश्न ४ छ -'कइणं भंते ! करणा पण्णत्ता' महत ! न्योतिनी परिभाषा विशेष ३५४२२। साउवामां आवमा सेना नाममा प्रमु ४ छ-'गोयमा ! एक्कारस करणा पण्णत्ता' ७ गोतम ! ४२५४ ११ अगियार ४डयामां आवे छे. 'तं जहा' रे ॥ प्रभाऐ है-'बवं बालवं' (१) ११४२७१, (२) मास४२५ (3) 'कोलवं थीविलोयणं' डोस१४२४, (४) स्त्री नियन२९-तैतिस४२९, 'गराइवणिज' (५) राहि४२५ 'गरकणं' (6) पशु४४२५, 'विट्ठीसउणी' (७) विटि२४, (८) शनि४२ (6) 'चउप्पयं नाग किंत्थुग्धं' यतु:५६४३९४, (१०) नाग४२६ तेभ (11) तु २११ मा प्रमाणे ये ४२ऐना नाभी छ. 'एएसिणं भंते ! एगारसण्हं करणाणं मज्झे कइ करगा चरा कइ करणा थिरा' 3 मत ! ये पूरित ११४२ मा ट। ४२१-२२ छ અને કેટલા કરણે સ્થિર છે? જે કરણે ગતિવાળા હોય છે–તે ચર અને જેઓ ગતિવિહેણું Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १९ करणानां संख्यादिनिरूपणम् ३०७ संख्यकानि करणानि चराणि-गतिमन्ति कतिच-कियत्संख्यकानि च करणाणि स्थिराणिगतिरहितानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति करणानां चरस्थिरत्वविषयकः प्रश्न:, श्रीभगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तकरणा चरा चत्तारि करणा थिरा पन्नत्ता' एकादश करणेषु मध्ये सप्त-सप्त संख्यकानि करणानि चराणि भवन्ति तथा तेष्वेव मध्ये चखारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, तत्र कानि सप्त वराणि कानिच चत्वारि स्थिराणि इति दर्शयितुमाह-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'बवं बालवं कोलवं थी विलोयणं गराइ वणिजं विट्ठी' बवं बालवं कोलवं स्त्रीविलोचनं गरादिवणिज विष्टिः 'एएणे सत्तकरणा चरा' एतानि खलु बवादीनि सप्तकरणानि चगणि भवन्तीति 'चत्तारि करणा थिरा' चत्वारि-चतु: संख्यकानि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि-कथितानि इति, तान्येव स्थिराणि चत्वारि करणानि दर्शयितुमाह-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'सउणी चउप्पयं णानं कित्थुग्घं' शकुनिश्चतुष्पदं नागं किंस्तुग्नम्, 'एतेणं चत्तारि करणा यिरा पन्नत्ता' एतानि शकुन्यादीनि चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति, एतेषामेकादश करणानां कस्मिन् स्थाने समये वा चरत्वं कुत्रवा स्थिरत्वमिति दर्शयितुं प्रायन्नाह-'एएणं भंते !! इत्यादि, 'एएणं भंते !' एतानि एकादशानि करणानि खलु भदन्त ! 'चरा थिरावा कया चर हैं और कितने स्थिर हैं ? जो करण गतिवाले होते हैं वे घर और जो गति रहित होते हैं वे स्थिर करण कहलाते हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! सत्तकरणा चरा चत्तारि करणा थिरा' हे गौतम ! सात करण चर हैं और ४ करण स्थिर हैं। 'तं जहा' जैसे-'बवं बालवं कोलवं थीविलोयगं गराइ वणि विट्ठी बव' करण बालव करण, कौलवकरण स्त्रीविलोचन करण गरादिकरण, वणिज करण, और विष्टीकरण 'एए ण सत करणा चरा' ये सात करणा चर हैं और 'चत्तारि करणाथिरा' तथा इन से अतिरिक्त चार जो करण हैं वे स्थिर करण हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'सउणी च उपयंगागं किंस्थुग्धं' शकुनि करण, चतुष्पद करण, नाग करण और किंस्तुग्घ करण 'एए णं चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता' इस तरह ये शकुनि आदि चार करण स्थिर कहे गये हैं। 'एए णं भंते ! डाय छ तसा स्थि२४२११ वाय छे. माना पाममा प्रभु डे छ-'गोयमा ! सत्तकरणा चग चत्तारि करणा थिरा' गौतम ! सात४२५ ५२ छ २५२. या२४२६ स्थि२ छे. 'तं जहा! ना-बवं बालवं कोलवं थीविलोयणं गराइ वणिज विट्ठी' १४२५ मास४२९, ३४२९ए श्रीवियन, पशु४२३५ मन पिटरी४२५ ‘एएणं सत्तकरणा चरा' २॥ सात ४२।५२ छे भने 'चत्तारि करणा थिरा' तथा २॥ सिवायना यार ४२५ छ त स्थि२४९९५ छ. 'तं जहा' तमना नाम ॥ भुम छ-'सउणी च उप्पयं णागं कित्थुग्धं' शनि४२५, न्यनु०५४४२५], नास४२५ भने ६२६१४२५ ‘एएणं चत्तारी करणा थिरा पण्णत्ता' ॥ Na शनी माहि यार ४२२४ स्थि२ ४ामा माया छे. 'एएणं भंते ! चरो थिरा वा कया भवंति' ! Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भवंति' चराणि स्थिराणि वा कदा-कस्मिन्काले भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाद-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सुक्कपक्खस्स पडिवाए रायो' शुक्लपक्षस्य या प्रतिपत्तिथिः तस्यां रात्रौ तदात्मके काले 'बवेकरणे भाइ' ब बवनामकं करणं भाति, 'बितीयाए दिवा बालवे करणे भवई' द्वितीयापाम् द्वितीयातिथौ दिवा-दिवसे बालवम्-बालवनामकं करणं भवति 'रायो कोलवे करणे भवइ' द्वितीयास्तिथेः रात्रौ कौलवं-कौलवनामकं करणं भवति, 'तइयाए दिवा थीविलोयणं करणं भवई' तृतीयाया स्तिथेः दिवा-दिवसे स्त्रीविलोचनं करणं भवति 'रायो गराइ करणं भवइ' तृतीयायाः रात्रौ गरादिकरणं भवति, 'चउत्थीए दिवावणिज रायो विट्ठी करणं भव:' चतुर्थ्यां चतुर्थीतिथे दिवा-दिवसे वणिज-वणि मनामकं करणं भवति, रात्रौ विष्टिः-विष्टिनामकं करणंभवति, 'पंचमीए दिवा बवं रायो बालवं' पश्चम्या:-पञ्चमोतिथेः दिवा-दिवसे बवं बबनामकं करणं भवति पश्चम्याः रात्रौ तु बालवं बाळवनामकं करणं भवति 'छट्ठीए दिवा कोलवं रायो थीविलोयणं' षष्ठ्याः -पष्ठितिथे. चरा घिरा वा कथा भवंति' हे भदन्त ! ये करण किप्त काल में चर और किस कालमें स्थिर होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! सुक्कपक्खस्स पडिवाए राइम्मि' हे गौतम । शुक्लपक्षकी प्रतिपदा की रात्रि मेंउस रूप काल में-'बवेकरणे भवई' बव नामका करण होता है 'बितीयाए दिवा बालवे करणे भवई' द्वितीया तिथि में दिवस में बालव करण होता है 'रायो कोलवे करणे भवइ' द्वितीयातिथि की रात्रि में कौलव नामका करण होता है 'तईयाए दिवा थीविलोयणं करणं भवइ' तृतीया तिथि के दिवस में स्त्रीविलोचन करण होता है, 'रायो गराइकरणे भवई' तृतीया तिथि की रात्रि में गरादि करण होता है 'चउत्थीए दिवा वणिज रायो विट्ठी करणे भवइ' चतुर्थी तिथि के दिवस में वणिज नामका करण होता है और रात्रि में विष्टिनामका करण होता है पंचमीए दिवा ववं रायो बालव' पंचमीतिथि के दिवसे में बव नामका करण होता है और बालव नामका करण रात्रि में होता है 'छट्ठीए दिवा कोलवं रायो थी આ ત્રણ કયા કાળમાં ચર અને કયા કાળમાં સ્થિર થાય છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! सुक्कपक्खस्स पडिवाए राइम्मि' 3 गौतम ! शुसपना ५४वानी शत्रिय-ते २५४मां -'बवे करणे भवई' म नामनु ४२५ थायछे बितीयाए दिवा बालवं. करणे भवई' द्वितीयातिथिमा हिवसमा मास४२ थार छे. 'रायो कोलवे करणे भवई' द्वितीयातिथिनी रात्रिमा होस नामनु ४२५ थाय छे. 'तइयाए दिवा थीविलोयणं करणं भवइ' तततिथिना हिवसमा स्त्री विवायन४२११ थाय छ 'रायो गराइकरणं भवई' तृतीयातिथिनी रात्रिमा १२६४२५ थाय छे. 'चउत्थीए दिवा वणिज रायो विद्वीकरणं भवई' यतु तिथिना દિવસમાં વણિ જ નામનું કરણ થાય છે અને રાત્રિમાં વિષ્ટિ નામનું કારણે થાય છે. 'पंचमीए दिवस बवं रायो बालवं' ५यभीतिथिना सभा १ नामनु ४२५ थाय छ भने Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारसू. १९ करणानां संख्यादिनिरूपणम् दिवा-दिवसे कौवं कौलवनामकं करणं भवति तना-पष्ठीतिथेः रात्रौ स्त्रीविलोचनं स्त्रीविलोचननामकं करणं भवतीति ‘सत्तमीए दिवा गराइ रायो वणि' सप्तम्या स्तिथेर्दिवा-दिषसे गरादि गरनामकं करणं भवति तथा-सप्तम्याः रात्रौ वणिज करणं भवति इति । 'अट्टमीए दिवा विट्ठी रायो ब' अष्टम्या स्तिथे दिवा-दिवसे विष्टि:-विष्टिनामकं करणं भवति तथा-अष्टम्या रात्रौ बवं-वयनामकं करणं भवति इति । 'नवमीए दिवा बालवं रामो कोलवं' नवम्या स्तिथे दिवा-दिवसे बालवं बालमनामकं करणं भवति तथा रात्रौ कौलवं नाम करणं भवति, 'दसमीए दिवा थीविलोयणं रायो गराइ' दशम्याः दिवा-दिवसे स्त्रीविलोचन करणं भवति तथा दशम्या रात्रौ गरादिनाम करणं भवति, 'एक्कारसीए दिवा वणिज रायो विट्ठी' एकादश्या स्तिथेः दिवा-दिवसे वणिज करणं भवति तथा एकादश्या रात्रौ विष्टि:विष्टि नामकं करणं भवति, 'चारसीए दिवा बवं रायो बालव' द्वादश्यास्तिथे दिवा-दिवसे ब-बबनामकं करणं भवति तथा द्वादश्या रात्रौ चालवं नाम करणं भवति 'तेरसीए दिवा कोळवं रायो थीविलोयणं' त्रयोदश्या स्तिथे दिवा-दिवसे कौलवं करणं भवति तथाविलोयगं' षष्ठो के दिवस में कौलवनामक करण होता है और रात्रि में स्त्री विलोचन नामका करण होता है 'सत्तमीए दिवा गराइ, रायो वणिज' सत्तमी के दिवस में गरादिकरण और रात्रि में वणिज नामका करण होता है 'अट्ठमीए दिवा विट्ठी रायो बवं' अष्टभीतिथि के दिवस में विष्टि नामका करण और रात्रि में बव नामक करण होता है 'नवमीए दिवा बालवं रायो कोलवं' नवमीतिथि के दिवस बालव नामका करण और रत्रि में कौलव नामका करण होता है 'दसमीए दिवा थीविलोयणं रायो गराइ' दसमी तिथि के दिवस में स्त्रीविलोचन करण और रात्रि में गर नामका करण होता है 'एकारसीए दिवा वणिज रायो विट्ठी' एकादशीके दिवस में वणिज करण और रात्रि में विष्टिकरण होता है 'बारसीए दिवा बवं रायो बालवं' द्वादशीतिथिके दिवस में बव नामका करण और रात्रि में बालव नामका करण होता है । 'तेरसीए दिवा कोलवं रायो थी बिलोयणं' त्रयोदशी मास नामनु ४२११ २रात्रि में थाय छे. 'छट्ठीए दिवा कोलवं रायो थीविलोयण' १०ीन। દિવસે કૌલવ નામનું કરણ થાય છે જ્યારે રાત્રિએ સ્ત્રીવિલોચન નામક કરણ થાય છે. 'सत्तमीए दिवा गराइ. रायो वणिज' सातमना हिवसे ॥२॥६४२६१ भने रात्र ४२५५ थाय छे. 'अदुमीए दिवा विद्वी रायो बवं' मा मतिथि पिसे विष्टि४२९१ अने रात्रभर नाम ४२५१ याय छे. 'नवमीर दिवा बालवं रायो कोलवं' नामना से पास नामनु ४२५ भने रात्रि स नामनु ४२९१ थाय छे 'दसमीए दिवा थीविलोयगं रायो गराइ' દશમને રોજ દિવસમાં સ્ત્રીવિલેચન નામનું કરણ અને રાત્રિમાં ગર નામનું કરણ થાય છે. 'एक्कारसीए दिवा वणिज रायो विट्ठी' मेशीये हिवसमां पण नामनु ४२६ मने रात्रिभो विष्ट४२९१ थाय छे. 'बारसीए दिवा बवं रायो बालब' मारशतिथि समi नाम Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे त्रयोदश्या रात्रौ स्त्रीविलोचननामकं करणं भवति, 'च: हसीए दिवा गराई करणं रायो वणिज' चतुर्दश्या स्तिथे दिवा-दिवसे गरादिकरणं भवति तथा चतुर्दश्या रात्रौ वणिज करणं भवति 'पुणिमाए दिया विट्ठी करणं रायो पवं करणं भवई' पूर्णिमाया स्तिथे दिवा--दिवसे विष्टि नामकं करणं भवति तथा पूर्णिमाया रात्रौं बवं नाम करणं भवतीति ॥ 'बहुलपक्खस्स पडिवाए' बहुलपक्षस्य-कृष्ण पक्षस्य पतिपदि-प्रतिपतिधौ ‘दिवा बाल रायो कोलवं' दिवसे बालवनामकं करणं भवति तथा रात्रौ कौलवं नाम करणं भवति, 'वितीयाए दिवा थीविलोयण रायो गराई द्वितीयायां दिवा-दिवसे स्त्री विलोचनं करणं भवति, तथा द्वितीयायां रात्रौ गरादि करणं भवति 'तईयाए दिवा वणिज रायो रिट्ठी' तृतीयायां तिथौ दिवा वणिज करणं भाति तथा रात्रौ रिष्टि भवति 'चउत्थीए दिवा बवं रायो बालवं' चतुर्थ्यां तिथौ दिवा बवं नाम करणं भवति तथा रात्रौ बालवं नामकं करणं भवति 'पंचमीए दिवा कोलवं राओ थी. तिथि के दिवप्त में कौलव नामका करण होता है और रात्रि में स्त्रीविलोचन नामका करण होता है 'च उद्दसीए दिवा गराई करणं रायो वणिज' चतुर्दशोतिथि के दिवस में गर नामका करण होता है और रात्रि में वणिज नामका करण होता है 'पुणिमाए-दिवा विट्ठी रायो बवं करणं भवई' पूर्णिमा तिथि में :दिन में विष्टि नामका करण होता है और रात्रि में बव नामका करण होता है, ____ 'बहुल पवखस्स पडिवाए' कृष्णपक्षका प्रतिपद तिथिके 'दिवा बालवं' दिनमें बालव नामका करण होता हैं 'रायो कोल' रात्रि में कौलव नामका करण होता है 'बितीयाए दिवा थीविलोयणं रायो गराई द्वितीया तिथिके दिन में स्त्रीविलो. चन नामका करण होता है और रात्री में गरादिकरण होता है। 'तईयाए दिवा वणिज रायो विट्ठी' तृतीया तिथिके दिनमें वणिज करण होता है एवं रात्रि में विष्टि नामका करण होता है, 'च उत्थीए दिवा बवं रायो बालवं' चतुर्थी तिथिके ४२५५ अन शत्र मास नाम ४२०१ डाय छ. 'तेरसीए दिवा कोल रायो थीविलोयण ते२५ તિથિએ દિવસમાં રીલર નામનું કારણે થાય છે. અને રાત્રે સ્ત્રીવિલેચન નામનું કારણ थाय छे. 'च दसीए दिता गराई करणं रायो वणिज' योदशी तिथिये हवस १२७ नामनु ४२५ थाय छ भने रात्रे नामनु ४२५ थाय छे. 'पुण्णिमाए दिवा विद्वी रायो बवं करणं भवई' पूणिमाना हिवसे विष्ट नाभनु ४२५ थाय छे भने रात्रे ५१ ४२५५ थाय छे. 'बहुलपक्खस्स पडिवाए' ५ ५क्षनी मे 'दिवा बालवं रायो कोलवं' (समां मानामनु ४२६, थाय छे. साने शोर नामर्नु ४२५ थाय छे. 'बितीयाए दिवा थीविलो पण रायो गराई' भीनी तिथिये हिसमय साविसोयन नभनु ४२५ थाय छ मन शत्र २७ नामनु ४२५ थाय छे. 'तईयाए दिवा वणिज रायो विट्ठी' त्रीशनी તિથિએ દિવસમાં વણજ નામનું કારણ થાય છે અને રાત્રે વિષ્ટિ નામનું કરણ થાય છે. उत्थीए दिवा बवं राओ बालवं' यायनी तिथि- समां मनामनु ४२६५ डाय छ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १९ करणानां संख्यादिनिरूपणम् ३११ विलोयणे' पञ्चम्यां दिवा कौलव रात्रौ स्त्रीविलोचनं करणं भवति 'छट्ठए दिवा गराई रायो वणिज' षष्टयां दिवा गरादि कणं रात्री वणिज नाम करणं भवति, 'सतमीए दिवा शिट्टी रायो बवं' सप्तम्यां तियो दिवा-दिवसे विष्टिः करणं भवति तथा सप्तम्या रात्रौ बवं करणं भवति 'अट्ठमीए दिवा बालवं रायो कोलवं' अप्टम्यां तिथौ दिवा-दिवसे बालवं नामारणं भवति तथा अष्टम्यां सत्रौ कौलवं नाम करणं भवति, 'नवमीए दिवा थीविलोयणं रायो गराइ' नवम्यां तिथौ दिवा-दिवसे स्त्री विलोचनं नामकरणं भवति तथा नवम्यां रात्रौ गरादि करणं भवति, 'दसमीए दिवा वमिन रायो विट्ठी' दशम्यां तिथों दिवा-दिवसे वणिजं नामकरणं भवति तथा दशम्यां सत्रौ विष्टिः करणं भवति, 'एकारसीए दिवा बवं रायो बालवं' एकादश्यां तिथौ दिवा-दिवसे बवं करणं भवति तथा-एकादश्यां रात्रौ बालवं दिनमें बव नामका करण होता एवं रात्री वालव नामका करण होता है 'पंचमीए दिवा कोलवं राओ थीषिलोयणं' पंचमी तिथिके दिनमें कौलव नामका करण होता है एवं रात्री में स्त्रीविलोचन नामका करण होता है 'छट्ठी दिवा गराइं राओ वणिज'छट्टो तिथि दिन में गराइ नामका करण होता है एवं रात्रीमें वणिज नामका करण होता है 'सत्तमीए दिवा चिट्ठी रायो एवं' सप्तमी तिथिके दिनमे विष्टि नामका करण होता है एवं रात्री में पद नामका करण होता है। 'अट्ठमीए दिवा बालवं रायो कोलवं' अष्टमी तिथीके दिन में बालव नामका करण होता है एवं रात्री में कौलव नामका करण होता है 'नयमीए दिवा थीविलोरणं रायो गराई' नवमी तिथिके दिनमें स्त्री विलोचन नामका करण होता है एवं रात्रीमें गरादि नामक करण होता है। 'दसमीए दिवावणिरायो विट्ठी' दशमी तिथि के दिन में वणिज नामका करण होता है और रात्री में विष्टि नामका करण होता है 'एक्कारसीए दिवा यवं राओ बालवं' एकादशि तिथि के दिनमें यव नामका करण होता है भने रात्रभास नामनु ४२९शु थाय छे. 'पंचमीए दिवा कोलवं राओ थीविलोयणं' पांयमनी તિથિએ દિવસમાં કૌલવ નામનું કારણ હોય છે અને રાત્રે સ્ત્રીવિલેચન નામનું કરણ થાય छ. 'छद्रीर दिवा गराई राओ वणिज' छनी तिथिमे हिपसमा गरा नामनु ४२५ थाय छ भने २त्रे पशिश नाभनु ४२५ थाय छे. 'सत्तमीए दिवा विद्वी राओ बवं' सातभनी તિથિએ દિવસમાં વિષ્ટિ નામનું કરણ થાય છે અને રાત્રે બવ નામનું કરણ થાય છે. 'अट्रमीए दिवा बालवं रायो कोलो' भनी तिथिये ६वसमा पास नाम ४२९५ थाय छ भने रात्रे सर नामर्नु ४२५ थाय छे. 'नवमीए दिवा थीविलोयण रायो गराई' नवमी તિથીએ દિવસમાં સ્ત્રીવિવેચન નામનું કરણ થાય છે અને રાત્રે ગરાઈ નામનું કરણ થાય छे. 'दसमीए दिवा वणिज रायो विट्रि' शमनी तिथि हिम पर नामनु ४२५१ थाय छे. मने राष्टिनामनु ४२५ थाय छे. (एकारसीए दिवा बवं राओ बालव) अश्याરશની તિથિએ દિવસમાં બવ નામનું કરણ થાય છે અને રાત્રે બાલવ નામનું કરણ થાય , Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नाम करणं भवति, 'बारसीए दिवा कोलवं रायो थीविलोयणं' द्वादश्यां तिथौ दिवा दिवसे कौलव नामकरणं भवति, तथा रात्री स्त्रीविलोवनं नाम करणं भवति, 'तेरसीए दिवा गराई रायो वणिजं' त्रयोदश्यां तिथौ दिवा दिवसे गरादि हरणं भवति तथा रात्रौ वणिनं नामकरणं भवति 'चउदसीए दिवा विट्ठी रायो सउणी' चतुर्दश्यां तिथौ दिवा दिवसे विष्टिः करणं भवति, तथा तस्यामेव तिथे रात्रौ शकुनि नमकं करणं भवति, 'अमावासाए' दिवा चप्पयं रायो णार्ग' अमावास्यायां तिथौ दिवा दिवसे चतुष्पदं नामकं करणं भवति तथा रात्रौ नागं नामकरणं भवति, 'सुकपक्वस्स पडिवार दिवा किंत्थुग्मं करणं भवई' शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि दिवा दिवसे किंस्तुघ्नं नाम करणं भवतीति । एतस्य संपूर्णस्यापि अर्थ: स्पष्ट एव, नवरं दिनरात्रिविभागेन यत् करणानां पार्थक्येन कथनं तत् करणानां तिथेरर्द्धप्रमाणत्वात् ज्ञातव्यम् । कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ शकुनिः अमावास्यायां दिवा चतुष्पदं रात्रौ नागं शुक्लपक्ष प्रतिपदि और रात्रि में बालव नामका करण होता है 'बारसीए दिवा कोलवं राघो थीविलोणं' द्वादशि तिथिके दिनमें कौलव नामका करण होता है और रात्री में स्त्रीविलोचन नामका करण होता है 'तेरसीए दिवा गराई रायो वणिजं' त्रयोदशी तिथिके दिन में गरादि करण होता है एवं रात्रि में वणिज नामका करण होता है ! 'उसीए दिया विट्ठी रायो सउणी' चतुर्दशि तिथि के दिनमें विष्टि नामक करण होता है एवं रात्रिमें शकुनि नामका करण होता है 'अमावासाए दिवा astri रायो णागं' अमावस्यातिथि के दिवस में चतुष्पद नामका करण और रात्रि में नाग नामका करण होता है 'सुकपक्खस्स पडिवाए दिवा किंत्धुग्धं करणं भव' शुक्लपक्ष की प्रतिपदातिथि के दिन में किंस्तुग्न नामका करण होता है यहाँ दिन रात के विभाग से जो करणों में पृथक् पृथक् रूप से होने की बात कही गई है वह करणों की तिथि अर्धे प्रमाण होने से कही गई है कृष्णचतुर्दशीतिथि की छे. 'बारसीए दिवा कोलवं राओ थीविलायणं' मारशनी तिथिमे हिवसभां ठौसव नामनु ४२९] हाय छे भने रात्रे स्त्रीविद्यायन नामनु ४२५ होय छे. 'तेरसीए दिवा गराइ रायो वणिजं' તેરસના રોજ દિવસમાં ગર નામનું કર છુ થાય છે અને રાત્રિમાં વણિજ નામનું કાણું થાય છે. 'चउदसीए दिवा विट्ठी रायो सउगी' योहाना रोय द्विवसभां विष्टि नामनु' ४२] थाय छे अने रात्रि शत्रुनि नामनु ४२५ थाय है. 'अमावासाए दिवा चउपयं रायो गागं सभा વસ્પાતિથિએ દિવસમાં ચતુષ્પદ નામનુંકણુ અને રાત્રિમાં નાગ નામનું કરણ થાય છે. 'rarara पडवा दिवा किंन्थुग्धं करणं भवइ' शुभ्झपक्षनी प्रतिपद्मतिथिमां द्विवसभां કિ ંતુઘ્ન નામનું કરણ થાય છે. અહીં સિ-રાતના વિભાગથી કરણેામાં જે પૃથક્ પૃથક્ રુપથી હું વનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે કરણેની તિથિ અર્ધા પ્રમાણુ હાવાથી કહેવામાં આવ્યુ છે, કૃષ્ણપક્ષની ચૌદશના રાજ રાત્રિમાં શકુનિકરણુ અને અમાવસ્યામાં Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. २० संवत्सरादीनां आदित्वनिरूपणम् ३१३ दिवा किंस्तुघ्नं चेति चत्वारि करणानि स्थिराणि एतास्वेव तिथिषु भवन्तीति ।। सू० १९ । ननुयद्यपि सर्वस्यापि सर्वदा परिवर्तनशीलत्वेन आद्यन्ताभावात् अग्रे वक्ष्यमाणसूत्रारम्भो निष्प्रयोजन स्तथापि सर्वानुभवसिद्धत्वात् तद्विचारों नात्र निष्प्रयोजनः तद्यथाअतीतः संवत्सरो विद्यमानश्च संप्रतिनः संवत्सरः आगमिष्यति चोत्तरः संवत्सर इत्यादि लोकाना मनुभवात तेन कालविशेषाणामादिं ज्ञातम् अथैकोनविंशतितमपुत्रानन्तरं विंशतितमं सूत्रमाह - 'कि माइयाणं मंते' इत्यादि ॥ " मूलम् - किमाइयाणं भंते! संवच्छरा, किमाइया अयणा, किमाइया मासा, किमाइया पक्खा किमाइया अहोरता, किमाइया मुहुत्ता, किमा इया करणा, किमाइया णक्खत्ता पन्नत्ता गोयमा ? चंदाइया संवच्छरा, दविखणाइया अयणा, पाउसाइया उऊ, सावणाइया मासा बहुलाइया पक्खा दिवसाइया अहोरता, रोद्दाइया मुहुत्ता बालवाइया करणा अभिजियाइया णक्खता पण्णत्ता समणाउसो ! ति । पंच संच्छरिएणं भंते ! जुगे केवइया अयणा केवइया उऊ एवं मासा पक्खा अहोरत्ता केवइया मुहुत्ता पन्नत्ता ? गोयसा ! पंवसंवच्छंरिए णं जुगे दस अयणा तीसं उऊ सट्टीमासा एगे वीसुतरे पक्खसए अट्ठारस तीसा अहोरतसया चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्सा णवसया पन्नत्ता ॥ सू० २०॥ छाया - किमादिकाः खलु भदन्त ! संवत्सराः, किमादिके अपने किमादिकाः मासाः, किमादिकौं पक्षों, किमादिका अहोरात्राः किमादिका: मुहूर्त्ता, किमादिकानि करणानि किमादिकानि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चन्द्रादिकाः संवत्सराः, दक्षिणादिके अपने, प्रावृडादिका ऋतवः श्रावणादिका मासा, बहुलादिका, पक्षाः, दिवसादिका अहोरात्राः, रौद्रादिका मुहूर्त्ताः, बालवादिकानि करणानि, अभिजिदादिकानि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि श्रमणायुष्मन् ! पञ्च संवत्सरिके खलु भदन्त ! युगे कियन्ति अयनानि कियन्त ऋतवः एवं मासाः पक्षा अहोरात्राः कियन्तो मुहूर्त्ताः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! पञ्चसंवत्सरिके खलु युगे दश अयनानि त्रिंशद् ऋतवः यष्टि ममाः एवं विंशोत्तरं पक्षशतम् अष्टादशत्रिंशदहोरात्रशतानि रात्रि में शकुनि करण और अमावास्या में दिन में चतुष्पद करण रात्रि में नाग नामका करण, शुक्लपक्षको प्रतिपदा में दिन में किंस्तुघ्न करण ये चार करण स्थिर इन्ही तिथियों में होते हैं ||१९|| દિવસમાં ચતુપદકરણુ રાત્રે નાગ નામનું કરણ, શુકલપક્ષના પડવાના દિવસે દિવસમાં ખ્રિસ્તુઘ્નકરણ આ ચાર કરણ સ્થિર આ તિથિમાં જ થાય છે. । સૂ૦ ૧૯ ૫ ज० ४० Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्ति चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्तसहस्राणि नवशतानि प्रज्ञप्तानि । ॥ सू० २० ॥ टीका--'किमाइया णं भंते ! संबच्छरा' किमादिकाः खलु भदन्त ! संवत्सराः प्रज्ञप्ता, तत्र कः चन्द्रादि पञ्चकान्तर्वर्ती आदिः प्रथमो येषांते किमादिकाः संवत्सराः, एतच्च प्रश्नसूत्र चन्द्रादि संवत्सरापेक्षया ज्ञार ०३म्, अन्यथा-परिपूर्ण सूर्य वर्ष पश्चकात्मकस्य युगस्य क आदिः कश्वरम इति प्रश्नावकाशस्य संभादिति । 'किमाइया अयणा' किमादिकानि अयनानि, कि दक्षिणोत्तरायणयो रन्यतर आदिर्ययो स्यनयोस्ने किमादिके अयने प्रज्ञप्ते-कथिते ? अत्र । यद्यपि यहां पर ऐसी आशंका हो सकती है कि आगे जिस सूत्रका प्रारम्भ होने जा रहा है वह निष्प्रयोजन-प्रयोजन से विहीन है-क्योंकि जितने भी पदार्थ हैं वे सब सर्वदा परिवर्तनशील हैं-इसलिये आदि और अन्त का अभाव आता है परन्तु फिर भी जो यहां पर उन में आदि अन्तका विचार किया जाने वाला है वह सर्वानुभवसिद्ध होने से निष्प्रयोजन नहीं है-ऐसा अनुभव हर एक प्राणीको होता है कि अमुक संवत्सर अतीत हो गया, अमुक संवत्सर वर्तमान में चल रहा है, अचुक संवत्सर अब आगामी काल मे होगा इसीलिये काल विशेषों उनकी आदि अवस्था को जानने के लिये यह उन्नीसवां सूत्र के बाद २० वा सूत्र प्रारभ किया जा रहा है 'किमाइया णं भंते ! संबच्छरा किमाइथा अयणा किमाइया मासा' इत्यादि टीकार्थ-गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा ही प्रश्न किया है-'किमाइया णं भंते संबच्छरा, विमाइपा अयणा किमाइया मासा' हे भदन्त ! संवत्सर क्या आदि बाले हैं ? अयन क्या आदि वाले हैं ? मास क्या आदि वाले हैं ? इस प्रश्न का तात्पर्य ऐसा है कि युग संवत्सर के चन्द्रादि पंचक के भेद से જે કે અત્રે સહેજે શંકા ઉપસ્થિત થઈ શકે કે આગળ જે સૂત્રનો પ્રારંભ થવાનો છે તે નિપ્રયેાજન-પ્રજનથી વિહીન છે-કારણ કે જેટલાં પણ પદાર્થ છે તે બધાં સર્વદા પરિવર્તનશીલ છે–આથી તેમનામાં આદિ અને અન્તર અભાવ આવે છે પરંતુ તેમ છતાં પણ જે અંગે તેમનામાં આદિ અન્તને વિચાર કરવામાં આવનાર છે તે સર્વાનુભવસિદ્ધ હોવાને કારણે નિપ્રજન નથી–એ જાતને અનુભવ દરેક પ્રાણને થાય છે. અમુક સંવત્સર અતીત થઈ ગયું અમુક સંવત્સર વર્તમાનમાં ચાલી રહેલ છે, અમુક સંવત્સર હવે ભવિષ્યકાળમાં આવશે, આથી કાલવિશેષમાં તેમની આદિ અવસ્થાને જાણવાને માટે ઓગણીસમાં સૂત્ર પછી આ ૨૦ મું સૂત્ર પ્રારંભ કરવામાં આવી રહ્યું છે– 'किमाइयाणं भंते ! संबच्छरा किमाइया अयणा किमाइया मासा' इत्यादि Aथ-गौतमस्वामी प्रभुने यो प्रश्न पूछये। छ-'किमाइयाणं भंते ! संवच्छरा किमाइबा अयणा किमाइगा मासा' मत ! सवत्स२ शु. २ ॥ छ ? मयन शु આદિવાળા છે? માસ શું આદિવાળા છે? આ પક્ષનું તાત્પર્ય એવું છે કે યુગસંવત્સરના Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. २० संवत्सरादीनां आदित्यनिरूपणम् ३१५ यद्यपि सूत्रे अयनपक्षोत्तरं बहुवचनविभक्ति दृश्यते तथापि अयनयो द्वित्वात् बहुवचन विभक्तिद्वित्वे एव ज्ञातव्या पुरस्कृतत्वात् बहुवचनप्रयोगो न दोषायेति । 'किमाइया उऊ' : किमादिक ऋतवः कः प्रावृडादीनामन्यतर ऋतुरादिर्येषां ते किमादिका ऋतवः प्रज्ञप्ताः 2 J 'कमाइया मासा' किमादिका मासाः तत्र कः श्रावणादि मध्यवर्ती आदिर्येषां ते किमादिका मासाः प्रज्ञप्ताः ? 'किमाइया पक्खा' विनादिको पक्षौ तत्र कः कृष्णः शुक्लो वा आदिर्ययो स्तौ किमादिकौ पक्षौ प्रज्ञप्तौ ? ' किमाइया अहोरता' किमादिकाः अहोरात्राः प्रज्ञप्ताः 'किमाइया मुहुत्ता' किमादिका मुहूर्त्ताः प्रज्ञताः 'किमाइया करणा' किमादिकानि करणानि, तत्र किं करणम् आदि येषां तानि किमादिकानि करणानि प्रज्ञप्तानि ? 'किमाइया णक्खता पांच भेद कहे गये हैं अयन दो प्रकार के कहे गये है और मास १२ प्रकार के कहे गये हैं सौ गौतमस्वामीने यहां प्रभु से ऐसा पूछा है है भदन्त ! युग संवत्सर के भेद जो पांच कहे गये हैं उनमें से सब से पहिले कौनसा होता है। इसी प्रकार दो अपनों में से सब से पहिले कौन अयन होता है और मासों के बीच में सब से पहिले कौन मास आता है ? इसी कारण इस सूत्रको चन्द्रादि संवत्सर की अपेक्षा कहा गया जानना चाहिये क्योंकि परिपूर्ण सूर्यवर्षपश्ञ्चक रूप युग में कौन आदि वाला है कौन अन्त वाला है ऐसा प्रश्न ही उद्भवित नही होता है युग संवत्सर के प्रथम चन्द्र संवत्सर द्वितीय चन्द्र संवत्सर अभिवर्द्धित संवसर चन्द्र संवत्सर और अभिवर्द्धित संवत्सर ऐसे पांच भेद प्रकट किये जा चुके है दक्षिणाघन और उत्तरायण के भेद से दो भेद अगन के कहे जा चुके हैं इसी प्रकार से मासादिकों के भेदों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये 'किमाइया पक्खा, किमाइया अहोरता, किमाइया, मुहुत्ता किमाइया करणा किमाइया णक्खत्ता पन्नत्त' शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष इन दो पक्षों में से कौनसा पक्ष ચન્દ્રાદિ પચકના ભેદથી પાંચ ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે. અયન બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે જ્યારે માસ ખાર જાતના કહેવામાં આવ્યા છે. ગૌતમસ્વામીએ આ પ્રમાણે પૂછ્યું છે. ડેભદન્ત ! યુગસંવત્સરના ભેદથી જે પાંચ કહેવામાં આવ્યા છે તેમાંથી સૌથી પ્રથમ કયુ' સવત્સર હાય છે? એજ પ્રમાણે એ અયનમાંથી સૌની પહેલાં કર્યું અયન ડેાય છે અને મહિનાએમાં સહુ પ્રથમ કયા માસ આવે છે? આ કારણથી જ આ સૂત્રને ચન્દ્રાદિ રાવત્સરની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવેલ જાણવુ જોઈએ કારણ કે પરિપૂર્ણ સૂ વપ’ચકરૂપ યુગમાં કેણુ આદિવાળા છે અને કેણુ અન્તવાળા છે એવા પ્રશ્ન જ ઉદ્દભવને નથી. યુગસવત્સરના પ્રથમ ચન્દ્ર સંવત્સર દ્વિતીય ચન્દ્ર સવત્સર અભિવૃદ્ધિત સ ંવત્સર ચન્દ્રસ'વત્સર અને અભિવતિ સંવત્સર એવા પાંચ લે પ્રકટ કરવામાં આવી ગયા છે. દક્ષિણાયન અને ઉત્તરાયણના ભેદથી એ ભેદ અયનના અગાઉ કહેવાઈ ગયા છે. આ જ પ્રકારથી માસાદિકાના ભેઠેના સમ્બન્ધમાં પણ સમજી લેવું ઘટે. 'कमाइया पक्खा, किमाइया अहोरता किमाइया मुहुत्ता किमाइया करणा किमाइया णक्खत्ता Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र पन्नता' किमादिकानि नक्षत्राणि, तत्र किम् नक्षत्रं अदिर्येगा तानि किमादिकानि प्रज्ञप्तानिकथितानीति संवसत्सरादि विषयकः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चंदाइया संबच्छरा' चन्द्रादिसा: संवत्सराः, तत्र चन्द्रः- चन्द्र संवत्सर आदिर्येषां संवत्सराणां ते चन्द्रादिकाः संवत्सराः, चन्द्रचन्द्राभिवदितचन्द्राभिवर्द्धित नामक संवत्सर पञ्चकात्मक युगस्य प्रवृत्तौ सर्व प्रथमत श्चन्द्रसंपत्तरस्यैव प्रवर्तनात्, नतु अभिवद्धितसंवत्सरस्य प्राथम्यं तस्य युगे त्रिशन्मासातिकमे सद्भावादिति । अथ युगस्यादी प्रवर्त्तमानत्वात् चन्द्रसंवत्सरः संवत्सराणामादिः कथितः; तत्र युगस्यादित्वमेव कथम् इति चेत्रोच्यते आदिवाला है अहोरात्र में कौन आदिवाला है ३० मुहूर्तों में से कौन मुहूर्त आदिवाला है ? ११ करणों में से कौन करण आदिवाला है ? नक्षत्रों में से कौन नक्षत्र आदि वाला है ? इसी प्रकार से "ऋतुओं में कौनसी ऋतु आदि वाली है" ऐसा भी प्रश्न किया गया समझ लेना चाहिये। सूत्र में जो बहुवचन का निदेश हुआ है वह द्विवचन के निर्देश में किया गया जानना चाहिये क्योंकि अयन तो दो ही होते हैं इन प्रश्नों के उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! चंदाइया संवच्छरा' समस्त सवत्सरों में सब से प्रथम संवत्सर चन्द्र संवत्सर है युग संव. त्सर के ५ भेद प्रकट किये जा चुके हैं इन पांच संवत्सरात्मक युग की प्रवृति होने पर सर्व प्रथम चन्द्र संवत्सर की ही प्रवृत्ति होती है. अभिवर्द्धित संवत्सर की नहीं क्योंकि युग में जब ३० मास समाप्त हो जाते हैं तभी अभिवर्द्धित संवत्सर की प्रवृत्ति होती है। , ___ शंका-युगकी आदि में प्रवर्तमान होने से चन्द्र संवत्सर में अन्य संवत्सरों की अपेक्षा आदिता कही गइ है, तो युग में आदिता कैसे आती है ? पन्नत्ता' शु४१५६ गाने १५५६ मा पनि ५२ मांधी ४ये. पक्ष माहियाणा छ ? अहोरात्रमा કે આદિવાળું છે? મુહૂર્તોમાંથી કયું મુહૂર્ત આદિવાળું છે? ૧૧ કરણેમાંથી કયું કરણ આદિવાળું છે? નક્ષત્રમાંથી કયું નક્ષત્ર આદિવાળું છે? એવી જ રીતે “તુઓમાં કઈ હતુ આદિવાળી છે?” એ પણ પ્રશન કરવામાં આવેલે સમજ. સૂત્રમાં જે બહુવચનને ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યા છે તે દ્વિવચનના નિર્દેશમાં કરવામાં આવેલે જણ જોઈએ કારણ કે अयन तो मे १ डोय छे. २॥ प्रश्न:ना उत्तरमा प्रभु ४९ छे-'गोयमा! चंदाइया संवच्छरा' સમસ્ત સંવત્સરમાં સહુથી પ્રથમ સંવત્સર ચન્દ્ર સંવત્સર છે. યુગસંવત્સરના પાંચ ભેદ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. આ પાંચ સંવત્સરાત્મકયુગની પ્રવૃત્તિ થવાથી સર્વપ્રથમ ચન્દ્ર સંવત્સરની જ પ્રવૃત્તિ થાય છે. અભિવતિ સંવત્સરની નહીં કારણ કે યુગમાં જ્યારે ૩૦ માસ સમાપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે જ અભિવદ્ધિત સંવત્સરની પ્રવૃત્તિ થાય છે. શંકા–યુગની આદિમાં પ્રવર્તમાન હોવાથી ચન્દ્રસંવત્સરમાં અન્ય સંવત્સરાની અપેક્ષાએ આદિતા કહેવામાં આવી છે, તે યુગમાં આદિતા કઈ રીતે આવે છે? Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २० संवत्सरादीनां आदित्यनिकरणम् ३१७ युगे प्रवर्तमाने एव सर्वे काल विशेषरूपाः सुपनापनादयः प्रतिपद्यन्ते युगे समाप्ते सति ते कालविशेषरूपाः सुपमादयः समाप्ता भानि, अपि च सकलज्योतिश्चार मूलस्य सूर्य दक्षिणायनस्य चन्द्रोत्तरायगस्य च युगपत् प्रवृत्ति युगस्यादावेव सोऽपि चन्द्रायणस्याभिजिद् योगः प्रथमप्तमये एव सूर्याषणस्य तु पुष्पस प्रयोविंशती पष्टि भागेषु व्यतीतेषु तेन सिद्धं युगस्यादित्यमिति । 'दक्खि माइया अयणा' दक्षिगादिके अयने तत्र दक्षिणायनं संवत्सरस्य प्रथमे पण्मासा स्वदादिर्ययो स्ते दक्षिणादिके अपने भवतः दक्षिणायनस्यादित्वं च युगप्रारम्भे प्रथमत एवं प्रवृत्तत्वात्, एतच्च सूर्यस्यायनापेक्षया ज्ञातव्यम्, चन्द्रस्यायनापेक्षयातु उत्तरायणस्यैवादित्वं वक्तव्यम्, यतो युगारम्भे चन्द्रस्योत्तरायणप्रवृत्तत्वादिति । 'पाउसाइया उऊ' प्रावृडादिका ऋतवः, तत्र प्रावृड् ऋतुः अषाढ श्रावण द्वयमासरूपात्मक आदिःप्रथमो उत्तर-युगके प्रवर्तमान होने पर ही काल विशेष रूप जो सुषम सुषमादि हैं उनकी प्रवृत्ति होती हैं और युग की समाप्ति होने पर इनकी समाप्ति हो जाती है अपिच सकलज्योतिश्चारका मूल सूर्य दक्षिणायन की और चन्द्रोत्तरायन की ओर युगपत्प्रवृत्ति युग की आदि में ही होती है चन्द्रायण का अभिजित् योग प्रथन समय में ही होता है परन्तु सूर्यायण का पुष्य ६० भागों के व्यतीत होने पर २३ भागों में होता है इससे युग में आदितासिद्ध हो जाती है 'दक्षिणाझ्या अयणा' अयनों में सब से प्रथम अयन दक्षिणायन होता है अयन दोनों ६-६ मास के होते हैं जब युग का प्रारम्भ होता है तब दक्षिणा यन ही होता है यह जो कथन है वह सूर्यायन की अपेक्षा से है ऐसा समझना चाहिये क्योंकि चन्द्रायण की अपेक्षा उत्तरायण में ही आदिता कही गई है कारण कि युग के आरम्भ में चन्द्र का अयन उत्तर की ओर ही होता है 'पाऊसाइया ऊऊ' प्रावृट् आदि ६ ऋतु कही गई हैं इन मे आषाढ सावन दो मास ઉત્તર-યુગ પ્રવર્તમાન થવાથી જ કાલવિશેષ રૂપ જે સુષમ સુષમાદિ છે તેમની પ્રવૃત્તિ થાય છે અને યુગની સમાપ્તિ થવાથી એમની સમાનિ થઈ જાય છે કે સકળ તિશ્ચારિકનું મૂલ સૂર્ય દક્ષિાયની તરફ અને ચન્દ્રોત્તરાયણની તરફ યુગપભ્રવૃત્તિ યુગની આદિમાં જ થાય છે. ચન્દ્રાયણનો અભિજિત એગ પ્રથમ સમયમાં જ થાય છે પરતુ સૂર્યાયણનો પુષ્યના ૬ ભાગોના વ્યતીત થવાથી ૨૩ ભાગમાં થાય છે. આથી युशनी माहिती सिद्ध थ य छ 'दक्खिणाइया अयणा' मयनामा सथी प्रथम अयन દક્ષિણાયન હોય છે. અયન બંને ૬-૬ માસના હોય છે જ્યારે યુ નો પ્રારમ્ભ થાય છે ત્યારે દક્ષિણાયન જ થાય છે. આ જે કથન છે તે સૂર્યાયનની અપેક્ષાથી છે એમ સમજવું જોઈએ કારણ કે ચન્દ્રાયણની અપેક્ષા ઉત્તરાયણમાં જ આદિતા કહેવામાં આવી છે. કારણ है युगना याममा यन्द्रनु भयन उत्तर म थाय छे. 'पाउसाइया उउ' प्रावृद्ध આદિ છ ગાતુઓ કહેવામાં આવી છે એમાં અષાઢ શ્રાવણ બે માસ રૂપ પ્રવૃત્ ઋતુ હોય Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिक्षत्रे येषां ते प्रवृडादिका ऋतयः अथिताः युगप्रारम्भ त्वेकदेशस्य श्रावणमासस्य प्रवर्त्तमानत्वात् 'साषणाइथा मासा' श्रावणादिका मासा युगादौ प्रथमनः श्रावणमासस्यैव प्रवर्तनात्, श्रावण मास आदिः प्रथमो येषां ते श्रावणादिया मासा कषिता इति । 'बहुलाइया पक्ण्णा' बहुलादिकाः पक्षा तत्र बहुलपक्ष:-कृष्णपक्ष आदिर्थे ते बहुलादिकाः पक्षाः, युगपारम्भे श्रावण बहुलपक्षस्थ प्रथमतः प्रवर्तनात् । 'दिवसइया अहोरचा' दिसादिका अहोरात्राः, तत्र दिवस एव आदिः प्रथमो शेषां ते दिवसादिकाः मन्दरपर्वतस्य दक्षिणोत्तरभागयो सूर्योदये एव युगप्रतिपते परन्तु इदं भ तेरावतापेक्षया ज्ञातव्यम् विदेहापेक्षयातु रात्रावेव युगप्रवृत्तेरिति । 'रोदाइया मुहुत्ता' रुद्रादिका मुहूर्ताः, तत्र स्द्रो रुद्रनामको मुहूर्तः त्रिशतो मुहूर्तानां मध्ये प्रथमः स रुद्रोह आदि ते रुद्रादिका शुहूर्ताः प्रातः काले रुद्रमुहूर्तस्यैव प्रवृत्तरिति । 'बालवाइया करणा' वाथ्यादिकानि करणानि कृष्णपक्ष प्रतिपदिवसे बालव रूप प्रावृट् ऋतु होती है सब ऋतुओं में यह ऋतु युगारम्भ में सर्व प्रथम प्रवृत होती है इस में भी इस ऋतुका एक देश जो श्रावणमास है उसकी ही युग के आरम्भ काल में प्रवृत्ति होती है इसी कारण 'सावणाइया माता' ऐसा सूत्रकार ने कहा है सब मासों में से युगारम्भ में श्रावणमास ही होता है 'बहुलोइया पक्खा' युग के आरम्भ में सर्व प्रथम कृष्णपक्ष ही प्रवृत्त होता है अर्थात् जब युग का आरम्भ हुआ तब श्रावणमास का कृष्णपक्ष प्रवृत्तथा 'दिवसाइया अहोरत्ता' रात दिन में युग के आरम्भ में दिन ही सर्व प्रथम प्रवृत्त होता है-अर्थात् मन्दर पर्वत के दक्षिणोत्तर भागों में सूर्योदय होने पर ही युग की प्रतिपत्ति-युग की आरम्भ-होतो है यह जो कथन किया है वह भरतक्षेत्र और ऐरक्त क्षेत्र की अपेक्षा से किया है ऐसा जानना चाहिये क्योंकि विदेह क्षेत्र की अपेक्षा युगप्रवृत्ति रात्रि में ही होती है 'रोद्दाइया मुहुत्ता' ३० मुहतों में सर्व प्रथम मुहूर्त युग की आदि में रुद्र होता है क्योंकि प्रातः काल में रुद्र मुहूत की ही प्रवृत्ति होती है 'बालછે. બધી ત્રાતુઓમાં આ તુ યુગારસ્લામાં સર્વ પ્રથમ પ્રવૃત્ત થાય છે એમાં પણ આ તને એક દેશ જે શ્રાવણ માસ છે તેની જ યુગના આરમ્ભકાળમાં પ્રવૃત્તિ થાય છે આ ४२ ८ 'सावणाइया मासा' से प्रमाणे सूरे ४युं छे. मयां भासोभा युगासमा श्रावण मास डाय छे. 'बहुलाइयापाखा' युना २ममा सर्वप्रथम कृष्णपक्ष ४ प्रवृत्त થાય છે અર્થાત્ જ્યારે યુગને આરમ્ભ થયે ત્યારે શ્રાવણ માસને કૃ ણ પક્ષ પ્રવૃત્ત હતે. 'दिवसाइया अहोरत्ता' त-हवसभा युगना २१२ममा हिवस १ स प्रथम प्रत थाय છે–અર્થાત મન્દરપર્વતના દક્ષિણેત્તર ભાગમાં સૂર્યોદય થવા પર જ યુગની પ્રતિપત્તિયુગને આરમ્ભ–થાય છે. આ જે કથન કર્યું છે તે ભરતક્ષેત્ર અને એરવતક્ષેત્રની અપેક્ષાથી કરવામાં આવેલ છે એમ જાણવું જોઈએ. કારણ કે વિદેહ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ યુગની प्रवृत्ति विभा १ थाय छ 'रोहाइया मुहुत्ता' ३० मुहूत्तमा सर्व प्रथम मुहूत युगनी । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वनिरूपणम् ३१७ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २० संवत्सरादीनां आदीत्वनिरूपणम् करणस्यैव संभवादिति । 'अभिजिमाइया णक्खत्ता' अभिजिहादिकानि नक्षत्राणि, तत्राभिजिनक्षत्रमादि येषां तानि अभिजिहादिकारि, अभिजिनक्षत्रमारभ्य नक्षत्राणां क्रमेण युगे प्रवर्तमानत्वात्, तथाहि उत्तराषाढा नक्षत्रान्तिम समय पाश्चात्ये युगस्यान्तः तदनन्तरं पुन: नवीन युगस्य प्रथमनक्षत्रमभिजिदेवेति । 'पन्नत्ता समणा उसो' प्रज्ञप्तानि-कथितानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति भगवत उत्तरम् । अरे सम्बोधनकथनम्, शिष्यस्य पुनरपि प्रश्नविषयक प्रयत्न प्रदीपनार्थम् अतएव हृष्टमनाः गौतमो युगे युगे अयनादि प्रमाणे प्रष्टुमाह-पंव संबच्छरिए भंते ! जुगे' पञ्चसम्बत्सरिके खलु भदन्त ! युगे 'केवइया अयणा पश्नत्ता' हियन्नि-किवसंख्यकानि अपनानि प्रज्ञप्तानि, तब पञ्च संवत्सराः सूर्यसंबन्धिनो मानं प्रम.णं यस्य तत्पश्चसंवत्सरिक युगम् तस्मिन् युगे हे भदन ! कति कियत्संख्यकानि वाइया करणा' करणों मे सबसे प्रथम करण बालवही होता है क्योंकि कृष्णपक्ष के प्रतिपदा के दिन इस मुहर्त का ही सद्भाव होना कहा गया है 'अभिजियाइयाणवत्ता' नक्षत्रों में सर्व प्रधान नक्षत्र अभिजित होना है क्योंकि युग में अभिजित् नक्षत्र को लेकर ही शेष नक्षत्रों की नाम कम से प्रवृत्ति होती है। इसका स्पष्टीकरण ऐसा है-उत्तराषाढा नक्षत्र के अन्तिम समय के पाश्चात्य समय में ही युग का अन्त होता है फिर उसके अनन्तर समय में ही पुनः नवीन युग का जो अभिजित् नक्षत्र है वही होताहै। ‘पन्नत्ता समणाउसो' इस प्रकार से संवत्सरादि कों में से कौन संवत्सरादिकों मेंसे कौन संवत्सरादिक आदिवाले हैं हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! हमने तुम्हें बताया है। ऐसा यह प्रभु की ओर से उत्तर वाक्यका कथन है । ___ अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'पंच संयच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अपणा पण्णता हे भदन्त ! पांच प्रकार के जो संवत्सर कहे गये माहिमा उद्रय छे ४१२५५ है मातभा २२ भुइतनी प्रवृत्ति थाय छे. 'बाल वाइया करणा' ४२।मां सर्व प्रथम ४२६१ मा डाय छे. ४२ पृष्ण पक्षना ५७वान विस २१॥ मुतना सहमा हुयानुयामा माव्युं छे. 'अभिजियाइयाणक्खत्ता' नक्षत्र स प्रथम नक्षत्र मनित्य छे. २ युगमा ममिमित् નક્ષત્રને લઈને જ શેષ નક્ષત્રોની કમે કમે પ્રવૃત્તિ થાય છે. આનું પેટીકરણ આ પ્રમાણે છે–ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રમાં અનિતમ સમયની બાદના સમયમાં જ યુગનો અન્ત થાય છે. પછી તેની અનન્તર સમયમાં જ પુનઃ નવીન યુગનું જે અભિજિત નક્ષત્ર છે તે જ હોય छे. 'पन्नत्ता समणाउसो' २मारीत १४२भियी ४३॥ सवत्सराहि माथी यां सत्सરાદિક આદિવાળા છે. હું શ્રવણ આયુષ્યન્ ! ગૌતમ અમે તમને તે બતાવ્યા છે. એવું આ પ્રભુની તરફથી ઉત્તર વાકયનું કથન છે. वे गौतभस्वामी प्रभुने मे पूछे -पंच संवच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अयणा પગન્ના' હે ભદંત ! પાંચ પ્રકારના જે સંવત્સર કહેવામાં આવ્યા છે તે તે સંવત્સર Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे अयनानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि 'केवइया उऊ' तथा हे भदन्त ! पञ्चसंवत्सरिके युगे कतिकियत्संख्यका ऋतवो भवन्ति, तथा--'एवं मासा पक्खा अहोरत्ता केवइया मुहुत्ता पन्नत्ता' एवं हे भदन्त ! पञ्चसंवत्सरिके युगे कतिमासाः प्रज्ञता स्तथा पञ्चसंवत्सरिके युगे कतिपक्षाः प्रज्ञप्ताः, तथा पञ्चसंवत्सरिके युगे कति अहोरात्राः प्रज्ञप्ताः, तथा पञ्चसंवत्सरिके युगे कतिमुहूर्ता प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पंच संवच्छरिए णं जुगे दस अयणा' पञ्चसंस्तरिके युगे दश अयनानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि प्रतिवर्ष मयनद्वयसद्भावात् वर्षाणां पञ्चसंख्याकत्यादयत्रानां दशतमविरुद्धमिति । 'तीसं उऊ' त्रिंशद् ऋतवः प्रत्ययनम् ऋतुत्रय संभवात्, अत्र सूर्यसंवत्सरस्प पष्ठोऽशः, एकपष्टि दिन प्रमाणः सूर्यऋतुरेव नतुऋतु संवत्सरपष्ठांशः पष्टि दिनप्रमाणो लौकिकऋतुः तथासति पष्टि सा इत्युत्तरसूत्रमसमंजसं स्यात् । सट्ठीमासा' पष्टिर्मासाः प्रतिऋतु मासद्वयसद्भावात् हैं सो उन संवत्सर स्वरूप एक युग में कितने अपन होते हैं ? सूर्य संबन्धी पांच संवत्सर जिसका प्रमाण है ऐसे पांच संवत्सरिक युग में उत्तरायण दक्षिणायन रूप अयन कितने होते हैं ? 'केवझ्या ऊ ऊ' ऋतुएं कितनी होती हैं ? 'एवं मासा पक्खा, अहोरत्ता, केवइया, मुहुत्ता पन्नत्ता' इसी प्रकार से महिने, पक्ष, अहोरात्र, और जहूर्त कितने होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! पंचसंवच्छरिए णं जुगे दस अयणा' हे गौतम ! पांचसंव त्सरों वाले एक युग में दस अयन होते हैं, क्योंकि प्रति वर्षे दो दो अयन होते हैं-इसलिये ५ वर्षों के अयन ५ x २=१० हो जाता है 'तीसं उऊ ऋतुएं ३० होती है क्योंकि एक वर्ष में ६ ऋतुएं होती कही गई हैं अतः ५४६=३० हो जाती हैं। अथवा एक अयन में ३ ऋतुएं होती है एक युग में १० अयन कहे गये हैं अतः १०४३=३० ऋतुएं होती हैं यह बात यो भी स्पष्ट हो जाती है । 'सट्टीमासा' एक युग में ६० मास होते हैं एक वर्ष में १२ मास होते हैं तो ५ वर्ष मे સ્વરુપ એક યુગમાં કેટલા અયન હોય છે? સૂર્ય સમ્બન્ધી પાંચ સંવત્સર જેનું પ્રમાણ છે એવા પંચસંવત્સરિક યુગમાં ઉત્તરાયણ દક્ષિણાયન રૂપ અયન કેટલા હોય છે? 'केवइया उउ' *तुम। टमी डाय छ ? 'एवं मासा पक्खा, अहोरत्ता, केवइया, मुहत्ता पन्नत्ता' मावी ॥ शत भाना, पक्ष, होरात्र मने मुडून टाहोय छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु ४३ छे-'गोयमा ! पंच संवच्छरिए णं जुगे दस अयणा' हे गौतम ! पांय સંવત્સરવાળા એક યુગમાં દશ અયન હોય છે કારણ કે પ્રતિવર્ષ બબ્બે અયન હોય છે ॥ शत पांय वन सय ५४२=१० २७ नय छ 'तीसं उउ' ऋतु 30 सोय छ કારણ કે એક વર્ષમાં છ ઋતુઓ હોવાનું કહેવાય છે. અથવા એક અયનમાં ૩=ાતુઓ હોય છે. એક યુગમાં દશ અયન કહેવામાં આવ્યા છે આથી ૧૦૪૩=૩૦ ઋતુઓ થાય . मा ४थन माम ५५ ५५७८ 25 लय छे. 'सट्ठी मासाः' । युगमा १० भास. डीय Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २० संवत्सरादीनां आदित्वनिरूपणम् ३१ 'एगे वीमुत्तरे पक्खसए' एकविंशत्युत्तरं पशतम्, प्रतिमासं पक्षद्वयसं भवात् 'अद्वारसतीसा अहोरत्तसया' अष्टादश त्रिंशदहोरात्रशतानि त्रिंशदधिकानि अष्टादशोहोरात्रशतानि अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणाम् प्रत्ययनं उपशीत्यधिकशतमहोरात्राः ते च दशसंख्यया गुणिताः त्रिंशदधिकानि अष्टादशशतानि भवन्तीति । 'चउप्पणं मुहुत्तसहस्सा' चतुः पश्चाशन्मुहूर्तसहस्राणि 'णवयसया पन्नता' नवचशतानि प्रत्यहोरात्रं त्रिंशन्मुहूर्ता भवन्तीति युगाहोरात्राणाम् १८३० संख्यकानां त्रिंशत्संरक्ष्या गुणने यथोक्तसंख्यासंभवादिति कथितं चन्द्रसूर्यादीनां गतिस्वरूपमिति ॥ सू० २० ॥ अथ नक्षत्राधिकारमाह___ एतावता प्रकरणेन चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां गत्यादि स्वरूपं कथितं, तदनन्तरं योगादीन् दशविषयान् कथयितुं द्वारगाथा सूत्रमाह-'जोगो देवय' इत्यादि । मूलम्-जोगो१ देव य२ तारग्ग३ गोत्त४ संठाणा५ चंदरविजोगा। कुलं७ पुषिणमअवमंसा य८ सपिगवाए य९ णेता य१० ॥१॥ साठ ६० मास होते है अथवा हर एक ऋतु २ मास की होती है और ५ वर्षास्मक युग में ३० ऋतुएं कही गई हैं तो फिर-३०४२-६० मास होते हैं यह स्पष्ट हो जाता है। 'एगे वीसुत्तरे पक्खहए' एक युग में १२० पक्ष होते हैं एक मास में २ पक्ष जब होते हैं तो एक वर्ष में २४ पक्ष और पांचवर्ष में २४४५= १२० पक्ष हिसाब से आजाते हैं। 'अट्ठरस तीसा अहोरससया' एक युग मे १८३० अहोरात्र होते हैं। क्योंकि हर एक अयन में १८३ दिन-रात होते हैं १८३ में १० की संख्यासे गुणा करने पर १८३० अहोरात आ जाते हैं। 'चउप्पण्णं मुहत्तसहस्सा णवयसया पन्नत्ता' १८३० अहोरात के एक अहोरात के ३० मुहूर्त होने के हिसाब से ५४००० मुहूर्त होते हैं । इस तरह चन्द्र सूर्य आदि कों की गतिका स्वरूप कहा ॥२०॥ છે અથવા દરેક ઋતુ બે માસની હોય છે અને ૫ (પાંચ) વર્ષામક યુગમાં ૩૦ ઋતુઓ કહેવામાં આવી છે તે પછી ૩૦૪૨૦૬૦ માસ થાય છે એ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. 'एगेवीसुत्तरे पक्खसए' ४ युगमा १२० ५क्ष डोय. छ. ४ भासमा ने २ पक्ष होय તે એક વર્ષમાં ૨૪ પક્ષ અને પાંચ વર્ષમાં ૨૪*૫=૧૨૦ પક્ષ હિસાબ મુજબ આવી Mय छे. 'अट्ठारस तीसा अहोरत्तसगा' २४ युगमा १८३० २खोरात होय छ ४।२९५ દરેક અયનમાં ૧૮૩ દિવસ–રાત હેય છે. ૧૮૩ ને ૧૦થી ગુમવામાં આવે તો ૧૮૩૦ महोत थ य छे. 'चउप्पएणं महत्तसहस्सा णवयसया पन्नत्ता' १८७० महोतन से અહોરાતના ૩૦ મુહૂર્ત હોવાના હિસાબે ૧૯૦૦ મુહૂર્ત થાય છે. આ રીતે ચન્દ્ર-સૂર્ય આદિકની ગતિનું સ્વરૂપ કહ્યું. મારવા ज०४१ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जम्बूद्वीपप्रशसि ० कइणं भंते ! णक्खत्ता पन्नत्ता ? गोयमा ! अट्ठावीसं णक्खत्ता पन्नत्ता, तं जहा - अभिई१ साणोर घणिद्वा३ सयभिसया४ पुव्वभद्दवया५ उत्तरभदवया६ रेवई अस्सिणी भरणी९ कत्तिया १० रोहिणी ११ मिगसिरा १२ अद्दा १३ पुण्गव्वसू१४ पूसो१५ अस्सेसा१६ मघा १७ पुत्रफग्गुणी१८ उत्तरफग्गुणी १९ हत्यो २० चित्ता२१ साई२२ विसाहा२३ अणुराहा २४ जिट्टा २५ मूले २६ पुव्वासाढा २७९ उत्तरासाढा२८ ॥ २० ॥ छाया - योगो १ देवता २ तारा ३ गोत्रम् ४ संस्थानम् ५ चन्द्ररवियोगाः ६ । कुलानि ७ पूर्णिमा अमावास्या च ८ सन्निपातश्च ९ नेताश्च ॥ १०॥ कति खलु भदन्त ! नक्षत्रराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अष्टाविंशति नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - अभिजित् १ श्रवणो २ धनिष्ठा ३ शतभिषक ४ पूर्व भाद्रपदा ५ उत्तरभाद्रपदा ६ रेवती ७ अश्विनी ८ भरणी ९ कृत्तिका १० रोहिणी ११ मृगशिरा १२ आर्द्रा १३ पुनर्वसु १४ पुग्यो १५ श्लेषा १६ मघा १७ पूर्वाफाल्गुनी १८ उत्तराफाल्गुनी १९ ६हत २० चित्रा २१ स्वातिः २२ विशाखा २३ अनुराधा २४ ज्येष्ठा २५ मूलम् २६ पूर्वाषाढा २७ उत्तराषाढा ॥ २० ॥ टीका- 'जोगी' योगः - सम्बन्धः, तत्र योगः अष्टाविंशते नक्षत्राणां किं नक्षत्रं चन्द्रेण सह दक्षिणयोग किंवा नक्षत्र पुत्तरयोगि इत्यादिको दिग्योगः ९ । 'देवय' देवता नक्षत्रदेवताः २ 'तारग्ग' ताराग्रम् - नक्षत्राणां तारा परिमागम्, ३ ' गोत्त' गोत्राणि नक्षत्राणाम् ४, नक्षत्राधिकार इतने प्रकरण द्वारा हमने चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, और तारा इन पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों की गति आदि का स्वरूप कहा अब योगादिक जो दश विजय हैं उन्हें प्रतिपादन करने के लिये इस अधिकार को प्रारम्भ करते हैं इस की द्वारगाथा इस प्रकार से है जोगो १ देव य २ तारग्ग ३ गोत ४ संठाणा चंदरविजोगा ६ कुलं ७ पुण्णिम अवमंसा य ८ सण्णिवाए य ९ णेता य १० નક્ષત્રાધિકાર આટલા પ્રકરણ દ્વારા અમે ચન્દ્ર, સૂર્ય, ગ્રહ, નક્ષત્ર અને તારા એ પાંચ પ્રકારના જયાતિષી દેવાની ગતિ આદિ સ્વરૂપ કહ્યુ હવે ચેાગાદિક જે દશ વિજય છે તેમનું પ્રતિપાદન કરવા માટે આ અધિકારના પ્રારમ્ભ કરીએ છીએ. આની દ્વારગાથા આ પ્રમાણે છે— टी अर्थ - १ जोगो २ देव य ३ तारग ४ गोत्त ५ संठाणा ६ चंदर विजोगा ७ कुल ८ पुण्णिम अवसाय ९ सणित्राएय १० णेता, य कइणं भंते ! णक्खत्ता पण्णत्ता' इत्यादि. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. २१ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् ३२३ 'संठाण' संस्थानम् नक्षत्राणाम्५, 'चंदरविजोगा' चन्द्र रवियोगः, चन्द्रेण रविणा च सहयोगःसम्बन्धः ६, 'कुलं' कुलानि-कुल संज्ञकानि नक्षत्राणि उपलक्षणत्वात उपकुलानि कुलोपकुलानि कानि नक्षत्राणि इति कुलद्वारम् । 'पुण्णिम अवमंसाय' पूर्णिमा अमावस्याश्च कति पूर्णिमाः कति अमावास्याश्च ८ । 'सण्णिवाएय' सन्निपातः एतासामेव पूर्णिमाऽमावास्यानां सनिपातः-परस्परापेक्षया नक्षत्राणां सम्बन्धः ९ । 'णेताय' नेता च मासस्य परिसमापक स्त्रि चतुरादि नक्षत्रगणश्च, अनेन क्रमेण दशद्वाराणि भवन्ति । अथ च क्रमशो नक्षत्रः सह 'कइणं भंते ! णक्खत्ता पण्णत्ता' टीकार्थ-इस प्रकरण में जो दश अधिकार द्वार हैं वे इस गाथा द्वारा प्रकट किये गये हैं इस में प्रथम योगद्वार है। इसमें अट्ठाईस नक्षत्रों में कौनसा नक्षत्र चन्द्र के साथ दक्षिण योगी हैं ? कौनसा नक्षत्र उत्तर योगी है ? इत्यादिरूप से दिक योगका कथन किया गया है द्वितीय द्वार नक्षत्र देवता द्वार है तृतीय ताराग्र द्वार है इसमें नक्षत्रों का परिमाण कथित हुआ है चतुर्थ गोत्रद्वार हैइसमें नक्षत्रों के गोत्रों का कथन हुआ है पंचम संस्थान द्वार है-इसमें नक्षत्रों के संस्थान-आकार का कथन हुआ है छठा चन्द्र रवियोग द्वार है-इसमें चन्द्र और रविका सहयोग सम्बन्ध प्रकट किया गया है ७ वां कुल द्वार है-इसमें कुल संज्ञक और उपलक्षण से कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र कौन कौन हैं यह प्रकट किया गया है ८ वां पूर्णिमा और अमावास्या द्वार है इसमें कितनी पूर्णिमा और कितनी अमावास्या हैं ऐसा प्रकट किया गया है ९ वां सन्निपात द्वार है इसमें इन्ही पूर्णिमाओं का और अमावास्यों का परस्पर की अपेक्षा से नक्षत्रों का सम्बन्ध कथित हुआ है १० बां नेता द्वार है इसमें मासका परिसमापक तीन चार પ્રસ્તુત પ્રકરણમાં જે દશ અધિકારદ્વાર છે તે આ ગાથા દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. આમાં પ્રથમ ગદ્વાર છે. તેમાં અઠયાવીસ નક્ષત્રોનું કયું નક્ષત્ર ચન્દ્રની સાથે દક્ષિણગી છે? કયું નક્ષત્ર ઉત્તરગી છે? ઈત્યાદિ રૂપથી દિયેગનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. દ્વિતીય દેવનક્ષત્ર દેવતાદ્વાર છે. તૃતીય તારાગ્રદ્વાર છે જેમાં નક્ષત્રોનું પરિમાણુ કથિત થયેલ છે ચતુર્થશેત્રદ્વાર છે–એમા નક્ષત્રના ગેત્રોનું કથન છે. પંચમ સંસ્થાન દ્વાર છે. છઠું ચન્દ્રરવિયેશદ્વાર છે–એમાં ચન્દ્ર અને રવિને સહગ સમ્બન્ધ પ્રકાશિત કરવામાં આવ્યું છે. સાતમું કુળદ્વાર છે. એમાં કુળસંજ્ઞક અને ઉપલક્ષણથી કુલપકુલસંશક નક્ષત્ર કણ કણ છે એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. આઠમું પૂર્ણિમા તથા અમાવસ્યાદ્વાર છે. એમાં કેટલી પૂર્ણિમા અને કેટલી અમાવસ્યા છે એ બતાવવામાં આવ્યું છે. નવમું સન્નિપાતદ્વાર છે જેમાં આ જ પૂર્ણિમાએ અને અમાવસ્યાઓના પરસ્પરની અપેક્ષાથી નક્ષત્રને સમ્બન્ધ કહેવામાં આવ્યો છે. દશમું નેતાદ્વાર છે એમાં માસના પરિસમાપક ત્રણ ચાર આદિ નક્ષત્ર ગણ છે એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. હવે ક્રમશઃ નક્ષત્ર સાથે Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिसत्रे दक्षिणादि दिगयोगो भवति तेन प्रथमतो नक्षत्रपरिपाटी दर्शयन् आह-'करणं भंते' इत्यादि, 'कइणं भंते ! णक्खत्ता पन्नता' कति खलु कियत्संख्यकानि खलु भदन्त ! नक्षत्राणि प्रज्ञ. सानि-कथितानीति नक्षत्रसंख्याक्रम विषयकः प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठावीसं णखत्ता पनत्ता' अष्टाविंशतिरष्टाविंशति संख्यकानि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीत्युत्तरं भगवतः । तानेवाष्टाविंशति भेदान् दर्शयि माह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'अभिई' अभिजित् नक्षत्रं प्रथमम् १, 'सवणो' श्रवणनामकं द्वितीयम् २, धणिहा' धनिष्ठानामकं तृतीयम् ३, 'सयभिसया शतभिषकूनामकं चतुर्थ नक्षत्रम् ४, 'पुन्वभवया' पूर्वभद्रपदा नामकं पञ्चमं नक्षत्रम् ५, 'उत्तरभद्दवया' उत्तरभद्रपदानामकं षष्ठं नक्षत्रम् ६, 'रेवई' रेवतीनामकं सप्तमं नक्षत्रम् ७ । 'अस्सिणी' अश्विनीनाभमष्टमं नक्षत्रम् ८, 'भरणी' भरणोनामकं नवमं नक्षत्रम् ९, 'कत्तिया' कृत्तिकानामकं दशमं नक्षत्रम् १०, 'रोहिणी' रोहिणनामकमेकादशं, नक्षत्रम् ११, 'मिय सिरा' मृगशिरः, एतन्नामकं द्वादशं नक्षत्रम् १२, 'अदा' आ नामकं आदि नक्षत्रगण है यह प्रकट किया गया है। अब क्रमश नक्षत्रों के साथ दक्षिणादि दिग्योग होता है, इस कारण सर्व प्रथम नक्षत्र परिपाटी को दिखाने के लिये सूत्रकार सूत्र कहते हैं-इस मे गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कइणं भंते । णक्खत्ता पण्णत्ता' हे भदन्त ! नक्षत्र कितने प्रकार के कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! अट्ठावीसं णवत्ता पण्णत्ता' हे गौतम ! नक्षत्र २८ प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'अभिई१ सवणोर धणिहा, ३ सयभिसया ४ पुचभवया ५, उत्तरभद्दवया ६, रेबई ७ अस्सिणी ८, भरणी ९ कत्तिया १० रोहिणी ११ मिगसिरा १२, अद्दा १३ पुणव्वसु १४ पूसो १५ अस्सेसा १६, मघा १७ पुच्च फग्गुणी १८ उत्तर फग्गुणी १९, हत्थो २० चित्ता २१ साई २२ विसाहा २३ अणुराहा २४ जिट्ठा २५ मूले २६ पुव्वासाढा २७ उत्तरासाढा २८, (१) अभिजित् नक्षत्र, (२) श्रवण नक्षत्र, (३) धनिष्ठा દક્ષિણાદિ દિપેગ થાય છે એ કારણે સર્વપ્રથમ નક્ષત્ર પરિપાટી દર્શાવવા માટે સૂત્રકાર सूत्र ४९ छ-मां गौतमस्वामी प्रभुने सयु पूछयु छ-'कइणं भंते ! णक्खत्ता पण्णत्ता' मत ! नक्षत्र ॥ ४डवामी याच्या छ ? साना उत्तरमा प्रभु ४३ छ'गोयमा ! अट्ठावीसं णक्खत्ता पण्णत्ता 3 गौतम ! नक्षत्र २८ वामां माया छे 'तं जहा' तमना नाम मा प्रमाणे ४-१ अभिइ २ सवणो ३ धणिट्ठा ४ सयभिसया ५ पुव्व भद्दधया ६ उत्तरभद्दवया ७ रेवइ ८, अस्सिणी ९ भरणी १० कत्तिया ११ रोहिणी १२ मिगसिरा १३ अदा १४ पुणव्वसु १५ पूसो १६ अस्सेसा १७ मघा १८ पुव्वफग्गुणी १९ उत्तरफग्गुणी २० हत्थो २१ चित्ता २२ साइ २३ विसाहा २४ अणुराहा २५ जिट्ठा २६ मुले २७ पुव्वासाढा २८ उत्तरासाढा' (१) मामात्नक्षत्र (२) श्रवण नक्षत्र (3) पनि। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २१ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् त्रयोदशं नक्षत्रम् १३ 'पुणव्यम्' पुनर्वसुनायक चतुर्दशं नत्रम् १४ । 'पूसो' पुष्यः पुष्य. नामकं पश्चदशं नक्षत्रम् १५, 'अस्सेसा' अश्लेपानामकं षोडशं नक्षत्रम् १६, 'मघा' मघा. नामक सप्तदशं नक्षत्रम् १७ । 'पुवफग्गुणी' पूर्वाफाल्गुनी १८, 'उत्तरफग्गुणी' उत्तराफाल्गुनी १९, 'हत्थो' हस्तः २., 'वित्ता' चित्रा २१, 'साई' स्वातीनाम द्वाविंशतितम नक्षत्रम् २२, "विसाहा' विशाखानामकं त्रयोविंशतितम नक्षत्रम् २३ । 'अणुराहा' अनुराधानामकं चतुर्विंशतितमं नक्षत्रम् २४, 'जिहा' ज्येष्ठानाकं पञ्चविंशतितम नक्षत्रम् २५ । 'मूलं' मूलनामकं षविंशतितमं नक्षत्रम् २६ । 'पुव्वासाढा' पूर्वापाढानामकं सप्तविंशतितमं नक्षत्रम् २७ । 'उत्तरासाढा' उत्तराषाढानामक मष्टाविंशतितमं नक्षत्रम् २८ तदेतानि नाम निर्देश-क्रमनिर्देशेन चाष्टाविंशति नक्षत्राणि कथितानि । ननु अश्विनी नक्षत्रादारभ्य रेवत्यन्तं नक्षत्रमाला अन्यत्र दृश्यते तत्कथं जिनशासने अभिजिम्नक्षत्रादारभ्योत्तराषाढपर्यन्ता नक्षत्रमालापठितेति चेत्सत्यम्-अयं च नक्षत्रावलिका क्रमोऽश्विन्यादिकं कृत्तिकादिकं लौकिक क्रममुल्लंघ्य यत् जिनशासने कथितं तत् युगादौ चन्द्रेण सह अभिजिन्नक्षत्र योगस्य प्रथम नक्षत्र (४) शतभिषा नक्षत्र (५) पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र, (६) उत्तर भाद्रपदा, (७) रेवती, (८) अश्विनी, (९) भरणी (१०) कृत्तिका नक्षत्र (११) रोहिणी, (१२) मृगशिरा, (१३) आर्द्रा, (१४) पुनर्वसु, (१६) अश्लेषा, (१७) मघा (१८) पूर्वेफाल्गुनी, (१९) उत्तर फाल्गुनी, (२०) हस्त, (२१) चित्रा, (२२) स्वाति (२३) विशाखा, (२४) अनुराधा, (२५) ज्येष्ठा, (२६) मूल, (२७) पूर्वाषाढा (२८) और उत्तरषाढा __ शंका-अश्विनी नक्षत्र से लेकर रेवती नक्षत्र तक नक्षत्र माला अन्यत्र देखी जाती है तो फिर यहां जिन शासन में अभिजित् नक्षत्र से लेकर उत्तराषाढा नक्षत्र तक नक्षत्र माला क्यों पठित हुई है ? उत्तर-इस प्रकार से जो नक्षत्रावलिकारूप क्रम है जो कि अश्विनी आदिक एवं कृत्तिकादिक रूप लौकिक क्रम को उल्लंघन करके जिनशासन में कहा नक्षत्र (४) शतभिषा नक्षत्र (५) पूर्व भाद्रपानक्षत्र (६) उत्तराद्रपह। (७) २वता (८) विनी (6) १२० (१०) त्तिानक्षत्र (११) शडिया (१२) भृगशिरा (१३) भाद्री (१४) पुनसु (१५) ५५) (१६) ५.श्वेषा (१७) मया (१८) पूyिa (१८) उत्तर३५ गुणी (२०) १२ (२१) मित्रा (२२) स्वाति (२3) विश (२४) अनुराधा (२५) न्ये (२६) भूत (२७) पूर्वाषाढ मने (२८) उत्तराषाढा. શંક– અશ્વિની નક્ષત્રી લઈને રેવતી નક્ષત્ર સુધી નક્ષત્રમાળ અન્યત્ર જોવામાં આવે છે તે પછી અહીં જિનશાસનમાં અભિજિત્ નક્ષત્રથી લઈને ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્ર સુધી નક્ષત્રમાળા કેમ કહેવામાં આવી છે? ઉત્તર -આ રીતે જે નક્ષત્રાવલિકા રૂપ કેમ છે જે અશ્વિની આદિક અને કૃત્તિકાદિક રુપ લૌકિક ક્રમનું ઉલ્લંઘન કરીને જિનશાસનમાં કહેવામાં આવેલ છે. તે યુગની આદિમાં Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रवृत्त वात् । ननु यदि अभिजिनक्षत्रादारभ्य नक्षत्रावलिकाक्रमः क्रियते तदा नक्षत्रान्तराणामिव कथनं व्यवहारे उपयोगः किन्तु व्यवहारासिद्धत्वमेव अस्य नक्षत्रस्येति चेदत्रोच्यतेअभिन्निक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगकालस्यारूपीयत्वात् नक्षत्रान्तरानुप्रविष्टतयैव विवक्षणात् । व्यवहारासिद्धत्वमिति नक्षत्रावलिका प्रतिपादकं ॥ सू० २० ॥ अथ प्रथमोदिष्टं योगद्वारमाह-- 'एएसिणं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' इत्यादि । मूलम् - एसि णं भंते अडवीसाए णक्खत्ताणं कयरे णकखत्ता, जेणं सया चंदस्स दाहिणे णं जोगं जोएंति, कथरे णक्खत्ता जेणं सया वंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, कयरे णक्खत्ता जेणं चंदस्स दाहिणे ण वि उत्तरेण वि पमदंवि जोगं जोएंति, कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणे णं पि पमदं पि जोगं जोएंति कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स पमदं जोगं जोएंति ? गोयमा ! एएसिणं अट्ठावीसाए क्खत्ताणं तत्थ जे ते क्वत्ता जेणं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोपंति, तेणं छ, तंजहा संठाण १ अपूलोऽसिलेसहत्थो तहेव मूलो य । ६ ॥ बाहिरओ बाहिर मंडलस्स छप्पे ते णक्खत्ता ॥ १ ॥ तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति गया है वह युगकी आदि में चन्द्र के अभिजित् नक्षत्र का सर्व प्रथम योग होता है इस दृष्टि को लेकर कहा गया है । शंका- यदि अभिजित् नक्षत्र से लेकर नक्षत्रावलिका का क्रम किया जाता है तो व्यवहार में नक्षत्रान्तरों की तरह इसका उपयोग क्यों नहीं हुआ है ? व्यवहार में तो इस नक्षत्र की असिद्धि ही है ? उत्तर र - अभिजित् नक्षत्र का चन्द्र के साथ का योगकाल बहुत अल्प होता है इसलिये दूसरे नक्षत्रों में अनुप्रविष्ट रूप से विवक्षित कर लिया जाता है |२१| ચન્દ્રની સાથે અભિજિત્ નક્ષેત્રને સપ્રથમ ચૈત્ર થાય છે એ દ્રષ્ટિને ધ્યાનમાં રાખીને કહેવામાં આવ્યું છે. શ ંકા—ો અભિજિત્ નક્ષત્રથી આરભીને નક્ષયાવલિકાક્રમ કરવામાં આવે છે તે વ્યવહારમાં નક્ષત્રાન્તરાની માફક આના ઉપયોગ કેમ થયા નથી ? વ્યવહારમાં તે આ નક્ષત્રની અસિદ્ધિ જ છે ? ઉત્તર-અભિજિત્ નક્ષત્રના ચન્દ્રની સાથેને ચેગઢાળ ઘણેા જ એછે! હાય છે આથી ખીજા નક્ષત્રામાં અનુપ્રવિષ્ટ રુપથી વિક્ષિત કરી લેવામાં આવે છે. સૂ૦૨૧। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २१ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् तेणं बारस, तं जहा अभिई सवणो धगिट्ठा सयभिसया पुठवभवया उत्तरभद्दवया रेवई अस्सिणी भरणी पुत्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी साई, तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणओ वि उत्तरओ वि पमदंपिजोगं जोएंति ते णं सत्त, तं जहा कत्तिया रोहिणी पुणव्वसू मघा चित्ता विसाहा अणुराहा, तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दहिणओ वि पापदं रिजोगं जोएंति, ताओ णं दुवे आसाढाओ सव्व बाहिरए मंडले जोगं जोएंसुश ३, तत्थ णं जे ते णवत्ते जे णं सया चंदस्त पसदं जोगं जोएइ सा णं एगा जेट्टात्ति ॥सू० २१॥ ___ छाया-एतेषां खलु भदन्त ! अष्टाविंशते नक्षत्राणां कतराणि नक्षत्राणि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेन योगं योनयन्ति, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्योत्तरेण योगं योजयन्ति, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रः दक्षिणेनापि उतरेगापि प्रमर्दमपि योगं योजयन्ति, कतराणि नक्ष आणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि प्रमदपि योग योजयन्ति, कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य प्रमर्द योग योजयन्ति ? गौतम ! एतेषां खलु अष्टाविंशते नक्षत्राणां तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेन योग योजयन्ति तानि खलु षट्, तद्यथा-संस्थानम्, आर्द्रा पुष्यः ३, अश्लेषा ४, हस्त ५ तथैव मूलं च ६, वहिस्ताद् बाह्यमण्डलस्य पडेतानि नक्षत्राणि ।। तत्र खलु यानि तानि नक्षत्र णि यानि खलु सदा चन्द्रस्योत्तरेण योग योजयन्ति तानि खलु द्वादश तद्यथाअभिजित् श्रवणो धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी भरणी पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी, साती १२ तत्र खलु यानि तानि नक्षत्राणि यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि उत्तरेणापि प्रमदमपि योगं योजयनि तानि खलु सप्त, तद्यथा-कृत्तिका १ रोहिणी २ पुनर्वसु ३ मघा ४ चित्रा ५ विशाख। ६ अनुराधा ७ । तत्र ये ते नक्षत्रे ये खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणतोऽपि प्रमर्दमपि योगं योजयतः ते द्वे आषाढे सर्वबाह्ये मंडले योगमयुंक्ताम् योजयतः योजयिष्यतः, तत्र खलु यत् तत् नक्षत्रम् यत् खलु सदा चन्द्रस्य प्रमदं योगं योजयति, सा खलु एका ज्येष्ठेति । सू०२१।। अब सूत्रकार प्रथमोद्दिष्ट योग द्वार का कथन करते हैं 'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'एएसिणं भंते ! अट्ठावी. હવે સૂત્રકાર પ્રથમેષ્ટિ યુગદ્વારનું કથન કરે છે'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' इत्यादि -गौतमवामी प्रभुने मा प्रमाणे ५७यु छ-'एएसि णं भंते ' अट्ठावीसाए Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जम्बूछीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ___टीका-'एएसिण भने' एतेषा मुपयुक सूत्रे कथितानाम् अहावीसाए णक्खत्तणं' अष्टाविंशते रष्टाविंशति संख्यकानां नक्षत्राणामभिजिदादीनां मध्ये 'कयरे णवत्ता' कतराणि कति संख्यकानि नक्षत्राणि 'जे णं सश' यानि खलु नक्षत्राणि सदा-सर्वकालम् 'चंदस्स दाहिणणं' चन्द्रस्य दक्षिणेन-दक्षिणत: 'जोगं जोएंति' दक्षिणस्यां व्यवस्थितानि योगं संबन्धं योजयन्ति अर्थात् सम्बन्धं कुर्वन्ति 'कयरे णक इचा' कलराणि नक्षत्राण 'जे णं सया' यानि खलु नक्षत्राणि सदा-सर्वस्मिन् काले 'चंदा उत्तरेणं जोगं जोएंति' चन्द्रस्योत्तरे उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योगं योजयन्ति सम्म-धं कुर्वन्ति कयरे मकसत्ता' कतराणि नक्षत्राणि 'जेणं' यानि खलु 'चंदस्स दाहिणेगापि उसरेण वि पनदं वि चन्दस्य दक्षिणेनापि दक्षिणस्यामपि, उत्तरेणापि-उत्तरस्या मपि प्रमर्दमपि नक्षत्रविमानानि विभिद्य मध्ये गमनलक्षणम् योगं संबन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति- अर्थात् केगा नक्षत्रविमानानां मध्येन चन्द्रो. ऽगच्छत् गच्छति गमिष्यतीत्यर्थः तथा-'कयरे णखत्ता जेणं चंदरूप दाहिणेणं पि पमई पि जोगं जोएंति' कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यामपि प्रमर्दसाए णक्खत्ताणं' हे भदन्त ! इन २८ नक्षत्रों के बीच में 'कपरे णखत्ता' कितने वे नक्षत्र 'जे णं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति' ऐसे हैं जो सदा चन्द्र की दक्षिण दिशा में व्यवस्थित होते हुए उसके साथ सम्बन्ध करते हैं ? 'कयरे णवत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति' तथा कितने नक्षत्र ऐसे हैं जो सदा चन्द्र की उत्तर दिशा में व्यवस्थित होते हुए उसके साथ सम्बन्ध करते हैं ? 'कयरे णवत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेण वि उत्तरेण वि पसदं चि जोगं जोएं ति' वे कितने नक्षत्र ऐसे है जो चन्द्रकी दक्षिण दिशा में भी चन्द्र की उत्तर दिशा में भी नक्षत्र विमानों को तोड फोड करके चन्द्र के साथ योग करते हैं ? अर्थात् किन नक्षत्र विमानों के बीच में से होकर चन्द्र की तरफ जाता है और जावेगा? 'कयरे णक्वत्ता जेणं चंदर दाहिणेणं वि पमई विजोगं जोएंति' जो चन्द्र की दक्षिण दिशा में भी नक्षत्र विमानों को तोड फोड करके भो चन्द्र के साथ णक्खत्ताणं 3 महन्त ! 241 243यावीस नक्षत्रानी क्यमा कवरे णक्खत्ता' या ते नक्षत्र जेणं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति' है रे सहा द्रनी क्षिदिशामा ०५वस्थित थ तनो साथै सम्म ४२ छ ? 'कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति' તથા કેટલા નક્ષત્ર એવાં છે જે હમેશાં ચન્દ્રની ઉત્તરદિશામાં વ્યવસ્થિત થતાં થકા તેની साथै समय ४२ छ ? 'कयरे णखत्ता जे णं चं स्स दाहिणेण वि उत्तरेण वि पमदं विजोगं जोएंति' eai नक्षत्र वा छे २ यन्द्रनीक्षिण दिशामा ५५ यन्द्रनी उत्तम પણ નક્ષત્ર વિમાનેને તેડીફોડીને ચદ્રની સાથે એગ કરે છે? અર્થાત્ કયાં નક્ષત્ર विमानानी भ५मां ने यन्द्र त२६ जय छ अथवा नशे ? 'कयरे णक्खत्ता जेणं चंदास दाहिणेण वि जागं जोएंति' २ यन्द्रनी दक्षिण दिशामा ५ नक्षत्र विमानाने तोडीडीन. ५ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार र. २१ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् मपि योग योजयन्ति तथा-'कयरे पकवत्ता जेणं सया चंदस्स पमई जोगं जोएंति' कतराणि नक्षत्राणि यानि खलु चन्द्रस्य सदा-सर्वकाले प्रमद यागं योजयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताण' एतेषामुपयुक्त सूत्रकथिताना मष्टाविंशति नक्षत्राणाम् मध्ये 'तत्थ जे ते णक्खत्ता' तत्राष्टाविंशति नक्षत्रमध्ये यानि तानि नक्षत्राणि 'जेणं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति' यानि खलु सदा चन्द्रस्य दक्षिणस्यां योगं योजयन्ति । तेणं छ' तानि खलु नक्षत्राणि षटू-पटूसंख्याका ने कथितानि 'तं जहा'तद्यथा 'संठाणं' संस्थानं मृगशिरः १ 'अद्द' आर्द्रा २ 'पुस्सो' पुष्यः ३ 'असिलेस' अश्लेषा ४ 'हत्थो' हस्त:-हस्तनामकं नक्षत्रम्, 'तहेव मूलोय तथैव मूलं च 'बाहिराओ बाहिरमंडलस्स' बहिस्ताद् बाह्यमण्डलस्य चन्द्रसम्बन्धिनः पञ्चदश मण्डलस्य 'छप्पेते णक्खत्ता' षडपि एतानि नक्षत्राणि भवन्ति, अयं भावः-समस्तचारक्षेत्रप्रान्तवर्तित्वा दिमानि संस्थानादीनि पडपि नक्षत्राणि दक्षिणदिग् व्यवस्थायीनि, चन्द्रश्च द्वीपतो मण्डलेषु चरन तेषां नक्षत्राणा योग करते हैं वे नक्षत्र कितने हैं ? 'कयरे नक्खत्ता जेणं सया चंदस्स पमई जोगं जोएति' जो नक्षत्र सदा चन्द्र के साथ प्रमर्द योग करते हैं वे नक्षत्र कितने हैं ? इन सब प्रश्नों के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थणं जेते णक्खत्तो जेणं चंदस्स दाहिणेणं जोअंजोएंति ते गं छ' हे गौतम ! ये जो अट्ठाईस नक्षत्र है सो इन अट्ठाईस नक्षत्रों के बीच में जो नक्षत्र सदा चन्द्र की दक्षिण दिशा में चन्द्र के साथ योग करते हैं ऐसे वे नक्षत्र छ हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से है 'संठाणं' मृगशिरा नक्षत्र १ 'अद्द' आर्द्रानक्षत्र २, 'पुस्सौ पुष्यनक्षत्र ३, 'असिलेस' अश्लेषा नक्षत्र ४, 'हत्थो' हस्तनक्षत्र ५, 'तहेव मूलोय' तथा मूल नक्षत्र, ६, 'बाहिराओ बाहिरमंडलस्स' वे ६ नक्षत्र चन्द्र सम्बन्धी जो १५ मंडल हैं उनके बाहर से ही योग करते हैं। तात्पर्य इसका ऐसा है-समस्त चार क्षेत्र के प्रान्तवती होने से ये मृगशिरा आदि ६ यन्द्रनी साथे या 3 छ । नक्षत्र खi छ ? 'कयरे नक्खत्ता जे णं सया चंदस्स पमदं जोगं जोएंति' रे नक्षत्र सहा यन्द्रनी साथे प्रमाण ४२ छ । नक्षत्र tai छ १ ॥ संघi प्रश्नान वाम प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थणं जे ते णक्खत्ता जेणं चंदस्स दाहिणेणं जो जोएंति तेणं छ' गौतम ! આ જે અઠયાવીસ નક્ષત્ર છે આ અઠયાવીસ નક્ષત્રેની વચમાં જે નક્ષત્ર સદા ચન્દ્રની દક્ષિણहिशामा यन्द्रनी साथ यो॥ ४२ छे सेवा त छ नक्षत्र छ 'तं जहा' तमना नाम ॥ प्रभारी छे. 'संठाणं' भृगशीष नक्षत्र १, 'अदा' मानक्षत्र 'पुस्से' पुष्य नक्षत्र 'असिलेस' पानक्षत्र ४, 'हत्यो' 8-1नक्षत्र ५, 'तहेव मूलोय' तथा भूगनक्षत्र ६ 'बाहिराओ बाहिरमंडलस्स' એ છે નક્ષત્ર ચન્દ્ર સમ્બન્ધી જે ૧૫ મંડળ છે તેમની બહાર રહીને જ યોગ કરે છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે–સમસ્ત ચાર ક્ષેત્રના પ્રાન્તવત્ત હોવાથી આ મૃગશિરા વગેરે Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञि मुत्तरदिगवस्थायीति भवति दक्षिण दिश्योगः । ननु यदि एवं मन्यते तदा 'बहिमूलोऽब्मंतरे अभिई' इति वचनात् मूलनक्षत्रस्यैव बहिश्वरत्वं सिद्ध्यति तथा अभिभित् नक्षत्रस्याभ्यन्तरचरत्वं सिद्धं भवति तथा कथमत्र षडित्युक्तम् वक्ष्यमाणानन्तरसूत्रे च द्वादशाभ्यन्तरत इति वक्ष्यते इति वेदत्रोच्यते- मृगशिरः प्रभृतीनां षण्णामपि नक्षत्राणां समानेऽपि बहिश्चारिवे मूलस्यैव सर्वापेक्षयापि वहिवारित्वम् तेन 'बहिमूलो' इत्युक्तम्, तथाऽनन्तरोत्तरसूत्रे वक्ष्यमाणानां द्वादशानामपि नक्षत्राणामभ्यन्तरमण्डलचारित्वे समानेऽपि अभिन्निक्षत्रस्यैव सर्वापेक्षयाऽभ्यन्तरवर्त्तित्वात् 'अन्यंतरे अभिई' इति कथितम् अतो न भवति पूर्वापरसन्दनक्षत्र दक्षिण दिशा में व्यवस्थित है और चन्द्र द्वीप से मण्डलों में गति करता करता उन नक्षत्रों की उत्तर दिशा में अवस्थित हो जाता है इस तरह दक्षिण दिग्योग बन जाता है । १३० शंका- यदि ऐसी बात मानी जाती है तो "बहिमूलोऽन्तरे अभिई " इस कथन के अनुसार मूलनक्षत्र ही बहिश्वर सिद्ध होता है और अभिजित् नक्षत्र अभ्यन्तर चर सिद्ध होता है। तो फिर यहां ६ कैसे कहे ? क्योंकि आगे कहे जाने वाले अनन्तर सूत्र में 'द्वादशाभ्यन्तरतः " ऐसा कहा जाने वाला है । उत्तर - मृगशिरा आदि ६ नक्षत्रों में बहिश्वरता समान होने पर भी मूलनक्षत्र में ही जो बहिश्चरता कही गई है वह सर्व की अपेक्षा से भी कही गई है। इस कारण 'बहिमूलो' ऐसा कहा गया है तथा - अनन्तर सूत्र में वक्ष्यमाण १२ Feat में अभ्यन्तर मंडल चारिता समान होने पर भी अभिजित् नक्षत्र में ही सर्व की अपेक्षा अभ्यन्तर वर्तिता है इस कारण अभिंतरे अभिई' ऐसा कहा गया है अतः पूर्वापर संदर्भों में कोई विशेष आने जैसी बात नहीं है । इस ૬ નક્ષેત્ર દક્ષિણદિશામાં વ્યવસ્થિત છે અને ચન્દ્ર દ્વીપથી પડળામાં ગતિ કરતાં તે નક્ષત્રોની ઉત્તરદિશામાં અવસ્થિત થઇ જાય છે મા રીતે દક્ષિણદિગ્યેાગ બની જાય છે. शंका- आ डुडीत भानी ये तो 'बहिर्मूलोभंतरे अभिई' माथन अनुसार મૂળનક્ષત્ર જ ખહિક્ચર સિદ્ધ થાય છે અને અભિજિત નક્ષત્ર અન્તરચર સિદ્ધ થાય છે તે પછી અટ્ટીયાં ૬ કઇ રીતે કહેવાયા ? કારણ કે આગળ કહેવામાં આવનારા અનન્તર सूत्रभां 'द्वादशाभ्यन्तरतः' मे प्रभा वामां आदनार हे ? ઉત્તર-મૃગશિરા આદિ ૬ નક્ષત્રામાં મહિધ્ધરતા સમાન હોવા છતાં પણ મૂળનક્ષત્રમાં જ જે મહિંદ્મરતા કહેવામાં આવી છે તે સર્વની અપેક્ષાથી પણ કહેવામાં આવી છે આથી 'बहिर्मूलो' से प्रमाणे उडेवामां भाव्यु छे तथा अनन्तर सूत्रभां वक्ष्यमा १२ नक्षत्र भां અભ્યન્તર મ`ડળ ચારિતા સમાન હોવાથી પણ અભિત્િ નક્ષત્રમાં જ સની અપેક્ષા अभ्यन्तर वर्त्तिता या अरथी 'अभितरे अभिई' वु डेरामां भाव्यु के साथी પૂર્વાપર સંદર્ભોંમાં ફાઇ વિરોધાભાસ થવા જેવી શકયતા રહેતી નથી આ રીતે ચન્દ્રથી Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २१ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् १ योर्विरोध इति । चन्द्राद् दक्षिणदिगवस्थितनक्षत्राणां स्वरूपं प्रदर्श्य चन्द्रोत्तर दियवस्थित नक्षत्राणां स्वरूपं संख्यां च दर्शयितुमाह- 'तत्थणं जेते' इत्यादि, 'तस्थ णं जेते मक्खत्ता' तत्र तेषु नक्षत्रेषु मध्ये खलु यानि तानि नक्षत्राणि 'जेणं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति तेणं बारस' यानि खलु नक्षत्राणि सदा-सर्वस्मिन् काले चन्द्रस्योत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि योगं सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति, यानि नक्षत्राणि सर्वदैव चन्द्रस्योत्तरदिग्विभागे एव भवन्ति तानि खलु द्वादश, द्वादशसंख्यकानि भवन्तीत्यर्थः तान्येव द्वादशभेदभिन्नानि नक्षत्राणि दर्शयितुमाह- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'अभिई सवणो घणिट्टा' अभि जित् श्रवणो धनिष्ठा 'सयभितया ' शतभिषक 'पुव्यभवया' पूर्वभद्रपदा 'उत्तरभद्दक्या' उत्तरभद्रपदा, 'रेवई अस्पिणी भरिणी' रेवती अश्विनी भरणी 'पुव्वाफग्गुणी उत्तरा फम्गुणी सई' पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी स्वाती, एतानि द्वादशनक्षत्राणि अभिजिदादि स्वाती पर्यन्तानि सर्वदैव चन्द्रस्योत्तरदिग् विभागेन चन्द्रमसा संबन्धं कुर्वन्तीति । यद्यपि समवायप्रकार से चन्द्र से दक्षिण दिग्वर्ती नक्षत्रों के स्वरूप को प्रकट करके अब चन्द्र के उत्तर दिग्वर्ती नक्षत्रों के स्वरूप और संख्या को प्रकट किया जाता है 'तत्थ णं जेते नक्खप्ता जेणं सया चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति' उन नक्षत्रों के बीच में जो नक्षत्र ऐसे हैं कि जो सदा चन्द्र की उत्तर दिशा में ही अवस्थित होकर योग करते हैं अर्थात् जो नक्षत्र सदा चन्द्र की उत्तर दिशा में ही रहते हैं। 'तेणं बारस" ऐसे वे नक्षत्र १२ हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं'अभिई, सवणो धणिट्ठा,' अभिजित् नक्षत्र, श्रवणनक्षत्र, धनिष्ठा नक्षत्र, 'सयसिया' शतभिषक नक्षत्र, 'पुत्र्वभद्दवया' पूर्व भाद्रपदा नक्षत्र, 'उत्तर'भदवया' उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र, 'रेबईअस्सिणी, भरणी' रेवती नक्षत्र, अश्विनीनक्षत्र, भरणीनक्षत्र, 'पुत्र्वाफरगुणी, उत्तराफग्गुणी' पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, 'साई' और स्वाति नक्षत्र ये सब १२ अभिजित् आदि नक्षत्र सर्वदा चन्द्र की उत्तरदिशा में अवस्थित रहते हुए चन्द्रमा के साथ सम्ब દક્ષિ] દ્વિગ્નતી નક્ષત્રાના સ્વરૂપને પ્રકટ કરીને હવે ચન્દ્રના ઉત્તર દિગ્દતી નક્ષત્રેના १३५ तेन संध्याने अष्ट हवामां आवे छे- 'तत्थणं जे ते णक्खत्ता जेणं सया चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति' ते नक्षत्रानी पथमां ने नक्षत्र क्षेत्रां में हमेशा यन्द्रनी ઉત્તરદિશામાં જ અવસ્થિત થઇને ચેાગ કરે છે અર્થાત્ જે નક્ષત્ર સદા ચન્દ્રની ઉત્તરदिशामा ४ रहे थे 'तेणं बारस' सेवा नक्षत्र १२ ४. 'तं जहा' तेभना नाम या प्रम. शे छे' अभिइ सबणो धणिट्टा' अलिभित नक्षत्र, श्रवधुनक्षत्र धनिष्ठानक्षत्र 'सभा शतभिषा नक्षत्र, 'पुत्रमवया' पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र, 'उत्तरभद्दवया' उत्तरभाद्र नक्षत्र रेवई अस्सिणी, भरणी' रेवतीनक्षत्र अश्विनीनक्षत्र लरशिनक्षत्र, 'पुत्रा फग्गुणी, उत्तराफग्गुणी' પૂર્વાફાલ્ગુનીનક્ષત્ર ઉત્તરાફાલ્ગુનીનક્ષત્ર, ‘લા' અને સ્વાતિક્ષેત્ર આ બધા ૧૨-અભિજિત્ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ अम्मूखीपप्रज्ञप्तिसूत्र योगसूत्रे 'अभिजियाणं णव णक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति अभिई सवणो जाव भरणी' इति-कथितम् (अभिजिदादिकानि खलु नव नक्षत्राणि चन्द्रस्य उत्तरेण योगं योजयन्ति अभिजित् श्रवणो यावत् भरणी इतिच्छाया) चन्द्रत उत्तरेण नवानामेव योगकथनं विद्यते तथापि नवम सवायानुरोधेन अभिजित् नक्षत्रमादौ कृता नव संख्यकानामेव निरन्तर योगित्वेन विवक्षणात्, उत्तरयोगिनामपि पूर्वफल्गुन्युत्तरफल्गुनी स्वातीनक्षत्राणां कृत्तिका रोहिणी मृगशिरःप्रमुखनक्षत्रयोगानन्तरमेव योग संभवादिति ॥ चन्द्राद दक्षिणोत्तरदिगवस्थितनक्षत्राणां नामानि प्रदर्श्य उभयतो योगयुजां नक्षप्राणां नामानिदर्शयितुमाह-'तत्थणं जेते' इत्यादि, 'तत्थर्ण जे ते णक्वत्ता' तत्र तेषु. अष्टाविंशतिनक्षत्रेषु मध्ये खलु यानि तानि नक्षत्राणि 'जेणं खलु सया चंदस्स' यानि नक्षत्राणि न्ध करते हैं-यद्यपि समवाययोग सूत्र में 'अभिजियाणं णव णक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति-अभिई, सवणो जाव भरणी' ऐसा पाठ कहा गया है इस पाठ से ऐसा समझाया गया है कि अभिजित् , श्रवण यावत् भरिणी ये नौ नक्षत्र सदा चन्द्र की उत्तर दिशा में अवस्थित रहते हुए चन्द्र के साथ योग करते हैं इस तरह के कथन से चन्द्र की उत्तर दिशा में नौ नक्षत्रों का ही योग कथित होता है-फिर भी नौवे समवाय के अनुरोध से अभिजित् नक्षत्र को आदि में करके नौ संख्यक नक्षत्रों को ही निरन्तर योगित्वरूप से विविक्षा हुइ है इस से उत्तरयोगी भी पूर्व फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी और स्वाती जो ये नक्षत्र है सो इन नक्षत्रों का कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर आदि प्रमुखनक्षत्रों के योग के अन. न्तर ही योग होना संभवित होता है । इस प्रकार चन्द्र से दक्षिण दिग्वती और उत्तर दिग्वर्ती नक्षत्रों के नामको प्रकट करके अब उभयतो योग युक्त नक्षत्रों के माम प्रकट किये जाते है-'तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जेणं खलु सया चंदस्स दाहि આદિ નક્ષત્ર સર્વદા ચન્દ્રની ઉત્તરદિશામાં અવસ્થિત રહેતાં થકા ચન્દ્રમાની સાથે સમ્બન્ધ रेछ-२ -समवाययोग सूत्रमां-'अभिजियाणं णव णक्खत्ता चंदरस उत्तरेणं जोगं जोएंतिअभिइ, सवणो जाव भरणी' मेव। ५७ ४ामा मा०ये। छे. मा ५४थी से समलवामा આવ્યું છે કે અભિજિત શ્રવણ યાવતું ભરણી આ નવ નક્ષત્ર સદા ચન્દ્રની ઉત્તરદિશામાં અવસ્થિત રહેતા થકા ચન્દ્રની સાથે ભેગ કરે છે આ પ્રકારના કથનથી ચન્દ્રની ઉત્તરદિશામાં નવ નક્ષત્રને જગ કથિત થાય છે–તે પણ નવમા સમવાયના અનુરોધથી અભિજિત નક્ષત્રને આદિમાં કરીને નવ સંખ્યક નક્ષત્રની જ નિરતર ગિત્વ રૂપથી વિવક્ષા થઈ છે. આથી ઉત્તરાગી પણ પૂર્વ ફાગુની અને સવાતિ જે આ નક્ષત્ર છે તે આ નક્ષત્રને કૃતિકા, રેહિણી, મૃગશિર આદિ પ્રમુખ નક્ષત્રના રોગની અનન્તર જ વેગ થવે સંભવિત થાય છે. આ રીતે ચન્દ્રથી દક્ષિણદિગ્વતી અને ઉત્તરદિગ્વતી નક્ષત્રોના નામે પ્રકટ કરીને હવે ઉભયતે ગ યુક્ત નક્ષત્રના નામ પ્રકટ કરવામાં આવે છે Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २१ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् खलु सदा-सर्वकालं चन्द्रस्य 'दाहिणो वि उत्तरओ वि पमई पि जोगं जोएंति तेणं सत्त' दक्षिणतोऽपि दक्षिणस्यापि दिशि, उत्तरेणापि उत्तरस्यामपि दिशि, प्रमर्दमपि नक्षत्रविमानानि विभिद्य मध्ये गमनलक्षणं योगं संवन्धं योजयन्ति कुर्वन्ति तानि खलु नक्षत्राणि सप्त-सप्तसंख्यकानि भवन्ति । तानेव सप्तभेदान् दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा'कत्तिया रोहिणी पुणबसु मयाचित्ता विसाहा अणुराहा' कृत्तिकारोहिणी पुनर्वसु मघाचित्रा विशाखा अनुराधा चेति, एतेषां सप्तानामपि नक्षत्राणां त्रिधाऽपि योगो भवति, चन्द्रेण सहेत्यर्थः । यदपि स्थानाङ्ग सूत्रेऽष्टमाध्ययने समवाययोगसूत्रे च कथितम् । 'अढणक्खत्ता चंदेण सद्धिं पमई जोगं जोएंति कत्तिया रोहिणी पुणव्वसु महा चित्ता विसाहा अणुराहा जेवा' इति (अष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्द्ध प्रमर्द योग योजयन्ति, कृत्तिका रोहिणी पुनर्वस मधा चित्रा विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा इतिच्छाया इति कथितमित्येकस्याधिक्यं प्रदर्शितम्, णओ वि उत्तरओ वि पमई वि जोगं जोएंति ते णं सत्त' उन २८ नक्षत्रों में से जो नक्षत्र सदा चन्द्र की दक्षिण दिशा में और उत्तर दिशा में इन दोनों दिशाओं में व्यवस्थित होते हुए प्रमर्द योग-नक्षत्र विमानों को भेद करके बीच में गमन रूप योग को-सम्बन्ध को करते हैं वे नक्षत्र सात हैं ! 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-(कत्तिया रोहिणी पुणव्वसु मघा, चित्ता विसाहा, अणुराहा' कृत्तिका रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, और अनुराधा, इन नक्षत्रों का चन्द्र के साथ तीनों प्रकार का भी योग होता है। यद्यपि स्थानाड सूत्र में अष्टमअध्ययनमें समवाय योग सूत्र में 'अट्ठणक्खत्ता चंदेण सद्धि पमः इंजोगं जोएंति कत्तिया, रोहिणी, पुणव्वसु, महा चिता, विसाहा अणुराहा जेट्ठा' ऐसा पाठ है- इसका भाव ऐसा है कि कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा ये आठ नक्षत्र चन्द्र के साथ प्रमर्द योग करते हैं । सो इस पाठ में एक नक्षत्र की अधिकता प्रकट की गइ है। अतः अष्ट 'तत्थणं जे ते णक्खत्ता जेणं खलु सया चंदस्स दाहिणओ वि उत्तरओ वि पमई विजोग जोएंति तेणं सत्त' ते २८ नक्षत्रीमाथी २ नक्षत्र सहा यन्द्रनीक्षिण दिशामा भने उत्तर. દિશામાં એ બે દિશાઓમાં વ્યવસ્થિત થતાં થકા પ્રમઈ ગ-નક્ષત્ર વિમાનને ભેદીને વચમાં ગમનરૂપ યેગને-સમ્બન્ધને કરે છે એવા સાત નક્ષત્ર છેd sણાં' તેમના નામ આ प्रभारी छे-'कत्तिया रोहिणी पुणब्वा, मघा, चित्ता, विसाहा, अणुराहा' कृति लियो, પાર્વસ, મઘા, ચિત્રા, વિશાખા અને અનુરાધા આ નક્ષત્રને ચન્દ્રની સાથે ત્રણે પ્રકારને પણ વેગ થાય છે. જો કે સ્થાનાંગ સૂત્રમાં અઠમાં અધ્યયનમાં સમવાય એગ સલમાં 'अट्रणक्खत्ता चंदेण सद्धिं पमई जोगं जोएंति, कत्तिया रोहिणी, पुणव्वसु महाचित्ता रिसाहा अणुराहा जेट्टा' मेवो ५४ हे-मानी मा मेरो छे 3-त्तिा, लिए, पुनसु, भया, ચિત્રા, વિશાખા, અનુરાધા અને જ્યેષ્ઠા આ આઠ નક્ષત્રે ચન્દ્રની સાથે અમદંગ કરે Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जम्बूद्धीपप्रज्ञप्तिस्त्र तत्राष्टसंख्यानुरोधेन एकस्यैव प्रमर्दितयोगस्य विवक्षितत्वेन ज्येष्ठानक्षम प संगृहीत मिति ॥ त्रिधा चन्द्रस्य योगं युञ्जतां नक्षत्राणां नामानि प्रदर्यपानि नक्षत्राणि दक्षिणतः प्रमर्दतश्च योग योजयन्ति तेषां नामानि दर्शयितुमाह-'त थ गं जेते' इत्यादि, 'तत्थणं जेते णक्खत्ता' तत्राष्टाविंशति नक्षत्रेषु मध्ये खलु ये ते नक्षत्रे 'जेणं सया चंदस्स' ये खलु नक्षत्रे सदा सर्वकालं चन्द्रस्य 'दाहिण यो वि पमपि' दक्षिणतो दक्षिणस्यां दिशि तथा प्रमर्दनयि 'जोगं जोएंति' योग सम्बन्धं योजयतः कुरुतः 'ताओ णं दुवे आसाढाओ' ते खलु द्वे आपाढे पूर्वाषाढोत्तराषाढ लक्षणे, ते हि प्रत्येकं चतुस्तारे, तत्र द्वे द्वे तारे सर्वबाह्यस्य पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तरतो भवतः, तथा द्वे द्वे तारे बहिर्भवतः, ततो द्वे द्वे तारे अभ्यन्तरत स्तयोमध्येन चन्द्रमागच्छति तदपेक्षया प्रमदं योगं योजयत इति कथ्यो, ये तु द्वे द्वे तारे बांहे. विधते चन्द्रस्य पञ्चदशेऽपि मण्डले चारं कुरुतः सदा चन्द्रस्य दक्षिणदिशि यास्थिते ततसंख्या के अनुरोध से एक ही प्रमर्दित योग विवक्षित होने से ज्येष्ठा नक्षत्र भी संगृहीत हो जाता है । 'तत्थ णं जेते णक्खत्ता दाहिणओ वि पमदंवि जोगं जोएंति' उन अट्ठावीस नक्षत्रो में से जो दो नक्षत्र सदा चन्द्र की दक्षिण दिशा में वर्तमान रह कर प्रमर्द योग को भी करते हैं 'ताओ णं दुवे असाढाओ' वे पूर्वाषादा और उत्तराषाढा नामके दो नक्षत्र है। ये दोनों नक्षत्र चार चार ताराओं वाले हैं इन में से दो तारे तो सर्वबाह्य जो १५ वां मण्डल है उसके भीतर हैं तथा दो तारे उस के बाहर हैं भीतर मे जो दो दो तारे हैं उनके बीचमे से होकर चन्द्रमा गमन करता है इस अपेक्षा यहां प्रमर्दयोग पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा करते हैं ऐसा कहा है। तथा जो दो तारे बाहर है वे चन्द्र के १५ वें मण्डल पर गति करते हैं अतः वे सदा चन्द्र की दक्षिण दिशा में व्यवस्थित रहते हैं। इस कारण वे चन्द्र की दक्षिण दिशा में प्रमर्द योग करते हैं ऐसा कहा गया है। છે. આમ આ પાડમાં એક નક્ષત્રની અધિકતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે આથી આઠ સંખ્યાના અનુરોધથી એક જ પ્રમર્દિત પેગ વિક્ષિત હેવાથી જેષ્ઠા નક્ષત્ર પણ, सहीत गय छे. 'तत्थणं जे ते णक्खत्ता दाहिणओ वि पनपि जोगं जोएंति' । અાવીશ નક્ષત્રમાંથી જે બે નક્ષત્ર સદા ચન્દ્રની દક્ષિણ દિશામાં વર્તમાન રહીને પ્રમथप ५५५ ४२ छ. 'ताओणं-दुवे असाढाओ' ते पूर्वाषाढा भने उत्तराषाढा नामनामे ત્ર છે. આ બંને નક્ષત્ર ચાર ચાર તારાઓવાળા છે. આમાંથી બે તારા તે સર્વબાહ્ય રે પંદરમું મંડળ છે તેની અંદર છે તથા બે તારા તેની બહાર છે. અંદરના ભાગમાં જે બબ્બે તારા છે તેમની વચમાંથી જઈને ચન્દ્રમાં ગમન કરે છે આ અપેક્ષા અત્રે પ્રમોગ પૂર્વાષાઢા અને ઉત્તરાષાઢા કરે છે એ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે તથા જે બે તારા બહાર છે તેઓ ચન્દ્રના પંદરમાં મંડળ પર ગતિ કરે છે આથી તેઓ સદા ચન્દ્રની દક્ષિણ દિશામાં વ્યવસ્થિત રહે છે. આ કારણે તેઓ ચન્દ્રની દક્ષિણદિશામાં પ્રમોગ કરે Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कार: सू. २१ नक्षत्राधिकारनिरूपणम् ३३५ स्तदपेक्षया दक्षिणेन यं गं योजयत इति कथितमिति । 'सन्चबाहिरए मंडले जोगं जोयं सुवा ३' सर्वत्राह्ये चन्द्रस्य मण्डले योगं सम्बन्धमयोजयताम्, योजयतः, योजयिष्यतः । सम्प्रति नक्षत्रं केवलं प्रमर्दमेव योगं योजयति तन्नक्षत्रं दर्शयितुमाह-' तत्थणं जेते' इत्यादि, 'तत्थमं जेते णखते' तत्राष्टाविंशति नक्षत्रमध्येषु खलु यत् तन्नक्षत्रम् 'जेणं सया चंदस्स पमर्द जोगं जोएर साणं एगा जेट्ठा इति यत् खलु सदा-सर्वकालं चन्द्रस्य प्रमर्दमेव योग संबन्धं योजति-करोति सा खलु एका ज्येष्ठा, एकमेव ज्येष्ठानाम के नक्षत्रं यत् केवलं चन्द्रस्य प्रभर्दमेव योगं करोतीति ।। सू० २१ ॥ अष्टाविंशति नक्षत्राणां योगद्वारं निरूप्य सम्प्रति देवताद्वारं निरूपयितुं द्वाविंशतितमं सूत्रमाह- 'एएसिणं भंते' इत्यादि । मूलम् - एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णकवत्ताणं अभिई नक्खत्ते किं देवयाए पण्णत्ते ? गोयमा ! बम्हदेवया पन्नत्ते सवणे पक्खते विडुदेक्याए पण्णत्ते धणिट्टा वसुदेवया पन्नत्ता, एएणं कमेणं णेयब्वा, अणुपरि वाडी इमाओ देवयाओ- बम्हाविण्वसूवरुणे अय अभिद्धी पूसे असेजमे अग्गी प्रयावई सोमे रुदे अदिती वहस्सई सप्पे पिउभगे अज्जय आल्हा वाउ वृंदग्गी मितो इंदे निरई आउ विस्ताय, एवं णक्खनाणं एयःपरिवाडी णेपव्वा जाव उत्तरासादा किं देवया पन्नत्ता ? गोवा ! विरुतदेवया पन्नता । एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खअभि ते कइतारे पन्नत्ते ? गोयमा ! तितारे पन्नत्ते, एवं 'बाहिरए मंडले जोगं जोयंसु बा३' इन दोनों नक्षत्रों ने सर्वबाह्य चन्द्र मंडल में पहिले संबन्ध किया है, अब भी वे करते हैं और आगे भी करेंगे अब सूत्रकार जो नक्षत्र केवल एक प्रमर्द योग ही करता है उस नक्षत्र को प्रगट करते है 'जे ते णक्खत्ते जे णं सया चंदस्स पमद्द जोगं जोएह साणं एगा जेट्ठा' उन अहावीस नक्षत्रों के बीच मे जो नक्षत्र सदा चन्द्र के साथ केवल एक प्रमर्द योग को ही करता है ऐसा वह नक्षत्र एक जेष्ठा ही है ।। २२॥ छे सेभ नभांखभ्यु छे. 'सव्वबाहिरए मंडले जोगं जोयंसु वा' या मने नक्षत्रो સબાહ્ય ચન્દ્રમ'ડળમાં પ્રથમ સબન્ધ કર્યો છે અત્યારે પણ તેએ કરે છે અને ભવિષ્યમાં પણ કરતા હેશે હવે સૂત્રકાર જે નક્ષત્ર કેવળ એક પ્રયાગ જ કરે છે તે નક્ષત્રને પ્રકટ કરે छे-'तत्थणं-जे ते णक्खत्ते जेणं सया चंदस्स पमदं जोगं जोएइ सा णं एगा- जेट्टा' ते मध्यावीश નાત્ર સદા ચન્દ્રની સાથે કૈત્રળ એક પ્રમઈ ચેગને જ કરે છે. એવુ ०४, ०२२॥ નક્ષત્રેની હૃચ્ચે ते नक्षत्र Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जम्बुद्वीपप्रति यव्त्रा जस्त जइयाओ ताराओ, इमं च तं तारगं- तिग तिग पंचगसय दुगदुग बत्तीसगतिगं तहतिगं च । छप्पं च गतिग एकम पंचगलिंगं छक्कगं चेव |१| सतग दुगदुग पंचग एक्केक्कग पंचचउतिगं चेव । एक्कारसगचक्कं चक्कगं चेव तारागं ॥२॥ ॥सू० २२|| छाया - एतेषां खलु भदन्त ! अष्टाविंशति नक्षत्राणामभिन्निक्षत्रं किं देवताॐ प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! ब्रह्मदेवता प्रज्ञप्तम्, श्रवण नक्षत्रं विष्णु देवताकं प्रज्ञप्तम्, धनिष्ठा वसुदेवता प्रज्ञ प्ता, एतेन क्रमेण नेतव्या, अनुपरिपाटीइयं देवतायाः, ब्रह्माविष्णुर्वसुर्वरुणोऽजोऽभिवृद्धिः पूषा अश्वोयमोऽग्निः प्रजापतिः सोमो रुद्रोऽदिति बृहस्पतिः सर्पः पितृभगोऽर्यमा सविता - त्वष्टा वायुरिन्द्रग्नी मित्रइन्द्रो नैर्ऋत आपः विश्वाश्च । एवं नक्षत्राणा मेषा परिपाटी नेतव्या यावदुत्तराषाढा किं देवता प्रज्ञप्ता ? गौतम ! विश्वदेवता प्रज्ञप्ता । एतेषां खलु भदन्त ! अष्टाविंशति नक्षत्राणामभिजिनक्षत्रं किं तारं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! त्रितारं प्रज्ञप्तम्, एवं नेतव्या यस्य यावत्यस्वाराः, इयं च तत् ताराग्रम्, त्रिकं त्रिकं पञ्चशतं द्विकं द्विकं द्वात्रिंशत् त्रिकं तथा त्रिकं च । षट्पञ्चकं त्रिकमेकरुं पञ्चकं त्रिकं षष्टकं चैत्र |१| सप्तकं द्विरुं द्विकं पञ्चमेकैकं पञ्चचतुस्त्रिकं चैव । एकादशकं चतुष्कं चतुष्कमेव ताराग्रमितिच्छाया ||२||० २२॥ टीका- 'एएसि णं भंते' एषामुपर्युक्तानां नक्षत्राणां खलु भदन्त ! 'अट्ठावीसाए क्खाणं' अष्टात्रिंशतेरष्टाविंशति संख्यकानां नक्षत्राणाममिजित्प्रमुखानां मध्ये 'अभिई णक्खत्ते किं देवयाए पश्नत्ते' अभिजिन्नामकं गणनया प्रथमं नक्षत्रं किं देवताकम् तत्र का देवता विद्यस्येति देवताकं प्रज्ञप्तम् - कथितम्, देवता स्वामी अविपतिरित्यर्थः यस्या देवताया स्तुष्टया नक्षत्र तृष्टं भवति यस्या देवताया अउष्ट्या चातुष्टं भवति नक्षत्रम् । देवता द्वारका निरूपण 'एएसिणं भंते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' टीकार्थ- गौतमस्वामिने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है - हे भदन्त ! जो आपने २८ नक्षत्र कहे हैं उनमें से जो पहिला अभिजित् नामका नक्षत्र है उस नक्षत्र का स्वामी - देवता कौन है ? नक्षत्र के देवता को तुष्टि होने से ही नक्षत्र तुष्ट हुआ और उसके देवता की अतुष्टि से नक्षत्र अतुष्ट हुआ माना जाता है। દેવતાદ્વારનુ' નિરૂપણ 'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' इत्यादि ટીકા-ગૌતમસ્વામીએ આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને એવુ પૂછ્યું છે–ડે ભદત ! આપે જે ૨૮ નક્ષત્ર કહેલા છે તેમાંથી પહેલું અભિજિત્ નામનુ' નક્ષત્ર છે તે નક્ષત્રના સ્વામીદેવતા કેણુ છે? નક્ષત્રના દેવતાની તુષ્ટિ થવાથી જ નક્ષત્ર તુષ્ટ રહે છે અને એના દેવતાની અષ્ટશ્રી નક્ષત્રનું અતુષ્ટ થવુ માનવામાં આવે છે. આથી આજ અભિપ્રાયને લઇને અહી Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २२ नक्षत्राणां देवताद्वारनिरूपणम् ननु यदा नक्षत्राणि स्वयमेव देवतारूपाणि तदा तत्र देवतान्तर स्वीकारे का युक्तिस्तदभावाच्च कथं नक्षत्रेषु देवतानामाधिपत्यमिति चेदत्रोच्यते-पूर्वभवोपार्जिततपस्तारतम्येन तपसः फलस्यापि तारतम्यदर्शनात् मनुष्यवत, देवेष्वपि सेव्यसेवकभावस्यापि प्रतिपादनाव, यदाह-'सकस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो इमे देवा आणा उववायवयणणिरेसे चिटुंति तं जहा-सोमकाइया सोमदेवकाइया विज्जुकुमारा विज्जुकुमारीओ अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीओ वाउकुमारा वाउकुमारी श्री चंदा सूरा गहा णक्खत्ता तारारूवा जे आवण्णे तहप्पगारा सम्वे ते तब्भत्तिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमरस महारणो आणावयणणिदेसे चिट्ठति । अतः इसी अभिप्राय को लेकर यहां गौतमस्वामी ने इन नक्षत्रों के कौन कौन देवता है और प्रथम नक्षत्र का कौन देवता है यह जानने के लिये प्रश्न किया है। शंका-जब नक्षत्र स्वयं ही देवता रूप है तो फिर इन के देवतान्तर मानने में क्या युक्ति है ? यदि इस सम्बन्ध में कोई युक्ति नहीं है तो फिर नक्षत्रों में देवताओं का अधिष्ठान कैसे हो सकता है? उत्तर-पूर्वभव में उपार्जित तपकी तरतमता से तपके फल में भी तरतमता देखी जाती है मनुष्य की तरह देवों में भी सेव्य सेवक भावका प्रतिपादन तो शास्त्र में हुआ ही है जैसा कि 'सकस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो इमे देवा आणाउपवायवयान. इसे चिटुंति-तं जहा सोमकाइया, सोमदेवकाइया विज्जुकुमारा विज्जुकुमारी ओ अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीओ वाउकुमारा चाउकुमारीओ चंदा सूरा गहाणक्खत्ता तारारूवा जे आवण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तम्भत्तिया तम्भारिया सकस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महरणो आणावयणणिद्देसे चिटुंति' इस ગૌતમસ્વામીએ આ નક્ષત્રના કયા ક્યા દેવતા છે અને પ્રથમ નક્ષત્રના ક્યા દેવતા છે એ જાણવા માટે પ્રશ્ન કર્યો છે. શંકા-જ્યારે નક્ષત્ર જાતે જ દેવતા રૂપ છે તે પછી એમને દેવતાનતર માનવા પાછળ શું પ્રજન છે? જે આ સમ્બન્ધમાં કઈ પ્રજન નથી તે પછી નક્ષત્રમાં દેવતાઓનું અધિષ્ઠાન કઈ રીતે હોઈ શકે? ઉત્તર-પૂર્વભવમાં ઉપાર્જિત તપની તરતમતાથી તપના ફળમાં પણ તરતમતા જોવામાં આવે છે મનુષ્યની જેમ દેવામાં પણ સેગ્યસેવક ભાવનું પ્રતિપાદન તે શાસ્ત્રમાં થયું જ छ रेभ. 'सक्कस देविंदस्स देवरगो सोमस्स महारण्णो इमे देवा आणा उवायवयणा निदेसे चिटुंति-तं जहा सोमफाइया सोमदेवकाइया विज्जुकुमारा विज्जुकुमारीओ अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीओ वाउकुमारा वाउकुमारीओ चंदासूरागहा णक्खत्ता तारारुया जे आवण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो आणावयण ળિયે જÉતિ’ આ શાસ્ત્રાન્તરના પ્રકરણમાં થયું છે. અતિસરળ હોવાથી અમે આ પ્રકરણની ज० ४३ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बद्वीप्रमातिसूत्रे (शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजः सोमस्य मझराज्ञ इमे देवा आज्ञोपपात वचानिर्देशे तिष्ठन्ति, तद्यथा-सोमकायिकाः सोमदेवकायिकाः, विद्युतकुमारा, विद्युत्कुमार्यः भग्निकुमारा अग्निकुमार्यों वायुकुमारा वायुकुमार्यः, चन्द्राः सूर्याः ग्रहा नक्षत्राणि तारारूपा ये अन्ये तथा प्रकाराः सर्वे ते तद्भक्तिकाः तपो भारिताः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराज्ञः सोमस्य महाराज्ञ आज्ञाववननिर्देशे तिष्ठन्ति, इतिच्छाया) शास्त्रान्तरोधृत प्रकरणस्याति,सरलतया व्याख्या न कृता प्रः, स्वयमेवार्थानुसंधानं कर्तव्यम्, एतस्मात् प्रकरणा। इत्थं ज्ञायते यद् देवानामपि अधि. पति भवति, अतोऽत्राधिपति विषयकः प्रश्नो नानुपपन्नः, तत्र.. देवशरीरप्राप्तियोग्य पूर्व भवोपार्जित तपः प्रभावात् देवगति प्राप्नुवनित, देवराजानुकूल पूर्वमवोपार्जित पुण्यप्रभावात् देवराजो भवतीति प्रश्नः, 'भगवा नाह-गोयमा' इत्यादि. 'गोयमा' हे गौतम ! 'बम्हदेवया पनते' ब्रह्मदेवताकं प्रज्ञप्तम्, अर्थात् अभिनिनक्षत्रस्य ब्रह्म ख्यो देवविशष एव देवता भवति इति भगवत उत्तरम् इति भावः । 'सवणे णक्खत्ते विण्हु देवयार पण्णत्ते' श्रवणनक्षत्रं विष्णु देवताकं प्रज्ञप्तं कथितम्, यद्यपि अत्र प्रश्न सूत्रं नास्ति तथापि उत्तरसूत्रानुरोधात् प्रश्न सूत्रं यमेवोन्नेयम्, कथपेयमितिचेत्, उच्यते-शिष्यस्याभिप्राय जानन् गुरुः शिष्यमनोगतं प्रश्नं ज्ञात्वा निर्ववनसूत्रेणैव समाधानात्, आलापप्रकारचे थम् 'एएसिणं मंते ! अट्टावीलाए शास्त्रन्तर के प्रकरण में हुआ है इस प्रकरण को अति सरल होने से हम व्याख्या 'नहीं कर रहे हैं स्वयं ही इस विषय को समझलेना चाहिये इस उद्धृत प्रकरण से यह बात जानी जा सकती है कि देवों का भी अधिपति होता है इसलिये यहाँ अधिपति विषयका प्रश्न अनुचित नहीं है । जीव देवशरीर प्राप्ति के योग्य पूर्व भवो पार्जित तप के प्रभाव से देवंगति प्राप्त करते हैं और देवराज के पद की प्राप्ति के अनुकूल पूर्व भवोपार्जित तप के प्रभाव से जीव देवराज होता है अंब गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! बम्हदेवया प्रन्नत्ते' हे गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का स्वारी ब्रह्म नामका. देव विशेष है 'सवणे 'णखत्त विण्हु- देवयाए पण्णत्ते'श्रव ग नक्षत्र का स्वामी विष्णुदेवता है अद्यपि यहां प्रश्न सूत्र नहीं है फिर भी उत्तर सूत्रके अनुरोध से प्रश्नं सूत्र स्वयं ही उद्भावित વ્યાખ્યા કરતાં નથી સ્વયં જ આ વિષયને સમજી લેવું જોઈએ આ ઉદધૃત પ્રકરણથી એ હકીકત જાણી શકાય છે કે દેવેને પણ અધિપતિ હેય છે આથી અહીં અધિપતિ વિષયક પ્રશ્ન અસ્થાને નથી. જીવ દેવશરીર પ્રાપ્તિને એગ્ય પૂર્વભવેપાર્જિત તપના પ્રભાવથી દેવગતિ પ્રાપ્ત કરે છે અને દેવરાજના પદની પ્રાપ્તિને અનુકૂળ પૂર્વભોપાર્જિત તપના પ્રભાવથી જીવ દેવરાજ બને છે. હવે ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નને ઉત્તર આપતા થકા प्रभु ४३ छ 'गोयमा ! बम्हदेवया पन्नत्ते' हे गौतम ! निति नक्षत्रना स्वामी ब्रह्म नामना व विशेष छ-'सवणे णक्खत्ते विण्हु- देवयाए एण्णत्त' अqe नक्षत्रना २वामी विY દેવતા છે કે અને પ્રશ્ન સૂવ નથી તે પણ ઉત્તર સૂત્રને અનુરોધથી, પ્રશ્ન સૂત્ર સ્વયં Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टाका-सप्तमवक्ष कार:स.२२ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार; १. २२ नक्षत्राणां देवताद्वारनिरूपणम् ३३२ णक्खताणं सवर्णणखत्ते कि देवयाए पन्नत्त ? गोवमा ! सवणे णक खत्ते विण्हुंदेवयाए पन्न' हे भदन्त ! एतेषामष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये यदिदं श्रवणनामक नक्षत्रम्, तत् हि देवता. कम् अर्थात् श्रवण नक्षत्रस्य देवता का इति प्रश्नः, 'भगवानाह-गोयमा !" हे गौतम ! विष्णु. देवताक प्रज्ञप्तं कथितम्, अर्थात श्रवणनक्षत्रस्य देवता विष्णुर्भवतीति । एवमेव सर्वत्र प्रश्न वाक्यमुत्थाप्य तदनन्तरमुतरवाक्यं पुरणीयमिति । 'पणिहा वसुदेवयाँ पन्नत्ता' धनिष्ठा वसुदेवता प्रज्ञप्ता, अर्थात् धनिष्ठा नक्ष त्रस्य देवता वैभवति इति । 'एवं एएणं कमेण यश अणुपरिवाडी' एवम्-उपर्युक्तेन एतेन प्रदर्शितेन क्रमेण-प्रकारेण अनुपरिपाटी-अभिजिदादि नक्षत्रपरिपाटीकमेग देवतानामावलिका ने तव्या भणितव्या 'इमाओ देवयाओ' इमा वक्ष्यमाणा ससा देवता भान्ति, तद्यथा-'बम्हा-विण्हु' ब्रह्मा विष्णुः 'वन वरुणे' वसुवरुणः 'अय अभिवद्धी' अनोऽभिवृद्धिः 'पूसे आसे' पुपनामको देवः नतु सूर्यपर्यायः तेन रेवत्येव पौष्णं सूर्यदेवताकमिति प्रसिद्धिः, अश्शनामको देव विशेषः 'जमे अग्गी' यमोऽग्निः, 'पयावईसोमे' प्रजापतिरपि देवविशेषः सोम चन्द्रनामको देवविशेषः, 'रुद्दे अदिती' रुद्रनामको देवविशेषः तथा अदितिः अदितिनामको देवविशेषः 'बहस्सई सम्पे' बृहस्पतिर्देवगुरुः तथाः करलेना चाहिये और वह इस प्रकार से-'एएसिणं भंते। अट्ठावोसाए णक्ख. ताणं सवणणखत्ते किं देवयाए पण्णत्ते गोयमा! सवणे णक्खले विण्हु देवयाए' पण्णत्ते' इसी तरह से सर्वत्र प्रश्न वाक्य उत्थापित करके उसके अनन्तर वाक्य की पूर्ति करलेना चाहिये । 'धणिट्ठा-वसुदेवया पन्नत्ता' धनिष्ठा-नक्षत्र का स्वामी वसुदेवता है 'एएणं कमेगं णेयचा अणुपरिवाडी इमाओ देवयाओ' इसी क्रम से-अभिजित् नक्षत्रादि की परिपाटी क्रम से-देवताओं की आवलिका कहलेना चाहिये 'वह देवताओं की आवलिका नामावली-इस प्रकार से है-'बम्हा, विण्ह, वसू, वरुणे, अय, अभिवद्धी, पूसे, आसे, जमे, अग्गी, प्रयावई, सोमे, रुद्दे, अदिति, वहस्सई, सप्पे, पिउभगे, अज्जम, सविआ, तट्ठा, वाउ इंदग्गी, मित्तो, निरइ आउ, विस्साय' ब्रह्मा विष्णु, वस्तु, वरुण, अज, अभिवृद्धि, पूषा, अश्व, " मालित ४ वे अन ते मा ५४:३-'एएसिणं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं सवणणक्खत्त किं देवयाए पण्णत्ते, गोयमा ! सवणे णक्खत्ते विण्हुदेवयाए पण्णत्ते' यावी જ રીતે સર્વત્ર પ્રશ્નાક્ય ઉથાપિત કરીને તેની અનન્તર ઉત્તરવાકયની પૂર્તિ કરી લેવી 2. धणिटा वसुदेवया पन्नत्ता' पनि नक्षत्रना स्वामी वसुदेवता छ 'एएणं कमेणं णेयव्वा अणुपरिवाडीइमाओ देवयाओं' मा भथी-ममिति नक्षत्राहिनी परिपाटीना કમથી-દેવતાઓની આવલિકા કહી લેવી જોઈએ. તે દેવતાઓની આવલિકા- નામાવલી – 20 प्रभाः छ-'बम्हा, विण्हू, वसू, वरुणे, अय, अभिवद्धी, पूसे, आसे, जमे, अग्गी, पयावइ, सोमे, रुद्दे, अदिति, बहस्सइ, सप्पे, पिउभगे, अज्जम, सविआ, तद्वा, वाउ, इंग्गी, मित्तो,' निरइ, आउ, विस्साय' ब्रह्मा, वि, वसु, १३९५, म, मामlayष। अश्व, ___ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० मम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्र सर्पः सर्वनामको देवविशेषः 'पिउभगे' पितृनामको देवविशेषः तथा भगनामको देवविशेषः, 'अज्जम सविया' अर्यमा देवविशेषः स्तथा सवितासूर्यः । 'तहा वाउ' नाष्टा-त्वष्ट नामको देवविशेषः तेन खाष्ट्री चित्रा इति प्रसिद्धम्, वायुः । 'इंदग्गी' इन्द्राग्नी, तन्द्रश्चाग्निश्च इति, इन्द्राग्नी, तेन विशाखाद्विदैवतमिति 'मित्तो इंदे' मित्रो मित्रनामको देवविशेषः तथा इन्द्रः 'निरई नतो राक्षस: 'आउ' आपः जलनामको देवविशेषः तेन पूर्वाषाढातोय मिति प्रसिझम् 'विस्साय' विश्वेदेवास्त्रयोदशः, अत्राभिजिन्नक्षत्रस्य देवो ब्रह्मा श्रवणस्य विष्णुरेवं प्रकारेण यथासंख्येन देवनक्षत्रयोः प्रकारो ज्ञातव्यः, अभिजिदादित आरभ्योत्तराषाढा पर्यन्तं देवना. माभियोजनीयमिति । संप्रति प्रकरणार्थ मुपसंहरन्नाह-एवं इत्यादि, 'एवं णक्खत्ताणं एया परिबाडी णेयव्या जाव उत्तरासाढा किं देवया पनसा ? गोयमा ! विस्सदेवया पन्नत्ता' एवं यम अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, अदिति, बृहस्पति, सर्प, पितृ, भग, अर्यमा, सविता, त्वाष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, मित्र, इन्द्र, नैऋत, आप, और विश्वा इनमें पूषा यह देव विशेष है सूर्य पर्याय रूप यह नहीं है रेवती नक्षत्र ही पूषा देवता वाला है यह बात प्रसिद्ध ही है। अश्व एक देवता विशेष है बृहस्पति भी देव विशेष है सोम चन्द्र नामक देव विशेष का नाम है अदिति भी एक देव विशेष है स्वाष्टा-स्वष्टादेव विशेष का नाम है इसी के निमित्त से चित्रा नक्षत्र को स्वाष्ट्री कहा गया है विशाखा नक्षत्र दो देवताओं वाला है इसी से इन्द्र और अग्नि को यहां उसके दो स्वामि रूप से कहा है नैऋत यह राक्षस विशेष है 'आप' से जल देवता कहा है इसी कारण पूर्वाषाढा नक्षत्र को 'तोय' ऐसे नाम से अभिहित किया गया है जैसा कि ऊपर में प्रकट किया गया कि अभिजित् नक्षत्र का देवता ब्रह्मा है, श्रवण नक्षत्र का देवता विष्णु है इसी प्रकार यथासंख्यरूप देवता और नक्षत्र का स्व स्वामी सम्बन्ध लगालेना चाहिये 'एवं णकूवत्ताणं एया परिवाडी યમ, અગ્નિ પ્રજાપતિ, સમ, રુદ્ર, અદિતિ, બૃહસ્પતિ, સર્પ, પિતૃ, ભગ અર્યમા સવિતા –ાષ્ટ્રા, વાયુ, ઈન્દ્રાગ્નિ, મિત્ર, ઈન્દ્ર, નેત, આપ, અને વિશ્વા આમાં પૂષા એ દેવ વિશેષ છે. સૂર્યપર્યાય રૂપ આ નથી રેવતી નક્ષત્ર જ પૂષાદેવતાવાળું છે એ વાત તે પ્રસિદ્ધ જ છે. અશ્વ એક દેવતા વિશેષ છે. બૃહસ્પતિ પણ દેવ વિશેષ છે. સેમચન્દ્ર નામ દેવ વિશેષનું નામ છે અદિતી પણ એક દેવ વિશેષ છે. ત્વષ્ટાત્વાષ્ટ્ર દેવવિશેષનું નામ છે. આના નિમિત્તથી ચિત્રા નક્ષત્રને ત્વાષ્ટ્રી કહેવામાં આવ્યું છે. આથી જ ઈન્દ્ર અને અગ્નિને અહીં તેના બે સ્વામી રૂપથી કહેવામાં આવેલા છે. નૈઋત એ રાક્ષસ વિશેષ છે. “આથી જળદેવતા કહ્યા છે આ કારણે જ પૂર્વાષાઢા નક્ષત્રને તેય એવા નામથી અભિહિત કરવામાં આવેલ છે. જેમકે-ઉપર પ્રકટ કરવામાં આવ્યું કે અભિજિત નક્ષત્રના દેવતા બ્રહ્મા છે શ્રવણ નક્ષત્રના દેવતા વિષ્ણુ છે એવી જ રીતે યથાસંખ્ય રૂપથી देवता मन नक्षत्रनास्वामीसमन्य व मे. 'एवं णवत्ताणं एया परिवाडी , Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार: सू. २२ नक्षत्राणां देवताद्वारनिरूपणम् नक्षत्राणामेषा परिपाटी नेतव्या यावत् उत्तराषाढा कि देवता प्रज्ञप्ता ? गौतम ! विश्वदेवता प्रज्ञप्ता 'एवमभिजिदादि प्रदर्शितप्रकारेण नक्षत्राणां श्रवणादीनाम् एषा उपर्युक्ता परिपाटी देवतानाम् नामावळिका नेतत्र्या-पणितव्या कियत्पर्यन्तमेषा परिपाटी अनुसरणीया तत्राह - 'जाव' इत्यादि. यावत् उत्तराषाढा कि देवता प्रज्ञप्ता ? भगवानाह - हे गौतम ! उत्तराषाढा विश्वदेवता प्रज्ञता - कथितेति पर्यन्तं यावत्पदग्राह्यं भवति, तत्रैतया ब्रह्मविष्णुवरुणादिलक्षणया परियाया नतु परतिर्थिकप्रयुक्त अवश्ययमदहन कमलजादि - रूपया नेतव्या - परिसमाप्ति प्रापणीया यावदुत्तराषाढा कि देवता प्रज्ञप्ता- कथिता ? गौतम ! विश्वदेवता प्रज्ञप्तेति ॥ सम्प्रति-कस्मिन् नक्षत्रे कि त्यस्ता भवन्तीति दर्शयितुं तारा संख्या द्वारमाह- 'एए सिणं' इत्यादि, 'एएसिणं भंते!" एतेषां खलु भदन्त ! ' अट्ठावीसाए णक्खत्तार्ण' अष्टाविंशते रष्टाविंशति संख्यकानां नक्षत्राणाम् अभिविदादि उत्तराषाढा नक्षत्रान्तानां मध्ये 'अभिई णक्खत्ते' अभिजिन्नामकं नक्षत्रम् कइतारे पश्नत्ते' कतितारं प्रज्ञप्तं कथितम्, तत्र कति - कियत्संख्यका स्तारा अस्य इति तारं भवतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम! तितारे पन्नत्ते' त्रिवारं प्रज्ञप्तं तिस्रस्तारः कथितम्, विद्यन्ते स्येति त्रितारं प्रज्ञप्तं कथितम्, तारा शब्देनात्र यच्चा जाव उत्तरासादा किं देवया पश्नत्ता' अन्तिम नक्षत्र उत्तराषाढा है सो यह देवता परिपाटी वहीं तक क्रमशः चलती जावेगी इस तरह वहां पर अन्त में जब ऐसा प्रश्न होगा कि उत्तराषाढा नक्षत्र का स्वामी कौन देवता है ? तो वहां पर ऐसा उत्तरदेना चाहिये कि हे गौतम! उत्तराषाढा का स्वामी विश्वे देवता है ! अब किस नक्षत्र में कितने तारे हैं यह प्रकट किया जाता है - इस में यही प्रश्न गौतमस्वामीने किया है 'एएसि णं भंते! अट्ठावीसाए णक्वत्ताणं अभिजिई क्खते कई तारे पण्णत्ते' हे भदन्त ! इन प्रदर्शित २८ नक्षत्रों मे जो अभिजित नक्षत्र हैं वह कितने तारों वाला है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! तितारे पण्णत्ते' हे गौतम! अभिजित् नक्षत्र तीन तारों वाला है यहां प्रकरण ज्योतिष्क के सम्बन्ध का चल रहा है अतः तारा शब्द से यहां ज्योतिष्क विमानों का यध्वा जाव उत्तरासाढा कि देवया पन्नत्ता' अन्तिम नक्षत्र उत्तराषाढा छे तो या देवता પરિપાટી ત્યાં સુધી જ ક્રમશ ચાલતી રહેશે. આ પ્રમાણે ત્યાં અન્તમાં જ્યારે એવા પ્રશ્ન થશે કે ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રના સ્વામી કયા દેવતા છે ? તે ત્યાં એવા જવાબ આપવા એઇએ કે-૪ ગૌતમ ! ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રના સ્વામી વિશ્વ દેવતા છે. હવે યા નક્ષત્રમાં કેટલા તારા છે એ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આમાં એજ પ્રશ્ન गौतमस्वाभीये ये छे - 'एएसि णं भंते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिजिई णक्खत्ते कइ तारे पण्णत्ते' हे महन्त ! या प्रदर्शित २८ नक्षत्रमां ने समिति नक्षत्र हे ते उदा ताशवाणु छे ? खाना वामां अलु उडे - 'गोयमा ! तितारे पण्णत्ते' हे गौतम ! અભિજિત્ નક્ષત્ર ત્રણ તારાવાળું છે. અત્રે નૈતિષ્કના સમન્ધનું પ્રકરણું ચાલી રહ્યું Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ अम्बूद्वीपप्रचप्तिसूत्र ज्योतिष्कविमानानि प्रकरणात् नक्षत्रजातीया ज्योतिष्कानां विमानानि इत्यर्थः संपद्यते, नत्वत्र पश्चनजातीय ज्योतिष्कास्तरकाः, नहिविभिन्न जातीयानां ताराणां द्वित्रादि विमानैरेकं नक्षत्रमित्याकारको व्यवहारः साधीयान् (सम्यक्) अन्यजातीयविमानसमुदाये नान्य जातीयः समुदायी भविष्यति विरोधात्, नक्षत्राणां विमानानि महान्ति भवन्ति, ताराणां विमानानि तु लघूनि, तथा जम्बूद्वीपनामक सर्वमध्यवर्ति द्वीपे एक चन्द्रस्य तारकाणां कोटाकोटीनां पट्पष्टिः सहस्राणि नवशतानि पञ्चसप्ततिश्च या संख्या कथिता सापि अतिशयति, नात्रसंख्या च अष्टाविंशतिरूपा सा मूलत एव समुच्छिद्येत ! अर्थतेषां ताराविमानानां के स्वामिनो भवन्ति इति चेदत्रोच्यो-अभिजिदादि नक्षत्राण्येव स्वामिनो भवन्ति, तथा कश्चित धनाधिपति धनाढयो गृहद्वयस्य गृहत्रयस्य चाधिपति भवतीति । एवं णेयव्वा जस्स जश्याओ ताराओ' ही ग्रहण हुआ है ज्योतिष्क के भेदों की गणना में जो पांच घे भे रूम तारा रूप है वे यहां गृहीत नहीं हुए हैं। क्योंकि विभिन्न जातीय ताराओं के दो तीन आदि विमानों से युक्त एक नक्षत्र है ऐसा व्यवहार सम्यक नहीं होता है अन्य जातीय के विमान समुदाय में अन्य जातीय समुदायी नहीं होगा क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता हैं नक्षत्रों के विमान बहुत बडे होते हैं और ताराओं के विमान छोटे होते हैं तथा जम्बूद्वीप नाम के सर्वेमध्यवर्ति द्वीप में एक चन्द्र के तारों की ६६९७५ जो संख्या कही गई है वह भी अतिशयित है क्योंकि नक्षत्रों की तो संख्या मूल में २८ ही है । सो एसी मान्यता में वह भंग हो सकता है। इन तारा विमानों के स्वामी कौन है ? इस आशंका में यह प्रकट किया जाना है कि जैसा कोइ धनाधिपति धनाढय गृह द्वय का या गृह त्रय का स्वामी होता है इसी प्रकार से अभिजित् आदि नक्षत्र ही इन के स्वामी होते हैं एवं यन्या છે આથી તારા શબ્દથી અહીં જતિષ્કના ભેદેની ગણનામાં જે પાંચમા ભેદ રૂપ તારા રૂ૫ છે તે અહીં ગૃહીત થયાં નથી પરંતુ તિષ્ક વિમાનનું જ ગ્રહણ થયું છે, કારણ કે વિભિન્ન જાતીય તારાઓના બે ત્રણ આદિ વિમાનેથી યુક્ત એક નક્ષત્ર છે એ વ્યવહાર સમ્યફ થતું નથી, અન્ય જાતીયના વિમાન સમુદાયમાં અન્ય જાતીય સમુદાયી થશે નહીં કારણ કે આ પ્રમાણે થવામાં વિરોધાભાસ થાય છે. નક્ષત્રના વિમાન મહાકાય હાય છે જ્યારે તારાઓના વિમાન નાના કદના હોય છે તથા જમ્બુદ્વીપ નામના સર્વ મધ્ય વતિ દ્વીપમાં એક ચન્દ્રના તારાની જે ૬૬૯૭ની સંખ્યા કહેવામાં આવી છે તે પણ અતિશક્તિ ભરેલી છે કારણ કે નક્ષત્રોની સંખ્યા જે મૂળમાં ૨૮ જ છે તેથી આવી માન્યતામાં તેને ભંગ થઈ શકે છે. આ તારા વિમાનેના સ્વામી કોણ છે? આ આશંકામાં એ પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે જેમ કે ધનાધિપતિ-ધન ય બે ઘરને અથવા ત્રણ ધરને સ્વામી હોય છે. એવી જ રીતે અભિજિત્ આદિ નક્ષત્ર જ એમના સ્વામી હોય छ. 'एवं णेयव्वा जस्स जइयाओ ताराओ' भनित नक्षत्रमा प्रतिपादित पद्धतिना Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सु. २२ नक्षत्राणां देवताद्वार निरूपणम् 1 9 7 एवममजिनक्षत्रन्यायेन नेतव्या यस्य नक्षत्रस्य यावत्यो यावत्संख्यकाः तारास्ता नेतव्याः 'इमेव तं वाररग' इदं वक्ष्यमाणं तत् तासग्रम्-तारासंख्यापरिमाणम् यस्य नक्षत्रस्य यावती तारा, दासां ताराणां संख्याप्रदर्शन मित्थम् भवति, तद्यथा - 'तिगतिग़ पंचग सयदुग' त्रिक त्रिकं पंचकं शतं द्विकम् तत्रमिजिनक्षत्रस्य त्रिकं तारा त्रितयं भवति, एवं त्रिकं तारात्रितयं श्रवण नक्षत्रस्य भवति, तथा धनिष्ठा नक्षत्रस्य तारा पञ्चकं भवति, तथा शतभिषक् नक्षत्रस्य ताराशतं भवति । पूर्वभाद्रपद नक्षत्रस्य ताराद्वयं भवति । 'दुगबत्तीसतिगं तह तिगंच' द्विकं द्वात्रिंशत् किं तथा त्रिकं च तत्रोत्तरभाद्रपद नक्षत्रस्य ताराद्विकं भवति, रेवती नक्षत्रस्य द्वात्रिंशारा भवन्ति, अश्विनी नक्षत्रस्यापि तारा त्रिकं भवति तथा भरणी नक्षत्रस्यापि तारा त्रिकं भवति 'छपंचगतिग एकगपंचग तिगछकगं चेव' षट्पञ्चकं त्रिकमेककं पञ्चकं त्रिकं षट्कं चैव तत्र कृत्तिकाया स्तारा पट्कम्, रोहिणी नक्षत्रस्य तारा पञ्चकम्, मृगशिरसस्तारा त्रिभवति नक्षत्रस्यैककं तारा विमानं भवति, पुनर्वष्ठ नक्षत्रस्य तारा पञ्चकं भवति, ● पुष्यनक्षत्रस्य तारा त्रिकं भवति, अश्लेषा नक्षत्रस्प तारा षट्कं भवतीति । 'सतग दुगदुग जस्त जइयाओ ताराओ' अभिजित नक्षत्र में प्रतिपादित पद्धति के अनुसार जिस नक्षत्र के जितने तारे हैं वे नक्षत्र ही उन तारों के अधिपति हैं ऐसा जानरा चाहिये सो अब यही प्रकट किया जाता है कि किन किन नक्षत्रों के कितने कितने तारे हैं- 'तिग तिस पंचग सय दुग' अभिजित नक्षत्र के तीन तारे है अवण नक्षत्र के भी तीन तारे हैं धनिष्ठ नक्षत्र के पांच तारे हैं शतभि नक्षत्र के है सो तारे हैं, पूर्व भाद्रपदा नक्षत्र के दो तारे हैं 'दुग बत्तीसतिगं तह तिनंच' उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र के दो तारे है रेवती नक्षत्र के ३२ तारे हैं अश्विनी नक्षत्र के ३ तारे हैं भरणी नक्षत्र के ३ तारे हैं 'छष्पंत्रक तिग एक्कग पंचगति छकांचेव' कृत्तिका नक्षत्र के ६ तारे है रोहिणी नक्षत्र के ५ तारे है मृगशिरा नक्षत्र के तीन तारे हैं आर्द्रा नक्षत्र का एक तारा है पुनर्वसु नक्षत्र के पांच तारे हैं पुष्य नक्षत्र के ३ तारे है अश्लेषा नक्षत्र के ६ तारे है 'सत्तग दुग નુસાર જે નક્ષત્રના જેટલા તારા છે તે નક્ષત્ર જ તે તારાઓના અધિપતિ છે. એમ જાણવુ જોઈએ આથી હવે એ જ પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે કયા કયા નક્ષત્રોના કેટલા डेंटला तारा छे ? ‘तिगतिग पंचग सयदुग' मलिनित नक्षत्रनात्र-तारा. श्रवणु નક્ષત્રના પણ ત્રણું તારા છે. ધનિષ્ઠા નક્ષત્રના પાંચ તારા છે. શતભિષક નક્ષત્રના એકસ तारा छे, पूर्वप्रहा नक्षत्रनामे तारा छे 'दुगबत्तीसतिगं वह तिगं च ' उत्तरभाद्रया નક્ષત્રના છે તારા છે. રેવતી નક્ષત્રના ૩૨ તારા છે. અશ્વિની નક્ષત્રના ૩ તારા છે. भरणी नक्षत्रना 3 तारा छे. 'छप्पन्नं कृतिग एक्कग पंचगतिग छक्कगं चेव' इतिठा नक्षत्रना છ ત ર છે. રોહિણી નક્ષત્રના ૫ તારા છે. મૃગશિરા નક્ષત્રના ત્રણ તારા છે. આર્દ્ર નક્ષાના એક તાર છે. પુન`સુ નક્ષત્રના પાંચ તારા પુષ્ય નક્ષત્રના રૂ તારા છે અશ્લેષા Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ अम्बनीपप्राप्तिसूत्रे पंचग एकेकग पंव चउतिगं चेव' सप्तकं द्विकं द्विकं पञ्चक मेकैककं पञ्चकं चतुस्तिकं चैव, तत्र मघानक्षत्रस्य तारा सप्तकं भवति, पूर्वकाल्गुनी नक्षत्रस्य तारा द्विकं भवति, तथा उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रस्यापि तारा द्विकमेव भवति, हस्तनक्षत्रस्य तारा पञ्चकं भवति, चित्रानक्षत्रस्य एकमेव तारा विमानं भवति तथैव स्वाती नक्षत्रस्यापि एकमेव ताराविमानं भवति, विशाखा नक्षत्रस्व तारापञ्चकं भवति, अनुराधानक्षत्रस्य तारा चतुष्कं भवति, ज्येष्ठानक्षत्रस्य तारात्रिकं भवतीति । 'पक्कारसा च उक्कं चउक्कगे चेव तारग्गं' एकादशकं चतुष्कं चतुष्कमेव च ताराग्रम, तत्र मूलनक्षत्रस्यैकादशकमेकादशसंख्याकं ताराविमानम्, तथा पूर्वाषाढानक्षत्रस्य ताराचतुष्कं भाति, उत्तराप ढा नक्षत्रस्यापि ताराचतुष्कमेव भवति, ताराग्रम् उपयुक्तप्रकारेण तारा संख्यापरिमाणं व्याख्यातं भवति । अथात्र प्रतिनक्षत्रं तारा संख्यापरिमाणप्रदर्शनस्य किं प्रपोजनमिति चेदत्रोच्यते-यन्नक्षत्रं यावत्तारासंख्यापरिमाणकं भवति तत्संख्यकां तिथिं सर्वत्र शुषकामे वजेयेत्, यथा शतभिषग् रेवती नक्षत्रयोः क्रमेण शतस्य द्वात्रिंशतश्च दग पंचग एक्केकग पंच चउतिगं चेव' मघा नक्षत्र के सात तारे है पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे है उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के भी २ तारे हैं हस्त नक्षत्र के पांच तारे हैं, चित्रा नक्षत्र का एक ही तारा विमान है इसी तरह स्वाति नक्षत्र का भी एक ही तारा विमान है विशाखानक्षत्र के ५ तारे हैं अनुराधा नक्षत्र के ४ तारे हैं ज्येष्ठा नक्षत्र के ३ तारे हैं 'एकारसगच उक्क चउक्कगंचेव तारगं' मूल नक्षत्र के ११ सारा विमान हैं पूर्वाषाढा नक्षत्र के चार तारे हैं उत्तराषाढा नक्षत्र के भी चार तारें है इस तरह से यह नक्षत्रों के ताराओं की संख्या का प्रमाण कहा गया है। __ शंका-यहां हर एक नक्षत्र के ताराओंकी संख्या का परिमाण प्रदर्शित करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर-जो नक्षत्र जितने ताराओं की संख्या वाला कहा गया है उस संख्या वाली तिथि सदा शुभ काम में छोड देनी चाहिये जैसे-शतभिषा नक्षत्र के एक नक्षत्रनता । छ, 'सत्तगद्गदुग पंचग एक्केकग पंचगउ तिगं चेव' मघा नक्षत्रना सात તારા છે. પૂર્વ ફાગુની નક્ષત્રના બે તારા છે, ઉત્તરાફાલગુની નક્ષત્રના પણ બે તારા છે. હસ્ત નક્ષત્રના પાંચ તારા છે ચિત્રા નક્ષત્રનું એક જ તારા વિમાન છે એ જ રીતે સ્વાતિ નક્ષત્રનું પણ એક જ તારાવિમાન છે. વિશાખા નક્ષત્રના ૫ તારા છે અનુરાધા નક્ષત્રના या२ ता२। छे. न्ये नक्षत्रना 3 तारा छे. 'एक्कारसगचउक्कं चउक्कगं चेव तारगं' भूग નક્ષત્રના ૧૧ તારા વિમાન છે, પૂર્વાષાઢા નક્ષત્રના ચાર તારા છે, ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રને પણ ચાર તારા છે. આ રીતે આ નક્ષત્રના તારાઓની સંખ્યાનું પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યું છે. - શંકા-અહીં દરેક નક્ષત્રના તારાઓની સંખ્યાનું પરિમાણ પ્રદર્શિત કરવાનું શું प्रयोग छ ? ઉત્તર-જે નક્ષત્ર જેટલા તારાઓની સંખ્યાવાળું કહેવામાં આવ્યું છે તે સંખ્યાવાળી તિથિ સદા શુભ કાર્યમાં છોડી દેવી જોઈએ જેમકે-શતભિષફ નક્ષત્રના એકસે તારા અને Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारा स्, २२ नक्षत्राणां गोत्रद्वारनिरूपणम् तिथिभिर्भागे हृते सति यदवशिष्टं तत्प्रमाणा तिथिः शुभकार्ये सर्वत्र वर्जनीयेति द्वाविंशतिसूत्रस्य व्याख्यायां देवताद्वारं समाप्तिपूर्वकं सूचव्याख्यानमपि समाप्तं भवति ॥ सू• २२॥ अथगोत्रद्वारमाह ॥ अत्र यद्यपि नक्षत्राणा मभिजिदादीनां स्वरूपतो न गोत्रसंभवः, यतो लोके एवं दृश्यतेयथा गर्गस्यायत्य संतानो गर्गगोत्रमिति, न खलु एतादृशं गोत्रं संभवति नक्षत्राणाम्, नक्ष. त्राणामौपातिकत्वात् तथापि यस्मिन् नक्षत्रे शुभैरशुभैर्वा ग्रहैः समानं यस्य गोत्रस्य यथाक्रम शुभमशुभं वा यथाक्रमं भवति तदेव गोत्रं तस्य नक्षत्रस्य भवतीति कृत्वा नक्षत्राणामपि गोत्रसंभवो भवति ततो गोत्रप्रश्नार्य तत्सूत्रमाह-'एएसिणं भंते ! अट्ठाविसाए णक्खत्ताण' इत्यादि । मूलम्-एएसि णं भंते ! अठ्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किं गोत्ते पन्नत्ते ? गोयमा ! मोग्गलायणसगोत्ते पन्नत्ते गाहा-मोग्गलायण१ संखायणे य२ तह अग्ग भाव३ कणिल्ले४ । तत्तो य जाउकण्णे५ धणंजए६ चेव बोधब्वे ॥१॥ पुस्सायणे य७ अस्सायणे य८ भग्गवेसे य९ अग्गिवेसे य१०। गोयमं भारदाए १२ लोहिच्च चेव वासिटे१४ ॥२॥ ओभज्जायण१५ मंडव्वायणे य१६ पिंगायणे य गोवल्ले कासवकोसिय२० दव्भाय चामरच्छाय सुंगाय२३ ॥३॥ गोवल्लायण तेगिच्छायणे य कच्चायणे२६ हवइ मूले । तओ य वज्झियायण बग्घावच्चे य गोत्ताई ॥४॥ एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! गोसीसालिसंठिए पन्नत्ते, गाहा-गोसीसावलि? काहार२ सउणी३ पुप्फोवयार४ वावीय५ । णावा आसक्खंधग भगछरधरएअ सगडुद्धी ॥१॥ सौ तारा और रेवती नक्षत्र के ३२ तारा कहे गये हैं इन में तिथि की संख्या का भाग देने पर जो बाकी बचे उस प्रमाण तिथि शुभकार्य में सर्वत्र वर्जनीय कहा गया है। २२ देवताद्वार समाप्त રેવતી નક્ષત્રના ૩૨ તારાઓ કહેવામાં આવ્યા છે, આમાં તિથિની સંખ્યાને ભાગવામાં આવે અને જે શેષ વધે તે પ્રમાણતિથિ–શુભકાર્યમાં સર્વત્ર વર્જનીય કહેવામાં આવેલ છે. સૂરરા દેવતાદ્વાર સમામ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति मिगसीसावलि १२ रुहिर बिंदु २३ तुल्ल १४ वद्धमाणग१५ प डागा १६ । पागारे पलियंगे १८ हत्थे सुहफुल्लए२१ चैत्र ॥२॥ खीलगदा मणिएगावलि य गयदंत विच्छ्रय अले य२६ । गयविकमेय ततो सीहनिलोहय१८ संठाणा ॥३॥ ति तओवीसइ सुत्तस्स मूलं ॥ सू० २३ ॥ छाया - एतेषां खलु भदन्त ! अष्टाविंशदिनक्षमाणा मभिजिम्नक्षत्रं किं गोत्रं प्रज्ञतम् ? गौतम ! मौद्गल्यायनसगोत्रं प्रज्ञम्, W. गाथा - मौङ्गल्यायनं १ सांख्यायनं च तथा अग्रभावं ३ कणिल्लम् । ततश्च जातुकर्ण धनंजयं चैव बोद्धव्यम् । पुष्याणं चाश्वायनं च भार्गवेश्यं चाग्निवेश्यं च । गौतमं च भारद्वाजं लौहित्यं चैत्र वाशिष्ठम् १४ ||२|| गोमज्जायनं माण्डव्यायनं च पिंगायनं च गोवल्लम् । काश्यपं कौशिकं दायनं चागरच्छायनंऽशुगायनम् २३ ॥ ३ ॥ गोवल्यायनं ते गच्छायनं कात्यायनं भवति मूलम् । तत बाभ्रव्यायनं व्याघ्रापत्यं च गोत्राणि ॥ ४ ॥ ॥ एतेषां खलु भदन्त ! अष्टाविंशति नक्षत्राणा मभिजिनक्षत्रं किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गौतम 1 गोशीर्षावलिसंस्थितं प्रज्ञप्तम्, गाथा - गोशीपवलिः यः कासारः शकुनिः पुष्पोपचारोतापी च । atter स्कन्धः भगः क्षुरधारश्च शकटोद्धी । मृगशीर्षावलिः रुधिर चिन्दु स्तुळावर्द्धमानकं पताका । प्राकारः पर्यङ्कः स्तोमुखपुष्पकं चैव । कीलकं दाम एकावलिच गजदन्तो वृविकलाङ्गूलम् | गजविक्रमश्च ततः सिंहनिषीदनं च संस्थानम् ॥ सू० २३ ॥ गोत्रद्वार यद्यपि अभिजित् आदि नक्षत्रों का स्वरूप से कोई गोत्र संभववित नही होता है क्योंकि लोक में ऐसादेखा जाता है कि जैसे गर्ग की जो संतान- अपत्य होती है वह गर्ग गोत्र कही जाती है सो नक्षत्रों के ऐसा गोत्र तो संभवता ગેત્રદ્વાર જે કે અભિજિત્ આદિ નક્ષત્રાના સ્વરૂપથી ટાઇ ગાત્ર સંભવિત થતું નથી કારણુ કે લેકમાં એવુ' જોવામાં આવે છે કે જેમ ગનુ કેઇ સ ંતાન-અપત્ય હોય તો તેનુ ગગ ચેત્ર કહેવામાં આવે છે પરન્તુ નક્ષત્રનુ આવું ગેાત્ર તેા સભવિત નથી કારણ કે Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार-सू. २२ नक्षत्राणां गोत्रद्वारनिरूपणम् टीका-'एएसि णं भंते !' एनेषा मुपर्युकानां खलु भदन्त ! 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशत: अष्टाविंशति संख्यकानां नक्षत्राणां मध्ये अभिई णवत्ते' अभिजिनामकं नक्षत्रम् 'किंगोत्ते पन्नत्ते' किं गोत्रं प्रज्ञप्तं कथित मिति अभिजिदादि नक्षत्राणां गोत्रविषयकः प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा दे गौतम ! 'मोग्गलायणसगोत्ते पन्नत्ते' मौद्गल्यायनसगोत्रं प्रज्ञप्तम् तत्र मौद्गल्यापन मौद्गल्यगोत्रीयैः सह सगोत्रं समानगोत्रं मौद्गल्यायनसगोत्रमित्यर्थः तथा वा भिजिनक्षत्रं मोद्गल्यगोत्रं भवतीति भावः। एवमेवाग्रेऽपि सांख्यायनादि गोत्रं तत्तन्नक्षत्राणां गोमप्रदर्शनाय लाघवार्थं गाथामाह-'गाहा' इत्यादि, 'गाहा' गाथा-सर्वेषां गोत्र संग्राहकः श्लोकः तद्यथा-'मोग्गलाथणसंखायणेय तह कही है क्योंकि ये नक्षत्र औपपातिक जन्मवाले होते हैं फिर भी जिन नक्षत्र में शुभ अथवा अशुभ ग्रहों के द्वारा जिस गोत्र में समानता होती है अथवा शुभ अशुभता होती है उस नक्षत्र का वही गोत्र होता है ऐसे विचार से ही नक्षत्रों में भी गोत्र की संभवता होती है इसी का अब प्रतिपादन किया जा रहा है 'एएसिणं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' टीकार्थ-'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णवत्ताणं' हे भदन्त इन २८ नक्षत्रों के बीच में 'अभिई णक्खत्त' जो अभिजित् नक्षत्र है 'किं गोत्ते' उसका गोत्र कौनसा कहा गया है ? अर्थात् अभिजित् नक्षत्र का कौनसा गोत्र पूर्वाचार्यों ने कहा हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! मोग्गलायणसगोत्ते पन्मत्ते' हे गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का मौद्गल्य गोत्रवालों के साथ गोत्रमौद्गल्यायनसगोत्र-अर्थात् मौद्गल्यगोत्र कहा गया है मौद्गल्यगोत्रीय वालों के समान जिसका गोत्र होता है वह मौद्गल्यायनसगोत्र हैं इसी तरह आगे આ નક્ષત્રો પપાતિક જન્મવાળા હોય છે. તે પણ જે નક્ષત્રમાં શુભ અથવા અશુભ ગ્રહ દ્વારા જે ગોત્રમાં સમાનતા હોય છે, અથવા શુભ અશુભ હોય છે તે નક્ષત્રનું તેજ ગોત્ર હોય છે, આવા વિચારથી જ નક્ષત્રોમાં પણ ગેની સંભવતા હોય છે એ બાબત હવે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવે છે. 'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' A-3 महन्त ! ॥ १४यावीस नक्षत्री मध्ये 'अभिइणक्खत्ते' 2 मित् नक्षत्र छ 'किं गोते तेनु गोत्र युवामा व्यु छ १ अर्थात् ममिति नक्षत्रनु ४यु गोत्र छ ? माना सामु ४३ छ 'गोयमा! मोग्गलायणसगोत्त पण्णत्ते' ગૌતમ ! અભિજિત્ નક્ષત્રનું મૌગલ્ય ગોત્રવાળાઓની સાથેનું ગોત્ર-મૌદૂગલ્યાયનસગોત્રઅર્થાત્ મૌદૂગલ્ય ગાત્ર–કહેવામાં આવ્યું છે, નૌગલિય શેત્રીયવાળાઓની જેમ જેનું ગોત્ર હોય છે તે મૌદૂગલ્યાયનસગોત્ર છે એવી જ રીતે આગળ પણ સંખ્યાયનાદિ ગોત્રે વિશે પણું સમજવાનું છે, સૂવારે જે સંગ્રહ ગાથા કહી છે તેને નક્ષત્રના સંક્ષેપથી શેત્ર Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अग्गभावकणिल्ले' मौद्गल्यायनं सांख्य यनं च तथा अग्रभाव कणिल्लम् तत्राभिनिनक्षत्रं मोद्गल्यायनं मोद्गल्यगोत्रम् श्रायननं सांख्यायनं सांख्यायनगोत्रम् धनिष्ठा नक्षत्रम् अग्रभावम् अग्रभावगोत्रम् शतभिषा नक्षत्रं कणिल्लम्-कणिल्लगोत्रम्, 'तत्तोय जाउकणं धणंजए चेव बोधवे' ततश्च जातुकर्ण धनंजय चव बोद्धव्यं पूर्वभाद्रपानक्षत्रं जातु कर्णगोत्रम्, उत्तरभाद्रपदं नक्षत्रं धनञ्जयगोत्रं ज्ञातव्यम् 'पुस्सायणे य अस्सायणे २ भग्गवेसेय अग्गिवेस्से' पुष्यायनं चाश्वायनं च भार्गवेशं चाग्जिनेश्यं च, तत्र रेवतीनक्षत्रं पुष्यारनगोत्रम्, तथा अश्विनी नक्षत्रम् आश्वायनगोत्रम् भरणीनक्षत्रं च भार्गवेशगोत्रम् कृतिकानक्षत्रम् अग्नि वेश्यनक्षत्रम् भवति । 'गोयमं भरदार लोहिच्चे चेव वासिटे' गौतमं भारद्वाज लोहित्यं चैव वासिष्ठम् तत्र रोहिणी नक्षत्रं गौतमगोत्रम् मुगशिरो नक्षत्रं भारद्वाज गोत्रम् आर्द्रा नक्षत्रं लौहित्यायनगोत्रम् पुनर्वसु नक्षत्रं वशिष्ठगोत्रं भवतीति ज्ञात यस् 'ओमज्जायण मंडब्वायणेय पिंगायणेष गोयल्ले' अवमज्जायनं मांडव्यायनं किंगापन च गोवल्टम् भी सांख्यायनादि गोत्रां को भी जानना चाहिये सूत्रकार ने जो संग्रह गाथा कही है वह उन उन नक्षत्रो के संक्षेप से गोत्र प्रदर्शन के लिये कही है वह गाथा इस प्रकार से है-'मोग्गलायण संखायणेय तह अग्गभावकणिल्ले' यह तो उपर प्रकट ही कर दिया है कि अभिजितू नक्षत्र का गोत्र मौद्ग ल्य है श्रवण नक्षत्र का गोत्र सांख्याधन है धनिष्ठानक्षत्र का गोत्र अग्र भाव है शतभिषा नक्षत्र का गोत्र कणिल्ल है 'तत्तो य जाउकाणं धणंजए य बोधवे' पूर्व भाद्रपदा नक्षत्र का गोत्र जातुकर्ण है उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र का गोत्र धनञ्जय है 'पुस्सायणेय अस्सायणेय भग्गवेसेय अग्गिवेरसे' रेवती नक्षत्र का गोत्र पुष्यायन है अश्विनी नक्षत्र का गोत्र आश्वायन है भरणी नक्षत्र का गोत्र भार्गवंश है कृत्तिका नक्षत्र का गोत्र अग्निवेश्य है (गोयनं भरद्दाए लोहिच्चे चेव वासि?' रोहिणी नक्षत्र का गोत्र गौतम है मृगशिरा नक्षत्र का भारद्वाज गोत्र है आर्द्रा नक्षत्र का लोहित्यायन गोत्र है पुनर्वसु नक्षत्र का वसिष्ठ गोत्र है पद्धति माटे हे छ. आया २५॥ प्रमाणे छ-'मोग्गलायणसंखायणे य तह अग्गभायक जिल्ले' तो अ५२ ४८ ४री हेमा व्यु छ है ममिशित नक्षत्रनु ग.त्र मी.क्ष्य છે શ્રવણ નક્ષત્રનું નેત્ર સાંખ્યયન છે. ધનિષ્ઠા નક્ષત્રનું નેત્ર અગ્રભાવ છે, સલિ नक्षत्रनु नाम गोत्र शुस छे. 'तत्तो य जाउकण धणंजए चेव बोद्धव्वे' पूर्व भाद्रपहा नक्षत्रनु गात्र तु छ, उत्तासादयः। नक्षत्रनु गोत्र यनय छे. 'पुस्सायणे य अस्सायणे य भग्गवेसे य अग्गिवेस्से य' रेवती नक्षत्रनु गोत्र पुयायन छ. अश्विनी नक्षत्रनु ગોત્ર આશ્વાયન છે. ભરણી નક્ષત્રનું નેત્ર ભાર્ગવંશ છે કૃત્તિકાનક્ષત્રનું ગોત્ર અગ્નિવેશ્ય छ. 'गोयमं भरदाए लोहिच्चे चेव वासि?' शडियानक्षत्रनु गोत्र गौतम छे. भृगशिरा नक्षत्रनु ભારદ્વાજ ગોત્ર છે. આદ્રનક્ષત્રનું લેહિત્યાયન ગેત્ર છે પુનર્વસુનક્ષત્રનું વસિષ્ઠ ગેત્ર છે 'ओमज्जायणमंडव्वायणे य पिंगायणे य गोवल्ले' अध्यनक्षतर्नु समय मात्र छे, Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकविका टीका सप्तमवक्षस्कारः सू. २२ नक्षत्राणां गोत्रद्वारनिरूपणम् ३४६ तत्र पुष्यनक्षत्रम् अवमजायनगोत्रं भवति अश्लेपानक्षत्रं माण्डव्यायनगोत्रम् भवति, मघानक्षत्रं पिंगायनगोत्रम् भवति, पूर्वफालानीनक्षत्रम् गोवल्लं गोवल्ल. यनगोत्रं भवति, 'काप्सनकोसियदभाय चामरच्छाय सुंगाय' काश्यपं कौशिकं दर्भाश्च चामरच्छायनाशुंगाश्च, तत्रोत्तरफाल्गुनी नक्षत्रं काश्यपगोत्रं भवति तथा हस्तनक्षत्रम् कौशिकगौत्रं भवति चित्रा नक्षत्रं दार्भायनगोत्रं भवति, स्वाती नक्षत्रं चामरच्छायनगोत्रं भवति, विशाखा नक्षत्रं शुंगायनगोत्रं भवति । 'गोवल छायण तेगिच्छायणे य कच्चायण हवइमूले' गोवल्यायनं तेगिच्छायनं च 'चिकित्सायनं' कात्यायनं भवति मूलम्, तत्रानुराधानक्षत्रं गोवल्यायनगोत्रं भाति, ज्येष्ठा नक्षत्रं चिकित्सायनगोत्रं भवति, मूलनक्षत्रं कात्यायनगोत्रं भवति इति । 'तीय वज्झियायण वग्यावच्चेय गोत्ताई' ततश्च बाभ्रव्यायनं व्याघ्रापत्यं च गोत्राणि, उत्तरभाद्रपद नक्षत्रं बाभ्रव्यायन गोत्रं भवति उत्तराषाढा नक्षत्रं तु व्याघ्रापत्यगोत्रं भवतीति एतानि यथा क्रममभिजिदादि उत्तरापर्यन्तनक्षत्रगोत्राणि भवन्तीति गोत्रद्वारमिति सम्प्रति संस्थानद्वारमाह-एएसिणं इत्यादि. 'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' एतेषामुपयुकाना मष्टाविंशते रष्टाविंशति सख्यकानां नक्षत्राणामभिजिदादीनां मध्ये 'अभिई 'ओमज्जायण मंडव्यायणे य पिंगायणे य गोवल्ले' पुष्य नक्षत्र का अवमज्जायन गोत्र है अश्लेषा नक्षत्र का मांडव्यायन गोत्र है मघानक्षत्र का पिंगायनगोत्र है पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र का गोवल्डायण गोत्र है 'कासवकोसियभाय चामरच्छायसुंगाय' उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र का काश्यप गोत्र है हस्तनक्षत्र का कौशिक गोत्र है चित्रा नक्षत्र का दार्भायन गोत्र है स्वातिनक्षत्र का चामरच्छा. यन गोत्र है विशाखा नक्षत्र का शुंगायन गोत्र है 'गोवल्लायण तेगिच्छायणेय कच्चायणे हवइ मूले' अनुराधा नक्षत्र का गोषल्यायन गोत्र है ज्येष्ठा नक्षत्र का चिकित्सायन गोत्र है भूल नक्षत्र का कार पायन गोत्र है 'तओ य वज्झियायण बग्घावच्वेय गोत्ताई' उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र का बाभ्रव्यायन गोत्र है उत्तराषाढा नक्षत्र का व्याघ्रापत्य गोत्र है इस तरह से ये गोत्र अभिजितू नक्षत्र से लेकर उत्तराषाढा नक्षत्र लक के नक्षत्रों के होते है । गोत्र द्वार समाप्त અશ્લેષાનક્ષત્રનું માંડવ્યાયન ગોત્ર છે. મઘાનક્ષત્રનું પિંગાન ગાત્ર છેપૂર્વ ફાગુની નક્ષત્રનું गाय गोत्र छ 'कासव कोसि यदभाय चामरच्छाय सुंगाय' उत्त२३८गुनी नक्षत्रनु ४२५५ ગેત્ર છે. હસ્તનક્ષત્રનું કૌશિક ગોત્ર છે. મિત્રાનક્ષત્રનું દાર્ભાયન ગાત્ર છે. ફાતિનક્ષત્રનું याभ२२छायन गोत्र छे. विमानक्षत्रनु शुभायन गोत्र छ. 'गोवल्ल यश तेगिच्छायणे य कच्चायणे हवइ मूले' अनुराधानक्षत्रनु गोषध्यायन गोत्र छे न्यानक्षत्रनु थिसायन गोत्र छे. भूजनक्षत्रात्यायन गोत्र छे. 'तओ य वज्झियायण वग्यावच्चे य गोत्ताई' उत्तर. ભાદ્રપદાનક્ષત્રનું બાધ્યાયન ગેત્ર છે. ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રનું વાઘાપત્ય ગોત્ર છે. આ રીતે ગેત્ર અભિજિત નક્ષત્રથી લઈને ઉત્તરાષાઢાનક્ષત્ર પર્યન્તના નક્ષત્રોને હોય છે ગોત્રદ્વાર સમાસ, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे णक्खत्ते कि संठिए पन्नत्ते' अभिजिन्नामक प्रथमं नक्षत्रं किं संस्थितम् कस्येव संस्थितं संस्थान माकारविशेषो यस्य तत् किं संस्थितं प्रज्ञप्तं कथितमिति नक्षत्राणां संस्थानविषयकः प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा ! इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'गोसीसावलिसंठिए पन्नत्ते' गोशीर्षावलि संस्थितं प्रज्ञप्तम् तत्र गवां शीर्ष गोशीर्ष तस्य गोशीर्षस्य आवलिः तदीयपुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणि स्तत्समसंस्थानमभिजिन्नक्षत्रं कथितमिति, अनेनैव प्रकारेण श्रवणप्रभृति नक्षत्राणामपि संस्थानानि ज्ञातव्यानि सर्वेषां संस्थानानां स्वरूपं दर्शयितुं मूल कारो लाघवार्थ गाथा मुदाहरति-'गाहा' इत्यादि गाथा-संस्थानप्रदर्शनपरा श्लोकः तद्यथा-'गोसीसावलिकाहार सउणी पुप्फोवयारवावीय' गोशीर्षावलिः कासारः शकुनिः पुष्पोपचारी बापी च, तत्रामिजिन्नक्षत्रस्य गोशीर्षावलिसदृशसंस्थानं श्रवणनक्षत्रस्य कासारसंस्थानम् तत्र कासारः सरः तडाग इत्यर्थः 'सउणि' शकुनि:-पक्षी तद्वत् संस्थानं धनिष्ठानक्षत्रस्य 'पुप्फो संस्थानद्वार 'एएसिणं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्साणं' अय गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इन २८ नक्षत्रों के बीच में जो 'अभिई णखत्ते कि संठिए पण्णत्ते' अभिजित् नामका नक्षत्र है उसका संस्थान कैसा कहा गया है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! गोसीसावलिसंठिए पन्नत्ते' हे गौतम! गायों के मस्तक की जो आवलि हैं-मस्तक के पुदलों की दीर्घरूप जो श्रेणि है-उस के जैसे संस्थानवाला अभिजित् नक्षत्र कहा गया है मूलकार अब संक्षेप से समस्त नक्षत्रों के संस्थानों को दिखाने के लिये-गाथा कहते हैं-'गोसीसावलिकाहार सउणी पुप्फोवयार वावी य' यह तो ऊपर प्रकट ही कह दिया गया है कि अभिजित् नक्षत्र का संस्थान गोशीर्षावलि के जैसा है श्रवण नक्षत्र का संस्थान कासारतडाग के संस्थान जैसा है धनिष्ठा नक्षत्र का संस्थान शकुनि-पक्षी के संस्थान जैसा है शतभिषा नक्षत्र का संस्थान पुष्पोपचार के संस्थान जैसा है पूर्व भाद्र. સંસ્થાન દ્વાર 'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ता' के गौतमस्वामी प्रभुने मे ५७युमहन्त ! ॥ ५४यात्रीस नक्षत्रानी क्यमा रे अभिइणक्खत्ते कि संठिए पन्नत्ते मलित નામનું નક્ષત્ર છે તેનું સંસ્થાન–આકાર કેવું કહેવામાં આવ્યું છે? આના જવાબમાં પ્રભુ प्रभु 3 छ-गोयमा ! गोसीसावलिसंठिए पन्नत्ते' 3 गौतम! मायाना भरतनारे આવલિ છે. મસ્તક પુદ્ગલની દીર્ધરૂપ જે શ્રેણી છે-તેના જે આકાર અભિજિત નક્ષત્રને કહેવામાં આવ્યે છે, મૂળકાર હવે સંક્ષેપથી સમસ્ત નક્ષત્રના સંસ્થાને–આકારमतावान माथी -1 -'गोसीसावलिकाहार सउणी पुप्फोवयार वावीय' से તે ઉપર પ્રકટ કરી દેવામાં જ આવ્યું છે કે અભિજિત્ નક્ષત્રનું સંસ્થાન કાસાર-તળાવ જેવા આકારનું છે. ધનિષ્ઠા નક્ષત્રને આકાર શકની પક્ષી–જે છે. શતભિષફ નક્ષત્રનું Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २२ नक्षत्राणां गोत्रद्वारनिरूपणम् वयार' पुष्पोपचारः शतभिषा नक्षत्रस्य पुष्पोपचारसंस्थानम् 'वावीय' वापी च, तत्र पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रस्यार्द्धवारी संस्थानम् तथोत्तरभाद्रपदा नक्षत्रस्यापि अर्द्धवापी संस्थानमेव एतदर्द्धद्वयवापी मीलनेन परिपूर्णा वापी भवति, एतस्मादेव कारणात् सूत्र वापीसंस्थान कथितम् अतः संस्थानानां न न्यूनता शङ्कनीयेति । 'णावा' नौः रेवतीनक्षत्रस्य नौ:-नौकावत् संस्थानं भवति 'आसक्खंधग' अश्वस्कन्धकः अश्विनी नक्षत्रस्य अश्वस्कन्धवत् संस्थान भवति, 'भग' भरणी नक्षत्रस्य भगसंस्थानं भवतीति 'खुरधरए' क्षुर धारा, कृत्तिकानक्षत्रस्य क्षुरधारावदेव संस्थानं भवति 'सगडुद्धी' शकटोद्धी रोहिणीनक्षत्रस्य शकटोद्धी संस्थानं भवति 'मिगसीसावलि' मृगशीर्षावलिः मृगशिरोनक्षत्रस्थ मृगशीर्ष संस्थानं भवति, 'रुहिरबिंदु' आ नक्षत्रस्य रुधिरविन्दुवत्-शोणितविन्दुवत् संस्थानं भवति 'तुल्ला' तुल्ला पुनर्वसु नक्षत्रस्य तुलावत् संस्थानं भवति; 'वद्धमाणग' वर्द्धमानकम् पुष्यनक्षत्रस्य सुप्रतिष्ठितवर्द्धमानक संस्थानं भवति 'पडागा' पताका, अश्लेषा नक्षत्रस्य पताकावत् संस्थानं भवति, 'पागारे' पद नक्षत्र का संस्थान अर्द्धवापि के संस्थान जैसा है उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र का संस्थान भी अद्धवापि के संस्थान जैसा ही है 'णावा' रेवती नक्षत्र का संस्थान नौका के संस्थान जैसा है 'आसक्खंधग' अश्विनी नक्षत्र का संस्थान घोडे के कंधे के संस्थान जैसा है 'भग' भरणी नक्षत्र का संस्थान भग के संस्थान जैसा है 'खुरधरए' कृत्तिका नक्षत्र का संस्थान क्षुरा की धारा के संस्थान जैसा है 'सगडुद्दी' रोहीणी नक्षत्र का संस्थान गाडी धुरा के संस्थान जैसा है 'मिगसीसावलि' मृगशिरा नक्षत्र का संस्थान मृग के शीर्षका जैसा संस्थान होता है वैसा है 'रुहिरबिंदु' आर्द्रा नक्षत्र का संस्थान रुधिर की बिन्दु का जैसा संस्थान होता है वैसा है 'तुल्ल' पुनर्वसु नक्षत्र का संस्थान तुला-तराजू-का जैसा संस्थान होता है-वैसा है 'वद्धमाणग' पुष्यनक्षत्र का संस्थान सुप्रतिष्ठित वर्द्धमानका जैसा संस्थान होता है वैसा है 'पडागा' अश्लेषा नक्षत्र का संस्थान ध्वजाका जैसा संस्थान-आकार होता है वैसा है 'पागारे' मघानक्षत्र का संस्थान प्राकार સંસ્થાન પુષપચાર જેવું છે. પૂર્વભાદ્રપદ નક્ષત્રનો આકાર અર્ધવાવ જે છે. ઉત્તરमाद्रा नक्षत्रनो २४१२ पर सवार ४ छ. 'णावा' रेवती नक्षत्र २ (माति) नोव छ. 'आसक्खंधग' अश्विनी नक्षत्रन आ४२ डानी वा छे. 'भग' मी नक्षत्रनु संस्थान मा छे. 'खुरधरए' कृत्तिानक्षत्रनु संस्थान क्षुरानी था। २ छे. 'सगडद्धी' हिमानक्षत्र मा २ गाउानी परी । छे. 'मिगसीसावली' भृगशिरानक्षत्रनो २२ २णना मस्त । छे. 'रुहिरबिंदु' मानक्षत्रना २४२ રુધિરના બિન્દુ જેવું છે. “સુર પુનર્વસુ નક્ષત્રની આકૃતિ ત્રાજવાને જેવો આકાર હેય छ तेना रवी छ 'वद्धमाणग' पुष्य नक्षत्रनु संस्थान सुप्रतिष्ठित पद्धमाननीति आय छ तेनाय छे. 'पडागा' मलेषा नक्षत्र संस्थान नानुसयान Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्राकारः मघानक्षत्रस्य प्राकारसंस्थानं भवति इति । 'पलिअंके' पल्यङ्कः- पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र. स्यार्द्धपल्यङ्कसंस्थानं भवति, एवमुत्तरफाल्गुनी नक्षत्रस्यापि अर्द्धपल्यङ्कसंस्थानमेव भवति, एतदर्द्धपल्यङ्क द्वयमीलनेन परिपूर्णः पल्यङ्को भवति अत्र सूत्रे 'पलियंके' इति कथितमिति । 'हत्थे' हस्तः स्तनक्षत्रस्य हस्तसंस्थानं भवतीति । 'मुहफुल्लए चेव' मुखफुल्लकं चैत्र, चित्रा नक्षत्रस्य मुखमण्डन सुवर्णपुष्प संस्थानं भवति 'खीलग' कीलकम् स्वाती नक्षत्रस्य atoriस्थानं भवति 'दामणि' दामनी विशाखा नक्षत्रस्य पशुरज्जु संस्थानं भवति 'एगाaat' एकrafts:, अनुराधा नक्षत्रस्यैकावलि संस्थानं भवति 'गजदंत' गजदन्तः ज्येष्ठा नक्षत्रस्य गजदन्तवत् संस्थानं भवति 'विच्छय अलेय' वृश्चिकलाङ्गुलम् मूलनक्षत्रस्य वृश्चि कस्य लाङ्गुळवत् संस्थानं भवतीति, 'गयविकमेय' गजविक्रमथ, पूर्वाषाढा नक्षत्रस्य गजका जैसा संस्थान होता है वैसा है 'पलियंके' पूर्व फाल्गुनो नक्षत्र का संस्थान अर्द्धपलंग का जैसा संस्थान होता है वैसा है इसी तरह का संस्थान उत्तर फाल्गुनीनक्षत्र का है । ' हत्थे' हस्तनक्षत्र का संस्थान हाथ का जैसा संस्थान होता है वैसा है 'मुहफुल्लएचेव' चित्रानक्षत्र का संस्थान मुख के मण्डन भूत सुवर्णपुष्पका सोना-जुही का जैसा संस्थान होता है वैसा है 'खीलग' स्वाति नक्षत्र का संस्थान जैसा कीलक का संस्थान होता है वैसा है 'दामणि' विशाखा नक्षत्र का संस्थान पशुधने की रस्सी का जैसा संस्थान होता है वैसा है 'एगावली' अनुराधा नक्षत्र का संस्थान एकावली नामका हार का जैसा संस्थान होता है वैसा है । 'गजदंत' ज्येष्ठा नक्षत्र का संस्थान हाथी के दांत का जैसा संस्थान होता है वैसा है 'विच्छ य अले य' मूल नक्षत्र का संस्थान जैसा बिच्छू की पूछ का संस्थान होता है वैसा है 'गयविक्कमेय' पूर्वाषाढा नक्षत्र का संस्थान हाथी के विक्रम का पैर का जैसा संस्थान होता है वैसा है ' तत्तोय सिंह ४.२ होय छे तेवु व छे. 'पागारे' मधानक्षत्र संस्थान आार ने संस्थान होय छे तेवु छे. 'पलियं के' पूर्वगुनी नक्षत्रनी व्यावृत्ति अर्धसंग नेवी होय छे આજ પ્રકારના આકર ઉત્તરફાલ્ગુની નક્ષત્રના છે ‘થૅ' હસ્ત નક્ષત્રની આકૃતિ હાથના मार नेवी होय हे 'मुहफुल्लए चेव' मित्रा नक्षत्रनी आवृति भुना मंडनलूत सुवर्णु - पुष्पना सोनालुना वो आधार होय छे. 'खीलग' स्वाति नक्षत्रनी आकृति नेवी डीसानी આકૃતિ હાય છે તેના જેવી ડાય છે. વાળિ' વિશાખાનક્ષેત્રની આકૃતિ ઢાર બાંધવાના होरानो नेवी आर होय छे. तेवा प्रहारती होय छे. 'एगावली' अनुराधा नक्षत्रनी आहुति ोठावली नामना हार व आर होय छे तेना नेवी होय छे 'गजदंत' ज्येष्ठा नक्षत्रनी આકૃતિ હાર્થીના દાંતના જેવા આકાર હૈય तेवा प्रभारनी होय छे 'विच्छ य अलेय' भूनक्षत्रती आति विधना पूछडीने आर होय छे तेवा प्रभारनी हाय छे. 'गयविकमे ૫' પૂર્વાષાઢા નક્ષત્રની આકૃતિ હાથીના પગના જેવો આકાર હાય છે તેવા આકારની હાય છે. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २३ चन्द्ररवियोगद्वारनिरूपणम् ३५३ विकसंस्थानं भवति 'तत्तोय सिंहनिसी हिय' ततश्च सिंहनिपीदनम् उत्तरानत्रस्य सिंहनिषी. दनसंस्थानम्, उपविष्टसिंहाकारसंस्थानमित्यर्थः, 'संठाणा' संस्थानानि, एतानि उपयुः तानि संस्थानानि अभिजिदाद्यष्टाविंशति नक्षत्राणां भवन्तीति संस्थानद्वारनिरूपणे त्रयो. विंशतितमं सूत्रम् ॥ सू० २३॥ सम्प्रति-चन्द्ररवियोगद्वारं दर्शयितुं चतुर्विंशतितमसूत्रं व्याख्यातुपाह-'एएसिणं इत्यादि, __मूलम्-एएसि णं भंते ! अट्रावीसाए णक्खत्ताणे अभिई णक्खत्ते कति मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ ? गोयमा ! णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ एवं इमाई गाहाहिं अणुगंतव्वं, अभिईस्स बंदजोगो सत्तढेिं खंडिओ अहोरत्तो। ते हंति णवमुहुत्ता सत्तावीसं कलाओ य?। सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साई जेट्ठा य । एए छ णक्खत्ता पण्णरसमुहुत्त संजोगा। तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य। एए छ पणक्खत्ता पणयालमुहुत्त संजोगा३ । अवसेसा णक्खत्ता पण्णरस विहंति तीसइमुहुत्ता । चंदंमि एस जोगो णक्खत्ताणं मुणेयम्बो४। ___ एएसि णं भते ! अट्ठावीसाए णवत्ताणं अभिई णक्खत्ते कइ अहोरत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएइ ? गोयमा ! चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएइ, एवं इमाहिं गाहाहिं णेयव्वं अभिई छच्चमुहत्ते चत्तारि य केवले अहोरत्त । सूरेण समं गच्छइ एत्तो सेसा णं वोच्छामि ? सयभिसया भरणी यो अद्दा अस्सेस साइ जेट्टा य । वच्चंति मुहुत्ते इक्कवीस छच्चेवाहोरत्ते ।२॥ तिण्णेव उत्तराई पुण्णव्वसू रोहिणी विसाहा य । वच्चंति मुहुत्ते तिष्णि चेव वीसं अहोरत्ते ३ । निसीहि य' उत्तराषाढा नक्षत्र का संस्थान बैठे हुए सिंह का जैसा संस्थान होता है वैसा है 'संठाणा' इसी प्रकार ये उपर्युक्त रूप अभिजित् नक्षत्र से लेकर उत्तराषाढा नक्षत्र तक के २८ नक्षत्रों के संस्थान होते हैं ॥२३॥ नक्षत्र द्वार समाप्त 'तत्तो य सिंह निसीहिय' उत्तराषाढा नक्षत्रनी साइति मे CAR मा २वी डाय छे. 'संठाणा' । रीते 240 6५२ ४३an Mrt नक्षत्री मां त्तराषाढा नक्षत्र સુધીના ૨૮ નક્ષત્રના આકાર હોય છે. સૂ૦૨૩ નક્ષત્રદ્વાર સમાપ્ત ०४५ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अवसेया णत्ता पूणरस वि सूरसहगया जंति । बारस चैव मुहुसे तेरस य समे अहोरते ||४|| सू० २४ || छाया - एतेषां खलु भदन्त ! अष्टाविंशते नक्षत्राणाम् अभिज्जिनक्षत्रं कति मुहूर्त्तान् चन्द्रेण सार्द्धं योगं योजयति ? गौतम ! नवहूर्तान सप्तविंशतिं च सप्तषष्टि भागान् मुहूर्त्तस्य चन्द्रेण सार्द्ध योगं योजयति, एवं मिमाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम् । अभिजित वन्द्रयोगः सप्तषष्टिं खण्डितोऽरात्रः ते भवन्ति नवमुहूर्ताः सप्तविंशतिः कलाश्च ॥ १॥ शतभिषग्भरणी आर्द्राऽश्लेषा स्वाती ज्येष्ठा च । एतानि पण्णक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्त्त संयोगान् ॥ २ ॥ तिस्र उत्तराः पुनर्वव रोहिणी विशाखा च एतानि पण्णक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशतं मुहूर्त्तान् संयोगान् ॥ ३॥ अवशेषाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्त्तानि । चन्द्रे एषो योगो नक्षत्राणां विज्ञातव्यः |४| एव • एतेषां खलु भदन्त ! अष्टाविंश्ते नक्षत्राणाम् अभिजिनक्षत्रं कृत्यहोरात्रं सूर्येण सार्द्ध योगं योजयति ? गौतम ! चतुरोऽहोरात्रान् षट्च मुहूर्त्तान् सूर्येण सार्द्धं योगं योजयति, मिमाभिर्गाथाभितव्यम् अभिजित् पमुहर्त्तानि चतुरश्च केवलान् अहोरात्रान् । सूर्येण समं गच्छति इतः शेषाणां वक्ष्यामि । शतभिषग्रभरणी आर्द्राऽश्लेषा स्वातीज्येष्ठा च । व्रजन्ति मुहूर्त्तान् एकविंशतिं षट् च अहोरात्रान् ॥ २ ॥ तिस्रवोखराः पुनर्दसुरोहिणी विशाखा च । व्रजन्ति त्रीन् चैव विंशतिमहोरात्रान् ॥ ३॥ अवशेषाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर्य सहगतानि यान्ति । द्वादश चैव मुहूर्त्तान् त्रयोदश च समानहोरात्रानिति चतुर्विंशति सूत्रम् ॥ २४ ॥ टीका- 'एएसिणं भंने' एतेषामुपर्युक्तानां खलु भदन्त ! 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशतेरष्टाविंशति संख्यकाना मभिजिदादि नक्षत्राणां मध्ये 'अभिई णक्खत्ते' अभिजि नामकं नक्षत्रम् 'कमुहुत्ते' कति कियत्संख्यकान मुहूर्तान् 'चंदेल सद्धिं जोगं जोएई' चन्द्रेण - चन्द्रमला सार्द्ध - सह योगं संबन्धं योजयति--करोति, अर्थात अभिजिन्नक्षत्रस्य कियन्मुहूर्त्तपर्यन्तं चन्द्रेण सह संबंधो भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि. 'गोयमा' चन्द्र रवि योग द्वार 'एएसि णं भंते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते' टीकार्थ- अब गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'एएसिणं भंते ! अट्ठावीसाए णवत्ताणं अभिई णक्वते कइमुहुत्ते चंदेश सद्धिं जोगं जोएह' हे भदन्त ! अट्ठो वीस नक्षत्रां में से जो अभिजित् नामका नक्षत्र है उसका चन्द्र के साथ सम्बन्ध ચન્દ્રરવિ ચેાગદ્વાર 'एरसिणं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं आभिइ णक्खत्ते' इत्यादि टीकार्थ- हुवे गौतमस्वाभीगे अलुमे या प्रमाणे पूछयु हे- 'एएसिणं भंते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कइमुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोगं जोएइ' हे लहन्त्! अध्यावीस नक्षत्रમાંથી જે અભિજિત્ નામનું નક્ષત્ર છે તેના અન્દ્રની સાથે કેટલા મુહૂત સુધી સમ્બન્ધ રહે છે ? ご Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २३ चन्द्ररवियोगद्वादनिरूपणम् ३५५ हे गौतम ? 'णवमुहुने सत्त द्वभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिजोगं जोएई' नवमुहूर्तान् तथा एकस्य मुहूर्तस्य सप्तषष्टि भागान् एतावत्कालपर्यन्तं चन्द्रेण सार्द्ध सहाभिनिन्नक्षत्रं योगं संबन्धं योजयति-करोतीति भगवत उत्तरम् । कथमेताबकालपर्यन्तमेवाभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रेण सह संबन्धं करोतीति के तत्राह-अत्र खलु अभिजिन्नक्षत्रम् सद्विषष्टि खण्डी कृतस्याहोरात्रस्य एकविंशतिरपि भागा मुहूर्तगतभागहरणार्थम् अहोरात्रे त्रिंशदधिकानि ६३०, एषामङ्कानां सप्तपष्टि संख्यया भागे कृते सति लब्धा भवन्ति नवाहूर्ता एकस्य मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टि भागा ९७ अयं च सर्वतो न्यून चन्द्रस्य नक्षत्र संबन्धकाल इति । सम्प्रति-सर्वेषां नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योग दर्शयितुमाइ--'ए' इत्यादि एवं इमाहिं गाहाहिं अणुगंतव्वं' एव मिमाभि र्गाथाभिरनुगन्तव्यम्, तत्र एवं येन प्रकारेण अभिजिन्नक्षत्रस्य एकविंशति भागेभ्यः समधिकनवमुहू तेलक्षणः सम्बन्धकाल आनीतः तेनैव प्रकारेण नक्षत्रान्तरेष्वपि इमाभिवक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिरगन्तव्यम्,--चन्द्र योगकालमानं ज्ञातव्यम्, तथाहि-'अभिइस्स चंदजोगो' अभिजितोऽभिजिन्नक्षत्रस्य चन्द्रेण सहयोगः सम्बन्धः 'सत्तर्हि खंडिओ अहोरत्तो' कितने मुह तक रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! णव मुहुत्ते सत्तहिभाए मुहत्तस्स चंदेण सद्धि जोगं जोएई' हे गौतम ! अभि. जित् नक्षत्र का संबंध चन्द्र के साथ नौ पुहूर्त तक और एक मुहूर्स के ६७ भाग तक रहता है अर्थात् एक अहोरात के ६७ भाग करने पर उनमें से २१ भाग तक रहता है गणित प्रक्रिया के अनुसार ये इस प्रकार से निकाले जाते हैं-अहोरात के मुहूर्त ३० होते हैं-इसलिये ३० का २१ में गुणा करने पर ६३० होते हैं ६३० में ६७ का भाग देने पर ९ माग आजाते हैं। यह चन्द्र के साथ नक्षत्रों के योग होने का सब से न्यून काल है, अब समस्त नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग होने के काल का विवरण सूत्रकार ने इन गाथाओं द्वारा किया है - 'अभिस्स चंदजोगो सत्तर्हि खंडिओ अहोरत्ते, ते हुति ण मुहत्ता सत्तावीसं कलाओ य' इस गाथा के द्वारा यह प्रकट किया साना म. प्रभु ४ छ ‘गोयमा ! णव मुहुत्ते सत्तद्विभाष मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोगं जोएइ' गौतम ! ममिति नक्षत्र ७५५ यन्द्रनी साथ न भुत सुधा मन से મુહૂર્તના ૬૭ ભાગ સુધી રહે છે અર્થાત્ એક અરાવિન ૬૭ ભાગ કરવામાં આવે તેમાંથી ૨૧ ભાગ સુધી રહે છે, ગણિત કિયા મુજબ તે આ રીતે ગણવામાં આવે છે–અહેરાત્રિના મુહૂર્ત ૩૦ હોય છે–એથી ૩૦ ને ૨૧ થી ગણવામાં આવે તે ૬૩૦ થાય છે-૬૩૦ ને ૬૭ થી ભાગવામાં આવે તે ૯૨૪ ભાગ આવી જાય છે. આ ચન્દ્રની સાથે નક્ષત્રને વેગ થવાને સૌથી ઓછો સમય છે, હવે સમસ્ત નક્ષત્રને ચન્દ્રની સાથે મેંગ થવાના કાળનું વિવરણ सूत्र प्रस्तुयायी ॥ ४२८ -'अभिइस्स चंदजोगो सत्तर्हि खंडिओ अहोरत्ते, ते हंति णव मुहुत्ता सत्तावीसं कलाओ य' 241 आथा द्वारा प्रतिहित ४२वामां माय Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जम्बूद्वीपप्रप्तिसत्रे सप्तषष्टि खण्डीकृतोऽहोरात्रः ‘ते हुंति णवमुहुत्ता' ते पूर्वोक्ता एकविंशति भागाः पूर्वोक्तप्रकारेण नवमुहूर्ताः 'सत्तावीसं कलाओय' सप्तविंशतिः कालाश्च भवन्ति । तथा--'सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साई जेहाय' शतभिषक भरणी आर्द्रा अश्लेपास्वातिः जेष्ठा च, 'एए छण्णक्खत्ता पण्णरस हुत्तसंजोगा' एतानि षण्णक्षत्राणि पश्चदशमुहूसंयोगानि भवन्ति अर्थात् शतभिषगादि ज्येष्ठान्त षण्ण नक्षत्राणां प्रत्येकं पञ्चदशमुहुर्तान् चन्द्रेण सह योगो भवति । अयं भावः-एतेषां पण्णामपि नक्षत्राणां शतभिषगादीनां प्रत्येक सप्तषष्टि खण्डीकृताऽहोरात्रस्य सम्बन्धिनः सार्दान् त्रयस्त्रिंशद् भागान् यावत् चन्द्रमसा सम्बन्धो भवति, ततो मुहूत्र्तगतसप्तषष्टिभागवरणार्थ त्रयस्त्रिंशत्संख्षया गुण्यन्ते, जातानि नवशतानि नवतानि-नवत्यधिकानि ९९० यदपि चाई तदपि :त्रिंशत्संख्यया गुणयित्वा द्विकेन भव्यते लब्धाः पश्चदशमुहूर्तस्य सप्तषष्टि भागाः ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यनो जातः पूर्वराशिः पञ्चाधिकं सहस्रम् १००५, अस्य सप्तषष्टया भागे हृते लब्धाः पञ्चदशमुहूर्ता इति ॥ तथा तिणेव है कि अभिजित नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग का काल ९२७ मुहर्त का है अर्थात् ९ मुहूर्त्तका है और एक अहोरात के ६७ भागों के करने पर २७ भाग कलारूप है ये अहोरात के ६७ भाग ही मुहूर्त और २७ कलारूप पडते हैं। तथा 'सतभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साईजेहा य एए छ णक्खत्ता पण्णरस मुहत्त संजोगा' शतभिषक, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र चन्द्रमा के साथ प्रत्येकर नक्षत्र' १५ मुहूर्त तक योग करते हैं इसका तात्पर्य ऐसा है कि दिनरात का प्रमाण ३० मुहूर्त का होता है-सो इस प्रमाण के ६७ खंड करना चाहिये इनमें से चन्द्रमा के साथ इस नक्षत्र का योग ३३॥ भाग तक रहता है मुहूर्तगत ६७ भाग करने के लिये ३३ से गुणा करने पर ९९० संख्या आती है तथा जो आग और बचा है उसे भी ३० से गुणित करने पर १५ होते हैं। इन्हे दो से विभक्त कर देने पर १५ मुहूर्त के ६७ भाग लब्ध છે કે અભિજિતુ નક્ષત્રને ચન્દ્ર સાથે યોગ થવાને કાળ ૬૭ મુહુર્ત છે અર્થાત્ ઃ (નવ) મુહૂર્તને છે અને એક રાત્રિ-દિવસના ૬૭ ભાગ કરવાથી ૨૭ ભાગ-કલારૂપ છે. मा रात्रि-हिसन १७ ला २८ भुडूत अने २७ ४६।३५ ५३ छे तथा 'सतभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साई जेट्ठा य एए छ णक्खत्ता पण्णरस मुहुत्त संजोगा' शत् ५, २४ी, भाद्री. २५षा, स्वाति म ये०४॥ २॥ छ नक्षत्र यन्द्रभानी साथे 'प्रत्येक २ નક્ષત્ર ૧૫ મુહૂર્ત સુધી વૈગ કરે છે. આનું તાત્પર્ય એ છે કે દિવસ-રાતનું પ્રમાણ ૩૦ મુહનું હોય છે– આથી આ પ્રમાણના ૬૭ ભાગ કરવા જઈ એ. આમાંથી ચન્દ્રમાની સાથે આ નક્ષત્રને વેગ ૩૩૧/૩ ભાગ સુધી રહે છે. મુહૂર્તગત ૬૭ ભાગ કરવા માટે ૩૩ થી ગુણવાથી ૯૦ ની સંખ્યા આવે છે તથા જે અડધું હજુ શેષ રહેલ છે તેને પણ ૩૦ વડે ગુણવાથી ૧૫ આવે છે, આને બે વડે ભાગવાથી ૧૫ મુહૂર્તના ૬૭ ભાગ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. २३ चन्द्ररवियोगद्वारनिरूपणम् ३५७ उत्तराई' तिस्रः त्रिसंख्यका उत्तराः उत्तर फल्गुनी उत्तराषाढा उत्तरभाद्रपदा इत्येवं रूपाः 'पुत्रसुरोहिणी विसाहाय' पुनर्वसू रोहिणी विशाखा च 'एएछण्णक्खत्ता' एतानि उत्तरादीनिषण्णक्षत्राणि 'पणयालमुहुत्त संजोगा' पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तान् यावच्चन्द्रेण सह संयोगो येषां तानि तथाभूतानि अत्रापि खलु षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डी कृतस्याहोरात्रस्य संबन्धिना भागानामेकम् एकस्य च भागस्यार्द्ध चन्द्रेण सार्द्धं योगः, तत्रैतेषां भागानां मुहूर्त्तगत भागकरणार्थ शतं प्रथमतः त्रिंशत्संख्यया गुण, ते ततो जातानि त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशाधिकानि ३०१५, एतेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता इति । तथा 'अवसेसा णक्खत्ता पण्णरसविहुंति तीस मुहुत्ता' अवशेषाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्त्तानि, तत्रावशेषाणि - उक्तातिरिक्तानि नक्षत्राणि श्रवणो धनिष्ठा होते हैं, १५ को पूर्व राशि में जोडने पर १००५ संख्या आती है इसमें ६७ का भाग देने पर शुद्ध १५ मुहूर्त निकल आते हैं। 'ति०णेव उत्तराइ' उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरभाद्रपदा ये तीन नक्षत्र एवं 'पुणव्वसु रोहिणी विसाहा य' तथा पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा 'एएछ ण्णक्खसा' ये ६ नक्षत्र 'पणयाल मुहुत्तसंजोगा' ४५ मुहूर्त्ततक चन्द्रमा के साथ सम्बन्ध रखते हैं अर्थात् इन ६ नक्षत्रों में से प्रत्येक नक्षत्र का योग चन्द्रमा के साथ ४५ मुहूर्त्त तक रहता है यहां पर भी इन मुहूर्तों को गणित प्रक्रिया के अनुसार निकालने के लिये जैसी पद्धति ऊपर में प्रकट को गई है वैसी ही पद्धति करनी चाहिये यहां एक एक नक्षत्रका चन्द्र के साथ संयोग ६७ भागीकृत अहोरात के एकशत भाग तक और एक भाग के आधे भाग तक रहता है अब इन भागों के मुहूर्त्तगत भाग करने के लिये सार्धं सौ को ३० से गुणित करने पर ३०१५ संख्या आती है इसमें ६७ का भाग देने पर ४५ मुहूर्त आजाते हैं । तथा-' अवसेसा णक्खत्ता पण्णरस પ્રપ્ત થાય છે ૧૫ તે પૂરાશિમાં ઉમેરવાથી ૧૦૦૫ ની સખ્યા આવે છે જેને ૬૭ વડે लागवाधी शुद्ध १५ मुहूर्त निजी आवे छे 'तिष्णेत्र उत्तराइ,' उत्त२३॥गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरभाद्रपहा या त्रयु नक्षत्र 'पुणव्वसु रोहिणी विसाहा य' तथा पुनर्वसु रोहिणी अने विशामा 'एए छण्णक्खत्ता' भ छ नक्षत्र 'पणयाल मुहुत्त संजोगा' ४५ भुहूर्त सुधी ચન્દ્રમાની સાથે સંબંધ રાખે છે, અર્થાત્ આ છ નક્ષત્રમાંથી પ્રત્યેક નક્ષત્રના ચાગ ચન્દ્રમાની સાથે ૪૫ મુહૂત સુધી રહે છે અત્રે પણ આ મુહૂર્તોને ગણિત પ્રક્રિયા અનુસાર કાઢવા માટે ઉપર જે પદ્ધતિ પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે જ પદ્ધતિ અનુસરવીોઈએ. અહી એક-એક નક્ષત્રને ચન્દ્રની સાથે સંચાગ ૬૭ ભાગકૃત અહેારતના એક શતાંશ ભાગ સુધી અને એક ભાગના અડધા ભાગ સુધી રહે છે. હવે આ ભાગેાના મુહૂતગત ભાગ કરવા માટે તે અડધા-૧૦૦ ને ૩૦ વડે ગુણવાથી ૩૦૧૫ની સંખ્યા આવે છે, એને ६७ वडे लागवामां आवे तो ४५ मुहूर्त भावी लय हे तथा 'अवसेसा णक्खत्ता पण्ण Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मूखीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पूर्वभद्रपदारेवती अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मघा पूर्वाफाल्गुनी हस्तश्चित्रा अनुराधा मूल पूर्वाषाढा इति पञ्चदशापि त्रिंशन्मुहूर्तानि भवन्ति अर्थात् त्रिंशन्मुहर्तपर्यन्तं यावच्चन्द्रेण सह योगं कुर्वन्ति, तथाहि एतेषां पञ्चदशानां श्रवणादि पूर्वाषाढान्तानां चन्द्रेण सह संपूर्ण महोरात्रं यावद् योगः ततो मुहूर्तगतभागकरणार्थ सप्तषष्टिः संख्या त्रिंशत्संख्यया गुण्यते ततो जाते द्वे सहस्र दशाधिके २.१०, एषां च सप्तषष्टिसंख्यया भागे दत्ते लभ्यन्ते त्रिशन्मुहूर्त्ता इति । 'चंदंमि एस जोगो णक्खत्ताणं मुणेयब्वो' चन्द्रे एषयोगो नक्षत्राणां ज्ञातव्यः तत्र चन्द्रे-चन्द्रविषये एपः-पूर्व कथितो योगः-संबन्धः नक्षत्राणां श्रवणादि पूर्वा. पाढान्तानां ज्ञातव्य इति नक्षत्राणां चन्द्रयोगः कथित इति । सम्पति-नक्षत्राणां सूर्येण सह योगं दर्शयितुमाह-एएसिणं भंते !' इत्यादि, 'एएसिणं वि हुंति तीसइ मुहुत्ता' इन पूर्वोक्त नक्षत्रों से पाकी रहे हुए नक्षत्र-श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढा ये १५ नक्षत्र-३०मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ संबंध रखते हैं अर्थात् इन नक्षत्रों का योग चन्द्रमा के साथ पूर्ण अहोरात्र तक रहता है यहां पर भी मुहर्तगत भाग करने के लिये ६७ संख्या को ३० संख्या से गुणित करने पर २०१० संख्या आती है इसमें ६७ का भाग देने पर ३० मुहूर्स लब्ध होते हैं। 'चंदंमि एस जोगो णक्खत्ताणं मुणेयव्यो चन्द्र के साथ नक्षत्रों का यह कथित हुआ योग जानना चाहिये, नक्षत्र चन्द्रयोग द्वार समाप्त । नक्षत्र रवियोग 'एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्वत्ताणं अभिई णक्खत्ते कई अहोरत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएई' अब गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! रस वि हुँति तीसइ मुहुत्ता' 0 पूति नक्षत्रथी माथी २७ नक्षत्र-१, पानी, पून २५४१, रेवती, मश्विनी, कृत्ति: मृगशिरा, ५०५, मघा, पूर्वाशगुनी, स्त, ચિત્રા, અનુરાધા, મૂલ અને પૂર્વાષાઢા એ પંદર નક્ષત્ર-૩૦ મુહૂર્ત સુધી ચન્દ્રમાંની સાથે સંબંધ રાખે છે અર્થાત આ નક્ષત્રોને વેગ ચન્દ્રમાની સાથે પૂર્ણ અહોરાત્રિ સુધી પણ છે. અહીં પણ મુહૂર્તગત ભાગ કરવા માટે ૬૭ની સંખ્યાને ૩૦ સં;ાથી ગુણવાથી २०१० सा आवे छे २२ ६७१ भागवामां आवे तो मुश्त निजी भाशे 'चंदमि एस जागो णवत्ताणं मुगेयचों' यन्द्रनी साथे नत्राने माथित ययेर यो २ . નક્ષત્ર ચંદ્રયાગદ્વાર સમાપ્ત નક્ષત્ર રવિ વેગ 'एएसिणं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिईणक्खत्ते कई अहोरते सूरेण सद्धिं जोगं કૌર' હવે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે–હે ભદન્ત ! આ અઠયાવીસ નક્ષત્રમાં Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २३ चन्द्रवियोगद्वारनिरूपणम् ३५ भंते' एतेषां खलु भदन्त ! 'अट्ठावीसाए गक्खत्ताणं' अष्टाविंशते रष्टाविंशतिसंख्यकानां नक्षत्राणा मभिजिदादीनां मध्ये 'अभिई णक्खत्ते' अभिजिन्नामकं नक्षत्रम्, 'कइअहोरत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएह' कति अहोरात्रपर्यन्तं सूर्येण सार्द्ध सह योग सम्बन्धं योजयति-फरोतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि अहोरत्ते छच्चमुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएइ' चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान् सूर्येण सह योग सम्बन्धं योजयति-करोति अभिजिनक्षत्रम् । ननु :कयं चतुरोऽहोरात्रान षट् च मुहूर्तान् अभिजिनक्षत्रं सूर्येण सह योगं करोति इति चेत्तत्रोच्यते यन्नक्षत्रम् अहोरात्रस्य यावतः सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सह समवतिष्ठते तन्नक्षत्रं तावत् एकविंशत्यादीन् इत्यर्थः पञ्चमभागान् रात्रि दिवस्य पञ्चमांशरूपान् तैः पञ्चभिरेव एकं रात्रि दिवं भवति, सूर्येण सहगच्छति, अयंभावः-यस्य नक्षत्रस्य यावत्प्रमाणकाः सप्तषष्टि भागाश्चन्द्र सम्बन्ध योग्यास्ते भागाः पञ्चभि भज्यन्ते इन २८ नक्षत्रों में जो अभिजितु नामका प्रथम नक्षत्र है वह सूर्य के साथ कितने अहोरात तक संबंध किया रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि अहोरत्त छच्च मुहुत्ते सरेण सद्धिं जोगं जोएई' हे गौतम ! अभिजित् नामका जो प्रथम नक्षत्र है उसका योग सूर्य के साथ चार अहोरात तक और ६ मुहूर्ततक रहता है। __ शंका-अभिजित् नक्षत्र चार अहोरात तक और ६ मुहूर्ततक सूर्य के साथ योग किये रहता है सो यह कैसे समझा जा सकता है? इसके उत्तर में यों समझना चाहिये-जो नक्षत्र अहोरात्र के जितने ६७ भागों तक चन्द्र के साथ ठहरता है वह नक्षत्र एकविंशति आदि भागों के ५ भागों तक सूर्य के साथ एक अहोरात तक ठहरता है इस कथन का तात्पर्य ऐसा हैजैसा अभिजित् नक्षत्र अहोरात के ६७ भागों में २१ भाग तक चन्द्र के साथ सम्बन्धित रहता है तो इन भागों के ५ भाग प्रमाण काल तक वह सूर्य के साथ જે અભિજિત્ નામનું પ્રથમ નક્ષત્ર છે તેને સૂર્યની સાથે કેટલા અહેરાત સુધી સંબંધ भन्यो २९ छे ? मानसपासमा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! चत्तारि अहोरते छच्च मुहत्ते सुरेण सधिं जोगं जोएइ' गौतम ! ममिशितनामनु ने प्रथम नक्षत्र छ तेन या सूयनी સાથે ચાર અહેરાત્રિ પર્યન્ત અને છ મુહૂર્ત સુધી રહે છે. શંકા-અભિજિત નક્ષત્ર ચાર અહોરાત્રિ સુધી અને છ મુહૂર્ત સુધી સૂર્યની સાથે યોગ કરીને રહે છે તે આ કઈ રીતે સમજી શકાય? આના જવાબમાં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ-જે નક્ષત્ર અહેરાત્રિના જેટલા ૬૭ ભાગ સુધી ચન્દ્રની સાથે શકાય છે, તે નક્ષત્ર ૨૧ આદિ ભાગોના ૫ ભાગ સુધી સૂર્યની સાથે એક અહેરાત્રિ સુધી રોકાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે-જેવી રીતે અભિજિત્ નક્ષત્ર અહેરાત્રિના ૬૭ ભાગોમાં ૨૧ ભાગ સુધી ચન્દ્રની સાથે સંબંધ રાખે છે તે આ ભાગોના ૫ ભાગ પ્રમાણુકાળ સુધી તે સૂર્યની સાથે એક પહોરાત્રિ સુધી રહે છે અને ગણિતની પદ્ધતિ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे ततो लब्धं भवति तत्पञ्चमभागात्मकमहोरात्रम, शेषं त्रिंशता गुणयित्वा पञ्चभिर्भुज्यते लभ्यन्ते मुहूर्त्ताः, तदुक्तम्- 'जं विखं जावइए बच्चा चंदेन भागसत्तट्ठी । तं पणभागे राई दिवस सूरेण तावइए' यक्षिं यावता व्रजति चन्द्रेण भाग सप्तषष्टिम् । तत्पञ्चभागं रात्रि दिवस्य सूर्येण तावदेव' इतिच्छाया, तथाहि - अभिजिनक्षत्रम् एकविंशति सप्तषष्टि भागान् चन्द्रेण समं योगं करोति तत एतावतः पञ्च भागान् अहोरात्रस्य सूर्येण सह वर्तते इति ज्ञातव्यम्, एकविंशति संख्यायाः पञ्चभिः भागे हृते लब्धाश्चत्वारोऽहोरात्राः, तत्र चैकः पञ्चमभागोऽवतिष्ठते, स भागो मुहूर्त्तानयनाय त्रिंशत्संख्यया गुण्यते जाता स्त्रिशतः तस्या पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः षड्मुहूर्ता इति । ' एवं इमाहिं गाहाहिं णेयन्वं' एवभिमा भिर्गाथाभि doeम्, तत्र एवम् अभिजिन्नक्षत्रन्यायेन शेषनक्षत्राणां सूर्ययोग कालनिरूपणम् इमाभि वक्ष्यमाणाभिर्नेतव्यम् ज्ञातव्यम् तद्यथा अभिई छ मुहुते' अभिजिन्नक्षत्रम् षड्मुहूर्त्तान् 'चत्तारिय केले अहोरते' चतुरश्व केवलान अहोरात्रान् 'मूरेण समं गच्छ सूर्येण समं सार्द्धं गच्छति 'एतो सेसाणं वोच्छामि' इतः शेषाणामभिजिन्नक्षत्रातिरिक्तनक्षत्राणां सूर्ययोगं वक्ष्यामि कथयिष्यामि, तत्राभिजिन्नक्षत्रं षड्मुहूर्त्तान् चतुरश्र केवएक अहोरात तक रहता है इसे गणित की पद्धति के अनुसार यों निकालना चाहिये - २१ में ५ का भाग देना चाहिये तब ४ बार वह भाग जाता है ये ४ अहोरात है और नीचे १ बचता है यह पांचवा भाग है मुहूर्त्त बनाने के लिये इसे ३० से गुणित करने पर ३० ही आते हैं इस तीस में ५ का भाग देने पर भाग ६ बार जाता है सो ये ६ मुहते हैं, इस तरह ४ अहोरात और ६ मुहूर्त्त तक अभिजित् नक्षत्र का योग सूर्य के साथ रहता है यह गणित प्रक्रिया के द्वारा स्पष्ट हो जाता है । इस सम्बन्ध में 'जं रिक्खं जावइए वच्चइ चंद्रेण भाग सत्तट्ठी, तं पण भागे राई दिवस्स सूरेण तावइए' यह गाथा है जो नक्षत्र चन्द्र के साथ रात दिवस के जितने ६९ भाग तक युक्त रहता है वह नक्षत्र सूर्य के साथ रात्रि दिन के ५ भाग तक युक्त रहता है। अभिजित् नक्षत्र का जैसा यह रवि योग મુજબ આ પ્રમાણે કાઢી શકાય ૨૧ ને૫ વડે ભાગીએ તે ૪ વાર ભાગી શકાય છે. આ ચાર મહારાત્રિ છે અને નીચે ૧ શેષ વધે છે તે પાંચમે ભાગ છે. મુહૂ મનાવવા માટે આને ૩૦ વડે ગુણવાથી ૩૦ જ આવે છે. આ ૩૦ ને ૫ વડે ભાગવાથી ૬ વાર ભાગી શકય છે. જે છ મુહૂર્ત ગણાય, આ રીતે ૪ અહેારાત્રિ અને ૬ મુહૂર્ત સુધી અભિજિત્ નક્ષત્રના ચેગ સૂર્યની સાથે રહે છે એ ગણિત પ્રક્રિયા દ્વારા સ્પષ્ટ થઈ જાય છે, આ सभधभां 'जं रिक्खं जावइए वच्चइ चंदेण भाग सत्तट्ठी, तं पणभागे राईदिवस सूरेण तावइए' क्षेत्री गाथा छे ? नक्षत्र यन्द्रनी साथै रात-द्विवसना भेटला ६७ लाग सुधी યુક્ત રહે છે તે નક્ષત્ર સૂર્યની સાથે રાત્રિ-દિવસના ૫ ભાગ સુધી અભિજિત નક્ષત્ર જેવા આ વિચાગ કાળ પ્રગઢ કરવામાં આવ્યે છે તે જ યુક્ત રહે છે. પ્રમાણે બાકીના Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. २४ चन्द्ररवियोगद्वारनिरूपणम् छान् परिपूर्णान् अहोरात्रान् सूर्येण साई गच्छति इतोऽय एतदनन्तरं शेषाणां नक्षत्राणां सूर्येण समं योगं कालपरिमाणमधिकृत्य कथयिष्यामि तद्यथा 'सयभिसया भरणीओ' शतभिषक भरणी 'अदा अस्सेससाई जेट्ठाय' आद्रा अश्लेषा स्वाती ज्येष्ठा च' 'वच्चंति इक्कवीसं मुहुत्ते' व्रजन्ति एकविंशति मुहूर्तान् 'छच्वेवऽहोरत्ते' षट् चाहोरात्रान् अयं भाव:एतानि शतभिषग भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वाती ज्येष्ठा षण्णक्षत्राणि चन्द्रेण समं सार्द्ध त्रयः त्रिंशत् संख्यकान् सप्तषष्टि भागान् वनन्ति, तत एतावतः पञ्च भागान् अहोरात्रस्य सूर्यण सह वजन्तीति प्रत्येकं पूर्वोक्तकरण प्रामाण्यात् त्रयस्त्रिंशतश्च पञ्चभिर्भागे लब्धाः षडहोरात्रा: शेषास्त्रयः पञ्चभागास्ते सवर्णतायां जाताः सप्त ते मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जाते द्वे शते दशाधिके २१०, तेषां परिपूर्ण हू नयनाय दशभिर्भागो हियते लब्धा एकविंशति मुहूर्ता इति । इति प्रथमगाथार्थः ? तथा-'तिपणेव उत्तराई तिस्र उत्तराः, उत्तरभाद्रपदा, उत्तरकाल प्रकट किया है उसी प्रकार से शेष नक्षत्रों का रवि के साथ कालयोग सूत्रकार ने इन गाथाओं द्वारा समझाया है-'सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साईजेट्ठा य वचंति एकवीसं मुहत्ते' शतभिषा नक्षत्र, भरणीनक्षत्र, आानक्षत्र अश्लेषानक्षत्र, स्वातिनक्षत्र और ज्येष्ठा नक्षत्र इन ६ नक्षत्रों का रवि के साथ योगकाल २१मुहूर्त का है और 'छच्चेव अहोरत्ते' ६ अहोरात्र का है इसका तात्पर्य ऐसा है-ये ६ नक्षत्र चन्द्र के साथ ६७ भागों में ३३ भागतक युक्त रहते हैं और सूर्य के साथ ये रात दिन के ५ भागोंतक युक्त रहते हैं इसलिये ३३ में ५ का भाग देने पर ६ अहोरात आ जाते हैं शेष बचे हुए ५ पांचभाग सवर्णता में ७ हो जाते हैं इनके मुहर्त बनाने के लिये इनमें ३० से गुणा करने पर २१० होते हैं इनके परिपूर्ण मुहर्त बनाने के लिये इन में १० का भाग देने पर २१ मुहूर्त हो जाते हैं वह प्रथम गाथा का अर्थ है तथा-'तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य एए छ णक्खत्ता वच्चंति मुहुत्ते तिमिणचेव वीसं अहोरत्ते नक्षत्रान। २विना साथे या सूत्रा२ माया बा२॥ समय छ-'सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साई जेट्ठा य वच्चंति एक्कत्रीसं मुहुत्ते' शतभिषनक्षत्र, सी. નક્ષત્ર, આદ્રનક્ષત્ર, આશ્લેષા નક્ષત્ર, સ્વાતિનક્ષત્ર અને જ્યેષ્ઠાનક્ષત્ર એ ૬ નક્ષત્રનો રવિની साथै यो २१ भुत ना छे भने 'छच्चेव अहोरत्ते' छ मडाराविना छ, भानु तात्रय આ પ્રમાણે છે-આ છ નક્ષત્ર ચન્દ્રની સાથે ૬૭ ભાગોમાંથી ૩૩ ભાગ સુધી યુક્ત રહે છે આથી ૩૩ ને ૫ થી ભાગવાથી ૬ અહોરાત આવી જાય છે. શેષ વધેલા ૩ ભાગ સવર્ણતામાં ૭ થઈ જાય છે. આના મુહૂર્ત બનાવવા માટે એને ૩૦ થી ગુણવાથી ૨૧૦ આવે છે એમના પરિપૂર્ણ મુહૂર્ત બનાવવા માટે આને ૧૦ વડે ભાગવાથી ૨૧ મહત Mय छे. भा प्रथम पायानअथ छ तथा-'तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसूरोहिणी विसाहा एए पाखन्ता वकचंति मुत्ते तिषिणचे वीसं अहोरते' पत्ता५हI, STIRIYनी. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्ति फाल्गुनी, उत्तराषाढा लक्षणाः 'पुणव्वसूरोहिणी विसाहाय' पुनर्वसरोहिणी विशाखा च, "एएछणक्खत्ता' एतानि षण्णक्षत्राणि 'वच्चंति मुहुत्ते तिणि चेव वीसं आहोरत्ते' व्रजन्तित्रीन् महान विंशतिचाहोरात्रान् अयं भावः-एतानि उत्तरादीनि षण्णक्षत्राणि चन्द्रेण समं सप्तषष्टि भागानां शतमेकम् शतस्य च भागस्याड़मेकं प्रत्येकं व्रजन्ति, तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण सह एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां व ननं ज्ञातव्यम्, तेन शतस्य पञ्चभिर्भागे हते लब्धा विंशतिरहोरात्राः, यदर्द्ध तत् त्रिंशता गुण्यते जाताः त्रिंशत् तस्यादभिर्भागे हृते लब्धास्त्रयो मुहर्ता इति, । द्वितीयगाथार्थः। तथा-'अवसेसा णक्खत्ता पण्णरस वि सूर सहगया जंति' अवशेषाणि नक्षत्राणि पश्चदशापि सूर्यसहगतानि शान्ति तत्रावशेषाणि श्रवण धनिष्ठा पूर्वभाद्रपदा रेवत्यश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्य मघा पूर्व फल्गुनी हस्त चित्राऽनुराधा मूल पूर्वाषाढा लक्षण नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर्येण सह गतानि सूर्येण साई यान्ति-गच्छन्ति 'बारसचेव मुहुत्ते' द्वादशचैव मुहूर्तान् 'तेरस च समे अहोरत्ते' त्रयोदश च उत्तरभाद्रपदा, उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये ६ नक्षत्र सूर्य के साथ तीन मुहूर्त और बोस दिनरात तक युक्त रहते हैं इन उत्तरा दिक ६ नक्षत्रों में से प्रत्येक चन्द्र के साथ ६७ भागों के १ सौ भाग तक और १ भाग के आधे भाग लक युक्त रहता कहा गया है तो वह नक्षत्र अहोरात के ५ भागों तक सूर्य के साथ युक्त रहता है तो इसे यों समझना चाहिये-१०० में ५ का भाग देने पर २० अहोरात आते हैं और जो १ भाग का आधा भाग है उसमें ३० का गुणा करने पर ३० आते हैं तीस में १० का भाग देने पर ३ मुहूर्त निकल आते हैं यह द्वितीय गाथा का अर्थ है तथा 'अवसेसा णक्खत्ता पण्णरसवि सूर सहगया जंति' बाकी के जो १५ नक्षत्र बचे हैं-श्रवण, धनिष्ठा पूर्वभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढा-ये सब नक्षत्र सूर्य के साथ 'बारस चेव मुहुत्ते तेरस च समे अहोरत्ते १२ मुहूर्त और पूरे १३ दिन तक युक्त रहते ઉત્તરાષાઢા, પુનર્વસુ, રેહિ અને વિશાખા આ ઇ નક્ષત્ર સૂર્યની સાથે ત્રણ મુહૂર્ત અને વીસ દિવસ રાત સુધી જોડાયેલા રહે છે. આ ઉત્તરાદિક છ નક્ષત્રમાંથી પ્રત્યેક ચન્દ્રની સાથે ૬૭ ભાગોના ૧ શતાંશ ભાગ સુધી અને એક ભાગના અડધા ભાગ સુધી જોડાયેલા હોવાનું કહેવામાં આવ્યું છે આથી તે નક્ષત્ર અહોરાત્રિના પાંચ ભાગ સુધી સૂર્યની સાથે યુક્ત રહે છે. આ વિધાન આ પ્રમાણે સમજવું–૧૦૦ ને ૫ વડે ભાગવાથી ૨૦ અહોરાત્રિ આવે છે અને જે ૧ ભાગનો અડધો ભાગ છે તેને ૩૦ થી ગુણવામાં આવે તે ૩૦ આવે છે. ૩૦ ને ૧૦ વડે ભાગવાથી ૩ મુહૂત નિકળે છે. આ છે દ્વિતીય माथानम तथा 'अवसेसा णक्खत्ता पण्णरसवि सूर सहगया जंति' माथीना १५ नक्षत्र या छ-१, पान, पूर्व भाद्रपा, रेवती, अश्विनी, कृत्ति, भृगशिरा, पुष्य, મઘા, પૂર્વ ફાગુની, ઉત્તરફાલ્ગની ચિત્રા, અનુરાધા, મૂલ તેમજ પૂર્વાષાઢા આ સઘળા નાત્ર Their Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २४ चन्द्ररषियोगद्वारनिरूपणम् ३६३ समान्-परिपूर्णानहोरात्रान्. तद्यथा- एतानि पूर्वकथितानि पञ्चदशापि श्रवणादि पूर्वाषाढान्तानि नक्षत्राणि परिपूर्णान् सप्तपष्टि भागान् चन्द्रेण सह व्रान्ति, ततः सूर्येण सह एतानि नक्षत्राणि पश्चमभागानहोरात्रस्य सप्तष्टि संख्यकान् गच्छन्ति सप्तपष्टि-संख्यायाः पञ्चभिभीगे हृते लब्धास्त्रयोदशाहोरात्राः शेषों द्वौ भागौ, तौ द्वौ भागौ यदा त्रिंशता गुण्येते तदा जाता षष्टिः तस्याः षष्टेः पञ्चभिर्भागे हृते लब्धा द्वादशैव मुहर्ता इति तृतीय गाथार्थः॥ अत्र प्रसङ्गात् सूर्ययोगदर्शनत श्चन्द्रयोग परिमाणं यथा भवति तथा दर्शयति ज्योतिष्करण्डोक्तम् 'णखत्तसूर जोगो मुहत्तरासी को य पंचगुणो । सत्तट्ठीए विभत्तो लद्धोचंदस्त सो जोगो ॥१॥ (नक्षत्रसूर्ययोगो मुहूर्तराशी कृतश्च पञ्चगुणः। सप्तषष्याविभक्तो लब्धश्चन्द्रस्य सयोग इतिच्छाया) ॥१॥ अयमर्थः-नक्षत्राणा मर्द्धक्षेत्रादीनां यः सूर्येण सह योगः-सम्बन्धः संयोगः मुहतराशी क्रियते, मुहूर्तराशिं कृत्वा पञ्चभि गुप्यते तदनन्तरं सप्तपष्टि संख्यया भागो दीयते, भागे हैं यह पहिले प्रकट कर दिया गया है कि ये १३ नक्षत्रचन्द्र के साथ परिपूर्ण ६७ भाग तक युक्त रहते हैं तो ये सब नक्षत्र सूर्य के साथ अहोरात के ६७ भागों के ५ भागतक रहते हैं तो यहां ६७ में ५ का भाग देने पर १३ दिन रात पूरे आ जाते हैं और जो दो भाग बचते हैं उन्हें ३० से गुणित करने पर ६० होते हैं इनमें ५ का भाग देने पर १२ मुहूर्त आ जाते हैं यह तृतीय गाथा का अर्थ है। _ अब सूत्रकार प्रसङ्ग वश सूर्य योग दर्शन को लेकर चन्द्र योग का परिमाण जैसा होता है-वैसा प्रकट कर रहे हैं 'णक्खत्त सूर जोगो मुहुत्तरासी कओ य पंचगुणो सत्तट्ठीए विभत्तो लदो चंदस्स सो जोगो॥' नक्षत्रों का जो अभी २ सूर्ययोग प्रकट किया गया है वहाँ के दिवस रात सूर्यना साथे-'बारस चेव मुहुत्ते तेरस च समे अहोरत्ते' १२ भुत अन १२॥ १3 64 યુક્ત રહે છે. એ તો અગાઉ જ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે ૧૩ નક્ષત્ર ચન્દ્રની સાથે પરિપૂર્ણ ૬૭ ભાગ સુધી યુક્ત રહે છે જ્યારે આ બધાં નક્ષત્ર સૂર્યની સાથે અહરાત્રિના ૬૭ ભાગોના ૫ ભાગ સુધી રહે છે. અહીં ૬૭ ને પ થી ભાગીએ તે ૧૩ દિવસ રાત પૂરા આવી જાય છે અને જે ૨ ભાગ વધે છે તેને ૩૦ થી ગુણવામાં આવે તે ૬૦ થાય છે જેને ૫ થી ભાગતાં ૧૨ મુહૂત આવી જાય છે. આ ત્રીજી ગાથાને અર્થ થયે. હવે સૂત્રકાર પ્રસંગવશ સૂર્યગ દર્શનને લઈને ચન્દ્ર વેગનું પરિમાણુ જેવું હોય છે તેવું પ્રકટ કરી રહ્યાં છે– णक्खत्त सूरजोगो मुहुत्तरासीकओ य पंचगुणो । सत्तट्ठीए विभत्तो बद्धो चंदस्स सो जोगो ।। નક્ષત્રને જે હમણાં હમણું સૂર્યગ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે ત્યાંના દિવસ-રાતની Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्वृद्धीपप्रज्ञप्तिमा दत्ते सति यो लभ्यते स चन्द्रस्य योगो भवति इति । अयं भावः-कश्चित् शिष्यो नक्षत्राणां सूर्यचन्द्रयोगविषये सञ्जातकुतूहलो गुरुं पृच्छति, भो परमकृपालो, गुरो ! यत्र सूर्यः षदिव. सान् एकविंशति च मुहूर्तान अवतिष्ठते तत्र नक्षत्रे चन्द्रः कियत् कालपर्यन्तं तिष्ठतीति ? एतादृशशङ्का यत्र जायते तत्र मुहूर्तराशिकरणार्थ षड्दिवसाः त्रिंशत्संख्यया गुण्यन्भे गुणयिखा चोपरितना एकविंशतिमुहूर्ताः प्रक्षिप्यते ततो जाते द्वेशते एकाधिके १.१, ते पुनः पञ्चभिगुण्यन्ते तदा जायते पञ्चाधिकं सहस्रमेकम् १००५, तस्य सप्तषष्टिसंख्याया भागे हृते लब्धाः पञ्चदशमुहूर्ताः एतावानेबाईक्षेत्राणां प्रत्येकं चन्द्रेण सह योग आयाति एवमेव सप्रक्षेत्राणां द्वर्थक्षेत्राणां नक्षत्राणा मभिजितश्च चन्द्रेण समं योगो ज्ञातव्य इति चन्द्ररवियोग द्वारम् । इति चतुर्विंशतिमसूत्रम् ।। सू० २४ ॥ की मुहर्त राशि करके उसे ५ से गुणित कर देना चाहिये और फिर उसमें ६७ का भाग दे देना चाहिये भाग के देने पर जो लभ्य होता है वह चन्द्र का योग होता है किसी शिष्य ने नक्षत्रों के सूर्य चन्द्र योग के विषय में कुतुहल वश गुरु से ऐसा पूछा-हे परम कृपालो ! गुरो ! जिस नक्षत्र पर सूर्य छ दिन तक और २१ मुहूर्त तक रहता है उस नक्षत्र पर चन्द्र कितने काल तक रहता है ? तो इस प्रकार की शंका होने पर मुहूर्तराशि करने के लिये ६ दिवस ३० संख्या से गुणित करना चाहिये और फिर आगतराशि में २१ जोड देना चाहिये तब ३०४६= १८०+२०१० मुहूर्तो का प्रमाण निकलता है २०१ में ५ का गुणा करने पर १००५ राशि होती है, इस राशि में ६७ का भाग देने पर १५ मुहर्त आते हैं सो इतना मुहूर्त प्रमाण अर्द्धक्षेत्र वाले नक्षत्रों में से प्रत्येक नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग काल निकल आता है इसी तरह समक्षेत्र वाले, दयध क्षेत्रवाले नक्षत्रां का और अभिजित् नक्षत्र का चन्द्र के साथ समयोग काल जानना चाहिये।२४। चन्द्र रवि योग द्वार समाप्त ॥ મુહુ રાશિ કરીને તેને ૫ થી ગુણી નાખવા જોઈએ અને ત્યારબાદ તેને ૬૭ થી ભાગવા જોઈ એ. ભાગાકાર કરવાથી જે જવાબ આવશે તે ચન્દ્રને વેગ હોય છે કે એક શિલ્વે નક્ષત્રના સૂર્ય ચન્દ્ર યાંગના વિષયમાં જિજ્ઞાસાવશ ગુરૂને આ પ્રમાણે પૂછયું –હે પરમકૃપાળુ ! ગુરૂદેવ ! જે નક્ષત્ર પર સૂર્ય છ દિવસ સુધી અને ૨૧ મુહૂર્ત સુધી રહે છે. તે નક્ષત્ર પર ચન્દ્ર કેટલા કાળ સુધી રહે છે? આ જાતની શંકાનું નિવારણ કરવા માટે મુહૂર્તરાશિ કરવા માટે ૬ દિવસને ૩૦ સંખ્યાથી ગુણવા જોઈએ અને ત્યારબાદ આગતરાશિમાં ૨૧ ઉમેરી દેવા જોઈએ આથી ૩૦૪૬=૧૮૦-૧=૨૦૧ મુહૂર્તોનું પ્રમાણ નિકળે છે. ૨૦૧ ને ૫ ગણું કરવાથી ૧૦૦ ૫ રાશિ થાય છે જેને ૬૭ વડે ભાગવાથી ૧૫ મુહૂર્ત આવે છે. આવી રીતે આટલા મુહૂર્ત પ્રમાણુ અદ્ધક્ષેત્રવાળા નક્ષત્રમાંથી પ્રત્યેક નક્ષત્રને ચન્દ્રની સાથે વેગકાળ નિકળી આવે છે. આવી જ રીતે સમક્ષેત્રવાળ, દ્વયર્ધક્ષેત્રવાળા, નક્ષત્ર અને અભિજિત્ નક્ષત્રને ચન્દ્રની સાથે સંયેગકાળ જાણો જે ઈએ. ચન્દ્ર રાશિગ સમાપ્ત Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशि का टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ३६५ __ अथ नक्षत्राणां कुलद्वारमाह-'कइणं भंते' इत्यादि, मूलम्-कइ णं भंते ! कुला कइ उपकुला कइ कुलोचकुला पन्नत्ता ? गोयमा ! बारसकुला बारसउवकुला चत्तारि कुलोवकुला पन्नत्ता, बारस. कुला-तं जहा-धणिटाकुलं १ उत्तरभदवयाकुलं२, अस्सिणीकुलं३, कत्ति. याकुलं४, मिगसिरकुलं५ पुस्तोकुलंद, मघाकुलं७ उत्तरफग्गुणीकुलंद, चित्ताकुलं९,, विसाहाकुलं१० मूलो कुलं११ उत्तरासाढा कुलं१२। मासाणं परिणामा होति कुला उबकुला उ हेट्ठिमगा होति पुण कुलोचकुला अभीभिसय अद्द अणुराहा ।। बारस उवकुला तं जहा-सवणो उवकुलं१ पुव्वभदवया उवकुलं२, रेवई उवकुलं ३, भरणी उबकुलं४, रोहिणी उवकुलं५, पुणध्वसू उवकुलं६, अस्सेसा उवकुलं७, पुठवफग्गुणी उवकुलंद, हत्थो उपकुलं९ साई उपकुलं१०, जेट्ठा उवकुलं११, पुठासाढा उपकुलं१२॥ चत्तारि कुलोवकुला तं जहा-अभिई कुलोचकुला१, सयभिसया कुलोर. कुलार, अदा कुलोबकुला३, अणुराहा कुलोक्कुला४। कइ णं भंते! पुषिणः माओ कइ अमावासाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा! बारस पुणिमाओ बारस अमावासाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-साविट्ठी पोट्टेवई आसोई कत्तिगी मग्गसिरी पोसी माही फग्गुणी चेती इसाही जेठा मूली आसाढी। साविर्टि णं भंते ! पुषिणमासिं कइ णवत्ता जोगं जोएंति ? गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता जोगं जोएंति, तं जहा-अभिई सवणो धणिटा । पोटवइणि भंते ! पुणिमासिं कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति ? गोयमा ! तिण्णि णवखत्ता जोगं जोएंति तं जहा-सयभिसया पुनभवया उत्तरभदवया, अस्सोइणि भंते ! पुषिणमं कइ णवस्वत्ता जोगं जोएंति ? गोयमा ! दो णखत्ता जोगं जोएंति, तं जहा-रेवई अस्तिणी य । कत्तिइण्णं दो भरणी कत्तिया य । मग्गसिरिणं दो रोहिणी मग्गसिरं च. पोसिं तिपिण, अदाणव्वसू पुस्सो, माघिण्णं दो अस्सेसा मघा य, फगुपिण दो पुठला फग्गुणीय उत्तराफग्गुणीय, चेत्तिणं दो हत्थो Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्वृद्धीपप्राप्तिसूत्रे चित्ताय, विसाहिण्णं दो साई विसाहाय, जेट्टामुल्लिणं तिणि अणुराहा जेट्टा मूलो, आसाढिण्णं दो पुव्वासाढा उत्तरासाढा । साविट्टिण्णं भंते ! पुण्णिमं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोक्कुलं जोएइ ? गोयमा ! कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे धणिट्ठा णक्खत्ते जोएइ उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ कुलोचकुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते जोएइ । साविट्ठी णं पुणिमासिंणं कुलं वा जोएइ जाव कुलोवकुलं वा जोएइ । कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कुलोचकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुण्णिमा जुत्त त्ति वत्तव्वयं सिया। पोटवदिण्णं भंते ! पुषिणमं किं कुलं जोएइ३ पुच्छा, गोयमा! कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे उत्तरभद्दवया णक्खत्ते जोएइ, उबकुलं जोएमाणे पुत्वभवया जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे सयभिसया णक्खत्ते जोएइ, पोटवइष्णं पुग्गिमं कुलं वा जोएइ जाव कुलोचकुलं वा जोएइ कुलेण वा जुत्ता जाव कुलोवकुलेण वा जुत्ता पोटुवइ पुग्णमासी जुत्त त्ति वत्तव्वयं सिया। अस्सोइयां भंते ! पुच्छा, गोयमा ! कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ जो लब्भइ कुलोवकुलं कुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ उव कुलं जोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएइ अस्सोइण्णं पुणिमं कुलं वा जोएइ उलकुलं वा जोएइ कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुषिणमा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया। कत्तिइण्ण भंते ! पुषिणमं किं कुलं३ पुच्छा, गोयमा ! कुलं वा जोएइ उक्कुलं वा जोएइ णो कुलोवकुलं जोएइ, कुलं जोए राणे कत्तिया प्र.क्खत्ते जोएइ, उबकुलं जोएमाणे भरणी कत्तिहणं जार वत्तव्वं सिया। मगसिरिणं भंते ! पुषिणमं किं कुलं तं चेव दो जोएइ नो भवइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे मग्गसिरणवत्ते जोएइ उपकुलं जोपमाणे रोहिणी णक्खत्ते जोएइ मग्गसिरिणं पुर्णिणम जाव वत्तव्वं सिया इति । एवं सेसियाओ वि जाव आसाढिं । पोसिं Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा प्रकाशिका टीका-सप्तमबमस्कारः रु. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ३१७ जेला मूलिं च कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, सेसियाणं कुलं वा उपकुलं वा कुलोवकुलं ण भण्णइ ॥ साविटिण्णं भंते ! अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? गोयमा! दो णक्खत्ता जोएंति तं जहा-अस्सेसा य महाय । पोटुवइण्णं भंते ! अमावास कइ णक्खत्ता जोपंति ? गोयमा! दो पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी य। अस्सोइण्णं भंते ! दो हत्थे चित्ताय, कत्तिइण्णं दो साई विसाहाय, मग्गसिरिणं तिणि अणुराहा जेटी मूलोय, पोसिाणं दो पुत्वासाढा उत्तरासाढा, माहिण्णं तिणि अभिई सवणो धगिट्टा, फरगुणिं तिणि सयभिसया पुत्वभवया उत्तरभद्दवया य, चेत्तिण्णं दो रेवई अस्सिणीय कइ वइसाहि. पणं दो भरणी कत्तिया य जेट्टा मूलिण्णं रोहिणी मग्गसिरे च आसाढिपणं च तिणि अदा पुणव्यसू पुस्ती ति। साविठिण्णं भंते! अमावासं किं कुलं जोएइ उबकुलं जोएइ कुलोककुलं जोएइ. गोयमा! कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं, कुलं जोए. माणे महाणक्खत्ते जोएइ उवकुलं जोएमाणे अस्सेसा णक्खत्ते जोएइ, साविट्ठिण अमावासं वा कुलं जोएइ उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता साबिट्टी अमावासा जुत्त त्ति वत्तव्वं सिया । पोट्ठबईण्णं भंते ! अमावासं तं चेव दो जोएइ कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे उत्तराफग्गुणी, णक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुब्वाफग्गुणी, पोटवइण्णं अमावासं जाव वत्तव्वं सिया। मग्गसिरिणं तं चेव कुलं मूले णक्खत्ते जोएइ उपकुलं जेट्टा णक्खत्ते जोएइ कुलोवकुलं अणुराहा जाव जुत्त त्ति वत्तव्वं सिया। एवं माहोए फग्गुणीए आसाढीए कुलं वा उपकुलं वा कुलोवकुलं वा अवसेसियाण कुलं वा उवकुलं बा जोएइ । जयाणं भंते ! साविट्री पुषिणमा भवइ, तयाणं माही अमावासा भवइ । जयार्ण भंते ! माही पुषिणमा भवइ, तयाणं साविट्ठी अमावासा भवइ ? हंता गोयमा ! जयाणं साविटी तं चेव वत्तव्वं । जयाणं भंते : पोटूवई पुणिमा भवा Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मूखीपप्रतिरो तयाणं फग्गुणी अमावासा भवइ जयाण फग्गुणी पुषिणमा भवइ तयाणं पोट्टवई अमावासा भवइ ? हंता गोयमा ! तं चेत्र । एवं एएणं अभिलावेणं इमाओ पुण्णिमाओ अमावासाओ पेयवाओ अस्सिणी पुणिमा चेती अमावासा कत्तिगी पुण्णिमा वइसाही अमावासा मग्गसिरी जेट्ठा मूली अमावासा पोसी पुण्णिमा आसाढी अमावासा । सू०२५॥ ___ छाया-कति खलु भदन्त ! कुलानि कति उपकुलानि कति कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्वादश कुलानि, द्वादश उपकुलानि चत्वारि कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि । द्वादशकुलानि तद्यथा-धनिष्ठा कुलम् १, उत्तरभद्रपदाकुलम् २, अश्विनीकुरुम् ३, कृत्तिका कुलम् ४, मृगशिरः कुलम् ५, पुष्यः कुलम्, मघाकुलम् ७, उत्तरफलानीकुलम् ८, चित्राकुलम् ९, विशाखाकुलम् १०, मूलः ११, उत्तराषाढाकुलम् १२ । मासानां परिणामानि भवन्ति कुलानि, उपकुलानि तु अबस्तनानि भवन्ति । पुनः कुलोपकुलानि अभिजित् शतभिषक, आर्द्रा अनुराधा १, द्वादशोपकुलानि तद्यथा-श्रवणउपकुलम् १ पूर्व भद्रपदोपकुलम् २, रेवती उपकुलम् ३, भरणीउपकु लम् ४, रोहिणी उपकुलम् ५, पुनर्वसु उपकुलम् ६, अश्लेषा उपकुलम् ७, पूर्वक लानी उ। कुलम् ८, हस्त उपकुलम् ९, स्वाती उपकुलम् १० ज्येष्ठा उप. कुलम् १', पूर्वाषाढा उपकुलम् १२, चत्वार कुलोपकु छानि तद्यथा-अभिजित् कुलोपकुलम् १, शतभिषककुलो कुल २, आर्द्राकुलोपकुलम् ३, अनुराधा कुलोपकुलम् ४, क ते खलु भदन्त ! पूर्णिमाः कति खलु भदन्त ! अमावास्याः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्वादश पूर्णिमाः द्वादशः अमावास्याः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-श्राविष्ठो १, प्रौष्ठपदी २, आश्वयुजी ३, कार्तिकी ४, मार्गशीर्षी ५, पौषी माघी फाल्गुनी चैत्री वैशाखी ज्येष्ठा मूली आषाढी । श्राविष्ठीं खलु भदन्त ! पौर्णमासी कति नक्षत्राणि योगं योजयन्ति, गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि योगं योजयन्ति, तद्यथा-अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा । प्रौष्ठपदी खलु भदन्त ! पुर्णिमा कति नक्षः त्राणि योगं योजयन्ति ? गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि योगं योजयन्ति तद्यथा-शतभिषक् पूर्व भद्रपदा । उत्तरभद्रपदा । आश्विनी खलु भदन्त ! पूर्णिमा कति नक्षत्राणि योगं योजयन्ति ? गौतम ! द्वे योजयतः तद्यथा-रेवती अश्विनी च । कार्तिकी खलु भदन्त ! पूर्णिमां द्वे भरणो कृत्तिका च । मार्गशीर्षी द्वे रोहिणी मृगशिरश्च । पौर्षी त्रीणि आर्द्रा पुनर्वसू पुष्यः माघी खलु द्वे अश्लेपा मघा च । फाल्गुनी खलु द्वे पूर्वा फाल्गुनी चोत्तरा फाल्गुनी च । चैत्री खलु द्वे हस्तश्चित्रा च, वैशाखीं खलु द्वे स्वाती विशाखा च, ज्येष्ठां मूलीं खलु त्रीणि अनुराधा ज्येष्ठा मू: । आषाढी खलु द्वे पूर्वाषाढा उत्तराषाढा। श्राविष्ठीं खलु भदन्त ! पूर्णिमा किं कुलं (युनक्ति) योजयति उपकुलं योजयति कुलोपकुलं योजयति ? गौतम ! Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलाविहारनिरूपणम् कुलं वा योजयति, उपकुलं वा योजयति, कुलोपकुलं वा योजयति, कुलं युञ्जन् धनिष्ठा नक्षत्र युनक्ति, उपकुलं युञ्जन् श्रवण नक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युञ्जन् अभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, श्राविष्ठीं पुर्णिमा खलु कुलं वा युनक्ति, यावत् कुलोपकुलं युनक्ति, कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता श्राविष्ठी पूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्यात् । प्रौष्ठपदी खलु भदन्त ! पूर्णिमा किं कुलं युनक्ति ३ पृच्छा' गौतम ! कुलं वा उपकुलं वा कुलोपकुलं वा युनक्ति, कुलं युञ्जद् उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रं युनक्ति उपकुलं युञ्जत् पूर्वभाद्रपद नक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युञ्जत् शतभिषग्नक्षत्रं युनक्ति, प्रौष्टपदी खलु पूर्णिमां कुलं वा युनक्ति, यावत् कुलोपकुलं वा युनक्ति, कुलेन वा युक्ता यावत् कुलोपकुलेन वा युक्ता प्रौष्ठपदी पूर्णिमासी युक्ते ति वक्तव्यं स्यात् । आश्विनी खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनविन नो लभते कुलोरकुलम् कुलं युञ्जन् अशिनी नक्षत्र युनक्ति उपकुलं युञ्जत् रेवती नक्षत्र युनक्ति, आश्वयुनी पूर्णिमां कुन्नं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति, कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता आश्वयुजीपूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्यात् । कार्तिकी खलु भदन्त ! पूर्णिमां किं कुलं ३ पृच्छ!, गौतम ! कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति नो कुलोरकुलं युनक्ति कुलं युञ्जत् कृत्तिका नक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जन भरणी कार्तिकी खलु यावद् वक्तव्यं स्यात्. मार्गशीर्षी खलु भदन्त ! पूर्णिमा यावद् वक्तव्य स्यात् । एवं शेषिका अपि यावदापाढीम् पौषी ज्येष्ठा मूलीं च कुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा, शेषिकाणां कुलं वा उपकुलं वा कुलोकुलं न भण्यते । श्राविष्ठी खलु भदन्त ! अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? गौतम ! द्वे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-अश्लेषा च मघा च । पौष्ठपदी खलु भदन्त ! अमावास्या कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? गौतम ! द्वे पूर्वा फाल्गुनी उत्तरा फाल्गुनी च । आश्वयुजी खलु भदन्त ! द्वे हस्तश्चित्रा च, कार्तिकी खलु द्वे स्वाती विशाखा च. मार्गशीर्षी खलु त्रीणि अनुराधाज्येष्ठा मूलश्च, पोष्ठी खलु द्वे पूर्वा पाढा उत्तराषाढा च, माधी खलु त्रीणि अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा च, फाल्गुनी खलु त्रीणि शतभिषा पूर्वभाद्रपदा उत्तर भाद्रपदा, चैत्री खलु द्वे रेवती अश्विनी च, वैशाखी खलु द्वे भरणी कृत्तिका च, ज्येष्ठामुलीं खलु द्वे रोहिणी मृगशिरश्च, आषाढी खल्ल त्रीणि आर्द्रा पुनर्वसू पुष्यः । श्राविष्ठी खलु भदन्त ! अमावास्यां किं कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्तिकुलोपकुलं युनक्ति ? गौतम ! कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति, नो लभते कुलोपकुलम् कुलं युञ्जत् मघानक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं वा युञ्जत् अश्लेषा नक्षत्रं युनक्ति श्राविष्टि खलु अमावास्या कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति, कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता श्रावि. ष्ठी अमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात् । प्रोष्ठपदी खलु भदन्त ! अमावास्यां तदेव द्वे युक्तः, उपकुलं वा युक्तः कुलं युञ्जन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं युनक्ति प्रौष्टपदीं खलु अमावास्यां यावद्वक्तव्यं स्यात् । मार्गशीर्षी खलु तदेव, कुलं मूलं नक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् ज्येष्ठा नक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युञ्जत् अनुराधा यावत् १०४७ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपप्रतिसूत्र युक्तेति वक्तव्यं स्यात् । एवं माध्याः फाल्गुन्या आषाढयाः कुलं वा उपकुलं वा कुलोपकुलं वा, अवशेषिकाणां कुलंवा उपकुलं वा युनक्ति । यदा खलु भवन्त ! श्राविष्ठी पुर्णिमा भवति, तदा खलु श्राविष्ठी अमावास्या भवति ? हन्त गौतम ! यदा खलु श्राविष्ठी तदेव वक्तव्यम्, यदा खलु प्रौष्ठपदी पूर्णिमा भवति तदा खलु फाल्गुनी अमावास्या भवति ? यदा खलु फाल्गुनी पूर्णिमा भवति तदा खलु पोष्ठपदी अमावास्या भवति, हन्त गौतम! तदेव । एवमेतेनाभिलापेन इमाः पूर्णिमा अमावास्या नेतन्याः, आश्विनी पूर्णिमा चैत्री अमावास्या कार्तिकी पूर्णिमा वैशाखी अमावास्या मार्गशीर्षी पूर्णिमा ज्येष्ठा मूली अमावास्या पौषी पूर्णिमा आषाढी अमावास्या ॥ सू० २५॥ टीका-'कइणं भंते ! कुला' कति खलु भदन्त ! कुलानि अर्थात् कुलसंख्यकानि नक्षत्राणि कथितानि तथा-'कइ उवकुला' कति-कियत्संख्यकानि उपकुलानि-उपकुलसंज्ञकानि नक्षत्राणि तथा-'कइकुलोवकुला पन्नत्ता' कति-कियत्संख्यकानि कुलोपकुलानि-कुलोपकुल संज्ञकानि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि कथितानीति कुलोपकुलसंज्ञकनक्षत्रविषयकः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बारसकुला बारसउवकुला चत्तारि कुलोवकुला पन्नत्ता' द्वादशकुलानि अर्थात अष्टाविंशति नक्षत्रेषु मध्ये द्वादशसंख्यकानि नक्षत्राणि कुलसंज्ञकानि भवन्ति तथा-द्वादशोपकुलानि अर्थात् अष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये द्वादशनक्षप्राणि उपकुलसंज्ञकानि भवन्ति तथा चत्वारि कुलोपकुलानि, अष्टाविंशति नक्षत्रेषु मध्ये चत्वारि नक्षत्राणि कुलोपकुलसंज्ञकानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति भगवत उत्तरमिति । तत्र नक्षत्रों का कुल द्वार कथन 'कहणं भंते ! कुला, कइ उवकुला' । टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! कुल संज्ञक नक्षत्र कितने कहे गये हैं ? 'कई उवकुला' उपकुल संज्ञक नक्षत्र कितने कहे गये हैं ? और 'कई कुलोवकुला' कितने नक्षत्र कुलोपकुल संज्ञक कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! वारसकुला, बारस उवकुला चतारि कुलोवकुला' गौतम! इन २८ नक्षत्रों में से १२ नक्षत्र कुल संज्ञक हैं, १२ नक्षत्र उपकुल संज्ञक हैं और ४ नक्षत्र कुलोपकुल संज्ञक हैं । 'तं जहा' जो कुलसंज्ञक नक्षत्र हैं वे १२ नक्षत्र નક્ષત્રના કુળદ્વારનું કથન 'कइणं भंते ! कुला कइ उबकुला इत्यादि ।। ટીકાર્ય–ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આમ પૂછયું છે-કે ભદત ! કુલ સંજ્ઞક નક્ષત્ર કેટલા वामां माया छ ? 'कइ उवकुला' ५४सज्ञ नक्षत्र साभां भाव्या छ ? म. 'कई कलोवकुला' ai नक्षत्र सोपस सज्ञ४ ४ामा मा०॥ छ ? माना rai प्रभु ४३ छे. 'गोयमा ! बारसकुला, बारस उवकुला चत्तारि कुलोवकुला' ગૌતમ! આ અઠયાવીસ નક્ષત્રમાંથી ૧૭ નક્ષત્ર કુલ સંશક છે, ૧૨ નક્ષત્ર ઉપકુલ સંજ્ઞક D ने ४ नक्षत्र के 'ते नहा' हे नक्षत्र ते १२ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् कानि नक्षत्राणि कुलसंज्ञकानि इति दर्शयितुमाह-- ' बारस' इत्यादि, 'बारसकुला' द्वादशसंख्य कानि नक्षत्राणि कुळसंज्ञकानि भवन्तीत्यर्थः, तत्र कानि नक्षत्राणि यानि कुलसंज्ञकानि भवन्ति तत्राह - 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'धणिद्वाकुलं १' घनिष्ठा कुलम् - धनिष्ठानामकं नक्षत्रं कुलसंज्ञकं भवति १ तथा - ' उत्तरभदवयाकुलं २' उत्तरभद्रपदा कुलम् - उत्तरभद्रपदा नक्षत्रमपि कुलसंज्ञकमेवेत्यर्थः २ । ' अस्सिणी कुलं ३' अश्विनीकुलम्, अश्विनीमक्षत्रमपि कुलसंज्ञकं भवतीति ३ । 'कत्तियाकुलं ४' कृत्तिक कुलम्, कृत्तिकानक्षत्रमपि कुलसंज्ञकमेव भवतीति ४ । मिगसिरकुलं ५ ' मृगशिरः कुलम् मृगशिरो नक्षत्रमपि कुलसंज्ञकमेव ५ । ' पुस्सः कुलं' पुष्यः कुलम् पुष्यनाम कनक्षत्रमपि कुलसंज्ञकं भवति ६ । 'महाकुलं ' मघाकुलम्, मघानामकनक्षत्रमपि कुल संज्ञकमेव भवतीति ७ । 'उत्तर फग्गुणी कुलं ८' उत्तर फल्गुनीकुलम् उत्तर फल्गुनी नक्षत्रमपि कुलसंज्ञकमेव भवति ८ । 'चित्ताकुलं ९' चित्राकुलम् चित्रानामक नक्षत्रमपि कुलसंज्ञकं भवतीति ९ । 'विसाहाकुलं १०' विशाखा नक्षत्रमपि कुल संज्ञकं भवति १०, 'मूलोकुलं ११' मूलकुलम् मूलनक्षत्रमपि कुलसंज्ञकं भवति, ११, 'उत्तरासाढा कुलं' उत्तराषाढाकुलम् - उत्तराषाढा नक्षत्रमपि कुलसंज्ञकं भवतीति तदेतानि धनिष्ठोत्तरभद्रपदा अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्य मघोत्तरफल्गुनी चित्रा विशाखा मूलोत्तराषाढा नक्षत्राणि अष्टाविंशति नक्षत्रमध्यात् कुलसंज्ञकानि भवन्तीति ॥ अथ कुलं कुलोपकुलादि नक्षत्राणामर्थमाह- 'मासा' इत्यादि, 'मासार्ण परिणामा होति कुला' मासानां श्रावणादीनां परिणामानि - परिसमापकानि भवन्ति कुलानि इस प्रकार के नाम वाले हैं -८ 'घणिट्ठा कुलं' धनिष्ठा नक्षत्र कुल संज्ञक है 'उत्तर भद्दवया कुलं' उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र कुल संज्ञक है 'अस्सिणी कुलं' अश्विनी नक्षत्र कुल संज्ञक है । 'कत्तिया कुलं' कृत्तिका नक्षत्र कुल संज्ञक है 'मिगसिर कुल' मृगशिरा नक्षत्र कुलसंज्ञक है 'पुस्सो कुलं' पुष्य नक्षत्र कुल संज्ञक है 'महाकुल' मघा नक्षत्र कुल संज्ञक हैं 'उत्तर फग्गुणी कुलं' उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र कुल संज्ञक है 'चित्ता कुलं' चित्रा नक्षत्र कुल संज्ञक है 'विसाहा कुलं' विशाखा नक्षत्र कुल संज्ञक है 'मूलो कुलं' मूल नक्षत्र कुल संज्ञक है 'उत्तरासाढा कुलं' उत्तराषाढा नक्षत्र कुल संज्ञक है' इस प्रकार से ये १२ नक्षत्र कुल संज्ञक प्रकट या नाभवाणा - 'धणिट्ठा कुलं' धनिया नक्षत्र संज्ञ छे 'उत्तरमद्दवया कुलं' उत्तरभाद्रयहा नक्षत्रज्ञ हे 'अस्सिणीकुलं' अश्विनी नक्षत्र संज्ञ छे 'कत्तिया कुलं' इत्ति नक्षत्रष्टुस स ंज्ञः छे 'मिगसिर कुलं' भृगशिरा नक्षत्र व संज्ञ 'पुस्सो कुलं' पुष्य नक्षत्र हुआ स ंज्ञ छे 'महाकुलं' मघा नक्षत्र व संज्ञ 'उत्तरफग्गुणी कुलं' उत्तरादिगुनी नक्षत्र मुझ संज्ञ छे 'चित्ता कुलं' चित्रा नक्षत्र इस सराह छे. 'बिसाहा कुलं' विशामा नक्षत्र मुल स ंज्ञ छे. 'मूलो कुलं' भूल नक्षत्र व संज्ञ छे 'उत्तरासाढा कुलं' उत्तराषाढा નક્ષત્ર કુલ સજ્ઞક છે. આ રીતે આ ખાર નક્ષત્ર કુલ સજ્ઞક પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૭૨ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यानि नक्षत्राणि मास परिसमापकानि तानिनक्षत्राणि कुलसंज्ञकानि भवन्ति, अयं भावः-अत्र खलु यैर्नक्षत्रः प्रायो मासानां परिसमाप्तयो भवन्ति तथा माससदृशनामानि च यानि नक्षत्राणि तानि नक्षत्राणि कुळानि इति प्रसिद्धानि, तद्यथा श्राविष्ठः श्रावणः ) मासः प्रायः निष्ठपरपर्याया श्राविष्ठया परिसमाप्ति सुपैति भाद्रपदमास उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रेण परिसमाप्तिमुपैति, अश्वयुक् अश्विन्या परिसमाप्तिमुपैति । श्रविष्ठादीनि नक्षत्राणि प्रायो मासपरिसमापकानि माससदृशनामानि च, प्रायो ग्रहणात् उपकुलादिभिरपि नक्षत्र मांसस्य परिसमाप्तिर्भवतीति सूचितम् 'उवकुलाउ हेट्टिमगा' उपकुलानि तु अवस्तनानि, कुलानां कुलसंज्ञकानां नक्षत्राणा मधस्तनानि नक्षत्राणि श्रवणादनि उपकुलानि भवन्ति कुलानां समीपसुपकुलम् तत्र वर्तन्ते यानि नक्षत्राणि तानि उपचारादुपकुलानि इति व्युत्पत्तेः, 'होंति पुण किये गये हैं 'मासाणं परिणाना होंतिकुला' ये कुल संज्ञक नक्षत्र श्रावणादि मासों के परिसमापक होते हैं-तात्पर्य यह है कि जो नक्षत्र मासों के परिसमापक होते है वे नक्षत्र कुलसंज्ञक कहे गये हैं जिन नक्षत्रों द्वारा प्रायः नालों की परिसमाप्ति होती है तथा जो नक्षत्र मासों के जैसे नामवाले होते हैं वे नक्षत्र कुल संज्ञक है जैसे- श्राविष्ठा-श्रावणमास प्रायः धनिष्ठा जिसका दूसरा नाम है ऐसे श्राविष्ठा नक्षत्र से परिसमाप्त होता है भाद्रपदमास उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र से परिसमाप्त होता है अश्वयुक् मास अश्विनी नक्षत्र से परिसमाप्त होता है प्रायः मास के परिसमापक ये श्राविष्ठा आदि नक्षत्र मास के सदृश नाम वाले यहां प्रायः शब्द जो कहा गया है उससे यह समझाया गया है कि उपकुलादि संज्ञक जो नक्षत्र हैं उनके द्वारा भी मास की परिसमाप्ति होती है 'उवकुलाउ हेट्ठिमग्ग' उपकुल संज्ञक ये नक्षत्र हैं जो नक्षत्र कुल संज्ञक नक्षत्रों के पास होते हैं - वे नक्षत्र उपचार से उपकुल संज्ञक हैं और वे श्रवण आदि नक्षत्र 'मासाणं परिणामा होंति कुला' असं नक्षत्र श्रावद्धि भासना परिसमा डाय છે. તાપય એ છે કે જે નક્ષત્ર માસના પરિસમાપક હોય છે તે નક્ષત કુલ સ ́જ્ઞક કહેવાય છે, જે નક્ષત્રા દ્વારા સાધારણ રીતે માસાની પરિસમાપ્તિ થાય છે તથા જે નક્ષત્રા માસના નમ જેવા હેાય છે તે નક્ષત્ર કુલક્ષજ્ઞક છે જેવા કે-શ્રાવિા-શ્રાવણમાસ લગભગ ધનિષ્ઠા જેનું બીજુ નામ છે એવા શ્ર:વિષ્ઠા નક્ષત્રી પરિસમાપ્ત થાય છે, ભાદ્રપદનામ ઉત્તરાભાદ્રપદા નક્ષત્રથી પરિક્રમાપ્ત થાય છે અશ્ર્વયુક્સ અશ્વિની નક્ષત્રથી પરિસમાપ્ત થાય છે. લગભગ મસત પરિક્રમાંક આ શ્રાવિષ્ઠા આદિ નક્ષત્ર નાસન જેવાં નામવાળા છે. અહીં ‘પ્રાયઃ' શબ્દના જે ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યે છે તેનાથી એવું સમજાવવામાં માળ્યુ છે કે ઉપકુલાર્દિ સંજ્ઞક જે નક્ષત્ર છે તેમની દ્વારા પણ માસની परिसमाप्ति थाय छे- 'उवकुलाउ होट्टिमग्ग' उपसंज्ञा नक्षत्र हे नक्षत्र स સંજ્ઞક નક્ષત્રાની પાસે હુાય છે તે નક્ષત્રા ઉપચારથી ઉપકુલ સજ્ઞક છે અને આ શ્રવણુ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिधारनिरूपणम् ३७३ कुलोचकुलो' यानि नक्षत्राणि उपकुलसंज्ञकनक्षत्राणा मधस्तनानि त नि कुलोपकुलानि नक्षत्राणि, तानि 'अभिजिसय अद्द अणुराहा' अभिनित शतभिषक् आर्दा अनुराधेति १। सम्प्रति-उपकुल संज्ञकनक्षत्रनामग्राहं दर्शयितुमाह-'बारस उचकुला' इति, 'बारस उवकुला' द्वादशोपकु शनि द्वादशसंख्या नक्षत्राणि उपकुल संज्ञकानि भवन्ति, तान्येव द्वादशनक्षत्राणि दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'सवणो उव कुलं' श्रवण उपकुलम् श्रवणनक्षत्र मुपकुलसंज्ञकं भवति, 'पुव्वभवया उपकुलं' पूर्वभद्रपदा उपकुलम्, 'रेवई उपकुलं' रेवती उपकुलं रेवतीनामकं नक्षत्रमुपकुलसंज्ञकं भवति, 'भरणी उबकुलं' भरणी उपकुलम्, भरणीनामकं नक्षत्रमुपकुलसंज्ञः भवति 'रोहिणी उवकुलं' रोहिणी उपकुलं रोहिणी नक्षत्रमुपकुलसंज्ञकं भवति, 'पुणवम् उवकुलं' पुनर्वषु उपकुलम् पुनर्व मुनक्षत्रमुपकुलसंज्ञकं भवति, 'अस्सेसा उपकुलं' अश्लेषानक्षत्रमुपकुलसंज्ञकं भवति 'पुष फग्गुणी उपकुलं' पूर्वफल्गुनी नक्षत्रम् उपकुलसंज्ञकं भवति, 'हत्यो उपकुलं' हस्त उपकुलं' हसतनामकं नक्षत्रमुपकुल संज्ञकं हैं ‘होतिपुण कुलोवकुला' जो नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्रों के नीचे रहते हैं वे कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र हैं ऐसे वे 'अभिई सयभिप्लग अह अणुराहा' अभिजित् शतभिषक् आर्द्रा और अनुराधा ये नक्षत्र हैं। __ अब सूत्रकार स्वयं उपकुल संज्ञक नक्षत्रों क नाम निर्देश करते हैं-'सधणो उपकुलं, पुत्वभवया उवकुलं' श्रवणनक्षत्र उपकुलसंज्ञक नक्षत्र है 'पुव भद्दबया उवकुलं' पूर्व भाद्रपदा नक्षत्र उपकुलसंज्ञक नक्षत्र है 'रेवई उपकुलं' रेवती नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्र है 'भरणी उपकुलं' भरणी नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्र है'रोहिणी उवकुलं' रोहिणी नक्षत्र उपकुल संज्ञकनक्षत्र है 'पुणव्यसु उवकुलं पुनर्वसु नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्र है 'अस्सेसा उवकुलं' अश्लेषा नक्षत्र उपकुलसंज्ञक नक्षत्र है 'पुच्चफग्गुनी उपकुलं' पूर्वाफाल्गुनी उपकुलसंज्ञक नक्षत्र है। 'हत्थो उपकुलं' हस्त नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्र है 'साई उ कुलं' स्वाति नक्षत्र उपकुल मा नक्षत्र छ ‘होति पुण कुलोबकुला' २ नक्षत्र ७५३ स नक्षत्रानी नाये रहे छ तेय मु५९१ ०४ नक्ष। छे. यावा ते 'अभिई सयभिसग अह अणुराहा' भमिति, શતભિષ, આદ્ર અને અનુરાધા આ નક્ષત્ર છે. वे सूत्रा२ २५२३५४ ४ नक्षत्राना नाम निश ४३ छ-'सवणो उपकुलं श्रवण नक्षत्र 63 स नक्षत्र छ. 'पुव्वभवया उपकुलं' पूर्वभाद्र ५४। नक्षत्र उपस सज्ञ४ नक्षत्र छ. 'रेवई उवकुलं' रेवती नक्षत्र ५२१ सज्ञ नक्षत्र छे. 'भरणी उवकुलं' भणी नक्षत्र 3५१ संज्ञ४ नक्षत्र छे. 'रोहिणी उवकुलं' । नक्षत्र ०५४ स नक्षत्र छे. 'पुणव्वसु उवकुलं' धुन सु नक्षत्र ५९३ सज्ञ नक्षत्र छे. 'अस्सेसा उवकुलं' मा नक्षत्र ५ स नक्षत्र छे. 'पुव्वफग्गुणी उवकुलं' पूर्वा. गुनी नक्षत्र ५८ ४ नक्षत्र छे. 'हत्थो उवकुलं' त नक्षत्र ७५४३ ४ नक्षत्र Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मूखीपप्रज्ञप्तिसूत्र भवति, 'साई उपकुलं' स्वातीनामकं नक्षत्रमुपकुलसंज्ञकं भवति 'जेहा उपकुलं' ज्येष्ठानामकं नक्षत्रमुपकुलसंज्ञकं भवति, 'पुयासाढा उवकुलं' पूर्वाषाढानामकं नक्षत्रमुपकुलसंज्ञकं भवति, तदेतानि श्रवण पूर्वभद्रपदा रेवती भरणी रोहिणी पुनर्वस अश्लेषा पूर्वफल्गुनी हस्त स्वाती ज्येष्ठा पूर्वाषाढा नक्षत्राणि द्वादशसंख्यकानि उपकुलसंज्ञकानि समाख्यातानीति ॥ संप्रति कुलोपकुलसंज्ञकनक्षत्राणि नामग्राहं दर्शयितुमाह-'चत्तारि' इत्यादि, 'चत्तारि कुलोवकुला' चत्वारि-चतुः-संख्यकानि नक्षत्राणि कुलोपकुलानि-कुलोपकुळसंज्ञकानि भवन्ति । तान्येव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'अभिई कुलोवकुला' अभिजिन्नक्षत्रं कुलोपकुलम्-कुलोपकुल संज्ञकं भवति 'सयभिसया कुलोवकुला' शतभिषक् नक्षत्रं कुलोपकुलं कुलोपकुलसंज्ञकं भवति 'अदा कुळोवकुला' आनक्षत्रं कुलोपकुलम्-कुलो. पकुलसंज्ञकं भवति । ___ अथ एतेषां नक्षत्राणां कुलादि संज्ञाकरणे किं प्रयोजनमिति चेत-अत्रोच्यते-फलितशास्त्रेषु कुलादिसंज्ञयाः प्रयोजनदर्शनात् तथाहि “पूर्वेषु जाता दातारः संग्रामे स्थायिनां जयः। अन्येषु अन्य सेवाायायिनां च सदा जयः १" इत्यादि ॥ संज्ञक नक्षत्र है जेठो उपकुलं' ज्येष्ठा नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्र है 'पुव्वासाढा उक्कुलं' पूर्वाषाढा नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्र है इस तरह श्रवण से लेकर पूर्वा षाढा तक के ये सब नक्षत्र उपकुल संज्ञक नक्षत्र है कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्रों के नाम इस प्रकार से हैं-'चत्तारी कुलोवकुला' कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र चार हैं ऐसा पहिले प्रकट किया गया है-'तं जहां सो उनके नाम इस प्रकार से हैं 'अभिई कुलोवकुला' अभिजित् नक्षत्र कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र है 'सयभिसया कुलोचकुला' शतभिषा नक्षत्र कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र है 'अदा कुलोचकुला' आदी नक्षत्र कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र है 'अणुराहा कुलोचकुला' अनुराधा नक्षत्र कुलोपकुल संज्ञक है ___ अब सूत्रकार इस बात को प्रकट करते हैं कि इन नक्षत्रों की जो कुल उपछ. 'जेद्वा उपकुलं' ज्येष्ठा नक्षत्र ५७३ स नक्षत्र छे. 'पुवासाढा उवकुलं' पूर्वाषाढा નક્ષત્ર ઉકુલ સંશક નક્ષત્ર છે. આ રીતે શ્રવણથી લઈને પૂર્વાષાઢા સુધીના આ બધાં नक्षत्र ५३ ४ नक्षत्र छे. सो५६ स नक्षत्रानां नाम 24 प्रमाणे छ-'चत्तारि कुलोचकुला' ५४३ नक्षत्र या२ छे 13 प्र४८ ४२मा माव्युठे-'तं जहा' तमना नाम मा प्रमाणे छे-'अभिईकुलोवकुला' ममिति नक्षत्र शुओ५० स नक्षत्र छ. 'सयभिसया कुलोवकुला' शनि५५ नक्षत्र ५स सज्ञ नक्षत्र छ 'अदा कुलोषकुला' मा नक्षत्र शु.५४४ स नक्षत्र छ. 'अणुराहा कुलोवकुलं' अनुराधा नक्षत्र ५४० સંજ્ઞક છે. હવે સૂત્રકાર એ કથન પ્રકટ કરે છે કે આ નક્ષત્રની જે કુલ ઉપકુલ આદિ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. २७ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ३७५ सम्प्रति-पूर्णिमाऽमावस्या द्वारं दर्शयितुमाह-'करणं भंते, इत्यादि, 'कइणं मंते ! पुण्णिमाओ कइअमावस्सा भो पन्नत्ताओ' कतिकियत्संज्ञकाः खलु भदन्त । पूर्णिमास्तथा कति-कियत्संज्ञका अमावास्याः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, तत्र पूर्णिमा, परिस्फुट परिदृश्यमान षोडश कलाविशिष्ट चन्द्रोपेतकालविशेषरूपा ज्योति शास्त्रप्रसिद्धा, पूर्णेन परिपूर्णेन चन्द्रेण निवृत्ता तिथिः पूर्णिमा इति व्युत्पत्तेः, तथा--अमावास्या एककालावच्छेदेन एकस्मिन् नक्षत्रे चन्द्रसूर्यावस्थानाधारकालविशेषरूपा अमासह चन्द्राकौं वसतोऽस्यामिति अमावास्या, इय. मेव कूहूप्रभृति शब्देनापि व्यवहियते इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' कुल आदि रूप से संज्ञा करने में आई है उसका क्या प्रयोजन है ? तो इसके लिए कहा गया है-कि फलित शास्त्रों में कुलादि संज्ञा का प्रयोजन-पूर्वेषु जाता दातारः संग्रामे स्थायिनां जयः, अन्येषु अन्य सेवा" यायिनां च सदा जयः' इत्यादि रूप से देखा जाता है। पूर्णिमा अमावास्या द्वार'कहणं भंते ! पुण्णिमाओ, कइ अमावस्सामो०' हे भदन्त ! पूर्णिमा और अमावास्या कितनी कही गई है ? परिस्फुट रूप से परिदृश्यमान सोलहकलाओं विशिष्ट चन्द्र से युक्त जो कालविशेष रूप है वह ज्योतिः शास्त्रप्रसिद्ध पूर्णिमा है परिपूर्ण चन्द्र से निष्पन्न हुई तिथिको ही पूर्णिमा कहा-गया है तथा अमा. वास्या के साथ २ एक ही नक्षत्र पर चन्द्र और सूर्य जिस तिथि में रहते हैं उस तिथि का नाम अमावास्या है यह अमावास्या तिथि सूर्य और चन्द्रमा इन दोनों के एक ही साथ रहने का काल विशेष रूप कही गई है 'अमासह वर्तेते सूर्याचन्द्रमसौ यस्यां सा अमावास्या' ऐसी ही इसकी व्युत्पत्ति है यह अमावास्यो રૂપથી સંજ્ઞા કરવામાં આવી છે તેનું શું પ્રયોજન છે? આના જવાબમાં કહેવામાં આવ્યું छ :-लित शास्त्रोमi gals सज्ञानु प्रयोशन-पूर्वेषु जाता दातारः संग्रामे स्थापिनां जयः, अन्येषु अन्य सेवा यायिनां च सदा जयः' वगेरे ३५थी वामां आवे छे. __ पूणिमा अमावास्याद्वार___'कइ णं भंते ! पुण्णिमाओ कइ अमावस्साओ०' ३ महन्त ! पूणिमा भने साथ। કેટલી કહેવામાં આવી છે? પરિફુટ રૂપથી પરિદશ્યમાન સેળ કળાએથી વિશિષ્ટ ચન્દ્રથી યુક્ત જે કાલ વિશેષ રૂપ છે તે તિકશાસ્ત્ર પ્રસિદ્ધ પૂર્ણિમા છે. પરિપૂર્ણ ચન્દ્રથી નિષ્પન થયેલી તિથિને જ પૂર્ણિમા કહેવામાં આવી છે તથા અમાવાસ્યાની સાથે સાથે એક જ નક્ષત્ર પર ચન્દ્ર અને સૂર્ય જે તિથિમાં રહે છે તે તિથિનું નામ અમાવાસ્યા છે. આ અમાવાસ્યા તિથિ સૂર્ય અને ચન્દ્રમાંએ બંનેને એકી સાથે જ રહેવાના કાલ વિશેષ ३५ ४ामा भावी छ. 'अमा सह बर्तते सूर्याश्चन्द्रमसौयस्यां सा अमावास्या' मेवी तेना વ્યુત્પત્તિ છે. આ અમાવાસ્યા ઉહ આદિ પર્યાયવાચી શબ્દો દ્વારા પણ અનિહિત થયેલ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिस्ये हे गौतम ! 'बारस पुण्णिमाओ पारस अमावस्सायो पमनाभो' द्वादश-द्वादशसंज्ञकाः पूर्णिमा स्तथा द्वादश संख्यका एवामावास्याः प्रज्ञप्ताः कथिताः, तानेव द्वादश भेदान दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'साविट्ठी' श्राविष्ठी श्रावणमासभाविनी, तत्र श्रविष्ठा धनिष्ठा तस्यां भवा या सा श्राविष्ठी पूर्णिमा अमावास्या च 'पोवई' प्रौष्ठपदी, तत्र प्रौष्टपदा उत्तरभद्रपदा तस्यां भवा प्रौष्ठपदी भाद्रपदमास भाविनी 'असोई' आश्वयुजी तत्र अश्वयुक् अश्विनी तस्यां भवा आश्वयुजी आश्विनेयमास भाविनी, 'कत्तिगी ४' कार्तिकी कृत्तिकायां भवा कार्तिकी कार्तिकमास भाविनी, 'मग्गसिरी ५' मार्गशीर्षी मृगशीर्षनक्षत्र भवा 'पोसी ५' पौषी-पुष्य नक्षत्रे भवा पौषी 'माही ६ माघी मघायां भवा माघी 'फग्गुणी' कुहू आदि पर्याय वाची शब्दों द्वारा भी अभिहित हुई है तथा च अब प्रकृत प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं-'गोयमा बारस पुषिणमाओ बारस अमा. वासाओ' हे गौतम ! १२ पूर्णिमाएं और १२ ही अमावास्याएं कही गई हैं। 'तं जहा' वे उन दोनों के १२ प्रकार ये हैं-'साविट्ठी' श्राविष्ठी-श्रावणमास भाविनी-अविष्ठा धनिष्ठा में जो होती है ऐसी पूर्णिमा और अमावास्या को श्राविष्ठी-श्रावणमासभाविनी कहा गया है 'पोट्टवई' भाद्रपद मास भाविनी प्रोष्टपदा नाम उत्तर भाद्रपद नक्षत्र का है इस नक्षत्र में जो पूर्णिमा और अमावास्या होती है वह प्रौष्ठपदी-भाद्रपद मासभाविनी पूर्णिमा एवं अमा. वास्था 'आसोई' आश्विनेयमास की जो पूर्णिमा और अमावास्या है वह आश्व यजी पूर्णिमा और अमावास्या है 'कत्तिगो' कृत्तिका नक्षत्र में जो पूर्णिमा और अमावास्या होती है वह कार्तिक मास भाविनी पूर्णिमा और अमावास्या है 'मग्गसिरी' मृगशीर्ष नक्षत्र में जो पूर्णिमा और अमावास्या होती है वह मार्गशीर्षी पूर्णिमा और अमावास्या है 'पोसी' पुष्य नक्षत्र में होने वाली पूर्णिमा छ तथा य ९३ प्रत प्रश्न उत्तर आता 2xi प्रभु ४९ -'गोयमा ! बारस पुण्णिमाओ बारस आमावसाओ' है गोतम! १२ भूमिमा भने १२ अमावास्याये। यामा मावत छ. 'तं जहा' ते 'नना १२ १२ २. प्रभारी छे-'साविट्ठी' श्रावि०ी-श्रावY. માસ ભાવિની–વિઠા-ધનિષ્ઠામાં જે હેય થાય છે એવી પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યાને श्राविही-श्रावघास मालिनी ४ामा भावी छे. 'पावई' भाद्र ५४मास साविनी-गोष्ट. પદા નામ ઉત્તરભાદ્રપદ નક્ષત્રનું છે. આ નક્ષત્રમાં જે પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યા આવે છે ते पीपी-भाद्र ५४ पास लाविना पूर्णमा भने अमावास्या छ 'आसोई' माश्विनयમાસની જે પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યા છે તે આશ્વયુજી પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યા છે. 'कत्तिगी' कृत्ति। नक्षत्रमा ५ मा १२ अमावास्या मावे छ ते ४तिभास मालिनी पूर्णिमा म२ २५मास्या माव छ 'मग्गसिरी' भृग नक्षत्रमा २ पूणिमा भने ..सायाच्या भावछतमागावी ५ मा भने अमावास्या छ. 'पोसी' पुष्य नक्षत्रमा Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ७ फल्गुनी नक्षत्रे भवा फाल्गुनी पूर्णिमा 'चेत्ती ८' चैत्री चित्रायां भवा चैत्री ' वहसाही' ९ वैशाखी विशाखायां भवा वैशाखी 'जेहामूली' १० ज्येष्ठामूली ज्येष्ठायां मूले च भवा जेष्ठा ११ मूली १२ 'आसाठी' आषाढी इति । यद्यपि प्रश्नसूत्रे पूर्णिमाऽमावास्योर्भेदेन निर्देशः कृतः उत्तरसूत्रेषु यद् भेदेन द्वयो निर्देश स्तद् द्वयो नमैिक्यदर्शनार्थम् तेनामावास्या अपि श्राविष्ठी प्रोष्ठपदी अश्वयुजी इत्यादिभिः व्यपदेष्टुं योग्या भवन्त्येवेति । नतु श्राविष्ठी पूर्णिमा धनिष्ठापरपर्यायश्रविष्ठा योगाद् भवति श्राविष्ठी अमावास्यातु म श्रविष्ठा योगात्, अमावास्याया अश्लेषामघा योगस्य प्रतिपाद्यमानत्वादिति वेदत्रोच्यतेऔर अमावास्या पौषी पूर्णिमा और अमावास्या है 'माही' मघा नक्षत्र में होने वाली पूर्णिमा और अमावास्या माघी पूर्णिमा और अमावास्या होती है 'फग्गुणी' फल्गुनी नक्षत्र में होने वाली पूर्णिमा और अमावास्या फाल्गुनी पूर्णिमा और अमावास्या होती है 'चेती' चित्रा नक्षत्र में होने वाली पूर्णिमा और अमावास्या चैत्री पूर्णिमा और अमावास्या होती है 'बसाही' विशाखा नक्षत्र में होने वाली पूर्णिमा और अमावास्या वैशाखी पूर्णिमा और अमावास्या होती है 'जेट्ठा मूली' ज्येष्ठा नक्षत्र में और मूल नक्षत्र में होने वाली पूर्णिमा और आमावास्या ज्येष्ठा मूली पूर्णिमा और अमावास्या होती है 'आसाठी' इसी प्रकार अषाढी पूर्णिमा और अमावास्या के सम्बन्ध में जानना चाहिये इस प्रकार से ये १२ महीनों की १२ अमावास्याएं और १२ पूर्णिमाएं होती हैं । यद्यपि प्रश्न सूत्र में पूर्णिमा और अमावास्या इन दोनों का भेदपूर्वक निर्देश किया गया है और उत्तर में जो अभेद से दोनों का निर्देश हुआ है वह दोनों में ऐक्यपकट करने के लिये हुआ है इस कारण अमावास्याएं भी श्रविष्ठी प्रोष्ठपदी, अश्वयुजी, इत्यादि रूप से व्यपदिष्ट होने के योग्य होती ही हैं । भावनारी पूर्णिमा भने अमावस्या पोषी पूर्णिमा अने सभावस्थाले 'माही' भा નક્ષત્રમાં આવતી પૂર્ણિમા અને અમાવસ્યા માઘી પૂર્ણિમા અને અમાવસ્યા કહેવાય છે. 'फग्गुणी' इह्गुनी नक्षत्रमां थनारी पूर्णिमा भने सभावास्या हिगुनी पूर्णिमा भने અમાવાસ્યા છે. ચેતી’ચિત્રા નક્ષત્રમાં આવતી પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યા ચૈત્રી પૂર્ણિમા अने अभावास्या होय छे. 'वाइसाही' विशाखा नक्षत्रमां यावती पूर्णिमा भने गभावास्या वैशाख पूर्णिमा भने अभावास्या वा छे. 'जेट्ठामूली' येण्डा नक्षत्रमां भने भूल नक्षत्रमां આવતી પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યા જ્યેષ્ઠામૂર્તી પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યા કહેવાય છે. 'आसाढी' खेत्री रीते भाषाठी पूर्णिमा भने अभावास्याना सम्बन्धमा लागुवु लेहये. આ પ્રમાણે આ ૧૨ માસની ૧૨ પૂર્ણિમા અને ૧૨ અમાવાસ્ખાએ જાણવી એ કે પ્રશ્ન સૂત્રમાં પૂર્ણિમા અને અમાવાસ્યા એ બંનેને ભેદપૂર્વક નિર્દેશ કરવામાં આવ્યે છે અને ઉત્તરમાં જે અભેદ્યથી ખનેના નિર્દેશ થયેલા છે તે અનેમાં એકતા પ્રગટ કરવાના આશયથી થયેલ છે આ કારણે અમાવાસ્યા પશુ શ્રાવિડી, પૌષ્ઠપદી, અશ્વયુજી ઇત્યાદ્ધિ રૂપથી વ્યપર્દિષ્ટ થવાને ચેાગ્ય હાય જ છે, अ० ४८ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ©2 जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे श्रविष्ठी पूर्णिमा अस्येति श्राविष्ठः श्रावणमासः तस्य श्रावणमासस्येयममावास्या श्रविष्ठी श्रावणमास भाविनीत्यर्थः । एवमेव प्रौष्ठपद्याद्यमावः स्यादिष्वपि ज्ञातव्यमिति ॥ सम्प्रति-यैर्नक्षत्रैरेकैका पौर्णमासी परिसमाप्यते तानि नक्षत्राणि प्रष्टुमाह-- 'साविट्ठीगं भंते' इत्यादि, 'साविद्विणं भंते !" श्राविष्ठीं खलु भदन्त ! पौर्णमासीम् 'करणक्खता जोगं जोति' कति - कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि योगं संबन्धं योजयन्ति, अर्थात् कति नक्षत्राणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम! 'तिष्णि णक्खत्ता जोगं जोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि योगं संबन्धं योजयन्ति - कुर्वन्ति त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः, नक्षत्रत्रयमेव दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' शंका- श्राविष्टी पूर्णिमा धनिष्ठा नामक नक्षत्र के योग से कि जिसका दूसरा नाम श्रविष्ठ नक्षत्र भी कहते है, परन्तु श्रविष्ठी अमावास्या है वह तो श्रविष्ठा नक्षत्र के योग से नहीं होती है क्योंकि अमावास्या अश्लेषा और मघा नक्षत्र के योग से प्रतिपाद्यमान हुई है तो उस अमावास्या को श्राविष्ठी कैसे कहते हैं ? तो इस शंका का उत्तर ऐसा है श्राविष्ठा पूर्णिमा जिसकी है वह श्राविष्ठ है ऐसा वह श्राविष्ठ श्रावणमास है उस श्रावणमास की यह अमावास्या है अतः इसे भी श्रावि. ष्ठी - श्रावणमास भाविनी कह दिया गया है इसी तरह का कथन प्रौष्षपदी अमावास्या आदिकों में भी जानना चाहिये 'साविट्टी णं भंते! पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति' अब गौतमस्वामीने प्रभु से पूछा है - हे भदन्त ! श्राविष्ठी पूर्णिमा को पौर्णमासी को कितने नक्षत्र चन्द्र के साथ सम्बधित होकर समाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! तिष्णि णक्खत्ता जोगं जोएंति' हे गौतम! तीन नक्षत्र चन्द्र के साथ सम्बन्धित होकर पूर्णिमा को શંકા-શ્રાવિષ્ઠી પૂર્ણિમા ધનિષ્ઠા નામક નક્ષત્રના ચેાત્રથી કે જેનું ખીજું નામ શ્રવિષ્ઠા છે, થાય છે પરન્તુ શ્રાવિડી અમાવાસ્યા જે છે તે તે શ્રવિષ્ઠા નક્ષત્રના ચેગી થતી નથી કારણ કે અમાવાસ્યા અશ્લેષા અને મઘા નક્ષત્રના ચેગથી પ્રતિપાદ્યમાન થયેલી છે. તે તેને શ્રાવિષ્ઠી અમાસ કેવી રીતે કહા હૈ? આ શંકાને જવામ આ પ્રમાણે છે શ્રાવિષ્ઠા પૂર્ણિમા જેની છે તે શ્રાવિણ્ડ છે એટલે એવે! આ શ્રાવિષ્ઠ શ્રાવણમાસ છે તે શ્રાવણમાસની આ અમાવાસ્યા છે એથી આને પણ શ્રાવિષ્ઠીશ્રાવણમાસ ભાવિની કહેવામાં આવેલ છે. આ જ પ્રકારનું કથન પ્રૌšપટ્ટી અમાવાસ્યા वगेरे भाटे पशु सागु पाडवु लेहये. 'साविट्ठी णं भंते ! पुष्णिमं कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति' हुवे गौतमस्वाभीये अभुने खेषु पूछयु-डे लहन्त ! श्राविष्ठा पूलुभाने -पूમાસને-કેટલા નક્ષત્ર ચન્દ્રની સાથે સમ્બન્ધિત થઇને સમાપ્ત કરે છે? આના જવાષમાં प्रभु उडे - 'गोयमा ! तिष्णि णक्खत्ता जोग जोएंति' हे गौतम! ऋणु नक्षत्र यन्द्रनी साथै अभ्यन्धित भने पूर्णिमा समाप्त 'तं जहा' मात्र नक्षत्र माहे- 'अभिई । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिवारनिरूपणम् ३७९ तद्यथा-'अभिई सवणो धणिट्ठा' अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा च, यद्यपि प्रकृते श्रवणधनिष्ठारूपे द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयतः, पञ्चस्वपि युगभाविनीषु पूर्णिमासु कुपि अभिजिनक्षत्रस्य परिसमापकत्वस्यादर्शनेन कथमत्र नक्षत्रत्रयस्य परिसमापकत्वमुक्तम्, तथापि अभिजिन्नक्षत्रस्य श्रवणनक्षत्रेण संबद्धत्वात् श्रवणस्य परिसमापकत्वे श्रवणसंबद्धमभिजिनक्षत्रमपि परिसमापयतीति कथितमिति । अपि च सामान्यत इदं श्राविष्ठी समापकनक्षत्रदर्शनं ज्ञातव्यम्, विशेषरूपेण पश्चस्वपि श्राविष्ठीषु पूर्णिमासु का पूर्णिमा किं नक्षत्रं कियत्सु मुहूर्तेषु भागेषु कियत्सु च प्रतिभागेषु गतेषु गम्येषु च परिसमापयतीत्येवं रूपेण यदि ज्ञातु मिच्छा भवेत् जिनप्रवचनप्रसिद्ध करणं भावनीयम् तथाहिसमाप्त करते हैं 'तं जहा' वे तीन नक्षत्र ये हैं-'अभिई, सवणो धणिट्ठा' अभिजित् श्रवण और धनिष्ठा, यद्यपि प्रकृत में श्रवण और धनिष्ठा ये दो नक्षत्र ही श्राविष्ठी पूर्णिमा को परिसमाप्त करते हैं परन्तु युगभाविनी पांचों भी पूर्णिमाओं में से किसी भी पूर्णिमा में अभिजित् नक्षत्र द्वारा परिसमाप्ति नहीं देखी जाती है-अतः यहां कैसे नक्षत्र त्रय में परिसमापकता का कथन किया गया है ? तो इस सम्बन्ध में ऐसा जानना चाहिये कि अभिजित् नक्षत्र श्रवण नक्षत्र के साथ संबद्ध होने से श्रवण में परिसमापकता होने के कारण श्रवण संबद्ध अभिजित् नक्षत्र में भी परिसमापकता मानली जाती है। अपिच-सामा. न्यतः श्राविष्ठी समापक नक्षत्र दर्शन जानना चाहिये यदि विशेषरूप से यह जानने की इच्छा हो कि पांचों हो श्राविष्ठी पूर्णिमाओं में किस पूर्णिमा को कौनसा नक्षत्र कितने मुहर्तों के, कितने भागों के कितने प्रतिभागों के व्यतीत होने पर और कितने मुहर्तो के कितने भागों के एवं कितने प्रतिभागों के गम्य होने पर परिसमाप्त करता है तो इसके लिये जिन प्रवचन प्रसिद्ध करण का सवणो, धनिट्ठा' भनिरत् श्रप भने पनि प्रतिभा श्रवण भने पनिष्ठा सामे નક્ષત્રે જ શ્રાવિડી પૂર્ણિમાને પરિસમાપ્ત કરે છે. પરંતુ યુગભાવિની પાંચે પૂર્ણિમાઓમાંથી કઈ પણ પૂર્ણિમાની અભિજિતુ નક્ષત્ર દ્વારા પરિસમાપ્તિ જોવામાં આવતી નથી આથી અહીં કઈ રીતે નક્ષત્રત્રપમાં પરિસમાપકતાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે? આ સંબંધમાં એવું જાણવું જોઈએ કે અભિજિત્ નક્ષત્ર શ્રવણ નક્ષત્રની સાથે સંબદ્ધ હોવાથી શ્રવણમાં પરિસમાયતા હવાને કારણે શ્રવણ સંબદ્ધ અભિજિત નક્ષત્રમાં પણ પરિસમાપકતા मानी सेवामां आवे छे. अपिच-सामान्यत: श्रीविही समा५४ नक्षत्रशनपु . જે વિશેષ રૂપથી એવું જાણવાની ઈચ્છા થાય કે પાંચેય વિઠી પૂર્ણિમાએમાં કઈ પૂર્ણિમાને કર્યું નક્ષત્ર કેટલાં મુહૂર્તોના કેટલા ભાગના કેટલા પ્રતિભાગોના વ્યતીત થવાથી અને કેટલા મુહૂર્તોના કેટલા ભાગે અને પ્રતિભાગો ચાલ્યા ગયા બાદ પરિસમાપ્ત કરે છે તે આ માટે જિન પ્રવચન પ્રસિદ્ધ કરણને વિચાર કરવો જોઈએ તે આ પ્રકારે છે Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नाउ मह अमावासं न इच्छसि कमि होइ रिक्खमि । अवहारं ठावेज्जा चियरूवेहि संगुणिए, ॥१॥ (ज्ञातुमिहामावास्यां यदीच्छसि कस्मिन् भवतिऋक्षे । Raat स्थापयित्वा तृतीयरूपैः संगुणयेदितिच्छाय । अयमर्थ:-: :- याममावास्या मिहास्मिन् युगे ज्ञातु मिच्छसि यथा कस्मिन ऋक्षे नक्षत्रे वर्तमाना अमावास्या परिसमाप्ता भवति यावद्रूपै यवित्योऽमवास्या अतिक्रान्ता गता स्तावत्या संख्यया वक्ष्यमाणस्वरूपमवधार्यते प्रथमतया स्थाप्यते इत्यवधार्थी ध्रुवराशिः तमवधार्यराशि स्थापयित्वा संगुणयेत् गुणनं कर्तव्यम् । तत्र किं प्राणो राशि रिति जिज्ञासायामवधार्यराशिप्रमाणं निरूपणार्थमाह 'छावट्टीयमुत्ता विसद्विभागाय पंच पडिपुण्णा । बासहभाग सत्तद्विगोय एको हवाइ भागो' ॥२३॥ षट्षष्टि व मुहूर्त्ता द्वापष्टि भागाश्च पञ्चप्रतिपूर्णाः । द्वष्ट भागः सप्तषष्टिकको भवति भाग इतिच्छाया || २ || विचार करना चाहिये वह इस प्रकार से है 'नाउमिह अमावासं जइ इच्छसि कंभि होइ रिक्खमि । अवहारं ठावेज्जा तिरुवेहिं संगुणिए ' ॥ १ ॥ इस का अर्थ यह है - जिस अमावास्या को इस युग में जानना चाहते हो कि किस नक्षत्र में वर्तमान अमावास्या परिसमाप्त होती है तो इसके लिये जितने रूपों से जितनी अमावास्याएं निकल चुकी हों उतनी संख्या को स्थापित करलेना चाहिये यह ध्रुवराशि रूप होती है इस ध्रुव राशि को फिर गुणित करना चाहिये अवधार्य राशि ध्रुवराशि का प्रमाण जानने के लिये छावड़ीय मुहुत्ता विसद्विभागा य पंच पडिपुण्णा । वासद्विभाग सत्तट्ठिगोय एको हवइ भागो ॥२॥ 'नामिह अमावासं जइ इच्छसि कंमि होइ रिक्खमि । अवहारं ठावेज्जा त्तिय रूवेहिं संगुणिए” ॥१॥ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे આના અર્થ આ પ્રમાણે છે જે મમાવસ્યાને આ યુગમાં જાણવા ઇચ્છતા હૈાય કે કયા નક્ષત્રમાં વત્તમાન અમાવાસ્યા પરિસમાપ્ત થાય છે તે આ માટે જેટલા રૂપેથી જેટલી અમાવસ્યાએ નિકળી ગઇ હૈાય તેટલી સંખ્યાને સ્થાપિત કરી લેવી જોઇએ. આ ધ્રુવરાશિ રૂપ હાય છે. મા ધ્રુવરાશિને પુનઃ ગુણવી જોઇએ. અવધારાશિ ધ્રુવરાશિનુ પ્રમાણુ જાણવા માટે छावी य मुहुत्ता विसट्टिभागा य पंच पडिपुण्णा | वासट्ठि भाग सत्तट्ठिगोय एक्को हवइ भागो ॥२॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ३८५ __ अयमर्थः-षट्षष्टिमुहूर्ता एकस्य च मुहूर्त पञ्चपरिपूर्णाः द्वाष्टभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्लाष्टितमो भाग इत्ये नावन् प्रमाणोऽवधार्यराशिः। कथमेतारत्प्रमाणस्योत्पति भवतीनि चेदत्रोच्यते अत्र खलु चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन १२४ पश्चस्र्थनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तमो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभ्यते, तत्र राशिवयस्थापना १२४५५२। अत्र चरमेण द्विकलक्षणेन राशिना पञ्चकलक्षणो मध्यो राशिगुण्यते ततो भवति दश, तेषां च चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणम् तत्र छेधछेदकराश्यो द्विकेनापवर्तना, जात उपरितनश्छेद्योरा शः पञ्चकरूपोऽवस्त नो द्वापष्टिरूपः, लब्धाः पञ्चद्वाषष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्तव्यानि इति नक्षत्रहरणार्थमधदशभि स्त्रिंशदधिकैः शतैः सप्तपष्टि मागरूयैर्गुण्यन्ते जातानि एकनवतिः शत नि पञ्चाशदाधिकानि ९१५०, छेदराशिरपि द्वापष्टिममाणः सप्तषष्टया गुण्यते ___ यह गाथा सूत्रकार ने कही है-इसका अर्थ ऐसा है-६६छुहूर्तरूप, एक मुहूर्त्तः के ५ परिपूर्ण द्वापष्ठि (६२) भागरूप, एक द्वाषष्ठिभाग का एक ६७ वें भागरूप अवधार्यराशि होती है इतने प्रमाणरूप अवधार्यराशि की उत्पत्ति कैसे होती है? तो इसके लिये ऐसा जानना-चाहिये-यहां १२४ पर्व से पांच सूर्य नक्षत्र पर्याय प्राप्त होते हैं तो दो पर्व से वे कितने प्राप्त होंगे? इस बात को जानने के लिये यहां राशित्रय की स्थापना १२४-५-२ इस प्रकार से करनी चाहिये फिर अन्तिम राशिरूप २ से मध्य की राशि ५ को गुणित करना चाहिये तब १० होते हैं इनमें १२४ का भाग करना चाहिये यहां छेद्य छेदक राशि द्वय की दो से अपवर्तना करने पर उपरितन छेद्य राशि ५ और अधस्तन द्वाप्टि रूप होती है तब ५ द्वापष्टि भाग लब्ध होते हैं इनसे नक्षत्र बनाना चाहिये-नक्षत्र करने के लिये ३१८ जो कि ६७ के भागरूम हैं उन के द्वारा गुणा करना चाहिये तब ९१५० आते हैं छेद्यराशि जो कि द्वाषष्टि संख्या रूप है ६७ से गुणित होने पर આ ગાથા સૂત્રકારે કહેલ છે-આને અર્થ આ પ્રમાણે છે-૬૬ મુહૂર્તરૂપ એક મુહૂર્તના ૫ પરિપૂર્ણ બાસઠ (૬૨) ભાગરૂપ, બાસઠ ભાગના એક ૬૭ ભાગરૂપ અવધાર્યરાશિ થાય છે. માટલા પ્રમાણુરૂપ વધાર્યરાફિ ની ઉત્પત્તિ કેવી રીતે થાય છે? આ માટે આ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ—અત્રે ૧૨૪ પર્વથી પાંચ સૂર્યનક્ષત્ર પર્યાય પ્રાપ્ત થાય છે તે બે પર્વથી તે કેટલાં પ્રાપ્ત થશે? આ હકીકતને જાણવા માટે અહીં રાશિત્રયની સ્થાપના ૧૨૪-૫-૨ આ પ્રકારથી કરવી જોઈએ. પછી અનિમ રાશિરૂ૫ ૨ થી મધ્યની રાશિ ૫ ને ગુણવી જોઈએ ત્યારે ૧૦ થાય છે. અને ૧૨૪ વડે ભાગવા જોઈએ. અહીં છેદ્ય છેદક રાશિ દ્વયની ૨ વડે અપવર્તન કરવાથી ઉપરિતન છેદ્ય રાશિ ૫ અને અધસ્તન દ્વાષષ્ટિ રૂપ થાય છે અને ત્યારે ૫ બાસઠ ભાગ લબ્ધ થાય છે. આનાથી નક્ષત્ર બનાવવા જોઈએ-નક્ષત્ર કરવા માટે ૩૧૮ કે જે ૬૭ ના ભાગરૂપ છે તે વડે ગુણવા જોઈએ ત્યારે ૯૧૫૦ આવે છે. છેદરાશિ જે કે બાસઠ સંખ્યા રૂપ છે તે ૬૭ થી ગુણ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કેટર अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 8 जातानि एक चत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि ४१.५४, उपरितन राशिमुहूर्त्ता - नयनाय पुनरपि त्रिंशत्संख्यया गुण्यते, तदनन्तरं जाते द्वेलक्षे चतुः सप्ततिसहस्राणि पञ्चशतानि २७४५००, तेषां चतुः पञ्चाशदधिकै चत्वारिंशच्छतै भगहरणं, लब्धाः षट्षष्टिमुहूर्त्ताः ६६, शेषा अंशा स्तिष्ठन्ति त्रीणिशतानि षट् त्रिंशदधिकानि ३३६ ततो द्वाषष्टि भागानयनार्थ तानि षष्टिसंख्यया गुण्यन्ते जातानि विंशतिसहस्राणि अष्टशतानि द्वात्रिंशदधिकानि २०८३२, तेषामनन्तरपूर्वोक्त छेदराशिना ४१.५४ भागो ह्रियते लब्धाः पञ्च द्वाषष्टिभागाः, पञ्चवशेषा स्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः ततश्चास्याः द्वाषष्ट्या अपवर्तना क्रियते, जात एकः छेद शेरपि द्वाषष्टि संख्यया अपवर्तनायां कृतायां जाता सप्तषष्टिः, तत आगताः षट्षष्टिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपरिपूर्णा द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः षष्टिभाग इति । तदेवमुक्तमवधार्थराशि प्रमाणम् । तदनन्तरं शेषविधिमाह - 'एवमवहाररासिं • इच्छ अमावाससंगुणं कुज्जा । णक्खत्ताणं इत्तो सोहणगविर्हि णिसामेह' । एवमवधार्याराशि ४१५४ राशिरूप हो जाती है ऊपर की राशि के ९१५० के मुहूर्त्त बनाने के लिये उसमें ३० से गुणा करने पर २ लाख ७४ हजार ५०० मुहूर्त्त होते हैं फिर इनमें ४१५४ भाग देने पर ६६ मुहूर्त्त आते हैं शेषमें ३६६ बचते हैं तब द्वाषष्टि भागों को लाने के लिये इनमें ६० गुणा करने पर और ३३६ का दूना करके जोडने पर २०८३२ संख्या आती है इसमें ४१५४ का भाग देने पर ५ द्वाषष्टि भाग आते हैं फिर द्वाषष्टिभाग से इसकी अपवर्तना करने पर एक आता है छेदराशि की भी द्वाषष्टि संख्या से अपवर्तना करने पर ६७ आते हैं अर्थात् ४१५४ छेदराशि में ६२ का भाग करने पर ६७ लब्ध होते हैं शेष स्थान में कुछ नहीं बचता है तब ६६ मुहूर्त्त और एक मुहूर्त्त के ५ परिपूर्ण द्वाषष्टि और एक द्वाषष्टि भाग का एक षष्टिभाग आजाता है इस तरह से अवधायें राशि का प्रमाण कहा गया है इसके बाद की शेष विधिका कथन इस प्रकार से है 'एबम - વાથી ૪૧૫૪ રાશિરૂપ થઈ જાય છે. ઉપરની રાશિના ૯૧૫૦ ના મુ` બનાવવા માટે તેને ૩૦ થી ગુણવાથી ૨ લાખ ૭૪ હજાર ૫૦૦ મુહૂર્ત થાય છે પછી આને ૪૧૫૪ વડે ભાગવાથી ૬૬ મુહૂર્તો આવે છે. શેષમાં ૩૩૬ વધે છે ત્યારે દૂર ભાગેાને લાવવા માટે આને ૬૦ થી ગુણુવાથી અને ૩૩૬ ના બમણા કરીને જોડવાથી ૨૦૮૩૨ સંખ્યા આવે છે આને ૪૧૫૪ વડે ભાગવાથી ૫ માસઠ ભાગ આવે છે પછી ખાસઠ ભાગથી આની અપવ ના કરવાથી એક આવે છે. છેદરાશિની પણ ૬૨ સંખ્યાથી અપવ ના કરવાથી ૬૭ આવે છે અર્થાત્ ૪૩૫૪ હેદરાશિમાં ૬૨ થી ભાગવાથી ૬૭ લબ્ધ થાય છે શેષ સ્થાનમાં કંઇ વધતું નથી ત્યારે ૬૬ મુહૂર્ત અને એક મુહૂર્તના પાંચ પિર ખાસડ ભાગ અને એક ૬૨ ભાગને એકસઠમા ભાગ આવે છે. આ પ્રમાણે અવધાય શશિનુ પ્રમાણ કહેવામાં આવ્યુ છે. આની પછીની શેષ વિધિનું કથન આ રીતે છે Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् मिच्छामावास्या संगुणं कुर्यात् । नक्षत्राणामितः शोधनकविधि निशामयत इतिन्छाया ॥ ____ अस्यार्थः-एवमनन्तरपूर्वकथितस्वरूपमवधार्यराशिम् इच्छामावास्यसंगुणम्, याममावास्या ज्ञातुमिच्छति तत्संगुणितं कुर्यात्, इत ऊर्ध्व नक्षत्राणि शोधनीयानि तस्मात् कारणात् अत ऊर्ध्व नक्षत्राणामभिजिदादीनां शोधनकविधि शोधनप्रकारं वक्ष्यमाणं निशाम यत-श्रृणुत, तत्र प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकमाह-'बावीसं च मुहुत्ता छायालीसं विसट्ठि भागाय । एयं पुणव्वसुस्स य सोहेयव्वं हवइ पुग्ण' द्वाविंशतिश्च मुहूर्ताः षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाश्च । एतत्पुनर्वसोश्व बोद्धव्यं भवति पूर्णमितिच्छाया। अस्यार्थ:द्वाविंशतिमुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एतत् एतावत् प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्ण शोधव्यं भवति । अथ कथमत्रैवं प्रमाणकस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत्तत्रोच्यते यदि चतु. विंशत्यधिकेन पर्वशतेन १२४ पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एक पतिक्रम्य कतिपर्याया स्तेन एकेन पर्वणा लभ्यन्ते तत्र राशित्रयस्थाऽपना-१२४।५।१ अत्र खलु चरमेन वहाररासि इच्छं अमावास संगुणं कुज्जाणक्खत्ताणं इत्तो सोहणगविहिं निसा. मेह' इस प्रकार अनन्तर पूर्वकथित स्वरूपवाली अवधार्य राशि को इच्छित अमावास्या राशि से गुणा करे-इससे जिस इच्छित अमावास्या का आप जानना चाहते हो वह जानी जाती हैं। अब सूत्रकार अभिजित् आदि नक्षत्रों के शोधन प्रकार का कथन करते हैं-जो इस प्रकार से हैं-इसमें सब से पहिले पुनर्वस्तु नक्षत्र का शोधन प्रकार प्रकट किया जाता है-'बावीसं च मुहत्ता छायालीसं विसटिभागाय, एयं पुणव्वसुस्स य सोहेयव्वं हवइ पुगणं' २२ मुहर्त्त का ४३ द्विषष्टिभाग रूप यह पुनर्वसु नक्षत्र का इतना प्रमाण शोधन योग्य पूर्ण होता है यह किस प्रकार से निकल गया है-सो सुनो-यदि १२४ पर्व से पांच सूर्य नक्षत्र पर्याय लभ्य होते हैं तो एक पर्वसे कितने नक्षत्र पर्याय लभ्य होंगे? तो इसके लिये १२४-५-१ इस प्रकार से त्रैराशिक विधि के अनुसार राशित्रय की स्थापना करनी चाहिये इसमें अन्त की १ राशि से मध्य की राशि ५ को 'एवमवहाररासिं इच्छं अमावाससंगुणं कुज्जा णक्खत्ताणं इत्तो सोहणगविहिं निसामेह' આ રીતે અનન્તર પૂર્વ કથિત સ્વરૂપવાળી અવધાર્યરાશિને ઈચ્છીત અમાવસ્યા રાશિથી ગુણ્યા કરીએ તે જે ઈચ્છિત અમાવસ્યાને તમે જાણવા ઈચ્છતા હશો તે આવી મળશે હવે સૂત્રકાર અભિજિત્ આદિ નક્ષત્રના શેધન પ્રકારનું કથન કરે છે–જે આ પ્રમાણે છે–આમાં સૌથી પ્રથમ પુનર્વસુ નક્ષત્રને શેધન પ્રકાર પ્રકટ કરવામાં मा०यो छे–'बावीसं च मुहुत्ता छोयालीसं विसद्विभागा य एगं पुणव्वसुस्स य सोहेयव्वं हवइ પુ” ૨૨ મુહૂર્તના ૪૬ બાસઠ ભાગ રૂપે આ પુનર્વસુ નક્ષત્રનું આટલું પ્રમાણશોધન ગ્ય પૂર્ણ થાય છે આ કઈ રીતે કાઢવામાં આવ્યું છે તે સાંભળે – ૧૨૪ પર્વથી પાંચ સૂર્યનક્ષત્ર પર્યાય લભ્ય થાય છે તે એક પર્વથી કેટલાં સૂર્યનક્ષત્ર પર્યાય લભ્ય થશે? આ માટે ૧૨૪-૫-૧ આ પ્રકારે ચિરાશિક વિધિ અનુસાર રાશિત્રયની સ્થાપના Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे एककलक्षणेन राशिना पञ्चकरूपो मध्यराशि र्गुण्यते जाताः पञ्चैव, तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाः पञ्चचतुर्विशत्यधिकशतभागाः, ततो नक्षत्रानयनाय, एते अष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टि भागरूपै र्गुणयित्वा इति गुणाकारराशिच्छेदराश्यो ईिकेनापवर्तना, जातो गुणाकारराशिः नवतानि पञ्चदशापिकानि, ९१५, छेदराशि द्वषष्टिः, तत्र पञ्चनवभिः शतैः पश्चदशोत्तरै गुण्यन्ते जातानि एश्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५, छेदराशि षष्टिलक्षण: सप्तषष्टया गुण्यते जातानि एकचत्वारिंशच्छतानि चतुः पश्चाशदधिकानि ४१५४, तथा पुष्य नक्षत्रस्य त्रयोविंशति भागाः प्राक्तमयुगचरम पर्वाणि सूर्येण सह योग मायान्ति ते द्वाषष्टया गुण्यन्ते जातानि चतुर्दशशतानि पहशत्यधिका नि १४२६, तानि पूर्वकालिकपञ्चसप्तत्यधिकपञ्चचत्वारिंशत् प्रमाणात् शोध्यन्ते, शेषं तिष्ठति एकत्रिंशच्छतानि एकोनपश्चाशदधिहानि ३१४९, एतानि महूर्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुर्नवति सहस्राणि चत्वारिशतानि सप्तत्यधिकानि ९५४७०, तेषां छेदराशिना चतुःपञ्चाशदधिकैक चत्वाशिच्छ :रूपेण भागो हिय ते लब्धाविंशतिर्मुहूर्ताः शेषं तिष्ठति त्रीणि सहस्राणि द्वयशीत्यधिकानि ३०८२, एतानि द्वापष्टि गुणित करने पर ५ ही राशि आती है इसमें १२४ का भाग जाता नहीं है अतः १२४ ही बचे रहते हैं, तब नक्षत्र को लाने के लिये सप्तषष्टि के भागरूप ३० अधिक १८ सौ से मुणित करके गुणाकार राशि और छेद राशि की द्विक से अपना करने पर गुणाकार राशि ९१५ होती है और छेदराशि द्वाषष्टिरूप है ९१५ द्वारा ५ को गुणित करने पर ४५७५ आते हैं छेदशशि ६२ भाग रूा है इसे ६७ से गुणित करने पर ४१५४ आते हैं पुष्यनक्षत्र के २३ भाग जो कि प्रात्तन युग के चरम पर्व में सूर्य के साथ सम्बन्धित होते हैं वे ६२ से गुणित होने पर १४२६ होते हैं ये ४५७५ में घटाये जाने पर ३१४९ शेष रहते हैं अब मुहर्त बनाने के लिये इन्हें ३० से गुणित करने पर ९४४७० होते हैं इनमें छेद. राशि ४१५४ का भाग देने पर बीस मुहर्त आते हैं और बाकी में ३०८२ बचे કરવી જોઈએ. આમાં ખનની ૧ રાશિથી મધ્યની રાશિ ને ગુણવાથી પ રાશિ જ આવે છે એમાં ૧૨૪ને ભાગ લાગતું નથી એટલે ૧૨૪ જ વધેલાં રહે છે હવે નક્ષત્રને લાવવા માટે સપ્તષટિના ભાગરૂપે ૩૦ અધિક ૧૮ સેથી એને ગુણને ગુણાકાર રાશિ અને ઇદ રાશિમાં ક્રિકથી અપવતના કરવાથી ગુણાકાર રાશિ ૯૧પ થાય છે અને છેદરાશિ બાસઠ રૂપ છે. ૯૧૫ વડે ૫ ને ગુણવાથી ૪૫૭૫ આવે છે. છેદરાશિ ૬૨ ભાગરૂપ છે આને ૬૭ થી ગુરુવ થી ૪૧૫૪ આવે છે. પુષ્ય નક્ષત્રના ૨૩ ભાગ કે જે યુગના ચમ પર્વમાં સૂર્યની સાથે સમ્બન્ધિત હોય છે તે ૬૨ થી ગુણુવાથી ૧૪ર૬ થાય છે જે ૪૫૭ માંથી ઓછા કરવાથી ૩૧૪૯ શેષ રહે છે હવે મુહુર્ત બનાવવા માટે આ સંખ્યાને ૩૦ થી ગુણવાથી ૯૪૪૭૦ આવશે અને છેદરાશિ ૪૧૫૪ થી ભાગીએ તે ૨૦ મુહૂર્ત Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वादनिरूपणम् ३६५ भागानय नार्थ द्वाषष्टया ६२ गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षमेकनवतिसहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि १९१०४४, तेषां छेदाशिना ४१५४ भागो हियते लब्धाः षट्चत्वारिंशन्मुहूर्तस्य द्वापष्टि मागाः, एषा पुनर्वसुनक्षत्रशोधनकनिष्पत्तिः ॥ अथ शेषनक्षत्राणां शोधकान्याह 'बावतरं सयं फग्गुणीणं बाण उय वे विसाहामु । चत्तरिय बायाला सोज्झा तह उत्तरासादा ॥५॥ 'द्वासप्ततशतं फल्गुनीनाम्, द्विनवति द्वे विशाखाम् । चत्वारि च द्विचत्वारिंशत् शोध्यानि तथा उत्तराषाढा ।।५॥ इतिच्छाया, अस्यार्थः-द्वासप्ततं दासप्तत्यधिकं शतं फलानीनाम्-उत्तराफग्गुनीनां शोध्यम् अर्थात् द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्वस प्रभृतीनि उत्तरफल्गुनी पर्यन्तानि नक्षत्राणि शोध्यन्ते-एकमेव सर्वत्रार्थों ज्ञातव्यः । तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं द्वेशते द्विनवत्यधिके २९२, तदनन्तरमुत्तराषाढा पर्यन्तानि नक्षत्राणि अधिकृत्य शोध्यानि चत्वारिशतानि द्विवत्वारिंशदधिकानि ४४२, रहते हैं, इन्हें द्वाषष्टि भाग लाने के लिये ६२ से गुणित किया जाने पर १ लाख ९१ हजार ८४ आते हैं इनमें छेदरारिरूप ४१५४ का भाग देने पर ४६ मुहूर्त के द्वाषष्टिभाग लब्ध हो जाते हैं । यह पुनर्वसुनक्षत्र की शोधनविधि है। अब सूत्रकार शेष नक्षत्रों की शोधनविधि का कथन करते हैं बावत्तरं सयं फग्गुणीणं बाणउय वे विसाहासु। चत्तारि य बायाला सोज्झा तह उत्तरासाढा ॥५॥ इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है-उत्तराफाल्गुनी तक के नक्षत्र पुनर्वसु नक्षत्र से लेकर ११२ से शोधे जाते हैं, विशाखा तक के नक्षत्र २९२ से शोधे जाते हैं एवं उत्तराषाढातक के नक्षत्र ४४२ से शोधे जाते हैं एवं पुणव्वसुस्स य विसहि भागसहियं तु सोहणगं । एत्तो अभिईआई बीयं वोच्छामि सोहणगं' આવે છે અને બાકીના ૩૦૮૨ વધે છે એના બાસઠ ભાગ લાવવા માટે દર થી ગુણવામાં આવે તે ૧ લાખ ૯૧ હજાર ૮૪ આવે છે આને છેદરાશિ રૂ૫ ૪૧૫૪ થી ભાગવાથી ૪૬ મુહૂર્તના ૬૨ ભાગ સાંપડે છે. આ પુનર્વસુ નક્ષત્રની સંશોધન વિધિ છે. હવે સૂત્રકાર શેષ નક્ષત્રોની શેધન વિધિનું કથન કરે છે बावत्तरं सयं फग्गुणीणं बाणउय वे विसाहासु । चत्तारि य बायाला सोज्झा तह उत्तरासाढा ॥५॥ આ બધાને અર્થ આ પ્રમાણે છે–ઉત્તરાફાલ્ગની સુધીના નક્ષત્ર પુનર્વસુ નક્ષત્રથી લઈને ૧૦૨ થી શોધવામાં આવે છે, વિશાખા સુધીના નક્ષત્ર ૨૯૨ થી શોધાય છે અને उत्तराषाढा सुधीना नक्षत्र ४४२ थी शपाय छे (एवं पुणव्वसुस्स य विसट्ठी भागसहियं तु सोहणगं । एत्तो अभिई आई बीयं वोच्छामि सोहणगं' 28 धन पुनर्वसु नक्षत्रनामा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 美七 ' एवं पुणत्रयविद्धि भागसहियं तु सोहण गं । एतो अभिईआई बीयं वोच्छामि सोहणगं' ॥ ( एतत् पुनर्वसोच द्विषष्टिभागसहितं तु शोधनकम् । इतोऽभिजिदादीनां द्वितीयं वक्ष्यामि शोधनकम् ||६|| इतिच्छाया, जम्बुद्वीपप्रति अस्यार्थः - एतत् अनन्तरपूर्वोक्तं शोधनकं सकलमपि पुनर्वसु सत्कद्वाषष्टिभागसहितं ज्ञातव्यम्, अयं भावः- ये पुनर्वसु संबन्धिनो द्वाविंशतिमुहूर्त्तास्ते सर्वेऽपि उत्तरस्मिन् उत्तरस्मिन् शोधन के अन्तःप्रविष्ट वर्तन्ते नतु द्वाषष्टि भागास्ततो यत् यत् शोधनकं शोध्यते तत्र तत्र पुनर्वसु संबन्धिनः षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टि भागा उपरितनाः शोधनीया इति । एतत् पुनर्वसु प्रभृति उत्तराषाढापर्यन्तं प्रथमं शोवनकम्, इत ऊर्ध्वमभिन्निक्षत्रमादिं कृला द्वितीयं शोधनकं वक्ष्यामि । अत्र द्वितीयशोधनकप्रकाशे यथाशास्त्रं ज्ञातव्यः, विस्तरभयान्नात्र लिख्यते इति । तदयं संक्षेपार्थः केनापि पृच्छयते युगस्थादौ प्रथमा अमावास्या केन नक्षत्रेण युक्ता यहां शोधनक पुनर्वसु नक्षत्र का द्विषष्टि भाग सहित है । अब यहां से अभिजितू आदि नक्षत्रों का द्वितीय शोधनक कहता हूं तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि जो पुनर्वसुसंबंधी २२ मुहूर्त हैं वे सब भी उत्तर के शोधनक में अन्तः प्रविष्ट हैं, ६२ भाग अन्तः प्रविष्ट नहीं हैं, इसलिये जो २ शोधनक शोधा जाता है वहां २ पुनर्वसु संबंधी ४६ द्वाषष्टि भाग ऊपर के शोध लेना चाहिये यह प्रथम शोधनक पुनर्वसु आदि उत्तराषाढा तक के नक्षत्रों का प्रकट किया गया है । अब अभिजित् नक्षत्र से लेकर द्वितीय शोधन कहा जाता है - इस में द्वितीय शोधनक प्रकार जैसा शास्त्र में कहा गया है वैसा है अतः वह वहीं से जानलेना चाहिये विस्तार हो जाने के भय से हम उसे यहां नहीं लिख रहे हैं । from यही है कि जब कोई ऐसा प्रश्न करने लगे कि युग की आदि में ભાગ સહિત છે. હવે અહીથી અભિજિત્ આદિ નક્ષત્રોનુ દ્વિતીય શેાધનક કહું છું. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે પુનસુ સંખ ́ધી જે ૨૨ મુહૂત છે તે સઘળાં જ ઉત્તર ઉત્તરના શેાધનકમાં અન્તઃપ્રવિષ્ટ છે ૬૨ ભાગ અન્તઃપ્રવિષ્ટ નથી આથી જે જે શેષનક શેાધવામાં આવે છે ત્યાં ત્યાં પુનસુ સંધી ૪૬ ખાસ ભાગ ઉપરના શેાધી લેવા જોઇએ. આ પ્રથમ શેાધનક પુનર્વસુ આદિ ઉત્તરાષાઢા સુધીના નક્ષત્રોના પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. भे હવે અભિજિત્ નક્ષત્રથી લઇને દ્વિતીય શેષનક કહેવામાં આવે છે–આમાં દ્વિતીય શેધનક પ્રકાર શાસ્ત્રમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે તેવુ` છે આથી તે ત્યાંથી જ જાણી લેવુ. વિસ્તાર થઈ જવાના ભયે અત્રે અમે તેના ઉલ્લેખ કરતાં નથી સારાંશ એ જ છે કે-જ્યારે કાઇ એવા પ્રશ્ન કરવાં લાગે કે યુગની આદિમાં પ્રથમા અમાવાસ્યા ઢયા નક્ષત્રથી જોડાઇને સમાપ્ત થઇ ? Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ३८७ समाप्ति याति ? तत्रोच्यते-अत्र पूर्वकथित स्वरूपोऽवधार्यराशिः षट्पष्टिमुहूर्ताः पञ्चद्वापष्टि भागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इत्येवं रूपो ध्रियते धृत्वा चकेन गुण्यते, प्रथमाया अमावास्यायाः पृष्टत्वात्, एकेन गुणितं तदेव भातीति जातस्तावानेव राशिः, तत स्तस्माद् द्वाविंशतिर्मुहूर्ता एतस्य च मुहूर्तस्य षट् वत्वारिंशद्' द्वाषष्टि भागा इत्येवं रूपं पुनर्वसु शोध्य ते, तत्र षट्पष्टिमुहूर्तभ्यो द्वाविंशतिमुहूर्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वारिंशत्, ४४, तेभ्य एक मुहूर्तमपकृष्य तस्य द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते कृत्वा च ते द्वापष्टि राशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तपष्टिः तेभ्यः षट् चत्वारिंशत् शुद्धाः शेषास्तिष्ठन्ति, त्रिचत्वारिंशतो हर्तेभ्यः त्रिंशता गुहूर्तेः पुष्यः शुद्धः पश्चात् त्रयोदश मुहूर्ताः, अश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्त प्रमाणम्, तत इदमागतं यत् अश्लेषानक्षत्रस्यैकस्मिन् मुहूत्तें एकस्य मुहूत्र्तस्य च चत्वारिंशति द्वापष्टि भागेषु एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य सप्तपष्टिधा प्रथमा अमावास्या किस नक्षत्र से युक्त हुए समाप्त हुई है तो इस संबंध में पूर्वकथित अवधार्यराशि ६६ मुहूत्ते और ६५ भाग रूप एवं एक द्वाषष्टि भाग के एक सप्तषष्टिभागरूप है ऐसा मन में विचार लेना चाहिये विचार करके फिर एक से गुणा करना चाहिये क्यों कि पूछनेवालेने प्रथमा अमावास्या पूछी है एक से गुणा करने पर वही राशि आती है अतः वही राशि रही आई सो अब उसमें से २२ मुहूर्त एवं एक मुहूर्त के ४६ द्वाषष्टि भागरूप पुनर्वसु नक्षत्र का शोधन करना चाहिये इसमें ६६ मुहूर्तों से २२ मुहूर्त शुद्ध स्थित हैं पश्चात् ४४ मुहूत इनमें से १ मुहूर्त को कम कर के उसके द्वाषष्टि भाग कर लेना चाहिये, इन भागों को द्वाषष्टि भागात्मक राशि में मिलादेना चाहिये सो ६७ हो जाते हैं इनमें ४६ शुद्ध शेष रहते है ४३ मुहूर्तों में से ३० मुहूर्त से पुष्य शुद्ध रहता है पश्चात् १३ मुहूर्त तक वह शुद्ध रहता है अर्द्ध क्षेत्रीय अश्लेषा नक्षत्र १५ मुहूर्त प्रमाण शुद्ध रहता है तब इससे यह प्रश्न समाहित हो जाता है कि તે આ સંબંધમાં પૂર્વકથિત અવધાર્યરાશિ ૬૬ મુહૂર્ત અને ૬૫ ભાગ રૂપ અને એક બાસઠ ભાગના ૧ અડસઠ ભાગ રૂપ છે એવું મનમાં ધારી લેવું જોઈએ, ધાર્યા બાદ ૧ વડે ગુણવા જોઈએ કારણ કે પ્રનાથી એ પ્રથમ અમાવાસ્યા પૂછી છે. એક વડે ગુણવાથી તેજ રાશિ આવે છે આથી તેજ રાશિ રહી ગઈ આથી હવે તેમાંથી ૨૨ મુહુર્ત અને એક મુહૂર્તના ૪૯ બાસઠ ભાગ રૂપે પુનર્વસુ નક્ષત્રનું શેધન કરવું જોઈએ, આમાં ૬૬ મુહૂર્તેથી ૨૨ મુહૂર્ત શુદ્ધ સ્થિત છે પાછળનાં ૪૪ મુહૂર્તમાંથી ૧ મુહૂર્ત બાદ કરીને તેના બાસઠ ભાગ કરવા જોઈએ આ ભાગને બાસઠ ભાવાત્મક રાશિમાં ઉમેરી દેવા જોઈએ જેથી ૬૭ ભાગ થઈ જાય છે. આમાં ૪૬ શુદ્ધ શેષ રહે છે ૪૩ મુહૂર્તોમાંથી ૩૦ મુહૂર્ત પુષ્ય શુદ્ધ રહે છે પછીના ૧૩ મુહૂર્ત સુધી તે શુદ્ધ રહે છે. અર્ધક્ષેત્રીય અશ્લેષા નક્ષત્ર ૧૫ મુહૂર્ત પ્રમાણ શુદ્ધ રહે છે, ત્યારે આ પ્રશ્ન થાય છે કે અશ્લેષા નક્ષત્રના ૧૫ મુહૂર્તમાં અને એક મુહૂર્તના ૩૦ બાસઠ ભાગમાં અને ૬૭ થી છિન એક Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे $ee छिन्नस्य षट् षष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमाऽमावास्या सप्ततिमुपयातीति, एवं सर्वास्वपि अमावास्या करर्ण भावनीयम् । अत्र पूर्णिमा प्रकरणे यदमावास्याकरणं कथितं तत् करणगाथानुरोधेन तथा युगादौ अमावास्यायाः प्राथम्येन चेति || अथ प्रस्तुत पूर्णिमा प्रकरणं विचार्यते तथाहि 1 'इच्छा पुणिमतुनियो अवहारोऽत्य होइ काययो । तं चेत्र सोहनगं अभिईयाई तु atrai ||१|| सुद्धमिय सोहणगे जं सेवं तं हवेज्ज णक्वतं । तत्थय करे उडुप पडिपुर्ण पुण्णमं विमलं ||२|| इच्छापूर्णिमा गुणितोऽवधार्यः सोऽर्थी मवदि कर्तव्यः । तं चैव शोधनकमभिजितादितु कर्तव्यम् ॥ १ ॥ शुद्धे च शोधन के यत् शेषं तद्भन्नक्षत्रम् । तत्र च करोति उडुपतिः परिपूर्णा पूर्णिमां विमलाम् | २|| इतिच्छाया, यथापूर्वममावास्या चन्द्रनक्षत्र परिज्ञानार्थमव वार्यराशिः कथितः स एवात्रापि - पौर्ण अश्लेषा नक्षत्र के एक मुहूर्त में ओर एक मुहूर्त के ४० द्वाषष्ठि भागों में और सप्तषष्टि से छिन एक द्वाषष्ठि भाग के शेष ६६ भागों में प्रथमा अमावास्या समाप्त होती है । इसी प्रकार समस्त अमावास्याओं के सम्बन्ध में भी करण का विचार कर लेना चाहिये, यहां पूर्णिमा के प्रकरण में जो अमावास्याकरण कहा गया है वह करण गाथा के अनुरोध को एवं युग की आदि में अमावास्या के प्राथम्य को लेकर कहा गया है । प्रस्तुत पूर्णिमा के प्रकरण का विचार इच्छा पुण्णिमगुणियो अवहारोऽत्थ होइ कायव्वो । तं चैव सोहणगं अभिईयाई तु कायव्वं ॥ १॥ सुद्धमि य सोहणगे जं सेमं तं हवेज्ज णक्खतं । तत्थ य करेइ उडुबइ पडिपुण्णं पुष्णिमं विमलं ॥२॥ जिस प्रकार पूर्व में अमावास्या और चन्द्र नक्षत्र के परिज्ञान के निमित्त अवघा राशि कही गई है वैसी ही वह अवधायें राशि यहां पर भी पौर्णमासी ખાસઠ ભાગના શેષ ૬૬ ભાગેામાં પ્રથમા અમાવાસ્યા સમાપ્ત થાય છે. એવી જ રીતે સમસ્ત અમાવાસ્યાના સમ્બન્ધમાં પણ કરણવિચાર કરી લેવા ઘટે હી પૂર્ણિમાના પ્રકરણમાં જે અમાવસ્યાકરણ કહેવામાં આવ્યું છે તે કરણગાથાના અનુરાધને તથા યુગની આદિમાં અમાવાસ્યાના પ્રાધાન્યને લઈને કહેવામાં આવ્યું છે. પ્રસ્તુત પૂર્ણિમાના પ્રકરણને વિચાર— इच्छा पुण्णिमगुणियो अवहारोऽत्थ होइ काव्वो । तं चैव सोहणगं अभिईयाई तु कायध्वं ॥१॥ सुद्धमि य सोहणगे जं सेसं तं हवेज्ज खतं । तत्थ य करेs उडुवइ पडिपुण्णं पुष्णिमं विमलं ||२|| જેવી રીતે પૂર્વે અમાવસ્યા અને ચન્દ્રનક્ષત્રના પરિજ્ઞાનના નિમિત્ત અવધાર્ય રાશિ કહેવામાં આવી છે એવી જ અવધારાશિ અહી' પણ પૌ માસી અને ચન્દ્રનક્ષત્રની પરિ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिवारनिरूपणम् ३८६ मासी चन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविधौ इप्सितपौर्णमासीगुणितः यां पौर्णमासिं ज्ञातुमिच्छसि तत्संख्यया गुणितः कर्तव्यः गुणिते च सति पूर्वोक्तमेव शोधनकं कर्तव्यम्, केवलमभिः जिदादिकं नतु पुनर्वा प्रभृतिकम् शुद्ध च शोधनके यच्छेषमवतिष्ठते तद् भवेनक्षत्रं पौर्णमासीयुकम्, तस्मिंश्च नक्षत्रे उडुपतिश्चन्द्रमा करोति परिपूर्णा विमला पूर्णिमामिति गथाद्वयार्थः । अयं भावः-यदि कोपि पृच्छति-युगस्यादिकाले प्रथमा पौर्णमासी कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे समाप्ति याति । तत्र पष्टिमुहूर्ता एकस्य मुहूत्र्तस्य पश्चद्वापष्टिभागा एकस्य द्वापभिमागस्यै कः सप्तपष्टितमो भागः इत्येवं लक्षणकोऽनवार्यराशिधियते प्रथमायाः पौर्णमास्याः पृष्टत्वात् इत्ये केन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, तत स्तस्मादमिजिनक्षत्रस्य नवमुहर्ता एकस्य मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिद्वापष्टिभागाः, एकस्य द्वापष्टिभागस्य एवं चन्द्र नक्षत्र की परिज्ञान विधि में भी जाननी चाहिये अतः जिम पूर्णमासी को जानने की इच्छा हो उस पौर्णमासी की संख्या से उस अवधार्यराशि को गुणित कर लेना चाहिये गुणित करने पर पूर्वोक्त शोधनक करना चाहिये यह शोधनक केवल अभिजिन आदि नक्षत्र तक का ही करना पुनर्वसु आदि नक्षत्र तक का नहीं, शोधनक की शुद्धि में जो शेष बचा रहे वह पूर्णमासी युक्त नक्षत्र होता है उस नक्षत्र में चन्द्रमा परिपूर्ण पूर्णिमा को करता है ऐसा यह अर्थ इन दो गाथाओं का है इनका भाव ऐसा है यदि कोई ऐसा पूछता है कि युग के आदि काल में प्रथमा पौर्णमासी-किस चन्द्र नक्षत्र के योग में समाप्त होती है ? तो इसके जानने के लिये ६० साठ मुहर्न, एक मुहूर्त के छाषष्ठिभाग और एक द्वापष्टिभाग का एक ससष्टतमभाग इस रूप अवधार्यराशि रखनी चाहिये क्यों कि पृच्छ ने प्रथमा पौर्णमासी पूछो है अतः एक से गुणा करने पर वही राशि आती है इसले अभिजित् नक्षत्र के नौ मुहूर्श एक महूर्त के २४ द्वाषष्टि भाग, एक द्वापष्टि भाग के ६७ सप्तषष्टिभाग इस रूप शोधनक शोधना જ્ઞાન વિધિમાં પણ જાણવી જોઈએ. આથી જે શૌર્ણમાસી જાણવાની જિલ્લામાં થાય તે પૌર્ણમાસીની સંખ્યાથી તે અધાર્યરાશિને ગુણવી જોઈએ. ગુણાકાર કર્યા બાદ અગાઉ કહેવામાં આવ્યા મુજબ ધનક કરવા આ શોધનક કેવળ અભિનિત્ આદિ નક્ષત્ર સુધીનું જ કરવું, પુનર્વસુ આદિ નક્ષત્ર સુધીનું નહીં શેધનકની શુદ્ધિમાં જે શેષ વધે તે પૂર્ણ માસી યુક્ત નક્ષત્ર હોય છે તે નક્ષત્રમાં ચન્દ્રમા પરિપૂર્ણ પૂર્ણિમાનું નિર્માણ કરે છે. એ આ બંને ગાથાઓનો અર્થ થાય છે એમને ભાવ આ પ્રમાણે છે–જે કઈ એવું પૂછે કે યુગના આદિ કાળમાં પ્રથમ પૌમાસી-કયા ચન્દ્રનક્ષત્રના યુગમાં સમાપ્ત થાય છે? આ જાણવા માટે ૬૦ મુહુર્ત એક મુહૂર્તના જ ભાગ અને એક ૬૨ ભાગને ક ભાગ આ રૂપ અવધાર્ય રાશિ રાખવી જોઈએ કારણ કે પૃચ્છકે પ્રથમ પર્ણમાસી પૂછેલ છે આથી એકથી ગુણવાથી તેજ રાશિ આવે છે. આનાથી અભિજિત નક્ષત્રને નવ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० अम्बूद्वीपप्रक्षप्तिसूत्र षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः, इत्येवं प्रमाणकं शोधनकं शोधनीयम्, तत्र च षष्टेनवमुहूर्ताः शुद्धाः स्थिताः पञ्चाशत् सप्तपश्चाशत् तेभ्य एक मुहूर्त गृहीत्वा द्वापष्टिभागी कृतः तेच द्वापष्टिभागराशिं पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिभागाः तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः, पश्चात् त्रिचत्वारिंशत् तेभ्य एक रूपमादाय सप्तपष्टि भागी क्रियते, तेच सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तषष्टिभागैकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते जाता अष्टषष्टिभागाः तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः स्थिती पश्चात् द्वौ सप्तषष्टिभागी, ततः त्रिंशतामुहूर्तः श्रवणः शुद्धः, स्थिताः पश्चात् मुहूर्ताः षड्विंशतिः तत इदमायातं यद् धनिष्ठा नक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशति संख्यकेषु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिसंख्यकेषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा पौर्णमासी समाप्ति मुपगच्छति, एवं पञ्चानां युगभाविनीनां श्राविष्ठीनां पूर्णिमानां क्वचित् श्रवणनक्षत्रग क्वचित् धनिष्ठानक्षत्रण परिसमाप्तितिव्येति ॥ ___ श्राविष्ठी पूर्णिमाया नक्षत्रयोगं दर्शयित्वा प्रौष्ठपदी पूर्णिमाया नक्षत्र योग दर्शयितु. चाहिये इसमें ६० के नौ मुहूर्त शुद्ध हैं बचे हुए ५१ मुहूर्तों में से फिर १ मुहूर्त को ६२ भागों में विभक्त करके उन्हें ५ भागों के साथ मिला देना चाहिये. ६७ भाग हो जाते हैं इनमें २४ भाग शुद्ध हैं और बाकी के ४३ में से फिर एक भाग को लेकर ६७ भागों में उसे भाजित करना चाहिये, और ६७ भागों के १ भाग के साथ जोड देना चाहिये इस प्रकार से ६८ भाग हो जाते हैं इनमें ६६ भाग शुद्ध हैं २ बचे हुए अष्टषष्टिभाग अशुद्ध हैं इस तरह ३० मुहूर्तों से श्रवण नक्षत्र शुद्ध है इससे यह बात समझ में आती है कि धनिष्ठा नक्षत्र के ३ मुहूर्तों मे और एक मुहूर्त के १९ द्वाषष्टि भागों में और एक द्वाषष्टि भाग के शेष पंचषष्टि संख्यक सप्तषष्टि भागों में प्रथमा पौर्णमासी समाप्त होती है इस प्रकार पांच युगभाविनी श्राविष्ठी पूर्णिमाओं का कहीं श्रवण नक्षत्र के साथ कहीं धनिष्ठा नक्षत्र के साथ परिसमाप्ति काल जानना चाहिये। મુહુ એક મુહૂર્તના ૨ ભાગ, ફ ભાગના ૨ ભાગ આ રૂપ શેજનક શે જોઈએ. આમાં ૬૦ ના નવ મુહૂર્ત શુદ્ધ છે. વધેલા ૫૧ મુહૂર્તોમાંથી પછી ૧ મુહૂતને ૬૨ ભાગમાં વિભક્ત કરીને તેમને ૫ ભાગની સાથે જોડી દેવા જોઈએ આથી ૬૭ ભાગ થઈ જાય છે જેમાં ૨૪ ભાગ શુદ્ધ છે અને બાકીના ૪૩ માંથી વળી એક ભાગ લઈને ૬૭ ભાગમાં તેનું વિભાજન કરવું જોઈએ અને ૬૭ ભાગોના ૧ ભાગની સાથે તેને જેડી દે જોઈ એ આ રીતે ૬૮ ભાગ થઈ જાય છે જેમાં ૬૬ ભાગ શુદ્ધ છે. બે વધેલા ૬૮ ભાગ અશુદ્ધ છે આ રીતે ૩૦ મુહૂર્તીથી શ્રવણ શુદ્ધ છે આનાથી એ હકીકત સમજમાં આવી જાય છે કે ધનિષ્ઠા નક્ષત્રના ૩ મુહૂર્તોમાં અને ૧ મુહૂર્તના 3 ભાગોમાં અને ૪ ભાગના શેષ ૬૫ ની સંખ્યા ૬૭ ભાગોમાં પ્રથમ પર્ણમાસી સમાપ્ત થઈ જાય છે. આ રીતે પાંચ યુગભાવિની શ્રાવિષ્ઠી પૂર્ણિમાની કયારેક શ્રવણ નક્ષત્રની સાથે તે કયારેક ધનિષ્ઠા નક્ષત્રની સાથે પરિસમાપ્તિ જાણવી જોઈએ. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमयमस्कारा स. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ३९१ माह-पोडवई ण भंते !, इत्यादि, 'पोहबई णं भंते पुणिम' प्रौष्ठपदी भाद्रपदसंबन्धिनी खलु भदन्त ! पौर्णमासी पूर्णिमातिथिम् 'कइणक्खत्ता जोगं जोएंति' कतिकियत्संख्यकानि नक्षप्राणि योग सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्तीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिमि णक्खत्ता जोअंजोएंति' त्रीणि नक्षत्राणि योगं योजयन्ति-कुर्वन्ति, कानि तानि त्रीणि नक्षत्राणि योगं कुर्वन्ति तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'सयभिसया पुषभदवया उत्तरभदवया शतभिषक् पूर्वेभद्रपदा उत्तर भद्रपदा च, एतानि त्रीणि च नक्षत्राणि योगं कुर्वन्तीति आसां पश्चानामपि युगभाविनीना मेतेषु नक्षत्रेषु मध्यात् एकतमेन परिसमा. पनात् 'अस्सोइण्णं भंते' इत्यादि, 'अस्सोइण्णं भंते ! पुण्णिमं' आश्वयुजी खल भदन्त ! पोर्णमासीं 'कइणक्खत्ता जोगंजोएंति' कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि योग संबन्धं योजय. न्ति कुर्वन्तीति पूर्वपक्षः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो जोएंति' द्वे नक्षत्रे आश्वयुजों पूर्णिमां योजयतः परिसमापयतः, के ते द्वे नक्षत्रे तत्राह-'तं जहा' धाविष्ठी पूर्णिमा का नक्षत्र के साथ योग प्रकट करके अब प्रौष्ठपदी पूर्णिमा का नक्षत्र योग दिखाने के लिये सूत्रकार सूत्र कहते हैं-इसमें गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'पोडवईणं भंते! पुषिणमं' हे भदन्त! प्रौष्ठपदी पूर्णिमा तिथि के साथ 'कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति' कितने नक्षत्र सम्बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुने ऐसा कहा है -'गोयमा ! तिमि णक्खत्ता जो जोएंति' हे गौतम ! तीन नक्षत्र योग करते हैं 'तं जहा' उनके नाम ये हैं-'सयभिसया पुत्वभवया उत्तरभद्दवया' शतभिषक, पूर्वभाद्रपदा और उत्तरभाद्रपदा, क्योंकि इन पांचों भी युगभाविनी पूर्णिमाओं की इन तीन नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के साथ समाप्ति होती है 'अस्सोइण्णं भंते ! पुष्णिमं' हे भदन्त ! आश्वयुजी पूर्णिमा के साथ 'कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति' कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'दो जोएंति' हे गौतम ! दो नक्षत्र सम्बन्ध करते हैं 'तं जहा' वे दो नक्षत्र ये हैं શ્રાવણી પૂર્ણિમાને નક્ષત્ર સાથેને એગ પ્રકટ કરીને હવે પ્રૌષ્ઠપદી પૂર્ણિમાને નક્ષત્રગ બતાવવાના આશયથી સૂત્રકાર સૂત્ર કહે છે–આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આ प्रमाणे पूछ्युठे-पोवई गं भंते ! पुण्णिमं' 3 महन्त ! प्रो०४५ही पूणिमा तिथिनी साथ 'वइ णक्खत्ता जोगं जोएंति' 2 नक्षत्र सम्बन्ध ४२ छ ? उत्तरमा प्रभुणे : छ'गोयमा! तिन्नि णक्खत्ता जोगं जोएंति' गौतम ! १ नक्षत्र ये॥ ४२ छ 'तं जहा' तमना नाम मा प्रमाणे छ-'सयभिसया पुत्रभद्दवया उत्तरभद्दबया' शतभिष५ पूर्वमा मन ઉત્તરભાદ્રપદા, કારણ કે આ પાંચે યુ ભાવિની પૂર્ણિમાઓની પણ આ ત્રણ નક્ષત્રોમાંથી ४ नक्षत्रन साथै समास्ति थाय छे. 'अस्सोइण्णं भंते ! पुणिमं' महन्त ! मावयु पूणिमानी साथे 'कइ णक्खत्ता जोग जोएंति' सा नक्षत्र थे।४२ छ ? उत्तरमा अनुश्री 83 -'दो जोएंति' के गीतम! मे नक्षत्र समन्य छ 'तं जहा' ते मे नक्षत्र Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपप्रक्षप्तिस्त्र इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'रेवई अस्सिणीय' रेवती अश्विनी च, अत्र खलु यद्यपि उत्तर भद्रपदा नक्षत्रमपि कांचिदाश्वयुजी पूर्णिमा परिसमापयतीति तस्य नामसंकीर्तनं कुतो न कृतम्, तथापि तदुत्तरभद्रपदानक्षत्रं प्रौष्ठपदी पूर्णिमामपि परिसमापयतीति लोके च प्रौष्ठपर्धा पूर्णिमायामेवोत्तर भद्रपदानक्षत्रस्य प्राधान्यम्, द्रनाम्ना तस्या अभिधानात्, अतः प्रकृते उत्तरभद्रपदा नक्षत्रस्य चर्चा न कृतेति नकोऽपि दोषः अतो वे रेवत्यश्विनीनक्षत्रे परिसमापयत आश्वयुजी पूर्णिमामिति सूत्रे कथितम्, आसां बहीनां युगभाविनीनां पर्णिमानामुक्तनक्षत्रद्वयमध्ये अन्यतरे परिसमापनादिति । 'कत्तिणं दो भरणी कत्तियाय' कार्तिकी द्वे भरणी कृत्तिका च, हे भदन्त ! कार्तिकी पूर्णिमा कतिनक्षआणि योजयन्तीति प्रश्नः भगवानाह-हे गौतम ! कार्तिक पूर्णिमां द्वे नक्षत्रे परिसमापयत: तद्यथा-भरणी कृत्तिका 'रेवई अस्सिणी य' रेवती नक्षत्र और अश्विनी नक्षत्र, यद्यपि किसी २ आश्व युजी पूर्णिमा को उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र भी परिसमाप्त करता है तो फिर उसका नाम वहां क्यों नहीं कहा गया है तो इसका कारण यह है कि वह उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र प्रौष्ठपदी पूर्णिमा को भी परिसमाप्त करता है. लोक में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा में ही उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र की प्रधानता है इसी कारण उसके नाम से उसका कथन हुआ है, अतः प्रकृत में उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र की चर्चा नहीं की गई है और इसी कारण रेवी और अश्विनी ये दो नक्षत्र आश्वयुजी पूर्णिमा की समाप्ति करते हैं ऐसा सूत्र में कहा गया है अतः इन अनेक युगभाविनी पूर्णिमाओं को इन नक्षत्रद्वय में से कोई एक नक्षत्र समाप्त कर देता है ऐसा जानना चाहिये 'कतिपणं दो भरणी कत्तिया य' कार्तिकी पूर्णिमा को हे भदन्त ! शितने नक्षत्र समान करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! कार्तिकी पूर्णिमा को दो नक्षत्र समाप्त करते हैं-उनके नाम हैं-भरणी नक्षत्र ॥ छ- रेवई अस्सिणी य' वतीनक्षत्र भने अश्विनी नक्षत्र, २ } }5 आश्वयु पूणि માને ઉત્તરભાદ્રપદા નક્ષત્ર પણ પરિસમાપ્ત કરે છે તે પછી તેનું નામ અહીં કેમ આપવામાં આવ્યું નથી ? આનું કારણ એ છે કે તે ઉત્તરભાદ્રપદા નક્ષત્ર પૌષ્ઠ૫ર્દી પૂર્ણિમાને પણ સમાપ્ત કરે છે. જેમાં શ્રી ઠપદપૂર્ણિમામાં જ ઉત્તરભાદ્રપદા નક્ષત્રની પ્રધાનતા છે આ કારણે જ તેના નામથી તેનું કથન થયેલું છે, આથી પ્રકૃતમાં ઉત્તરભાદ્રપદ નક્ષત્રમાં ચર્ચા નક્ષત્રમાં આવી નથી અને આ કારણે જ રેવતી અને અશ્વિની એ બંને નક્ષત્ર આ પિયુજી પૂર્ણિમાની સમાપ્તિ કરે છે એવું સૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યું છે આથી આ અનેક યુગભાવિની પૂર્ણિમાઓને આ નક્ષત્રદ્રયમાંથી કોઈ એક નક્ષત્ર સમાપ્ત ४ी छ मेम न. 'कत्तिइण्णं दो भरणी कत्तिया य' ती पण भान महन्त ! કેટલાં નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે–હે ગૌતમ! કાર્તિકી પૂર્ણિમાને બે નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે-તેમના નામ છે-ભરણી નક્ષત્ર અને કૃત્તિકા નક્ષત્ર છે કે અહીં Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. २५ नक्षत्राणां कुलाविवारनिरूपणम् व, इहापि यद्यपि अश्विनीनक्षत्रं कांचित् कार्तिकी पूर्णिमा परिसमापयति तथापि अश्विनी नक्षत्रस्याश्वयुज्यां पौर्णमास्यां प्रतिप्राधान्यमिति न प्रकृते अश्विनीनक्षत्रं न विवक्षितमिति न कोऽपिदोषः । अतोऽपि द्वे परिमारत इति कथितम्, आसां बहीनां युगभाविनीनां कानिकी पूर्णिमानाम, भरणी कृत्तिरुयोर्मध्ये अन्यतरेणैव परिसमापनादिति ॥ 'मग्गसिरिणं दो रोहिणी मग्गसिरे च' मार्गशीर्षी खलु पूर्णिमां द्वे रोहिणी मृगशिरश्च समापयतः आसां पञ्चानामपि युगभाविनीनां मार्गशीर्षी पूर्णिमामा मनयो ईयोनक्षत्रयो मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात् । 'पोसिं तिणि अदापुणब्ब पुरसो' पोपों खलु पूर्णिमा त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्पश्च आतां युगमध्येऽधिकमासस्यावश्यंभावेन षष्णामपि युगभाविनीना मुक्त नक्षत्राणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनात् 'माघिणं दो अस्सेसा और कृतिका नक्षत्र, यद्यपि यहां पर भी अश्विनी नक्षत्र किसी कार्तिकी पूर्णिमा को समाप्त करता है फिर भी अश्विनी नक्षत्र की प्रधानता अश्वयुजी पूर्णिमा की प्रति ही है इसलिये प्रकृत में इस नक्षत्र को विवक्षा नहीं हुई है। अतः इन दो नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र युगभाविनी कार्तिकी पूर्णिमाओं की परिसमाप्ति करता है ऐसा जानना चाहिये 'सरमसिरीणं दो रोहिणी मग्गसिरे च' मार्गशीर्षी पूर्णिमा को दो नक्षत्र समान करते हैं इनके नाम रोहिणी और मृगशिरा हैं इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि इन दो नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र युगभाविनी मार्गशीर्षी पूर्णिमाओं को समाप्त करते हैं। 'पोसि तिणि अद्दा पुणवम् पुस्सो' पौषी पूर्णिमा को आा. पुनर्वसु और पुष्य ये तीन नक्षत्र समाप्त करते हैं इन छह पूभित्राओं को जिनके युगमध्य में अधिक मास अवश्यंभावी होता है उक्त नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र परिसमाप्त करता है 'माघिण्णं दो अस्लेसा, मता' माथी पूणिमा को दो नक्षत्र परिसमाप्त પણ અશ્વિની નક્ષત્ર કે કાતિ કી પૂરિને સમાપ્ત કરે છે તેમ છતાં પણ અશ્વિની નક્ષત્રની પ્રધાનતા અશ્વયુઝ પૂર્ણિમા પ્રત્યે જ આ કારણે જ પ્રકૃતમાં આ નક્ષત્રની ચર્ચા કરવામાં આવી નથી આથી આ બે નક્ષત્રમાંથી કોઈ એક નક્ષત્ર યુગભાવિની ति पूलिभासनी ५२मा ४३ छे से तसे . 'मग्गसिरिणं दो रोहिणी મણિરે માર્ગશીર્ષ પૂર્ણિમાને બે નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે એમના નામ હિણી અને મૃગશિરા છે. આનું તાત્પર્ય માત્ર એટલું જ છે કે આ બે નક્ષત્રોમાંથી કોઈ એક નક્ષત્ર યુગભાવિની માશીષ પૂર્ણિમાઓને સમાપ્ત કરે છે. ___'पोसिं तिणि अद्दा पुगव्य पुस्सो' गोषी पूणिमामाने ना, पुनर्वसु भने ५०५ એ ત્રણ નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે. આ છે પૂર્ણિમાઓ કે જેના યુગ મધ્યમાં અધિક માસ અવશ્ય ભાવી હોય છે, ઉપર કહેલા નક્ષત્રમાંથી કઈ એક નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. 'माघिण्णं दो अस्सेसा, महा य' माघी पूमाने नक्षत्र परिसमस रे छे २६ मश्वेषा । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपति महाय' माघी खलु पूर्णिमा द्वे नक्षत्रे परिसमापयत स्तद्यथा अश्लेषा मघा च, अत्र च शब्दात् पूर्वफल्गुनी पुष्यौ ग्राह्यो, तेन आसां युगभाविनीनां पञ्चानामपि मध्ये कांचिदश्लेषा कांचिपौर्णमासी मघा कांचित्पूर्वफलानी कांचित् पुष्यश्च परिसमापयति । तथा 'फग्गुणिणं दो पुच्चाफग्गुणीय उत्तराफग्गुणीय' फाल्गुनी खलु पूर्णिमा द्वेनक्षत्रे परिसमापयतः पूर्वा फारगुनीचोत्तराकल्गुनी च आसां पञ्चानामपि युगभाविनीना मुक्तनक्षत्रयो मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात् । तथा 'चेति णं दो हत्थो चित्ताय' चैत्री खलु पूर्णिमां द्वे नक्षत्रे परिसमापयतः तपथा-हस्तश्चित्रा च आसां पञ्चानामपि युगमाविनीनाम् उक्तनक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात् तथा-'विसाहिणं दो साई विसाहाय' वैशाखी खलु द्वे स्वाती विशाखा च, हे भदन्त ! वैशाखी पूर्णिमा कति नक्षत्राणि परिसमापयन्ति भगवानाह-हे गौतम ! वैशाखी पूर्णिमा द्वे नक्षत्रे परिसमापयत स्तद्यथा-स्वाती विशाखा च, अत्र च शब्दादनुराधा नक्षत्रकरते हैं एक अश्लेषा नक्षत्र और दूसरा मघा नक्षत्र यहां च शब्द से पूर्व फाल्गुनी और पुष्य ये दो नक्षत्र गृहीत हुए है। इससे ऐसा जानना चाहिये कि युगभाविनी इन पांच पूर्णिमाओं में से किसी पूर्णिमा को अश्लेषा नक्षत्र, किसी पूर्णिमा को मघा नक्षत्र, किसी पूर्णिमा को पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र और किसी पूर्णिमा को पुष्य नक्षत्र परिसमाप्त करता है। तथा- फरगुणिं णं दो पुच्चा फरगुणी य उत्तराफग्गुणी य' फाल्गुनी पूर्णिमा को दो नक्षत्र समाप्त करते हैं-पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी इन युगभाविनी पांच पूर्णिमाओं को इन दो नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र समाप्त करता है 'चेत्तिं णं दो हत्थो, चित्ता य' चैत्री पूर्णिमा को युगभाविनी पांच चैत्री पूणिमाओं को हस्त और चित्रा इन दो नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र समाप्त करता है 'विसाहिणं दो साई विसाहा य' वैशाखी पूर्णिमा को-युगभाविनी पांचों वैशाखी पूर्णिमाओं को स्वाती और विशाखा नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र परिसमाप्त करता है નક્ષત્ર અને બીજું મઘા નક્ષત્ર અહીં “ઘ' શબ્દથી પૂર્વ ફલગુની અને પુષ્પ એ બે નક્ષત્ર અભિપ્રેત થયેલા છેઆનાથી એમ સમજવાનું છે કે યુગભાવિની આ પાંચ પૂર્ણિમા એમાંથી કોઈ પૂર્ણિમાને અશ્લેષાનક્ષત્ર, કેઈ પૂર્ણિમાને મઘા નક્ષત્ર, કેઈ પૂર્ણિમાને गुनी नक्षत्र भने । पूर्णिमान ४०५ नक्षत्र परिसमास रे छे तथ:-'फग्गुणिं णं दो पुठवाफगुणी य उत्सराफग्गु गी य' शगुनी पूणि भान ये नक्षत्र समाप्त ४२ छ-५॥ ફાગુની અને ઉત્તરાફાગુની આ યુગભાવિની પાંચ પૂર્ણિમા બને આ બે નક્ષત્રમાંથી કઈ २४ नक्षत्र समास ४२ छे 'चेत्तिणं दो हत्थो, चित्ताय' यैकी पूर्णिमाने-युगमाविनी पांय ચૈત્રી પૂર્ણિમાઓને હસ્ત અને ચિત્રા આ બે નક્ષત્રમાંથી કઈ એક નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે छ 'विसाहिणं दो साई विसाहा य' वैशाभी पूरा भान-युगमाविनी पांये वैशाली પૂર્ણિમાઓને–સ્વાતી અને વિશાખા નક્ષત્રમાંથી કઈ એક નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે | Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् मपि ग्राह्यम्, तच्चानुराधानक्षत्रं विशाखातः परं ग्राह्यम्, वैशाखीपूर्णिमायां विशाखा नक्षत्रमेव प्रधानम्, ततः परस्यामेव पूर्णिमाया मनुराधायाः साक्षादुपादानं कृतं नात्र तस्याः चर्चा कृता किन्तु द्वे इत्येव कथितम्, आसामनेकानामपि युगमाविनीना मुक्तनक्षत्रयो मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात् । 'जेवामूलिण्णं तिष्णि अणुराहा जेट्टामूले' ज्येष्ठामूलिं खलु पौर्णमासी त्रीणिनक्षत्राणि परिसमापयन्ति तद्यथा अनुराधाज्येष्ठ मूलश्च, आसां पञ्चानामपि युगभाविनीनां ज्येष्ठ मूलीपूर्णिमानामुक्तनक्षत्रेषु मध्येऽन्यतमेन परिसमापनात् । 'आसादिणं दो पुव्वासाझ उत्तरासाढा' आषाढी खलु पूर्णिमां द्वे नक्षत्रे परिसमापयतः तद्यथा-पूर्वाषाढा उत्तराषाढा, आसां पूर्णिमानां युगान्तेऽधिकमाससंभवेन पण्णामपि युगभाविना मुक्तनक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण परिसमापनादिति ॥ यहां च शब्द से अनुराधा नक्षत्र भी गृहीत हुआ है यह अनुराधा नक्षत्र विशाखा नक्षत्र से आगे गृहीत हुआ है वैशाखी पूर्णिमा में विशाखा नक्षत्र ही प्रधान रहता है क्योंकि इससे आगे की पूर्णिमा में ही अनुराधा नक्षत्र का साक्षात् ग्रहण हुआ है इससे यहां उसकी चर्चा नहीं हुई है किन्तु दो ही नक्षत्र कहे गये हैं इस तरह इन युग भाविनी पांच वैशाखी पूर्णिमाओं को इन दो नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र समाप्त करता है 'जेट्ठा मूलिण्णं तिणि अनुराहा जेहा मूलो' ज्येष्टामूली पूर्णिमाको युगभाविनी इन पांच पूर्णिमाओं को इन नक्षत्रों में से-अनुराधा ज्येष्ठा और मूल नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र परिसमाप्त करता है 'आसाढिण्णं दो पुव्वासाढा, उत्तरासाढा' आसाढी पूर्णिमा को पूर्वाषाढा नक्षत्र और उत्तराषाढा नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र परिसमाप्त करता है यहां पर भी युगान्त में अधिकमास होने के कारण युगभाविनी ६ पूर्णिमाएं होती है सो इन छहों आषाढी पूर्णिमाओं को पूर्वोक्त दो नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र परिसमाप्त करता है। અહીં “' શબ્દથી અનુરાધા નક્ષત્ર પણ ગૃહીત થયેલ છે. આ અનુરાધા નક્ષત્ર વિશાખા નક્ષત્ર પછી ગૃહીત થયેલ છે. વૈશાખી પૂર્ણિમાનાં વિશાખા નક્ષત્ર જ પ્રધાન રહે છે. કારણ કે આની પછીની પૂર્ણિમામાં જ અનુરાધા નક્ષત્રનું સાક્ષાત્ ગ્રહણ થયેલ છે આથી અત્રે તેની ચર્ચા થયેલી નથી પણ એ જ નક્ષત્ર કહેવામાં આવ્યા છે. આવી રીતે આ યુગભાવિની પાંચ વૈશાખી પૂર્ણિમાઓને આ બે નક્ષત્રમાંથી કેઈ એક નક્ષત્ર સમાપ્ત ४२ छे. 'जेद्वा मूलिण्णं तिणि अनुराहा जेद्वा मूलो' न्ये शी पुलिभान-युगमाविना આ પાંચ પૂર્ણિમાએાને–આ નક્ષત્રોમાંથી–અનુરાધા ચેષ્ઠા અને મૂલ નક્ષત્રમાંથી–કોઈ ४ नक्षत्र परिसमास ४२ छ-'आसाढिण्णं दो पुव्वासाढा उत्तरासाढा भाषाढी ५ माने પૂર્વાષાઢા નક્ષત્ર અને ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રમાંથી કેઈ એક નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. અહીં પણ યુગાન્ત અધિકમાસ હોવાથી યુગભાવની ૬ પૂર્ણિમાઓ હોય છે. આ છ એ આષાઢી પૂર્ણિમાઓને પૂર્વોક્ત બે નક્ષત્રમાંથી કઈ એક નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. | Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६. जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र सम्प्रति-कुलद्वारप्रतिपादनार्थमाह-मालिट्ठीणं भंते' इत्यादि, 'साविट्ठीणं भंते ! पुण्णिमं' श्राविष्ठी श्रावणमासमाविनी खलु भवन्त ! पूर्णिमाम् 'किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोवलं जोएइ' कि कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गायमा' हे गौतम ! दुलं वा जोएइ उक्कुलं वा जोएइ कुकोवकुलं वा जोएई' कुलं वा युनक्ति कुलमपि हुल संज्ञक नक्षरमपि युक्ति श्राविष्ठी पूर्णिमाम तथा उपकुलं वा युनक्ति उपकुलसंज्ञक क्षत्रमपि श्राषिष्ठी पूर्णिमा युनक्ति श्रावणी पूर्णिमाया सह उपकुलस्यापि योगो भवतीत्ययः, कुलोमकुलं वा, युनक्ति कुलोपकुलसंज्ञकनक्षत्रमपि युनक्ति, सबैः सहयोगो भवति श्रावणीपूर्णिमाया इत्यर्थः । तत्र 'कुलं जोएमाणे धणिट्ठाणक्खत्ते जोएइ' तत्र कुलं युञ्जद्धनिष्ठा नक्षत्रं युनक्ति, धनिष्ठानक्षत्रस्येव कुलतया कुलबार प्रतिपादन इसमें गौतमस्वामीने प्रभु से ऐमा पूछा है-'साविट्ठी भंते ! पुणिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएई, कुलोवलं जोएई' हे भदन्त ! श्रावणमास भाविनी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र समाप्त करते हैं या उपकुलसंज्ञक नक्षत्र समाप्त करते हैं ? या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र समाप्त करते हैं ? अर्थात श्रावणमासभाविनी पूर्णिमा के साथ किन नक्षत्रों का योग रहता है-क्या, कुलसंज्ञक नक्षत्रों का, या उपकुलसंज्ञक नक्षत्रों का या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्रों का ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएई' हे गौतम ! श्रावणमास भाविनी पूर्णिमा के साथ कुलसंज्ञक नक्षत्रों का भी योग रहता है, उपकुल संज्ञक नक्षत्रों का भी योग रहता है और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्रों का भी योग रहता है ! तात्पर्य यही है कि इन सब नक्षत्रों के साथ श्राविष्ठी पूर्णिमा का योग रहता है 'कुलं जोएमाणे धणिट्ठाणक्खत्ते जोएइ' जब श्राविष्ठी सदार प्रतिपादन मामी गौतभस्वामी प्रभुने मे पूछ्युछे-'साविट्ठीण्णं भंते ! पुण्णिम किं कुलं जोएइ उवकुलं जाएइ, कुलोवकुलं जोएइ' 3 भगवन् ! श्रावणुमास भाविनी पूरा भान शु सस નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે કે ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે? અથવા તે શું કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે? અર્થાત્ શ્રાવણમાસ ભાવિની પૂર્ણિમાની સાથે કયા નક્ષત્રને વેગ રહે છે–શું કુલસંજ્ઞક નક્ષત્રોને, અગર–ઉપકુલસંજ્ઞક નસત્રને કે કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રોને? भाभा प्रभु छ-'गोयमा ! कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ कुलोषकुलं वा जोएइ' હે ગૌતમ! શ્રાવણમાસ ભાવિની પૂર્ણિમાની સાથે કુલસંજ્ઞક નક્ષત્રોને પણ વેગ રહે છે, ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રોનો પણ યોગ રહે છે અને કુલેકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્રોને પણ ગ રહે છે. તાત્પર્ય એજ છે કે આ બધાં નક્ષત્રોની સાથે શ્રાવિષ્ઠી પૂર્ણિમાને વેગ રહે છે. 'कुलं जोएमाणे धनिट्ठा णक्खत्ते जोएइ' न्यारे श्राविडी पूणिमानी साथे उसस: नक्षत्रोन। યોગ રહે છે ત્યારે તેમાં ધનિષ્ઠા નક્ષત્રને વેગ રહે છે. ઘનિષ્ઠા નક્ષત્ર કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशि का टीका-सन कारः सू. २१ नक्षत्रागा कुठादिद्वारनिका ३१७ प्रसिद्धस्य श्रावणी पूर्णिमायां योगसंभवात, 'उपकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएई उपकुळमुपकुलसंज्ञक नक्षत्रं युञ्जत् श्रवण नक्षत्र युनक्ति, श्रवणनक्षमस्योपकुलतया प्रसिद्धतया श्रावणीपूर्णिमायां योगसंभवात् । 'कुलोवकुलं जोएमाणे अभिईगक्खत्ते जोएइ' कुलोपकुलं युञ्जत् जभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, अभिजिनक्षत्रस्य कुलोपकुळतया प्रसिद्धस्य श्रावणी पूर्णिमाया सह योगसंभवात् अभिजिन्नक्षत्रहि तृतीयायां धारिष्ठयां पूर्णिमास्यां द्वादशमुहूर्तेषु किश्चित्समधिकेषु शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपति ततः श्रवणसहचरात् स्वयमपि तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्तित्वात् तदपि तां परिसमापयतीति विवक्षितत्वाद् धुनक्तीति कथितमिति । सम्प्रति उपसंहारमाह-साविट्ठीणमित्यादि, 'साविठ्ठीणं पुणिमासिं णं कुलं वा जोएइ पूर्णिमा के साथ कुलसंज्ञक नक्षत्रों का योग रहता है तब उनमें से धनिष्ठा नक्षत्र का योग रहता है धनिष्ठा नक्षत्र कुलसंज्ञक नक्षत्र माना गया है और श्राविष्ठी पूर्णिमा में इसका योग होता है, "उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्त जोएई' और जब उपकुल संज्ञक नक्षत्रों का योग होता है तब श्रवण नक्षत्र का योग होता है क्यों कि उपकुलरूप से श्रवण नक्षत्र कहा गया है श्रावणी पूर्णिमा में इसका योग होता है 'कुलोव कुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते जोएइ' कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र का जय योग होता है तब अभिजितू नक्षत्र का योग होता है अभिजित् नक्षत्र कुलोपकुल रूप से पहिले प्रतिपादित हो चुका है और इसका श्रावणी पूर्णिमा के साथ योग होता है अभिजित् नक्षत्र तृतीया श्राविष्ठी पूर्णिमा में कुछ अधिक १२ मुहूर्ततक चन्द्र के साथ सम्बन्धित रहता है इसके बाद श्रवण सहचर होते से वह स्वयं भी उत्त पूर्णिमासी के पर्यन्तवर्ती होने के कारण उस पूर्णिमासी को परिसमाप्त कर देता है ऐसी विवक्षा होने से युनक्ति ऐसा कहा गया है इस तरह 'साविट्ठीणं पुण्णमासिं णं कुलं वा जोएइ जाव भानवामा माव्यु छ भने विही पूणि भामा तना या थाय छे. 'उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ' भने न्यारे ५ ४ नक्षत्रोन। यो थाय छे त्यारे श्रवण नक्षत्रने ગ થાય છે કારણ કે ઉપકુલ રૂપથી શ્રવણ નક્ષત્ર કહેવામાં આવ્યું છે. શ્રાવણ ५ मामा मानो योग याय छे. 'कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते जोएइ' ।५१સંજ્ઞક નક્ષત્રને જયારે ગ થાય છે ત્યારે અભિજિત્ નક્ષત્રને એગ થાય છે, અભિજિત્ નક્ષત્ર કપકલ રૂપની પહેલા પ્રતિપાદિત થઈ ચૂકેલ છે અને એને શ્રાવણી પૂર્ણિમાની સાથે વેગ થાય છે. અભિજિત્ નક્ષત્ર તૃતીયા શ્રાવિષ્ઠ પૂર્ણિમામાં કંઈક વધુ ૧૨ મુહૂર્ત સુધી ચન્દ્રની સાથે સમ્બન્ધિત રહે છે. આના પછી શ્રવણુ સહચર હેવાથી તે પિતે પણ તે પૂર્ણમાસીના પર્યન્તવત્ત હોવાના કારણે તે પૂર્ણમાસીને પરિસમાપ્ત કરી દે છે. આ ५.२नी qिqक्षा पाथी. 'युनत' मेम ४ामा माथु छ. २॥ शते 'साविट्ठीणं पुण्णमासिं णं कुलं वा जोएइ जाव कुलोबकुलं वा जोएई' श्राविही विमानी साथे पुस Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे जाव कुलोवकुलं वा जोएइ' श्राविष्ठी पूर्णिमासी खलु कुलं वा युनक्ति यावत् कुलोपकुलं वा युनक्ति यतस्त्रिभिरपि कुलादिभिः श्राविष्ठयाः पूमिमाया योजना विद्यते ततः श्राविष्ठीं पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति, 'कुलेण जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठीपुगिमा जुत्तेत्ति बत्तव्यं सिया' कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता भाविष्ठी पूर्णिमायुक्तेति वक्तव्यं स्यात् एवं प्रकारेण स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् ॥ 'पोहवई णं भंते ! पुषिणमं किं कुलं जोएइ पुच्छा' प्रौष्ठपदीं खलु भदन्त ! पौर्णमासी किं कुलं युक्ति पृच्छा हे भदन्त ! प्रौष्ठपदीं खलु पौर्णमासी किं कुलं युनक्ति किंवा उपकुलं युक्ति किंवा कुलोपकुलं युनक्तीति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कुलं वा उवकुलं वा कुलोक्कुलं वा जोएइ' कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युवतीत्युत्तरम्, तत्र 'कुलं जोएमाणे उत्तरभदवया णसत्ते जोएई' कुलं युञ्जत् उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रं युनक्ति 'उवकुलं जोएमाणे पुषभदवया जोएइ' उपकुलं युञ्जत् पूर्वभद्रपदा नक्षत्रं युनक्ति 'कुलोवकुलं जोएमाणे कुलोवकुल वा जोएइ' आविष्ठी पूर्णिमा के साथ कुलसंज्ञक नक्षत्र यावत्-उपकुलसंज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करते हैं इसीलिये वह श्राविष्ठी पूर्णिमा 'कुलेण जुत्ता, उपकुलेण जुत्ता, कुलोवकुलेग वा जुत्ता साविट्ठी पुण्णिमा जुतेति वत्तवं सिया' कुल संज्ञक नक्षत्र से उपकुल संज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र से युक्त कही गई है इस रूप से गुरु अपने शिष्यों के प्रति प्रतिपादन करे। 'पोहबई णं भंते ! पुषिणमं किं कुलं जोएइ पुच्छ।' हे भदन्त प्रोष्ठपदी पौर्णमासी के साथ क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करते हैं ! या उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करते हैं ? या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयना ! कुलं वा उपकुलं वा कुलोवकुलं वा जोएई' हे गौतम! प्रौष्ठपदी पूर्णिमा के साथ कुलसंज्ञक नक्षत्र भी योग करते हैं, उपकुल संज्ञक नक्षत्र भी योग करते हैं और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र भी નક્ષત્ર યાવ-ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર તેમજ કુપકુલસંશક નક્ષત્ર ઉગ કરે છે આથી જ તે श्रीविठी भा 'कुलेण जुत्ता, उबकुलेण जुत्ता, कलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुण्णिमा युत्तति वत्तव्य सिया' सस नक्षत्रथी सस४ नक्षत्री तेम ५सस નક્ષત્રથી યુક્ત કહેવામાં આવી છે. આ રૂપે જ ગુરૂ પિતાના શિષ્યોને પ્રતિપાદન કરે. 'पोटुवइ णं भंते ! पुण्णिमं किं कुलं जोएइ पुच्छा' 3 महन्त ! ४५६. पौभासीनी साय શું કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુગ કરે છે ? અથવા ઉપકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્ર ચેગ કરે છે? અથવા दुसोपसस नक्षत्र या ४२ छ ? 