Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिति अपवंत भूदडलि भडारा पानीको महाबंधी नहायवल सिद्धान्त-शाल विदियो हिदिवाडियारो द्वितीय स्थितिजन्याधिकार SEEN भारतीय हासपीठ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्राकृत ग्रन्थांक-४ सिरि भगवंत भूदबलि भडारय पणीदो महाबंधो [ महाधवल सिद्धान्त-शास्त्र ] विदियो ट्ठिदिबंधाहियारो [ द्वितीय स्थितिबन्धाधिकार ] हिन्दी अनुवाद सहित पुस्तक २ सम्पादन- अनुवाद पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. + भारतीय ज्ञानपीठ द्वितीय संस्करण : १६६८ मूल्य : १४०.०० रुपये Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७०, विक्रम सं. २०००, १८ फरवरी, १६४४) स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित एवं उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम संस्करण) डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ. ने. उपाध्ये प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११० ००३ मुद्रक : विकास ऑफसेट, दिल्ली-११० ०३२ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Moortidevi Jain Granthamala: Prakrita Grantha No. 4 MAHABANDHO [ Second Part: Sthiti-bandhādhikāra ] of Bhagvan Bhutabali Vol. II Edited and Translated by Pt. Phoolchandra Siddhantashastri BHARATIYA JNANPITH Second Edition : 1998 □ Price: Rs. 140.00 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATIYA JNANPITH Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N. Sam. 2470 Vikrama Sam. 2000. 18th Feb. 1944 MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA Founded by Late Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his late Mother Smt. Moortidevi and promoted by his benevolent wife late Smt. Rama Jain In this Granthamala Critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts available in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc., are being published in the respective languages with their translations in modern languages. Also being published are catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies, art and architecture by competent scholars, and also popular Jain literature. General Editors (First Edition) Dr. Hiralal Jain & Dr. A.N. Upadhye Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003 Printed at: Vikas Offset, Delhi-110032 All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक (प्रथम संस्करण, १६५३ से) जब आज से लगभग छह वर्ष पूर्व महाबन्ध का प्रथम खण्ड प्रकाशित हुआ था, तब आशा यह की गयी थी कि इस परमागम के शेष खण्ड भी जल्दी-जल्दी अनुक्रम से पाठकों के हाथों में दिये जा सकेंगे। किन्तु इस प्रकाशन के लिए ज्ञानपीठ की बड़ी तत्परता और उत्साह होते हुए भी सम्पादन सम्बन्धी कठिनाई के कारण वर्ष पर वर्ष निकलते चले गये, पर द्वितीय खण्ड की सामग्री संस्था के पास न पहुँच सकी। अन्ततः प्रथम खण्ड के सम्पादक से सर्वथा निराश होकर तथा अधिक विलम्ब करना अनुचित समझकर अन्य सम्पादक की व्यवस्था अनिवार्य हो गयी। इस खण्ड के सम्पादक पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री से विद्वत्समाज भलीभाँति परिचित है। धवलसिद्धान्त के सम्पादन व प्रकाशन कार्य में उनका बड़ा सहयोग रहा है, और अब पुनः सहयोग मिल रहा है। उन्होंने इस खण्ड के सम्पादन का कार्य सहर्ष स्वीकार किया और आशातीत स्वल्पकाल में ही-केवल कुछ मासों में ही-इतना सम्पादन और अनुवाद करके सिद्धान्तोद्धार के पुण्य कार्य में उत्तम योगदान दिया है। इस कार्य के लिए ग्रन्थमाला की ओर से हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं, और आशा करते हैं कि वे ऐसी ही लगन के साथ शेष खण्डों का भी सम्पादन कर इस महान साहित्यिक विधि को शीघ्र सर्वसुलभ बनाने में सहायक होने का पुण्य प्राप्त करेंगे। कार्य वेग से किये जाने पर भी, सिद्धहस्त होने के कारण, पण्डितजी के सम्पादन व अनुवाद कार्य से हमें बड़ा सन्तोष हुआ है, और भरोसा है कि पाठक भी इससे सन्तुष्ट होंगे। यहाँ हम ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री शान्तिप्रसाद जी तथा संस्था के मन्त्री श्री अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकते। एक तो उन्होंने विपत्तियों और विघ्नबाधाओं के कारण कभी अपने उत्साह को मन्द नहीं होने दिया और न क्षोभ-उद्वेग को स्थान दिया। और वे प्राचीन जैन सिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य के प्रकाशन में किसी व्यावसायिक लेखे-जोखे से आशंकित नहीं होते। प्रत्युत उनकी भावना है कि जितना हो सके, जितनी उत्तम रीति से हो सके और जितने जल्दी हो सके, उतना जैन साहित्य का प्रकाशन किया जाय। हमें विश्वास है कि साहित्यिक विद्वान् उनकी इस उत्तम भावना से लाभ उठावेंगे और यह उपयोगी ग्रन्थ अति सुन्दर ढंग से विद्वत्संसार के सम्मुख उपस्थित करने में सहायता प्रदान करेंगे। -हीरालाल जैन -आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ग्रन्थमाला सम्पादक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनगर की चन्द्रगुफा -डॉ. हीरालाल जैन 'षट्खण्डागम' की टीका 'धवला' के रचयिता वीरसेनाचार्य ने कहा है कि समस्त सिद्धान्त के एक-देशज्ञाता धरसेनाचार्य थे जो सोरठ देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे (षट्खण्डागम, भाग १, पृ. ६७)। उन्हें सिद्धान्त के संरक्षण की चिन्ता हुई। अतः महिमानगरी के तत्कालवर्ती मुनिसम्मेलन को पत्र लिखकर उन्होंने वहाँ से दो मुनियों को बुलाया और उन्हें सिद्धान्त सिखाया। ये ही दो मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि नामों से प्रसिद्ध हुए और इन्होंने वह समस्त सिद्धान्त षट्खण्डागम के सूत्र रूप में लिपि-बद्ध किया। इस उल्लेख से यह तो सुस्पष्ट हो जाता है कि धरसेनाचार्य सौराष्ट्र (काठियावाड़-गुजरात) के निवासी थे और गिरिनगर में रहते थे। यह गिरिनगर आधुनिक गिरनार है जो प्राचीन काल में सौराष्ट्र की राजधानी था। यहाँ मौर्य क्षत्रप और गुप्तकाल के सुप्रसिद्ध शिलालेख पाये गये हैं। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ने भी यहाँ तपस्या की थी, जिससे यह स्थान जैनियों का एक बड़ा तीर्थक्षेत्र है। आधुनिक काल में नगर का नाम तो झूनागढ़ हो गया है और प्राचीन नाम गिरनार उसी समीपवर्ती पहाड़ी का रख दिया गया जो पहले ऊर्जयन्त पर्वत के नाम से प्रसिद्ध थी। अब प्रश्न यह है कि क्या इस इतिहास-प्रसिद्ध नगर में उस चन्द्रगुफा का पता लग सकता है जहाँ धरसेनाचार्य ध्यान करते थे, और जहाँ उनके श्रुतज्ञान का पारायण पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों को कराया गया था। खोज करने से पता चलता है कि झूनागढ़ में बहुत-सी प्राचीन गुफाएँ हैं। एक गुफा-समूह नगर के पूर्वीय भाग में आधुनिक 'बाबा प्यारा मठ' के समीप है। इन गुफाओं का अध्ययन और वर्णन बर्जेज साहब ने किया है। उन्हें इन गुफाओं में ईसवी पूर्व पहली-दूसरी शताब्दी तक के चिह मिले हैं। ये गुफाएँ तीन पंक्तियों में स्थित हैं। प्रथम गुफा-पंक्ति उत्तर की ओर दक्षिणाभिमुख है। इसी के पूर्व भाग से दूसरी गुफा-पंक्ति प्रारम्भ होकर दक्षिण की ओर गयी है। यहाँ की चैत्य-गुफा की छत अति प्राचीन प्रणाली की समतल है और उसके आजू-बाजू उत्तर और पूर्व कोनों में अन्य सीधी-सादी गुफाएँ हैं। इस गुफा-पंक्ति के पीछे से तीसरी गुफा-पंक्ति प्रारम्भ होकर पश्चिमोत्तर की ओर फैली है। यहाँ की छठी गुफा (F) के पार्श्व भाग में अर्धचन्द्राकार विविक्त स्थान (२PSE) है; जैसा कि ईसवी पूर्व प्रथम-द्वितीय शताब्दी की भाजा, कार्ली, बेदसा व नासिक की बौद्ध गुफाओं में पाया जाता है। अन्य गुफाएँ बहुतायत से सम चौकोन या आयत चौकोन हैं और उनमें कोई मूर्तियाँ व सजावट नहीं पाई जाती। कुछ बड़ी-बड़ी शालाएँ भी हैं, जिनमें बरामदें भी हैं। ये सब गुफाएँ अत्यन्त प्राचीन वास्तुकला के अध्ययन के लिए बहुत उपयोगी हैं। (Burgess: Antiquities of Kutchh and Kathiawar, 1874-75, P. 139 ff.) ये सब गुफाएँ उनके निर्माण-काल की अपेक्षा मुख्यतः दो भागों में विभक्त की जा सकती हैं-एक तो वे चैत्यगुफाएँ और तत्सम्बन्धी सादी कोठरियाँ जो उन्हें बौद्धों की प्रतीत होती हैं और जिनका काल ईसवी-पूर्व दूसरी शताब्दी अनुमान किया जा सकता है; जब कि प्रथम वार बौद्ध भिक्षु गुजरात में पहुँचे। दूसरे भाग में वे गुफाएँ व शालागृह हैं जो प्रथम भाग की गुफाओं से कुछ उन्नत शैली की बनी हुई हैं, तथा जिनमें जैन चिह्न पाये जाते हैं। ये ईसवी की दूसरी शताब्दी अर्थात् क्षत्रप राजाओं के काल की अनुमान की जाती हैं। यहाँ हमारे लिए उन्हीं दूसरे भाग की गुफाओं की ओर ध्यान देना है जिनमें जैन चिह्न पाये जाते हैं। इनमें की एक गुफा (K) में स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दीपद, मीनयुगल और कलश के चिह्न खुदे हुए हैं। ऐसे ही चिह्न मथुरा के जैनस्तूप की खुदाई से प्राप्त आयागपट्टों पर पाये गये हैं। (Smith: Jain Stupa (Arch. Survey of India xx, Pt.XI) यही नहीं, वहाँ से एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ है, जिसमें क्षत्रप Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनगर की चन्द्रगुफा राजाओं के अतिरिक्त 'केवली' या केवलज्ञान का उल्लेख है। इस पर से उसके जैनत्व में कोई संशय ही नहीं रहता। दुर्भाग्यतः इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शिलालेख की दुर्दशा की बड़ी करुण कहानी है। उक्त गुफा के सम्मुख सन् १८७६ से पूर्व कुछ खुदाई हुई थी; उसी में वह शिलापट्ट हाथ लगा। निकालने में ही उसका एक हिस्सा टूट गया। फिर उसे उठाकर कोई शहर के भीतर राजमहल में ले गया और इसी समय उसके एक ओर के कोने को भारी क्षति पहुँची। जब बर्जेज साहब उसका फोटो लेने गये तब उसका पता लगना ही कठिन हो गया। अन्ततः वह महल के सामने गोल बरामदे में एक जगह पड़ा हुआ मिला। (Arch : Survey of Western India, Vol. II p. 140) फिर वह कुछ काल तक झूनागढ़ दरबार के छापाखाने में पड़ा रहा। तत्पश्चात् किसी और एक विपत्ति में पड़कर उसके दो टुकड़े हो गये और इस हालत में अब वह वहाँ के अजायबघर में सुरक्षित है। यह शिलापट्ट दो फुट लम्बा-चौड़ा और आठ इंच मोटा है। इसके एक पृष्ठभाग पर चार पंक्तियों का लेख है जो एक फुट, नौ इंच चौड़ी और छह इंच ऊँची जगह में है। एक-एक अक्षर लगभग आधा इंच बड़ा है। लेख को क्षति बहुत पहुँची है। बीच की दो पंक्तियाँ कुछ सुरक्षित हैं, किन्तु प्रथम और चतुर्थ पंक्ति का बहुत-सा भाग अस्पष्ट हो गया है और पढ़ने में नहीं आता। फिर एक ओर से जो शिलापट्ट टूट गया है, उसके साथ इन पंक्तियों का कितना हिस्सा खो गया; यह निश्चयतः नहीं कहा जा सकता। बुल्हर साहब के मत से दूसरी और चौथी पंक्तियाँ प्रायः पूरी हैं, केवल कोई दो अक्षरों की ही कमी है। किन्तु यह अनुमान ही है, निश्चित नहीं। उसी काल के अन्य शिलालेखों पर से निश्चयतः तो इतना ही कहा जा सकता है कि दूसरी और तीसरी पंक्तियों में जयदामन नरेश के पुत्र और पौत्र के नामोल्लेख तथा के वर्ष का उल्लेख, सम्भवतः अंकों और शब्दों में दोनों प्रकार से अवश्य रहा होगा। लेख की लिपि निश्चयतः क्षत्रप-काल की है। लेख टूटा हुआ होने से उसका प्रयोजन स्पष्टतः ज्ञात नहीं होता। किन्तु जितना कुछ लेख बचा है, उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि उसका सम्बन्ध जैन धर्म की किसी घटना से है। उसमें 'देवासुरनागयक्षराक्षस', 'केवलिज्ञान', 'जरामरण' जैसे शब्द स्खलित पड़े हुए हैं, जिनसे अनुमान होता है कि उसमें किसी बड़े ज्ञानी और संयमी जैनमुनि के शरीरत्याग का उल्लेख रहा हो और उस अवसर पर देव, असुर, नाग, यक्ष और राक्षसों ने उत्सव मनाया हो। यह घटना 'गिरिनगर' (गिरनार) में ही हुई थी, इसका लेख में स्पष्ट उल्लेख है। घटना का काल चैत्र शुक्ल पंचमी दिया है, पर वर्ष का उल्लेख टूट । जिस राजा के राज्यकाल में यह घटना हुई थी उस राजा का नाम भी टूट गया है। पर इतना तो स्पष्ट है कि वह राजा क्षत्रप वंश के चष्टन का प्रपौत्र व जयदामन का पौत्र था। इस वंश के अन्य शिलालेखों व सिक्कों पर से क्षत्रप वंश की प्रस्तुतोपयोगी निम्न परम्परा का पता चल चुका है चष्टन जयदामन् रुद्रदामन् दामदजश्री रुद्रसिंह सत्यदामा जीवदामा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबन्ध अतएव यह अनुमान किया जा सकता है कि उक्त लेख में चष्टन के प्रपीत्र और जयदामन् के पौत्र से रुद्रदामन् के पुत्र दामदजश्री या रुद्रसिंह का ही अभिप्राय होगा। चष्टन का उल्लेख यूनानी लेखक टालेमी ने अपने ग्रन्थ में किया है। यह ग्रन्थ सन् १३० ई. ( शक ५२ ) के लगभग लिखा गया है। रुद्रदामन् के समय के सुप्रसिद्ध लेख में शक ७२ (सन् १५०) का उल्लेख है। रुद्रसिंह के शिलालेख व सिक्कों पर शक १०२ से ११० व ११३ से ११८ - ११८ तक के उल्लेख मिले हैं। शक संवत १०३ का लेख अनेक बातों में प्रस्तुत लेख के समान होने से हमारे लिए बहुत उपयोगी है। जीवदामन् के शक ११६ से १२० तक के सिक्के मिले हैं। क्षत्रप राजाओं के राज्यकाल की सीमाएँ अभी बहुत कुछ गड़बड़ी में हैं इन राजाओं में यह भी प्रथा थी कि राज्य परम्परा एक भाई के पश्चात् उससे छोटे भाई की ओर चलती थी और जब सब जीवित भाइयों का राज्य समाप्त हो जाय, तब नयी पीढ़ी की ओर जाती थी। इससे भी क्रमनिश्चय में कुछ 'कठिनाई पड़ती है । तथापि पूर्वोक्त निश्चित उल्लेखों पर से हमें प्रस्तुतोपयोगी इतनी बात तो विदित हो जाती है कि उक्त लेख दामदजश्री या रुद्रसिंह के समय का है और इनका समय शक ७२ से ११८ अर्थात् सन् १५० से १६७ ई. तक के ४७ वर्षों के भीतर ही पड़ता है। रुद्रसिंह के शक १०३ के गुण्ड नामक स्थान से प्राप्त लेख को देखने से अनुमान होता है कि प्रस्तुत लेख भी उन्हीं के समय का और उक्त वर्ष के आसपास का हो तो आश्चर्य नहीं । अतः प्रस्तुत लेख का काल लगभग शक १०३ (सन् १८१) अनुमान किया जा सकता है। ८. हम 'षट्खण्डागम' के प्रथम भाग की प्रस्तावना में 'षट्खण्डागम' के विषय के ज्ञाता धरसेनाचार्य के विषय में बता आये हैं कि उन्होंने गिरिनगर की चन्द्रगुफा में रहते हुए पुष्पदन्त और भूतबलि को सिद्धान्त पढ़ाया था। जैन पट्टावलियों आदि पर से उनके काल का भी विचार करके हम इस निर्णय पर पहुँचे थे कि उक्त ग्रन्थ की रचना शक ६ (सन् ८७) के पश्चात् हुई थी। अब हम जब गिरिनगर की उक्त गुफाओं और वहाँ के उक्त शिलालेख पर विचार करते हैं तो अनुमान होता है कि सम्भवतः झूनागढ़ की ये ही 'बाबा प्यारा मठ' के पास की प्राचीन जैन गुफाएँ धरसेनाचार्य का निवास स्थल रही हैं। क्षेत्र वही है, काल भी वही पड़ता है। धरसेन की गुफा का नाम चन्द्रगुफा था। यहाँ की एक गुफा का पिछला हिस्सा - चैत्यस्थान - चन्द्राकार है आश्चर्य नहीं जो इसी कारण वही गुफा चन्द्रगुफा कहलाती रही हो आश्चर्य नहीं जो उपर्युक्त शिलालेख उन्हीं धरसेनाचार्य की स्मृति में ही अंकित किया गया हो। लेख में ज्ञान का उल्लेख ध्यान देने योग्य है। यदि यह लेख पूरा मिल गया होता तो जैन इतिहास की एक बड़ी भारी घटना पर अच्छा प्रकाश पड़ जाता । इस शिलालेख की दुर्दशा इस बात का प्रमाण है कि हमारे प्राचीन इतिहास की सामग्री किस प्रकार आज भी नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। 1 यह लेख सर्वप्रथम सन् १८७६ में डॉ. बुल्हर द्वारा सम्पादित किया गया था और फोटोग्राफर तथा अंग्रेजी अनुवाद सहित Archaeological Survey of Western India, Vol. 11 में पृष्ठ १४० आदि पर छपा था यही फिर कुछ साधारण सुधारों के साथ सन् १८६५ में स्याही के ठप्पे की प्रतिलिपि व अनुवाद सहित भावनगर के प्राकृत और संस्कृत के शिलालेख' के पृष्ठ १७ आदि पर छपा। रैपसन साहब ने अपने Catalogue of coins of the Andhra Dynasty etc; P. L. XI, No. 40 में इस लेख का संक्षिप्त परिचय दिया है तथा प्रो. लूडर्स ने अपनी List of Brahmi Inscriptions में नं. ६६६ पर इस लेखका संक्षिप्त परिचय दिया है। यह लिस्ट एपीग्राफीआ इण्डिका, भाग १० सन् १८१२ के परिशिष्ट में प्रकाशित हुई है । इस लेख का अन्तिम सम्पादन व अनुवाद आदि राखालदास बनर्जी और विष्णु एस. सुखतंकर ने किया है जो एपीग्राफिया इण्डिका भाग १६, के पृ. २३६ आदि पर छपा है । और इसी के आधार से हमने उसका पाठ लिखा है। उक्त गुफाओं का सर्वप्रथम वर्णन बर्जेज साहब ने किया है, जो उनकी Antiquities of Kutchh and Kathiawar (१८७४-७५) के पृष्ठ १३६ आदि पर छपा है। उनका परिचय हाल ही में श्रीयुत एच. डी. सांकलिया ने अपनी 'The Archaeology of Gujrat' (Bombay 1941) नामक पुस्तक में कराया है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिनगर की चन्द्रगुफा प्राप्त लेख इस प्रकार है (पं. १) .... स्तथा सुरगण [T] (क्षत्रा) णां प्रथ (म)...... (पं. २) ... चाष्टनस्य प्र [ पौ । त्रस्य राज्ञः क्ष | त्रप । स्य स्वामिजयदामपे । ।। त्रस्य राज्ञो म [हा |...... (पं. ३) ......(चै) त्रशुक्लस्य दिवसे पंचमे ५ इ (ह) गिरिनगरे देवासुरनागय [क्ष | राक्षसे..... (पं. ४) .....थ [पु। रमिव... केवलि । ज्ञा | न सं.....नां जरामरण [1] अनुवाद .....तथा सुरगण.... क्षत्रियों में प्रथम..."चष्टन के प्रपौत्र के, राजा क्षत्रप स्वामी जयदाम के पौत्र के, राजा महा..... चैत्र शुक्ल की पंचमी को ५ यहाँ गिरिनगर में देवासुरनागयक्षराक्षस...."पुर के समान..... केवलिज्ञान सं..... के जरामरण...... इस लेख की राजवंशावलि आदि को समझने तथा लेख की गतिविधि का कुछ आभास देने के लिए हम चष्टन के प्रपौत्र, जयदाम के पौत्र रुद्रदाम के पुत्र स्वामी रुद्रसिंह के उस लेख को भी यहाँ उद्धृत कर देना उचित समझते हैं जो ठीक इसी लिपि में लिखा हुआ गुण्ड नामक स्थान से प्राप्त हुआ है, जो अपने रूप में पूरा है और जिसमें १०३वें वर्ष का स्पष्ट उल्लेख है गुण्ड का शिलालेख (पं. १) सिद्धं । राजो महक्षत्र | प| स्य स्वामिचष्टनपौत्रस्य राज्ञो क्षत्रपस्य स्वामिजयदाम पौत्रस्य (पं. २) राज्ञो महक्षत्रपस्य स्वामिरुद्रदामपुत्रस्य राज्ञो क्षत्रपस्य स्वामिरुद्र(पं. ३) मीहस्य | व | र्षे |त्र | युत्तरशते १००३ वैशाखशुद्ध पंचमिघसतिथौ रो | हि | णि नक्ष(पं. ४) त्र महर्ते आभीरेण सेनापतिबापकस्य पत्रेण सेनापतिरुद्रभूतिना ग्रामेरसो(पं. ५)। प । द्रिये वा | पी] [ख | नि [ तो | बद्ध || पितश्च सर्वसत्त्वानां हित सुखार्थमिति। __ अनुवाद सिद्धं । राजा महाक्षत्रप स्वामिचष्टन के प्रपौत्र, राजा क्षत्रपस्वामी जयदाम के पौत्र, राजा महाक्षत्रपस्वामी रुद्रदामके पुत्र, राजा क्षत्रपस्वामी रुद्रसिंह के वर्ष एक सौ तीन वैशाख शुद्ध पंचमी तिथि के रोहिणी नक्षत्र के मुहूर्त में आभीर सेनापति बापक के पुत्र सेनापति रुद्रभूति ने ग्राम रसोपद्रिय में वापी खुदवायी और बँधवायी सब जीवों के हित और सुख के लिए। इति। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय (प्रथम संस्करण, १६५३ से) अंगों और पूर्वी के एकदेश ज्ञाता और सोरठ देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में निवास करनेवाले प्रातःस्मरणीय आचार्य धरसेन के प्रमुख शिष्य आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने मिलकर जिस 'षट्खण्डागम' की रचना की है, उसका 'महाबन्ध' यह अन्तिम खण्ड है। इसके मुख्य अधिकार चार हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें से प्रकृतिबन्ध का सम्पादन और अनुवाद कार्य पं. सुमेरचन्द्र जी दिवाकर (शास्त्री, न्यायतीर्थ, बी. ए., एल एल बी.) ने अपने सहयोगी पं. परमानन्दजी साहित्याचार्य और पं. कुन्दनलालजी न्यायतीर्थ, सिवनी के साथ मिलकर किया था । इसे भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुए लगभग पाँच वर्ष से ऊपर हो गये हैं । यह स्थितिबन्ध नामक दूसरा अधिकार है । प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा शेष तीनों अधिकार परिमाण में दूने-दूने हैं, इसलिए इस भाग में मूल प्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध का एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम तक का भाग ही सम्मिलित किया गया है। हस्तलिखित प्रतिका परिचय इसका सम्पादन और अनुवाद कार्य करते समय हमें महाबन्ध की केवल एक प्रति ही उपलब्ध रही है । यह प्रति मेरे जयधवला कार्यालय में कार्य करते समय श्री अखिल भारतवर्षीय दि. जैन संघ के साहित्य मन्त्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने मूडबिद्री से प्रतिलिपि करा कर बुलायी थी । भारतीय ज्ञानपीठ की प्रबन्धसमिति और उसके सुयोग्य मन्त्री पं. अयोध्याप्रसाद गोयलीय ने जब यह निश्चय किया कि महाबन्ध के आगे के भागों का सम्पादन और अनुवाद कार्य मुझसे कराया जाय, तब जयधवला कार्यालय से इस प्रति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया गया । यद्यपि ऐसे अवसरों पर दूसरे बन्धु किसी ग्रन्थ की प्रति आदि देने में अनेक अड़चनें उपस्थित करते हैं। वे प्रबन्ध के नाम पर उसके स्वामी बनने तक का प्रयत्न करते हैं। किन्तु इसे प्राप्त करने में ऐसी कोई अड़चन नहीं हुई। श्रीमान् पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री को इस बात के विदित होने पर उन्होंने तत्काल इस प्रति को प्रतिलिपि का लागत मात्र दिलवाकर ज्ञानपीठ को सौंप दिया। वही यह प्रति है जिसके आधार से महाबन्ध का आगे का सम्पादन और अनुवाद कार्य हो रहा है। यह प्रति पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के ज्येष्ठ बन्धु स्व. श्री पं. लोकनाथजी शास्त्री ने ताडपत्रीय प्रति के आधार से प्रतिलिपि करके भेजी थी । प्रति फुलस्केप साईज के कागजों पर एक ओर हाँसिया छोड़कर की गयी है । अक्षर सुन्दर और अन्तर से लिखे हुए होने से प्रेस कापी के रूप में इसी का उपयोग हुआ है। पाठान्तर पं. सुमेरचन्द्रजी दिवाकर के पास जो प्रति है वह भी मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति के आधार से की गयी है और यह प्रति भी वहीं से लिपिबद्ध होकर आयी है। ऐसी अवस्था में इन दोनों प्रतियों में लेखक के प्रमाद से छूटे हुए या दुहराकर लिखे गये कुछ स्थलों को छोड़कर पाठान्तरों की कोई भी शंका नहीं कर सकता । हमारा भी यही अनुमान था । हम समझते थे कि ये दोनों प्रतियाँ एक ही प्रति के आधार से लिपिबद्ध करायी गयी हैं, इसलिए इनमें पाठभेद नहीं होगा । पर हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पाठान्तर इनमें भी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय ११ उपलब्ध होते हैं। यद्यपि हमारे सामने पं. सुमेरचन्द्र जी वाली प्रति नहीं है और न उसे प्राप्त करने का कोई प्रयत्न ही किया गया है, पर उस प्रति के आधार से जो प्रकृतिबन्ध मुद्रित हआ है वह हमारे सामने है। उसके साथ आदर्श प्रति (जो प्रति हमारे पास है) के कुछ पृष्ठों का हमने मिलान किया है। परिणामस्वरूप जो पाठान्तर हमें उपलब्ध हुए हैं, उनमें से कुछ पाठान्तर, उनका प्रकार दिखलाने के लिए हम यहाँ दे रहे १. रुजगम्हि (आदर्श प्रति)। रुजुगम्हि (मुद्रित प्रति पृ. २१) २. चउण्णमुट्ठी (आ. प्र.)। चदुण्हं वुडी (मु.प्र. पृ. २२) ३. तहा आरणच्चुदा (आ. प्र.)। तथ आरणअरणच्चुदा (मु. पृ. २३) ४. छढिं गेवज्जया (आ. प्र.) छट्ठी गेवज्जया (मु.प्र. पृ. २३) । ५. किं सव्वबंधो? णोसव्वबंधो। (आ.प्र.) किं सव्वबंधो णोसव्वबंधो? णोसव्वबंधो। (म.प्र. ३० पंक्ति १) ६. बंधो वि (आ.प्र.)। बंधोपि (मु.प्र. पृ. ३०, पंक्ति ४) ७. आदेसेण य। तत्थ ओघेण णाणांतराइ (आ.प्र.) आदेसेण य। णाणांतराइ-(मु.प्र.पृ. ३०, पं. ६) ८. वेदणीयस्स आयुगस्स गोदस्स च किं जहण्णबंधो (आ. प्र.) वेदणीय-आयु-गोदाणं किं जहण्णबंधो (म.प्र. पृ. ३०, पं. ८) ६. तत्थ ओघेण सादियबंधो....संतीओ भूयो (आ.प्र.) सादियबंधो..... संतिओ भूयो (मु.प्र. पृ. ३१, पृ. १-२) १०. एवं मूलपगदिअट्ठपदं भंगो कादव्यो (आ.प्र.) एवं मूलपगदि-अट्ठपदभंगा कादव्वा (मु.प्र.पृ. ३१, पं. ३) ११. ओघेण पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्तं सोलसकसायं भयं दुगुच्छा तेजाकम्म० वण्ण० ४ अगुरु० उपधा० णिमिणं पंचंतराइगाणं (आ. प्र.) ओघेण पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुच्छा-तेजा-कम्मइय-वण्ण० ४-अगुरु०-उप०-णिमिण पंचंतराइयाणं (मु.प्र. पृ. ३१ पं. ५-६) तत्थ ओघेण चोद्दस जीवसमासा णादव्वा भवंति। तं जहा (आ.प्र.) ओघेण चोद्दस-जीवसमासा णादव्वा भवंति। तं यथा (मु.प्र. पृ ३२, पं. २) १३. चदुसंठाण-चदुसंघडण-तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वि उज्जोवं-(आ.प्र.) चदुसंठाण-चदुसंघाद-तिरिक्खगदिपा० उज्जो० (मु.प्र.पृ. ३३, पं. ६) णिद्दापयलाणं को बंधगो? को अबंधगो? अबंधो अपव्वकरणपविट्ठसद्धिसंजदेस (आ.प्र.) णिद्दापयलाणं को बंधगो, अबंधो को ? अबंधो मिच्छादिट्ठिपहुडि याव अपुव्वकरणपविट्ठसुद्धिसंजदेसु (मु.प्र.पृ. ३३, पं. ६-१०) १५. को बंधगो अबं०? (आ.प्र.)। को. बंधको, अबंधो? (मु.प्र.पृ. ३४, पं. ४) १६. को बं० को अबं० (आ.प्र.)। को बंधको को अबंधो (मु.प्र.पृ. ३४, पं. ८) १७. देवगदि० पंचिंदि० वेउव्वि० तेजाक० वेउव्वि० अंगो वण्ण० ४ देवाणु० अगुरु०४ पसत्थवि० थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदे० णिमिणं को बंधो? को अबंधो? (आ. प्र.) देवगदि० पंचिंदि० वेउव्वि० तेज्जाकम्म० समचदु० वेउव्वियं अंगोवंग-वण्ण० ४ देवाणु० अगुरु० ४ पसत्थविहायगदि. थीरा सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज णिमिणं को बंधको को अबंधको? (मु.प्र.पृ. ३५, पं. ६-६) १८. यथा दामे (आ.प्र.)। यथा छामे (मु.प्र.पृ. ३५, पं. २) १६. यस्स इणं (आ.प्र.)। जस्स इणं (मु.प्र.प्र. ४०, पं. १) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महाबन्ध २०. आदेसेण णिरयेसु पंचणाणा० छदंसणा० सादासादं बारसकसा० सत्तणोक० मणुसगदि पंचिंदि० ओरालि० तेजाक० समचदु० ओरालिय० अंगो वज्जरिस० वण्ण० ४ (आ. प्र. ) आदेसेण णिरएसु पंचणाणावरण छदंसणावरण सादासादं बारसकसाय-सत्तणोकसायाणं मणुसगदि-पंचिंदिय- ओरालियतेजाकम्मइय- समचदुरससंठाण - ओरालिय० अंगोवंग - वण्ण० ४ ( मु. प्र.पृ. ४१, पं. ३-५) २१. उंसग (आ.प्र.) णउंसक ( मु.प्र.पू. ४१, पं. ८) २२. मणुसगदि मणुसगदिपा० को बंधो ? (आ.प्र.) मणुसगदि मणुसगदिपाओग्गाणुपुव्वि-उच्चागोदाणं को बंधको ? (मु. प्र. पू. ४१, पं. १२) २३. तेजाकम्म० (आ.प्र.) तेता कम्म० ( मु.प्र. पृ. ४३, पं. ३) २४. एवं सव्वअपज्जत्ताणं सव्वविगलिंदियाणं सव्वविगलिंदि० (आ.प्र.) एवं सव्वअपज्जत्ताणं सव्वएइंदियाणं सव्वविगलिंदियाणं च । ( मु.प्र.पृ. ४३, पं. ७) २५. चदुआयु० तिरिक्खगदितिगं ओधं (आ.प्र.) चदुआयु० तिरिक्खगदि ओघं । (मु. प्र. पृ. ४७, पं. ७) २६. अपचक्खाणावर० ४ तित्थयरं जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । अपच्चक्खणावर० ४ जह० अंतो०, उक्क. तेत्तीसं साग० । देवगदि ४ जह० एग०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादि० । ( आ. प्र. ) अपचक्खाणावर० ४ तित्थयरं जह० अंतो० । उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । अपच्चक्खाणा० ४ जह० अंतो० उक्क० बादालीसं सा० सादि० । अथवा तेत्तीसं सा० सादिरे० परिज्जदि । दो आयु ओघं । मणुसगदिपंचगं जह० अन्तो० । उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि० ४ जह० एग० । तिण्णि-पलिदो० सादि० । (मु. प्र. पू. ६१, पं. १-५) २७. जह० एग०, उक्क० (आ.प्र.) जह. । उक्क० ( मु.प्र. पू. ६१, पं. ५ ) २८. तिरिक्खाणुपु० परघादु० तस० ४ (आ.प्र.) तिरिक्खाणु तस. ४ ( मु.प्र. पू. ६३, पं. १ ) २६. अनंताणुबं० ४ जह० ए०, (आ.प्र.) अनंताणुबं. ४ एय. । (मु. प्र. पू. ६३, पं. ८) यहाँ पर हमने विविध तथ्यों को स्पष्ट करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कुल २६ पाठान्तर ही उपस्थित किये हैं। इनके आधार से निम्न प्रकार निष्कर्ष फलित होते हैं १. प्रतिलिपि करते समय कहीं-कहीं मूल पाठ को बहुत ही कम ध्यान में रखा गया 1 उदाहरणार्थ- प्रथम पाठान्तर को ही देखिए । आदर्श प्रति के आधार से ज्ञात होता है कि मूल प्रति में 'रुजगहि' पाठ है; जब कि पं. सुमेरचन्द्र जी को उनके सामने उपस्थित प्रति में 'रुजुगम्हि' पाठ उपलब्ध हुआ है। दूसरे, तीसरे और चौथे पाठान्तरों से भी यही ध्वनित होता है। इन पाठों के देखने से तो यही जान पड़ता है कि मूल प्रति में आदर्श प्रति के अनुसार ही पाठ होने चाहिए । २. मूल के आधार से प्रतिलिपि करते समय दृष्टि भ्रम या अनवधानता के कारण किसी अक्षर, पद या वाक्य का छूट जाना बहुत सम्भव है । उक्त दोनों प्रतियों में ऐसे अनेक स्खलन देखने को मिलते हैं । इसके लिए देखो क्रमांक ५, ७, ६, १२, १७, २२, २५, २७ २८ और २६ के पाठान्तर । साधारणतः क्रमांक ५ से सम्बन्ध रखनेवाला पूरा स्थल पाठ की दृष्टि से विचारणीय है। मुद्रित प्रति के जिस पाठ का हमने यहाँ उल्लेख किया है वह शुद्ध है और आदर्श प्रति में वह त्रुटित है । तथापि 'दंसणावरणीयस्स कम्मस्स किं सव्वबंधो णो सव्वबंधो?' इस पाठ के आगे 'सव्वबंधो वा णोसव्वबंधो वा' इतना पाठ और होना चाहिए, जो दोनों प्रतियों में त्रुटित जान पड़ता है। क्रमांक १३ में मुद्रित प्रति में 'चदुसंठाण' के बाद 'चदुसंघाद' पाठ है जो अर्थ की दृष्टि से असंगत है । पाँच बन्धन और पाँच संघात प्रकृतियों की बन्ध प्रकरण में अलग से परिगणना नहीं की गयी है, क्योंकि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १३ इनका पाँच शरीरों में अन्तर्भाव हो जाता है। आदर्श प्रति में 'चदुसंघाद' के स्थान में 'चदुसंघडण' पाठ उपलब्ध होता है जो शुद्ध है। कारण कि मध्य के चार संहननों का मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि के बन्धे होता है और यहाँ इन्हीं प्रकृतियों के स्वामित्व का निर्देश किया है। क्रमांक १७ में भी इसी प्रकार का स्खलन देखने को मिलता है। इसमें आदर्श प्रति में 'तेजाक०' के बाद 'समचदु.' पाठ स्खलित है। इसके साथ दोनों प्रतियों में 'पसत्थविहायगदि' के अनन्तर 'तस०-बादर-पज्जत्त-पत्तेय' इतना पाठ और होना चाहिए। जिसका दोनों प्रतियों में अभाव दिखाई देता है। अन्य पाठों की भी यही स्थिति है। पि' के अर्थ में प्राकत में 'वि' और 'पि' इन दोनों अव्यय पदों का प्रयोग होता है। क्रमांक ६ में मुद्रित प्रति में 'बंधोपि' पाठ मुद्रित किया गया है। जब कि आदर्श प्रति में यह 'बंधो वि' उपलब्ध होता है। व्याकरण की दृष्टि से यहाँ आदर्श प्रति का पाठ संगत प्रतीत होता है। ४. मुद्रित प्रति में प्रायः सर्वत्र 'को बंधको, को अबंधको' इत्यादि रूप से पाठ उपलब्ध होता है। कहीं-कहीं 'णारक' ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। देखो क्रमांक १५, १६, १७ व २१। प्राकृत व्याकरण के अनुसार ऐसे प्रयोगों में तृतीय अक्षर होने का नियम है। हमने इस दृष्टि से आदर्श प्रति के भी पाठान्तर दिये हैं। उनके देखने से विदित होता है कि आदर्श प्रति में ऐसा व्यत्यय नहीं दिखाई देता है। ५. प्राचीन कानडी लिपि में द और ध प्रायः एक से लिखे जाते हैं। तथा ध और थ में भी बहुत ही कम अन्तर होता है। हमने यहाँ एक ऐसा पाठान्तर भी दिया है जिससे इस बात का पता लगता है कि पढ़ने के भ्रम के कारण ही यह पाठ दो प्रतियों में दो रूप से निबद्ध हुआ है; जब कि मूल पाठ इन दोनों पाठों से भिन्न होना चाहिए। देखें क्रमांक १८ | आदर्श प्रति में यह पाठ ‘दामे' उपलब्ध होता है और मुद्रित प्रति में 'छामे'। किन्तु मूल प्रति में इन दोनों पाठों से भिन्न 'थामे' पाठ होना चाहिए। 'खुद्दाबंध' में भी यह पाठ इसी रूप में उपलब्ध होता है। इस प्रकार दोनों प्रतियों में और भी स्खलन उपलब्ध होते हैं। यहाँ हमने उनका परिचय कराने की दृष्टि से कुछ का ही उल्लेख किया है। पाठ संशोधन की विशेषताएँ जैसा कि पूर्व में हम दो प्रतियों के आधार से प्रकृतिबन्ध में विविध स्खलनों की चर्चा कर आये हैं; उस तरह के स्खलन हमें प्रस्तुत भाग में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। इनको कई भागों में विभक्त किया जा सकता है १. ऐसे पाठ जो मूल में स्खलित हैं या जो ताड़पत्र के गल जाने से नष्ट हो गये हैं, उन्हें अर्थ और प्रकरण की दृष्टि से विचार कर [ ] इस प्रकार के कोष्ठक के भीतर दिया गया है। उदाहरण के लिए देखें पृष्ठ २१, २३, २८, २९, ३०, ४५, ४८, ६८, ७४, ८२, १०४, १२८, १४२, १६६ और २०८ आदि। तथा ताड़पत्र के गल जाने से स्खलित हुए पाठों के उदाहरण के लिए देखो पृष्ठ १५, ३१, ३, २०८ आदि।। २. ऐसे पाठ जो मूल में प्रकरण और अर्थ की दृष्टि से असंगत प्रतीत हुए, उन्हें उसी पृष्ठ में टिप्पणी में दिखाकर मूल में संशोधन कर दिया गया है। पर ऐसा वहीं किया गया है जहाँ विश्वस्त आधारों से संशोधित पाठ का निश्चय किया जा सका है। इसके लिए देखें पृष्ठ १६, ३१, ४४, ४५, ४६, ५२ और ५८ आदि। ३. एक दो ऐसे भी पाठ उपलब्ध हुए हैं जो या तो अव्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध किए गये हैं या ताड़पत्रीय प्रति में ही उनके क्रम में दोष है। ऐसा एक पाठ 'महाबन्ध प्रकृतिबन्ध' में भी उपलब्ध होता है। पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर के पास जो प्रति है, उस आधार से मुद्रित प्रति में उनके द्वारा उस पाठ की स्थिति इस प्रकार निर्दिष्ट की गयी जान पड़ती है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महाबन्ध देवेसु पंचणा०, छदसणा० बारसक० भयदुगुं० ओरालिय० तेजाकम्मः वण्ण० ४ अगु० ४ बादरपज्ज्त-पत्तेय-णिमिणं तित्थयरं पंचंतराइयाणं णत्थि अंतरं। थीणगिद्धितिगं मिच्छत्तं अणंताणु ४ जह० अंतो०। इत्थि० णदुंसक० पंचसंठा० जह० एग०, उक्क० अट्ठारस-सागरोवमाणि सादिरेयाणि। एइंदिय-आदाव-थावराणं जह० एग०, उक्क० वे साग सादिरे । एवं सव्वदेवेसु अप्पप्पणो हिदिअंतरं कादव्वं । एइंदिएसु पंचणा० णवदंसणा० मिच्छत्तं सोलसक० भयदुगुं० ओरालियतेजाकम्म० वण्ण ४ जह० एग०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । दो आयु० णिरयभंगो०। तिरिक्खगदि-तिरिक्खगदिपाओ० उज्जोवाणं जह० एग०, उक्क० अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेगाणि। एइंदिय-आदाव-थावराणं जह० एग०, वे साग ७ सादिरेयाणि। एवं सव्वदेवेसु अप्पप्पणो द्विदिअंतरं कादव्वं। (मु०प्र०पृ०, पं० ७५-७६) यह पाठ आदर्श प्रति में भी इसी प्रकार उपलब्ध होता है। किन्तु यह होना इस प्रकार चाहिए देवेसु पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-भय-दुगुं०-ओरालिय०-तेजा०-कम्म-ओरालियअंगों-वण्ण० ४ अगु० ४ बादर- पज्जत-पत्तेय-णिमिणं-तित्थयर-पंचंतराइयाणं णत्थि अंतरं। थीणगिद्धितिग-मिच्छत्तअणंताणु० ४ जह अंतो०, उक्क० एकत्तीससाग० देसू० । सादासा०-पुरिस०-चदुणोक० मणुस०-पंचिदिय० समचदु-वज्जरिस०-मणुसाणु०-पसत्थवि-तस०- थिरादिदोण्णियुगल-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जस०-अजस० जह एगस० उक्क० अंतोमु० । इत्थिवे० णदुंस-पंचसंठाण-पचसं० अत्पसत्यवि-दूभग- दुस्सर-अणादेज्जणीचुच्चागोदाणं जह० एगस०, उक्क० एक्कत्ती साग० देसू। दो आयु० णिरयभंगो। तिरिक्खगदितिरिक्खगदिशरू उज्जोवाणं जह० एग०, उक्क० अट्ठारससागरोमाणि सादिरेगाणि। एइंदिय- आदाव-थावराणं जह० एग० उक्क० बेसाग० सादि० । एवं सव्वदेवेसु। णवरि अप्पप्पणो विदि अंतरं कादव्वं । हमें प्रस्तुत प्रकरण में इस प्रकार के जो पाठ उपलब्ध हुए, उन्हें हमने पादटिप्पण में देकर मूल में संशोधन कर दिया है। इसके लिए देखें पृष्ठ २०६ आदि। ४. प्रति में कुछ प्रयोगों में दीर्घ ईकार की मात्रा के स्थान में ह्रस्व इकार की मात्रा दिखाई देती है। जान पड़ता है कि प्राचीन कनाडी लिपि में ह्रस्व और दीर्घ स्वर का कोई भेद नहीं किया जाता रहा है। अतः हमने ऐसे स्थलों पर व्याकरण के नियमानसार ही ह्रस्व और दीर्घ स्वर के रखने का प्रयत्न किया है। ५. आदर्श प्रति में 'वणप्फदि' शब्द के स्थान में कहीं-कहीं वणफदि' ऐसा प्रयोग भी दृष्टिगोचर हुआ है। इसे कहीं-कहीं लिपिकार ने पीछे से लाल स्याही से संशोधित भी किया है। पर कहीं वह अशुद्ध ही रह गया है। हमने सर्वत्र 'वणप्फदि' पाठ ही रखा है। ६. प्राचीन कानडी लिपि में द और ध प्रायः एक से लिखे जाते हैं। इसके कारण आदर्श प्रति में 'उपणिधा' के स्थान में प्रायः 'उपणिदा' पाठ उपलब्ध हुआ है। यह स्पष्टतः लिपिकार की असावधानी है, इसलिए हमें जहाँ 'उपणिदा' पाठ उपलब्ध हुआ वहाँ उसे 'उपणिधा बना दिया है। ७. समग्र ग्रन्थ में किसी वाक्य या शब्द की पूर्ति बिन्दु रखकर की गयी है। कहीं-कहीं ये बिन्दु जहाँ चाहिए वहाँ नहीं भी रखे गये हैं और कहीं-कहीं उनकी आवश्यकता नहीं होने पर भी वे रखे गये हैं। यह व्यत्यय आदर्श प्रति में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। मुद्रित प्रति के साथ आदर्श प्रति का मिलान करने से तो यह भी विदित हुआ है कि इस बात का प्रायः बहुत ही कम ध्यान रखा गया है कि मूल प्रति में कौन शब्द या वाक्य कितना निर्दिष्ट है और कितने शब्दांश या वाक्यांश की पूर्ति के लिए बिन्दु का उपयोग किया गया है। पहले हम मूल प्रति और आदर्श प्रति के कुछ पाठान्तरों की तालिका दे आये हैं। उसके देखने से इसका स्पष्ट पता लग जाता है। ऐसी अवस्था में हमें इस बात का स्वतन्त्र रूप से विचार करना पड़ा है। फलस्वरूप जहाँ बिन्दु की हमने अनावश्यकता अनुभव की, वहाँ से उसे हटा दिया है और जहाँ उसकी आवश्यकता अनुभव की वहाँ उसकी पूर्ति कर दी है।। ८. आदर्श प्रति में अनेक स्थलों पर सम्यक्त्व मार्गणा के प्रसंग से खइगसं०, उपसमसं०, सासणसं०, वेदगसं०' ऐसा पाठ उपलब्ध हुआ है। यहाँ 'स' के ऊपर अनुस्वार की आवश्यकता नहीं है। प्राचीन कनाडी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १५ लिपि में अनुस्वार और वर्णद्वित्व बोधक संकेत एक बिन्दु ही होता है। सम्भव है कि इसी कारण से यह भ्रम हुआ है, अतएव ऐसे स्थानों पर हमने 'खइगस० उवसमस०, सासणस०, वेदगस०' ऐसा संशोधित पाठ रखा है। कहीं कहीं, 'जंहि' के स्थान में 'जम्हि' और 'तंहि' के स्थान में 'तम्हि' इसी नियम के अनुसार किया गया है। ६. मूल में 'कायजोगि' पाठ के स्थान में 'काजोगि' पाठ बहुलता से उपलब्ध होता है। मुद्रित प्रति (प्रकृतिबन्ध) में भी यह व्यत्यय देखा जाता है। मूल में इस प्रकार के पाठ के लिपिबद्ध होने का कारण क्या है, इसकी पुष्टि में यद्यपि हमें निश्चित आधार नहीं मिला है; तथापि 'षट्खण्डागम' के समग्र सूत्रों में 'कायजोगि' पाठ ही प्रयुक्त हुआ है; यह देखकर हमने 'काजोगि' पाठ के स्थान में सर्वत्र ‘कायजोगि' पाठ को स्वीकार किया है। इसी प्रकार थोड़े बहुत संशोधन और भी करने पड़े हैं, पर ऐसा करते हुए सर्वत्र मूल पाठ की रक्षा का पूरा ध्यान रखा है। मंगलाचरण हम यह पहले ही लिख आये हैं कि 'महाबन्ध' के मुख्य अनुयोगद्वार चार हैं-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध। इन चारों अनुयोगद्वारों की रचना स्वयं आचार्य भूतबलि ने की है। यद्यपि ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल करने की परिपाटी पुरानी है, पर 'षट्खण्डागम' के जीवस्थान और वेदनाखण्ड को छोड़कर शेष खण्डों के प्रारम्भ में स्वतन्त्र मंगल सूत्र उपलब्ध नहीं होता। उसमें भी जीवस्थान के प्रारम्भ में मंगलसूत्र के कर्ता स्वयं पुष्पदन्त आचार्य हैं। आचार्य वीरसेन ने मंगल के निबद्ध और अनिबद्ध ये दो भेद करते हुए लिखा है ___तच्च मंगलं दुविहं-णिबद्धमणिबद्धमिदि। तत्थ णिबद्धं णाम जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं। जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्करो तमणिबद्धमंगल । इदं जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं। (जीवट्ठाण-संतपरूवणा, पृ. ४१) ___ 'मंगल दो प्रकार का है-निबद्ध मंगल और अनिवद्ध मंगल। जो सूत्र के आदि में सूत्रकार के द्वारा इष्ट देवता नमस्कार निबद्ध किया जाता है वह निबद्ध मंगल है और जो सूत्र के आदि में सूत्रकारके द्वारा इष्ट देवता नमस्कार मात्र किया जाता है वह अनिबद्ध मंगल है। यह जीवस्थान निबद्ध मंगल है।' - इस निबद्ध और अनिबद्ध पद का अर्थ और अधिक स्पष्ट रूपसे समझने के लिए वेदनाखण्ड के कृति अनुयोग द्वार का यह उद्धरण विशेष उपयोगी है। यहाँ वीरसेन स्वामी लिखते हैं णबद्धाणिबद्धभेएण दविहं मंगलं। तत्थेदं किंणिबद्धमाहो अणिबद्धमिदि ण ताव णिबद्धमंगलमिदं महाकम्भपयडिपाहुडस्स कदियादिचउवीसआणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं तत्तो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो।' ___निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है। उनमें से यह मंगल क्या निबद्ध है या अनिबद्ध? यह निबद्ध मंगल तो हो नहीं सकता, क्योंकि कृति आदि चौबीस अनुयोगों में विभक्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में गौतम स्वामी ने इसकी रचना की है और भूतबलि भट्टारक ने मंगल के निमित्त वहाँ से लाकर इसे वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में स्थापित किया है, अतः इसे निबद्ध मंगल मानने में विरोध आता है।' इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि जीवस्थान के प्रारम्भ में जो पंच नमस्कार सूत्र उपलब्ध होता है, वह स्वयं आचार्य पुष्पदन्त की कृति है और वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में जो ४४ मंगलसूत्र आये हैं वे हैं तो स्वयं गौतम स्वामी की कृति, पर आचार्य भूतबलि ने उन्हें वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में लाकर मंगल के निमित्त स्थापित किया है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महाबन्ध इन दो खण्डों के सिवा शेष खण्डों के प्रारम्भ में स्वतन्त्र मंगल सूत्र क्यों नहीं रचे गये, इस पर वीरसेन स्वामी वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में मंगलसूत्रों का उपसंहार करते हुए कहते हैं 'उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं! तिण्णिखंडाणं । कुदो? वग्गणामहाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो ।' (पृ. १०५) 'आगे कहे जानेवाले तीन खण्डों में से किस खण्ड का यह मंगल है? आगे कहे जानेवाले तीनों खण्डों का यह मंगल है; क्योंकि वर्गणा और महाबन्ध इन दो खण्डों के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया गया है ।' इस उल्लेख से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि वीरसेन स्वामी के मतानुसार वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में आया हुआ मंगल ही महाबन्ध का मंगल है और इसीलिए वहाँ अलग से मंगल नहीं किया गया है। पर मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रति के आधार से जो प्रतिलिपि होकर हमारे सामने उपस्थित है, उसमें प्रत्येक मुख्य अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ' णमो अरिहंताणं' यह मंगलसूत्र स्थापित किया गया है। प्रकृतिबन्ध का प्रथम ताड़पत्र त्रुटित होने के कारण उसके सम्पादन के समय यह समस्या उपस्थित नहीं हुई। वहां तो वीरसेन स्वामी की सूचनानुसार वेदनाखण्ड का मंगलाचरण लाकर उससे निर्वाह कर लिया गया । पर स्थितिबन्ध के प्रारम्भ में ' णमो अरिहंताणं' इस मंगल सूत्र को देखकर हमारे सामने यह प्रश्न था कि इस सम्बन्ध में क्या किया जाय। हमने इस सम्बन्ध में एक-दो विद्वानों से परामर्श भी किया। अन्त में सबकी सलाह से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि मूल प्रति में स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के प्रारम्भ में यह मंगलसूत्र उपलब्ध होता है, तो उसे वैसा ही रहने दिया जाय । यद्यपि हम जानते हैं कि स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध से खण्ड का प्रारम्भ नहीं होता । 