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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् १२१ प्रतिगच्छतः सूर्याविति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोममा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! "उद्धपि गच्छति, अहेवि गच्छति, तिरियंपि गच्छति' ऊर्ध्वमपि गच्छतोऽधोऽपि गच्छत स्तिर्यगपिं गच्छतः, ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्त्वं च योजनैकषष्टिभागलक्षणचतुर्विंशतिभागप्रमाणोत्सेधापेक्षया भवतीति ज्ञातव्यमिति । अत्र गमनं नाम क्रियाविशेषः, क्रिया च बहुसामयिकीत्वात् त्रिकाळ - संपाचा अतः भादिमध्यान्तविषयक प्रश्नमवतारयति - 'तं भंते' इत्यादि, 'तं भंते ! आई गच्छति मझे गच्छति पज्जवसाणे गच्छति' तत् क्षेत्र खलु भदन्त ! किमादौ गच्छतो यहांमध्ये गच्छतः किम्बा पर्यवसाने गच्छत इतिप्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आईपि गच्छेति मझेवि गच्छंति पज्जरसाणेवि गच्छति' आदावपि गच्छतो मध्येsपि गच्छतः पर्यवसानेऽपि गच्छतः, अर्थात् षष्टिमुहूर्त्त प्रमाणकस्य सूर्यमण्डल संक्रमणकालस्य आदावपि मध्येऽपि अन्तेऽपिच तौ सूर्यो गच्छत इति । 'तं भंते! किं सविसयं गच्छंति अविसयं गच्छति' अथ तद्भदन्त ! स्वविषयं स्वोचितं क्षेत्र गच्छतः अथवा 'गोयमा ! उद्धपि गच्छंति, अहे वि गच्छंति, तिरियं वि गच्छंति' हे गौतम! वे उर्ध्व क्षेत्र में भी गमन करते हैं अधः क्षेत्र में भी गमन करते हैं और तिर्यक क्षेत्र में भी गमन करते हैं। क्षेत्र में उर्ध्वता अवस्ता और तिर्यक्ता योजन के ६१ भागों में से २४ भाग प्रमाण उत्सेधकी अपेक्षा से होती है । गमन यह किया विशेष रूप है और क्रिया बहुत समय वाली होती है इसलिये वह त्रिका द संपाचा होती है. इस कारण गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है 'तं भंते! आई गच्छंति, मज्झे गच्छंति, पज्जवसाणे गच्छंति' हे भदन्त ! उस क्षेत्र पर वे सूर्य षष्टि मुहूर्त प्रमाण वाले सूर्य मंडल संक्रमण काल की आदि में चलते हैं या मध्य में चलते हैं ? या अन्त में चलते हैं ? इसके अन्तर में प्रभु कहते हैं है गौतम ! वे सूर्य उसकाल की आदि में भी उस क्षेत्र पर चलते हैं मध्य में भी वे उस क्षेत्र पर चलते हैं और अन्त में भी वे उस क्षेत्र पर चलते हैं ! 'तं भंते ! सिरियं बि गच्छंति' डे गौतम! तेथे उर्ध्व क्षेत्रमां पशुगमन रैछे, अधः क्षेत्रमां पशुगमन पुरै . છે અને તિય’ઇંગ ક્ષેત્રમાં પણ ગમન કરે છે. ક્ષેત્રમાં `તા, અધસ્તા અને તિયા ચેાજનના ६१ लागोभांथी २४ लोग प्रभाणु उत्सेधनी अपेक्षाये होय छे. 'गमन' मा डिया विशेष રૂપ છે અને ક્રિયા અધિક સમયવાળી થાય છે. એથી તે ત્રિકાલ સ’પાઘા હેાય છે. આ કાણુથી गीतभस्वाभीये प्रभुने मा लतने प्रश्न छे- 'तं भंते! आई गच्छंति, मज्झे गच्छति, पज्जवसाणे गच्छंति' हे महंत ! ते क्षेत्र पर ते सूर्ये षष्टि भुहूर्त प्रभाणुवाणा सूर्यभडण સક્રમણકાળના પ્રાર'ભમાં ચાલે છે. અથવા મધ્યમાં ચાલે છે ? અથવા અન્તમાં ચાલે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે હે ગૌતમ ! તે સૂર્યાં તે કાળના પ્રારંભમાં પણુ તે ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે મધ્ધમાં પશુ તે ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે અને અંતમાં પણ તે ક્ષેત્ર ઉપર ચાલે છે. ज० १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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