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________________ ४९२ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र धराणाम्, "मिउविसय मुहुमलक्खणपसत्य विडिण्णकेसरपालिहाराण' मृदुविशद सूक्ष्मलक्षण प्रशस्त विस्तीर्ण केसरपालिधराणाम्, तत्र--मृद्वी विशदा उज्ज्वला यद्वा परस्परमसंमिलिता प्रतिरोमकूप मेकैकसंभवात् सूक्ष्मा तन्वी लक्षणा प्रशस्ता या केसरपालि:स्कन्धकेशश्रेणिः तां धरन्ति ये ते तथा तेपाम्, 'ललंतथासगललाडवरभूसणाणं' ललन्त थासकललाटवरभूषणानाम्, तत्र ललन्तः-सुबद्धत्वेन शोभायुक्ता ये थासकाः दर्पणाकारा आभरणविशेषाः त एव ललाटे भूषणानि-भ णविशेषा येषां ते तथा पाम्, “मुहमंडगोचूलग चामस्थासगपरिमंडि बडी' खण्डकाऽचूल कामरथासकारिमण्डितकटीनाम्, तत्र मुखमण्डक-मुखाभरणम् अवचूलकाः प्रहम्बमानगुच्छाः चामराणि स्थासकाः-दर्पणाकारआभरणविशेषाः एते ययस्थ ने नियोजिताः सन्ति येषां ते तथा, परिसुहम सुजाय गिद्ध लोमच्छविहराणं' इनके शरीर पर के जो रोम हैं वे तनु सूक्ष्म बहुत ही पतले हैं, सुजात-दोषविवर्जित, हैं, एवं स्निग्ध हैं, ऐसे रोमों की छवि को ये धारण किये हुए हैं, 'निउ वसय सुहमलखण पसत्थ वि छिण्ण केसर पालिहराणं' मृदु, विशद, सूक्ष्म, लक्षणों से प्रशस्त, एवं विस्तीर्ण ऐसी केशरपालो-गर्दन के ऊपर जो बाल हैं वे मृदु-चिकने है विशद-उज्ज्वल साफ सुथरे हैं, या परस्पर में असंबलित हैं, क्यों कि एक एक रोमकूप में एक २ ही बाल है, तथा ये पतले हैं-मोटे नहीं है, एवं बालों के लक्षणों से युक्त हैं 'ललंत थासगललाडवरभूसणाणं' इनकेललाट-भाल पर जो दर्पण के आकार अभूषण पहिराये गये हैं वे सुबद्ध होने के कारण बहुत ही बडी शोभा से युक्त हैं, 'मुह मंडगओचूलगचामरथासगपरिमंडियकडीणं' मुख मंडक-मुखाभरण-अवचूलक, लम्बे २ गुच्छे चामर, स्थासकदर्पणाकारवाले आभरण विशेष ये सब उनके ऊपर यथास्थान पर सजे हुए हैं एवं इनका कटि પાતળાં છે, સુજાત-દેષ વિવર્જિત છે. અને સુંવાળા છે, આના રૂંવાડાની છબીને તેઓએ धा२५ ४२खी छे. 'मिउविसय सुहुमलक्खणपसत्थविछिण्णकेसरपालिहराणं' भृड, विश, સૂમ, લક્ષણેથી પ્રશસ્ત અને વિસ્તીર્ણ એવી કેશરવાલી–ગર્વનની આલ–ને તેઓએ ધારણ કરેલી છે અર્થાત્ એમની ગર્દનની ઉપર જે વાળ છે તે મૃદુ-ચિકણું છે, વિશદ-ઉજવળ સાફસુથરા છે અથવા પરસ્પરમાં અસંવલિત છે કારણ કે એક રમકૃપમાં એક-એક . पण छे तथा ते पाता छ- नथी मने न aadथी युटत छ. 'ललंत थासगललाडवरभूसणाणं' मेमना साट-लात ५२ ४५गुना ॥२॥ साभूषण पररावपामा माया छ । सुमार वान। २ घणी १ मे शामा छ, 'मुह मंडगओ. चुलगचामरथासगपरिमंडियकडीणं' भुभम-भुभाभ२६-अयूब ain-aint शुरछ। ચામર, સ્થાસક દર્પણુકારવાળા આભરણ વિશેષ એ બધાં તેમની ઉપર યથાસ્થાને રાખેલા છે અને એમને કટિપ્રદેશ વળી અન્ય પ્રકારના આભરણેથી સુશોભિત બની રહે છે. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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