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________________ प्रकाdिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् मुहतें दूरे च मूले च दृश्येते, तत्रोद्गमनमुदयः तथाचोदयोपलक्षिते मुहूर्ते समये दूरे च दृष्ट्रस्थानापेक्षया दूरे-व्यवहिते मूले च द्रष्टुः प्रतीत्यपेक्षया समीपे (भासन्ने) दृश्ये तेदृष्टिविषयौ क्रियेते, दर्शका हि जनाः स्वरूपतः सप्तचत्वारिंशद् योजनसहस्त्रैः समधिकैः व्यवहितम् उद्गमनास्तमयनसमये सूर्ग पश्यन्ति, तथापि आसन्नं समीपतरं मन्यन्ते, दरस्थितमपि अयं दूरे वर्तते इति न प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः । 'मशंति य मुहुर्तसि मूले य दुरे य दीसंति' मध्यान्तिकाहूर्त च मूले च दुरे च दृश्येते, तत्र मध्यो मध्यमः अन्तो विभागो गमनस्य दिवसस्य स मध्यान्तः स मध्यान्तो यस्य मुहूर्तस्य विद्यते स मध्यान्तिकश्चासौ मुहर्तश्चेति ममान्तिको मुहर्तः मध्यान्तिकमुहूर्तः मध्याहमुहत इत्यर्थः मध्यान्तिकमुहूर्त मुले द्रष्ट्रस्थानापेक्षया आसन्नदेशे दूरे च विप्रकृष्टे देशे द्रष्ट प्रतीत्यपेक्षया सूयौं दृश्येते, द्रष्टाहि विचार को जानने के अभिप्राय से प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया) हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके इसद्वीप में वर्तमान (सूरिया) दो सूर्य (उग्गमणमुहत्तंसि) उदय के समय-उदय काल से उपलक्षित मुहूर्त रूप समय-में (दरे य मूल य दोसंति) दृष्टा के स्थान की अपेक्षा दूर-व्यवहित रहने पर भी मूल दृष्टा की प्रतीति की अपेक्षा पास मे दिखलाई देते हैं। दर्शक जन स्वरूप से कुछ अधिक ४७ हजार योजन से व्यवहित भी सूर्य के उदगमन और अस्तमयन के समय में उसे दखते हैं तथापि वे उसे आसन्न सभीपतर-मानते हैं दूर रहने पर भी 'यह दूर है' ऐसा नहीं मानते हैं । (मज्झंति य मुहसि मले य दरे यदीमंति) मध्यह काल में दृष्टा जनों द्वारा अपने स्थान की अपेक्षा आसन्न देश में और दृष्टा जन की प्रतीति की अपेक्षा दूर देश में ये रहे हए हैं इस प्रकार से दो सूर्य देखे जाते हैं दृष्टा जन मध्याह्न समय में उदय और अस्तमयन प्रतीति को अपेक्षा आसन-पास सूर्य को देखता है क्योंकि उस સૂર્યાધિકારના સંબંધને લઈને આ સંદર્ભમાં કુરાસાદિ દર્શનફળ વિચારને જાણવાના मनिमाथी प्रभुने मा प्रमाणे पूछे छ-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया' ७ मत ! - दीपनाम २॥ द्वीपमा वर्तमान सूरिया' में सूर्यो 'उगामणमुहुत्तंसि' य मतेअध्ययी Salक्षत मुश्त ३५ समयमा 'दूरे य मूले य दीसति' ४टाना स्थाननी અપેક્ષાએ દૂર- અવહિત રહે છતાંએ મૂવ દટાની પ્રતીતિની અપેક્ષાએ સમીપમાં જોવા મળે છે. દર્શક સ્વરૂપ કરતાં કંઈક વધારે ૪૭ હજાર એજન કરતાં વ્યવહિત પણ સૂર્યના ઉદ્દગમન અને અસ્તમયનના સમયમાં તેને જુએ છે. તથાપિ તે તેને આસન્ન-સમીપતર માને છે, દૂર રહેવા છતાં એ-“આ દૂર છે એવું માનતા નથી. અહીં સર્વત્ર કાકુ વડે પ્રશ્નો કરવામાં આવેલા છે. એવું માનવું જોઈએ. એ પ્રશ્નોના मम प्रभु गौतमने ४ छ-'हंता गोयमा ! माडी 'हंत' श६ स्पीति भाट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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