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________________ १४२ जम्मूतीपप्रशसिसत्रे विरहकाछे किं प्रकुर्वन्ति इति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तहा चत्तारिपंच वा सामाणिमा देवा' सदा चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः तदा तस्मिन् इन्द्रच्यवनकाले चत्वारः-चतुः संख्यकाः पञ्च-पञ्चसंख्यका वा सामानिका देवाः, एकमत्येन मिलित्वा 'तं ठाणं उवसंवन्जित्ताणं विहरंति' तत्स्थानमुपसंपद्य खलु विहरन्ति, तस्य च्युते न्द्रस्य स्थानमुपसंपद्य अधिष्ठाय विरहन्ति तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, कियत्कालपर्यन्त मिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव तत्थ अण्णे इंदे उवाण्णे भवइ' यावत्तत्रान्य इन्द्र उपपन्नो भवति, यावत्कालपर्यन्तम् अन्योऽपर इन्द्रोऽधिष्ठायक उपपन्नः समुत्पन्नो भवतीति । सम्पति, इन्द्रविरहकालं प्रश्नयन्नाह-'इंदट्ठाणेणं' इत्यादि, 'इंदट्ठाणेणं भंते' इन्द्र. स्थानं खलु भदन्त ! केवइयं कालं उववाएणं विरहिए' कियन्तं कालं कियत्कालपर्यन्तम् उप पातेन-इन्द्रस्योत्पादेन विरहितं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं छम्माल उववाएणं विरहिए' जघन्येनैकं समय मुत्कर्षण होता है 'से कहमियाणिं पकरेंति' तब वे उस समय क्या करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं 'गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिया देवा ते ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरति' हे गौतम ! उस समय चार या पांच सामा. निकदेव एक संमति से मिलकर उस च्युत हुए इन्द्र के स्थानकी पूर्ति कर देते हैं। 'जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ' फिर वहां पर कोई दूसरा इन्द्र उत्पन्न हो जाता है तात्पर्य कहने का यही है कि इन्द्र से रिक्त हुए इन्द्र स्थान पर चार या पांच सामानिक देव स्थानापन्न इन्द्र के रूप में तब तक ही काम संचालित करते रहते हैं कि जब तक कोई दूसरा इन्द्र उस स्थान पर उत्पन्न नहीं होता है। 'इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइयं कालं उववाएणं बिरहिए' है भदन्त ! इन्द्रस्थान कितने काल तक इन्द्र के उत्पाद से विरहित रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासे' हे गौतम! इन्द्र च्युत थाय छे. 'से कहमियाणि पकरें ति' त्यारे तमा त सभये शु ४२ छ ? अना नवासमा प्रभु ४३ छे. 'गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिया देवा ते ठाणं उवसंपज्जिताणं विहरति' गौतम!ते समये यार पांय सामानि हेवास भतिथी भणीन त श्युत थयेा छन्द्रना स्थाननी पूति ४२ छे. 'जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ' પછી ત્યાં કેઈ બીજે ઈદ્ર ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઈન્દ્રથી રિક્ત થયેલા ઈન્દ્રના સ્થાન પર ચાર કે પાંચ સામાનિક દેવ સ્થાનાપન ઈન્દ્રના રૂપમાં ત્યાં સુધી જ કામનું સંચાલન કરતા રહે છે કે જ્યાં સુધી કેઈ બીજે ઇન્દ્ર તે સ્થાન 6५२ 64न्न थता नथी. 'इंद द्वाणेणं भते ! केवइयं कोलं उबवाएणं विरहिए' के सहत! ઈન્દ્ર સ્થાન કેટલા કાળ સુધી ઈન્દ્રના ઉત્પાદથી વિરહિત રહે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ -'गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसे गं छम्मासे' 3 गौतम ! ईन्द्रनु स्थान छन्द्रना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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