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तीर्थकर चरित्र
स्वीकार किया । भगवान ने भरत को विनीता नगरी का और निन्यानवे पुत्रों को अलग अलग नगरों का राज्य दे दिया ।
इसके बाद प्रभु ने सांवत्सरिक दान देना प्रारम्भ कर दिया । नित्य सूर्योदय से भोजनकाल तक प्रभु एक करोड आठ लाख सुवर्णमुद्राएँ दान करते थे। इस तरह एक साल में प्रभु ने तीन सौ अट्यासीकरोड़ अस्सीलाख सुवर्ण मुद्राओं का दान दिया ।
वार्षिक दान के अन्त में इन्द्रादि देव भगवान के पास आये और उनका दीक्षाभिषेक किया । तदन्तर भगवान सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो 'सुदर्शना' नाम की पालकी पर आरूढ़ हुए। भगवान की पालकी को देव और मनुष्य वहन करने लगे। भगवान की पालकी के पीछे पीछे उनका समस्त परिवार चलने लगा । इस प्रकार विशाल जनसमूह व देवताओं के साथ भगवान की पालकी सिद्धार्थ नामक उद्यान में लाई गई । भगवान पालकी पर से नीचे उतरे । एकान्त में जाकर भगवान ने अपने समस्त वस्त्राभूषण उतार दिये। अपने हाथों से ही अपने कोमल केशों का लुंचन किया । चार मुठ्ठी लुचन के वाद भगवान पांचवी मुट्ठी से जब शेष बालों को उखाइन लगे तब इन्द्र ने भगवान से शिखा रहने देने की प्रार्थना की । भगवान ने इन्द्र को प्रार्थना को मान लिया ।- चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के योग में दिन के पिछले प्रहर में भगवान ने महावतों का उच्चारण करते हुए स्वयमेव दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेते ही भगवान को मन.पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। भगवान के साथ कच्छ, महावच्छ आदि चारहजार पुरुषों ने दीक्षा धारण को ।
[इन केशों के धारण करने से ही भगवान ऋषभदेव का दूसरा नाम केशरियानाथ पड़ा । समस्त तीर्थंकरों में केवल भगवान ऋषभदेव के मस्तक पर ही शिखा थो । जिस प्रकार सिंह देशों के कारण केशरी कहलाता है उसी प्रकार केशी और केशरी एक ही केशरियानाथ या ऋषभदेव के वाचक प्रतीत होते हैं। केशरियानाय पर जो
केशर चढ़ाने की विशेष मान्यता प्रचलित है वह नाम साम्य के कारण । हो उत्पन्न हुई प्रतीत होती है।