SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे विमाणे' इत्यादि, 'एवं सूरविमाणे अहहिं सरहिं' एवमुपयुक्तप्रकारेण समभूमिभागादधस्तनं ज्योतिश्चक्रं नवत्यधिकसप्तयोजनशतै रवाधया प्रज्ञानं तथा समभूमिभागादेव सूर्यविमान मष्टभिर्योजनशतैः, तथा - 'चंद विमाणे अहिं असीएहिं ' चन्द्रविमानमशीत्यधिकै रष्टभिर्योजनशतैः 'उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोयणसएहिं चारं चरई' उपरितनं तारारूपं नवभिर्योजनशतै वारं चरतीति ॥ सम्प्रति- ज्योतिश्चक्रचारक्षेत्रापेक्षया अबाधा प्रश्नमाद - जोइसस्स णं' इत्यादि, 'जोरसस्स णं भंते ! हेट्ठिल्लाओ तलाओ' ज्योतिश्चक्रस्य दशोत्तरयोजनशतबाहल्यस्य खलु भदन्त ! अधस्तनात् तलात् 'केवइयाए अबाहाए' कियत्या अवाधया 'सुरविमाणे चारं चरई ' सूर्यविमानं चारं चरतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ७९० योजन की ऊंचाई पर ज्योतिश्चक्र गति करता है । 'एवं सूर विमाणे अट्ठहिं सएहिं' उसमें इस समतल भूमिभाग से ८०० योजन की ऊंचाई पर सूर्य विमान गति करते हैं । 'चंद विमाणे अट्ठहिं असीएहिं उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोयणसहिं चारं चर' वहां के आठसौ अस्सी योजन की उंचाई पर अर्थात् सूर्य विमान से ८० योजन की ऊंचाई पर चन्द्र विमान गति करते हैं, वहां से ९०० नव सौ योजन की ऊंचाई पर अर्थात चन्द्र विमान से २० योजन की ऊंचाई पर तारा रूप-ग्रह-नक्षत्र एवं प्रकीर्ण तारे गति करते हैं । इस तरह मेरु के समतल भूभाग से ७९० योजन की ऊंचाई पर ज्योतिश्चक्र के क्षेत्र का प्रारंभ होता कहा गया है यह इनका चार क्षेत्र ऊंचाई में वहां से ११० योजन परिमाण होता है । इसी बात को आगे के सूत्रों द्वारा स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं- 'जोइससणं ते! हिलाओ तलाओ केवइयाए अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ' इसमें taaranी ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! इस समतल भूभाग से ७९० मतभूमिलागी ७८० योजननी यार्ड पर ज्योतिश्च गति ४रे छे. 'एवं सूरविमाणे अहिं सहि' तेभां । समतल भूमिलागथी ८०० योजननी (या पर सूर्य निभान गति रे छे. 'चंद विमाणे अट्ठहिं असीएहिं उवरिल्ले तारारूवे नवहिं जोयणसएहिं चार' વરૂ' ત્યાંથી ૮૮૦ યાજનની ઉંચાઇ પર અર્થાત્ વિમાનથી ૮૦ ચેાજનની ઉંચાઈ પર ચન્દ્રવિમાન ગતિ કરે છે, ત્યાંથી ૯૦૦ યાજનની ઉંચાઈ પર અર્થાત્ ચન્દ્રવિમાનથી ૨૦ ચેાજનની ઉંચાઇ પર તારાં રૂપ-ગ્રહ-નક્ષત્ર અને પ્રકી તારા ગતિ કરે છે આ રીતે મેના સમતલ ભૂભાગથી ૭૯૦ ચેાજનની ઉંચાઇ પર જયાતિકના ક્ષેત્રનેા પ્રારંભ થવાનુ કહેવામાં આવ્યુ છે. આ એમનું ચાર ક્ષેત્ર ઊંચાઇમાં ત્યાંથી ૧૧૦ યાજન પરિમાણુ होय छे. मन हुडीने पंछीना सूत्रोद्वारा स्पष्ट ४रता था सूत्र हे छे- 'जोइसस्स णं भंते! हेट्ठिल्लाओ तलाओ केवइयाए अबोहाए सूरविमाणे चार चरइ' मामां गौतमस्वाभीखे મન્નુને એવુ પૂછ્યું છે કે હું બદન્ત ! આ સમતલ ભૂભાગથી ૭૯૦ વૈજનની ઉંચાઈ પર Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy