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________________ १०५ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. ७ तापक्षेत्रसंस्थितिनिरूपणम् पश्चानुपूा तापक्षेत्रपंस्थिति प्रष्टुम ह-जवाणं' इत्यादि, 'जयाणं भंते ! सूरिए' यदा खल भदन्त ! मयः 'सव्वधाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई' सर्वबाह्यमण्डलमुषसंक्रम्यसम्प्राप्य चारं गतिं चरति-करोति 'तयाणं किं संठिा तावविश्वत्तसंठिई एन्नत्ता' तदातस्मिन् झाले कि संस्थिता कीदृशी तापक्षेत्रस्य संस्थितिः संस्थान प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः, भगवानाह-'गो यमः' इत्यादि. 'गोयमा' हे गौतम ! 'उद्धी हकलंबुयापुप्फसंठाणसंठिया पन्नत्ता' ऊर्यमुखकलम्बुका पुष्पवदेव पुष्प संस्थानसंस्थिता प्रज्ञप्ता 'तं चेव सव्वं णेयध्वं' तदेव सर्वं नेतव्यम्, अयं भावः-सर्वाभ्यन्त मण्डलसंक्रमणकाले यादृशं तापक्षेत्रादेः संस्थान कथितम् अन्तः संकुचिता बहि विस्तृता अन्तवृत्ता बहिर्विपुला इत्यादिकं प्रकरणसमाप्तिपर्यन्तं तत् सर्वपत्रापि पश्चानुपूर्वीप्रकरण तम् ज्ञातव्यम्, बिस्तरभया दनुपयोगाश्च न तत्सर्वमत्र पुनख्यिते, विशेषजिघृक्षुभिः स्वयमेवोहनीयमिति । यदत्र पूर्वप्रकरणापेक्षया वैलक्षण्यं तद्द. ताप क्षेत्रकी संस्थिति के सम्बन्ध में पूछते हैं (जशाणं भंते ! सरिए सव्वबाहिरियं मंडलं उजसंकमित्ता चारं चरइ) हे भदन्न ! जब सूर्य सर्वबाद मंडलको प्राप्तकर अपनी गति करता है। तया णं किं संठिगा सावक्वित्तसंठिइ पन्नत्ता) तब-उस काल-तापक्षेत्र की संस्थिति कैसी कही गई है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोधमा ! उद्धीमुटकलंघुयापुप्फ संठोण संठिया पन्नत्ता) हे गौतम! उर्ध्वमुख किये गये कदम्ब पुष्प का आकार जैसा होता है उसी तरह का आकार तापक्षेत्र की संस्थिति का होता है। तात्पर्य इसका यही है कि सर्वाभ्यन्तर संडल में संक्रमण काल के जैसा लारक्षेत्रादि का संस्थान कहा गया है-अन्त: संकुचित और बाहर विस्तृत हादि प्रकरणको समाप्ति पर्यन्त वह सब यहां पर भी पश्चानुपूर्वी के अनुसार जानलेना चाहिये विस्तार होजाने के भय से तथा अनुपयोगी होने से वह सब यहां हम पुनः नहीं लिख रहे हैं। जानने की इच्छा वालों को वह प्रकरण वहीं से समझ लेना चाहिये उस पूर्व समितिका प्रश्न ४२-'जयाण ते ! सूरिए सव्वबाहिरिए मंडले उवसंकमित्ता चर चरइ' हे म..! ज्या सू 111307 पास ४ीने पोत गति ४२ छे. 'तया णं किं संउिशा ताबस्तिलटिई पन्नत्ता' ते म पनी स्थिति दी ४३मा सोना /Mi प्रमुछे-'गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुया पुप्फस ठाणसंठिया पन्नना' ३ गौतम ! येस ४६५ ५५५।२ प्रमाणे २४१२ लायछे, तो 15 २ प्रमाणे हे सर्वात्य तर મંડળમાં સંક ણ કા' . જે તા પક્ષે વશે નું સંસ: ન કહેવામાં આવેલું છે-અન્તઃ સંકુચિત અને બહારમાં વિસ્તૃત-ઇત્યાદિ પ્રકરણની સમાપ્તિ સુધી તે બધું અહીં પણ પનુપૂર્વે મુજબ વણી લેવું જોઈએ. વિસ્તાર ભયથી તેમજ અનુપયોગી હોવા બદલ તે બધું અહીં અમે ફરી લખતા નથી. જિજ્ઞાસુ લે કે આ પ્રકરણ વિશે ત્યાંથી જ જાણવા Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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