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आगम के अनमोल रत्न
३९ हस्तलाघव
५२ भूषणपरिधान १० वचनपाटव
५३ मृत्योपचार ४१ भोज्यविधि
५४ गृहाचार ४२ वाणिज्यविधि
५५ व्याकरण १३ मुखमण्डन
• ५६ परनिराकरण १४ शालिखण्डन
• ५७ रन्धन ४५ कथाकथन
५४ केशबन्धन ४६ पुष्पग्रन्थन
५९ वीणावादन ४७ वक्रोक्ति
६० वितण्डावाद ४८ काव्यशक्ति
६१ अंकविचार ४९ स्फारविधिवेश
६२ लोकव्यवहार ५० सर्वभाषाविशेष
६३ अंत्याक्षरिका ५१ अभिधानज्ञान
६४ प्रश्नप्रहेलिका इसके अतिरिक्त भगवान ने लोगों को असि, मसि एवं कृषि का व्यवसाय सिखाकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया। इस तरह प्रजा को मार्गदर्शन देते हुए भगवान के तिरासी लाख पूर्व व्यतीत हुए ।
एक समय वसन्त-क्रीड़ा के अवसर पर भगवान को संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने संसार के बन्धनों का परित्याग कर स्व-पर का कल्याण करने का निश्चय किया । जिस समय भगवान के मन में वैराग्य की तरंगें उठ रही थीं उस समय पांचचे देवलोक में रहने वाले सारस्वत, आदित्य, वह्नि, वरुण, गर्दताय, तुषित अव्यावाध, आग्नेय और रिष्ट नाम के लोकान्तिक देव भगवान के पास आये और उन्हें नमन कर निवेदन करने लगे-- हे प्रभो ! आपने जिस तरह इस लोक की सारी व्यवस्था चलाई, उसी तरह अव धर्मतीर्थ को चलाइये।" इस तरह भगवान को निवेदन कर, देवगण अपने-अपने स्थान चले गये । देवताओं की प्रार्थना पर भगवान ने प्रव्रज्या ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया ।
घर आकर भगवान ने अपने समस्त पुत्रों को बुलाया और उनके सामने उन्होंने अपनी दीक्षा की भावना व्यक्त की । बहुत कुछ सम. झाने के बाद भरतादि पुत्रों ने पिता के द्वारा दिये गये राज्य को