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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १० इन्द्रच्यवनानन्तरीयव्यवस्थानिरूपणम् १५५ तेन प्रथमपक्तिस्थितचन्द्रपुर्यमण्डलानामेतावान् तापक्षेत्रस्यायामो विस्तारश्च भवति, एकस्मात् सूर्यादपरः सूर्यों लक्षयोजनस्यातिकमे भवति तेन लक्षयोजनप्रमाणउक्त इति । _ 'सयसाहस्सियाहिं' शतसाहतिकाभिः-लक्षप्रमाणाभिः 'वेउब्वियाहि वैकुर्विवाभि:वैक्रियलन्ध्या संपादितामिः 'परिसा हिं' पर्षद्भिः 'महयाइयणट्ट जाव भुंजमाणा' महता हत नृत्यगगीतवादित्रतत्रीतलतालत्रुटितघनभृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः ते चन्द्रादयः 'मुहलेस्सा' सुखलेश्याः अत्र मुखलेश्येति.विशेषणं चन्द्रस्यैव योग्यत्वात् तेन नातिशीततेजसो मनुष्यलोकइत्र शीतकालादौ, एकान्ततः शीतरश्मयो नेत्यर्थः मन्दलेश्याः , एतच विशेषणं सूर्य प्रति, तेन नात्युष्णतेजसो मनुष्यलोकदव निदाघसमये। एतके बाद प्रथम चन्द्र सूर्य पङ्क्ति है इसके बाद एक योजन आगे जाने पर दूसरी चन्द्र सूर्य पंक्ति है इस कारण प्रथम पंक्ति में रहे हुए चन्द्र सूर्य मंडलों का इतना तापक्षेत्र का आयाम और विष्कम्भ होता है एक सूर्य से दूसरा सूर्य एक योजन के अतिक्रम करने पर आता है इस कारण एक लाख योजन का तापक्षेत्र का विष्कम्भ कहा गया है ये चन्द्रादिक एक लाख की संख्यावाले तथा विकृवित अनेक प्रकार के रूपों को धारण करने वाले ऐसे आभियोगिक कर्मकारी देवसमूहों के द्वारा बडे जोर जोर से ताडित किये गये नाटय गीत एवं वादित्र वादन कार्य में-त्रिविध सङ्गीत के समय में-तंत्री तल ताल, टित, घन,मृदंग इन सब बाजों की ध्वनि पूर्वक दिव्य भोगों को भोगते हैं। ये चन्द्रादिक सुखलेश्यावाले होते है'यहां 'सुखलेश्या' यह विशेषण योग्य होने से चन्द्र के ही लागू होता है इससे मनुष्यलोक की तरह ये शीतकाल आदि में आति शीत तेज वाले नहीं होते हैं अर्थात् एकान्त से शीतरश्मि वाले नहीं होते हैं। 'मंदलेश्या,' यह विशेषण પછી બીજી ચન્દ્ર સૂર્ય પંક્તિ છે. આ કારણથી પ્રથમ પંક્તિમાં રહેનારા ચન્દ્ર-સૂર્ય મંડળને આટલા તાપેક્ષેત્રો આયામ અને વિષ્કભ હોય છે. એક સૂર્યથી બીજો સૂર્ય એક એજનને અતિક્રમ કરવાથી આવે છે. આ કારણથી એક લાખ જન ત પક્ષેત્રને વિષ્ઠભ કહેવામાં આવે છે. એલાખ જેટલી સંખ્યાવાળા એ ચન્દ્રાદિક તેમજ વિકર્વિત અનેક પ્રકારના રૂપને ધારણ કરનારા એવા આભિયમિક કર્મકારી દેવ સમૂહ વડે ખૂબજ જોર-શોરથી તાડિત કરવામાં આવેલા નાય, ગીત તેમજ વારિત્રવાદન કાર્યમાં ત્રિવિધ સંગીતના સમયમાંતંત્રી, તલ, તાલ, ત્રુટિત, ઘન, મૃદંગ એ બધા વાઘોની વનિપૂર્વક દિવ્ય ભેગોને ભોગવે છે. मे यन्द्रह सुमवेश्यावा डाय छे. मी 'सुखलेश्य' मा विशेष योग्य वा महल ચન્દ્રોને જ એ લાગૂ પડે છે, એથી મનુષ્યલકની જેમ એઓ શીતકાય આદિમાં અતિશીત तपात नथी मर्यात होतथी शतभिqा हात नथी. 'मंदलेश्य' या विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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