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तीर्थङ्कर चरित्र
और कंद मूल खाकर जीवन निर्वाह करते हैं । पिता के मुख से ये सब बातें सुनकर उन्होंने कहा हम प्रभु के पास जाकर राज्य का हिस्सा मांगेंगे। यह कह कर नमि और विनमि प्रभु के पास भाये। भगवान निसंग हैं इस बात को चे नहीं जानते थे, अतः वे कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु को प्रगाम करके प्रार्थना करते हुए कहने लगे-- भगवन् ! हमें भी भरतादि की तरह राज्य का कुछ हिस्सा दीजिये। भगवान त्यागी थे, अतः वे कुछ भी जवाब नहीं देते थे। नमि और विनमि भगवान की अविरत रूप से सेवा करते और तोनों समय भगवान को हाथ जोड़कर राज्य के लिये याचना करते ।
भगवान की इस सेवा भक्ति को देखकर नागराज इन्द्र नमि, विनमि पर प्रसन्न हुआ । उसने उन्हें विद्याधरों की विद्या दी जिसके प्रभाव से नमि, विनमि ने वैताब्य गिरिमाला पर नये नगर बसाकर अपना स्वतन्त्र राज्य कायम किया ।
एक वर्ष से अधिक समय बीत गया किन्तु भगवान को कहीं भी शुद्ध आहार नहीं मिला । विचरते-विचरते भगवान गजपुर पधारे । वहाँ सोमप्रभ नाम का राजा राज्य करता था । वह भगवान ऋषभदेव का पौत्र और तक्षशिला के राजा वाहुबलि का पुत्र था । सोमप्रम के श्रेयांस नामका युवराज था । वह बहुत सुन्दर, बुद्धिमान और गुणी था । एक दिन रात को उसने स्वप्न देखा--"काले पड़ते हुए सुमेरु पर्वत को मैंने अमृत के घड़ों से सींचा और वह अधिक चमकने लगा ।" उसी रात को सुबुद्धि नामके सेठ ने भी स्वप्न देखा कि अपनी हजारों किरणों से रहित होते हुए सूर्य को श्रेयासकुमार ने किरण सहित कर दिया और वह पहले से भी अधिक प्रकाशित होने लगा । राजा सोमप्रभ ने भी स्वप्न देखा कि एक दिव्य पुरुष शत्रुसेना द्वारा हराया जा रहा है । उसने श्रेयांसकुमार की सहायता से विजय प्राप्त कर ली।