'महाबन्ध' खण्ड का प्रारम्भ तो प्रकृतिबन्ध से होता है, तथापि इन अनुयोगद्वारों के प्रारम्भ में इस मंगलसूत्र का निवेश कब किसने किया; इस बात का ठीक तरह से निर्णय करने का कोई साधन उपलब्ध न होने से उक्त मंगल सूत्र को यथास्थान रहने दिया गया है। हमारे विचार से ऐसा करने से एक बहुत बड़े सत्य की रक्षा हो जाती है । पाठक जानते ही हैं कि अमरावती से जो धवला का प्रकाशन हो रहा है, उसके प्रत्येक भाग के प्रथम व मुखपृष्ठ पर 'भगवत्पुष्पदन्तभूतबलिप्रणीतः' यह मुद्रित किया जाता है; जब कि सबको यह विदित है कि वीरसेन स्वामी के मतानुसार आचार्य पुष्पदन्त ने केवल सत्प्ररूपणा की रचना की है और आचार्य भूतबलि ने शेष छहों खण्डों की रचना की है। जीवस्थानद्रव्यप्रमाणानुगम के मुद्रण के समय आदरणीय डॉ. हीरालाल जी के सामने भी यह प्रश्न उपस्थित था। उस समय हम वहीं धवला कार्यालय में कार्य करते थे । प्रश्न यह था कि आचार्य पुष्पदन्त ने आचार्य भूतबलि के पास जिनपालित को केवल सत्प्ररूपणा लेकर भेजा होगा या अपनी रूपरेखा का ज्ञान भी कराया होगा । विचार-विनिमय के अनन्तर उस समय निश्चय हुआ था कि अधिकतर सम्भव तो यही है कि उन्होंने ग्रन्थ रचना के सम्बन्ध की समस्त विशेष जानकारी के साथ ही सत्प्ररूपणा लेकर जिनपालित को आचार्य भूतबलि के पास भेजा होगा और इस तरह श्रुतरक्षा का कार्य इन दोनों महान् आचार्यों के संयुक्त प्रयत्न का फल जानकर तब यही निर्णय किया गया था कि प्रत्येक भाग में दोनों आचार्यों के नाम यथाविधि दिये जाने चाहिए । इस समय जब हम महाबन्ध के प्रत्येक अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में जीवस्थान के मंगलाचरणा को लिपिबद्ध देखते हैं, तो आँखों के सामने उस समय का समग्र इतिहास साकार रूप लेकर आ उपस्थित होता है। धन्य है वे प्रातःस्मरणीय चन्द्रगुफानिवासी आचार्य धरसेन, जिन्होंने अपनी वृद्धावस्था की चिन्ता न कर श्रुत-रक्षा की पुनीत भावना से अपने अनुरूप योग्य दो शिष्यों को प्राप्त कर उन्हें अपना समग्र ज्ञान समर्पित कर शान्ति की साँस ली और धन्य हैं वे परम श्रुतधर आचार्य पुष्पदन्त और भूलबलि, जिन्होंने गुरु आज्ञा को प्रमाण मानकर 'षट्खण्डागम' की रचना द्वारा न केवल अपने गुरु की इच्छा की पूर्ति की, अपितु सम्यक् श्रुत को जीवित रखने का श्रेय प्राप्त किया । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १७ आभार किसी भी कार्य को योग्यतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए अनुकूल साधन-सामग्री का सर्वोपरि स्थान है। हम दूसरों की नहीं कहते, अपनी ही कहते हैं। अनेक बार कुछ प्रमुख विषयों पर हमने लिखने का विचार किया, कई योजनाएँ बनायीं, पर अनूकूल साधनों के उपलब्ध न होने से एक भी पूरी न कर सके। कुछ का तो अब हमें ही स्वयं ज्ञान नहीं है। 'महाबन्ध' के सम्पादन की ओर मैं स्वयं ध्यान दूं, यह अनुरोध चिरकाल से मेरे निकटवर्ती व दूरवर्ती मित्र मुझसे करते आ रहे हैं। उनकी अन्तःप्रेरणावश ही मुझे इस ओर ध्यान देना पड़ा है। मैं श्रीमान् डॉ. हीरालाल जी को अपना अन्यतम हितैषी मानता हूँ। सम्पादन सम्बन्धी जो कुछ भी अनुभव और ज्ञान मुझे मिला है, यह उनकी ही सत्कृपा का फल है। अब भी वे मुझे अनेक उपयोगी सूचनाओं से अनुगृहीत करते रहते हैं। कुछ काल पूर्व उन्होंने मुझे एक अत्युपयोगी पत्र लिखा था। वे मेरी बिखरी हुई शक्ति को देखकर खिन्न से हो उठे थे। मेरे लिए उनका वह पत्र स्वरूपसम्बोधन के समान था। उससे मेरी न केवल निद्रा भंग हुई, अपितु मुझे अपने कर्तव्य का बोध हुआ। उसी का यह फल है जो इस समय पाठक देख रहे 'महाबन्ध' का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हो रहा है। इसके संस्थापक श्रीमान् दानवीर सेठ शान्तिप्रसाद जी और अध्यक्षा उनकी सुयोग्य पत्नी श्रीमती रमारानी जी हैं। प्रारम्भ से ही इसके संचालन का उत्तरदायित्व श्रीमान् अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय सम्हाले हुए हैं। वे ही इसके मन्त्री हैं। मुझे महाबन्ध के सम्पादक और प्रथम प्रूफ पाठ के लिए संस्था की ओर से हर तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के मैनेजर श्री बाबूलाल जी ‘फागुल्ल' तो सब बातों का ध्यान रखते ही हैं, साथ ही साथ, पं. महादेव जी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य का भी इस काम में हमें पूरा सहयोग मिलता रहता है। प्रथम प्रूफ हम उनके साथ ही मिलकर देखते हैं। इस प्रकार 'महाबन्ध' के सम्पादन में उक्त महानुभवों का प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्ध होने से ही हम इस काम का निर्वाह कर सके हैं, अतएव इन सबके हम आभारी हैं। अनुवाद और सम्पादन में हमने बहुत ही सावधानी से काम लिया है, फिर भी भ्रम या अज्ञानवश कुछ दोष रह जाना बहुत सम्भव है। उदाहरणार्थ-पृष्ठ २१, पंक्ति ७ में 'कम्मट्ठिदी कम्म०' के पहले 'अबाहूणिया' पाठ होना चाहिए। इसी प्रकार पृष्ठ २३६ पंक्ति २ में भी कोष्ठक के भीतर 'आबाधू०' पाठ अधिक हो गया है। अतएव विशेषज्ञ और स्वाध्याय प्रेमी बन्धु पूर्वापर का विचार कर इसका स्वाध्याय करें और जो दोष उनकी समझ में आवें, उनकी सूचना हमें अवश्य देने की कृपा करें। -फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा १. कर्मवाद की युक्ति भारतीय दर्शन का अन्तिम लक्ष्य है-मुक्ति-प्राप्ति। इसमें जीव की उत्क्रान्ति, गति, अगति और परलोक विद्या का युक्तियुक्त विचार उपस्थित किया गया है। सब आस्तिक दर्शन इस विषय में एकमत हैं कि जीव अपनी कमजोरी के कारण बँधता है और उसके दूर होने पर मुक्त होता है । 'समयप्राभृत' में कहा है 'रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥ १५०॥ तीर्थङ्करों का उपदेश है कि रागी जीव कर्मों को बाँधता है और वैराग्ययुक्त जीव उनसे मुक्त होता है । इसलिए शुभाशुभ कर्मों में अनुरागी होना उचित नहीं है । प्राचीन ऋषियों ने जीव की बद्ध और मुक्त दो अवस्थाएँ मानी हैं। इससे समस्त जीवराशि दो भागों में विभक्त हो जाती है - संसारी जीव और मुक्त जीव । जो संसार अर्थात् चतुर्गति योनि में परिभ्रमण करते रहते हैं, वे संसारी जीव हैं और जो इस प्रकार के परिभ्रमण से मुक्त हैं, वे मुक्त जीव हैं। प्रथम प्रकार के जीव राग, द्वेष और मोह के अधीन होकर निरन्तर पाँच प्रकार के संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । समीचीन दृष्टि, समीचीन प्रज्ञा और समीचीन चर्या के प्राप्त होने के पूर्व तक वे इस परिभ्रमण से मुक्ति प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। इससे प्रथम प्रकार के जीव संसारी कहलाते हैं । और ये ही जीव संसार का उपरम हो जाने पर मुक्त कहलाने लगते हैं । इनमें से संसारी जीव अनेक भागों में विभक्त हैं- कोई एकेन्द्रिय है और कोई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये सभी संसारी जीवों के ही भेद हैं । एकेन्द्रिय जीव पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के भेद से पाँच प्रकार के हैं। जिनके एक मात्र स्पर्शन ( छूकर जाननेवाली) इन्द्रिय होती है, उन्हें एकेन्द्रिय जीव कहते हैं । ये पाँचों ही प्रकार के जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा विषय ग्रहण करते हैं । इनके रसना ( चखकर जाननेवाली इन्द्रिय) आदि अन्य इन्द्रियाँ नहीं होतीं, इसलिए ये एकेन्द्रिय कहे जाते हैं । द्वीन्द्रिय जीव वे हैं जिनके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। लोक में लट, केंचुआ आदि ऐसे अगणित जीव देखे जाते हैं जो कभी तो स्पर्शन द्वारा विषय ग्रहण करते हैं और कभी रसना द्वारा, इसलिए इन्हें द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं । त्रीन्द्रिय जीव वे हैं जिनके स्पर्शन, रसना और प्राण ( सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान प्राप्त करनेवाली इन्द्रिय) ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। ये जीव इन इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण करते हैं, इसलिए इन्हें त्रीन्द्रिय जीव कहते हैं। इनमें पिपीलिका, गोभी, यूक आदि जीवों की परिगणाना की जाती है । चतुरिन्द्रिय जीव वे हैं जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण और नेत्र ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। ये जीव इन चार इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण करते हैं, इसलिए इन्हें चतुरिन्द्रिय जीव कहते हैं । भ्रमर, पतंग और मक्खी आदि जीवों की इनमें गिनती की जाती है। जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं वे पंचेन्द्रिय जीव हैं । समनस्क और अमनस्क ये इनके मुख्य भेद हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें संज्ञी और असंज्ञी भी कहते हैं। उक्त पाँचों इन्द्रियों के साथ जिनके हेय और उपादेय पदार्थों का विवेक करने में दक्ष तथा क्रिया और आलाप को ग्रहण करनेवाला मन होता है वे समनस्क जीव हैं और Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा १६ शेष अमनस्क जीव हैं। अमनस्क जीव मात्र तिर्यंचयोनिवाले होते हैं, किन्तु समनस्क जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भागों में विभक्त हैं। इनमें से तिर्यंच और मनुष्य सब प्रत्यय के विषय हैं और शेष दो प्रकार के जीव आगम से जाने जाते हैं। जैनदर्शन में संसार के समस्त पदार्थ छह भागों में विभक्त किये गये हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनका विवेचन जैन आगम में विस्तार के साथ किया गया है। जीव के विषय में 'समयप्राभृत' में लिखा है 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥४६॥' जो रसरहित है, रूपरहित है, गन्धरहित है, इन्द्रियों के अगोचर है, चैतन्य गुणवाला है, शब्द रहित है, किसी चिह्न के द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता और जिसका आकार कहा नहीं जा सकता, वह जीव है। जीव का यह लक्षण त्रिकालान्वयी है। उसमें चेतन धर्म की विशेषता है। यह जीव का असाधारण धर्म है; क्योंकि चेतना की जीव के साथ समव्याप्ति है। जीव की पहिचान का यह प्रमुख चिह्न है। कुछ मतवादी चेतना की उत्पत्ति पृथिवी आदि भूतचतुष्टय के योग्य सम्मिश्रण का फल मानते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा गेहूँ आदि पदार्थों में मादकता का प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार पृथिवी आदि के योग्य मिश्रण से चेतना की उत्पत्ति होती है। जब तक इनका योग्य सम्मिश्रण बना रहता है, तभी तक वहाँ चेतना वास करती है। इनका विघटन होने पर चेतना भी विघटित हो जाती है। न परलोक है, न कर्म है और न कर्म का फल है। बौद्धदर्शन भी जीव की पृथक् सत्ता स्वीकार नहीं करता। बुद्ध ने जिन दस बातों को अव्याकृत माना है, उनमें आत्मा शरीर से भिन्न है कि अभिन्न है, मृत्यु के बाद वह रहता है या नहीं रहता-ये प्रश्न भी सम्मिलित हैं। बौद्ध दर्शन में आत्मा को रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का पुंज मात्र माना गया है। 'मिलिन्दपण्ह' भदन्त नागसेन ने राजा मिलिन्द के सामने आत्मस्वरूप का वर्णन एक बड़ी सुन्दर उपमा के द्वारा किया है। नागसेन ने राजा से पूछा कि इस दुपहरी की कड़कड़ाती धूप में जिस रथ पर सवार होकर आप इस स्थान पर पधारे हैं, उस रथ का 'इदमित्थं' वर्णन क्या आप कर सकते हैं? क्या दण्ड रथ है या अक्ष रथ है? राजा के निषेध करने पर फिर पूछा कि क्या चक्के रथ हैं या रस्सियाँ रथ हैं, लगाम रथ है या चाबुक रथ है? बार-बार निषेध करने पर नागसेन ने राजा से पूछा आखिर रथ क्या चीज है? अन्ततोगत्वा मिलिन्द को स्वीकार करना पड़ा कि दण्ड, चक्र आदि अवयवों के आधार पर केवल व्यवहार के लिए 'रथ' नाम दिया गया है; इन अवयवों को छोड़कर पृथक रूप से किसी अवयवी की सत्ता नहीं दीख पड़ती। तब नागसेन ने बतलाया कि ठीक यही दशा आत्मा की भी है। पंचस्कन्ध आदि अवयवों से भिन्न अवयवी के नितरां अगोचर होने के कारण इन अवयवों के आधार पर 'आत्मा' नाम केवल व्यवहार के लिए ही दिया गया है। आत्मा की वास्तविक सत्ता है ही नहीं। बौद्धदर्शन ने आत्मा की पृथक् सत्ता न मानकर भी निर्वाण और परलोक का निषेध नहीं किया है। प्रत्युत उनके चार आर्य-सत्यों का उपदेश इसी आधार पर स्थित है। इस प्रकार जीव के अस्तित्व को न माननेवाले या उसे संशय की दृष्टि से देखनेवाले मुख्य दर्शन दो हैं। शेष सभी पौर्वात्य दर्शनकारों ने उसकी स्वतन्त्र सत्ता किसी-न-किसी रूप में स्वीकार की है। इनमें से प्रथम मत बहुत प्राचीन है। लोक में इसकी चार्वाक या लौकायतिक इस नाम से प्रसिद्धि है। यह मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है, इसलिए यह अतीन्द्रिय जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य को तथा परलोक और मुक्ति आदि तत्त्वों को स्वीकार नहीं करता। किन्तु विचार करने पर ज्ञात होता है कि जीव पृथिवी आदि के योग्य सम्मिश्रण का फल नहीं है, क्योंकि पृथिवी आदि प्रत्येक तत्त्व में चेतना गुण की उपलब्धि नहीं होती, इसलिए उन सबके सम्मिक्षण से Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० महाबन्ध भला उसकी उत्पत्ति हो ही कैसे सकती है? गेहूँ आदि के सड़ाने पर उसमें जो मादकता दिखाई देती है, वह उनका नया धर्म नहीं है। किन्तु यह मादकता इन पदार्थों में न्यूनाधिकरूप से सदा विद्यमान रहती है। सड़ाने आदि से मात्र उसका विशेष रूप से आविर्भाव देखा जाता है। एक मनुष्य भोजन करता है, उसे कम आलस्य आता है और दूसरा मनुष्य भोजन करता है, उसे अधिक आलस्य आता है। इसका एक कारण इस मादकता की न्यूनाधिकता भी है, इसलिए मदिरा के दृष्टान्त द्वारा जीव को भूतचतुष्टय का परिणाम मानना उचित नहीं है। जीव द्रव्य है और उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। इन्द्रियों द्वारा उसका अन्य स्थूल पदार्थों के समान न होने पर भी उसके अस्तित्व को अस्वीकार करना बुद्धि की विडम्बना मात्र है। लोक में ऐसे अनेक पदार्थ हैं, जिनका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण न होने पर भी अनुमान प्रमाण के द्वारा उनका अस्तित्व सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ, पृथ्वी आदि के आरम्भिक परमाणुओं का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता, पर क्या इतने मात्र से उनका असद्भाव माना जा सकता है? कभी नहीं। इसी प्रकार यद्यपि जीव तत्त्व का इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता है, तथापि अनुमान आदि के द्वारा उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। जिस प्रकार किसी यन्त्रप्रतिमा की चेष्टाओं को देखकर उसके प्रयोक्ता का अस्तित्व जाना जाता है, उसी प्रकार सम्भाषण, हलन-चलन, श्वासोच्छ्वास का ग्रहण करना और छोड़ना तथा आहार का लेना, आदि क्रियाओं को देखकर ज्ञात होता है कि इस शरीर का प्रयोक्ता कोई अन्य पदार्थ है जो शरीर के प्रत्येक अवयव में व्याप्त होकर रह रहा है। यह तो हम प्रत्यक्ष में ही देखते हैं कि जीवित शरीर से मृत शरीर में मौलिक अन्तर है। जीवित शरीर में ऐसी किसी वस्तु का वास अवश्य रहता है जो श्वासोच्छ्वास लेता-छोड़ता है, उस द्वारा क्रिया करने में सहायता प्रदान करता है, किसी वस्तु के विस्मृत हो जाने पर उसे याद करता है, इच्छा करता है, इच्छित भोग को स्वीकार करता है, और अनिच्छित भोग का त्याग करता है। स्व-पर का भेद करता है, गणित व रुपया, आना, पाई का हिसाब लगाता है, यश की कामना करता है और विश्व की सुव्यवस्था व आत्मोन्नति के उपाय सोचता है। यह कहना विशेष युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता कि भूत-चतुष्टय के योग्य सम्मिश्रण से चैतन्य तत्त्व की उत्पत्ति होती है। क्योंकि जो शक्ति अलग-अलग पृथिवी आदि में नहीं पायी जाती, वह उनके सम्मिश्रण से नहीं उत्पन्न हो सकती। हम देखते हैं कि बालक जन्म लेते ही दुग्धपान की इच्छा करता है। माता के स्तन से उसका मुँह लगाने पर वह दूध पीने लगता है। कुछ ऐसे भी बालक देखे गये हैं जो अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाते हैं। श्री रतनलालजी ने अपनी 'आत्मरहस्य' नामक पुस्तक में देश-विदेश की ऐसी कई घटनाएँ निबद्ध की हैं। एक घटना बरेली की है। बात सन् १६२६ की है। केकयनन्दन वकील के यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बालक पाँच वर्ष का हुआ और बोलना सीख गया, तो वह अपने पूर्वजन्म की बातें कहने लगा कि पूर्व जन्म में वह बनारस निवासी बबुआ पाण्डे का पुत्र था। उस बालक के पिताश्री केकयनन्दन कई मित्रों के साथ उस बालक को बनारस ले गये और बालक के बतलाये हुए स्थान पर गये। उस समय बनारस के जिलाधीश श्री बी.एन. मेहता भी उपस्थित थे। बालक बबुआ महाराज तथा उस मोहल्ले के एकत्रित सजनों को उनके नाम ले लेकर पुकारने लगा और उनसे मिलने की उत्सुकता प्रकट करने लगा। उसने अपने पूर्व जन्म के घर तथा बहुत-सी वस्तुओं को पहिचान लिया और अनेक प्रश्न पूछने लगा कि अमुक-अमुक वस्तुएँ कहाँ हैं और कैसी हैं? उस बालक का बतलाया हुआ पूर्व जन्म का वृत्तान्त बिलकुल सच निकला। भूत-प्रेतों की कथाएँ भी अक्सर लोग सुनाया करते हैं। कुछ पश्चिमीय विद्वानों ने इनका सप्रमाण संकलन भी किया है। भारतीय समाचारपत्रों में भी ये प्रकाशित होती रहती हैं। इनसे सम्बद्ध कई घटनाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें असत्य नहीं माना जा सकता। अक्सर ये प्रेत वहीं पर क्रियाशील दिखाई देते हैं जहाँ पर इनका पूर्व जन्म का किसी-न-किसी प्रकार का सम्बन्ध होता है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा २१ प्रश्न यह है कि यह सब क्यों होता है? जीव को शरीर से अभिन्न मानने पर न तो बालक को दूध पीने की इच्छा हो सकती है, न वह पूर्व जन्म की स्मृति रख सकता है और न ही भूत-प्रेत योनि की विविध घटनाओं का सम्बन्ध ही बिठाया जा सकता है, किन्तु यह सब होता अवश्य है। इससे ज्ञात होता है कि शरीर से भिन्न कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व अवश्य है। जब हम किसी बालक को शिक्षा-दीक्षा से दीक्षित करते हैं, तब हमें यह देखना होता है कि उसकी स्वाभाविक रुचि क्या है। यदि उसकी इच्छा के अनुकूल सामग्री जुटा दी जाती है, तो उसकी उन्नति होने में देर नहीं लगती और यदि इच्छा के प्रतिकूल कार्य किया जाता है, तो उसे बड़ा निराश होना पड़ता है। विचारणीय यह है कि ऐसा क्यों होता है? वह कौन-सा तत्त्व है जो उससे ऐसा करता-कराता है? वैज्ञानिकों ने प्राणी की इस प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करने का प्रयत्न किया है। वे तत्काल जीव के अस्तित्व के विषय में एकमत भले ही न हो सके हों, पर इस तत्त्व की सत्ता को अस्वीकार करना उनकी शक्ति के बाहर है। यह बात हम प्रतिदिन के व्यवहार से देखते हैं कि जब कोई अन्य व्यक्ति हमें दुःख पहुँचाने की चेष्टा करता है, तब हमें क्रोध आता है और यदि कोई अपमान करना चाहता है, तो अहंकार से हमारा आत्मा अभिभूत हो जाता है। किन्तु जल्दी या देर में हम इस अवस्था से हटना चाहते हैं। प्रकृत में विचारणीय यह है कि इस प्रकार क्रोध करनेवाला या उससे हटनेवाला व्यक्ति कौन है? क्या ऐसी विलक्षण मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया किन्हीं जड़ तत्त्वों के सम्मिश्रण से सम्भव हो सकती है! 'हाँ' में इसका उत्तर देना कठिन है। हमने ऐसे बहुत से प्राणी देखे हैं, जिनका किसी प्रकार का अनिष्ट करने पर वे चिरकाल तक उसकी वासना से अभिभूत रहते हैं और कालान्तर में संयोग मिलने पर वे उसका बदला लेने से नहीं चूकते। हम यहाँ यह कह सकते हैं कि ऐसी वासना वर्तमान जीवन तक ही सीमित रहती है, जन्मान्तर में इसका अन्वय नहीं देखा जाता। किन्तु यदि जन्मान्तर की बात छोड़ भी दी जाय तो भी यह तो देखना ही होगा कि एक पर्याय के भीतर ही चिरकाल तक ऐसी वासना क्यों देखी जाती है? क्या बिना स्मृति के इस प्रकार की वासना का बना रहना सम्भव है? मालूम पड़ता है कि जड़ तत्त्वों से विलक्षण स्मृतिज्ञान का आधारभूत कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व अवश्य है। प्राचीन ऋषियों ने इसे ही 'जीव' शब्द से पुकारा है। प्राचीन साहित्य में इसके गुणों का ख्यापन अनेक प्रकार से किया गया है। नैयायिक, वैशेषिक दर्शन ने विश्लेषण करके संसारी जीव के बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार ये नौ विशेष गुण कल्पित किये हैं। इनकी तुलना हम जैनदर्शन के अनुसार कर्मनिमित्तक भावों से कर सकते हैं। जैन दर्शन में जीव की अनन्त अनुजीवी शक्तियाँ मानी गयी हैं। उदाहरणस्वरूप ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, सुख, क्षमा, मार्दव, भोग, उपभोग और वीर्य ये जीव के अनुजीवी गुण हैं। पुद्गलों के संयोग से न होकर ये आत्मा के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को प्रख्यापित करते हैं। प्राचीन साहित्य में जीव का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए: 1 हेतु 'अहंप्रत्ययवेद्य' दिया जाता है, इसलिए यहाँ इस 'अहम' का ज्ञान कराना आवश्यक हो जाता है। यह तो हम प्रत्यक्ष में ही देखते हैं कि जहाँ हमारा निवास है, वहाँ हम अनेक पदार्थों से घिरे रहते हैं। उनमें से कुछ जड़ होते हैं और कुछ चेतन। ये प्रति दिन हमारे उपयोग में आते हैं। इसलिए इनकी हम सम्हाल करते हैं। पर इन्हें हम अपने शरीर या आत्मा से अधिक प्रिय नहीं मानते। शरीर-रक्षा का और मुख्यतः आत्मरक्षा का प्रश्न उपस्थित होने पर हम इन्हें त्याग देते हैं। शरीर की भी यही अवस्था होती है। जहाँ तक वर्तमान जीवन में रति रहती है या शरीर के रहते हुए किसी प्रकार का अनिष्ट नहीं प्रतीत होता, वहीं तक हम उसकी रक्षा करते हैं; अन्यथा उसका त्याग करने में भी हम संकोच नहीं करते। इस प्रकार वर्तमान जीवन की घटनाओं से हम देखते हैं कि इन विविध प्रकार के संयोग-वियोगों में भी हमारा 'अहम्' न तो भौतिक जगत् से सम्बन्ध रखता है और न बाह्य चेतन-जगत् से ही। उसकी सीमा इन सबसे परे अपने में सुरक्षित रहती है। बड़े-बड़े ज्ञानी मुनियों ने अनुभव द्वारा उस अहंप्रत्ययवेद्य तत्त्व का निर्णय किया है। उनकी स्वानुभव पूर्ण वाणी क्या कहती है, यह उन्हीं के शब्दों में सुनिए Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ महाबन्ध 'अहमिक्को खल सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥'-आचार्य कुन्दुकुन्द अहं प्रत्ययवेद्य मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ. ज्ञानदर्शन स्वभाव हूँ और रूपादि भौतिक गुणों से रहित हूँ। ये सब बाह्म जगत से सम्बन्ध रखनेवाले यहाँ तक कि परमाणु मात्र भी मेरे नहीं हैं। इसी बात को दूसरे शब्दों में उन्होंने यों व्यक्त किया है 'एगो मे सासदो आदा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥'-आचार्य कुन्दकुन्द मेरा आत्मा शाश्वत होकर स्वतन्त्र तो है ही, किन्तु उसका स्वभाव भी एकमात्र ज्ञान-दर्शन है। इसके सिवा मुझ में और जो कुछ भी दिखलाई देता है, वह सब संयोग का फल है। इन प्रमाणों से आत्मा के अस्तित्व पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। यहाँ मुख्य रूप से आत्मा को ज्ञान-दर्शन स्वभाववाला बतलाया गया है, क्योंकि इनका अन्वय एकमात्र चेतन के साथ देखा जाता है। जहाँ चेतना है वहाँ ज्ञान-दर्शन है और जहाँ ज्ञान-दर्शन है, वहाँ चेतना है। इनकी परस्पर में व्याप्ति है। प्राचीन साहित्य में चेतन के मुख्य नाम तीन मिलते हैं-जीव, आत्मा और प्राणी। जीव यह नाम जीवन क्रिया की प्रधानता से रखा गया है। आत्मन् शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है-आप्नोति व्याप्नोतीति आत्मा-जो स्वीकार करता है या व्याप्त कर रहता है। संसार-अवस्था में जीव इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करता है और कैवल्य लाभ होने पर सबका वह ज्ञाता-द्रष्टा बनता है, इसलिए इसका आत्मा यह नाम भी सार्थक है। और प्राणी कहने से इसके विविध प्रकार के प्राणों का बोध होता है। हमें मनुष्य के शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियों की उपलब्धि होती है। इन द्वारा वह विविध प्रकार के विषयों को ग्रहण करता है। इनके सिवा वह मन से सोचता-विचारता है, श्वासोच्छवास लेता है, शरीर से विविध प्रकार की चेष्टाएँ करता है वचन बोलता है और एक के बाद दूसरे शरीर को धारण करता है। पाँच इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, आयु, कायबल, वचनबल और मनोबल ये दस प्राण हैं, जिनसे इसका प्राणी यह नाम भी सार्थक है। ये ही दस प्राण व्यवहार से जीवन-क्रिया के प्रयोजक माने गये हैं। इनके द्वारा भौतिक शरीर में जीव के अस्तित्व का ज्ञान होता है। हम पहले इसी जीव के मुक्त और संसारी ये दो भेद करके संसारी जीव के अनेक भेदों का निर्देश कर आये हैं। प्रश्न यह है कि सब जीव एक समान स्वभाववाले होकर भी उनके ये विविध भेद क्यों दिखाई देते हैं? क्या विना कारण के वे इन विविध प्रकार के भेदों को और विविध प्रकार के शील-स्वभावों को धारण कर सकते हैं? जैन दर्शन इसी प्रश्न का उत्तर कर्म को स्वीकार करके देता है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती 'कर्म' के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड में कहते 'जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेहिऊण कावडियं । एमेव वहइ जीवो कम्मभरं कायकावडियं ॥२०१॥' जिस प्रकार भार को वहन करनेवाला पुरुष कावर के सहारे उसको ढोता है, उसी प्रकार कायरूपी कावर का सहारा लेकर यह जीव कर्मरूपी भार का वहन करता है। ये ही कर्म जीव की इन विविध अवस्थाओं के कारण हैं। साधारणतः इस विषय में यह प्रश्न किया जाता है कि गर्भ में माता-पिता के रज-वीर्य के मिलने से क की उत्पत्ति होती है। विश्व के सब संसारी जीव तीन भागों में बटे हए हैं-कछ जीव गर्भज होते हैं, कुछ जीव सम्मूर्छन होते हैं और कुछ जीव उपपादज होते हैं। इनमें से जिन जीवों की उत्पत्ति के जो साधन निश्चित हैं, उन्हीं से उन जीवों की उत्पत्ति होती है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा २३ वर्तमान में वैज्ञानिकों ने विविध प्रकार की वनस्पतियों पर कुछ प्रयोग किये हैं, जिनमें उन्हें सफलता भी मिली है। वे खट्टे नीबू को प्रयोग द्वारा मीठा कर सकते हैं, फूलों का रंग और आकृति भी बदल सकते हैं। इंजेक्शन द्वारा पशुओं और मनुष्यों की नस्ल में भी वे सुधार कर सकते हैं। इससे भी अपने-अपने नियत साधनों से उस उस जीव की उत्पत्ति का ज्ञान होता है । इसी प्रकार प्रत्येक जीव का शील-स्वभाव और शरीर की रचना बाह्य परिस्थिति पर अवलम्बित जान पड़ती है। एक जीव क्रोधी होता है और दूसरा शान्त । यह भेद उस उस जीव की शरीर रचना और बाह्य परिस्थिति पर अवलम्बित है। सामुद्रिक शास्त्र में भी इसके कुछ निश्चित नियम दिये गये हैं । इसलिए यह शंका होती है कि जिन कारणों से जीव की उत्पति होती है या जिन कारणों से उनका शील स्वभाव बनता हैं, उनके सिवाय इनकी उत्पत्ति का कर्म नामक अन्य अज्ञात कारण नहीं है। यदि कर्म की सत्ता स्वीकार न की जाय, तो भी विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति, आकृति और शील-स्वभाव में जो अन्तर दिखाई देता है, वह बन जाता है । प्रश्न मार्मिक है और किसी अंश में वास्तविक स्थिति पर प्रकाश डालनेवाला भी । पर यहाँ विचारणीय विषय यह है कि जीव द्रव्य स्वतन्त्र होकर भी इन विविध प्रकार के आकारों और शील-स्वभावों को क्यों धारण करता है? वह कौन-सा हेतु है, जिसके कारण वह कभी मनुष्य के शरीर में आकर वहाँ प्राप्त होनेवाली सामग्री के अनुसार सुख-दुख का वेदन करता है और कभी तिर्यंच के शरीर में आकर वहाँ प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपना विकास करता ? कभी क्रोध के निमित्त मिलने पर वह क्रोधी होता है और कभी मान के निमित्त मिलने पर वह मानी होता है । यह तो माना नहीं जा सकता कि वर्तमान जीवन के सिवाय उसका पृथक् कोई व्यक्तित्व ही नहीं है, क्योंकि भूतचतुष्टय से अहंप्रत्ययवेद्य और ज्ञान दर्शनलक्षणवाले जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती । वैज्ञानिकों ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि का उपयोग करके अणुबम और हाइड्रोजन बम बनाया है। बहुत सम्भव है कि उनका वैज्ञानिक अनुसन्धान इसके आगे बहुत कुछ प्रगति करने में समर्थ हो, पर इन सब में जीवन डालने में उनका प्रयोग सफल होगा, यह साहस पूर्वक नहीं कहा जा सकता है। इसलिए तर्क और अनुभव यही मानने के लिए बाध्य करता है कि इस शरीर में पंचभूतों के योग्य सम्मिश्रण के सिवाय एक स्वतन्त्र और स्थायी व्यक्तित्व अवश्य विद्यमान है जो इन सब विविध अवस्थाओं और शील स्वभावों को धारण करता है। माता-पिता का रज-वीर्य या अन्य प्राकृतिक तथा दूसरे साधन शरीर की उत्पत्ति में सहायक हो सकते हैं, पर जिस कारण से यह जीव इन साधनों का उपयोग करने में समर्थ होता है और जो इसे अपने मूल स्वभाव से च्युत कर इन अवस्थाओं में रममाण कराता है, मानना पड़ता है कि वह इन सब दृश्य कारणों से भिन्न है । दर्शनकारों ने उसे ही 'कर्म' शब्द से सम्बोधित किया है; यह कर्मवाद की युक्ति है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए पंचाध्यायीकार ने लिखा है 'एको हि श्रीमान् एको दरिद्र इति च कर्मणः ।' - पंचाध्यायी अ. २, श्लोक ५० एक समृद्ध है और दूसरा निर्धन, इससे कर्म का अस्तित्व जाना जाता है । २. जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है हम देख चुके हैं कि जीव क्या है और उसकी संसार में क्या अवस्था हो रही है। जीव में कर्म के निमित्त से राग, द्वेष आदि का प्रादुर्भाव होता है और इससे नये कर्म का बन्ध होता है। इनकी यह परम्परा अनादि है । इसी भाव को व्यक्त करते हुए 'पञ्चास्तिकाय' में लिखा है 'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदीसु गदी ॥ १२८ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ महाबन्ध 'गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो य दोसो वा ॥१२॥ जायदि जीवत्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि।' संसार में स्थित जीव के राग, द्वेष और मोहरूप परिणाम होते हैं। उग्के कारण कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। इससे शरीर मिलता है। शरीर के मिलने से इन्द्रियाँ होती हैं। इनसे यह जीव विषयों को ग्रहण करता है। विषयों को ग्रहण करने से राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। यह संसार का एक चक्र है। इसमें जो जीव स्थित है उसकी ऐसी अवस्था होती है। प्रश्न है कि यह जीव संसार दशा को क्यों प्राप्त होता है। जब राग-द्वेष के विना कर्मबन्ध नहीं हो सकता है और कर्मबन्ध हुए बिना राग-द्वेष नहीं हो सकता, तब जीव की यह अवस्था कैसे होती है? समाधान यह है कि संसार की यह चक्र-परम्परा बीज-वृक्ष या पिता-पुत्र के समान अनादि काल से चली आ रही है। बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज। यह कोई नहीं कह सकता कि इनमें से किसका प्रारम्भ सर्व प्रथम हुआ। हम तो इनका ऐसा ही सम्बन्ध देखते हैं। इससे अनुमान होता है कि इनकी यह परम्परा अनादि है। इसी प्रकार जीव के संसार के कारणभूत राग-द्वेष और कर्मबन्ध की परम्परा को भी अनादिकालीन मानना पड़ता है। यद्यपि वर्तमानकाल में विकासवाद के सिद्धान्त को माननेवाले यह कहते हैं कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक विकास की अवस्था में बन्दर था और धीरे-धीरे उसे यह अवस्था प्राप्त हुई है। विकासवाद का सिद्धान्त कुछ भी क्यों न हो; किन्तु इससे उक्त मान्यता में कोई बाधा नहीं आती। अतीत काल में जहाँ भी जाकर हम प्राणियों की उत्पत्ति के क्रम का विचार करते हैं, वहाँ हमें यही मानना पड़ता है कि जिस क्रम से इस समय प्राणियों की उत्पत्ति होती है, उसी क्रम से अतीत काल में उनकी उत्पत्ति होती रही होगी। यह नहीं हो सकता कि पहले उनकी उत्पत्ति बिना माता-पिता के या बिना बीज-वृक्ष के होती थी और अब इनकी उत्पत्ति इस क्रम से होने लगी है। यद्यपि इस व्यवस्था से ईश्वरवादी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि विश्व की उत्पत्ति का मुख्य कारण ईश्वर है। ईश्वर के मन में यह इच्छा हुई कि 'एकोऽहं बहुः स्याम' अर्थात् 'मैं एक बहुत होऊँ।' और फिर उसने विश्व की सृष्टि की। इसकी विस्तृत चर्चा मनुस्मृति और दूसरे वैदिक पुराण-ग्रन्थों में की है; वहाँ लिखा है 'यह संसार पहले तम प्रकृति में लीन था, इससे यह दिखलाई नहीं देता था। सर्वत्र गाढ निद्रा की-सी अवस्था थी। तब अव्यक्त स्वयम्भू अन्धकार का नाशकर पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) को प्रकट करते हुए स्वयं व्यक्त हुए...... । अनेक प्रकार के जीवों की सृष्टि की। इच्छा से उस परमात्मा ने ध्यान करके सर्वप्रथम अपने शरीर से जल उत्पन्न किया और उसमें शक्तिरूप बीज डाला। वह बीज सूर्य के समान चमकने वाला सोने का-सा अण्डा बन गया.....। उस अण्डे में वह ब्रह्मा एक वर्ष तक रहा। तब उसने आप ही अपने ध्यान से उस अण्डे के दो टुकड़े कर डाले। ब्रह्मा ने उन दो टुकड़ों से स्वर्ग और प्रथिवी का निर्माण किया। मध्य में आकाश, आठों दिशाएँ और जल का शाश्वत स्थान समुद्र का निर्माण किया। फिर आत्मा से मन और मन से अहंकार तत्त्व को प्रकट किया। साथ ही बुद्धि, तीनों गुण (सत्व, रज और तम) और विषयों को ग्रहण करनेवाली पाँचों इन्द्रियों को क्रमशः उत्पन्न किया। ....."फिर उस ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में वेद के शब्दों से सबके अलग-अलग नाम और कार्य नियत कर दिये। और उनकी संस्थाएँ बना दीं। सनातन ब्रह्मा ने यज्ञसिद्धि के लिए अग्नि, वायु और सूर्य से क्रमशः जुर्वेद और सामवेद इन तीनों को प्रकट किया। फिर समय, समय के लिए विभाग, नक्षत्र, ग्रह, नदी, समुद्र और पहाड़ बनाये। १. 'जैनजगत्' में प्रकाशित भदन्त आनन्द कौशल्यायन के लेख से उद्धृत। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा २५ हिरण्यगर्भ ने अपने शरीर के दो भाग किये और आधे से पुरुष और आधे से स्त्री बन गया। उस स्त्री में उसने विराट् पुरुष की सृष्टि की। 'मैंने प्रजाओं की सृष्टि की इच्छा से अति दुष्कर तपस्या करके दस महर्षियों को उत्पन्न किया।..... इस प्रकार मेरी आज्ञा से इन महात्माओं ने अपने तपयोग से कर्मानुरूप स्थावरजंगम की सृष्टि की। इस पर प्रश्न यह उठता है कि ब्रह्मा या ईश्वर के मन में इस क्रम से विश्व की रचना का विचार क्यों आया? उसने जिस क्रम से आदि में पशु, पक्षी, मत्स्य, सरीसृप और मनुष्य की उत्पत्ति की थी, आज भी उसी क्रम से वह उनकी उत्पत्ति क्यों नहीं करता? क्यों नहीं वह वन्ध्या या पतिविहीना स्त्रियों को कम-से-कम एक-एक पुत्र दे देता है जिससे वे अपने वन्ध्यापन या पति के अभाव के दुख को भूल जाएँ। वे मनुष्य जो कुष्ठ से जर्जर हो रहे हैं या जो धनाभाव के कारण पशुओं का जीवन बिता रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं ऐसे साधन जुटा देता है, जिनका आलम्बन पाकर वे अपने कष्ट को कुछ कम करने में समर्थ हों। उनके पाप ईश्वर को ऐसा नहीं करने देते, इस कथन में कुछ भी सार नहीं है, क्यों कि पुण्य के समान पाप का निर्माण भी तो उसी ने किया है? उसने पाप का निर्माण ही क्यों किया? एक यथार्थवादी होने के नाते विचार करने से यही ज्ञात होता है कि इस प्रकार विश्व की उत्पत्ति मानना कोरी कल्पना है। वे दर्शन जो ईश्वरवादी माने जाते हैं उनसे भी इस कल्पना का समर्थन नहीं होता। ईश्वरवाद का समर्थन करनेवाले मुख्य दर्शन दो हैं-एक न्याय और दूसरा वैशेषिक। किन्तु इनका विचार इस सष्टिक्रम को स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार विचार करने पर ज्ञात होता है कि विश्व की यह रचना अनादि है। थोड़ा-बहुत जो उसमें समय-समय पर परिवर्तन दिखलाई देता है, उसमें किसी की इच्छा कारण न होकर परस्पर में सम्बद्ध घटनाक्रम ही उसके लिए उत्तरदायी है। सूर्य नियत समय पर उगता है और नियत समय पर अस्त होता है। इसमें किसी अज्ञात शक्ति का हाथ नहीं है। जगत् का यह क्रम अनादि काल से इसी प्रकार से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। जिन विचारकों का जगत् के इस स्वाभाविक क्रम की ओर ध्यान गया है, उन्होंने विश्व की यथार्थ स्थिति का विश्लेषण करके विश्व में स्थित अनन्त पदार्थों के संयोग और स्वभाव को भी इसका कारण माना है। जीव और कर्म का ऐसा स्वभाव है जिससे अनादि काल से परस्पर सम्बद्ध हो रहे हैं और जब तक उन्हें परस्पर बन्ध के कारणों का संयोग मिलता रहेगा, तब तक वे बन्ध को प्राप्त होते रहेंगे। जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध की चर्चा करते हुए 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड में लिखा 'पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो। कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं ॥२॥ कनकोपल के मल के समान जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। इसके अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, वह स्वतःसिद्ध है। 'ब्रह्मसूत्र' में संसार की अनादिता इन शब्दों में स्वीकार की है___ 'न कर्माविभागात् इति चेत् ? न; अनादित्वात् ।' - (ब्रह्मसूत्र २, १, ३५) इसका शंकरभाष्य है 'नैष दोषः, अनादित्वात् संसारस्य। भवेद् एष दोषो यदि आदिमान् संसारः स्यात् । अनादौ तु संसारे बीजाङ्कुरवत् हेतुहेतुमद्भावेन कर्मणः सर्ववैषम्यस्य च प्रवृत्तिर्न निरुद्धयते।' इसमें स्पष्टतः संसार की अनादिता स्वीकार की गयी है। इससे जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि सिद्ध होता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ महाबन्ध ३. कर्म क्या है कर्म क्या है? विचार करने पर ज्ञात होता है कि जीव का स्पन्दन तीन प्रकार का होता है- कायिक, वाचनिक और मानसिक । जीव शरीर से कुछ-न-कुछ क्रिया करता है, वचन से कुछ-न-कुछ बोलता है और मन से कुछ-न-कुछ सोचता है। ये तीन क्रियाएँ हैं जो प्रत्येक के अनुभव में आती हैं। ये बाह्य हैं। इनके सिवाय तीन आभ्यन्तर क्रियाएँ भी होती हैं जिन्हें योग कहते हैं । 'कायवाङ्मनः कर्म योगः ।' - ( तत्त्वार्थसूत्र ६, १1) काय, वचन और मन का व्यापार योग है ।' योग का दूसरा नाम स्पन्दन है । काय के निमित्त से जीव की स्पन्दन क्रिया को काययोग कहते हैं। वचन के निमित्त से जीव की स्पन्दन क्रिया को वचनयोग कहते हैं और मन के निमित्त से जीव की स्पन्दन क्रिया को मनोयोग कहते हैं । काय, वचन और मन आलम्बन हैं और जीव की स्पन्दन क्रिया कर्म है। जीव की यह स्पन्दन क्रिया यों ही समाप्त नहीं हो जाती, किन्तु जिन भावों से यह स्पन्दन क्रिया होती है, उसका संस्कार अपने पीछे छोड़ जाती है। 'ये संस्कार चिरकाल तक स्थायी रहते हैं, इसका दृष्टान्त हमारे लिए अपरिचित नहीं है। हम जिसे स्मृति कहते हैं, जिसके फलस्वरूप पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण होता है, वह संस्कार के सिवाय और है ही क्या ? स्मृति की यह करामात हम प्रतिदिन देखते हैं । प्राकृतिक जगत् में भी संस्कार के कुछ कम दृष्टान्त नहीं हैं । फोनोग्राफ यन्त्र के समीप यदि कोई गीत गाया जाय, तो वह गीत संस्कार के रूप में उस यन्त्र में रक्षित रहता है। पीछे युक्ति से उसका उद्बोधन करने पर वही गीत पुनः श्रुतिगोचर होने लगता है'।' किन्तु इन संस्कारों का आधार जीव नहीं माना जा सकता, क्योंकि जीव का संसार पुद्गल के आलम्बन से होता है । अतः जिन भावों से स्पन्दन क्रिया होती है, उनके संस्कार क्षण-क्षण में जीव द्वारा गृहीत पुद्गलों में ही संचित होते रहते हैं । इसीलिए अकलंकदेव ने कहा है 'यथा भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः ।' - तत्त्वार्थवार्तिक, ८, २ जिस प्रकार पात्र विशेष में डाले गये अनेक रसवाले बीज, पुष्प और फलों का मदिरारूप से परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का भी योग और कषाय के कारण कर्मरूप में परिणमन होता है । यद्यपि पुद्गलों की जातियाँ अनेकर हैं, पर वे सब पुद्गल इस काम नहीं आते। मात्र कार्मण नामक पुद्गल ही इस काम आते हैं। ये अति सूक्ष्म और सब लोक में व्याप्त हैं । जीव स्पन्दन क्रिया द्वारा प्रति समय इन्हें ग्रहण करता है और अपने भावों के अनुसार इन्हें संस्कारित कर कर्मरूप से परिणमाता है । 'कर्म' शब्द तीन अर्थ में प्रयुक्त होता है- (१) जीव की स्पन्दन क्रिया, (२) जिन भावों से स्पन्दन १. 'कर्मवाद और जन्मान्तर' द्रष्टव्य है । २. पुद्गलों की मुख्य जातियाँ २३ हैं; यथा-अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, तैजसवर्गण, अग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, कार्मणवर्गणा, ध्रुववर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा २७ क्रिया होती है, उनके संस्कार से युक्त कार्मण पुद्गल और (३) वे भाव जो कार्मण पुद्गलों में संस्कार के कारण होते हैं। जीव की स्पन्दन क्रिया और भाव उसी समय निवृत हो जाते हैं, किन्तु संस्कारयुक्त कार्मण पुद्गल जीव के साथ चिरकाल तक सम्बद्ध रहते हैं। ये यथायोग्य अपना काम करके ही निवृत्त होते हैं। ये कालान्तर में फल देने में सहायता करते हैं, इसलिए इन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं और इसी से इनकी द्रव्य-निक्षेप के तद्व्यतिरिक्त भेद में परिगणना की जाती है। अदृष्ट, भाग्य, विधि, भवितव्य और दैव ये द्रव्यकर्म के नामान्तर हैं और कहीं-कहीं इन नामों के अर्थ में व्यत्यय भी देखा जाता है। कर्म का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-'यत् क्रियते तत् कर्म' अर्थात् जो किया जाता है, वह कर्म है। संसारी जीव के रागादि परिणाम और स्पन्दन क्रिया होती है, इसलिए ये दोनों तो उसके कर्म हैं ही, किन्तु इनके निमित्त से कार्मण नामक पुद्गल कर्मभाव (जीव की आगामी पर्याय के निमित्त भाव) को प्राप्त होते हैं, इसलिए इन्हें भी कर्म कहते हैं। कहा भी है 'जीवपरिणामहेदूं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि॥' (समयप्राभृत, ८०) जीव के रागादि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल कर्मरूप से परिणमन करते हैं और पुद्गल कर्मों का निमित्त पाकर जीव भी रागादि रूप से परिणमन करता है। यह कर्म (द्रव्य-कर्म) का सुस्पष्ट अर्थ है। इसके द्वारा हम संसार में होनेवाली अपनी विविध अवस्थाओं का नाता जोड़ते हैं। ४. कर्मबन्ध के हेतु हम देख चुके हैं कि जीव की, कायिक, वाचनिक और मानसिक तीन प्रकार की स्पन्दन क्रिया होती है। उसका नाम कर्म है। किन्तु यह क्रिया अकस्मात् नहीं होती। इसके होने में जीव के शुभाशुभ भाव कारण पड़ते हैं। जीव के प्रति समय शुभ या अशुभ भाव होते हैं। कभी वह किसी को इष्ट मान उसमें राग करता है और कभी किसी को अनिष्ट मान उसमें द्वेष करता है। उसके इन भावों की सन्तति यहीं समाप्त नहीं होती, किन्तु वह प्रति समय अनेक प्रकार से प्रस्फुटित होती रहती है। प्राचीन ऋषियों ने क्रिया के साथ इनकी पाँच जातियाँ मानी हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। १. कहाँ किस अर्थ में किस शब्द का प्रयोग किया जाता है, इसका ठीक तरह से ज्ञान कराना निक्षेप का काम है। इसके मुख्य भेद चार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। किसी का नाम रखना नामनिक्षेप है। इसमें उस शब्द से ध्वनित होनेवाले क्रिया और गुण नहीं देखे जाते। उदाहरणार्थ-किसी का नाम महावीर रखने पर उसमें गुण-धर्म नहीं देखे जाते। एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ में स्थापना पर तदनुकूल वचन-व्यवहार करना स्थापनानिक्षेप है। उदाहरणार्थ-महावीर की प्रतिमा को महावीर मानना। द्रव्य की जो अवस्था आगे होनेवाली है, उसका पहले कथन करना द्रव्यनिक्षेप है। यथा जो आगे आचार्य होनेवाला है, उसे पहले से आचार्य कहने लगना द्रव्यनिक्षेप है। तथा जो साधना सामग्री आगामी काल में कार्य के होने में सहायक होती है, उसका अन्तर्भाव भी द्रव्यनिक्षेप में होता है। वर्तमान अवस्था से युक्त पदार्थ को उसी नाम से पुकारना भावनिक्षेप है; यथा पढ़ाते समय अध्यापक कहना। