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________________ अम्बुजीपप्रज्ञप्तिसूत्र इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम ! 'दव्वट्टयाए सासए' द्रव्यार्थतया शाश्वतः-द्रव्यरूपेण जम्बू. द्वीपः शाश्वतः-सर्वकालभावी, द्रव्यस्यान्वयित्वेन सर्वदाऽवस्थानसंभवात् 'वण्णपजवेहिं, मंधपज्ज वे हिं, रसपनवेहि, फासपज्ज वेहिं असासए' वर्णपर्यायः-नीलपीतादि वर्णपर्यायैः, गन्धपर्यायैः रसपर्यायैः स्पर्शपर्याय श्वाशाश्वतो जम्बूद्वीपः, ‘से तेण्डेणं गोयमा! एवं बुच्चइ सिय सासए सिय असासए' तत्तेनार्थेन एतस्मादेव कारणात् हे गौतम ! एवं-यथोक्तप्रकारेणो. च्यते, स्यात् शाश्वतः स्थादशाश्वतः यस्माद द्रव्यरूपेण जम्बूद्वीपोऽयं सर्वकालावस्थायितया शाश्वतः वर्णादिपर्यायमपेक्ष्य प्रतिक्षणम् पूर्वापूर्वपरिणामकतया किञ्चित्कालस्थायितया अशाश्वत इत्ययः। एवं च शाश्वताशाश्तो घटादिः सर्वथा विनश्वरस्वभावो दृश्यते तद्वद् विरोधी होने के कारण कैसे रह सकते हैं, तो इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा! दवट्टयाए सासए' हे गौतम ! एक अधिकरण में इन दोनों धर्मों का रहना किसी अपेक्षा से बनजाता है और वह अपेक्षा द्रव्याथिकनय और पर्या. पार्थिक नय को मुख्यगोण करके बन जाती है यही बात सूत्रकार ने 'दबट्टयाए सासए' इस सूत्र द्वारा प्रकट की है, जम्बूद्वीप को जो शाश्वत कहा गया है वह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा लेकर कहा गया है क्यों कि द्रव्यार्थिक नय पर्याय को गौण करके केवल द्रव्य को ही विषय करता है और प्रत्येक पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा नित्य होता कहा गया है द्रव्य का स्वभाव अपनी पर्यायों में अन्वयी होना है अतः अन्वयी होने से द्रव्य का सदा अवस्थान बना रहता है, तथा 'वण्णपज्जवेहिं, गंधपत्रवेहिं, रसपनवेहि, फासपज्जवेहिं असासए' जम्बूद्वीप वर्ण पर्यायों की अपेक्षा, रसर्यायों की अपेक्षा, और स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा प्रशाश्वत-सदा काल भावी नहीं है क्यों कि द्रव्याश्रित रूपादि पर्यायों में प्रति क्षण परिणमन होता रहता है 'से तेगटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सिय सासए અધિ કરવામાં આ બંને ધર્મોનું રહેવું કેઈ અપેક્ષાથી બની જાય છે અને આ અપેક્ષા દ્રવ્યાર્થિકનય અને પર્યાયાર્થિકનયને મુખ્ય ગૌણ કરીને બની જાય છે. આજ वात सूत्रधारे 'दबयाए सासए' ये सूत्र २॥ ५४८ ४२ छ सम्पूदीप२२ शाश्वत કહેવામાં આવ્યું છે તે દ્રવ્યાર્થિકનયની અપેક્ષા લઈને કહેવામાં આવ્યું છે કારણ કે દ્રવ્યાકિનય પર્યાયને ગૌણ કરીને માત્ર દ્રવ્યને જ વિષય બનાવે છે અને પ્રત્યેક પદાર્થ દ્રવ્યની અપેક્ષા નિત્ય હોવાનું કહેવામાં આવ્યું છે. દ્રવ્યને સ્વભાવ પિતાના પર્યામાં અન્વયી હોય છે આથી અન્વયી હોવાથી દ્રવ્યનું હમેશાં અવસ્થાન બનેલું २७ छ, 'वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासर' दी५ qgપર્યાની અપેક્ષા, ગંધ પર્યાની અપેક્ષા, રસપર્યાની અપેક્ષા અને સ્પર્શ પર્યાની અપેક્ષા અશાશ્વત–સદાકાલ-ભાવી નથી–કારણ કે દ્રયાશ્રિત રૂપાદિ પર્યામાં પ્રતિક્ષણે परिमन थतु १ २३ छ, 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ सिय सासए सिय प्रसासए' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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