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________________ ५०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सपूर्वापरेण - पूर्वापर सङ्कलनेन षोडशदेवी सहस्राणि भवन्ति ज्योतिष्क देवराजस्य चन्द्रस्येति, ''सेतं तुडिए' तदेतत् चन्द्रदेवस्य तुटिकमन्तः पुरं कथितमिति त्रयोदशं द्वारम् ॥ १३ ॥ सम्प्रति - चतुर्दशं द्वारं दर्शयितुं प्रश्नयन्नाह - 'पहूणं भंते' इत्यादि, 'पहूणं भंते !' प्रभुःसमर्थः खलु भदन्त ! 'चंदे जोइसिंदे जोइसराया' चन्द्रो ज्योतिष्कदेवेन्द्रो ज्योतिष्कराजः 'चंदवडेंसर विमाणे' चन्द्रावतंस के विमाने एतनामके विमानविशेषे इत्यर्थः 'चंदाए रायहाणीए' चन्द्रायां चन्द्रनामिकायां राजधान्याम् ' सभाए सुदम्माए' सभायां सुधर्मा नामक परिषदि 'तुडिएण सद्धि' तुटिकेन सार्द्धम् तत्र तुटिकेन - अन्तः पुरेण सहेत्यर्थः 'महयाहयणहगीइवाइय जाव' महताहत नृत्यगीततन्त्री तळतालघनमृदङ्ग पटुप्रवादितरवेण यावत् यावत्पददानात् चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः सामानिकदेवादिभिः कर विकुर्वणा कर सके । 'एवामेव सपुत्रवावरेण सोलस देवीसहस्सा' इस तरह बार २ हजार देवियों की एक २ पट्टरानी अग्रमहिषी-स्वामीनी होती है इस कारण चारों पहरानियों की १६ हजार देवियां हो जाती हैं। और ये सब ज्योतिकराज चंद्र का 'सेत्तं तुडिए' अन्तः पुर का परिमाण कहा गया है। तेरहवां द्वारसमाप्त चौदहवें द्वार की वक्तव्यता 'पभू णं भंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडें सए विमाणे' हे भदन्त ! ज्योतिष केन्द्र ज्योतिष्क राज चन्द्र अपने चन्द्रावतंसक विमान में 'चंदाए राय'हाणीए सभाए सुहम्माए' चन्द्र नामकी राजधानी में सुधर्मा सभा में 'तुडिएणसद्धि' अन्तःपुर के साथ 'महवाहयणहगीय वाइय जाव' गीत नृत्य में बजते • हुए बाजों की ध्वनि पूर्वक दिव्य भोग भोगों को भोग सकता है विषय सेवन पुरीने विठुवा ४री शडे 'एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देवीसहस्सा' आ रीते यार-यार હજાર દેવીઓની એક-એક પટ્ટરાણી અગ્રમહિષી–સ્વામિની હાય છે આ કારણે ચારે પટ્ટ રાણીઓની ૧૬ હજાર દેવીએ થઇ જાય છે અને આ બધુ... જ્યાતિષ્કરાજ ચન્દ્રના 'सेत्तं तुडिए' अन्तःपुरनु परिमाणु उडेवामां भाव्यु छे. ૧૩ માદ્વાર સમાપ્ત ચૌદમ દ્વારની વક્તવ્યતા 'पभू णं भंते चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडे सर विमाणे' हे लहन्त ! ज्योतिष्डेन्द्र, ज्योतिष्यन्द्र घोताना चन्द्रावतंस 'विभानमा 'चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए' यन्द्र नामनी राज्धानीभां सुधर्भासलाभां 'तुडिएणसद्धि' अन्तःपुरनी साथै 'महया हयणट्टगीय बाइय जाव' गीत नृत्यभां वाणी रडेला वाली ध्वनिपूर्व' दिव्य लोगोने लोगवी श? विषय सेवन ४२री शडे हे ? उत्तरमा प्रभु हे छे - 'गोयमा ! णो इणट्टे समदें' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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