21ना ०४१ममा प्रभु ४४ छ-'गोयमा ! कुलं वा उनकुलं वा कुलोवकुलं या जोरइ' गौतम ! प्री०४५ पूर्णिमानी साथै ससनक्षत्र પણ યંગ કરે છે, ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર પણ ચેગ કરે છે અને કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર પણ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् सयभिसया णक्खत्ते जोएइ' कुलोपकुलं वा युञ्जत् शतभिषा नक्षत्र युनक्ति 'पोटबईणं पुणिमं कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं या जोएई' प्रौष्ठपदी खलु पूर्णियां कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कु लोपकुलं वा युक्ति 'कुलेग वा जुत्ता जाव कुलोवकुलेण वा जुत्ता पोट्ठवई पुण्णमासी जुत्तत्ति वत्तवं सिया' कुठेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता प्रौष्ठपदी पूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्यात्- स्वशिष्येभ्य स्तथा प्रतिपादयेदिति ॥ 'भासोइण्णं भंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! आश्वयुजी खलु भदना ! पूर्णिमा किं कुलं युनक्ति किंवा उपकुलं युनक्ति किंवा कुलोपकुलं युक्तीति पृच्छया संगृह्य ते प्रश्नः, भगवानाह-'गोषमा' योग करते हैं 'कुलं जोएमाणे उत्तरभद्दवया णखत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे पुन्वभवया जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे सयभिसया मक्खत्ते जोएइ' जब इसके साथ कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करते हैं तब उनमें से उत्तर भाद्रपदानक्षत्र योग करता है जब उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करते हैं तब उनमें से पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र योग करता है और जब कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करते हैं तब उनमें से शतभिषा नक्षत्र योग करता है इस तरह 'पोट्ठवई णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ उधकुल वा जोएइ कुलोक्कुलं वा जोएइ' प्रोष्ठपदी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुल संज्ञ कनक्षत्र, और कुलोकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं इस तरह से अपने शिष्यों को 'कुलेग वा जुत्ता जाव कुलोचकुलेण वा जुत्ता पोवई पुण्णमासी जुत्तति वत्तव्वं सिया' प्रौष्ठपदी पूर्णिमा कुल से उपकुल से और कुलोपकुल से युक्त होती है ऐसा समझना चाहिये 'आसोइण्णं भंते! पुच्छा' हे भदन्त ! आश्वयुजी पूर्णिमा क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र से युक्त होती है? या उपकुलसंज्ञक नक्षत्र से युक्त होती है ? या कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र से युक्त यो। ४२ छ 'कुलं जोएमाणे उत्तरभदवया णक्खत्ते जोएइ उपकुलं जोएमाणे पुव्वभहवया जोएड, कुलोवकुलं जोएमाणे सयभिसया णक्खत्ते जोएइ' न्यारे मानी स सस ४ नक्षत्र યોગ કરે છે ત્યારે તેમાંથી ઉત્તરભાદ્રપદા નક્ષત્ર ચોગ કરે છે જ્યારે ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર ચોગ કરે છે ત્યારે તેમાં પૂર્વભાદ્રપદા નક્ષત્ર રોગ કરે છે અને જ્યારે કુલેકુલ સંજ્ઞક नक्षत्र यो ४२ छे त्यारे नामांथी शतभिषय नक्षत्र यो॥ ४२ छ. म श 'पोवई णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ उबकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ' प्री०४ पट्टी विमान કુલસંજ્ઞકનક્ષત્ર, ઉપકુલસંજ્ઞકનક્ષત્ર, અને કુલપકુકસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે આ પ્રકારે पोताना शिष्य समुदायने 'कुलेण वा जुत्तो जाव कुलोवकुलेण वा जुत्ता पोवई पुण्णमासी जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया' प्री०४५४ी पूर्णिमा सथी पर थी भने ५४थी युक्त राय के सेम समाये. 'आसोइण्णं भंते ! पुच्छा' 3 महन्त माश्वयु मा शुसस નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે અથવા ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે? અથવા કુલપકુલ , Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएइ नो लम्भइकुलोवकुलं' आश्वयुनीं पूर्णिमां कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति नो लभले कुभोपकुलम्, अर्थात् कुलेन उपकुलेन च सहयोगी भरति किन्तु कुलोषकुलेन सहाश्वयुजी पूर्णिमायाः योगो न भव तीति । तत्र 'कुलं जोएमाणे अस्तिगी णक्खत्ते जोएइ' कुलं युञ्जत्-अश्विनी नक्षत्रं युनक्ति 'उपकुलं जोएमाणे रेवईणक्खसे जोएइ' उपकुलं दुचत् रेवती नक्षत्रं युनक्ति । उपसंहारमाह-'अस्सोइणं' इत्यादि, 'अस्सोइयं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएइ' माश्वयुनी पूर्णिमा कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति 'कुलेग वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तव्यं सिया' कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता आश्वयुजी पूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्यात् स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यादिति । 'कत्तिइण्णं भंते ! पुणिमं किं कुलं ३ पुच्छा' कानिकी खलु भदन्त ! पूर्णिमा किं कुलं पृच्छा, हे भदन्त ! होती है ? इसके उतर में प्रभु कहते हैं-'गोयना! कुलं वा जोएइ उचकुलं वा जोएइ नो लउभइ कुलोवकुलं' हे गौतम ! आश्वयुजी पूर्णिमा कुलसंज्ञक नक्षत्र से और उपकुसंज्ञक नक्षत्र से युक्त होती है, किन्तु कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र से युक्त नहीं होती है 'कुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, उपकुलंजोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएई' जब यह कुलसंज्ञक नक्षत्र से युक्त होती है-तब वह अश्विनी नक्षत्र से युक्त होती है और जब यह उपकुल संज्ञक नक्षत्र से युक्त होती है तब रेवती नक्षत्र से युक्त होती है 'अस्सोइण्ण पुगिणमं कुलं वा जोएइ' इस तरह आश्वयुजी पूर्णिमा के साथ कुल और 'उवकुलं जोएइ' उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करते हैं 'कुलेण वा जुत्तो उवकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया' अतः कुल से युक्त और उपकुल से युक्त आश्वयुजी पूर्णिमा होती है ऐसा अपने शिष्यों को समझाना चाहिये 'कत्तिइपणं भंते ! पुण्णिमं किं कुलं ३ पुच्छा' हे भदन्त ! कार्तिकी पूर्णिमा क्या कुलसंज्ञक स नक्षत्रथा युद्धत डाय छ ? साना सवाममा प्रभु गौतमन छ-'गोगमा ! कुलं वा जोएड् उवकुलं वा जोएइ नो लब्भइ कुलोवकुलं' है गौतम! मायु पूर्णिमा पुस २४ નક્ષત્રથી અને ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે પરંતુ કુલપકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્રથી યુક્ત डोती नयी. 'कुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएइ' न्यारे ते इस नक्षत्रथा युन्त डाय छे त्यारे अश्विनी नक्षथी युक्त डाय छ અને જ્યારે તે ઉપકુલ અંક નક્ષત્રમી યુક્ત હોય છે ત્યારે રેવતી નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે 'अस्सोइण्णं पुष्णिमं कुलं वा जोएइ' रीते वयु पूणिमानी साथे ४१ मन 'उवकुलं जोएई' 8५४३४ नक्षत्र ये॥ ४२ छे 'कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तव्यं सिया' माथी यी युत अने ५सया युत माश्वयु पूलमा डाय छे थे प्रमाणे पोताना शिष्योन सभा मे ‘कत्तिइण्णं भंते ! Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वादनिरूपणम् ४०१ कार्तिक पूर्णिमा किं कुलं युनक्ति किंवा उपकुलं युनक्ति किंवा कुलोपकुलं युनक्तीति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ नो कुशीवकुलं जोएइ' कुलं वा युनक्ति कार्तिकी पूर्णिमा मुपकुलं वा युनक्ति नतु कुलोष कुलं युक्ति, कुलेन उपकुलेनैव संबन्यो भवति कार्तिकी पूर्णिमायाः नतु कुलोपकुलेन सह रम्बन्धो भवतीत्यर्थः । तत्र 'कुलं जोएमाणे कत्तिया णक्खत्त जोएई' कुलं युञ्जत् कृतिमानक्षत्रमेव युनक्ति 'उपकुलं जोएमाणे भरणी' उपकुलं युञ्जत् भरणी नक्षत्रं युनक्ति 'जाव बत्तवं सिया' याच द् बक्तव्यं स्यात्, अत्र यावत्पदेन कार्तिकी पूर्णिमा कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता कार्तिकी पूर्णिमा युक्तति, एतत्पयन्तस्य ग्रहणं भवतीति । 'मग्गतिरीणं भंते ! पुण्णिमं' मार्गशीर्षी खलु भदन्त ! नक्षत्रों से युक्त होती है या उपकुल संज्ञक नक्षत्रों से युक्त होती है या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्रों से युक्त होती है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! कुलं वा जोएइ उवलं वा जोएइ नो कुलोवकुलं जोएइ' हे गौतम ! कार्तिकी पूर्णिमा कुलसंज्ञक नक्षत्रों से युक्त होती है और उपकुल संज्ञक नक्षत्रों से युक्त होती है परन्तु वह कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्रों से युक्त नहीं होती है 'कुलं जोएमाणे कत्तिया णक्खत्ते जोएई उवकुलं जोएमाणे भरणी जाव वत्सव्वं सिया' जय यह कुल संज्ञक नक्षत्र से युक्त होती है तब यह कृत्तिका नक्षत्र से युक्त होती है और जब यह उपकुल संज्ञक नक्षत्र से युक्त होती है तव भरणी नक्षत्र से युक्त होती है यहाँ यावत्पद से 'कार्तिकी पूर्णिमा को कुल नक्षत्र और उपकुल नक्षत्र युक्त करते हैं इसलिये यह कुल से और उपकुल से युक्त होती है ऐसा अपने शिष्यों के लिये समझाना चाहिये' यह सब पाठ गृहीत हुआ है 'मग्गसिरी णं भंते ! पुण्णिमं किं कुलं वा तं चेव' है भदन्त! मार्गशीषा पूर्णिमा को क्या पणिमं किं कुलं ३ पुच्छा' 3 महन्त ! पति श्री पूणिमा शुं उसस४ नक्षत्राथी यात હોય છે? અથવા ઉપકુંલસંજ્ઞક નક્ષત્રોથી યુક્ત હોય છે ? અગર કુલપકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્રોથી युत डाय छ ? उत्तरमा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ नो कुलोवकुलं जोएइ' गौतम ! तिकी पूणिमा सस४ नक्षत्रोथी युति डाय के मन ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રોથી યુક્ત હોય છે પરંતુ તે કુલપકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્રોથી યુક્ત હતી नयी. 'कुलं जोएमाणे कत्तिया णक्खत्ते जोएइ उवकुले जोएमाणे भरणी जाव वत्तव्वं सिया જયારે તે કુલસંજ્ઞક નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે ત્યારે તે કુત્તિકા નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે અને જ્યારે ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે ત્યારે ભરણે નક્ષત્રથી સંલગ્ન હોય છે. અહી થાવત્ પરથી કાર્તિકી પૂર્ણિમાને કુલનક્ષત્ર અને ઉપકુલનક્ષત્ર યુક્ત કરે છે આ કારણે તે કુલથી તેમજ ઉપકુલથી યુક્ત હોય છે એમ ગુરૂએ પિતાના શિષ્યને સમજાવવું જોઈએ मा भयो ५४ गृहीत थय। छे. 'मम्गसिरीणं भंते ! पुणिमं किं कुल वा तं चेव' महन्त ! ज० ५१ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जम्बूद्वीपमाप्ति पूर्णिमाम् 'किं कुलं तचेव दो जोएइ णो भवइ कुलोचकुलं, कुलं जोएमाणे मग्गसिरणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे रोहिणी मग्गसिरिणं पुणिमं जाव वत्तव्यं सिया' किं कुलं तदेव दे युक्तः नो भवति कुलोपकुलम्, कुलं युञ्जत् मृगशिरो नक्षत्रं युनक्ति उपकुलं युञ्जत् रोहिणी नक्षत्रं युनक्ति, मार्गशीर्षी खलु पूर्णिमा यावद्वक्तव्यं स्यात् इति, अयं भाव:-हे भदन्त ! मार्ग शीर्षी पूर्णिमा किं कुलं युनक्ति किंवा उपकुलं युनक्ति किंवा कुलोपकुलं युनक्ति इति प्रश्नः, भगवानाह-'हे गौतम ! मार्गशीषी पूर्णिमा कुलं युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति नो भवति कुल्लोपकुलम्, तत्र कुलं युञ्जत् मृगशिरो नक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् रोहिणी नक्षत्रं युनक्ति । __ सम्प्रति-उपसंहारमाह-मार्गशीर्षी पूर्णिमां खलु कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति, कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता मार्गशीर्षी पूर्णिमा युक्तेति वक्तव्यं स्यात्, एवं रूपेण स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् इति ।। अथ लाघवार्थमति देशमाह-एवं' इत्यादि, 'एवं सेसियाओवि जाव आसादि' एवं शेषिका अपि यावदाषाढीम् एवम् मार्गशीर्षी पूर्णिमान्तकथितप्रकारेण शेषिका उक्ताभ्योऽवशिष्टा पौषीपूणिमात आरभ्य आषाढपूर्णिमान्तपूर्णिमा कुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं ? या उपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं ? या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! मार्गशीर्षी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं, उपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त नहीं करते हैं जब कुलसंज्ञक नक्षत्र उसे युक्त करते हैं तब उनमें से मृगशिरा नक्षत्र उसे युक्त करता है और जब उपकुल संज्ञक नक्षत्र उसे युक्त करते हैं तब उनमें से उसे रोहिणीनक्षत्र युक्त करता है इस तरह इस मार्गशीर्षी पूर्णिमा को कुल संज्ञक नक्षत्र और उपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं इस कारण यह कुल से और उपकुल से युक्त होती है ऐसा अपने शिष्यों को समझाना चाहिये 'एवं सेसियाओ वि जाव आसाति' इसी प्रकार मार्गशीर्षी पूर्णिमान्त तक कथित प्रकार के अनुसार-उक्त से अवशिष्ट पौषी पूर्णिमा से लेकर आषाढी पूर्णिमा तक की पूर्णिमाओं के सम्बन्ध में માર્ગશીર્ષ પૂર્ણિમાને શું કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે? અથવા ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે? અથવા શું કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે –હે ગૌતમ! માર્ગશીષી પૂર્ણિમાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે, ઉબકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે, પણ કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરતાં નથી. જ્યારે કુલસ જ્ઞક નક્ષત્ર તેને યુક્ત કરે છે ત્યારે તેમનામાંથી મૃગશિશ નક્ષત્ર તેને મુક્ત કરે છે અને જ્યારે ઉકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર તેને યુક્ત કરે છે ત્યારે તેને રોહિણી નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે. આ રીતે આ માર્ગશીર્ષ પૂર્ણિમાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર અને ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે એટલે તે કુલથી તેમજ ઉપકુલથી યુક્ત હોય છે शव शिध्यान समजवु नये. (एवं सेसियाओ वि जाव आसादि) मेवी रीत માર્ગશીષી પૂર્ણિમાન્ત સુધી કહેલા પ્રકાર અનુસાર–ઉક્તથી અવશિષ્ટ પોષી પૂર્ણિમાથી Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. २५ नक्षत्राणां कुलादिवारनिरूपणम् वक्तव्याः, आलापप्रकारः सर्वत्र स्वयमेवोहनीयः । यत्र यत्र लक्षण्यमाछापे तत्र स्वयमेव 'पोसि जेहामूलिं च कुलं वा उबकुलं वा कुलोवकुलं वा' पौषी पूर्णिमां तथा ज्येष्ठामूली पूर्णिमा च कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति, एवं प्रकारेण पूर्ववदेव आलापो वक्तव्यः 'सेसियाणं कुलं वा उवकुलं वा' शेषिकानां माघी फाल्गुनी चैत्री वैशाखी आषाढीनां पूर्णिमानां कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति, इत्येव वक्तव्यम् 'कुलोवकुलं ण भण्णइ' कुलोपकुलं न भण्यते, शेषपूर्णिमासु कुलोपकुलं वा युनतीति न वक्तव्यं सदभावात् अन्यत् सर्वे सर्वत्र समानरूपेणैव ज्ञातव्यमिति पूर्णिमा प्रकरणम्, भी कहलेना चाहिये आलाप प्रकार सर्वत्र स्वयं ही उद्भावित कर लेवें। जहां जहां विलक्षणता आलाप में हो वह इस प्रकार से करलेवे यह सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं । 'पोसिं जेट्ठा मूलिं च कुलं वा उपकुलं वा कुलोवकुलं वा' हे भदन्त ! पौषी पूर्णिमा को तथा ज्येष्ठा मूली पूर्णिमा को कुलसंज्ञकनक्षत्र, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र या कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र व्याप्त करते हैं ? इसके उत्तर में यही कहना चाहिए-पोषी पूर्णिमा को और ज्येष्ठामूली पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र भी व्याप्त करते हैं-उपकुल संज्ञक नक्षत्र भी व्याप्त करते हैं 'सेसियाणं कुलं वा उवकुलं' माघी, फाल्गुनी चैत्री वैशाखी और आषाढी पूर्णिमाओं को कुल संज्ञक और उपकुल संज्ञक ये दोनों प्रकार के ही नक्षत्र व्याप्त करते हैं कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र व्याप्त नहीं करते हैं यही बात 'कुलोवकुलं न भण्णइ' इस पाठ से प्रकट की गई है। क्यों कि इन शेष पूर्णिमाओं में कुलोपकुल नक्षत्र का अभाव रहता है अतः दो ही प्रकार के नक्षत्र-कुलसंज्ञक और उपकुल संज्ञक नक्षत्र ही इन सब पूर्णिमाओं को व्याप्तकरते हैं बाकी के नक्षत्रों को इन सब पूर्णिमाओं में समानता है। पूर्णिमा प्रकरण समाप्त । લઈને અષાઢી પૂર્ણિમાઓના સમ્બન્ધમાં કહી લેવું જોઈએ આલાપ પ્રકાર સર્વત્ર સ્વયં જ ઉભાવિત કરી લે. જ્યાં જ્યાં વિલક્ષણતા આલાપમાં હોય તે સૂત્રકાર આ પ્રકારે सतावे छे. भ (पोसिं जेद्वा मूलिंच कुलं वा उबकुलं वा कुलोवकुल वा) महन्त! पोपी પૂર્ણિમને તથા જયેષ્ઠા મૂકી પૂર્ણિમાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર, ઉપકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્ર, અથવા કુલપકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્ર વ્યાપ્ત કરે છે? આના જવાબમાં આ પ્રમાણે જ કહેવું જોઈએ પૌષી પૂર્ણિમાને અને જેઠા ભૂલી પૂર્ણિમાને કુલસંજ્ઞકનક્ષત્ર પણ વ્યાપ્ત કરે છે, ઉપકુલસંજ્ઞકનક્ષત્ર ५ व्या ४२ छ भने ५४४ नक्षत्र पय व्या ४२ छे. (सेसियाणं कुलं वा उवकुलं) મઘા, ફાગુની ચેત્રી, વિશાખી અને અષાઢી પૂર્ણિમાઓને કુલસંજ્ઞક તેમજ ઉપકુલસંજ્ઞક એ બંને પ્રકારના નક્ષત્રે વ્યાપ્ત કરે છે. કુપકુલ સંજ્ઞક નક્ષત્ર વ્યાપ્ત કરતાં નથી આજ Kीत (कुलोपकुल न भण्णइ) से 48 बारा ४८ ४२वाम मावी छ. र माशेष પૂર્ણિમાઓમાં કુલપકુલ નક્ષત્રને અભાવ રહે છે એથી બે જ પ્રકારના નક્ષત્ર-કુલસંજ્ઞક અને ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર જ આ તમામ પૂર્ણિમાઓને વ્યાપ્ત કરે છે. બાકીના નક્ષત્રની આ બધી પૂર્ણિમાએમાં સમાનતા છે. પૂર્ણિમા પ્રકરણ સમાપ્ત, Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ अम्बूजीपति अथामावास्या प्रकरणमाह- 'साविट्ठि णं भंते ! अमावास' श्राविष्ठी श्रावणमास भाविनीं खल्लु भदन्त ! अमावास्याम्, चन्द्रसूर्यद्वयाधिकरणकालविशेषरूपाम् ' कणक्खता जोएंति' कति - कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि युञ्जन्ति यथा योगं चन्द्रेण सह संयुज्य श्रवणमास भावि नीममावास्यां परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'दो णक्खत्ता जोएंति' द्वे नक्षत्रेयुक्तः, तत्र के ते द्वे नक्षत्रे ये श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयतस्तत्राह - 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा 'अस्सेसा य महा य' अश्लेषा च, मघा च, अत्र खलु व्यवहार निश्चयमतेन यस्मिन् नक्षत्रे पूर्णिमा भवति तस्मादारभ्यार्वाक्तने पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे अमावास्या भवति यस्मिन् च नक्षत्रे अमावास्या भवति तत आरभ्य परतः पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे पुनः पौर्णमासी भवति, तत्र श्रावणमास भाविनी पौर्णमासी " अमावास्या प्रकरण 'साविट्ठी णं भंते ! अमावासं कह णक्खत्ता जोएंति' गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है - हे भदन्त ! जो श्राविष्ठी अमावास्या है उसे कितने नक्षत्र व्याप्त करते हैं ? अर्थात् - चन्द्र सूर्य द्वय की अधिकरण कालविशेष रूप अमावास्या को जो कि श्रावण मास संबंधिनी हैं कितने नक्षत्र यथायोग्य रूप से चन्द्र के साथ युक्त होकर समाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! दो क्खत्ता जोएंति' हे गौतम! श्राविष्ठी अमावास्या को दो नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं 'तं जहा ' वे दो नक्षत्र ये हैं 'अस्सेसा य महा य' एक अश्लेषा नक्षत्र और दूसरा मघा नक्षत्र यहां व्यवहार और निश्चय नयं के मतानुसार जिस नक्षत्र में पूर्णिमा होती है उस नक्षत्र से लेकर अर्वाकूतन पन्द्रहवें या चौदहवें नक्षत्र में अमावास्या होती है और जिस नक्षत्र में अमावास्या होती हैं उस नक्षत्र से लेकर आगे के पन्द्रहवें या चौदहवें नक्षत्र में पुनः पोर्णमासी होती है वहां श्रावणमास - અમાવાસ્યા પ્રકરણ (साविट्टीणं भंते! अमावास कइ णक्खत्ता जोति) गौतमस्वामी प्रभुने या प्रमाणे પૂછ્યુ છે—હે ભદન્ત। જે શ્રાવિષ્ટી અમાવાસ્યા છે–તેને કેટલાં નક્ષત્ર વ્યાપ્ત કરે છે? અર્થાત ચન્દ્ર સૂર્ય દ્વયની અધિકરણ કાલ વિશેષરૂપ અમાવાસ્યાને કે જે શ્રાવણ માસ સબંધિની છે કેટલાં નક્ષત્ર યથા મેગ્ય રૂપથી ચન્દ્રની સાથે યુક્ત થઇને સમાપ્ત કરે છે? खाना नवाणभां अलु उडे छे (गोयमा ! दो णक्खत्ता जोएंति) ३ गौतम ! श्रविष्ठी अমबास्याने मे नक्षत्र परिसमाप्त हरे छे (तं जहा ) मा मे नक्षत्र या छे. (अस्सेसा य महा यह अश्लेषा नक्षत्रने मोनुं भधा नक्षत्र सही व्यवहार भने निश्चय नयना મતાનુસાર જે નક્ષત્રમાં પુનમ હોય છે, તે નક્ષત્રથી લઈને અર્ધાન્તન પરમા અથવા ચૌદમા નક્ષત્રમાં અમાવસ્યા થાય છે અને જે નક્ષત્રમાં અમાવાસ્યા થાય છે તે નક્ષત્રથી લઇને પછીના પદરમા અથવા ચૌદમાં નક્ષત્રમાં પુનઃ પૌ માસી થાય છે. ત્યાં શ્રાવણમાસ ભાવિની પૌણુ માસી શ્રવણ નક્ષત્રમાં તેમજ ધનિષ્ઠા નક્ષત્રમાં થાય છે એમ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमयक्षस्कारः सु. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ४०५ श्रवणनक्षत्रे धनिष्ठा नक्षत्रे च भवतीति कथिता, ततः श्रावणामावास्यायामस्याम्, अश्लेषा मघा च कथिता, लोके च तिथिगणनानुसारतो गताया ममावास्यायां वर्तमानायां च प्रतिपदि यस्मिन् अहोरात्रे प्रथमतोऽमावास्या अभूत् ततः सकलोऽपि अहोरात्रोऽमावास्येति व्यवह्नियते, ततो मघानक्षत्रमपि एवं व्यवहारतोऽमावास्यायां प्राप्यते इति न कोऽपि विरोधः । परमार्थतस्तु श्रविष्ठीममावास्या मिमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथापुनर्वसुः पुष्योऽश्लेषाच, आसां पञ्चानामपि युगभाविनीना ममावास्यानां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनात्, अत्र यद् विशेषतो वक्तव्यं तत् पूर्णिमा प्रकरणे एव कथितं विस्तर भयान पुनरत्र कथ्यते इति ॥ 'पोवईणं भंते ! अमावास" प्रोष्ठपदीं भाद्रपदद्मास भाविनीं खलु भदन्त ! अमावास्याम् भाविनी पौर्णमासी श्रवण नक्षत्र में और धनिष्ठा नक्षत्र में होती है ऐसा कहा गया है इस कारण श्रावणमास भाविनी अमावास्या में अश्लेषा और मघा ये दो नक्षत्र होते कहे गये हैं । लोक में तिथिगणना के अनुसार अमावास्या के व्यतीत हो जाने पर और प्रतिपदा के प्रारंभ होने पर वर्तमान अवस्था में उपस्थित हो जाने पर - जिस अहोरात्र में प्रथमतः अमावास्या हुई है वह सकल अहोरात्र 'अमावास्या' इस रूप से व्यवहृत होता है इससे मघा नक्षत्र भी इस व्यवहार के अनुसार अमावास्या में प्राप्त होता है अतः इस कथन में कोई विरोध जैसी बात नही है परमार्थः तो श्रविष्ठी अमावास्या को पुनर्वसु, पुष्य, और अश्लेषा ये तीन नक्षत्र समाप्त करते हैं । इन पांच युगभाविनी अमावास्या ओं को नक्षत्र त्रय में से कोई एक नक्षत्र परिसमाप्त करता है। यहां जो विशेष रूप से वक्तव्य है वह तो हमने पूर्णिमा के प्रकरण में ही कह दिया है अतः अब विस्तार हो जाने के भय से हम उसे यहां दुबारा नहीं कहते हैं 'पोवइण्ण કહેવામાં આવ્યુ છે. આથી શ્રવણ માત્ર ભાવિની અમાવાસ્યામાં અશ્લેષા અને મા એ એ નક્ષત્ર હવાનુ` કહેવામાં આવ્યુ છે લેકમાં તિથિગણુના અનુસાર અમાવાસ્યા પૂરી થઇ જવા પર અને પ્રતિપદા (પડવે) ના પ્રારંભ થવા પર વર્તમાન અવસ્થામાં ઉપસ્થિત થઇ જવા પર–જે અહારાત્રમાં પ્રથમત અમાવસ્યા થઇ છે તે સકળ અહારાત્ર અમાવાસ્યા એ રૂપથી વ્યાવત થાય છે આથી મઘા નક્ષત્ર પણ આ વ્યવહાર અનુસાર અમાવાસ્યા માં આવી જાય છે આથી પ્રસ્તુત કથનમાં કાઈ વિરાધાભાસી હકીકત નથી પરમાત તા શ્રાવિષ્ઠી અમાવાસ્યાને પુનઃવસુ પુષ્પ અને અશ્લેષા આ ત્રણુ નક્ષત્ર સમાપ્ત કરે છે. આ પાંચ યુગમાવિની અમાવસ્યાઓને નક્ષત્ર ત્રય થકી કાઇ એક નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. અત્રે જે વિશેષરૂપી વક્તવ્ય છે તે તે અમે પૂર્ણિ માના પ્રકરણમાં જ કહી દીધું' છે આથી હવે વિસ્તાર થઈ જવાના ભયે અમે તેનું પુનઃ अभ्यारण ४२तां नयी (पोटुवइण्णं भंते! अमावास कड् णक्खत्ता जोअं जोएंति) हे लहन्त ! ભાદ્રપદ માસ ભાવિની અમાવસ્યાને કેટલાં નક્ષત્ર યથાયેાગ્યરૂપથી ચન્દ્રની સાથે સયુક્ત થઇને Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सम्पूछीपप्रज्ञप्तिस्त्र 'कइणक्खत्ता जोएंति' कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि युञ्जन्ति यथायोगंचन्द्रेण सह संयुज्य भाद्रपदमासभाविनीममावास्यां परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो पुठवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणीय' प्रौष्ठपदीममावास्यां द्वे नक्षत्रे परिसमापयतः तद्यथा-पूर्वाफल्गुनी उत्तराफलानी च चशब्दात मघाऽपि ग्राह्या आसां पश्चानामपि युगभाविनीनाममावास्यानां यथोक्तनक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनात् । 'अस्सोइण्णं भंते ! दो हत्थे चित्ताय' आश्वयुजी खलु भदन्त ! अमावास्यां कतिनक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह-हे गौतम ! द्वे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-हस्तश्चित्रा च, इदं च व्यवहारनसमाश्रित्य कथितम्, निश्चषमतेनतु आश्वयुजी ममावास्यां त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति तद्यथा उत्तर फल्गुनी हस्तश्चित्राचेति । 'कत्तिइण्णं दो साई विसाहाय' कार्तिकी खलु भदन्त ! भंते ! अमावासं कइ णक्खत्ता जोरंति' हे भदन्त ! भाद्रपद मासभाविनी अमावास्या को कितने नक्षत्र यथायोग्यरूप से चन्द्र के साथ संयुक्त होकर परिसमाप्त करते हैं ! इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! दो पुव्वा फग्गुणी, उत्तर फग्गुणी य' हे गौतम ! भाद्रपद मासभाविनी अमावास्या को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र और उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र ये दो नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं। यहाँ 'च' शब्द से मघा नक्षत्र का ग्रहण हुआ है। क्योंकि युगभाविनी इन पांच अमास्याओं की परिसमाप्ति इन तीन नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के द्वारा होती कही गई हैं । 'अस्तोइण्णं भंते ! दो हत्थे चित्ताय' हे भदन्त ! अश्वयूजी अमावास्या को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! आश्वयुजी अमावास्या को हस्तनक्षत्र और चित्रा नक्षत्र ये दो नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं यह कथन व्यवहारनयकी अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये निश्चयनय के मतानुसार तो आश्वयुजी अमावास्या को तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-उनके नाम उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र, हस्त नक्षत्र और चित्रा नक्षत्र हैं। 'कत्तिइण्णं दो साई विसाहाय' हे भदन्त ! कार्तिकी अमावास्या को परिसमा ४२ छ ? भान पाममा प्रभु ४ छ- (गोयमा ! दो पुव्वा फग्गुणी उत्तरा फागुणी य) गौतम ! भाद्र ५४मास भाविनी अमावस्याने l गुनी नक्षत्र मन उत्तर ફાગુની નક્ષત્ર આ બે નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. અહીં “ચ” શબ્દથી મઘા નક્ષત્રનું ગ્રહણ થયેલ છે કારણ કે યુગભાવિની આ પાંચ અમાવસ્યાઓની પરિસમાપ્તી આ ત્રણ નક્ષત્રभांथा ६ ४ नक्षत्र द्वारा-2वानु ४३वायु . (अस्सोइण्ण भंते ! दो हत्थो चित्ता य) હે ભદન્ત! અશ્વયુજી અમાવાસ્યાને કેટલા નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે ! આના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે-હે ગૌતમ! અશ્વયુજી અમાવાસ્યાને હસ્ત નક્ષત્ર અને ચિત્રા નક્ષત્ર આ બે નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. આ કથન વ્યવહાર નયની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યું છે એમ જણાવું જોઈએ. નિશ્ચય નયના મતાનુસાર અશ્વયુજી અમાવાસ્યાને ત્રણ નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ४०७ अमावास्यां कतिनक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह-हे गौतम ! द्वे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा स्वाती विशाखा च, एतच्च व्यवहारनयमतेन कथितम्, निश्चयतस्तु स्वाती विशाखाचित्रा च, बास पञ्चानामपि युगभाविनीनां यथोक्तनक्षत्रत्रयाणां मध्ये अन्यतमेन परिसमापनादिति । 'मग्गसिरिणं तिण्णि' मार्गशीर्षीममावास्यां त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-'अणुराहा जेट्ठा मूलोय' अनुराधा ज्येष्ठामूलश्च, एतच्च व्यवहारनयतः कथितम् निश्चयतः पुनरिमानि नक्षत्रणि परिसमापयन्ति, विशाखा अनुराधाज्येष्ठा च, आसां पञ्चानामपि युगभाविनीनाम मावास्यानां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनात् इति । 'पोसिणं दो पुन्नासाढा कितने नक्षत्र समाप्त करते हैं ? तो इसके उत्तर में प्रभु ने ऐसा कहा है-हे गौतम ! कतिकी अमावास्या को स्वाति नक्षत्र और विशाखानक्षत्र ये दो नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं यह कथन भी व्यवहारनय के अनुसार कहा गया जानना चाहिये वैसे तो निश्चयनय के अनुसारस्वाती नक्षत्र, विशास्वानक्षत्र और चित्रा नक्षत्र पंच युगभाविनी इन अमावास्याओं को परिसमाप्त करते हुए कहे गये हैं-अर्थात् इन तीन नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र यथायोग्य रूप से इन पांचों अमावास्याओं को परिसमाप्त करने वाले होते हैं ऐसा कथन किया गया है 'मग्गसिरिणं तिष्णि' मार्गशीर्षी अमावास्या को तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं उनके नाम 'अणुराहा, जेट्टा, मलोय' अनुराधा नक्षत्र, ज्येष्ठानक्षत्र और कुलनक्षत्र हैं। यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा गया हैवैसे तो निश्चयनय के मंतव्यानुसार इन पांच युगभाविनी अमावास्याओं विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा इन तीन नक्षत्रों में कोई एक नक्षत्र ही परिसमाप्त करता है 'पोसिण्णं दो पुवासाढा, उत्तरासाढा य' पौषा अमावास्या हरे-तमना नाम उत्त२३गुनी नक्षत्र त नक्षत्र मन यत्रा नक्षत्र छे. (कत्तिइण्णं दो साई विसाहा य) 3 लन्त ! ति समास्याने खi नक्षत्र सभात ४२ १ माना જવાબમાં પ્રભુએ આ પ્રમાણે કહ્યું- હે ગૌતમ ! કાર્તિકી અમાવાસ્યાને સ્વાતિ નક્ષત્ર અને વિશાખા નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. આ કથન પણ વ્યવહારનય અનુસાર કહેવુ માનવું જાઈએ આમ તે નિશ્ચયનય અનુસાર સ્વાતિ નક્ષત્ર, વિશાખા નક્ષત્ર અને ચિત્રા નક્ષત્ર પાંચ યુગભાવિની આ અમાવસ્યાઓને પરિસમાપ્ત કરનારા કહેવામાં આવ્યા છે–અર્થાત આ ત્રણ નક્ષત્રોમાંથી કેઈ એક નક્ષત્ર યથાગ રૂપથી આ પાંચે અમાવાસ્યાઓને પરિસમાપ્ત ४२ना। डाय छे ४थन ४२वामां माव्युले. (मग्गसिरिणं तिण्णि) मार्गशीषी समापास्यान त्र नक्षत्र समाप्त ४२ छ तमना नाम (अणुराहा जेट्ठा मूलो य) मनुराधा नक्षत्र, જયેષ્ઠા નક્ષત્ર અને મૂલનક્ષત્ર છે. આ કથન પણ વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યું છે–આમ તે નિશ્ચયનયના મન્તવ્યાનુસાર આ પાંચ યુગભાવિની અમાવાસ્યાઓ વિશાખા, અનુરાધા અને 6 આ ત્રણ નક્ષત્રોમાંથી કોઈ એક નક્ષત્ર દ્વારા જ રિસઃપ્ત થાય છે, Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ जम्मबीपप्रतिको उत्तरासाढा य' हे भदन्त ! पौषीममावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह-हे गौतम ! पौषीममावास्यां द्वे नक्षत्रे युक्तः तद्यथा-पूर्वाषाढा उत्तराषाढ़ा च, एतदपि व्यवहारतः कथितम, निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, आशं युगमध्येऽधिकमा पसंभवेन पण्णामपि युगभाविनीनां कथितनक्षत्रयाणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनादिति । 'माहिणं तिणि अभिई सवणोधणिहा' माघीं खलु त्रीणि अभिजित् श्राणो धनिष्ठा च, माघी खलु भदन्त ! अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ! भगवानाह-हे गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति तद्यथा अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा, अन्यसर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् । 'फग्गुणिं तिणि सयभिप्तया पुव्वभद्दक्या उत्तरभद्दवया' फल्गुनी को हे भदन्त ! कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? तो इसके उत्तर में प्रभुने ऐसा कहा है-हे गौतम ! पौषी अमावास्या को पूर्वाषाढानक्षत्र और उत्तराषाढा नक्षत्र ये दो नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं यह कथन भी व्यवहार के अनुसार किया गया जानना चाहिये क्यों कि निश्चय के अनुसार तो मूल नक्षत्र, पूर्वाषाढा नक्षत्र और उत्तराषाढा नक्षत्र इन तीन नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र ही यथायोगरूप से इन युगभाविनी ६ अमावास्याओं को परिसमाप्त करने वाले माने गये हैं यहां ६ अमावास्या इसलिये माननी-चाहिये कि यहां एक अधिकमास होने की संभावना रहती है। 'माहिण्णं तिष्णि-अभिई, सवणो, धणिहा' हे भदन्त ! माघी अमावास्या को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? तो इसके उत्तर में प्रभु ने ऐसा कहा है कि हे गौतम ! माघी अमावास्या को अभिजितू नक्षत्र श्रवण नक्षत्र और धनिष्ठा नक्षत्र ये तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं, बाकी का और सब कथन पूर्वके जैसा ही समझना चाहिये 'फग्गुणिं तिण्णिसयभिसयो, पुत्वभवया, उत्तरभद्दवया' फाल्गुनी अमावास्या को शतभिषक (पोलिण्णं दो पुत्र्यासाढा उतरासाढा य) पोषी अमावस्यान महन्त ! सा नक्षत्र परिसमाप्त કરે છે? આના જવાબમાં પ્રભુએ આ પ્રમાણે કહ્યું છે–હે ગૌતમ! પૌષી અમાવસ્યાને પૂર્વાવાઢા નક્ષત્ર અને ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્ર એ બે નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે આ કથન પણ વ્યવહાર નય અનુસાર કહેલું જાણવું કારણ કે નિશ્ચયનય મુજબ તે મૂલ નક્ષત્ર પૂર્વાષાઢા નક્ષત્ર અને ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્ર આ ત્રણ નક્ષત્રમાંથી કઈ એક નક્ષત્ર યથા એગ્ય રૂપથી આ યુગભાવિની ૬ અમાવાસ્યાઓને પરિસમાપ્ત કરનારા માનવામાં આવ્યા છે. અહીં અમાવાસ્યાઓ એ કારણે માનવાનું કહ્યું છે કે અહીં એક અધિકમાસ હોવાની શક્યતા રહે છે (माहिण्णं तिण्णि-अभिई सवणो धणिट्ठा) Daira! माथी अमावस्याने खi नक्षत्र પરિસમાપ્ત કરે છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ એ એવું કહ્યું છે કે હે ગૌતમ માઘ અમાવસ્થાને અભિજિત્ નક્ષત્ર શ્રવણ નક્ષત્ર અને ધનિષ્ઠા નક્ષત્ર એ ત્રણ નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે छ माडीनु मान्नु मधु ४५न पूर्वी भा३ ५ सभा (फग्गुणी तिण्णि-सयभिसया, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिवारनिरूपणम् ४०९ खलु अमावास्यां त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति तद्यथा शतभिषक् पूर्वभाद्रपदा उत्तरभाद्रपदा, एतत् व्यवहारमयतः कथितम्, निश्चपनयतः पुनस्त्रीणि तद्यथा-धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभाद्रपदा च आतां पञ्चानामपि भावास्यानां कथितनक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनादिति । 'चेतिषणं दो रे ई अस्तिगीय चैत्रीं खलु द्वे रेवती अश्विनी च, हे भदन्त ! चैत्रीममावास्यां कतिनक्षत्राणि मञ्जन्ति ? भगाना-दे गौतम ! द्वे नक्षत्रे युङ्क्तस्तद्यथा-रेवती अश्विनी च, एतच, व्यवहारमलेन कथितम्, निश्चयतस्तु त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तयथा पूर्वभाद्रपदा उत्तरभाद्रपदा रेवती च, आसां पश्चानामपि युगभाविनीनां कथितनक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनादिति । 'शाहिण दो भरणी कत्तिया य' वैशाखी खलु पूर्णिमा द्वे नक्षत्रे युङ्क्तः बद्यथा-भरणी कृत्तिकाच, अन्यत्सर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् 'जेट्टाम्लिं णं दो रोहिणी मग्गप्तिरं नक्षत्र, पूर्वभाइपदा नक्षत्र और उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र ये तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ऐसा यह कथन भी व्यवहार.नय के अनुसार किया गया जानना चाहिये निश्चय नय के अनुसार तो धनिष्ठा, शतभिषक और पूर्वभाद्रपदा इन तीन नक्षत्रों में से कोई एक नक्षत्र इन पांच युगभाविनी अमावास्याओं को यथा योग्य रूप से परिसमाप्त करते हैं ! 'चेत्ति दो रेवई अस्सिणीय ! चैत्री अमावास्या को रेवती और अश्विनी ये दो नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं। यह कथन भी व्यवहार से ही किया गया जानना चाहिये क्यों कि निश्चयनय के कथनानुसार तो चैत्री ५ पांच युगभाविनी अमावास्याओं की परिसमाप्ति पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा, और रेवती इन तीन नक्षत्रों में से यथायोग्यरूप से किसी एक नक्षत्र के द्वारा होती हई कहो है 'वेसाहिण्णं दो भरणी कत्तिया य वैशाखी जो ५ युगभाविनी अमावास्याएं हैं उनकी परिसमाप्ति भरणी और कृत्तिका इन दो नक्षत्रों में से एक नक्षत्र द्वारा होती है। बाकी का और सब कथन पूर्व के जैसा पुबभद्दलया, उत्तरमवया) शनी अमावास्याने शतमिष नक्षत्र, पूर्व माद्रह नक्षत्र અને ઉત્તરભાદ્રદા નક્ષત્ર એ ત્રણ નક્ષત્ર પરિણમાપ્ત કરે છે એવું આ કથન વ્યવહારનય અનુસાર કરવામાં આવેલું જાણવું નિશ્ચયનય અનુસાર તે ધનિષ્ઠા, શતભિષફ અને પૂર્વભાદ્ર પદા એ ત્રણ નક્ષત્રોમાંથી કેઈ એક નક્ષત્ર આ પાંચ યુગભાવિની અમાવસ્યાઓને ગ્ય ३५थी परिसमास ४२ छ (चेत्तिण्णं दो रेवई अस्सिणी य) येत्री अमावास्याने २१ती मन અશ્વિની એ બે નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. આ કથન પણ વ્યવહારની અપેક્ષાએ જ કરવામાં આવ્યાનું જાણવું. કારણ કે નિશ્ચયનયના કથનાનુસાર ચૈત્રી પાંચ યુગભાવિની અમાવાસ્યાઓની પરિસરમાપ્તિ પૂર્વભાદ્રપદા ઉતરભાદ્રપદા અને રેવતી એ ત્રણ નક્ષત્રોમાંથી यथायोग्य ३५थी । नक्षत्र १२॥ यवानु ४३वामी याव्यु छ (वेसाहिण्ण दो भरणी कत्तिया य) शापी रे पांय युगमाविनी अमावस्या छ तेभनी परिसमाति भरी भने કૃતિકાએ બે નક્ષત્રમાંથી કોઈ એક નક્ષત્ર દ્વારા થાય છે. અન્ય સઘળું કથન પૂર્વોક્ત ज०५२ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे च' ज्येष्ठामूलीं-ज्येष्ठमासभाविनी ममावास्यां द्वे नक्षत्रे युक्तः यद्यथा रोहिणी मृगशिरश्च, एतत्खलु व्यवहारनयेन कथितम्, निश्चयतस्तु इमे द्वे नक्षत्रे ज्येष्ठामूलीममावास्यां परिसमापयतः, तद्यथा-रोहिणी कृत्तिका च, अन्यत्सर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यम् इति ॥ 'आसाढिण्णं तिणि अदापुणवसू पुस्लो इति ॥ आषाढीममावास्यां त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति तद्यथा, आ पुनर्वसुः पुष्यः, एतत्खलु व्यवहारतः कथितम् निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि तद्यथा-मृगशिर आर्द्रा पुनर्वसुश्च, आसां युगान्तेऽधिकमास संभवेन पण्णामपि यथोक्त नक्षत्राणां मध्येऽन्यतमेन परिसमापनादिति ॥ ही जानना चाहिये 'जेहामूलिं गं दो रोहिणी मग्गसिरे च' ज्येष्ठ मास भाविनी अमावास्या की परिसमाप्ति रोहिणी नक्षत्र और मृगशिर नक्षत्र इन दो नक्षत्रों के द्वारा होती है यह कथन भी व्यवहारनय के अनुसार कहा गया जानना चाहिये क्यों कि निश्चय नय के अनुसार तो रोहिणी और कृत्तिका इन दो नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के द्वारा ही ज्येष्ठ मास भाविनी अमावास्या की परिसमाप्ति होती है 'आसादिण्णं तिण्णि, अद्दा, पुणव्वसू पुस्सो' आषाढी अमावास्या को आर्द्रा नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र और पुष्य नक्षत्र ये तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं। यह कथन भी व्यवहारिक हैं- नैश्चयिक कथन तो ऐसा है कि आषाढी ६ अमावास्याओं की समाप्ति करने वाले मृगशिरा आर्द्रा और पुनर्वसु ये ३ नक्षत्र होते कहे गये हैं। अधिकमास होता है इसलिये युगभाविनी ५ अमावास्याओं में एक अमावास्या और बढ जाने के कारण ६ अमावास्याएं प्रकट की गई हैं। किसी आषाढी अमावास्या की परिसमाप्ति मृगशिरानक्षत्र के योग से किसी अमावास्यो की परिसमाप्ति आर्द्रा नक्षत्र के योग से और किसी अमावास्या की परिसमाप्ति पुनर्वसु नक्षत्र के योग से होती है। अनुसार onानु छ (जेदामूलिंणं दो रोहिणी मग्गसिरे च) न्येमा मालिनी અમાવાસ્યાની પરિસમાપ્તિ રોહિણી નક્ષત્ર અને મૃગશિર નક્ષત્ર એ બે નક્ષત્ર દ્વારા થાય છે આ કથન પણ વ્યવહારનય અનુસાર કહેવામાં આવેલું જાણવું જોઈએ કારણ કે નિશ્ચયનય અનુસાર તે રોહિણી અને કૃત્તિકા એ બે નક્ષત્રમાંથી કઈ એક નક્ષત્ર દ્વારા જ જયેષ્ઠમાસ मालिनी अमावस्यानी परिसमाति थाय छे (आसाढिण्णं तिणि अद्दा पुणव्वसु पुस्सो अषाढी અમાવસ્યાને આદ્રનક્ષત્ર પુનર્વસુ નક્ષત્ર અને પુષ્ય નક્ષત્ર એ ત્રણ નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે. આ કથન પણ વ્યવહારિક છે–નૈયિક કથન તો એવું છે કે આષાઢી ૬ અમાવાસ્યાઓની પરિસમાપ્તિ કરનારા મૃગશિરા, આદ્ર અને પુનર્વસુ એ ૩ નક્ષત્ર હોવાનું કહેવામાં આવ્યું છે. અહીં અધિક માસ હોય છે આથી યુગભાવિની ૫ અમાવાસ્યાઓમાં ૧ અમાવાસ્યા વધી જવાના કારણે ૬ અમાવાસ્યાઓ દૂર કરવામાં આવી છે. કેઈ અષાઢી અમાવાસ્યાની પરિસમાપ્તિ મૃગશિરાનક્ષત્રના રોગથી કઈ અમાવાસ્યાની પરિસમાપ્તિ આ નક્ષત્રના વેગથી અને કોઈ અમાવાસ્યાની પરિસમાપ્તિ પુનર્વસુનક્ષત્રના વેગથી થાય છે. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तम वक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ४११ सम्प्रति अमावास्यासु कुलादि योजनाविषयकः प्रश्नमाह-'साविट्ठीणं' इत्यादि, 'साविट्ठीणं भंते ! अमावासं' श्राविष्ठी खलु भदन्त ! अमावास्याम्, 'किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोवकुकं जोएइ' किं कुलं युनक्ति किंवा उपकुलं युनक्ति किंवा कुलोपकुलं युनक्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएइ णोलब्भइ कुलोवकुलं' कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति नो लभते कुलोपकुलम्, अर्थात् कुळोपकुलसंज्ञकेन नक्षत्रेण सह योगं न लभते इति तत्र-'कुलं जोएमाणे महाणखत्ते जोएई' कुलं युञ्जत् मघानक्षत्रं युनक्ति 'उरकुलं जोएमाणे अस्सेसाणक्खत्ते जोएइ' उपकुलं युञ्जत् अश्लेषानक्षत्रं युनक्ति । सम्प्रति उपसंहारमाह-'साविहिष्णं' इत्यादि, 'साविष्टिणं अमावास अमावास्याओं में कुलादि योजना कथन __ 'साविट्टी णं भंते ! अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ' हे भदन्त ! जो श्राविष्ठी-श्रावणमासभाविनी-अमावास्या है, उसके साथ क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त होते हैं ? या उपकुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त होते हैं ? या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, णो लगभइ कुलोचकुलं' हे गौतम ! श्राविष्ठी अमावास्या के साथ कुलसंज्ञक नक्षत्र भी होते हैं, उपकुल संज्ञक नक्षत्र भी युक्त होते हैं परन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त नहीं होते हैं, अर्थात् श्राविष्ठी अमावास्या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र के साथ योग नहीं करती है 'कुलं जोएमाणे महाणक्खत्ते जोएइ, उधकुलं जोएमाणे अस्सेसा णक्खत्ते जोएइ' श्राविष्ठी अमावस्या जब कुलसंज्ञक नक्षत्र के साथ योग करती है तब वह मघानक्षत्र के साथ योग करती है और जब उपकुल संज्ञक नक्षत्र के साथ योग करती है तब वह अश्लेषा नक्षत्र के साथ योग करती है इस तरह અમાવસ્યાઓમાં કુલાદિ જિના કથન 'साविढी गं भंते ! अमावासा किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ' 3 ભદન્ત જે શ્રાવિષ્ઠી-શ્રાવણમાસ ભાવિની અમાવસ્યા છે તેની સાથે શું કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર જોડાયેલાં હોય છે? અથવા ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત હોય છે ? અગર કુલપકુલસંજ્ઞક नक्षत्र युताय छ ? मान सभा प्रभु -'गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, णो लभइ कुलोवकुलं' गीतम! श्रीविही समावस्यानी साथ उससज्ञ४ नक्षत्र પણ હોય છે, ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર પણ યુક્ત હોય છે પરંતુ કુલ કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત હતાં નથી અર્થાત્ શ્રાવિઠી અમાવસ્યા કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રની સાથે યેગ કરતી નથી. 'कुलं जोएमाणे महाणक्खत्ते जोरइ, उबकुलं जोएमाणे अस्सेसा णक्खत्ते जोएइ' श्राविही અમાવસ્યા જ્યારે કુલસંજ્ઞક નક્ષત્રની સાથે ગ કરે છે ત્યારે તે માનક્ષત્રની સાથે વેગ કરે છે અને જ્યારે ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રની સાથે ભેગા કરે છે ત્યારે તે અશ્લેષા નક્ષત્રની Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ अम्बूद्वीपप्रतिस्चे कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएई' श्राविष्ठी खलु अमावास्यां कुलं वा युक्ति, उपकुलं वा युनक्ति 'कुछेण वो जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी अमावासा जुग त्ति वत्तच्वं सिया' कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा, युक्ता श्राविष्ठी अमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात्, स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयेदिति । 'पोहवइण्णं भंते ! अमावासं तंचेव प्रौष्ठपदी खलु भदन्त ! अमावास्यां किं कुलं युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति हे गौतम ! द्वे युंक्तः 'कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युक्ति, तत्र 'दुलं जोएमाणे उत्तर फग्गुणी गश्खत्ते जोइए' कुलं युञ्जत् उत्तरफग्गुनी नक्षत्रं युक्ति, उपकुलं जोएमागे पुया. फग्गुणी' उपकुलं युञ्जत् पूर्वफल्गुनी नक्षत्रं युनक्ति नो कुलोपकुलं युनक्ति, 'साविट्ठी णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएई श्राधिष्ठी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं इसलिये वह 'कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी अभावासा जुत्तत्ति वत्तवं. सिया' कुल संज्ञक नक्षत्र से और उपकुल संज्ञक नक्षत्र से युक्त श्राविष्ठी अमावास्या कही गई है ऐसा अपने शिष्यजनों के प्रतिपादन करना चाहिये 'पोट्ठवइण्णं भंते ! अमावासं तं चेव' हे भदन्त ! प्रौष्ठपदी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञ नक्षत्र युक्त करते हैं ? या उपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं ? या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! प्रौष्ठपदी आमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं जब 'कुलं जोएमाणे उत्तर फग्गुणी णक्खत्ते जोएई' कुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं तब उनमें से उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र युक्त करता है 'उवकुलं जोएमाणे पुव्वाफग्गुणी' और जब उपकुल संज्ञक नक्षत्र अपने से उसे युक्त करता है तब उसमें पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र उसे अपने से युक्त करता है साथ या ४२ छ । रीते 'साविट्ठी ण अमावासं कुलं वा जोएइ उबकुलं वा जोएइ' શ્રાવિષ્ઠી અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર અને ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે माथी त 'कुलेण वा जुत्ता उवकुलेन वा जुत्ता साविट्ठी अमावासा जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया' કુલસંજ્ઞક નક્ષત્રથી અને ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રથી યુક્ત શ્રાવિષ્ઠી અમાવાસ્યા કહેવામાં આવી छे से घोताना शिष्यानाने प्रतिपाइन ४२ न. पावइण्णं भंते ! अमावासं तं घेव' 3 महन्त ! प्रो०४५४ी अमावास्याने शु स ४ नक्षत्र युत ४२ छ ? अथवा ५. કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે? અથવા કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે? આના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે–હે ગૌતમ! પ્રૌઠપદી અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર અને ઉપકુલ सज्ञ नक्षत्र से मे नक्षत्र युद्धत ४२ छे न्यारे 'कुलं जोएमाणे उत्तरफग्गुणीणक्खत्ते जोएइ' पुस ४ नक्षत्र युत ४२ छे त्यारे तेमनामाथी उत्त२३ गुनी नक्षत्र युद्ध४२ छ 'उबकुलं नोरमाणे पुख्खाफग्गुणी' भने न्यारे ७५सस नक्षत्र पतिनाथी ते. युत ४२ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ४१३ उपसंहारमाह-'पोट्टपण्णं' इत्यादि, 'पंडवइण्णं अमावासं जाय वत्तव्वं सिया' पोष्ठपदी खलु अमावास्यां कुलं युनक्ति, उपकुलं युनक्ति कुन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता प्रौष्ठपदी अमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात्-स्व शिष्येभ्यः प्रतिपादये दिति । 'मग्गसिरिणं तं चेव कुलं मूले णक्खत्ते जोएइ उपकुलं, जेट्ठा कुलोक्कुलं अणुराहा जाव जुत्तत्ति बत्तब्ध सिया' हे भदन्त ! मार्गशीर्षी खलु अमावास्यां जुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति, तत्र कुलं युञ्जत् भूलनक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं वा युञ्जत् ज्येष्ठा नक्षत्र युक्ति, कुलोपकुलं वा युञ्जदनुराधा नक्षत्रं युनक्ति, प्रोष्ठपदा अमावास्या कुल वा युक्ति उपकुलं युनक्ति, कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र उसे अपने द्वारा युक्त नहीं करते हैं । 'पोहवइएणं अमावासं जाव वत्तव्वं सिया' इस तरह प्रौष्ठपदी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक अपने से युक्त करते हैं, इसलिये वह कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुल संज्ञक नक्षत्र से युक्त हुई कही गई है इस प्रकार से अपने शिष्य के लिये समझाना चाहिये 'मग्गसिरिग तं चेव कुलं मूले णक्खत्ते जोएइ, उव. कुलं जेहा, कुलोवकुलं अणुराहा जाव वत्तव्यं सिया' हे भदन्त ! मार्गशीर्षी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र अपने से युक्त करते हैं ? या उपकुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं ? अथवा कुलोपकुल नक्षत्र अपने से युक्त करते हैं ? उत्तर में प्रभु ने कहा है-हे गौतम ! मार्गशीर्षी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र भी युक्त करते हैं, उपकुल संज्ञक नक्षत्र भी युक्त करते हैं, एवं कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र भी युक्त करते हैं जब कुलसंज्ञक नक्षत्र युक्त करते हैं-तब उनमें एक मूलनक्षत्र उसे युक्त करता है और जब उपकुल संज्ञक नक्षत्र उसे युक्त करता है-तब उसमें ज्येष्ठा नक्षत्र उसे युक्त करता है तथा जय कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र युक्त करता है तब उसमें अनुराधा नक्षत्र युक्त છે ત્યારે તેમનામાંથી પૂર્વાફાગુની નક્ષત્ર તેના પિતાની સાથે યુક્ત કરે છે. કુલપકુલસંજ્ઞક नक्षत्र तपाताना ॥ युरत ४२ता नथी 'पावइण्णं अमावासं जाव वत्तव्यं सिया' ! રીતે પ્રૌઠપદી અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર અને ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્રથી યુક્ત થયેલી वाम मावी छे से भुण पाताना शिष्याने सभा मे. 'मन्गसिरिणं तं घेव कुलं मूले णक्खत्ते जोएइ उपकुलं जेट्ठा कुलोदकुलं अणुराहा जाव दत्तव्वं सियो' हे ભદન ! માર્ગશીર્ષ અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર પિતાનાથી યુક્ત કરે છે? અથવા ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે ? અથવા કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર ? ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છેહે ગૌતમ! માર્ગશીવી અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે, ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર પણ યુક્ત કરે છે તેમજ કુલેકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર પણ યુક્ત કરે છે. જ્યારે કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે ત્યારે તેમનામાંથી એક મૂલ નક્ષત્ર તેને યોગ કરે છે અને જ્યારે ઉપકુલસંજ્ઞ8 નક્ષત્ર તેને યુક્ત કરે છે ત્યારે તેમાં જ્યેષ્ઠા નક્ષત્ર તેને મુક્ત કરે છે તથા જ્યારે કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર યુક્ત કરે છે ત્યારે તેમાં અનુરાધા નક્ષત્ર જોડાય છે. આવી રીતે માર્ગ, Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जम्बूद्वीपप्रातिसूत्रे कुलोपकुलं वा युनक्ति, कुलेन वा युक्ता उपकुलेन युक्ता कुलोपकुलेन युक्ता अमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात्-शिष्येभ्यस्तथा प्रतिपादयेदिति । ___ 'एवं माही ए फग्गुणीए आसाढीए' एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण माध्या माघमासभाविन्या अमावास्यायाः फाल्गुन्याः-फाल्गुनमासभाविन्या अमावास्यायाः तथा आषाढया आषाढ. मास भाविन्धा अमावास्यायाः 'कुलं वा उक्कुलं वा कुलोवकुलं वा' कुलं वा युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति, कुलोपकुलं वा युनक्ति, इति वक्तव्यम्, 'अवसे सियाणं कुलं वा उवकुलं वा जोएइ' अवशेषिकाणां पौष्या चैत्रमासमाविन्या वैशाखमासमाविन्या ज्येष्ठमासभाविन्या श्वामावास्यायाः कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति न कुलोपकुलं लभते इत्यदिक्रमेण पूर्ववदेव सर्वं वक्तव्यमिति ॥ __ अथ सन्निपातद्वारमाह-'जयाण भंते !' इत्यादि, तत्र सन्निपातो नाम पौर्णमासी नक्षत्रान् अमावास्यायाम्-तथा अमावास्यानक्षत्रात् पूर्णिमायां नक्षत्रस्य नियमेन सम्बन्धः, एताकरता है इस तरह मार्गशीर्षी अमावस्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुल संज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र अपने से युक्त करते हैं-इसलिये वह कुल से उपकुल से और कुलोपकुल से युक्त हुई है ऐसा अपने शिष्यों को समझाना चाहिये । 'एवं माहीए फग्गुणीए आसाढीए' इसी पूर्वोक्त कथन के अनुसार माघ मास भाविनी अमावास्या को, फाल्गुन मासभाविनी अमावास्या को और आषाढमास भाविनी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुल संज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र व्याप्त करते हैं ऐसा कहना चाहिये 'अवसेसिया णं कुलं वा उवकुलं वा जोएई' तथा बाकी की पोषी अमावास्या को, चैत्रमास की अमावास्या को वैशाख मास की अमावास्या को, ज्येष्ठमास की अमावास्या को, कुलसंज्ञक एवं उपकुल संज्ञक नक्षत्र-ये दो नक्षत्र ही व्याप्त करते हैं कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र नहीं व्याप्त करते हैं इत्यादि क्रम से पूर्व की तरह सब कथन यहां पर कहलेना चाहिये શીવ અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર અને કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર પિતાનાથી યુક્ત કરે છે. આથી તેને કુલથી ઉપકુલથી તથા કુલપકુલથી યુક્ત હોવાનું કહેपामा मापी छे थे प्रमाणे पोताना शिष्यस हायर समत. 'एवं माहीए फग्गुणीए સાઢી” આ જ પૂર્વોક્ત કથન અનુસાર માઘ માસભાવિની અમાવાસ્યાને, ફાગુન માસ ભાવિન અમાવાસ્યાને અને અષાઢ માસભાવિની અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર ઉપકુલ सज्ञ४ नक्षत्र अन यो५सस नक्षत्र व्याप्त ४३ छे ओम ४३४ . 'अवसेसियाणं कुलं वा उवकुलं वा जोएइ' तथा माझीनी पोषी अमावास्यान क्षेत्र भासनी अभावाश्याने, પેડ માસની અમાવાસ્યાને કુલસંજ્ઞક અને ઉપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર એ બે નક્ષત્ર જ વ્યાસ કરે છે. કુલપકુલસંજ્ઞક નક્ષત્ર વ્યાપ્ત કરતા નથી ઈત્યાદિ ક્રમથી પૂર્વની જેમ બધું કથન અત્રે કહી લેવાનું છે. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिडपणम् दृश सम्बन्ध विशेषरूपसन्निपातस्य प्रदर्शनाय सूत्रमाह-'जयाणं भंते' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! साविट्ठी पुणिमा भवइ तयाणं माही अमावासा भवइ' यदा-यस्मिन्काले खलु भदन्त ! श्राविष्ठो धनिष्ठापरपर्याया श्रविष्ठा नक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति, तदा तस्याः पश्चाद् भाविनी अमावास्या माघी मघानक्षत्रयुक्ता भवति किम् 'जयाणं भंते ! माही पुषिणमा भवइ तयाणं साविट्ठी अमावासा भवइ' यदा खलु भदन्त ! माघी मघानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति तदा खलु पाश्चात्या अमावास्या श्राविष्ठी श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता भवति किमितिकाक्वा प्रश्नः, भगवानाह-'हंत' इत्यादि, 'हंता गोयमा ! जयाणं साविट्ठी तंचेव वत्तब हन्न गौतम ! भवति यदा खलु श्राविष्ठी पूर्णिमा भवति तदा तस्या अक्तिनी अमावास्या माघी मधानक्षत्रयुक्ता सनिपात द्वार कथन 'जया णं भंते ! साविट्ठी पुषिणमा भवइ तयाणं माही अमावासा भवई' पूर्ण मासी नक्षत्र से अमावास्या में और अमावास्यानक्षत्र से पूर्णिमा में नक्षत्र का जो नियम से सम्बन्ध होता है उसको नाम सन्निपात है इस सन्निपात द्वार का कथन सूत्रकार यहां पर कर रहे हैं इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! जय श्राविष्ठी पूर्णिमा होती है- अर्थात् श्रवण नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा कि जिसका दूसरा नाम धनिष्ठा है होती है तो उस समय उसके पीछे होने वाली अमावास्या माघी-मघा नक्षत्र से युक्त होती है क्या? 'जयाण मंते। माही पूपिणमा भयह तयाणं साविट्ठी अमावासा भवई' हे भदन्त ! जिस समय मघानक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है उस समय पश्चात्कालभाविनी अमावास्या श्रविष्ठा नक्षत्र से युक्त होती है क्या ? इसके उत्सर में प्रभु कहते हैं ता. गोयमा ! जयाणं साविट्ठो तं चेव वत्तव्वं' हां, गौतम ! जब श्राविष्ठी पूर्णिमाश्रवणनक्षत्र से युक्त होती है तो उससे पीछे की अमावास्या मघानक्षत्र से यह સનિપાત દ્વારા કથન 'जयाणं भंते ! साविट्ठी पूण्णिमा भवइ तयाणं माही अमावासा भवई' मासा નક્ષત્રથી અમાવાસ્યામાં અને અમાવાસ્યા નક્ષત્રથી પૂર્ણિમામાં નક્ષત્રનો જે નિયમથી સમન્વય થાય છે તેનું નામ સનિપાત છે. આ સનિપાત દ્વારનું કથન સૂત્રકાર અહી: કરી રહ્યા છે. આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું છે–હે ભદન્ત! જ્યારે શ્રાવિષ્ઠી પૂર્ણિમા થાય છે–અર્થાત્ શ્રવણ નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા કે જેનું બીજું નામ ધનિષ્ઠા છે- થાય છે તે તે સમયે એની પાછળ થનારી અમાવાસ્યા માઘી–મઘા નક્ષત્રથી યુક્ત डायले १ 'जयाणं भंते ! माही पूणिमा भवइ तयाणं साविट्ठी अमावासा भवइ' 3 ભદન્ત ! જે સમયે મઘા નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા હોય છે ત્યારે પશ્ચાત્ કાલભાવિની અમાવાસ્યા શ્રાવિષ્ઠા નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે શું ? આના જવાબમાં પ્રભુશ્રી કહે છે'हंता, गोयमा! जयाणं साविट्ठी तं चेब वत्तव्य' ७, गौतम न्यारे श्रीविही लिमा Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बुद्धीपप्रज्ञप्तिसूत्र भवति, गदा खलु माघी गवानक्षरयुक्ता पूर्णिमा तदा खलु पाश्चात्या अमावास्या श्रासिष्ठी श्रविष्ठा युक्ता भाति, इत्यादि सर्वप्रश्नदेव उत्तरम्, वक्तव्यं प्रश्नस्यैव स्वीकारात्, अयं भावःअत्र खलु व्यवहारनयातेन यस्मिन् नक्षत्रे पूर्णिमा भवति तदा अक्तिनी अमावास्या माघी स्यानक्षत्रयुगा भवति, श्रविष्ठा नक्षत्रादारभ्य मधानक्षत्रस्य पूर्व चतुर्दशत्वात्, एतत्सर्व श्रावणमा समधिकृत्य ज्ञातव्यम् । यदा खलु भदन्त ! माघी मधानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति तदा श्राविष्ठी श्रविष्ठा नक्षत्रयुक्का पाश्चात्या अमावास्या भवति, मवानक्षत्रादारभ्य पूर्व श्रविष्टा नक्षत्रस्य पञ्चदशलाद इदंतु माघमधिकृत्य ज्ञातव्यम् इति । 'जयाणं भंते ! पोहाई पुणिमा भनइ तगाणं फग्गुनी अमावासा भाइ जयाणं फग्गुणी पुणिमा भवइ तयाणं पोहबई अमावासा भवई' यदा खलु भान ! प्रौष्ठपदी उत्तरभाद्रपदायुक्ता पौर्णमासी भवति तदा खलु पाश्चात्या अमावास्या फाल्गुनी उत्तरफल्गुनी नक्षत्र युक्ता भवति किम् उत्तरभाद्रपदात् आरभ्य पूर्वमुत्तरहोती है जद मधानक्षेत्र से युक्त पूर्णिमा होती है तब पाश्चात्य अमावास्था श्रवण नक्षत्र से युक्त होती है इत्यादि सब प्रश्न की तरह ही यहां उत्तर के रूप में हलेना चाहिये कि प्रश्नों की स्वीकृति ही उनकी उत्तर रूप होती है इसका आय ऐला है -यहां व्यवहारनय के मतानुसार जिस नक्षत्र में पूर्णिमा होती है ता अर्याक्तनी अमावास्था मघानक्षत्र से युक्त होती है क्यों कि भविष्ठा नक्षत्र से लेकर मघानक्षत्र चौदहवां नक्षत्र है यह सब प्रावणमास को लेकर कहा गया जानना चाहिये और जब मघा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है तय पात्या आमावास्या वण नक्षत्र से युक्त होती है क्यों कि मघानक्षत्र से लेकर अधिष्ठा नक्षत्र १५ वां नक्षत्र है यह कथन माघमास को लेकर कहा गया जानना चाहिये 'जयाणं भंते ! पोट्टवई पुणिमा भवह, तया गं फल्गुणी अमावासा भव' हे मदन्त ! जिस काल में प्रौष्ठपदी-उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र से युक्त पौर्णमासी होती है उस समय पाश्चात्या अमावास्था उत्तर શ્રણ નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા હોય છે ત્યારે તેની પછી આવતી અમાવાસ્યા મઘા નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે. જ્યારે મઘા નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા હોય છે ત્યારે પાશ્ચાત્ય અમાવાસ્યા શ્રવણનક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે વગેરે બધાં પ્રશ્નોની જેમ જ અહીં જવાબ તરીકે કહેવા જોઈએ કારણ કે પ્રશનોની સ્વીકૃતિ જ તેમના જવાબ રૂપ હોય છે. આને ભાવ આ પ્રમાણે છે–અહીં વ્યવહારનયના મતાનુસાર જે નક્ષત્રમાં પૂર્ણિમા હોય છે ત્યારે અર્વાતની અમાવાસ્યા મઘાનક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે કારણ કે શ્રવિઠા નક્ષત્રથી લઈને મઘાનક્ષત્ર ચૌદમું નક્ષત્ર છે. આ બધું શ્રાવણ માસને કેન્દ્રમાં રાખીને કહેવામાં આવ્યાનું માનવું જોઈએ અને જ્યારે મઘા નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા હોય છે ત્યારે પાશ્ચાત્યા અમાવાસ્યા શ્રવણનક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે કારણ કે મઘા નક્ષત્રી લઈને શ્રવિઠા નક્ષત્ર પંદરમું નક્ષત્ર છે એ વિધાન मा मास ४२यामा मान्यु छ तेभ . २ . 'जयाणं भंते ! पोद्रवई पुणिमा भवइ तयाणं फग्गुणी अमावासा भवई' महन्त ! २ ॥णे प्रोष्ठपही-उत्तरभाद्र५६ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारःसू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ४१७ फल्गुनी नक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् एतद् भाद्रपदमासमविकृत्य ज्ञातव्यम्, यदा खलु फाल्गुनी पूर्णिमा उत्तरफल्गुनी नक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा श्रमावास्या प्रौपदी उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र युक्ता भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा ! तं चेव' हन्त गौतम ! aa trian ! यथा तत्र प्रश्न उत्तरमपि तदेव अर्थात् यदा - उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र युक्ता पूर्णिमा भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या उत्तरफल्गुनी नक्षत्रयुक्ता भवति, यदा चोत्तरफल्गुनीक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा अमावास्या प्रोष्ठपदी - उत्तर भाद्रपदा युक्ता भवति, उत्तरफल्गुनी नक्षत्रादारभ्य पूर्वमुत्तरभाद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वादिति ॥ लाघवमभिप्रेत्याति देशमा - ' एवं ' इत्यादि, 'एवं एएणं अभिलावेणं इमाओ पुष्णिमाओ अमावासाओ जेयफाल्गुनी नक्षत्र से युक्त होती है क्या ? क्यों कि उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र से लेकर उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र १५ व नक्षत्र है यह भाद्रपदमास की अपेक्षा से जानना चाहिये, और जब फाल्गुनी पूर्णिमा- उत्तर फल्गुनी नक्षत्र से युक्त पौर्णमासी होती है तब अमावास्या प्रोष्ठपदी - उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र से युक्त होती है क्या इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- हंता, गोयमा ! तं चेव' हां, गौतम ! ऐसा ही होता है अर्थात् तुम्हारा जैसा प्रश्न है उसका उत्तर भी वही है । इस तरह जिस काल में उत्तरभाद्रपद नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है उस समय पाश्चात्य अमावास्या उत्तरफल्गुनी नक्षत्र से युक्त होती है और जब उत्तर फल्गुनी नक्षत्र से युक्त पौर्णमासी होती है तब अमावास्या प्रोष्ठपदी - उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र से युक्त होती है क्यों कि उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र से लेकर उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र १४ व नक्षत्र है अब लाघवार्थ अतिदेश का कथन करते हुए सूत्रकार कहते हैं 'एवं एएणं अभिलावेणं इमाओ पुण्णिमाओ अमावासाओ यव्वाओ' इसी નક્ષત્રથી યુક્ત પૌમાસી હાય છે તે સમયે પાશ્ચાત્યા અમાવાસ્યા ઉત્તરફાલ્ગુની નક્ષત્રથી યુક્ત હાય છે શું? કારણ કે ઉત્તરભાદ્રપદા નક્ષત્રથી લઇને ઉત્તરફાલ્ગુની નક્ષત્ર પંદરમુ નક્ષત્ર છે. આ ભાદ્રપદની અપેક્ષાએ જાણવું જાઇએ. અને જ્યારે ફાલ્ગુની પૂર્ણિમા ઉત્તરક઼લ્ગુની નક્ષત્રથી યુક્ત પૌમાસી હોય છે ત્યારે અમાવાસ્યા પ્રૌòપદી ઉત્તરભાદ્રપદા नक्षत्रथी युक्त होय छे शु १ आना श्वासभां प्रभु डे छे - 'हंता, गोयमा तं चेव', ગૌતમ ! આ પ્રમાણે જ થાય છે-અર્થાત્ તમારા જેવા પ્રશ્ન છે તેના જવાબ પણ તે જ છે. આ રીતે જે કાળમાં ઉત્તરભાદ્રપદ નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા હૈાય છે તે સમયે પાશ્ચાત્ય અમાવાસ્યા ઉત્તરફાલ્ગુની નક્ષત્રથી યુક્ત ડાય છે અને જ્યારે ઉત્તરફાલ્ગુની નક્ષત્રથી યુક્ત પોણુ માસી હાય છે ત્યારે અમાવાસ્યા પ્રૌòપટ્ટી-ઉત્તરભાદ્રપદા નક્ષત્રથી યુક્ત હાય છે કારણ કે ઉત્તરફાલ્ગુની નક્ષત્રથી લઈને ઉત્તરભાદ્રપદા નક્ષત્ર ચૌદમુ નક્ષત્ર છે. હવે લાઘવા अतिदेशन उथन ४रता था सूत्रभर ४ छे- ' एवं एएणं अभिलावेणं इमाओ पुण्णिमाओ अमावासाओ यव्त्राओ' मा यूवेति धन पद्धति अनुसार या वक्ष्यमाणु पूर्थिभागोने ज० ५३ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्र व्याओ' एवम् एतेन पूर्वोक्तेन अभिलापेन प्रकारेण इमा वक्ष्यमाणाः पूर्णिमा अमावास्यश्च नेतव्या ज्ञातव्याः ताः कास्तत्राइ-'अस्सिमी पुगिमा चेती अमावासा' अश्विनी पूर्णिमा चैत्री अमावास्याः 'कत्तियी पुण्णिमा वइसाही अमावासा' कार्तिकी पूर्णिमा वैशाखी अमावास्या 'मग्गसिरी पुणिमा जेट्ठा मूली अमावासा' मार्गशीर्षी पूर्णिमा ज्येष्ठा मूली मावास्या 'पोसो पुणिमा ओसाढी अमावासा' पौषी पूर्णिमा आषाढी अमावास्या । अयं भावःअत्रायमभिलापप्रकारः तथाहि-यदा खलु आश्विनी-अश्विनीनत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति अश्विनी नक्षत्रादारभ्य पूर्व चित्रानक्षत्रस्य पश्चदशत्वात् एतद्व्यवहारनयमतमधिकृत्य कथितम् निश्चयतस्तु एकस्यामपि अश्वयुग मासभाविन्याममावास्यायां चित्रानक्षत्रसंभवादिति, यदा च चैत्री चित्रानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या अमावास्याश्विनी अश्विनीनक्षत्रयुक्ता भवति, एतदपि.व्यवहारतः निश्चयतस्तु एकस्यामपि चैत्रमासमाविन्याममावास्यायाम् पूर्वोक्त कथन पद्धति के अनुसार इन वक्ष्यमाण पूर्णिमाओं को और अमावास्याओं को भी जानलेना चाहिये-वे इस प्रकार से हैं-'अस्मिणी पुणिमाचेत्ती अमावासा' अश्विनी पूर्णिमा, बैत्री अमावास्या 'कत्तियी पुण्णिमा वइसाही अमावासा' कार्तिकी पूर्णिमा, वैशाखो अमावास्या, 'मग्गसिरी पुणिमा जेहामूली अमावासा, मार्गशीर्षी पूर्णिमा, ज्येष्ठामूली अमावास्था, 'पोसीपुण्णिमा आसाढी अमावासा' पौषी पूर्णिमा और आषाढी अमावास्या। भाव यह हैयहाँ अभिलाप प्रकार ऐसा है-जब अश्विनी नक्षत्र से युक पूर्णिमा होती है तब पाश्चात्य अमावास्या चित्रा नक्षत्र से युक्त होती है क्यों कि अश्विनी नक्षत्र से लेकर चित्रा नक्षत्र १५ वां नक्षत्र है व्यवहार नय की अपेक्षा यह कथन है निश्चय नय की अपेक्षा तो एक भी अश्वयुग्मासभाविनी अमावास्या में चित्रा नक्षत्र संभवित होता है और जब चित्रा नक्षत्र से युक्त पौर्णमासी होती है तब पाश्चास्य अमावास्या अश्विनी नक्षत्र से युक्त होती है, यह कथन भी व्यवहार से है मन ममावस्यामान ५५ arela की य. ते मी प्रमाछ-'अस्सिणी पुण्णिमा चेत्ती अमावासा' मश्विनी एमा, क्षेत्री सभावा । 'कत्तियी पुण्णिमा वइसाही अमावासा' ४ातिक पूणिमा, वैशाली अमावास्या 'मग्गसिरि पुणिमा जेट्टामूली अमावासा' भागशीषी पूणिमा गये। भूमी अमावास्या, 'पोसीपुण्णिमा आसाढी अमावासा' पोषीमा भने અષાઢી અમાવસ્યા ભાવ આ પ્રમાણે છે–અહીં અભિલા પ્રકાર આવે છે-જ્યારે અશ્વિની નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા હોય છે ત્યારે પાશ્ચાત્ય અમાવસ્યા ચિત્રા નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે કારણ કે અશ્વિની નક્ષત્રથી લઈને ચિત્રા નક્ષત્ર પંદરમું નક્ષત્ર છે. આ વવ્યહારનયની અપેક્ષા કથન છે. નિશ્ચયનયની અપેક્ષા તે એક પણ અવયુગ માસ ભાવિની અમાવસ્યામાં ચિત્રા નક્ષત્ર સંભવિત હોય છે અને જ્યારે ચિત્રા .શથી યુક્ત પોણુંમાસી હોય છે ત્યારે પાશ્ચાત્ય અમાવસ્યા અશ્વિની નક્ષત્રથી યુક્ત હોય છે આ કથન પણ વ્યવહારથી છે. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार: सू. २५ नक्षत्राणां कुलादिद्वारनिरूपणम् ४१९ अश्विनीनक्षत्रस्य संभवात् एतत्सूत्रम् आश्विन चैत्रमासावधिकृत्य कथितमिति । यदा खलु afat कृत्तिका नक्षत्रयुक्ता पूर्णिमाभवति तदा वैशाखी विशाखा नक्षत्रयुक्ता अमावस्या raft कृत्तिकाasa विशाखा नक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात्, यदा च वैशाखी विशखा नक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा ततोऽनन्तरा पाश्चात्या अमावास्या कार्त्तिकी कृत्तिका नक्षत्रयुक्ता भवति, विशाखातः पूर्वं कृत्तिका नक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात् एतत्सूत्रं कार्त्तिकवैशाखमा सावधिकृत्य कथितमिति ॥ यदाच मार्गशीर्षी मृगशिरोनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा ज्येष्ठामूली ज्येष्ठामूल नक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, यदातु ज्येष्ठामूली पौर्णमासी तदा मार्गशीर्षी अमावास्या भवति - एतन्मार्गशीर्ष ज्येष्ठमासावधिकृत्य कथितम् । यदा पौषी पुष्यनक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति तदा आषाढी पूर्वाषाढा नक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, यदातु पूर्वाषाढा नक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति निश्चय की अपेक्षा से तो एक भी चैत्रमास भाविनी अमावास्या में अश्विनी नक्षत्र संभवित होना है यह सूत्र आश्विन और चैत्र मास इन दो मासों को लेकर कहा गया है । जिस समय कृत्तिका नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है उस समय विशाखा नक्षत्र से युक्त अमावास्या होती है क्यों कि कृत्तिका से पहिले विशाखा नक्षत्र १५ वां नक्षत्र है जिस समय विशाखा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है उस समय पाचात्य अमावास्या कृत्तिका नक्षत्र से युक्त होती है क्यों कि विशाखा नक्षत्र से पहिले कृतिका नक्षत्र १४ वां नक्षत्र है यह सूत्र कार्तिक एवं वैशाखमास को लेकर कहा गया है जिस समय मृगशिरानक्षत्र से युक्त पौर्णमासी होती है उस समय ज्येष्ठामूल नक्षत्र से युक्त अमावास्या होती है और जब ज्येष्ठा मूल नक्षत्र से युक्त पौर्णमासी होती है तब मृगशिरा नक्षत्र से युक्त अमावास्या होती है यह कथन मार्गशीर्ष और ज्येष्ठमास को लक्ष्य में लेकर किया गया है जब पुष्य नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है तब पूर्वाषाढा નિશ્ચયનયની અપેક્ષાથી તે એક પણ ચૈત્રમાસ ભાવિની અમાવસ્યામાં અશ્વિની નક્ષત્ર સંભવિત હૈાય છે. આ સૂત્ર આશ્વિન અને ચૈત્રમાસ એ એ મહિનામેાને લઇને કહેવામાં આવ્યું છે. જે સમયે કૃત્તિકા નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા હાય તે સમયે વિશાખા નક્ષત્રથી યુક્ત અમાવસ્યા હાય છે કારણ કે કૃત્તિકાથી પહેલા વિશાખા નક્ષત્ર પંદરમું નક્ષત્ર છે. જે સમયે વિશાખા નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા ડૅાય છે તે સમયે પાશ્ચાત્ય અમાવાસ્યા કૃત્તિકા નક્ષત્ર યુક્ત ડેાય છે કારણ કે વિશાખા નક્ષત્રથી પહેલા કૃત્તિકા નક્ષત્ર ચૌદમુ નક્ષત્ર છે. આ સૂત્ર કાર્તિક અને વૈશાખ માસને અનુલક્ષીને કહેવામાં આવ્યું છે. જે સમયે મૃગશિરા નક્ષત્રથી યુક્ત પૌ માસી હૈય છે તે સમયે જ્યેષ્ઠા મૂળ નક્ષત્રથી યુક્ત અમાવાસ્યા હૈય છે અને જ્યારે જ્યેષ્ઠામૂલ નક્ષત્રથી યુક્ત પૌમાસી હૈાય છે ત્યારે મૃગશિરા નક્ષત્રથી યુક્ત અમાવસ્યા હાય છે આ કથન મા શીષ અને જ્યેષ્ઠ માસને લક્ષમાં લઈને કરવામાં આવ્યું છે જ્યારે પુષ્ય નક્ષત્રથી યુક્ત પૂર્ણિમા ઢાય છે ત્યારે પૂર્વાષાઢા નક્ષ થી Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तदा पौषी पुष्यनक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, एतत्तु पौषमासाषाढमासावधिकृत्य कथितम् । उक्तानि मासार्द्धमास परिसमापकानि नक्षत्राणि । इति पश्चविंशतिसूत्रं समाप्तम् सू० २५॥ सम्प्रति-स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया मासपरिसमापनक्षत्रसमुदायमाहसत्रापि प्रथमतो वर्षा सामयिकाहोरात्रपरिसमापकनक्षत्रसूत्रम् । मूलम्-वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता गति ? गोयमा! चत्तारि णक्खत्ता ऐति तं जहा-उत्तरासाढा अभिईसवणो धणिट्ठा उत्तरासादा चउद्दस अहोरत्ते णेइ, अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ सवणो अट्ठ अहोरत्ते णेइ धणिट्टा एर्ग अहोरत्तं णेइ, तेसिं च णं मासंसि चउरंगुलपोरसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्त णं मासस्त चरिमदिवसे दो पदा चत्तारि अंगुला पोरसी भवइ । वासाणं भंते ! दोच्चं मासं कइ मक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! चत्तारि धणिट्रा सयभिसया पुथ्वभदवया उत्तरभद्दवया धणिट्रा च णं चउद्दस अहोरत्ते णेइ, सभिसया सत्त अहोरत्तेणेइ, पुठवभदवया अट्ट अहोरत्ते णेइ, उत्तराभदवया एगं, तसि च णं मासंसि अटंगुलपोरसीए छायाए सुरिए अणुपरियदृइ, तस्स मासस्स चरिमे दिवसे दो पया अटु य अंगुला पोरसी भवइ । वासाणं भंते ! तइयं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! तिणि णक्खत्ता णति तं जहाउत्तरभदवया रेवई अस्सिणी उत्तरभदवया चउद्दस राइंदियं णेइ रेवइ पण्णरस अस्सिणी एगं तंसि च णं मासंसि दुगलसंगुलपोरसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्टाई तिणि पयाई पोरसी भवइ । वासाणं भंते ! घउत्थं मासं कति णक्ख. नक्षत्र से युक्त अमावास्या होती है और जब पूर्वाषाढा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होती है तब पुष्य नक्षत्र से युक्त अमावास्या होती है यह कथन पौषमास और आषाढमास को लेकर किया गया है इस प्रकार से मासार्द्धमास परिसमापक नक्षत्रों का कथन किया गया है ।सू० २५॥ યુક્ત અમાવાસ્યા હોય છે અને જ્યારે પૂર્વાષાઢા નક્ષવથી યુક્ત પૂર્ણિમા હોય છે ત્યારે પુષ્ય નક્ષત્રથી યુક્ત અમાવાસ્યા હોય છે. પ્રસ્તુત કથન પૌષમાસ તેમજ અષાઢ માસને લઈને કરવામાં આવ્યું છે. આવી રીતે માસાદ્ધમાસ પરિસમાપક નક્ષત્રનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. ૨પ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् त्ता णेति ? गोयमा ! तिष्णि अस्सिणी भरणी कत्तिया, अस्सिणी चउद्दस भरणी पन्नरस कत्तिया एगं तसि च णं मासंसि सोलसंगुल पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियइ, तस्स णं मासस्स चरमे दिवसे तिणि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमंताणं भंते ! पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! तिणि कत्तिया रोहिणी मिगसिरे, कत्तिया चउद्दस रोहिणी पण्णरस मिगसिरं एगं अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सुरिए अणुपरिया, तस्त णं मासस्त जे से चरिमे दिवसे तंसि च of दिवसंसि तिण्णि पयाइं अट्ठय अंगुलाई पोरसी भवइ । हेमंताणं भंते ! दोच्चं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! चत्तारि गक्खत्ता ऐति तं जहा-मिगसिरं अदा पुणवसू पुस्तो मिगसिरं चउद्दस राइंदियाइं णेइ अद्दा अट्ट णेइ पुणव्वसू सत्त राइंदियाइं पुस्तो एर्ग राइंदियं णेइ, तयाणं चउ. वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहटाई चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ हेमंताणं भंते ! तच्चं मासं कइ णक्खत्ता णति ? गोयमा ! तिणि पुस्सो असिलेसा महा पुस्सो चोदस राइंदियाई गेइ असिलेसा पण्णरस महा एक्कं । तयाणं वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदृइ तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिणि पयाइं अटुंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमंताणं भंते ! चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! तिणि णक्खत्ता ऐति तं जहा-महा पुत्वाफग्गुणी उत्तरफग्गुणी, महा चउद्दल राइंदियाइं णेइ पुवाफग्गुणी पण्णरस राइंदियाई णेइ, उत्तराफग्गुणी एगं राइंदियं णेइ जयाणं सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिणि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ। गिम्हाणं भंते ! पढमं मासं कइ णक्खत्ता गेति, गोयमा ! तिनि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता-उत्तराफरगुणी Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जम्बूजीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उस राईदियाई णेइ, हत्थो पण्णरस राईदियाई णेइ, वित्ता एवं राईदियं णेइ, तयाणं दुवाल संगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियहइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंमि लेहट्टाई तिणि पयाई पोरिसी भवइ, गिम्हा णं भंते! दोच्चं मासं कति णक्खत्ता ति, गोयमा ! तिष्णि णक्खत्ता र्णेति तं जहा - चित्ता साईं विसाहा, चित्ता चउदस राईदियाई णेइ, साई पण्णरस राईदियाई णेइ, विसाहा एगं राईदियं णेइ, तयाणं अटुंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियहह, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई अटुंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हा णं भंते! तच्चं मासं कइ णक्खत्ता र्णेति ? गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता र्णेति तं जहा- रिसाहा अणुरादा जेट्ठा मूलो, विसाहा उद्दस राईदियाई णेइ, अणुराहा अट्ट राई दियाई s, जेहा सत्त राईदिय ई णेइ मूलो एक्कं राईदियं तयाणं चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स जे चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई वत्तारि य अंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणे भंते । चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता र्णेति ! गोयमा ! तिष्णि णक्खत्ता र्णेति तं जहा-मूलो पुव्वासाढा उत्तरासादा, मूलो चउद्दस इंदियाई इ, पुव्वासाढा पण्णरस राइंदियाई णेइ, पुव्वासाढा पण्णरस राईदियाई णेइ उत्तरासाढा एगं राईदियं णेइ । तयाणं वट्टाए समउरंसठाणसंठियाए णग्गोहपरिमंडलाए सकायमणुरंगियाए छाय ए सूरिए अपरियट्टइ, तस्स णं मासस्त जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवससि लेहटाई दो पयाई पोरिसी भवइ । एएसि णं पुव्वपणियाणं पयाण इमा संगहणी तं जहा- जोगो देव य तारग्ग गोत संठाण चंदरवि जोगो | कुल पुष्णिम अवमंसा णेया छाया य बोद्धव्वा ॥ सू० २६६ ॥ छाया - वर्षाणां प्रथमं कवि नक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथाउत्तराषाढा अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा, उत्तराषाढा चतुर्दशाहोरात्राणि नयति, अभिजित् सप्ता - Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स्. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् होरात्राणि नयति, श्रवणोऽशाहोरात्राणि नयति, धनिष्ठा एकमहोरात्रं नयति, तस्मिश्च खलु मासे चतुरालपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटति, तस्य च खलु मासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे चत्वारि चाङ्गुलानि पौरुषी भाति । वर्षाणां खलु भदन्त ! द्वितीयं मसं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? हे गौतम ! चत्वारि, धनिष्टा शामिपक पूर्वभाद्रपदा, उत्तर भद्रपदा, धनिष्ठः खलु चतुर्दशाहोरात्रान् नयति शतभिषक् सप्ताहोरात्रान् नयति पूर्वभद्रपदा अष्टाहोरात्रान् नयति, उत्तरभद्रपदा एकम्, तस्मिश्च खलु मासे अष्टाङ्मुलपारुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटति, तस्य मासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे अष्टौ चामुलानि पौरुणी गवति । वर्षाणां खलु भदन्त ! तृतीयं मास कति नक्षत्राणि नथन्ति गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथाउत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी, उत्तरभद्रपदा नतुदेशरात्रिदिवानि नयति, रेवती पञ्चदश अश्विनी एकस्, तस्मिंश्च खलु मासे द्वादशाङ्गुलपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटति, तस्य खलु मासस्य चरमे दिवसे रेखास्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति । वर्षाणां खलु भदन्त ! चतुर्थ मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! त्रीणि-अश्विनी भरणी कृत्तिका, अश्विनी चतुर्दश, भरणी पश्चदश, कृत्तिका एकम्, तस्मिंश्च खलु मासे पोडशाइगुलपौरुष्या छायया सूर्याऽनुपर्यटते तस्य च खलु मासस्य चामे दिवसे त्रीणि पदानि चत्वारि अङ्शुलानि पौरुषी भवति हेमन्तानां खलु भदन्त ! प्रथमं मास कति नक्षत्राणि नयन्ति गौतम ! त्रीणि कृत्तिका रोहिणी मृगशिरः, कृतिका चतुर्दश रोहिणी पञ्चदश, मृगशिर एकमहोरात्रम्, नयति, तसिंश्चि खलु मासे विंशत्यङ्ल पौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते तस्य खलु मासस्य योऽसौ चरमो दिवस स्तस्मिन् खलु दिवसे त्रीणि, पदानि अष्टौ चागुलानि पौरूषी भवति । हेमन्तानां खलु भदन्त ! द्वितीयं मास कतिनक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नन्ति तद्यथा मृगशिर आदी पुनर्वसु पुष्यो । मृगशिर चतुर्दश रात्रिंदिवानि, पुष्य एक रात्रिंदिवं नयति, तदा खलु चतुर्विशत्यङ्गुलपौरख्या छायया मूर्योऽनुपर्यटते, तस्य सलु मासस्य योऽसौ चरमो दिवस स्त स्मिश्च दिवसे रेखास्थानि चत्वारि पदानि पौरुपी भवति । हेमन्तानां खलु भदन्त ! तृतीयं मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! त्रीणि, पुष्योऽश्लेषा मघा, पुष्य श्चतुर्दश रात्रिदिवानि नयति, अश्लेवा पञ्चदश, मघा एकम् तदा खलु विंशत्यगुलपौरुया छायया सूर्योऽनुपर्यटते तस्य खलु मासस्य योऽसौ चरमो दिवसः तस्मिश्च खलु दिवसे त्रीणि पदानि अष्टाइगुलानि पौरुशी भवति हेयन्तानां खलु भदन्त ! चतुर्थ मास कतिनक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! श्रीणि, तद्यथा मघा पूर्वाफलमुनी उत्तराफग्गुणी मघा चतुर्दशगत्रिं दिवानि, नयति-पूर्वाफाल्गुनी पञ्चदश रात्रिदिवानि नयति, उत्तराफाल्गुनी एक रात्रिंदिवं नयति तदा खलु पोडशाङ्गुलपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते तस्य खल मासस्य योऽसौ चरमो दिवस तस्मिश्च खलु दिवसे त्रीणि पदानि चत्वारि चागुलानि पौरुपी भवति । ग्रीष्मागां भदन्त ! प्रथमं मास कतिनक्षत्राणि न्यन्ति ? गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, उत्तराफाल्गुनी हस्तश्चित्रा, उत्तराफाल्गुनी चतुर्दश रात्रिंदिवानि नयति, Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 1 हस्तः पञ्चदश रात्रिंदिवानि नयति चित्रा एक रात्रिन्दिवं नयति तदा खलु द्वादशागुरुभ्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते, तस्य खलु मासस्य योऽसौ चरमोदिवस स्तस्मिंश्च खलु रेखास्यानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति । ग्रीष्माणां भदन्त । द्वितीयं मास कतिनक्षत्राणि नयति ? गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा - चित्रा स्वाती विशाखा, चित्रा चतुर्दश रात्रिंदिवं नयति स्वाती पञ्चदश रात्रिं दिवं नयति विशाखा एकं रात्रिदिवं नयति तदा खलु अष्टाङ्गुलौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते तस्य खलु मासस्य योऽसौ arat fat after खलु दिवसे द्वेपदे अष्टाङ्गुलानि पौरुषी भवति ग्रीष्माण भदन्त ! तृतीयं मासं कतिनक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथाविशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूलः, विशाखा चतुर्दश रात्रिदिवं नयति अनुराधा अष्टौ रात्रिंदिवं नयति ज्येष्ठा सप्तरात्रंदिवं नयति, मूलः एकं रात्रिंदिवं नयति, तदा खलु चतुरङ्गुलपौरुष्या छाया सूर्योऽनुपर्यते, तस्य खलु मासस्य योऽसौ चरमो दिवस स्वस्मिथ खलु दिवसे द्वे पदे चत्वारि चाङ्गुलानि पौरुषी भवति । ग्रीष्मागां भदन्त ! चतुर्थ मासं कति नक्षत्राणि वयन्ति ? गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति तद्यथा - मूल: पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, मूल चतुर्दश रात्रिंदिवं नयति पूर्वाषाढा पञ्चदश रात्रिंदिवं नयति उत्तराषाढा एकं रात्रिंदिवं नयति तदा खलु वृत्तया समचतुरस्र संस्थानसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलया स्वकायमनुरङ्गिन्या छाया सूर्योऽनुपर्यते तस्य खलु मासस्य योऽसौ चरमो दिवस स्तस्मिंश्च खलु दिवसे रेखास्थान द्वे पदे पौरुषी भवति । एतेषां खलु पूर्ववर्णितानां पदानाम् इयं संग्रहणी, arit aaari संस्थान चन्द्ररवियोगः कुलं पूर्णिमाSमावास्या नेतृछाया च बोद्धव्या ॥ | १ || सू० २६ || टीका- 'वासाणं पढमं मास कइ णक्खत्ता णयंति' वर्षाणां प्रथमं मास कतिनक्षत्राणि नयन्ति तत्र वर्षाणां वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथमं मासं श्रावणलक्षणं मासं कति 'वासाणं पढमं मासं कइ णक्खत्ता र्णेति' इत्यादि टीकार्थ- अब सूत्रकार स्वयं अस्तगमन द्वारा अहोरात के परिसमापक होने के कारणभूत मासपरिसमापक नक्षत्रों का कथन करते हैं- इसमें गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है - 'वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता णेंति' हे भदन्त ! चार मास का जो वर्षकाल है उस वर्षाकाल के श्रावणमास रूप प्रथम मास के 'वासाणं पढमं मासं कइ णक्खत्ता णें ति' इत्यादि ટીકા –હવે સૂત્રકાર સ્વય' અસ્તગમન દ્વારા અહેારાતના પરિસમાપક હાવાના કારણભૂત માસ પરિસમાપક નક્ષત્રનુ કથન કરે છે-આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછ્યુ छे- ' वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्तः णेंति' के लहन्त ! यार भासतो मे वर्षाण छेते વર્ષાકાળના શ્રાવણુમાસ રૂપ પ્રથમ માસના ક્રમશઃ પરિસમાપક સ્વયં અસ્તગમન દ્વારા Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमपक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् ५५' श्रावणलक्षणं मास कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि श्रवणादीनि स्वयमस्तगमनेन अहोरात्र परिसमापकतया क्रमेण नयन्ति-समाप्तं कुर्वन्ति अर्थात् वक्ष्यमाणसंख्यांक स्वस्वदिवसेषु इमानि नक्षत्राणि यदा अस्तं यान्ति तदा श्रावणमासस्याऽहोरात्रस्य परिसमाप्ति भवति, तेन इमानि नक्षत्राणि रात्रिपरिसमापकत्वात् रात्रिनक्षत्राण्यपि कथ्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि णक्खत्ता ऐति' चत्वारि-चतुःसंख्यकानि वक्ष्यमाणानि नक्षत्राणि वर्षाणां प्रथमं श्रावणलक्षणमास नयन्ति-परिसमापयन्ति, तानि कानि नक्षत्राणि तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'उत्तरासाढा अभिई सवणो धणिद्वारे उत्तराषाढा अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा, एतानि चत्वारि नक्षत्राणि श्रावणमास परिसमापयन्ति, केन प्रकारेणैतानि परिसमापयन्ति तत्राह-'उत्तरासाढा चउद्दस' इत्यादि, 'उत्तरासाढा चउइस अहोरत्ते णेई तत्रोत्तराषाढा नक्षत्रं श्रावणमासस्य प्रथमात् चतुर्दशाहोरात्रात् नयति-परिसंमापयति, तदनन्तरम् 'अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ' अभिजिन्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान् नयति-परिसमापयति, तदनन्तरम् 'सरणो अट्ठ अहोरत्ते णेई' श्रवणनक्षत्रं श्रावणमासस्याष्टाहोरामान नयति-परिसमापयन्ति, तदनन्तरम् 'धणिष्ठा एग अहोरत्तं णेई' धनिष्ठानामकं नक्षत्रमेकक्रमशः परिसमापक स्वयं अस्तगमन द्वारा कितने नक्षत्र हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता णति' है गौतम ! वर्षाकाल के प्रथम श्रावणमास के परिसमापक थे चार नक्षत्र हैं-'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'उत्तरासाढा अभिई सवणो धणिट्ठा' उत्तराषाढा, अभिजितू श्रवण और धनिष्ठा ये चार नक्षत्र किस प्रकार से श्रावण मास के परिसमापक होते हैं? तो इस सम्बन्ध में सूत्रकार स्पष्ट समझाने के निमित्त कहते हैं-'उत्तरासाढा च उद्दस अहोरत्ते णे' उत्तराषाढा नक्षत्र श्रावण मास के प्रथम के १४ अहोरातों की परिसमाप्ति करता है 'अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ' अभिजित् नक्षत्र ७ अहोरातों की परिसमाप्ति करता है 'सवणो अट्ट अहोरत्ते, धणिहा एग अहोरतं णेई' श्रवण नक्षत्र आठ अहोरातों को परिसमाप्ति करता है और धनिष्ठानक्षत्र मा नक्षत्र छ ? माना niमुह -'गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता ऐति' गौतम ! १ ॥ प्रथम श्राप माना परिसमा५४ मा यार नक्षत्र छ-'तं जहा'तमना નામ આ પ્રમાણે છે 'उत्तरासाढा अभिई सवणो धनिद्वा' उत्तषाढा, मलिlant qा मने पनि मा ચાર નક્ષત્ર કેવી રીતે શ્રાવણ માસના પરિસમાપક હોય છે? આ સમ્બન્ધમાં સૂત્રકાર સ્પષ્ટ समान माथी ठे-'उत्तरास ढा चउद्दस अहोरत्ते णेइ' उत्तराषाढा नक्षत्र श्रापाभासन प्रथमना १४ महाशतनी परिसमाति ४२ छे. 'अभिई सत्त अहोरत्ते णे' ममिति नक्षत्र ७ महारानी परिसमात ४२ छे. 'सवणे अदु अहोरत्ते धणिद्रा एवं अहोरतं णेइ' श्रय नक्षत्र म18 माहरातनी ५२सम ४२ छे. मने पनि नक्षत्र Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिम महोरात्रं नयति-परिसमापयन्ती तदेवं मिलित्वा चत्वार्यपि नक्षत्राणि श्रावणमास परिसमापयन्ति, अस्य च नेतृद्वारस्य प्रयोजनं रात्रिज्ञानादौ-'जं नेइ जया रत्तिं णक्खत्तं तंमि णह चउम्भागे । संपत्ते विरमेजा सम्झाय पभोसकालंमि' १॥ .इत्यादी (यनयति यदा रात्रि नक्षत्रं तस्मिन् चतुर्भागे । संप्राप्ते विरमेत् स्वाध्यायप्रदोषकाले इतिच्छाया) एतदनुरोधेन च दिनमानज्ञानायाह-तस्मिन् श्रावणमासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिन मान्यान्य मण्डलसंक्रा त्या तथा कथंचनापि परावर्तते यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्तेषु चतुरङ्गुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति, अत्रेदं वैलक्षण्यं यस्यां संक्रान्तौ यावदिवसरात्रिमानं तच्चतुर्थोऽशः पौरुषीयामः प्रहर इति, आषाढ पूर्णिमायां द्विपदप्रमाणा पौरुषी भवति तस्यां च श्रावणमास संबन्धि चतुरङ्गुलप्रक्षेपे चतुरङ्गुलाधिका पौरुषी भवति, एतदेव दर्शयति-'तंसि च णं' इत्यादि, 'तसिचणं मासंसि' तस्मिंश्च खलु मासे 'चउरंगुलपोरसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ' एक अहोरात की परिसमाप्ति करता है। इस तरह से ये सब चारों नक्षत्र श्रावणमास के ३० तीस दिनों की अहोरातों की परिसमाप्ति करते हैं। इस नेतद्वार का प्रयोजन रात्रिज्ञान आदि में 'जं ने जया रत्ति णक्खत्तं, तंमि णह चउभागे। संपत्ते विरमेज्जा सज्झाय पओस कालंमि' इस गाथा के कथनानुसार जानना चाहिये इसीके अनुरोध से अब सूत्रकार दिनमान ज्ञान के निमित्त कहते हैं कि-उस श्रावण मास में प्रथम अहोरात से लेकर प्रतिदिन अन्य अन्य मंडल संक्रान्ति से तथा और भी किसी तरह से जो इन नक्षत्रों में परिवर्तन होता है तब उस श्रावणमास के अन्त में-अन्तिम दिन में-चार अंगुल अधिक द्विपदा पौरुषी होती है, यहां ऐसी विशेषता है-जिस संक्रमण-संक्रान्ति में जितना दिनरात का प्रमोण होता है उसकी चतुर्थांशरूप एक पौरुषी-याम-प्रहर होती है-आषाढ पूर्णिमा में द्विपदप्रमाणा पौरुषी होती है, उसमें श्रावणमास संबंधी चार अंगुलों का प्रक्षेप करने पर चार अंगुल अधिक पौरुषी होती है, इसी રાત-દિવસની પરિસમાપ્તિ કરે છે. આ રીતે આ ચારે નક્ષત્ર મળીને શ્રાવણમાસના ૩૦ દિવસની-અહેરાત્રિઓની-પરિસમાપ્તિ કરે છે. આ નેતૃદ્વારનું પ્રયોજન રાત્રિજ્ઞાન આદિમાં 'जं नेइ जया रत्तिं णक्खत्तं, तंसि णह चउभागे ! संपत्ते विरमेज्जा सज्झाय पओसकालंमि' આ ગાથા અનુસાર જાણવું જોઈએ. આના જ અનુરોધથી હવે સૂત્રકાર દિનમાન જ્ઞાનના નિમિત્ત કહે છે કે–તે શ્રાવણમાસમાં પ્રથમ અહેરાતથી લઈને પ્રતિદિન અન્ય-અન્ય સરળ સંક્રાન્તિથી તથા અન્ય પણ કોઈ પ્રકારે જે આ નક્ષત્રોમાં પરિવર્તન થાય છે ત્યારે તે શ્રાવણમાસના અન્તમાં છેલ્લા દિવસે–ચાર આંગળ અધિક દ્વિપદા પૌરૂષી હોય છે. અત્રે આવી વિશેષતા છે–સંક્રમણ-સંક્રાતિમાં જેટલું દિવસ-રાત્રિનું પ્રમાણ હેય છે તેના ચતુર્થી શરૂપ એક પરૂષી–ચામ–પ્રહર હોય છે–આષાઢી પૂર્ણિમાનાં દ્વિપદ પ્રમાણ પૌરૂષી હોય છે, તેમાં શ્રાવણમાસ સંબંધી ચાર અંશુલેને પ્રક્ષેપ કરવાથી ચાર અંગુલ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् ४२७ चतुरङगुलपौररुष्या छायया पूर्योऽनुपर्यटते परावर्तते इत्यर्थः 'तस्सणं मासस्स' तस्य खड मासस्य 'चरिमदिवसे' चरम दिवसे 'दोपया चत्तारिय अंगुला पोरिसी भवई' द्वेपदे चत्वारि चाङ्गुलानि पौरुषी भवति इति प्रथममासपरिसमापकनक्षत्रम् ॥ 'वासाणं भंते !' वर्षाणां भदन्त ! 