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________________ प्रकाधिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः रु. १० इन्द्रच्यवनान्तरीयव्यवस्थानिरूपणम् १४३ पण्मासान् उपपानेन विरहितम्, जघन्यत एकसमयं यावदिन्द्रोपपातेन तथोत्कर्षतः षण्मासान् यावत् उगपातेन विरहितं भवतीन्द्रस्थानम्, ततः परमवश्य मन्यस्येन्द्रस्य उत्पादादिति । सम्प्रति समयक्षेत्रबहिर्बति ज्योतिष्कदेवानां स्वरूपं प्रष्टुमाइ-बहियाणं' इत्यादि, 'बहियाणं मंते ! माणुस्मुत्तरस्स पव्ययस्स' बाहिः खलु (बहिस्ताद खलु) भदन्त ! मानुषो. त्तरस्य पर्वतस्य, मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिर्भागे इत्यर्थः 'जे चंदिम जाब तारारूवा तंवेव णेयवं' ये चन्द्र याव तारारूपास्त देव, ये चन्द्रसूर्य ग्रहनक्षत्र तारारूपा देवस्ते किमृध्वोपपत्रका:कल्पो. पपन्नाः विमानोपपनकाः चारोपपन्नकाः चारस्थितिका गतिरतिरकाः गतिसमापनकाः किमिति संपूर्ण प्रश्न शक्यस्य याव पदेन संग्रहः तथा, भगवानाह-हे गौतम ! नो ऊध्वोंपपनकाः नापि कल्पोपपन्न हाः, एनपर्यन्नं यावत्पदेन संगृह्य ते 'णाणत' नानात्वं पूर्वसूत्रापेक्षया एतत्, यत् 'विमाणोक्ण्ण मा' ते मानुषोत्तर पर्वतस्य वहि ये चन्द्रादयो ज्योतिष्कदेवास्ते नो ऊोपपन्नका न वा कल्योपपन्नकाः किन्तु विमानोपपत्रकाः 'णो चारोववण्णगा' नो चारोपपन्नकाः 'चारदिईया' चारस्थितिकाः गतिवर्जिता इत्यर्थः, अतएव 'णो गतिरइया' का स्थान इन्द्र के उत्पाद से कम से१ एक समय तक और अधिक से अधिक ६ माह तक रिक्त रहता है इसके बाद तो अवश्य ही अन्य इन्द्रका वहां उत्पाद हो ही जाता है। अब गौतम स्वामी समय क्षेत्र से बहिवेती ज्योतिष्क देवों के स्वरूप के सम्बन्ध में पूछने के लिये 'याहियाणं भंते ! माणुसुत्सरस्स पव्वयस्स जे चंदिम जाव तारारूवा तं चेव णेयत्व' प्रभु से ऐसा अपना अभिप्राय प्रकट कर रहे हैं कि-हे भदन्त ! मानुपांतर पर्वत से बाहिर जो चन्द्र सूर्य, ग्रह नक्षत्र एवं तारा है वे क्या उर्वोपपन्नक है ? या कल्पोपपन्नक है ? या विमानोपपन्नक हैं ? या चारोपपन्नक है ? या चारस्थितिक है ? या गतिरतिक हैं ? या गति समापन्नक है ? इसके उत्तर में प्रभु ने उन से कहा है कि हे गौतम ! ये मानुषोत्तर पर्वत के बाहिर के जो ज्योतिषी देव हैं वे न उर्बोपपन्नक हैं न कल्पोपपन्नक हैं किन्तु ઉત્પાદથી ઓછામાં ઓછું એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે ૬ માસ સુધી રિક્ત રહે છે. એના પછી તે ચેકસ બીજે ઇન્દ્ર ત્યાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. હવે ગૌતમસ્વામી સમય ક્ષેત્રમાંથી બહિર્વતી તિષ્ક દેના સ્વરૂપ સંબંધમાં प्रश्न ४२१। भाटे 'बाहियाणं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम जाव तारारूवा तं चेव णेयव्वं' प्रमुनी साम पोताना सव। मालप्राय ४८ ४. छे । त ! भानुषोत्तर પર્વતથી બહાર જે ચન્દ્ર, સૂર્ય ગ્રહ, નક્ષત્ર તેમજ તારાઓ છે, તેઓ શું ઉપપન્નક છે? અથવા કપનક છે? અથવા વિમાને પપનક છે? અથવા ચારોપપન્નક છે? અથવા ચાર સ્થિતિક છે! અથવા ગતિરતિક છે? અથવા ગતિ સમાપનક છે? એના જવાબમાં પ્રભુએ તેમને કહ્યું છે કે હે ગોતમ ! એઓ માનુષત્તર પર્વતની બહારના જે જતિષી દે છે તેઓ ઉપનિક નથી તથા કલ્પપપન્ન પણ નથી પરંતુ વિમાને ૫૫નક છે, એ ચારો Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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