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ महाबन्ध मिथ्यादर्शन का लक्षण है- 'स्व' की सत्ता का पृथक् रूप से अनुभव में न आना और 'पर' को 'स्व' मानना। संसार में जीव और देह का संयोग है। इसलिए यह जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाववश अपने ज्ञायक स्वभाव को भूलकर पुद्गल को 'स्व' मान रहा है। मिथ्यादर्शन का अर्थ है-विपरीत श्रद्धान। संसारी जीव की यह प्रथम भूमिका है। इसके सद्भाव में जीव की अदेव में देवबुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि और अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि होती है। धर्म-अधर्म का स्वरूप भी पहिचान में नहीं आता। यह दो प्रकार से होता है। किसी जीव के निसर्ग से होता है और किसी के अन्य के उपदेश का निमित्त पाकर होता है। विरति का अभाव अविरति है। जीव के प्रति समय हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और अन्य वस्तु के संचय के भाव होते हैं। उसके जीवन में यह कमजोरी घर किये हुए है कि अन्य वस्तु के बिना मेरा काम नहीं चल सकता, इसलिए कभी वह अन्य जीव के वध का विचार करता है, कभी असत्य बोलता है, कभी उस वस्तु के संग्रह का भाव करता है, जिसका उसने अपने पुरुषार्थ से न्याय्यवृत्ति से अर्जन नहीं किया या जो उसे अन्य से प्राप्त नहीं हुई, कभी अन्य में रति करता है और कभी आवश्यकता से अधिक का संचय करता है। प्रमाद का अर्थ है-अपने कर्तव्य के प्रति अनादर भाव । यह भाव स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों के विषय में तीव्र आसक्ति होने से. क्रोध-मान-माया और लोभरूप परिणाम होने से. स्त्रीकथा, राजकथा, देशकथा और भोजनकथा के निमित्त से तथा निद्रा और स्नेहवश होता है, इसलिए इसके मुख्य भेद पन्द्रह हैं। जो आत्मा को कृश करता है, स्वरूप रति नहीं होने देता, उसे कषाय कहते हैं। कषाय के मुख्य भेद चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये भी इसी के भेद हैं। किन्तु ये ईषत् कषाय हैं, इसलिए इन्हें नोकषाय कहते हैं। योग का अर्थ है-आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द। यह मन, वचन और काय के निमित्त से होता है, इसलिए इसके मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये तीन भेद हैं। जीव की स्पन्दन क्रिया इन भावों का निमित्त पाकर कर्मबन्ध का कारण होती है, इसलिए कर्मबन्ध के हेतु रूप से इनकी परिगणना की जाती है। 'तत्त्वार्थसत्र' में कहा है 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः ॥८,१॥' -मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं। प्रमाद को पृथक् न गिनकर यह बात ‘समयप्राभृत' में इन शब्दों में कही गयी है 'सामाण्णपच्चया खलु चउरो भणंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य बोद्धव्वा ॥ १०६॥' कर्मबन्ध के कर्ता सामान्य कारण चार हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग। संसारी जीव परिणामों के अनसार कई भमिकाओं में विभक्त हैं। उनके आधार से उक्त प्रकार से बन्ध-कारणों का निर्देश किया है। प्रथम भूमिका मिथ्यादर्शन की है। यह जीव की ज्ञानचेतना के अभाव में होती है। यहाँ किसी के कर्मफल-चेतना की और किसी की कर्म-चेतना की प्रधानता देखी जाती है। इसमें बन्ध के सब हेतु पाये जाते हैं। किन्तु उनमें मिथ्यादर्शन की मुख्यता होने से यह मिथ्यादर्शन की भूमिका कहलाती है। दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं ये अविरति की भूमिकाएँ हैं। आदि की सब भूमिकाओं में परिपूर्ण अविरति होती है और पाँचवीं भूमिका में वह आंशिक होती है। इन भूमिकाओं में मिथ्यादर्शन के सिवाय बन्ध के केवल चार हेतु होते हैं। किन्तु यहाँ अविरति की प्रधानता होने से इन्हें अविरति की भूमिका कहते हैं। छठी प्रमाद की भूमिका है। यहाँ मिथ्यादर्शन, अविरति के बिना बन्ध के तीन हेतु होते हैं। किन्तु इसमें प्रमाद की प्रधानता होने से इसे प्रमाद की भूमिका कहते हैं। सातवीं, आठवीं, नौवीं और दसवीं ये Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा २६ कषाय की भूमिकाएँ हैं । यहाँ कषाय की प्रधानता होने से इन्हें कषाय की भूमिका कहते हैं। इनमें कषाय और योग ये दो बन्ध के हेतु होते हैं। आगे तेरहवीं भूमिका तक मात्र योग का सद्भाव होता है। चौदहवीं भूमिका बन्ध और बन्ध के हेतुओं से रहित है । आगम में इन भूमिकाओं की गुणस्थान संज्ञा है । जीव के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीन गुण हैं । इनके यथायोग्य तारतम्य से ये भूमिकाएँ निष्पन्न होती हैं । इनमें जहाँ जितने बन्ध के हेतु होते हैं, उनके अनुसार वहाँ कर्मबन्ध होता है । उसमें भी सब कर्मों के बन्ध के मुख्य कारण योग और कषाय हैं। योग से जीव और कर्म का संयोग होता है तथा कषाय से उसमें स्थिति और फलदान शक्ति का आविर्भाव होता है। कहा भी है 'जोगा पयडिपदेसा द्विदिअणुभागा कसायदो होंति ॥ ( द्रव्यसंग्रह, गाथा २६) योग से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है तथा कषाय से स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। ५. कर्म के भेद हम पहले कह आये हैं कि जीव का संसार कर्मों के संयोग से होता है। संसार अवस्था में कर्म जीव की अनुजीवी और प्रतिजीवी दोनों प्रकार की शक्तियों का घात करता है। इससे इसके अनेक भेद हो जाते हैं । किन्तु वर्गीकरण करने पर जाति की अपेक्षा उसके मुख्य भेद आठ होते हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ज्ञानावरण-जीव की ज्ञान शक्ति का आवरण करनेवाले कर्म की ज्ञानावरण संज्ञा है। इसके पाँच दर्शनावरण-जीव की दर्शन शक्ति का आवरण करनेवाले कर्म की दर्शनावरण संज्ञा है। इसके नौ वेदनीय-सुख और दुख का वेदन करानेवाले कर्म की वेदनीय संज्ञा है। इसके दो भेद हैं। मोहनीय - राग, द्वेष और मोह को उत्पन्न करनेवाले कर्म की मोहनीय संज्ञा है। इसके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दो भेद हैं। दर्शनमोहनीय के तीन और चारित्रमोहनीय के पच्चीस भेद हैं। भेद हैं। भेद हैं। आयु - नरकादि गतियों में अवस्थान के कारणभूत कर्म की आयु संज्ञा है। इसके चार भेद हैं । नाम - नाना प्रकार के शरीर, वचन और मन तथा जीव की गति, इन्द्रिय आदिरूप विविध अवस्थाओं के कारणभूत कर्म की नाम संज्ञा है। इसके तेरानवे भेद हैं। गोत्र - सदाचारियों और कदाचारियों की परम्परा में जन्म लेने या उसे स्वीकार करने की कारणभूत कर्म की गोत्र संज्ञा | जैनधर्म जाति या आजीविकाकृत मनुष्यों के नीच उच्च भेद को नहीं मानता। ये भेद गुणकृत माने गये हैं । साधु आचारवालों की परम्परा में जो जन्म लेते हैं, जो ऐसे मनुष्यों की संगति को जीवन का उच्चतम कर्तव्य समझते हैं और जो जीवन के संशोधन में सहायक आचार को अपने जीवन में स्वीकार करते हैं, उच्चगोत्री होते हैं और जो इनके विरुद्ध आचारवाले होते हैं वे नीचगोत्री होते हैं । नीचगोत्री अपने जीवन में अशुभ मार्ग का त्याग कर उच्चगोत्री हो सकते हैं। ऐसे मनुष्य श्रावकदीक्षा और मुनिदीक्षा के पूरे अधिकारी होते हैं। 1 अन्तराय - जीव की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच अनुजीवी शक्तियाँ हैं । इनका आवरण करनेवाले कर्म की अन्तराय संज्ञा है। इसके पाँच भेद हैं । इन आठों कर्मों के प्रकारान्तर से चार भेद हैं- जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवविपाकी । जिनका विपाक जीव में होता है, उनकी जीवविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के विपाक के फलस्वरूप Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० महाबन्ध जीव को अज्ञान, अदर्शन, सुख, दुख, राग, द्वेष और मोह आदि भावों की नरक आदि पर्यायों की उपलब्धि होती है। जिनका विपाक जीव से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध को प्राप्त पुद्गलों में होता है, उनकी पुद्गलविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के विपाकस्वरूप जीव को विविध प्रकार के शरीर, वचन और मन की उपलब्धि होती है। जिन कर्मों का विपाक भव में होता है, उनकी भवविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के विपाकस्वरूप जीव नरक आदि गतियों में अवस्थान करता है। तथा जिन कर्मों का विपाक क्षेत्र में उपलब्ध होता है, उनकी क्षेत्रविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के फलस्वरूप जीव पुरातन शरीर का त्याग कर नूतन शरीर को प्राप्त करने के लिए गमन करते हुए अन्तराल में पूर्व शरीर के आकार को धारण करता है। ये सब कर्म पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार के हैं। ये भेद फलदान शक्ति की मुख्यता से किये गये हैं। दान, पूजा, मन्दकषाय, साधुसेवा, दया, अलोभता, परगुणप्रशंसा, सत्समागम, अतिथिसेवा और वैयावृत्य आदि शुभ कार्यों के करने से और तदनुकूल मानस की वृत्ति होने से जिन कमों की गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृतोपम फलदान शक्ति उपलब्ध होती है, उनकी पुण्यकर्म संज्ञा है और मदिरापान, मांससेवन, परस्त्रीगमन, शिकार करना, जुआ खेलना, रात्रि भोजन करना, चुगली करना, अतिथि के प्रति आदरभाव न रखना, दुष्ट पुरुषों की संगति करना, परदोषदर्शन, कषाय की तीव्रता और लोभातिरेक आदि अशुभ कार्यों के करने से और तदनुकूल मानस वृत्ति के होने से जिन कर्मों की नीम, काँजीर, विष और हलाहल के समान फलदान शक्ति उपलब्ध होती है, उनकी पापकर्म संज्ञा है। फलदान-शक्ति घाति और अघाति के भेद से दो प्रकार की है। घातिरूप फलदान-शक्ति के चार भेद हैं-लता, दारु, अस्थि और शैल। उत्तरोत्तर शक्ति की कठोरता का ज्ञान कराने के लिए इसका यहाँ लता आदि रूप से नामकरण किया है। इस प्रकार की फलदान शक्ति से युक्त सब कर्म पापरूप ही होते हैं। किन्तु अघातिरूप फलदान शक्ति पाप और पुण्य के भेद से दो प्रकार की होती है। यह भी प्रत्येक चार-चार प्रकार की होती है। इसके नामों का निर्देश पहले किया ही है। प्रत्येक जीव में दो प्रकार के गुण होते हैं-अनुजीवी और प्रतिजीवी। जो केवल जीव में होते हैं, वे जीव के अनजीवी गण हैं और जो जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में भी उपलब्ध होते हैं, वे उसके प्रतिजीवी गुण हैं। कर्मों के घाति और अघाति इन भेदों का कारण मुख्यता ये दो प्रकार के गुण ही हैं। ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग ये अनुजीवी गुण हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म इन गुणों पर प्रहार करते हैं, इसलिए इनकी घाति संज्ञा है और इनके सिवाय शेष कर्मों की अघाति संज्ञा है। ६. कर्म का कार्य कर्म का मुख्य कार्य जीव को संसार में रोक रखना है। जीव के परावर्तन का नाम ही संसार है। वह पाँच प्रकार का है- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। कर्म के निमित्त से ही जीव इन पाँच प्रकार के परावर्तनों में परिभ्रमण करता है। चौरासी लाख योनियों में पभ्रिमण करते हुए जीव की जो विविध अवस्थाएँ होती हैं, उनका मुख्य निमित्त कर्म है। इसके कार्य का निर्देश करते हुए स्वामी समन्तभद्र 'आप्तमीमांसा में' कहते हैं _ 'कामादिप्रभवश्चित्रं कर्मबन्धानुरूपतः।' ‘जीव के कामादि भावों की उत्पत्ति अपने-अपने कर्मबन्ध के अनुरूप होती है।' हम जीव के दो भेदों का उल्लेख करके यह बतला आये हैं कि मुक्त अवस्था जीव की स्वाभाविक दशा है। इस अवस्था में जीव की प्रति समय जो परिणति होती है, उसके होने में साधारण कारण काल-द्रव्य को छोड़कर अन्य निमित्त की आवश्यकता नहीं पड़ती और इसी से वह परनिरपेक्ष होने से शुद्ध कहलाती Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा ३१ है। किन्तु संसार-अवस्था में जीव की प्रत्येक समय की परिणति निमित्त सापेक्ष होने से बदलती रहती है। कभी वह एकेन्द्रिय होता है, कभी द्वीन्द्रिय होता है, कभी त्रीन्द्रिय होता है, कभी चतुरिन्द्रिय होता है और होता है। पंचेन्द्रिय होकर भी कभी नारक होता है, कभी तिर्यंच होता है, कभी मनुष्य होता है और कभी देव होता है। कभी वह कामी होता है, कभी क्रोधी होता है, कभी मानी होता है और कभी विद्वान् या मूर्ख होता है। एक जीव बहुत प्रकार के आकार और शील, स्वभावों को धारण करता है। इस प्रकार संसार-अवस्था में जीव की प्रति समय की परिणति जुदी-जुदी होती रहती है, इसलिए इसके जुदे-जुदे निमित्त कारण माने गये हैं। ये निमित्त संस्कार रूप में आत्मा से सम्बद्ध होते रहते हैं और कालान्तर में तदनुकूल परिणति के उत्पन्न करने में सहायता प्रदान करते हैं। जीव की शुद्धता और अशुद्धता इन निमित्तों के सद्भाव और असद्भाव पर आधारित है। जब तक जीव इन निमित्तों के संचित होने में स्वयं सहायक होता है और वे उसकी प्रति समय की अवस्था के होने में सहायक होते हैं, तब तक जीव की अशुद्धता बनी रहती है और इस निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध की परम्परा का अन्त होने पर जीव शुद्ध दशा को प्राप्त हो जाता है। जैनदर्शन में जीव की अशुद्धता के करणभूत इन्हीं निमित्तों को कर्म शब्द से पुकारा जाता है। इस विषय में कर्म की आलोचना करनेवाले यह कहते हैं कि जिस समय जिस प्रकार की बाह्य सागग्री उपलब्ध होती है, उस समय संसारी जीव की उसके अनुकूल परिणति होती है। सुन्दर सुरूप स्त्री के मिलने पर राग होता है। जुगुप्सा की सामग्री मिलने पर ग्लानि होती है। विष आदि के भक्षण करने पर मरण होता है। धन-सम्पत्ति को देखकर लोभ होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने या चुरा लेने का भाव होता है। ठोकर लगने पर दःख होता है और हार का संयोग होने पर सख; इसलिए यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही जीव की विविध प्रकार की परिणति के होने में निमित्त नहीं है; किन्त अन्य पदार्थ भी उसके होने में निमित्त हैं। किन्तु विचार करने पर यह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अन्तरंग में वैसी योग्यता के अभाव में बाह्य सामग्री कुछ भी करने में समर्थ नहीं है। उदाहरणार्थ-एक ऐसा योगी है जिसका चित्त स्फटिक मणि के समान स्वच्छ निर्मल है। यदि उसके सामने चित्त को मोहित करनेवाली स्त्री या अन्य सामग्री उपस्थित की जाती है, तो भी उसके मन में राग पैदा नहीं होता। यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसे विवक्षित वस्तु अनिष्टकर प्रतीत होती है। भले ही वह वस्तु दूसरों के लिए प्रिय है; तो भी वह व्यक्ति उस वस्तु को देखकर अप्रसन्नता ही व्यक्त करता है। इससे विदित होता है कि अन्तरंग में योग्यता के अभाव में बाह्य वस्तु का कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कर्म के विषय में भी यही अनुपपत्ति की जाती है, पर कर्म और बाह्य सामग्री में मौलिक अन्तर है। कर्म का विशद विवेचन हम पिछले एक परिच्छेद में कर आये हैं। उससे विदित होता है कि जिस समय आत्मा जो भाव करता है, उस समय उस भाव के संस्कारों से युक्त कर्मरज आत्मा से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं और कालान्तर में वे ही कर्म आत्मा को सुख-दुःख के वेदन कराने में सहायक होते हैं; किन्तु बाह्य सामग्री की यह स्थिति नहीं है। ___ महर्षियों ने अपने अनुभव द्वारा दो प्रकार के निमित्त कारण स्वीकार किये हैं-कर्म और नोकर्म । नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती नोकर्म की मीमांसा करते हुए कहते हैं 'वस्त्र ज्ञानावरण का, प्रतीहार दर्शनावरण का, असि वेदनीय का, मद्य मोहनीय का, आहार आयु का, शरीर नामकर्म का, उच्च और नीच शरीर गोत्रकर्म तथा भण्डारी अन्तराय-कर्म का नोकर्म द्रव्यकर्म है।' आगे पुनः वे कहते हैं ‘मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का व्याघात करनेवाले वस्त्रादि पदार्थ मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का व्याघात करनेवाले संक्लेशकर पदार्थ अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म के नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। भैंस का दही आदि पदार्थ पाँच Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबन्ध निद्रावरण कर्मों के नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। इष्ट अन्नपानादि साता का, अनिष्ट अन्न-पानादि असाता का, आयतन सम्यक्त्व का अनायतन मिथ्यात्व का विडौल पुत्र हास्य का, सुपुत्र रति का, इष्टवियोग अनिष्टसंयोग अरति का और मृत पुत्रादि शोक का नोकर्म द्रव्यकर्म है।' इस कथन का मथितार्थ यह है कि कर्म के उदय से जीव के विविध प्रकार के अज्ञान, अदर्शन, सुख, दुःख, मिध्यात्व, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि परिणाम होते हैं अवश्य, पर इन भावों के निमित्तभूत कर्म के उदय में प्रायः वस्त्र आदि बाह्य पदार्थों की सहायता से ही वे परिणाम होते हैं । यतः ये कर्म के उदय में सहकार करते हैं, इसलिए इनकी नोकर्म संज्ञा है। इसी भाव को व्यक्त करते हुए 'कषायप्राभृत' के रचयिता गुणधर आचार्य कहते हैं 'खेत्तमभवकालपोग्गलट्ठिदिविगोदयखयो दु ॥' ३२ विविध प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये अपने-अपने योग्य कर्म के उदय में सहकार करते हैं और इससे कर्म का उदय होकर जीव इष्ट-अनिष्ट फल का भोक्ता होता है। उदाहरणार्थ- कोई मनुष्य क्षुधा से अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। ऐसी अवस्था में वहाँ एक दूसरा मनुष्य आता है और उसकी क्षुधाजन्य पीड़ा को देखकर उसे सुन्दर सुस्वादु भोजन कराता है। इससे उसकी क्षुधाजन्य वेदना दूर होने पर वह परम सुख का अनुभव करता है । यहाँ परम सुख के अनुभव कराने में साता का उदय कारण है। और साता के उदय में दूसरे मनुष्य द्वारा दिया गया सुन्दर सुस्वादु भोजन कारण है। यह द्रव्य नोकर्म का उदाहरण है। इसी प्रकार क्षेत्र आदि पदार्थ कर्म के शुभाशुभ फल के प्रदान करने में नोकर्म होते हैं। 1 किन्तु जिस प्रकार विवक्षित कर्म का विवक्षित भाव के साथ अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध है, उस प्रकार नोकर्म द्रव्यकर्म के साथ इन भावों का अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ- जीव का अज्ञान भाव ज्ञानावरण कर्म के उदय से ही होता है; अन्य प्रकार से नहीं । यह नहीं हो सकता कि ज्ञानावरण का उदय रहा आवे, पर अज्ञान भाव न भी हो, या यह भी नहीं हो सकता कि ज्ञानावरण का नाश हो जाने पर भी अज्ञान भाव बना रहे। जब होंगे ये परस्पर सापेक्ष ही होंगे जिसके ज्ञानावरण का उदय होता है, उसके अज्ञान भाव अवश्य ही होता है। इसी प्रकार जिसके अज्ञानभाव होता है, उसके ज्ञानावरण का उदय अवश्य ही होता है। इन दोनों की समव्याप्ति है। परन्तु इस प्रकार नोकर्म के साथ जीव के अज्ञान आदि भावों की समव्याप्ति नहीं है जो बस्त्र आदि अज्ञान के कारण माने जाते हैं, उनके रहने पर भी किसी के अज्ञान होता है और किसी के नहीं भी होता इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर बाह्य पदार्थों को नोकर्म संज्ञा दी है। कर्म वैसी योग्यता का सूचक है, पर बाह्य सामग्री का वैसी योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । कभी वैसी योग्यता के सद्भाव में भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और कभी उसके अभाव में भी बाह्य सामग्री का संयोग देखा जाता है किन्तु कर्म के सम्बन्ध में यह बात नहीं है उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मा से रहता है, जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता उपलब्ध होती है। इन दोनों तत्त्वों को कर्म और नोकर्म संज्ञा देने का यही कारण है । । I 1 इतने विवेचन से हम यह जानने में समर्थ होते हैं कि कर्म का कार्य क्या है तथापि इसे और अधिक विशदरूप से समझने के लिए सर्वप्रथम उसके वर्गीकारण पर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक है। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मुख्य कर्म आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें से प्रारम्भ के तीन और अन्तराय ये चार घातिकर्म हैं और शेष अघातिकर्म हैं । प्रकारान्तर से ये आठों कर्म जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी इन चार भागों में बटे हुए हैं । जीवविपाकी कर्म वे हैं, जिनका विपाक जीव में होता है। जिनके विपाकस्वरूप शरीर, वचन और मन की प्राप्ति होती है, वे पुद्गलविपाकी कर्म हैं । भव के निमित्त से जिनका फल मिलता है, वे भवविपाकी कर्म कहे जाते हैं और क्षेत्र विशेष में जो अपना कार्य करते हैं, वे क्षेत्रविपाकी कर्म है । भवविपाकी और क्षेत्रविपाकी कर्म जीवविपाकी कर्मों के ही अवान्तर भेद हैं; केवल कार्यविशेष का ज्ञान कराने के लिए इनका Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा ३३ अलग से निर्देश किया है, इसलिए कर्मों के मुख्य भेद दो हैं-जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी। कर्म के कार्य को ठीक तरह से हृदयंगम करने के लिए ये दो भेद हमें प्रकाश का काम देते हैं। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि जीव का संसार जीव और पुद्गल इन तत्त्वों के संयोग का फल है। अकेला जीव संसारी नहीं हो सकता और अकेला कर्म भी कुछ नहीं कर सकता। इन दो तत्त्वों के मिलाप के फलस्वरूप संसार की सृष्टि होती है। इसलिए कर्म का प्रथम कार्य जीव को संसारी बनाना है। इसके बाद कर्मों के उक्त वर्गीकरण पर दृष्टिपात करने से हम जानते हैं कि जीव की नर-नरकादि विविध अवस्थाएँ, सुख-दुःख और अज्ञान आदि भाव ये जीवविपाकी कर्मों के कार्य हैं और विविध प्रकार के शरीर, मन, वचन ये पुद्गलविपाकी कर्मों के कार्य हैं। इस विवेचन के उपसंहारस्वरूप हम कह सकते हैं कि कर्म के निमित्त से जीव की विविध प्रकार की अवस्था और भाव होते हैं और जीव में ऐसी योग्यता उत्पन्न होती है, जिससे वह योगद्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें शरीरादिरूप से परिणमाता है। इस विषय में अधिकतर विद्वान् यह विचार व्यक्त करते हैं कि केवल इतना ही कर्म का कार्य नहीं है, किन्तु धन-सम्पत्ति, महल, बगीचा, राज्य, पुत्र, स्त्री आदि सम्पदाएँ भी कर्म के कार्य हैं। पुण्य कर्म के उदय से जीव को सखकर सामग्रियों की प्राप्ति होती है और पाप के उदय से दःखकर सामग्री मिलत ऐसे ही विचार कुछ प्राचीन लेखकों ने भी व्यक्त किये हैं। पण्डितप्रवर टोडरमलजी 'मोक्षामार्गप्रकाशक' में लिखते हैं - 'तहाँ वेदनीय करि तो शरीर विर्षे व शरीर तैं बाह्य नाना प्रकार सुख-दुःखनिको कारण पर द्रव्यनि का संयोग जुरै है।' -मोक्षमार्गप्रकाशक, दूसरा अधिकार, दिल्ली पृ. ३०) इसी अभिप्राय को उन्होंने दूसरे स्थल पर इन शब्दों में दुहराया है'बहरि कर्मनिविषै वेदनीय के उदयकरि शरीर विषै बाह्य सुख-दुःख का कारण निपजै है। शरीर विषै आरोग्यपनौ रोगीपनौ शक्तिवानपनौ दुर्बलपनौ अर क्षधा, तषा, रोग, खेद, पीडा इत्यादि सख-दःखनि के कारण हो हैं। वहुरि बाह्य विर्षे सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक .. सुख-दुःख के कारण हो हैं।' (मोक्षमार्गप्रकाशक, दूसरा अधिकार, दिल्ली, पृ. ५०) इन विचारों के अनुरूप वातावरण बनने में नीतिकारों, कथालेखकों और नैयायिक दर्शन से बड़ी सहायता मिली है। नीतिकारों और कथालेखकों की यह प्रवृत्ति रही है कि जिस विषय की उन्होंने प्रशंसा म्भ की उसे चरम सीमा पर पहुँचाकर ही छोड़ा और जिस विषय की उन्होंने निन्दा करना प्रारम्भ की उसकी दुर्गति बनाकर ही उन्होंने साँस ली। कर्म की प्रशंसा में वे लिखते हैं _ 'भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषम्।' भाग्य ही सर्वत्र काम करता है, विद्या और पौरुष कुछ काम नहीं आता। 'जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चित्तटगोऽपि रत्नमुपयाति।' पापी जीव समुद्र में प्रवेश करने पर भी रत्न नहीं पाता, किन्तु पुण्यात्मा जीव तटपर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है। 'लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः।' ललाट में जो कर्म की रेखा खिंच गयी है, उसे मेटने के लिए कौन समर्थ है? 'जलनिधिपरतटगतमपि करतलमायाति यस्य भवितव्यम्। करतलगतमपि नश्यति यस्य च भवितव्यता नास्ति ॥' Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबन्ध जिसका भाग्य अनुकूल होता है, उसके समुद्र के उस पार गयी हुई वस्तु भी हाथ में आ जाती है और जिसका भाग्य प्रतिकूल होता है, उसके हाथ में आयी हुई भी वस्तु नष्ट हो जाती है । 'नाभव्यं भवतीह कर्मवशतो भावस्य नाशः कुतः ।' ३४ लोक में जो होनेवाला नहीं है, वह नहीं ही होता और जो होनेवाला होता है, वह होकर ही रहता है । यह सब विधिविधान कर्म के आधीन है। कथा-लेखकों और पुराणकारों की स्थिति इससे भिन्न नहीं है। ऐसा करते हुए उन्होंने कर्मवाद के आध्यात्मिक पहलू को भुलाकर मात्र पिछली कई शताब्दियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था के नियमों को ही सदा अपने सामने रक्खा है । और इसलिए उन्होंने ईश्वर के समान कर्म का अस्त्र के रूप में उपयोग किया है। यहाँ हमें इन विचारों के कारणों की छानबीन कर लेना उपयुक्त प्रतीत होता है। यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि परलोकवादी जितने दर्शन हैं, उन सबने कर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है; किन्तु इन सबका दार्शनिक दृष्टिकोण अलग-अलग होने से कर्म की व्याख्या भी उन्होंने अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुरूप ही की है । प्रकृत में उपयोगी होने से यहाँ हम इस सम्बन्ध में नैयायिक दर्शन के दृष्टिकोण को उपस्थित करेंगे। नैयायिक दर्शन कार्यमात्र के प्रति कर्म को कारण मानता है। वह कर्म को जीवनिष्ठ मानता है। उसका कहना है कि चेतनगत जितनी विषमताएँ हैं, उनका कारण कर्म तो है ही; साथ ही वह अचेतनगत सब प्रकार की विषमताओं का और उनके न्यूनाधिक संयोगों का भी जनक है। उसके मत से जगत् में द्व्यणुक आदि जितने भी कार्य होते हैं, वे किसी-न-किसी के उपभोग के योग्य होने से उनका कर्ता कर्म ही है। इस दर्शन में तीन प्रकार के कारण माने गये हैं-समवायी कारण, असमवायी कारण और निमित्त कारण। जिस द्रव्य में कार्य की सृष्टि होती है, वह द्रव्य उस कार्य के प्रति समवायी कारण है। संयोग असमवायी कारण है । और अन्य सहकारी सामग्री निमित्त कारण है। तथा काल, दिशा, ईश्वर और कर्म ये कार्यमात्र के प्रति निमित्त कारण हैं। इनकी सहायता के बिना कोई कार्य नहीं होता । ईश्वर और कर्म कार्यमात्र के प्रति साधारण कारण क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर नैयायिक दर्शन इन शब्दों में देता है कि लोक में जितने कार्य होते हैं, वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं, इसलिए ईश्वर सबका साधारण कारण है। इस पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब सबका कर्ता ईश्वर है, तब फिर उसने सब प्राणधारियों को एक-सा क्यों नहीं बनाया? वह सबको एक-से सुख, एक-से भोग और एक-सी बुद्धि दे सकता था । स्वर्ग या मोक्ष का अधिकारी भी सबको एक-सा बना सकता था । दुःखी, दरिद्र और निकृष्ट योनिवाले प्राणियों की उसे रचना ही नहीं करनी थी। उसने ऐसा क्यों नहीं किया? जगत् में तो विषमता ही विषमता दिखाई देती है। इसका अनुभव सभी को होता है। क्या जीवधारी और क्या जड़ जितने भी पदार्थ हैं उन सबकी आकृति, स्वभाव और जाति जुदी जुदी है। एक का मेल दूसरे से नहीं खाता। मनुष्य को ही लीजिए। एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में बड़ा अन्तर है। एक सुखी है तो दूसरा दुःखी। एक के पास सम्पत्ति का विपुल भण्डार है, तो दूसरा दाने-दाने को भटकता फिरता है। एक सातिशय बुद्धिवाला है, तो दूसरा निरामूर्ख । मत्स्यन्याय का सर्वत्र बोलवाला है। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाना चाहती है। यह भेद यहीं तक सीमित नहीं है । धर्म और धर्मायतनों में भी यह भेद दिखाई देता है। यदि ईश्वर ने सबको बनाया है और वह मन्दिरों में बैठा है, तो उस तक सबको क्यों नहीं जाने दिया जाता। क्या उन दलालों का जो अन्य को मन्दिर में जाने से रोकते हैं, उसी ने निर्माण किया है? ऐसा क्यों है? जब ईश्वर ने ही इस जगत् को बनाया है और वह करुणामय तथा सर्वशक्तिमान है, तब फिर उसने जगत् की ऐसी विषम रचना क्यों की? यह प्रश्न है जिसका उत्तर नैयायिक दर्शन कर्मवाद को स्वीकार करके देता है। वह जगत् की इस Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा ३५. विषमता का कारण कर्म को मानता है। उसका कहना है कि ईश्वर जगत् का कर्ता है तो सही, पर उसने विश्व की रचना प्राणियों के कर्मानुसार की है। जीव जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं। यदि अच्छा कर्म करता है, तो अच्छी योनि और अच्छे भोग मिलते हैं। कविवर तुलसीदास जी इसी तत्त्व को स्वीकार करते हुए 'रामचरितमानस' में कहते हैं 'करम प्रधान विश्व करि राखा जो जस करहि सो तस फल चाखा।।' I ईश्वर ने विश्व की रचना कर्म प्रधान की है उसे फल मिलता है। जो अच्छा या बुरा, जैसा काम करता है, उसी के अनुरूप नैयायिक दर्शन कार्यमात्र के प्रति कर्म को साधारण कारण मानता है। इसके अनुसार जीवात्मा व्यापक है, इसलिए जहाँ भी उसके उपभोग के योग्य कार्य की सृष्टि होती है, वहाँ उसके कर्म का संयोग होकर ही वैसा होता है। अमेरिका में बननेवाली जिन कारों (मोटरों) तथा अन्य पदार्थों का भारतीयों द्वारा उपभोग होता है, वे उनके उपभोक्ताओं के कर्मानुसार ही निर्मित होते हैं और इसीसे वे कालान्तर में अपने-अपने उपभोक्ताओं के पास पहुँच जाते हैं। उपभोग योग्य वस्तुओं के विभागीकरण का कर्म तुलादण्ड है। जिसके पास विपुल सम्पत्ति है, वह उसके कर्मानुसार है और जो निर्धन है वह भी अपने कर्मानुसार है। कर्म बटवारे में कभी भी पक्षपात नहीं होने देता। गरीब और अमीर का भेद तथा स्वामी और सेवक का भेद मानवकृत नहीं है। अपने-अपने कर्मानुसार ही इन भेदों की सृष्टि होती है। इसी प्रकार जातिकृत भेद भी कर्मकृत ही है। संक्षेप में नैयायिक दर्शन का मन्तव्य यह है कि प्राणी जो भी अच्छे-बुरे कर्म करता है, उसके अनुसार ईश्वर उसके फल की व्यवस्था करता है। यदि कोई मनुष्य किसी के धन का अपहरण करता है, तो अगले भव में उसके धन का अवश्य ही अपहरण होता है और वर्तमान भव में वह किसी की सहायता करता है, तो अगले भव में उसे अवश्य ही सहायता मिलती है। किन्तु जैनदर्शन में बतलाये गये कर्मवाद से इस मत का समर्थन नहीं होता । यहाँ कर्मवाद की प्राण-प्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारों पर की गयी है। ईश्वर को तो जैनदर्शन स्वीकार करता ही नहीं। वह निमित्त को स्वीकार करके भी कार्य के आध्यात्मिक विश्लेषण पर अधिक जोर देता है। नैयायिक और वैशेषिक दर्शन ने कार्य कारणभाव की जो व्यवस्था की है, वह उसे मान्य नहीं है। उसका मत है कि पर्यायक्रम से बदलते रहना यह प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। इसके मत से जिस काल में वस्तु की जैसी योग्यता होती है, उसी के अनुसार कार्य होता है जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिस कार्य के अनुकूल होता है, वह उसका निमित्त कहा जाता है। कार्य अपने उपादान से होता है; किन्तु कार्यनिष्पत्ति के समय अन्य वस्तु की अनुकूलता ही निमित्तता की प्रयोजक है । निमित्त उपकारी कहा जा सकता है; कर्ता नहीं । जैनदर्शन ने जगत् को अकृत्रिम और अनादि क्यों माना है, इसका रहस्य यही है। वह यावत् कार्यों में बुद्धिमान् निमित्त को आवश्यकता स्वीकार नहीं करता घटादि कार्यों की उत्पत्ति में यदि बुद्धिमान् निमित्त देखा भी जाता है, तो इससे सब कार्यों में बुद्धिमान् को निमित्त मानना उचित नहीं है; ऐसा इसका मत है। 1 जैनदर्शन कर्म को स्वीकार करके भी यावत् कार्यों के प्रति उसे निमित्त कारण नहीं मानता। वह जीव की विविध अवस्थाएँ, शरीर, इन्द्रिय, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास इन कार्यों के प्रति ही कर्म को निमित्त कारण मानता है। इस दर्शन में कर्मवाद की जो व्यवस्था की गयी है, उसके अनुसार अन्य कार्य अपने-अपने कारणों से होते हैं; कर्म उनका कारण नहीं है। उदाहरणार्थ- पुत्र का प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगार में नफा-नुकसान का होना, दूसरे के द्वारा अपमान या सम्मान का किया जाना, अकस्मात् मकान का गिर पड़ना, फसल का नष्ट हो जाना, दुर्घटना द्वारा एक या अनेक व्यक्तियों की मृत्यु का होना, ऋतु का अनुकूल या प्रतिकूल होना, अकाल या सुकाल का पड़ना, रास्ता चलते-चलते अपघात का हो जाना, मनुष्य आदि पर बिजली आदि गिरकर उसका मर जाना, शरीर में रोगादिक का होना तथा विविध प्रकार के इष्टानिष्ट Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबन्ध संयोगों व वियोगों का होना आदि जितने कार्य हैं, उनका कर्म कारण नहीं है। भ्रम से इन्हें कर्मों का कार्य माना जाता है। पुत्र की प्राप्ति होने पर मनुष्य भ्रमवश उसे अपने शुभ कर्म का कार्य समझता है और उसके मर जाने पर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कर्म का कार्य समझता है। पर क्या पिता के पाप कर्म के उदय से पुत्र की मृत्यु या पिता के पुण्योदय से पुत्र की उत्पत्ति सम्भव है। कभी नहीं। सच बात तो यह है कि ये इष्ट संयोग और इष्ट वियोग आदि जितने कार्य हैं, वे पुण्य और पाप कर्म के कार्य नहीं हैं। निमित्त अन्य बात है और कार्य अन्य बात है। कर्मोदय के निमित्त को कर्म का कार्य कहना उचित नहीं है। यहाँ प्रसंग से हम उस मत की आलोचना करेंगे, जिसके अनुसार बाह्य इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग में कर्म की उपादेयता स्वीकार की जाती है। प्रश्न यह है कि एक सम्पन्न घर में उत्पन्न होता है और दूसरा दरिद्र घर में। एक अल्पायु होता है और दूसरा दीर्घायु । एक को जीवन में नाना प्रकार के पूजा-सत्कार की प्राप्ति होती है और दूसरा दर-दर का भिखारी बना फिरता है। एक स्वर्ग जाकर देवसुख का उपभोग करता है और दूसरा नरक का कीड़ा होकर अनन्त यातनाएँ सहन करता है। यदि इष्टसंयोग और इष्टवियोग आदि पुण्य और पाप कर्म का फल नहीं है, तो यह सब क्यों होता है? यह तो हम देखते हैं कि लोक में एक ऐश्वर्यशाली होता है और दूसरा दरिद्र । तथा हम आगम से यह भी जानते हैं कि देवलोक में भोगोपभोग की विपुल सामग्री उपलब्ध होती है और नरक में न केवल उसका सर्वथा अभाव ही दिखाई देता है, प्रत्युत वहाँ बहुतायत से दुःख के साधन ही देखे जाते हैं, पर ऐसा क्यों होता है-इसका विचार हमें तात्त्विक दृष्टि से करना चाहिए। आगम में व्यवस्था दो प्रकार की बतलायी है-एक शाश्वतिक व्यवस्था और दूसरी प्रयत्नसाध्य व्यवस्था। देवलोक, नरक और भोगभूमि में शाश्वतिक व्यवस्था होती है। वहाँ अनादि काल पहले जो व्यवस्था थी. वही आज भी है। जहाँ जितने विमान, नरक या कल्पवृक्ष आदि हैं, वे सदा उतने ही बने रहेंगे। उनका जो शृंगार है, वह भी उसी प्रकार बना रहेगा। उसमें तिलमात्र भी अन्तर नहीं हो सकता। इसलिए अपने पूर्वबद्ध आयुकर्म के अनुसार जो जहाँ उत्पन्न होता है, उसे वहाँ की सुख-दुःख में निमित्त पड़नेवाली सामग्री अनायास मिलती है और जीवन के अन्तिम क्षणतक उसका संयोग बना रहता है। पुण्यातिशय न तो इसमें वृद्धि ही कर सकता है और न हीनपुण्य उसमें न्यूनता ही ला सकता है। हम यह तो कह नहीं सकते कि इन स्थानों में कर्मों का विपाक एक समान होता है; क्योंकि एक तो आगम में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता और मनुष्य की युक्ति व विवेक भी इसे स्वीकार नहीं करता। आगम में तो यहाँ तक निर्देश किया है कि जिस प्रकार देवों के साता का उदय होता है, उसी प्रकार असाता का भी उदय होता है। नारकियों के सम्बन्ध में भी यही बात कही गयी है। आगम का यह कथन तभी युक्तियुक्त ठहरता है, जब हम यह मान लेते हैं कि इन स्थानों में भी कर्म के विपाक में न्यूनाधिकता व यथासम्भव फेर-बदल देखा जाता है। थोड़ी देर को हम इस सामग्री को पुण्य और पाप का फल मान भी लें, तब भी हमारे सामने यह तो प्रश्न रहता ही है कि यदि देवलोक की सामग्री पुण्य से मिलती है, तो ऊपर-ऊपर के देवों के पुण्यातिशय की विशेषता होने से उत्तरोत्तर विपुल सामग्री की उपलब्धि होनी चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता। 'तत्त्वार्थसूत्र' में लिखा है कि ऊपर-ऊपर के देव गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान से हीन-हीन होते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' के इस कथन की सार्थकता तभी बन सकती है, जब हम बाह्य सामग्री की प्राप्ति पुण्य का फल नहीं मानते हैं। इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि तो फिर इसकी प्राप्ति का कारण क्या है? प्रश्न स्पष्ट है और उसका उत्तर भी स्पष्ट है कि बाह्य सामग्री की प्राप्ति का मूल कारण पुण्य न होकर प्राणी की कषाय है। एक कषाय ही ऐसा पदार्थ है जिसके निमित्त से यह प्राणी बाह्य परिग्रह को स्वीकार करता है, उसका अर्जन करता है, संचय करता है और संचित द्रव्य का संरक्षण करता है। आगम में बतलाया है कि अमुक लेश्यावाला जीव मरकर अमुक स्वर्ग या नरक में मरकर उत्पन्न होता है और यह भी बतलाया है कि जो जीव जिस प्रकार के स्थान को प्राप्त करता है, उसके मरण के पूर्व नियम से उस प्रकार की लेश्या हो जाती Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा ३७ है। और यथासम्भव जीवन भर वह बनी रहती है। यह लेश्या क्या है? कषाय ही तो है। इसमें योग को पुट देकर उसकी लेश्या संज्ञा रख दी है। पुण्य और पाप की जिनागम में लोकोत्तर व्याख्या की गयी है। पुण्यकर्म का उपदेश क्या इसलिए दिया जाता है कि वह इस जीवन में हेय जानकर जिस बाह्य और अन्तरंग परिग्रह का त्याग करता है, अगले जन्म में उसके फलस्वरूप उसे वह पुनः प्राप्त कर अनन्त संसार का पात्र बने। पुण्यकर्म की इससे बड़ी और विडम्बना क्या हो सकती है? हेय जानकर जिन पदार्थों का इस जीवन में त्याग किया जाता है. उसके फलस्वरूप वह संसार-बन्धनों को अंशतः ढीला करता है और यदि यह वासना चिरकाल तक बनी रहती है, तो पुनः वह उसी मार्ग पर दृढ़ सापूर्वक चलने लगता है; जिसके फलस्वरूप ऐसा क्षण उपस्थित होता है, जब वह समग्ररूप से भवबन्धन को काटने में समर्थ होता है। यह पुण्यकर्म की लोकोत्तर व्यवस्था है और इसलिए हम दृढ़तापूर्वक कह सकते हैं कि बाह्य सामग्री की प्राप्ति पुण्यकर्म का फल त्रिकाल में नहीं है। __अब हम इस लोक की ओर मुड़ते हैं। इस लोक में हम अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ देखते हैं। ये सब व्यवस्थाएँ किसने की? पुराकृत कर्म यदि इनका कारण है, तब तो हमें उनके सम्बन्ध में बोलने का अधिकार ही नहीं रहता। और यदि इनके निर्माण में मनुष्य का हाथ माना जाता है, तो हमें इन सब व्यवस्थाओं के प्रति मनुष्य की कषाय को ही उत्तरदायी मानना चाहिए, न कि कर्म को। कर्म व्यकि पुराकृत कार्यों का लेखा है और व्यवस्थाएँ समाजरचना का अंग हैं। इसलिए लोक में एक का दरिद्र होना और दूसरे का राजा बनना; यह कर्म का कार्य नहीं होकर समाजरचना का फल है। देखो, यहाँ सर्वप्रथम भोगभूमि थी। उस समय प्रकृति से प्राप्त साधनों से प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। धीरे-धीरे इस स्थिति में परिवर्तन होता है। साधनों की विरलता के साथ मनुष्यों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगती हैं। सब मनुष्य एक प्रकार के साधनों के आधार से आजीविका नहीं कर सकते; यह देख विविध प्रकार के कला-कौशल और उद्योगों का निर्माण होता है। पृथिवी का पेट चीरकर साधन उपलब्ध करने की कला अवगत की जाती है। पुरानी व्यवस्थाओं का स्थान नयी व्यवस्थाएँ लेती हैं। तब भी मनुष्यों के अभाव की पूर्ति नहीं होती, इसलिए मनुष्य अलग-अलग समुदायों में विभक्त होकर पृथिवी माता का बटवारा करते हैं। सबके अलग-अलग नियम बनते हैं। चतुर चालाक मनुष्य आगे आते हैं। वे साधनों पर एकाधिकार स्थापित करते हैं और दूसरे प्रकार के मनुष्य पीछे रह जाते हैं। इससे मानव समुदाय में बेचैनी बढ़ती है। वह मिल कर व्यवस्था को उलटने का प्रयत्न करता है। इस समय हम विश्व में जो अनेक वाद और व्यवस्थाएँ देख रहे हैं; यह उनका संक्षिप्त लेखा है। इसके बाद भी यदि हम एक का गरीब होना और दूसरे का श्रीमान् होना आदि का कारण कर्म को मानते हैं, तो कहना होगा कि यह वह कर्मवाद नहीं है, जिसका उपदेश तीर्थंकरों ने विश्व को दिया था। साधारणतः प्राचीन साहित्य में हमें दो तरह के मतों का उल्लेख मिलता है जिनमें बाह्यसामग्री की प्राप्ति के कारणों का निर्देश किया गया है। आगे इन दोनों के आधार से विचार कर लेना इष्ट है (१) षटखण्डागम चूलिका अनुयोगद्वार में प्रकृतियों का नाम निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीका में वीरसेन स्वामी ने इनका विस्तृत विवेचन किया है। वहाँ सर्वप्रथम वे सातावेदनीय और आसातावेदनीय के उसी स्वरूप का निर्देश करते हैं जो सर्वत्र प्रसिद्ध है और जो उनके जीवविपाकी प्रकृति होने के अनुरूप है। किन्तु शंका-समाधान के प्रसंग से वे सातावेदनीय को जीवविपाकी के समान पुद्गलविपाकी भी मान लेते हैं। यद्यपि यह उनका व्यक्तिगत मत कहा जा सकता है, पर इससे इस कथन का समर्थन है कि सातावेदनीय को पुद्गलविपाकी माने बिना उसे बाह्य सामग्री की प्राप्ति में कारण नहीं माना जा सकता। (२) 'तत्त्वार्थसूत्र' अध्याय २ की 'सर्वार्थसिद्धि' और 'राजवार्तिक' टीका में अरिहन्तों को प्राप्त होनेवाली सिंहासन आदि विभूति के कारणों का निर्देश करते हुए लाभान्तराय आदि कर्मों के क्षय को उसका कारण बतलाया है। किन्तु सिद्धों में अतिप्रसंग दोष देने पर इसके साथ शरीर नामकर्म आदि की अपेक्षा और लगा दी है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबन्ध ये दो मत हैं जिन में बाह्य सामग्री की प्राप्ति के कारणों का स्पष्ट निर्देश किया है। अधिकतर विद्वान् इन्हीं दोनों मतों का आश्रय लेते हैं। कोई वेदनीय को बाह्य सामग्री की प्राप्ति का निमित्त कहते हैं और कोई लाभान्तराय आदि के क्षय व क्षयोपशम को । साधारणतः यह धारणा हो जाने से कि संसारी प्राणी को जो भी संयोग-वियोग होता है, वह पुराकृत कर्म के विपाक के बिना नहीं हो सकता। विद्वान् प्रत्येक प्रश्न का उत्तर कर्मवाद से देने का प्रयत्न करते हैं। हम पहले नैयायिक सम्मत कर्मवाद का निर्देश कर आये हैं। वहाँ यह भी बतला आये हैं कि यह दर्शन कार्यमात्र के होने में कर्म को कारण मानता है। अधिकतर अन्य लेखकों ने इस मत से प्रभावित होकर ही भ्रान्ति की है। ३८ । हम रेलगाड़ी से सफर करते हैं। हमें वहाँ अनेक प्रकार के मनुष्यों का समागम होता है। कोई हँसता हुआ मिलता है, तो कोई रोता हुआ। इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी तो क्या ये हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण रेलगाड़ी में सफर करने आये हैं? कभी नहीं। जैसे हम अपने काम से सफर कर रहे हैं, वैसे वे भी अपने-अपने काम से सफर कर रहे हैं । उनके संयोग-वियोग में न हमारा कर्म कारण है और न उनका ही कर्म कारण है। 