'दोच्चं मास कइणक्खत्ता णेति' द्वितीय भाद्रपदलक्षणं मासं' कति कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति-परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि' चत्वारि नक्षत्राणि परिसमापयन्तीति, तानि कानि तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'धणिहा सयभिसया पुत्वभवया उत्तरभदवया' धनिष्ठाशतभिषा पूर्वभाद्रपदा उत्सरभाद्रपदा, तदेतानि चत्वारि नक्षत्राणि वर्षाकालस्य द्वितीयभाद्रपदमास परिसमापयन्ति । तत्र 'धणिहाणं चउद्दस अहोरत्ते णेइ' धनिष्ठा नक्षत्रं खलु चतुर्दशाहोरात्रान् नयति-चतुर्दशाहोरात्राम् परिसमापयतीत्यर्थः 'सयभिसया सत्त अहोरत्ते णेई' शतभिषा नक्षत्रं सप्ताहोपात को 'सि च णं मासंमि चउरंगुल पोरसीए छायाए सरिए अणुपरियहई' इस सूत्रों द्वारा सूत्रकारने प्रकट किया है कि उस महीने में अर्थात् अन्त के दिन चार अंगुल से अधिक पौरुषीरूप छाया से युक्त सूर्य परिभ्रमण करता है 'तस्म णं मासस्स चरिमदिवसे दो पया चत्तारिय अंगुला पोरिसी भवई' उस मास के अन्तिम दिवस में दो पद वाली और चार अंगुलों वाली पौरुषी होती हैं इस प्रकार का यह कथन प्रथम मास परिसमापक चार नक्षत्रों के संबंध में कहा गया है। ___ 'वासाणं भंते ! दोच्चं मासं कह णक्खत्ता ऐति' हे भदन्त ! वर्षाकाल के द्वितीय मास रूप भाद्रपद मास के परिसमापक कितने नक्षत्र होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! चत्तारि' हे गौतम ! चार नक्षत्र वर्षाकाल के भाद्रपद मास के परिसमापक होते हैं, 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं'धणिट्ठा, सयभिसया पुव्वभवया, उत्तरभद्दवया' धनिष्ठा, शतभिषक, पूर्वभाद्रपदा और उत्तरभाद्रपदा, इनमें 'धणिट्ठा णं चउद्दस अहोरत्ते जेई' धनिष्ठा मपि पौ३५ी थाय छ मा ४थन- 'तं सि च णं मासंमि चउरंगुलपोरसीए छायाए सूरिप अणुपरियट्टई' 20 सूत्री ॥२॥ सूत्र४.२ ५४८ ४यु छ । ते मलिनामा अर्थात् અન્તના દિવસે ચાર આંગળથી અધિક પૌરૂષીરૂપ છાયાથી યુક્ત સૂર્ય પરિભ્રમણ કરે છે. 'तस्स णं मासस्स चरिमदिवसे दो पया चत्तारिय अंगुला पोरिसी भवइ' ते भासन मन्तिम દિવસમાં બે પદવાળી અને ચાર આંગળવાળી પૌરૂષી હોય છે આ પ્રકારનું આ કથન પ્રથમ માસ પરિસમાપક ચાર નક્ષત્રના સંબંધમાં કરવામાં આવ્યું છે. _ 'वासाणं भंते ! दोच्चं मासं कह णक्खत्ता ऐति' 3 महन्त ! वर्षान वितीय भास રૂ૫ ભાદ્રપદ (ભાદરવા) માસના પરિસમાપક કેટલા નક્ષત્ર હોય છે? આના જવાબમાં प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! चत्तारि' गौतम ! यार नक्षत्र वर्माना भाद्रप४ भासन। परिसभा५४ डाय छे. 'तं जहा' तेमना नाम मा प्रभारी छे–'धनिट्ठा, सयभिसया पुवभरगया, उत्तरभवया' पानी, Aalल भने Gत्ताप, मा 'पणिदाणं Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे रात्रान् नयति-परिसमापयति, 'पुव्वाभदक्या अअहोरत्ते णेई' पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रं भाद्रपद मासस्याष्टौ अहोरात्रान् नयति-परिसमापयति, 'उत्तरभदवया एगं' उत्तरभद्रपदानक्षत्रमेक महोरात्रं नयति, तदेवं संकलनया चत्वारि नक्षत्राणि भाद्रपदमासं परिसमाएयन्तीति । 'तंसि चणं मासंसि तस्मिंश्च खलु मासे 'अटुंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ' अष्टाजगुलपौरुष्या अष्टाङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते-अनुपरावर्तते, एतदेव दर्शयति 'तस्स' इत्यादि, 'तस्स मासस्स चरिमे दिवसे' तस्य मासस्य तस्य भाद्रपदमासस्य परमे पर्यवसानदिवसे 'दोपया अट्ठय अंगुला पोरिसी भवइ' द्वे पदे अष्टौ चाङ्गुलानि पौरुषी भवति । अथ तृतीयमासं पृच्छति-'वासाणं भंते' इत्यादि, 'वासाणं भंते ! वर्षाणां भदन्त ! 'तइयं मासं कइ णक्खत्ता ऐति' तृतीयमाश्विनलक्षणमासं कति-कियत्संख्यकानि जो नक्षत्र है वह १४ अहोरातो का परिसमापक होता है 'सयभिसया सत्त अहोरत्ते णेई' शतभिषा नक्षत्र सात अहोरातों का परिसमापक होता है 'पुव्वभवया अट्ट अहोरत्ते णेई' पूर्वभाद्रपदा आठ अहोरातों का परिसमापक समाप्त करने वाला होता है 'उत्तर भद्दवया एगं' और उत्तरभाद्रपदा एक अहोरात का परिसमापक होता है। इस प्रकार से ये चार नक्षत्र भाद्रपद मास की परिसमाप्ति करने वाले होते हैं । 'तंसि च णं मासंसि अट्ठ'गुल पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियइ' इस महीने में आठ अंगुल अधिक पौरुषी रूप छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है। यही बात सूत्रकार ने इन सूत्रों द्वारा प्रकट की है 'तस्स मासस्स चरिमे दिवसे दो पया अठ्ठय अंगुला पोरिसी भवई' उस मास के अन्तिम दिन में दो पदों वाली और आठ अंगुलों वाली पौरुषी होती है। _ 'पासाणं भंते! तइयं मासं कह णक्वत्ता ऐति' हे भदन्त ! वर्षाकाल के तृतीयमास को-आश्विनमास को-कितने नक्षत्र समाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में चउद्दस अहोरत्ते णेई' रे पनि नक्षत्र छ ते १४ अरात्रिनु परिसमा५४ सय छ 'सयभिसया सत्त अहोरत्ते णेई' शतमिष नक्षत्र सात अात्रिनु परिसमा५४ समाप्त १२॥३ाय छ. 'पुत्वभवया अट्ट अहोरत्ते णेइ' पूर्वभाद्र ५ मा मडारात्रिमान। परि सभा५४-सभापत ४२॥ ३ य छे. 'उत्तरभदवया एगं' भने उत्तरभाद्र ५६ ४ अर्डीરાત્રિનું પરિસમાપક હોય છે. આ પ્રકારે આ ચાર નક્ષત્ર ભાદ્રપદ માસની પરિસમાપ્તિ ४२वा छ. 'तं सि च णं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टई' મહિનામાં આઠ આંગળ અધિક પૌરૂષી રૂપ છાયાથી યુક્ત થયેલે સૂર્ય પરિભ્રમણ કરે ॥ पात सूरे 40 सूत्र २५४८ 3री छे-'तस्स मासस्स चरिमे दिवसे दो पया अद य अंगुला पोरिसी भवई' ते महिनाना छ। हिक्से में पहोवाणी तम भाई આંગળવાળી પૌરૂષી હોય છે. _ 'वासाणं भंते ! तइयं मासं कइ णखत्ता में ति' 8 महन्त ! वर्षान तृतीय भासनेशित भासने-३८९i नक्षत्र समास ४२ छ ? मान पाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् ४२२ नक्षत्राणि नयन्ति-परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिणि णक्खत्ता णेति' त्रीणि नक्षत्राणि वर्षाकालस्य तृतीयमासं नयन्ति परिसमा. पयन्ति, तानि कानि त्रीणि नक्षत्राणि तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'उत्तरभदवया रेवई अस्सिणी', उत्तरभाद्रपदा रेवती अश्विनी, एतानि त्रीणि नक्षत्राणि वर्षाकालस्य तृतीयमाश्विनमासं परिसमापयन्तीति, तत्र कानि-कियन्ति दिनानि क्षपयन्तीति जिज्ञासायो तदर्शयितुमाह-'उत्तरभद्दवया' इत्यादि, 'उत्तरभदवया चउद्दसराईदिए णेइ' उत्तरभद्रपदा नक्षत्र माश्विनमासस्य चतुर्दश रात्रिदिवं नयति-परिसमापयति-'रेवई पण्णरस' रेवती नक्षत्रमाश्विन मासस्य पञ्चदश रात्रिंदिवं नयति, परिसमापयति 'अस्तिणी एगं' अश्विनी नक्षत्रमाश्विन मासस्य एक दिनं परिसमापयति तदेवं तदेतानि त्रीणि नक्षत्राणि वर्षाकालस्य तृतीयं मासं परिसमापयन्तीत्यर्थः 'तंसि च णं मासंसि' तस्त्रिश्च खलु मासे 'दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ' द्वादशाङ्गुलपौरुष्या द्वादशाङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते- अनुपरावर्तते-एतदेवाह-'तस्स' इत्यादि, 'तस्स ण मासस्स चरिमे दिवसे' प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तिणि णक्खत्ता ऐति' हे गौतम! तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं, तं जहा' उन नक्षत्रों के नाम इस प्रकार से हैं-'उत्तरभद्दवया रेवई अस्सिणी' उत्तर भाद्रपदा, रेवती और अश्विनी । इन नक्षत्रों में कौन २ नक्षत्र कितने २ अहोरातों को समाप्त करते हैं इस जिज्ञासा को समाप्त करने के निमित्त सूत्रकार कहते हैं-'उत्तरभद्दवया, चउद्दसराइदिए णेइ' उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र आश्विनमास के १४ अहोरातों को समाप्त करते हैं 'रेवई पण्णरस' रेवती नक्षत्र १५ अहोरातों को समाप्त करते है 'अस्सिणी एग' अश्विनी नक्षत्र आश्विनमास के १ दिन रात को समाप्त करता है। तंसि च णं मासंसि दुबालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदृइ' इस आश्विन महीने में द्वादश अंगुल अधिक पौरुषी छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है। इसतरह 'तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहडाई तिणि पयाई पोरिसी भवइ' इस आश्विनमास के अन्तिम तिण्णि णक्खत्ता गति' गौतम ! १ नक्षत्र परिसमास ४२ छ. 'तं जहा'त नक्षत्राना नाम ॥ प्रभारी छ-'उत्तरभदवया रेवई अस्सिणी' उत्तमा५। रेवती भने अश्विनी આ નક્ષત્રમાં કયા કયા નક્ષત્ર કેટકેટલી અહેરાત્રિને સમાપ્ત કરે છે એ જિજ્ઞાસાને सतिषानिमित्त सूत्र२ ४३ छ–'उत्तरभद्दवया चउद्दसराइंदिए णेई' उत्तराभाद्रा नक्षत्र मासे भासनी १४ अडा।विमान समास ४रे छ. 'रेवई पण्णरस' रेवती नक्षत्र १५ अडीत्रियाने सभात छे. 'अस्सिणी एगे' मश्विन नक्षत्र अश्विन मासना १ हिवस रात। समास ४२ छे. 'तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिघट्टई' मा અશ્વિનમાસમાં બાર આંગળ અધિક પૌરૂષીરૂપ છાયાથી યુક્ત થયેલ સૂર્ય પરિભ્રમણ કરે 2. भारीते 'तरस मासस्स चरिमे दिरसे लेखाई तिणि पयाई पोरिसी भवइ' २॥ भश्विन , Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपाशप्तिसूत्रे तस्य खलु मासस्य चरमदिवसे 'लेहटाई तिणि पयाई पोरिसी भवई' रेखास्यानि रेखा पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति, परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवतीत्यर्थः। सम्प्रति-चतुर्थ प्रष्टुमाह-वासाणं' इत्यादि, 'वासाणं भंते !' वर्षाणां भदन्त ! वर्षाकालस्येत्यर्थः 'चउत्थं मासं कइ णखत्ता णति चतुर्थ कात्तिकलक्षणं मासं कति-कियत्सं. ख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति-परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिण्णि' त्रीणि नक्षत्राणि वर्षाकालस्य चतुर्थ कार्तिकमासं परिसमापयन्तीति तानि कानि तत्राह-'अस्सिणी' इत्यादि, 'अस्सिणी भरणी कत्तिया' अश्विनी भरणी कृत्तिका, तदेतानि त्रीणि नक्षत्राणि मिलिखा कार्तिकमासं परिसमापयन्तीति । तत्र 'अस्सिणी चउद्दस भरणी पंवदस कत्तिया एगं' अश्विनी नक्षत्र कार्तिकमासस्य चतुर्दशरात्रिदिवं नयति, भरणी नक्षत्रं कार्तिकमासस्य पञ्चदश रात्रिदिवं परिसमापयन्ति कृत्तिका नक्षत्रं कार्तिकमासस्यैकमहोरात्रं नयति, तदेतानि त्रीणि नक्षत्राणि सङ्कलनया कार्तिकमासं परिसमापयन्तीति 'तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टई' दिन में तीन पदों वाली परिपूर्ण तीन पद प्रमाण-पौरुषी होती है। 'वासाणं भते! चउत्थं मासं कह णक्खत्ता नंति' हे भदन्त! वर्षाकाल के कार्तिक मास को जो कि चतुर्थमास है कितने नक्षत्र परिसामाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तिण्णि' हे गौतम ! तीन नक्षत्र कार्तिकमास को समाप्त करते हैं 'तं जहा' वे नक्षत्र ये हैं-'अस्सिणी, भरणी, कत्तिया' अश्विनी, भरणी, और कृत्तिका इनमें अश्विनी नक्षत्र कार्तिकमास के १४ दिन रातों को समाप्त करते हैं भरणी नक्षत्र १५ दिन रातों को और कृत्तिका नक्षत्र केवल एक दिन रात को समाप्त करता है। यही बात 'अस्सिणी चउद्दस, भरणी पंचद्स, कत्तिया एगं' इस सूत्र द्वारा प्रकट की गई है। 'तसि च णं मासंसि सोलसंगुलपोरसीए छायाए सूरिए अणुपरियइ' उस कार्तिक मास में માસના અંતિમ દિવસે ત્રણ ત્રણ પદ્યવાળી પરિપૂર્ણ ત્રણ પદ પ્રમાણ પૌરૂષ હોય છે. 'वासाणं भंते ! चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता गति' 8 महन्त ! वर्षाणन। ति भास કે જે ચતુર્થમાસ છે તેને કેટલાં નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે? આના જવાબમાં પ્રભુ કહે छे-'गोयमा ! तिण्णि' 3 गौतम !त्र नक्षत्र ति भासने समास ४२ छ 'तं जहा' ॥ नक्षत्र ॥ प्रभाये छ-'अस्सिणी भरणी, कत्तिया' अश्विनी, भरणी भने ति सभा અશ્વિની નક્ષત્ર કાર્તિકમાસના ૧૪ દિવસ-રાત્રિને સમાપ્ત કરે છે. ભરણી નક્ષત્ર ૧૫ દિવસ-રાતને જ્યારે કૃત્તિકા નક્ષત્ર માત્ર એક દિવસ-રાત્રિને સમાપ્ત કરે છે. આજ હકીક્ત 'अस्सिणी चउद्दस भरणी पंचदस कत्तिया एगं' मे सूत्र दा॥ ४८ ४२वामां आवा) 'तंसि चणं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अगुपरियट्टई' ते तिमासमा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् ४३१ तस्मिंश्च खलु कार्तिके मासे षोडशाङ्गुलाधिक पौरुष्या छायया सूर्योऽनुवर्यटते-अनुपरावर्तते, एतदेव दर्शयति-तस्स च णं' इत्यादि, 'तस्स च णं मासस्स चरमे दिवसे तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ' तस्य खलु कात्तिकमासस्य चरमदिवसे अन्तिमदिने त्रीणि पदानि चत्वारि चागुलानि पौरुषी भवतीति गता वर्षाकालिको विचारः ॥ सम्प्रति-हेमन्तकालं प्रष्टुमाह-'हेमंताणं' इत्यादि, 'हेमंताणं भंते ! पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति' हे भदन्त ! हेमन्तानां हेमन्तकालस्य प्रथमं मासं मार्गशीर्ष लक्षणं मासं कतिकियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति-परिसमापयन्ति कानि नक्षत्राणि स्वास्तंगमनेन मार्गशीर्षमासं क्षपयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिण्णि कत्तियारोहिणी मिगसिरं' त्रीणि नक्षत्राणि स्वास्तंगमनेन कार्तिकमासं परिसमापयन्ति, तानि कानि त्रीणि नक्षत्राणि तत्राह-तद्यथा कृत्तिकारोहिणी मृगशिरश्च, तदेतानि त्रीणि नक्षत्राणि संकलनया मार्गशीर्षमासं परिसमापयन्तीति । 'कत्तिया चउद्दस रोहिणी पण्णरस सोलह अंगुल अधिक पौरुषीरूप से युक्त सूर्य परिभ्रमण करता है । 'तस्स च णं मासस्स चरमे दिवसे तिणि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवई' इस कातिकमास के अन्तिमदिन में चार अंगुल अधिक त्रिपदा पौरुषी होती है। ॥ वर्षाकालिक विचार समाप्त ॥ हेमन्तकाल विचार 'हेमंताणं भंते ! पढमं मासं कह णक्खत्ता गैति' हे भदन्त ! हेमन्तकाल के प्रथम मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? अर्थात् हेमन्त काल का प्रथम मास मार्गशीर्ष मास है इस मास को कितने नक्षत्र अपने अस्तगमनद्वारा परिक्षपित करते हैं ? ऐसा यह प्रश्न है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तिण्णि कत्तिया, रोहिणी, मिग्गसिरं' हे गौतम ! कृत्तिका, रोहिणी और मृगशिरा ये तीन नक्षत्र अपने अस्तगमनद्वारा मार्गशीर्षमास को परिसमाप्त-क्षपित करते At Hinm मधि४ पौषी ३५ छायावा। सूर्य पश्चिम ४२ छ. 'तस्स च ण मासस्स घरमे दिवसे तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुल.ई पोरिसी भवइ' मा तिमासना छेसा દિવસે ચાર આંગળ અધિક ત્રિપદા પૌરૂષી હેય છે. વર્ષાકાલિક વિચાર સમાપ્ત उभन्तास पियार'हेमंताणं भंते ! पढमं मास कइ णक्खत्ता णेति' 3 महन्त ! भन्तन प्रथम માસને કેટલાં નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે? હેમન્તકાળને પ્રથમ માસ માગશરમાસ છે. આ માસને કેટલાં નક્ષત્ર પિતાના અસ્તગમન દ્વારા પરિસમાપ્ત કરે છે? એવો આ પ્રશ્ન છે. मान पाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! तिण्णि कत्तिया, रोहिणी, मिगसिर ३ गौतम ! કૃત્તિકા, રોહિણી અને મૃગશિરા એ ત્રણ નક્ષત્ર પિતાના અતગમન દ્વારા માર્ગશીર્ષ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति मिगसिरं एगंणेई तत्र कृत्तिका नक्षत्रं मार्गशीर्षमासस्य प्राथमिकान् चतुर्दशाहोरात्रान् नयति, रोहिणी नक्षत्रं मार्गशीर्षमासस्य माध्यमिकान् पश्चदशाहोरात्रान् नयति, मृगशिरा नक्षत्रंतु एकमेव अहोरात्रं परिसमापयति 'तसि च णं मामसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सुरिए अणुपरियट्टई तस्मिश्च खलु मार्गशीर्षमासे विंशत्यगुलपौरुष्या-विशत्यशुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते-अनुपरावर्तते एतदेव दर्शयति-तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे' तस्य खलु मार्गशीर्षमासस्य योऽसौ चरमो दिवसः .पर्यन्त दिनम् 'तंसि च णं दिवसं सि तिणि पयाई अट्ठय अंगुलाई पोरिसी भवइ तस्मिश्च खलु मार्गशीर्षमासस्य चरम दिवसे त्रीणि पदानि अष्टौचाङ्गुलानि पौरुषी भवतीति ।। अथ द्वितीयं मासं पृच्छति- हेमंताण' इत्यादि, 'हेमंताण भंते ! दोच्चं मासं' हेमन्तानां हेमन्तकालस्य भदन्त ! द्वितीयं मासं पौषनामकं मासम् 'कइ णक्खत्ता ऐति' कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति-परिसमापयन्ति कानि नक्षत्राणि स्वास्तं गमनेन पौषमासं समाहैं इनमें 'कत्तिया चउद्दस, रोहिणी पण्णरस, मिगसिरं एगं णेई' कृत्तिका नक्षत्र मार्गशीर्ष मास के १४ दिन रातों को, रोहिणी १५ दिनरातों को और मृग शिरा नक्षत्र एक दिनरात को परिसमाप्त करता है 'तंसि च णं मासंसि वीसंगुल पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियहइ' इस अगहनमास में २० अंगुल अधिक पौरुषीरूप छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिणि पयाइं अट्ठ य अंगुलाई पोरिसी भवई' इस अगहनमास का जो अन्तिम दिन होता है उस दिन आठ अंगुल अधिक त्रिपदा पौरुषी होती है। "हेमंताणं भंते ! दोच्चं मासं कई णक्खत्ता मेंति' हेमन्तकाल के द्वितीय मास रूप जो पौषमास है उसकी समाप्ति के सम्बन्ध में गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! हेमन्तकाल के द्वितीय पौषमास के परिसमापक कितने भासन परिसमास ४३ छे भाभा 'कत्तिया चउद्दस, रोहिणी पन्नरस, मिग्गसिरं एगं णेइ' કૃત્તિકા નક્ષત્ર માગશર માસના ૧૪ દિવસ-રાતાને, રોહિણી ૧૫ દિવસ-રાતને અને भृगशिरा नक्षत्र १६५४-२iतन परिसमास ४२ छ. 'तंसि च णं मास सि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टई' मा भागश२ मासमा २० मग मरि पौ३षा३५ छायाथी व्यास सूर्य परिश्रम ४२ छ. 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवस सि तिणि पयाई अटु य अंगुलाई पोरिसी भवई' २मा मनमा (भा॥२)नारे અંતિમ દિવસ હોય છે તે દિવસે આઠ આંગળ અધિક ત્રિપદા પૌરૂષી હોય છે. 'हेमंताणं भंते ! दोच्च मात कइ णक्खत्ता णेति' भन्तन द्वितीयभास ३५२ પિષમાસ છે તેની સમાપ્તિના સમ્બન્ધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછ્યું છે ભદન્ત ! હેમન્તકાલના દ્વિતીય પિષમાસના પરિસમાપક કેટલા નક્ષત્ર હોય છે? અર્થાત Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् पयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि णक्खत्ता मेंति' चत्वारि नक्षत्राणि पौषमासं नयन्ति-परिसमापयन्ति 'तं जहा' तद्यथा-'मिगसरं अदा पुणत्रम् पुस्तो' मृगशिर आ पुनर्वसुः पुष्यः तदेतानि चत्वारि नक्षत्राणि मिलित्वा पौषमासं परिसमापयन्ति, तत्र कानि नक्षत्राणि कियन्ति दिनानि परिसमापयन्ति तत्राह-मिगसिर' इत्यादि, 'मिगसिरं चउद्दसराइंदियाईणेइ मृगशिरोनक्षत्रं पौषमासस्य प्राथमिकानि चतुर्दशरात्रिदिवं नयति-परिसमापयति, 'अदा अढणेइ' आनक्षत्रं पौषमासस्य अष्टौ रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति, 'पुणव्यम् सत्तराई दियाई' पुनर्वमुनक्षत्रं पौषमासस्य तृतीयानि सप्त नक्षत्र होते हैं ? अर्थात् अपने अस्त होने रूप समय के द्वारा कौन २से नक्षत्र इस मास को समाप्त करते हैं ? इस प्रश्न के उत्सर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता णति' हे गौतम ! इस मास को चार नक्षत्र अपने अस्त होने रूप समयद्वारा समाप्त करते हैं-'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'मिगसिरं, अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो' मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, और पुष्य इन नक्षत्रों में से कौन नक्षत्र पौषमास के कितनी अहोरात्रों को समाप्त करते हैं-अर्थात् इन चार नक्षत्रों में से कौन२ नक्षत्र पोषमास के ३० दिनों में से कितने दिनों तक उदित रह कर अस्त हो जाते हैं ? अब इस बात का विचार करते हुए प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं-'मिगसिरं चउद्दसराइं दियाई ऐति' मृगशिर नक्षत्र पौषमास के १४ अहोरातों को समाप्त करते हैं-अर्थातू मृगशिरा नक्षत्र पौष मास के प्रथम १४ दिनों तक उदित रहता है फिर वह अस्त हो जाता है 'अहा अट्ट इ' आ नक्षत्र पौषमास के ८ दिनों को परिसमाप्त करता है 'पुणव्वसु सत्त राइंदियाई पुनर्वसु नक्षत्र पौषमास के सात दिन रातों को समाप्त करता है 'पुस्सो एगं राई दियं णेई' और पुष्य नक्षत्र एक रात दिन को समाप्त करता है પિતાના અસ્ત થવા રૂપ સમયની દ્વારા કયા કયા નક્ષત્ર આ માસને સમાપ્ત કરે છે? मा प्रक्षना उत्तरमा प्रभु है-'गोयमा ! चत्तारि णक्खत्तो णे ति' गौतम ! म भासने यार नक्षत्र पोताना मस्त ५। ३५ समय वा। सभात ४२ छे-'तं जहा' तमना नाम मा प्रभारी थे-'मिगसिरं, अदा, पुणव्वसु, पुस्सो' भृगशि२ मा, पुनर्वसु भने १०५ ॥ નક્ષત્રમાંથી ક્યા નક્ષત્ર પિષમાસની કેટલી અહોરાત્રિઓને સમાપ્ત કરે છે–અર્થાત્ આ ચાર નક્ષત્રમાંથી ક્યા ક્યા નક્ષત્ર પિષમાસના ૩૦ દિવસમાંથી કેટલા દિવસો સુધી ઉદિત રહીને અસ્ત થઈ જાય છે? હવે આ વાતને વિચાર કરતા થકા પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને ४३ छ-'मिगसिरं चउद्दसराइंदियाइं णेति' भृगशिर नक्षत्र पाषभासनी १४ आहारातान સમાપ્ત કરે છે–અર્થાત્ મૃગશિર નક્ષત્ર પિષમાસનાં પ્રથમ ૧૪ દિવસ સુધી ઉદિત રહે छे पछी ते १२ / जय . 'अदा अदृ णेई' २ नक्षत्र पोषभासन मा हसान परिसमास ४३ . 'पुणव्वसु सत्तराईदियाई' पुनर्वसु नक्षत्र पोषमासना सात ६१स Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्म्द्वीपमतिले रात्रिदिवं नयति, 'पुस्सो एग राईदियं णेई' पुष्यनक्षत्रं पौषमासस्य चरममेकं रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति तदेवं मिलित्वा चत्वारि अपि नक्षत्राणि हेमन्त कालस्य द्वितीयं पौषमासं परिसमापयन्ति इति । 'तयाणं चउवीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ' तदा पौषमासस्य चरमदिवसे खलु चतुर्विशत्यङ्गुलपौरुष्या-चतुर्विशत्य गुलाधिकया पौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते-अनुपरावर्त ते, एतदेव दर्शयति-तस्स गं' इत्यादि, 'तस्स णं, मासस्स जे से चरमदिवसे' तस्य खलु पौषमासस्य योऽसौ चरम दिवसः पर्यन्त दिनम्, 'तंसि च णं दिवसंसि लेहटाई चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ' तस्मिंश्च खलु चरमे दिवसे रेखास्थानि तत्र रेखा पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति परिपूर्णानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवतीत्यर्थः॥ ___ अथ तृतीयं पृच्छति-हेमंताणं' इत्यादि, 'हेमंताणं भंते ! तच्चं मासं काणक्खत्ता पंति' हेमन्तानां हेमन्त कालस्य भदन्त ! तृतीयं माघमासं कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति स्वास्तं गमनेन मासं परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, इस तरह ये चार नक्षत्र मिल कर हेमन्त काल के द्वितीय मास- पौष मास को क्षपित करते हैं ! 'तयाणं चउव्वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियष्ट' इस पौषमास के अन्तिम दिवस में चौबीस अंगुल अधिक पौरुषीरूप छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है। यही बात-'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाइं चत्तारि पयाई पोरिसी भवई' इस सूत्रद्वारा सूत्रकार ने पुष्टकी है-पाद पर्यन्त वर्तिनी सीमा का नाम रेखा है-इसमें रहे हुए चार पादों प्रमाण पौरुषी है-अर्थात् इस मास के अन्तिम दिन परिपूर्ण चार पाद प्रमाण पौरुषी होती है। - 'हेमंताणं भंते ! तच्च मासां कई णक्खत्ता णेति' हे भदन्त ! हेमन्तकाल का जो तृतीयमास माघमास है उसे कितने नक्षत्र अपने अस्तगमन द्वारा क्षपित करते રાતોને સમાપ્ત કરે છે. આ રીતે આ ચાર નક્ષત્ર મળીને હેમન્તકાળના બીજા માસ पोषभासने क्षपित (५३) ४२ छ. . 'तयाणं चउव्वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टई' मा पोषभासना मन्तिम દિવસે ચોવીસ આંગળ અધિક પૌરૂષીરૂપ છાયાથી યુક્ત થયેલ સૂર્ય પરિભ્રમણ કરે છે. मान पात-'तस्सणं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहदाई चत्तारि पयाई पोरिसी भवई' 20 सूत्र द्वारा सूत्रधारे पुष्ट ४२ छ-'पाद पर्यन्तवर्तिनी' सीभानु नाम ખા છે–આમાં રહેલા ચાર પાદ પ્રમાણ પૌરૂષી છે અર્થાત્ આ માસના અંતિમ દિવસે પરિપૂર્ણ ચાર પાદ પ્રમાણુ પૌરૂષી હોય છે. ___हेमंताणं भंते ! तच्चं मास कइ णक्खत्ता णे ति' 3 महन्त ! भन्तनारे त्रीन માહ માસ છે તેને કેટલા નક્ષત્ર પિતાના અસ્તગમન દ્વારા ક્ષપિત કરે છે? સમાપ્ત કરે છે? Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. २६ मासपरिसमापकनक्षत्र निरूपणम् 'गोमा' हे गौतम ! 'तिष्णि पुस्सो असिलेसा महा' पुष्योऽश्लेषा मघा एतानि त्रीणि नक्षत्राणि मासं परिसमापयन्ति, तत्र 'पुस्सो चउदस राई दियाई णेई' पुष्यनक्षत्रं चतुर्दश रात्रिदिवं माघमासस्य प्राथमिकानि नयति-परिसमापयति 'असिलेसा पण्णरस' अश्लेषानक्षत्रं माघमासस्य द्वितीयानि पञ्चदश रात्रिंदिवं नयति परिसमापयति 'महः एक' मघानक्षत्रं माघमासस्य चरममेकं रात्रिंदिवं परिसमापयति, तदेवं मिलित्वा एतानि नक्षत्राणि माघमासं परिसमापयतीति । ' तयाणं वीर्संगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियह' तदा माघमासस्य चरमदिवसे विंशत्यगुलपौरुष्या- विंशत्यङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते, एतदेव दर्शयति- 'तस्स णं मासस्स' इत्यादि, 'तस्सणं मासस्स जे से चरिमे दिवसे' तस्य खलु माघमासस्य योऽसौ चरमो दिवसः - पर्यन्त दिनम् 'तंसि च णं दिवसंसि तिष्णि पयाई अर्द्धगुलाई पोरिसी भव' तस्मिंश्च खलु चरमे दिवसे त्रीणि पदानि अष्टौ चाङ्गुलानि पौरुषो भवतीति । अथ चतुर्थं पृच्छति- 'हेमंतान' इत्यादि, 'हेमंताणं भंते ! चउत्थं मासं कइणक्खत्ता हैं ? समाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! तिण्णि पुस्सीअसिलेसा, महा' हे गौतम ! तीन नक्षत्र माघ मास के परिसमापक होते हैं ये तीन नक्षत्र पुष्य, अश्लेषा और मघा है, इनमे 'पुस्सो चउद्दसरा इंदियाई जेह' पुष्य नक्षत्र माघ मास के १४ दिनों को क्षपित करते हैं 'असिलेसा पण्णरस' अश्लेषा नक्षत्र माघमास के १५ दिनों को समाप्त करते हैं 'महा एक' और मघा नक्षत्र माघमास के एक दिन रात को समाप्त करता है। इस प्रकार से ये नक्षत्र माघमास के परिसमापक होते हैं । 'तपाणं वीसंगुल पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियह' इस माघ मास के अन्त के दिन बीस अंगुल अधिक पौरूपौरूषी छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है इसी बात की पुष्टि 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिष्णि पयाई अहंगुलाई पोरिसी भवई' सूत्रकार ते इस सूत्र द्वारा की है अर्थात् इस मास के अन्त के दिन आठ माना भवामभां प्रभु डे छे- 'गोयमा ! तिष्णि पुत्सो असिलेसा महा' हे गौतम! त्र નક્ષત્ર માઢુ માસના પરિસમાપક હાય છે આ ત્રણુ નક્ષત્ર પુષ્પ, અશ્લેષા અને મઘા छे भां' पुरसो चउदस राई दियाई णेइ' पुष्य नक्षत्र भाडु भासना १४ दिवसाने सभासं ४२ ४ 'असिलेसा पण्णरस' अद्वेषा नक्षत्र भाडभासना १५ दिवसाने समाप्त रे . 'महा एकं' भने भधा નક્ષત્ર મહામાસના ૧ દિવસ-રાતને સમાપ્ત કરે છે. આ પ્રકારે या त्रये "नक्षत्र भडाभासना परिसभा होय हे 'तयाणं वीस गुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदृइ' मा भाडभासना छेहला दिवसे २० आंगण अधिक पौ३षो३य छायाथी युक्त थयेस सूर्य परिभ्रमण मेरे छे. मान तनुं समर्थन 'तरसणं मासस्स जे से रिमे दिवसे तंसि च णं दिवस सि तिणि पयाई अहंगुलाई पोरिसी भवई' सूत्रठारे या સૂત્ર દ્વારા કરેલુ છે અર્થાત્ આ માસના અન્તિમ દિવસે આઠ આંગળ અધિક ત્રિપા Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ Mara ति' हेमन्तानां हेमन्तकालस्य भदन्त ! चतुर्थ फाल्गुनलक्षणं मासं कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति स्वास्तं गमनेन मासं परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिष्णि णक्खत्ता र्णेति' त्रीणि नक्षत्राणि फाल्गुनमासं नयन्ति - परिसमापयन्ति, कानि तानि तत्राह - 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'महा पुन्वा फग्गुणी उत्तराफग्गुणी' मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी, तत्र - ' महाचउदसरा इंदियाई इ' मघा नक्षत्रं चतुर्दश रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति 'पुत्रा फल्गुणी पण्णरसराईदियाई r' पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं फाल्गुनमासस्य पञ्चदश रात्रिंदिवं नयति - परिसमापयति 'उत्तराफग्गुणी एर्ग राई दियं णेइ' उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र फाल्गुनमासस्य चरममेकं रात्रिं - दिवं नयति - परिसमापयति, तदेवं मिलित्वा एतानि त्रीणि नक्षत्राणि हेमन्तकालस्य चतुर्थ फाल्गुनमासं परिसमापयन्तीति । ' तयाणं सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्ट तदा खल चरमदिवसे षोडशाङ्गुलपौरुष्या छायया सूर्योऽनु पर्यटते - अनुपरावर्तते, एतदेव अंगुल अधिक त्रिपदा पौरूषी होती है । 'हेमंताणं भंते ! चउत्थं मासं कइ णक्ख'ताति' हे भदन्त ! हेमन्तकाल के चतुर्थमास रूप फाल्गुनमास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! तिण्णि क्खता ति' हे गौतम ! तीन नक्षत्र फाल्गुन मास को समाप्त करते हैं'तं जहा' वे नक्षत्र ये हैं 'महा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी' मघा, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी इनमें 'महा चउद्दस राहंदियाई णेइ' मघा जो नक्षत्र है वह फाल्गुनमास के १४ अहोरातों को समाप्त करता है 'पुव्वा फग्गुणी पण्णरसराई दियाई' पूर्वा फाल्गुनी १५ अहोरातों को समाप्त करता है और 'उत्तराफग्गुणी एगं राईदियं णेइ' उत्तराफाल्गुनी एक दिनरात को समाप्त करता है इस तरह ये तीन नक्षत्र मिल कर हेमन्तकाल के फाल्गुनमास को समाप्त करते हैं । 'तयाणं सोलसंगुल पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियहद्द' इस फाल्गुन मास के अन्तिम दिन में सोलह अंगुल अधिक पौरुषी रूप छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण पोषी हाय छे. 'हेमंताणं भंते ! वउत्थं मास कइ णक्खत्ता नेति' हे महन्त ! डेभन्तઢાળના ચોથા માસ રૂપ ફાલ્ગુનમાસને કેટલાં નક્ષત્ર પરિસમાપ્ત કરે છે ? એના જવાબમાં अनु ४ छे - 'गोयमा ! तिष्णि णक्खत्ता णें ति' हे गौतम! ऋणु नक्षत्र गुनभासने सभास रैछे- 'तं जहा' ते नक्षत्राप्रमाणे छे 'महा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तरा फग्गुणी' भधा पूर्वाशनी भने उत्तराहिगुनी मां 'महा चउदस र इंदियाई णेइ' भधा ने नक्षत्र के भासना १४ दिवस- राताने समास ४२ छे 'पुव्वा फग्गुणी पण्णरस राईदियाई': पूर्वाशगुनी १५ मोतीने समाप्त हरे छे भने 'उत्तराफग्गुणी एगं रोइंदियं णेइ' उत्तराફાલ્ગુની એક દિવસરાતને સમાપ્ત કરે છે આ રીતે ત્રણુ નક્ષત્ર મળીને હેમન્તકાળના शुभासने सभाम हरे थे. 'तयाणं सोलस गुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियड' या Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् ४३७ दर्शयति-'तस्सणं मासस्स जे से चरमे दिवसे' तस्य खलु मासस्य योऽसौ चरमो दिवस: 'तंसि च णं दिवसंसि' तस्मिंश्च खलु चरमे दिवसे 'तिणि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ' जीणि पदानि चत्वारि चागुलानि पौरुपी भवतीति गतो हेमन्तकालः॥ अथानन्तरं ग्रीष्म पृच्छति-'गिम्हाणं भंते ! पढम' इत्यादि, 'गिम्हाणं भंते ! पढम मासं कइणक्खत्ता ऐति' ग्रीष्माणां ग्रीष्मकालस्य खलु भदन्त ! प्रथमं चैत्रलक्षणं मासं कतिकियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति स्वास्तं गमनेन-परिसमाप यन्तीति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिणि णक्खत्ता ऐति' त्रीणि नक्षत्राणि ग्रीष्मकालस्य प्रथमं मासं नयन्ति-परिसमापयन्ति 'तं जहा' तद्यथा-'उत्तरा फग्गुणी इत्यो चित्ता' उत्तराफाल्गुनी हस्तश्चित्रा च, तत्र 'उत्तराफग्गुणी चउद्दस राईदियाई णेइ' उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं ग्रीष्मकालिकप्रथमचैत्रमासस्य प्राथमिकानि चतुर्दश रात्रिंदिवं नयतिस्वास्तं गमेन परिसमापयति, 'हत्थो पण्णरस राईदियाई णेइ' हस्तनक्षत्रम्, चैत्रमासस्य करता है। यही बात 'तस्स णं मासस्स जे से चरमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिणि पयाइं चतारि अंगुलाई पोरिसी भवई' इस सत्र मारा स्पष्ट की गई है कि फाल्गुन मास के अन्तिमदिन चार अंगुल अधिक विपदा पौरुषी होती है। "गिम्हाणं भंते ! पढमं मासं कह णक्खसा णेति' हे भदन्त ! ग्रीष्मकाल के प्रथममास को-चैत्रमास को कितने नक्षत्र समाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! तिन्नि णक्खत्ता ऐति' हे गौतम ! तीन नक्षत्र समाप्त करते हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'उत्तराफरगुणी हत्थो चित्ता' उत्तरा फाल्गुनी, हस्त और चित्रा इनमें 'उत्तरा फल्गुणी चउद्दसराइंदियाइं णेइ' उत्सरा फाल्गुनी नक्षत्र ग्रीष्म काल के प्रथम मास चैत्रमास के चौदह अहोरातों को समाप्त करता है 'हत्थो पण्णरस राइंदियाई णेह' हस्त नक्षत्र चैत्रमास के १५ ફાગણમાસના છેલ્લા દિવસે સોળ આંગળ અધિક પૌરૂષીરૂપ છાયાથી યુક્ત થયેલ સૂર્ય परिश्रम ४२ छ. मा त 'तस्सणं मासस्स जे से चरमे दिवसे संसि च णं दिवससि तिण्णि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवई' से सूत्र बा२। २५ट ४२वामा भावी ફાગણમાસના અંતિમ દિવસે ચાર આંગળ અધિક ત્રિપદા પૌરૂષી હોય છે. ___'गिम्हाणं भंते ! पढमं मास कइ णक्खत्ता ऐति' ३ महन्त ! श्रीमान प्रथम भास२-थैत्रमास ४८ नक्षत्र समास ४२ छ ? मान ४ममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! तिन्नि णक्खत्ता ऐति' गौतम ! नक्षत्र समास ४२ छे. 'तं जहा' तमना नाम । प्रारे -'उत्सराफगुणी हत्थो चित्ता' 6त्तगुनी त भने यि सभा 'उतराफग्गुणी चउद्दमराईदियाई णेई' उत्त।शुनी नक्षत्र श्रीमाना प्रथम भास थैत्रमासनी यो मारातान समास ४२ छ. 'हत्थो पण्णरस राइंदियाई णेइ' त नक्षत्र 3 भासनी १५ अडावियाने समास ४२ छे 'चित्ता एगं राइदियं णेई' भने यि नक्षत्र क्षेत्रमासा Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रक्षप्तिसूत्रे माध्यमिकानि पञ्चदश रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति 'चित्ता एगं राइंदियं णेई' चित्रानक्षत्रं चैत्रमासस्य चरममेकं रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति चित्रानक्षत्रेण परिसमापनकारणादेव अस्य मासस्य चैत्रमिति नाम भवति, तयाणं दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणु. परियट्टई' चैत्रमासे खलु द्वादशाङ्गुलपौरुष्या-द्वादशाङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योsनुपर्यटते-अनुपरावर्तते । एतदेव दर्शयति-तस्सणं मासस्स' इत्यादि, 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे' तस्य खलु चैत्रमासस्य योऽसौ चरमो दिवस:-पर्यन्तदिनम् 'तंसि च ण दिवसंसि लेहटाई तिणि पयाई पोरिसी भवई' तस्मिश्च खलु चैत्रमासस्य चरम दिवसे रेखा स्थानि रेखापादपर्यन्तवत्तिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति इति ।। द्वितीयं मासं पृच्छति-'गिम्हाणं' इत्यादि, 'गिम्हाणं भंते ! दोच्चं मासं कति णक्खत्ता ऐति' ग्रीष्माणां ग्रीष्मकालस्य भदन्त ! द्वितीयमासं कति नक्षत्राणि-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति स्वास्तंगमनेन परिसमापयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, अहोरातों को समाप्त करता है 'चित्ता एवं राइंदियं णेई' एवं चित्रा नक्षत्र चैत्र मास के एक दिनरात को समाप्त करता है यह चित्रा नक्षत्र के द्वारा समाप्त किया जाता है इसी कारण इस मास का नाम चैत्र मास हुआ है 'तयाणं दुवालसंगुल पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियइ' इस चैत्रमास का जो अन्तिम दिवस होता है उस दिवस में १२ अंगुल अधिक पौरुषी छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है इसी बात को 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिव. संसि लेहट्ठाइं तिणि पयाई पोरिसी भवई' इससूत्र द्वारा विशदरूप से स्पष्ट किया गया है-कि इस चैत्रमास का जो अन्तिम दिवस होता है उस दिन परिपूर्ण तीन पद वाली पौरुषी होती है। ____ 'गिम्हाणं भंते ! दोच्चं मासं कह णक्खता णेति' हे भदन्त ! ग्रीष्मकाल जो द्वितीय मास वैशाख मास है उसे कितने नक्षत्र समाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तिणि णवत्ता णे ति' हे गौतम ! ग्रीष्मकाल એક દિવસરાતને સમાપ્ત કરે છે. આ ચિત્રા નક્ષત્ર દ્વારા સમાપ્ત થતું હોવાના કારણે આ भास थैत्रमासनु नाम आपामा भायु छे. 'तयाणं दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ' २॥ यत्रभासने रे अतिम हिक्स डाय छे ते हिवसे १२ in अधिर पौ३०३५ छायाथी युद्धत थये सूर्य परिश्रम ४२ छ. २मा ४ीतने 'तस्सणं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवस सि लेहटाई तिण्णि पयाई पोरिसी भवई' આ સૂત્ર દ્વારા વિશદ રૂપથી સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે કે-આ ચિત્રમાસને છેલ્લે દિવસ डाय छे ते हिवसे परिपूर्ण त्रय पवाजी पौ३५डाय छे 'गिम्हाणं भंते ! दोच्चं मास कइ णक्खत्ता ऐति' मन्त! श्रीमान २ भी मास शाम छ तर खi नक्षत्र समास रे छान नाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! तिणि गक्खता णेति' Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिष्णि णक्खत्ता ति' त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति परिसमापयन्ति, तानि कानि त्रीणि नक्षत्राणि तत्राह - ' तं जहा ' इत्यादि, 'त जहा ' तद्यथा - 'चित्ता साई faucet' चित्रा स्वाती विशाखा, 'चित्ता चउदस राईदियाई णे३' चित्रानक्षत्रं ग्रीष्मकालिकद्वितीयस्य वैशाखमासस्य प्राथमिकानि चतुर्दश रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति 'साई पणरस राई दियाई णेई' स्वाती नक्षत्रं वैशाखमासस्य माध्यमिकानि पञ्चदश। त्रिंदिवं नयति परिसमापयति 'विसाहा एवं राई दिवं णेइ' विशाखा नक्षत्रं वैशाखमासस्य चरममेकं रात्रिंदिवं नयति - परिसमापयति तदेवानि त्रीणि चित्रा स्वाती विशाखानक्षत्राणि मिलित्वा वैशाखमासं परिसमापयन्ति तएव विशाखया परिसमापना दस्य मासस्य वैशाख इति नाम भवति । 'art अहंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियहद्द' तदा वैशाखमा से खलु अष्टाङ्गुलपौरुष्या छाया सूर्योऽनुपर्यटते - अनुपरावर्तते इत्यर्थः । एतदेव दर्शयति- 'तस्स णं मासस्स' इत्यादि, 'तस्स णं मासस्स जे से चरिपे दिवसे' तस्य खलु वैशाखमासस्य योऽसौ चरमः के द्वितीय मास वैशाख मास को तीन नक्षत्र समाप्त करते हैं 'तं जहा' उन नक्षत्रों के नाम इस प्रकार से हैं- 'चित्ता, साई, विसाहा' चित्रा, स्वाति और विशाखा, इसमें 'चित्ता चउद्दस राईदियाई णेइ' चित्रा नक्षत्र ग्रीष्मकाल के वैशाख मास के प्राथमिक १४ रातदिनों को समाप्त करता है 'साई पण्णरस इंदियाई इ' स्वाति नक्षत्र वैशाख मास के माध्यमिक १५ दिनों को समाप्त करता है 'विसाहा एग राईदिवं णेइ' और विशाखा नक्षत्र अन्त के एक दिनरात को समाप्त करता है इस तरह से ये तीन नक्षत्र मिलकर वैशाखमास को समाप्त करते हैं, विशाखा नक्षत्र द्वारा अन्त में परिसमाप्त होने के कारण इस मास का नाम वैशाख ऐसा हुआ है । 'तयाणं अड़ंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियह' वैशाखमास के अन्तिम दिन में आठ अंगुल अधिक पौरुषीरूप छाया से युक्त हुआ सूर्य परिभ्रमण करता है इसी अभिप्रायसे सूत्रकारने 'तस्स णं मासगौतम ! श्रीष्मणना जील भास वैशाणभासते त्र नक्षत्र समाप्त ४रे छे. 'तं जहा ' तेभना नाम या प्रमाणे छे - 'चित्ता साई विसाहा' चित्रा स्वाति ने विशाखा, भां 'चित्ता चउदस राईदियाई णेइ' चित्रा नक्षत्र श्री भाणना वैशाणभासना प्राथभिः १४ रातहिवसाने समाप्त हुरे छे. 'साई पण्णरस राईदियाई णेइ' स्वाति नक्षत्र वैशामना माध्यमिक १५ दिवसाने समाप्त ४रे छे. 'विसाहा एगं राई दिवं णेइ' भने विशामाना નક્ષત્ર અન્તના એક દિવસરાતને સમાપ્ત કરે છે. આ રીતે આ ત્રણ નત્ર મળીને વૈશાખમાસને પરિસમાપ્ત કરે છે, વિશાખા નક્ષત્ર દ્વારા અન્તમાં પરિસમસ હોવાના કારણે આ માસનું નામ વૈશાખ એ પ્રમાણે થયુ છે. ' तयाणं अहंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ' वैशामभासना अन्तिम हिवसे या सांगण अधिक पो३षी३५ छायाथी युक्त थयेस सूर्य परिभ्रमण :रे छे, या अभिप्रायथी न सूत्ररे 'तस्स' णं मासस्स जे से ४३९ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे पर्यन्तवर्ती दिवसः 'तमि चणं दिवसंसि दोपयाई अटुंगुलाई पोरिसी भवइ' तस्मिंश्च खलु दिवसे द्वे पदेऽष्टाङ्गुलानि पौरुषी भवतीति । 'गिम्हाणं भंते ! तच्चं कति णवत्ता मेंति' ग्रीष्माणां ग्रीष्मकालस्य भदन्त ! तृतीयं ज्येष्ठ लक्षणं मासं कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति स्वास्तं गमनेन परिसमापयन्ति इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि णक्खत्ता गृति' चत्वारि-चतुःसंख्यकानि नक्षत्राणि ग्रीष्मकाल तृतीयमासं परिसमापयन्ति तानि कानि चत्वारि नक्षत्राणि तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा 'विसाहा अणुराडा जेट्टामूलो' विशाखा अनुराधाज्येष्टामूलच एतानि चत्वारि नक्षत्राणि मिलित्वा ज्येष्ठमासं परिसमापयन्ति 'विसाहा चउद्दस राइंदियाई' तत्र विशाखा नक्षत्रं ज्येष्ठमासस्य प्राथमिकानि चतुर्दश रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति 'अणुराहा अट्ठराईदियाई णेई' अनुराधानक्षत्र ज्येष्ठमाससम्बन्धिनोऽष्टौ रात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति 'जेठा सत्त. राइंदियाइं इ' ज्येष्ठानक्षत्रं ज्येष्ठमासस्य सप्त रात्रिदिवं नयति-परिसमापयति, तदेतानि, स्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाइं अटुंगुलाई पोरिसी भवइ । उस मास का जो अन्त का दिवस है उस अन्तिम दिवस में अष्ट अंगुल अधिक विपदा पौरुषी होती है ऐसा कहा है। 'गिम्हाणे भंते ! तच्च मासं कह णवत्ता णे ति' हे भदन्त ! ग्रीष्मकाल के तृतीय मास को-ज्येष्ठ मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि णक्खता णेति' हे गौतम ! चार नक्षत्र ज्येष्ठ मास को परिसमाप्त करते हैं 'तं जहा उन नक्षत्रों के नाम इस प्रकार से हैं 'विसाहा, अणुराहा, जेट्टा, मूलो,' विशाखा, अनुराधा ज्येष्ठा और मूल, इनमें 'विसाहा चउद्दस राई दियाई' विशाखा जो नक्षत्र है वह ज्येष्ठमास के प्राथमिक १४ दिन रातों को समाप्त करता है, 'अणुराहा अट्टराई दियाइं णेई' अनु राधा नक्षत्र ज्येष्ठमास के माध्यमिक आठ दिन रातों को समाप्त करता है, 'जेट्टा सत्तराई दियाई णेइ' ज्येष्ठा नक्षत्र सात दिन रातों को समाप्त करता है 'मूलो परिमे दिवसे तसि च णं दिवस सि दो पयाइं अट्रंगुलाई पोरिसी भवइ' ते मासनाdean દિવસ છે તે છેલ્લા દિવસે આઠ આંગળ અધિક દ્વિપદા પૌરૂષી હોય છે એ પ્રમાણે કહેલ છે. 'गिम्हा णं भंते ! तच्चं मासं कइ णक्खत्ता णे ति' 8 मत! श्रीमान तृतीयभासने-28-320 नक्षत्र परिसमा ४२ छ ? माना उत्तरमा प्रभुई छ-'गोयमा। पत्तारि णवत्ता ऐति' 3 गोतम ! यार नक्षत्र मासने परिसमास ४२ छ 'तं जहा। ते नक्षत्राना नाम 40 प्रमो छ-'विसाहा अणुराहा, जेट्ठा, मूलो' (श अनुराधा ज्ये अने भूग, मामा ‘विताहा चउद्दस राइंदियाई विशारे नक्षत्र छ ते २४मासना प्रायभि: १४ हिसतान समास ४२ छे. 'अणुराहा अट्टराइंदियाई णेई' अनुराधा नक्षत्र ये भासना भाष्यभि६ मा ६५स तान समास ४२ छ, 'जेट्ठा सत्तराइंदियाई गई Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स्. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम्। ४४५ चत्वारि विशाखाऽनुराधा ज्येष्ठा मूलनक्षत्राणि मिलित्वा ज्येष्ठमासं परिसमापयन्तीति । 'तयाणं चउरंगुळपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ' तदा ज्येष्ठमासे खलु चतुरङ्गुलपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपर्यट ते एतदेव दर्शयति-तस्सणं' इत्पादि, 'तस्सणं मासस्स जे से चरिमे दिवसे' तस्य खलु ज्येष्ठमासस्य योऽसौ चरमः पर्यन्तवति दिवसः 'तंसि च णं दिवसंसि दोपयाइं चत्तारि य अंगुलाई पोरिसी भवइ' तस्मिश्च खलु दिवसे द्वे पदे चत्वारि चाङ्गुलानि पौरुषी भवतीति । अथ चतुर्थ पृच्छति-गिम्हाण' इत्यादि, 'गिम्हाणं भंते ! चउत्थं मासं कइणक्खत्ता ऐति' ग्रीष्माणां ग्रीष्मकालस्य भदन्त ! चतुर्थ माषाढमा कति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि नयन्ति स्वास्तं गमनेन परिसमायन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! एगं राइदियं णेई' मूल नक्षत्र ज्येष्ठमास के अन्त के एक रातदिन को समाप्त करता हैं। इस तरह से ये विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र ज्येष्ठ मास के परिसमापक कहे गये हैं 'तयाणं चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदृइ' इस ज्येष्ठ मास के अन्तिम दिन में चार अंगुल अधिक पौरुषी से युक्त हआ सूर्य परिभ्रमण करता है। इसी बात को 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई चत्तारि य अंगुलाई पोरिसी भवई' प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने यह सूत्र कहा है, इसमें इस बात का पोषण किया है कि ज्येष्ठ मास अन्त के दिन में पौरुषी का प्रमाण चार अंगुल अधिक दो पद रूप होता है। _ 'गिम्हा णं भंते ! चउत्थं मासं कह णक्खत्ता ऐति' हे भदन्त ! ग्रीष्मकाल का जो चतुर्थमास आषाढमास है उसे कितने नक्षत्र अपने उदय के अस्तंगमन द्वारा परिसमाप्त करते हैं ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तिण्णि ये नक्षत्र सात हवस रातोn समास ४२ छे. 'मूलो एगं राइंदियं णेई' भूद नक्षत्र જયેષ્ઠમાસના છેલ્લા એક દિવસ રાતને સમાપ્ત કરે છે. આ રીતે, આ વિશાખા, અનુરાધા, ये। मने भूत नक्षत्र न्ये भासना परिसमा५४ उडेवामा माया छ-'तयाणं चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदइ मा २४मासना मन्तिम हिसे यार मा अघि यौपाथी युत थये सूर्य परिसभर ४२ छ. मा४ वस्तुने 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई चत्तारिय अंगुलाई पोरिसी भवई' ५४८ ४२पाना આશયે સૂત્રકારે પ્રસ્તુત સૂત્ર કહેલ છે જેમાં એ હકીકતની પુષ્ટી કરવામાં આવી છે કે જ્યેષ્ઠ માસના અંતિમ દિવસે પરૂષીનું પ્રમાણ ચાર આંગળ અધિક બે પદ રૂપ હોય છે, 'गिम्हाणं भंते ! चउत्थं मासं कइ णक्खत्ता णेति' 3 महन्त ! श्रीमन यतुर्थ - માસ જે અષાઢમાસ છે તેને કેટલા નક્ષત્ર પિતાના ઉદયન અસ્તવમન દ્વારા પરિસમાસ २ छ १ थान मा प्रभु -'गोयमा ! सिविण णवत्ता में नि' गौतम ! Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्ति तिणि णक्खत्ता ऐति' त्रीणि नक्षत्राणि आषाढमासं नयन्ति परिसमापयन्ति, तानि कानि त्रीणि नक्षत्राणि यानि ग्रीष्मकालिकनत्तुर्थ मासं परिसमापयन्ति तत्राह-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'मूलो पुव्वासाढा उत्तरासाढा' मूलः पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, इत्येतानि प्रीणि मूल पूर्वाषाढा उत्तराषाढा लक्षणानि नक्षत्राणि चतुर्थशसं परिसमापयन्ति, तत्र 'मूलो चउद्दस राईदियाई इ' मूलनक्षत्रं चतुर्दशरात्रिंदिवं नयति-परिसमापयति 'पुव्वासाढा पण्णरस राइंदियाई णेई' पूर्वाषाढा नक्षत्र माषाढमासस्य माध्यमिकानि पञ्चदशरात्रिदिवं नयतिपरिसमापयति 'उत्तरासाढा एगं राइंदियं णेइ' उत्तराषाढा नक्षत्रमाषाढमासस्य चरममेकं रात्रिदिवं नयति-परिसमापति, एलानि ग्रीष्मकालिक चत्वारि अपि सूत्राणि सरलान्येव प्रायः पूर्वे पूर्वसूत्रानुसारित्वात् केवल माषाढमासे यद्वैलक्षण्यं तत्स्वयमेव दर्शयितुमाह-'तयाणं' इत्यादि, 'तयाणं वहाए समचउरंससंठाणसंठिाए एग्गोहपरिमंडलाए सकायमणुरंगियाए छायाए सुरिए अणुपरियट्टइ' तदा आषाढमासे हलु वृत्तया समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलया स्वकायमनुरंगिन्या छाश्या सूर्योऽनुपर्यटले, अयं भावः तस्मिन् आषाढ. णक्खत्ता णेति' हे गौतम ! आषाढ मासको तीन नक्षत्र अपने उदय के अस्तं. गमन द्वारा परिसमाप्त करता है 'तं जहां उन नक्षत्रों के नाम इस प्रकार से हैं 'मूलो, पुव्वासाढा, उत्तराखाढा' मूल नक्षत्र, पूर्वाषाढा नक्षत्र और उत्तराषाढा नक्षत्र, इनमें 'मूलो चउद्दसराईदियाइं इ' मूल जो नक्षत्र है वह आषाढमास के प्राथमिक १४ रात्रि दिवसों को अपने उदय के आस्तंगमन द्वारा परिसमाप्त करता है 'पुन्वासाढा पण्णरस राइंदियाइं णेई' पूर्वाषाढा नक्षत्र आषाढमास के माध्यमिक १५ रात्रि दिनों को परिसमाप्त करता है और 'उत्तरामाढा एगं राइंदियाइं णेई' उत्तराषाढा नक्षत्र आषाढ मास के अन्त के एक दिनरात को परिसमाप्त करता है। इस प्रकार से ये तीन नक्षत्र आषाढमास के तीस दिनरातों को समाप्त करते हैं। आषाढमास के अन्त के दिन में 'तयाणं समचउरंज संठागसंठियाए णगो. हपरिमंडलाए सकायमणुरंगियाए छायाए मूरिए अणुपरियट्टह' समचतुरस्र अषाढमासन त्र नक्षत्र पोताना यन! मस्तरामन द्वारा परिसमास ४३ छे, 'तं जहा ते नक्षत्रानो नाम मा प्रमाणे छ-'मूलो पुवासाढा, उत्तरासाढा' भू नक्षत्र पूर्वाषाढा नक्षत्र भने उत्तराषाढा नक्षत्र, मां 'मूलो चउद्दस राइंदियाई णेई' भूसरे नक्षत्र छे ते सपाट માસના પ્રાથમિક ૧૪ રાત દિવસેને પિતાના ઉદયના અસ્ત મન દ્વારા પરિસમાપ્ત કરે છે. 'पुव्वासाढा पण्णरस राई दियाइं णेई' पूर्वाषाढा नक्षत्र अषाढमासना मायाम1५२रात हिक्सान परिसमास ४२ छ भने 'उत्तरासाढा एगं राइंदियाई णेई' उत्तराषाढा नक्षत्र અષાઢમાસના છેલ્લા એક દિવસ રાતને સમાપ્ત કરે છે. આ રીતે આ ત્રણ નક્ષત્ર અષાઢभासना त्रीस हसताने समास रे छे. अषाढमासन मन्तना हिवसे 'तयाणं समचउरंस संठाण सठियाय णगोहपरिमंडलाए सकायमणुरंगियाए छायाए सूरिए अगुपरिया' Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २६ मासपरिसमापकनक्षत्रनिरूपणम् मास प्रकाश्यवस्तुनो गोलाकारस्य वृत्तया समचरस संस्थितस्य प्रकाश्यवस्तुनः समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानस्य प्रकाश्यवस्तुनो न्यग्रोधपरिमण्डलया उपलक्षणमेतत् शेषसंस्थानसंस्थितस्थ प्रकाश्यवस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थितया छायया, आषाढमासे हि प्रायः सर्वस्यापि प्रकारश्यस्य वस्तुजातस्य, दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयतः पुनराषाढमासस्य चरमदिवसे तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे वर्तमाने सूर्ये ततो यत् प्रकाश्यं वास्तुजातं यादृश संस्थानकं भवति तस्य वस्तुनः छायाऽपि तादृश संस्थानयुतैव जायते अतएव कथितं सूत्रे वृत्तस्य वस्तुनो वृत्तया छायया इत्यादि, एतदेव दर्शयति स्वकायमनुरंगिन्या इत्यादि, स्वस्य-सकीयस्य छाया कारणस्य वस्तुजातस्य कायः शरीरं स्वकायः तमनुरज्यते इत्येवंशीला अनुरंगिनी तया स्वकायमनुरंगिन्या छायया सूर्योऽनुपर्यटते प्रतिदिवसं परावर्त अर्थात् आषाढमासस्य प्राथमिक दिवसादारभ्य प्रतिदिवस संस्थान से युक्त-गोलाकार थाली एवं न्यग्रोधपरिमंडलवाली जो प्रकाश्यवस्तु है अथवा और भी कोई संस्थानवाली जो प्रकाश्यवस्तु है उस वस्तु की अनुरूप छाया से युक्त, हुआ सूर्य परिभ्रमण करता हैं, इसका तात्पर्य ऐसा है कि आषाढमास में प्रायः समस्त प्रकाश्य वस्तुओं की छाया दिन के चतुर्थभाग में अथवा अतिक्रान्त हुए शेष भाग में अपने प्रमाणवाली होती है निश्चयनय की अपेक्षा आषाढमास के अन्तिम दिन में उसमें भी जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल में वर्तमान रहता है तब जिस प्रकाश्य वस्तु का जैसा संस्थान होता है उस वस्तु की छाया भी उसी संस्थानवाली होती है इसीलिये सूत्र में ऐसा कहा गया है कि गोल वस्तु की छाया भी गोल ही होती है इत्यादि, यही बात सूत्रकार ने 'सकाय. मणुरंगियाए' पद द्वारा स्पष्ट की है स्वकाय शब्द से यहां प्रकाश्य वस्तु का शरीर-पिण्ड लिया गया है, उसे अनुरंजित करने वाली जो छाया है वह स्वकाय अनुरंगिनी छाया ऐसी छाया से सूर्य उस वस्तु को प्रकाशित करता है इस तरह સમચતુરસ સંસ્થાનથી યુક્ત–ળાકારવાળી–અને ન્યધ પરિમંડળવાળી જે પ્રકાશ્ય વસ્તુ છે અથવા બીજી પણ કોઈ સંસ્થાનવાળી જે પ્રકાશ્ય વસ્તુ છે તે વસ્તુની અનુરૂપ છાયાથી યુક્ત થયેલ સૂર્ય પરિભ્રમણ કરે છે, આનું તાત્પર્ય એ છે કે અષાઢમાસમાં પ્રાયઃ સમસ્ત પ્રકાશ્ય વસ્તુઓનો પડછાયો દિવસના ચોથા ભાગમાં અથવા અતિક્રાન્ત થયેલા બાકીના ભાગમાં, તેમાં પણ જ્યારે સૂર્ય સર્વાભ્યનરમંડળમાં વર્તમાન રહે છે ત્યારે જે પ્રકાશ્ય વસ્તુની જેવી આકૃતિ હોય છે (આકાર હોય છે, તે વસ્તુને પડછાયે પણ તેજ આકારવાળે હોય છે આથી જ સૂત્રમાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે ગેળ વસ્તુને ५७.ये। ५गण हाय छ यहि, मास बात सूत्ररे-'सकायमणुरंगियाए' ५४ द्वारा સ્પષ્ટ કરી છે. સ્વાય શબ્દથી અહીં પ્રકાશ્ય વસ્તુનું શરીર-પિણ્ડ લેવામાં આવ્યું છે, તેને અનુરંજિત કરવાવાળો જે પડછાયે તે વકાય અનુરંગિની છાયા આવા પડછાયાથી Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मन्यान्यमण्डलसंक्रान्त्या तया कथंचनापि सूर्यः परावर्तते यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषेवा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवति इति । अत्र विशेषतो यद्वक्तव्यं तत् स्थलान्तरे करिष्यामीति । ' तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे' तस्य ग्रीष्मकालिकचतुर्थमासस्य थोऽसौ चरमो दिवसः 'तंसि चणं दिवसंसि लेहडाई दो पयाई पोरिसी भवइ' तस्मिंश्च खलु चरम दिवसेरेखा स्थानानि द्वेपदे पौरुषी भवतीति । 'एए सिणं पुन्ववणियाणं पयाणं इमा संगहणी' एतेषां खलु पूर्व वर्णितानां पदानामियं संग्रहकारिणो गाथा भवति 'तं जहा ' तद्यथा - 'जोगो देवय तारग्ग' योगः सम्बन्धो दैवतं देवता ताराग्रम्. 'गोत्तसंठाणचंद रविजोगो' गोत्रसंस्थानं चन्द्ररवियोग:, 'कुलपुण्णिम अवमंसा' कुलं देवता पूर्णिमा अमावास्या 'णेया छाया य बोद्धव्वा' नेतु छायाच बोद्धव्या ज्ञातव्येति व्याख्यात पूर्वयें गाथा अतो न पुनर्व्याख्यायते । इति षड्विंशतितमसूत्रम् । सू० २६।। કારણ आषाढमास के प्राथमिक दिवस से लेकर प्रतिदिन अन्य अन्य मंडल की संक्रान्ति द्वारा सूर्य इस प्रकार से परिभ्रमण करता है कि जिससे समस्त प्रकाश्य वस्तु की छाया दिवस के चतुर्भाग में अथवा अतिक्रान्त हुए शेष भाग में अपने आकार वाली और अपने प्रमाण वाली होती है। यहां विशेषणों से जो वक्तव्य है उसे स्थलान्तर में स्पष्ट किया जायेगा 'तस्स पण मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेह द्वाई दोपयाई पोरिसी भव' उस ग्रीष्मकाल के चतु मास के अन्त के दिन में पूर्णरूप से द्विपदा पौरुषी होती है। 'एएसि णं पुष्ववणि या घाणं इमा संगहणी गाहा' इन पूर्ववर्णित हुए पदों की यह संग्रहकारिणी गाथा है - ' जोगो देवय तारगं गोत्त ठाण चंदरविजोगो । कुल पुण्णिम अवमंसा या छाया य बोद्धव्वा ॥ १॥ इस गाथा का अर्थ पहिले कहा जाचुका है अतः पुनः यहां इस का अर्थ नहीं लिखा गया है ||२६|| સૂર્ય તે વસ્તુને પ્રકાશિત કરે છે. આ પ્રમાણે અષાઢમાસ પ્રાથમિક દિવસથી લઇને પ્રતિદિન અન્ય અન્ય મડળની સોંક્રાન્તિ દ્વારા સૂર્ય એ પ્રમાણે પરિભ્રમણ કરે છે કે જેથી સમસ્ત પ્રકાશ્ય વસ્તુના પડછાયા દિવસના ચોથા ભાગમાં અથવા અતિકાન્ત થયેલા શેષ ભાગમાં પેાતાના આકારવાળી અને પોતાના પ્રમાણવાળી ડાય છે. અહી વિશેષણેાથી જે वक्तव्य छे तेने स्थणान्तरभां स्पष्ट उरवामां आवशे. 'तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे सिणं दिवस हट्ठाई दोपयाई पोरिसी भवइ' ते श्रीभगणना थोथा भासना अन्तिम हिवसे पूर्णा३पथी द्वियहा पौ३षी होय छे 'एएसि णं पुव्ववणियाणं पयाणं इमा संगहणी गाहा' मा पूर्ववर्णित थयेला पहानी आ स श्ररिशी गाथा हे- 'जोगो देव य तारग्ग गोत संठाण चंद रवि जोगा । कुल पुण्णिम अवमंसा णेया छाया य बोद्धव्वा ॥१॥ २॥ गाथानो અ અગાઉ લખાઈ ગયા છે આથી પુનઃ અત્રે એને અ લખવામાં આવ્યેા નથી. ।૨૬। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. २७ विषयसंग्रहणगाथार्थं निरूपणम् मूलम् - हिट्ठि ससि परिवारो मंदरऽबाधा तहेव लोगंते । धरणितलाओ अबाधा अंतो बाहिं च उद्धमुहे |१| संठाणं च पमाणं वर्हति सीहगई इद्धिमता य । तारंतरग्ग महिसी तुडिय पहुठिई य अप्पबहू | २ अस्थि णं भंते ! चंदिमसूरियाणं हिट्टि पि तारा रूवा अंपि तुल्ला विसमेव तारा रूवा अणुं पितुल्ला वि उपि पि तारारूवा अणुं पितुल्ला वि ? हंता गोयमा ! तं चेत्र उच्चारेयव्वं, से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ, अत्थिणं० जहा जहा णं तेोस देवाणं तवनियमबंभचेराणि असियाई भवंति तहा तहाणं तेसि णं देवाणं एवं पण्णाय तं जहा - अणुते वा तुल्लत्ते वा जहा जहा णं तेसिं देवाणं तत्र नियम बंभचेराणि णो उसियाई भवंति तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं णो पण्णापए तं जहा - अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा । एगमेगस्स णं भंते ! चंदस्स केवइया महग्गहा परिवारो केवइया णक्खत्ता परिवारो केवइया तारागण कोडाकोडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो अट्ठावीस णक्खत्ता परिवारो छावट्टि सहस्साई णव सया पण्णत्तरा तारागण कोड कोडीओ पण्णत्ता, मंदरस्स णं भंते ! पव्त्रयस्स के इयाए अबाहाए जोइस चारं चरइ ? गोयमा । इक्कारसहिं इक्कवीसेहिं जोयणसएहिं अवाहाए जोइसं चारं चरइ । लोगंताओ पणं भंते! केव इया अवाहाए जोइसे पन्नत्ते ? गोयमा ! एक्कारसे एक्कारसेहिं जोयण ४४५ एहिं अबहाए जोइसे पण्णत्ते । धरणितलाओ णं भंते! सत्तहिं णउ - एहिं जो सहि जोइसे चारं चरइ ति एवं सूरविमाणे अटूसएहि, विमाणे अहिं असीएहिं उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोयणसएहिं चारं चरइ । जोइसस्स पर्ण भंते ! हेट्ठिल्लाओ तलाओ केवइयाए अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ ? गोयमा ! दसहिं जोयणेहिं अबाहाए चारं चरइ, एवं चंदविमाणे णउईए जोयणेहिं चारं चाइ उवरिल्ले तारारूवे दसुत्तरे जोयणसए चारं चरइ सूरविमाणाओ चंदुविमाणे Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुद्वीपप्राप्तिको असीईए जोयणेहिं चारं चरइ, सूरविमाणाओ जोयणसए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ चंदविमाणाओ वीसाए जोयणेहिं उवरिल्लेणं तारारूवे चारं चरइत्ति ॥सू० २७॥ छाया-अधः शशिपरिवारो मन्दराबाधा तथैव लोकान्तः । धरणितलादबाधा अन्तो बहिश्चोर्ध्वमुखम् ॥१॥ संस्थानं च प्रमाणं बहन्ति शीघ्रगतय ऋद्धिमन्तश्च तारान्तराग्रमहिष्यः तुडितं प्रभुःस्थितिचाल्पबहू ॥२॥ अस्ति खलु भदन्त ! चन्द्रसूर्याणा मधस्तना अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि समा अपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि उपर्यपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि ? हंत.गौतम ! तदेवोच्चारयितव्यम् । तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते अस्ति खलु यथा यथा खलु तेषां देवानां तपोनियमब्रह्मचर्याणि उच्छितानि भवन्ति तथा तथा खलु तेषां देवानामेवं प्रज्ञायते तद्यथा अणुत्वं वा तुल्यत्वं वा यया यथा खलु तेषां देवानां तपो नियम ब्रह्मचर्याणि नो उच्छ्रितानि भवन्ति तथा तथा तेषां देवानामेवं नो प्रज्ञायते तद्यथा अणुत्वं वा तुल्यत्वं वा । एकैकस्य खलु भदन्त ! चन्द्रस्य कियन्ती महाग्रहाः परिवारः कियन्ति नक्ष माणि परिवारः कियत्यस्तारागण कोटी कोटयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अष्टाशीतिमहाग्रहाः सहस्राणि नवशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि तारागणकोटीकोटयः प्रज्ञप्ताः । मन्दरस्य खल भदन्त ! पर्वतस्य कियत्या अबाधया ज्योतिषं चारं चरति? एकादशभिरेकविंशत्या योजनशतैरवाधया ज्योतिष्क प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! एकादशभिरेकादशभियोजनशतैरवाया ज्योतिष्क प्रज्ञप्तम् । धरणित शात् सलु भदन्त ! सप्तभि नश्तै यो अनशनैश्वारं चरति । एवं सूर्यविमाने अष्टभिः शतैः, चन्द्रवित्रानेऽभिरशीत्या, उपरितनं तारारूपं नाभियोजनशतेश्वारं चरति । ज्योतिष्कस्य खलु भदन्त ! अधस्तनात तलात् कियत्याऽबाधया सूर्यविमानं चारं चरति ? गौतम ! दशभिर्योजनैरवाधया चारं चरति । एवं चन्द्रविमानं नवत्या योजनेश्वारं चरति, उपरितनतारारूयं दशोत्तरै योजशतैश्वारं चरति । सूर्यविमानात् चन्द्रविमानम् अशीत्या योजन श्वारं चरति । सूर्यविमानाद् यो ननश ने उपरितनं तारारूपं चारं चरति । चन्द्रविमानाद् विंशत्या योजनै रुपरितनं तारारूपं चारं चरति ॥ इति सप्तविंशति सूत्रम् । सू० २७॥ टीका-प्रति-अस्मिन्नेवाधिकारे पोडशद्वाराणि आह-'हिद्धि' इत्यादि, तत्र-'हिर्टि' अधः-चन्द्रसूर्ययोरवः समपङ्क्तौ 'अणुं समंबा' इत्यादि वक्तव्यता द्वारम् प्रथमम् १ । 'अस्थि णं भंते ! चंदिम सूरियाणं' इत्यादि टीकार्थ-ईसी अधिकार में सूत्रकार ने जो १६ द्वार कहे हैं उनकी ये संग्रह अत्थिणं भंते ! चंदिम सूरियाणं' त्याहટકાથ–આજ અધિકારમાં સૂત્રકારે જે ૧૬ દ્વાર કહ્યાં છે તેમની આ સંગ્રહગાથાએ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २७ विषयसंग्रहगाथार्थनिरूपणम् 'ससिपरिवारो वक्तव्यः, द्वितीयद्वारम् २ । 'मंदरऽवाधा' मन्दरतोऽबाधाद्वारं तृतीयम् ३ । 'तहेव लोगंते' तथैव लोकान्ते, लोकान्त ज्योतिश्चन्द्रयोरबाधानामकं चतुर्थद्वारम् ४ । 'धरणितलाओ अबाधा' धरणितलादबाधेति पञ्चमद्वारम् ५ । 'अंतो बाहिं चोद्धमुहे' नक्षत्रम् अन्तः चारक्षेत्रस्याभ्यन्तरे किं बहिः किं चोर्ध्व किं चाधश्वरतीति वक्तव्यं तत् षष्ठं द्वारम् ६ । 'संठाणं' ज्योतिष्कविमानानां संस्थानं वक्तव्यमिति सप्तमं द्वारम् ७ । 'पमाणं' एतेषा मेव प्रमाणं वक्तव्यमित्यष्टमद्वारं च ८ । 'वहंति' चन्द्रादीनां विमानानि कियन्तो वहन्तीति वक्तव्यमिति नवमं द्वारम् ९ । 'सीहगई' एतेषां मध्ये के शीघ्रगतयः के मन्दगतयः, इति वक्तव्यं तत् दशमं द्वारम् १० । 'इद्धिमंता य एतेषां मध्ये अल्पद्धिमन्तो महर्द्धिमन्तश्चेति, वक्तव्यं तदेकादशं द्वारम् ११ । 'तारंतर' ताराणां परस्पर मन्तरं वक्तव्यं तद् द्वादशं द्वारम् १२। 'अगमहिसी' अग्रमहिष्यो वक्तव्या स्तत् त्रयोदशं द्वारम् १३ । 'तुडियबहू' तुटिकेन गाथाएं हैं इनमें यह प्रकट किया गया है कि चन्द्र और सूर्य के अधस्तन प्रदेश वर्ती ताराविमानों के कितनेक अधिष्ठायक देव हीन भी होते हैं और कितनेक सदृश भी होते हैं यह प्रथम द्वार है, शशि परिवार नामका द्वितीयद्वार है मन्दरा बाधा यह तीसरा द्वार है, लोकान्न नाम का चतुर्थद्वार है, धरणितलाबाधा नाम का पांचवां द्वार है, 'अंतो बाहिं चोद्धमुहे' नक्षत्र चार क्षेत्र के भीतर चलते हैं ? या बाहर चलते हैं ? या ऊपर चलते हैं ? या नीचे चलते हैं ? ऐसी वक्तव्यता वाला छठा द्वार है संस्थान नामका ९ वां द्वार है इस में ज्योतिष्क देवों के विमानों संबंधी संस्थान वक्तव्यता है। प्रमाण नामका ८ वां द्वार है। चन्द्रादिक देवों के विमानों को कितने देव वहन करते हैं ? इस प्रकार की वक्तव्यता वाला नौवां वहन द्वार है। शीघ्रगति नामका १० वां द्वार है कोन अल्पधि वाले हैं ? कौन महद्धिवाले हैं ऐसो यह ऋद्धिमान् नामका ११ वां द्वार है, तारंतर नामका १२ वा द्वार है। अग्रमहिषी नामका १३ वां द्वार है, 'तुडियवह' नामका १४ वां છે, એમાં એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે ચન્દ્ર સૂર્યના અધઃસ્તન પ્રદેશવતી તારા વિમાન નેનાં કેટલાંક અધિષ્ઠાયક દેવ હીન પણ હોય છે અને કેટલાક સટશ પણ હોય છે આ પ્રથમ દ્વાર છે, રાશિ પરિવાર નામનું બીજું દ્વાર છે. મંદિરા બાપા એ ત્રીજું દ્વાર છે. asti नामनु याथु बा२ छ, घरतिबाधा नाभनु पांय दार छे. 'अंतो बाहिं चोद्धमुहे' नक्षत्र या२नी १२ याले छ? मथवा म.२ या छ ? मथ! 6५२ यासे છે કે નીચે ચાલે છે? એવી વક્તવ્યતાવાળું છડું દ્વાર છે, સંસ્થાન નામનું સાતમું દ્વાર છે એમાં તિષ્ક દેવોના વિમાનની આકૃતિ વર્ણવવામાં આવી છે. પ્રમાણ નામનું આઠમું દ્વાર છે. ચન્દ્રાદિક દેવના વિમાનને કેટલા દેવ વહન કરે છે? આ જાતની વક્તવ્યતાવાળું નવમું વહન દ્વારા છે શીઘ્રગતિ નામનું દશમું દ્વાર છે કેણ અલ્પર્ધિવાળા છે ? કેણુમહર્તિવાળા છે? એવું આ અદ્ધિમાન નામનું અગીયારમું દ્વાર છે, તારંતર Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिम पर्यत्सास्त्री जनेन सह प्रभुः-भोगं कत्तुं समर्थश्चन्द्रादि नवेति वक्तव्यं तत् चतुर्दशं द्वारम् १४ । 'ठिईय' स्थिति रायुषो वक्तव्यता तत् पञ्चदशं द्वारम् १५ । 'अप्पबहू' अल्पबहुत्वं ज्योतिष्काणां वक्तव्यं षोडशं द्वारम् १६ । तदेतानि षोडशद्वाराणि गाथाद्वयेन प्रतिपादितानि, एते एव विषया अत्र सूत्रे वक्तव्या इति । तत्र प्रथमं द्वारं प्रश्नयनाह-'अत्थिण' इत्यादि, 'अस्थिणं भंते !' अस्त्येतत खलु भदन्त ! 'चंदिमसूरियाण' चन्द्रसूर्याणाम् चन्द्रस्य सूर्यस्य चेत्यर्थः 'हिहिँ पि तारारूवा' अधस्तना अपि तारारूपा देश अर्थात् चन्द्रसूर्यादि देवानां क्षेत्रापेक्षया अधस्तनाः नीचैवर्तमाना स्तारारूपाः ताराविमानाना मधिष्ठायका देवाः 'अणुं पितुल्लावि' अणवोऽपि तुल्या अपि केचित् तारा विमानाधिष्ठातारो देवाद्युतिविभवादिकमपेक्ष्याणवो हीना अपि भवन्ति तथा केचित् तुल्या अपि युति विभवादिकमपेक्ष्य सदृशा अपि भवन्ति किम् तथा-'समंवि तारारूवा अणुंपि तुल्ला वि' समेऽपि तारारूपा अणवोऽपि तुल्या अपि चन्द्रादि विमानैः क्षेत्रापेक्षयासमाः समश्रेणिस्थिता अपि तारारूपाः ताराविमानानामधिष्ठातारो देवास्ते अपि चन्द्रसूर्याणां द्वार है स्थिति नामका १५ वां द्वार है और अल्पबहुत्व नामका १६ द्वार है इनमें प्रथम द्वार की वक्तव्यता के सम्बन्ध में गोतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'अस्थि णं भंते ! चंदिमसूरियाणं हिडिंपि तारारूवा, अणुं पि तुल्ला वि समेवि ताराख्वा अणुवि तुल्ला वि उप्पि वि तारारूवा अणुं वि तुल्लावि' हे भदन्त चन्द्र और सूर्य आदि देवों के, क्षेत्र की अपेक्षा नीचे वर्तमान ताराविमानों के कितने क अधिष्ठायक देव, क्या युति विभवादिक की अपेक्षा हीन भी होते हैं ? तथा कितनेक निविभवादिक की अपेक्षा सदृश भी होते ? तथा-चन्द्रादि विमानों की समणि में स्थित ताराविमानों के अधिष्ठायक देव चन्द्र सूर्यादिक देवों को द्युति एवं विभवआदि की अपेक्षा क्या हीन भी होते हैं ? और तुल्य भी होते हैं ? तथा-चन्द्रादिक विमानों के क्षेत्र की अपेक्षा उपर-उपरितन भाग में स्थित-ताराविमानों के अधिष्ठायक देव चन्द्र सूर्य देवों की युति एवं विभव नामनु १२ भुवार थे. सभाहकी नामनु १३ २ , 'तुडियबहू' नामनु १४ भु દ્વાર છે. સ્થિતિ નામનું ૧૫મું દ્વાર છે અને અ૫બહુ નામનું ૧૬ મું દ્વાર છે. આ श्री प्रथम द्वारनी १तव्यता समयमा गौतमस्वाभीमे प्रभुने पूछयु-अत्थिणं भंते ! चंदिम सूरियाणं हिदिपि ताररूबा अणुं वि तुल्ला वि समेवि तारारूवा अणुं वि तुल्ला वि उपि वि तार'रूवा अणु वि तुल्ला वि' मन्त! यन्द्र भने सूर्य माहवाना, क्षेत्रनी અપેક્ષા નીચે વર્તમાન તારા વિમાનના કેટલાક અધિષ્ઠાયક દેવ, શું દુનિવિભાવાદિકની અપેક્ષાલીન પણ હોય છે તથા કેટલાક તિવિવાદિકની અપેક્ષા સદશ પણ હેય છે? તથા ચન્દ્રાદિ વિમાની સમશ્રેણમાં સ્થિત તારાવિમાનના અધિષ્ઠાયક દેવ ચન્દ્ર સૂર્યાદિક રની યુતિ અને વૈભવ આદિની અપેક્ષા શું હીન પડ્યું છે? અને તુલ્ય પણ હોય છે? Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २७ चन्द्रसूर्यादीनां ताराविमानोच्चत्वादिनि० ४४९ देवानां धुत विभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवो हीना अपि भवन्ति के चित् तुल्याः सदृशा घुति विभवादिकमपेक्ष्य भवन्ति किम्, तथा - ' उपिपि तारारूवा अणुं पितुल्ला वि' उपर्यपि तारारूपा अणवोsपि तुल्या अपि तथा चन्द्रादीनां विमानानां क्षेत्रापेक्षया उपरि- उपरितन भागे स्थिता स्तारारूपा स्राविमनापिष्ठारो देवाश्चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिक. मपेक्ष्य केचिदणवो हीनाः केचित् तुल्याः सदृशा अपि भवन्ति किमिति काक्वा प्रश्नो गौतमस्येति एवमुपर्युक्तप्रकारेण गौतमेन पृष्ठो भगवानाह - 'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा ! तं चैव उच्चारयन्वं' हन्त गौतम ! तदेवोच्चारयितव्यम् हे गौतम ! हन्त यदेव खया पृष्ट तत्सर्वं तथैनास्ति, अर्थात् चन्द्रसूर्यादीनां देवानामधस्तनास्तारारूपा देवाः केचिद् द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य तुल्या अपि भवन्ति तथा चन्द्रसूर्यापेक्षया उपरितनमागे विद्यमाना Fare विमाविष्ठातारो देवाः चन्द्रादीनां द्युति विभवादिकमपेक्ष्य केचिद् हीना अपि केचित तुल्या अपि भवन्ति, द्युतिविभवादीनं पूर्वभवोपार्जितकर्मनिबन्धनत्वादित्यत स्तदेवाआदि की अपेक्षा क्या हीन और समान भी होते हैं ? इस प्रकार यह काकु की अपेक्षा लेकर गौतमस्वामी का प्रश्न है । प्रश्न का निष्कर्षार्थ यही है की चन्द्र आदि देवों के विमानों के नीचे समश्रेणि में स्थित और ऊपर में स्थित तारा विमानों के अधिष्ठायक देव क्या बुति विभवादिक की अपेक्षा से हीन होते हैं या समान होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'हंता, गोयमा ! तंचेव ऊच्चारेयव्वं' हां, गौतम ! ऐसे होते हैं अर्थात् चन्द्र सूर्यादिक विमानों के नीचे वर्तमान ताराविमानों के देव कितनेक ऐसे होते हैं जो उन कीति एवं विभव आदि की अपेक्षा हीन होते हैं और कितनेक ऐसे होते हैं जो उनकी द्युति एवं विभव आदि की आपेक्षा समान होते हैं, इसी प्रकार समश्रेणी में वर्तमान और ऊपर में वर्तमान तारा विमानों के देवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये, क्यों कि તથા ચન્દ્રાદિક વિમાનાના ક્ષેત્રની અપેક્ષા ઉપર-પરિતન ભાગમાં સ્થિત-તારાવિમાનાના અધિષ્ઠાપક દેવ ચન્દ્ર સૂર્યની વ્રુતિ અને વૈભવ અાદિની અપેક્ષા શુ' હીન તેમજ સમાન પણ હોય છે ? આ રીતે કાકુની અપેક્ષા લઇને ગૌતમસ્વામીના પ્રશ્ન છે. આ પ્રશ્નને નિચેાડ એજ છે કે ચન્દ્ર આદિ ધ્રુવેના વિમાનાની નીચે સમશ્રેણીમાં સ્થિત અને ઉપરમાં સ્થિત તારાવિમાનાના અધિષ્ઠાપક દેવ શુ' દ્યુતિ વિભવાર્દિકની અપેક્ષાથી હીન હૈાય છે? समान होय छे ? आप्रावासमा प्रभु हे छे- 'हंता, गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं' हा, गौतम ! मावा होय हे अर्थात् यन्द्र सूर्यादि विभानोनी नीचे વત માન તારાવિમાનાના દેવ કેટલાક એવા હાય છે જે તેમની ઘતિ અને વૈભવ આદિની અપેક્ષાહીન હોય છે અને કેટલાક એવા હાય જે તેમની ઘતિ અને વૈભવ આદિની અપેક્ષા સમ!ન હોય છે, એવી જ રીતે સમશ્રેણીમાં વર્તમાન અને ઉપરમાં વમાન તારાભિમાનૈના દેવેના સમન્યમાં પણ જાણ્યું, કારણુ કે હીન તથા સમાન ધુતિ વગેરેવાળા અથવા अ० ५७ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्ये विकलं प्रश्नवाक्यमेव उत्तरवाक्यरूपेणोच्चारणीयमिति । कथं ते तारारूपा देवाः चन्द्रसूर्यापेक्षया हीना अपि तुल्या अपि भवन्ति, अत्रार्थे कारणं ज्ञातुं प्रश्नय नाह-'से केणटेणं' इत्यादि, 'से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ अस्थिणं.' तत्केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यतेअस्ति खलु तारारूपाणां देवानां चन्द्राधपेक्षया हीनखमपि तुल्यत्वमपि, अर्थादत्र को हेतु रस्ति येन सर्वज्ञेनापि भवता एवं कथ्यते इति गौतमस्यावान्तरः प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! 'जहा जहाणं तेसिं देवाणं' यथा यथा खलु तेषां देवानाम् तत्र यथा यथा-येन येन प्रकारेण तेषां ताराविमानाधिष्ठातृणां देवानां पूर्वस्मिन् भवे 'तवनियम भचेराणि उसियाई भवंति' तपोनियमब्रह्मचर्याणि उच्छ्रितानि उत्कृष्टानि अधिकानीत्यर्थों भवति तत्र तपोऽनशनादिद्वादशप्रकरणम्, नियम:-शौचादिः, ब्रह्मचर्य-मैथुनविरतिः, अत्र शेषव्रतानामनुपदर्शनम् उत्कटव्रतधारिणां ज्योतिष्कदेवेषूत्पादासंभवाद् उछ्तानीत्युपलक्षणम् तेन यथा यथा अनुछ्तिानीत्यपि ज्ञातव्यमिति । यत् शब्दघटितवाक्यस्य तच्छब्दघटितवाक्यसापेक्षत्वा दुत्तरवाक्यमाह-'तहा तहा णं' इत्यादि, 'तहा तहा णं तेसिं देवाण एवं पण्णायए तं जहा हीन एवं समान धुति आदिवाला होना यह सय पूर्वभव में उपार्जित कर्मों के उदयानुसार ही होता है ! इस तरह हे गौतम ! जिस प्रकार से तुमने प्रश्न पूछा है उसका उत्तर वैसा ही हैं, 'से केगटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अस्थिणं.' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि चन्द्रादिक देवों के विभवादिक की अपेक्षा तारारूप देवों के विभवादिक में हीनता एवं समानता है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! जहा २ णं तेसिं देवाणं' हे गौतम ! जैसा २ उन देवों के पूर्वभव में 'तवनियमवंभचेराणि उसियाई भवति' तप, नियम, ब्रह्मचर्य अधिकरूप से सेवित होता है-अर्थातू अनशन आदि १२ प्रकार के तपों का, शौचादिरूप नियमों का और मैथुन विरतिरूप ब्रह्मचर्य का अधिकरूप में या हीन रूप में सेवन होता है 'तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं पण्णायए तं जहा अणुत्तं वा तुल्लत्तं वा' वैसा २ उन देवों को ऐसा कहा जाता है कि ये चन्द्रादिक देवों के હોવું આ બધું પૂર્વભવમાં સંચય કરેલાં કર્મોના ઉદયાનુસાર જ થાય છે આ રીતે હે. गौतम ! २ शते तमे प्रश्न पूछये। छे. तेन वाम ५५ ते ४ छ, ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थि णं' महन्त ! भायु मा५ ४या ४२ ४डी श। छ, यन्द्र દેવેની વિભાવાદિકની અપેક્ષા તારારૂપ દેવેના વિભવાદિકમાં હીનતા અને સમાનતા છે? मान उत्तरमा प्रभु ४ -'गोयमा ! जहा २ णं तेसिं देवाणं' गौतम ! २२ ते हवाना पूर्वसभा 'तवनियमबंभचेराणि उसियाई भवंति' त५ नियम, प्रायः मधि રૂપથી સેવાય છે–અર્થાત્ અનશન વગેરે ૧૨ પ્રકારના તપનું શૌચાદિરૂપ નિયમોનું અને भैथुन विति३५ ब्रह्मययनु मयि ३५मां 40 लीन३५मा सेनन थाय छे. 'तहा २ णं सिं देवाणं एवं पण्णायए तं जहा अणुत्तं वा तल्लत्तं वा' वा तेवते हेवाने मे Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टोका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २७ चन्द्रसूर्यादीनां ताराविमानोच्चत्वादिनि० ४५१ अणुत्तं वा तुल्लत्तं वा' तथा तथा तेषां देवानामेवं प्रज्ञायते तद्यथा अणुत्वं वा तुल्यत्वं वा येन येन रूपेण तपो नियमादीनामाधिक्यं तेन तेन रूपेण तेषां देवानां तुल्यत्वमणुत्वं च भवतीति दृश्यते च मनुष्यलोकेऽपि केचित् पूर्वजन्मान्तरोपार्जित तथाविध पुण्यप्राग्भाराराजत्वमप्राप्ता अपि राज्ञासह तुल्यविभवा भवन्ति । 'जहा जहा गं तेसिंदेवाण तवनियमबंभ चेराणि णो उसिगाई भवंति तहा तहाणं तेसि देवाणं एवं णो पण्णायए तं जहा-अणुत्तेवातुल्लत्तेवा' यथा यथा येन येन प्रकारेण तेषां देवानां ताराविमानाधिष्ठातृणां प्राग्भवार्जितानि उछ्रितानि तपोनियमब्रह्मचर्याणि भवेयुः तत्र तपोऽनशनादि द्वादशप्रकारकं नियमः शौचादि ब्रह्मचर्य मैथुनविरतिः एतानि न भवेयुः, तथा तथा-तेन तेन प्रकारेण तेषां देवानां तारा विमानाधिष्ठातृणां नो एवं प्रज्ञायते अणुत्वं तुल्यत्वं वा आभिनियोगिककर्मोदयेनाति निकृष्टत्वात्-अयं भावः अकामनिर्जरादि योगात् देवत्व प्राप्तावपि देवर्द्धरलाभेन चन्द्रसूर्येभ्यो विभवादिक की अपेक्षा हीन विभवादिवाले हैं और तुल्यविभवादिवाले हैं, तात्पर्य-इस कथन का यही है कि जितने २ रूप में पूर्वभव में इन देवों के द्वारा तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य का सेवन होता है उतने २ रूप में उन देवों के विभवादिकों में चन्द्र सूर्यादि देवों के विभवादिक से समानता भी होती है और समानता नहीं भी होती है। यह तो लोक में भी देखने में आता है कि कितनेक मानव पूर्वजन्मान्तरोपार्जित तथाविधपुण्य के प्रभाव से राजा नहिं होने पर भी राजा के जैसे विभवादिवाले होते हैं। 'जहा २ णं तेसिं देवाणं तवनियम बंभचेराणि णो उसियाइं भवंति तहा २ णं तेसिं देवाणं एवं णो पण्णायए तं जहा-अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा तथा जिन ताराविमान अधिष्ठायक देवों द्वारा अनशन आदि १२ प्रकार के तपों का शौचादि नियमों का एवं मैथुन विरतिरूप ब्रह्मचर्य का पूर्वभव में सेवन नहीं किया जाता है ऐसे वे देव आभिनियोगिक कर्मोदय से अतिनिकृष्ट होते हैं-अतः उन देवों के सम्बन्ध में अणुत्व और तुल्यत्व का विचार કહેવામાં આવે છે કે તે ચન્દ્રાદિક દેવોના વિભાવાદિકની અપેક્ષા હીન વિભવદિવાળા છે આ કથનનું તાત્પર્ય એ જ છે કે જેટલાં જેટલાં રૂપમાં પૂર્વભવમાં આ દેવેની દ્વારા તપ, નિયમ અને બ્રહચર્યનું સેવન થાય છે તેટલાં તેટલા રૂપમાં તે દેના વિભાવાદિકમાં ચન્દ્ર સૂર્યાદિ દેવના વિભાવાદિકથી સમાનતા પણ હોય છે અને સમાનતા નથી પણ હતી આ તે લેકમાં પણ જોવામાં આવે છે કે કેટલાંક મનુષ્ય પૂર્વ જન્માન્તરોપાર્જિત તથાવિધ પુણ્યના પ્રભાવથી રાજા ન હોવા છતાં પણ રાજા જેવા વૈભવ વગેરેવાળા હોય છે. કાર णं तेसिं देवाणं तवनियमबंभचेराणि णो उसियाई भवंति तहा २ णं तेसिं देवाणं एवं णो पण्णयए तं जहा-अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा' तथा विमान अधिष्ठाय हेवे। २। सनशन मा ૧૨ પ્રકારના તપનું શૌચાદિ નિયમનું અને મૈથુન વિરતિરૂપ બ્રહ્મચર્યનું પૂર્વ ભવમાં સેવન કરાતું નથી એવા તે દેવ આભિગિક કર્મોદયથી અતિનિકૃષ્ટ હોય છે. આથી તે Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र धुतिनियमादिकमपेक्ष्याणुलमपि न संभवति कुतस्तेषां चन्द्रसूर्यैः सह तुल्यसमिति प्रथमद्वारम् १ । सम्प्रति-द्वितीयं द्वारं प्रश्नयितुमाह--'एगमेगस्स णं भंते' इत्यादि, 'एगमेगस्स गं भंते ! चंदस्स' एकैकस्य खलु भदन्त ! चन्द्रस्य 'केवइया महग्गहा परिवारो' क्रियन्तःकियत्संख्यका महाग्रहा: भौमादयः परिवारः परिवाररूपा भवन्ति, लया-'केवइया जखत्ता परिवारो' कियन्ति-कियत्संख्यकानि नक्षत्राणि परिवारः परिवार भूतानि भवन्ति तथा'केवइया तारागणकोडाकोडीओ पन्नत्ताओ' कियत्यः किय-संख्य कास्तारागण कोटाकोटयः परिवाररूपाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः, भगवानार -गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो' अष्टाशीतिर्महाग्रहाः परिवारः, हे गौतम ! एकैकस्य चन्द्रस्य प्रत्येकमष्टाशीति संख्यका महाग्रडा भौपादयः परिवारभूताः प्रज्ञप्ता स्तथा- 'अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो' अष्टाविंशतिरष्टाविंशति संख्यकानि नक्ष. ही नहीं होता है तात्पर्य यही है कि अकाम निर्जरादि के योग से देवत्व 'द की प्राप्ति होने पर भी देवर्द्धि के अलाभ होने के कारण उन देवों में चन्द्र सूर्यादिकों से घति विभवादिक की अपेक्षा लेकर अणुर की भी संभावना जब नहीं होती है-तब उनके साथ तुल्यता की बात तो कैसे विचारित हो सकती है। प्रथम द्वार कथन समाप्त । द्वितीय द्वार कथन । - एगमेगस्स णं भंते ! चंदस्स केवइया महग्गहा परिवारो' हे भदन्त ! एक एक चन्द्र के परिवार रूप भौमानिक महाग्रहःकितने हैं ? 'केवड्या णक्खत्ता परिवारा' तथा कितने परिवारभूत नक्षत्र हैं ? तथा-'केवहया तारागणकोडाकोडीओ' कितनी तारागणों की कोटी कोटी परिवार भूत हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो' हे गौता ! एक एक चन्द्र के ના સંબંધમાં અણુત્વ અને તુલ્યત્વને વિચાર જ થતું નથી. તાત્પર્ય એ છે કે અકામ નિર્જરાદિના વેગથી દેવત્વપદની પ્રાપ્તિ થવા છતાં પણ દેવદ્ધિને અલાભ હેતાના કારણે તે દેવોમાં ચન્દ્રસૂર્યાદિકથી ઇતિ વિભાવાદિકની અપેક્ષા લઈને આવ્યુત્વની પ ફક્યતા જ્યારે હોતી નથી ત્યારે તેમની સાથે તુલ્યતાની વાત તે કઈ રીતે વિચારણામાં લઈ શકાય? પ્રથમદ્વાર કથન સમાપ્ત द्वितीयदा२ ४थन'एगमेगस्स णं भंते ! चंदस्स केवइया महग्गहा परिवारों महत! यन्द्रना परिवार ३५ लौमाहि भाटा छ ? 'केवइया णक्खत्ता परिवारा' तथा ४८॥ परिवारभूत नक्षत्र छ ? तथा 'केवइया तारागणकोडाकाडीओ' eai तारागनी टानटी परिवारभूत छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! अढासीइ महग्गहा परिवारो' गौतम ! यन्द्रना परिवा२३५ बीमा४ि मा ८८ छ तया-'अट्ठावीसइ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २७ चन्द्रसूर्यादीनां ताराविमानोच्चत्वादिनि० ४५३ आणि अभिजिदादीनि परिवारः परिवारभूतान्येकैकस्य चन्द्रस्य भवति तथा 'छावद्विसहस्साई' षट्पष्टिः सहस्राणि 'णव य सया' नवशानि, 'पण्णत्तरा तारागण कोडाकोडीभो पण्णत्ता' पञ्चसप्तत्यधिकानि तारागणकोटाकोटी परिवारभूतानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि पक्षष्टिः सहस्राणि पञ्चसप्तत्युत्तराणि नवशतानि तारागण कोटिकोटीनां परिवारभूतानि एकैकस्य चन्द्रस्य भवन्तीत्यर्थः । यद्यप्यत्र एते महाग्रहादयः चन्द्रस्यैव परिवाररूपेण कथिताः तथापि सूर्यस्यापि इन्द्रत्वा देते एव ग्रहादयः परिवारतया ज्ञातव्याः समवायसूत्रे जीवाभिगम. सूत्रादौ च तथैव दर्शनादिति द्वितीयं द्वारम् २ ॥ ___ सम्प्रति तृतीयं द्वारं प्रष्टुमाह-'मंदरस्स णं भंते' इत्यादि, 'मंदरस्त गं भंते ! पव्वयस्स' मन्दरस्य-मेरुनामकस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य 'केवइयाए 'अबाहाए' कियत्या-कियत्प्रमाणकया अबाधया-बाधारहितया 'जोइसं चार चरई' ज्योतिषं चारं ज्योतिश्चक्र चारं गति चरति-करोति इति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इक्कापरिवाररूप भौमादिक महाग्रह ८८ हैं तथा-'अट्ठावीसइ पक्खत्ता परिवारो' अभिजित् आदि २८ नक्षत्र परिवाररूप है तथा 'छावटिसहस्साई णवय सया पण्णत्तरा तारागण कोडा कोडीओ एण्णत्ता' ६६९७५ छयासठ हजार नौ सौ पिंचोत्तर तारागणों की कोटाकोटी परिवार भूत कही गई है यद्यपि यहां ये पूर्वोक्त महाग्रहादिक एक चन्द्र के परिवाररूप से कहे गये हैं फिर भी इन्द्र होने के कारण एक सूर्य के भी येही पूर्वोक्त ग्रहादिक परिवाररूप से कहे गये जानना चाहिये क्यों कि समवायाङ्गसूत्र में और जीवाभिगमसूत्र आदि में ऐसा ही कथन नि ता है। द्वितीय द्वार समाप्त । तृतीय द्वार का कथन'मंदरम्ल ण मंते ! पनवयस्स के नइयाए अबाहाए जोइसंचारं चरई' हे भदन्त ! ज्योतिषी देव सुमेरु पर्वत को कितनी दूर पर छोड कर गति करते हैं ? णक्खसा परिवारो' लिrt आ६ २८ नक्षत्र परिवार ३५ छ तया 'छावद्विसहस्साई णव य सरा पण्णत्तरा तारागण कोडाको डीओ पण्णत्ता' ६१८७५ छ। २ नपसे पायाતેર તારાગની કોટાકોટી પરિવારભૂત કહેવામાં આવેલ છે. અલબત્ત અહીં આ પૂર્વોક્ત મહામહાદિક એક ચન્દ્રના પરિવારરૂપે કહેવામાં આવ્યા છે તેમ છતાં ઈન્દ્ર હોવાના કારણે એક સૂર્યના પણ આ જ પૂર્વોક્ત ગ્રહાદિક પરિવાર રૂપથી કહેવામાં આવ્યા છે એ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ કારણ કે સમવાયાંગસૂત્રમાં તેમજ જીવાલિંગમસૂત્ર આદિમાં આવું જકથન મળે છે. દ્વિતીયદ્વાર સમાપ્ત તૃતીયદ્વાર કથન'मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए जोइस चार चरई' के महात! તિષી દેવ સુમેરૂ પર્વતને કેટલે દૂર છોડીને ગતિ કરે છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે . Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ એક जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे रसहिं इक्कीसेहिं जोयणसएहिं' एकादशभिरेव त्रिंशत्यधिके यजनशतैः 'अबाहाए जोइस चारं चरइ' अबाधया ज्योतिषं च ज्योतिश्चक्रं चारं चरतीति, अयं भावः - मन्दरपर्वतात् चक्रवालेनैकविंशत्यधिकानि एकादश योजनशतानि परित्यज्य चलं ज्योतिश्रक्रं तारारूपं चरति अत्र प्रकरणात् जम्बूद्वीपगतमेव ज्योतिश्चक्रं ज्ञातव्यम्, अन्यथा - लवणसमुद्रादि गतज्योतिश्चक्रस्य मन्दरपर्वतादति दूरतरवर्त्तित्वेनोपर्युक्त प्रमाणस्यासंभवप्रसङ्गात् इति तृतीयमबाधाद्वारम् ॥ अथस्थिरं ज्योतिश्चक्रमलोकतः कियत्याऽबाधया अर्वागवतिष्ठते इति प्रष्टुं चतुर्थद्वारमाह- 'लोगंताओ गं' इत्यादि, 'लोगंताओं णं भंते' लोकान्ततः अलोकादितोऽर्वा खल भदन्त ! ' केवइयाए अबाहाए' कियत्या-कियत्प्रमाणकया अबाधया 'जो इसे पत्ते' ज्योतिषं स्थिरं ज्योतिश्चक्रं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ' एकारस एकारसेहिं जोयणसए हिं' एकादशभिरेकादशभि र्योजनशतैः, जगत्स्वाइसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! इक्कारसहिं इक्कवीसेहिं जोघणसएहिं अबाहाए जोइस चारं चरह' हे गौतम! ज्योतिषी देव सुमेरु पर्वतको ११२१ योजन दूर छोड कर गति करते हैं ! यहां जो ११२१ योजन सुमेरु पर्वत को छोड कर जोतिश्चक्र के चलने की बात कही गई है वह जम्बूद्वीपगत ज्योतिश्चक्र को लेकर कही गई है लवण समुद्रादिगत ज्योतिश्चक्र को लेकर नहीं कही गई क्यों कि लवण समुद्रगत ज्योतिश्चक्र सुमेरु पर्वत से बहुत ही अधिक दूरतरवर्ती है इस कारण ११२१ योजन का प्रमाण नहीं बन सकता है । अबाधा तृतीय द्वार समाप्त । चतुर्थद्वार वक्तव्यता इस वक्तव्यता में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'लोगंताओ णं भंते! केवइयाए अबहाए जोइसे पन्नत्ते' हे भदन्त ! लोक के अन्त से- अलोक के पहिले कितनी अबाधा से ज्योतिश्चक्र स्थिर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते छे- 'गोयमा ! इक्कारसहिं इकोसेहिं जोयणसएहिं अबहाए जोइस चारं चरइ' डे गौतम ! ચેતિષી દેવ સુમેરૂ પર્વતને ૧૧૨૧ ચાજન દૂર છેાડીને ગતિ કરે છે. અહી જે ૧૧૨૧ ચેાજન સુમેરૂ પર્વતને છેડીને જ્યેાતિશ્ર્ચક્રના ચાલવાની વાત કહેવામાં આવી છે તે જમ્મૂદ્વીપગત જ્યેાતિધ્ધકને લઇને કહેવામાં આવી છે. લવણુસમુદ્રાઢિગત ાતિશ્ચકને લઇને કહેવામાં આવી નથી કારણ કે લવણુસમુદ્રગત જાતિચ્ચક્ર સુમેરૂ પર્વતથી ઘણા જ વધારે દૂરતરવી છે. આ કારણે ૧૧૨૧ ચેાજનનુ' પ્રમાણુ ખની શકતુ નથી, અબાધા તૃતીયદ્વાર સમાપ્ત ॥ ચતુર્થાંદ્વાર વક્તવ્યતા– प्रस्तुत वक्तव्यताभां श्रीगौतमस्वाभीमे प्रभुने या प्रमाणे पूछयु है- 'लोगताओ णं णं भंते! केवइयाए अबोहाए जोइसे पन्नत्ते' हे हन्त ! सोना यान्तथी - असोनी पडेसा પહેલા કેટલી અખ:ધાથી જ્યેાતિશ્ર્વક સ્થિર કહેવામાં આવ્યું છે ? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारासू. २७ चन्द्रसूर्यादीनां ताराविमानोच्चत्वादिनि० १५५ भाव्यात् एकादशाधिकै रेकादशमि यो मनशतैः 'अबाहाए जोइसे पनत्ते' अबाधया ज्योतिष स्थिरं ज्योतिश्चक्रं प्रज्ञप्तं कथितम् प्रकरणात् स्थिरं ज्योतिश्चक्रमेवेति ज्ञातव्यम् चरज्योति. चक्रस्य तत्राभावादिति चतुर्थद्वारम् ४ ॥ ___ अथ पञ्चमद्वारं पृच्छति-धरणितलाओणं भंते' इत्यादि, 'धरणितलाओ पं भंते धरणितलात् खलु भदन्त ! अत्र प्रश्नैकदेश एव कथितः किन्तु एकदेशेन परिपूर्ण प्रश्नसूत्रं ज्ञातव्यम्, तच्चैवम्-'धरणितलाओ गं भंते ! उद्धं ऊपहत्ता केवइयाए अबाहाए हिडिल्ले जोइसे चारं चरइ ? गोयमा !' वस्त्वेकदेशस्य संपूर्ण वस्तुस्मारकत्वनियमात्, ततश्चायमर्थः-धरणितलात् समयप्रसिद्धात् समतलभूभागात् ऊर्ध्वमुत्पत्य कियत्यया अबाधया अधस्तनं ज्योतिष तारापटलं चारं चरति गतिं करोति इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तहिं णउएहिं जोयणसएहिं' सप्तभिनवतैः नवत्यधिकैः सप्तभियोजनशते रित्येवं रूपया 'अबाहया जोइसे चारं चरइत्ति' अबाधया ज्योतिष ज्योतिश्चक्र चार चरति-करोतीति। __ सम्प्रति सूर्यादि विषयमबाधास्वरूपं संक्षिप्प भगवान् स्वयमेव दर्शयति-'एवं सूर हैं-'गोयमा! एक्कारस एक्कारसेहिं जोयणसएहिं अथाहाए जोइसे पन्नत्ते' हे गौतम ! लोक के अन्त से अलोक के पहिले २ ज्योतिश्चक्र ११११ योजन छोडकर स्थिर कहा गया है क्योंकि जगत का स्वभाव ही ऐसा है यहां चर ज्योतिश्चक्र नहीं है। चतुर्थ द्वार समाप्त पश्चम द्वारका कथन 'धरणितलाओ णं भंते ! उद्धं उपपइत्ता केवइयाए अयाहाए हिडिल्ले जोइसे चारं चरइ' हे भदन्त ! इस धरणितल से-समयप्रसिद्ध-समतलभू भाग से कितनी ऊपर की दूरी पर अर्थात् कितनी ऊंचाई पर अधस्तन ज्योतिष तारा पटल गतिकरता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! सत्तहिं णउएहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसं चारं चरइ' हे गौतम ! इस समतल भूमिभाग से ४ छ-'गोयम! ! एक्कारसेहि जोयणसएहिं अबाहाए जोइसे पन्नत्ते' 8 गौतम ! सना અન્તથી અલેકની પહેલાં પહેલા જ્યોતિશ્ચક ૧૧૧૧ યોજન છોડીને સ્થિર કહેવામાં આવ્યું છે કારણ કે જગતને સ્વભાવ જ એવો છે અહીં “ચર” જ્યોતિશ્ચક નથી. ચતુર્થદ્વાર સમાપ્ત છે પંચમઢાર કથન'धरणितलाओ णं भंते ! उद्धं उत्पइत्ता केवइयाए अबाहाए हिदिल्ले जोइसे चारं चरई' હે ભદન્ત ! આ ધરણિતળથી સમયપ્રસિદ્ધ-સમતલભૂભાગથી કેટલે દૂર અર્થાત્ કેટલી ઉંચાઈ પર અધતક જ્યોતિષ તારાપટલ ગતિ કરે છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! सत्तहि णउएहिं जोयणसएहि अबाहाए जोइसं चारं चरइ' 3 गौतम! मा Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे विमाणे' इत्यादि, 'एवं सूरविमाणे अहहिं सरहिं' एवमुपयुक्तप्रकारेण समभूमिभागादधस्तनं ज्योतिश्चक्रं नवत्यधिकसप्तयोजनशतै रवाधया प्रज्ञानं तथा समभूमिभागादेव सूर्यविमान मष्टभिर्योजनशतैः, तथा - 'चंद विमाणे अहिं असीएहिं ' चन्द्रविमानमशीत्यधिकै रष्टभिर्योजनशतैः 'उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोयणसएहिं चारं चरई' उपरितनं तारारूपं नवभिर्योजनशतै वारं चरतीति ॥ सम्प्रति- ज्योतिश्चक्रचारक्षेत्रापेक्षया अबाधा प्रश्नमाद - जोइसस्स णं' इत्यादि, 'जोरसस्स णं भंते ! हेट्ठिल्लाओ तलाओ' ज्योतिश्चक्रस्य दशोत्तरयोजनशतबाहल्यस्य खलु भदन्त ! अधस्तनात् तलात् 'केवइयाए अबाहाए' कियत्या अवाधया 'सुरविमाणे चारं चरई ' सूर्यविमानं चारं चरतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ७९० योजन की ऊंचाई पर ज्योतिश्चक्र गति करता है । 'एवं सूर विमाणे अट्ठहिं सएहिं' उसमें इस समतल भूमिभाग से ८०० योजन की ऊंचाई पर सूर्य विमान गति करते हैं । 'चंद विमाणे अट्ठहिं असीएहिं उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोयणसहिं चारं चर' वहां के आठसौ अस्सी योजन की उंचाई पर अर्थात् सूर्य विमान से ८० योजन की ऊंचाई पर चन्द्र विमान गति करते हैं, वहां से ९०० नव सौ योजन की ऊंचाई पर अर्थात चन्द्र विमान से २० योजन की ऊंचाई पर तारा रूप-ग्रह-नक्षत्र एवं प्रकीर्ण तारे गति करते हैं । इस तरह मेरु के समतल भूभाग से ७९० योजन की ऊंचाई पर ज्योतिश्चक्र के क्षेत्र का प्रारंभ होता कहा गया है यह इनका चार क्षेत्र ऊंचाई में वहां से ११० योजन परिमाण होता है । इसी बात को आगे के सूत्रों द्वारा स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं- 'जोइससणं ते! हिलाओ तलाओ केवइयाए अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ' इसमें taaranी ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! इस समतल भूभाग से ७९० मतभूमिलागी ७८० योजननी यार्ड पर ज्योतिश्च गति ४रे छे. 'एवं सूरविमाणे अहिं सहि' तेभां । समतल भूमिलागथी ८०० योजननी (या पर सूर्य निभान गति रे छे. 'चंद विमाणे अट्ठहिं असीएहिं उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोयणसएहिं चार' વરૂ' ત્યાંથી ૮૮૦ યાજનની ઉંચાઇ પર અર્થાત્ વિમાનથી ૮૦ ચેાજનની ઉંચાઈ પર ચન્દ્રવિમાન ગતિ કરે છે, ત્યાંથી ૯૦૦ યાજનની ઉંચાઈ પર અર્થાત્ ચન્દ્રવિમાનથી ૨૦ ચેાજનની ઉંચાઇ પર તારાં રૂપ-ગ્રહ-નક્ષત્ર અને પ્રકી તારા ગતિ કરે છે આ રીતે મેના સમતલ ભૂભાગથી ૭૯૦ ચેાજનની ઉંચાઇ પર જયાતિકના ક્ષેત્રનેા પ્રારંભ થવાનુ કહેવામાં આવ્યુ છે. આ એમનું ચાર ક્ષેત્ર ઊંચાઇમાં ત્યાંથી ૧૧૦ યાજન પરિમાણુ होय छे. मन हुडीने पंछीना सूत्रोद्वारा स्पष्ट ४रता था सूत्र हे छे- 'जोइसस्स णं भंते! हेट्ठिल्लाओ तलाओ केवइयाए अबोहाए सूरविमाणे चार चरइ' मामां गौतमस्वाभीखे મન્નુને એવુ પૂછ્યું છે કે હું બદન્ત ! આ સમતલ ભૂભાગથી ૭૯૦ વૈજનની ઉંચાઈ પર Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २७ चन्द्र सूर्यादीनां ताराविमानोच्चत्वादिनि० ४५७ 'दसहि जोयणेहिं अबाहया चारं चरइ दशभि योजनैरित्येवं रूपया आधया सूर्यविमानं चारं चरति अत्र खलु सूत्रे समतल भूमिभागादृय नवत्यधिकसप्तयोजनातिक्रमेण ज्योतिश्चक्रबाहल्यमूलभूत आकाशप्रदेशप्रतरः स एवावधिमन्तव्यः, एवं चन्द्रादिसूत्रेऽपि ज्ञातव्यम्, 'एवं चंदविमाणे णउईए जोयणेहि चारं चरइ' एवं सूर्यसूत्रप्रदर्शितक्रमेण चन्द्रविमानं नवत्या योजनैरवाधया चारं चरति, 'उपरिल्ले तारारूवे दमुत्तरे जोयणसए चारं चरइ' एवम् उपरितनं तारारूपं देशोत्तरे-दशाधिक योजनशते ज्योतिश्चक्रबाहल्यमान्ते इत्यर्थः चारं चरति । सम्प्रति-सूर्यादीनां परस्परमन्तरं स्वयमेव सूत्रकारः प्राह-'मरविमाणाओ' इत्यादि, 'सूरविमाणाओ चंदविमाणे असीइए जोयणेहिं चारं चरह' सूर्यविमानात् चन्द्रविमानम् अशोत्या योजनैश्चारं चरति, आलापप्रकारस्तु इत्थम्-हे भदन्त ! सूर्यविमानात कियत्या अबाधया चन्द्रविमानं चारं चरति ? भगवानाह-हे गौतम ! सूर्यविमानात् चन्द्रविमानमयोजन की ऊंचाई पर जो ज्योतिश्चक्र का चार क्षेत्र प्रारंभ होता है सो वहां से कितनी योजन की ऊंचाई पर सूर्य विमान गति करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! दसहिं जोयणेहिं अबाया चारं चरई' हे गौतम ! वहाँ से ७९० योजन चार क्षेत्र से आगे १० योजन की ऊंचाई पर सूर्यविमान गति करते हैं। 'एवं चंदविमाणे णउईए जोयणेहिं चारं चरइ' इसी तरह समतल भूमिभाग से ९० योजन की ऊंचाई पर चन्द्रविमान गति करते हैं 'उवरिल्ले तारारूवे दसुत्तरे जोयणसए चारं चरई तथा-समतल भूमिभाग से ११० योजन की ऊंचाई पर तारारूप ज्योतिश्चक्र गति करते हैं। इस प्रकार 'सूरविमाणाओ चंद विमाणे असीईए जोयणेहिं चारं चरई' सूर्य विमान से चन्द्रविमान की दूरी ८० योजन की है और सूर्यविमान से इतनी दूर रहा हुआ चन्द्रविमान गति करता है । इस सम्बन्ध में आला प्रकार इस प्रकार से है-'सूरविमाणाओ णं भंते ! केवइयाए अबाहया चंदविमाणे चारं चरई ? गोयमा ! सूरविमाणाओ चंदविमाणे असीईए જે શિકતા ચાર ક્ષેત્ર પ્રારંભ થાય છે તો ત્યાંથી કેટલાં જનની ઊંચાઈ પર સૂર્ય विभान ति ४२छ ? माना viwi प्रभु ४४-'गोयमा ! दसहिं जोयणेहिं अबाहया चारं चरई' गीत! त्यांथा ७६० यारान यार क्षेत्रथी माण १० योगननी मा ५२ सू विमान मति ४३ छ. 'एवं चंदविमाणे णउईए चारं चरइ' मेवी शते समतल भूमिमाथी ८. योनी या ५२ यन्द्रविमान ति ४२ छे. 'उवरिल्ले तारारूपे दसुत्तरे जोयणसए चारं चरई' तय-समताभूभागथी ११० यासननी या ५२ ता२।३५ ज्योति गति ४२. २॥ प्रारे 'सूरविमाणाओ चंदविमाणे असीईए जोयणेहिं चारं चरइ' सूर्यવિમાનથી ચન્દ્રવિમાનનું (અંતર) ૮૦ યે જનની છે અને સૂર્યવિમાનથી આટલું દૂર રહેલ यन्द्रविमान गति ४२ छ । समयमा मासा५ ५४१२ मा प्रभार छ-'सुरविमाणाओ भंते ! केवइयाए अबाया चंदविमाणे चार चरई' 'गोयमा ! सूरबिमाणाओ पदविमाणे असीईए Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VW जम्बूद्वीपप्राप्ति भीत्या योजनैश्चारं चरतीति, एवमग्रेऽपि, 'सरविमाणाओ जोयणसए उवरिल्ले तारारूवे चारं चर' सूर्यविमानाद् योजनशतेऽतिक्रान्ते सति उपरितनं तारारूपं तारापटकं चारं चरति । 'चंदविमाणाओ वीसाए जोयणेहि उवरिल्लेणं तारारूवे चारं चरई' चन्द्रविमानाद् विंशत्या योजनैरुपरितनं तारारूपं तारापटलं चारं चरति । सूत्रस्य सूचकत्वा दनुक्तमपि ग्रहाणां नक्षआणां च क्षेत्रविभागमन्यत्र वर्णितं शिष्यज्ञानाग अत्र लिख्यते शतानि सप्तगत्वोवं योजनानां भूपस्तलात् । नवति च स्थिता स्ताराः सर्वाधस्तानभस्तले ॥१॥ तारकापटलाद् गत्वा योजनानि दशोपरि। सूराणां पटलं तस्माद् अशीति शीतरोचिषाम् ॥२॥ जोयणेहिं चार चरह' इसी प्रकार से आलापक्रम आगे भी समझना चाहिये 'सूरविमाणाओ जोयणसए उवरिल्ले तारास्वे चारं चरई' सूर्यविमान से तारारूप ज्योतिश्चक्र १०० योजन की दूरी पर ऊपर में है और वह उससे इतने योजन दूर रहकर अपनी गतिक्रिया करता है। 'चंदविमाणाओ वीसाए जोयणेहिं उवरिल्लेणं तारारूवे चारं चरई' यह तारारूप ज्योतिश्चक्र चन्द्रविमान से २० योजन दर ऊपर में है और वहीं से वह अपनी गतिक्रिया में रत होता है। सूत्र जो होता है वह केवल विषय का सूचक ही होता है इसलिये यहां पर अनुक्त भी ग्रहों का एवं नक्षत्रों का क्षेत्र विभाग जो कि अन्यत्र वर्णित किया गया हुआ है शिष्य ज्ञान के निमित्त प्रकाशित किया जा रहो है शतानि सप्त गत्वोच योजनानां भुवस्तलात् । नवतिंच स्थितास्ताराः सर्वास्तानभस्तले ॥१॥ तारका पटलाद् गत्वा योजनानि दशोपरि । सूरणां पटलं तस्मात् अशीति शीतरोचिषाम् ॥२॥ जोयणेहिं चारं चरइ' IN EN1 Pा५४ मा भाट ५५ सम सेवा. 'सूरविमाणाओ जोयणसए उवरिल्ले तारारूपे चारं चरइ' सूर्यविमानथी ता२।३५ यातिश्व १०० योजना જેટલે દૂર ઉપરના ભાગમાં છે અને તે તેનાથી આટલા જન દૂર રહીને પિતાની आतिया ४२ छ. 'चंदविमाणाओ वीसाए जोयणेहि उवरिल्लेणं तारारूवे चारं चरई' मा તારારૂપ તિશ્ચક ચન્દ્રવિમાનથી ૨૦ એજન દૂર ઉપર છે અને ત્યાંથી તે પિતાની ગતિક્રિયામાં રત થાય છે. સૂત્ર જે હેાય છે તે કેવળ વિષયનું સૂચક જ હોય છે. આ માટે અહીં અનુક્ત પણ ગ્રહના અને નક્ષત્રના ક્ષેત્રવિભાગ કે જે અન્યત્ર વર્ણિત કરવામાં આવેલ છે શિષ્યજ્ઞાનના નિમિત્ત પ્રકાશિત કરવામાં આવે છે. शतानि सप्त गत्वोज़ योजनानां भुवस्तलात् । नवतिं च स्थितास्ताराः सर्वाधस्तान्नभस्तले ॥ तारका पटलाद् गत्वा योजनानि दशोपरि । सूराणां पटलं तस्मात् अशीतिं शीतरोचिषाम् ॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २७ चन्द्रसूर्यादीनां ताराविमानोच्चत्वादिनि० ४५९ चत्वारिंतु ततो गत्वा नक्षत्रपटलं स्थितम् । गत्वा ततोऽपि चत्वारि बुधानां पटलं भवेत् ॥३॥ .. शुक्राणां च गुरूणां च भौमानां मन्दसंज्ञिनाम् । त्रीणि त्रीणि च गत्वोज़ क्रमेण पटलं स्थितम् ॥४॥ अयमर्थः-भूवस्तलात् समतलभूमिभागात् उर्ध्व नभस्तले-आकाशप्रदेशे गत्वा योजनानां नवत्यधिकानि सप्तशतानि गत्वा ताराः स्थिताः ॥१॥ तारकापटलात् ज्योतिश्चक्रात् दशोपरि दशाधिक योजनानि गत्वा तत्र आकाशप्रदेशे सूराणां सूर्याणां पटलं विद्यते तस्मात् पूर्यपटलात् अशीति योजनानि उपरि गत्वा शीतरोचिषां चन्द्राणां पटलं विद्यते ॥२॥ ततः चन्द्रपटलात चत्वारि योजनानि उपरिगत्वा नक्षत्रपटलं स्थितं विद्यते ततोऽपि नक्षत्रादपि ऊवं चत्वारि योजनानि गला बुधानां बुधमहाग्रहाणां पटलं भवेत् ।।३।। बुधादुपरि त्रीणि योजनानि गला शुक्राणां शुक्रमहाग्रहाणां पटलं भवेत् शुक्रादपि उपरि त्रीणि योजनानि गत्वा गुरूणां बृहस्पति महाग्रहाणा पटलं भवेत् गुरोरपि उपरि त्रीणि योजनानि भौमानां चत्वारि तु ततो गत्वा नक्षत्रं पटलं स्थितम् । गत्वा ततोऽपि चत्वारि घुधानां पटलं भवेत् ॥३॥ शुक्राणां च गुरूणां च भीमानां मन्द संज्ञिनाम् । त्रीणि त्रीणि च गत्वोव क्रमेण पटलं स्थितम् ॥४॥ इनका अर्थ इस प्रकार से है-समतल भूमिभाग से ऊपर आकाश प्रदेश में ७९० योजन जाने पर वहाँ तारा पटल स्थित है अब इस तारा पटल से ऊपर १० योजन आगे जाने पर वहां सूर्य पटल स्थित है इस सूर्य पटल से आगे ऊपर ८० योजन जाने पर वहां पर चन्द्र पटल स्थित है। इस चन्द्र पटल से आगे ४ योजन ऊपर जाने पर नक्षत्र पटल स्थित है। इस नक्षत्र पटल से ऊपर आगे ४ योजन जाने पर बुध महाग्रहों का पटल स्थित है। बुध महाग्रहों से ३तीन योजन ऊपर आगे जाने पर शुक्र महाग्रहों का पटल स्थित है। शुक्र पटल से आगे ऊपर चत्वारि तु ततो गत्वा नक्षत्रपटलं स्थितम् । गत्वा ततोऽपि चत्वारि बुधानां पटलं भवेत् ॥ शुक्राणां च गुरूणां च भौमानां मन्दसंज्ञिनाम् । त्रीणि त्रीणि च गत्वोध्वं क्रमेण पटलं स्थितम् ।।८।। અને અર્થ આ પ્રમાણે છે–સમતલ ભૂમિભાગથી ઉપર આકાશપ્રદેશ ૭૯૦ જન. જવાથી ત્યાં આગળ તારા પટલ સ્થિત છે હવે આ તારા પટલથી ઉપર ૧૦ એજન આગળ જઈએ ત્યારે સૂર્યપટલ આવે છે, આ સૂર્યપટલથી આગળ ઉપર ૮૦ એજન પર ચન્દ્રપટલ સ્થિત છે. આ ચન્દ્ર પટલથી આગળ ૪ ભેજન આગળ ઉપર જઈએ ત્યાં નક્ષત્રપટલ સ્થિત છે. આ નક્ષત્રપટલથી ઉપર આગળ ૪ જન પર બુધ મહાગ્રહનું પટલ સ્થિત છે. બુધ મહાગ્રહથી ૩ (ત્રણ) જન ઉપર આગળ શુક મહાગ્રહનું પટલ સ્થિત છે. શુક્ર પટલથી આગળ ઉપર ૩જને ગુરૂ ગ્રહનું પટલ સ્થિત છે. ગુરૂગ્રહ પટલથી Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मङ्गलमहाग्रहाणां पटलं भवेत् भौमादपि उपरि त्रीणि योजनानि मन्दसंज्ञिनां शनैश्वराणां महाग्रहाणां पटलं भवेत् एवं प्रकारेण ग्रहाणां नक्षत्राणां चावस्थानं ज्ञातव्यमिति ॥ सू० २७ ॥ पञ्चमद्वारम् समाप्तम् ॥ सम्प्रति पष्ठं द्वारं पृच्छन्नाह - 'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, मूलम् - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ते सव्वन्तरिल्लं चारं चरइ, कयरे णक्खत्ते सन्ववाहिरं चारं चरइ, कयरे णक्खते सव्वहिट्टिल्लं चारं चरइ, कयरे णक्खत्ते सव्वउवरिल्लं चारं चरs ? गोयमा ! अभिई णक्खते सव्वभंतरं चारं चरइ, मूलो सव्व बाहिरं चारं चरइ, भरणी सव हिद्विल्लं साई सम्वुवरिल्लं चारं चरइ । चंदविमाणे णं भंते ! किं संटिए पन्नत्ते १ गोयमा ! अद्धकविसंठाण संठिए सव्वालियामए अब्भुग्गयमुसिए एवं सव्वाईं णेयब्वाई | चंदविमाणं भंते! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! छप्पणं खलु भाए विच्छिण्णं चंदमंडलं होइ । अट्टावीसं भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं ||१|| अडयालीसं भाए विच्छिणं सूरमंडलं होइ चडवीसं खलु भाए बाहलं तस्स बोद्धव्वं |२| दो कोसे य गहाणं णक्खत्ताणं तु हवइ तस्सद्धं । तस्सद्धं ताराणं तस्सद्धं चेव बाल्लं | ३ |ति ॥ सू० २८ ॥ छाया - जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे अष्टाविंशते नक्षत्राणां कतरद् नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं चारं चरति कतरद् नक्षत्रं सर्वबाह्य चारं चरति कतरद् नक्षत्रं सर्वाधस्तनं चारं चरति कतरद् नक्षत्र सर्वोपरितनं चारं चरति ? गौतम ! अभिनिम्नक्षत्र सर्वाभ्यन्तरं चारं चरति, मूल: सर्वबाह्य चारं चरति, भरणी सर्वाधस्तनं स्वाती सर्वोपरितनं चारं चरति । चन्द्रविमानं खलु ३ तीन योजन जाने पर गुरुग्रहों का पटल स्थित है गुरुग्रह पटल से आगे ऊपर ३ तीन योजन जाने पर मंगलग्रहों को पटल स्थित है । मंगल ग्रह पटल से आगे ऊपर ३ तीन योजन जाने पर शनैश्वर महाग्रहों का पटल स्थित है । इस प्रकार से ग्रहों और नक्षत्रों का अवस्थान जानना चाहिये ॥२७॥ આગળ ઉપર ૩ ચેાજન જઇએ ત્યાં મંગળગ્રહનુ પટલ સ્થિત છે. મ ગલગ્રહ પટલથી આગળ ઉપર ૩ ચૈાજન પર શનૈશ્વર મહાગ્રહેાનું પટલ સ્થિત છે. આવી રીતે ગ્રહે તથા નક્ષત્રોનુ અવસ્યાન જાવુ જોઇએ ર૭ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २८ नक्षत्रचार-गतिनिरूपणम् भदन्त ! किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं सर्वस्फटिकमयम् अभ्युद्गतोत्सृतम् एवं सर्वाणि नेतव्यानि । चन्द्र विमानं खलु भदन्त ! कियदायामविष्कम्भेण कियता बाहल्येन प्रज्ञप्तम्, षट्पश्चाशत् खलु भागं विस्तीर्ण चन्द्रमण्डलं भवति, अष्टाविंशतिभागं बाहल्यं तस्य बोद्धव्यम् १ । अष्टचत्वारिंशद्भागान् विस्तीर्ण सूर्यमण्डलं भवति, चतुविशति खलु भागे बाहल्यं तस्य बोद्धव्यम् ॥२॥ द्वौ क्रोशौ च ग्रहाणां नक्षत्राणां तु भवति तस्याद्धेम् ताराणां तस्याद्ध चैव बाहल्यम् ॥ सू० २८॥ टीका-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' अष्टाविंशते रष्टाविंशतिसंख्यकानां नक्षत्राणां मध्ये 'कयरे णक्खत्ते' कतरद् नक्षत्रम् 'सबभंतरिल्लं चार चरई' सर्वेभ्यो मंडलेभ्योऽभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तरस्तं चारं चरति, तथा-'कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरं चारं चरई' कतरत् नक्षत्रं सर्वबाह्य सर्वतो नक्षत्रमण्डलाब्दहि श्वारं चरति तथा-'कयरे णक्खत्ते सव्वहिद्विल्लं चारं चरई' कतरद् नक्षत्रम् सर्वाधिस्तनं सर्वेभ्योऽधस्तनं चारं चरति, तथा 'कयरे णक्खत्ते सव्वउवरिल्लं चारं चरइ' कतरद् नक्षत्रं सर्वोपरितनं चारं चरतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अभिई णक्खत्ते सञ्चभंतरं चारं चरइ' अष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्येऽ भिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तर चारं चरति यद्यपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारीणि अभिजिदादि 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' इत्यादि टीकार्थ-गौतमस्वामीने इस सूत्रद्वारा ऐसा पूछा है-जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' हे भदन्त ! इस जंबूद्वीप नामके द्वीप में 'अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं' २८ नक्षत्रों में से 'कयरे णक्खत्ते' कोन नक्षत्र 'सव्वन्भंतरिल्लं चारं चरइ' सर्वाभ्यन्तर अर्थात् सर्व नक्षत्र मंडल के भीतर होकर गति करता है ? 'कयरे णक्खत्ते सन्धबाहिरं चारं चरई' कौन नक्षत्र सर्व बाह्य अर्थात् सर्व नक्षत्र मंडल से बाहर होकर गति करता है ? 'कयरे णक्खत्ते सव्वहिडिल्लं चारं चरई' कौन नक्षत्र सव नक्षत्र मंडल से नीचे होकर गति करता है-तथा-'कयरे णक्खत्ते सच उवरिल्लं चारं चरई' कौन नक्षत्र सब नक्षत्र मंडले से ऊपर होकर गति करता है ? इस तरह 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे अट्ठावीसाए णक्खत्ता' टी -गौतभस्वामी या सूत्र वा। सेभ ५७युछे-'जंबुहोवेणं भते ! दीवे' महत मापूदीय नामना दीपभो 'अदावीसाए णक्खत्ताणं' २८ नक्षत्रोमांधी 'कयरे णखत्ते' ४या नक्षत्र 'सव्वभंतरिल्लं चारं चरइ'साक्ष्यन्त२ मर्थात् सवनक्षत्र भनी २०७२ गति ४२ छे. 'कयरे णक्खत्ते' 'सव्वबाहिर चारं चरइ' च्या नक्षत्र समाह्य अर्थात सनक्षत्र मंथी महा२ २ही गति ४२ छ ? 'कयरे णक्खत्ते सव्वहिदिल्लं चार चरई' यां नक्षत्र सर्वनक्षत्र भजनी नीये २४ गत ४२ छ? तथा-'कयरे णक्खत्त सव्वउवरिल्लं चार કયા નક્ષત્ર બધાં નક્ષત્ર મંડળની ઉપર થઈને ગતિ કરે છે? આ જાતના આ પ્રશ્નોના Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ अम्बूद्वीपाशतिसूत्रे द्वादशनक्षत्राणि भवन्ति तथापि इदमभिनिनक्षत्रं शेपैकादेशनक्षत्रापेक्षया मेरुदिशि स्थितं सत् चार चरति तस्मात् कारणात् सर्वाभ्यन्तरचारीति कथितम् । तथा-'मृलो सत्यवाहिर चारं चरई' मूलनामकं नक्षत्रं सर्वबाह्य चार चरति यद्यपि पश्चदशमण्डलाद् बहिचारीणि मृगशिरः प्रभृतीनि पडूनक्षत्राणि पूर्वापाढोत्तराषाढयो श्चतुर्णा तारकाणां मध्ये द्वे द्वे तारके कथितानि, तथापि एतन्मूलनक्षत्र मपरवहिश्चारि नक्षत्रमपेक्ष्य लवण समुदिशि व्यवस्थितं सत् चार चरति, अस्मादेव कारणात् मूलनक्षत्रं सातो बहिश्चरतीति कथितम् अतो न कोऽपि दोष इति । 'भरणीहिदिल्लं' भरणी नक्षत्रं सर्वाधस्तनं चार चररि, तथा-'साई सय उवरिल्लं चार घरइ' स्वातीनक्षत्रं सर्वोपरितनं चार चरति, अर्थाद् दशाधिकशतयो जनरूपे ज्योतिश्चक्रबाहल्ये यो नक्षत्राणां क्षेत्रविभागश्चतु यौजनप्रमाणकः तदपेक्षयोक्तनक्षत्रयोः क्रमेणाधस्तनौ के इन प्रश्नों के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! अभिई णक्खत्ते सव्वन्भंतरे चारं चरई' २८ नक्षत्रों में से जो अभिजित् नक्षत्र है वह सर्व नक्षत्र मंडल के भीतर होकर गति करता है यद्यपि सर्वाभ्यन्तर मंडल चारी अभिजितू आदि १२ नक्षत्र हैं तथापि यह अभिजित् नक्षत्र शेष ११ नक्षत्रों की अपेक्षा मेरु दिशामें स्थित होकर गति करता है इस कारण इसे सर्वाभ्यन्तर चारी कहा गया है। तथा-'मूलोसव्वबाहिरं चारं चरइ' मूल नक्षत्र सर्व नक्षत्र मंडल से बाहिर होकर गति करता है यद्यपि पन्द्रह मंडल से बहिश्चारी मृगशिरा आदि छह नक्षत्र और पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा इन दो नक्षत्रों के चार तारकों के बीच दो दो तारे कहे गये हैं तब भी यह मूल नक्षत्र अपर बहिवारी नक्षत्र की अपेक्षा लवण समुद्र की दिशा में व्यवस्थित होकर गति करता है इसी कारण मूल नक्षत्र सर्वतो बाहिचारी है ऐसा कहा गया है। इसलिये कोई भी दोष नहीं है। 'भरणी हिडिल्लं' भरणी नक्षत्र सर्वनक्षत्र मंडल से अधश्चारी होकर गति करता है तथा-'साई सव्व उवरिल्लं चारं चरइ' स्वाति नक्षत्र सर्वनक्षत्र मंडल से ऊपर उत्तरमा प्रभु ४३ छे–'गोयमा ! अभिई णक्खत्ते सव्वभंतरं चारं चरइ' २८ नक्षत्र माथा रे અભિજિત્ નક્ષત્ર છે તે સર્વ નક્ષત્ર મંડળની અંદર થઈને ગતિ કરે છે. જો કે સર્વાભ્યન્તર મંડળ ચારી અભિજીત આદિ ૧૨ નક્ષત્ર છે તે પણ આ અભિજિત નક્ષત્ર બાકીનાં ૧૧ નક્ષત્રની અપેક્ષા મેરૂ દિશામાં સ્થિત થઈને ગતિ કરે છે આથી જ તેને સભ્યન્તર यारी हेपामा माव्यु छे तथा 'मूलो सव्वबाहिरं चारं चारइ' भू नक्षत्र सपनक्षत्र भर. ળની બહાર થઈને ગતિ કરે છે. જો કે પંદર મંડળથી બહિશ્ચારી મૃગશિર આદિ છે નક્ષત્ર અને પૂર્વાષાઢા અને ઉત્તરાષાઢા એ બે નક્ષત્રના ચાર તારકેની વચ્ચે બબ્બે તારા કહેવામાં આવ્યા છે તે પણ આ મૂલ નક્ષત્ર ઉપર બહિરી નક્ષત્રની અપેક્ષા લવણ સમુદ્રની દિશામાં વ્યવસ્થિત થઈને ગતિ કરે છે. આથી જ મૂલ નક્ષત્ર સર્વ તે બહિશારી छ भ डेवामा माथ्यु छ साथी ४ ५ दोष नथी 'भरणी हिदिल्लं' भरणी नक्षत्र नक्षत्र मथी अश्वारी ने गति ४२ छे तथा 'साई सब्व उबरिल्लं चारं चरई' Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कार: सू. २८ नक्षत्रचार गतिनिरूपणम् परिभागौ ज्ञातव्याविति पष्ठं द्वारम् । सम्प्रति सप्तमद्वारं पृच्छन्नाह - 'चंद विमाणेणं' इत्यादि, चंदविमाणं भंते! कि संठिए पनते' चन्द्रविमानं खलु महन्त : किं संस्थितं कीदृवसंस्थानविशिष्टं प्रज्ञप्तं कथितमिति चन्द्र विमानस्याकारविषये प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अद्धविठाणसं ठिए सव्वालियामए अन्भुग्गयमुसिए एवं सव्वाई णेयव्वाई' उत्तानीकृताकपित्थसंस्थानसंस्थितम् सर्वस्फटिकमय मभ्युद्गतोत्सृतम् अत्युम्नतम् जम्बूद्वीपस्य पूर्वदिगवस्थित विजयद्वारपुरस्थप्रकण्ठकगतप्रासादवर्णनं निरवशेषमत्र वक्तव्यम् विस्तरभयान्नात्र लिरूयते विशेष जिघृक्षुभिः स्वयमेव द्रष्टव्यम् एवं चन्द्रविमानवर्णितन्यायेन सर्वाणि होकर गति करता है अर्थात् ११० योजन रूप ज्योतिश्चक्र बाहल्य में जो नक्षत्रों का क्षेत्र विभाग चतुर्योजन प्रमाण रूप है उसकी अपेक्षा से उक्त दो नक्षत्रों का क्रम से अधस्तन और उपरितन भाग जानना चाहिये । ४६५ सप्तम द्वार वक्तव्यता 'चंद विमाणे णं भंते । किं संठिए पश्नत्ते' हे भदन्त चन्द्र विमान का संस्थान कैसा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! अद्धकविट्ठसंठागसंठिए सव्वफलियामए अब्भुग्गयमुसिए एवं सव्वाई णेयव्वाई' हे गौतम! कपित्थ के आधे भाग का कि जिसे ऊपर की ओर मुंह करके रखा गया हो जैसा संस्थान - आकार होता है वैसा ही संस्थान चन्द्रविमान का है । यह चन्द्रविमान सर्वात्मना स्फटिकमणि का बना हुआ है अभ्युद्गतोत्सृत - अत्युन्नत है, यहां पर जम्बूद्वीप की पूर्वदिशा में अवस्थित विजय द्वार के प्रकण्ठक में रहे प्रासाद का जैसा वर्णन किया. गया है वैसा ही वह सब वर्णन यहां पर भी करलेना चाहिये, विस्तार हो जाने के भय से उसे हम यहाँ पर नहीं लिख रहे हैं। विशेष जिज्ञासुओं को वहीं पर સ્વાતિ નક્ષત્ર સર્વાંનક્ષત્રમંડળની ઉપર થઇને ગતિ કરે છે અર્થાત્ ૧૧૦ ચૈાજન રૂપ જ્યેતિશ્ચક માહત્યમાં જે નક્ષત્રાના ક્ષેત્રવિભાગ ચતુર્થાંજન પ્રમાણરૂપ છે તેની અપેક્ષાથી ઉક્ત એ નક્ષત્રાના ક્રમથી અધસ્તન અને ઉપરિતન ભાગ જાણવા જોઇએ. સપ્તમદ્વાર વક્તવ્યતા 'चंद्रविमाणे णं भंते ! किं संठिए पन्नते' हे लदन्त ! यन्द्रनिभाननेो भार देवे। छे ? उत्तरमा प्रभु उडे छे - 'गोयमा ! अद्धकविट्ठ संठाणसंठिए सव्वफालियामर अब्भुग्गय मुसिए एवं सव्वाई यव्वाई' हे गौतम! पित्थना आधा भागने नेने उपदनी तर भुञ કરીને રાખવામાં આવ્યું હાય એના જેવા આકાર હાય તેવા જ આકાર ચન્દ્રતિમાનના છે આ ચન્દ્રવિમાન સર્વાત્મના સ્ફટિક જાતિનું બનેલુ છે. અભ્યુદ્ગતમ્રુત-અત્યુન્નત છે, અહીંયા જમ્મૂદ્રીંગની પૂદિશામાં અવસ્થિત વિજયદ્વારના પ્રકણકમાં રહેલા મહેલનું જેવુ વન કરવામાં આવ્યું તેવું જ સ વન અહી પણ લાગુ પડે છે. વિસ્તાર થઈ જવાના ભયે · Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्रे सूर्यादि ज्योतिष्कविमानानि नेतव्यानि संस्थान नैयत्यबुद्धिं प्रापणीयानि । अथ यदि सकलान्यपि सूर्यादि ज्योतिष्कविमानानि अर्कीकृतकपित्थफलसदृशानि तत श्चन्द्रसूर्यविमानानि अति स्थूलत्वादुदयसमयेऽस्तमय नसमये वा यदि वा तिर्यक् परिभ्रमन्ति तदा कस्मात्कारणात् तथाविधानि न दृश्यन्ते ? यस्तु शिरस उपरिवर्तमानानां सूर्यादीनां तेषामधस्थायि जनेषु वर्तुलतया प्रतिभासं अर्द्धकपित्थस्य शिरस उपरि दूरमयस्थापितस्य परभागादर्शनतो वर्तुलतया दृश्यमानत्वात् भवति सोऽपि न समीचीनः पूर्णवृत्तस्यापि तथा दर्शनादिति चेदनोच्यते अत्र खलु अर्द्धकपित्थतुल्यानि न सामस्स्येन विमानानि ज्ञातव्यानि किन्तु से इस वर्णन को देख लेना चाहिये जैसा यह वर्णन चन्द्रविमान के संस्थान के सम्बन्ध में किया गया है वैसा ही वर्णन समस्त ज्योतिष्क सूर्यादिकों के विमानों के संस्थान को भी जान लेना चाहिये, शंका-यदि समस्त सूर्यादिक ज्योतिष्कों के विमान अर्कीकृत कपित्थ फल के आकार जैसे हैं तो फिर चन्द्र और सूर्य के विमान अतिस्थूल हो जाने से उदयकाल में अथवा अस्तमयन काल में जब वे तिर्यक परिभ्रमण करते हैं तो फिर इस प्रकार के-ऐसे आकार से-उपलब्ध क्यों नहीं होते हैं-दिखलाई क्यों नहीं देते हैं ? तथा शिर के ऊपर वर्तमान उन सूर्यादिकों के विमानों का आकार नीचे रहे हुए जनों को जो वर्तुलाकार रूप से प्रतिभासित होता है वह समीचीन नहीं है क्यों कि अर्द्धकपित्थ जो कि शिर के ऊपर बहुत दूर स्थापित कर दिया जाय परभाग के नहीं दिखलाई देने के कारण वर्तलाकाररूप से दिखलाई देता है पूर्ण वृत्त का भी तो ऐसा ही आकार देखा जाता है। इसका समाधान ऐसा है-यहाँ जो चन्द्रादिकों के विमानों का आकार उर्ध्वमुख वाले अर्द्धकपित्थ के जैसा कहा गया है सो वह उनका सम्पू તેને અમે અત્રે વર્ણન કરતા નથી. વિશેષ જિજ્ઞાસુઓને ત્યાં જ આ વર્ણન જોઇ લેવા અનુરોધ કરીએ છીએ જેવું આ વર્ણન ચન્દ્રવિમાનના આકાર સબન્ધમાં કરવામાં આવ્યું છે. તેવું જ વર્ણન સમસ્ત તિક સૂર્યાદિકના વિમાનેનો આકાર પણ જાણ શંકા–જે સમસ્ત સૂર્યાદિક જ્યોતિષ્કના વિમાન અદ્ધકૃત કપિત્થફળના આકાર જેવાં છે તો પછી ચન્દ્ર તેમજ સૂર્યના વિમાન અતિસ્થલ થઈ જવાથી ઉદયકાળમાં અથવા અસ્તમયન કાળમાં જ્યારે તેઓ તિર્થક પરિભ્રમણ કરે છે તે પછી આ પ્રકારના–આવા આકારના ઉપલબ્ધ કેમ થતાં નથી? કેમ જોવામાં આવતાં નથી? તથા મસ્તકની ઉપર વર્તમાન તે સૂર્યાદિકના વિમાનેને આકાર નીચે રહેલા માણસને જે ગેળાકાર રૂપથી પ્રતિભાસિત થાય છે તે સમીચીન નથી કારણકે અદ્ધકપિત્થ કે જે મસ્તકની ઉપર ઘણે દૂર સ્થાપિત કરી દેવામાં આવે પરભાગના ન જોઈ શકવાના કારણે વર્તુલાકારરૂપે જોવામાં આવે છે પૂર્ણવૃત્તને પણ આ જ આકાર જોવા મળે છે, આનું સમાધાન આમ છે–અહીં જે ચન્દ્રાદિકના વિમાનેને આકાર ઉદર્વમુખવાળા અદ્ધ કપિત્થના જે કહેવામાં આવ્યું છે તે Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २८ नक्षत्रचार-गतिनिरूपणम् विमानानां पीठानि तेषां पीठाना मुपरि चन्द्रादीनां प्रासादास्ते च प्रासादा स्तथा कथश्चनापि व्यवस्थिता यथा पीठैः सह भूयात् वर्तुल आकारो भवति सच दूरत्वाद् एकान्ततः समवृत्ततया लोकानामवभासते ततो न कोऽपि दोष इति सप्तमद्वारम् ॥ ___ सम्प्रति-अष्टमद्वारं पृच्छति-'चंदविमाणे जं' इत्यादि, 'चंदविमाणे णं भंते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं' चन्द्रविमानं खलु भदन्त ! कियदायाम विष्कम्भाभ्यां दैर्घ्य विस्ताराभ्या मित्यर्थः तथा-'केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' कियता-कियत्प्रमाणकेन बाहल्येन-उच्चत्वेन प्रज्ञप्पं कथितम् उपलक्षणत्वात् सूर्यादिविमानानामपि आयामविष्कम्भादि विषयकः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! अत्र भगवान् पधेनोत्तरं ददाति, 'छप्पof खलु भाए विच्छिष्ण चंदमंडलं होइ' षट्पश्वाश देकषष्टिभागान् योजनस्य विस्तीर्ण चन्द्रर्णरूप से नहीं कहा गया है किन्तु विमानों के जो पीठ हैं वे ही ऐसे आकार वाले कहे गये हैं इन पीठों के ऊपर चन्द्रादिकों के प्रासाद हैं ये प्रासाद इस तरह से उन पर व्यवस्थित हैं कि जिससे उनके साथ उनका अधिक से अधिक आकार वर्तुल हो जाता है दूर होने से वह आकार लोकों को समवृत्त रूप मालूम पडता है, अतः इस प्रकार के कथन में कोई दोष नहीं है। अष्टम द्वार कथन 'चंदधिमाणेणं भंते ! केवइयं आयाम विक्खं भेणं' हे भदन्त ! चन्द्रधिमान की लम्बाई चौडाई कितनी है ? 'केवइयं बाहल्लेणं' ऊंचाई कितनी है ? उपलक्षण से ऐसा ही प्रश्न सूर्यादिक विमानों के सम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा। छप्पण्णं खल्लु भाए विच्छिन्नं चंदमंडलं होई' हे गौतम ! एक प्रमाणांगुल योजन के ६१ भागों में से ५६ भागप्रमाण चन्द्रविमान का विस्तार है-और समुदित ५६ भागों का जितना प्रमाण होता તેમના સપૂર્ણરૂપે કહેવામાં આવેલ નથી પરંતુ વિમાનની જે પીઠ છે તેજ આવા આકારવાળી કહેવામાં આવેલ છે, આ પઠેની ઉપર ચદ્રાદિકના પ્રાસાદ છે. આ મહેલે એવી રીતે તેમના ઉપર સ્થિત છે કે જેથી તેમની સાથે તેમનો વધુને વધુ આકાર વર્તુળ થઈ જાય છે. દૂર હોવાના કારણે તે આકાર લોકોને સમવૃત્તરૂપ ભાસે છે આથી આ પ્રકારના કથનમાં કંઈ દોષ લાગતો નથી अष्टभार ४थन'चंदविमाणेणं भंते ! केवइयं आयाम विक्खंभेणं' 8 महन्त ! यन्द्रविमाननी मा पाहुणा मी छ ? 'केवइयं बाहल्लेणं' या टी छ ? GAajथी या प्रश्न सूर्या विभानाना समयमा ५९४ ४२ ले साना वाममां प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! छप्पण्णं खलु भाए विच्छिन्नं चंदमंडलं होइ' गौतम से प्रभाय मांग योजना ६१ ભાગમાંથી ૫૬ ભાગ પ્રમાણુ ચન્દ્રવિમાનને વિસ્તાર છે–અને સમુદિત ૫૬ ભાગોનું જેટલું Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बबीपप्रजातियों मण्डलं भवति, अयं भाव:-एकस्य प्रमाणाङ्गुलयोजनस्यैकषष्ठिभागीकृतस्य षट्पञ्चाशता भागैः समुदितै विन्प्रमाणं भवति तावत्प्रमाणोऽस्य विमानस्य विस्तार: वृत्तपदार्थस्य सहशायामविष्कम्भत्वादिति, एवमेवोत्तरसूत्रेऽपि ज्ञातव्यम्, तेनायामोऽपि तावानेव, परिक्षेपस्तु वृत्तवस्तुनः सविशेष स्विगुणः परिधिरिति प्रसिद्ध एवेति । 'अट्ठावीसं भाए बादल्लं तस्स बोद्धव्यं तस्य चन्द्रविमानस्य बाहल्यं अष्टाविंशतिभागात् बोद्धव्यं ज्ञातव्यम् षट्पञ्चाशद् भागानामः एतावत एक्काभात् सर्वेषामपि ज्योतिष्कविमानानां स्वस्वव्यासप्रमाणाद प्रमाणबाइल्यानीति प्रतिपादनात् । 'अडयालीसं भाए विच्छिण्णं सूरमंडलं होइ' अष्टचत्वारिंशद्भागान् विस्तीर्ण सूर्यमण्डलं भवति, 'चउवीसं खलु भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं' चतुर्विंशति भागान् यावत् सूर्यविमानस्य बाहल्यं भवतीति बोद्धव्यम् 'दो कोसेय गहाणं' ग्रह विमानानां द्वौ क्रोशौ योजनार्द्ध मित्यर्थः बाहल्यं भवति 'णक्खत्ताणं तु हबइ तस्सद्धं' नक्षत्राणां तु बाहल्यं तस्याई ग्रहबाहल्यस्यार्द्धम्, ग्रहविमानवाहल्यस्य भोशद्वयपरिमितउतना विस्तार एक चन्द्रविमान का है क्योंकि जो वृत्त (गोल) पदार्थ होता है बह समान आयाम विष्कम्भ वाला होता है। इसी तरह से उत्तर सूत्र में भी जानना चाहिये इससे आयाम भी इतना ही होता है वृत्त वस्तु का परिक्षेप उसके आयामविष्कम्भ से कुछ अधिक तिगुना होता है यह तो प्रसिद्ध ही है 'अट्ठावीसं भाए बाहल्लं तस्स बोद्धन्वं' चन्द्र विमान का थाहल्य-ऊंचाई-५६ भागप्रमाण विस्तार से आधा है अर्थात् २८ भाग प्रमाण है क्यों कि जितने भी ज्योतिष्क विमान हैं उनका-उन सब का बाहल्य अपने २ व्यास के प्रमाण से आधा कहा गया है । 'अडयालीसं भाए विच्छिण्णं सूरमंडलं होइ' ४८ भाग प्रमाण विस्तार सूर्यमण्डल का है 'च उचीसं खलु भाए थाहल्लं तस्स बोद्धव्वं' . और १४ भाग प्रमाण इस का बाहल्य है 'दो कोसे य गहाणं' ग्रहविमानों का पाहल्य दो कोश का-आधे योजन का है 'णक्खत्ताणं तु हवा तस्सद्ध' नक्षत्र પ્રમાણુ હોય છે એટલે વિસ્તાર એક ચન્દ્રવિમાનનો છે. કારણ કે જે વૃત્ત (ગેળ) પદાર્થ હોય છે તે સમાન આયામ વિષ્કર્ભવાળે હોય છે, આજ પ્રમાણે ઉત્તરસૂત્રમાં પણ જાણવું આથી આયામ પણ એટલે જ થાય છે. વૃત્ત વસ્તુને પરિક્ષેપ તેના આયામ વિકલ્સથી ४४४ पधारे त्रय गाय छ, थे ! onीतु छ. 'अट्ठावीसं भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं' यन्द्र विमानन पाय-या-५१ मा प्रभा विस्तारथी मधु छ अर्थात् ૨૮ ભાગ પ્રમાણ છે કારણ કે જેટલાં પણ જતિષ્ક વિમાન છે તેમની-તે બધાની या पोत पोताना व्यासना प्रभाथी सधी हवामा भावी छ. 'अडयालीसं भाए विच्छिन्नं सूरमंडलं होई' ४८ मा प्रभार विस्तार सूर्य भ3. छे. 'चउवींसं खलु माण बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं' भने २४ मा प्रभार सनी #या छ, 'दो कोसे च गहाणं' विमानानी या मे शनी-५७५॥ योजननी छे. 'णक्खत्ताणं तु हवइ तस्सद्धं' नक्षत्र Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४६७ त्वात्तस्याई क्र शैकं भवतीत्यर्थः 'तस्सद्धं ताराणं तस्सद्धं चेत्र बाहल्लं' तस्याद्धं क्रोशार्दम् ताराविमानानां विस्तारः तदई ताराविमानस्य बाहल्यम् ग्रहादि विमानानां मध्ये यस्य विमानस्य यो व्यासः तस्य विमानस्य तदर्द व्यासाद्धं बाहल्यं भवति यथा क्रोशद्वयस्याद क्रोशमात्र परिमितं ग्रह विमानबाहल्यम् क्रोशार्द्ध नक्षत्रविमानं बाहल्यम्, क्रोशतुर्या श स्तारा विमानबाहल्यम् इति अष्टम द्वारम् ॥ सू० २८॥ सम्प्रति नवमद्वारं वर्णयितु मेकोनविंशत्सूत्रमाह-'चंदविमाणे णं भंते' इत्यादि, मूलम् -चंदविमाणे णं भंते ! कइ देवसाहस्सीओ परिवहति ? गोयमा! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंतीति चंदविमाणस्स णं पुरस्थिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिधणगों. खीरफेणरययणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउटुगवटुपीवरसुसिलिट्ट विसिटू तिक्खदाढाविडंबियमुहाणं रत्तुप्पलपत्तमउय सुकुमालतालुजीहाण महुगुलियपिंगलक्खाणं पीवरवरोरुपडिपुषणविउलखंधाणं मिउविसय सुहमलक्षण पसत्थवरवण्णकेसरसडोवसोहियाणं उसिय सुनमिय सुजाय अप्फोडियलंगूलाणं वइरामय णखाणं वइरामयदाढाणं वाईरामयदंताणं तवणिज जीहाणं तवणिज तालुयाणं तवणिज जोत्तगहुँ जोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिय गईणं अमियबलबीरियपुरिसकारपरकमाणं महया अप्फोडिय सीहणाय बोलकलकलरवेणं महुरेणं मणहरेणं पुरेता अंबरं दिसाओ य विमानों का बाहल्य एक कोश का है 'तस्सद्धं ताराणं' ताराओं के विमानों का विस्तार आधे कोश का है, इस विस्तार से आधा उनका बाहल्य है। ग्रहादि विमानों में जिस विमान का जो व्यास है उस व्यास से आधा उस विमान का बाहल्य होता है। जैसे-ग्रहविमान का बाहल्य एक कोश का है, नक्षत्रविमानों का बाहल्य आधे कोश का है और कोश के चौथे भाग प्रमाण बाहल्य तारा विमान हैका ॥२८॥ विमानानी या उनी तस्सद्धं ताराणं' ताराना विमानाना विस्तार मया ગાઉને છે, આ વિસ્તારથી અડધી તેમની ઊંચાઈ છે. હાદિ વિમાનોમાં જે વિમાનને જે વ્યાસ છે તે પાસથી અડધી ને વિમાનની ઊંચાઈ હોય છે જેમકે-હું વિમાનની ઊંચાઈ એક ગાઉની છે, નક્ષત્ર વિમાનની ઊંચાઈ અડધા ગાઉની છે અને ગ્રાઉના રાજા ભાગ પ્રમાણુ ચઈ તારા વિમાનની છે. ૨૮ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अम्मूदीपप्रतिसूत्रे सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारीणं पुरथिमिल्लं वाहं वहंति । चंदविमाणस्स णं दाहिणे सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मल दधियणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं वइरामय कुंभजुयल सुट्रियपीवरवरवइरसोंडवट्टियदित्त सुरत्तपउमप्पगासाणं अब्भुएणयमुहाणं तवणिजविसालकाणचंचलचलंतबिमलजलाणं महवण्णभिसंत णिद्धपत्तल निम्मल तिवण्णमणिरयणलोयणाणं अब्भुग्गय मउलमल्लिया धवलसरिससंठिय णिव्वणदढकसिणफासियामयसुजाय दंतमुसलोवसोभियाणं कंचणकोसीपविठ्ठदंतग्गविमलमणिरयणरुइलपेरंतचित्तरूयगविराइयाणं तवणिज्ज विसाल तिलगप्पमुहपरिमंडियाणं नानामणिरयणमुद्धगेविजबद्धगलयवरभृसणाणं वेरुलिय विचित्तदंडनिम्मल वइरामयतिक्खलट्र अंकुसकुंभजुयल यंतरोडियाणं तवणिज सुबद्ध कच्छदप्पिय वलधुराणं विमलघणमंडल वइरा. मय लालाललियतालणाणं णाणामगिरयणघंटपासग रजतामयबद्धलज्जुलंबिय घंटाजुयलमहुरसरमणहराणं अल्लोण पमाणजुत्तवट्टिय सुजायलक्खणपसत्थरमणिजवालगत्तपुंछणाणं उवचिय पडिपुण्ण कुंभ चलणलहुविकमाणं अंकमयणक्खाणं तवणिजजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्ज जोत्तग सुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमियगईणं अमिबलवीरियपुरिस्सकारपरकमाणं महया गंभीरगुलगुलाइय रवेणं महुरेणं मणहरेणं प्रेता अंबरं दिसाओ य सोमंता चत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं वाहं परिवहंति त्ति। चंदविमाणस्स णं पञ्चत्थिमेणं सुभगाणं सुप्पभाणं चलचवलकुहसालीण घणनिचिय सुबद्धलक्खणुण्णय ईसियाणय वसभोट्ठाणं चंकमियललिय पुलिय चलचवलगव्वियगईणं सन्नत्त. पासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं पीवरवट्टिय सुसंठिय कडीणं ओलंब पलंब लक्खणपमाणजुत्तरमणिजबालगंडाणं समखुरवालिधाणाणं Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहक देवसंख्यानि० समलिट्टिय संग तिक्खग्ग संगयाणं तणुसुहुमसुजाय णिद्धलोमच्छविधराणं उवचियमंसलविसालपडिपुण्णखंधपएससुंदराणं वेरुलियभिसंतकडक्खसुणिक्खिमाणाणं जुत्तपमाण पहाणलक्खणपसत्थरमणिज गग्गर गल्लसोभियाणं घरघरगसुसद्द बद्धकंठपरिमंडियाणं णाणामणि कणगरयणघट्टिया वेगच्छिग सुकयमालियाणं वरघंटागलय मालुज्जलसिरिधराणं पउमुप्पलसगल सुरभिमालाविभूसियाणं वइखुराणं विविहखुराणं फालियामयदंताणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुयाणं तदणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमियगणं अमिय बलवीर पुरिस्सकारपरक्कमाणं महया गज्जियगंभीररवेणं महुरेणं मणहरेणं पूता अंबरं दिसाओ य सोभयंता वत्तारि देवसाहसीओ वसहरूवधारणं देवाणं पञ्च्चत्थिमिल्लं वाहं परिवहति त्ति । चंदविमाणस्स णं उत्तरेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं तरमल्लिय हायणाणं हरिमेलमउलमल्लिअच्छाणं चंचुच्चियललिय पुलिय चलचवलचंचलगईणं लंघणवग्गण धावणधोरण तिवइ जइण सिक्खियगईणं ललंतला मगललायवर भूसणाणं संनयपासाणं संगयपासाणसुजायपासाणं पीवरवहिय सुसंठियकडीणं ओलंचपलंबलक्खणप्पमाणजुत्तरमणिजवाल पुच्छाणं तणुसुहुमसुजाय णिद्धलोमच्छविहराणं मिउक्सिय सुहुमलक्खण पत्थविच्छिण केसरवालिहराणं ललंतथासगललाडवर भूलणाणं मुहमंडगओचूलगचामरथासग परिमंडियकडीणं तवणिज्जखुराणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिजजोत्तम सुजोइयाणं कामगमाणं पीड़गमाणं मनोगमाणं मणोरमाणं अमियगईणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं महयाहयहेसिय किलकिलाइय रखेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेंता अंबरंदिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हयरुवधारिणं देवाणं उत्तरिल्लं बाहं परिवहंति त्ति । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा - सोलस देवसहस्सा हवंति चंदेसु चेत्र सूरेसु । अट्ठेव सहस्साई एक्केrकंमि गहविमाणे १ ॥ चत्तारि सहस्साइं णक्खत्तंमि य हवंति इक्किक्के । दो चेव सहस्साई तारारूवेकमेकंमि ॥२॥ एवं सूरविभाणाणं जाव तारारूवविमाणाणं णवरं एस देव संघापत्ति ॥ सू० २९॥ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे छाया - चन्द्र विमानं खलु भदन्त ! कति देव सहस्राणि परिवहति ? गौतम ! षोडश देव - सहस्राणि परिवहन्तीति । चन्द्रविमानस्य खलु पौरस्त्येन श्वेतानां सुभगानां सुप्रभाणां शंखतल विमल निर्मलदधि घनगोक्षीरफेनरजत निकरप्रकाशानां स्थिर लष्टप्रकोष्टकवृत्त पीवरसुशिष्ट विशिष्टतीक्ष्णदंष्ट्राविडम्बितमुखानां रक्तोत्पलपत्र मृदु सुकुमालतालुजिद्दानां मधुगुटिका पिङ्गकाक्षाणां पीवरवरोरूपरिपूर्णविपुलस्कन्धानां मृदु विशद सूक्ष्मलक्षण प्रशस्त वरवर्णकेशरसटोपशोभितानाम् उच्छ्रितसुन मितसुजातस्फोटितलाङ्गूलानां वज्रमयनखानां वज्रदंष्ट्राणां वज्रमयदन्तानां तपनीयजिह्नानां तपनीयतालुकानां तपनीय यो सुयोजितानां कामगमानां प्रीतिगमानां मनोगमना मनोरमाणाम् अमितगतीनाम् अमितबलवीर्य पुरुषकारपराक्रमाणाम्, महता आस्फोटितसिंहनादबोल कळकलरवेण मधुरेण मनोहरेण पूरयन्ति अम्बरं दिशाश्च शोभयमानानि चत्वारि देवसहस्राणि सिंहरूपधाfort पौरस्त्यां arti परिवहन्तीति ॥ चन्द्रविमानस्य खलु दक्षिणेन श्वेतानां सुभगानां सुप्रभाणां शङ्ख विमल निर्मलदधिधनगोक्षीरफेनरजतनिकरप्रकाशानां वज्रमय कुम्भयुगल सुस्थितपीवरवरवज्रशुण्डवर्त्तितदीप्त सुरक्त पद्मप्रकाशानाम् अभ्युनतमुखानां तपनीय विशाल कर्णचञ्चलचलद्विमोज्ज्वलानां मधुवर्ण भासमानस्निग्धपत्रल निर्मल त्रिवर्णमणिरत्न कोचनानाम् अभ्युद्गत मृदुलमल्लिका धवलसहय संस्थित निर्वणादृढ कृत्स्न स्फटिकमय सुजातदन्तमुशलोपशोभितानां काञ्चनकोशी प्रविष्ट दन्ताग्रविमलमणिरत्न रुचिर पर्यन्त चित्ररूपकविराजितानां तपनीय विशालतिलकप्रमुखपरिमण्डितानां नानामणिरत्नमूर्द्ध ग्रैवेयकबद्धगलकवरभूषणानां वैविचित्रदण्ड निर्मल मय तीक्ष्ण लष्टाङ्कुरा कुम्भयुगलान्तरोदितानां तपनीय सुबद्ध कच्छदर्पितबोराणां विमलघनमण्डळ वज्रमय लालाछलितताडनानां नानापणिरत्न घण्टापार्श्वगरजतमयबद्ध रज्जुलम्बिनघण्टायुगल मधुरस्वर मनोहराणाम् आळीनप्रमाणयुक्तवर्त्तितमु जात लक्षण प्रशस्त रमणीयबालगात्र परिपुंछनानाम् उपचित परिपूर्णकूर्मचलन लघुविक्रमाणा मङ्कमयनखानां तपनीयजिद्दानां तपनीय तालुकानां तपनीय योत्रक सुयोजितानां कामगमानां प्रीतिगमानां मनोगमानां मनोरमाणाम् अमितगतीनाम् अमितबलवीर्य पुरुषकारपराक्रमाणाम् महता गंभीर गुळगुळायितरवेण मधु Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाक्षिका रीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि०११ रेण मनोहरेण पूरयन्ति अम्बरं दिशाश्च शोभयन्ति चत्वारि देवसहस्राणि गजरूपधारिणां देवानां दाक्षिणात्यां बाहां परिवान्तीति ॥ चन्द्रविमानस्य खलु पश्चिमायां खलु श्वेतानां सुभगानां सुप्रभाणां चल चपलककूटशा. लीनां धननिचित सुबद्धलक्षणोन्मत्तेपदानत कृपोष्ठानां चंक्रमित ललित पुलकित चलचपल गर्वितगतीनां सन्नतपार्थानां संगतपार्थानां मुजापानिां परिवर्तितसुसंस्थितकटीनाम् अवलम्ब प्रलम्ब लक्षण प्रमाणयुक्त रमणीय बालगण्डानां समखुरवालिधानानां समलिखित शङ्गतीक्ष्णाग्रसंगवानां तनु सूक्ष्म सुजातस्निग्धलोमच्छविधराणामुपचितमांसलविशाल परिपूर्णस्कन्धप्रदेशसुन्दराणां वैडूर्यभासमानकटाक्षसुनिरीक्षणानां युक्तप्रमाणप्रधानलक्षणप्रशस्तरमणीयगग्गरगलशोभितानां घर घर सुशब्दबद्ध कठपरिमण्डिवानां नानामणिकनकरत्नघटिकावैकक्षिक सुकृतमालिकानां वर घण्टा गलकमालोज्ज्वलश्रीधराणां पदमोत्पल सकलमुरभिमालाविभूषितानां वनखुराणां विविधविखुराणां स्फटिकमयदन्तानां तपनीय. जिवानां तपनीयतालुकानां तपनीय योत्रक योनितानां कामगमानां प्रीतिगमानां मनोगमानां मनोरमाणाममितगतीनाम् अमित बलबीर्यपुरुषकारपराकमाणां महता गनितगम्भीररवेण मधुरेण मनोहरेण पूरयन्ति अम्रदिशाश्च शोभयन्ति चत्वारि देव सहस्राणि वृषभरूपधारिणां देवानाम्, पाश्चात्यां बाह परिवहन्तीति चन्द्रश्मिानस्य खलु उत्तरेण श्वेतानां सुभगानां सुप्रमाणां तरो मल्लिहाय नानां हरिमेलक मल्लिकाक्षाणां चंचुरित ललित पुलकित चलचपल चञ्चलगतीनां लङ्घनवलानमान धोरण त्रिपदी जयिनी शिक्षितगतीनां ललंतलामगलगतवरभूषणानां सन्नतपार्थानां सङ्गतपार्थानां पीवरवर्तितसुसंस्थितकटीनाम, अवकम्ब प्रलम्बलक्षणप्रमाणयुक्त रमणीय बालपुच्छानाम्, तनु सूक्ष्मसुजातस्निग्धलोमच्छ विधराणाम् मृदुविशदसूक्ष्मलक्षणपशसविस्तीर्णरेशरबालधरणाम, ललन्त थासगललाट वरभूषणानाम् मुखमण्डकावचूलकचामर थासर.परिमण्डित कटीनाम्, तपनीयखुराणाम तपनीयजिह्वानां तपनीयतालुकानां तपनीय योजक सुयोनितानां कामगमानां प्रीतिगमानां मनोगमानां मनोरमाणाममितगतोनाम अभितबलवीये पुरुषकारपराक्रमाणाम् महता हयहेषित किलकिलायितरवेण मनोहरेण पूरयन्ति अम्बरदिशाश्च शोभयन्ति चत्वारि देव सहस्राणि हयरूपधारिणरां देवानामुत्ता वाहां परिवहन्तीति । गाथा-पोडश देव सहस्राणि भवन्ति चन्द्रेषु चैव सूर्येषु । अष्टावेव सहस्राणि एकै कस्मिन् ग्रह विमाने ।।१॥ चत्वारि सहस्राणि नक्षत्रं च भवन्ति एकै कस्मिन् । द्वे चैत्र सहस्रे तारारूपे एकैकस्मिन् ॥२॥ एवं सूर्यविमानानां यावत् तारारूपविमानानाम् नवरमेव देवसंघात इति ॥सू ० २९॥ टीका-'चंदविमाणे णं भंते' चन्द्रविमानं खलु भदन्त ! 'कइदेवताहस्सीओ परिवहंति' कति-कियत्संख्यकानि देव सहस्राणि तत्र देवानामाभियोगिकदेवानां सहस्राणि परिवहन्तिः Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ जम्मूछोपप्रतिस्त्रे विमानं नीला प्रचलन्ति इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा!' हे गौतम ! 'सोलसदेव साहस्सीओ परिवहति' षोडशदेवसहस्राणि परिवहन्तीति, एकैकस्यां दिशि चतुः चतुः सहस्राणां देवानां सद्भावात् अयं भावः-अत्र खलु चन्द्रादि देवानां विमानानि तथाजगत्स्वभावादेव निरालम्बनानि वहमानानि अवतिष्ठन्ति केवलं ये आभियोगिकादेवास्ते आभियोगिकनाम कर्मोदयबलात् उत्तमजातीयानां तुल्यजातीयानां हीनजातीयानां वा देवाना स्वकीय महिमातिशय दर्शनार्थ स्वकीयमात्मानं बहुमन्यमानाःप्रमोदमदभृतः अनवरत चलन शीलेषु विमानेष्वधः स्थित्वा केवन सिंहरूपाणि केवन गजरूपाणि केचन वृषभरूपाणि नौवें द्वार की वक्तव्यता'चंद विमाणे णं भंते ! कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति' टीकार्थ-श्रीगौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'चंदविमणे पं भंते ! हे भदन्त ! जो चंद्र विमान है उसे 'कइ देव साहस्सीओ परिवहति' कितने हजार देव-कितने हजार आभियोगिक जाति के देव-लेकर के चलते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सोलसदेव साहस्सोओ परिवहंति' हे गौतम! चन्द्र के विमान को १६ सोलह हजार देव लेकर के चलते हैं। एक एक दिशा में ऐसे चार २ हजार देव रहते हैं। यद्यपि चन्द्रादिक देवों के विमान स्वभावतः ही निरालम्बभूत हैं और इसी प्रकार से वे विना सहारे के चलते हैं परन्त जो आभियोगिक जाति के देव हैं वे आभियोगिक नाम कर्म के उदय के बलसे उत्तम जाति वाले देवों के, तुल्य जातीयवाले देवों के, अथवा हीन जातिवाले देवों के निरन्तर प्रचलनशील विमानों में अपनी महिमा का अतिशय दिखाने के निमित्त अपने आपको उनके विमानों के नीचे रहने में श्रेष्ठ मानते हुए નવમા દ્વારની વ્યક્તવ્યતા 'चंद विमाणे णं भंते ! कइ देवसाहस्सीओ परिवहति' त्य. साथ-गौतभाभी प्रस्तुत सूत्र द्वारा प्रभुने २॥ प्रमाणे पूछयु-चंदविमाणे भते! मत!२ यन्द्रीयमान छे तने-'कइ देव साहस्सीओ परिवहंति' enार દેવ-કેટલા હજાર આભિયોગિક જાતિના દેવ-લઈને ચાલે છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે -गोयमा ! सोलसदेवसाहस्सीओ परिवहंति' गौतम ! यन्द्रना विमानने १६ सोग હજાર દેવ લઈને ચાલે છે. એક–એક દિશામાં આવા ચાર-ચાર હજાર દેવ રહે છે. જોકે ચન્દ્રાદિક દેના વિમાન સ્વભાવતઃ જ નિરાલ...ભૂત છે–અને આ પ્રકારથી તેઓ વગર સહારે ચાલે છે. પરંતુ જે આભિગિક જાતિના દેવ છે તેઓ આભિગિક નામકમના ઉદયના બળથી ઉત્તમ જાતિવાળા દેના તુલ્યજાતીયવાળા દેવના અથવા હીનજાતિવાળા રવાના નિરન્તર પ્રચલનશીલ વિમાનમાં પિતાના મહિમાનું પ્રાબલ્ય દર્શાવવાના નિમિત્તે પોતે પોતાની જાતને તેમના વિમાનની નીચે રહેવામાં જ શ્રેષ્ઠ માનતા થકાં આનન્દ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि०७३ केचन इयरूपाणि कृत्वा तानि तानि विमानानि परिवहन्ति लोकेऽप्येवमनुभूयते-यथा कोऽपि तथाविधाभियोग्यनाम रूप कर्मोपभोग भागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां वा हीनजातीयानां वा पूर्वपरिचितानामेवमहं नायकस्य प्रसिद्धस्यास्य सम्मत इति कृता स्वकीय माहात्म्यातिशयदर्शनार्थ सर्वमपि स्वोचितं कर्म प्रमुदितः सन् करोति, एवमेवाभियोगिका स्ते देवा स्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगमाजः समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानामन्येषामेवं समृद्धा यत् सकललोकप्रसिद्धानां महामहिम्नां चन्द्रप्रभृतिदेवानां विमानानि वहाम इत्येवं निजमाहात्म्यातिशयदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादि विमानानि वहन्तीति ॥ आनन्द भाव से युक्त बनकर निरन्तर स्थित रहा करते हैं इनमें से कितनेक तो उस समय सिंहरूप वाले बन जाते हैं कितनेक गजरूप वाले बन जाते हैं कितने क वृषभरूप वाले बन जाते हैं और कितनेक घोडा के रूप वाले हो जाते हैं इस प्रकार के नाना रूपों को धारण कर वे उन विमानों को लेकर चलते रहते हैं। लोक में भी ऐसा ही देखने में आता है कि जो तथाविध अभियोग्य नामरूप कर्मोपभोगभाग दास होता है वह अन्य समान जातिवालों का अथवा हीन जाति वालों का या पूर्वपरिचित जनों का यह प्रसिद्ध नेता है इस ख्याल से अपनी भक्ति उसके प्रति प्रदर्शित करने के निमित्त बडे आनन्द के साथ स्वोचित कार्य करता ही है इसी तरह से ये आभियोगिक देव अपने आभियोग्य नाम कर्मके उदय के बल से समान जाति वाले देवों के अथवा हीन जाति वाले देवों के अथवा और भी देवों के उन्हें अपने से अधिक समृद्ध हुआ मानकर या वे चन्द्रादिक देव सकललोक प्रसिद्ध देव हैं और महामहिमाशाली हैं उनके विमानों को हम वहन करें इस ख्याल से प्रेरित होकर उनके विमानो को एक ભાવથી ભીના બનીને નિરન્તર સ્થિત રહ્યા કરે છે આમાંથી કેટલાક તે તે સમયે સિંહરૂપ બની જાય છે. હાથી જેવા રૂપવાળા બની જાય છે, કેટલાંક વૃષભરૂપ બની જાય છે જ્યારે કેટલાંક ઘોડાના રૂપવાળા બની જાય છે. આ જાતના વિવિધ રૂપને ધારણ કરીને તેઓ તે વિમાનને લઈને ચાલતા રહે છે. લેકમાં પણ એવું જ જોવામાં આવે છે કે જે તથાવિધ અભિગ્ય નામરૂપ કર્મોપગ ભેગીદાસ હોય છે તે બીજા સમાન જાતિવાળાઓને અથવા હીનજાતિવાળાઓને અથવા પૂર્વ પરિચિત જનેને તે પ્રસિદ્ધ નેતા છે એ ખ્યાલથી પિતાની ભક્તિ તેની પ્રત્યે પ્રદર્શિત કરવાના આશયથી ઘણા આનન્દની સાથે પિતાને ચગ્ય કામગીરી કરતા જ રહે છે. આવી જ રીતે આ આભિગિક દેવ પિતાના આભિયોગ્ય નામકર્મના ઉદયના બળે સમાનજાતિવાળા દેવના અથવા હીનજાતિવાળા દેના અથવા બીજા પણ દેના તેમને પોતાનાથી અધિક સમૃદ્ધ થયેલ માનીને અથવા તે ચન્દ્રાદિક દેવ સકળલોક પ્રસિદ્ધ દેવ છે અને મહામહિમાશાળી છે તેમના વિમાનનું અમે વહન કરીએ એવા ખ્યાલથી પ્રેરિત થઈને તેમના વિમાનેને એક થાનેથી બીજા ०१० jain Education International Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मूखीपप्रतिसूत्रे ___ अथैतेषामेव षोडशदेवसहस्राणां व्यक्तिमाह-'चंदविमाणस्स ' इत्यादि, 'चंदविमाणस्स गं पुरथिमेणं' चन्द्रविमानस्य खलु पौरस्त्येन पौरस्त्यां बाहाँ पूर्वपार्श्वसिंहरूपधारिणां देवानां चत्वारि वहन्तीति-'सेयाणं' इत्यादि, 'सेयाणं' श्वेतानां श्वेतवर्णविशिष्टाना मित्यर्थः तथा 'मुभगाणं' सुभगानां सौभाग्यवतां जनप्रियाणा मित्यर्थः 'मुप्पभाण' सुप्रभाणाम् तत्र मुष्ठु शोभना प्रभा कान्तिः (दीप्तिः) ये ते सुप्रभाः तेषाम् । 'संखतलविमलनिम्मल, दधिधणगोखीर फेनरययणिगरप्पगासाणं' शंखतलविमलनिर्मलदधिधनगोक्षीरफेनरजत निकरप्रकाशानाम् तत्र शङ्खतलं शेषस्य मध्यभागः विमल निर्मलोऽत्यन्तनिर्मलो यो दधिघनः स्त्यानी कृतं दधि, तथा गोक्षीरफेनः रजतनिकरो रूप्यसमुदायः एतेषामिवप्रकाशस्तेजः प्रसरो येषां ते तथाभूता स्तेषाम् । तथा-'थिरलट्ठपउट्ठपीवरसुसिलिट्ठविसिट्ठ तिक्खदाढाविडंबियमुहाण' स्थिरलष्ट प्रकोष्ठक पीवर सुश्लिष्ट विशिष्टतीक्ष्णदंष्ट्राविडम्बित. मुखानाम् तत्र स्थिरौ दृढौलष्टौ कान्तौ प्रकोष्टको कलात्रिके येषां ते तथावृत्ताः वर्तुलाः पीवराः स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते रहते हैं। अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि चन्द्र विमान की पूर्व दिशा में जो चार हजार आभियोगिक जाति के देव हैं वे किन २ विशेषणों वाले हैं-'चंदविमाणस्स णं पुरत्थिमेणं' चन्द्र विमान की पूर्व दिशा में रही पूर्व बाहा को जो आभियोगिक जाति के देव खेचते हैं-वे सिंहरूपधारी होते हैं और ये चार हजार होते हैं 'सेयाणं' इनका रूप श्वेतवर्ण विशिष्ट होता है । 'सुभगाणं' ये जनप्रिय होते हैं 'सुप्पभाणं' इनकी दीप्ति शोभना होती है, 'संखतल विमल निम्मल दधिघण गोखीर फेण रयय णिगरप्पगासाणं' इनका प्रकाश शङ्ख के मध्यभाग के जैसा अत्यन्त निर्मल दही के फेन के जैसा, गाय के क्षीर के फेन जैसा एवं चांदी के समूह जैसा अत्यन्त शुभ होता है 'थिरलट्ठ पउट्ट पीवर सुसिलिट्ठ विसिट्ट तिक्खदाढाविडंबिय मुहाणं' इनके हाथों की कला ईयां स्थिर-दृढ होती हैं लष्ट-कान्त होती हैं तथा-इनकी दाढे वृत्त-गोल होती સ્થાને લઈ જતાં હોય છે હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે ચન્દ્રવિમાનની પૂર્વ દિશામાં જે या२ M२ मालिया तिन व छ तया ४या ४या विशेषणा –'चंदविमाणस्स णं पुरत्थिमेणं' यन्द्रविमाननी पूर्व दिशामा २४ी पूर्वमान २ गालियो हेव मेये छे-ते। सि९३५चारी डाय छ अ२ तेमनी सध्या या२ १२नी छ. 'सेयाणं' तमनु ३५ श्वेत विशिष्ट डाय छ 'सुभगाणं' ते ४नप्रिय डाय , 'सुप्पभाणं' तमनी सामना उय, 'संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेगरयणणिगरप्पगासाणं' भने। ४३श मना मध्यभागना । अत्यन्त निभ ही ना वो, आयना धन Aण व भने यहीन। समूह वो अत्यन्त शुभ डाय छे. 'थिर लट्ठ पउनु पोवर सुसिलिटु विसिद्र तिखदाढाविडंबियमुहाणं' समना डायना inो स्थिरદઢ હોય છે, લષ્ટ-કાન્ત હોય છે તથા એમની દાઢે વૃત્ત-ગળ હોય છે, પીવર-પુષ્ટ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४७५ पुष्टाः मुश्लिष्टाः अविवराः विशिष्टा स्तीक्ष्णा या दंष्ट्रा स्ताभिर्विडम्बितं मुखं येषां ते तथा तथाविधानां प्रायः सिंहाः दंष्ट्राभिात्तमुखा एव भवन्ति इति, तथा-'रत्तुप्पलमउय मुकु. मालतालुजीहाणं' रक्तोत्पल पत्रमृदुसुकुमारतालुजिह्वानाम्, तत्र रक्तोत्पलपत्रवत्-रक्त. कमळपत्रवत् मृदुसुकुमारे तालुजिढे येषां ते तथा विधास्तेषाम्, 'महुगुलिय पिंगलक्खाण' मधुगुटिका पिङ्गलाक्षाणाम्, तत्र मधुगुटिका घनीभूतसान्द्रपिण्डः 'सहद' इति भाषाप्रसिद्धः तद्वत् पिङ्गले अक्षिणी येषां ते तथा तथाविधानाम्, 'पीवरवरोरुप डिपुण्णविउलखंधाणं' पीवरवरोरु परिपूर्णविपुलस्कन्धानाम्, तत्र पीवरे उपचिते वरे प्रधाने ऊरूजचे येषां ते तथा परिपूर्णः विपुलो विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते तथा-'मिउविसय मुहुमलक्खणपसत्थवरवण्णकेसरसडोवसोहियाणं' मृदु विशदसूक्ष्मलक्षणप्रशस्तवरवर्णकेसरसटोपशोभितानाम्, तत्र मृदवो विशदाः स्पष्टाः सूक्ष्माः प्रतलाः लक्षणैः प्रशस्ताः वरवर्णाः प्रधानवर्णाः याः केसरसटाः स्वत्थ केसरच्छटा स्ताभि रुपशोभितानाम् तथा-'उसियमुनमिय सुजाय अप्फो. डियलंग्लाणं' उच्छ्रितसुनमित सुजातास्फोटितलाशलानाम्, तत्र उच्छ्तिमूर्वीकृतं हैं पीबर-पुष्ट होती हैं सुश्लिष्ट-विवरविहीन होती हैं विशिष्ट होती हैं और घडी तीक्ष्ण होती हैं ऐसी दांढों से इनका मुख युक्त होता है 'रत्तप्पलमय सुकुमाल तालुजीहाणं' इनके तालु एवं जिह्वा ये दोनों रक्त कमल के पत्र जैसे मृदु एवं सुकुमार होते हैं 'महुगुलियपिंगलक्खाणं' इनकी आंखें शहद के पिण्ड जैसी पीतवर्णवाली होती हैं 'पीवर वरोरुपडिपुण्णविउलखंधाणं' इनकी दोनों जंघाएं पीवर-परिपुष्ट और वर-श्रेष्ठ सुहावनी होती है तथा इनका स्कन्ध परिपूर्ण-मांसल-एवं विस्तीर्ण होता है 'मिउविसय सुहमलक्खणपसत्थ वर वण्ण केसरसडोवसोहियाणं' ये मृदु विशद सूक्ष्म लक्षणों से प्रशस्त एवं सुन्दर वर्णविशिष्ट ऐसे गर्दन के बालों से सदा शोभित होते हैं 'उसिय सुनमिय सुजाय अप्फोडियलंगूलाणं' इनकी पूंछ ऊपर की ओर ही उठी रहती है परन्तु उसका अग्रभाग नीचे की ओर झुका रहता है अतः वह देखने में बड़ी अच्छी सुहावनी હોય છે સુશ્લિષ્ટ-વિવારવિહીન હોય છે, વિશિષ્ટ હોય છે અને ઘણું તીક્ષણ હોય છે, भवी होढाथी तभनु भुम युद्धत डाय छे. 'रत्तुप्पलमउय सुकुमाल तालुजीहाणं' मना તાળવા અને જીભ એ બંને રક્તકમળના પત્ર જેવા કેમળ અને સુકુમાર હોય છે, 'महुगुलियपिंगलक्खाणं' मेमनी मांगो मधन। (५५७ वी पानी डायथे. 'पीवरवोरुषडिपुण्णविउलखंधाणं' भनी मन न पाव२-परिपुष्ट सन १२-श्रेष्ठ सौहामी हाय छ तथा कामना २४५ परिपू-भांसस गरे विस्ती डाय छे. 'मिल विसय सुहुमलक्खणपसत्थवरवण्णकेसरसडोवसोहियाणं' ते भृढ, विश, सूक्ष्म सक्षगाथा પ્રશસ્ત અને સુન્દરવર્ણ વિશિષ્ટ એવા ગર્દનના વાળથી સદા શેભિત હોય છે, 'उसिय सुनमिय सुजाय अप्फोडियलंगूलाणं' मेमनी ५७४ी ५२नी त२६ १ लेडी से Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मूखीपप्रज्ञप्तिसूत्र मुनमितं सम्यगधोमुखीकृतं सुजातं शोभनतया जातम्, आस्फोटितं भूमौ ताडितं लागुलं पुच्छं यैस्ते तथा तेषाम् । तथा--'वइरामयणखाणं' वज्रमयनखानाम्-वज्रतुल्यनखानाम् 'वइरामयदाढाणं' वज्रमयदंष्ट्राणां वज्रसदृश दंष्ट्रावताम्, 'वइरामय दंताणं' वज्रमय दन्तानाम् 'तवणिज्जजीहाण' तपनीय जिहानाम् सुवर्णसदृश पीत जिहानाम्, 'तवणिज्ज तालुयाणं' तपनीयतालुकानाम्, 'तवणिज्ज जोत्तग सुजोइयाण" तपनीय योत्रक सुयोजितानाम्, 'कामगमाणं' कामगमानाम्, तत्र कामः स्वेच्छा तेन गमो गमनं येषां ते तथा तादृशानाम्, 'पीइगमाण' प्रीतिगमानाम्, तत्र प्रीतिचित्तस्योल्लास विशेषस्तेन गमो गमनं येषां, ते तथा तथाविधानाम् 'मणोगमाणं' मनोगमानाम्, तत्र मनोवद् गमो गमनं वेगवद् येषां ते तथा तादृशानाम् 'मणोरमाणं' मनोरमाणां मनोहराणाम् 'अमियगईणं' अमितगतीनाम् अत्यधिक लगती है ये कभी २ उस पूंछ को नीचे भी झुका लेते हैं और वह इतनी अधिक नीचे झुक जाती है कि उससे पृथ्वी का भी सार्श होने लग जाता है। 'वइरामय णखाणं' इनके नख ऐसे कठोर होते हैं कि मानों ये वज्र के ही बने हुए हैं वइरा मयदाढाणं' इनकी दाढे भी ऐसी मजबूत होती हैं कि मानों ये भी वज्र को ही बनी हुई हैं। 'चहरामयदंताणं' दांत भी इनके इतने अधिक कठोरता लिये “हुए होते हैं कि मानों ये वज्र के ही बने हों। 'तवणिज जीहाणं' इनकी जिहवा सुवर्ण के जैसी पीतवर्णवाली होती है 'तवणिज्जतालुयाणं' तालु भी इनका तप नीय सुवर्ण के जैसा लाल होता है 'तवणिजजोत्तगसुजोइयाणं' सुवर्ण योत्रक मुखरस्सी-जोतों से इनका मुख युक्त रहता है 'कामगमाणं' इनका गमन इच्छा नुसार होता है 'पीइ गमाणं' चित्त के उल्लास के अनुसार इनकी चाल होती है 'मणोगमाणं' मन की गति के समान इनकी गति होती है 'मणोरमाणं' ये बडे ही सुन्दर होते हैं 'अमियगईणं' इनकी गति का कोई पार नहीं पा सकता है છે પરંતુ તેને અગ્રભાગ નીચેની તરફ વળેલો રહે છે આથી તે જોવામાં ઘણી સારી સહામણી લાગે છે. તેઓ કદી કદી તે પૂંછડીને નીચે પણ નમાવી લે છે અને તે એટલી पधारे नाय 4जी नय छ ते पृथ्वीर ५४ २५श ४२ छे. 'वइरामय जखाणं' मेमना नमसवात ४४१ ५ छे , d ते 4000 न भन्या हाय ! 'वइरामयदंताणं' द्वांत પણ તેમના એટલા અધિક કઠોરતાવાળા હોય છે કે જાણે વજીના ન બન્યા હોય ! 'तवणिज्जजीहाण' भनी म सुव व धीमा २ जी डाय छे. 'तवणिज्जतालुयाणं' ताण ५५ अमनु तपास सुवर्ण ना रे हाय छे. 'तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं' सुवानी यात्र-भुष२२सी-गामथी समर्नु भु युत डाय छे. 'कामगमाणं' मेमनु गमन ७२छानुसा२ थाय छ, 'पीइगमाण' यित्तनSERIA अनुसार समनी या डाय छ 'मणोरमाणं' भननी जतिनी म मेमनी गति डाय छे. 'मणोगमाण' ते ५ ॥ " सुन्दर राय छ, 'अमियगइणं' भनी गति 30 पार पाभी न मेवी सत्यापित Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४७७ गतिमतामित्यर्थः 'अमियवलपीरियपुरिसोरपरकमाणं' अमितबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमाणाम् 'महया अप्फोडिय सीहणायबोलकलकलरवेणं' महताऽऽस्फटितसिंहनादबोल कलकलरवेण शब्देन 'महुरेणं' मधुरेण-मनोहरेण च शब्देन 'पूरेंता' पूरयन्ति 'अंबरं दिसाओय सोभयंता' अम्बरं गगनं दिशाः पूर्वादिकाः शोभयन्ति-शोभमानानि कुर्वन्ति 'चत्तारि देवसाहस्सीओ' चत्वारि देव सहस्राणि 'सीहरूबधारीणं पुरथिमिल्लं बाहं बहन्ति' सिंहरूप धारिणां देवानां पूर्वी पूर्व दिगवस्थित बाहां परिवहन्तीति ।। सम्प्रति-दक्षिणवाहा वाहकदेवानां गजरूपधारिणां स्वरूपमाह-'चंदविमाणस्स दाहिणेणं' चन्द्रविमानस्य दक्षिणस्यां जिगमिपित दिशोदक्षिणे पार्श्व गजधारिणां देवानां चखारि देवसहस्राणि दाक्षिणात्यां पाहां परिवन्तीति परेणान्वयः । एतेषां देवानां विशेषणानि प्राह'सेयाणं' इत्यादि, 'सेयाणं' श्वेतानां श्वेतवर्णवताम् 'सुभगाणां' सुभगानाम्-सौभाग्यवताम् ऐसी अत्यधिक गति वाले ये होते हैं। 'अमिवयलवीरियपुरिसकारपरकमाणं' इनका बल इनका वीर्य इनका पुरुषकार पराक्रम अमित होता है 'महया अप्फो. डियसीहणायबोलकल कलरवेणं' ये बडे २ जोर से सिंहध्वनि करते हुए चलते हैं उससे आकाश वाचालित हो जाता है उस सिंह ध्वनि का निर्गत शब्द अस्पष्ट होता है परन्तु वह बडा मधुर होता है उससे ये अम्बर-आकाश एवं दिशाओं को सुशोभित करते हैं, ऐसी यह 'चत्तारि देव साहस्सीओ' चार हजार देवमंडली जो कि 'सीहरूवधारी णं पुरथिमिल्लं वाहं वहंति' सिंह के रूपवाली होती है, पूर्व दिग्वर्ती बाहा को लेकर चलनी है। ___ 'चंदविमाणस्स दाहिणेणं' चन्द्रविमान की दक्षिण दिशा में जो ४ हजार आभियोगिक जाति के देव रहते हैं वे किन २ विशेषणों वाले हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-चन्द्रविमान की दक्षिण दिशा में रही हुई दक्षिण वाहा को जो देव खेचते हैं वे गजरूपधारी होते हैं, 'सेयाणं' ये श्वेतवर्णवाले होते हैं, अतिव तो राय छ. 'अमियबलवीरियपुरिसक रपरकमाणं' मेमनु , समनु वीय, मेमना पु२२४।२-५२।५ अमित य छ, 'महया अप्फोडिय सीहणाय बोल कलकल रवेणं' तो (सिंह) मोटा मारथी सारे मा ४२ता ५४ या तेनाथी આકાશ ગાજી ઉઠે છે તે સિંહ ઇવનિના નિર્ગત શબ્દ અસ્પષ્ટ થાય છે પરંતુ તે ઘણું મધુર હોય છે તેનાથી આ અમર–આકાશ તેમજ દિશાનો સુશોભિત થાય છે એવી આ 'चत्तारि देवसाहस्सीओ' या २ हेमजी रे 'सीहरूवधारी णं पुरथिमिल्लं वाहं वहंति' सिना ३५वाजी हाय छे, पूर्व विती थाने सधन यासे छे. ____ 'चंदविमाणस्स द हिणेणं' यन्द्रविमाननी हिशाये २ ४ २ शानियोग જાતિના દેવ રહે છે તેઓ કયા કયા વિશેષણવાળા છે? તે તે સંબંધમાં પ્રભુ કહે છે–ચન્દ્રવિમાનની દક્ષિણદિશાએ રહેલી દક્ષિણુવાહાને જે દેવ ખેંચે છે તેઓ ગજરૂપધારી હોય છે, Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ जम्पद्वीपप्राप्तिसत्र जनप्रियाणामित्यर्थः 'सुप्पभाणं' सुप्रभाणाम्-विलक्षण दीप्तिमताम्, 'संखतल विमल निम्मल दधिधणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं' शङ्खतलविमलनिर्मलदधिधनगोक्षीर फेनरजतनिकरप्रकाशानाम्, तत्र शंखतलं शङ्खमध्यभागः विमलनिर्मलो यो दधिनघनः स्त्यानीकृतं दधिगोक्षीर फेनस्तु प्रसिद्धः तथा रजतनिकरः रूप्य समुदाय स्तेषामिव प्रकाशः तेजःप्रसरो येषां ते तथा तादृशानां गनानाम्, 'वइरामय कुंभजुगलसुटियपीवरवरवइरसौंडवट्टियदित्त सुरत्त पउमप्पगासाणं' वज्रमय कुम्भ युगल सुस्थित पीवरवरवज्रसौण्डवर्तित दीप्त सुरक्तपद्म प्रकाशानाम्, तत्र वज्रमयं वज्रवत् सुदृढं कुम्भयुगलं येषां ते तथा सुस्थिता सुसंस्थाना पीवरा, पुष्टा वरावज्रमयी शुण्डावर्तितावृत्ता तस्यां वृत्तशुण्डायां दीप्तानि यानि पद्मानि बिन्दु जालरूवाणि तेषां प्रकाशो व्यक्तभावो येषां ते तथा तादृशानाम्, तथा-'अब्भुण्णय मुहाणं' अभ्युनतमुखानाम् पुरोभागे उन्नतत्वात्, तथा-'तवणिज्जविसालकण्णचंचलचलंत विमलजलाणं' तपनीयविशालकर्ण चञ्चलचलद् विमलोज्ज्वलानाम्, तत्र तपनीयमयौ'सुभगाणं' सौभाग्यशाली होते हैं, अर्थात्-जनप्रिय होते हैं, 'सुप्पभागं विलक्षण दीप्तिवाले होते हैं, 'संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीर फेणरययणिगरप्पगासाणं' इनका बाह्य प्रकाश शङ्ख के मध्यभाग के जैसा, अत्यन्तनिर्मल दही के पुज के जैसा, गाय के दूध के फेन जैसा-ज्झाग जैसा, एवं चांदी के समूह जैसा अत्यन्त शुभ होता है 'वहरामयकुंभजुगलसुडियपीवरवहरसौं डवहिय दित्त सुरत्तपउमप्पगासाणं' इनका कुंभ युगल वज्र के जैसा सुदृढ होता है इनका शुण्डादण्ड सुसंस्थान से सुशोभित होता है, पीवर-पुष्ट-होता है, श्रेष्ठ वज्र से बना जैसा है, गोल होता है-उस गोल शुण्डादण्ड में अनेक प्रकार के विन्द जालरूप पद्मों का व्यक्त भाग स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है 'अन्भुण्णयमुहागं इनका मुख आगे के भाग में उन्नत होता है 'तवणिजविसाल कण्ण चंचल चलंत विमलुज्जलाणं' मध्यभाग में अरुण-लाल होने से स्वर्णमय, इतर जीवों की 'सेयाणं' श्वेतवा डाय छ, 'सुभागाणं' सोयशाजी साय छे अर्थात्-नप्रिय डाय है, 'मुप्पभाणं' सिक्षण हतिवाणा डाय छे, 'संखतलविमलनिम्मल दघिघणगोखीरफेणरयय णिगरप्पगासाणं' भने। माह्य प्राश शमना मध्यभागना , अत्यन्त निजहीना ઢગલા જે, ગાયના દૂધના ફીણ જે-ઝાગ જેવો-અને ચાંદીના સમૂહ જે અત્યન્ત शुद्ध य छे 'वइरामयकु भजुगल सुट्टियपीवरवरवइर सौंडवट्टियदित्त सुरत्तपउमप्पगासाणं' એમના કુંભયુગલ વજના જેવા સુદઢ હોય છે. એમના શુડાદલ્ડ સુસંસ્થાનથી સુશોભિત હોય છે, પીવર–પુષ્ટ હોય છે, શ્રેષ્ઠ વજથી બન્યું હોય તેવું હોય છે, ગોળ હોય છે તે ગોળ ચુડાદડમાં એક પ્રકારના બિન્દુજાળ રૂપ કમળાને વ્યક્ત ભાગ સ્પષ્ટરૂપથી प्रतीत याय छ 'अब्भुण्णतमुहाणं' भनु भुष मागणना मागमा उन्नत डाय छे. 'तवणिज्जविसालकण्णचं वलचलंतविमलुज्जलाणं' मध्य भागमा ३-सात पाथी २१ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू, २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४७९ स्वर्णमयो मध्यभागेऽरुणत्वेन विशालौ इतर जीवापेक्षया विस्तीणौँ चञ्चलौ-स्वभावत एव चापल्य युक्तौ अतएव चलन्तौ इतस्ततश्वलायमानौ विमलौ-आगन्तुकमलरहितौ उज्ज्वलौ भद्र जातीयत्वात् बहिः श्वेतवणौँ कौँ येषां ते तथा तेषाम्, 'महुवण्ण भिसंतणिद्ध पत्तलनिम्मलतिवण्णमणिरयणलोयणाणं' मधुवर्ण भासमानस्निग्धपत्रलनिर्मल त्रिवर्ण मणिरत्नलोचनानाम, तत्र मधुवणे माक्षिकसदृशे 'भिसंत' भासमाने स्निग्धे पत्रले पक्षमवती निर्मले छायादि दोषरहिते त्रिवर्णे रक्तपीतश्वेतात्मक वर्णत्रययुक्ते मणिरत्नमये तत्तुल्ये लोचने नयने येषां ते तथा, तादृशानाम्, 'अब्भुग्गय मउलमल्लिया धवलसरिससंठियणिव्वण दढकसिण फालियामयसुजायदंतमुसलोवसोभियाण' अभ्युद्गत मुकुलमल्लिका धवल सदृशसंस्थित निव्रण दृढ कृत्स्न स्फटिकमय मुजात दन्तमुशलोपशोभितानाम्, तत्र अभ्युद्गतानि-अत्युन्नतानि मुकुलमल्लिकेव मुकुलितकुसुमवत् धवलानि-स्वच्छानि तथा सदृशं समं संस्थानं येषां तानि, तथा निर्बणानि-व्रणरहितानि दृढानि कृत्स्न स्फटिकमयानि-साअपेक्षा से विशाल स्वभावत चञ्चल, अत एव इधर उधर चलायमान, आगन्तुकमल विहीन, भद्रजातीय होने से उज्ज्वल, एवं बाहिर में श्वेतवर्ण के इनके दोनों कान होते हैं, 'महुवण्णभिसंतणिद्धपत्तलनिम्मल तिवण्ण मणिरयणलोयणाणं' इनके दोनों नेत्र माक्षिक-शहद-के वर्ण के जैसे वर्ण वाले होते हैं, चमकीले होते हैं, स्निग्ध होते हैं, पत्रल-पक्ष्म युक्त होते हैं, निर्मल-छायादि दोष से रहित-होते हैं, त्रिवर्ण-रक्त, पीत और श्वेत इन तीनों वर्गों से युक्त रहते हैं अत एव ऐसे प्रतीत होते हैं कि मानों ये मणिरत्न के ही बने हुए हैं 'अन्भुग्गयमउल मल्लिया धवलसरिससंठियनिव्वण दढकसिणफालियामय सुजायदंतमुसलोव सोभियाणं' ये मुसल के जैले ऐसे दांतों से शोभितमुख वाले होते हैं कि जो अभ्युद्गत होते हैं-अत्युन्नत होते हैं, मुकुलमल्लिका के जैसे-मुकुलित कुसुम के जैसे-धवल होते हैं, जिनका संस्थान एकसा होता है મય, ઈતર ની અપેક્ષાથી વિશાળ સ્વભાવ ચંચલ આથી આમ તેમ ચલાયમાન આગન્તુક મળવિહીનભદ્રજાતીય હોવાથી ઉજજવળ અને બહારના ભાગમાં શ્વેતવર્ણના मेमना मन जान डाय छ, 'महुवण्णभिसंतणिद्धपत्तल निम्मलतिवण्णमणिरयणलोयणाणं' એમના બંને નેત્ર માલિક-મધ-ના વર્ણન જેવા વર્ણવાળા હોય છે, ચમકીલા હોય છે, સ્નિગ્ધ હોય છે, પત્રલ-પકમ-યુક્ત હોય છે, નિર્મળ છાયાદિ ષથી રહિત હોય છે, ત્રિવર્ણ–રક્ત પતિ અને તે આ ત્રણે વર્ણોથી યુક્ત રહે છે આથી એવા પ્રતીત થાય छ । लणे या मणीरत्नना ४ पनेसा नहाय अव्भुग्गय मउलमल्लियाधवल सरिस संठिय निव्वणद्दढकसिण फालियामयसुजायदंतमुसलोवसोभियाणं' मुना l itथी શેભિત મુખવાળા હોય છે કે જે અબ્યુન્નત હેય છે-અન્નત હોય છે, મુકુલમલિકાના જેવા–સૂકલિત કુસુમના જેવા-સફેદ હોય છે જેમને આકાર એક સરખે જ હોય છે Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्ब्धीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्मना स्फटिकमयानि मुजातानि जन्मदोषवनितानि दन्तमुशलानि तैरुपशोभितानाम् गजानाम् चणकोसी पविट्ठदंतग्गविमलमणिरयणरुइलपेरंतचित्तरूवगविराझ्याणं' काश्चन कोशीप्रविष्टदन्ताग्रविमलमणिरत्न रुचिर पर्यन्त चित्ररूपकविराजितानाम्, तत्र-विमलमणि रस्नमयानि रुचिराणि पर्यन्तचित्ररूपकाणि अर्थात् कोशीमुखवर्तिनि तै विराजिता या कांचनकोशी पोलिका तस्यां प्रविष्टा दन्ताग्रा अग्रदन्ता येषां ते तथा तादृशानाम्, प्राकृतत्वास्पदव्यत्ययः। 'तवणिज्ज विसालतिकगप्पमुहपरिमंडियाणं' तपनीयविशालतिलकप्रमुख परिमण्डितानाम्, तत्र-तपनीयमयानि विशालानि च तिलकपमुखाणि यानि मुखाभरणानि तैः परिमण्डिताना मुपशोभितानाम् ‘णाणामणिरयणमुद्धगेविज्जबद्धगलयवरभूसणाणं' नानामणिरत्न मूर्द्धग्रैवेयकबद्धगलकवर भूषणानाम्, तत्र नानामणिरत्नमयो मूर्द्धा येषां ते तथा, ग्रैवेयकेन सह बद्धानि गलकवरभूषणानि कण्ठाभरणानि घण्टादीनि येषां ते तथा, तत्र पदद्वयस्य कर्मधारयः तेषाम् 'वेरुलियविचित्तदंडनिम्नल वइसमय तिक्खलट्ठ अंकुसकुंभ जुगलयंतरोडियाण' वैयविचित्रदण्ड निर्मल रञमय तीक्ष्णलष्टाङ्कश कुम्भयुगलान्तरो जो व्रण रहित एवं दृढ़ होते हैं, सर्वात्मना स्फटिकमणिमय होते हैं, एवं सुजात-जन्म संबंधी दोषों से रहित होते हैं, 'कंचणकोसी पविट्ठ दंतग्गविमल मणि रयण रुइल पेरंतचित्त रूवगविराया ' यहां प्राकृत होने से पदों का व्यत्यय हाहै-अतः इस प्रकार से इसे लगाना चाहिये-कि इनके जो दन्ताग्र थे वे काश्चन कोशी सोने की बनी हुई एक प्रकार की चूडी से युक्त थे अर्थातू वह कञ्चन चूडी-योलिका-विमल मणि रत्नों से जड़ी हुई थी. मचिर थी, तथा इसकी सब ओर अनेक प्रकार के चित्र बने हुए थे 'तवणिज्जविसालतिलगप्पमुह परिमंडियागं' ये हाथी तपनीयमय तथा विशाल ऐसे तिल कादि मुखाभरणों से उपशोभित थे, 'णाणामणिरयणमुद्धगेविजबद्धगलयवर भूसणाणं' इनका मस्तक अनेक मणि और रत्नों से सुसज्जित था तथा ग्रैवेयक के साथ २ इनके कंठ में घंटा आदि अनेक आभरण पहिराये हुए थे, 'वेरुलिय विचित्त दंडनिम्मल જે ત્રણ રહિત અને દઢ હોય છે, સર્વાત્મના સ્ફટિકમણિમય હોય છે અને સુજાત म सभा होषोश्री हिताय छे, 'कंचणकोसीपविटुदंतग्गविमलमणिरयणरुइल पेरतचित्तरुवगविराइया णं' 208 प्राकृत पाथी पनि व्यत्यय थयो छ साथी मेवी રીતે એમને લાગુ પાડવા જોઈએ કે એમના જે દંતાગ્ર હતા તે કાંચનકેશી–સોનાની બનેલી એક પ્રકારની બંગડીથી યુક્ત હતાં અર્થાત્ તે કાંચનબંગડી–પાલિકા-વિમલમણિ રત્નોથી જડેલી હતી, રુચિર હતી તથા એમની ચારે તરફ અનેક પ્રકારના ચિત્ર બનાवेसा तi. 'तवणिज्जविसालतिलगप्पमुहपरिमंडियाणं' या हाथी तपनीयमय तथा विण मेवा ति भुभाम२Dथी पमित तi, 'णाणामणिरयणमुद्धगेविज्जबद्धगलयवरभूसणाणं' मेमना मत भए भने २त्नाथी सुसजित हतi तथा अवेयनी સાથે સાથે એમને કંઠમાં આ%િ અનેક આભરણ પહેરાવેલા હતા “વૈશ્વિક Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४८१ दितानाम्, तत्र कुम्भयुगलान्तरे-कुम्भद्वय मध्ये उदितः उदयं प्राप्तः तत्र विद्यमान इत्यर्थः तथा वैयमयः विचित्रदण्डो यस्मिन् स तथा, निर्मलबज्रमय स्तीक्ष्णो लटो मनोहरोऽङ्कुशो येषां ते तथा तेषाम्, 'तवणिज्ज सुबद्धलच्छ दप्पिय बलुधुराणं' तपनीय मुबद्ध कच्छदर्पित वलोदराणाम्, तत्र तपनीयमयी सुबद्धा कक्षा-हृदयरज्जुर्येषां ते तथा, दर्पिताः-संजातदोस्ते तथा-बलोधुरा बोत्कटास्ते तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः तेषाम्, 'विमळघणमंडल वइरामय लालाल लियतालणाणं' विमलघमण्ड स्वजय लालाललितताडनानाम्, विमलं तथा घनं मण्डलं येषां ते तथा, वनपयलालाभिललितं कर्णसुखप्रदं ताडनं येषां ते तथा 'णाणामणिरयणधंटापासगरजतामयबद्धलज्जुलंविरघंटाजुगलमहरसरमणहराणं' नानामणिरत्नघण्टापार्श्वगरजतमयबद्धरज्जुलम्बितघण्टायुगर स्वरमनोहराणाम्, तत्र नानामणिमय्यः पार्श्वगाः पार्श्वभागवतिन्यः घण्टा अर्थात् लघुघण्टा यस्य तत्तथा एवं प्रकारकं रजतमयी तिर्यग् बद्धा या राजु स्तस्या मवलम्बितं यद् घण्टा युगलं तस्य घण्टा युगलस्य यो मघुरस्वरवइरामयतिक्खल? अंकुल कुंभजुगलयंतरोडियाणं' इनके कुंभ द्वय के बीच में जो अकुश विद्यमान था वह वैडूर्य का बना हुआ है, दण्ड इसका विचित्र है, निर्मल है, वज्र के जैला कठोर है, तीक्षा है, लष्ट-मनोहर है, 'तवणिज सुषद्ध कच्छदप्पिअबलुद्धाराण' इसके पेट पर जो रज्जु यांधी गई थी वह तपनीय सुर्णकी बनी हुई थी, ये सब हाथी रूप वाले देव दर्प से युक्त हैं, बलिष्ठ हैं, 'विमल घणमंडलबहरामपलालाललियतालणाणं' इनका मण्डल-समूहविमल और धन सान्द्र रूप में रहता है। समल और भिन्न २ रूप में नहीं होता है इन्हें जो वज्रमय अंकुश ते द्वारा ताडना दी जाती है वह इन्हें कर्ण सुख प्रद होती है अरुन्तुद नहीं होती है । 'जाणामणिरयणघंटापासग रजतामय पद्ध. रज्जुलंबिय घंटाजुभल महुनसरभणहराणं' इनकी कटि पर जो घंटा युगल लटक रहा है उसके पास में छोटी पटिकाएं जो कि नागमणियों की बनी हुई हैं, वे विचित्त दंड निम्मलव इरामयतिक्खल? अङ्कुसकुंभजुगलयंतरोडियाणं' मेमना भयुसना વચમાં જે અંકુશ વિદ્યમાન હતું તે વેડૂર્યમણિરતું બનેલું છે, એને દંડ વિચિત્ર છે, निम छ, १०ना २॥ ४४२ छ, ती६४ छ, भने २ छ, 'तरणिज्ज सुबद्धकच्छ दप्पिअबलुद्धराणं' सेना पेट 6५२ २२ हो२९ धाम माव्यु तु ते तपासा सुन બનેલું હતું. આ બધાં હાથીરૂપધારી દેવ અભિમાનવાળા છે, બળવાન છે. 'विमल घणमंडलबइसमय लालाल लयताल गाणं' मनु म -समूह-वि भने धन સાન્દ્રરૂપમાં રહે છે. સમલ અને ભિન્ન ભિન્ન રૂપમાં હોતું નથી. એમને જે વજમય અંકુશ દ્વારા તાડના (માર) આપવામાં આવે છે તે તેમના કાનને સુખપ્રદ ભાસે છે. १२न्तु हाती नथी. 'णाणामणि रयणघंटापासगरजतामय बद्ध रज्जुलंबिय घंटाजुगलमहुरसरमणहराणं' मेमनी टि ५२२ टनी 18 २डी छे तेनी पासे नानी टीम ज० ६१ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्ति स्तेन स्वरेण मनोहराणाम् 'अल्लीणप्पमाणजुत्तवष्टिय जायलक्खणपसत्थरमणिज्जवालगत्तपरिपुंटणाणं' आलीन प्रमाणयुक्तलक्षणशप्रस्तरमणीयवालगात्रपरिपुंछनानाम्, तत्र आलीनं मुश्लिष्टं निर्भरकेशत्वात् प्रमाणयुक्त चरणावधि लम्बमानत्वाद् वर्तितं वर्तुलं सुजातं लक्षणप्रशस्तरमणीयमनोहरा वाला यस्य तत् एवंविधं गात्रपरिपुच्छनं-पुच्छं येषां ते तथा तेषाम्, पशवोहि प्रायः पुच्छेनैवशरीरं प्रमार्जयन्तीतिलोके दृश्यते एव 'उवचिय पडिपुण्णकुम्म चलणलहु विकमाणं 'उवचितपरिपूर्णकूर्मचलनलघुविक्रमागाम्, तत्र उपचिताः मांप्सलाः परिपूर्णाः पूर्णा वयवा तथा कूर्मवदुन्नता श्चरणास्तै लघुलाघवोपेतः शीघ्रतरः विक्रमः पादविक्षेपो येषां ते तथा तेषां लघुविक्रमाणाम् । 'अंकमयणखाणं' अङ्कमयनखानाम्-अङ्करत्नमयनखानाम् “तवणिज्ज जीहाणं' तपनीयजिहानाम् 'तवणिज्जतालुयाण' तपनीयतालुकानाम् 'तवणिज्जजोत्तग सुजोइभी लटक रही हैं, तथा यह घंटा युगल रजतमयी एक तिर्यग्बद्ध रस्सी पर लटक रहा है उससे जो स्वर निकलता है वह बडा ही मनोहर है उससे हाथी भी बडे सुहावने लग रहे है 'अल्लीणप्पमाण जुत्तवयि सुजायलक्खणपसस्थरम णिजवालगत्तपरिपुंछणाण' इनकी पूछ सुश्लिष्ट है क्यों कि वह केशों से भरी हुई है, प्रमाण युक्त है-क्यों कि वह पीछे के चरणों तक लटक रही है, वर्तुलगोल है, इस पुंछ पर जो बाल है-वे सुजात-जन्म के दोषों से रहित हैं लक्षण संपन्न हैं. प्रशस्त हैं, रमणीय है, और मनोहर हैं, यहाँ 'गात्रपरिपुच्छनं' यह जो पद दिया गया है वह 'पशुजन प्रायः पूंछ से ही अपने शरीर की सफाइ करते हैं। इस बातको बताने के लिये दिया गया हैं। 'उवचिय पडिपुष्ण कुम्मचलण लह विकमाणं' इनके चारों चरण उपचित-मांसल हैं, परिपूर्ण-पूर्ण अवयवों वाले हैं, तथा कूर्म-कच्छुवे की तरह उन्नत हैं, ऐसे चरणों से इनकी गति. क्रिया बहुत ही शीघ्रतर होती है 'अंकमय णवाणं' इनके चरणों के नख अंकજે જુદા જુદા મણિઓની બનેર્લી છે તે પણ લટકી રહી છે તથા આ ઘંટાયુગલ રજતમયી એક તિર્યબદ્ધ દેરડા પર લટકી રહી છે તેમાંથી જે વર નિકળે છે તે ઘણે જ भनाई छ तनाथी साथी ५ धा सोहामागे छे. 'अल्लीणापमाण जुत्तवट्टिय सुजाय लक्खणपसत्थरमणिज्जवालगत्तपरिपुछणाणं' भनी ५छी सुसिष्ट छ २ ते शाथी લદાયેલી છે, પ્રમાણયુક્ત છે-કારણ કે તે પાછળના ચરણો સુધી લટકી રહી છે, વર્તુળશળ છે. આ પૂંછડી ઉપર જે વાળ છે-તે સુજાત-જન્મના દેથી રહિત છે લક્ષણसपन्न छ, प्रशस्त छ, रमणीय छ भने भनीह२ छे, मही गात्रपरिपुच्छनं' मेरे ५. ५वामां मायूछे ते 'पशुजन प्रायः पूंछ' थी। पोताना शरीरनी सा रे छ सविता भाट १ मा५वामां माव्यु छ 'उबचिय पडिपुण्णकुम्मचलणलहुविक्कमाणं' ગમનાં ચારેય પગ ઉપચિત-માંસલ છે, પરિપૂર્ણ–પૂર્ણ અવયવાળા છે તથા કૂર્મપ્રશઆની માફક ઉનત છે, આવા ચરણથી એમની ગતિક્રિયા ઘણી જ ઝડપી બને છે, अंकमय णखाणं' ओमना ना न २५४२त्नमय छ, 'तवणिज्जजीहाणं' मेमनी लन Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४४३ याणं" तपनीय योत्रकसुयोजितानाम 'कामगमाणं' कामगमानाम, कामः स्वेच्छा तेन गमोगमनं येषां तथाविधानाम् 'पीइगमाणं' प्रीतिगमानाम्, प्रीतिः सुखं तजनकं गमनं येषां तथाविधानाम् 'मणोगमाणं' मनोगमानाम्-मनोवद् वेगशालिनामित्यर्थः, 'मणोरमाणं' मनोरमाणाम्-'मणोहराण' मनोहराणाम्, 'अमियगईणं' अमितगतीनाम् 'अमिय बळवीरियपुरिसक्कारपरकमाणं' अमितबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमाणाम्, 'तवणिज्जजीहाणं' इत्यारभ्य 'अमियबलवी रिय' इत्यन्तनवानामपि विशेषणानामर्थाः पूर्ववाहाप्रकरणत एव ज्ञातव्याः विस्तरभयानात्र पुनलिखिताः। 'महया गंभीर गुलुगुलाइतरवेणं' महता गंभीरगुलगुलायितरवेणशब्देन 'महुरेणं' मधुरेण-श्रोत्रप्रियेण 'मणहरेणं' मनोहरेण मनप्स आनन्दजनकेन 'पूरेता' पूरयन्ति 'अंबरं दिसाओय सोभयंता' अम्बरम्-आकाशम्, दिशा:- पूर्वादिकाश्च शोभयन्ति रत्नमय है, 'तवणिजजीहाणं' इनकी जिह्वा तपनीय सुवर्णमय है 'तवणिजतालुयाणं' इनका तालु तपनीय सुवर्णमय है 'कामगमाणं' ये अपनी इच्छा के अनुसार गमनक्रियारत हैं, 'पीइगमार्ण' इनका गमन सुख जनक है 'मणोगमाणं' मनकी गति के अनुसार इनका गमन बहुत वेगशाली है 'मणोरमाणं' ये सब के सब गजराज बडे मनोरम है 'अमियगईण' इनकी गति अमित है 'अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं' बल, वीर्य पुरुषकार और पराक्रम भी इनका अपार है 'तवणिज्जजीहाणं' इनकी तपनीय सुवर्ण के जैसी लाल जिहवा है, 'तवणिज जीहाणं' से लेकर 'अमियबलवीरिय.' यहां तक के नौ पदों का अर्थ हम पूर्व बाहा प्रकरण में लिख चुके हैं सो वहां से जानलेना चाहिये 'महया गंभीर गुलगुलाइत रवेणं' ये जो चिंघाड़ते हैं और उस चिंघाड से जो शब्द निकलता है वह बहुत ही गंभीर होता है तथा-गुलगुलायित होता 'महुरेण' मधुर होता है-कर्णेन्द्रिय के उद्वेग जनक नही होता है तथा 'मणहरेण' तपनीय सुवर्ष भय छ 'तवणिज्ज तालुयाण' अमना तunai dulhan सुवर्ष वा छ, 'तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाण' से तपनीय यात्रथी सुरत छ. 'कामगमाणे' तमा पोतानी ४२छानुसार मानयिारत छे, 'पीइगमाणं' मेमनु मन सुमरन 'मणोगमाणं' भननी गति अनुसार मनु गमन तु छे. 'मणोरमाणं' मया सरा घया मनोरम छ 'अमियगईणं' भनी गति मभित छ, 'अमियबलवीरिय पुरसक्कारपरक्कमाणं' मण, वय, ५३०४१२ मन पराभ ५४ अमना अपार छे. 'तवणिज्जजीहाणं' मेमनी तपासा साना २वी aa छे. 'तवणिज्ज जीहाणं' थी as 'अमियबलवीरीय' અહીં સુધીના નવ પદેને અર્થ અમે પૂર્વ બાહા પ્રકરણમાં લખી ચૂક્યા છીએ તે તેમાંથી ng a ये 'महया गंभीर गुलगुलाइतरवेण' ते २ विघाउ छ भने ािथी २००४ से छे ते घो। मी२ .य छ, तथा शुयायित अन्य छे. 'महुरेण' મધુર હોય છે. કન્દ્રિયને ઉદ્વેગ પહોંચાડનાર હેતે નથી તથા “મનને પણ . Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'चत्तारि देवसाहस्सीओ' चत्वारि-चतुः संख्यकानि देवसहस्राणि "गयरूवधारीणं देवाणं' गजरूपधारिणां देवानाम् 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहति त्ति' दाक्षिणात्याम्-दक्षिण दिगस्थितां बाहां परिवहन्तीति ॥ . सम्प्रति तृतीय बाहा वाहकान् दर्शयितुमाइ-"चंदविमाणस्स गं' इत्यादि, 'चंदविमाणस्सणं पचत्थिमेणे' चन्द्रविमानस्य खलु पश्चिमेन पश्चिमस्यां दिशि इत्यर्थः 'सेयाणं' श्वेता. नाम्-शुक्लवर्णवताम्, 'मुभगाणं' सुभगानां--प्रीति समुत्पादकानाम् 'सुप्पमाण' सुप्रभाणाम्, विलक्षणतेजोवताम् 'चलचवल रुकुासालीणं' चलवपल ककुदशालिनाम्, तत्र चलचपलमइतस्ततो दोलायमानत्वेनास्थिरत्वादति चालं ककुदम्-अंशकूटंशतेन शालिनाम्-शोभमानानाम् 'घणणिचियसुबद्ध लक्खणुण्णय ईसियाणयवसभोवाणं' घननिचित सुबद्धलक्षणोनतेषदानतवृषभौष्ठानाम्, तत्र घनवत्-अयोधनवत् निचितानां नि तशरीराणाम्, अतएव मुबमन को भी आनन्द पहुंचाने वाला होता है, ऐसे शब्द से ये 'अंबर दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देव साहस्सीओ' चार हजार गजरूप धारी देवता आकाश को और चारों दिशाओं को शोभित करते हैं और 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहंति त्ति' दक्षिण दिगवस्थित वाहा को खेंचते हैं। _ 'चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं' चन्द्रविमान की पश्चिम दिशा में रखें हुए वृषभरूपधारी देव पश्चिमदिग्वर्ती बाहा को खेचते हैं, इस प्रकार से समझ कर इस पाठ को इस प्रकार से लगाना चाहिये ये वृषभरूप देव 'सेयाण' शुक्लवर्णवाले होते हैं 'सुभगाणं' प्रीतिसमुत्पादक होते हैं 'सुप्पभाण' विलक्षण तेज. वाले होते हैं 'चल चवल ककुहसालीणं' ककुदकांधोर-वाले होते हैं यह इनकी ककुद-चाल चपल-इधर उधर दोलायमान होने से अति चञ्चल होती रहती है इस ककुद से ये वृषभरूपधारी देव बडे ही अधिक सुहावने लगते हैं ! 'घणणिचिय सुबद्धलक्खणुण्णयईसियाणयवसभोवाणं' इनके मुखों का जो ओष्ठ होता है भानन्द पाउनार डाय छ, मा। हाथी तमा 'अंवरदिसाओ य सोभयंता चत्तारिदेव REી ચાર હજાર ગજરૂધારી દેવતા આકાશને તેમજ ચારે દિશાઓને શોભિત ४२ छ भने 'दाहिणिल्लं बाहं परिवहति त्ति' दक्षिय शिवस्थित पाने ये छ. चंद्रविमाणस्स णं पच्चस्थिमेणं सुभगाणा'यन्द्रविमाननी पश्चिमहिमा २७॥ वृषभ પધારી દેવ પશ્ચિમદિશ્વર્તાવવાને ખેંચે છે એ રીતે સમજીને આ પાઠને આ પ્રમાણે any s नये. या वृष:३५४२ 'सेयाणं' शुस वाणा डाय छे. 'सुभगाणं' प्रीतिसमुत्पा६४ डाय छ, 'सुप्पभाणं' विक्षय तेस्पा डाय छे. 'चलचबलककुहसालीण' - કાંધા-વાળા હોય છે. એમની આ કંધે ચલચપલ-આમતેમ ડોલાયમાન થતી હોવાથી અતિ ચંચલ થતી લાગે છે. આ કકુદથી આ વૃષભરૂપધારી દેવ ઘણું જ અધિક सोराभव सा छे 'घणणिचिय सुबद्धलक्खगुण्णयईसियाणयवसभोवाणं' मेमना भुपनारे Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सातमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि. ४८५ दानाम् अश्लथानां लक्षणोन्नतानाम्-प्रशस्तलक्षणानामित्यर्थः, तथा ईषहानतं-किश्चिनम्र भावतामापनमुपागतं वृषगौष्ठं वृषभौ-प्रधानो लक्षणयुक्तत्वेन ओष्ठौ यत्र तादृशं यद् मुखं तादृशमुखवताम्, 'चंकमियललिय पुलिय चलचक्ल गन्वियगईणं' चंक्रमितं-कुटिलं गमनम्, ललितं-विलासबद्गमनम्, पुलितं-गति विशेषा सचाऽऽकाश क्रमणरूपः एवं रूपा चलचपलाअत्यन्त चपला गर्षिता गतिर्येषां ते तथा तादृशानाम् 'संनतपासाणं' सनतनपाश्र्वानाम् अधोऽधः पाश्वयोरवनतत्वात्, तथा-'संगतपासाणं' संगतपार्थानाम्-देहपमाणोचितपार्श्व. वतामित्यर्थः 'सुजायपासाणं' सुजातपार्थानाम्-मुनिष्पनपाश्र्वानामित्यर्थः 'पीवरवष्ट्रिय सुसं. ठिय कडीणं' पीवरवर्तित सुसंस्थित कटीनाम्, तत्र-पीवरा-पुष्टा वर्तिता-वृत्ता सुसंस्थिताविलक्षणसंस्थानयुक्ता कटियेषां ते तथा तादृशानाम्, तथा-'ओलंब पलंबलक्खणपमाणजुत्त रमणिज्जबालगंडाणं' अवलम्ब प्रलम्बलक्षणप्रमाणयुक्तरमणीयवालगण्डानाम्, तत्र अबवह अयोधन की तरह लोहे के हथोडे की तरह मजबूत होता है, सुबद्ध-शिथिल नहीं होता है-नीचे की ओर कुछ २ झुका हुआ होता है ऐसे वृषभ-श्रेष्ठ ओष्ठ से इनका मुख सुशोभित रहता है। 'चंकमिय ललिय पुलियचलचवलगब्धिय गईणं' इनकी गति कुटिल होती है विलासयुक्त गमनवाली होती है गर्वित होती है और अत्यन्त चपलता से भरी हुई होती है 'संनतपासाणं' इनके दोनों पार्श्वभाग देह के प्रमाणानुसार नीचे की और झुके हुए होते हैं । 'संगतपासाणं देह के प्रमाण के अनुसार इन का प्रमाण भी संगत- उचित होता है 'पीवर वट्टिय सुसंठिय कडीणं' इनका कटिभाग पुष्ट होता है, वर्तित-गोल होता है और अच्छे संस्थान से सहित होता है 'ओलंबपलंब लक्खण पमाणजुत्तरमणिज्ज वालगंडाणं' इन पर जो चामर लटके रहते हैं जहां उनके लटकने के स्थान हैं वहीं पर लटके रहते हैं ये चामर लम्बे २ होते हैं तथा लक्षणों से एवं હઠ હોય છે તે અયોઘનની જેમ લેઢાના હડાની માફક મજબૂત હેાય છે, સુખપદ્ધશિથીલ હેતું નથી. લક્ષણેનત હેય છે–પ્રશસ્ત લક્ષણવાળ હોય છે. પદારતા હોય છે નીચેની તરફ થડે થેડે નમેલ હોય છે આવા વૃષભ શ્રેષ્ઠ એઠથી એમનું મુખ सुशामित २९ छे. 'चंकमियललिय पुलिय चलचवलगब्धियगईणं' अमनी गति रिस डाय છે વિલાસયુક્ત ગમનવાળી હોય છે. ગાવિત હોય છે તેમજ અત્યન્ત ચપળતાથી ભરેલી डाय छे. 'संनतपासाणं' मेमना मन पावलास शरीरना प्रमाण अनुसार मेनु प्रभार ५ सत-21 डाय छे. 'पीपरवद्वियसुसंठियकडीणं' भने। ४२२। पुष्ट डाय छ, पतित- डाय छ भने सारा १२वण डाय छे. 'ओलंबपलंबलखण पमाण जुत्त रमणिज्जवालगंडाणं' मेमना ५२ २ याभ२ वटा डाय छे ते याभर खin લાંબા હોય છે તેમજ તેઓ જયાં લટકવાનું સ્થાન છે ત્યાં જ લટકેલા રહે છે. તથા લક્ષણેથી અને યાચિત પ્રમાણથી યુક્ત હોય છે આથી ઘણાં જ રમણિય લાગે છે Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ sta लम्बानि - अवलम्बस्थानानि तेषु प्रालम्बानि लम्बायमानानि लक्षणैः प्रमाणेन च यथोचितेन युक्तानि रमणीयानि वालगण्डानि - चामराणि येषां ते तथा तादृशानाम, 'समखुरवालि घाणाणं' समखुरखालिधानानाम्, तत्र - समाः - परस्परसदृशाः खुः वालिघानं पुच्छं च येषां ते तथा तथाविधानाम्, 'समकिहियसिंग तिक्खग्ग संगयाणं' समलिखित शृंगतीक्ष्णाग्रसंगतानाम्, तत्र - समलिखितानि समानि - परस्परं सदृशानि लिखितानीत्र उत्कीर्णानिवेत्यर्थः तीक्ष्णाग्राणि संगतानि - यथोचित प्रमाणानि शृङ्गाणि येषां ते तथा तादृशानाम्, 'तणुमुहुम सुजाय णिद्धलोमच्छविधराणं' तनु सूक्ष्मसुजात स्निग्ध लोमच्छविधराणाम्, तत्र-तनु सूक्ष्माणि अतिशयेन सूक्ष्माणि सुजातानि - सुनिष्पन्नानि स्निग्धानि लोपानि केशास्तेषां छविशोभां धरन्ति ये ते तथा तेषाम्, 'उवचियमंसल विसाल पडिपुण्णकंधपएससुंदराणं' उपचित मांसल विशालपरिपूर्ण स्कन्धप्रदेश सुन्दराणाम्, तत्र उपचितः - पुत्रः अत एव मांसल : विशाल भारवहन समर्थत्वात् परिपूर्णोऽव्यङ्गत्वात् एतादृशो यः स्कन्धप्रदेशः तेन सुन्दराणां देववृषभाणाम्, 'वेरुलिय भिसंत कडक्ख सुनिरिक्खणाणं' वैडूर्य भासमानकटाक्षसुनिरीक्षयथोचित प्रमाण से ये युक्त होते हैं अत एव बडे ही रमणीय लगते हैं 'सम, खुरवालिघाणाणं' इनके खुर आपस में समानता लिये होते हैं तथा बालधीपुच्छ भी इनकी आपस में समान होती है 'समलि हियसिंगतिक्खग्ग संगयाणं' इनके श्रृङ्ग परस्पर में समान होने से ऐसे मालूम होते हैं कि मानों ये इनमें ही उकेरे हुए हैं तथा इन सीगों के जो अग्रभाग हैं वे बडे ही तीक्ष्ण हैं एवं जिस प्रमाण में सींग होना चाहिये वे उसी प्रमाण वाले हैं 'तणुसुम सुजायणिद्धलोमच्छविधराणं' तनुसूक्ष्म - अत्यन्त सूक्ष्म सुजात-जन्मदोषरहित एवं स्निग्ध ऐसे बालों की ये शोमा से युक्त होते हैं । ' उपचियमंसलविसालपडिपुण्णसंध पएस सुंदराणं' इनका स्कन्ध प्रदेश उपचित-पुष्ट होता है मांसल मांस से भरा हुआ होता है, इसलिने वह विशाल होता है- भार वहन करने में समर्थ होता है तथा परिपूर्ण - हीनाधिक नहीं होता है ऐसे स्कन्ध प्रदेश से ये देव रूप वृषभ 'समखुवालिघाणाणं' योसनी जरी पेठ जी साथै समानय धरावे छे 'समलिहियसिंगतिक्खा संगमाणं' सेभना शिंगडा परस्पर समान होवाथी सेवां भाय हे लो તેએ એમાં જ ઉગી નીકળ્યા ન હોય ! તથા આશી ગડાઓના જે અગ્ર ભાગ છે તે ઘણા જ અણુિવાળા છે અને જે પ્રમાણમાં શીગડાં હાવા જોઇએ તેજ પ્રમાણવાળા છે. 'तुणुमुहुस सुजाय णिद्धलोमच्छविघराणं' तनुसूक्ष्म-अत्यन्त सूक्ष्मसुत-भन्मदोष रहित अने स्निग्ध सेवा वाजश्री तेथे शोलाथी युक्त होय छे. 'उवचिय मंसलविसाल पडिपुण्णखंधपएससुंदराणं' भने। २४न्ध अहेश उपथित पुष्ट होय छे, भांसस - मांसथी भरे हाय છે આથી તે વિશાળ દ્વાય છે, ભારવહન કરવામાં સમ હોય છે તથા-પરિપૂર્ણ હીના मि होतो नयी भावा स्तन्पप्रदेशथी या देवइप वृषल सुन्दर होय छे. 'वेरुलियाभिस त Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहक देवसंख्यानि० ४८७ णानाम्, तत्र वैडूर्यमयानि भासमानकटाक्षाणि अतिशयेन शोभमानार्द्ध प्रक्षितानि-सुनिरीक्षणानि सुलोचनानि येषां ते तथा तेषाम्, 'जुत्तप्पमाण पहाण लक्षणपसत्थरमणिज्ज. गग्गरगलसोभियाणं' युक्तप्रमाणप्रधानलक्षणप्रशस्तरमणीयगग्गरगलशोभितानाम्, तत्र-युक्तप्रमाणः-यथोचित प्रमाणयुक्तः प्रधानलक्षणः प्रशस्त रमणीयोऽतिशयेन रमणीयः गग्गरक:परिधानविशेषः तेनाभरणविशेषेण गलशोभितानाम्-शोभितगलानाम् वृषभदेवानाम्, तथा'घरघरग सुमद्दबद्धकंठपरिमंडियाण' घर घरक मुशब्दबद्ध कण्ठपरिमण्डितानाम्, तत्र घर घरका:-कण्ठस्याभरण विशेषाः सुशब्दाः-सुन्दरशब्देन शब्दवन्तः ते बद्धा यत्र स चासो कण्ठश्च तेन परिमण्डितानाम्, तथा-'नानामणि कणगरपण घंटियावेवच्छिगसुकयमालिया णं' नानामणिकनकरत्नघण्टिकाववक्षिपसुकृतमालिकानाम्, तत्र नाना-विविधप्रकारकमणिकन करत्नमय्यो या घण्टिका:-क्षुद्रघण्टाः किंकिण्यस्तासां वैवक्षिकास्तिर्यग वक्षसि स्थापिनत्वेन सुकृताः सम्यग्र रूपेण रचिता मालिकाः येपां ते तथा तादृशा. नाम, वरघंटागलयभालु नलसिरिधराणं' वरघण्टागळकभालोज्ज्वरश्रीधराणाम्, सुन्दर होते हैं 'बेरुलियभिसंत कडक्ख सुनिरिक्खणाणं' इनके लोचन वैडूर्य मणिमय होते हैं और भासमान कटाक्षों से युक्त होते हैं 'जुत्तप्पमाणपहाण लक्खणपसत्थरमणिजगग्गरगलसोभियाणं' इनके गले यथोचित प्रमाण से युक्त, प्रधान लक्षणों से संपन्न अतिशय रमणोयऐसे गग्गरक-आभरणरूप परिधान विशेष से शोभित रहते हैं 'घरघरगसुसद्दबद्ध कंठपरिमंडियाणं' सुंदर शब्दों से सुशोभित शायमान एसे घरघरक कंठाभरणविशेष इनके कंठो में सजे रहते हैं। 'नानामणि कणगरयणघंटियावेवछिग सुकय मालिया, इनके वक्षस्थल पर जो क्षुद्र घटिकाओं की मालाएं तिरछेरूप में स्थापित की गई हैं वे अनेक प्रकार के मणियों सुवर्णों एवं रत्नों से निर्मित हई है 'वरघंटा गलयभालुज्जलसिरिधराणं' क्षुद्रयटिकाओं की अपेक्षा भी विशिष्टतर होने के कारण सुन्दर २ बडे घंटाओं की मालाओं से इनके गले की शोभा में और भी कडक्ख सुनिरिक्खणाणं' मेमना सोयन भाभय छाय छ भने भासमान टासाथी युरत हाय छे. 'जुत्तप्रमाणपहाणलक्खणपसत्थरमणिज्जगग्गरगलसोभियाणं' मेमना गणा યચિત પ્રમાણથી યુક્ત પ્રધાનલક્ષણેથી સંપન, અતિશય રમણીય એવા ગાગરકमान२१३५ परिधान विशेषथी सुशामित २३ छ, 'घरघरगसुसद्दबद्धकंठपरिमंडियाणं' सुन्६२ શબ્દોથી સુશોભિત-શબ્દામાન એવા ઘરઘરક-કંઠાભરણ વિશેષ એમના કંઠમાં સજેલાં रहे छे. 'नानामणि कणगरयणघंटियावेवछिग सुकयमालियागं' मेमना पक्षस्य ५२२ क्षुद्र ઘંટડીઓની હારમાળા ત્રાંસી રીતે સ્થાપિત કરવામાં આવી છે તે અનેક પ્રકારના મણિઓ, सुप तथा रत्नाथी निर्मित थयेसी छे. 'वरघंटा गलय भ लुज्ज लसिरिधराणं' क्षुद्र टिકાઓની અપેક્ષા પણ વિશિષ્ટતર હોવાના કારણે સુન્દર મોટા ઘંટની માળાઓથી એમના ગળાની શોભામાં વળી અધિક વિશિષ્ટતા આવી ગઈ છે એવી વિશિષ્ટતાથી તેઓ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे तत्र वरघंटिकाः क्षुद्रघण्टिकातो विशिष्टतरत्वेन प्रधानघण्टा गले येषाम् ते वरघण्टा गलकाः तथा मालया उज्ज्वलास्ते तथा तादृशानाम्, तथा - 'पउमुप्पलसगल सुरभिमाला विभूसियाणं' पद्मोत्पलसकलसुरभिमालाविभूषितानम्, तत्र पद्मानि सूर्यविकासीनि, उत्पलानि - चन्द्र विकासीनि सकलानि - अखण्डितानि, सुरभीणि-विलक्षणगन्धवन्ति तेषां माळा विलक्षण संयोगविशिष्टसमुदायः ताभिर्विभूषितानाम् | 'वहरखुराणं' बज्रखुराणाम्, वरत्नवत् खुरा येषां ते तथा तेषाम् । 'विविधविखुराणं' विविधविखुराणाम्, तत्र विविश मणिकनकादिमयत्वेन अनेकविधा विखुरा उक्तखुरेभ्य ऊर्ध्ववर्त्तित्वेन विकृष्टाः खुश येषां ते तथा तेषाम् 'फालियामयदंताणं' स्फटिकमयदन्तानाम्, 'तवणिज्जजीदानं तपनीय जिवानाम्, 'तवणिज्जतालुयाणं' तपनीय मयतालुकानाम्, 'तवणिज्ज जोतग जोइयाणं' तपनीयो कसु योजितानाम्, 'कामगमाणं' कामगमानाम् - स्वेच्छया गमनकारिणाम्, 'पीइगमाणं' प्रीतिगमानाम्, 'मणोगमाणं' मनोगमानाम्, मनोवहति मतामित्यर्थः, 'मणोरमाणं' मनोरमाणाम्, 'अमियगईणं' अमितगतीनाम् 'अमियबलदीरियपुरिसकारपरक - अधिक विशिष्टता आगई हैं- ऐसी विशिष्टता से ये संपन्न हैं 'पउप्पल सगल सुरभिमाला विश्वसियाणं' इनकी शोभा अखंडित एवं अनुपमगंध शालीषद्म और उत्पलों की मालाओं से और भी अधिक शोभायमान हो रही है' बहर खुराणं' इनके खरों के ऊपर जो विचखुरी है वह मणि कनकादिमय होने से अनेक प्रकार की हैं 'फालियामय दंताणं' स्फटिकमय इनके दांत हैं 'तवणिज्ज जीहाणं' तस सुवर्ण की इनकी जिह्वाएं हैं 'तवणिज्जतालुयाणं' तपनीय सुवर्ण के इनके तालु हैं 'तवणिज्ज जोतग सुजोइयाणं' तपनीय सुवर्ण के तरों के बने हुए जेबरा से ये सब के सब सुयोजित हैं । 'कामगमाणं, पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिय अबिल वीरिथ पुरिसक्कारपरक्कमाणं' इच्छानुसार इनका गमन होता है मनुष्यों को इनके गमन से बडा हर्ष होता है मन की जैसी तीव्र गति होती है वैसी तीव्र गति इनकी होती है ये मन को हरण करने वाले हैं इनकी स ंपन्न छे, 'पउमुप्पल सगलसुरभिमालाविभूसियाणं' सेमनी शोभा अखंडित याने અનુપમ ગંધશાલી કમળ અને ઉત્પલેની માળાએથી અધિક શાભાયમાન થઈ રહી છે, 'वहरखुराणं' सेमनी मेरी खेती भोवनी मनी होय, 'विविधविखुराणं' भनी ખરી ઉપર જે ચિખરી છે તે મણુિકનક આદિવાળી હાવાથી અનેક પ્રકારની છે—ાહિ यामयदंताणं' टिम्भय ोभना हांत छे, 'तवणिज्जजीहाणं' तससुवर्धुनी शेमनी कले! छे, 'तवणिज्जतालुयाणं' तपनीय सुवर्णुना खेभना ताजवा छे. 'तवणिज्जजोत्तग सुयोजियाणं' तयनीय सुवर्णुना तारना मजेसा नेतराय मा अधां सुयोजित थे. 'पीइगमागं, मगोगमाणं, मणोरमाणं, अमियगईणं, अमियबल वीरियपुरिसक्कार पर कमाणं' च्छानुसार એમનું ગમન થાય છે, મનુષ્યાને એમના ગમનથી ઘણા હર્ષોં થાય છે, મનની જેવી તીવ્રગતિ હાય છે તેવી તીવ્રગતિ એમની હાય છે, તે મનનુ હરણ કરનારા છે તેમની Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ० माणं' अमितबलवीर्यपुरुषकारगर क्रमाणाम्, 'मह याज्जिय गंभीररवेणं' महता गर्जित गम्भीररवेणं-शब्देन 'महुरेणं मगहरेणं' मधुरेण मनोहरेग-चित्ताहादकेन 'पूरेता' पूरयन्ति 'अंबरं दिमाओय सोभयंता' अम्बरं-गगनतलम् • दिशाश्च पूर्वादिकाः शोभयन्ति, 'चत्तारि देवसाहस्सीओ' चत्वारि देवसहस्राणि, वसहरूबधारीणं देवाणं' वृषभरूपधारिणां देवानाम्, 'पञ्चथिमिल्लं वाई परिवहंतित्ति' पाश्चात्यां-पश्चिमदिग वस्थितां बाहां परिहन्तीति ॥ सम्प्रति-चतुर्यवाहा वाहकान देवानाइ-'चंदविमाणस्सणं' इत्यादि, 'चंदविमाणस्प्तणं उत्तरेणं' चन्द्रविमानस्य खलु उत्तास्याम् उत्तरपार्चे बामपावें इत्यर्थः, हयरूपधारिणां देवानां चत्वारिदेवसहस्रागि उत्तरं वाहं परिवहन्तीत्यग्रिमेणान्वयः, तेषामेव देवविशेषाणां विशेषणानि आह-'सेयाणं' इत्यादि, 'सेयाण' श्वेतवर्णवताम् 'सुनगाणं' सुभगा. नाम् अतीव सुन्दराणा मित्यर्थः 'सुप्पभाणं' सुप्रभाणां-विलक्षणतेजोविशिष्टानामित्यर्थः गति अमित है इनका बल वीर्य पुरुषकार और पराक्रम अपरिमित होती है ये 'महया गज्जियगंभीररवेणं महुरेणं मणहरेणं' ये मधुर मनोहर जोर २ की गर्जना के गंभीर शब्द से 'अंबरं दिसाओ य पूरेता सोभयंता बसहरूवधारीणं देवाणं चत्तारि देवसाहस्सीओ' आशाश को एवं पूर्वादिक दिशाओं को भर देते हैं और उनकी शोभा बढा देते हैं इस तरह से यह वृषभरूप धारी चार हजार देवों के सम्बन्ध का कथन है ये चार हजार वृषभरूप धारी देव पच्चस्थिमिल्लं वाहां परि वहंति त्ति' चंद्र विमान की पश्चिम बाहा को खेंचते हैं। ___अब सूत्रकार चन्द्रविधान की चतुर्थवाहा के बाहक देवों के संबंध में कथन करते हैं-'चंद विमाणस्सणं उत्तरे' चन्द्रविमान की उत्तर दिशा में जो हयरूप धारी देव-चार हजार देव-उत्तर याहाको खंचते हैं उनके विषय में सूत्रकार इन विशेषणों का कथन करते हैं ये सब हय रूप धारी 'सेयाणं' श्वेत वर्णवाले होते हैं, 'सुभगाणं तुन्दर होते हैं 'लुप्प भागं' विलक्षण तेज विशिष्ट होते हैं, 1 1 छे मना मण, वीय ५३५४॥२ अने ५२ म ममित तसा 'महयागज्जिय गंभीररवेणं मणरेण ती धु, मला २ रनी सनान ली२ शथी 'अंबर दिसाओ य पुरेता सोभयंता वसहरूपारीणं देवार्ण चत्तारि देवसाहस्सीओ' माशने અને પૂર્વાદિક દિશાને ભરી દે છે અને તેમની શે ભામાં અભિવૃદ્ધિ કરે છે. આ રીતે આ વૃષભ રૂપધારી ચાર હજાર દેવેના સમ્બન્ધનું આ કથન છે. આ ચાર હજાર વૃષભ ३५५ ६५ पच्चत्थिगिल्लं पाहां परिवहं तित्ति' यन्द्रविमाननी पश्चिभवाडाने में ये छे. હવે સૂત્રકાર ચ કવિરાનની ચતુર્થવ હાન દાહક દેના સંબંધમાં કથન કરે છે'चंदविमाणस्स गं उत्तरे' य- द्र न 3d vi७३.३0 2-या २ દેવ-ઉત્તરવાહાને ખેંચે છે તેમના વિષચમાં સૂત્રકાર મા વિશેષણનું કથન કરે છે-આ બધાં ९५३५पारी ४१ 'सेयाण' श्वेत वाडय छ, 'सुभगाणं' । ४ सुन्४२ जाय छ, 'सुप्पभाण' ज० ६२ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिसूले 'तरमल्लिहायणाणं' तरोमल्लिहायनानाम्, तत्र तरो वेगो मल्लि-र्धारकः हायन:-संवत्सरो येषां ते तथा तेषाम्, वरतुरङ्गमाणा मित्यग्रिमेण सम्बन्ध, 'हरिमेल मउलमल्लिकाऽच्छाणं' हरिमेल मुकुलमल्लिकाक्षाणाम्, तत्र हरिमेलको वनस्पति विशेष स्तस्य मुकुलं-कुड्मलम् तथा मलिकका-विचकिलः तद्वदक्षिणी येषां ते हरिमेलकमुकुल मल्लिकाक्षास्तेषाम् 'चंचुञ्चिय कलिय पुलिय चलचवलचंचलगईण' चंचुरितललितपुलितचलचपलचञ्चलगतीनाम्, तत्र-चंचुरितं-कुटिलगमनम् अथवा चंचुः-शुकचञ्चु स्तद्वत् वक्रतया इत्यर्थः' अश्चितम् उच्चताकरणं पादस्योच्चितं वा उत्पाटनं पादस्यैव चंचूच्चितं च तत् ललितं च विळासवद्गतिः पुलितं च-गतिविशेषः एवं रूपा, तथा चलतीति चलो वायुः कम्पनत्वात् तद्वत् चपलचञ्चला अतिशयेन चपला गतिर्येषां ते तथा तेषाम्, तथालचनं-गर्तादेरतिक्रमणम् 'तरमल्लिहायणाणं' ये तर-वेग या बल धारक वर्षवाले होते हैं-अर्थात्-यौवनशाली होते है, 'हरिमेलमउल मल्लिकाच्छाणं' हरिमेल-वनस्पति विशेष के मुकुल-कुड्मल एवं मल्लिका के जैसी इनकी आंखें हैं, 'चंचुचियललिय पुलिय चल चल चंचल गईणं' इनकी गति क्रिया चंचुरित है, वायु के जैसा अत्यन्त चपलता भरी है, या कुटिलित है, शुक की चोंच के जैसी वक्रता लिये हुए है एवं ललित-विलास युक्त है, पुलकित-अतएच आनन्दोत्पादक है, अथवा-'चंचु. रिचय' की संस्कृत छाया 'चचितम्' ऐसी भी हो सकती है इस पक्ष में इनकी गति तोते की चोंच जैसी वक्र इसलिये थी कि उसमें पैरों को ऊंचा किया जाता है और फिर रक्खा जाता है अतः इस स्थिति में पैरों का टेडा होना स्वाभाधिक है इसलिये उस गति क्रिया को भी यहां वक्रतायुक्त कह दिया गया है, 'चल' शब्द का अर्थ यहां वायु है सो वायु की गति अतिशय चपलता भरी होती है इसी प्रकार की इनकी भी गति अतिशय चपलता युक्त है 'लंघणवग्गण धावण विक्षय त विशिष्ट खाय छ, 'तरमल्लिहायणाणं' तेस। त२-३॥ गया मा२४ पाणा हाय छ-मर्थात्-यौवनानी डाय छ, 'हरिमेल मउल मल्लिकच्छाणं' रिमलવનસ્પતિ વિશેષના મુકુલ ખીલેલ કુમલ કળિયે તેમજ મહિલાના જેવી એમની આંખે છે. 'चंचुचिय ललियपुलियचलचक्लचंचलगईणं' मेमनी गतिठिया युरित छ, वायु रेवी अत्यन्त ચપળતા ભરેલી છે અથવા કુટવિત છે, પિોપટની ચાંચના જેવી વક્રતાવાળી છે અને aलित-विलासयुत छ, पुति-माथी मानन्द नारी छे मया-'चंचुच्चिय' नी सलत छाया 'चंचितम वी पास ह श . या पक्षमा भनी गति પિપટની ચાંચ જેવી વાંકી એટલા માટે હતી કે તેમના પગને ઊંચા કરવામાં આવે છે અને પછી નીચે રાખવામાં આવે છે આથી આવી સ્થિતિમાં પગોનું વાંક હોવું સવાભાવિક છે અને આથી જ તે ગતિક્રિયાને પણ અહીં વક્રેતાયુક્ત કરી દેવામાં આવી છે. “જa શબ્દને અર્થ અને વાયુ છે અને વાયુની ગતિ અતિશય ચપળતાયુક્ત હોય के मरीत समनी ५९ गत मतिशय २५णतासरेकी छे. 'लंघणवग्गणधावण धोरण. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-लप्तमवक्षस्कारः सू. २१ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४६५ उत्कूदनं धावनं-शीघ्रजुगमनं धोरणं गतिचातुरी त्रिपदी-भूमौ पदत्रयन्यासः जयिनीवगमनान्तर जयवतीव यद्वा जविनीवेगवती शिक्षिता-अभ्यस्ता ग तयैस्ते तथा तेषाम्, 'ललंतलाप्रगललायवरभूसणाणं' ललन्तलामगललातवरभूषणानाम्, तत्र-ललन्ति-दोलायमानानि लामानि प्राकृतत्वात् रम्याणि गललातानि कण्ठेन्यस्तानि वरभूषणानि येषां ते तथा तेषाम्, 'संनयपासाणं' समतपार्थानाम् 'संगयपासाणं' सङ्गनपार्थानाम्, 'मुजायासाणं' मुजातपार्थानाम्, 'पीवर वट्टिय मुसंठिय कडीगं' पीवरवर्तितसुसंस्थितकटीनाम्, “ओलंब पलंवलक्षणप्पमाण जुत्त रमणिज्जवालपुच्छाणं' अवलम्ब प्रलम्बलक्षणप्रमाणयुक्त वाल. पुच्छानाम्, "तणु सुहुम सुजायणिद्ध लोमच्छविहराणं' तनुवक्ष्य सुजात स्निग्ध लोमच्छविधोरण तिवइ जहण सिक्खियगईगं' ये सब गर्त आदि के लांघने में, बलान कूदने में, धावन-दौडने में, धोरण-गति की चतुराई में, त्रिपदी में-भूमि पर तीन पैरों के रखने में जो इनकी चाल है वह जयिनी है-गमनान्तर को जीतने वाली है अथवा-वेगवती है, इससे ऐसा ज्ञात होता है कि इस प्रकार की चाल इन्होंने पहिले से ही सीख रखी है 'ललंत लामगललायवर भूसणाणं' दोलायमान एवं सुरम्य आभूषण इन्होंने अपने २ गलों में धारण कर रखे है 'संनयपासाणं' दोनों पार्श्वभाग इनके नीचे की ओर प्रमाण रूप में नत है 'संगतपासाणं' इसी कारण वे संगत और 'सुजायपासाणं' सुजात-जन्मदोष से रहित है 'पीयरपहिय सुसंठियकडीणं' इनके कटि भाग पीवर-पुष्ट और गोल हैं तथा सुन्दर आकारवाले है 'ओलंस एलंब लक्खणप्पमाणजुत्तरमणिज्जवालपुच्छाणं' इनके बाल प्रधान पुच्छों के अर्थात् चामरों के बाल अवलम्ब अपने २ स्थानों पर खुब अच्छी तरह से जमे हुए हैं बडे २ हैं, लक्षण युक्त हैं और प्रमाणोपेत हैं 'तणु. तिवइजइण सिक्खियगइण' 22 गति दिन लामा, पान-पामां, पावनદેડવામાં ધોરણ- ગતિની ચતુરાઈમાં, ત્રિપદીમાં–ભૂમિ પર ત્રણ પ મ રાખવામાં જે એમની ચાલ છે તે જયિની છેગમનાન્તરને જિતવાવાળી છે, આનાથી એવું જ્ઞાન થાય છે કે मा अनी यात साये माथी भी सीधी छे. 'ललंतल.मगललायवरभूसणाणं' सायमान भने सुरभ्य माभूषा अभय पातपाताना मणमा धारण ४॥ राभ्यां छे. 'संनयपासाणं' मन पावसाय मेमनी नीयनी मासे प्रभास२ नमेल छे. 'संगतपासाणं' मा ४२थे तेथे। संगत मा 'सुजायपासाणं' सुजत-भाया २हित 8. 'पावरवट्टिय सुसंठियकडीणं' भने। मार पी२-पुष्ट गने गो छ तथा सुन्४२ १४:२वाणे! छे. 'ओलंब पलंबलक्खणप्पमाण जुत्त रमणिज्जवालपुच्छाणं' मेमनी વાળ પ્રધાન પૂંછડીઓના અર્થાત્ ચામરોના વાળ અવલમ્બ પિતપતાના સ્થાને ઘણી सारी रीते सा छ, भोट मट छ, सक्षत छ भने प्रमाणपत छ. 'तणुसुहम सुजाय गिद्ध लोमच्छविहराणं' मेमना शरीर ५२ २ ३।। छे ते तनुसूक्ष्म-gir Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र धराणाम्, "मिउविसय मुहुमलक्खणपसत्य विडिण्णकेसरपालिहाराण' मृदुविशद सूक्ष्मलक्षण प्रशस्त विस्तीर्ण केसरपालिधराणाम्, तत्र--मृद्वी विशदा उज्ज्वला यद्वा परस्परमसंमिलिता प्रतिरोमकूप मेकैकसंभवात् सूक्ष्मा तन्वी लक्षणा प्रशस्ता या केसरपालि:स्कन्धकेशश्रेणिः तां धरन्ति ये ते तथा तेपाम्, 'ललंतथासगललाडवरभूसणाणं' ललन्त थासकललाटवरभूषणानाम्, तत्र ललन्तः-सुबद्धत्वेन शोभायुक्ता ये थासकाः दर्पणाकारा आभरणविशेषाः त एव ललाटे भूषणानि-भ णविशेषा येषां ते तथा पाम्, “मुहमंडगोचूलग चामस्थासगपरिमंडि बडी' खण्डकाऽचूल कामरथासकारिमण्डितकटीनाम्, तत्र मुखमण्डक-मुखाभरणम् अवचूलकाः प्रहम्बमानगुच्छाः चामराणि स्थासकाः-दर्पणाकारआभरणविशेषाः एते ययस्थ ने नियोजिताः सन्ति येषां ते तथा, परिसुहम सुजाय गिद्ध लोमच्छविहराणं' इनके शरीर पर के जो रोम हैं वे तनु सूक्ष्म बहुत ही पतले हैं, सुजात-दोषविवर्जित, हैं, एवं स्निग्ध हैं, ऐसे रोमों की छवि को ये धारण किये हुए हैं, 'निउ वसय सुहमलखण पसत्थ वि छिण्ण केसर पालिहराणं' मृदु, विशद, सूक्ष्म, लक्षणों से प्रशस्त, एवं विस्तीर्ण ऐसी केशरपालो-गर्दन के ऊपर जो बाल हैं वे मृदु-चिकने है विशद-उज्ज्वल साफ सुथरे हैं, या परस्पर में असंबलित हैं, क्यों कि एक एक रोमकूप में एक २ ही बाल है, तथा ये पतले हैं-मोटे नहीं है, एवं बालों के लक्षणों से युक्त हैं 'ललंत थासगललाडवरभूसणाणं' इनकेललाट-भाल पर जो दर्पण के आकार अभूषण पहिराये गये हैं वे सुबद्ध होने के कारण बहुत ही बडी शोभा से युक्त हैं, 'मुह मंडगओचूलगचामरथासगपरिमंडियकडीणं' मुख मंडक-मुखाभरण-अवचूलक, लम्बे २ गुच्छे चामर, स्थासकदर्पणाकारवाले आभरण विशेष ये सब उनके ऊपर यथास्थान पर सजे हुए हैं एवं इनका कटि પાતળાં છે, સુજાત-દેષ વિવર્જિત છે. અને સુંવાળા છે, આના રૂંવાડાની છબીને તેઓએ धा२५ ४२खी छे. 'मिउविसय सुहुमलक्खणपसत्थविछिण्णकेसरपालिहराणं' भृड, विश, સૂમ, લક્ષણેથી પ્રશસ્ત અને વિસ્તીર્ણ એવી કેશરવાલી–ગર્વનની આલ–ને તેઓએ ધારણ કરેલી છે અર્થાત્ એમની ગર્દનની ઉપર જે વાળ છે તે મૃદુ-ચિકણું છે, વિશદ-ઉજવળ સાફસુથરા છે અથવા પરસ્પરમાં અસંવલિત છે કારણ કે એક રમકૃપમાં એક-એક . पण छे तथा ते पाता छ- नथी मने न aadथी युटत छ. 'ललंत थासगललाडवरभूसणाणं' मेमना साट-लात ५२ ४५गुना ॥२॥ साभूषण पररावपामा माया छ । सुमार वान। २ घणी १ मे शामा छ, 'मुह मंडगओ. चुलगचामरथासगपरिमंडियकडीणं' भुभम-भुभाभ२६-अयूब ain-aint शुरछ। ચામર, સ્થાસક દર્પણુકારવાળા આભરણ વિશેષ એ બધાં તેમની ઉપર યથાસ્થાને રાખેલા છે અને એમને કટિપ્રદેશ વળી અન્ય પ્રકારના આભરણેથી સુશોભિત બની રહે છે. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४१३ मण्डि -आभरणादिना सुशोभिता कटिर्येषां ते तथा तेषाम्, 'तवणिज्जखुगणं' तपनीय खुराणा, सुवर्ण सदृशखुराणाम्, 'तवणिज्जबीहाणं' तपनीयजिहानाम्, 'तरणिज्जतालुयाणं' तपनीयतालुकानाम्-सुवर्ण सदृशतालुकानाम्, 'तवणिज्जजोत्तगसुयोजियाणं' तपनीय योगकमु घोजितानाम्, 'काममाणं' कामगमानां तत्र-कामः-स्वेच्छा तेन गमो. गमनं येषां तादृशानाम्, "पीइमाणं' प्रीतिगमानाम्, तत्र प्रीति श्चित्तस्योल्लासो विद्यते इत्यर्थः 'मणोगमाणं' मनोगमानाम्, 'मणोरमाणं' मनोरमाणाम् 'अमियगईणं' अमितगतीनाम् 'अभियवलपीरियपुरिसक्कारपरकमाणं' अमित बलवीर्य पुरुषारपराक्रमाणाम्, 'महयाहय हेसियकिलकिलाइयरवेणं' महताहय हे पितकिलकिलायितरवेण-शब्देन, तत्रमहता-बहुव्यापिना हयहेषितरूपो यः किलकिलायितरयः-सानन्दशब्दस्तेन 'मणोहरेणं' भाग और भी अनेक प्रकार के आभरणों से सुसज्जित हो रहा है 'तवणिजखुराण' इनके खुर सुवर्ण के जैसे है, 'तवणिज्ज जीहाणं' जिहा भी इनकी सुवर्ण के जैसो है, 'तवणिज्जतालुयाणं' तालु भी इनका तपनीय सुवर्ण के ही जैसा है 'तवणिज्ज जोत्तगसुयोजियाणं' तपनीय सुवर्ण के तारों से गुंथे हुए जेबरा से ये सब सुनियोजित हैं 'कामगमाणं' इच्छानुसार ये सब गमन करते हैं, 'पीइगमाणं' चित्त के उल्लास के अनुरूप ही इनकी चाल है, 'मणोगमाणं' मन की गति जैसी इनकी गति है, 'मणोरमाणं' मन को रुचें ऐसे ये बडे सुहावने हैं, 'अमियगईणं' इनकी गति अपार है 'अमियबलवीरिय पुरिसकारपरक्कमाणं' अपरं पार ही इनका बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम है, 'महया हयहे. सिय किलकिलाइयरवेणं' ये सब के सब हय (घोडा) रूपधारी देव गण बहुत दूर २ तक व्याप्त होने वाले ऐसे अपने हिनहिनाट के शब्द से जो कि आनन्दयुक्त है 'मगोहरेणं' चित्त में आल्हाद का उत्पादक है 'अंबरं दिसाओ य पुरेंता' अम्बरतल एवं दिशाओं को वाचालित करते हैं और 'सोभयंता' उन्हें 'तवणजखुराग' मेमनी साना वा छ, 'तवणिज्जजीहाणं' म प मेमनी सुवर्ण २वी छे, 'तवणिजतालुयाणं' ताण ५४ अमनु तपास सुवर्ण रेवु यमीछे, 'तवणिज्ज जोत्तगसुयोजियाणं' तपासा सुना यमा२ ताथी 24 शनी साथे wi सुनियोशित छ. 'कामगमाण' ५२छानुसार तो मां गमन ४२ छे. 'पीइगमाणं' (यत्तना खास अनु३५ ॥ तेमनी याद छ, 'मणोगमाणं' भनने गमे ये तो । सोहमा छ. 'अमियगईणं' ५५२ पा२ समनी जति छ. 'अमिय बलवीरिय पुरिसक्कारपरक्कमाणं' अ५२ पार भनु म काय अने ५३५४२ ५२।म थे, 'महया हयहेसियकिलकिलाइयरवेणं' मा मया य (७) ३५धारी हेवाण घरे દૂર-દૂર પર્યંત વ્યાસ થનારા એવા પિતાના હણહણાટના શબ્દથી કે જે આનંદદાયક છે, 'मणोहरेणं' शित्तम मादा 644नार छ. 'अंबरं दिसाओ य पुरेंता' मरतसने भने &ामान वायलित ४२ छ भने 'सोभयंता' मन सुशालित . सतना Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुद्वीपप्रतिसूत्रे मनोहरेण-चित्ताल्हादजनकेन शब्देन 'पुरेता' पूरयन्ति तथा-'अंबरं दिसामओय सोभयंता' अम्बरं-गगनतलं दिशाः पूर्वादिकाः शोभयन्ति 'चत्तारि देवसाहस्सीओ' चत्वारि देवसहस्राणि 'एयरूबधारीण देवाणं' हयरूपधारिणां देवानाम्, 'उत्तरिल्लं बाहं परिवहतित्ति' उत्तराम्उत्तरदिगवस्थितबाह परिवहन्ति इति ॥ सम्प्रति-संग्रहणी गाथाद्वयं चाह-'गाहा' इत्यादि, 'गा' गाथा 'सोलसदेवसहस्सा हवंति चंदेसु चेव सूरेसु' षोडश देवसहस्राणि भवन्ति चन्द्रेषु चैव सूर्येषु 'अटेव सहस्साई एकेकमि गहविमाणे' अष्टावेव सहस्राणि एकैकस्मिन् ग्रहविमाने, एकैकस्मिन् ग्रहविमाने अष्टावेव देवसहस्रागि देववाहका भवन्तीत्यर्थः 'चत्तारिय सहस्साई णनमिय हवंति इक्किक्के' चत्वारि देवसहस्राणि नक्षत्रे च भवन्ति एकै कस्मिन् 'दो चेव सहस्साई तारारूवेकमेकमि' द्वे एव सहस्रे तारारूये एकैकस्मिन् इति । एवं सूरविमाणं जाव तारास्वविमाणाणं' एवं-यथा सुशोभित करते हैं इस तरह के विशेषणों वाले एवं इस तरह की स्थितिवाले ये 'हयख्वधारीणं देवाणं चत्तारि देवसाइस्लीओ' हय (घोडा) रूप धारी चार हजार देव 'उत्तरिल्लं वाहं परिवहंति' चन्द्रविमान की उत्तरदिगवस्थित बाहा को खेचते हैं। यहां आगत इन दो संग्रहणी गाथाओं का अर्थ इस प्रकार से है, सोलसदेवसहस्सा हवंति चंदेसु चेव सूरेसु' चन्द्रमा एवं सूर्यके विमानों के वाहक सोलह २ हजार देव हैं, 'अहेव सहस्साई एक्केक्कंमि महविमाणे' एक एक ग्रह में आठ हजार ही देववाहक हैं, 'चत्तारि य सहस्साई णखतमि य हवंति इक्किक्के' एक एक नक्षत्र में चार हजार देव वाहक हैं । 'दो चेव सहस्साई ताराख्वेकमेकंमि' एक एक तारा रूप में दो ही हजार देववाहक हैं, "एवं सूरघिमाणं जाव तारारूवविमाणाण' जिस प्रकार से चन्द्रविमान के परिवाहक सिंहादि देव पूर्वोक्त रूप से वर्णित करने में आये हैं उसी प्रकार से सूर्यविमान केभी परिचाहक सिंहादि देव वर्णन करने योग्य हैं ऐला जानना चाहिये इसी तरह विशेषणा भने २मा ४२नी स्थितिवार २मा 'हयरूवधारीणं देवाण चत्तारि देवसाहस्सीओ' य (31) ३५धारी या२ ७२ हेव 'उत्तरिल्लं वाहं परिवहंति' चन्द्रविमानना ઉત્તરદિવસ્થિત વાહન ખેંચે છે. અહીં આગત આ બે સંગ્રહણી ગાથાઓને અર્થ આ प्रमाणे छ-'सोलस देवसहस्सा हवंति चंदेसु चेव सूरेसु' यन्द्रमा भने सूना विमानाना पास से-सो २ प छ, 'अट्रेव सहस्साई एक्केमि गह विमाणे' से ४ मा8 M२ हेववाहछ. 'चत्तारि य सहस्साई पक्खत्तंमि य हवंति इविक्के' । मे। नक्षत्रम या२ या२ २ ४५१।९४ छे. 'दो चेव सहस्साई तारारूवेक्कमेक्कमि' से मे त२३५भा मे ४ २ ३१वा छ, 'एवं सूरविमाणं जाव तारारूवविमाणाणं' रे પ્રકારે ચન્દ્રવિમાનના પરિવાહક સિંહાદિ દેવ પૂર્વોક્ત રૂપથી વર્ણિત કરવામાં આવ્યા છે તેવી જ રીતે સૂર્યવિમાનના પણ પરિવાહક સિંહાદિદેવ વર્ણન કરવા ગ્ય છે એવું Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स्. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४९५ चन्द्रविमानवाहकानुसारेण सूर्यविमानानामपि सिंहादिदेवा वाहका वर्णनीयाः यावत्तारारूपाणामपि विमानवाहका वर्णनीयाः, यावत्पदान अनिमानानां नक्षत्र विमानानां च विमानवाहका वर्णनीयाः । 'णवरं एसदेव संघायत्ति' नवर मेष देव संघात इति, अयं भावः-सर्वेषां ज्योतिकाणां विमानवाहक सूत्रं सममेव तेषां संख्याभेस्तु पूर्व *थित गाथाद्वयादेव ज्ञातव्य स्तथाहि-पोडशदेव सहस्राणि चन्द्रविमाने वाहका भवन्ति, पूर्यविमानेऽपि षोडश एव देवसहस्राणि भवन्ति, ग्रहविमाने एकैस्मिन् अष्टौदेव सहस्राणि भवन्ति, तथा नक्षत्रविमाने चत्वारि देव सहस्राणि भवन्ति, तारारूपविमाने द्वे चैव सहस्र एकैकस्मिन् इति नवमद्वारम्, तत्रायं भाव:-चन्द्र विमाने चत्वारि सहस्राणि, गजाना चत्वारि, सिंहानां चत्वारि सहस्राणि, वृषभाणां चत्वारि अश्वानाम्, एवं सूर्यविमानेऽपि । ग्रहविमाने द्वे सहस्र सिंहाना द्वे गजानां द्वे से यावत्पद गृहीत ग्रहविमानों के और नक्षत्र विमानों के भी विमानवाहक देव वर्णन योग्य है ऐसा समझलेना चाहिये, 'णवरं एस देव संघायत्ति' इस सूत्र का भाव ऐसा है-समस्त ज्योतिष्क देवों के विमान वाहक देवों के सम्बन्ध का सूत्र समान ही है, इनकी संख्या का भेद पूर्वकथित गाथाद्वय से ही ज्ञातव्य है, जैसे-सोलह हजार चन्द्रविमान में वाहक देव हैं सो इतने ही हजार देव सूर्य विमान में वाहक हैं ग्रहविमान में एक एकमें आठ आठ हजार देव हे नक्षत्र विमान में चार हजार देव हैं तारारूप विमान में एक एक में दो हजार देव परि वाहक देव हैं इस प्रकार से यह नवम द्वार समाप्त होता है, भाव यहां ऐसा है-चन्द्रविमान में चार हजार परिवाहक गजरूपधारी देव है चार हजार सिंहरूप धारी परिवाहक देव हैं चार हजार वृषभरूप धारी देव हैं और चार हजार ही हय (घोडा) रूपधारी परिवाहक देव हैं इसी प्रकार से सूर्यविमान में भी हैं, ग्रहविमान में दो हजार सिंहरूपधारी दो हजार गजरूप धारी, दो हजार वृषभरूप धारी और दो हजार अश्वरूपधारी परिवारक देव हैं, જાણવું જોઈએ. આવી જ રીતે યાવત્પદ ગૃહીત ગ્રહરિમાનેના અને નક્ષત્ર વિમાનેના પણ विमानवा ३१ वर्षान ४२१॥ योय के सेम सम. 'णारं एस देव संघायत्त' मा સૂત્રનો ભાવ આ પ્રમાણે છે–સમસ્ત જ્યોતિષ્ક દેના વિમાનવાહક દેના સમ્બન્ધનું સૂત્ર સમાન જ છે. એમની સંખ્યાને ભેદ પૂર્વકથિત ગાથાદ્વયથી જ જ્ઞાતવ્ય છે જેમકે-ળ હજાર ચન્દ્રવિમાનમાં વાહક દેવ છે તે એટલાં જ હજાર દંડ સૂર્યવિમાનમાં વાહક છે, ગ્રહવિમાનમાં એક એકમાં આઠ આઠ હજાર દેવ છે, નક્ષત્રવિમાનમાં ચાર હજાર દેવ છે, તારારૂપવિમાનમાં એક એકમાં બે હજાર બે હજાર પરિવાહક દેવ છે. આ પ્રકારે આ નવમ દ્વાર સમાપ્ત થાય છે આ કથનને ભાવ અહીં એ છે–ચન્દ્રવિમાનમાં ચાર હજાર સિંહરૂપ ધારી પરિવહક દેવ છે, ચાર હજાર વૃષરૂપધારી દેવ છે અને ચાર હજાર જ હય (વેડા) રૂપધારી પરિવાહક દેવ છે. આવી જ રીતે સૂર્યવિમાનમાં પણ છે, ગ્રહવિમાનમાં બે Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूदीपप्रज्ञप्तिस्त्र वृषभाणां द्वे हयानां नक्षत्रविमाने एक सहस्खं गजानामेकं सिंहाना मेकं वृषभाणामेकमश्वानाम्, ताराविमाने पञ्चशतं सिंहानां पञ्चशतं वृषभाणां पञ्चशतमश्वानाम् इति । सू० २९ ॥ ॥ अथ दशमद्वारम् ।। नवमद्वारं व्याख्याय दशमं द्वारं व्याख्यातुमाह-'एएसिण' इत्यादि, मूलम्-एएसि णं भंते ! चंदिमसरियगहगणणक्खत्ततारारूवाणं कयरे सव्वसिग्घगई कयरे सव्वसिग्घतराए चेव ? गोयमा ! चंदेहितो सूरा सम्वसिग्घगई सूरहितो गहा सिग्घगई, गहेहितो पक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहितो तारारूवा सिग्घगई, सवप्पगई चंदा सव्वसिग्घगई, तारारूवा इति । एएसि णं भंते ! चंदिमसूरियगहणणक्खत्ततारारूवाणं कयरे सव्वमहद्धिया कयरे सव्वप्पड्डिया ? गोयमा ! तारारूवे. हिंतो णक्खत्ता महिड्डिया, णक्खत्तेहितो गहा महिड्डिया गहेहिंतो सृरिया महडिया सूरेहितो चंदा महड्डिया सव्वप्पड्डिया तारारूवा, सबमहिद्धिया चंदा । जंबूदीवेणं भंते ! दोवे ताराएय ताराएय केवइए अबा. हाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे वाघाइए य निव्वाघाइए य निवाघाइए जहणणेणं पंचधणुसयाई उकोसेणं दो गाउयाइं, वाघाइए जहणणेणं दोणि छावटे जोयगसए उक्कोसेणं बारसजोषणसहस्साई दोणि य बायाले जोयणसए तारारूवस्स अवाहाए पन्नत्ते । सू० ३०॥ छाया-एतेषां खलु भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्ष तारारूपाणां कतरः सर्वशीघ्रगतिकतरः सर्वशीघ्रतस्कएव, गौतम ! चन्द्रेभ्यः सूर्याः सर्वशीघ्रगतयः सूर्येभ्यो ग्रहाः शीघ्रगतयः, नक्षत्रविमान में एक हजार सिंहरूपधारी, एक हजार गजरूपधारी, एक हजार बृषभरूपधारी और एक हजार अश्वरूपधारी देव हैं, तथा ताराविमानों में पांच सौ सिंहरूपधारी, पांच सौ वृषभरूपधारी, पांच सौ गजरूप धारी और पांच सौ अश्वरूपधारी देव हैं ॥सू० २९॥ नवांद्वार समाप्त હજાર સિંહરૂપધારી, બે હજાર ગજરૂપધારી, બે હજાર વૃષભરૂ પધારી અને બે હાર અશ્વવરૂપધારી પરિવાહક દેવ છે, નક્ષત્રવિમાનમાં એક હજાર સિંહરૂપધારી, એક હજાર ગજરૂપધારી એક હજાર વૃષભરૂપધારી અને એક હજાર વશ્વરૂપધારી દેવ છે તથા તારાવિમાનમાં પાંચસો સિંહરૂપધારી, પાંચસો ગજરૂપધારી, પાંચસો વૃષભરૂપધારી અને પાંચસો અશ્વરૂપધારી દેવ છે. નવમું દ્વાર સમાપ્ત Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. ३० ग्रहादीनां शीघ्रगत्यादिनिरूपणम् । प्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि, नक्षत्रेभ्यस्तारारूपाणि शीघ्रगतीनि । सल्पिगतयश्चन्द्रा, सर्वशीघ्रगतीनि तारारूपाणि, एतेषां खलु भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणी कतरे सर्वमहर्दिकाः कतरे च हल्लिद्रिकाः ? गौतम ! तारारूपेभ्यो नक्षत्राणि महद्धि कानि, नक्षत्रेभ्यो ग्रहा मह द्धिकाः, ग्रहेभ्यः सूर्या मह द्धिकाः, सूर्येभ्यश्चन्द्रा महद्धिकाः, सर्वाल्पर्टिकानि तारारूपाणि, सर्वमादिकाश्चन्द्राः। जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे ताराया स्तारायाश्च कियद बाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! द्विविधम्-व्याघातिक निर्यापतिक च, नियाघातिक जघन्येन पञ्चधनुः शतानि, उरण द्वे गव्यते । व्यापातिकं जघन्येन द्वे योजनशते पटपष्टधिके, उत्कर्षण द्वादश योजन सहस्राणि द्वे च योजनशते द्वि चत्वारिंशदधिके तारारूपस्य सारारूएस्याबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ।। सू०३० ॥ टीका-"एएसिणं भंते !" एतेषां वक्ष्यमाणानां खलु भदन्त ! 'चंदिमसूरियग्गहगण मक्खत्त ताराख्वाणं' चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारू हाणां मध्ये 'कयरे सम्बसिग्धगई' कतरः सर्वशीघ्रगतिः सर्वेभ्यश्चन्द्रादिभ्यश्वर ज्योतिष्क देवेभ्यः शीघ्रगतिः इदं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया ज्ञातव्यम् ‘कयरे सव्वसिग्धतराए चेव' कतरश्च सर्वशीघ्रतरकगति एतच्च सर्वबाब मण्डलापेक्षया कथितम् अभ्यन्तरमण्डलापेक्षया सर्वबाह्यमण्डलस्य गतिप्रकर्ष सुप्रसिद्धत्वा दसवें द्वार की वक्तव्यता 'एएसिणं भंते ! चंदिमसूरियगहणखत्ततारारुवाणं इत्यादि । टीकार्थ- इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'एएसिणं भंते ! चंदिममरियगहणक्खत्ततारारूवाणं' हे भदन्त ! इन चन्द्र सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्कों के बीच में कयरे सव्व सिग्घगई' कौन चन्द्रादिक सर्व चर ज्योतिष्क देवों की अपेक्षा शीघ्रगतिवाला है ? यह प्रश्न सर्वाभ्यन्तर मंडल की अपेक्षा जानना चाहिये, 'कयरे सब सिग्घतराए चेव' तथा कौन सर्व शीघ्र तरक गति है ? यह प्रश्न सर्व वात्य मण्डल की अपेक्षा जानना चाहिये, क्यों कि अभ्यन्तरमंडल की अपेक्षा सर्वयाह्य मंडल की गति का प्रकर्ष सुप्रसिद्ध है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! चंदेहिंतो सूरा सव्वसिग्धगई' हे દશમાદ્વારની વક્તવ્યતા 'एएसि र्ण भंते ! चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं' याls -0 सूत्र २८ गौतभाभीये प्रभुन २॥ प्रभारी ५७यु छ-'एएसिणं भंते ! चंदिममूरियगहणक्खत्ततारारूबाण' महन्त ! 241 2न्द्र, सूर्य, अर, नक्षत्र भने ता॥३५ न्ये तिनो लयमा कयरे सब सिग्घगई' । य-द्र6ि नाशी सर्व न्योति०४ वानी अपेक्षा शाति छ ? २॥ प्रश्न सय १२भनी अपेक्षाथी 22, 'कयरे सव्व सिग्घतराए चेत्र' तथा सब ति त२४ छे ? 20 प्रश्न साह्यभएसनी અપેક્ષા જાણવું જોઈએ. કારણ કે અભ૯૨મંડળની અપેક્ષા સર્વબાહામંડળની ગતિને Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्मीपप्रातिसूत्रे दिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चंदेहितो सूरा सव्वसिम्यगई' चन्द्रेभ्य श्चन्द्रापेक्षया सूर्याः सर्वशीघ्रगतयो भवन्ति; 'सूर्येभ्यः-सूर्यापेक्षया ग्रहा:भौमादयः शीघ्रगतयः 'गहे हितो णक्खत्ता' सि घगई' ग्रहेभ्यो ग्रहापेक्षया नक्षत्राणि-अभि जिदादीनि शीघ्रगतीनि भवन्ति, तथा-'णखत्तेहितो ताराख्वा सिग्घगई' नक्षत्रेभ्योऽभिजिदादिनक्षत्रापेक्षया तारारूपाणि शीघ्रगतीनि, मुहूर्तगतौ विचार्यमःणायाम् परेषां परेषा गतिप्रकर्षस्यागमप्रसिद्धत्वात् अत एव 'सधप्पगई चंदा' सर्वाल्पगतयश्चन्द्राः सर्वेभ्यः सूर्यादिभ्योऽल्पा-मन्दा गतिर्गमनं येषां ते तथा 'सबसिन्धगई तारारूवत्ति' सर्वेभ्यः-सर्वापेक्षया शीघ्रगतीनि तारारूपाणि इति दशमं द्वारम् ॥१०॥ ___ सम्प्रति एकादशद्वारमाह-'एएसिणं' इत्यादि, 'एए सिणं भंते !' एतेषां खलु भदन्त ! 'चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं' चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां मध्ये 'कयरे सव्वमहि. गौतम ! चन्द्रमाओं की अपेक्षा सूर्यों की सर्व शीघ्रगति है 'सूरेहितो गहा सिग्घगई' सूर्यों की अपेक्षा ग्रहों की शीघ्रगति हैं 'गहे हिंतो णक्खत्ता सिग्घगई' ग्रहों की अपेक्षा नक्षत्रों की शीघ्रगति है, तथा ‘णक्खत्तेहिं तो तरारूपा सिग्घ गई' अभिजितू आदि नक्षत्रों की अपेक्षा तारारूपों की शीघ्रगति है क्योंकि मुहर्तगति की विचारणा में आगे २ के ज्योतिष्कों का गति प्रकर्ष आगम प्रसिद्ध है इसलिये 'सव्वप्पगई चंदा' सर्व से अल्प गति चन्द्रमाओं की है और 'सव्वसिग्घगई तारारूवत्ति' सर्व की अपेक्षा शीघ्रगतिवाले तारारूप है। दशम द्वार समाप्त ॥ एकादश द्वार वक्तव्यता ... 'एएसि णं भंते ! चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं' हे भदन्त ! इन चन्द्र, सूर्य ग्रह, नक्षत्र और तारारूपों में से कयरे सव्वमहिडिया कयरे सव्व ४ सुप्रसिद्ध छ. भान। उत्तरमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! चंदेहितो सूरा सव्वसिग्घगई' है गौतम ! यन्द्रमामानी अपेक्षा सूर्यानी सर्वशति छ 'सूरेहिंतो गहा सिग्घगई' सूनी भपेक्षा अडानी शीशति छ. 'गहे हितो णक्खत्ता सिग्घगई' अडानी अपेक्षा नक्षत्रानी शीघ्रगति छ. तथा 'णक्खत्तेहितो तारारूवा सिग्धगई' समिति माह नक्षत्रानी અપેક્ષા તારારૂપની શીઘગતિ છે કારણ કે મુહુર્તગતિની વિચારણામાં આગળ આગળ ज्योतिनो गति प्र४५ मा प्रसिद्ध छ २था 'सव्यप्पगई चदा' सवयी मति यन्द्रमामानी छ भने 'सव्वसिग्घगई तारारूवत्ति' सनी अपेक्षा शातित३५ छ. દશદ્વાર સમાપ્ત એકાદશદ્વાર વક્તવ્યતા 'एएमिणं भंते ! चदिम सूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं' 3 महन्त ! 20 यन्द्र, सूर्य, और नक्षत्र भने ॥२॥३पामांथा 'कयरे सबमहिडूढिया कयरे सव्वापडूढिया' ४१५ सव Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३० ग्रहादीनां शीघ्रगत्यादिनिरूपणम् ४९९ ड्डिया' कतरे सर्वमहर्दिकाः सर्वापेक्षया अधिकाधिकऋद्धिमन्तः के 'कयरे सव्वापड्डिया' कतरे च सर्वाल्पद्धिकाः सर्वापेक्षया हीनऋद्धिमन्तश्च के इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तारारूवेहितो णक्खत्ता महिड्डिया' तारारूपेभ्य स्तारारूपापेक्षया नक्षत्राणि महर्दिकानि ‘णक्खत्तेहितो गहा महिडिया' नक्षत्रेभ्यो नक्षत्रापेक्षया ग्रहा:भौमादयो महद्धिकाः 'गहेहितो सूरिया ममिडिया' आहेभ्यो ग्रहापेक्षया सूर्या महद्धिकाः 'सूरेहिंतो चंदा महिडिया' सूर्येभ्यः सूर्यापेक्षया चन्द्राः महर्द्धिकाः अत एव 'सव्वप्पड्डिया तारारूवा' सर्वाल्पदिका स्तारारूपा देवा भवन्ति 'सबमहिडिया चंदा' सर्वमह द्धिकाः सर्वापेक्षाधिकऋद्धिमन्त श्चन्द्रा भवन्ति, अयं भावः-गतिविचारणायां ये यदपेक्षया शीघ्रगतयः, पड्रिया' कौन सर्वमहद्धिक-सब की अपेक्षा अधिक ऋद्धिवाला हैं ? और कौन सर्व की अपेक्षा अल्प ऋद्धि वाले हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! तारारूवेहिंतो णक्खत्ता महिड्डिया' हे गौतम ! तारारूपों की अपेक्षा नक्षत्र महती ऋद्धिवाले हैं, 'णक्खत्तेहिंतो गहा महडिया' नक्षत्रों की अपेक्षा ग्रह-भौमादिक (मंगल) ग्रह-महती ऋद्धि वाले हैं। 'गहेहितो सूरिया महिड्डिया' ग्रहों की अपेक्षा सूर्य महाऋद्धि बाले हैं, 'सरेहिंतो चंदा महिडिया' औरसूर्यो की अपेक्षा चन्द्र महाऋद्धिवाले हैं। इसतरह 'सव्वप्पडिया ताराख्वा सव्वमहिड्डिया चंदा' सबसे कम ऋद्धिवाले तारारूप हैं और सब से अधिक ऋद्धि वाले चन्द्र हैं। तात्पर्य यही है कि गति विचारणा में जी जिन की अपेक्षा शीघ्र गति वाले कहे गये हैं वे उनकी अपेक्षा ऋद्धिविचारणा में उत्क्रम से महद्धिक कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये । एकादश द्वार समाप्त॥ द्वादश द्वार वक्तव्यता___ 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे ताराए य ताराए य' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके મહદ્ધિક-બધાની અપેક્ષા અધિક અદ્ધિવાળ છે અને કોણ સર્વની અપેક્ષા અલ્પદ્ધિવાળા छ १ साना उत्तरमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! तारारूवेहिंतो णक्खत्ता महिनिया' 8 गौत! २।३पानी अपेक्षा नक्षत्र महती द्धा छे, 'णक्खत्तेहिंतो गहा मह ढिया' नक्षत्रांनी अपेक्षा अ-लीमा (18) अ-मरती द्वा छे. 'गहे हितो सूरिया महिलूढिया', अडानी अपेक्षा सूर्य महाद्विवाण छ. 'सूरोहितो चंदा महिइढिया' मने सूर्यानी अपेक्षा यन्द्र महाराजा छे. मावाशते 'सबप्पडू दिया तारारूवा सबमहिढिया चदा' सौथा એછી અદ્ધિવાળા તારારૂપ છે અને સહુથી અધિક ત્રાદ્ધિવાળા ચન્દ્ર છે. તાત્પર્ય એ જ છે કે ગતિવિચારણામાં જે જેમની શીધ્રગતિવાળા કહેવામાં આવ્યા છે તેઓ તેની અપેક્ષા ઋદ્ધિવિચારણામાં ઉત્કમથી મહદ્ધિક કહેવામાં આવ્યા છે એ પ્રમાણે જાણવું જોઈએ. એકાદશદ્વાર સમાપ્ત દ્વાદશદ્વાર વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवे गंभंते ! दीवे ताराए य ताराए य' ३ Mora ! बी५ नमन बीपमा Ani Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कथितास्ते तदपेक्षया ऋद्धिविचारणायामुत्क्रमतो महर्द्धि का ज्ञातव्या इति एकादशं द्वारम् ॥ सम्प्रति द्वादशं द्वारप्रश्नमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीये' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'ताराए य ताराए य' ताराया स्तारायाश्च एकतारापेक्षयाऽपरतारायाः 'केवइयाए वाहाए अंतरे पन्नत्ते' कियत्या-कियत्प्रमाणकया अबाधया अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहे वाघाइए य निधाघाइए य द्विविधं-द्विप्रकारकम् अन्तरं प्रज्ञप्तम् तद्यथा-व्याघातिक निर्व्याघातिकं च, तत्र व्याघातः पर्वतादि देशेभ्यः स्खलनम् तत्रभवं व्याघातिकम्, निर्व्याधादिकं व्याघातिकामिर्गतं स्वाभाविक मित्यर्थः “निव्याघाइए जहण्णेणं पंच घणुसयाई उको सेणं दो गाउयाई तत्र द्वयोरन्तरयोर्मध्ये यत् नियाघातिकं तत् जघन्येन पञ्चधनुः शतानि उत्कर्षेण द्वे गव्यूते, एतत् जगत्स्वभागादेव ज्ञातव्यम् इति । 'वाघाइए जहणेणं दोणि छावट्टे जोयणसर' तयो योरन्तरयो मध्ये यत् व्याघातिक मन्तरं बीप में एक तारा से दूसरे तारे का 'केवड्याए अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' कितना अन्तर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! दुविहे वाघाइए य निव्वाघाइए य' हे गौतम ! अन्तर व्याघातिक ओर निाघितक के भेद से दो प्रकार का होता है जिस अन्तर में-बीच में पर्वतादिकों का पड जाना होता है वह व्याघातिक अन्तर और जो अन्तर इस व्याघात से रहित होता है अर्थातू स्वा. भाधिक होता है वह निघातिक अन्तर है 'निव्वाघाइए जहण्णणं पंचधणुस. याई उक्कोसेणं दो गाउयाई' इनमें जो व्याघात विना का अन्तर है वह कम से कम पांचसो धनुष का है और अधिक से अधिक दो गव्यूत का है यह जगत्स्वभाव से ही हुआ जानना चाहिये 'वाघाइए जहणणेणं दोणि, छापट्टे जोयणसए' व्याघातिक जो अन्तर है वह दो सौ ६६ छियासठ योजन का है यह जघन्य की अपेक्षा अन्तर कहा गया है और निषधकूट की अपेक्षा लेकर कहा गया हैं सताराथी भी ता. 'केवइयाए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' नु यु मन्तR RAमाधाथी ४पामा मान्छे ? उत्तरमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! दुविहे वाघाइए य निव्वाघाइए य' गौतम ! અન્તર વાઘાતિક અને નિર્વાઘાતિકના ભેદથી બે પ્રકારનું કહેવામાં આવેલ છે. જે અન્તરમાંવચમાં પર્વતાદિકનું પડી જવાનું થાય છે તે વ્યાઘાતિક અખ્તર અને જે અન્તર આ व्याधातथी २हित य छ-अर्थात् स्थापि डाय छे ते निव्याधाति: मन्तर छ 'निव्वाघाइए जहण्णेणं पंच धणुसयाइं उक्कोसेणं दो गाउयाई' मामा २ व्याधात सरनु भन्तर છે તે ઓછામાં ઓછું પાંચસે ધનુષ્યનું છે અને વધુમાં વધુ બે ગભૂતનું છે. આ समाथी ४ थ्ये नसे. 'वाघाइए जहण्णेणं दोण्णि छाबट्टे जोयणसए' વ્યાઘાતિક જે અન્તર છે તે ૨૬૬ બસો છાસઠ યોજનાનું છે આ જઘન્યની અપેક્ષા અન્તર કહેવામાં આવ્યું છે અને નિષધટની અપેક્ષા લઈને કહેવામાં આવ્યું છે આનું તાત્પર્ય Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवनस्कारः सू. ३० ग्रहादीनां शीघ्रगत्यादिनिरूपणम् . ५०१ तत् जघन्येन द्वे षट्षष्टि योजनशते, अर्थात् षट्पष्टयधिके द्वे योजनशते इति, एतच्च निषधकूटादिक्रममपेक्ष्य ज्ञातव्यं तथाहि-निषधपर्वतः स्वभावतः उच्चैः चत्वारि योजनशतानि तदुपरि पश्चयोजनशतोच्चानि कूटानि तानि च कूटानि मूले पञ्चयोजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्याम्, मध्ये त्रीणि योगनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि, उपरि भागे अर्द्धतृतीये द्वे योजनशते तेषां चोपरितन भाग समश्रेणिप्रदेशे तथा-जगत्स्वभावा दष्टावष्टौ योजनानि अबाधया कृत्वा ताराविमानानि प्रचलन्ति ततो जघन्यतो व्याघातिकमन्तरं द्वे योजनशते पट्पष्टयधिके एव भक्तः इति ॥ 'उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साई दोणिय बापाले जोयणसए' उत्कर्षण द्वादश योजन सहस्राणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके एतच्च मेरुपर्वतमधिकृत्य भवतीति ज्ञातव्यम्, तथाहि मेरुपर्वते दशयोजनसहस्राणि मन्दरपर्वतस्योभयतोऽबाधया एकादश योजनानि एकविंशत्यधिकानि ततः सर्वसंकलनया भवन्ति द्वादशयोजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके इति, 'तारारुवस्स तारारूपस्स अबाहाए अंतरे पबत्ते' उपयु. इसका तात्पर्य ऐसा है कि निषध पर्वत स्वभावतः चार सौ योजन ऊंचा है एवं उसके उपर पांच सौ योजन ऊंचे कूट है, ये कूट मूल में पांच सौ योजन की लम्बाई चौडाई वाले हैं बीच में ३ सौ ७५ पोजन की और ऊपर में २५० योजन की लम्बाई चौडाई वाले हैं। इनके उपरितनभाग संबंधी समश्रेणी प्रदेश में तथा जगत्स्वभाव के अनुसार आठ २ योजन की दूरी पर तारा विमान चलते हैं इसलिये जघन्य की अपेक्षा व्याघातिक अन्तर २६६ योजन का ही है 'उक्कोसेणं वारस जोयणसहस्साइं दोणि य बायाले जोयणसए' एवं उत्कृष्ट से अन्तर १२ हजार दो सौ ४२ योजन का है यह अन्तर मेरु पर्वत की अपेक्षा से कहा गया है, 'ताराख्वस्त तारारुवस्स अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' इस एक तारारूप से दूसरे तारारूप का अबाधा से अन्तर कहा गया है ॥३०॥ १२ वां द्वार समाप्त ॥ એવું છે કે નિષધ પર્વત સ્વભાવતા ચારસે ચેાજન ઊંચે છે અને તેની ઉપર પાંચસો જન ઊંચાઈએ ફૂટ છે, આ કૂટ મૂળમાં પાંચસો જનની લંબાઈ પહોળાઈવાળા છે વચમાં ૩૭૫ પેજનની અને ઉપરના ભાગમાં ૨૫૦ જનની લંબાઈ પહેલાઇવાળા છે. એમના ઉપરના ભાગ સંબંધી સમશ્રેણી પ્રદેશમાં તથા જગસ્વભાવના અનુસાર આઠ આઠ જનથી દૂર પર તારાવિમાન ચાલે છે આથી જઘન્યની અપેક્ષા વ્યાઘાતિક અન્તર ૨૬૬ योननु छे 'उक्कोसेणं बारसजोयण सहस्साई दोणि य बायाले जोयणसए' अ ष्टथी અન્તર ૧૨,૨૪ર બાર હજાર બસે બેંતાલીશ જનનું છે. આ અન્તર મેરૂપવતની अपेक्षाथी वाम माव्यु छ, 'तारारुवस्स तारारुवस्स अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' मे તારારૂપથી બીજા તારા રૂપનું અબાધાથી અન્તર કહેવામાં આવ્યું છે. ૩૦ ૧૨ મું દ્વાર સમાપ્ત Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जम्बूद्वीपाशतिस्त्रे प्रकारेण तारारूपस्य तारारूपस्य, एकस्मात् तारारूपाद् द्वितीयतासरूपस्योपयुक्ताबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं-कथितमिति द्वादद्वारम् ॥ इति त्रिंशत्सूत्रम् ।। सू० ३०॥ त्रिंशत्सूत्रं व्याख्याय त्रयोदशं द्वारं प्रश्नयितु मेकत्रिंशत्सूत्रमाह-'चंदस्त णं भंते' इत्यादि। मूलम्-चंदस्त णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरणो कइ अग्गहि सीओ पन्नत्ताको ? गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ, पन्नत्ताओ, तं जहा-चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, तओणं एगमेगाए देवीए चत्तारि देवीसहस्साइं परिवारो पन्नत्तो, पभूणं ताओ एगमेगा देवी अन्नं देवीसहस्सं विउवित्तए, एवामेव सयुवावरेण सोलस देवी सहस्सा से तं तुडिए । पहूगं भंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुड़िएण सद्धि महया हयणगीयवाइय जाव दिवाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, गोयमा ! णो इणटे सलटे से केणट्रेणं जाव विहरित्तए, गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिंदस्त जोइसरायस्त चंदवडेसए विमाणे। चंदाए राय. हाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइय खंभे वइरामएसु गोलवट्ट समुग्गएसु बहूईओ जिणसकहाओ सन्निखित्ताओ चिटुंति ताओणं चंदस्स अण्णेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ जाव पज्जुपासगिजाओ से तेणटेणं गोयमा ! णो पभूत्ति। पभूग चंदे सभाए सुहम्माए चउहि सामाणिय साहस्सिहिं एवं जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, केवलं परिवारऋद्धीए णो चेव णं मेहुणवत्तियं, विजया? वेजयंतीर जयंती३ अपराजिया४, सवेसिं गहाईणं एयाओ अग्गमहिस्सीओ, छावत्तरस्स वि गहसयस्स एयाओ अग्गहिसीओ, वत्तवाओ, इमाहिं गाहाहि ति इंगालए विआलए लोहियंके सणिच्छरे चेत्र । आहुणिए पाहुणिए६, कणगसणामाय पंचे व १११॥ सोमे१२ सहिए १३ आसणे य १४ कज्जोवए य १६ अयकरए १७ दुंदुभए १८ संखसमाननामे वितिष्णेव ॥२॥ एवं भाणियव्वं जाव भावके उस्स अग्गमहिसीओ ति ॥ चंदविमाणेणं भंते । देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्न Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमयक्षस्कारः स. ३१ चन्द्रस्याप्रमहिष्याः नामादिनिरूपणम् ५०३ त्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं चउभागलिओक्मे उक्कोसेणं पलिओवम उकोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं । सूरविमाणे देवाणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिओनमं वाससहस्स मन्भहियं सूरविमाणे देवीणं जहरणेणं च उन्भागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिं अब्भहियं । गहविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउब्मागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं । णक्खत्तविमाणे देवाणं जहपणेणं चउब्भागपलिओवमं उक्कोसेणे अद्धपलि. ओवमं, णक्खत्तविमाणे देवीगं जहाणेणं च उभागपलियोवमं उक्कोसेणं साहियं चउभागलिओम, ताराविमाणे देवाणं जहाणेणं अट्ठभागपलिओवमं उक्कोसेणं चउभागपलिओवम, ताराविमाणे देवीणं जहणणेof अट्ठभागपलिओवमं उक्कोसेणे साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं ॥सू. ३१॥ __छाया-चन्द्रस्य खलु भदन्त ! ज्योतिष्केन्द्रस्य ज्योतिष्कराजस्य कति अग्रमाहिष्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-चन्द्रप्रभा ज्योत्स्नाभा अचिमाली प्रभंकरा, ततः खलु एकैकस्याः देयाः चत्शरि देवीसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः । प्रभुः खलु सा एकैकादेवी अन्यं देवीसहस्रं विकुवितुम्, एवमेव सपूर्वाप रेण षोडश देवीसहस्राणि तदेतत् तुटिकम् । प्रभुः खलु भदन्त ! चन्द्रो ज्योति केन्द्रो ज्योतिष्कराजः चन्द्रावतंसके विमाने चन्द्रायां राजधान्यां सभायां सुधर्मायां तुटिकेन सार्द्ध महताहतनृत्यगीतवादित यावत् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्तुम्, गौतम ! नायमर्थः समर्थः, तत्केनार्थेन यावत् विहर्तुम्, गौतम ! चन्द्रस्य ज्योतिषकेन्द्रस्य ज्योतिष्कराजस्य चन्द्रावतंसके विमाने चन्द्रायां राजधान्याम् सभायां सुधर्मायाम्, माणवके चैत्यस्तम्भे वन्नमयेषु गोलवृत्तसमुद्केषु बहूनि जिनसक्थीनि सनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, तानिच खलु चन्द्रस्यान्येषां च बहूनां देवानां देवीनां चार्चनीयानि यावत् पर्युपासनीयानि तत्तेनार्थेन गौतम ! नो प्रभुरिति । प्रभुः खलु चन्द्रः सभायां सुधर्मायां चतुर्भिः सामानिकसा रेवं यावत् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहत्तु केवलं परिवारऋद्धया नैव खलु मैथुनप्रत्ययम् । विजयावैजयंती जयंती अपराजिता सर्वेषां ग्रहादीनामेता अग्रमहिष्यः षट्सप्तत्यधिकस्यापि ग्रहशतस्य एता अग्रमहिष्यो वक्तव्याः, आभिर्गाथाभिः रङ्गारको विकालको लोहिताङ्कः शनैश्चरश्चैव । आधुनिकः प्राधुनिकः कन सामाननामानश्च पञ्चैत्र ॥१॥ सोमः सहित आश्वासनः कार्योपगतः कर्बुरकाः अजकरको दुन्दुभकः शङ्खसमान नामानस्त्रय एव । एवं भणितव्यं यावद् भावतोरग्राहिष्य इति । चन्द्रविमाने खलु भदन्त ! Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ? गौतम ! जघन्येन-चतुर्भागपल्योपमम् उत्कर्षेणार्द्ध परयोपमं पञ्चाशद्वर्षसहरभ्यधिकम् । सूर्यविमाने देवानां चतुर्भागपल्योपममुत्क्षण पल्योपमं वर्षसहस्राभ्यधिकर, सूर्यविमाने देवीनं जघन्येन चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षणार्धपल्योपमं पश्चभिर्वर्षसहरभ्यधिकम् । ग्रहविमाने देवानां जघन्येन चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षेणार्द्धपल्योपमम् । नक्षत्रविमाने देवानां जघन्येन चतुर्भागपल्योपमनुत्कर्षेणार्द्धपल्योपमम्, नक्षत्र बिमाने देवीनां जघन्येन चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षेण साधिकं चतुर्भागपल्योपमम्, ताराविमाने देवानां जघन्येनाष्टभागपल्योपमम् उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमम्, तारा विमानेदेवीनां जघन्येनाष्टभाग पल्योपममुत्कर्षेण सातिरेकाष्टभागपल्पोपमम् ॥ सू० ३१॥ ___ टीका-'चंदस्स णं भंते' चन्द्रस्य खलु भदन्त ! 'जोइसिंदस्य जोइसरण्णो' ज्योतिष्केन्द्रस्य ज्योतिष्कराजस्य, तत्र-ज्योतिष्केन्द्रस्य-ज्योतिष्कदेवानामिन्द्रस्य तादृशानामेव राज्ञः 'कइ अग्गमहिसीओ पन्नताओ' कति-कियत्संख्यका अग्रमहिष्य:-पट्टरायः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयया' हे गौतम ! 'चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ' चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, हे गौतम ! ज्योतिष्कदेवराजस्य चन्द्रस्य सम्बन्धिन्य चतुःसंख्यकाः पट्टराज्ञो भवन्तीत्यर्थः तासां प्रत्येकनाम दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि, 'सं जहा' तद्यथा-'चंदप्पभा' चन्द्रप्रभा-चन्द्रवत्प्रभा-कान्ति र्दीप्ति विद्यते यस्याः सा चन्द्र तेरहवें द्वार के सम्बन्ध में वक्तव्यता 'चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्त' इत्यादि। टीकार्थ-गौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-'चंदस्सणं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरणो' हे भदन्त ! ज्योतिष्येन्द्र ज्योतिष्क राज चंद्र देव की 'कई अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ' कितनी अग्रमहिषियां-पट्टरानियाँ कही गई हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णताओ' हे गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चंद्र देव की अग्रमहिषियां चार कही गई हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'चंदप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा' चन्द्रप्रभा-इसकी शारीरिक कान्ति चन्द्र की प्रभा के जैसी તેરમાદ્વારના સમ્બન્ધમાં વક્તવ્યતા– 'चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स' (त्यादि। राय-श्री गौतभस्वामी प्रस्तुत सूत्र द्वारा प्रभुने या प्रमाणे ५७युछे-'चं दस्स णं भो ! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो' 8 महन्त ! ज्योति०४ यन्द्र न्यातिः४२१०४ यन्द्रवनी 'कई अगमहिसीओ पन्नत्ताओ' : अमहिषा-पट्टणीस। ४३वामां आवी छ ? माना उत्तरमा प्रभु छ-'गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ' गौतम ! तिन्द्र ज्योति २४२११ यन्द्रध्वनी अमरिष्यामा यार ४९सी छ, 'तं जहा' तमना नाम २॥ प्रभा Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३१ चन्द्र स्याग्रमहिष्याः नामादिनिरूपणम् ५०५ प्रभा सेयं देवराजस्य-चन्द्रस्य प्रथमा अग्रमहषी 'दोसिणाभा' ज्योत्स्नाभा, सेयं द्वितीया पट्टराज्ञीचन्द्रस्य, 'अच्चिमाली' अचिमाली, इयं तृतीया चन्द्रदेवस्य, 'पभंकरा' प्रभङ्करा सेयं चतुर्थी पट्टराज्ञी, ता एताश्चतस्रोऽग्राहियो भान्ति, ज्योतिष्कराजस्य चन्द्रस्येति । 'तओणं एगमेगार देवीए चत्तारि चत्तारि देवीसहस्साई परिवारो पन्नत्तो' ततः खलु एकैकस्या देव्याश्वखारि चत्वारि देवीसहस्राणि परिवार:प्रज्ञप्तः, तत्र पट्टर ज्ञीनां चतुःसंख्याकथनानन्तरं परिवारो वक्तव्य इत्यर्थः एकैकस्याः देव्याः चत्वारि सहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्त:-कथितः अर्थात् एकैका अग्रमहिषी चतुर्णा चतुर्णा देवीसहस्राणां पट्टराज्ञी भवतीति । सम्प्रति तासामग्रमहिषीणां बिकुर्वमा सामर्थ्य दर्शयितुमाह-'पहू गं ताओ इत्यादि, 'पढ् णं ताओ एगमेगा देवी' प्रभुः खलु सा एकैका देवी, तत्र प्रभुः-समर्था 'ण' वाक्यालङ्कारे, 'ताओ' इत्यत्र बहुवचन मेकवचने सा-इत्थंभूता सा अग्रमहिषी 'अन्नं देवीसहस्सं विउवि. त्तए' अन्यं-स्वातिरिक्तं देवीसहस्रं विकुपितुम् एतादृशी खलु अग्रमहिषी परिचारणसमये तादृशी ज्योतिष्कराजस्थ चन्द्रस्येच्छामुपलभ्यान्यमात्मसमानरूपं देवीसहस्रं विकुर्वितुम्, 'एवामेव सपुवावरेणं सोलस देवीसाहस्सा' एवमेव स्वाभाविकमेव पुनरेवम्-उक्तपकारेणैव है और यह देवराज चन्द्र की प्रथमा अग्रमहिषी का नाम अचिमाली है और चतुर्थी अग्रमहिषी का नाम प्रभंकरा है । 'तमओणं एगमेगाए देवीए चत्तारी २ देवी सहस्साणि परिवारो पन्नत्ताओ' एक २ पट्ट देवी का परिवार चार २ हजार देवियों का है 'पहणं ताओ एगमेगा देवी अन्नं देवीसहस्सं विउवित्तए' हे भदन्त क्या एक २ पट्टदेवी में ऐसी चिकुर्वणा करने की शक्ति है कि वे परिचारणा के समय में ज्योतिष्क राज चन्द्र की इच्छा को प्राप्त करके अपने जैसे रूपवाली अन्य एक हजार देवियों को उत्पन्न कर सके ? हां, गौतम ! उन चारों पह देवियों में ऐसी शक्ति है कि वे अपनी विकुर्वणा शक्ति से अपने जैसी रूपवाली एक हजार देवियों की परिचारणा के समय में ज्योतिष्कराज चन्द्र की इच्छा को प्राप्त छे-'चंदप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, फ्भंकरा' यन्द्रप्रसा-2ी शा२ि४ ४.न्ति यन्द्रना પ્રભા જેવી છે અને તે દેવરાજ ચન્દ્રની પ્રથમ અગ્રમહિષી છે, બીજી અગ્રમહિષી ત્સાનાભા છે, ત્રીજી અગ્રમહિષીનું નામ અચિંમાલી છે અને ચોથી પટ્ટરાણીનું નામ प्रम। छे. 'तओणं एगमेगाए देवीए चत्तारि २ देवी सहस्साणि परिवारो पन्नत्ताओं 8-मे४ पट्टीन। परिवार २ न्या२ M२ वियाना छ. 'पहूणं ताओ एगमेगा देवी अम्नं देवीसहस्सं विउमित्तए' rd ! शुभ-23 पट्टदेवीमा मेवी वि ४२पानी શક્તિ છે કે તેઓ પરિચારણાના વિચારણામાં નિષ્કરાજ ચન્દ્રની ઈચ્છાને પ્રાપ્ત કરીને પિતાના જેવી રૂપવાળી અન્ય એક હજા૨ દેરી ને ઉત્પન્ન કરી શકે? હા, ૌતમ! તે ચરે પટ્ટદેવી માં એવી શક્તિ છે કે પિતાની વિદુર્વણ શક્તિથી પિતાના જેવા રૂપવાળી એક હજાર દેવીઓની, પરિચારણાના સમયે તિષ્કરાજ ચન્દ્રની ઈચ્છાને પ્રાપ્ત ज०६४ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सपूर्वापरेण - पूर्वापर सङ्कलनेन षोडशदेवी सहस्राणि भवन्ति ज्योतिष्क देवराजस्य चन्द्रस्येति, ''सेतं तुडिए' तदेतत् चन्द्रदेवस्य तुटिकमन्तः पुरं कथितमिति त्रयोदशं द्वारम् ॥ १३ ॥ सम्प्रति - चतुर्दशं द्वारं दर्शयितुं प्रश्नयन्नाह - 'पहूणं भंते' इत्यादि, 'पहूणं भंते !' प्रभुःसमर्थः खलु भदन्त ! 'चंदे जोइसिंदे जोइसराया' चन्द्रो ज्योतिष्कदेवेन्द्रो ज्योतिष्कराजः 'चंदवडेंसर विमाणे' चन्द्रावतंस के विमाने एतनामके विमानविशेषे इत्यर्थः 'चंदाए रायहाणीए' चन्द्रायां चन्द्रनामिकायां राजधान्याम् ' सभाए सुदम्माए' सभायां सुधर्मा नामक परिषदि 'तुडिएण सद्धि' तुटिकेन सार्द्धम् तत्र तुटिकेन - अन्तः पुरेण सहेत्यर्थः 'महयाहयणहगीइवाइय जाव' महताहत नृत्यगीततन्त्री तळतालघनमृदङ्ग पटुप्रवादितरवेण यावत् यावत्पददानात् चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः सामानिकदेवादिभिः कर विकुर्वणा कर सके । 'एवामेव सपुत्रवावरेण सोलस देवीसहस्सा' इस तरह बार २ हजार देवियों की एक २ पट्टरानी अग्रमहिषी-स्वामीनी होती है इस कारण चारों पहरानियों की १६ हजार देवियां हो जाती हैं। और ये सब ज्योतिकराज चंद्र का 'सेत्तं तुडिए' अन्तः पुर का परिमाण कहा गया है। तेरहवां द्वारसमाप्त चौदहवें द्वार की वक्तव्यता 'पभू णं भंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडें सए विमाणे' हे भदन्त ! ज्योतिष केन्द्र ज्योतिष्क राज चन्द्र अपने चन्द्रावतंसक विमान में 'चंदाए राय'हाणीए सभाए सुहम्माए' चन्द्र नामकी राजधानी में सुधर्मा सभा में 'तुडिएणसद्धि' अन्तःपुर के साथ 'महवाहयणहगीय वाइय जाव' गीत नृत्य में बजते • हुए बाजों की ध्वनि पूर्वक दिव्य भोग भोगों को भोग सकता है विषय सेवन पुरीने विठुवा ४री शडे 'एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देवीसहस्सा' आ रीते यार-यार હજાર દેવીઓની એક-એક પટ્ટરાણી અગ્રમહિષી–સ્વામિની હાય છે આ કારણે ચારે પટ્ટ રાણીઓની ૧૬ હજાર દેવીએ થઇ જાય છે અને આ બધુ... જ્યાતિષ્કરાજ ચન્દ્રના 'सेत्तं तुडिए' अन्तःपुरनु परिमाणु उडेवामां भाव्यु छे. ૧૩ માદ્વાર સમાપ્ત ચૌદમ દ્વારની વક્તવ્યતા 'पभू णं भंते चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडे सर विमाणे' हे लहन्त ! ज्योतिष्डेन्द्र, ज्योतिष्यन्द्र घोताना चन्द्रावतंस 'विभानमा 'चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए' यन्द्र नामनी राज्धानीभां सुधर्भासलाभां 'तुडिएणसद्धि' अन्तःपुरनी साथै 'महया हयणट्टगीय बाइय जाव' गीत नृत्यभां वाणी रडेला वाली ध्वनिपूर्व' दिव्य लोगोने लोगवी श? विषय सेवन ४२री शडे हे ? उत्तरमा प्रभु हे छे - 'गोयमा ! णो इणट्टे समदें' Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिझा टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३१ चन्द्रस्यायमहिष्याः नामादिनिकरणम् ५०७ सहेत्यादीनां सङ्ग्रहो भवति, 'दिव्वाइ भोगभोगाइ भुंजमाणे विहरित्तए' दिव्यान्-विलक्षगान लोकातिशयि ते भोगनोगान, भोगयोग्या ये भोगाः शब्दादिका विषयास्तान् भोगभोगान् भुञ्जानो-भोगं कुर्वाणो विहर्तमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा हे गौतम ! 'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः अर्थात् हे गौतम ! यो यो कथितो भवता चन्द्रस्यान्तःपुरेण सह विहर्तमित्यादि तन्नसंभवति । तत्र हेतुं प्रदर्शयितुं प्रश्नयनाह-'से के. पटेणं' इत्यादि, 'से केणढे णं भंते ! जाव विहरित्तए' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते चन्द्रों ज्योति केन्द्रो ज्योतिष्कराज श्चन्द्रावतंसके विमाने चन्द्रायां राजधान्यां सुधर्मायां समाया मन्तःपुरेण सह विहर्तुं न समर्थ इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हैं गौतम ! 'चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसराजस्स' चन्द्रस्य खलु ज्योतिष्केन्द्रस्य ज्योतिष्क राजस्य 'चंदवडंसगे विमाणे' चन्द्रावतंसके विमाने 'चंदाए रायहाणी' चन्द्रायां राजधान्याम् 'सभाए सुहम्माए' सभायां सुधर्मायाम् 'माणवए चेइयखंभे माणवके चैत्यस्तम्भे 'वइरामएस गोळवट्टसमुग्गरम' वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्केषु 'बहू इभो जिणसकहाओ' बहूनि अनेकानि जिनसक्थीनि 'सनिखित्तानो चिटुंति' सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, 'ताओ णं चंदस्स अण्णेसिं य बहूणं देवाणय' देवीणय' तानि खलु जिनसक्थीनि चन्द्रस्यान्येषां च बहूनां देवानां देवीनां च 'अच्चणिज्जाओ जाव पज्जुपासणि जाओ अर्चनीयानि यावत्पर्युपासनीयानि ‘से ते कर सकता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! णो इणढे सम?' हे गौतम ! यह अर्थसमर्थ नहीं है अर्थात्-चन्द्र अपने अन्तः पुर के साथ सुधर्मासभा में दिव्य भोगयोग्य भोगों को नहीं भोग सकता है 'से केणटेणं भंते !' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! चंदस्स णं जोइसिदस्स चंदवडे सए विमाणे चंदाए. सभाए सुहम्माए माणवए चेइय खंभे वइरामएसु गोलबहसमुग्गएप्सु यहूईओ जिणसकहाओ०) हे गौतम । ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र की चन्द्रराजधानी में सुधर्मासभा में माणवक नामका एक चैत्यस्तम्भ है उसके ऊपर वज्रमय गोलवृत्त समुद्गकों में जिनेन्द्र देव की हड्डियां रखी हुई 'ताओ णं चंदस्स अण्णेसिं च बहणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ जावं ગૌતમ! આ અર્થ સમર્થ નથી અર્થાત્ ચન્દ્ર પિતાના અન્તઃપુરની સાથે સુધર્માસભામાં हियोगयोग्य मागान मागवता नथी. 'से केण ट्रेणं भंते !' 3 महन्त ! मा मा५ ४या था ४ छ ? पासमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! चंदस्सणं जोइसिंदस्स चदाए. सभाए सुहुम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुगाएसु बहूईओ जिणसकहाओ' હે ગૌતમ! તિકેન્દ્ર તિલકરાજ ચન્દ્રની ચન્દ્રા રાજધાનીમાં સુધર્માસભામાં માણવક નામને એક ચૈત્યસ્તમ્મ છે. તેની ઉપર વજા મય ગોળવૃત્ત સમુદગકેમાં જિનેન્દ્ર દેવના 18राणे छ. 'ताओणं चंइस्स अण्णेसि च बहूणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ जब पज्जुवासणिज्जाओ' ते misai यन्द्र भने अन्य देववीय बा। मनीय यात् Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्रे णणं गोयमा ! णो पभूति' तत्तेन थेन गौतम ! एवमुच्यते चन्द्रो देवराजः सुधर्मासभाया मन्तः पुरेण सह विहतु न समर्थ इति । अत्रैव किञ्चिद्वैलक्षण्यमाह - 'केवलं' इत्यादि, 'केवलं परियार रिद्धीए' केवलं नवरं परिवारऋद्धया, केवलं परिवारः परिकरस्तस्य ऋद्धि: - सम्पत् तया, एते सर्वेऽपि ममपरिचारकाः अहं चैतेषां स्वामी - प्रभुरित्येवं निजस्यातिविशेष दर्शनाभिप्रायेणेतिभावः । 'नो चेव णं मेहुणवत्तिचं' नैव खलु मैथुनप्रत्ययं सुरतनिमित्तं यथा भवति एवं प्रकारेण भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्त्तु न प्रभुरिति यद्यपि अत्रोपाने सूर्यादीनामग्रमहिषी प्रदर्शनं न विद्यते तथापि जीवः भिगमा धुपाने दर्शनाद् सूर्याग्रमहिषी प्रदर्शनमपि उपयुक्तमेव 'सूरस्स जोइसरण्णो कइअग्गमडिसीओ पद्मत्ताय गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नताओ, तं जहा सूरपमा आयवामा अचिमाडी पभंकरा, एवं अवसेसं जहा चंदपज्जुवास णिज्जाओ' वे हड्डियाँ चन्द्र एवं अन्य देवों देवियों द्वारा अर्चनीय 'यावत् पर्युपासनीय हैं 'से तेणद्वेणं गोयमा ! जो पत्ति' इस कारण हे गौतम! मैने ऐसा कहा हैं कि ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्क राज चन्द्र सुधर्मासभा में अन्तः पुर के साथ दिव्य भोग भोगों कों भोग सकने के लिये समर्थ नहीं हैं 'केवलं पडियार रिद्धीए' हां, वह इस रूपसे 'कि यह मेरा परिकर है यह उसकी सम्पत् है ये सब मेरे परिकर हैं मैं इनका स्वामी हूं इस प्रकार' वहां अपना प्रभाव प्रकट कर सकता है। 'णो चेव णं, मेहुणवत्तियं' पर वह वहां मैथुन सेवन नहीं कर सकता है । यद्यपि इस उपाङ्ग में सूर्यादिकों की अग्रमहिषियों का प्रदर्शन नहीं किया गया है फिर भी जीवाभिगम आदि उपाङ्ग में सूर्यादिकों की अग्रमहिषियों का कथन रूप प्रदर्शन हुआ है इस से यहाँ सूर्यामहिषियों का प्रदर्शन भी उपयुक्त है जो इस प्रकार से हैं- 'सूरस्स जोइसरो कह अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! ज्योतिष्क राज सूर्य की कितनी अग्रमहिषियां कही गई हैं ? उत्तर प्रभु ने कहा है - 'गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिमीओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! पानी छे. 'से तेणट्टेणं गोयमा ! णो पभुत्ति' मा भरणे हे गौतम! में मेवु ं छु છે કે જ્યેકેિન્દ્ર જ્યાતિષ્ઠરાજ ચન્દ્ર સુધર્માંસભામાં અન્તઃપુરની સાથે દિવ્ય ભાગભાગાને भोगवी शम्वा समर्थ' नथी. 'केवलं पडियार रिद्धीए' हा, ते या ३५थी या भारी परि४२ છે, આ તેની સમ્પત્તી છે, આ બધાં મારા પરિકર છે હુ એમના સ્વામી છું એ પ્રકારે त्यांचा प्रभाव आउट ४री राडे हे 'णो चेवणं मेहुणवत्तियं' परन्तु ते त्यां भैथुन સેવન કરી શક્તા નથી, જોકે આ ઉપાંગમાં સૂર્યાદિકેની અગ્રમહિષિએનુ' પ્રદર્શન કરવામાં આવ્યું નથી તેા પણ જીવાભિગમ આદિ ઉપાંગમાં સૂર્યાર્દિકની અગ્રમહિષિઓનુ થનરૂપ પ્રદન થયું છે આથી અહીં સૂર્યગ્રમહિષએનુ પ્રદર્શન પણુ ઉપયુક્ત છે જે याप्रमाणे छे - 'सूरस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिीसीओ पण्णत्ताओ' डे लगवन् ! ज्योतिष्ङशुत्र सूर्यनी डेंटली पट्टराणीयो डेवामां आवे छे ? उत्तरमा प्रभुश्री छे 'गोयमा ! Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३१ चन्द्रस्याग्रमहिष्याः नामादिनिरूपणम् स वरं वर्डस विमाणे खरंसि सोहाससि' इति वक्तव्यम् (सूर्यस्य ज्योतिष्कराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ता स्तद्यथा सूर्यप्रभा, आत्माभा, अमिली, प्रभङ्करा, एवमवशेषं यथा चन्द्रस्य नवरं सूर्यास विमाने खर्चे सिंहासने इतिच्छाया || अथ ग्रहादीनामग्रमहिषी वक्तव्यतामाह - 'विजया' इत्यादि, 'विजया' विजया 'वैजयंति ' 'वैजयन्ती 'जयंती जयन्ती 'अपराजिया' अपराजिता 'सव्वेसिं गहाईणं एयाओ अग्गम हिसीओ' सर्वेषामपि पूर्वोक्तविजया वैजयन्तीत्यादि चतुभिर्नामभिदेव अग्रमहिष्यो वक्तव्याः - सर्वत्र एतन्नाम्न्य एव अग्रमहिष्यो भवन्तीति ज्ञातव्याः । उक्तमेवार्थं विशिष्य दर्शयति - 'छावत्तरस्स' इत्यादि, 'छावत्तरस्सवि गहसयस्स एयाओ अग्गमहिसीओ वक्तव्याओ' षट्सप्तत्यधिकस्यापि ग्रहशतस्य जम्बूद्वीपवर्त्ति चन्द्रद्रयपरिवारभूतानां ग्रहाणां द्विगुणिताया सूर्य की चार अग्रमहिषियां कही गई हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं -'सूरपभा, आयवाभा, अच्चिमाली, पभंकरा' सूर्यप्रभा १ आत्माभा, २ अचिमाली ३, और प्रभंकरा 'एवं अवसेसं जहा चंदस्त णवरं सूरवडे सर विमाणे सूरंसि सीहासणंसि' इस सम्बन्ध में बाकी का और सब कथन जैसे चंद्र प्रकरण में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये इस प्रकरण की अपेक्षा केवल यही अन्तर है कि यहां पर सूर्यावतंसक विमान है उसमें जो सिंहासन है उसका नाम सूर्य सिंहासन हैं ग्रहादिकों की अग्रमहिषियों का कथन इस प्रकार से - है 'विजरा, वेजयंती, जयंती, अपराजिया सव्वेसिं गहाईर्ण एयाओ अग्गमहिसीओ' कहा गया है समस्त ग्रहादिकों की विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ' इन नामों की चार अग्रमहिषियां हैं नक्षत्र और तारका आदिकों की भी इसी नाम की चार २ अग्रसहिषियां हैं ! इसी बात को सूत्रकार आगे के सूत्रों द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं-'छावत्तरस्स वि गहसयस्स एया अग्गचत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ' हे गोतम ! सूर्यनी यार अश्रमहिषियो नामां भावी छे. 'तं जहा ' तेभना नाम या प्रमाणे छे- 'सूरप्पभा, ओयवाभा, अच्चिमाली पभंकरा' सूर्यप्रभा ( १ ) आत्माला ( २ ) अर्थिभासी (3) अने अल . ' एवं अवसेसं जहा चंदस्स वरं सूरवडेंस विमाणे सूरंसि सीहा सणंसि' मा सम्भन्धभां माठी मधु अथन यन्द्र પ્રકરણમાં કહેવામાં આવ્યુ છે તે પ્રમાણે જ જાણવુ. આ પ્રકરણમાં તે પ્રકરણની અપેક્ષા કેત્રળ એટલેા જ તફાવત છે કે અહીં સૂર્યાવત'સક વિમાન છે તેમાં જે સિહાસન છે तेनुं नाम सूर्य सिंहासन हे ग्रहाहिनी अयमहिषियोनु अथन याप्रमाणे - 'विजया, वेजयंति, जयंति, अपराजिया, सव्वेसिं गहाईणं एयाओ अग्गमहिसीओ' हेवा भावी छे, સમસ્ત ગ્રહાર્દિકની વય બૈજયન્તિ, જયન્તી અને અપરાજિતા એ નામની ચાર પટ્ટરાણીઓ છે. આ હકીકતને સૂત્રકાર પછીના સૂત્રેા દ્વારા સ્પષ્ટ કરતાં થયાં કહે છે'छावत्तर वि गहसयस्स एया अग्गमहिसीओ वत्तव्वाओ' १७६ श्रडनी - यूढीयवत्त Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अष्टाशीतेरित्यर्थः एता अनन्तरपूर्वकथिता विजयाद्या अग्रमहिष्यो वक्तव्याः ‘इमाहिं माहाहि' इमाभिः-वक्ष्यमाण भिर्गाथाभिः, तत्र वक्षमाणामष्टाशीति संख्यकानां नाम दर्शयितुमाह'इंगालए' इत्यादि, 'इंगालए' अङ्गारकः-एतनामकः प्रथमो ग्रहः १, 'वियालए' विकालको द्वितीयः २, 'लोहियंके लोहिताङ्क स्तृतीयः ३, 'सणिच्छेरे चे' शनैश्चरश्चैव शनैश्चर श्चतुर्थ:४ 'आहुणिए' आधुनिकः पञ्चमः '५ 'पाहुणिए' प्राधुनिकः पष्ठः६, 'कामसमाननामाय पंचेव' कनकसमाननामानः पञ्चव, कनकेन सह एकदेशेन सह सपानं-सदृशंनाम येषां ते कनकसमाननामानः ते च पञ्च तद्यथा-कणः ७, कणकः ८, कणकणकः ९., कणवितानकः १०, कणसंतानकः ११, 'सो में' इत्यादि, 'सोमे' सोमः १२, 'सहिए' सहितः १३, 'आसणेय' आश्वासनः १४, 'कजोवए' कार्योपगः १५' 'कव्वुरए' युस्क: १६, 'अयकरए' अजकरकः १७, दुंदुभए' दुन्दुभकः १८, 'संखसमाननामेवि तिष्णेव' शङ्खसमान नामानो नाम्निमहिसीओ वतव्याओ' १७६ ग्रहों को-जंबूदीपवर्ती चन्द्रद्वय के परिवार भूत १७६ ग्रहों की विजयादिक ४ अग्रसहिषियां जो कही गई हैं सो वे १७६ ग्रह, इस प्रकार से हैं-'इंगालए' अङ्गारक यह प्रथमग्रह का नाम है 'वियालए' विकालक यह द्वितीय ग्रह है 'लोहियंके' लोहिताङ्क यह तृतीय ग्रह है 'सणिच्छरे चेव' शनै श्वर यह चतुर्थग्रह है 'आहुणिए' आधुनिक यह पांचवां ग्रह है 'पाहुणिए' प्राधुनिक यह छठा ग्रह है 'कणगसमाननामाय पंचेच' सुवर्ण समान नाम वाले-कण ७-कणक८, कणकणक९ कणवितानक १० और कणसंतानक ये पांच ग्रह हैं इस तरह ऊपर के ६ ग्रह और ये ५ ग्रह मिलकर ११ ग्रहों के नाम प्रगट किये गये हैं 'सोमे १२, सहिए १३, आसणे य १४, कजोधए १५ कन्चुरए १६ सोम यह १२ वांग्रह है, सहित यह १३ वां ग्रह है आश्वासन यह १४ वां ग्रह है कार्योपग यह १५ वां ग्रह है कर्बुरक यह १६ बांग्रह है 'अयकरए' अजकरक यह १७ वां ग्रह है, 'दुदुभए' दुन्दुभक यह १८ वां ग्रह है, 'संख समान नामे वि तिण्णेव' शङ्ख यह ચન્દ્રદયના પરિવાર ભૂત ૧૭૬-ગ્રહોની વિજ્યાદિક ૪ અગ્રમહિષિઓ જે કહેવામાં આવી छ । १७६ अंडा भुराम छे-'इंगालए' २४ मे प्रथम अनुनम छे. 'वियालए' विसे द्वितीय छे. 'लोहियके' सोलित थे तृतीय छे. 'सणिच्छरे चेव' शनैश्वर (शनिय२) २ यतु यह छ. ''आहुणिए' माधुनि४ ये पांयभो 8 छ. 'पाहुणिए' प्राधुनि४ मेछ। ग्रह छे. 'कणगसमाननामाव पंचेव' सुषण समान नाभवाणा-ए-303 -૮-કણકણક ૯, કણવિતાનક ૧૦ અને કણસંતાનક એ પાંચ ગ્રહ છે આ રીતે ઉપરના ६ अ भने ५ भजी ११ अडान नाम ५८ ४२१॥i साव्यछे. 'सोमे १२, सहिए १३, आसणे य १४, कज्जोवए १५ कब्बुरए १६' सोम २॥ सारी अख छ, सहित थे તેરમે ગ્રહ છે, આશ્વાસન એ ચૌદમે ગ્રહ છે, કાર્યો પગ એ પંદરમો ગ્રહ છે, કબ્રક એ सौम छे. 'अयकरए' म०४४२४ मे सत्तरम। अस छ, दुंदुभए' दुन्दुम ये सारमे। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३१ चन्द्रस्याप्रमहिष्याः नामादिनिरूपणम् ५११ शङ्खशब्दाङ्किता इत्यर्थः ते त्रयः तद्यथा-शङ्खः १९, शङ्खनाभः २०, शङ्कवर्णामः २१, 'एवं भाणियव्वं जाव भावके उस्स अग्गमविसीमोत्ति एवम्-उक्तप्रकारेण भणितव्यं प्रत्येय मग्रमहिषी संख्याकथनाय अष्टाशीते ग्रहाणां नाम संग्राहकगाथा कदम्बकं यावत् भावकेतो ग्रहस्याग्रमहिष्यः । अत्र यावत्पदात् इदं दृष्टव्यम्, 'तिण्णेक्कंसनामाणील्ले रूविय हवंति चत्तारि । भावतिल पुप्फरपणे दगाण्णेय कायबंधेय । इंग्गि धूमके ऊ हारपिंगलए बुहेय मुक्केय, वहस्सइ राहु अगत्थी माणवगे कामफासेय ४ । धुरए पमुहे वियडे विसंधिकप्पे तहा पयल्लेय। जडियाल एय अरुणे अग्गिलकाले महाकाले ५ । सोत्यिय सोवत्थिय वद्धमाणगत हापलंबेय। णिच्चालोए णिच्चुज्जोए सयंषभे चेव ओमासे ६ । सेयंकर खेमंकर पभंकरेय णायब्यो । अरए विरएय तहा असोगतहवीत सोगेय ७॥ विमल स्तित्व विवत्थे विसालतइसाल सुब्बए चेव । अनियट्टी एगजडीय होइ विजडीय बोद्धव्वे ८ । करकरिय राय अग्गल बोद्धव्वे पुप्फभावके ऊय । अट्ठासी ईगहा खलु णायच्या आणुपुबीए' ९॥ १९ वां ग्रह है, शङ्ख नाम यह २० वां ग्रह है शङ्ख वर्णाभ यह २१ वां ग्रह है 'एवं भाणियब्वं जाव भावके उस्स अग्गहिसीओत्ति' भावकेतु की अग्रमहिषितक इसी प्रकार से कहते जाना चाहिये तथा च 'तिपणेव कंसनामा, णीले रुब्धिय हवंति चत्तारि, मासतिल पुप्फ वण्णे दगदग वष्णे य कायबंधे य । इंद. ग्गि धूमके उ हार पिंगलए बुहे य सुक्के य, बहस्स इराहु अगत्थी माणवगे कामफासे य४, धुरए पमुहे विधाडे, विसंधिकप्पे तहा पयल्ले य । जडियालए य अरूणे अग्गिलकाले महाकाले १५॥ सोस्थित सोवत्थिय बद्धमाणग तहा पलंवे य। णिच्चा लोए णिच्चु जोए यंपमे चेव ओमासे ॥६॥ सेयंकर खेमंकर एभं. करे य णायन्यो। :अरए विरए य तहा असोग तह वीत सोगे य ॥७॥ विमल वितत्थ विवत्थे बिसाल तह लाल सुवए चेव । अनियट्टी एगजडी य, होइ विजडी य योद्धव्वे ॥८॥ करि करि य राय अग्गल योद्धव्वे पुप्फभावकेउ य। अड छ, 'संख समान नामे वि तिण्णेव' ५ मे गासमा प्रा छ, मनाम से पीसभी छ, शनि से वीसी अछ. 'एवं भाणियध्वं जाव भावके उस्स अग्गम हिसीओ त्ति' मायहेतुनी महिती सुधा मा प्रमाणे पानु बाधु राम तथा च 'तिण्णेव कंसनामा, णीले रुविय हयंति चत्तारि, मासतिल पुष्फवण्णे दगदगवण्णे य कायबंघे य इंदगि धूमकेउ हारसिंगल र बुहे य सुके य बहस्सइराहु अगत्थी माणवगे कामफासे य ४, धुरए पमुहे विण्डे विसंधि कापे तहा पयल्ले य जडियालर व अरुणे अग्गिलकाले महाकाले ॥५॥ सोत्थिय सोवत्थिय वद्धमाणग तहा पलंबे य णिच्चालोर णिच्चुज्जोए सयपत्ते घेव ओभासे ।।६।। सेयंकर खेनंकर पभंकरे य णायव्वा । अरए विरए य तहा असोग तह वीतसोगे य ॥७॥ विमल वितत्यविवत्थे विसाल तह साल सुपए चेव । अनियट्टी एगजडी य होइ विजडी य बोद्धव्वे ॥८॥ करि करि य राय अग्गल बोद्धव्वे पुष्फ भावकेऊय । अट्ठासीई गहा खलु Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे अत्रैतेषां व्याख्या-कंस शब्दोपलक्षितं नाम येषां ते कंसनामान स्ते त्रय स्त् यथा-कंसः २२, कंसनामः २३, कंसवर्णाभः २४, नीले रूपेच शब्दे विषयभूते द्विद्विनामसंभवात् सर्व संख्यया भवन्ति चत्वार स्तद्यथा-नीलः २५, नीलावभासः २६, रूपी २७, रूप्यावभासः २८, 'भास' इति नामद्वयोपलक्षणम्, तद्यथा-भस्म २९ भस्मराशिः ३०, तिलः ३१, तिल. पुष्पवर्णः ३२, दकः ३३, दकवर्णः ३४, कायः ३५, बन्ध्यः ३६, इन्द्राग्निः ३७, धूम. केतुः ३८, हरिः ३९, पिङ्गलकः ४०, बुधः ४१, शुक्रः ४२, बृहस्पतिः :४३, राहुः ४४, अगस्तिः ४५, माणवकः ४६, कामस्पर्शः ४७, धुरकः ४८, प्रमुखः ४९, विकटः ५०, विसन्धिकल्पः ५१, प्रकल्पः ५२, जबलः ५३, अरुणः ५४, अग्निः ५५, कालः ५६, महाकालः ५७, स्वस्तिकः ५८, सौवस्तिशः ५९, वर्द्धमानकः ६०, तथा-प्रलम्बः ६१, नित्यालोकः ६२, नित्यो द्योतः ६३, स्वयंप्रभः ६४, अवभासः ६५, श्रेयस्करः ६६, क्षेमअट्ठासीई गहा खलु णायव्वा आणुपुवीए' ॥९॥ इनकी व्याख्या इस प्रकार से हैं-२२, २३ और २४ वें ग्रह कंस शब्दोपलक्षित हैं-जैसे २२ वां ग्रह कंस, २३ वां ग्रह कंसनाम और २४ वां ग्रह कंसवर्णाभ, २५वां ग्रह नील २६वां ग्रह नीलावभास, २७वां ग्रह रूपी, २८ वां रूप्यावभास, २९ वां ग्रह भस्म, ३०वां ग्रह भस्मराशि, ३१वां ग्रह तिल, ३२वां ग्रह तिल पुष्पवर्ण, ३३ वां ग्रह दक, ३४ वां दकवर्ण, ३५वां काय, ३६ वां बन्ध्य, ३७वां इन्द्राग्नि, ३८वां धूमकेतु, ३९वां हरि, ४०वां पिङ्गलक ४१वां बुध, ४२ शुक्र, ४३ वां बृहस्पति,४४वां राहु, ४५वां अगस्ति, ४६वां माणवक । ४७वां कामस्पर्श, ४८वां धुरक, ४९वां प्रमुख, ५.वां विकट, ५१ वां विसन्धिकल्प, ५२वां प्रकल्प, ५३वां जबल, ५४वां अरुण ५५वां अग्नि, ५६वां काल, ५७ महाकाल, ५८वां स्वस्तिक, ५९वां सौवस्तिक, ६०वां वर्द्धमानक, ६१वां प्रलम्ब, ६२वां नित्यालोक, ६३वां नित्योद्योत, ६४वां णायव्वा आणुपुवीए' ॥९॥ मेमनी ०याच्या प्रमाणे -२२, २३ भने २४ मा अड કંસ શબ્દો લક્ષિત છે. જેમ કે ૨૨ બાવીસ મે ગૃહકંસ અને ૨૩ તેવીસમો ગ્રહ કંસનામ ગ્રેવીસમો ગ્રહ અને ૨૪ મે કંસવણુંભ ૨૫ ગ્રહ નીલ, ૨૬ો ગ્રહ નીલાલભાસ ૨૭ મે પ્રહ રૂપી, ૨૮ મે રૂપ્યાવભાસ, ૨૯ મો ગ્રહ ભસ્મ, ૩૦ મે ગ્રહ ભસ્મરાશિ, ૩૧ મે ગ્રહ તલ, ૩૨ મો ગ્રહ તલ પુષવર્ણ, ૩૩ મો ગ્રહ દક, ૩૪ મે દકવર્ણ, ૩૫ મે छाय, ६ । अन्धव, ३७ मे। छन्द्रामि, ३८ भी घूमत, 3८ मे २, ४० मा बि , ૪૧ મો બુધ, ૪૨ મે શુક, ૪૩ મો બૃહસ્પતિ, ૪૪ મો રાહુ ૪૫ મો અગસ્તિ, ૪૬ મે માણુવક ૪૭ મે કામસ્પર્શ, ૪૮ મે પૂરક, ૪૯ મિ પ્રમુખ, ૫૦ મે વિકટ, ૫૧ મે વિસવિકલ્પ, પરમ પ્રક", ૫૩ છે જ પ્રલ, ૧૪ મે અરૂણ, ૫૫ મે અગ્નિ, ૫૬ મે કાલ, ૫૭ મે મહાકાલ ૫૮મે સ્વસ્તિક, ૫૯ મો સૌવસ્તિક, ૬૦ મો વર્તમાનક, ૬૧ મો प्रa, १२ मे नित्या, 3 भ. नित्याधोत, १४ मे २१ प्रल, १५ भो अवमास, Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३१ चन्द्रस्याप्रमहिष्याः नामादिनिरूपणम् ५५ करः ६७, अभङ्करः ६८, प्रभङ्करः ६९, अरजाः ७०, विरजाः ७१, तथा अशोकः ७२, तथा वीतशोकः ७३, विमलः ७४, विततः ७१, विवस्त्रः ७६, विशालः ७७, शाला ७८, मुवतः ७९, अनिवृत्तिः ८०, एकजटी ८१, द्विजटी ८२, करः ८३, करिकः ८४, राजा ८५, अर्गलः ८६, पुष्पकेतुः ८०, भावकेतुः ८८, इत्येवं प्रकारेणाष्टाशीतिहाः बोदव्या आनुपूर्व्या-क्रमेणेति ॥ __ सम्प्रति-'सव्वेसिंगराईणं' इत्यादि पहात् नक्षत्रस्य सूचनं कृतमिति नक्षत्राणामाधिदैवतद्वारा नामप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह-बह्मा' इत्यादि, 'बह्मावि हूय वर वरुणे अयवुड्डी पूस आसजमे । अग्गिफ्यावइ सोये रुदे अदिती बहस्सई सप्पे ॥१॥ पिउभग अज्जमसविया तहा वाऊ तहेव इंदग्गी । मित्ते इंदे निरुई आऊ विस्साय बोद्धव्वे ॥ ब्रह्माविष्णुश्ववसु वरुणोऽजो वृद्धिः पूषा अश्वो यमः । अग्निः प्रजापतिः सोमो रुद्रोऽदितिः बृहस्पतिः सर्पः ॥१॥ स्वयंप्रभ, ६५वां अवभास, ६६वां श्रेयस्कर, ६७वां क्षेमकर, ६८वां आभङ्कर, ६१वां प्रभङ्कर, ७० वां अरजा, ७१वां विरजा, ७२वा अशोक, ७३वां वीतशोक ७४वां विमल, ७९वां वितत, ७३वां विवस्त्र, ७७वां विशाल, ७८वां शाल, ७९ सुव्रत, ८०वां अनिवृत्ति, ८१वां एकजटी, ८२यां द्विजटो, ८३वां कर, ८४वां करिक ८५वां राजा, ८६वां अर्गल, ८७ पुष्यकेतु, और ८८वां भावकेतु, इस प्रकार से ये ८८ ग्रहों के नाम हैं। नक्षत्रों के नाम इस प्रकार से हैं 'बम्हा विण्हू य वसू वरुणे अयबुड़ी पूस आस जमे । अग्गिपयावह सोमे रुद्दे अदिती बहस्सई सप्पे ॥१॥ पिउभग अजमसविया तहा वाउ तहेव इंदरगी। मित्ते इंदे निरुई आउ विस्सा य बोद्धव्वे ॥२॥ १६ मा श्रेय२४२, १७ मा म ४२, १८ भी मा ४२, १८ भी प्रम४२, ७० मा म२, ૭૧ મે વિરજા, ૭૨ મે અશક, ૭૩ મે વીતશેક, ૭૪ મો વિમળ, ૭૫ મો વિતત, ૭૬ મે વિવસ્ત્ર, ૭૭ મે વિશાલ, ૭૮ મે શાલ, ૭૯ મે સુવ્રત, ૮૦ મે અનિવૃત્તિ, ८१ भी सटी , ८२ मा विस, ८३ मा ४२, ८४ मे २४, ८५ मे २im, ८१ मा અર્ગલ, ૮૭ મે પુપકેતુ અને ૮૮ મે ભાવકેતુ આ રીતે ૮૮ ગ્રહોના નામ છે. નક્ષત્રના નામ આ પ્રમાણે છે 'वम्हा विण्हू य वसुवरुणो अयवुडूढी पूस आस जमे। अग्गिपयावइ सोमे रुदे अदिती बहस्सई सप्पे ॥१॥ पिउभग अज्जमसेविया तट्टा वाऊ तहेव इंदग्गी । मित्ते इंदे निरुई आऊ , विस्सा य बोद्धव्वे ॥२॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्ने पिताभगः अर्यमा सवितात्वष्टा वायुः तथैव इन्द्राग्नी । मित्र इन्द्रः निर्ऋतिः आपः विश्वे च बोद्धव्यानीतिच्छाया ॥ तदर्थस्त्वयम्-ब्रह्मा अभिजित् १, विष्णुः श्रवणः २, वसु धनिष्ठा ३, वरुणः शतभिषक ४, अजः-पूर्वभाद्रपदा ५, वृद्धिः-अभिवृद्धिरुत्तरभाद्रपदा ६, पूषा रेवती ७, अश्वोऽश्विनी ८, यमो भरणी ९, अग्नि-कृत्तिका १०, प्रजापतिः रोहिणी, ११, सोमो मृगशिरः १२, रुद्र आदी १३, अदितिः पुनर्वसुः १४, बृहस्पतिः पुष्यः १५, सोऽश्लेषा १६, पिता मघा १७, भगः पूर्वाफाल्गुनी १८, अर्यमा उत्तरफाल्गुनी १९, सविता इस्त: २०, त्वष्टा चित्रा २१, वायुः स्वाती २२ इन्द्राग्नी विशाखा २३, मित्रोऽनुराधा २४, इन्द्रो ज्येष्ठा २५, निऋतिः मूलम् २६, श्रापः पूर्वाषाढा २७, विश्वे उत्तराषाढा २८ चेति नक्षत्राणि बोद्धव्या. नीति । चतुर्दशं द्वारमिति ॥ ब्रह्मा-अभिजित् १, विष्णु-श्रवण २, वसु-धनिष्ठा ३, वरुण-शतभिषक ४, अज-पूर्वभाद्रपदा ५, वृद्धि-उत्तर भाद्रपदा ६, पूषा-रेवती ७, अश्व-अश्विनी ८,यमो-भरणी ९, अग्नि-कृत्तिका-१०, प्रजापति-रोहिणी ११, सोम-मृगशिरा १२ रुद्र-आर्द्रा १३, अदिति-पुनर्वसु १४, बृहस्पति-पुष्य १५, सर्प-अश्लेषा १६, पिता-मघा १७, भग-पूर्वाफाल्गुनी १८, अर्यमा-उत्तरफाल्गुनी १९, सविताहस्त२०, त्वष्टा-चित्रा२१, वायु-स्वाती२२, इन्द्राग्नी-विशाखा २३, मित्र-अनु. राधा २४, इन्द्र ज्येष्ठा २५,-निऋती-मूल २६, आप-पूर्वाषाढा २७ और विश्वउत्तराषाढा २८ ये नक्षत्रों के नाम उनके अधिपति देवताओं के अनुसार दोनों गाथाओं में कहे गये हैं-१४ वां द्वार समाप्त ॥ १५ वांद्वार कथन 'चंद विमाणेणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' हे भदन्त ! चंद्रवि प्रमा-मित् १, १५-१५ २, सु-चनि८31 3, १३५-शतभिष६ ४, ५०४५ भाद्र५४॥ ५, वृद्धि-उत्तरामा ५ १, पुषा-रेवती ७, सव-चिनी ८, यम-१२ ६, मशि-त्तिा १०, प्रलपति-शहिणी ११, सोम-भृगा।२ १२२ ३२-भाद्र १३, महात-पुनसु १४, १९२पति-५०५ १५, सप-वेष। १६, चित्ता-भ। १७, मग गुनी १८, अभा-उत्त२३। शुनी १६, सविता-७२ २०, १टा-चित्रा २१, વાયુ-સ્વાતી ૨૨, ઈન્દ્રાગ્ની-વિશાખા ૨૩, ચિત્ર–અનુરાધા ૨૪ ઈન્દ્ર-જયેષ્ઠા ૨૫, નિતિમૂલ ૨૬, આપ-પૂર્વાષાઢા ૨૭ અને વિશ્વ-ઉત્તરષાઢા ૨૮, આ નક્ષત્રના નામ તેમના અધિપતિ દેવતાઓ અનુસાર બંને ગાથાઓમાં કહેવામાં આવ્યા છે– ૧૪ મું દ્વાર સમાપ્ત ૧૫મું દ્વાર કથન 'चंद् विमाणेणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' ३ महन्त ! विमानमा Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३१ चन्द्रस्यानमहिष्याः नामादिनिरूपणम् ५५ ___ सम्प्रति-पश्चदर्श द्वारं प्रश्नयनाह-'चंदविमाणेणं' इत्यादि, चंदविमाणेणं भंते' चन्द्रविमाने खलु भदन्त ! 'देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' कियन्तं कालं कियत्कालपर्यन्तं स्थितिः प्रज्ञप्ता-कथिता इति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहण्णेणं चउभागपलिओवम' चन्द्रविमानस्य देवानां जघन्येन चतुर्भागपल्योपमम्, स्थितिः पल्योपमस्य चतुर्थोभाग इत्यर्थः 'उक्कोसेणं पलियोवमं वाससयसहस्समभहियं उत्कर्षण एक पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकं स्थितिरिति एफलक्षवर्षाधिकमेकं पल्योपममित्यर्थः । 'चंदविमाणेणं देवीणं जहणेणं चउभागपलिओवम' चन्द्रविमाने खलु देवीनां स्थितिः जघन्येन चतुर्भागपल्योपमस्यैकस्य चतुर्थों भाग इत्यर्थः, आलापप्रकारस्तु एवम्-हे भदन्त ! चन्द्रविमाने देवीनां कियत्कालं स्थितिरिति प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! चन्द्रविमाने वसन्तीनां देवीनां जघन्येन पल्योपमस्य चतुर्थोभागः स्थितिकाल इति एवं क्रमेणसर्वत्र प्रश्नवाक्यमुन्नम्योत्तरवाक्यं पूरणीयम्, 'उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णसए वाससहस्सेहि अब्भहियं' उत्कर्षेणार्द्धपल्योपमं पश्चाशतावर्षसहस्रैरभ्यधिकम्, चन्द्रविमाने हि चन्द्रदेवः मान में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिओवम वाससयसहस्समभहियं' हे गौतम ! चंद्र विमान में देवों की स्थिति जघन्य से एक पल्या पम केचतुर्थभाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति एकलाख वर्ष अधिक एक पल्यो. पम की है 'चंदविमाणेणं देवीण जहण्णेणं चउभागपलिओवमं' चंदविमान में देवियों की स्थिति जघन्य से एक पल्य के चतुर्थभाग प्रमाण है यहां पर प्रश्न रूप आलाप प्रकार ऐसा है-'हे भदन्त ! चन्द्रविमान में रहने वाली देवियों की स्थिति कितने काल की है ? तब 'हे गौतम! चन्द्र विमान में रहने वाली देवियों की जघन्य स्थिति तो एक पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण है और 'उक्कोसेणं अतपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अन्भहियं' उत्कृष्ट स्थिति ५० हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है। ऐसा ही सर्वत्र प्रश्नवाक्य करके उत्तर वाक्य को દેવેની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે? આના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે. 'गोयमा! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेगं पलिओचमं वाससयसहस्समभहियं ગૌતમ! ચન્દ્રવિમાનમાં દેવેની સ્થિતિ જઘન્યથી એક પલ્યોપમના ચતુર્થભાગ પ્રમાણ છે. सन डट स्थिति मे४ ५ १ मधि से पत्या५मनी छे. 'चदविमाणे देवी महणणं चउब्भागपलिओवमं' यन्द्रविमानमा हवीयानी स्थिति धन्यथी ये पयन ચતુર્થભાગ પ્રમાણે છે. અહીંયા પ્રશ્નરૂપ આલાપ પ્રકાર એવા છે-હે ભદન્ત ! ચન્દ્રવિમા રહેનારી દેવીઓની સ્થિતિ કેટલા કાળ સુધીની છે ? ત્યારે તે ગૌતમ! ચન્દ્રવિમાનમાં રહેનારી દેવાની જઘન્ય સ્થિતી તે એક પલ્યોપમના ચતુર્થભાગ પ્રમાણ છે અને 'उक्कोसेंणे अद्धपलिओवर्म पण्णासाए वाससहस्सेहिं अमहियं' उत्कृष्ट स्थिति प र વાનમાં Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ अम्बूद्वीपप्रश्नप्तिसूत्रे सामानिकाश्चात्मरक्षकादयश्च परिवसन्ति तेन चन्द्रसामानिकापेक्षया उत्कृष्टमायुर्बोध्यं तेषामेवो. स्कृष्टायुः संभवात् जघन्यं चात्मरक्षकदेवापेक्षयेति, एवं सूर्यविमानादि सूत्रेष्वपि ज्ञातव्यमिति ॥ सम्प्रति-सूर्यविमानस्थदेवान स्थितिकालं ज्ञातुं सूत्रमाइ-'सूरविमाणे' इत्यादि, 'सूर विमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलियोम' सूर्यविमाने वसतां देवानां जघन्येन चतुर्भागपल्योपमं पल्योपमस्य चतुर्थों भागः स्थितिकालः 'उक्कोसेणं पलियोवमं वाससहस्समब्भहियं' उत्क्षर्षेणैकं पल्योपमं वर्षसहस्रैरभ्यधिकम्, 'सूरविमाणे देवाणं जहरणेणं चउभागपलियोवमं' सूर्यविमाने देवीनां स्थिति जघन्येन चतुर्भागपल्योपमं, पल्योपमस्य चतुर्थोभाग इत्यर्थः । 'उकोसेणं अद्धपलियोवमं पंचहि वाससएहिं अमहियं' उत्कर्षेणार्द्धपल्योपमं पञ्चभि वर्षशतै रभ्यधिकम् । जमालेना चाहिये, चन्द्र विमान में चन्द्र देव, सामानिक देव और आत्मरक्षक आदि देव रहते हैं इसलिये चन्द्र सामानिक देवों की अपेक्षा उत्कृष्ट आयु जाननी चाहिये क्यों कि उत्कृष्ट आयु संभवित है और जघन्य आयु आत्मरक्षक देवों की अपेक्षा से है, इसी तरह का कथन सूर्यविमानादि सूत्रों में भी जानना चाहिये, अब सूर्यविमान में रहने वाले देवों की स्थिति के काल को जानने के लिये सूत्रकार सूत्र कहते हैं-'सूरविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभाग पलिओवर्म, उकोसेणं पलिओवमंवाससहस्समभहियं' सूर्यविमान में रहने वाले देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपमके चतुर्थ भागप्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति १एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है 'सूरविमाणे देवीणं जहण्णेणं चउभागपलिओ. धमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहि वासलएहिं अभहियं' सूर्यविमान में वसने पाली देवियों की स्थिति एक पल्प के चतुर्थ भागप्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति ५ पाँच सौ वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है। વર્ષ અધિક અદ્ધપપમની છે એવું સર્વત્ર પ્રશ્નવાજ્ય કરીને ઉત્તરવાજ્યને ગોઠવી લેવું જોઈએ. ચન્દ્રવિમાનમાં ચન્દ્રદેવ, સામાનિક દેવ અને આત્મરક્ષક આદિ દેવ રહે છે આથી ચન્દ્ર સામાનિક દેવેની અપેક્ષા ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય જાણવું જોઈએ કારણ કે ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય સંભવિત છે જ્યારે જઘન્ય આયુષ્ય આત્મરક્ષક દેવની અપેક્ષાથી છે. આવી જ જાતનું કથન સૂર્યવિમાનદિ સૂત્રમાં પણ જાણવું જોઈએ હવે સૂર્યવિમાનમાં રહેનારા દેવેની સ્થિતિને आपने onjan भाटे सूत्रा२ सूत्र ४ छ -'सूरविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलिओवम, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससहस्समभहिय' सूर्यविमानमा २।२। हेवानी न्य स्थिति એક પોપમનાં ચતુર્થભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક હજાર વર્ષ અધિક એક पक्ष्यापभनी छ. 'सूरविमाणे देवीणं जहणणं चउभागपलि ओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवम पंचहि वाससएहि अब्भहियं' सूय विमानमा वसनारी विमानी स्थिति मे४ ५८यना ચતુર્થભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચ વર્ષ અધિક અર્ધપલયમની છે. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाचिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३१ चन्द्रस्याप्रमहिष्याः नामादिनिरूपणम् ५१७ सम्प्रति ग्रह विमानसूत्रमाह-'गहविमाणे देवाणं' इत्यादि, 'गह विमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभाग पलियोवमं' ग्रहविमाने वसतां देवानां कियन्तं कालपर्यन्तमायुरिति प्रश्नः भगवानाह-हे गौतम ! ग्रहविमाने वसतां देवानां जघन्येन चतुर्भागपल्योपमं पल्योपमस्य चतुर्थोंभागः स्थितिः, 'उकोसेणं पलियोवम' उत्कर्षेण ग्रह विमाने वसतां देवानामायुः पूर्ण पल्योपममिति । ‘णक्खत्तविमाणे देवीणं जहण्णेणं चउभागपलियोवमं' हे भदन्त ! नक्षत्रविमाने वसतां देवानामात्मरक्षकादीनां कियन्तं कालमायुरिति प्रश्ने भगवानाह-हे गौतम ! नक्षत्रविमाने वसतां देवानां जघन्ये नायुः चतुर्भागपल्योपमं पल्योपमस्य चतुर्थो भागः । 'उकोसेणं अद्धपलियोवम' उत्कर्षेणार्द्धपल्योपममायु भवतीति । 'णक्खत्तविमाणे देवीणं जहपणेणं चउभागपलियोवमं हे भदन्त ! नक्षत्रविमाने देवीनां जघन्येनायु श्चतुर्भागपल्योपमं पल्योपमस्य चतुर्थोभागः, 'उकोसेणं साहियं चउभागपलिओवम' उत्कर्षेण साधिकं चतुर्भाग ग्रहविमान सूत्र कथन 'गहविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभाग पलिओव' अब गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा-हे भदन्त ! ग्रहविमान में रहने वाले देवों की स्थिति कितनी है ? तब प्रभु ने गौतमस्वामी से ऐसा कहा-हे गौतम ! ग्रहविमान में रहने वाले देवों की जघन्य स्थिति तो एक पल्योपम के चतुर्थभागप्रमाण है और 'उक्कोसेणं पलिओ. वर्म' उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण एक पल्पोपम की है 'णक्वत्तविमाणे देवाणं जहण्णणं चउभागलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवर्म' नक्षत्र विमान में रहने वाले देवों की जघन्य स्थिति तो एक पल्योपम के चतुर्थभाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति अर्धपल्योपम प्रमाण है 'णक्खत्तविमाणे देवीणं जहन्नेणं चउभागपलि ओम, उक्कोसेणं साहियं चउभागपलिओवमं नक्षत्रविमान में रहने वाली देवियों की जघन्यस्थिति एक पल्योपम के चतुर्थभाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति एक ગ્રહવિમાન સૂત્ર કથન 'गहविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभाग पलिओवमं' व गोतमस्वामी प्रसुने । પ્રમાણે પૂછ્યું- ભદન્ત ! ગ્રહવિમાનમાં રહેનારા દેવેની સ્થિતિ કેટલી છે? ત્યારે પ્રભુએ ગૌતમસ્વામીને આ પ્રમાણે કહ્યું–હે ગૌતમ! ગ્રહવિમાનમાં રહેનારા દેવની જઘન્ય સ્થિતિ तो मे पक्ष्या५मना यतु भार प्रभा छ भने 'उक्कोसेणं पलिओवम' अष्ट स्थिति ५५ ४ पक्ष्या५मनी छ. 'णक्खत्तविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवम' नक्षत्रविमानमा २९ना२। हेवानी वन्य यति तो थेट १.८यरमाना चतुर्थना प्रभा छ भने अष्ट स्थिति अपये।५म प्रभा छे. 'णखत्त विमाणे देवीणं जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं साहियं चउभागपलिओवमं' नक्षत्रविमानमा રહેનારી દેવીઓની જઘન્યસ્થિતિ એક પળેપમના ચતુર્થભાગ પ્રમાણ છે અને ઉત્કૃષ્ટस्थिति मे पश्या५मान xiss qयारे या प्रमाण . 'ताराविमाणे देवाणं जह . Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ अम्बूद्वीपतिसूत्रे पल्पोपमम् । 'ताराविमाणे देवाणं जहणेणं अट्टभाग लियोवमं' हे भदन्त ! ताराविमाने वसतां देवानां कियन्तं कालमायुरिति गौतमीय प्रश्ने भगवानाह - हे गौतम! ताराविमाने वसतां देवानां जघन्येनाष्टभागवल्योपमम्, पल्योपमस्याष्टमो भाग इत्यर्थः, 'उक्कोसेणं चउभागपलियोवमं' उत्कर्षेण चतुर्भागपल्योपमं स्थितिरिति, पल्पोपमस्य चतुर्थी भाग इत्यर्थः ' ताराविमा देवीणं जहण्णेणं अट्टभागपलियोवमं' ताराविमाने देवीनां जघन्येनाष्टभागवल्योपमं पल्योपमस्याष्टमो भागः । 'उकोसेणं साइरेगं अद्वभागपलियोवमं ' उत्कर्षेण सातिरेकमष्टभाग पल्योपमं पल्योपमस्याष्टमो भाग इति पञ्चदशं द्वारमिति ॥ • ३१ ॥ एकत्रिंशत्सूत्रं व्याख्याय षोडशं द्वारं व्याख्यातुं द्वात्रिंशत्तमं सूत्रमाह-एएसि भंते!" इत्यादि, मूलम् - एएसि णं भंते! चंदिम सूरियगहणक्खत्त तारारूवाणं कयरे करेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! चंदिम सूरिया दुवे तुल्ला सव्वत्थोवा णक्खत्ता संखेजगुणा, गहा संखेज्जगुणा तारारूवा संखेज्जगुणा इति । जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे जहण्णपए वा उक्को सपए वा केवइया तित्थयरा सव्वग्गेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! जहourne त्तार उक्कोसपए चोत्तीसं तित्थयरा सङ्घग्गेणं पन्नत्ता । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया जहण्णपए वा उक्कोसपए वा कवट्टी सव्वग्गेणं पल्योपम के कुछ अधिक चतुर्थभागप्रमाण है 'ताराविमाणे देवाणं जहणणेणं अभागपलिओ मं' ताराविमान में रहने वाले देवों की जघन्यस्थिति एक पल्योम के आठवें भाग प्रमाण है और 'उक्को सेणं चउभागपलिओ मं' उत्कृष्ट स्थिति एक पस्योपम के चतुर्थभागप्रमाण है 'ताराविमाणे देवीणं जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलि ओवमं' ताराविमान में रहने बाली देवियों की जघन्य स्थिति एकपल्य के आठवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य के कुछ अधिक आठवें भाग प्रमाण है ॥ ३१ ॥ पन्द्रहवां द्वार समाप्त oj अट्ठभाग पलिओवमं तारा विमानमा रहेनारा देवानी वन्यस्थिति को पत्योपभना आईभी लोग प्रभाय् छे भने 'उक्कोसेणं चउभागपलिओ मं' अष्टस्थिति मे पहयेोपमना चतुर्थभाग प्रभाणु छे. 'ताराविमाणे देवीणं जहणणेणं अट्ठभागरलिओवमं उक्को से साइरेगं अट्टभागपलिओवमं' ताराविभानमा रहेतारी देवीयोनी धन्यस्थिति मे पहयना आठमां ભાગ પ્રમાણુ છે અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ એક પલ્યના કઇંક અધિક આઠમાં ભાગ પ્રમાણુ છે. ૫૩૧૫ પંદરમુદ્વાર સમાપ્ત Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३२ चन्द्रसूर्यादीनामल्पवहुत्वनिरूपणम् ५१९ पन्नत्ता ? गोयमा ! जहण्णपए चत्तारि उकोसपए तीसं चकवट्टी सबग्गेणं पन्नत्ता, बलदेवा तत्तिया चेव जत्तिया चकवट्टी, वासुदेदा वि तत्तिया चेव त्ति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया निहिरयणा सवगगेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! तिणि छलुत्तरा निहिरयणसया सव्वग्गेणं पन्नत्ता, जंबुदीवे णं भंते ! दोवे केवइया णिहि रयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहण्णपए छत्तीसं उक्कोसपए दोषिण सत्तरा णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हवमागच्छंति, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया पंचिदियस्यणसया सव्वग्गेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! दो दसुत्तरा पंचिदियरयणसया सम्बग्गेणं पन्नता । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे जहण्णपए वा उकोसपए वा केवइया पंचिंदियरयणसया परिभोगत्ताए हव्व. मागच्छंति ? गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोष्णि दसुत्तरा पंचिंदियरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया एगिदियरयणसया सवग्गेणं पन्नत्ता ? गोयमा । दो दसुतरा एगिदियरयणसया सव्वग्गेणं पन्नता । जंबुद्दीवे णं भंते ! केवइया एगिदिय रयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा! जहण्णपए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोण्णि दसुत्तरा एगिदियरयणसया परिभोगताए हव्वमागच्छंति ॥सू० ३२॥ छाया-एतेषां खलु भदन्त ! चन्द्रपुर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहु का वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम ! चन्द्रसूर्याद्वये तुल्याः सर्वस्तोकाः, नक्षत्राणि संख्येयगुणानि, ग्रहाः संख्येयगुणाः तारारूपाणि संख्येय गुणानि इति ॥ जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे जघन्यपदे वा उक्कोसपदे वा कियन्त स्तीथंकराः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्यपदे चत्वारः, उत्कृष्टपदे चतुर्विंशति स्तीर्थकराः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ताः। जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्तो जघन्यपदे वा उत्कृष्टपदे वा चक्रवर्तिनः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जवन्यपदे चत्वारः, उत्कृष्टपदे त्रिंशचक्ररर्तिनः सर्वाग्रेग प्रज्ञप्ता इति । बलदेवा स्तावन्त एव यावन्त श्चक्रवर्तिनः । वासुदेवा अपि तावन्त एवेति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति निधिरत्नानि सर्वांग्रेण प्रज्ञतानि ? गौतम ! त्रीणि षडुत्तराणि निधिरत्नशतानि सर्वाग्रेण प्रज्ञ. तानि । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति निधिरत्नशतानि परिभोगतया शीघ्रमागच्छ. न्ति ? गौतम ! जघन्यपदे षट्त्रिंशत्, उत्कृष्टपदे द्वे सप्तत्यदिके निधिरत्नशते परिभोग्यतया Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शीघ्रमाच्छन्ति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति पञ्चेन्द्रियरत्नशतानि सर्वांग्रेण प्रज्ञ. तानि ? गौतम ! द्वे दशोत्तरे पश्चेन्द्रियरत्नश ते सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ते । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे जघन्यपदेवा उत्कृष्टपदेवा कियन्ति पश्चेन्द्रियरत्नशतानि परिभोग्यतया शीघ्रमागच्छन्ति ? गौतम ! जघन्यपदे अष्टाविंशतिः, उत्कृष्टपदे द्वे दशोत्तरे पञ्चेन्द्रियरत्नशते परिभोग्यतया शीघ्रमाच्छन्ति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति एकेन्द्रियरत्नशतानि सर्वाग्रेण प्रज्ञ. सानि ? गौतम ! द्वे दशोत्तरे एकेन्द्रियरत्नश ते सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ते । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति एकेन्द्रियरत्नशतानि परिभोग्यतया शीघ्रमागच्छन्ति ? गौतम ! जघन्यपदे अष्टाविं. शतिः, उत्कृष्टपदे द्वे दशोत्तरे एकेन्द्रियरत्नशते परिभोग्यतया शीघ्रमागच्छतः। सू० २२॥ टीका-'एएसिणं भंते' एतेषा मुपयुक्तसूत्रे कथितानां सामान्यतो लौकिक प्रत्यक्षप्रमाणविषयाणां खलु भदन्त ! 'चंदिममरियगहणवखत्त तारारूवाणं' चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्र तारारूपाणाम, चन्द्राणां सूर्याणां ग्रहाणा नक्षत्राणां तारारूपाणां च मध्ये 'कमरे कयरेहितो' कतरे कतरेभ्यः 'अप्पा वा बहुया वा तुलका वा विसेसाहिया वा' एतेषां मध्ये के अल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिकाबेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! 'चंदिमसूरियादुवे तुल्ला सम्वत्योवा' चन्द्रसूर्या एते द्वयेऽपि परस्परं तुल्या:समानाः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च चन्द्रसूर्याणां समान संख्याकत्वात, तथा शेषेभ्यो ग्रहादिभ्यः सोलहवे द्वार के सम्बन्ध में वक्तव्यता 'एएसि णं भंते ! चंदिमसूरिय गहक्खित्त ताराख्वाणं' इत्यादि। टीकार्थ-अब गौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-'एएसिणं भंते ! चंदिम सूरिय गहणक्खत्तताराख्वाण' हे भदन्त ! इन चन्द्र, सूर्यग्रह नक्षत्र एवं तारारूपों के बीच में 'कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसे. साहिया वा' कौन किनकी अपेक्षा अल्प हैं ? कौन किनकी अपेक्षा बहुत हैं? कौन किनकी अपेक्षा तुल्य हैं ? और कौन किनकी अपेक्षा विशेषाधिक हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा चंदिमसूरिया दुवे तुल्ला सम्वत्थोवा' हे गौतम! चन्द्र और सूर्य ये दो परस्पर में समान हैं क्योंकि प्रतिद्वीप में और સોળમાદ્વારના સમ્બન્ધમાં વક્તવ્યતા 'एएसि णं भंते ! चंदिमसूरिय गहण खत्ततारारूबाणं' त्यात - गौतमकामी मा सूत्र द्वारा प्रभुने मा पूछ्युठे-'एएसि णं भंते! चंदिमसूरिय गहणक्खत्ततारारूवाणं' 3 महन्त ! २॥ यन्द्र सूर्य नक्षत्र भने तापानी क्यमा कयरे कयरेहिं तो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा' यानी અપેક્ષાએ અ૯પ છે? કેણ કોની અપેક્ષાએ અધિક છે અને કોણ કોની અપેક્ષાએ તુલ્ય છે? અને કેણ કેની અપેક્ષાએ વિશેષાધિક છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે– 'गोयमा ! चंदिम सूरिया दुवे तुल्ला सव्वत्थोगा' गीतम! यन्द्र भने सूर्य से मान Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारा स्. ३२ चन्द्रसूर्यादीनामल्पबहुत्त्वनिरूपणम् १२१ सर्वे इमे चन्द्रसूर्याः स्तोकाः-अल्पीयांसः ‘णक्खत्ता संखेजगुणा' नक्षत्राणि संख्येयगुणानिचन्द्रसूर्यापेक्षया नक्षत्राणि संख्येयगुणाधिकानि भवन्ति, चन्द्रसूर्यापेक्षया नक्षत्राणा मष्टाविं. शति गुणाधिकत्वादिति । 'गहा संखेज्जगुणा' ग्रहाः संख्येयगुणाः नक्षत्रापेक्षया ग्रहा:-भौमादयः संख्येयगुणाधिका भवन्ति, सातिरेक त्रिगुणाधिफत्वात् 'तारारूवा संखेज्जगुणा' तारारूपा संखेज्जगुणाधिकानि भवन्ति, ताराणां प्रभूतकोटाकोटी गुणत्वादिति, व्याख्यात षोडशमल्पबहुत्वद्वारम् तेन संपूर्ण संग्रहणीगाथाद्वयं व्याख्यातमिति ॥ ___ सम्प्रति जम्बूद्वीपे जघन्योत्कर्षाभ्यां तीर्थंकरादीन् संख्यया ज्ञातुं प्रश्नयमाह-'जंबुद्दीवें गं भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीप मध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'जद्दण्णपए वा उक्कोसपए वा' जघन्यपदे-सर्वस्तोकस्थाने वा, उत्कृष्टपदे-सर्वोत्कृष्टस्थाने वा 'केवइया तित्थयरा' कियन्तः-कियत्संख्यकाः तीर्थङ्कराः 'सव्वग्गेणं पमत्ते' सर्वाग्रेण-सर्व संकलनया केवलिष्टमात्रया इत्यर्थः प्रज्ञप्ता:-कथिताः जम्बू. प्रतिसमुद्र में चन्द्र और सूर्य समान संख्यावाले हैं। तथा शेषग्रहादिकों से ये सब चन्द्र और सूर्यस्तोक-कम हैं। ‘णक्खत्ता संखेज्जगुणा' चन्द्र और सूर्य की अपेक्षा नक्षत्र२८गुण अधिक हैं। 'गहा संखिजगुणा' नक्षत्रों की अपेक्षा ग्रह संख्यातगुणे 'तारारूवा संखेजगुणा' तारारूप संख्यातगुणे अधिक हैं, क्यों कि ताराओं को बहुत अधिक कोटाकोटी गुणित कहा गया है। इस प्रकार इस अल्पबहुतद्वार की वक्तव्यता समाप्त होने पर दो संग्रहणी गाथाएं पूर्णरूप से व्याख्यात हो जाती है, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे जहण्णपए वा उक्कोसपए वा केवइया तित्थयरा सव्वग्गेणं पण्णत्ता' इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामीने जम्बूद्वीप में जघन्य और उत्कृष्ट से तीर्थकरादिक कितने होते हैं, अर्थात् कितने रहते हैं ? इस बात को पूछा है इसमें पहिले उन्होंने ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इस जम्बुद्वीप नामके द्वीप में सब से कम પરસ્પરમાં સમાન છે કારણ કે પ્રતિદ્વીપમાં અને પ્રતિસમુદ્રમાં ચન્દ્ર અને સૂર્ય સરખી સંખ્યાવાળા હોય છે તથા શેષ ગ્રહાદિકેથી આ બધાં ચન્દ્ર અને સૂર્ય સ્નેક-ઓછાં डाय छ ‘णखत्ता संखेज्जगुणा' नक्षत्रानी अपेक्षा सभ्याता पधारे डाय हैभडे यंद्र भने सूर्य न। ४२di नक्षत्र २८ गए। छे. 'गहा संखिज्जगुणा' नक्षत्रीना ४२di सभ्यात पधारे छे. 'तारारूवा संखेज्जगुणा' अडानी अपेक्षा ता॥३५ સંખ્યાતગણ અધિક છે કારણ કે તારાઓને ઘણું અધિક કેટકેટી ગુણિત કહેવામાં આવ્યા છે. આ પ્રકારે આ અપધત્વ દ્વારની વક્તવ્યતા સયાત થવાથી બે સંગ્રહણી गाथा। पूर्ण ३५थी व्यायात थ य छ, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे जहण्णपए वा उक्कोसपए वा केवइया तित्थयरा सव्वग्गेणं पण्णत्ता' 11 सू। रागी भस्वामी स्मूदीपमा न्य તેમજ ઉત્કૃષ્ટથી તીર્થંકરાદિક કેટલા હે છે. અર્થાત્ કેટલા રહે છે ? એ હકીકતની પૃચ્છા કરી છે આની પહેલાં તેઓએ આમ પૂછ્યું છે-હે ભદન્ત ! આ જમ્બુદ્વીપ નામના Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपमातिर द्वीपे सर्वसंख्यया कियन्त स्तीर्थकरा भवन्तीति मश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! 'जहण्णपए चत्तारि' जघन्यपदे चत्वारः प्राप्यन्ते, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य पूर्वविदेहक्षेत्रे शीतामहानद्याः भागद्वये कृते दक्षिणोत्तरभागयोरेकैकस्य तीर्थंकरस्य सद्भावाद् द्वौ तीर्थ करौ, एवमपरविदेहक्षेत्रेऽपि शीतोदाया महानद्या दक्षिणोत्तरभागद्वये तथैव द्वौ तीर्थङ्करौ इति संकलनया जघन्यपदे चत्वार स्तीर्थकरा भवन्ति, भरतैरवतक्षेत्रयोस्तु एकान्त सुषमाकाले तीर्थकराणामभाव एवेति । 'उकोसपए चोत्तीसं तित्थयरा' उत्कृष्टपदे चतु स्त्रिंशत्तीर्थकराः 'सव्वग्गेणं पनत्ता' सर्वाग्रे ग-सर्वसंकलनया प्रज्ञप्ताः कथिताः, तथाहि महाविदेहक्षेत्र प्रतिविजयं भरतैरवतयो चैकैकस्य तीर्थंकरस्य संभवइति सर्वसंकलनया चतुस्त्रिंशत्तीर्य करा भवन्तीति ॥ एतच्च विहरत्तीर्थङ्करापेक्षया ज्ञातव्यम्, नतु जन्मापेक्षया, जन्मापेक्ष यातु चतुस्त्रिंशत्तीर्थकराणामसंभवादिति । और सब से अधिक सर्वाग्ररूप से कितने तीर्थकर होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहण्णपए चत्तारि' हे गौतम ! जघन्यपद में चार तीर्थकर होते हैं और वे इस प्रकार से होते है जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में शीता महानदी के भागवय करने पर दक्षिण उत्तर भागों में एक एक तीर्थकर के सद्भाव से दो - तीर्थंकर होते हैं तथा अपरविदेह में भी शीतोदा महानदी के दक्षिण उत्तरभाग इय में उसी प्रकार से दो तीर्थकर होते हैं इस प्रकार जघन्य पद में चार तीर्थंकर होते कहे गये हैं, परन्तु भरत क्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में एकान्तसुषमाकाल में तीर्थकर नहीं होते हैं, 'उक्कोसपए चोत्तीसं तित्थयरा' तथा उत्कृष्टपद में ३४ तीर्थकर होते हैं, ऐसा 'सव्यग्गेणं पन्नत्ता' सर्वसंकलना से कहा गया है, ये ३४ तीर्थकर इस प्रकार से होते हैं-महाविदेहक्षेत्र में हरएक विजय में १-१ तीर्थकर होने की अपेक्षा ३२ तीर्थकर होते हैं एवं भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में દ્વીપમાં સૌથી ઓછા અને સૌથી અધિક સર્વાગરૂપથી કેટલાં તીર્થકર હોય છે? આના उत्तरमा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! जहण्णपए चत्तारि' गौतम ! धन्य ५४मा यार तीथ ४२ હોય છે અને તે આ પ્રમાણે હોય છે. જમ્બુદ્વીપના પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રમાં શીતા મહાનદીના બે ભાગ કરીએ તે દક્ષિણ ઉત્તર ભાગમાં એક-એક તીર્થકરના સદૂભાવથી બે તીર્થકર થાય છે તથા અપરવિદેહમાં પણ શીદા મહાનદીના દક્ષિણ-ઉત્તર ભાગ કયમાં તેજ પ્રમાણે બે તીર્થકર થાય છે–આ રીતે જઘન્ય પદમાં ચાર તીર્થકર હોવાનું કહેવામાં આવ્યું છે, પરંતુ ભરતક્ષેત્ર અને એરવતક્ષેત્રમાં એકાન્ત સુષમાકાળમાં તીર્થકર હતાં नयी. 'चक्कोसपए चोत्तीसं तित्थयरा' तथा कृष्ट ५४मा ३४ ताय ४२ डाय छे थे 'सवमणे पन्नत्ता' सर्वसनाथी वामां आयु 2, 20 3४ तीर्थ ४२ मा प्रभाव હોય છે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં દરેક વિજયમાં ૧-૧ તીર્થકર હવાની અપેક્ષા ૩૨ તીર્થકર ન હોય છે અને ભરતક્ષેત્ર તેમજ ઔરતક્ષેત્રમાં ૧-૧ તીર્થકરના સદૂભાવથી ૨-૨ તીર્થકર Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमाधिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३२ चन्द्रसूर्यादीनामल्पबहुस्वनिरूपणम् ५ सम्प्रति-जघन्योत्कर्षाभ्यां जम्बूद्वीपे चक्रवर्तिनः संख्यां ज्ञातुं प्रश्नयनाह-जंबुद्दीवेणे भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बू द्वीपे इत्यर्थः 'केवइया' कियन्त:-कियत्संख्यकाः 'जहणपए वा उक्कोसपए वा' जघन्यपदेंसर्वस्तोके स्थाने उत्कृष्टे परे-सर्वोत्कृष्टस्थाने विचार्यमाणे 'चक्कवट्टी सम्बग्गेणं पत्रका' चक्रवर्तिनः सर्वाग्रेण-सर्वसङ्कलनया प्रज्ञप्ता:-कथिता इतिप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहण्णपए चत्तारि' जवन्यपदे चखार श्चक्रवर्तिनः कथिता, तथाहिजम्बूद्वीपस्य पूर्वविदेहक्षेत्रे शीतामहोनद्याः दक्षिणोत्तरभागद्वये एकैकस्य चक्रवत्तिनः सद्भावात् एवमपरविदेहक्षेत्रेपि शीतोदकाया महानद्या दक्षिणोत्तरभागे द्वौ चक्रवर्तिनौ, तदेवं सर्वसंकलनया जघन्यपदे चत्वार श्चक्रवत्तिनो भवन्ति, 'उकोसपए तीसं चकवट्टी सम्बग्गेण पमत्ता' उत्कृष्टपदे त्रिंशचक्रवर्तिनः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ताः, कथमेवं भवति चेदत्रोच्यते-द्वात्रिंश एक २ तीर्थंकर के सद्भाव से २ दो तीर्थकर होते हैं इस प्रकार से ३४ तीर्थंकरों का होना कहा गया है। यह कथन विहरमाण तीर्थंकरो की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये, जन्म की अपेक्षा से कहा गया नहीं जानना चाहिये, क्यों कि जन्म की अपेक्षा से ३४ तीर्थकर होते नहीं कहे गये हैं-कारण कि ऐसा होना असंभव है। 'जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे केवइया जहण्णपए वा उक्कोसपए वा चकवट्टी सव्वग्गेणं पन्नसा' हे भदन्त ! इस जंबुद्धीप नामके द्वीप में जघन्य रूप से कितने चक्रवर्ती रहते हैं और उत्कृष्ट रूप से कितने चक्रवर्ती रहते हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! जहण्णपए चत्तारि' हे गौतम! कम से कम चार रहते हैं-जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में शीता महानदी के दक्षिण उत्तर भाग व्य में एक २ चक्रवर्ती का सद्भाव रहता है तथा शीतोदा महानदी के दक्षिण उत्तर भागद्य में एक २ चक्रवर्ती का सद्भाव रहता है-इस तरह जम्बूद्वीप में कम से कम ४ चार चक्रवर्ती होते कहे गये हैं और उस्कृष्ट पद में तीस चक्रહોય છે. આ પ્રમાણે ૩૪ તીર્થકરે થવાનું કહેવામાં આવ્યું છે. આ કથન વિચરમાન તીર્થકરોની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યાનું જાણવું. જન્મની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યું છે. તેમ જાણવાનું નથી કારણ કે જન્મની અપેક્ષાથી ૩૪ તીર્થકર હેવાનું કહેવામાં આવ્યું नथी- ४।२१ ये प्रभाले २ १२४य छे. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया जहण्णपएका उक्कोसपए वा चकवट्टी सव्वग्गेणं पन्नत्ता' महन्त ! 41 दी५ नामना दीपमi AR રૂપથી કેટલા ચક્રવતી રહે છે અને ઉત્કૃષ્ટ રૂપથી કેટલાં ચક્રવર્તી રહે છે? આના. rai प्रभु ४ -'गोयमा ! जहण्णपए चत्तारि' गौतम ! छमा छ। यार છે જમ્બુદ્વીપના પૂર્વ વિદેહક્ષેત્રમાં શીતા મહાનદીના દક્ષિણ ઉત્તર ભાગ કયમાં ૧-૧૪ વતીને સદૂભાવ રહે છે તથા શીતાદા મહાનદીના દક્ષિણ ઉત્તર ભાગદ્વયમાં ૧-૧ ચક્રવતીને અભાવ રહે છે. આ રીતે બુદ્વીપમાં ઓછામાં ઓછા ૪ કવર્તી હોવાનું માં Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसत्र द्विजयेषु वासुदेव स्वामिकाऽन्य बित्य चतुष्क वर्जित विजयसत्काष्टाविंशति श्चक्रवर्तिनः, भरतैरवतयोस्तु द्वौ चक्रवर्तिनौ इति पूर्वापरसंकलनया त्रिंशचक्रवर्तिनः, यदा तु महाविदेहक्षेत्रे उत्कृष्टपदेऽष्टाविंशति श्चक्रवर्तिनः प्राप्यो तदा नियमतश्चतुर्णामर्द्धचक्रिणां संभवेन तभिरुद्धक्षेत्रेषु चक्रवर्तिनामसंभवात्, चक्रवर्तिनामर्द्ध चक्रवर्तिनां च सहानवस्थानलक्षणविरोधात्, यत्र चक्रीन भवति तत्रार्ध चक्रवर्ती, यत्र चार्द्धचक्रवर्तीन भवति तस्मिन् क्षेत्रे चक्रवर्तीति ॥ , सम्प्रति-बलदेवानर्धचक्रवर्तिनश्चाह-'बलदेवा' इत्यादि, 'बलदेवा तत्तियाचेव जत्तिया चकवट्टी' वलदेवा स्तावन्त एव यावन्त चक्रवर्तिनः यात्प्रमाणका यदा चक्रवर्तिनो भवन्ति जम्बूद्वीपे तदा तावन्त स्तावत्प्रमाणका बलदेवा भवन्ति तावन्त एव बलदेवा जघन्यपदे उत्कृष्टपदे च, अयं भावः-यदा यत्र जयन्ये चत्वारश्चक्रिणस्तदा-तत्र जघन्यपदे चत्वारो बलदेवाः, यदा-यत्र चोत्कृष्टपदे त्रिंशचक्रवर्तिन सदा त्रिंशबलदेवा भवन्तीति । 'वासुदेवा वितत्तिया चेवत्ति' वासुदेवा अपि तावन्त एवेति बलदेव सहचारित्वात् बासुदेवानाम् अयवर्ती रहते कहे गये हैं-ये इस प्रकार से हैं-३२ विजयां में वासुदेव स्वाभाविक अन्यतर ४ विजयों को छोडकर २८ विजयों के २८ चक्रवर्ती और भरतक्षेत्र एवं ऐरवत क्षेत्र के दो चक्रवर्ती इस प्रकार मिलाकर ३० तीस चक्रवर्ती रहते -होते कहे गये हैं। जब महाविदेह में उत्कृष्ट पद में २८ चक्रवर्ती पाये जाते हैं तब नियम से चार अर्धचक्रियों के सद्भाव से उनके द्वारा निरुद्ध क्षेत्रों में चक्रघर्ती नहीं रहते हैं क्यों कि चक्रवर्ती और अर्ध-चक्रवर्ती इन दोनों का सहानवस्थान लक्षण विरोध हैं जहां चक्री होता है वहां अर्धचक्री नहीं होता है और जहां अर्धचक्री होता है वहां चक्री नहीं होता है। 'बलदेवा तत्तिया चेव जत्तिया चक्कवही जितने चक्रवर्ती होते हैं उतने ही बलदेव होते हैं, अर्थात् जघन्य पद में चार बलदेव होते हैं और उत्कृष्ट पद में ३० बलदेव होते हैं 'वासुदेवा वि तत्तिया चेव' वासुदेव भी इसी प्रकार से होते हैं-क्योंकि ये वासुदेव बलदेव के આવ્યું છે અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં ૩૦ ચક્રવર્તી રહેવાનું કહેવામાં આવ્યું છે તેઓ આ પ્રમાણે છે-૩ર વિજમાં વાસુદેવ સ્વાભાવિક અન્યતર ૪ વિજયને છોડીને ૨૮ વિજચેના ૨૮ ચક્રવર્તી અને ભરતક્ષેત્ર અને અરવતક્ષેત્રના ૨ ચક્રવતી એ રીતે મળીને ૩૦ ચક્રવતી રહેતાં હોવાનું કહેલ છે. જ્યારે મહાવિદેહમાં ઉત્કૃષ્ટ પદમાં ૨૮ ચક્રવતી લેવામાં આવે છે ત્યારે નિયમથી ચાર અર્ધચકિએના સદૂભાવથી તેમના દ્વારા નિરૂદ્ધ ત્રામાં ચકવતી રહેતાં નથી કારણ કે ચક્રવર્તી અને અર્ધચક્રવતી એ બંનેનો સહાનવસ્થાન લક્ષણ વિરોધ છે, જ્યાં ચકી હોય છે ત્યાં અર્ધચક્રી હતા નથી અને જ્યાં यही डाय छ त्यो यी हातi नथी. 'बलदेवा तत्तिया चेव जत्तिया चक्कवट्टी' २८i ચકવતો હોય છે તેટલાં જ બળદેવ હોય છે અર્થાત્ જઘન્યપદમાં ચાર બળદેવ હાય सन १ve ५४i 30 डाय छे. 'वासुदेवा तत्तिया चे' वासुदेव ५ मा પ્રકારે જ હોય છે, કારણ કે આ વાસુદેવ બળદેવના સહચારી હોય છે.. Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३२ चन्द्रसूर्यादीनामल्पबहुत्वनिरूपणम् ५२५ मर्थः-पदा च उत्कृष्टपदे चक्रवर्तिन त्रिंशत् तदाऽवश्यं बलदेववासुदेवा जघन्यपदे चबारः तेषां तुर्णामवश्यंभावात्, यदा च बलदेवा उत्कृष्टपदे त्रिंशत् तदा चक्रिणां जघन्यपदे चत्वार स्तेषामपि चतुर्णामवश्यंभावात् एतेषां परस्परं सहानवस्थानलक्षणविरोधसमावेनान्य. तराश्रितक्षेत्रे तदन्यतरस्थ अभाव एवेति । एते चक्रिप्रभृतयो निधिपतयो भवन्ति इति जम्बूद्वीपे निधिसंख्यां दर्शयितुं प्रश्नयनाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया णिहिरयणा सव्वग्गेणं पासा' कियन्ति-कियत्संख्यकानि निधिरत्नानि-उत्कृष्ट निधानानि यानि गङ्गादिनदीमुखे विद्यमानानि चक्रवर्ति हस्तगतपरिपूर्णषट्खण्डदिगविजयात्समागतोऽष्टमतपः करणादनन्तरं स्वाधीनं करोति तानि निधानानि सर्वाग्रेण-सर्वसंख्यया कियन्ति प्रज्ञप्तानि-कथिसहचारी होते हैं, हैं इस कथन का तात्पर्य ऐसा है-जब उत्कृष्टपद में ३० चक्र. वर्ती रहते हैं तब नियम से जघन्य पद में बलदेव और वासुदेव चार रहते हैं और जब उत्कृष्ट पद में बलदेव और वासुदेव ३० रहते हैं तब जघन्य पद में नियम से ४ चक्रवर्ती रहते हैं, ये दोनों आपस में मिलकर एक जगह नहीं रहते हैं क्यों कि इनका सहानवस्थान का विरोध है इसलिये एक के आश्रित हुए क्षेत्र में एक दूसरा रहता नहीं है। इसलिये वहां एक दूसरे का अभाव रहता है। ये चक्रवती आदि निधिपति होते हैं अतः निधिसंख्या प्रकट करने लिये सूत्रकार कहते हैं-इस पर गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा ही पूछा है-'जंबूदीवेणं भंते ! दीवे केवइया णिहि रयणा सम्वग्गेणं पण्णत्ता' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में निधान कितने कहे गये हैं ? ये नव निधान गंगा आदि नदियों के मुख में विद्यमान रहते हैं, जब चक्रवर्ती षटूखण्डों को विजय करके लौटता है तब वह अष्टम की तपस्या करता है उसके बाद वह उन्हें अपने आधीन करता है ये नवनिधान આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે-જયારે ઉત્કૃષ્ટ પદમાં ૩૦ ચક્રવતી રહે છે ત્યારે નિયમથી જઘન્ય પદમાં બળદેવ અને વાસુદેવ ચાર રહે છે. અને જ્યારે ઉત્કૃષ્ટ પદમાં બલદેવ અને વાસુદેવ ૩૦ રહે છે ત્યારે જઘન્ય પદમાં નિયમથી ચાર ચક્રવર્તી રહે છે આ બંને આપસમાં મળીને એક સ્થળે રહેતાં નથી કારણ કે એમનું સહાનવસ્થાન વિધી છે એથી એકના આશ્રિત થયેલા ક્ષેત્રમાં એક-બી જા રહેતાં નથી આથી ત્યાં એકબીજાને અભાવ રહે છે આ ચક્રવર્તી આદિ નિધિપતિ હોય છે આથી નિધિસંખ્યા પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે-આના સંદર્ભમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આવું જ પૂછયું छे-'जंबूहीवे णं भंते ! केवइया णिहि रयणा सजग्गेणं पण्णत्ता' महन्त ! पूदी नामना દ્વીપમાં નિધાન કેટલાં કહેવામાં આવ્યા છે? આ નવ નિધાન ગંગા આદિ નદિઓના મુખમાં વિદ્યમાન રહે છે, જ્યારે ચક્રવર્તી છ ખંડેને વિજય પ્રાપ્ત કરીને પાછો ફરે છે ત્યારે તે અષ્ટમની તપસ્યા કરે છે ત્યારબાદ તે તેમને પિતાને આધીન કરે છે. આ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रतिपक्ष बानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिणि छलुत्तरा. विहिरयणसया सव्वग्गेण पन्नता' त्रीणि पडुत्तराणि निधिरत्नशतानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि-कथितानि, कयं षडुत्तराणि त्रीणि शतानि निधिरत्नानि भवन्ति चेद् अत्रोच्यते-नवसंख्यकानि निधानानि तेषां चतुस्त्रिंशत्संख्यया गुणने ३०६ षडुत्तराणि त्रिंशच्छतसंख्यकानि भवन्तीति । । सम्प्रति-निधिपतीनां कतिनिधानानि तेषां सत्ताकाले भोगभोग्यानि भवन्तीति दर्शयितुं प्रश्नयनाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया णिहिरयणसया परिभोगत्ताए इव्वमागच्छंति' कियत्संख्यकानि निधिरत्नशतानि चक्रवादीनां परिभोग्यतया प्रयोजने समुत्पने सति 'एव्वं' इति शीघ्रमागच्छन्ति-निधिपति समीप मुपसर्पन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहण्णपर छत्तीसं' जघन्यपदे षट्त्रिंशत् जघन्यपदभाविना चक्रवतिनां नवनिधानानि चतुर्गुणितानि यथोक्तसंख्याप्रदानीति । 'उकोसपए दोणि सत्तरा कुल कितने होते हैं ? यही घात गौतमस्वामीने पूछी है, इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! तिणि छलुसरा णिहिरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता' हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में कुल निधानों की संख्या ३०६ होती है, यह इस प्रकार से होती है कि निधान नौ होते हैं इनमें ३४ का गुणा करने पर ३०६ हो जाते हैं। 'जंबूहीवे णं भंते ! दीवे केवइया णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति' .. अब गौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इस जम्बू द्वीप नामके द्वीप में इन निधानों में से कितने निधान उनके चक्रवती आदिकों के परिभोग में काम आते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! जहण्णपए छत्तीसं उकोसपए दोणि सत्तरा णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हब्धमागच्छंति' हे गौतम! इन निधानों में से कम से कम ३६ निधान और अधिक से अधिक दो सौ सत्तर निधान चक्रवर्ती आदिकों के काम में आते हैं । ३६ निधान काम आते हैं ऐसा નવનિધાન કુલ કેટલા હોય છે? એજ વાત ગૌતમસ્વામીએ પૂછી છે આના જવાબમાં प्रभु ४३ छे-'गोयमा ! तिणि छलुत्तरा णिहिरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता' 8 गौतम ! જખૂલીપ નામના દ્વીપમાં કુલ નિધાનેની સંખ્યા ૩૦૬ હેય છે, આ એવી રીતે હોય DD निधान न डाय छ त। 3४ थी गुमाये तो 3०६ 25 लय छे. 'जंबूहीवे गं भंते ! दीवे केवइया गिहिरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति' वे गौतमस्वामी प्रभुने આ પ્રમાણે પૂછ્યું છે-હે ભદન્ત ! આ જમ્બુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં આ નિધાનમાંથી કેટલાં નિધાન તેમના ચક્રવર્તી આદિના પરિભેગમાં કામ આવે છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ ४ छ-'गोयमा ! जहण्णपए छत्तीसं उक्कोसपए दोष्णि सत्तरा णिहिरयणसया परिभोगत्ताए ત્રિમાઇિતિ” હે ગૌતમ! આ નિધાનેમાંથી એક છામાં ઓછા ૩૬ નિધાન અને વધુમાં વધુ ૨૭૦ નિધાન ચક્રવતી આદિકના કામમાં આવે છે ૩૬ નિધાન કામ આવે છે એવું Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. ३२ चन्द्रसूर्यादीनामल्पबहुत्वनिरूपणम् १२० गिहिरयणसया परिभोगवाए हव्वमागच्छंति' उत्कृष्टपदे वे सप्तस्यधिक निधिरत्नशते परिभोग्यतया प्रयोजने समुत्पन्ने सति 'हव्वं' शीघ्रमागच्छतः-तत्समीपमुपागच्छतः उत्कृष्टपदभाविना चक्रवर्तीनां त्रिंशतो नवनवनिधानानि भवन्तीति नव त्रिंशत्संख्यया गुण्यन्ते ततो भवति यथोक्तसंख्येति । ___सम्प्रति-जम्बूद्वीपत्ति चक्रवत्ति चतुर्दशरत्नेषु मध्ये कति पश्चेन्द्रियरत्नानि तानि दर्शयितुं रत्नसंज्ञा प्रष्टुकिच्छुराह-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया पंचिदिय रयणसया' कियन्ति-कियत्संख्यकानि पश्चन्द्रिय रत्नशतानि' 'सबम्गेण पत्ता' सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि, तत्र पश्चेन्द्रिय रत्नानि सेनापत्यादीनि सप्त तेषां सेनापत्यादि सप्तरत्नानां शतानि सर्वाग्रेग सर्व संख्यया प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो दसुत्तरा पंचिंदियरयणसया सव्वग्गेणं पन्नत्ता' द्वे दशोत्तरे-दशाधिके पश्चेन्द्रियरत्न जो कहा गया है वह ९ निधानां को चक्रवर्ती की जघन्यपद में वर्तमान ४ संख्या से गुणित किया गया है-तब ३६ आये हैं तथा २७० की संख्या ९को ३० से गुणितकरने पर आती है। चक्रवती के आधीन १४ रत्न होते हैं-इनमें संज्ञी पंचे. न्द्रिय रस्न कितने होते हैं ?-इस बात को प्रभु प्रकट करते हैं-इसमें गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जंबुद्दीवे f भंते दीवे केवइया पंचिंदियरयणसया सव्वग्गेण पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में सब पञ्चेन्द्रिय रत्न कितने कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! दो दसुत्तरा पंचिंदिय रयः णसया सव्वग्गेणं पनत्ता' हे गौतम! समस्त पञ्चेन्द्रिय रत्न २१० कहे गये है क्यों कि उत्कृष्ट पदभावी ३० चक्रवर्तियों में से प्रत्येक चक्रवती के ७-७ पंचे. न्द्रिय सेनापति आदि रत्न होते हैं इसलिये ७४३० से गुणित करने पर २१० समस्त पञ्चेन्द्रिय चेतन रत्नों की संख्या आ जाती है सात रत्न पञ्चेन्द्रिय ये हैं જે કહેવામાં આવ્યું છે તે ૯ નિધાનેના ચકવતની જઘન્ય પદમાં વર્તમાન ૪ સંખ્યાથી ગુણવામાં આવી છે. ત્યારે ૩૬ થયા છે તથા ૨૭૦ની સંખ્યા ૯ને ૩૦ થી ગુણવાથી આવે છે. ચક્રવર્તી આધીન ૧૪ રત્ન હય છે તેમાં સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય રત્ન કેટલાં હોય છે—એ હકીક્તને પ્રભુ પ્રકટ કરે છે–આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછયું છે– 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया पंविदियरयणसया सव्वग्गेण पण्णत्ता' 3 महन्त ! ॥ જમ્બુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં બધાં પંચેન્દ્રિય રત્ન કેટલાં કહેવામાં આવ્યા છે? આના wwwi प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! दो दसुत्तरा पंचिंदिय रयणसया सव्वग्गेणं पन्नत्ता' ગૌતમ ! સમસ્ત પંચેન્દ્રિય રત્ન ૨૧૦ કહેવામાં આવ્યા છે કારણ કે ઉત્કૃષ્ટ પદભાવી ૩૦ ચક્રવર્તીઓમાંથી પ્રત્યેક ચક્રવર્તીના ૭-૭ પંચેન્દ્રિય સેનાપતિ આદિ રત્ન હોય છે આથી ૪૩૦ કરવાથી ગુણાકાર ૨૧૦ સમસ્ત પંચેન્દ્રિય ચેતન રનેની સંખ્યા આવી Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शवे, तद्यथा - उत्कृष्टपदभाविनां त्रिशचक्रवर्तिनां प्रत्येकं सप्तसप्तपंचेन्द्रिय रत्नसैनापत्यादि सद्भावेन सेनापति गाथापति वर्द्धकी पुरोहितरूपाणि चत्वारि पञ्चेन्द्रिय मनुष्यरत्नानि, गजाश्वरूपे द्वे पञ्चेन्द्रिय पशुरत्ने, विद्याधरकन्यका - सुभद्रा देवीत्यपरनाम्नी पञ्चेन्द्रियमनुष्यरत्नम् | सप्तसंख्याया त्रिंशत्संख्या गुणने भवति यथोक्तसंख्येति । अथ निधीनां सर्वाग्रपृच्छायां तेषां चतुस्त्रिंशत्संख्यया गुणनं संभवेदपि किन्तु पञ्चेन्द्रियरत्न सर्वाग्र पृच्छायां त्रिंशद्गुणनं कथमितिचेद् उच्यते चतुर्षु वासुदेवविजयेषु तदा तेषामनुपलम्भात् निधीनांतु नियतभावत्वेन सर्वदाप्युपलब्धेः तेन रत्न सर्वाग्रसूत्रे रत्नपरिभोगसूत्रे च न कश्चित् संख्याकृतो विशेष इति । अथ रत्नपरिभोग प्रश्नसूत्रमाह - 'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'जहण्णपदे उक्कोरूपए 'वा' जघन्यपदे - सर्वस्तोकस्थाने वा उत्कृष्टपदे - सर्वोत्कृष्टस्थाने विचार्यमाणे 'केवइया पंचिदियरयणसया' कियन्ति - कियत्संख्यकानि पञ्चेन्द्रियरत्नशतानि 'परिभोगत्ताए हध्वमासेनापति १, गाथापति २, वर्द्धकी ३, पुरोहित ४ ये चार पञ्चेन्द्रिय मनुष्य रत्न हैं। गज एवं अश्व, ये दो पंचेन्द्रिय पशुरत्न हैं तथा विद्याधर कन्या जिसका नाम सुभद्रा होता है एक यह पंचेन्द्रिय स्त्री रत्न है इस तरह से ये सात पंचेन्द्रिय रत्न हैं। ये सब चक्रवर्ती यों के होते हैं। यहां ऐसी शङ्का हो सकती है कि निधियों की सर्वाग्र पृच्छा में ३४ से गुणा करना तो ठीक है परन्तु पंचेन्द्रिय रत्नों की सर्वा पृच्छा में ३० का गुणा करना यह कैसे उचित हो सकता है? तो इसका समाधान ऐसा है कि चार जो वासुदेव विजय है उनमें उस समय उनका अनुपलम्भ रहा करता है, परन्तु जो निधियां हैं वे तो नियत भाव से सर्वदा उनमें उपलब्ध होती हैं । इससे रत्न सर्वाग्रसत्र में और रत्न परिभोगसूत्र में संख्या कृत कोई विशेषता नहीं है । 'जंबूद्दीवे णं भंते! दीवे जहण्णपए उक्को सपए वा केवइया पंचिंदिय रयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति' गौतमस्वामीने इस शे. सात यथेन्द्रियरत्न या प्रमाणे छे -सेनापति (१) गाथायति (२) बद्ध डी (3) પુરાહિત (૪) પંચેન્દ્રિય મનુષ્ય રત્ન છે ગજ તથા અશ્વ એ બે પચેન્દ્રિય પશુરન તથા વિદ્યાધર કન્યા જેનું નામ સુભદ્રા હોય છે એક પંચેન્દ્રિય સ્ત્રીરત્ન છે. આ રીતે આ સાત પચેન્દ્રિય રત્ન હેલાં છે. આ બધાં ચક્રવતી એને હાય છે. અહી એવી શુકા થઈ શકે કે નિધિએની સર્વોથ્રપૃચ્છામાં ૩૪ થી ગુણવાનુ` તે ઠીક છે પરન્તુ પંચેન્દ્રિય રત્નાની સર્વોપ્રપૃચ્છામાં ૩૦ ગુણવાનુ કઇ રીતે વાજબી ગણી શકાય ? આનુ સમાધાન એવુ છે કે જે ૪ વાસુદેવ વિજય છે તેમનામાં તે સમયે તેમના અનુપલ ભ રહ્યા કરે છે પરંતુ જે નિષિયા છે તે તે નિયતભાવથી સદા તેમનામાં ઉપલબ્ધ હૈાય છે. આથી રત્ન સર્વાંગ્ર सूत्रम अने रत्न परिभोग सूत्रमां संध्याहृत अर्ध विशेषता नथी. 'जंबूदीवेणं भंते! दीवे जह-are कोप वा केवइया पंचिदियरयणसया परिभोगताए ह०त्रमागच्छति' गौतमस्त्राभी मे Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कार: सू. ३२ चन्द्रसूर्यादीनामल्पबहुत्वनिरूपणम् गच्छति' परिभोग्यतया तेषां प्रयोजने समुत्पन्ने सति 'हवं' शीघ्रमागच्छन्ति-उपभोक्त तरसमीपमुपसर्पन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ' जहणपर अट्ठावीसं' जघन्यपदे अष्टाविंशतिः पञ्चेन्द्रियरत्नानि परिभोग्यतया श्रीघ्रामागच्छन्ति, एकसमये चतुर्णामेव चक्रवर्त्तिनां सद्भावात् अष्टाविंशदी रत्नानि भवन्तीति । 'उक्कोसपर दोष्णि दत्तरा पंचिदियरयणसया परिभोगत्ताप इच्चमागच्छति' उत्कृष्टपदे- सर्वोत्कृष्टस्थाने द्वे दशोतरे - दशाधिके पञ्चेन्द्रियरत्नशते परिभोग्यतया शीघ्रमुपभोक्तु चक्रवर्त्तिन-समीपमागच्छन्तिसमुपसर्पन्ति इति । ५२९ सम्प्रति - एकेन्द्रियरत्नानि प्रश्नयितुमाह- 'जंबुद्दीवे णं भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया' कियन्ति - कियत्संख्यकानि 'एर्गिदियरयणसया' एकेन्द्रियरत्नशतानि तत्रैकेन्द्रियरत्नशतानि - चक्रवर्त्तिनां क्रादीनि तेषां शतानि 'सव्वग्गेणं पद्मत्ता' सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया प्रज्ञप्तानि - कथितानि, सूत्रद्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में जघन्य पद में एवं उत्कृष्टपद में कितने सौ पंचेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उत्पन्न होने पर काम में लाये जाते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! जहण्णपए अड्डाari, उक्कसप दोणि दसुत्तरा पंचिदियरयण सया परिभोगत्ताए हव्वमाच्छति' हे गौतम! जघन्य पद में २८ पंचेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उत्पन्न होने पर काम में लाये जाते हैं क्यों कि जघन्य पद में एक समय में चार ही चक्रवर्तियों का सद्भाव होना प्रकट किया जाचुका है इसलिये ७को चार से गुणा करने पर २८ होते हैं तथा उत्कृष्ट पद में २१० पंचेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उत्पन्न होने पर काम में लाये जाते हैं । 'जंबुद्दीवे णं भंते : दीवे केवइया एगिंदिय रयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता' हे भदन्न ! इस जंबूदीप नाम के द्वीप में चक्रवर्तियों के चक्रादिक एकेन्द्रिय रहन सर्वाय से सर्वसंख्या से कितने सौ कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછ્યું છે કે હે ભદન્ત ! આ જમ્બુદ્રીપ નામના દ્વીપમાં જઘન્ય પદ્યમાં અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં કેટલા સે પ ંચેન્દ્રિય રત્ન પ્રયેાજનના ઉત્પન્ન થવા आहे अभभां साववामां आवे छे। खाना उत्तरमा प्रभु डे छे - 'गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं, उक्कोसए दोणि दसुत्तरा पंचिदियरयणसया परिभोगत्ताए हन्त्रमागच्छति' डे ગૌતમ ! જઘન્ય પદમાં ૨૮ પંચેન્દ્રિય રત્ન પ્રત્યેાજન ઉત્પન્ન થયેથી કામમાં લાવવામાં આવે છે કારણ કે જઘન્ય પદમાં એક સમયમાં ચાર જ ચક્રવર્તી એના સદ્ભાવ હાવાનુ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે આથી ૭ ને ૪ થી ગુણવાથી ૨૮ થાય છે તથા ઉત્કૃષ્ટ પદમાં २१० यथेन्द्रिय रत्नप्रयोनना उत्पन्न थवाथी अभभां सादी शाय छे. 'जंबुद्दीवेणं भवे ! दीवे केवइया एगेंदिय रयणसया सव्वगेणं पण्णत्ता' हे लहन्त ! या रेणूद्वीप नामना દ્વીપમાં ચક્રવર્તી એના ચફાર્દિક એકેન્દ્રિય રત્ન સર્વાગ્રંથી-સસ ́ખ્યાથી કેટલા સાહે ज० ६७ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D जम्बुद्धीपप्रशसिस्ने इतिप्रश्नः, 'भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो दमुत्तरा एगिदियरयण. सया सवग्गेणं परत्ता' द्वे दशोत्तरे दशाधिके इत्यर्थः एकेन्द्रियरत्नशते सर्वाग्रेण-सर्वसंख्यया प्रज्ञप्ते-कथिते इति । सम्प्रति-एकेन्द्रियरस्न परिभोगसूत्रं पृच्छन्नाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया एगिदिय रयणसया' कियन्ति-कियत्संख्यकानि एकेन्द्रियरत्नशतानि 'परिभोगत्ताए हव्वमागच्छन्ति' परिभोग्यतया 'हवं' शीघ्रमुपभोक्तुः समीपमाच्छन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जद्दण्णपदे अट्ठावीसं' जघन्यपदेऽष्टाविंशति रेकेन्द्रियरत्नानि आगच्छन्ति, 'उक्कोसेणं दोण्णि दसुत्तरा एगिदियरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति' उत्कर्षेण द्वे दशोत्तरे-दशाधिके एकेन्द्रियरत्नशते परिभोग्यतया शीघ्रमागच्छतः उपभोक्तः सपीपमुपसर्पनः ॥ सू० ३२॥ 'गोयमा ! दो दसुत्तरा एगिदियरयणसया सव्वग्गेणं पनत्ता' हे गौतम ! सर्व, संख्या से चक्रवर्तियों के एकेन्द्रिय रत्न २१० कहे गये हैं 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया एगिदिय रयणसया परिभोगत्ताए हन्धमागच्छति' हे भदन्त ! इस जंबुद्धीप नाम के द्वीप में चक्रवर्तियों के द्वारा २१० एकेन्द्रिय रत्न में से कितने एकेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उत्पन्न होने पर उनके काम में आते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोण्णि दसुत्तरा एगिदिय रयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति' हे गौतम ! जघन्य पद में वर्तमान चक्रवर्तियों के द्वारा २८ एकेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उपस्थित होने पर काम में लाये जाते हैं और उत्कृष्टपद में वर्तमान चक्रवर्तियों के द्वारा प्रयोजन के उपस्थित होने पर २१० एकेन्द्रिय रत्न काम में लाये जाते हैं । अथवा ये सब पूर्वोक्त रस्न उपभोक्ता चक्रवती के पास स्वयं आजाते हैं ऐसा समझना चाहिये ॥३२॥ पामा भाच्या छ ? माना Pawi प्रभु ४ छ-'गोयमा ! दो दसुत्तरा एगेंदियरयणसया सव्वग्गेणं पन्नत्ता' 3 गौतम ! सब सध्याथी य४वतीयाना मेन्द्रिय रत्न २१० रुपमा माया छ, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया एगेंदिय रयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति' ભદન્ત ! આ જંબુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં ચકવર્સીઓ દ્વારા ૨૧૦ એકેન્દ્રિય રત્નમાંથી કેટલાં એકેન્દ્રિય રત્ન પ્રોજન ઉત્પન થવાથી તેમના કામમાં આવે છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ छ-'गोयमा ! जहण्णपए अदावीसं उक्कोसपए दोणि दसुत्तरा एगिदियरयणसया परिभोगसत्ताए हबमागच्छंति' गौतम ! धन्य ५४मा वर्तमान यती द्वारा २८ એકેન્દ્રિય રન પ્રોજન ઉપસ્થિત થવાથી કામમાં લાવવામાં આવે છે અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં વર્તમાન ચકવતીઓ દ્વારા પ્રજન ઉપસ્થિત કરવાથી ૨૧૦ એકેન્દ્રિય રત્ન કામમાં લાવવામાં આવે છે અથવા આ બધાં પૂર્વોક્ત રત્ન ઉપગતા ચકવતીની પાસે સ્વયં આવી જાય છે એવું સમજવું જોઈએ. ૩રા Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स. ३३ जम्बूदीपस्यायामादिकनिरूपणम् ५३१ द्वात्रिंशत्तमं सूत्रं व्याख्याय जम्बूद्वीपस्यायामादिकं ज्ञातुं प्रयस्त्रिंशत्तमं सूत्रमाह-'अंबु. दीवे णं भंते ! दीवे इत्यादि। ___ मूलम्-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं केवइयं उव्वेहेणं केवइयं उद्धं उच्चत्तेणं केवइयं सव्वग्गेणं पन्नते ? गोयमा! जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयाम विक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साइं सोलसय सहस्साई दीपिण य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे अट्ठावीसं य धणुसयं तेरस अंगुलाइं अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं णवणउतिं जोयणसयस्साई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगे जोयणसयसहस्सं सव्वग्गेणं पन्नत्ते । जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे किं सासए असासए ? गोयमा! सिय सासए सिय असासए, गोयमा दवट्ठयाए सासए वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासए, से तेणट्रेणं गोयमा! एवं वुच्चइ सिय सासए सिय असासए । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे कालो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! न कया वि णासि ण कयावि गस्थि, ण कयावि ण भविस्सइ भूविं च भवइय भविस्सइय धुवे णियए सासए अव्वए अवहिए णिच्चे, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे पण्णत्ते त्ति । जंबुद्दीवेणं भंते ! किं पुढवीपरिणामे आउपरिणामे जीवपरिणामे, पोग्गलपरिणामे ? गोयमा ! पुढविपरिणामे वि आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पुग्गलपरिणामे वि। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सव्वजीवा, सव्वभूया, सव्वसत्ता पुढवीकाइयत्ताए, आउकाइयत्ताए, तेउकाइयत्ताए, वाउकाइयत्ताए, वणस्सइकाइयत्ताए उववण्णपुवा ? गोयमा ! असई अहवा अणंतक्खुत्तो ति ॥सु० ३३॥ ____ छाया-जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः कियता आयामविष्कम्भेणं, कियता परिक्षेपेण, कियता उद्वेधेन, कियता उर्ध्वमुञ्चत्वेन, कियता सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः १ गौतम ! जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडशं च - सहस्राणि द्वे च सतविंशतियो ननसते त्रयः क्रोशाः अष्टाविंशतिश्च धनु शतानि त्रयोदशाङ्गु Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ अम्बूद्वीपतिः मानि अ‘गुलं च किश्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, एकं योजनसहस्रम् उद्वेधेन नवन वति योजनसहस्राणि सातिरेकाणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, सातिरेकं योजनशतसहस्रं सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः। जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः किं शाश्वतः आशाश्वतःगौतम ! स्यात् शाश्वतः स्यादशाश्वतः, तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते स्यात् शाश्वतः स्यादशाश्वतः ? गौतम ! द्रव्यार्थतया शाश्वतः वर्णपर्यायः गन्धायैः रसपर्यायैः स्पर्शपर्याय रशाश्वतः तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते स्यात् शाश्वतः स्यादशाश्वतः। जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीप: कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! न कदापि नासीत्, न कदापि नास्ति, न कदापि न भविष्यति, अभूच्च भवति च, भविष्यसि च, ध्रुवो नियतः शाश्वतोऽव्ययोऽवस्थितः नित्यो जम्बूद्वीपो द्वीपः प्रज्ञप्त इति । जम्बूद्वीप: खलु भदन्त ! द्वीपः किं पृथिवी परिणामः अप्परिणामो जीवपरिणामः पुद्गलपरिणामः ? मौतम ! पृथिवी परिणामोऽपि अप्परिणामोऽपि जीवपरिणामोऽपि । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! की सर्वे प्राणाः, सर्वे जीवाः, सर्वभूताः, सर्वे सरथाः, पृथिवीकायिकतया, अप्कायिकतया, तेजस्कायिकतया, वायुकायिकतया, वनस्पतिकायिकतया उत्पन्नपूर्वाः ? हन्त गौतम ! अस. कृद् अथवाऽनन्तकृत्वः ॥ सू० ३३॥ टीका-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीप:-सर्वद्वीपमध्यवर्ती जम्बद्वीपनामको द्वीपः 'काइयं आयामविक्खंभेणं' फियदायामविष्कम्भेण-कियत्प्रमाणक देय॑विस्तराभ्यां प्रज्ञप्त इत्यग्रिम क्रिययाऽन्वयः 'केवइयं परिक्खयेणं' कियता परिक्षेपेण कियप्रमाणकेन परिधिना इत्यर्थः 'केवइयं उव्वे हेणं' कियता-कियत्प्रमाणकेन उद्वेधेनोण्डत्वेन, 'केवइयं उद्धं उच्चत्तेण' कियता-कियत्प्रमाणकेन ऊर्ध्वम्-उच्चस्त्वेन 'केवइयं सव्वग्गेणं पत्रसे' कियता-कियत्प्रमाणकेन सर्वाग्रेण-सर्वसंख्यया प्रज्ञप्तः-कथितः, यद्यपि आयाम 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं आयामविक्खंभेणं' इत्यादि। टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नाम का यह द्वीप 'केवइयं आयामविक्खंभेणं' Eआयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा कितना है-अर्थातू यह जंबूद्वीप नामका द्वीप कितना आयामवाला और कितना विष्कम्भवाला है 'केवइयं परिक्खेवेणं' तथा इसकी परिधि का प्रमाण कितना.है ? 'केवइयं उव्वेहेणं' उद्वेध का प्रमाण इसका कितना ? 'केवड्यं उद्धं उच्चत्तेणं' कितना इसकी ऊंचाई का प्रमाण है ? और 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइयं आयामविक्खंभेण' या साथ-प्रस्तुत सूत्र द्वारा श्री गौतमस्वामी प्रभु श्रीन मापूछ्युछे-'जंबुद्दीवेणं भंते ! 'दीवे मन्त! पूदी५ नमन। मादी५ 'केवइयं आयामविक्खंभेणं' मायाम तथा . વિષ્કમ્બની અપેક્ષાએ કેટલો છે–અર્થાત્ આ જમ્બુદ્વીપ નામને દ્વીપ કેટલાં આયામવાળ भने ४८ विमा छ ? 'केवइयं परिखेवणं' तथा मेनी परिधिनु प्रमाण हेतु 'केवइयं उबेहेणे' धिनु प्रभा ? 'केवइयं उद्धं उच्चत्तेणं' थे. यानु Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३३ जम्बूदीपस्यायामादिकनिरूपणम् ५३३ विष्कम्भपरिक्षेपाः पूर्वमुक्ता स्ततश्च पुनरत्र प्रश्नविषयीकरणं न सम्यक् तथापि उद्वेधादिक्षेत्र धर्मप्रश्नकरणप्रस्तावात् विस्मरणशीकविनेयजनस्मरणरूपोपकाराय पुनरपि प्रश्नकरणं न विरुद्धयते इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः 'एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेण' एकं योजनशतसहस्रं लक्षयोजनमित्यर्थः भायामविष्कम्भेण-दैयविस्ताराभ्यां लक्षक योजनप्रमाणको जम्बूद्वीप इत्यर्थः 'तिणि जोयण सयसहस्साई त्रीणि योजनशतसहस्राणि विलक्षयोजनमित्यर्थः 'सोलस य सहस्साई षोडश च सहपाणि 'दोणिय सत्तावीसे जोयण. सए' द्वे च सप्तविंशति योजनशते, सप्तविंशत्यधिके योजनशतद्वयमित्यर्थः 'तिण्णिय कोसे' त्रीन् क्रोशान् 'अट्ठावीसं च धणुसयं' अष्टाविंशतिं च धनुःशतानि, 'तेरस अंगुलाई त्रयोदशागुलानि 'अद्धगुलं' अर्द्धमङ्गुलम् 'किंचि विसे साहियं परिक्खेणं पनत्ते' किञ्चिद्विशेषा. 'केवइयं सव्वग्गेणं पन्नत्ते' आयामादि सब का प्रमाण मिलकर इसका पूर्ण प्रमाण कितना होता है ? यद्यपि आयाम लंबाई, विष्कम्भ-चोडाई और परिक्षेप परिधि इन सबका प्रमाण पहिले कह दिया गया है, अतः पुनः इस सम्बन्ध में प्रश्न करना उचित नहीं है, परन्तु फिर भी उद्वेधादि क्षेत्र धर्मसंबंधी प्रश्न करण के प्रस्ताव को लेकर विस्मरणशील शिष्य के लिये इन प्रश्नों का उत्तर स्मरण कराने के निमित्त पुनः प्रश्न कर उसका उत्तर समझना यह परमोपकारी गुरुजनों की दृष्टि में उपादेय ही है इसीलिये यहां ऐसा प्रश्न गौतमस्वामीने किया है -इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं' हे गौतम ! जम्बुद्धीप नाम का जो यह द्वीप है उसका आयाम और विष्कम्भ एक लाख योजन का है तथा 'तिष्णिजोयणंसयसहस्साई सोलस य सहस्साइं दोणिय सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोले अट्ठावीसं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' इसका परिक्षेप प्रभा यु छ ? भने 'केवइयं सव्वग्गेणं पन्नत्ते' मायामा मयानु प्रभाए भजीन मनु પૂર્ણપ્રમાણુ કેટલું હોય છે? કે આયામ-લંબાઈ વિષ્કમ્મુ–પહોળાઈ અને પરિક્ષેપપરિધિ આ બધાનું પ્રમાણ અગાઉ કહી દ્દેવામાં આવ્યું છે. આથી પુનઃ આ સમ્બન્ધમાં પ્રરન કર ઉચિત નથી પરંતુ આમ છતાં પણ ઉધાદિક્ષેત્ર ધર્મસંબંધી પ્રશનકરણના પ્રસ્તાવને લઈને વિસ્મરણશીલ શિષ્યને માટે આ પ્રશ્નના જવાબ યાદ કરાવવાના નિમિત્તે પુનઃ પ્રશન કરાવીને તેને જવાબ સમજાવ એ પરમપકારી ગુરૂજનેની દષ્ટિમાં એ ઉપાદેય જ છે એટલે જ અહીં શ્રી ગૌતમસ્વામીએ આ પ્રશ્ન કર્યો છે-આના જવાબમાં प्रभुश्री ४३ छ-'गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभे' हे गौतम ! જબૂદ્વીપ નામને જે આ દ્વીપ છે તેના આયામ તથા વિષ્કન્સ એક લાખ એજનનું છે तया "तिण्णिजोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्र धिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः-कथित इति, 'एगं जोयणसहस्सं उन्हेणं' एकं योजनसहस्रमुढेधेनोण्डत्वेन भवति जम्बूद्वीपः 'णवणवई जोयणसहस्साइं साइरेगाइं उद्धं उच्चत्तेणं' नवनवति योजनसहस्राणि सातिरेकांणि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन 'साइरेगं जोयणसयसहस्सं सम्यग्गेणं पनत्ते' सातिरेकं योजनशतसहस्रं किञ्चिदधिकं लक्षैकयोजनं सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः । यद्यपि उण्डखव्यवहारः सरित् समुद्रादौ दृश्यते उच्चतम्यवहारस्तु पर्वतादौ प्रसिद्धः तत्कथमत्र द्वीपे उण्डखो. चखयोः प्रदर्शनं कृतं तत्प्रदर्शनमत्रायुक्तमिव प्रतिभाति तथापि समतलभूतलादारभ्य रत्नप्रभायामधःसहस्रयोजनानि यावत् गमनेऽधोग्रामसलिलावतिविजयादिषु जम्बूद्वीपव्यवहारस्य समुपलभ्यमानत्वेन उद्वेधव्यवहारो द्वीपेऽपि न विरुध्यते एवं जम्बूद्वीपसमुत्पन्नानां ३ तीन लाख १६ हजार २ सौ २७ योजन ३ कोश २८ सौ धनुष १३ ॥ अंगुल से कुछ विशेषाधिक है तथा-'एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं' इसका उद्वेध-जमीन के भीतर में रहना-एक हजार योजन का है-अर्थात् यह जमीन के भीतर में एक हजार योजन तक गहरा गया हुआ है 'णवणवई जोयणसहस्साई साइरेगाई उद्धं उच्चत्ते णं' इसकी ऊंचाई कुछ अधिक ९९ हजार योजन की है, 'साइरेगाई जोयणसयसहस्सं सब्बग्गेणं पन्नत्ते' इस तरह इसका सर्वाग्र प्रमाण एक लाख योजन से कुछ अधिक है, यद्यपि उण्डत्व का व्यवहार-उद्वेध का व्यवहार-सरित् समुद्र आदि में देखा जाता है तथा उच्चत्व का व्यवहार पर्वतादि में प्रसिद्ध है तो फिर यहां द्वीप में उण्डत्व का और उच्चत्व का जो प्रदर्शन किया गया है वह अयुक्त जैसा प्रतीत होता है, परन्तु फिर भी समतल भूतल से लेकर रत्नप्रभा के नीचे एक हजार योजन तक जाने में अधोग्राम सलिलावतिविजयादि कों में जम्बूद्वीप का व्यवहार होता देखा जाता है इस कारण उद्वेध का व्यवहार य कोसे अट्ठावीसं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेगं पन्नत्ते' से। પરિક્ષેપ ૩ ત્રણ લાખ ૧૬ હજાર બસે ર૭ જન ૩ કેશ ૨૮૦૦ ધનુષ ૧૩ આંગળથી ४४ विशेषाधि छ तया-'एग जोयणसहस्सं उठ्धेहेणं' मेन वेध-भीननी मह२ २७ તે-એક હજાર એજનનું છે–અર્થાત તે જમીનની અંદર એક હજાર જન સુધી ઊઠે गये। छ ‘णवणवई जोयणसहस्साई साइरेगाई उद्धं उच्चत्तण' मेथी या ४ मEि ८८ om२ योनी छे. 'साइरेगाई जोयणसयसहस्सं सव्वग्गेणं पन्नत्ते' 0 रीते मेनु સર્વાગ્રપ્રમાણે એક લાખ એજનથી કંઈક અધિક છે, જોકે ઊંડાઈને વ્યવહાર–ઉધને વ્યવહાર–સરિત્ સમુદ્ર આદિમાં જોવા મળે છે તથા ઉચ્ચત્વ (ઊંચાઈ)ને વ્યવહાર પર્વ તાદિમાં પ્રસિદ્ધ છે. તે પછી અહીં દ્વીપમાં ઊડત્વ તથા ઉચ્ચત્વનું જે પ્રદર્શન કરવામાં આવ્યું છે તે અાગ્ય જેવું પ્રતીત થાય છે પરંતુ આમ છતાં પણ સમતલ ભૂતળથી લઈને રત્નપ્રભાની નીચે એક હજાર જન સુધી જઈએ તે અધોગ્રામ સલિલાવતિ વિજ્યાદિકમાં જમ્બુદ્વીપને વ્યવહાર થતે જોવામાં આવે છે આ કારણે ઊંડાઈને વ્યવહાર Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २३ जम्बूद्वीपस्यायामादिकनिरूपणम् ५३५ । तीर्थकराणां जम्बूद्वीपमेरोः पण्डकवनेऽभिषेकशिलायामभिषिच्यमानत्वात् जम्बूद्वीपव्यपदेश पूर्वकमभिषेकस्य जायमानत्वेन उच्चत्तव्यवहारोऽपि आगमप्रसिद्ध वादविरुद्ध एवेति ॥ सम्प्रति जम्बूद्वीपस्य शाश्वतभावादिकं ज्ञातुं प्रश्नयनाह-'जंबुद्दी वे गं' इत्यादि, 'जंबुदीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः सर्वद्वीपमध्यवर्तिद्वीपः, "किं सासए असासए' किं शाश्वतः-सर्वदाभावी अथवा अशाश्वतः न सर्वकालभावीति शाश्वताशाश्वत विषयकः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि. 'गोयमा' हे गौतम ! “सिय सासए सिय असापए' स्यात्-कथंचित् शाश्वत:-सर्वदाभावी. स्यात्-कचित् अशाश्वतो न सर्वदाभावी. केनचिद्रूपेण नित्यः केनचिद्रूपेणानित्य इत्यर्थः ननु शाश्वतखाशाश्वतत्वधर्मयोविरोधात् कथमेकत्राधिकरणे द्वयोः समावेश इति ज्ञातुं प्रश्नयनाह-'से केणटेणं' इत्यादि, ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासए सिय असासए' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते स्यात् शाश्वतः स्थादशाश्वत:, कथमेकत्रविरुद्ध धर्मयोः समावेश इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इस द्वीप में भी विरुद्ध नहीं पडता है इसी तरह जम्बूद्धीप समुत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक जम्बूद्वीपगत मेरु के पण्डकवन में अवस्थित अभिषेक शिला के ऊपर होता है इससे जम्बूद्वीप व्यपदेशपूर्वक अभिषेक होने के कारण इसमें उच्चत्व का व्यवहार भी आगमप्रसिद्ध होने से अविरुद्ध ही है। 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे किं सासए असासए' हे भदन्त !' जम्बूद्वीप नामका जो यह द्वीप है वह क्या शाश्वत है ? या अशाश्वत है ? सर्वकाल भावी है या सर्वकालभावी नहीं है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! सिय सासए सिय असासए' हे गौतम ! जम्बूद्वीप कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशा. श्वत है अर्थात् जम्बूद्वीप किसी अपेक्षा नित्य है और किसी अपेक्षा अनित्य है, हे भदन्त ! शाश्वत और अशाश्वत ये दोनों धर्म एक अधिकरण में परस्पर આ દ્વીપમાં પણ વિરૂદ્ધ પડતું નથી એવી જ રીતે જમ્બુદ્વીપ સમુત્પન તીર્થકરોને અભિષેક જમ્બુદ્વીપગત મેરૂના પડકવનમાં અવસ્થિત અભિષેક શિલાની ઉપર થાય છે આથી જમ્બુદ્વીપ વ્યપદેશપૂર્વક અભિષેક હેવાના કારણે એવામાં ઉચ્ચત્વને વ્યવહાર પણ આગમ પ્રસિદ્ધ હોવાથી અવિરૂદ્ધ જ છે. ___ 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे कि सासए असासए' महन्त ! स्मूदीप नामना २ ५ છે તે શું શાશ્વત છે? અથવા તે અશાશ્વત છે? સર્વકાલભાવી છે અથવા સર્વકાલભાવી नथी ? मान। उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ–'गोयमा! सिय सासए सिय असासए' 3 गौतम ! જમ્બુદ્વીપ કથંચિત્ શાશ્વત છે અને કથંચિત્ અશાશ્વત છે અર્થાત જમ્બુદ્વીપ કે ઈ અપેક્ષા નિત્ય છે જ્યારે કેઈ અપેક્ષા અનિત્ય છે. હે ભદન્ત ! શાશ્વત અને અશાશ્વત એ બંને ધર્મ એક અધિકરણમાં પરસ્પર વિરોધી હોવાના કારણે કઈ રીતે રહી શકે छ? ॥ प्रशनाममा प्रमुश्री हे छ-'गोयमा दबयाए सासए' गौतम से Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बुजीपप्रज्ञप्तिसूत्र इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम ! 'दव्वट्टयाए सासए' द्रव्यार्थतया शाश्वतः-द्रव्यरूपेण जम्बू. द्वीपः शाश्वतः-सर्वकालभावी, द्रव्यस्यान्वयित्वेन सर्वदाऽवस्थानसंभवात् 'वण्णपजवेहिं, मंधपज्ज वे हिं, रसपनवेहि, फासपज्ज वेहिं असासए' वर्णपर्यायः-नीलपीतादि वर्णपर्यायैः, गन्धपर्यायैः रसपर्यायैः स्पर्शपर्याय श्वाशाश्वतो जम्बूद्वीपः, ‘से तेण्डेणं गोयमा! एवं बुच्चइ सिय सासए सिय असासए' तत्तेनार्थेन एतस्मादेव कारणात् हे गौतम ! एवं-यथोक्तप्रकारेणो. च्यते, स्यात् शाश्वतः स्थादशाश्वतः यस्माद द्रव्यरूपेण जम्बूद्वीपोऽयं सर्वकालावस्थायितया शाश्वतः वर्णादिपर्यायमपेक्ष्य प्रतिक्षणम् पूर्वापूर्वपरिणामकतया किञ्चित्कालस्थायितया अशाश्वत इत्ययः। एवं च शाश्वताशाश्तो घटादिः सर्वथा विनश्वरस्वभावो दृश्यते तद्वद् विरोधी होने के कारण कैसे रह सकते हैं, तो इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा! दवट्टयाए सासए' हे गौतम ! एक अधिकरण में इन दोनों धर्मों का रहना किसी अपेक्षा से बनजाता है और वह अपेक्षा द्रव्याथिकनय और पर्या. पार्थिक नय को मुख्यगोण करके बन जाती है यही बात सूत्रकार ने 'दबट्टयाए सासए' इस सूत्र द्वारा प्रकट की है, जम्बूद्वीप को जो शाश्वत कहा गया है वह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा लेकर कहा गया है क्यों कि द्रव्यार्थिक नय पर्याय को गौण करके केवल द्रव्य को ही विषय करता है और प्रत्येक पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा नित्य होता कहा गया है द्रव्य का स्वभाव अपनी पर्यायों में अन्वयी होना है अतः अन्वयी होने से द्रव्य का सदा अवस्थान बना रहता है, तथा 'वण्णपज्जवेहिं, गंधपत्रवेहिं, रसपनवेहि, फासपज्जवेहिं असासए' जम्बूद्वीप वर्ण पर्यायों की अपेक्षा, रसर्यायों की अपेक्षा, और स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा प्रशाश्वत-सदा काल भावी नहीं है क्यों कि द्रव्याश्रित रूपादि पर्यायों में प्रति क्षण परिणमन होता रहता है 'से तेगटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सिय सासए અધિ કરવામાં આ બંને ધર્મોનું રહેવું કેઈ અપેક્ષાથી બની જાય છે અને આ અપેક્ષા દ્રવ્યાર્થિકનય અને પર્યાયાર્થિકનયને મુખ્ય ગૌણ કરીને બની જાય છે. આજ वात सूत्रधारे 'दबयाए सासए' ये सूत्र २॥ ५४८ ४२ छ सम्पूदीप२२ शाश्वत કહેવામાં આવ્યું છે તે દ્રવ્યાર્થિકનયની અપેક્ષા લઈને કહેવામાં આવ્યું છે કારણ કે દ્રવ્યાકિનય પર્યાયને ગૌણ કરીને માત્ર દ્રવ્યને જ વિષય બનાવે છે અને પ્રત્યેક પદાર્થ દ્રવ્યની અપેક્ષા નિત્ય હોવાનું કહેવામાં આવ્યું છે. દ્રવ્યને સ્વભાવ પિતાના પર્યામાં અન્વયી હોય છે આથી અન્વયી હોવાથી દ્રવ્યનું હમેશાં અવસ્થાન બનેલું २७ छ, 'वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासर' दी५ qgપર્યાની અપેક્ષા, ગંધ પર્યાની અપેક્ષા, રસપર્યાની અપેક્ષા અને સ્પર્શ પર્યાની અપેક્ષા અશાશ્વત–સદાકાલ-ભાવી નથી–કારણ કે દ્રયાશ્રિત રૂપાદિ પર્યામાં પ્રતિક્ષણે परिमन थतु १ २३ छ, 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ सिय सासए सिय प्रसासए' Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३३ जम्बूद्वीपस्यायामादिकनिरूपणम् ५३७ जम्बूद्वीपोऽपि सर्वथा विनश्वर स्वभावः स्यादित्याशङ्कायामाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दो वे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः सर्वद्वीपमध्यवर्ती जम्बूद्वीप: 'कालओ केवच्चिरं होई' कालतः कालापेक्षा कियच्चिरमवस्थितो भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ण कयावि णासी' न कदापि नासीत्-पूर्वकालेऽयंनासीत्, इति न किन्तु पूर्वकालेऽपि आसीदेव, यथा घटादिरागन्तुकः पदार्थः स्वोत्पत्तेः पूर्वमदृश्यमानः पूर्वनासीदिति कथ्यते, नैवं जम्बूद्वीपः कदाचिदपि नासीत् किन्तु यथा इदानी समुपलभ्यते तथा इतः पूर्वमपि उपलब्ध एवेति । 'णकयावि णस्थि' न कदापि नास्ति अपितु सर्वदापि अस्त्येव, अनादितया उत्पाद सिय असासए' इसी कारण हे गौतम ! मेंने ऐसा कहा है कि जम्बूद्वीप किसी रूप से शाश्वत है और किसी रूप से अशाश्वत है । क्यों कि वर्णादि पर्यायों में प्रतिक्षण अपूर्व २ परिणामरूप से परिणमन होता रहता है इसलिये किश्चित काल तक ही वह उसरूप में स्थायी रहता है बाद में अन्यरूप में परिणमित हो जाता है इसीलिये इसे अस्थायी कहा गया है, अब यदि कोई ऐसी आशंका यहां पर करे कि शाश्वत् रूपवाला घटादिक पदार्थ जिस प्रकार सर्वथा विनश्वर स्वभाववाला देखने में आता है तो उसी तरह जम्बूद्वीप भी सर्वथा विनश्वर स्वभाव वाला हो जायेगा तो इस आशंका की निवृत्ति के लिये सूत्रकार कहते हैं-'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे कालओ केवच्चिरं होइ' जब गौतमस्वामी ने ऐसा पूछा कि यह जम्वृद्धोपकाल की अपेक्षा कितने कल तक रहता है तो इसके समाधाननिमित्त प्रभुश्री ने ऐसा कहा है 'ण कयाविणासी' हे गौतम ! यह जम्बुद्धीप पूर्वकाल में कभी नहीं था- यह बात नहीं है किन्तु यह पूर्वकाल में भी था जिस प्रकार घटादि पदार्थ अपनी उत्पत्ति से पहिले अदृश्य होने के कारण नहीं था ऐसा माना जाता है ऐसा वह जम्बुद्रीप नहीं है किन्तु जैसा यह इस समय આ કારણે જ શ્રી ભગવાન કહે છે કે હે ગૌતમ! મેં એવું કહ્યું છે કે વર્ણાદિ પર્યાયમાં પ્રતિકાણ અપૂર્વ અપૂર્વ પરિણામરૂપથી પરિણમન થતું રહે છે આથી કેટલાંક કાળ સુધી તે તે રૂપમાં સ્થાયી રહે છે પાછળથી અન્યરૂપમાં પરિમિત થઈ જાય છે એથી તેને અસ્થાયી કહેવામાં આવેલ છે હવે જે કંઈ કદાચ એવી આશંકા અહીંયા કરે કે શાશ્વત અશાશ્વતરૂપવાળા ઘટાદિક પદાર્થ જે રીતે સર્વથા વિનશ્વર સ્વભાવવાળા જોવામાં આવે છે તે એવી જ રીતે જ બૂઢીપ પણ સર્વથા વિનશ્વર સ્વભાવવાળો થઈ જશે. આ શંકાની निवृत्ति पणे सू१४१२ ४९ छ-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे कालओ केवच्चिरं होई' न्यारे ગૌતમસ્વામીએ આ પ્રમાણે પૂછ્યું કે આ જમ્બુદ્વીપ કાળથી અપેક્ષા કેટલા કાળ સુધી २९ छे माना समाधान निमित्त प्रभुमा प्रमाणे घुछे ‘ण कयाविणासी' गौतम ! આ જમ્બુદ્વીપ પૂર્વકાળમાં ક્યારે પણ હવે નહીં એવી કઈ વાત નથી પરંતુ તે ज०६८ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ जम्बूद्वीपप्रतिरो योगादिति सर्वदा विद्यमानस्वभावक एव, 'ण कयावि ण भविस्सइ' न कदापि न भविष्यति अपितु सर्वदैव भविष्यत्येव, एवं प्रकारेण व्यतिरेकमुखेन जम्बूद्वीपस्य सार्वदिकास्तित्वं प्रतिपाद्यान्वयमुखेन सार्वदिकास्तित्वं प्रतिपादयितुमाह 'भुविच' इत्यादि, भुविंच भवइय' भविस्सइय' अभूच्च उत्पत्तेरभावेन विवक्षितकालात्पूर्वमपि अभूदेव, वर्तमानकालेऽपि भवत्येव-विद्यते एव, अनागतकालेऽपि भविष्यत्येव, विनाशाभावात्, अतएव 'धुवे' ध्रुवो जम्बूद्वीपः कूटवत् स्थिरः, अतएव ध्रुवः अतएव-"णियए' नियतः-सर्वदाऽवस्थायी म कदाचिदपि अनियतः 'सासए' शाश्वतः 'अव्वए' अव्ययः-कदाचिदपि व्ययो विनाशस्तद्रहितः अतएव 'अवहिए' अवस्थितः-एकरूपेण स्थितः, 'णिच्चे नित्यः द्रव्यरूपेण उत्पादविनाश रहित इत्यर्थः एतादृशो ध्रुवादि विशेषणयुक्तः 'जंबुद्दीवे दीवे पन्नत्ते' जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपमध्यवर्ती प्रज्ञप्तः-कथित इति । उपलब्ध होता है इसी तरह से इसके पहिले भी उपलब्ध हुआ है, 'ण कयावि णत्थि' यह किसी भी काल में नहीं था-ऐसी बात भी नहीं है, अपि तु यह सर्वदा विद्यमान रहता है क्योंकि यह अनादि है अतः इसमें उत्पादादि का अयोग है इसी कारण यह सर्वदा विद्यमान स्वभाव वाला ही कहा गया है, 'ण कयाधि ण भविस्सई' आगे भी यह किसी भी समय में नहीं रहेगा ऐसी बात भी नहीं है क्यों कि सर्वदा ही यह ऐसा ही रहेगा इस प्रकार से व्यतिरेक मुख द्वारा सदा काल में इस जम्बूद्वीप का अस्तित्व प्रतिपादन करके अब सूत्रकार अन्वयमुख द्वारा सदाकाल में इसके अस्तित्व का प्रतिपादन करने के लिये 'भुवि च, भवइ य भविस्सइ य' कहते हैं कि यह जम्बूद्वीप नामका द्वीप उत्पत्ति के अभाव के कारण भूतकाल में भी अस्तित्वविशिष्ट था वर्तमान काल में भी यह अब भी है और પૂર્વકાળે પણ હયાત હતે. જેવી રીતે ઘંટાદિ પદાર્થ પિતાની ઉત્પત્તિના પહેલા, અદશ્ય હેવાના કારણે હવે નહીં એવું માનવામાં આવે છે એ આ જમ્બુદ્વીપ નથી પરંતુ જે તે આ સમયે ઉપલબ્ધ થાય છે એજ પ્રમાણે તે આ અગાઉ પણ ઉપલબ્ધ થયેલ छ, 'ण कयावि णस्थि' मा ४ ॥णे तो नहीं मे नथी परंतु तमेश विधमान રહે છે. કારણ કે તે અનાદિ છે આથિ તેના ઉત્પાદાદિને અાગ છે અને આ કારણે જ ते सहा विधमान २१माणे ५ वामां माव्यो छ, 'ण कयाविण भविश्सई' ભવિષ્યકાળે પણ તે કોઈ પણ સમયે રહેશે નહીં એવી હકીક્ત પણ નથી કારણ કે સર્વદા જ આ એ જ રહેશે. આ પ્રકારથી વ્યતિરેક મુખ દ્વારા સદાકાળમાં આ જમ્બુદ્વીપના અસ્તિત્વનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર અન્વયે મુખ દ્વારા સદાકાળ એના मस्तित्वनु प्रतिपाइन २१॥ माटे 'भुविंच भवइ य भविस्सइ य' ४ छ । भारदीप નામને આ દ્વીપ ઉત્પત્તિના અભાવના કારણે ભૂતકાળમાં પણ અસ્તિત્વ વિશીષ્ટ હતું વર્તમાનકાળમાં પણ આ હજી પણ છે અને અનાગતકાળમાં એ રહેશે કારણ કે કઈ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः स्. ३३ जम्बूद्धोपस्यायामादिकनिरूपणम् सम्प्रति-किं परिणामोऽसौ जम्बूद्वीप इतिज्ञातुं प्रश्नयनाह-'जंबुद्दीवे गं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः सर्वद्वीपमध्यवर्ती द्वीप इत्यर्थः 'किं पुढवि परिणामे' किं पृथिवी परिणाम:-पृथिवीपिण्डमयः पृथिव्या विकाररूपः किम्, अथवा-'भाउपरिणामे' अप्परिणाम: जलपिण्डमयः जलस्य विकाररूपः किम्, एतादृशौ स्कन्धावचित्तरजः स्कन्धादिवद् अजीव परिणामौ अपि भवत इत्याशङ्कासाह-'जीव परिणामे' इति, किमयं जम्बूद्वीपः जीवपरिणामः जीवस्य परिणामो जीवमयः, घटादिवदनीवपरिणामोऽपि भवतीत्याशङ्ख्याह-'पोग्गलपरिणामे' किमयं पुद्गलपरिणामः केवलं पुद्गलपिण्डमय इत्यर्थः, तेजसस्तु एकान्तसुषमादौ अनुत्पन्नत्वेन एकान्तदुष्षमादौ विनश्वरशीलत्वेन अनागत काल में यह रहेगा क्यों कि किसी भी काल में इसका विनाश नहीं होता है अत एव यह 'धुवे' कूट की तरह ध्रुव-स्थिर है और ध्रुव होने के कारण ही यह 'णियए' नियत है-सर्वदा अवस्थायी है-कदाचित् भी यह अनियत नहीं है 'सासए' शाश्वत है 'अव्वए' अव्यय है विनाश से रहित है अतएव 'अवट्टिए' अवस्थिन है, एकरूप से विद्यमान है 'णिच्चे' द्रव्यरूप होने से इसमें उत्पादादि धर्मों का विरह है ऐसा ध्रुवादि विशेषणों वाला यह 'जंबुद्दीवे दीवे पन्नत्ते' जम्बुद्धीप नामका द्वीप कहा गया है, अब गौतमस्वामी पुनःप्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'जंबूद्दीवेणं भंते ! दीवे किं पुढवी परिणामे' हे भदन्त ! यह जम्बूद्वीप नोम का जो द्वीप है वह क्या पृथिवी का परिणामरूप है-पृथिवी का पिण्डमय है-पृथिवी का विकाररूप है ? अथवा-'आउ परिणामे' जल का परिणामरूप है ? जल का पिण्डमय है जलका विकार रूप है ? 'जीवपरिणामे' या जीव का परिणामरूप है ? जीवमय है ? 'पोग्गलपरिणामे' अथवा-पुद्गल का परिणामरूप है? पुद्गल का पिण्डरूप है ? यदि जम्बूद्वीप को तैजस का परिणाम माना जाय तो પણ કાળે એનો વિનાશ થતે નથી આથી તે “ધુ કૂટની જેમ ધ્રુવ-સ્થિર છે અને ધ્રુવ पाना २ थे 'णियए' नियत छ-सा अस्थायी छ-४ायित् ५५ त भनियत नथी. सासए' शाश्वत छे. 'अन्वए' अव्यय छे. विनाशयी हित छे. माथी 'अवदिए' अवस्थित छ. ४३५थी विद्यमान छे. 'णिच्चे' द्रव्य३५ पाथी सभा 64हा धर्माना वि२७ छे मारा ध्रुवाति विशेषयुवाणा 20 'जंबुद्दीवे दीवे पन्नत्ते' दी५ नामना दी५ अपामा माया छ. वे गौतमस्वामी पुन: प्रभुने मा प्रमाणे पूछे छ-'जंबूदीवेणं भंते ! दीवे पुढवी परिणामे' महन्त ! 20 दी५ नामनी रे दी५ ४ह्यो छे ते शुश्विना परिणाम३५ छे-पृथ्विना [५९भय छ-विना वि४२३५ छ ? अथवा 'आउ परिणामे' जना परिणाम३५ छ १०४ (१९७भय - वि.२३५ छ १ ‘जीव परिणामे' मया न परिणाम३५ छ ? भय छ ? 'पोग्गलपरिणामे' या पुसना परि@ામરૂપ છે? પુદ્ગલના પિડરૂપ છે? જમ્બુદ્વીપને તૈજસનું પરિણામ માનવામાં આવે Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे जम्बूद्वीपस्य तेजसः परिणामेऽङ्गीक्रियमाणे कादाचित्कत्वं प्रसज्येत, एवं वायोरतिचलत्वेन जम्बूद्वीपस्य वायुपरिणामत्वेऽङ्गीक्रियमाणे एतस्यापि चलत्वापत्तिरिति तयोः स्वत एव सन्देहाविषयत्वेन प्रश्नसूत्रे उपन्यासः कृत इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'वपरिणामे वि' पृथिवीपरिणामोऽपि, अयं जम्बूद्वीपः पर्वतादिमत्वात् पृथिव्याः परिणामरूपोऽपि भवति, तथा 'आउपरिणामे वि' अपूपरिणामोऽपि अयं जम्बूद्वीपो नदीहूदादिमत्वात् जलपरिणामरूपोपि स्वीक्रियते ' जीवपरिणामे वि' जीवपरिणामोऽपि, भयं जम्बूद्वीपो मुखवनादिषु वनस्पत्यादिमत्त्वात् जीवपरिणामोऽपि भवति, यद्यपि आईत - सिद्धान्ते पृथिव्यप्काय परिणामत्वग्रहणेनैव जोवपरिणामत्वं सिद्धम्, तथापि लोके पृथिवीजलयो जीवत्वस्याव्यवहारात् जीवपरिणामत्वस्य पृथग्ग्रहणं कृतम्, वनस्पत्यादीनां जीवस्वएकान्तमादि काल में तैजस के अनुत्पन्न होने से तथा एकान्त दुष्षमादि में उससे विनश्वरशीलता होने से उसमें कदाचित्कता का प्रसङ्ग प्राप्त होगा, इसी तरह वायु का परिणाम जम्बूद्वीप को मानने पर इसमें चलनत्वधर्म का प्रसङ्ग प्राप्त होगा अतः इन दोनों के जम्बूद्वीप में परिणाम होने के सन्देह की स्वतः अविषयता होने के कारण यहां प्रश्न सूत्र में इनका उपन्यास नहीं किया गया है। अब गौतमस्वामी ने जो इस प्रकार के ये प्रश्न किये हैं उनके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं - 'गोयमा ! पुढवी परिणामे वि, आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि' हे गौतम! यह जंबूद्वीप पर्वतादि कों से युक्त होने के कारण पृथिवी का परिणामरूप भी है तथा नदी, हूद आदि वाला होने के कारण जल का परिणामरूप भी है' जीव परिणामे वि' एवं मुखवनादिकों में वनस्पति आदि वाला होने से वह जम्बूद्वीप जीव परिणामरूप भी है । यद्यपि जैन सिद्धान्त में पृथिवी अष्काय के परिणामत्व के ग्रहण से ही जीव परिणामता जम्बूद्वीप में सिद्ध हो जाती है फिर भी लोक में पृथिवी एवं जल में जीवत्व का व्यवहार नहीं होता है इस તે એકાન્ત સુષમાદિકાળમાં તૈજસના અનુત્પન્ન હોવાથી તથા એકાન્ત દુષમાદિમાં તેમાં વિનશ્વરશીલતા હૈાવાથી તેમાં કદાચિત્કતાના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે આજ પ્રમાણે વાયુનું પરિણામ જમ્મૂદ્રીપને માનવાથી તેમાં ચલનવધર્મના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે આથી આ અનેના જમ્બુદ્વીપમાં પરિણામ હૈાવાના સન્દેહની સ્વતઃ અવિષયતા હૈાવાના કારણે અહીં પ્રશ્નસુત્રમાં તેમના ઉપન્યાસ કરવામાં આગૈા નથી, હવે ગૌતમસ્વામીએ જે પ્રકારના આ अनी उपस्थित यो छे तेना उत्तरमा पलुतेने ४ छे- 'गोयमा ! पुढवी परिणामे वि आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि' हे गौतम! आ म्यूद्वीप पर्वताहि अथी युक्त हवाना કારણે પૃથ્વિના પરિણામરૂપ પણ છે તથા-નદી,સરેાવર આદિવાળા હાવાથી પાણીના परिलाभ३५ पशु छे. 'जीवपरिणामें वि' भने भुजवनाहि मां वनस्पति यहिवाणो હાવાથી તે જમ્મૂર્રીપ જીવપરિણામરૂપ પણ છે. જોકે જૈન સિદ્ધાંતમાં પૃથ્વિ, અપ્કાયના પરિણામતના ગ્રહણુથી જ જીવપરિણામતા જમૂદ્રીપમાં સાત્રિત થઇ જાય છે તેમ છતાં Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. ३३ जम्बूद्वीपस्यायामादिकनिरूपणम ५४१ व्यवहारस्तु स्वसमयपर समय संमत इति । 'पोग्गल परिणामोवि' अयं जम्बूद्वीप : पुहलपरिणामोऽपि भवति, मूर्त्तत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति । अयं भावः- जम्बूद्वीपोहि स्कन्धरूपः पदार्थः सचावयवसमुदायरूप एव, अवयव सधुदायिनोऽवयवसमुदायरूपत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् नहि अवयवमन्तराऽवयवसमुदायरूपी अबयत्री संभवतीति - अतोऽवयवसमुदायरूपत्वात् अवयवीति ॥ अथ यदि जम्बूद्वीपो जीवपरिणामरूप स्तर्हि सर्वे जीवा जम्बूद्वीपे उत्पन्न पूर्वा अथवा न इत्याशङ्कायामाह - 'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दी वेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'सव्वे पाणा' सर्वे प्राणाः द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियाः 'सव्वे सत्ता' सर्वे सच्चाः पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकलक्षणाः, अनेन सांव्यावहारिकजीव राशि विषयएवायं प्रश्नः, अनादि निगोदनिर्गतानामेव प्राणजीवादिरूपविशेषपर्यायप्रतिपत्तेः, 'पुढ विकाइयत्ताए' पृथिवीकायिकतया पृथिवीकायिकजीव रूपेणेत्यर्थः ' आउका इयत्ताए ' कारण जीव परिणाम को पृथकरूप से यहां ग्रहण किया है वनस्पति आदि कों में जीवत्व व्यवहार तो स्वसमय में जैन मत में और पर समय-अन्यतीर्थिक मत में संमत है । 'पोग्गल परिणामो वि' यह जम्बूद्वीप इस में प्रत्यक्ष से मूर्तस्व की सिद्धि होने के कारण पुद्गल का परिणामरूप भी है ! तात्पर्य इस कथन का यह है कि जम्बूद्वीप स्कन्धरूप पदार्थ है और जो पदार्थ होता है वह अवयवों का समुदाय रूप ही होता है क्यों कि अवयव समुदायी में अवयव समुदायरूपता प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है । अवयव के बिना अवयव समुदायरूपी अवयवी होता नहीं है इसलिये अवयव समुदाय रूप होने के कारण यह जम्बुद्वीप एक अवयवी पदार्थ है 'जंबुद्दीवे णं भंते! सव्वे पाणा, सव्वे जीवा, सच्चे भूया, सव्वे सत्ता पुढवि काइयत्ताए तेउका इयत्ताए' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में પણ લાકમાં પૃથ્વિ અને જળમાં જીવત્વના વ્યવહાર થતા નથી એ કારણથી જીવપરિણા મને સ્વત ંત્ર રૂપથી અહીં ગ્રહણુ કરવામાં આવેલ છે. વનસ્પતિ આફ્રિકામાં જીવત્વ વ્યવહાર તે ત્રસમયમાં–જૈન મતમાં અને પરસમય-અન્યતીથિ ક મતમાં પણ સ ંમત छे. ‘पोग्गलपरिणामो वि' आ म्यूद्रीय सभां प्रत्यक्षथी भूर्तत्वनी सिद्धि होवाना असले પુગલના પરિણામરૂપ પણ છે. આ કથનનુ તાત્પ એ છે કે જમ્બુદ્વીપ સ્કન્ધરૂપ પદા છે અને જે પદાર્થ હાય છે તે અવયવાના સમુદાયરૂપ જ હાય છે કારણ કે અવયવ સમુદાયીમાં અવયવ સમુદાય રૂપતા પ્રત્યક્ષથી જ સિદ્ધ છે. અવયવ વગર અવયવ સમુદાયરૂપી અવયવી હાઇ શકે નહીં આથી અવયવ સમુદાયરૂપ હાવાનાં કારણે આ જમ્મુદ્વીપ એક અવયવી પદાર્થ છે. 'जंबुद्दीवेणं भंते! सव्वे पाणा, सत्रे जीवा, सव्वे भूया, सव्वे सत्ता पुढविकाइयताए तेङकाइयत्ताए' डे लडन्त ! आ भस्मूदीय नामना द्वीपमां समस्त आयु-मेन्द्रिय, तेहन्द्रिय, Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्धीपप्राप्ति अकायिकतया जळता सम्पापन्नजीवरूपेणेत्यर्थः, 'तेउकाइयत्ताए' तेजस्कायिकतया 'वाउकाइयत्ताए' वायुकायिकतया 'वणस्सइकाइयत्ताए' वनस्पतिकायिकतया “उववण्णपुव्वा' उत्पश्नपूर्वाः पूर्वसमये उत्पन्नाः किम्, पृथिव्यादिकायिकतयेति प्रश्नः, भगवानाह-'हंत' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'असई अदुवा अणंत खुत्तो' असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः, हे गौतम ! यथैव प्रश्नसूत्रं तयैव सर्व प्रत्युच्चारणीयम् पृथिवीकायिकतया, अकायिकतया, तेजस्कायिकतया, वायुकायिकतया, वनस्पतिकायिकतया, उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण संसारस्य कर्मणश्चानादित्वात्, नतु पुनः सर्वे प्राणादयो जीवविशेषा युगपदुत्पन्नाः सकलजीवासमस्तप्राण-दीन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीव, समस्त जीव-पश्चेन्द्रिय जीव, समस्त भूत-वृक्ष, और समस्त सत्व-पृथिवी, अपू, तेज एवं वायुकायिक ये सब पृथिवीकायिक रूप से, तैजस्कायिकरूप से 'आरकाइयत्ताए' अकाधिकरूपसे 'तेऊकाइयत्ताए' तैजसकायिक रूप से, 'वउकाइयत्ताए' वायुकायिकरूप से, एवं 'घणस्सइकाइयत्ताए वनस्पतिकायिकरूप से 'उववण पुचा' पूर्व में उत्पन्न होचुके हैं क्या ? यह प्रश्न सांव्यावहारिक जीव राशिविषयक ही है क्यों कि अनादिनिगोद से निर्गत जीव ही प्राण जीव आदिरूप विषय पर्याय को प्राप्त करते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो' हां, गौतम ! ऐसा ही है ये समस्त प्राणादिक पूर्व में पृथिवी कायिक रूप से, अप्कायिकरूप से, तेजस्कायिकरूप से वायुकायिकरूप से एवं वनस्पतिकायिकरूप से कई चार अथवा अनन्तबार उत्पन्न होचुके हैं। क्यों कि संसार और कर्म अनादि हैं। ये सब जीव जो इस रूप से पूर्व में उत्पन्न हो चुके कहे गये हैं सो कालक्रम से ही पूर्व में उत्पन्न हो चुके कहे गये हैं युगपत् उत्पन्न हो चुके नहीं कहे गये हैं। यौरिन्द्रीय , समस्त ०१-५येन्द्रिय, समस्त भून-वृक्ष, भने समस्त Ar4પૃથ્વિ, પાણી, અગ્નિ અને વાયુકાયિક આ બધાં પૃધ્ધિકાધિકરૂપથી, તેજસકાયિકરૂપથી 'आउकाइयत्ताए' अ५॥यि४३५थी 'तेऊकाइयत्ताए' ते४४५४३५थी 'बाउकाइयत्ताए' वायु४यि४३५थी भने 'वणस्सइकाइयत्ताए' वनस्पतिथि४३५थी 'उववण्णपुव्वा' पूर्व उत्पन्न २७ ચૂક્યાં છે શું? આ પ્રશ્ન સાંવ્યાવહારિક જીવ રાશિ વિષયક જ છે કારણ કે અનાદિ નિગોદથી નિર્ગત જીવ જ પ્રાણજીવ આદિરૂપ વિશેષ પર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४ छ-'हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो' ७, गौतम ! से छे. આ સમસ્ત પ્રાણદિક પૂર્વે પૃથ્વિકાયિક રૂપે અને વનસ્પતિકાયિક રૂપે, અપૂકાયિકરૂપે, તૈજસ્કાયિકરૂપે, વાયુકાયિકરૂપે અને વનસ્પતિકાયિકરૂપે કેટલીવાર અથવા અનન્તવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે કારણ કે સંસાર અને કર્મ અનાદિ છે આ બધાં છવ જે આ રૂપે પૂર્વે ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયાનું કહેવામાં આવ્યું છે તે તે કાળક્રમથી જ પૂર્વે ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યા કહેવામાં આવ્યા છે યુગપત્ ઉત્પન્ન થયા હોવાનું કહેવામાં આવ્યું નથી કારણ કે Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३४ जम्बूद्वीपतिनामकरणकारणनिरूपणम् ५४३ नामेककालं जम्बूद्वीपे पृथिव्यादि भावनोत्पादे सकलदेवनारकादि भेदाभावप्रसक्तेः, न चैवमस्ति तथा जगत्स्वभावादिति। ते जीवाः पृथिव्यादि भावेन कियतो वारानुत्पन्ना स्तत्राहअप्तकृदित्यादि, तत्र असदित्यस्य अनेकश इत्यर्थः अथवा अनन्तकृतः अनन्तवारान् संसारस्यानादित्वादिति ॥ सू० ३३॥ __ सम्प्रति-जम्बूद्वीपेति नाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्तं ज्ञातुं प्रश्नयन्नाह-'से केणटेणं' इत्यादि, मूळम्-' से केपट्रेणं भंते! एवं बुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे? गायमा! जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे जंबूरुक्खा जंबूवणा जंबूवणसंडा णिच्चं कुसुमिया जाव पिडिममंजरी वडेंसगधरा सिरीए अईव उसोभेमाणा चिटुंति जंबूए सुदंसणाए अणाढिए णामं देवे महड्डिए जाव पलियोवमट्टिईए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ 'जंबुद्दीवे दीवे इति । तएणं समणं भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए मणिभद्दे चेइए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूर्ण देवाणं बहु देवीणं मझगए एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ जंबूदीवपण्णत्ति णामत्ति अजो अज्झयणे अटुं च हेडं च पसिणं च कारणं च वागरणं च भुजो भुजो उवदंसेइ, तिब्बेमि॥ सू० ३४॥ ___ छाया-तत्केनार्थेन भदन्त ! एवाच्यते जम्बूद्वीपा द्वीपः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे तत्र तत्र देशे तत्र तत्र बहवो जम्बूवृक्षाः, जम्बूवनानि जम्बूवनषण्डाः नित्यं कुसुमिता यावत् पिण्डिममञ्ज रावतंसकधराः श्रियाऽतीवोपशोभमाना स्तिष्ठन्ति, जम्बाः सुदर्शनाया अनाढये नामा देवो महर्दिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-जम्बूद्वीपो द्वीप इति । ततः खलु श्रमणो भगवान महावीरो मिथिला नगर्याम् मणिभद्रे चैत्ये बहूनां श्रमणानां बहीनां श्रमणीनां बहुना श्रावकाणां बहीनां श्राविका बहूनां देवानां बहीनां देवीनां मध्यगत एवमाख्याति एवं भापते, एवं क्यों कि सकल जीवों का एककाल में यदि जम्बूद्वीप में पृथिव्यादिरूप से उत्पाद माना जावे तो सकल देव नारक आदिकों के भेद का अभाव होनेका प्रसङ्ग प्राप्त होगा परन्तु ऐसा तो है नहीं क्यों कि जगत् का स्वभाव ही ऐसा है ॥३३॥ સકળજીનું એક કાળમાં જે જમ્બુદ્વીપમાં પૃથિવ્યાદિરૂપથી ઉત્પાદ માનવામાં આવે તે સકળ દેવ નારક આદિકેના ભેદને અભાવ થવાનો પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે પરંતુ આવું તે છે જ નહીં કારણ કે જગતને સ્વભાવ જ એ છે. ૩૩ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्पद्वीपप्रमसिलो प्रज्ञापयति, एवं प्ररूपयति जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिनामेति आर्यः। अध्ययनमर्थ च हेतुं च प्रश्नं च कारणं च व्याकरणं च भूयो भूय उपदर्शयतीति ब्रवीमि ॥ सू० ३४ ॥ टीका-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते जम्बूद्वीपो द्वीपः, हे भदन्त ! एतस्य द्वीपस्थ जम्बूद्वीप इतिनामकरणे को हेतु रितिप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवेणं दीवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वोपे 'तत्थर देसे' तत्र तत्र देशे 'तहि तहिं तत्र तत्र प्रदेशे 'बहवे' बहवोऽनेके 'जंबूरुक्खा' जम्बूवृक्षाः एतन्नामकवनस्पतिविशेषा एकैकरूपा विरलस्थितत्वात् 'जंबूषणा' बहूनि जम्बूदनानि जम्बूवृक्षा एव समूह मावेन स्थिता विद्यमाना अविरलस्थितस्वात्, एकजातीयवृक्षसमुदायोवनमिति, 'जंबूवणसंडा' जम्बूवनषण्डाः विजातीयवृक्षसंमिलिताः जम्बूवृक्षसमूहाः विभिन्न जातीय वृक्षसमुदायो वनषण्ड इति, तत्रापि जम्बूवृक्षाणामेव प्राधान्यम् इतर वृक्षाणां तु गौणत्वमेव अन्यथा इतरवृक्षाणां जम्बूद्वीपपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेऽसंगत्यमेव स्यादिति ते जम्बूवृक्षाः कीदृशास्तत्राह-'णिचं' इत्यादि, णिचं कुसुमिया' नित्यम्-सर्वकालं कुसुमिता: 'से केणढणं भंते ! एवं युच्चइ जघुद्दोवे दीवे' इत्यादि। टीकार्थ-इस सूत्रद्वारा गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है-'से केणटेणं भंते ! एवं पुच्चइ जंबुद्दीवे' हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि यह जंबुद्धीप नामका द्वीप है ? अर्थात् इस पर्वतविशेष का नाम जम्बूद्वीप ऐसा किस कारण से कहा गया है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीवे तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे जंघुरुक्खा ' हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीपमें उस उस देश में उस उस प्रदेश में अनेक जम्बुवृक्ष इस नामके बनस्पति विशेष, 'जम्बूषणा' अनेक जम्बूवृक्षों के पास पासमें रहे, हुए समूहरूप वन, एवं 'जंबू वण संडा' पिजातीय वृक्षसमूह से संमिलित जम्बूवृक्षोंके हैं,एक जातीयवाले वृक्षों का समुदाय जहां होना है उसका नाम वन है और विजातीय वृक्षोंसे संमिलित समुदाय जहां होता है उसका नाम वनषण्ड, है, ये सब जम्बूवृक्ष 'णिच्चं कुसु 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे' त्याह ४ाथ-सा सूत्र द्वारा गौतमस्वामी प्रभुने मा प्रमाणे पूछ्युठे-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे' हे सह-त ! मा५ मे ॥ ४॥२0 ४। छ। ३ मा - દ્વપ નામને દ્વીપ છે? અર્થાત્ આ પર્વત વિશેષનું નામ જંબૂઢીપ એવું કયા કારણે पामा मायुं ? मानवासमा प्रभु ४९ छे-'गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीये तत्थ २ देसे, सहिं २ बहवे जंबुरुक्खा' ७ गोतम! 240 दीप नामना द्वीप ते देशमा तेते પ્રદેશમાં અનેક જખૂક્ષ આ નામના વનસ્પતિ વિશેષ, “વવૃવળ” અનેક જબૂવૃક્ષોની पासे पासे २९। समू७३५ वन तथा 'जंबूवणसंडा' वितीय वृक्षसभूलथा समलित જમ્બવૃક્ષોના છે, એક જાતીવાળા વૃક્ષોને સમુદાય જ્યાં હોય છે તેનું નામ વન છે અને વિજાતીય વૃક્ષેથી સંમિલિત સમુદાય જ્યાં હોય છે તેનું નામ વનષડ છે, આ બધાં Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. ३४ जम्बूद्वीपतिनामकरणकारणनिरूपणम् ५५ पुष्पैः सर्वदैव शोभमानाः 'जाव पिंडिममंजरीवडेंसगधरा' याक्त् पिण्डिममञ्जर्यवतंसकधराः यावत्पदात् 'णिचं माइया गिच्चं लवइया णिच्चं थवइया जाव णिच्चं कुसुमिय माइय लवइय थवइय गुलइय गोच्छइयमलिय जुवलिय विणमिय सुविभत्त' एतेषां ग्रहणं भवति, उक्तवर्णक विशिष्टाः जम्बूवृक्षाः, 'सिरिए अईव २ उक्सोभेमाणा चिटुंति' श्रिया-शोभया वनलक्ष्म्या वा अतीव-अतिशयेन उपशोभमानाः फलपुष्पादिभिर्विलसन्तस्तिष्ठन्ति, इदं च सर्वदा कुसुमितत्वादिकं विशेषणं जम्बूवृक्षाणा मुत्तर कुरुक्षेत्रापेक्षया ज्ञादव्यम् अन्यथा जम्बूवृक्षाणामाषाढमासे एव पुष्पफलादिमत्वेन नित्यमिति विशेषणानां प्रत्यक्षबाधप्रसंगात् एतावता जम्बूमिया' सर्वदा पुष्पों से भरे हुए रहते हैं क्यों कि यहाँ जम्बृवृक्षा की ही प्रधानता कही गई है दूसरे वृक्षों की नहीं उनकी तो गौणता ही जाननी चाहिये अन्यथा यदि अन्यवृक्षों के सद्भाव को लेकर इस द्वीप में जम्बूद्वीप पद की प्रवृत्ति का निमित्त माना जावे तो यह कथन असंगत ही हो जावेगा। 'जाव पिडिममंजरिघडे सगधरा सिरीए अईव• उचसोभेमाणा चिटुंति'यहां यावत्पद से "णिचं माझ्या, णिचं लवइया,णिच्चं थवइया, जाव णिच्चं कुसुमियमाइय लवह थवइय गुलइय गोच्छइय मलिय जुबलिय विणमिय सुविभत्त' इस पाठ का संग्रह हुआ है-इन सब पूर्वोक्त पदों का व्याख्यान हम पहिले वनखण्ड के वर्णन में कर चुके हैं। अतः घहीं से इसे देखलेना चाहिये इस वर्णन से विशिष्ट जम्बूवृक्ष शोभा से अथवा वनलक्ष्मी से अत्यन्त शोभित होते रहते हैं यहां जो सर्वदा कुसुमितत्वादिक विशेषण जम्बूवृक्षों के वर्णन में दिये गये हैं वे उत्तर कुरु क्षेत्र गत जम्बूवृक्षों की अपेक्षा से ही जानना चाहिये, क्यों कि इतरक्षेत्र गत जम्बूवृक्ष आषाढ मास में ही पुष्पफलादि वाले होते हैं अतः नित्य आदि विशेषणों में प्रत्यक्ष बाधा का यूवृक्ष 'णिच्चं कुसुमिया' सहा Youथी हायस रहेछ ४२६५ महीयानવૃક્ષની જ વિશેષતા કહેવામાં આવી છે-બીજાં વૃક્ષની નહીં તેમની તે ગૌણતા જ જાણવી અન્યથા જે બીજા વૃક્ષના સદુભાવને લઈને આ દ્વીપમાં જમ્બુદ્વીપતા પદની પ્રવૃત્તિનું निमित्त मानवामां आवे तो ॥ ४थन मसात सामित थी. 'जाव पिंडिम मंजरिवडे सगधरा सिरीए अईव २ उबसोभेमाणा चिटुंति' मही' य.१५४था ‘णिच्चं माइया, णिच्चं लवइया, णिच्चं थवइया, जाव णिच्चं कुसुमिय माइय लवड्य थवइय गुलइय गोच्छइय मलि यजुवलिय विणपिय सुविभत्त' 2 ना सब थये। छे. मा संघका पूर्वात पहान વ્યાખ્યાન અમે પ્રથમ વખણ્ડના વર્ણનમાં કરી ગયા છીએ આથી તેમાંથી જ આ બધું જોઈ લેવા ભલામણ છે. આ વર્ણકથી વિશિષ્ટ જબૂવૃક્ષ શેભાથી અથવા વનલહમીથી અત્યન્ત શોભિત થતાં રહે છે. અત્રે જે સર્વદા કુસુમિતત્વાદિક વિશેષણ જમ્બુવના વર્ણનમાં આપવામાં આવ્યા છે. તેઓ ઉત્તરકુર ક્ષેત્રગત જંબૂવૃક્ષની અપેક્ષાથી સમજવું કેમકે ઈતર ક્ષેત્રગત જંબૂવૃક્ષ અષાઢમાસમાં જ પુષફળાદિવાળા હોય છે આથી નિત્ય म०६९ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्द्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वृक्षाधिको द्वीपो जम्बूद्वीप इति कथितं भवतीति । अथवा-'जंबूर मुदसणाए अणादिए. णामं देवे महडिए पलियोवमट्टिइए परिवसई' जम्बो सुदर्शनायामनाढयो नामा देवो महदिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति अत्र यावत्पदात् महाधतिको महायशो महाबलो इत्यादि, विशेषणानां प्रणं भवति, तत्र-महतो-अनेकप्रकारा ऋद्धिविद्यते यस्य स महद्धिकः, महती घुतिरामणवस्त्रादि कृता शोभाविद्यते यस्य स महाद्युतिका, तथा महादतिशायि यशः कीर्तिविते यस्य स महायशाः, तथा-महत्वलं शारीरिकं पराक्रमः पुरुषकारश्च यस्य स महाबलः, पल्योपप्रमाणा स्थिति:-आयुष्यं यस्य स पल्योपमस्थितिकः एतादृशो देवः परिवसति, से तेगडेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जंबुद्दी वे दीवे इति' तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-वाधिपत्यमादृतनामदेवाश्रयभूतया जम्योपलक्षितो प्रसग प्राप्त होजायगा इस तरह जम्बृवृक्षों की अधिकता वाला होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप ऐसा कहा गया है अथवा 'जंबूए सुदंसणाए अणाढिए णामं देवे महिड्डीए जाव पलिओवमहिए परिवसह, से तेणटेणं गोयमा ! एवं खुबह जंबुद्दीवे दीवे इति' सुदर्शना नाम के जम्बू के ऊपर अनाढय नाम का महर्दिक यावत् एक पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है यावत्पद से-'महा. पुतिको, महायशा, महाबलो' इसके इत्यादि विशेषणों का ग्रहण हुआ है अनेक प्रकार की ऋद्धि जिसके पास होती है उसका नाम महर्दिक है, आभरण वस्त्रादिकृत धुति-शोभा से जो युक्त होता है वह महाद्युतिक है, जिसका यश अति. शयित होता है वह महायशा है, यह अनाढय नाम का देव भी ऐसा ही है, इसी लिये इसे 'महाद्युतिक' आदि विशेषणों से अभिहित किया गया है, इसका शारीरिक पराक्रम और पुरुषकार बहुत चढा बढा होता है इसलिये इसे महाबलकहा है इस कारण इस अनाढ्य देव का आश्रयभूत होने से हे गौतम ! इस આદિ વિશેષમાં પ્રત્યક્ષ બાધાને પ્રસંગ આવી જશે. આ રીતે ખૂક્ષોની અધિક્તાવાળે હેવાના કારણે આ દ્વીપનું નામ જંબૂઢીપ એ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે भय41-'जंबूर सुदंसणाए अणाढिए णामं देवे महिड्ढीए जाव पलिओवनटिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे इति' सुशन नामना २५६ ५२ અનાર્થે નામને મહર્દિક યાવત્ એક પલ્યોપમની સ્થિતિવાળે દેવ રહે છે–ચાવતું ५४थी-'महाद्युतिको' महायशा महाबलो' मेना त्या विशेषणानु अ५ थथु छे. अने પ્રકારની અદ્ધિ જેની પાસે હોય છે તેનું નામ મહદ્ધિક છે, આભરણવસ્ત્રાદિકત યુતિશેભાથી જે ચુક્ત હોય છે તે મહાધતિક છે, જેને યશ અતિશયિત હોય છે તે મહાયશા છે, આ અનાઢય નામનો દેવ પણ આવો જ છે આથી તેને “મહાદ્યુતિક” આદિ વિશેષણથી અભિહિત કરવામાં આવે છે, તેનું શારીરિક પરાક્રમ તથા પુરૂષકારપૌરૂષત્વ-ઘણું ઉચ્ચ કક્ષાનું હોય છે એટલે એને મહાબલ કહ્યો છે આ કારણે આ અનાધ્ય દેવના આશ્રયભૂત હેવાથી હે ગૌતમ ! આ દ્વીપનું નામ જમ્બુદ્વીપ રહેવું પડયું Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३४ जम्बूद्वोपइतिनामकरणकारणनिरूपणम् ५४७ द्वीपो जम्बूद्वीप इति, तथा 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंबुद्दीवस्स सासए णामधेज्जे पन्नते अण्णकयाइ णासी ण कयाइ णस्थि, ण कयाइ ण भविस्तइ जाव णिच्चेत्ति' अथोत्तरं च खल गौतम ! जम्बूद्वीपस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम्, यद न कदापि नासीत् न कदापि न भवति न कदापि न भविष्यति किन्तु अभूत, भाति, भविष्यति च, ध्वो नियतोऽवस्थितोऽध्ययो नित्य इति, एतस्मादपि कारणादेतस्य जम्बूद्वीप इति नाम भवतीति । सम्प्रति प्रस्तुततीर्थद्वादशांगी रचयिता सुधर्मस्वामी स्वस्मिन् महत्वाभिमानं परिजिहीषु: प्रकृतप्रकरणस्य नामधेयपूर्वक मुपसंहारवाक्यमाह-'तएण' इत्यादि, 'तएणं से समणे भगवं महावीरे' शाश्वतत्वाशाश्वतत्वनामकत्वात् सद्रूपोऽयं जम्बूद्वीपरूपो भावः सत्पदार्थस्या पलायं न कुर्वन्ति यथावस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपकत्वात्तस्य, ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः तत्र श्रमण:-परित्यक्तवाद्याभ्यन्तराग्रणिः सकलपदार्थावबोधककेवलज्ञान सहितो महावीरो वर्द्धमानस्वामी, 'मिहिलाए णयरीए' मिथिलायां नगर्याम्, तत्र मध्यन्ते-विनाद्वीप का नाम जम्बूद्वीप ऐसा हुआ है 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंघुद्दीवस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' अथवा-हे गौतम ! जबूद्वीपका 'जंबूदीप' ऐसा नाम शाश्वत है, 'जण्ण कयाइ णासी ण कयाइ पत्थि कयाइ ण भविस्सह जाव णिच्चेत्ति' यह इसका नाम पहिले नहीं था ऐसा नहीं है पहिले भी इसका नाम यही था, अब भी इसका यही नाम है, और आगे भी इसका यही नाम रहेगा, क्यो कि यह द्वीप 'ध्रुव है, नियत है, अवस्थित है, अव्यय है और नित्य है। "तएणं से समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए माणिभद्देचेइए' भष प्रस्तुत तीर्थद्वादशाङ्गी रचयिता सुधर्मस्वामी अपने में महत्व का अभिमान छोडने की इच्छा वाले बने हुए प्रकृत प्रकरण का नामोल्लेख पूर्वक उपसंहार करते हैं-यहवृद्वीप शाश्वत और अशाश्वत धर्मोपेत होने से सत्पदार्थरूप है ज्ञानीजन सस्पदार्थका अपलाप नहीं करते हैं। क्यो कि यथावस्थित पदार्थ के स्वरूप छे. 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंबुद्दीवस सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' मा गौतम ! दीपनु पूदी५' मे नाम शाश्वत छ, 'जण्ण कयाइ णासी ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सइ जाव णिच्चेत्ति' २५॥ अनु नाम पता न तु ये नथी, पडेल ! એનું નામ આ જ હતું, આજે પણ તેનું એજ નામ છે અને ભવિષ્યમાં આજ નામ રહેશે, કારણ કે આ દ્વિીપ “ધ્રુવ છે, નિયત છે, અવસ્થિત છે, અવ્યય છે તેમજ નિત્ય છે. ___ 'तएणं से समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए माणिभद्दे चेइए' 6 प्रस्तुत તીર્થદ્વાદશાંગી રચયિતા સુધર્માસ્વામી પિતાનામાં મહત્વનું અભિમાન ત્યાગવાની ઈચ્છાવાળા બનેલાં પ્રકૃતિ પ્રકરણ નામોલ્લેખપૂર્વક ઉપસંહાર કરે છે આ જંબૂઢીપ શાશ્વત અને અશાશ્વત ધર્મોપેત હોવાથી સપદાર્થરૂપ છે જ્ઞાની જન સત્પદાર્થને અ૫લાપ કરતાં નથી કારણ કે યથાવસ્થિત પદાર્થના સ્વરૂપના નિરૂપક હોય છે. આથી શ્રમણુપરિત્યત બોહા Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધર્ટ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र श्यन्ते रागद्वेपादिकाः संसारण भावा यत्र सा मिथिला तस्यां नगर्याम् 'मणिभद्दे चेइए' मणिभद्रनामकचेत्ये-व्यन्त रायरने बहूणे समणाणं बहूणं समणीणं' बहूनाम्-अनेकेषां श्रमणानां तथा बहीन श्रमणीनाम् ‘बहूणं सायाणं बहूर्ण सावियाण' बहूनामनेकैषां श्रावकाणां सर्वज्ञवाक्यश्रोत गृहस्थानाम् बहीना मनेकासा श्राविकाणाम् 'बहूर्ण देवाणं बहूण देवीणं' बहूनामनेकेषां देवानां शक्रादीनां बहीनां देवीनां च 'मझगए' मध्यगतः एतेषांमध्ये समुपविष्टः नतु एकान्ते--एकस्य-एकव्यक्ति विशेषस्य पुरतः 'एव माइक्वइ' एवम्पूर्ववणितानुसारेणारख्याति प्रथमतो वाक्य (वाच्य) मात्र कथनेन एवं भासई' एवं भाषते विशेषवचनकथनतः ‘एवं पण्णवेई' एवं यथोक्तप्रकारेण प्रज्ञापयति व्यक्तपर्यायवनतः 'एवं परूवेइ' एवं प्ररूपयति हेतु दृष्टान्तप्रदर्शनद्वारेण । सम्प्रति-आख्येयस्य वस्तुतोऽभिधानमाह-'जंबुद्दी' इत्यादि, 'जंबुद्दीव एनत्तीणामत्ति अजो' हे आर्य ! सुधर्मस्वामिनः सम्बोधनं जम्बूस्वामिनं प्रति हे आर्य ! एतस्य शास्त्रस्य के निरूपक होते हैं। अतः श्रमण परित्यक्त बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह वाले-ऐसे सकल पदार्थावबोधक केवल ज्ञान सहित भगवान् महावीर ने संसार में परिभ्र. मण के कारणभूत रागद्वेषादिक विभाव भावों को नष्ट करने की साधनभूत होने से सार्थक नामवाली मिथिला नगरी में जहां मणिभद्र नामका व्यन्तरायतन था वहां 'बहणं समणाणं बहूर्ण समणीणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं, घहणं देवाणं, बहूणं देवीणं मज्झगए' अनेक श्रमणजनों के अनेक श्रमणियों के, अनेक श्रावकों के, अनेक श्राविकाओं के, अनेक देवों के एवं अनेक देवियों के बीच में बैठकर 'एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं पख्वेइ' इस पूर्वोक्त प्रकार से प्रतिपादन किया है जुदे २रूप में अच्छी तरह से समझाया हैं एवं हेतु दृष्टान्त आदि द्वारा अपने कथन का समर्थन किया है, 'जंबुद्दीव पण्णत्ती णामत्ति अज्जो' हे आर्य-'यह-जम्बू स्वामी के प्रति सुधर्मस्वामी का संबोधन वाक्य है' આભ્યન્તર પરિગ્રહવાળા-સકળ પદાર્થીવબે ધક કેવળજ્ઞાન સહિત ભગવાન મહાવીરે સંસા૨માં પરિભ્રમણના કારણભૂત રાગદ્વેષાદિક વિભાવ ભાવેનો નાશ કરવાના સાધનભૂત હોવાથી साथ नामवाणी मिथिलानगरीमा या मशिनद्र नामनु व्यतरायतन तु त्या 'बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाण, बहूणं सावियाणं, बहूणं देवाणं, बहूणं देवीणं मझगए' मन४ श्रमायुनानी, अने४ श्रमशुमानी, मने श्रापानी भने श्रावियानी भने हेवानी तथा भने विमान क्यमा मेसीने 'एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ एव परूवेइ' मा पूर्वात प्राथी उस छे-सामान्य ३५थी प्रतिपादन ४यु छ, વિશેષ રૂપથી પ્રતિપાદન કર્યું છે, ભિન્ન ભિન્ન સ્વરૂપે સારી પેઠે સમજાવ્યું છે અને હેતુ ४ष्टांत २पाता। ४५ननु समयन यु छ, 'जंबूद्दीवपण्णत्ती णामत्ति अज्जो' જબૂસ્વામીને ઉદ્દેશીને કરેલું સુધર્મવામીનું સાધન વાકય છે કે આ જમ્બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ३४ जम्बूद्वीपइतिनामकरणकारणनिरूपणम् ५४९ नाम जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिरिति, इत्थं तत् नामकं षष्ठोपाङ्गमित्यर्थः अथवा आरात्-सर्वपापाद दूरंयात इति आर्य:-श्रीवर्द्धमानस्वामी, अतएव सर्वसावद्यवर्जकत्वेन "सावधं रिर्थकं तुच्छाथं च न ब्रूयादिति वचनप्रामाण्येन महावीरस्वामिनो वचनस्य प्रामाण्यमावेदितमिति । 'अज्झयणे' अध्ययने-प्रकृत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिनामके सतन्त्राध्ययने नतु शस्त्रपरिज्ञावत् श्रुतस्कन्धाधन्तर्गते 'अटुं च' अर्थच प्रतिपाद्यं विषयम् 'हेउं च' हेतुंनिमित्तं च 'पसिणं' प्रश्नश्च 'कारणं च कारणञ्च 'वागरणं च' व्याकरणं-पदार्थप्रतिपादनं च 'भुज्जो भूजो' भूयो भूयः विस्मरणशीलश्रोतुरनुग्रहार्थं पुनः पुनरपि प्रकाशनेन, अथवा प्रतिवस्तुनामार्थादि प्रकाशनेन 'उवदंसेइ' उपदर्शयति। एतावता गुरुपारतन्त्र्यं कथितम् । तत्रार्थ: जम्बूद्वीपादिश्दानामन्वर्थः स यथा-'से केणटेणं मंते ! एवं वुच्चद जंबूद्दीवे दीवे ! गोयमा ! 'जंबुद्दीवेणं दीवे तत्थ कि यह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नामका शास्त्र है और यह छठा उपाङ्ग है, अथवा-आर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से है-जो सर्व पापों से दूर हो जाते हैं वे आर्य हैं ऐसे आर्यश्री वर्धमान स्वामी हैं अतएव-सर्वसावध के वर्जक होने के कारण 'सावद्यं निरर्थकं तुच्छार्थकं च न पात्) सावध, निरर्थक और तुच्छार्थक वचन नहीं बोलना चाहिये, इस वचन प्रामाण्य से महावीर स्वामी के वचन में प्रमाणता का कथन किया गया है उन्हें ने 'अज्झयणे अटुं च हेउं च पसिणं च कारणं च वागरणं च भुज्जो २ उवदं सेह त्तिबेमि' इस प्रकृत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नाम के स्वतन्त्र अध्ययन में,शस्त्र परिज्ञादि की तरह श्रुतस्कन्ध आदि के अन्तर्गत अध्ययन में नहीं,अर्थकोप्रतिपाद्यविषय को, हेतु को, हेतु निमित्त को, प्रश्न को, कारण को, व्याकरण कोपदार्थप्रतिपादन को, बार २ विस्मरण शील श्रीता के अनुग्रह के लिये पुनः पुनः प्रकाशन द्वारा अथवा प्रतिवस्तु के नामार्थ प्रकाशन द्वारा दिखलाया हैं, एतावता गुरु पारतन्ध कहा गया है, जम्बूद्रीप आदि पदों का जो अन्वर्थ है वह अर्थ है और वह इस प्रकार से यहां प्रकट किया गया है-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ નામનું શાસ્ત્ર છે અને આ છ ઉપાંગ છે, અથવા-આર્ય શબ્દની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે છેજેઓ સર્વ પાપથી મુક્ત થઈ જાય છે આથી-સર્વસાવધના વર્જક હોવાના કારણે સાવ निरर्थकं तुच्छार्थकं च न ब्रूयात्' सावध, नि२४, भने तु२४ वयन मे न ये, આ વચન પ્રામાણ્યથી મહાવીરનામીના વચનમાં પ્રમાણુતાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. तेसाश्रीस 'अज्झयणे अद्रं च हेव पसिणं च कारणं च वागरणं च भुज्जो२ उवदंसेइ त्ति નિ’ આ પ્રકૃતિ જમ્બુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ નામના સ્વતંત્ર અધ્યયનમાં, શસ્ત્રપરિજ્ઞાદિની જેમ શ્રતસ્કન્ધ આદિના અન્તર્ગત અધ્યયનમાં નહીં, અર્થને-પ્રતિપાદ્ય વિષયને-હેતુને, હેતનિમિતો, પ્રસનને, વ્યાકરણને-પદાર્થપ્રતિપાદનને, વારંવાર વિસ્મરણશીલ શ્રેતાના અનુગ્રહ માટે પુનઃ પુનઃ પ્રકાશન દ્વારા અથવા પ્રતિવસ્તુના નામાર્થ પ્રકાશન દ્વારા બતાવ્યું છે, 'एतावता गुरुपारतन्त्र्य' ४ामी आयु छ, यूदी५ आहि पहाना रे म Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तत्य देसे तहि तहिं बहवे जंबूरुक्खा जंबूवणा, जंबूवणसंडा णिच्चं कुसुमिया जाव पिंडिम मंजरी वडेंसमधरा सिरी ए अईव अईव उवसोभेमाणा चिटुंति, जंबूए य मुदंसणाए अणाढिए णामदेवे महड्डिए जाव पलियोवमटिइए परिवप्तइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चा जंबुद्दीवे' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते जम्बूद्वीपो दोप इति, गौतम ! जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे तत्र देशे तत्र तत्र बहवो जम्बूवृक्षाः, जम्बूधनानि जम्बूबनषण्डाः नित्यं कुसुमिता यावत् पिण्डिममञ्जरीवतंसकधराः श्रियाऽनीव प्रतीयोपशोभमानास्तिष्ठन्ति, जम्ब्बां च सुदर्शनायाम् अनाढयो नामदेवो महर्द्धिको यावत् पल्योपस्थितिकः प्रतिवसति तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते जम्बूद्वीपो द्वीप इतिच्छाया ॥ एवं प्रकारेण जम्बूद्वीपादिपदानामन्वर्थप्रतिपादन रूपोऽर्थः दृश्यते । तथा हेतु:-निमित्तं सोऽपि अस्मिन्नुपाङ्गे दृश्यते यथा-'पहूर्ण भंते ! चंदे जोइसिदे जोइसराया चंदवडेंसए विणणे चंदाए रायहाणीए सभाए मुहम्माए तुडिएणं सद्धि मझ्याहयणट्ट गीयवाइय जाव दिव्याई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिसए, गोयमा ! णो इणढे सम?' 'प्रभुः खलु भदन्त ! चन्द्रो ज्योतिष्केन्द्रो ज्योतिष्करानः चन्द्रावतंसके जंबुद्दीचे दोवे ? गोयमा ! जंतु दीवे णं दीवे तत्थ २ देसे तहिं २ यहवे जंबुरुक्खा, जंबूवणा, जंबूवणसंडा णिच्चं कुसुमिया जाव पिंडिम मंजरी वडेंसगधरा सिरीए अईवर उवसोभेलाणा चिटुंति; जंबूए य सुदंसणाए अणाढिए णामं देवे महडिए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं घुच्चइ जंबुदीवे' इस पाठ का अर्थ पीछे लिखा चुका है। इस तरह से जंबूढीपादिक पदों का अन्वर्थ प्रतिपादकरूप अर्थ इसमें प्रकट किया गया है निमित्त-हेतु-वह भी इस उपाज में दिखाया गया है-जैसे 'पत गंभंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडेसए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुडिएण सद्धि मया हय ण गीयवाइयजाव दिवाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहरित्तए० गोयमा ! णो इणटे सम?' इस पाठ का भी अर्थ पीछे लिखा जा चुका है, तथा यहां प्रतिपाद्य अर्थ के हेतु को प्रदत अथ छ ते आत मी ५४८ ४२वामा सार हे-‘से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जंबुद्दोवे दीवे ? गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीने तत्थ २ देसे तहिं २ वहवे जंबुरुक्खा , जंबूवणा, जंबूवगसंडा णिच्चं कुलुमिया जाव पिंडिम मंजरी वडेसगधरा सिरीए अईव २ उवसोभेमाणा चिटुंति, जंबूर य सुदंसणाए अणाढिए णाभं देवे महढिए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणट्रेण गोयमा ! एवं वुच्चइ जंबुद्दीवे' । ५.ने। अथ अन्यत्र समा गयेर छ. मावी રીતે જ બૂક પાતિક પદે ને અન્વર્ય પ્રતિપાદકરૂપ અર્થ આની અંદર પ્રકટ કરવામાં આવ્યું छ. निमित्त-तु-20 ५ २t Sinभा मतापामा भाव्यु छ रेभ-'पहू णं भंते ! चंदे जोइसिदे जोइसरोया चंबडे सर विमाणे चंदार रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धि मह याहय णट्ट गीयवाइय जाव दिव्वाइं भोगभोगाई मुंजमाणे विहरित्तए० गोयमा ! णो इणद्वे કે આ પાઠ અર્થ પણ અગાઉ લખવામાં આવી ગયેલ છે તથા અહીં પ્રતિપાવ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सु. ३४ जम्बूद्धी पइति नामकरण कारणनिरूपणम् ५५१ विमाने चन्द्राय राजधान्यां सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन सार्द्धं महताहत नृत्यगीतवादित याव दीव्यान् भोग भोगान् भुञ्जानो विहर्तुम्, गौतम ! नायमर्थः समर्थः इतिच्छाया, अत्र प्रतिपाद्यस्यार्थस्य - 'सेकेणद्वेणं जाव विहरित्तए, गोयमा ! चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवर चेइयखंभे व रामएस गोलबट्टसमुग्गएसु बहूइयो जिणसकाओ संनिक्खिताओ चिति ताओणं चंदस्स अन्नेसिं बहूणं देवाणय देवीणय अच्चणीयाओ जाव पज्जुवाणिज्जाओ, से तेणट्टेणं गोयमा ! णो पभू' इति, इदं च सूत्रं हेतुप्रदर्शनपरकम्, तथा प्रश्नः शिष्यपृष्टस्यार्थस्य प्रतिपादनरूपः यथा लोकेऽपि कथ्यते अनेन प्रश्नाः सम्यक् कथिता इति, अन्यथा- - सर्वथा सर्वपदार्थज्ञातु भगवत स्तीर्थङ्करस्य प्रष्टव्यार्थाभावेन कुतः प्रश्नसंभवः, तद्यथा - प्रश्नवाक्यम्- 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे के महालएणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ! किं संठिणं मंत्रे ! जंबुद्दीवे दीवे ! किमायारभावपयोडारेण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे पन्नते ? गोयमा ! अगं अबुद्दीवे सभ्वद्दीवसमुद्दाणं सव्वमंतरए सन्नखुड्डाए वट्टे तेलापूपसंठाण संठिए पुक्खरकणिया संठाणसंठिए वट्टे परिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं र्शन कराने वाला यह सूत्र पाठ है-'से केणद्वेणं जाब विहरितए, • गोयमा ! चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडें सए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवर इयखंभे बहरामएस गोलवहसमुग्गएसु बहइओ जिणस कहाओ संनिक्खिताओ चिति, ताओ णं चंदस्स अन्नेसिं यहणं देवाण य देवीण य अच्चणीयाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ, से तेणट्टेणं गोयमा ! णो पभू' तथा शिष्य द्वारा पृष्ट अर्थ का प्रतिपादनरूप प्रश्न भी यहाँ पर प्रकट किया गया है-जैसे लोक में भी कहा जाता है कि इसने प्रश्न अच्छी तरह से किये हैं वह प्रश्न पाठ इस प्रकार से है - 'कहिणं भंते ! जंबुद्दी वे दीवे ? के महालएणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? सिंठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? किमाचारभाव पडोयारेणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे पनन्ते ? गोयमा ! अयंणं जंबुद्दीवे सच्च दीव समुद्दाणं सव्कभंतरए सच्चखुड्डाए बट्टे तेलाप्यसंठाणसंठिए पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए सट्टे परिपुष्णचंद संठाणसंठिए मना हेतु अदर्शन विनार या सूत्र पाठ छे- 'से केणट्टेणं जाब विहन्तिए गोयमा ! चंदस्स जोइसिं दस्स जोइसरण्णो चंदवडें सए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए मानव चेयखंभे वइरामएस गोलबट्टसम्मुग्गएसु बहुइओ जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिति ताओणं चंदस्स अन्नेसि बहूणं देवाण य देवीण य अच्चणीयाओ जाब पज्जुपासणिज्जाओ से तेणट्टेणं गोयमा ! णो पभू' तथा शिष्य द्वारा पूछापेक्षा अर्थना प्रतिपादन३य प्रश्न पशु અહી પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે જેમકે લેાકમાં પણ કહેવામાં આવે છે કે આપણે પ્રશ્ન सारी रीते यछे अश्या या प्रकारे - 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दी वे ? के महालपणं भंते! अंबुद्वीवे दोवे ? किं संठिरणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? किमायारभाव पडोशरणं भंते ! जंबुद्दीवे पन्नसे १ गोयमा ! अयं णं जंमुद्दीवे सव्वदीवस मुहारं सव्वमंतर सन्ञखुडाए बटूटे तेलापूय Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जम्बूद्वीपप्रशप्तिस्त्र भायामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साइं सोलसय सहरसाइं दोणिय सत्तावीसे जोयणसर तिण्णिय कोसे अट्ठावीसं य धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते" ॥ (कुत्र खल भदन्त ! जम्बूद्वीपो द्वीपः, को महान् खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः, किं संस्थितः खलु भवन्त ! जम्बूद्वीपो द्वीपः, किमाकारभावप्रत्यवतारः खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपो द्वीपः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः सर्वक्षुद्रकः वृत्तः तैलापूपसंस्थानसंस्थितः वृत्तः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः घृत्तः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण त्रीणि पोडश च सहस्राणि द्वे च सप्तविंशत्यधिके योजनशते त्रयः कोशाः अष्टाविंशतिः धनुः शतानि त्रयोदशाङ्गुलानि अङ्गुिलं च किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्न इतिच्छाया ॥ तथाकारणमपवादो विशेषवचन मिति तच्च नवरं पदगभितसूत्रमेव वक्तव्यं यथा-'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे एरवयं णामं वासे पभत्ते ? गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं लवण सदस्स दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चथिमेण पञ्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं नंबुद्दीवे दीवे एरवए णामं वासेपनत्ते, खाणुबहु ले कंटकबहुले एवं जच्चेव वत्तव्वया भरहस्स सरचेव सव्वा निरवसेसा णेयव्वा स एगं जोयणसयसहस्सं आयामविखंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई सोलह य सहस्साई दोणिय सत्ताधी से जोयणसए तिणि य कोसे अट्ठावोसं य धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धं गुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' इस पाठ का अर्थ भी पीछे लिया जा चुका है तथा कारण-अपवाद-विशेषवचन-भी यहां कहा गया है-यह इस प्रकार से है-यह विशेषवचन नवरं पद से गर्भित हुआ है-'कहिणं भंते ! जवुद्दीवे णं दीवे एरवयं णाम वासे पण्णत्ते ? गोयमा! सिह रिस्स उत्तरेणं लवणसमुद्दस्त दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चस्थिम लवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं जंबुद्दीवे दीवे एरवए णामं वासे पण्णत्ते खाणु बहुले, कंटक बहले एवं जच्चेव वत्तव्यया भरहस्स सच्चेव सव्वा निरव संठाणसंठिए पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए रहे परिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणप्सयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं य धणुसयं तेरसअंगुलाई अद्धंगुलं च किचि विसेसा. हियं परिक्खेवेणं पन्नत्ते' २५! १४ अर्थ ५६५७ गयो छ तथा ॥२-५वाई -विशेषवयन-५५५ सही ४ामा मा०।-ते सा भुम छ-24। विशेषवयन 'नवरं' ५४थी शामित थ छे 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवेणं दीवे एरवयं णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं लाणसमुदस्स दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एवणं जंबुदीवे दीवे एरवए णमं वासे पण्णत्ते खाणु बहुले, कंटक बहुले एवं जच्चेव वत्तव्वया भरहस्स सच्चेव सव्वा निरवसेसा णेयव्वा सओववणा सणिक्खमणा, Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________