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________________ ४८६ sta लम्बानि - अवलम्बस्थानानि तेषु प्रालम्बानि लम्बायमानानि लक्षणैः प्रमाणेन च यथोचितेन युक्तानि रमणीयानि वालगण्डानि - चामराणि येषां ते तथा तादृशानाम, 'समखुरवालि घाणाणं' समखुरखालिधानानाम्, तत्र - समाः - परस्परसदृशाः खुः वालिघानं पुच्छं च येषां ते तथा तथाविधानाम्, 'समकिहियसिंग तिक्खग्ग संगयाणं' समलिखित शृंगतीक्ष्णाग्रसंगतानाम्, तत्र - समलिखितानि समानि - परस्परं सदृशानि लिखितानीत्र उत्कीर्णानिवेत्यर्थः तीक्ष्णाग्राणि संगतानि - यथोचित प्रमाणानि शृङ्गाणि येषां ते तथा तादृशानाम्, 'तणुमुहुम सुजाय णिद्धलोमच्छविधराणं' तनु सूक्ष्मसुजात स्निग्ध लोमच्छविधराणाम्, तत्र-तनु सूक्ष्माणि अतिशयेन सूक्ष्माणि सुजातानि - सुनिष्पन्नानि स्निग्धानि लोपानि केशास्तेषां छविशोभां धरन्ति ये ते तथा तेषाम्, 'उवचियमंसल विसाल पडिपुण्णकंधपएससुंदराणं' उपचित मांसल विशालपरिपूर्ण स्कन्धप्रदेश सुन्दराणाम्, तत्र उपचितः - पुत्रः अत एव मांसल : विशाल भारवहन समर्थत्वात् परिपूर्णोऽव्यङ्गत्वात् एतादृशो यः स्कन्धप्रदेशः तेन सुन्दराणां देववृषभाणाम्, 'वेरुलिय भिसंत कडक्ख सुनिरिक्खणाणं' वैडूर्य भासमानकटाक्षसुनिरीक्षयथोचित प्रमाण से ये युक्त होते हैं अत एव बडे ही रमणीय लगते हैं 'सम, खुरवालिघाणाणं' इनके खुर आपस में समानता लिये होते हैं तथा बालधीपुच्छ भी इनकी आपस में समान होती है 'समलि हियसिंगतिक्खग्ग संगयाणं' इनके श्रृङ्ग परस्पर में समान होने से ऐसे मालूम होते हैं कि मानों ये इनमें ही उकेरे हुए हैं तथा इन सीगों के जो अग्रभाग हैं वे बडे ही तीक्ष्ण हैं एवं जिस प्रमाण में सींग होना चाहिये वे उसी प्रमाण वाले हैं 'तणुसुम सुजायणिद्धलोमच्छविधराणं' तनुसूक्ष्म - अत्यन्त सूक्ष्म सुजात-जन्मदोषरहित एवं स्निग्ध ऐसे बालों की ये शोमा से युक्त होते हैं । ' उपचियमंसलविसालपडिपुण्णसंध पएस सुंदराणं' इनका स्कन्ध प्रदेश उपचित-पुष्ट होता है मांसल मांस से भरा हुआ होता है, इसलिने वह विशाल होता है- भार वहन करने में समर्थ होता है तथा परिपूर्ण - हीनाधिक नहीं होता है ऐसे स्कन्ध प्रदेश से ये देव रूप वृषभ 'समखुवालिघाणाणं' योसनी जरी पेठ जी साथै समानय धरावे छे 'समलिहियसिंगतिक्खा संगमाणं' सेभना शिंगडा परस्पर समान होवाथी सेवां भाय हे लो તેએ એમાં જ ઉગી નીકળ્યા ન હોય ! તથા આશી ગડાઓના જે અગ્ર ભાગ છે તે ઘણા જ અણુિવાળા છે અને જે પ્રમાણમાં શીગડાં હાવા જોઇએ તેજ પ્રમાણવાળા છે. 'तुणुमुहुस सुजाय णिद्धलोमच्छविघराणं' तनुसूक्ष्म-अत्यन्त सूक्ष्मसुत-भन्मदोष रहित अने स्निग्ध सेवा वाजश्री तेथे शोलाथी युक्त होय छे. 'उवचिय मंसलविसाल पडिपुण्णखंधपएससुंदराणं' भने। २४न्ध अहेश उपथित पुष्ट होय छे, भांसस - मांसथी भरे हाय છે આથી તે વિશાળ દ્વાય છે, ભારવહન કરવામાં સમ હોય છે તથા-પરિપૂર્ણ હીના मि होतो नयी भावा स्तन्पप्रदेशथी या देवइप वृषल सुन्दर होय छे. 'वेरुलियाभिस त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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