SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ जन्मदीपप्राप्तिसूत्रे अय चाष्टादशमुहूत्तप्रमाणः सर्वोत्कृष्टो दिवसः पूर्व संवत्सरस्य चग्मो दिवसः इति प्रति पादयितुमाह-से णिक्खममाणे सूरिए' अथ निष्क्रामन् सूर्यः यस्मिन् स्थाने स्थितः सर्वी स्कृष्टं दिवसं कृतवान् तस्मात् स्थानात् निष्क्रामन्-गच्छन् सूर्य इत्यर्थः 'णवं संवच्छरं अयमाणे' नवम्-नवीनं पूर्वसंवत्सरापेक्षया नवं द्वितीयं संवत्सरम्-वर्षपयमानः प्राप्नुवान् भाददान इत्यर्थः परमंसि अहोरत्तंसि' प्रथमे अहोरात्रे 'अभंतराणं तरं मंडलं' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलम् 'उक्सकमित्ता चारं चरइ' उपसक्रम्प संप्राप्य चार-गतिं चरति-करोतीति । सम्प्रति-रात्रिदिवसयो वृद्धिहासं दर्शयितुमाह-'जयाणं' इत्य दि, 'जया णं भंते ! सुरिए' यदा-यस्मिन् काले खलु भदन्त ! सूर्यः 'अतराणतरंमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य-संप्राप्य चारं गतिं चरति-करोति तयाणं के महालए दिवसे' तदा-तस्मिन् काले खलु किं महालयः-को महान् आलयो व्याप्यक्षेत्र वाला सर्वोत्कृष्ट दिन पूर्वसंवत्सर का चरम दिवस है-इस-बातको प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं-'से णिस्खममाणे सरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अन्भंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता-चारं चरई' जिस स्थान पर स्थित होकर सूर्य ने सर्वोत्कृष्ट दिन किया है उस स्थान से निकलता हुआ वह सूर्य-नवीन-पूर्वसंवत्सर की अपेक्षा-द्वितीय संवत्सर-वर्ष को प्राप्त होकर प्रथम अभ्यन्तर अहोरात्र में अभ्यन्तर मण्डल के अनन्तर द्वितीय मंडल पर आकर के गति करता है रात्रि दिवस का वृद्धि हास कथनइसमें गौतमस्तानी ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है -'जया णं भंते ! मूरिए' हे भदन्त ! जिस काल में सूर्य 'अभंतरराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' अभ्यन्तरमंडल के अनन्तर द्वितीय मण्डल पर पहुंचकर गति किया करता है'तयाणं के महालए दिवसे, के महालया राई भवई' तब उस समय-उस सूर्य છે. આમ જાણવું જોઈએ. આ અષ્ટાદશ મુહૂર્ત પ્રમાણવાળે સર્વોત્કૃષ્ટ દિવસ પૂર્વ સંવત્સરને ચરમ દિવસ છે. આ વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે_ 'से णिक्खममाणे सूरिए णवं संबच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अब्भतराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ' २ २५॥२ स्थित थधन सूय सलिष्ट ६१स मनाये। છે, તે સ્થાન પરથી ઉદિત થયેલે તે સૂર્ય નવીન-પૂર્વસંવત્સરની અપેક્ષાએ દ્વિતીય સંવત્સર વર્ષને પ્રાપ્ત થઈને પ્રથમ અહોરાત્રમાં અત્યંતર મંડળ પછી દ્વિતીય મંડળ પર આવીને ગતિ કરે છે. रात्रि-हिस-वृद्धि-डास यन माम गौतमस्वामी प्रभुने मतने प्रश्न छ–'जया णं भंते ! सूरिए महत ! २४.१मा सूर तराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ' २५७५२ पछी बितीयwan ५२ पचान गति १२ छ-'तयाणं के महालए दिवसे, के महालया रई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy