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________________ प्रकाशिका टीका-सतमREकारः सू. १६ सूर त्यो प्यास्तमननिकरणम् ___ सम्प्रति-प्रस्तुताधिकार पसंहरनाह-'इच्चेसा' इत्यादि, 'इच्चेसा जंबुद्दीव पण्णत्ती सर पण्णत्तो वस्तु समासेगं समत्ता भवइ' इत्येषा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिः वस्तु समासेन समाप्ता भवति-इत्येपा मनन्तरपूर्वस्वरूपा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः प्रथमद्वीपस्य यथावस्थित स्वरूपनिरूपिका ग्रन्थ पद्धतिरस्मिन् उपाने सूर्यप्रज्ञप्तिः सूर्याधिकारप्रतिबद्धा पदपद्धतिः वस्तुनां मण्डलसंख्यादीनां समासः सूर्यप्रज्ञप्तिः महाशास्त्रापेक्षया संक्षेपः तेन समाप्त भवतीति ॥ सम्प्रति चन्द्रवक्तव्यता प्रश्नमाह-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इत्यादि, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' 'चंदिमा उदीणपाईण मुग्गच्छ पाईणदाहिण मागच्छंति' चन्द्रमसौ उदीचनप्राचीन मुद्गत्य-उदीचीनप्राचीनदिग्भागे ईशानकोणे इत्यर्थः उद्गत्य-उदयमासाद्य तदनन्तरं प्राचीनदक्षिण पूर्वदक्षिणयोः कोणे आग्नेय दिशीत्यर्थः आगच्छतः किम् 'जहा सूरवत्तव्बया जाव णेवथि उस्लप्पिणी अवढिरणं तत्य काले पण्णत्ते" इस सत्र में आगत यावस्पद से गृहीत हुआ उसे यहां प्रकट किया गया है। उत्सर्पिणी और अवसपिणी के सम्बन्ध में आलापक स्वयं उद्भवित कर लेना चाहिये अब सूत्रकार प्रस्तुत अधिकारका उपसंहार करते हुए कहते हैं 'इच्चेसा जंबुद्दीवपण्णत्ती सूर पण्णत्तोवत्थुसमासेण समत्ता भवई' इस तरह इस जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति-प्रथम होप के यथावस्थित स्वरूप का निरूपण करने वाली ग्रन्थ पद्धति में कथित यह सूर्य प्रज्ञप्ति-सूर्याधिकार प्रतिबद्ध पद पद्धति सूर्यप्रज्ञप्ति महाशास्त्र की अपेक्षा से सूर्य के वस्तुसमास मंडल संख्या आदि के संक्षेप कथन को लेकर समाप्तहुइ । अब चन्द्र के सम्बन्ध में सूत्रकार कथन करते हैं-इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'जंबुद्दोवे णं ते! दीवे चंदिमा उदीण पाईण उग्गच्छ पाईण दाहिण मागच्छंति' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में जो दो चन्द्रमा कहे गये हैं वे ईशान कोण में उदित होकर बाद में आग्नेय कोण में आते हैं 41s मी 'जहा पंचमसए पढमे उदेसे जाव णेवस्थि उस्सप्पिणी अवढिएणं तत्थ काले पण्णत्ते' આ સૂત્રમાં આવેલા યાવત્ પદથી ગૃહીત થયેલ છે. ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણીના સંબંધમાં આલાપકની ઉદ્દભાવના યમેવ કરવી જોઈએ. હવે સૂકાર પ્રસ્તુત અધિકારનો ५२ ४२di ४ छ-'इच्चेसा जंबुदीपणती सूरपण्णत्ती वत्थु समासेण समत्ता भवई' मा प्रमाणे मापूदी५ प्रशति-प्रथम दीनां यथास्थित २१३५नु नि३५ કરનારી ગ્રન્થપદ્ધતિમાં કથિત આ સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ-સૂધિકાર પ્રતિબદ્ધ પદ પદ્ધતિ, સૂર્ય પ્રજ્ઞપ્તિ મહ શાસ્ત્રની અપેક્ષાએ સૂર્યના વસ્તુ સમા મંડળ સંખ્યા વગેરેના સંક્ષિપ્ત કથનથી માંડીને અહીં સમાપ્ત થઈ. હવે ચન્દ્રના સંબંધમાં સૂત્રકાર કથન કરે છેઆમાં गौतमस्वामी प्रभुने मेवी ने प्रश्न छ-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे चंदिमा उदीण पईणउगाच्छाईग दाहिण मागच्छंति' मत ! दी५ नाम द्वीपभा २ मे यन्द्रमाया કહેવામાં આવેલા છે, તેઓ ઈશાન કેણમાં ઉદિત થઈને તે પછી શું આને કણમાં આવે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003156
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages562
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size17 MB
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