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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २९ चन्द्रसूर्याणां विमानवाहकदेवसंख्यानि० ४४३ याणं" तपनीय योत्रकसुयोजितानाम 'कामगमाणं' कामगमानाम, कामः स्वेच्छा तेन गमोगमनं येषां तथाविधानाम् 'पीइगमाणं' प्रीतिगमानाम्, प्रीतिः सुखं तजनकं गमनं येषां तथाविधानाम् 'मणोगमाणं' मनोगमानाम्-मनोवद् वेगशालिनामित्यर्थः, 'मणोरमाणं' मनोरमाणाम्-'मणोहराण' मनोहराणाम्, 'अमियगईणं' अमितगतीनाम् 'अमिय बळवीरियपुरिसक्कारपरकमाणं' अमितबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमाणाम्, 'तवणिज्जजीहाणं' इत्यारभ्य 'अमियबलवी रिय' इत्यन्तनवानामपि विशेषणानामर्थाः पूर्ववाहाप्रकरणत एव ज्ञातव्याः विस्तरभयानात्र पुनलिखिताः। 'महया गंभीर गुलुगुलाइतरवेणं' महता गंभीरगुलगुलायितरवेणशब्देन 'महुरेणं' मधुरेण-श्रोत्रप्रियेण 'मणहरेणं' मनोहरेण मनप्स आनन्दजनकेन 'पूरेता' पूरयन्ति 'अंबरं दिसाओय सोभयंता' अम्बरम्-आकाशम्, दिशा:- पूर्वादिकाश्च शोभयन्ति रत्नमय है, 'तवणिजजीहाणं' इनकी जिह्वा तपनीय सुवर्णमय है 'तवणिजतालुयाणं' इनका तालु तपनीय सुवर्णमय है 'कामगमाणं' ये अपनी इच्छा के अनुसार गमनक्रियारत हैं, 'पीइगमार्ण' इनका गमन सुख जनक है 'मणोगमाणं' मनकी गति के अनुसार इनका गमन बहुत वेगशाली है 'मणोरमाणं' ये सब के सब गजराज बडे मनोरम है 'अमियगईण' इनकी गति अमित है 'अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं' बल, वीर्य पुरुषकार और पराक्रम भी इनका अपार है 'तवणिज्जजीहाणं' इनकी तपनीय सुवर्ण के जैसी लाल जिहवा है, 'तवणिज जीहाणं' से लेकर 'अमियबलवीरिय.' यहां तक के नौ पदों का अर्थ हम पूर्व बाहा प्रकरण में लिख चुके हैं सो वहां से जानलेना चाहिये 'महया गंभीर गुलगुलाइत रवेणं' ये जो चिंघाड़ते हैं और उस चिंघाड से जो शब्द निकलता है वह बहुत ही गंभीर होता है तथा-गुलगुलायित होता 'महुरेण' मधुर होता है-कर्णेन्द्रिय के उद्वेग जनक नही होता है तथा 'मणहरेण' तपनीय सुवर्ष भय छ 'तवणिज्ज तालुयाण' अमना तunai dulhan सुवर्ष वा छ, 'तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाण' से तपनीय यात्रथी सुरत छ. 'कामगमाणे' तमा पोतानी ४२छानुसार मानयिारत छे, 'पीइगमाणं' मेमनु मन सुमरन 'मणोगमाणं' भननी गति अनुसार मनु गमन तु छे. 'मणोरमाणं' मया सरा घया मनोरम छ 'अमियगईणं' भनी गति मभित छ, 'अमियबलवीरिय पुरसक्कारपरक्कमाणं' मण, वय, ५३०४१२ मन पराभ ५४ अमना अपार छे. 'तवणिज्जजीहाणं' मेमनी तपासा साना २वी aa छे. 'तवणिज्ज जीहाणं' थी as 'अमियबलवीरीय' અહીં સુધીના નવ પદેને અર્થ અમે પૂર્વ બાહા પ્રકરણમાં લખી ચૂક્યા છીએ તે તેમાંથી ng a ये 'महया गंभीर गुलगुलाइतरवेण' ते २ विघाउ छ भने ािथी २००४ से छे ते घो। मी२ .य छ, तथा शुयायित अन्य छे. 'महुरेण' મધુર હોય છે. કન્દ્રિયને ઉદ્વેગ પહોંચાડનાર હેતે નથી તથા “મનને પણ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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