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________________ त्वनिरूपणम् ३१७ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २० संवत्सरादीनां आदीत्वनिरूपणम् करणस्यैव संभवादिति । 'अभिजिमाइया णक्खत्ता' अभिजिहादिकानि नक्षत्राणि, तत्राभिजिनक्षत्रमादि येषां तानि अभिजिहादिकारि, अभिजिनक्षत्रमारभ्य नक्षत्राणां क्रमेण युगे प्रवर्तमानत्वात्, तथाहि उत्तराषाढा नक्षत्रान्तिम समय पाश्चात्ये युगस्यान्तः तदनन्तरं पुन: नवीन युगस्य प्रथमनक्षत्रमभिजिदेवेति । 'पन्नत्ता समणा उसो' प्रज्ञप्तानि-कथितानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति भगवत उत्तरम् । अरे सम्बोधनकथनम्, शिष्यस्य पुनरपि प्रश्नविषयक प्रयत्न प्रदीपनार्थम् अतएव हृष्टमनाः गौतमो युगे युगे अयनादि प्रमाणे प्रष्टुमाह-पंव संबच्छरिए भंते ! जुगे' पञ्चसम्बत्सरिके खलु भदन्त ! युगे 'केवइया अयणा पश्नत्ता' हियन्नि-किवसंख्यकानि अपनानि प्रज्ञप्तानि, तब पञ्च संवत्सराः सूर्यसंबन्धिनो मानं प्रम.णं यस्य तत्पश्चसंवत्सरिक युगम् तस्मिन् युगे हे भदन ! कति कियत्संख्यकानि वाइया करणा' करणों मे सबसे प्रथम करण बालवही होता है क्योंकि कृष्णपक्ष के प्रतिपदा के दिन इस मुहर्त का ही सद्भाव होना कहा गया है 'अभिजियाइयाणवत्ता' नक्षत्रों में सर्व प्रधान नक्षत्र अभिजित होना है क्योंकि युग में अभिजित् नक्षत्र को लेकर ही शेष नक्षत्रों की नाम कम से प्रवृत्ति होती है। इसका स्पष्टीकरण ऐसा है-उत्तराषाढा नक्षत्र के अन्तिम समय के पाश्चात्य समय में ही युग का अन्त होता है फिर उसके अनन्तर समय में ही पुनः नवीन युग का जो अभिजित् नक्षत्र है वही होताहै। ‘पन्नत्ता समणाउसो' इस प्रकार से संवत्सरादि कों में से कौन संवत्सरादिकों मेंसे कौन संवत्सरादिक आदिवाले हैं हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! हमने तुम्हें बताया है। ऐसा यह प्रभु की ओर से उत्तर वाक्यका कथन है । ___ अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'पंच संयच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अपणा पण्णता हे भदन्त ! पांच प्रकार के जो संवत्सर कहे गये माहिमा उद्रय छे ४१२५५ है मातभा २२ भुइतनी प्रवृत्ति थाय छे. 'बाल वाइया करणा' ४२।मां सर्व प्रथम ४२६१ मा डाय छे. ४२ पृष्ण पक्षना ५७वान विस २१॥ मुतना सहमा हुयानुयामा माव्युं छे. 'अभिजियाइयाणक्खत्ता' नक्षत्र स प्रथम नक्षत्र मनित्य छे. २ युगमा ममिमित् નક્ષત્રને લઈને જ શેષ નક્ષત્રોની કમે કમે પ્રવૃત્તિ થાય છે. આનું પેટીકરણ આ પ્રમાણે છે–ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રમાં અનિતમ સમયની બાદના સમયમાં જ યુગનો અન્ત થાય છે. પછી તેની અનન્તર સમયમાં જ પુનઃ નવીન યુગનું જે અભિજિત નક્ષત્ર છે તે જ હોય छे. 'पन्नत्ता समणाउसो' २मारीत १४२भियी ४३॥ सवत्सराहि माथी यां सत्सરાદિક આદિવાળા છે. હું શ્રવણ આયુષ્યન્ ! ગૌતમ અમે તમને તે બતાવ્યા છે. એવું આ પ્રભુની તરફથી ઉત્તર વાકયનું કથન છે. वे गौतभस्वामी प्रभुने मे पूछे -पंच संवच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अयणा પગન્ના' હે ભદંત ! પાંચ પ્રકારના જે સંવત્સર કહેવામાં આવ્યા છે તે તે સંવત્સર Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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