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________________ १४४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मो गतिरतिकाः ‘णो गइसमावष्णगा' नो गतिसमापनकाः 'पकिट्ठगसंठाणसंठिपहि' पक्वे. प्टकासंस्थानसंस्थितैः 'जोयणसयसाहस्सिएहि' योजनशतसाहसिकः-लक्षयोजनप्रमाणैः 'तावखित्तेहि' तापक्षेत्रः, तान् प्रदेशान् अवमासयन्तीति क्रियासम्बन्धः, अत्र पकवेष्टकासंस्थानं यथा पकवेष्टका आयामतो लम्बायमाना विष्कम्भतः स्तोका चतुष्कोणा च भवति, तेनैव प्रकारेण तेषां मनुष्य क्षेत्रवत्तिनां चन्द्रसूर्याणां तापक्षेत्राणि आयामतोऽनेकयोजनलक्ष प्रमाणानि, विष्कम्भतो योजनशतसहस्रमाणानि भवन्ति, अयं भावः-मानुषोत्तरपर्वतात् योन नलक्षस्या तिक्रमे सति प्रथा चन्द्रसूर्यपाक्ति स्तदनन्तरं योजनलक्षातिक्रमे द्वितीयापछक्तिः, विमानोपपन्नक हैं चारेपपन्नक भी ये नहीं है किन्तु चारस्थितिक हैं गतिवर्जित है, अत एव ये गतिरतिक भी नहीं हैं और न गतिसमापन्नक भी है। तात्पर्य यही है कि अढाई द्वीप के ही ज्योतिषी देव गतिरतिक गतिसमापन्नक और चारोपपन्नक कहे गये हैं-ढाई द्वीप से बाहर के ज्योतिषी देव गतिवजित कहे गये हैं। 'पकिटगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खित्तेहिं सयसाहस्सियाहिं वे उब्वियाहि वाहिराहि परिसाहिं महयाहयण? जाव भुंजमाणा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदानवलेस्सा चित्तंतरालेस्सा' ये ज्योतिषी देव पक्व ईट के जैसे संस्थान वाले ऐसे एक लाख योजन प्रमित ताप क्षेत्र को अवभासित करते है पकी हुई ईट का संस्थान आयाम की अपेक्षा लम्बा होता है और विष्कम्भ की अपेक्षा स्तोक-कम-होता है एवं चार कोनों वाला होता हैं इसी प्रकार से मनुष्य क्षेत्रवती चन्द्र सूर्यो के ताप क्षेत्र आयाम की अपेक्षा अनेक योजन लक्ष प्रमाण लम्बे होते हैं और विष्कम्भ की अपेक्षा वे एक लाख योजन के प्रमाण वाले होते हैं तात्पर्य यह है कि-मानुषोत्तर पर्वत से आधे लाख योजन પપનક પણ નથી પરંતુ ચાસ્થિતિક છે, ગતિવર્જીત છે એથી એ ગતિતિક પણ નથી અને ગતિસમાપનક પણ નથી. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અઢઈ દ્વીપના જ તિષી દેવ ગતિરતિક, ગતિસમાપનક અને ચારેપ પન્નક કહેવામાં આવેલા છે. અઢાઈ औपनी महान ज्योतिषी हे। गतिवलित वामां आवे छे. 'पकिदुगसंठाणसंठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खित्तेहिं सयसाहस्सियाहिं वेउब्वियाहि बाहिराहिं परिसाहि महया यणढ जाव भुंजमाणा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदातवलेस्सा चित्तंतरलेस्सा' से ज्यो તિષ્ક દેવો પક્વ ઇંટ જેવા સંસ્થાનવાળા, એવા એક લાખ જન પ્રમિત તાપેક્ષેત્ર ને અવભાસિત કરે છે. પફવ ઈટનું સંસ્થાન આયામની અપેક્ષાએ સ્નેક-કમ-હોય છે, તેમજ ચતુકેણુ યુક્ત હોય છે. આ પ્રમ ણે મનુષ્ય ક્ષેત્રવતી ચન્દ્ર સૂર્યના તાપક્ષેત્ર આયામની અપેક્ષાએ અનેક જન લક્ષ પ્રમાણુ દીર્ઘ હોય છે અને વિષ્કભની અપેક્ષાએ તેઓ એક લાખ જન જેટલા પ્રમાણવાળા હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે માનુષોત્તર પર્વતથી અર્ધા લાખ જન પછી પ્રથમ ચન્દ્ર, સૂર્ય, પંક્તિ છે. ત્યાર પછી એક એજન Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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