1 हमारे मकान का मुख पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं की ओर है उससे प्रतिदिन सूर्य रश्मियाँ घर को आलोकित करती रहती हैं। जाड़े के दिनों में वह प्रकाश हमें सुखद प्रतीत होता है और गरमी के दिनों में दुःखकर प्रतीत होता है, तो क्या यह प्रकाश हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण हमारे मकान में स्थान पाता है? कभी नहीं । मकान का मुख पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं की ओर है, इसलिए सूर्य- रश्मियों को मकान में प्रवेश करने में बाधा उपस्थित नहीं होती। हमारी 'दुकान बम्बई में है। हमने अपनी समझ से एक अच्छे आदमी को उसका मुख्याधिकारी नियुक्त किया है। वह वहाँ का सब काम सम्हालता है। कभी दुकान में लाभ होता है और कभी हानि। तो क्या हमारे शुभाशुभ कर्मों के कारण वहाँ हानि-लाभ होता है? यदि हानि का कारण हमारा कर्म है, तो हम मुनीम को क्यों दोष देते हैं और लाभ के प्रति भी हमारा कर्म दायी है, तो हम मुनीम की पीठ क्यों ठोकते हैं? पूर्वोक्त व्यवस्था के अनुसार मुनीम तो एक प्रकार का यन्त्र है जो हमारे कर्म से प्रेरित होकर काम करता है । उसका उसमें गुण-दोष ही क्या है? हमारी पत्नी ने मनपसन्द एक साड़ी खरीदी है। वह उसे बड़े जतन से पेटी में सम्हालकर रखती है। पेटी की बगल में एक सूराख है, जिसका उसे ज्ञान नहीं है। उसकी समझ से साड़ी सुरक्षित रखी हुई है, किन्तु प्रतिदिन एक घुहिया सूराख से भीतर जाकर उसे कुतरती रहती है। जब तक उसे हानि का ज्ञान नहीं होता वह प्रसन्न रहती है, किन्तु इसका ज्ञान होने पर वह विकलता का अनुभव करने लगती है। यदि वह हानि उसके कर्मानुसार होती है, तो जब से यह हानि होती है तभी से वह विकलता का अनुभव क्यों नहीं करती? स्पष्ट है कि ये या इसी जाति के लोक में और जितने संयोग-वियोग हैं, उनमें कर्म का रंचमात्र भी हाथ नहीं है । सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्मों की व्याप्ति सुख और दुःख के साथ की जा सकती है, बाह्य साधनों के सद्भाव और असद्भाव के साथ नहीं। यही कारण है कि श्रावक के अल्प परिग्रही और साधु के अपरिग्रही होने पर भी वे उत्तरोत्तर पुण्यात्मा अर्थात् पुण्य कर्म के उपभोक्ता होते हैं, क्योंकि वे बहुपरिग्रही व्यक्ति की अपेक्षा उत्तरोत्तर परम सुख का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार जब हम लाभान्तराय आदि कर्मों के क्षय या क्षयोपशमजन्य कार्यों की मीमांसा करते हैं, तो हमें बलात् मानना पड़ता है कि इन कर्मों का क्षय व क्षयोपशम भी बाह्य सामग्री के संयोग-वियोग का कारण नहीं हो सकता। कारण कि आत्मा की जो दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य की पाँच अनुजीवी शक्तियाँ मानी गयी हैं; अन्तराय कर्म उनका ही आवरण करता है, अतएव अन्तराय कर्म के क्षय व क्षयोपशमसे ये अनुजीवी शक्तियाँ आविर्भूत होती हैं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा ३६ इस प्रकार यह ज्ञात हो जाने पर कि बाह्य साधनों की उपलब्धि न तो साता और असातावेदनीय के निमित्त से होती है और न लाभान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशमसे ही होती है, तब हमें उनकी उपलब्धि के कारणों पर अवश्य ही विचार करना होगा। लोक में बाह्य साधनों की प्राप्ति के अनेक मार्ग दिखाई देते हैं। उदाहरणार्थ-उद्योग करना, व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापार के साधन जुटाना, राज्याधिकारियों की या साधन-सम्पन्न व्यक्तियों की चाटुकारी करना, उनसे मित्रता बढ़ाना, अर्जित धन की रक्षा करना, उसे व्याज पर लगाना, प्राप्त धन को विविध व्यवसायों में लगाना, खेती करना, झाँसा देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुआ खेलना, भीख माँगना, धर्मादाय को संचित कर पचा जाना, आदि बाह्य साधनों की प्राप्ति के साधन हैं। इन व अन्य कारणों से बाह्य साधनों की उपलब्धि होती है; कर्मों से नहीं। शंका-इन सब उपायों के या इनमें से किसी एक उपाय के करने पर हानि देखी जाती है सो इसका क्या कारण है? समाधान-प्रयत्न की कमी, या बाह्य परिस्थिति या दोनों। शंका-कदाचित व्यवसाय आदि के नहीं करने पर भी धन की प्राप्ति देखी जाती है सो इसका क्या कारण है? समाधान-यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है? क्या किसी के देने से हुई है या कहीं पड़ा हुआ मिलने से हुई है? यदि किसी के देने से हुई है तो इसमें जिसे मिला है, उसके विद्या आदि गुण कारण हैं या देनेवाली की स्वार्थसिद्धि और प्रेम आदि कारण हैं। यदि कही पड़ा हुआ होने से उसकी प्राप्ति हुई है, तो इस मार्ग से प्राप्त हुआ धन पुण्यकर्म का फल कैसे कहा जा सकता है? यह तो चोरी है। अतः चोरी का भाव ही इस प्रकार से धन की प्राप्ति में कारण है; साता का उदय नहीं। शंका-दो आदमी एक साथ एक-सा व्यवसाय करते हैं, फिर क्या कारण है कि एक को लाभ होता है और दूसरे को हानि? समाधान व्यापार करने में अपनी-अपनी योग्यता और उनकी अलग-अलग परिस्थिति आदि इसका कारण है; पाप-पुण्य नहीं। संयुक्त व्यापार में एक को हानि और दूसरे को लाभ हो, तो कदाचित हानि-लाभ पाप-पुण्य का फल माना भी जाय। पर ऐसा होता नहीं, अतः हानि-लाभ को पाप-पुण्य का फल मानना उचित नहीं है। शंका-यदि बाह्य साधनों का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है, तो फिर एक गरीब और दूसरा श्रीमान् क्यों होता है? समाधान-एक का श्रीमान् और दूसरे का गरीब होना यह सामाजिक व्यवस्था का फल है; पुण्य-पाप का नहीं। जिन देशों में पूँजीवादी व्यवस्था है और व्यक्ति की संग्रह करने की कोई सीमा नहीं है, वहाँ अपनी-अपनी योग्यता व साधनों के अनुसार मनुष्य उसका संचय करते हैं। गरीब-अमीर वर्ग की सृष्टि इसी व्यवस्था का फल है। गरीब और अमीर इन भेदों को पाप-पुण्य का फल मानना किसी भी अवस्था में उचित नहीं है। रूस ने बहुत कुछ हद तक इस व्यवस्था का अन्त कर दिया है, इसलिए वहाँ इस प्रकार का भेद बहुत ही कम दिखाई देता है, फिर भी पुण्य-पाप तो वहाँ भी हैं। सचमुच में पुण्य-पाप तो वह है जो इन बाह्य व्यवस्थाओं से परे है और वह आध्यात्मिक है। जैन कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य का निर्देश करता है। शंका-यदि बाह्य साधनों का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है, तो सिद्ध जीवों को उसकी प्राप्ति क्यों नहीं होती? समाधान-बाह्य साधनों का सद्भाव जहाँ है और जो कषाय युक्त हैं, उन्हीं के उनकी प्राप्ति सम्भव है। साधारणतः उनकी प्राप्ति जड़ और चेतन दोनों को होती है; क्योंकि तिजोरी में भी धन रखा रहता है, इसलिए उसे भी धन की प्राप्ति कही जा सकती है। किन्तु जड़ के रागादि भाव नहीं होता और चेतन के होता है, इसलिए वह ममकार और अहंकार भाव करता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० महाबन्ध शंका-यदि बाह्य साधनों का लाभालाभ पुण्य-पाप का फल नहीं है, तो न सही; पर सरोगता और नीरोगता यह तो पाप-पुण्य का फल मानना ही पड़ता है? समाधान-सरोगता और नीरोगता दो प्रकार की होती है-आनुवंशिक और प्रयत्नसाध्य। दोनों अवस्थाओं में इसे पाप-पुण्य का फल नहीं माना जा सकता। जिस प्रकार बाह्य साधनों की प्राप्ति अपने-अपने कारणों से होती है, उसी प्रकार सरोगता और नीरोगता भी अपने-अपने कारणों से होती है। इसे पाप-पुण्य का फल मानना किसी भी अवस्था में उचित नहीं है। शंका-सरोगता और नीरोगता के क्या कारण हैं? समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व संगति करना आदि सरोगता के कारण हैं और स्वास्थ्यवर्धक आहार, विहार व संगति करना नीरोगता के कारण हैं। इस प्रकार कर्म की कार्यमर्यादा का विचार करने पर यह सुस्पष्ट प्रतीत होता है कि कर्म बाह्य सम्पत्ति के संयोग-वियोग का कारण नहीं है। किन्तु जिस कर्म का जो नाम है, उसी के अनुसार वह काम करता है। सम्पत्ति का संयोग और वियोग होता अवश्य है; किन्तु कहीं वह अनायास होता है और कहीं कषायपूर्वक होता है। इसलिए सम्पत्ति के संयोग का मुख्य कारण कषाय है और वियोग का कारण कहीं कषाय है और कहीं कषाय का त्याग है। जो रागादि में वशीभूत होकर उसका त्याग करते हैं, उनके वियोग का कारण रागादि परिणाम हैं और जो राग-द्वेष की हानि होने से उसका त्याग करते हैं, उनके उसके वियोग का कारण राग-द्वेष की हानि है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय 'महाबन्ध' के चार भागों में से प्रकृतिबन्ध का प्रकाशन कई वर्ष पहले हो चुका है। यह स्थितिबन्ध है। इसके मुख्य अधिकार दो हैं-मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध । मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध के मुख्य अधिकार चार हैं-स्थितिबन्ध स्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डक-प्ररूपणा और अल्पबहुत्व। कुल संसारी जीवराशि चौदह जीवसमासों में विभक्त है। इनमें से एक-एक जीवसमास में अलग-अलग कितने स्थिति-विकल्प होते हैं; स्थितिबन्ध के कारणभूत संक्लेशस्थान और विशुद्धिस्थान कितने हैं और सबसे जघन्य स्थितिबन्ध से लेकर उत्तरोत्तर किसके कितना अधिक स्थितिबन्ध होता है; इन तीन का उत्तर अल्पबहुत्व की प्रक्रिया द्वारा स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा नामक पहले अनुयोगद्वार में दिया गया है। निषेक-प्ररूपणा का विचार दो अनुयोगों के द्वारा किया गया है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधा के द्वारा यह बतलाया गया है कि आयकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों का जितना स्थितिबन्ध होता है, उसमें से आबाधा के काल को कम करके जो स्थिति शेष रहती है उसके प्रथम समय में सबसे अधिक कर्म-परमाणु निक्षिप्त होते हैं और इसके आगे द्वितीयादि समयों में क्रम से उत्तरोत्तर एक-एक चयहीन कर्मपरमाणुओं का निक्षेप होता है। इस प्रकार विवक्षित समय में जिस कर्म के जितने कर्म-परमाणुओं का बन्ध होता है, उनका उक्त प्रकार से विभाग हो जाता है। पर आयु कर्म की अबाधा स्थितिबन्ध में सम्मिलित नहीं है, इसलिए इसको प्राप्त कर्मद्रव्य का विभाग आयुकर्म के स्थितिबन्ध के सब समयों में होता है। किस कर्म की कितनी आबाधा होती है, इस बात का भी यहाँ सकेत किया है। यहाँ जो कुछ बतलाया है, उसका भाव यह है कि एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति की सौ वर्ष प्रमाण अबाधा होती है। इस हिसाब से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागर होने से इनकी उत्कृष्ट अबाधा तीन हजार वर्ष प्राप्त होती है; मोहनीय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर होने से इसकी उत्कृष्ट अबाधा सात हजार वर्ष प्राप्त होती है और नाम व गोत्र कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागर होने से इनकी उत्कृष्ट अबाधा दो हजार वर्ष प्राप्त होती है। यह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर जो अबाधा प्राप्त होती है उसकी अपेक्षा जानना चाहिए। शेष तेरह जीवसमासों में सात कर्मों में से जिसके जिस कर्म का जितना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उसे ध्यान में रखकर अबाधा जाननी चाहिए। वह कितनी होती है, इसका निर्देश करते हुए वह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाई है। कारण कि अन्तःकोड़ाकोड़ी के भीतर जितना भी स्थितिबन्ध होता है, उस सबकी आबाधा अन्तर्मुहूर्त होती है ऐसा नियम है। मात्र आयुकर्म की आबाधा का विचार दूसरे प्रकार से किया गया है। यहाँ मूल प्रकृति स्थिबिबन्ध का प्रकरण होने से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर कहकर उसकी अबाधा एक पूर्वकोटि का त्रिभाग प्रमाण कहा गया है। यह तो सुविदित है कि आयुकर्म का तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य और तिर्यंच के ही होता है। किन्तु यहाँ आबाधा एक पूर्वकोटि का त्रिभाग कहने का कारण क्या है, यह विचारणीय है। जीवट्ठाण के चूलिका अनुयोगद्वार की छठी और सातवीं चूलिका में क्रम से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्ध का निर्देश किया है। वहाँ छठी चूलिका के सूत्र क्रमांक २३ 'पुवकोडितिभागो आबाधा' व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं 'पुव्वकोडितिभागमादि काऊण जाव आसंखेपद्धा ति। जदि एदे आबाधावियप्पा आउअस्स Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महाबन्ध सव्वणिसेयट्टिदीसु होंति तो पुव्वकोडितिभागो चेव उक्सस्सणिसेयट्ठिदीए किमटुं उच्चदे? ण; उक्कस्साबाधाए विणा उक्कस्सणिसेयट्ठिदीए चेव उक्कस्साबाधाउत्तादो।' ___ आशय यह है कि यहाँ पर सूत्र में नरकायु और देवायु की उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटि का त्रिभाग प्रमाण कही है। उससे पूर्वकोटि के त्रिभाग से लेकर आसंक्षेपाद्धा काल तक जितने अबाधा के विकल्प होते हैं, उन सबका ग्रहण होता है। इस पर प्रश्न यह होता है कि यदि आबाधा के ये सब विकल्प आयुकर्म की सब निषेक स्थितियों में होते हैं, तो उत्कृष्ट निषेक स्थिति की उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटि का त्रिभाग प्रमाण ही किसलिए कहते हैं? इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि उत्कृष्ट आबाधा का कथन किये बिना उत्कृष्ट निषेक स्थितिमात्र से उत्कृष्ट कर्मस्थिति नहीं प्राप्त होती है। यह बात बतलाने के लिए यहाँ उत्कृष्ट आबाधा कही है। वीरसेन स्वामी के इस कथन का यह अभिप्राय है कि यद्यपि उत्कृष्ट आयु का बन्ध केवल उत्कृष्ट त्रिभाग में ही नहीं होता; वह उत्कृष्ट त्रिभाग से लेकर आसंक्षेपाद्धा काल के भीतर आये बन्ध के योग्य काल में कभी भी हो सकता है, पर यहाँ उत्कृष्ट कर्मस्थिति दिखलाने के लिए केवल उत्कृष्ट आबाधा कही है। स्थिति दो प्रकार की होती है-कर्मस्थिति और निषेकस्थिति। आयु कर्म की उत्कृष्ट निषेकस्थिति तेतीस सागर प्रमाण है और कर्मस्थिति पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर प्रमाण है। यहाँ इसी कर्मस्थिति का ज्ञान कराने के लिए उत्कृष्ट आबाधा कही है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। श्वेताम्बर 'कर्मप्रकृति' में चारों आयुओं के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का निर्देश करते समय उसका इस प्रकार निर्देश किया है 'तेत्तीसुदही सुरनारयाउ सेसाउ पल्लतिगं ॥' (कर्मप्रकृति बन्धनकरण, गाथा ७३) अर्थात् देवायु और नरकायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर प्रमाण होता है। किन्तु इसकी टीका में 'पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानीति शेषः' यह वाक्य आया है। सो इस कथन से भी वीरसेन स्वामी के कथन की ही पुष्टि होती है। अर्थात् आयुकर्म की उत्कृष्ट निषेक स्थिति तेतीस सागर प्रमाण होती है। और उत्कृष्ट कर्म स्थिति पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर प्रमाण होती है। यद्यपि 'महाबन्ध' में आगे भुजगार बन्ध का निरूपण करते समय आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट त्रिभाग के प्रथम समय में कहकर आगे अल्पतर बन्ध का ही निर्देश किया है। अब यदि वहाँ निषेक स्थिति का ग्रहण करते हैं तो पूर्वोक्त कथन के साथ बाधा आती है, इसलिए वीरसेन स्वामी के अभिप्राय को ध्यान में रखकर वहाँ कर्मस्थिति का ही ग्रहण करना चाहिए और इस प्रकार 'महाबन्ध' के पूरे कथन की सार्थकता भी हो जाती है तथा यह भी ज्ञात हो जाता है कि आयुकर्म का उत्कृष्ट निषेकस्थितिबन्ध केवल उत्कृष्ट विभाग में ही नहीं होकर आयुबन्ध के योग्य किसी काल में भी हो सकता है। अब प्रश्न यह रह जाता है कि यदि मूल में आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आबाधा सहित लिखा गया है, तो केवल तेतीस सागर प्रमाण न कहकर पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर प्रमाण कहना चाहिए था। किन्त मल में ऐसा न कहकर केवल तेंतीस सागर प्रमाण ही कहा है, इसमें आबाधा काल को सम्मिलित नहीं किया गया है सो इसका क्या कारण है? वीरसेन स्वामी के सामने भी यह प्रश्न था। उन्होंने जीवस्थान-चूलिका में इस प्रश्न का समाधान किया है। वे कहते हैं कि आयुकर्म के स्थितिबन्ध में निषेक और आबाधा अन्योन्याश्रित नहीं हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए निषेकस्थिति के साथ आबाधा का निर्देश नहीं किया है। आशय यह है कि जिस प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों की निषेकस्थिति और आबाधा का अन्योन्य सम्बन्ध है। अर्थात् यदि ज्ञानावरण का तीस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, तो उसकी आबाधा तीन हजार वर्ष प्रमाण ही होगी और एक आबाधाकाण्डक न्यून उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, तो एक समय कम तीन हजार वर्ष प्रमाण Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय ४३ उत्कृष्ट आबाधा होगी, इस प्रकार जैसे यहाँ निषेकस्थिति और आबाधा का परस्पर सम्बन्ध है और इसलिए इन दोनों का संयुक्त निर्देश किया जाता है, उस प्रकार आयुकर्म की निषेकस्थिति के साथ आबाधा का कोई सम्बन्ध नहीं है । किन्तु कितनी ही आबाधा के रहने पर कितना ही निषेकस्थितिबन्ध हो सकता है। यही कारण है कि यहाँ आयुकर्म के प्रकरण में निषेकस्थिति और आबाधा का संयुक्त विवेचन नहीं किया गया है। 1 यहाँ प्रकरण प्राप्त होने से एक बात का और निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है । जीवस्थान - चूलिका में इसी आयु के प्रकरण में आबाधा का निर्देश करने के अनन्तर सर्वत्र 'आबाधा' यह स्वतन्त्र सूत्र आता है। इस प्रसंग से वीरसेन स्वामी ने जो कुछ कहा है, उसका भाव यह है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि के समयबद्धों में बन्धावलि के बाद अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमण रूप से बाधा दिखाई देती है, उस प्रकार आयुकर्म के निषेकों में अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमण रूप से बाधा नहीं होती, यह दिखलाने के लिए दूसरी बार 'आबाधा' इस सूत्र की रचना की है। प्रश्न यह है कि क्या आयुकर्म में अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमण आदि नहीं होते। यदि होते हैं, तो यहाँ इनका निषेध क्यों किया गया है? और इस दृष्टि से बाधा रहित क्यों कहा है? समाधान यह है कि आयुकर्म की आबाधा शेष मुज्यमान आयु प्रमाण मानी गयी है। नियम यह है कि एक आयु का दूसरी आयु में संक्रमण नहीं होता। यहाँ भुज्यमान आयु अन्य है और बद्ध्यमान आयु अन्य है । मान लो कोई एक जीव मनुष्यायु का भोग कर रहा है और उसने पुनः मनुष्यायु का ही बन्ध किया है, तो भी ये एक आयु नहीं ठहरतीं और इसलिए बद्ध्यमान आयु का न तो भुज्यमान आयु में अपकर्षण होता है और न भुज्यमान आयु का बद्ध्यमान आयु में संक्रमण होता है। यही कारण है कि यहाँ आबाधा के भीतर निषेकस्थिति को बाधा रहित बतलाने के लिए 'आबाधा' इस सूत्र की स्वतन्त्र रचना की है। कदलीघात आदि से बद्ध्यमान आयु की आबाधा न्यून हो जाय, यह स्वतन्त्र बात है; पर बद्ध्यमान आयु के द्वारा अपकर्षण होकर और भुज्यमान आयु के द्वारा संक्रमण होकर वह न्यून नहीं हो सकती; यह उक्त कथन का तात्पर्य है। अनन्तरोपनिधा का विचार करने के बाद परम्परोपनिधा का विचार आता है । यहाँ बतलाया है कि प्रथम निषेक से आगे पल्य के असंख्यातवें भाग-प्रमाण स्थान जाने पर प्रथम निषेक में जितने कर्म- परमाणु निक्षिप्त होते हैं, उनसे वे आधे रह जाते हैं। इसी प्रकार जघन्य स्थिति के प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर पल्य के असंख्यातवें भाग-प्रमाण स्थान जाने पर वे आधे-आधे रहते जाते हैं । प्रत्येक गुणा-हानि के प्रति चय का प्रमाण आधा-आधा होता जाता है, इसलिए इस व्यवस्था के घटित हो जाने में कोई बाधा नहीं आती। मात्र कर्मस्थिति में से आबाधा काल को न्यून करके जो स्थिति शेष रहती है, उसमें यथासम्भव पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण नाना द्विगुणहानियाँ होती हैं, इसलिए यहाँ एक द्विगुणहानि का प्रमाण लाने के लिए पल्यके असंख्यातवें भाग से भाजित किया गया है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सर्वाधिक है, इसलिए उसमें सबसे अधिक नाना द्विगुणहानियाँ उपलब्ध होती हैं। शेष कर्मों में जिनकी जितनी न्यून स्थिति है, उनमें उसी अनुपात से वे न्यून उपलब्ध होती हैं । सब कर्मों की सब जीवसमासों में निषेक रचना का यही क्रम है । 'आबाधाकाण्डक' का विचार करते हुए बतलाया है कि उत्कृष्ट स्थिति से पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर इन सब स्थितिविकल्पों का एक आबाधाकाण्डक करता है। अर्थात् इतने स्थितिविकल्पों की उत्कृष्ट आबाधा होती है। इसके बाद इतने ही स्थितिविकल्पों की एक समय कम आबाधा होती है। इस प्रकार जघन्य स्थिति के प्राप्त होने तक आबाधा ले आनी चाहिए । यहाँ जितने स्थितिविकल्पों की एक आबाधा होती है, उसकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा है। इसे लाने का क्रम यह है कि उत्कृष्ट आबाधा का भाग आबाधा न्यून उत्कृष्ट स्थिति में देने पर एक आबाधाकाण्डक का प्रमाण आता है। सब जीवसमासों Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ महाबन्ध में आबाधाकाण्डक का प्रमाण इसी विधि से प्राप्त कर लेना चाहिए। मात्र आयुकर्म में यह नियम लागू नहीं होता, क्योंकि वहाँ स्थितिबन्ध के अनुपात से आबाधा नहीं प्राप्त होती। प्रश्न यह है कि जहाँ सागरों प्रमाण स्थितिबन्ध होता है, वहाँ तो इस अनुपात से आबाधाकाण्डक की उपलब्धि हो जाती है, पर जहाँ अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर की आबाधा भी अन्तुर्मुहूर्त कही है और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिबन्ध की आबाधा भी अन्तर्मुहूर्त कही है, वहाँ इस अनुपात से व्यवस्था कैसे बन सकती है? यह प्रश्न वीरसेन स्वामी के सामने भी था। उन्होंने जीवस्थान-चूलिका में इस प्रश्न का समाधान किया है। वे लिखते हैं कि न्यून या जघन्य स्थितिबन्ध में आबाधाकाण्डक की जाति इससे भिन्न होती है, इसलिए वहाँ जो आबाधाकाण्डक हो उसका भाग देकर आबाधा ले आनी चाहिए। सब प्रकार के स्थितिबन्धों में आबाधाकाण्डक एक समान नहीं होता, किन्तु जहाँ संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध होता है वहाँ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा से विवक्षित स्थिति के भाजित करने पर संख्यात समय मात्र आबाधा काण्डक उपलब्ध होता है। चौथे प्रकरण का नाम 'अल्पबहुत्व' है। इसमें सब जीवसमासों में जघन्य आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, उत्कृष्ट आबाधा, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, जघन्य स्थितिबन्ध, स्थितिबन्धस्थान और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इन सबके अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है। अल्पबहुत्व का विवेचन करने पर स्थितिबन्ध का सामान्य विवेचन पूरा होता है। आगे पूर्व के विवेचन को अर्थपद मानकर निम्न अधिकारों द्वारा मूलप्रकृति-स्थितिबन्ध के विचार करने की सूचना की गयी है। वे अधिकार ये हैं-अद्धाच्छेद, सर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, स्वामित्व, बन्धकाल, बन्धान्तर, बन्धसन्किर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व। इसके बाद भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिबन्ध, अध्यवसान-समुदाहार और जीवसमुदाहार इन प्रकरणों द्वारा भी मूलप्रकृति स्थितिबन्ध का विचार किया गया है। भुजगारबन्ध के १३ अनुयोगद्वार पदनिक्षेप के ३ अनुयोगद्वार, वृद्धिबन्ध के १३ अनुयोगद्वार और अध्यवसान-समुदाहार के ३ अनुयोगद्वार हैं। जीवसमुदाहार का अलग से कोई अनुयोगद्वार नहीं है। इन अनुयोगद्वारों के जो नाम हैं, उन्हीं के अनुसार उनमें स्थितिबन्ध के आश्रय से विचार किया गया है। आगे उत्तरप्रकृति स्थितिबन्ध का विचार भी इसी प्रक्रिया से किया गया है। मात्र मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध में आठ मूल प्रकृतियों के आश्रय से विचार किया गया है और उत्तरप्रकृति-स्थितिबन्ध में १२० उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से विचार किया गया है। यद्यपि उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं, पर दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो अबन्ध-प्रकृतियाँ हैं और पाँच बन्धनों व पाँच संघातों का पाँच शरीरों में अन्तर्भाव हो जाता है तथा स्पादिक के अवान्तर बीस भेदों के स्थान में स्पर्शादिक चार का ही ग्रहण किया गया है, इसलिए ८ प्रकृतियाँ कम होकर यहाँ कुल १२० प्रकृतियाँ ही ग्रहण ही गयी हैं। स्थितिबन्ध के मुख्य भेद चार हैं, यह हम पहले कह आये हैं। स्थितिबन्ध का कारण कषाय है। कहा भी है-'ट्ठिदिअणुभागा कसायदो होंति।। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होता है। आगम में कषाय के विविध भेदों की कषायाध्यवसान संज्ञा कही है। ये कषायाध्यवसान स्थान दो प्रकार के होते हैं-संक्लेशरूप और विशुद्धिरूप। इन्हें ही संक्लेशस्थान और विशुद्विस्थान कहते हैं। असाता के बन्धयोग्य परिणामों की संक्लेश संज्ञा है और साता के बन्धयोग्य परिणामों की विशुद्धि संज्ञा है। ये दोनों प्रकार के परिणाम कषायस्वरूप होकर भी जाति की अपेक्षा अलग-अलग हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' अध्याय सात में साता और असाता के बन्ध के कारणों का निर्देश करते हुए लिखा है 'दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेधस्य ॥११॥ भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥१२॥' Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय ४५ अपने आत्मा में, अन्य की आत्मा में या दोनों में स्थित दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं। तथा जीवमात्र के प्रति अनुकम्पा, व्रतियों के प्रति अनुकम्पा, दान और सरागसंयम का उचित ध्यान रखना और क्षान्ति व शौच ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण यह उल्लेख परिणामों की जाति का ज्ञान कराने के लिए बहुत ही स्पष्ट है। इससे संक्लेशरूप परिणामों की जाति क्या है और विशुद्ध परिणामों की जाति क्या है, इसका स्पष्टतया बोध होता है। ये दोनों प्रकार के परिणाम एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक प्रत्येक जीव के छठे गुणस्थान तक होते हैं। सातवें आदि गुणस्थानों में प्रमाद का अभाव हो जाने के कारण मात्र विशुद्ध परिणाम ही होते हैं। साधारण नियम यह है कि तिर्यंचाय. मनष्याय और देवाय को छोड़कर शेष सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है और इनसे विपरीत परिणामों से जघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसी अभिप्राय को 'गोम्मटसार' कर्मकाण्ड में इन शब्दों में व्यक्त किया है-- 'सव्वविदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण। विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु॥' इसलिए प्रश्न होता है कि तीन आयुओं को छोड़कर शेष सब प्रकृतियों का बन्ध जब संक्लेश और विशुद्ध दोनों प्रकार के परिणामों से होता है, तो ऐसी अवस्था में असाता के बन्धयोग्य परिणामों की संक्लेश र साता के बन्धयोग्य परिणामों की विशुद्धि संज्ञा है, यह लक्षण कैसे सुविचारित कहा जा सकता है? समाधान यह है कि संक्लेश परिणाम भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं और विशुद्ध परिणाम भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें से उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम असातावेदनीय के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारण हैं और जघन्य विशुद्ध परिणाम सातावेदनीय के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के कारण हैं। आगम में जहाँ कहीं प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियों का विभाग किये बिना उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, ऐसा कहा है वहाँ यही अभिप्राय लेना चाहिए। इस विषय को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए यह उल्लेख पर्याप्त है_ 'सादस्स चदुट्ठाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स जहण्णयं द्विदि बंधति। तिट्ठाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णाणुक्कस्सयं ट्ठिदि बंधति। विट्ठाणबंधगा जीवा सादावेदणीयस्स उक्कस्सयं द्विदि बंधति। असाद० विट्ठाणबंधगा जीवा सट्ठाणेण णाणावरणीयस्स जहण्णय छिदि बंधति। तिठाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णभणुक्कस्सयं ठिदि बंधति। चदुट्ठाणबंधगा जीवा असादस्य चेव उक्कस्सिया ट्ठिदिं बंधति।' (महाबन्ध, स्थिति. पृ. २१३) साता के चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरण कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध करते हैं। त्रिस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरण कर्म की अजघन्यानुत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीय की ही उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। असाता के द्विस्थानबन्ध जीव स्वस्थान की अपेक्षा ज्ञानावरण कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध करते हैं। त्रिस्थानबन्धकजीव ज्ञानावरण कर्म की अजघन्यानुत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। चतुःस्थानबन्धक जीव असाता वेदनीय की ही उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते हैं। इसमें स्पष्टतः गुड़ और खाँड इस द्विःस्थानिक अनुभाग का बन्ध करनेवाले जीवों को तो सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति का बन्धक कहा है और निम्ब, कांजीर, विष और हलाहल इस चतुःस्थानिक अनुभाग का बन्ध करनेवाले जीवों को असाता वेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति का बन्धक कहा है। इससे स्पष्ट है कि सामान्यतः उत्कृष्ट, संक्लिष्ट पद से इन दोनों स्थानों का ग्रहण होता है। इसी विषय को श्वेताम्बर ‘पंचसंगह' में इन शब्दों में व्यक्त किया है Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ६ महाबन्ध धुवपगईबंधंता चउठाणाई सुभाण इयराणं । दो ठागाइ तिविहं सट्ठाणजहण्णगाईसु ॥ १०६ ॥ (बन्धनकरण ) आशय यह है कि ज्ञानावरण आदि ४७ प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले जीव सातावेदनीय, देवगति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, औदारिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीनों आंगोपांग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, पघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि दस, तीर्थंकर, तिर्यंचायु, देवायु और उच्च गोत्र, इन परावर्तमान चौंतीस शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक अनुभाग को बाँधते हैं । तथा उन्हीं ध्रुव प्रकृतियों का बन्ध करनेवाले जीव असातावेदनीय, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकायु नरकगतिद्विक, तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, अन्त के पाँच संस्थान, अन्त के पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि दस और नीचगोत्र, इन परावर्तमान उनतालीस अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभाग को बाँधते हैं । यह अनुभाग स्वस्थान में जघन्य स्थितिबन्ध आदि के होने पर बँधता है । श्वेताम्बर 'कर्मप्रकृति' में भी यह विषय इसी प्रकार से निबद्ध किया गया है। किन्तु 'महाबन्ध' के उक्त उल्लेख से इस कथन में अन्तर है । 'महाबन्ध' में विशुद्ध और संक्लेश परिणामों के साथ केवल साता और असाता के अन्वयव्यतिरेक की व्यवस्था की गयी है और यहाँ सब शुभ और अशुभ प्रकृतियों के साथ अन्वयव्यतिरेक की व्यवस्था की गयी है । किन्तु विचार करने पर 'महाबन्ध' की व्यवस्था ही उचित प्रतीत होती है। कारण कि गुणस्थान प्रतिपन्न जीवों में जहाँ केवल विवक्षित अशुभ प्रकृति का बन्ध न होकर उसकी प्रतिपक्षभूत शुभ प्रकृति का ही बन्ध होता है, वहाँ पर संक्लेश और विशुद्ध दोनों प्रकार के परिणामों के सद्भाव में उस प्रकृति का बन्ध सम्भव है । उदाहरणार्थ, चतुर्थ गुणस्थान ' मात्र पुरुषवेद का बन्ध होता है। यहाँ यह तो कहा नहीं जा सकता कि इस गुणस्थान में केवल विशुद्ध परिणाम ही होते हैं और यह भी नहीं कहा जा सकता कि यहाँ केवल संक्लेश परिणाम ही होते हैं। परिणाम तो दोनों प्रकार के होते हैं, पर यहाँ स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का बन्ध सम्भव न होने से मात्र पुरुषवेद का ही बन्ध सम्भव है । यदि यह कहा जाय कि उत्कृष्ट स्थिति से क्रम से हानि होते हुए जघन्य स्थिति को बाँधनेवाले जीव के परिणामों की 'विशुद्धि' संज्ञा है और जघन्य स्थिति से क्रम से वृद्धि होते हुए उपरिम स्थितियों को बाँधनेवाले जीव के परिणामों की 'संक्लेश' संज्ञा है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का बन्ध करानेवाले परिणामों को छोड़कर शेष मध्यम स्थितियों का बन्ध करानेवाले सब परिणाम संक्लेश और विशुद्धि उभयरूप प्राप्त होते हैं । परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है; क्योंकि एक ही परिणाम संक्लेश और विशुद्धि उभयरूप नहीं हो सकता है। इसलिए साता और असाता के बन्ध के साथ इन परिणामों की जिस प्रकार व्याप्ति घटित होती है, उस प्रकार अन्य प्रकृतियों के बन्ध के साथ नहीं है । यही कारण है कि 'महाबन्ध' में सब संसारी जीवों को दो भागों में विभक्त कर दिया है - साताबन्धक और असाताबन्धक । साताबन्धक जीव तीन प्रकार के हैं - चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । इसी प्रकार असाताबन्धक जीव भी तीन प्रकार के हैं - द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक। इनमें जो साता के चतुःस्थानबन्धक जीव होते हैं वे सर्वविशुद्ध होते हैं, जो त्रिस्थानबन्धक जीव होते हैं वे संक्लिष्टतर होते हैं और जो द्विस्थानबन्धक जीव होते वे इनसे भी संक्लिष्टतर होते हैं। इसी प्रकार जो असाता के द्विस्थानबन्धक जीव होते हैं वे सर्वविशुद्ध होते हैं, जो त्रिस्थानबन्धक जीव होते हैं वे संक्लिष्टतर होते हैं और जो चतुःस्थानबन्धक जीव होते हैं वे इनसे भी संक्लिष्टतर होते हैं । यहाँ साता के चतुःस्थानबन्धक जीव को और असाता के द्विस्थानबन्धक जीव को सर्वविशुद्ध और शेष सबको संक्लिष्टतर कहा गया है। इस प्रकार संक्लेशरूप और विशुद्धिरूप परिणामों में भेद होकर भी उनका उल्लेख स्थितिबन्ध के अनुसार सर्वविशुद्ध और संक्लिष्टतर इन्हीं शब्दों के द्वारा किया जाता है, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय ४७ इसलिए जहाँ जिस पद से जो विशेष अर्थ लिया गया हो, वहाँ उसे जानकर ही उसका ग्रहण करना चाहिए। ___यहाँ प्रसंग से एक बात और कह देनी है। वह यह कि पाँच ज्ञानावरण आदि ४७ प्रकृतियों का बन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्ति होने तक संक्लेशरूप और विशुद्धिरूप दोनों प्रकार के परिणामों से सदा काल होता रहता है, इसलिए उन्हें ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ कहा गया है। वे सैंतालीस प्रकृतियाँ ये हैं घादितिमिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णाओ। सत्तेतालधुवाणं चधुदा सेसाणयं तु दुधा ॥१२४॥ (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड) मोहनीय के विना तीन घातिक कर्मों की १६ प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भयद्विक, तैजसद्विक, अगुरुलघुद्विक, निर्माण और वर्णचतुष्क ये ४७ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार यहाँ हमने 'महाबन्ध' के प्रस्तुत भाग का सामान्य परिचय कराते हुए कुछ विशेष विषयों की ही पर्यालोचना की है। शेष विषयों का यथास्थान विशेष ऊहापोह मूल में किया ही है। यहाँ हमने पुनरुक्ति दोष के भय से पुनः उनकी पर्यालोचना नहीं की है। प्रस्तुत मुद्रित भाग में मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध का और उत्तरप्रकृतिबन्ध के एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगमतक के विषय का समावेश ही किया गया है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ ५६ ५६-६६ ६६-७७ ७७-८३ ७७-८० ८०-८३ له له ८३-८७ ८३ ८३-८६ ८६-८७ ८८-९१ ८८ ८८-६० ६०-६१ विषय मङ्गलाचरण स्थितिबन्धके भेद मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध १-२१८ मूलप्रकृति स्थितिबन्धके चार अनुयोगद्वार १-१६ स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा २-५ स्थितिबन्ध स्थान संक्लेश विशुद्धिस्थान स्थितिबन्ध अल्पबहुत्व ४-५ २ निषेक प्ररूपणा ६-११ निषेकप्ररूपणाके दो अनुयोगद्वार अनन्तरोपनिधा ६-११ परम्परोपनिधा ११-१२ आबाधाकाण्डकप्ररूपणा १२-१३ ४ अल्पबहुत्वप्ररूपणा - १३-१६ मूलप्रकृति स्थितिबन्धके २४ आदि शेष अनुयोगद्वारोंकी सूचना २४ अनुयोगद्वार १६-१४४ अद्धाच्छेदप्ररूपणा १७-२९ अद्धाच्छेदके भेद १७ उत्कृष्ट अद्धाच्छेद १७-२३ २३-२६ २-३ सर्वानोसर्वबन्धप्र० ४-५ उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टबन्धप्र० ३०-३१ ६-७ जघन्य-अजघन्यबन्धप्र० ३१ ८-११ सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुव० ३१-३२ १२ स्वामित्वप्ररूपणा ३२-४६ स्वामित्वके दो भेद ૨૨ उत्कृष्ट स्वामित्व ३२-४० जघन्य स्वामित्व ४०-४६ १३ बन्धकालप्ररूपणा ४७-५८ बन्धकालके दो भेद उत्कृष्ट बन्धकाल ४७-५३ जघन्य बन्धकाल ५३-५८ १४ अन्तरप्ररूपणा ५६-७७ विषय बन्धान्तरके दो भेद उत्कृष्ट बन्धान्तर जघन्य बन्धान्तर १५ बन्धसन्निकर्ष बन्धसन्निकर्षके दो भेद उत्कृष्ट सन्निकर्ष जघन्य सन्निकर्ष १६ नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय भङ्ग विचयके दो भेद उत्कृष्ट भङ्गविचय जघन्य भङ्गविचय १७ भागाभागप्ररूपणा भागाभागके दो भेद उत्कृष्ट भागाभाग जघन्य भागाभाग १८ परिमाणप्ररूपणा परिमाणके दो भेद उत्कृष्ट परिमाण जघन्य परिमाण १६ क्षेत्रप्ररूपणा क्षेत्रके दो भेद उत्कृष्ट क्षेत्र जघन्य क्षेत्र १० स्पर्शनप्ररूपणा स्पर्शनके दो भेद उत्कृष्ठ स्पर्शन जघन्य स्पर्शन कालप्ररूपणा कालके दो भेद उत्कृष्ट काल जघन्य काल २२ अन्तर प्ररूपणा अन्तरके दो भेद उत्कृष्ट अन्तर जघन्य अन्तर ६१ ६१-६३ ६३-६५ ९६-१०१ जघन्य " ६६-६६ १६-१०१ १०१-११० १०१-१०८ १०८-११० ११०-११८ ११०-११५ ११५-११८ १९८-१२५ ११८ ११८-१२२ १२२-१२५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्ध १२५ १३१ विषय पृष्ठ २३ भावप्ररूपणा १२५-१२६ भावके दो भेद १२५ उत्कृष्ट भाव जघन्य भाव १२६ २४ अल्पबहुत्व १२६-१४४ अल्पबहुत्वके दो भेद १२६ जीव अल्पबहुत्व १२६-१३१ जीवअल्पबहुत्वके तीन भेद १२६ उत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्व १२६-१२७ जघन्य जीव अल्पबहुत्व १२७ जघन्योत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्व १२७-१३१ स्थिति अल्पबहुत्व १३१-१३३ स्थिति अल्पबहुत्वके तीन भेद उत्कृष्ट स्थिति अल्पबहुत्व १३१ जघन्य स्थिति अल्पबहुत्व जधन्योत्कृष्ट स्थिति अल्पबहुत्व १३१-१३३ भूयःस्थिति अल्पबहुत्व भूयःस्थिति अल्पबहत्वके दो भेद १३३ स्वस्थान अल्पबहुत्व १३३ परस्थान अल्पबहुत्व १३३-१४४ परस्थान अल्पबहुत्वके तीन भेद १३३ उत्कृष्ट परस्थान अल्पबहुत्व १३४-१३६ जघन्य परस्थान अल्पबहुत्व १३६-१३८ जघन्योत्कृष्ट परस्थान अल्पबहुत्व १३८-१४४ भुजगारबन्ध १४५-१७५ भुजगारबन्धके १३ अनुयोगद्वार १४५ समुत्कीर्तनानुगम १४५-१४७ स्वामित्वानुगम १४७-१४८ कालानुगम १४८-१५१ अन्तरानुगम १५१-१५७ नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्ग विचयानुगम १५७-१५६ भागाभागानुगम १५६-१६० परिमाणानुगम १६१-१६२ क्षेत्रानुगम १६२-१६३ स्पर्शनानुगम १६३-१६६ कालानुगम १६६-१६६ अन्तरानुगम १६६-१७२ भावानुगम १७५ विषय पृष्ठ अल्पबहुत्वानुगम १७३-१७१ पदनिक्षेप १७५-१८५ पदनिक्षेपके तीन अनुयोगद्वार १७६ समुत्कीर्तना १७५-१७२ स्वामित्व १७६-१७६ स्वामित्वके दो भेद १७६ उत्कृष्ट स्वामित्व १७६-१७६ जघन्य स्वामित्व १७६ अल्पबहुत्व १८०-१८१ अल्पबहुत्वके दो भेद १८० उत्कृष्ट अल्पबहुत्व १८०-१८१ जघन्य अल्पबहुत्व १८१ वृद्धिबन्ध १८२-२०८ वृद्धिबन्धके १३ अनुयोगद्वार १८२ समुत्कीर्तना १८२-१८४ स्वामित्वानुगम १८४-१८७ काल १८७-१८८ अन्तर १५-१६४ नाना जीवोंकी अपेक्षा भाविचय १६५ भागाभाग १६५ परिमाण १६६-१६७ क्षेत्र १६७-१९८ स्पर्शन १६८-२०१ काल २०१-२०२ अन्तर २०२-२०३ भाव अल्पबहुत्व २०३-२०८ अध्यवसान समुदाहार २०८ अध्यवसान समुदाहारके तीन भेद । प्रकृतिसमुदाहार २०६ प्रकृतिसमुदाहारके दो भेद २०६ प्रमाणानुगम २०६ अल्पबहुत्व २०६ स्थितिसमुदाहार २०६ स्थितिसमुदाहारके तीन भेद २०६ प्रमाणानुगम २०६-२१० श्रेणिप्ररूपणा व उसके दो २१०-२११ अनन्तरोपनिधा २१० परम्परोपनिधा २१०-२११ २०८ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ २२६ विषय पृष्ठ अनुकृष्टि २११ तीव्रमन्दता २११-२१२ जीवसमुदाहार २१२ जीवोंके दो भेद २१२ सातबन्धक जीवोंके तीन भेद २१२ असातबन्धक जीवोंके तीन भेद २१२ उक्त जीवोंकी स्थितिबन्ध व्यवस्था २१२-२१३ इनकी प्ररूपणा सम्बन्धी दो अनुयोगद्वार प्रतिज्ञा २१३ अनन्तरोपनिधा २१३-२१४ परम्परोपनिधा २१५-२१६ साता और असाताके अना कार और साकार प्रायोग्य स्थान २१६ यवमध्यमें अल्पबहुत्व २१६-२१७ पूर्वोक्त अर्थपदके अनुसार सातबन्धक और असातबन्धक जीवोंका अल्पबहुत्व २१८ उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध २२१-४३६ उत्तर प्रकृति स्थितिबन्धके चार अनुयोगद्वार २२१-२३० १ स्थितिबंधस्थान प्ररूपणा २२१-२२८ स्थितिबन्ध स्थान २२१-२२३ संक्लेशविशुद्धिस्थान २२३-२२४ अल्पबहुत्व । २२४-२२८ २ निषेक प्ररूपणा' २२८-२२९ निषेक प्ररूपणाके दो अनु योगद्वार विषय अनन्तरोपनिधा २२८ परम्परोपनिधा आबाधाकाण्डकप्ररूपरणा २२६ अल्पबहुत्वप्ररूपणा २३० उत्तर प्रकृति स्थितिबन्धके २४ आदि शेष अनुयोगद्वारोंकी सूचना २३१ २४ अनुयोगद्वार १ अद्धाच्छेद २३१-२५२ अद्धाच्छेदके दो भेद २३१ उत्कृष्ट अद्धाच्छेद २३१-२४२ जघन्य अद्धाच्छेद २४२-२५२ २-३ सर्व-नोसर्वबन्ध २५२-२५३ ४.५ उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टबन्ध २५३ ६-७ जघन्य-अजघन्यबन्ध २५३ ११ सादि-अनादि-ध्रुवअधुवबन्ध २५४ १२ स्वामित्व प्ररूपणा २५५-३१३ स्वामित्वके दो भेद ૨૫૫ उत्कृष्ट स्वामित्व २५५-२८५ जघन्य स्वामित्व २८५-३१३ २३ बन्धकाल प्ररूपणा ३१४-३६५ बन्धकालके दो भेद उत्कृष्ट बन्धकाल ३१४-३४३ जघन्य बन्धकाल ३४४-३६५ १४ अन्तरकाल प्ररूपणा ३६५-४३९ अन्तरके दो भेद ३६५ उत्कृष्ट अन्तरकाल ३६५-३६६ जघन्य अन्तरकाल ४००-४३६ २२८ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच सं० गा० गो० क० मूलप्रति एवं आदर्शप्रति संकेत विवरण पञ्चसंग्रह गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड मूल मेनुस्क्रिप्ट जिसके आधारसे अनुवाद ___ और सम्पादन हुआ है जीवस्थान चूलिका धवला पुस्तक तत्त्वार्थ सूत्र बन्धनकरण ज्ञानपीठसे प्रकाशित प्रकृतिबन्ध जीव० चू० ध० पु० तत्त्वा . बंधन क० मुद्रित प्रति Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिभगवंत भूदबलिभडारयपणी दो महाबंधो बिदियो हिदिबंधाहियारो णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ १. एतो हिदिबंधो दुविधो— मूलपगदिद्विदिबंधो चेव उत्तरपगदिद्विदिबंधो चेव । एत्तो मूलपगदिद्विदिबंधो पुवं गमरिणज्जं । तत्थ इमाणि चत्तारि' अणियोगद्दाराणि पादव्वाणि भवंति । तं जधा - द्विदिबंधद्वाणपरूवरणा सेियपरूवणा आबाधाकंडयपरूवरणा अप्पा बहुगे त्ति । सब अरिहन्तोंको नमस्कार हो, सब सिद्धोंको नमस्कार हो, सब श्राचांयको नमस्कार हो, सब उपाध्यायको नमस्कार हो और लोकमें साधुओंको नमस्कार हो ॥१॥ १. आगे स्थितिबन्धका विचार करते हैं। वह दो प्रकारका है - मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध । आगे मूल प्रकृति स्थितिबन्धका पहले विचार करते हैं। उसके ये चार अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । यथा-स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । विशेषार्थ - राग, द्वेष और मोहके निमित्तसे श्रात्मा के साथ जो कर्म सम्बन्धको प्राप्त होते हैं उनके श्रवस्थान कालको स्थिति कहते हैं । कर्मबन्धके समय जिस कर्मकी जो स्थिति प्राप्त होती है, उसका नाम स्थितिबन्ध है । वह ज्ञानावरण आदि मूलप्रकृति और मतिज्ञानावरण आदि उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे दो प्रकारका है। इस अनुयोगद्वारमें इन्हीं दो प्रकारके स्थितिबन्धोंका विविध प्रकरणों द्वारा विस्तारके साथ विचार किया गया है । सर्व प्रथम मूलप्रकृति स्थितिबंधका विचार किया गया है और तदनन्तर उत्तरप्रकृति स्थितिबन्धका विचार किया गया है । मूलप्रकृतिस्थितिबन्धका विचार करते हुए मुख्य रूपले उसका चार अनुयोगद्वारोंके द्वारा विचार किया गया है । उपअनुयोगद्वार अनेक हैं। वार अनुयोगद्वारोंके नाम मूलमें ही दिये हैं। जिसमें स्थितिबन्धके स्थानोंका विचार किया जाता है वह स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा है । यहाँ स्थितिबन्धस्थान पदसे प्रत्येक कर्मके जघन्य स्थितिबंधस्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबंधस्थानतकके कुल विकल्प 1. पंच०, बंधनक०, गा० ९९-१०० । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे द्विदिबंधद्वाणपरूवणा २. द्विदिबंध द्वाणपरूवणदाए सव्वत्थोवा' सहुमस्स अपज्जत्तस्स हिदिबंधहा गाणि । बादरस्स अपजत्तस्स द्विदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि | मुहुस्स पज्जत्तस्स हिदिबंध द्वाराणि संखेज्जगुणाणि । बादरस्स पज्जत्तस्स विदिधद्वाणाणि संखेज्ज - गुणाणि | बेइंदियपज्जतस्स हिदिबंधारणाणि असंखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्तस्स दिबंधारा संखेज्जगुणाणि । तेइंदि० अपज्ज० हिदिबंध ० संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत ० द्विदिबंध • संखेज्जगुणाणि । चदुरिंडिययपज्ज० हिदिबंध० संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्त० द्विदिबंध • संखेज्जगुणाणि । पंचिंदिय अस रिण पज्जत्त ० द्विदिबंध० संखे० गु० । तस्सेव पज्जत्त० डिदि बंध० संखे० गु० । पंचिदिय-सरिणअपज्जत डिदिबंध • संखे० गु० । तस्सेव पज्जत्त० द्विदिबंध ० संखेज्जगुणाणि । परिगृहीत किये गये हैं । एक समय में बद्ध कर्मोंका उस समय प्राप्त स्थितिमें जिस क्रमसे निक्षेप होता है, उसकी निषेकरचना संज्ञा है । इसका विचार करनेवाली प्ररूपणाका नाम निषेकप्ररूपणा है । बँधनेवाले कर्म स्वभावतः या अपकर्षण श्रादिके निमित्तसे जितने काल बाद फल देने में समर्थ होते हैं, उस कालका नाम आबाधाकाल है और जितने स्थितिविकल्पों के प्रति एक एक आबाधाकाल प्राप्त होता है उतने स्थितिविकल्पोंकी एक श्रावाधा होनेसे उसकी बाधाकांडक संज्ञा है। इसका विचार जिस प्रकरण द्वारा किया जाता है उसे श्राबाधाकांडक प्ररूपणा कहते हैं । अल्पबहुत्व पदका अर्थ स्पष्ट ही है। इस प्रकार मूलप्रकृति स्थितिबंधकी प्ररूपणा चार प्रकारकी होती है । स्थितिबंध स्थानप्ररूपणा २. अब सर्वप्रथम स्थितिबंधस्थानप्ररूपणाका विचार करते हैं । उसकी अपेक्षा सूक्ष्म अपर्याप्त स्थितिबंधस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे बादर अपर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे सूक्ष्मपर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे बादर पर्याप्त स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त स्थितिबंधस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे त्रींद्रिय अपर्याप्त के स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे चतुरिंद्रिय अपर्याप्त के स्थिति बंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे चतुरिंद्रिय पर्याप्त के स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय असंक्षी पर्यातक के स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय श्रसंज्ञी पर्याप्तकके स्थिति - बंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय संज्ञी अपर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं और इनसे पंचेंद्रिय संशी पर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - यहाँ किसके कितने गुणे स्थिति बन्धस्थान होते हैं, इसका विचार चौदह जीवसमासोंके द्वारा किया गया है। सामान्यसे एकेन्द्रियके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागर और जघन्य पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग कम एक सागर होता है । द्वीन्द्रियके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पचीस सागर और जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातवाँ भाग कम पच्चीस सागर होता है । त्रीन्द्रियके मिध्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पचास सागर गो० क० गा० १४८, १४९, १५० | पंचसं०, द्वार ५ गा० ५६ ॥ 1. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिबंधद्वाणपरूवणा ३ ३. सव्वत्थोवा हुमेदिय - अपज्जत्तस्स संकिलेसविसोधिहाणारिणः । बादरेइंदिय - अपज्जत - संकिलेसविसोधिहाराणि असंखेज्जगुणाणि । सुहुमेइंदिय-पज्जत्तसंकिलेस - विसोधिहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । बादरेइंद्रिय-पज्जत्त० संकिलेसविसोधि हाणा असंखेज्जगुणारिण । बेइंदिय० अपज्ज० संकिलेसविसोधिद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्त ० संकिलेस - विसोधिहारणाणि असंखे ० गु० । तेइंदियअपज्ज० संकिलेस विसोधिहारणारण असंखे गु० । तस्सेव पज्जत संकिलेसविसोहिद्वाराणि असंखे० गु० । चतुरिंदि० अपज्ज० संकिलेसविसोधिद्वाणाणि असंखे० गु० | तस्सेव पज्जत्त० संकिलेसविसो० असंखे० गु० । पंचिंदिययसरि अपज्ज • संकिलेसविसोधि० असंखे० गु० । तस्सेव पज्जत्त० संकिलेसविसोधि० असंखे ज्जगु | पंचिंदिय० सरिण० अपज्ज० संकिलेसविसोधि० असंखेज्जगु० | तस्सेव पज्ज० संकिलेस विसोधि० असं० गु० । और जघन्य स्थितिबंध पल्यका संख्यातवाँ भाग कम पचास सागर होता है । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रियके मिध्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबंध क्रमले सौ और एक हजार सागर तथा जघन्य स्थितिबंध पल्यका संख्यातवाँ भाग कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है । इस हिसाब से विचार करने पर एकेंद्रिय के कुल स्थितिबंधविकल्प पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण और द्वींद्रिय से लेकर असंशी पंचेंद्रिय तक प्रत्येकके पल्यके संख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होते हैं । यहाँ एकेंद्रियके चार और द्वींद्रिय श्रादि प्रत्येकके दोदो भेद करके स्थिति स्थानोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है । यह तो स्पष्ट है कि एकेंद्रियोंके चारों भेदोंमें प्रत्येकके स्थितिबंध विकल्प पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, पर उनका अल्पबहुत्व किस क्रमसे है, यही यहाँ बतलाया गया है । द्वीन्द्रियसे लेकर असंगीतक प्रत्येक के दो-दो भेदोंमें स्थितिबंधविकल्प पल्यके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं, पर एकेन्द्रिय के स्थितिबंधविकल्पोंसे वे कितने गुणे हैं और परस्परमें किस क्रमसे कितने गुणे हैं, यह भी यहाँ बतलाया गया है । पल्यके असंख्यातवें भागसे पल्यका संख्यातवाँ भाग असंख्यातगुणा होता है । इसीसे बादर एकेंद्रिय पर्याप्तके स्थितिबंधस्थानोंसे द्वींद्रिय अपर्याप्तके स्थितिबंधस्थान असंख्यातगुणे कहे हैं। शेष कथन सुगम है । ३. सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेशविशुद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे बादर एकेंद्रिय पर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे द्वींद्रिय अपर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे द्वींद्रिय पर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे श्रींद्रिय अपर्याप्त संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे त्रोंद्रिय पर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे चतुरिंद्रीय अपर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे चतुरिंद्रियपर्यातके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय अशी अपर्याप्त के संक्लेशविशुद्धिस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे संशी पंचेंद्रिय पर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं और इनसे पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं । 9. पंचसं०, द्वार ५, गा० ५६ टीका म० । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ४. सव्वत्थोवा' संजदस्स जहएओ हिदिबंधो । बादरएइंदिय-पज्जत्तस्स जहएओ द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । सहुम- एइंदिय-पज्जत्तस्स जहरणओ हिदिबंध विसेसाहि । बादर- एइंदिय- अपज्ज० जहरण - द्विदिबं० विसे । मुहुमेईदिय - अपज्जत्तस्स जह० द्विदिबं० विसे० । तस्सेव अपज्ज० उक्क० द्विदिबं० विसे० । बादरएइंदि० अपज्ज० उक्क० डिदि ० विसे० । सुहुमएइंदि० पज्जत्त० उक० हिदिबं० विसे० । बादर एइंदि० पज्जत उक्क० हिदिबं० विसे० । बेइंदि० पज्जत्त० जह० द्विदिबं० संखेगु० । तस्सेव पज्ज० जह० हिदिबं० विसे० । तस्सेव अपज्ज० उक्क० द्विदिबं० विसे० । तस्सेव पज्ज० उक्क० द्विदिबं० विसे० । तेइंदि० पज्जत्त ० जह० द्विदिबं० विसे । तस्सेव अपज्ज० जह० हिदि ० विसे० । तस्सेव अपज्ज० उक्क० हिदि० विसे० । तस्सेव पज्जत्त ० उक्क० द्विदि० विसे० । चदुरिंदिय-पज्जत्त० जह० हिदि० विसे । तस्सेव अपज्जत ० जह० हिदि० विसे० । तस्सेव अपज्ज० उक्क० द्विदि० विसे० । तस्सेव पज्जत्त० उक्क० हिदि विसे० । पंचिदिय अस रिण पज्जत्त० जह० हिदि० संखे० गु० | तस्सेव अपज्ज० जह० द्विदि० विसे० । तस्सेव अपज्ज० उक्क० द्विदि० विसे० । तस्सेव पज्ज० उक्क० ४ विशेषार्थ - ज्ञानावरण आदि कर्मोके बन्ध योग्य परिणामोंकी संक्लेशविशुद्धिस्थान संज्ञा है। इनमें से जो साताके बंध योग्य परिणाम होते हैं । अर्थात् जिन परिणामोंके होनेपर असाता प्रकृतिका बंध न होकर साता प्रकृतिका बंध होता है उनकी विशुद्धि संज्ञा है और साताके बंधके योग्य जो परिणाम होते हैं उनकी संक्लेश संज्ञा है । यहाँ स्थितिविकल्पोंको ध्यान में रखकर संक्लेशविशुद्धिस्थानोंका यह अल्पबहुत्व कहा गया है । ४. संयतके जघन्य स्थितिबंध सबसे स्तोक है । इससे बादर एकेंद्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध श्रसंख्यातगुणा है। इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है । इससे बादर एकेंद्रिय अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्यातके जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है । इससे बादर एकेंद्रिय अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है । इससे सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे बादर एकेंद्रिय पर्याप्त उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे द्वींद्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा है । इससे द्वींद्रिय अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे द्वींद्रिय अपर्याप्त उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे द्वींद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है । इससे श्रींद्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है । इससे त्रींद्रिय अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे श्रींद्रिय अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे त्रींद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे चतुरिंद्रीय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे चतुरिंद्रिय अपर्याप्त के जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है । इससे चतुरिंद्रिय अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है । इससे चतुरिंद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे पंचेंद्रिय अशी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे पंचेंद्रिय असंशी पर्यात जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे पंचेंद्रिय असंशी अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष अधिक है। इससे पंचेंद्रिय अशी पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेष 1. पंच, बंधन, गा० ९९-१०० । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिदिबंधट्ठाणपरूवणा हिदि विसे । संजदस्स उक• हिदि० संखे० गुणो। संजदासजदस्स जह• हिदि० संखेज्जगुणो । तस्सेव उक्क हिदिव० संखेज्जगु० । असंजदसम्मादिहि-पज्जत्तस्स जह हिदि० संखेगु । तस्सेव अपज्ज जह• हिदि० संखेज्जगु । तस्सेव अपज्ज• उक्क० हिदि संखेज्जगुः । तस्सेव पज्ज उक्क. हिदि संखेज्जगु० । पंचिंदिय-सण्णि-मिच्छादिहि-पज्जत्त० जह• हिदि० संखेज्ज । तस्सेव अपज्ज. जह० हिदि. संखेज्ज । तम्सेव अपज्जा उक्क हिदि० संखेज्ज । तस्सेव पज्जत उकहिदि संखेज्ज ! एवं हिदिबंधहाणपरूवणा समत्ता । अधिक है। इससे संयतके उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे संयतासंयतके जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे संयतासंयतके उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगणा है। इससे असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे असंयतसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त (निवृत्त्यपर्याप्त ) के जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे असंयतसम्यग्दृष्टि अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे संयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे पंचेंद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे पंचेंद्रिय संशी मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा है। इससे पंचेंद्रिय संशी मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणा है । इससे पंचेंद्रिय संशी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यातगुणा है। . विशेषार्थ-यहाँ संयतके जघन्य स्थितिबंधसे लेकर संज्ञो पंचेंद्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि के उत्कृष्ट स्थितिबंध तक अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। संयतके वेदनीयका बारह मुहूर्त, नाम और गोत्रका आठ मुहूर्त तथा शेष चार कर्मीका अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थितिबंध कहा है और बादर एकेंद्रिय पर्याप्तके शानाधरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग होता है। मोहनीयका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम एक सागर होता है और नाम और गोत्रका एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम दो बटे सात भाग होता है। यही कारण है कि संयतके जघन्य स्थितिबंधसे बादर एकेंद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबंध असंख्यातगुणा कहा है। बादर एकेंद्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबंध एक सागर होता है और द्वीद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातवां भाग कम पञ्चीस सागर होता है। यह कुछ कम पञ्चीस गुणा है। यही कारण है कि बादर एकेंद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंधसे द्वींद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा कहा है। द्वींद्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबंध पूरा पच्चीस सागर है और त्रींद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबंध पल्यका संख्यातवाँ भाग कम पचास सागर है। यह दूनेसे कुछ कम है। यही कारण है कि द्वींद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंधसे त्रींद्रिय पर्यातका जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक कहा है। त्रींद्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबंध पचास सागर है और चतुरिंद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबंध पल्यका संख्यातवाँ भाग कम सौ सागर है। यह दूनेसे कुछ कम है । इसीसे त्रींद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंधसे चतुरिंद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबंध विशेष अधिक कहा है। चतुरिंद्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबंध सौ सागर है और असंशी पंचेंद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबंध पल्यका संख्यातवाँ भाग कम एक हजार सागर है। यह कुछ कम दसगुणा है। इसीसे चतुरिंद्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबंधसे असंशी पंचेंद्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबंध संख्यातगुणा कहा है। शेष कथन सुगम है।। इस प्रकार स्थितिबंधस्थानकी प्ररूपणा समाप्त हुई। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंध द्विदिवंधाहियारे furuaatur ५. शिगवाए तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि - अरणंतरोवणिधा परंपरोवधाय । अतरोवणिधाए पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिट्ठीगं पज्ज - ताणं णाणावरणीय दंसरणावरणीय-वेयणीय- अंतराइगाणं तिरिण वस्स - सहस्साणि बाधा' मोत्तू जं पदमसमए पदेसग्गं खिसित्तं तं बहुगं । जं विदिय-समए पढेसरगं fuसितं तं विसेसहीणं । जं तद्रियसमए पढेसरगं णिसितं तं विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उकस्से तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ त्ति । पंचिद्रियाणं सरणीणं मिच्छादिट्टीणं पज्जत्ताणं मोहणीयस्स सत्तवस्स - सहस्साणि आवाधा मोरण जं पदमसमए पढेसरगं णिसित्तं तं बहुगं विदियसमए पदेसरगं सितं तं विसेसहीणं । तद्रियसमए पदेसग्गं णिमित्तं तं विसेसहीणं । एवं विसेसही विसेसहीणं जाव उकस्सेण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ त्ति । पंचिदियस्स सरिणमिच्छादिस्सि वा सम्मादिहिस्स वा आयुगस्स पुव्वकोडितिभागं वाधा मोत्तू जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं । जं विदियसमए पदेसणं णिसित्तं तं विसेसहीणं । जं तदियसमए पदेसग्गं णिमित्तं तं विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उकस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि । पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिहीणं पज्ज० णामागोदाणं वे वस्ससहस्साणि निषेकप्ररूपणा ५. निषेकप्ररूपणाका विचार करते हैं। उसके ये दो अनुयोगद्वार हैं- अनंतरोपनिधा और परम्परोनिधा । श्रनंतरोपनिधाकी अपेक्षा पंचेंद्रिय संशी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवोंके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अंतराय कर्मोंके श्राबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्म परमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में निक्षिप्त होते हैं वे विशेष हीन हैं। जो तीसरे समय में निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष हीन कर्म परमाणु निक्षिप्त होते हैं। पंचेन्द्रिय संज्ञो मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवोंके मोहनीयके सात हजार वर्ष प्रमाण श्रबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । इस प्रकार सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। पंचेद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके श्रायु कर्मके एक पूर्वकोटिकी त्रिभागप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार तेतीस सागरप्रमाण उत्कृष्ट आयुके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। पंचेद्रिय संशी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवके नाम और गोत्र कर्मके दो हजार १. पंचसं० द्वार ५ गा० ५० । गो० क०, गा० १६१, १६२ । २. गो० क०, गा० १६० । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिसेगपरूवणा आबाधा मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं । जं विदिय- तं विसे । जं तदिय- तं विसे । एवं विसेसहीणं विसेस. जाव उक्कस्सेण वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ ति। वर्षप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार बीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। विशेषार्थ-अनन्तरका अर्थ व्यवधान रहित और उपनिधाका' अर्थ मार्गणा है। जिस प्रकरणमें अव्यवधान रूपसे वस्तुका विचार किया जाता है वह अनन्तरोपनिधा अनु योगद्वार है। यहां यह बतलाया गया है कि प्रति समय जो कर्म बंधते हैं वे अपनी स्थिति के अनुसार किस क्रमसे निक्षिप्त होते हैं। मूलमें इतना ही निर्देश किया गया है कि प्रथम समयमें बहुत कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। दूसरे समय में एक चय कम कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। इस प्रकार अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक सब समयों में एक-एक चय कम कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। इसका विशेष खुलासा इस प्रकार है-मान लो किसी जोवने ६३०० कर्म परमाणुओंका वंध किया और उनको उत्कृष्ट स्थिति ५१ समय पड़ी। यहाँ तीन समय अाबाधाके हैं, इसलिये उन्हें छोड़कर बाकीके ४८ समयोंमें उक्त ६३०० कर्म परमाणुओंको निक्षिप्त करना है जो उत्तरोत्तर विशेपहीन क्रमसे दिये जाते हैं। प्रथम गुणहानिमें चयका जो प्रमाण होता है, दूसरीमें उससे आधा होता है । इस तरह अंतिम गुणहानिके अन्तिम निपेकतक उत्तरोत्तर चय प्राधा-आधा होता जाता है। ४८ समयोंमें निक्षिप्त परमाणुओंकी निषेक-रचना इस प्रकार होती है ५१२ २५६ १२८ ४८० .२४० ११२५६ १०४ ५२ ४१६ २०८ २६ १३ ३८४ ३५२ ३२८ इस रचनामें प्रथम निपेकसे दूसरा निषेक विशेषहीन दिखाई देता है और यह क्रम प्रन्तिम निपक तक चला गया है। अन्य कर्मोसे आयु कर्ममें यही अन्तर है कि अन्य कर्मों की ग्राधाधा स्थिति बन्धके भीतर परिगणित की जाती है, पर श्रायु कर्ममें उसे स्थितिबन्ध । अना गिना जाता है --- यथा इस उदाहरगमें 17 समयका स्थितिवन्ध मानकर ३ समय श्रावाधारे लिये छोड़ दिये गये हैं। इस प्रकार प्रायु कर्मके स्थिनिधो जितने समय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ६. पंचिंदियस्स सरिणस्स अपज्जत्तयस्स . युगवज्जाणं सत्तएणं कम्माणं तोमुहुत्तं बाधा मोत्तूरण जं पढमसमए ० तं बहुगं । जं विदियसमए ० तं विसे० । जं तदियसमए तं विसे । एवं विसे० विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण अंतोकोडाकोडिति । आयुग अंतोमुहुत्तं बाधा मोत्तूण जं पढमसमए ० तं बहुगं । जं विदिय० तं विसे० । जं तदियस ० तं विसेस ० । एवं विसे० विसेसहीणं याव उक्कस्सेण पुव्वकोडि त्ति । ❤ ७. पंचिंदिय असण- पज्जत्ताणं श्रयुगवज्जाणं सत्तणं कम्पारणं अंतोमु० बाधा मोत्तूण जं पढमसम० तं बहुगं । विदियसम० तं विसे० । तदियसम० तं विसेस ० । एवं विसे० विसे० जाव उक्कस्सेण सागरोत्रम - सहस्स० तिरिण सत्त भागा सत्तसत्त भागा, बेसत्त भागा पडिपुरणा त्ति | आयुगस्स पुव्वकोडितिभागं बाधा मोत्तू जं पढमसम० तं बहुगं । जं विदियसम० तं विसे । जं तदियस ० तं विसे० । एवं विसे० विसे० जाव उक्कस्सेण पलदोवमस्स असंखेज्जदिभागो त्ति । ८. पंचिंदिय असण - अपज्जत्ताणं सत्तएां कम्मारणं श्रयुगवज्जाणं अंतो होते हैं, उनमें से बाधाके समय छोड़कर शेष में निषेक रचना नहीं होती, किन्तु जो स्थिति बन्ध होता है उन सबमें निषेक रचना होती है । प्रथम निषेकसे दूसरा और दूसरेसे तीसरा निषेक कितना हीन है, इस प्रकार व्यवधानके विना यहां विचार किया गया है, इसलिये इसे अनन्तरोपनिधा कहते हैं । SAMA ६. पंचेंद्रिय संज्ञी अपर्याप्तकके आयु कर्मके सिवा शेष सात कर्मोंके अंतर्मुहूर्त प्रमाण बाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में कर्म परमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते है वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार अंतःकोटाकोटि प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन निक्षिप्त होते हैं। आयुकर्मके अंतर्मुहूर्तप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । जो तीसरे समय में निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार पूर्व कोटिप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहोन विशेषहीन निक्षिप्त होते हैं । ७. पंचेंद्रिय असंज्ञी पर्याप्तकोंके श्रायुकर्मके सिवा शेष सात कर्मो के अंतर्मुहूर्तप्रमाण बाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं। जो दूसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार एक हजार सागरके तीन बटे सात भाग, एक हजार सागरके सात बटे सात भाग और एक हजार सागरके दो बटे सात भाग प्रमाण परिपूर्ण स्थिति के अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं । श्रायुकर्मके पूर्वकोटिके त्रिभागप्रमाण बाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार पल्योपमके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति के अन्तिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं । ८. पंचेंद्रिय अशी अपर्याप्तकोंके आयुकर्मके सिंवा शेष सात कर्मोंके अंतर्मुहूर्त प्रमाण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिसेगपरूवणा हुत्तं आवाधा मोतूण जं पढमसम तं बहुगं । विदियस० तं विसे । जं तदियसतं विसे । एवं विसे• विसे. जाव उक्क सागरोवमसहस्सस्स तिषिण-सत्त भागा सत्तसत्तभागा बे-सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेजदि भागेण ऊणिया त्ति । आयुगस्स अंतोमु० आबाधा मोत्तूण जं पढमस तं बहुगं। जं विदियसम० तं विसे । जंतदियस० तं विसे । एवं विसे० विसे. जाव उक्क० पुवकोडि त्ति ।। ____६. चदुरिंदि-तेइंदि०-बेइंदि० पज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं आयुगवजाणं अंतोमु० आवाधा मोत्तूण जं पढमसमए तं बहुगं । विदियस तं विसे । जं तदियस० तं विसे । एवं विसे विसे जाव उक्कस्सेण सागरोवमसदस्स सागरोवमपएणारसाए सागरोवमपणुवीसाए तिरिण-सत्त भागा सत्त-सत्त भागा बे-सत्त भागा पडिपुण्णा त्ति । आयुगस्स बे मासं सोलस रादिदियाणि सादिरेयाणि चत्तारि वस्साणि आबाधा मोत्तूण जं पढम स० तं बहुगं। जं विदियस० तं विसे । जं तदियस० तं विसे । एवं विसे विसे जाव उक्कस्सेण पुनकोडि त्ति । १०. चदुरिंदि-तेइंदिय-बेइंदिय अपज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं आयुगवज्जाणं ON आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं। जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार एक हजार सागरके पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग प्रमाण, एक हजार सागरके पल्यका संख्यातवाँ भाग कम सात बटे सात भागप्रमाण और एक हजार सागरके पल्यका संख्यातवाँ भाग कम दो बटे सात भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। आयुकर्मके अंतर्मुहूर्तप्रमाण आवाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं त है। जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन है। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं । ९. चतुरिंद्रिय पर्याप्त, त्रींद्रिय पर्याप्त और द्वींद्रिय पर्याप्त जीवोंके आयुकर्मके सिवा सात कमौके अंतर्मुहूर्त प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार क्रमसे सौ सागरका, पचास सागरका और पञ्चीस सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण, सात बटे सात भागप्रमाण और दो बटे सात भागप्रमाण परिपूर्ण उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिम समय तक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु विक्षिप्त होते हैं। आयुकर्मके क्रमसे दो माह, साधिक सोलह दिनरात और चार वर्षप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ठ स्थितिके अंतिम समय तक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। १०. चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय और द्वींद्रिय अपर्याप्तकोंके आयुके सिवा सात कर्मोंके अंत Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अंतोमु. आबाधा मोत्तूण जं पढमसम तं बहुगं। जं विदियसम० विसे । जं तदियसम० तं विसे । एवं विसे० विसे० जाव उक्क० सागरोवमसदस्स सागरोवमपएणारसाए सागरोवमपणुवीसाए तिरिण-सत्त भागा सत्त-सत्तभागा बे-सत्त भागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणिया। आयुगस्स अंतोमु. आबाधा मोत्तूण जे पढमसमए० तं बहुगं । जं विदियसमए तं विसे । जं तदिय स० तं विसे । एवं विसे विसे याव उकस्सेण पुव्वकोडि ति ।। ११. बादरएइंदियाणं पज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं आयुगवज्जाणं अंतोसु. आबाधा मोत्तूण जं पढम स० तं बहुगं, जं विदियस० तं विसे । जं तदियस० तं विसे । एवं विसे विसे० जाव उक्क सागरोवमस्स तिएिण-सत्त भागा सत्त-सत्त भागा बे-सत्त भागा पडिपुण्णा ति । आयुगस्स सत्तवस्ससहस्साणि सादि रेयाणि आवाधा मोत्तण जं पढमस० तं बहुगं। जं बिदियस० तं विसे० । जंतदियस० तं विसे । एवं विसे विसे जाव उक्क० पुवकोडि ति। १२. बादरएइंदियअपज्जत्ताणं मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं च सत्तएणं कम्माणं आयुगवज्जाणं अंतोमु० बाबाधा मोत्तूण जं पढमस तं बहुगं । जं विदियस० तं मुहूर्तप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं। जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षित होते हैं वे विशेषहीन हैं । इस प्रकार क्रमसे सौ सागरका, पचास सागरका और पच्चीस सागरका पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, पल्यका संख्यातवाँ भाग कम सात बटे सात भाग और पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समय तक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। आयुकर्मके अंतर्मुहूर्तप्रमाण आवाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं। जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन निक्षिप्त होते हैं। ११. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके आयुके सिवा सात कमौके अंतर्मुहूर्तप्रमाण श्राबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्म निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं। जो दूसरे समयमें कर्म निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । जो तीसरे समयमें कर्म निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार एक सागरके तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण परिपूर्ण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। आयुकर्मके (साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं। जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। १२. बादर एकेद्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्त जीवोंके आयुकर्मके सिवा सात कौंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आवाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं। जो दूसरे समयमें कर्मपरमाणु निक्षिप्त Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ furपरूवणा ११ विसे० ० । जं तदियस ० तं विसे० । एवं विसे० विसे० जाव उक्क० सागरोवमस्स तिरिणसत्त भागा, सत-सत्त भागा, बे-सत्त भागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊरिणगात्ति । श्रायुगस्स तोमु० आबाधा मोत्तूण जं पढमसमए ० तं बहुगं । जं विदियस : तं विसे० । जं तदियस ० तं विसे० । एवं विसे० विसे० जाव उक्क० पुव्वकोडिति । एवमतरोवणिधा समत्ता । १३. परंपरोवणिधाए' पंचिंदिय- सरिण असरिगपज्जत्ताणं हरणं कम्मारणं उक्क० आबाधा मोत्तूरण जं पढमसमए पदेसग्गादो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूर दुगुहीणा । एवं दुगुर हीरणा दुगुर हीरा जाव उक्कस्सिया द्विदिति । १४. पंचिंदियाणं सरिण असरिणअपज्जतागं चतुरिंदि० तेइंदि० - बेइंदि० होते हैं वे विशेषहीन । जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार एक सागरका पल्यका श्रसंख्यातवां भागकम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। आयुकर्मके अंतर्मुहूर्तप्रमाण श्राबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमै कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं वे विशेषहीन हैं । इस प्रकार पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिके अंतिम समयतक विशेषहीन विशेषहीन कर्मपरमाणु निचिप्त होते 1 विशेषार्थ - संशी पंचेद्रियसंबंधी दोनों जीवसमासोंके बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका सब स्थितियों में किस क्रमले निक्षेप होता है, इसका पहले विचार कर आये हैं । यहाँ शेष जीवसमासों में विचार किया गया है । सब जीवसमासों में बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंके निक्षेपका क्रम एक ही है, उसमें कोई अन्तर नहीं है, फिर भी सब जीवसमासोंमें निक्षेप क्रमका पृथक्-पृथक् विवेचन करनेका कारण यह है कि प्रत्येक जीवसमासमें आठ कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध अलग-अलग होता है, इसलिये जिसके जिस कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबंध जितना हो वहां तक ही प्रत्येक स्थितिमें उत्तरोत्तर विशेषहीन क्रमसे निक्षेपविधि जाननी चाहिये । मात्र श्रबाधाकालमें निषेकरचना न होनेसे वहां कर्मपरमाणुओंका निक्षेप नहीं होता है, इतना विशेष जानना चाहिये । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई । १३. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त और पंचेन्द्रिय अशी पर्याप्तके आठ कर्मोके आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए कर्ममरमाणुओंसे पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाणं स्थान जाकर वे द्विगुणहीन होते हैं अर्थात् आधे रह जाते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक वे द्विगुणहीन द्विगुणहीन होते जाते हैं । १४. पंचेन्द्रिय संशी अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय संशी अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, श्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एके १, पञ्चसं०, पञ्चम द्वार, गा० ५१ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे नादरएइंदिय-सुहुमएइंदिय० पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं आयुगवज्जाणं उक्कसिया आवाधा मोत्तूण जौं पढमसमयपदेसग्गादो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुण जाव उक्कस्सिया हिदि त्ति । १५. एयपदेसियदुगुणहाणिहाणंतराणि असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणापदेसदुगुणहाणिहाणंतराणि पलिदोवमस्स वग्गमूल. असंखेज्जदिभागो। १६. णाणापदेसदुगुणहाणिहाणंतराणि थोवाणि । एयपदेसदुगुणहाणिहाणंतरं असंखेज्जगुणं । आबाधाकंडयपरूवणा १७. आवाधाकंडयपरूवणदाए' पंचिंदियसएिण-असएिण-चतुरिंदिय-तेइंदियबेइंदिय-बादरएइंदिय-मुहुमेइंदिय-पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं आयुगवज्जाणं उक्कस्सादो द्विदीदो समये समये पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं ओसरिदूण एयमान्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आयुकर्मके सिवा सात कर्मोंके उत्कृष्ट आवाधाको छोड़कर प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए कर्मपरमाणुओंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे द्विगुणहीन होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक वे द्विगुणहीन द्विगुणहीन होते जाते हैं। १५. एकप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं। नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके प्रथम वर्गमलके असंख्यातवे भागप्रमा १६. नाना प्रदेश द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। इनसे एक प्रदेश द्विगुणहानि स्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ-पहले प्रथम निषेकमें कितना द्रव्य होता है और द्वितीयादिक निषेकोंमें वह कितना-कितना कम होता जाता है, इसका विचार कर आये हैं । यहाँ प्रथम निषेकके द्रव्यसे कितने स्थान जानेपर वह उत्तरोत्तर आधा-आधा रहता जाता है, इसका विचार किया गया है। मूलमें बतलाया है कि प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए कर्म परमाणुओंसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर वे आधे रह जाते हैं। इस प्रकार पुनः-पुनः पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर वे उत्तरोत्तर आधे-आधे शेष रहते हैं। यहां नानाप्रदेश गुणहानि स्थानान्तर पदसे नाना गुणहानियां ली गई है और एकप्रदेशगुणहानिस्था नान्तरपदसे एक गुणहानिके निषेक लिए गये हैं। आवाधाकाण्डकमरूपणा १७. अब आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करते हैं । इसकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय संशो पर्याप्त, पंचेन्द्रिय संशी अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय असंही पर्याप्त, पंचेन्द्रिय असंशी अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें आयुकर्मके सिवा सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसे समय समय उतरते हुए पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति उतर कर एक आवाधाकाण्ड करता १. पञ्चसं०, पञ्चम द्वार,गा० ५३ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहुगपरूवणा बाधकंड करेदि । एस कमो जाव जहरिणया हिदि ति । अप्पा बहुगपरूवणा १८. अप्पाबहुगे त्तिपंचिंदियाणं सरखीणं पज्जत्तापज्जत्ताणं गाणावरणीयस्स सव्वत्थोवा जहरिया आबाधा' । आबाधद्वाणाणि श्रबाधाखंडयाणि च दो वि तुल्लारिण संखेज्जगुणारिण । उक्कस्सिया आवाधा विसेसाहिया । खारणापदेसगुणहागिट्टाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । एयपदेसगुणहाणिहाणंतरं असंखेज्जगुणं । एयमाबाधाखंडयमसंखेज्जगुणं । जहणओ द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । द्विदिबंधहाणार संखेज्जगुणाणि । उक्कस्स द्विदिबंधो विसेसाधियो । एवं छण्णं कम्मारणं । 1 १३ है और यह क्रम जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक चालू रहता है । विशेषार्थ -- यहाँ कितनी स्थितिकी कितनी आबाधा होती है इसका विचार किया गया है । कर्मस्थितिविकल्प बहुत हैं और बाधा के विकल्प थोड़े हैं, इसलिये जितने स्थितिविकल्पों के प्रति एक श्रबाधाका विकल्प प्राप्त होता है उसे आबाधाकाण्डक कहते हैं। एक बाधाकाण्ड यहाँ पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है इसका अभिप्राय यह है कि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्पोंके प्रति एक आबाधाविकल्प प्राप्त होता है । उदाहरणार्थ-सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण दर्शनमोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिको ६४ मान लिया जाय, सात हजार वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट श्रबाधाको १६ मान लिया जाय और पल्यके संख्यात भागको ४ मान लिया जाय तो—६४, ६३, ६२ और ६१ इन चारकी १६ समय बाधा होगी। यह एक श्राबाधाकाण्डक है । तथा ६०, ५९, ५८ और ५७ की १५ समय बाधा होगी यह दूसरा बाधाकाण्डक है । इस तरह जघन्य स्थितिके प्राप्त होनेतक एक-एक आबाधाकाण्डकके प्रति आबाधाका एक-एक समय कम होते हुए जघन्य स्थितिकी जघन्य आबाधा रह जाती है । अल्पबहुत्वमरूपणा १८. अब अल्पबहुत्वका विचार करते हैं। उसकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय संशी पर्याप्त और पंचेन्द्रिय संशी अपर्याप्त जीवों के ज्ञानावरणीयकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। इससे आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक ये दोनों समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे उत्कृष्ट बाधा विशेष अधिक है। इससे नानाप्रदेशगुणहानिस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है । इससे एक श्राबाधाकाण्डक श्रसंख्यातगुणा है । इससे जघन्यस्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं इनसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार छह कर्मों का अल्पबहुत्व जानना चाहिये । विशेषार्थ - यहाँ अबतक स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा और आबाधाकाण्डकप्ररूपणा इन तीन अधिकारोंमें जिन विषयोंकी चरचा की है, उनमें कौन कितना है और कौन कितना बहुत है, यह तुलनात्मक ढंग से बतलाया गया है। यह अल्पबहुत्व जघन्य श्रबाधासे प्रारम्भ होकर उत्कृष्ट स्थितिपर समाप्त होता है मात्र इसमें १. पञ्चसं ०, बन्धनक०, गा० १०१-१०२ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महावंधे ट्ठिदिबंधाहियारे संयतकी अपेक्षा जघन्य स्थितिका निर्देश नहीं किया है । ज्ञानावरणकी जघन्य स्थिति संयतके होती है और सबसे जघन्य आवाधा उसीकी हो सकती है। इसलिये यह प्रश्न होता है कि इस अल्पबहुत्वमें यह जघन्य आवाधा किसकी ली गई है। आगे उत्तरप्रकृति स्थितिबन्धमें अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए कहा है कि 'सबसे स्तोक जघन्य आबाधा है और उससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे वहाँ तो जघन्य अाबाधा किसकी ली गई है इसका पता लग जाता है,पर यहाँका प्रश्न इस दृष्टिसे विचारणीय रहता है। यहाँ शानाबरणके अल्पबहुत्वको कहनेके बाद एवं छण्णं कम्माणं' ऐसा कहा है। संयतके क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें छह कर्मोंका बन्ध तो होता है पर मोहनीयका नहीं होता। इसलिये इस निर्देशसे यही ज्ञात होता है कि इस अल्पबहुत्वमें संयतकी जघन्य स्थितिका कथन अविवक्षित रहा है। मालूम पड़ता है कि यहाँ मिथ्यादृष्टिको जघन्य स्थितिकी आबाधा ली गई है, क्योंकि इस अल्पबहुत्वमें इस स्थितिका ग्रहण भी किया है। यह सबसे स्तोक होती है। श्राबाधा कुल विकल्प आवाधास्थान कहलाते हैं और इतने ही आवाधाकाण्डक होते हैं। शानावरणकी उत्कृष्ट आबाधा तीन हजार वर्ष से जघन्य आवाधा अन्तमुहूर्तको कम कर एक मिला देनेपर कुल आबाधाके विकल्प होते हैं । ये विकल्प अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य आबाधासे संख्यातगुण होनेके कारण आबाधास्थान ओर पाबाधाकाण्डकोको जघन्य आवाधासे संख्यातगुणा कहा है । ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट आबाधा पूरी तीन हजार वर्ष प्रमाण है जो आबाधास्थानों में अन्तमुहूर्त के जितने समय हों, एक कम उतने समयोंके मिलानेपर प्राप्त होती है। इसीसे उक्त दोनों पदोंसे उत्कृष्ट श्राबाधाको विशेष अधिक कहा है। नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तरोंका प्रमाण पहले पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं। यह प्रमाण तीन हजार वर्षके समयोंसे असंख्यातगुणा है। इसीसे उत्कृष्ट आबाधाके प्रमाणसे यह प्रमाण असंख्यातगुणा कहा है । एकप्रदेशगुण हानिस्थानान्तरका प्रमाण पहले पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोके बराबर बतला पाये है। यह प्रमाण नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तरके प्रमाणसे असंख्यातगुणा है.यह स्पष्ट ही है। इसीसे नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तरके प्रमाणसे इसे असंख्यातगुणा कहा है । एक आवाधाकाण्डकका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है यह एकप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तरसे असंख्यातगुणा होनेके कारण असंख्यातगुणा कहा गया है। मिथ्यादृष्टिके शानावरणकर्मकी जघन्य स्थिति अन्तःकोटाकोटिसागर प्रमाण होती है जो एक आवाधाकाण्डकके प्रमाणसे असंख्यातगुणी होती है। इसीसे आबाधाकाण्डकसे जघन्य स्थितिको असंख्यातगुणी कहा है। उत्कृष्टस्थिति तीस कोटाकोटिसागरमेंसे अन्तःकोटाकोटिसागरको कम करके जो लब्ध आवे उसमें एक मिलानेपर स्थितिस्थान प्राप्त होते हैं। यतः ये जघन्य स्थितिके प्रमाणसे संख्यातगुणे हैं,अतः जघन्य स्थितिके प्रमाणसे स्थितिस्थानोंका प्रमाण संख्यातगुणा कहा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूरा तोस कोटाकोटिके समय प्रमाण होता है और स्थितिस्थान इसमेंसे अन्तःकोटाकोटिके समयोंको घटाकर एक मिलानेपर प्राप्त होते हैं। स्पष्ट है कि स्थितिस्थानके प्रमाणसे उत्कृष्ट स्थिति विशेष अधिक है। इसीसे स्थितिस्थानके प्रमाणसे उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण विशेष अधिक कहा है। यह संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकी मुख्यतासे अल्पबहुत्वका खुलासा है। मात्र इसमें इन्हींके अपर्याप्तकी अपेक्षा प्राप्त होनेवाला अल्पबहुत्व गर्भित है। आयुके सिवा दर्शनावरण आदि शेष छह कमौके उक्त सब पदोंका अल्पबहुत्व इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये, क्योंकि उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदिमें अन्तरके होनेपर भी उससे अल्पबहुत्वमें कोई अन्तर नहीं आता। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुगपरूवणी १५ १६. पंचिंदियसएिण-असएिण-पज्जत्ताणं सव्वत्थोवा' आयुगस्स जहएिणया आबाधा । जहएणो हिदिबंधो संखेज्जगुणो। आबाधाहाणाणि संखेज्जगुणाणि । उक्कस्सिया आबाधा विसेसाधिया। णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि। एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जगुणं । हिदिवंधहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। २०. पंचिंदियाणं असएणीणं पज्जत्तापज्जत्ताणं चरिंदिय-तेइंदि-बेइंदि० पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तणं कम्माणं आयुगवज्जाणं आवाधाहाणाणि आबाधाखंडयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । जहरिणया आवाधा संखेज्जगुणा । उक्कस्सिया आवाधा विसे । णाणापदेसगु० असंखे गु० । एयपदेसगु० असं गु० । एयं आबाधाखंडयं असं गु० । हिदिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । जहएणो हिदिबंधो संखेज्जगुणो । उक्क हिदिबं० विसे ।। २१. बादरएइंदिय-सुहुमएइंदिय-पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तणं कम्माणं आयुगवज्जाणं आवाधाट्ठाणाणि आबाधाखंडयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । जहरिण १९. पंचेन्द्रिय संशी पर्याप्त और पंचेन्द्रिय असंही पर्याप्त जीवोंके आयुकर्मकी जघन्य आवाधा सबसे स्तोक है। इससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। इससे नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। इससे स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २०. पंचेन्द्रिय असंशी पर्याप्त, पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, श्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आयुके सिवा सात कौके पाबाधास्थान और आवाधाकाण्डक ये दोनों तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। इससे उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इससे नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं । इनसे एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। इससे एक आबाघाकाण्डक असंख्यातगुणा है। इससे स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। विशेषार्थ-यहाँ स्थितिबन्धस्थान पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण हैं और जघन्य स्थिति पल्यका संख्यातवाँ भाग कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसीसे यहाँ स्थितिस्थानोंके प्रमाणसे जघन्य स्थितिको संख्यातगुणा कहा है। शेष कथन सुगम है। २१. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आयुकर्मके सिवा सात कमौके पाबाधास्थान और आवाधाकाण्डक ये दोनों तुल्य होकर स्तोक हैं । इनसे जघन्य अावाधा असंख्यातगुणी है। इससे १. पञ्चसंबन्धनक०,गा० १०३-१०४ । २. मूलप्रतौ पंचिंदि०.............. "याणं असंखेज्ज ....... . 'एइंदि० बेइंदि० इति पाठः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे या आवाधा असं गु० । उक्क. आबाधा विसे । णाणापदेसगु० असं गु० । एयपदेसगु० असं० गु० । एयं आवाधाखंडयं असं० गु० । हिदिवंधट्ठाणाणि असं०गु० । जह• हिदि. असं॰ गु० । उक्क० हिदि विसे । २२. अवससाणं बारसरणं जीवसमासाणं आयुगस्स सव्वत्थोवा जहरिणया आबाधा । जह• हिदिवं० संखेज्जगुं० । आवाधाट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । उक्क० आवाधा विसेसा । हिदिव० संखेज्जगुणाणि । उक्क हिदि० विसेसा । एवमप्पाबहुगं समत्तं चउवीस-अणिोगदारपरूवणा २३. एदेण अट्ठपदेण तत्थ इमाणि चउवीसमणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा, अद्धाच्छेदो सव्वबंधो कोसबबंधो उक्क० अणुक्क० जह• अजह सादि० अणादि० धुवबं० अर्धवबं० एवं याव अप्पावहुगे त्ति । भुजगारबंधो पदणिक्खेत्रो वडिबंधो अज्झवसाणसमुदाहारे जीवसमुदाहारे त्ति । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इससे नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इससे एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है। इससे स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं। इससे जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। विशेषार्थ-इन जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरके भीतर होता है और श्राबाधा, श्राबाधाकाण्डक आदि उसी हिसाबसे होते हैं। यही कारण है कि इनके सात कौके सब पदोंका अल्पबहुत्व उक्त प्रमाणसे होता है । २२. अवशेष रहे बारह जीवसमासोंके आयुकर्मकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। इससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे आवाधास्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इससे स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थिति विशेष अधिक है। विशेषार्थ-यहाँ अल्पबहुत्वमें आवाधाकाण्डक, नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशद्विगणहानिस्थानान्तर और एक आबाधाकाण्डक परिगणित नहीं किये गये हैं। कारण कि इन बारह जीवसमासोंमें आयुकर्मका जितना स्थितिबन्ध होता है,वह इतना अल्प है, जिससे उसमें ये पद सम्भव नहीं हैं। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। चौबीस अनुयोगद्वारप्ररूपणा २३. इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। यथाश्रद्धाच्छेद, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुववन्ध और अध्रुवबन्धसे लेकर अल्पबहुत्व तक । तथा भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, बृद्धिबन्ध, अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहार ।। विशेषार्थ-अध्रुवबन्धसे लेकर अल्पबहुत्वतक ऐसा सामान्य निर्देश करके शेष बारह अनुयोगद्वार गिनाये नहीं है। वे ये है-स्वामित्व, बन्धकाल, बन्धान्तर, बन्ध सन्निकर्ष, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा अद्धाच्छेदपरूवणा २४. अद्धाच्छेदो दुविधो-जहएणो उक्कस्सो च । उक्कस्सगे पगदं । दुविधा णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण पाणावरणीय-दसणावरणीय-वेदणीयअंतराइगाणं उक्कस्सो हिदिबंधो तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ'। तिषिण वस्ससहस्साणि आवाधा' । आवाधूणिया कम्मट्टिदी कम्मणिसेगो । मोहणीयस्स उक्कस्सो ट्ठिदिबंधो सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ। सत्तवस्सहस्साणि आवाधा। आवाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो । आयुगस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो तेत्तीसं सागरोवमाणि । पुवकोडितिभागं आवाधा। कम्महिदी कम्मणिसेत्रो' । णामागोदाणं उक्कस्सो हिदिवंधो वीसं सागरोवमकोडाकोडीअो । बेवस्ससहस्साणि आबाधा। आवाधुणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। एवमोघमंगो. सवणिरय-तिरिक्वं४-मणुस०३-देवो याव सहस्सार ति पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका०-वेउबियका-तिएिणवेद-चत्तारिकसा-मदि-सुद-विभंग-असंजद-चक्खुदं-अचक्खुदं-पंचले०-भवसि०-अब्भवसि-मिच्छादिहि-सएिण-आहारग त्ति । णवरि आयु० अन्तर और भाव। आगे इन चौबीस अनुयोगद्वारोंका आश्रय कर स्थितिबन्धका विचार करके पुनः उसका भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धि, अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहार इन द्वारा और इनके अवान्तर अनुयोगों द्वारा विचार किया गया है। अद्धाच्छेदप्ररूपणा २४. श्रद्धाच्छेद दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैप्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा शानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। आबाधा तीन हजार वर्ष प्रमाण है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण है। सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर है। पूर्वकोटिका तीसरा भागप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण है, दो हजार वर्षप्रमाण आवाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच और पंचेन्द्रिय योनिनीतिर्यंच ये चार प्रकारके तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य; देव, सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रियद्विक, प्रसद्विक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिक काययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताझानी, विभंगशानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, पांच लेश्यावाले, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि, संशी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु आयुकर्मके विषयमें १. जीव० चू० ६ । गो० क०, गा० १२७ । २. गो० क०, गा० १५६ । ३. गो० क०, गा० १६० । ४. गो० क०, गा० १५७ । ५. गो.क०, गा० १५८ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છૂટ महाधे हिदिबंधाहियारे विसेसो | देवरइगाणं युगस उक्कस्सो द्विदिबंधो पुव्वकोडी । छम्मासं श्रावाधा। कम्म्मणिसेगो । एवं वेडव्वियका० । चदुरणं लेस्सारणं युगस्स उक्क० द्विदिबंधो सत्तारस सागरोवमं सत्त सागरोवमं बे-अद्वारस सागरोवमं सादि० । पुव्वकोडितिभागं आबाधा । कम्मदी कम्मणि । २५. पंचिंदिय-तिरिक्ख - अपज्जत्ताणं सत्तणं कम्माणं उक्क हिदिबं० अंतोhisthira | तोमुहु० आबाधा । आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो । आयुगस्स उक्क० द्विदिबं० पुव्वकोडी । अतोमुहुत्तं च बाधा । कम्महिदी कम्मणिसेगो । एवं मणुस पज्जत - पंचिंदिय-तसपज्जत-ओरालियमिस्सा ति । एवं चेव आद या सव्वात्ति वेडव्वियमिस्स० - आहार० - आहारमि'० कम्मइग ० - आभिणि-सुद०ओधि ० मरणवज्ज० - संजद सामाइ ० - छेदो ० - परिहार ० - संजदासंजद - ओधिदं ० - सुक्कले ० 0 कुछ विशेषता है । यथा - देव और नारकियोंके श्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण होता है, छह महीना की बाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगवालोंके जानना चाहिये । नील आदि चार लेश्यावालोंके कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे सत्रह सागरप्रमाण, सात सागरप्रमाण, साधिक दो सागरप्रमाण और साधिक अठारह सागरप्रमाण है, पूर्वकोटिका तीसरा भागप्रमाण बाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । विशेषार्थ - यहाँ सर्वप्रथम घसे आठ कर्मोंका उत्कृष्टस्थितिबन्ध, उत्कृष्ट आबाधा और उत्कृष्ट निषेकरचनाका निर्देश करके यह श्रवप्ररूपणा जिन-जिन मार्गणाओं में सम्भव है उसका विचार किया गया है। आयुकर्मके सिवा सात कर्मोंकी बाधा स्थितिबन्धमें गर्भित रहती है, इसलिये इन कर्मोकी निषेकरचना आबाधाको न्यून कर शेष स्थितिप्रमाण कही गई है । पर श्रायुकर्ममें इस प्रकार स्थितिबन्धके अनुसार प्रतिभाग से आबाधा नहीं प्राप्त होती है, किन्तु जिस पर्याय में विवक्षित आयुका बन्ध होता है उस पर्यायकी शेष रही आयु ही बध्यमान आयुकर्मकी बाधा होती है, इसलिये आयुकर्मके स्थितिबन्धमें यह बाधा गर्भित न रहनेसे आयुकर्मकी उसका जितना स्थितिबन्ध होता है, तत्प्रमाण निषेकरचना होती है । यहाँ जिन मार्गणाओं का निर्देश किया है, उनमें से जिन मार्गणाओं में प्रयुकर्म के बन्धके सम्बन्धमें अपवाद है, उसका पृथक्से निर्देश किया ही है । कारण स्पष्ट है । २५. पंचेन्द्रिय तिर्थच अपर्याप्त कोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा-कोड़ी है, अन्तर्मुहूर्त बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । श्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटि है, अन्तर्मुहूर्त आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवके जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, वैक्रियिक मिश्र काययोगी आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, १. 'छठगुणं वाहारे तम्मिस्से रात्थि देवाऊ ||' गो० क०, गा० ११८ | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धाच्छेदपवणा सम्मादिट्टि-खइगस-वेदग०-उवसमस-सासण-सम्मामि०-अणाहारग त्ति । वरि आयुविसेसो। आणद याव सव्वट्ट ति देवोघं । वेउब्बियमि०-कम्मइग-उवसमसम्मामि०-अणाहार० आयुगं पत्थि । संजदासंजद. आयुग उक्क. हिदि. बावीसं सागरोवमं । पुव्वकोडितिभागं आबाधा। कम्महिदी कम्मणिसेगो। सासणे आयुग• उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमं । पुन्चकोडितिभागं आबाधा । कम्मट्ठिदी' कम्मणिसेगो । आहारकायजोगी आदि कादूण आयु० ओघं । सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु आयुकर्मके विषय में कुछ विशेषता है। यथा-आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक देवोंके आयुकर्मका कथन सामान्य देवोंके समान है । तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। संयतासंयतोंके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बाईस सागर होता है। पूर्वकोटिका तीसरा भाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। सासादनमें आयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इकतीस सागर होता है, पूर्वकोटिका तीसरा भागप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। आहारककाययोगीसे लेकर शेषके आयुकर्मका विचार ओघके समान है। विशेषार्थ-यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त पदसे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव लिये गये हैं। अन्तःकोटाकोटी सागरसे आगेका स्थितिबन्ध संशी पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके ही होता है। किन्तु यहाँ जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें जो पर्याप्त अवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाली मार्गणाएँ हैं,वे मिथ्यादृष्टि नहीं है और जो मिथ्यात्व अवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाली मार्गणाएँ हैं वे पर्याप्त नहीं, अतः इन सब मार्गणाओंमें आयुके सिवा शेष सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोटाकोटी सागरप्रमाण बन जाता है। आयुकर्मके स्थितिवन्धके सम्बन्धमें जो विशेषता है,वह अलगसे कही है । आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण ही होता है; परन्तु उत्कृष्ट आबाधा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण न होकर छह महीनाकी होती है, इसलिये इनके आयुकर्म के स्थितिबन्धका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंके समान न कह कर सामान्य देवोंके समान कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता,यह स्पष्ट ही है। यहाँ जिस प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें आयुबन्धका निषेध किया है,उस प्रकार आहारकमिश्रकाययोगमें श्रायुबन्धका निषेध नहीं किया। इतना ही नहीं,किन्तु इस व आगेके प्रकरणोंको देखनेसे विदित होता है कि 'महाबन्धके अनुसार आहारककाययोगके समान आहारकमिश्रकाययोगमें भी श्रायुबन्ध होता है। किन्तु गोम्मटसार'कर्मकाण्डमें आहारकमिश्रकाययोगमें आयुबन्धका निषेध किया है। संयतासंयत जीवोंका गमन सोलचे कल्पतक और सासादनसम्यदृष्टियोंका गमन अन्तिम ग्रेवेयकतक होता है। इससे इनके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे बाईस और इकतीस सागर प्रमाण बतलाया है। शेष कथन सुगम है। 1. मूलप्रती-हिदी कम्माणं सेसाणं । श्राहार-इति पाठः । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ठिदिबंधाहियारे २६. इंदिre बादर - बादरपज्जत्तस्स सत्तरणं कम्माणं उक्क ० दिबंधो सागरोवमस्स तिणि सत्तभागा सत्त सत्तभागा बे सत्तभागा । अंतोमुहुत्तं बाधा । धूरिया कम्मी कम्मरिगो । आयुगस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो पुव्वकोडी | सत्त्वस्ससहस्साणि सादिरेयाणि आबाधा । कम्मट्ठिदी कम्मणि० । बादरएइंदियअपज्जत्त-मुहुमएइंदियपज्जत्त - अपज्जत्ताणं सत्तणं कम्माणं उक्क० द्विदिवं ० सागरोवमस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा वे सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणिया । अंतोमुहुतं आबाधा | आबाधूणिया कम्मट्ठदी कम्म० । आयुगस्स उक्क० द्विदिबं० पुव्वकोडी । तोमुहुत्तं बाधा | कम्मदी सव्व पुढ• ० उ० तेउ०- वाड० - वरणप्फदि० - बादरवणप्फदिपत्तेगसरीर० दिगो । वरि आयु० उक्क० द्विदि० पुव्वकोडी | सत्तवस्ससहस्साणि सादि • वेससहस्सापि सादि० एक्करादिदिया० एक्कवस्ससहस्सा ० तिविस्ससहसारि सादि० वाधा । कम्म० कम्मणिसेगो । णिगोदजीवाणं सत्तणं कम्माणं पुढविकाइयभंगो | आयु० सव्वणियोदाणं सुहुमएइंदियभंगो । कम्म० 1 २० २६. एकेन्द्रियोंमें बादर और बादर पर्याप्त जीवोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा होती है और श्रावाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण है, साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण बाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है, और श्रावाधा न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आवाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंके सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि एकेन्द्रियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण है, आबाधा क्रमसे साधिक सात हजार वर्ष, साधिक दो हजार वर्ष, एक दिनरात, एक हजार वर्ष और साधिक तीन हजार वर्ष प्रमाण है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । निगोद जीवोंके सात कमका स्थितिबन्ध आदि पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। तथा सब निगोद जीवोंके कर्मका स्थितिबन्ध आदि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके समान है । विशेषार्थ - एकेन्द्रिय जीवोंके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण होता है, मोहनीयका पूरा एक सागरप्रमाण होता है और नाम और गोत्रका एक सागरका दो बटे सात भागप्रमाण होता है । पर्याप्त एकेन्द्रियोंके और बादर पर्याप्त एकेन्द्रियोंके इन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इसी प्रकार होता है। शेष बादर अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त केन्द्रियोंके इसमेंसे पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम कर देनेपर उत्कृष्ट स्थिति Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा २७. वेइंदि०-तेइंदि-चरिंदि० तेसिं चेव पज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदि सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपण्णासाए सागरोवमसदस्स तिषिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा वे सत्तभागा। अंतोमु० आबाधा । [आबाधूणिया] कम्महिदी कम्म० । आयुग० उक्क हिदि० पुव्वकोडी। चत्तारिवस्साणि सोलसरादिंदियाणि सादिरेयाणि बे मासंच आबाधा। आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्म०।तेसिं चेव अपज्जताणं सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदिबं० एवं चेव । णवरि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागण ऊणियं । [ अंतोमुहुत्तमाबाधा।] कम्मट्टिदी कम्म० । आयु० पंचिंदिय-तिरिक्ख. अपज्जत्तभंगो। बन्ध होता है। एकेन्द्रियों में सात कर्मोंके स्थितिबन्धका यह बीजपद है। इसी बीजपदके अनुसार पृथिवी कायिक आदिके बादर, सूक्ष्म और इनके पर्याप्त, अपर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जानना चाहिये। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सर्वत्र एक पूर्वकोटिप्रमाण होता है। मात्र अाबाधामें अन्तर है; क्योंकि सब जीवोंकी आयु अलग-अलग कही है। इसलिये जिसकी जितनी उत्कृष्ट आयु कही है, उसके अनुसार उसके श्रायुकर्मका उत्कृष्ट आबाधाकाल जानना चाहिये। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। २७. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इन्होंके पर्याप्त जीवोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे पच्चीस, पचास और सौ सागर का तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण होता है, चार वर्ष, साधिक सोलह रातदिन और दो महीना प्रमाण उत्कृष्ट आबाधा होती है तथा कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। इन्हीं अपर्याप्त जीवोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इसी प्रकार होता है। इतनी विशेषता है कि वह पल्यका संख्यातवाँ भाग कम होता है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-द्वीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पच्चीस सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण होता है, मोहनीयका पूरा पच्चीस सागरप्रमाण होता है तथा नाम और गोत्रका पच्चीस सागरका दो बटे सात भागप्रमाण होता है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके सर्वत्र पल्यका संख्यातवाँ भाग कम करनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पचास सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण होता है, मोहनीयका पूरा पचास सागरप्रमाण होता है तथा नाम और गोत्रका पचास सागरका दो बटे सात भागप्रमाण होता है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके सर्वत्र पल्यका संख्यातवाँ भाग कम करनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंके शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सौ सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण होता है, मोहनीयका पूरा सौ सागरप्रमाण होता है तथा नाम और गोत्रका सौ सागरका दो बटे सात भागप्रमाण होता है। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंके सर्वत्र पल्यका संख्यातवाँ भाग कम करने Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ महाबंधे हिदिबंधाहियारे २८. अवगद० णाणावर०-दसणावर०-अंतराइगाणं उक्क. हिदिवं. संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अंतोमु. आबाधा। आबाधृणिया कम्महिदी कम्म । वेदणीय-णामागोदाणं उक्क० हिदि० पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । अंतोमु० आवा० । आवाधू० कम्मट्ठिदी कम्मणि । मोहणीय० उक्क० हिदीबं० संखेज्जाणि वाससदाणि । अंतोमुहुत्तं आबा० । आबाधूणि० कम्महिदी कम्म० । मुहुमसंप० तिषणं कम्माणं उक्क० हिदिवं० मुहुत्तपुधत्तं । अंतोमु आबा० । आबाधू० कम्मट्टिदी कम्म । वेदणीय-णामा-गोदाणं उक्क हिदिवं० मासपुधत्तं । अंतोमु आवाधा। आवाधू० कम्मट्टिदी कम्म । २६. असगणीसु सत्तएणं कम्माणं उक्क० द्विदिबं० सागरोवमसहस्सस्स तिएण सत्तभागा सत्त सत्तभागा वे सत्तभागा। अंतोमुहुत्तं आबा० । आबाधू० कम्मट्टिदी कम्म० । आयुग० उक्क० द्विदिवं० पलिदोवमस्स असंखे भागो । पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। आवाधा सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सर्वत्र एक पूर्वकोटिप्रमाण है। मात्र इसकी आवाधामें अन्तर है, सब भेदोंकी उत्कृष्ट आयु अलग-अलग कही है। इसलिये जिसकी जितनी उत्कृष्ट प्रायु है. उसके अनुसार उसके आयुकर्मका उत्कृष्ट आबाधाकाल जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है। २८. अपगतवेदवाले जीवोंके छानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं । वेदनीय, नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यका असंख्योतवाँ भागप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आवाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्म स्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके तीन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा होती है और बाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। वेदनीय, नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। विशेषार्थ-यहाँ जो अपगतवेदी जीवके और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवके कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध बतलाया है, वह उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवके सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें और अपगतवेदके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयका और श्रेणिमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिये सूक्ष्मसाम्परायसंयतके मोहनीय और आयकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका और अपगतवेदी जीवके मात्र आयकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निर्देश नहीं किया। शेष कथन सुगम है। २९. असंही जीवोंमें सात कौंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक हजार सागरका तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक होते हैं। आयुकर्मका Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा पुवकोडितिभागं च आवाधा । कम्पट्ठिदी कम्म० । एवमुक्कस्सो अद्धच्छेदो समत्तो। ३०. जहएणगे पगदं। दुविधो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावर०-दंसरणावर०-मोहणीय-अंतराइगाणं जहएणो हिदिबंधो अंतो० । अंतोमुहुत्तं आबाधा । आवाधू० कम्मट्टिदी कम्म० । वेदणीयस्स जहएणो हिदिबंधो बारस मुहुत्तं । अंतोमु० श्राबाधा । आबाधू० कम्महिदी कम्म० । आयुग. जह हिदिबं. खुद्दाभवग्गहणं । अंतो० आबा । कम्मट्ठिदी कम्म० । [णामागोदाणं जहएणो हिदिवंधो अट्ठ मुहुत्तं । अंतोमुहुत्तमावाधा। आबाधृणिया कम्मट्टिदी कम्मणिसेगो । ] एवमोघभंगो मणुस०३-पंचिदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०कायजोगि-ओरालियका०-अवगदवे-लोभक०--आभि०-सुद०-अोधि०-मणपज्जव०संजद-चक्खुदं०-अचखुदं०-प्रोधिदं०-सम्मादि०-खइगस०-सएिण-आहारग ति । णवरि अवगदवे. आयुगं पत्थि । आभि०-सुद-बोधिदं०-सम्मादि-रवइगस. आयुगल जह• हिदि० वासपुधत्तं । अंतोमु० आबाधा । कम्महिदी कम्मणिसेगो । मणपज्जव०-संजदा० आयुग० जह० हिदिबं० पलिदोवमपुधत्तं । अंतोमु० श्राबाधा। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, पूर्वकोटिके त्रिभागप्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। विशेषार्थ-असंशी जीवीके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक हजार सागरप्रमाण, शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका एक हजार सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण तथा नाम और गोत्रका एक हजार सागरका दो बटे सात भाग प्रमाण होता है। असंही जीव मरकर प्रथम नरकमें और भवनत्रिकमें भी उत्पन्न होते हैं, इसलिए इस दृष्टि से इनके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार उत्कृष्ट अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। ३०. अब जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे शानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं । वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त है, अन्तर्मुहूर्त श्राबाधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है, अन्तर्मुहूर्त श्राबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। नाम और गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है, अन्तर्मुहर्त आबाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक हैं। मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायी, आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, स्वनुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संशी और आहारक जीवोंके इसी प्रकार ओघके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी जीवोंके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतशानी, अवधिज्ञानी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक होते हैं। मनःपर्ययज्ञानी और संयत Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ महाबंधे हिदिबंधाहियारे कम्पट्टिदी कम्म० । सुक्कले. आयु० जह ट्ठिदिवं० मासपुधत्तं । अंतोमु० आबाधा। कम्महिदी कम्मणिसेगो' । ३१. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं जह० हिदिबं० सागरोवमसहस्सस्स तिषिण-सत्त भागा सत्त-सत्त भागा बे-सत्त भागा पलिदो० संखेज्जदिभागेण ऊणियं । अंतोमु. आवाधा। आबाधृ० कम्महिदी कम्म० । आयुग० जह• हिदिवं० अंतो० । अंतोमु० आबाधा । कम्महिदी कम्म० । एवं पढमजीवोंके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। शुक्ललेश्यावालोंके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। विशेषार्थ-श्रोधसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें होता है । मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें होता है और आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मिथ्यात्व गुणस्थानमें होता है। यहाँ अन्य जिन मार्गणाओं में ओघप्ररूपणा कही है उनमें आयुके सिवा सात कौका तो ओघके समान स्थितिबन्ध बन जाता है, क्योंकि उन सब मार्गणाओंमें क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव है। किन्तु उक्त मार्गणाओंमेंसे जिन मार्गणाओंमें मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, उनमें आयुकर्मके स्थितिबन्धके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है, जिसका निर्देश मूलमें ही किया है। खुलासा इस प्रकार है-श्रेणिमें आयुबन्ध नहीं होता, इसलिये अपगतवेदीके आयुकर्मके बन्धका निषेध किया है। आभिनियोधिक शान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि ये मार्गणाएँ मनुष्यगति और तिर्यंचगतिके समान नरकगति और देवगतिमें भी सम्भव हैं। यतः नरकगतिमें सम्यक्त्व अवस्थामें जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण होता है, अतः इन मार्गणाओं में प्रायुकर्मको जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। मनःपर्ययशानी और संयत मनुष्य ही होते हैं । इनके संक्लेश परिणामोंकी बहुलता होनेपर छठवें गुणस्थानमें पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण आयुबन्ध होता है। इसीसे इन मार्गणाओंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध, उक्त प्रमाण कहा है। शुक्ललेश्या मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी सम्भव है। यदि शुक्ललेश्यारूप परिणामोंके हीयमान होनेपर आयुबन्ध हो तो मासपृथक्त्व प्रमाण स्थितिबन्ध सम्भव है । इसीसे शुक्ललेश्यामें उक्त प्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध कहा है। शेष कथन सुगम है। ३१. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक हजार सागरका पल्यका संख्यातवां भागकम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आवाधा होती है और आबाघासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी, देव-भवनवासीदेव और व्यन्तर देवोंमें जानना १. गो. क०, गा० १३६ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा पुढवीए देवा-भवण-वाणवें । एवं चेव सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्जत्त-पंचिंदियअपज्जत्ता० । णवरि आयु० अोघं ? ३२. विदियाए याव सत्तमा ति सत्तएणं कम्माणं जह• हिदिवं. अंतोकोडाकोडी। अंतोमुहुत्तं आबाधा । आवाधृ० कम्महिदिकम्म० । आयु० णिरयोघं । एवं जोदिसिय याव सव्वह ति वेउव्वियका-वेउव्वियमि०-आहार-आहारमि-विभंगपरिहार-संजदासंजद-तेउले-पम्मले-वेदगस०-सासण-सम्मामि० । वरि एदेसु आयु. विसेसो । जोदिसिय-सोधम्मीसाण आयु० जह• हिदि० अंतो । सणक्कुमार-माहिंद० मुहुत्तपुधत्तं । बह्म-बह्मत्तर-लंतव-काविह. दिवसपुधत्तं । मुक्कमहासुक्क-सदर-सहस्सार• पक्रवपुधत्तं । आणद-पाणद-आरण-अच्चुद० मासपुधत्तं । उवरि याव सव्वह त्ति वासपुधत्तं । अंतोमु. आबा । कम्महिदी कम्म० । वेउचाहिये । तथा इसी प्रकार सव पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये। किंतु इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका कथन ओघके समान है। विशेषार्थ--असंशो जीव मर कर नरकमें उत्पन्न हो सकता है और ऐसे जीवके अपर्याप्त अवस्थामें असंज्ञीके योग्य बन्ध होता रहता है । इसीसे नरकमें सात कौंका जघन्य स्थितिबन्ध उक्त प्रमाण कहा है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त गर्भजकी जघन्य आय अन्तर्महत प्रमाण होनेसे नरकमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। असंशी जीव मर कर प्रथम नरक, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न हो सकता है। इसीसे इन मार्गणाओंमें सामान्य नारकियोंके समान जघन्य स्थितिबन्ध कहा है। सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त इन मार्गणाओंमें यद्यपि एकेन्द्रिय जीव भी मर कर उत्पन्न होता है,पर इन मार्गणाओं में उत्पन्न होनेके बाद अपर्याप्त अवस्था में सात कोका जघन्य स्थितिबन्ध असंज्ञीके होनेवाले स्थितिबन्धसे कम नहीं होता ऐसा नियम है। यही कारण है कि इन मार्गणाओं में भी सात कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध उक्त प्रमाण कहा है। इन मार्गणाओंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुद्रकभव स्थितिप्रमाण होनेसे आयुकर्मको प्ररूपणा अोधके समान कही है। शेष कथन सुगम है। ३२. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सातों कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोडीकोडीसागरप्रमाण होता है, अन्तमुहर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। श्रायुकर्मका कथन सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके तथा वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यगदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओं में आयुकर्मके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है-ज्योतिषी देव तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्तप्रमाण होता है । सानत्कुमार और माहेन्द्र में मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण होता है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर और लान्तव, कापिष्टमें दिवसपृथक्त्वप्रमाण होता है। शुक्र,महाशुक्र और शतार,सहस्रारमें पक्षपृथक्त्वप्रमाण होता है । आनत, प्राणत और पारण.अच्युतमें मासप्रथक्त्वप्रमाण होता है। आगे सर्वार्थसिद्धि तक वर्षपृथक्त्वप्रमाण Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे व्वियका. आयु० देवोघं । आहार-आहारमि० आयु० जह० हिदिवं० पलिदोवमपुधत्तं । अंतोमु० आबाधा । कम्महिदी कम्मः । एवं परिहार०-संजदासंजदा० त्ति । विभंगे आयु. ओघं । तेउलेस्सिया० सोधम्मभंगो । पम्माए सणक्कुमारभंगो। वेदगे आयु० श्रोधिभंगो । सासणे देवोघं ।। ३३. तिरिक्खेसु सत्तएणं कम्माणं जह० हिदि० सागरोवमस्स तिएिणसत्त भागा सत्तसत्त भागा बेसत्त भागा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबा० । आबाधू० कम्महिदी क० । आयु० अोघं । एवं तिरिक्खभंगो सव्वएईदिय-सव्वपंचकाय-ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंजद०-किरणपील-काउ०-अब्भसि-मिच्छादि-असणिण-अणाहारग ति । वरि कम्मइ०अणाहार० आयुगं णत्थि । होता है। अन्तमुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है । वैकि यिक काययोगमें आयुकर्मका विचार सामान्य देवोंके समान है। श्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण होता है। अन्तमुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । विभंगशानमें आयुकर्मका कथन ओघके समान है। पीतलेश्यावालोंके आयुकमंका कथन सौधर्मकल्पके समान है। पद्मलेश्यावालोंके आयुकर्मका कथन सानत्कुमार कल्पके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंके आयुकर्मका कथन अवधिज्ञानियोंके समान है और सासादनमें श्रायुकर्मका कथन सामान्य देवोंके समान है। विशेषार्थ-संशी पंचेन्द्रियपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोडीसे कम नहीं होता । इसी नियम कोध्यानमें रखकर इन दूसरी पृथिवी आदि मार्गणाओं में सात कर्मीका स्थितिबन्ध कहा गया है। यद्यपि दसरी प्रथिवी आदिक मार्गणाओंमें निवृर्त्यपर्याप्त अवस्था भी होती है,पर यहां संज्ञी जीव ही मर कर उत्पन्न होता है,इसलिये यहां किसी भी हालतमें इससे कम स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है। आयुकर्मके स्थितिबन्धमें जहां जो विशेषता कही है, वह जानकर समझ लेना चाहिये। ३३. तिथंचों में सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवां भाग कम तीन बटे सात भाग, सातबटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। आयकर्मका कथन अोके समान है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब पांचों कायवाले, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी और अनाहारक जीवोंके तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-तिर्यंचगतिमें जघन्य स्थितिबन्धके विचारमें एकेन्द्रियोंकी मुख्यता है। उनके जो जघन्य स्थितिबन्ध होता है, वही तिर्यंचगतिमें समझना चाहिये । यहां अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं वे सब एकेन्द्रिय जीवोंके सम्भव हैं, इसलिये उन मार्गणाओं में भी यही व्यवस्था जाननी चाहिये। इन सब मार्गणाओंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध शुल्लकभवप्रमाण होता है, इसलिये आयुकर्मका कथन ओघके समान कहा है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा २७ ३४. बीइंदि०-तीइंदिय-चरिंदि० तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तएणं क. जह• हिदिवं० सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपएणासाए सागरोवमसदस्स तिषिणसत्त भागा सत्तसत्त भागा बेसत्त भागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणियं । अंतोमु० आबाधा । आवाधू० कम्महिदी कम्म० । आयुगस्स अोघं । तसपज्जत्त० बीइंदियभंगो। ३५. इत्थि०-णवुस. णाणावर०-दसणावर०-अंतराइ० जह० हिदिबं० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अंतोमु० आवा० । आवाधू० कम्महिदिकः । वेदणीय-णामा-गोदाणं जह• हिदिवं० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। अंतो० आबा० । आवाधू० कम्महिदी क० । मोहणी. जह• हिदिव० संखेज्जाणि वस्ससदाणि । अंतो० आबा० । आवाधृ० कम्महिदी क। आयु० अोघं । पुरिसवे० छगणं कम्माणं जह० हिदिवं० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अंतो. आबा । आबाधृ० कम्महिदी कम्म० । मोहणीय० सोलस वासाणि । अंतो. आबाधा । आबाधू० कम्मटिदी क० । आयु० ओघं । अधवा णाणावर०-दसणावर०-अंतराइगाणं जह• हिदिवं० संखेज्जाणि वस्ससदाणि । अंतो. आवा० । आबाधू० कम्महिदी क० । ३५. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके तथा इन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके सात कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध क्रमसे पच्चीस सागरका, पचास सागरका और सौ सागरका, पल्यका संख्यातवां भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। आयुकर्मका विचार ओघके समान है। प्रसपर्याप्तका विचार द्वीन्द्रियोंके समान है। ३५. स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका असंख्याता भागप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्त आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। आयुकर्मका विचार श्रोधके समान है। पुरुषवेदवाले जोवोंके छः कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सोलह वर्षप्रमाण होता है, अन्तमुहर्तप्रमाण आबाधा होती है, और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। प्रायुकर्मका विवार ओघके समान है। अथवा, शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। विशेषार्थ-तीन वेदवाले जीवोंके सात कर्मोंका यह जघन्य स्थिति बन्ध क्षपक श्रेणीमें प्राप्त होता है और आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मिथ्यात्व गुणस्थानमें प्राप्त होता है, क्योंकि श्रोधके समान क्षुल्लक भवप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध वहींपर सम्भव है। अन्यत्र Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ठ्ठिदिबंधाहियारे ३६. कोध- माण- माय० छणं कम्माणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अंतोमु० आबा० । आबाधू० कम्महिदी कम्म० । मोहणीय० जह० द्विदिबं० कोधे वे मासा, माणे मासं, मायाए पक्खं । सव्वाणं अंतो० आबा० । आबाधू० । आयु० ओघं । अधवा को सत्तणं कम्मा पुरिसभंगो । वरि, मोह० जह० हिदिबं० बेमासं । अंतो० आबा० । आबाधू ० कम्मट्ठि ० | माणे तिरिएक० जह० द्विदिबं० वासपुधत्तं० | अंतो० आबा० | [आबाधूणिया कम्म० । ] वेदरणीय - गामा- गोदाणं जह० द्विदिबं० संखेज्जाणि वाससदाणि । अंतोमु० आबा० । आाबाधू० । मोहरणीय० जह० मासं । अंतो० आबाधा० । [आबाधूणिया कम्म० ] | मायाए तिए कम्मारणं जह० मासपुत्तं । तो० आवाधा० । [आाबाधूणिया कम्म० ।] वेदरणीय- गामा-गोदाणं जह० - वासपुधत्तं । अंतो० आबाधा० । [आबाधूणिया कम्म० ।] मोहणी० जह० पक्खं । अंतो० आबा० । आबाधू० । २८ कर्मका इतना कम स्थिति बन्ध नहीं होता । यहाँ पुरुषवेदमें ' अथवा ' कहकर विकल्पान्तर की सूचना की है सो विचारकर इस कथनका सामंजस्य बिठला लेना चाहिए । दूसरे विकल्पद्वारा इसी बात की सूचना की है । इसीसे पुरुषवेद में वेदनीय, नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका जघन्य स्थिति बन्ध संख्यात सौ वर्ष प्रमाण कहा है। ३६. क्रोध, मान और माया कषायवाले जीवोंके छह कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण श्राबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्म निषेक होता है। मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्रोधकषायवाले के दो महीना, मान कषायवालेके एक महीना और माया कषायवालेके एक पक्षप्रमाण होता है । सब कर्मों की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक होता है । श्रायु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध श्रोधके समान है । अथवा क्रोधकषायवालेके सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध पुरुष वेदवा लेके समान है । इतनी विशेषता है कि मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध दो महीना है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है और बाधा से न्यून कर्म स्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। मानकषायवा लेके तीन कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और श्राबाधसे न्यून कर्म स्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात वर्ष है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध एक महीना है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है और श्रबाधाले न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । माया कषायवालेके तीन कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधा से न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध वर्ष - पृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण श्राबाधा है और आबाधासे न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध पक्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और श्रावाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । विशेषार्थ - उक्त तीन कषायवाले जीवोंके सात कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा ३७. सामाइय-च्छेदोवहावण तिषिण कम्माणं जह• मुहुत्तपुधत्तं । अंतो० आबा। [ आनाधृणि ] । वेदणीय-णामा-गोदाणं मासपुधत्तं । अंतो० आबा० । [आवाधृ०। ] मोह० ओघं । आयुग० जह• पलिदोवमपुधत्तं । अंतोमु आबाधा० । [ कम्महिदी कम्म० । ] सुहुमसंप• छएणं कम्माणं ओघं । ३८. उवसमस० चदुएणं कम्माणं जह• [बे अंतोमुहु० ] अंतो. आबा । [आबाधू। ] वेदणी• जह• चउवीसं मुहुत्तं । अंतो० आवाधा० । [आबाधू ।] णामा-गोदाणं जह• सोलस मुहुत्तं । अंतो आवा० । [ श्राबाधू। ] एवं जहण्णो अद्धच्छेदो समत्तो। ___ एवं अद्धच्छेदो समत्तो । श्रेणीमें और आयु कर्मका मिथ्यात्व गुणस्थानमें होता है। यहाँ भी विकल्पान्तरके सम्बन्धमें वही बात जाननी चाहिए, जिसका निर्देश पुरुषवेदके समय कर आये हैं। ३७. सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंके तीन कर्मो का जघन्य स्थितिबन्ध मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और पाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध, आवाधा और निषेक रचना ओघके समान है। कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध पल्यपृथक्त्वप्रमाण है, अन्तमहर्तप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। सूक्ष्मसाम्पराय संयतके छह कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध, आबाधा और निषेक रचना ओघके समान है। विशेषार्थ-उक्त दोनों संयम छठवें गुणस्थानसे लेकर नौवें गुणस्थान तक होते हैं। इसलिये आपकश्रणीके नौवें गुणस्थानमें जहाँ जिस कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध होता है, वहाँ इनमें जघन्य स्थितिवन्ध जानना चाहिये। आयुकर्मका पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध प्रमत्तसंयतके संक्लेश परिणामोंकी प्रचुरताके होनेपर होता है। ओघसे छह कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध आदि क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें ही प्राप्त होता है। इसीसे सूक्ष्मसाम्परायसंयतके छह कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध आदि ओघके समान कहा है। ३८. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके चार कर्मों का जघन्य स्थितिवन्ध दो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, अन्तमुहर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधाले न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध चौबीस मुहूर्त है, अन्तर्मुहर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सोलह मुहूर्त है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। विशेषार्थ-उपशम सम्यग्दृष्टिके यह जघन्य स्थितिबन्ध उपशमश्रेणीमें प्राप्त होता है जो क्षपक श्रेणिमें प्राप्त हुए जघन्य स्थितिबन्धसे दूना होता है। इस प्रकार जघन्य अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। इस प्रकार अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधा हियारे सव्व-गोसव्वबंधपरूवणा ३६. यो सो सव्वबंध [ गोसव्वबंधो] णाम तस्स इमो देिसो- ओघेण आदेसे य । तत्थ ओघेण खारणावरणीयस्स द्विदिबंधो किं सव्वबंधो गोसव्व बंधो ? सव्वबंधो वा गोसव्वबंधो वा । सव्वा द्विदी बंधदित्ति सव्वबंधो । तदो [ उणियं ] हिर्दि बंधदि ति गोसव्वबंधो । एवं सत्तणं कम्माणं । एवं आणाहारग त्ति दव्वं । ३० उक्कस्स-अणुक्कस्सबंध परूवणा ४०. यो सो उक्कस्सबंधो अणुवस्सबंधो णाम तस्स इमो पिदेसो - श्रघेण आदेसेय । तत्थ ओघेण खारणावरणीयस्स डिदिबंधो किं उक्कस्सबंधो अणुक्कस्सबंधो ? उक्कस्सबंधो वा अणुकस्सबंधो वा । सव्वुक्कस्सियं हिदि बंधदित्ति उक्कस्सबंधो । सर्वबन्ध नोसर्वबन्धप्ररूपणा ३९. जो सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध है उसका यह निर्देश है— श्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा ज्ञानवारणीयके स्थितिबन्धका क्या सर्वबन्ध होता है या नोसर्वबन्ध होता है ? सर्वबन्ध भी होता है और नोसर्वबन्ध भी होता है । सब स्थितियोंको बाँधता है, इसलिये सर्वबन्ध होता है और उससे न्यून स्थितियोंको बाँधता है, इसलिये नोसर्वबन्ध होता है। इसी प्रकार सात कर्मों का कथन करना चाहिए। इस प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये । 1 विशेषार्थ - यहाँ ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के स्थितिबन्धका सर्वबन्ध भी होता है और नोसर्वबन्ध भी होता है, यह बतलाया है। जब विवक्षित कर्मकी सब स्थितियोंका बन्ध होता है तब सर्वबन्ध होता है; श्रन्यथा नोसर्वबन्ध होता है । उदाहरणार्थ - श्रघसे ज्ञानावरणकी सब स्थितियाँ तीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण हैं । जब इन सब स्थितियोंका बन्ध होता है तब सर्वबन्ध कहलाता है और जब इससे न्यून बन्ध होता है तब नोसर्वबन्ध कहलाता है । इसी प्रकार अन्य सात कर्मोंकी अलग अलग सब स्थितियोंका विचार कर सर्वबन्ध और नोसर्वबन्धका कथन करना चाहिये । मार्गणाओं में विचार करते समय जिन मार्गणाओंमें यह श्रोघ प्ररूपणा घटित हो जाय, वहाँ ओघके समान जानना चाहिये और जिन मार्गाओं में ओघप्ररूपणाघटित न हो, वहाँ श्रादेशसे जहाँ जो उत्कृष्ट स्थिति हो उसे ध्यान में रखकर सर्वबन्ध और नोसर्वबन्धका विचार करना चाहिये । उदाहरणार्थ - चारों गति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाय, तीन योग, तीन वेद, चार कषाय, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगज्ञान, श्रसंयत, चतुदर्शन, श्रचक्षुदर्शन, कृष्णादि तीन लेश्या, भव्य, अभव्य, मिथ्यात्व संशी और आहारक इन मार्गणाओं में श्रोघके समान सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध होता है । तथा शेष मार्गणाओं में आदेशसे सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध घटित करना चाहिये । उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टबन्धप्ररूपणा ४०. जो उत्कृष्टबन्ध और अनुत्कृष्टबन्ध है, उसका यह निर्देश हैं— श्रोध और आदेश । श्रघसे ज्ञानावरणीयके स्थितिबन्धका क्या उत्कृष्टबन्ध होता है या अनुत्कृष्टबन्ध ? उत्कृष्टबन्ध भी होता है और अनुत्कृष्टबन्ध भी । सबसे उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है, इसलिए Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादि-अणादि-धुव-अद्धवबंधपरूवणा तदो ऊणियं बंधदि त्ति अणुक्कस्सबंधो । एवं सत्तएणं कम्माणं । एवं अणाहारग त्ति णेदव्वं । जहण्ण-अजहण्णबंधपरूवणा ४१. यो सो जहएणबंधो अजहएणबंधो णाम तस्स इमो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावरणीयस्स हिदिबंधो किं जहणण अजहएण• ? जहएणबंधो वा अजहएणबंधो वा। सव्वजहरिणयं द्विदि बंधमाणस्स जहएणवंधो । तदो उवरि बंधमाणस्स अजहएणबंधो । एवं सत्तएणं कम्माणं । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं । णिरएमु आयुग०९ अजहएणवंधो । एवं सव्वअपज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं अजहएणबंधो। केइ अप्पप्पणो [ हिदि पडुच्च परूवेति । एवं ] याव अणाहारग त्ति ओघं। सादि-अणादि-धुव-अधुवबंधपरूवणा ४२. यो सो सादियबंधो अणादियबंधो धुवबंधो अर्धवबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्मासं उकस्स० अणुक्कस्स० उत्कृष्टबन्ध होता है और उससे न्यून स्थितिको बाँधता है,इसलिये अनुत्कृष्टबन्ध होता है। इसी प्रकार सात कौंका कथन करना चाहिये। इस एकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ-सबसे उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी उत्कृष्टबन्ध संशा है । जैसे, ज्ञानावरणका तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध होने पर अन्तिम निषेककी उत्कृष्टस्थितिबन्ध संज्ञा है और इससे न्यून स्थितिबन्ध होने पर वह अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहलाता है। शेष विचार सर्वबन्ध और नोसर्वबन्धके समान जानना चाहिये । जघन्य-अजघन्यबन्धप्ररूपणा ४१. जो जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध है,उसका यह निर्देश है-ओघ और आदेश । ओघसे शानावरणीयके स्थितिबन्धका क्या जघन्यबन्ध होता है या अजघन्यबन्ध होता है ? जघन्यबन्ध भी होता है और अजघन्य बन्ध भी होता है। सबसे जघन्य स्थितिको वाँधनेवालेके जघन्य बन्ध होता है और इससे अधिक स्थितिको वाँधनेवालेके अजघन्य बन्ध होता है। इसी प्रकार सात कोका कथन करना चाहिये। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नारकियोंमें आयुकर्मका अजघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तकोंके सात कर्मोंका अजघन्यबन्ध होता है। कितने ही प्राचार्य अपने-अपने स्थितिबन्धकी अपेक्षा जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्धका कथन करते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ओघको ध्यानमें रख कर कथन करना चाहिए। __ सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवबन्धप्ररूपणा ४२. जो सादिबन्ध अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध और अध्रुवबन्ध है, उसका यह निर्देश हैश्रोध और आदेश। उनमें से ओघसे सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध १. मूलप्रतौ श्रायुग० णोसव्वबंधो इति पाठः । २. मूलप्रतौ कम्माणं णोसव्वबंधो इति पाठः । ३. मूलप्रतौ अप्पप्पणो...'याव इति पाठः। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ महा बंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जहणबंध किं सादि० अणादिय० धुव० अद्ध्रुव ० १ सादिय अद्ध्रुवबंधो । अजहबंध किं सादि० ४ १ सादियबंधो वा अरणादियबंधो वा धुवबंधो वा अद्ध्रुवबंधो वा । युगस्स चंत्तारि विसा- [ दिय अद्ध्रुवबंधो। एवं अ ] चक्खुर्द ०भवसि० । णवरि भवसि ० धुवं णत्थि । एवं सेसारणं याव अणाहारग त्ति घेण साधिदू दव्वं । - सामित्त परूवणा ४३. सामित्तं दुविधं, जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्से पगदं । दुविधो गिद्देसोऔर जघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या ध्रुव है ? सादि है और अध्रुव है। अजघन्यस्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या है ? सादि है, अनादि है, ध्रुव है और अध्रुव है । आयुकर्मके चारों ही सादि र ध्रुव होते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक शेष सब मार्गणाओं में सादिस्थितिबन्ध आदि श्रोघसे साध कर जानना चाहिये । विशेषार्थ - कर्मका जो बन्ध रुककर पुनः होता है, वह सादिबन्ध कहलाता है और arsayoछत्तिके पूर्व तक अनादि कालसे जिसका बन्ध होता आ रहा है, वह अनादिबन्धं कहलाता है । ध्रुवबन्ध अन्योंके और अध्रुवबन्ध भव्योंके होता है। ये चारों ही उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार भेदों में घटित करने पर सोलह प्रकारके होते हैं। आगे आठों कर्मोंका आश्रय कर इसी विषयका खुलासा करते हैं - श्रायुके विना ज्ञानावरण आदि सात कर्मोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कादाचित्क होते हैं तथा जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिये ये तीनों सादि और अबके भेदसे दो-दो प्रकार के होते हैं; किन्तु इस तरह अजघन्य स्थितिबन्ध कादाचित्क नहीं होता, क्योंकि जघन्य स्थितिबन्धके प्राप्त होनेके पूर्वतक अनादि कालसे जितना भी स्थितिबन्ध होता है, वह सब जघन्य कहलाता है । तथा उपश्रम श्रेणिमें उक्त सात कर्मोंकी वन्धव्युच्छित्ति होने पर पुनः उनका अजघन्य स्थितिबन्ध होने लगता है, इसलिए जघन्य स्थितिबन्धमें सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों विकल्प बन जाते हैं । श्रयुकर्ममें उत्कृष्ट आदि चारों विकल्प सादि और अध्रुव दो ही प्रकार के हैं - यह स्पष्ट ही है, क्योंकि आयुकर्मका सब जीवोंके कादाचित्क बन्ध होता है । अचक्षुदर्शन और भव्य मार्गणा एक तो कादाचित्क नहीं हैं और दूसरे ये क्रमसे क्षीणमोह और प्रयोगिकेवली होने तक रहती हैं; इसलिये इनमें सादि आदि प्ररूपणा पूर्ववत् बन जाती है, इसलिये इन मार्गणाओं में उक्त प्ररूपणा पूर्ववत् कही है। केवल भव्य मार्गणा में ध्रुवविकल्प नहीं होता । कारण स्पष्ट है। शेष सब मार्गणाओं में ये उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि चारों सादि और अध्रुव ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि अन्य सब मार्गणाएँ यथासम्भव बदलती रहती हैं या सादि हैं, इसलिए उनमें अनादि और ध्रुव ये विकल्प नहीं बनते । यद्यपि अभव्य मार्गणा ध्रुव है, फिर भी उसमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदिके अनादि और ध्रुव न होनेसे सादि और ध्रुव ये दो ही विकल्प घटित होते हैं । स्वामित्व प्ररूपणा ४३, स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश २. मूलप्रतौ चत्तारि वि सो...... 'चक्खुर्द इति पाठः । १. गो० क०, गा० १५२ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ उक्कस्ससामित्तपरूवणा अोघेण प्रादेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सहिदिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स पंचिंदियस्स सएिणस्स मिच्छादिहिस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागारजागारसुदोवजुत्तस्स उक्कस्सियाए हिदीए उक्कस्सहिदिसंकिलेसेण वट्टमारण्यस्स अथवा ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा। आयुगस्स उक्कस्सिो द्विदिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स मणुसस्स वा पंचिंदियतिरिक्वजोणिणीयस्स वा सएिणस्स सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागारजागारसुदोवजुत्तस्स तप्पाअोग्गविसुद्धस्स वा तप्पाअोग्गसंकिलिहस्स वा उक्कसियाए आबाधाए उक्कस्सगे हिदिवंधे वट्टमाणयस्स । ४४. प्रादेसेण णिरयगदीए णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिवंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स वि मिच्छादिहिस्स सागारजागारसुदोवजुत्तस्स उक्कस्सियाए हिदीए उक्कस्सए हिदिसंकिलेसे वट्टमाणस्स अधवा इसिमझिमपरिणामस्स । आयुगस्स उक्क० हिदि० कस्स ? अएणदरस्स सम्मादिहिस्स वा मिच्छादिहिस्स वा सागारजागार० तप्पाओग्गविसुद्धस्स उक्कस्सियाए आबाधाए उक्कस्सिए हिदिबंधे वट्टमाणस्स । एवं सव्वासु पुढवीसु । वरि सत्तमाए पुढवीए आयु० मिच्छादिहिस्स तप्पाअोग्गविसुद्धस्स । दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ उत्कृष्टस्थितिबन्धके योग्य संक्लेश परिणामवाला है अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाला है,ऐसा कोई एक संशी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संज्ञी है, सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है या तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और उत्कृष्ट आबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है, ऐसा कोई एक मनुष्य या पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिवाला जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-यहां श्रोघसे आठों कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश किया गया है। विशेष वक्तव्य इतना ही है कि तेतीस सागर प्रमाण नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलमें दिये गये विशेषणोंसे युक्त मनुष्य और तिर्यंच दोनोंके होता है। किन्तु तेतीस सागरप्रमाण उत्कृष्ट देवायुका बन्ध मात्र मनुष्यके ही होता है। ४४. प्रादेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ उत्कृष्टस्थितिबन्धके योग्य संक्लेश परिणामवाला है या ईषत् मध्यम परिणामवाला है,ऐसा कोई एकनारकी सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ?जो सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि है, साकार और जागृत उपयोगवाला होकर भी विशुद्ध परिणामवाला है और उत्कृष्ट आबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है,ऐसा कोई एक नारकी आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि तत्मायोग्य विशुद्ध १. गो० क०, गा० १३४। ' Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे ४५. तिरिक्खे सत्तणं कम्माणं ओघं । युगस्स मिच्छादिट्ठिस्स तप्पात्रोग्गसंकिलिहस्स । एवं पंचिदियतिरिक्ख० ३ । पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु सत्तां कम्मा उक्क हिदि० कस्म ? अरणदरस्स सरिणस्स सागारजागारसुदोवजुत्तस्स atravrataस्सियाए द्विदीए उक्कस्सए हिदिसंकिले से वट्टमाणस्स । आयुगस्स उक्क० द्विदि० कस्स० १ अरणद० सरिणस्स वा असरिणस्स वा सागारजागारमुदोवजुदस्स तप्पा ग्गविसुद्धस्स उक्क० आबाधाए उक्कस्सिए डिदिबंधे वट्टमाणस्स । ३४ ४६. मणुस ०४ - पंचिंदिय० २-तस० २-पंचमरण० पंचवचि ० 'कायजोगि श्रोरालिका० - कोधादि ०४ - मदि ० - मुद० - विभंग० -संज० - चक्खुर्द ० - अचक्खुदं ० - भवसि ०अभवसि ०-मिच्छादिट्ठिी - सरि-आहारग त्ति ओघभंगो । वरि संजम विरहिदाणं तपारगविसुद्ध ति ण भाणिदव्वं । आयुगस्स मणुसयपज्ज० - पंचिंदिय-तसप परिणामवाला नारकी जीव श्रायु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है । विशेषार्थ -नरक में आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटि प्रमाण होता है । तथा प्रारम्भके छह नरकोंमें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके नारकियोंके यह स्थिति - बन्ध सम्भव है, किन्तु सातवें नरकमें यह स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टिके ही होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन सुगम है । ४५, तिर्यञ्चों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन श्रोधके समान है । आयु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टि तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला तिर्यञ्च होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिक उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी होते हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्यातकों में सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संशी है, साकार जागृत श्रुतोपयोग से उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य संक्लेशपरिणामवाला है, ऐसा कोई एक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव सात कर्मो के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संशो है, या असंशी है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और उत्कृष्ट आबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है, ऐसा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ - संज्ञी या असंशी दोनों प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्याप्त जीव उनके योग्य पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट आयुका बन्ध करते हैं, इसलिये आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी दोनों को बतलाया है। शेष कथन सुगम है । ४६. मनुष्य चतुष्क, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिक काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, चतुदर्शनी, अचतुदर्शनी, भव्यसिद्धिक, श्रभव्यसिद्धिक, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके सब कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामित्वका कथन ओघके समान करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें जो मार्गणाएँ संयम रहित हैं, उनमें तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला जीव श्रायु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है; यह नहीं कहना चाहिये । तथा मनुष्य अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और अस अपर्याप्त मार्गणाओंमें १. मूलप्रतौ काजोगि इति पाठः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्ससामित्तपरूवणा जत्ता. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। ४७. देवाणं णिरयभंगो याव सहस्सार त्ति । आणद याव उवरिमगेवजा त्ति सत्तएणं कम्माणं उक्क• हिदि. कस्स ? अण्णद० मिच्छादिहिस्स सागारजागार० तप्पाअोग्गसंकिलिहस्स । आयु देवभंगो। अणुद्दिस जाव सव्वहः त्ति सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदि० कस्स ? अएगदरस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । आयु. [उक्क. हिदि० कस्स । अण्णद० ] तप्पाअोग्गविसुद्धस्स० उक्क० वट्टमा० । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तके समान जानना चाहिये। विशेषार्थ-पहले श्रोध प्ररूपणामें आयु कर्मके उत्कृष्ट स्थिति बन्धके स्वामीका कथन करते समय यह कह आये हैं कि जो संझी है, सम्यग्दृष्टि या मिथ्यावृष्टि है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रु तोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला या तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और उत्कृष्ट आबाधासे युक्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है,ऐसा मनुष्य या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिवाला जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है । सो यह कथन अविकल रूपसे यहाँ कही गई सभी मार्गणाओं में घटित होता है।क्या यह एक प्रश्न है जिसका समाधान करते हुए यहाँ मूलमें कहा गया है कि जो मार्गणाएँ संयम रहित हैं, उनमें यह कथन अधिकलरूपसे घटित नहीं होता; क्योंकि संयम रहित मार्गणाओंमें आयुकर्मका तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामवालेके न होकर तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवालेके ही होता है। वे मार्गणाएँ ये हैं-मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभंगशानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि । ऐसा नियम है कि मनुष्यायु, देवायु और तिर्यञ्चायुके सिवा शेष रहीं ११७ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवालोंके या तत्प्रायोग्य ईषत् मध्यम परिणामवालोंके ही होता है । इस नियमके अनुसार नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामवालेके नहीं हो सकता और इन मार्गणाओंमें आयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नरकायका ही होता है, क्योंकि इन मार्गणाओं में संयमकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं हो सकता। इसीलिये इन मार्गणाओंका वारण करने के लिये मूलमें उक्त कथन किया है। शेष कथन सुगम है। किन्तु मनुष्य अपर्याप्त जीव भी संशी ही होते हैं, इसलिये इनमें आयु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन करते समय असंही विशेषण नहीं लगाना चाहिये। ४७. देवोंमें सहस्रार कल्पतक पाठों कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है । श्रानत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? मिथ्यादृष्टि साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला कोई भी देव सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। यहाँ आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर देव सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो साकार जागृत श्रृतोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और उत्कृष्ट पाबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थिति बन्ध कर रहा है,ऐसा अन्यतर देव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावंधे हिदिबंधाहियारे ४८. एइंदिएसु सत्तएणं कम्माणं उक्क हिदि कस्स ? अण्णदर० बादरस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगस्स सागारजागार० तप्पाअोग्गसंकिलिहस्स । आयु० उक्क हिदि० कस्स ? अएणद० प्पाओग्गविसुद्धस्स। एवं एइंदियवादरमुहुमपज्जत्तापज्जत-बीइंदि०-तेईदि०-चदुरिंदि पजत्तापज्जत्त-सव्वपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-वणप्फदि-पत्तेयः-णियोद-बादर-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त० । णवरि पज्जत्तए पज्जत्तगहणं कादव्वं । अपज्जत्तए अपज्जत्तगहणं कादव्वं । ४६. ओरालियका० सत्तएणं कम्माणं ओघं । णवरि दुगदियस्स। आयु ओघं। ओरालियमिस्से सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद. दुगदियस्स मिच्छादिहिस्स सएिणस्स तप्पागोग्गसंकिले० से काले सरीरपज्जत्ती गाहिदि त्ति तप्पाओग्ग० उक्क० संकिलेसे वट्टमाणगस्स । आयु० उक्क० हिदि० कस्स ? विशेषार्थ-यहाँ देवोंमें आठों कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन करते समय तीन विभाग कर दिये हैं-पहला सहस्रार स्वर्ग तकका, दूसरा नौवेयकतकका और तीसरा सर्वार्थसिद्धि तकका । नौ ग्रैवेयक तक मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों होते हैं तथा सहस्रार कल्पतक सात कोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ओघके समान बन जाता है, इसलिए ये विभाग किये गये हैं। बाकीकी सव विशेषताएँ आठों कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अद्धाच्छेदको देखकर समझ लेनी चाहिए। ४८. एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो बादर है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश-परिणामवाला है, ऐसा अन्यतर एकेन्द्रिय जीव सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थिति बन्धका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, ऐसा अन्यतर एकेन्द्रिय जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा निगोद जीवोंके और इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंका कथन करते समय 'पर्याप्त' पदका ग्रहण करना चाहिए और अपर्याप्तकोंका कथन करते समय 'अपर्याप्त' पदका ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-एकेन्द्रियादि इन मार्गणाओं में सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रद्धाच्छेद पहले कह आये है। उसे ध्यानमें रखकर यहाँ उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार कर लेना चाहिये । यहाँ केवल इतना ही बतलाया गया है कि विवक्षित मार्गणामें किस योग्यताके होनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। ४९. औदारिकाययोगमें सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यह दो गतिके जीवोंके होता है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी अोधके समान है। औदारिक मिश्रकाययोगमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो मिथ्यादृष्टि है, संज्ञी है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होनेवाला है और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे युक्त है,ऐसा अन्यतर दो गतिका जीव सात कमौके उत्कृष्ट स्थिति Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्ससामित्त परूवणा ३७ अणद० तप्पा ओग्गविसुद्ध उक्क० | वेडव्विय० सत्तएण कम्माणं उक्क० डिदि • कस्स ? दर देवस्स वा रइगस्स उक्कस्ससंकिलिह० | आयु० उक्क ० हिदि ० ६० कस्स० १ अरगद सम्मादिहि० मिच्छादिडि० तप्पा ओग्गविसुद्धस्स । वेव्वयमि० सत्तणं कम्मारणं उक्क० हिदि० कस्स ? रणद० देवस्स वा रइयस्स वा मिच्छादिहिस्स से काले सरीरपज्जती गाहिदि त्ति । आहारका० सत्तरं कम्मा उक्क० डिदि ० कस्स ? रणद० पमत्तसंजदस्स तप्पात्रोग्गसंकिलिइस्स | आयु० [ उक्क० द्विदि० कस्स ? रणदर० ] तप्पा ओग्गविसुद्धस्स । एवं आहारमि० । वरि से काले पज्जत्ती गाहिदि त्ति भारिणदव्वं । कम्मइ ० सत्तणं कम्मा उक्क० ट्ठिदिबं० कस्स ? अगद० चदुगदियस्स पंचिंदियस्स सरिणस्स मिच्छादिस्सि सागार जागार-तप्पायोग्ग-उक्कस्ससंकिलट्ठस्स । ~ ५०. इत्थि० - पुरिस० सत्तणं कम्माणं उक्क० हिदि० कस्स ? तिगदियस्स संकिलिट्ठस्स मिच्छादिट्ठि० सागारजागार उक्क० संकि० | आयु० श्रघं । एवं एवु - सवेदे | अवगदवे सत्तरणं कम्मा० उक्क० द्विदि० कस्स० अण्णाद० उवसमबन्धका स्वामी है | आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धि से युक्त अन्यतर जीव श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । वैक्रियिककाययोगमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामों से युक्त अन्यतर देव या नारकी जीव सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि वैक्रियिककाययोगी जीव आयु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । वैक्रियिकमिश्रकाययोग में सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो देव या नारकी अनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होगा ऐसा अन्यतर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आहारक काययोगमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला ग्रन्यतर प्रमत्तसंयत जीव सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । श्रायु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । श्राहारकमिश्रकाययोगमें इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि तदनन्तर समय में पर्याप्तिको प्राप्त होगा ऐसी स्थिति में इसके उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये । कार्मणकाययोगमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो चार गतिका जीव पञ्चेन्द्रिय है, संज्ञी है, मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, ऐसा अन्यतर कार्मण काययोगी जीव सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । ५०. स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले जीवों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो तीन गतिका जीव संक्लिष्ट परिणामवाला है, मिथ्यादृष्टि है और साकार जागृत उपयोगसे उपयुक्त है, वह सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । श्रयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है । इसी प्रकार नपुंसक वेद में जानना चाहिये । श्रपगतवेदवाले जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? उपशम श्रेणिसे पतित होनेवाला जो अन्यतर श्रनिवृत्ति उपशमक जीव तदनन्तर समय में सवेदी होगा; Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ महाबंधे हिदिबंधाहियारे स परिवदमास्स अणियहिस्स से काले सवेदो होहिदि त्ति चरिमे उक्क० द्विदिबंधे वट्टमाणस्स | ५१. आभि० - सुद० - ओधि० सत्तरणं कम्मारणं उक्क० ट्ठिदि० कस्स ? अरण० चदुगदियस्स असंजदसं० मिच्छत्ताभिमुहस्स चरिमे उक्कस्सए द्विदिवधे वट्टमाणस्स । आयु० उक्क० द्विदि० कस्स ? पमचसंज० तप्पात्रोग्गविसुद्धस्स । एवं धिदं० सम्मादि० - वेदगसं० । मरणपज्जव० सत्तरगं कम्पायं उक्क० हिदि० पमत्तसंजदस्त तप्पा ओग्गसंकिलिट्ठस्स संजयाभिमुहस्स चरि उक् हिदि ० ० वट्टमा० । आयु० धिमंगो | एवं संजदा - सामाइ० - छेदोव० । णवरि मिच्छत्ताभिमुहस्स । ५२. परिहार • सत्तरणं कम्मारणं उक्क० हिदि० पमत्तसंजदस्स सामाइयच्छेदोवडावणाभिमुहस्स । आयु० पमत्तसंजदस्स तप्पाोग्गविसुद्धस्स । हुमसंप० इस प्रकार जो अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, ऐसा अपगतवेदी जीव सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । Q विशेषार्थ - नारकी नपुंसक होते हैं, अतः यहां स्त्रीवेद और पुरुषवेद में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व नरक गतिके सिवा अन्य तीन गतियोंके जीवोंके कहना चाहिए। नपुंसक वेद की अपेक्षा देवगतिके स्थान में नरकगतिका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि देव नपुंसक नहीं होते । शेष कथन सुगम है । ५१. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर चतुर्गतिका असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वके अभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें विद्यमान है, वह सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला प्रमत्तसंयत जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। मन:पर्ययज्ञानी जीवों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो प्रमत्तसंयत जीव तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवाला है, असंयम अभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह मन:पर्ययज्ञानी जीव सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी अवधिज्ञानीके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व अभिमुख हुए जीवके सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व कहना चाहिये । विशेषार्थ - सात कमका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संक्लेशपरिणाममें होता है, इसलिये उक्त मार्गणाओं में जिस मार्गणा से जहां के लिये पतन सम्भव है, उसके सन्मुख हुए जीवके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व कहा है । पर इन मार्गणाओं में आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे होता है, इसलिये उत्कृष्ट आयुबन्धके योग्य जहां विशुद्ध परिणाम सम्भव हैं, उसे ध्यान में रख कर सब मार्गणाओं में आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कहा है । ५२. परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो प्रमत्तसंयत जीव सामायिक और छेदोपस्थापना संयम के श्रभिमुख है, वह परिहारविशुद्धि संयत सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो प्रमत्तसंयत जीव तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, वह परिहारविशुद्धि Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्ससामित्तपरूवणा छएणं कम्माणं उक्क हिदि उवसामगस्स । संजदासंजद सत्तएणं कम्माणं उक्क. हिदि० दुगदियस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स । आयु० तप्पाओग्गविसुद्धस्स। ५३. किरणाए सत्तएणं कम्माणं उक्का द्विदि० कस्स ? तिरिक्खस्स सएिणस्स मिच्छादिहिस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागारजागार० उक्कस्ससंकिलिहस्स । आयु० उक्क० हिदि० तिरिक्वस्स वा मणुसस्स वा सणिणस्स पज्जत्तस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । णील-काऊणं सत्तएणं कम्माणं उक्क. हिदि. कस्स० १ अण्ण रइगस्स । आयु० किएणभंगो। तेउले सत्तएणं कम्माणं उक्का हिदि० कस्स ? अण्णद• सोधम्मीसाणंतदेवस्स । आयु० अोधिभंगो । पम्माए सत्तएणं कम्माणं उक्क हिदि० कस्स ? अएण. सहस्सारंतस्स मिच्छादिहि । आयु० तेउले भंगो । सुक्काए सत्तएणं क० उक्क हिदि० कस्स ? अएण. आणददेवस्स मिच्छादिहिस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । आयु० पमत्तस्स। ५४. खइगस० सत्तएणं क. उक्क० हिदि० कस्स ? अएण• चदुगदियस्स असंजदसम्मादिहिस्स तप्पाअोग्गसंकिलिट्ठस्स। आयु. पमत्तसंज० । उपसमसम्मा० संयत जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवों में छह कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी उपशामक होता है। संयतासंयतोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यात्वके अभिमुख हुआ दो गतिका जीव होता है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला संयतासंयत जीव होता है। ५३. कृष्णलेश्यामें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? जो तिर्यंचगतिका जीव संक्षी है, मिथ्यादृष्टि है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत उपयोगसे उपयुक्त है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, वह सात कमौके उत्कृष्ट स्थिति बन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो तिर्यंच या मनुष्य संझी है, पर्याप्त है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। नील और कापोतलेश्यामें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? कोई एक नारकी सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कृष्णलेश्याके समान है। पीतलेश्यामें सात कोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? कोई एक सौधर्म और ऐशान कल्पतकका देव सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी अवधिज्ञानीके समान है। पनलेश्यामें सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी कौन है ? अन्यतर सहस्रार कल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पीतलेश्याके समान है। शुक्ल लेश्यामें सात कोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर पानत कल्पका मिथ्यदृष्टि और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला देव सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा प्रमत्ससंयत जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ५४. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर चार गतिका जीव असंयतसम्यग्दृष्टि है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, बह सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे हिदिबंधाहियारे सत्तएणं कम्माणं उक्क हिदि. कस्स ? अण्ण असंजदसम्मा० तप्पाअोग्गउक्कस्ससंकिलिट्ठस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स। सासणे सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदि. कस्स ? अण्ण• चदुगदियस्स सव्वसंकिलिट्टस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स। आयु० उक्क० हिदि० कस्स ? अण्णद. मणुसस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स । सम्मामि० सत्तएणं कम्माणं उक्क हिदि. कस्स. ? अण्णद० चद्गदियस्स उक्कस्ससंकिलिहस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स। ५५. असणिण सत्तएणं कम्माणं उक्क टिदि. कस्स ? अण्णद पंचिंदियपज्जत्तस्स सव्वसंकिलहस्स । आयु० उक्क हिदि० कस्स ? तप्पाओग्गसंकिलिहुस्स । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं उक्कस्ससामित्तं समत्तं । ५६. जहएणगे पगदं । दुविधो णिदेसो—ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण छण्णं कम्माणं जहएणो हिदिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स खवगस्स सुहुमसंपराइगस्स चरिमे हिदिवंधे वट्टमारणस्स । मोह. जह• हिदि० कस्स ? अएणद. कौन है ? प्रमत्तसंयत जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? जो अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है,वह सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । सासादन सम्यग्दृष्टियों में सात कमौके उत्कृष्टस्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर चार गतिका जीव सबसे अधिक संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है,वह सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? जो अन्यतर मनुष्य तत्प्रायोग्य विशद्ध परिणामवाला है,वह श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामी है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर चार गतिका जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है,वह सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ५५. असंशियोंमें सात कोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर पञ्चेन्द्रिय जीव पर्याप्त है और सबसे अधिक संक्लेश परिणामवाला है,वह सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला असंज्ञी जीव हैं, वह अायुकमेके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । अनाहारकोंमें सब कथन कार्मण काययोगियोंके समान है। विशेषार्थ-असंज्ञी जीव मरकर भवनवासी और व्यन्तर देव भी होते हैं और प्रथम नरकमें भी जाते हैं। यहां असंक्षियोंके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे ही कराया है। इससे विदित होता है कि असंशियोंके देवायुकी अपेक्षा नरकायुका स्थितिबन्ध अधिक होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हूश्रा। ५६. अब जघन्य स्वामीका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा छह कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? जो अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक जीव अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह छह कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मोहनीयके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अनिवृत्ति क्षपक जीव अन्तिम जघन्य स्थितिवन्धमें अवस्थित है, वह मोहनीयके जघन्य Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णसामित्तपरूवणा ४१ खवगअणियट्टिस्स चरिमे जह० वट्टमाणस्स । आयु० जह• हिदि० कस्स ? अएणद० तिरिक्वस्स वा मणुस्सस्स वा एइदि० वेइंदि० तेइ दि० चदुरिंदि० पंचिंदियस्स वा सरिण असरिण• बादर० सुहुम० पजत्तस्स वा अपज्जत्तस्स वा सागारजागार• तप्पाअोगासंकिलिहस्स जहणियाए आवाधाए जहएणए हिदिबंधे वट्टमाणयस्स । एवं मणुस ३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका०-अवगद-लोभक०-आमि०-सुद-प्रोधि-मणपज्जव०-संजद०-चक्खुदं०अचक्खुदं०-अोधिदं०-मुक्कले०-भवसि-सम्मादिहि-खइग-सएिण-आहारग त्ति । णवरि आयु० विसेसो जाणिदव्यो । अवगद० आयुगं णत्थि । आभि-सुद-अोधिः ओधिदं०-सम्मादि०-खइग. आयु० जह• हिदि• कस्स ? अएणद० देवस्स वा णेरइयस्स वा तप्पाओग्गसंकिलि• जहएिणयाए आवाधाए जह• हिदि० वट्टमाणगस्स । मणपज्जव०-संजद० आयु. जह• हिदि० कस्स ? अणद० पमत्तसंज० तप्पाप्रोग्गसंकिलिहस्स । सुक्काए आयु० जहरू हिदि. कस्स ? अण्णद. देवस्स मिच्छादि० तप्पाअोग्गसंकि० जहावाधा० जहहिदि० वट्टमाणस्स । सेसाणं ओघभंगो। स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर तिर्यंच, मनुष्य, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, संशी, असंशी, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त जो भी हो, साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह आयु. कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रस. द्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायी, आमिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययशानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्यसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, संक्षी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु आयुके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है। यथा-अपगतवेदी जीवके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयु कर्मके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव या नारकी जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य अावाधाके साथ जघन्य स्थितिका बन्ध कर रहा है, वह आयुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवों में आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । शुक्ललेश्यामें आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो मिथ्यादृष्टि है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिका बन्ध कर रहा है,वह आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष मार्गणाओंमें आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। विशेषार्थ-यहाँ ओघसे आठों कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीका विचार किया गया है। सात कोका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें जहाँ जिस कर्मको बन्धव्युच्छित्ति द Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे विदिबंधाहियारे ५७. श्रादेसण णिरयगईए णेरइएमु उक्त कम्म हिदि कस्स ? अण्णद. असएिणपंचिंदि० सागारजागा. सव्वविसुद्धस्स पढम-विदियस० वट्टमाण । आयु० जह• हिदि० कस्स ? अण्ण• मिच्छादि० तप्पायो जह० सं० जह आबा० जहहिदि० वट्टः । एवं पढमाए मणुसअपज्जत्त-देवा-भवरण-वाणवें । विदियाए याव सत्तमाए सत्तएणं कम्माणं जह• हिदि० कस्स ? अण्ण. असंजद० सव्वविसुद्धस्स । आयु. पढमपुढविभंगो। एवं जोदिसिय याच सव्वह त्ति । णवरि अणुद्दिस याव सव्वह त्ति आयुग० सम्मादिहि । होती है वहाँ होता है। इस हिसाब से छह कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक सूक्ष्मसाम्प रायके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है और मोहनीयका क्षपक अनिवृत्तिकरणमें; क्यों कि सूक्ष्म साम्परायमें मोहनीय कर्मका बन्ध नहीं होता। तथा आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सब प्रकारके मनुष्य और तिथंचोंके होता है, क्योंकि इन सबके आसंक्षेपाद्धाकाल प्रमाण आयुकर्मके बन्ध होनेमें कोई बाधा नहीं पाती। यहाँ अन्य वे मार्गणाएँ गिनाई हैं, जिनमें क्षपक श्रेणीकी प्राप्ति सम्भव होनेसे यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है । मात्र इन सब मार्गणाओंमें श्रोधके समान आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध नहीं प्राप्त होता, क्यों कि इनमेंसे आभिनिबोधिक आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें मिथ्यात्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है और शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्वकी प्राप्ति भी हो गई,तो वहाँ परिणामोंकी इतनी उज्वलता रहती है जिससे वहाँ श्रायुका आसंक्षेपाद्धा काल प्रमाण बन्ध नहीं होता। यही कारण है कि इन मार्गणाओंमें आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है. इस बातका अलगसे निर्देश किया है। ५७. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो असंक्षी पञ्चेन्द्रियचर जीव साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है और प्रथम,द्वितीय समयमें स्थित है वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है,। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो मिथ्यादृष्टि तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिका बन्ध कर रहा है,वह आयु फर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव. भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिये। दूसरी प्रथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि सर्व विशुद्ध परिणामवाला जीव सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पहली पृथिवीके समान है। इसी प्रकार ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यग्दृष्टि जीव आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-नरको असंक्षी जीव भी मरकर उत्पन्न होता है और उसके अपर्याप्त अवस्थामें असंशीके योग्य स्थितिबन्ध होता है। इसीसे सामान्यसे नरकमे असक्षा, पञ्चेन्द्रिय चर जीवको सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है। प्रथम नरक, देव, भवनवासी और व्यन्तर देव इन मार्गणाओं में भी असंशी जीव मरकर उत्पन्न होता है, इसलिये यहाँ सामान्य नरकके समान प्ररूपणा की है। द्वितीयादि नरकोंमें मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिके सात कौका स्थितिबन्ध न्यून होता है। शेष रहे देवोंमें भी ऐसा ही जानना Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णसामित्तपरूवणा ४३ ५८. तिरिक्खेसु सत्तएणं कम्माणं जह• हिदि० कस्स ? अण्ण० बादरएइंदि० पजत्त० सव्वविसुद्धस्स जह० हिदि० वट्टमा० । आयु० ओघं । एवं सव्वएइंदि०-सव्वपंचकाय-ओरालियमि०-कम्मइग-मदि०-सुद-असंज-किरण-णीलकाउ०-अभवसि -मिच्छादि-असएिण-अणाहारग त्ति । ५६. पंचिंदियतिरिक्व०३ सत्तएणं क. जह• हिदि. कस्स ? अण्ण. असएिणस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागारजागारसव्वविसुद्धस्स जह हिदि० वट्टमाणयस्स। आयुगस्स जह• हिदि० कस्स ? अण्ण. सएिणस्स वा असएिणस्स वा पज्जत्तस्स वा अपज्जत्तस्स वा सागारजागार-तप्पाअोग्गसंकिलि. जह• हिदि० वट्टमाणयस्स । एवं पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज-पंचिंदियअपज्जत्ता त्ति । चाहिये, इसलिये इन मार्गणाओंमें सर्व विशुद्ध परिणामवाले सम्यग्दृष्टिको सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है। अनुदिशसे लेकर आगे सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, इसलिये वहाँ तो सम्यग्दृष्टि तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंके होनेपर आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी होता है, पर यहाँ जो अन्य मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धकी योग्यता मिथ्यादृष्टिके ही पाई जाती है। क्यों कि यहाँ मिथ्यादृष्टिके आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य संक्लेश परिणाम हो सकते हैं;उतने अन्य गुणस्थानवालके नहीं। ५८. तिर्यञ्चों में सात कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो बादर एकेन्द्रिय जीव पर्याप्त है, सर्व विशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब पाँचों स्थावरकाय, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले,नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि, असंही और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-तिर्यंचों में सात कर्मोंका सबसे कम स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके होता है। इसीसे यहाँ तिर्यञ्चगतिमें सात कौके जघन्य स्थिति बन्धके स्वामीका कथन उनकी मुख्यतासे किया है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें प्रायः यह स्थितिबन्ध सम्भव होनेसे उनका कथन ओघ तिर्यंचोंके समान करनेका निर्देश किया है। इन सव मार्गणाओंमें आयु कर्मका नुल्लक भव ग्रहणप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है, इसलिये आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामीका कथन ओघके समान किया है। ५९. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो असंही जीव सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिका बन्ध कर रहा है,वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संशी या असंज्ञी जीव जो कि पर्याप्त हो या अपर्याप्त हो, साकार जागृत हो, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला हो और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा हो वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तके जानना चाहिए । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ६०. बेइंदि०-तेइंदि०-चदुरिंदि० सत्तएणं क. जह• हिदि० कस्स ? अएण पज्जत्तस्स सागारजागारसव्वविसुद्धस्स जह• हिदि० वट्ट । आयु० जह• हिदि. कस्स ? अण्ण पज्जत्तस्सं वा अपज्जत्तस्स वा तप्पाओग्गसंकिलि जह० श्रावा. जह हिदि० वट्ट । एवं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ता । 'तसअपज्जत्ता० बेइंदियअपज्जत्तभंगो। ६१. वेउव्वियका० सत्तएणं कम्माणं जह• हिदि० कस्स ? अण्णद० देवणेरइगस्स सम्मादिहि. सागारजागारसव्वविसुद्धस्स जह• हिदि० वट्टमाणयस्स । आयु० जह• हिदि० कस्स ? अएणद० देवणेरइगस्स तप्पाअोग्गसंकि० मिच्छादि । एवं वेउवियमिस्स । वरि सत्तएणं कम्माणं से काले सरीरसज्जत्ती गाहिदित्ति । आहार-आहारमि० सत्तएणं क• जह• हिदि० कस्स ? अण्ण. पमत्तस्स सागारजागारसव्वविसुद्धस्स । आहारमिस्से से काले सरीरपज्जत्ती गाहिदि त्ति । आयु० जह• हिदि० कस्स० ? अण्ण तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । ६२. इत्थि-पुरिस-णवंस० सत्तएणं कम्माणं जह• हिदि० कस्स ? अएण. अणियट्टिखवगस्स जह• हिदि० वट्टमाणयस्स । आयु० अोघं । णवरि इत्थि-पुरिस० ६०. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अपर्याप्त जीव साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? जो अन्यतर जीव पर्याप्त है या अपर्याप्त है, तत्प्रायोग्य संकेश परिणामवाला है और जघन्य आवाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार इन तीनोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । तथा त्रस अपर्याप्तकोंमें द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। ६१. वैक्रियिककाययोगमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जीव जो कि सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जीव जो कि तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यादृष्टि है, वह आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें जो तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको पूर्ण करेगा,वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी होता है। आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है। अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामो है। आहारकमिश्र काययोगमें जो तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको पूर्ण करेगा वह सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवाला जीव आयुकर्मके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी है। ६२. स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदमें सात कर्मों के जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अनिवृत्तिक्षपक जीव जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह सात कौके जघन्य स्थितवन्धका स्वामी है । आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अोधके समान है। १. मूलप्रतौ तसपजत्ता० इति पाठः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ जहण्णसामित्तपरूवणा आयु० सएिणस्स वा असएिणस्स वा [पज्जत्तस्स। गवुस सणिणस्स वा असएिणस्स वा ] पज्जत्तस्स वा अपज्जत्तस्स वा । एवं कोधमाण-माय । ६३. विभंगे सत्तएणं कम्माणं जह• हिदि. कस्स ? अण्ण. मणुसस्स संजमाभिमुहस्स सागारजागारसव्वविसुद्धस्स जह• हिदि० वट्टमारणयस्स । प्रायु० जह० हिदि० कस्स ? अण्ण तिरिक्खस्स वा मणुसस्स वा सागारजागारसंकिलि. जह• आबा० । ६४. सामाइ०-छेदोव० सत्तएणं कम्माणं जह• हिदि० कस्स ? अण्ण अणियट्टिखवगस्स चरिमजह• हिदि० वट्टमा० । आयु० जह• हिदि. पमत्तसंजदस्स तप्पागोग्गसंकिलि । परिहारे सत्तएणं कम्माणं जहरू हिदि. अप्पमत्त. सबविसुद्धस्स । आयु० जह• हिदि. आहारकायजोगिभंगो । सुहुमसंपराइ छएणं कम्माणं अोघं । संजदासंजद सत्तएणं क जह• हिदि० कस्स ? अएण. मणुसस्स संजमाभिमुहस्स सागारजागारसव्वविसुद्धस्स । आयु० दुगदियस्स तप्पाअोग्गसंकिलि। ६५. तेउले-पम्मले० सत्तएणं क. जह• हिदि. कस्स ? अण्ण. अप्पमत्तइतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें जो संशी हो, असंशी हो और पर्याप्त हो वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । नपुंसक वेदमें संज्ञी हो, असंही हो, पर्याप्त हो या अपर्याप्त हो,वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार क्रोध, मान और माया कषायमें भी जानना चाहिए। ६३. विभङ्गशानमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धको स्वामी कौन है ? जो अन्यतर मनुष्य संयमके अभिमुख है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह सात कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर तिर्यञ्च या मनुष्य साकार है, जागृत है, संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। ६४. सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अनिवृत्तिक्षपक अन्तिम जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह सात कौंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामो कौन है ? जो प्रमत्तसंयत जीव तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। परिहारविशुद्धिसंयममें सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अप्रमत्तसंयत जीव सर्वविशुद्ध है, वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी आहारक काययोगीके समान है। सूक्ष्मसाम्पराय संयममें छह कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अोधके समान है। संयतासंयतों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर मनुष्य संयमके अभिमुख है, साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है,वह सात कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो दो गतिका जीव तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। ६५. पीतलेश्या और पद्मलेश्यामें सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? १. आयु. संकिलिहस्स वा असणिणस्स इति पाठः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे संजदस्स सागारजागारसव्व विसुद्धस्स । अथवा दसणमोहरखवगस्स से काले कदकरणिज्जो होहिदि त्ति । आयुगस्स जह• हिदि० कस्स ? अण्ण० देवस्स मिच्छादिहिस्स तप्पाअोग्गसंकिलिट्ठस्स जह• आवाधा. जह• हिदि वट्टमा० । ६६. वेदगसम्मा० सत्तगणं क० तेउले भंगो। आयु० देवणेरइयस्स तप्पाओगस्स संकिलिट्ठस्स । उवसमस० छएणं क. जह हिदि० कस्स ? अण्ण. सुहमसंपराइग० चरिमे जह• हिदि० वट्टमा० । मोहणी० जह• ट्ठिदि० कस्स ? अण्ण. अणियट्टिउवसमस्स चरिमे जह• हिदि० वट्टमा० । सासणे सत्तएणं क. जह हिदि० कस्स ? अण्ण. चदुगदियस्स सव्वविसुद्धस्स जह० हिदि० वट्टमा० । अथवा संजमादो परिवदमाणस्स' । आयु० जह• हिदि० कस्स ? अएण• चदुगदियस्स तप्पाओग्गसंकिलि० जह• हिदि० वट्टमा० । सम्मामिछा० सत्तएणं क० जह• हिदि. कस्स ? अण्ण. सागारजागारसव्वविसुद्धस्स से काले सम्मत्तं पडिवज्जदि त्ति । एवं बंधसामित्तं समत्तं । जो अन्यतर अप्रमत्तसंयत जीव साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। अथवा जो दर्शनमोहकाक्षपक जीव तदनन्तर समयमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि होगा,वह सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर देव मिथ्यादृष्टि है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। ६६. वेदकसम्यग्दृष्टियों में सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पीतलेश्याके समान है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो देव और नारकी जीव तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। उपशम. सम्यग्दृष्टियोंमें छह कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह छह कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मोहनीय कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका खामी कौन है ? जो अन्यतर अनिवृत्ति उपशामक जीव अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह मोहनीयकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। सासादनसम्यक्त्वमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? जो अन्यतर चार गतिका जीव सर्वविशद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह सात कोके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। अथवा संयमसे गिरकर जो सासादनसम्यग्दृष्टि हुआ है,वह सात कौंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? जो अन्यतरं चार गतिका जीव तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है। वह आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। सम्यग मिथ्यादृष्टियों सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त होगा,वह सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। १. मूलप्रतौ-माणस्स । श्रायुः जह. हिदि० वट्टमा० । अथवा संजमादो परिवदमाणस्स। श्रायु० जह. हिदि० कस्स ? अण्ण० चदुगदियस्स तप्पाश्रोग्गसंकिलि० । सम्मामिच्छा० इति पादः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधकालपरूवरणा बंधकालपरूवणा ६७. बंधकालं दुबिधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुविधो णिसो—ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सो हिदिबंधो केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण एगसमो, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणु० जह अंतो०, उक्क० अणंतकालमसंखे । आयु० उक्क० केवचिरं कालादो• ? जहणणे. एग० । अणुक्क० जहण्णु० अंतो। एवं मदि०-सुद०-असंज-अचक्खुदं०-भवसि०अब्भवसि-मिच्छादिहि त्ति । विशेषार्थ-पहले सब मार्गणाओंमें जघन्य स्थितिबन्धके श्रद्धाच्छेदका कथन कर आये हैं। यहाँ उनके स्वामीका निर्देश किया है। इसलिये जहाँ जितना जघन्य स्थितिबन्ध कहा है,उसे ध्यान में रखकर उक्त प्रकारसे उसके स्वामित्वको घटित कर लेना चाहिए। इस प्रकार बन्धस्वामित्वका कथन समाप्त हुआ। बन्धकाल-प्ररूपणा ६७. बन्धकाल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघसे सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-स्थितिबन्ध पहले उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे चार प्रकारका बतला पाये हैं। इनमें यहाँ सर्वप्रथम एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कमसे कम कितने काल तक और अधिकसे अधिक कितने काल तक होता रहता है,इसका विचार किया जा रहा है । यहाँ उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बताया है। इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाम अन्तर्मुहर्तसे अधिक काल तक नहीं रहते। उसमें भी उन परिणामोसे उतने काल तक उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । किसी जीवके एक समय तक उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने लगता है और किसीके अन्तर्मुहूर्त काल तक उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता रहता है । यही कारण है कि यहाँ सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इन कर्मोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर पुनः वह अन्तर्मुहूर्त कालके पहले कभी नहीं होता। इसका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है; क्योंकि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक समय तक और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। इससे अधिक काल तक आयुकर्मका बन्ध ही नहीं होता। यही कारण है कि आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ मत्यज्ञानी आदि जितनी मार्गणाएँ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ६८. आदेसेण रइएस सत्तणं कम्माणं उक्क० ओघं । अणुक० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोव० । आयु० श्रघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । वरि अणुकस्स अप्पप्पणो हिदी भाणिदव्वा । ६६. तिरिक्खे ओघं । पंचिंदियतिरिक्ख ० ३ - मणुस ० ३ - देवा याव सव्वट्टत्ति यथासंखाए सत्तण्णं कम्मारणं उक्क० द्विदि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक जह० एग०, उक्क'० [ तिरिण पलिदोवमारिण पुव्वको डिपुधत्तेणन्भहियरिण ] तिि पलिदो पुव्त्रकोडिपु० तेत्तीस सागरो • देवाणं अप्पप्पणी हिंदी० । आयु० श्रघं । ७०. पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत मणुस अपज्जत-विगलिंदि० - पंचिंदिय-तसअप - ज्जत्ता० सत्तरणं कम्मारणं उक्क० अणुक्क ० जह० एग०, उक्क० तो ० आयुधं । १० । ४८ गिनाई हैं, उनमें आठों कर्मोंका यह काल अविकल घटित हो जाता है, इसलिये इनके कथनको के समान कहा है । R ६८. देशसे नारकियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। श्रायुकर्म का काल श्रधके समान है । इसी प्रकार सात पृथिवियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए । विशेषार्थ – यहाँ सामान्य से और प्रत्येक नरकमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। सो इसका कारण यह है कि जिस जीवने पूर्व भवमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेके बाद अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया । इसके बाद वह मरकर नरकमें गया और वहाँ निरन्तर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता रहा । इस प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है। आगे सर्वत्र अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । ६६. तिर्यञ्चों में श्रधके समान काल है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव और सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका 'जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य, पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य, तेतीस सागर और देवोंके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । आयुकर्मका श्रधके समान है । विशेषार्थ - यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय बतलानेका कारण यह है कि विवक्षित पर्यायमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया और दूसरे समय में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके मरकर अन्य पर्यायमें चला गया। इससे यहाँ सर्वत्र स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। शेष कथनका अनुगम पूर्ववत् है । ७०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, विकेलन्द्रिय अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आयुकर्मका श्रोघके समान है । १. मूलप्रतौ उक्क० अनंतकालमसंखेज पोग्गल० तिथिण इति पाठः । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सकालपरूवणा ७१. एइंदिएसु सत्तएणं कम्माएणं उक्क हिदि जह० एग०, उक्क० अंतो। अणुक्क० जह• अंतो, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरएइंदि० अणुक्क० जह. एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे । बादरएइंदि० पज्जत० अणुक्क० जह० . एग०, उक्क. संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अपज्ज• अणु० जह• एग, उक्क. अंतोः । सुहुमएइंदि० अणुक्क० जह० अंतो, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । पज्जत्ते अणु० जह० एग०, उक्क अंतो। अपज्ज. अणु० जहएणे. अंतो। सव्वेसिं उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो । सव्वेसु आयु० ओघं । ७२.बेइंदि-तेइंदि०-चरिंदि तेसिं चेव पज्जत्ता सत्तएणं कम्माणं उक्क जह एग०, उक्क० अंतो० । अणुक्क० जह• एग०, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । आयु० अोघं । विशेषार्थ-इन सब पर्यायोंमें एक जीवके रहनेका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीसे यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। ७१. एकेन्द्रियों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। बादर एकेन्द्रियोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर एकेन्द्रिय पर्यातकोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियों में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यातकोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इन सबके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा इन सबमें आयुकर्मका काल ओघके समान है। विशेषार्थ 'खुद्दाबन्धमें एकेन्द्रिय जीवका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण अनन्तकाल दिया है और इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रियका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण दिया है,किन्तु यहां पर इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उकृष्ट काल क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण और अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । इसका कारण क्या है,यह विचारणीय है। इन जीवोंका 'खुद्दाबन्धमें जो उत्कृष्ट काल बतलाया है, उतने काल तक सात कर्मीका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता, इसीसे यह काल दिया है । शेष कथन सुगम है। आगे सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदिका जो अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहा है,वहां भी इसी प्रकार विचारणा कर लेनी चाहिए। ७२. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त जीवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। आयु: कर्मका काल अोधके समान है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे ७३. पंचिदिय-तसदोरणं सत्तणं कम्मारणं उक्क० जह० एग०, उक्क ० तो ० ० । अणुक्क० जह० एग०, उक्क० [ अप्पप्पणो सगहिदी | ] आयु० ओघं । ७४. पुढवि० उ०० - तेज ०उ०- वाउ० सत्तणं कम्मा उक्क० ओर्घ । अणुक्क ० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । बादरे कम्मदी । बादरपज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससहस्सारिण । सुहुमे० अंगुलस्स असंखे० । पज्जत्ते उक्कस्स-अणुक्कस्सबंधा० जह० एग०, उक्क० तो ० । वरणप्फदि० एइंदियभंगो । पत्तेगे कम्महिदी । पज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णिगोदेसु एइंदियभंगो । वरि बादरे कम्महिदी | सुहुमवणप्फदि ० - मुहुमणिगोद अपज्जतं मोत्तूण सेसं अपज्ज० पंचिंदियपज्जत्तभंगो । आयु० ओोघं । ५० ७५. पंचमरण० - पंचवचि० सत्तरणं कम्मारणं उक्क० अ० जह० एग, उक्क ० अंतो० ० । आयु० उक्क० ओघं । अणुक्क० जह० एग०, उक्क० तो ० । एवं वेडव्विय० - आहार० - कोधादि ४ । कायजोगि० सत्तणं क० उक्क • ओघं । अणु० जह० ७३. पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तथा त्रस और त्रस पर्याप्त जीव में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । युकर्मका काल श्रोत्रके समान है। ७४. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में सात कमके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । इन चारोंके बादरों में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । इनके बादरपर्याप्त जीवों में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । उनके सूक्ष्म जीवों में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सूक्ष्म पर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । वनस्पतिकायिक में उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल एकेन्द्रियोंके समान है । वनस्पति प्रत्येक कायिकों में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । इनके पर्याप्तकों नें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । निगोद जीवों में उक्त स्थितिबन्धका काल एकेन्द्रियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके बादरों में अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त और सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त जीवको छोड़ कर शेष अपर्याप्त जीवोंमें उक्त स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय पर्यातकोंके समान है। आयुका काल ओघके समान है । ७५. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनु त्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार वैक्रियिक काययोगी, आहारक काययोगी और क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके जानना चाहिए । काययोगी जीवों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्सकालपरूवरणा एग०, उक्क अणंतकालमसंखे । आयु०मणजोगिभंगो । एवं णवुस-असगिण । आयु० अोघं । ओरालियकाजो० सत्तएणं क. उक्का ओघ । अणु० ज० एग०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि देसूणाणि। आयु मणजोगिभंगो। ओरालियमि०-वेउवियमि०-आहारमि० सत्तएणं कम्माणं उक्क० जह० एग०, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अणु० जहएणु० अंतो । ओरालियमि० आयु० ओघं । आहारमिस्से मणजोगिभंगो। कम्मइगका०-अणाहा. सत्तएणं कम्माणं उक्क जह• एग०, उक्क० बेसम । अणुक्क० जह एग०, उक. तिएिणसः । ७६. इत्थि-पुरिस सत्तएणं क० उक्क० ओघं । अणुक० जह० एगस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । आयु० ओघं । अवगद० मणजोगिभंगो । एवं सुहुमसं० छएणं कम्माणं । समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। आयुकर्मका काल मनोयोगियोंके समान है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी और असंही जीवोंके जानना चाहिए । इनके आयुकर्मका काल अोधके समान है । औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कर्मौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। श्रायुकर्मका काल मनोयोगियोंके समान है । औदारिक मिश्रकाययोगी, क्रियिक मिश्रकाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक. समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । औदारिक मिश्रमें आयुकर्मका काल श्रोधके समान है और आहारक मिश्रकाययोगमें आयुकर्मका काल मनोयोगियोंके समान है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। विशेषार्थ-औदारिक मिश्रकाययोगमें आयुबन्ध लब्ध्यपर्याप्तकोंके ही होता है, इसलिए यहाँ आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान बन जाता है। शेष जिन योगोंमें आयुकर्मका बन्ध कहा है, उनका जघन्य काल एक समय होनेसे उनमें आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। किन्तु आहारक मिश्रकाययोगमें। कुछ विशेषता है। उसका यद्यपि जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है, तथापि वहाँ आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहनेका कारण यह है कि कोई जीव आहारक मिश्रकाययोगका एक समय काल शेष रहनेपर भी आयुकर्मका बन्ध कर सकता है, इसलिए यहाँ एक समय काल बन जाता है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन होता है,इसका पहले विचार कर आये हैं । उसे देखते हुए शात होता है कि ऐसा जीव अधिकसे अधिक दो विग्रह लेकर ही उत्पन्न होता है। इसीसे यहाँ पर सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । शेष कथन सुगम है। ७६. स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें सात काँके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे पल्योपमशतपृथक्त्वप्रमाण और सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण है। आयुकर्मका काल अोधके समान है। अपगतवेदियों में सात कौका काल मनोयोगियोंके समान है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायमें छह कौंका काल होता है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ महाबंधे छिदिबंधाहियारे ७७. विभंगे सत्तएणं क• उक्क अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवम० देसू० । आयु. अोघं । आभि०-सुद-बोधि० सत्तएणं क० उक्क० जह• उक्क• अंतो । अणु० जह अंतो०, उक० छावहिसागरो सादिरे ।आयु ओघ । मणपज्ज. सत्तएणं कम्माणं उक्क जह• उक्क अंतो० । अणजह० एगस०, उक्क० पुवकोडी देमू । आयु. अोघं । एवं संजद-सामाइ०-छेदोव-परिहार० । संजदासजदाणं सत्तएणं क० उक्क • जहण्णु० अंतो। अणु जह• अंतो, उक्क० पुव्वकोडी देस। आयु० ओघं । चक्खुदं तसपज्जत्तभंगो । ओधिदंसणि-सम्मादिहि बोधिभंगो । ७८. किएण-णील-काउ० सत्तएणं कम्माणं उक्क० ओघं । अणु० जह अंतो, उक्क० तेत्तीसं सत्तारस सत्त सागरोव. सादि० । आयु० ओघं। एवं तेउ०पम्मले०-सुक्कलेस्साए सत्तएणं कम्माणं उक्क० ओघ । अणु० जह० एग०, उक्क० बे अहारस तेत्तीसं साग० । आयु० अोपं । विशेषार्थ-अपगतवेदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है। ७७. विभङ्ग ज्ञानमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । आयु कर्मका काल अोधके समान है। आभिनिबोधिकशान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागरोपम है। आयुकर्मका काल ओघके समान है । मनःपर्ययज्ञान में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कर्म पूर्वकोटि प्रमाण है। श्रायुकर्मका काल- ओघके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके जानना चाहिए। संयतासंयतोमे सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है। आयु कर्मका काल ओघके समान है । चक्षुदर्शनमें उक्त काल असपर्याप्तकोंके समान है। अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टियोंमें उक्त काल अवधिशानियोंके समान है। ७. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है। आयु कर्मका काल अोधके समान है। इसी प्रकार पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यामें सात कोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक दो सागर, साधिक अठारह सागर और साधिक तेतीस सागर है। आयुकर्मका काल ओघके समान है। १. मूलप्रतौ श्रोघं । प्रायु प्रोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० बे अहारस तेत्तीसं साग० । खड्गसं० इति पाठः। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरणकालपरूवणा ७६. खइगस• सत्तएणं क० उक्क० जह० एग०, उक्क. अंतो। अणु० जह• अंतो, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि । आयु० ओघं । वेदगसम्मा० सत्तएणं कम्माणं उक्क० जह उक्क० अंतो। अणु० जह• अंतो०, उक्क छावहिसाग । आयु. ओघं । उवसमस-सम्मामि सत्तएणं क. उक्क० अणु० जह• उक्क. अंतो । सासण. सत्तएणं क० उक्क० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अणुक्क जह• एग०, उक्क० छावलिगाओ । आयु० ओघं ।। ८०. सरिण पंचिंदियपज्जत्तभंगो । एवं उक्कस्सबंधकालो समत्तो । ८१. जहएणए पगदं । दुविधो णिदेसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं क० जहएणहिदिबंधकालो केवचिरं कालादो होदि ? जह• उक्क. अंतो। अजहएण. केवचिरं कालादो ? अणादियो अपज्जवसिदो त्ति भंगो । यो सो सादि. जह अंतो०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट । आयु० उक्कस्सभंगो। एवं याव आहारग त्ति । आयु० ओघभंगो। ७९. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरोपम है। आयु कर्मका काल ओघके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है। आयु कर्मका काल प्रोघके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियों और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में सात कौके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सासादनमें सात कौके उत्कृष्टस्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह श्रावलि है। आयु कर्मका काल ओघके समान है। ८०. संशियों में सब कमौका उक्त काल पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धकाल समाप्त हुआ। ८१. अब जघन्य बन्ध कालका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैश्रोध और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका कितना काल है ? एक अनादि-अनन्त भङ्ग है और दूसरा सादि । उनमेंसे जो सादि भङ्ग है, उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। आयु कर्मका काल उत्कृष्ट के समान है। विशेषार्थ-सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है और वह अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है। इसीसे सात कौंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यद्यपि सात कर्मोका अनादि कालसे अजघन्य स्थितिबन्ध ही होता है, पर जिसने अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें उपशमश्रोणिपर आरोहण किया है,उसके उनका अजघन्य स्थितिबन्ध सादि होता है। अब यदि यह अजघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर पुनः श्रोणि पर आरोहण करनेसे छूट जाता है,तो इसका Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ८२. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं कम्माणं जह० जह० एग०, उक्क• बेसम। अज्ज. जह० दसवस्ससहस्साणि बिसमयूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पढमाए पुढवीए । णवरि सगहिदी । विदियाए याव सत्तमा ति उक्कस्सभंगो । गवरि सत्तमाए अज. जह• अंतो० । ८३. तिरिक्खेसु सत्तएणं कम्माणं जह• जह• एग०, उक्क अंतो० । अज. जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। पंचिंदियतिरिक्व३ जहएणं तिरिक्खोघं । अज. जह० एम०, उक्क० सगहिदी । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्त० जह• अजह उकस्सभंगो। जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है और यदि ऐसा जीव कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक पुनः श्रेणी पर नहीं चढ़ता है.तो इसका काल कुछ कम अर्धपदल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है। यही कारण है कि सात कमौके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है। ८२. आदेशसे नारकियों में सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। दसरो प्रथिवीसे लेकर सातवीं तक कालकी प्ररूपणा उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला असंशी जीव मरकर नरकमें उत्पन्न होता है, उसके एक या दो समय तक सात कौका जघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसीसे यहां सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। दस हजार वर्षप्रमाण नरककी जघन्य स्थितिमेंसे ये दो समय कम कर देनेपर वहां अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल होता है। उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है,यह स्पष्ट ही है। पहली पृथिवीकी अपेक्षा यह प्ररूपणा इसी प्रकार है। कारण कि असंझी जीव पहली पृथिवीमें ही उत्पन्न होता है। मात्र यहां अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल यहां की उत्कृष्ट स्थिति एक.सागर प्रमाण कहना चाहिए। शेष पृथिवियोंमें जघन्य स्थितिबन्ध के कालका विचार उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालके समान कर लेना चाहिए। ८३. तिर्यञ्चोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालके समान है। विशेषार्थ-यद्यपि तिर्यश्च गतिमें एक जीवके रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्रल परिवर्तनप्रमाण है, तथापि ऐसा जीव तिर्यंच गतिकी सब योनियों में परिभ्रमण कर लेता है.इसलिए सात कौके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इतना उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि इस जीवके पर्यात एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने पर जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है प्रतः यहां सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके कालकी मुख्यतासे अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरण कालपरूवणा ५५ ८४. मणुस ३ जह० जह० तो ० । अज० जह० एग०, उक्क० सगहिदी ० | मणुसअपज्ज०. सत्तएां क० जह० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अज० खुदाभव० विसमयू, उक्क० तो ० । ८५. देवाणं णिरयोघं । भवण० वाणवें पढमपुढविभंगो । गवरि सगहिदी० । जोदिसिय याव सव्वह त्तिउक्करसभंगो । ८६. सव्वएइंदिएस सत्तणं क० जह० तिरिक्खोघं । अज० जह० एग०, उक्क० संखेज्जा लोगा । बादर० अंगुलस्स सखेज्जदि० । पज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बादर पज्ज० जह० एगसमयं, उक्क० तो ० | सुहुमेइंदि० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । पज्जत्तापज्ज० जह० एगस०, उक्क० तो ० । ८४. मनुष्यत्रिमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल दो समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - मनुष्यत्रिक में सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणी में उपलब्ध होता है और वह अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। इसीसे यहाँ इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । ८५. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान काल है । भवनवासी और व्यन्तरोंमें पहली पृथिवीके समान काल है । इतनी विशेषता है कि यहाँ अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें इन्हींके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालके समान काल कहना चाहिए । ८६. सब एकेन्द्रियों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चौके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । इनके बादरोंमें अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर पर्याप्तकों में अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । बादर पर्याप्तकों में अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियों में अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इनके पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - सामान्य एकेन्द्रियोंमें अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल जिस प्रकार तिर्यश्वों में घटित करके बतला आये हैं, उस प्रकार से घटित कर लेना चाहिए। तथा एकेन्द्रियके शेष श्रवान्तर भेदों में यह काल उस उसकी काय स्थिति जान कर समझ लेना चाहिए । मात्र सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें यह काल अपनी कायस्थिति प्रमाण प्राप्त न होकर गुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होता है, इतना विशेष जानना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ८७. बेइंदि-तेइंदि-चदुरिंदि० तेसिं चेव पज्जनाणं सत्तएणं क. जह• तिरिक्खोघं । अज० जह• एग०, उक्क संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अपज्ज. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जतभंगो । पंचिंदिय-तस० तेसिं चेव पज्जत्ताणं सत्तएणं. क. जह ओघं। अज० जह• अंतो०, उक्क० सगठिदी । अपज्जत्ता० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जतभंगो। ८८. सव्वपुढवि०-आउ-तेउ०-बाउ-वणप्फदि-पत्तेय-णिगोद० सत्तएणं क० जह० एइंदियभंगो । अजह० जह० एग०, उक्क अणुक्कस्सभंगो। ८६. पंचमण-पंचवचि० सत्तएणं क० जह• अजह जह० एग०, उक्क० अंतो। कायजोगि० सत्तएणं कम्माणं जह जह• एग०, उक्क० अंतो। अजह जह० एग०, उक्क० अणंतका । ओरालियका सत्तएणं क० जह• जह• एग०, उक्क० अंतो० । अजजह एग०, उक्क • बावीसं वस्ससहस्साणि देसू० । ओरालियमि०-वेउव्वियमि० आहारमि० उकस्सभंगो । वेउव्वियका मणजोगिभंगो । एवं आहारका कम्मइ०प्रणाहारउक्कस्सभंगो। ८७. द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इन्हींके पर्याप्तकोंमें सात कोके जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। द्वीन्द्रिय आदि तीनों अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान काल है। पञ्चेन्द्रिय और प्रस तथा इनके पर्याप्त जीवों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इनके अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान काल है। ८८. सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, सब वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और सब निगोद जीवों में साप्त कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल एकेन्द्रियोंके समान है। इनमें अजघन्य स्थितिबन्धका अघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके उत्कृष्ट कालके समान है। ८९, पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवों में सात कर्मों के जघन्य और अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्त है। काय योगी जीवों में सात कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजयन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अनन्तकाल है। औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उस्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समान काल है। वैक्रिविककाययोगी जीवोंमें मनोयोगियोंके समान काल है। इसी प्रकार पाहारककाययोगियोंके जानना चाहिए। कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समान काल है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहराणकालपरूवणा ६०. इत्थि-पुरिस-णqससत्तएणं क० जह• अोघं । अज. जह• एग०, उक० पलिदोवमसदपुधत्तं । जह• अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । जह. एग०, उक्क अणंतकालमसंखे० । अवगद० सत्तएणं क• जह• ओघं । अज० जह० एगस, उक्का अंतो० । एवं सुहुमसंप० छएणं कम्माणं । ६१. कोधादि४ सत्तएणं क० मणभंगो। ६२. मदि-सुद० सत्तएणं क० जह• जह• एग०, उक्क० अंतो० । अज. ज. अंतो०, उक्क. असंखेज्जा लोगा। विभंगे सत्तएणं क० जह० जह• उक्क. अंतो० । अज० जह• एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० देमू । आभिणि-सुद० विशेषार्थ-काययोगमें जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनमें अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी काय स्थितिप्रमाण घटित हो जाता है जो कि अनन्त काल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण उपलब्ध होता है। शेष कथन सुगम है। ६०. स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदमें सात कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । स्त्रीवेदमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्वप्रमाण है । पुरुषवेदमें जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है। तथा नपुंसकवेदमें जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पदल परिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है। अपगतवेदमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयममें छह कौका काल है। विशेषार्थ-जो जीव पुरुषवेदसे उपशमश्रेणि पर आरोहण करता है, वह उपशमश्रेणिमें मरण कर नियमसे पुरुषवेदी ही होता है, इसलिये इसमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध नहीं होता । यही कारण है कि पुरुषवेदमें सातों कमौके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय नहीं कहा। फिर भी यह काल कैसे प्राप्त होता है। यह घटित करके बतलाते हैं -एक पुरुषवेदी जीव उपशम श्रेणि पर चढ़ा और उतर कर वह सात कर्मोंका अजघन्य स्थितिबन्ध करने लगा। पुनः अन्तर्मुहूर्तके बाद वह उपशमश्रेणि पर चढ़ा और अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें उसने मोहनीयकी तथा सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें उसने शेष छह कर्मोंकी बन्धव्युच्छित्ति की। इस प्रकार यदि देखा जाय,तो यहाँ सात कर्मों के अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध हो जाता है । यही कारण है कि पुरुषवेदमें यह काल उक्त प्रकारसे कहा है। शेष कथन सुगम है। ९१. क्रोधादि चारमें सात कमौका उक्त काल मनोयोगियोंके समान है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मनोयोगियोंके सात कौंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल कह पाये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। ९२. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। विभङ्गशानमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। आभिनिबोधिक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ओधि०-मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद० उक्कस्सभंगो । असंजद०-अन्भवसि-मिच्छादिहि मदिभंगो। ६३. चक्खुदं. तसपज्जत्तभंगो । अचक्खु०-भवसि० ओघं । णवरि भवसि० अणादियो अपज्जवसिदो पत्थि। ओघिदं०-सम्मादि०-खइग०-वेदग० उक्कस्सभंगो । ६४. किएण-णील-काउ० उक्कस्सभंगो । तेउले-पम्मले० सत्तएणं क. जह० जह एग०, उक्क • अंतो० । अज० जह• अंतो०, उक्क० ने अहारस सागरोव० सादिरे । सुक्काए सत्तएणं क० जह• जह• उक्क ' अंतो० । अज० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरे । ६५. उवसम० सत्तएणं क० जह० जह० एग०, उक्क० अंतो । अज० जह उक्क. अंतो० । सासणस० अहएणं का सम्मामि० सत्तएणं क. उक्कस्सभंगो । सएिण. पंचिंदियपज्जत्तभंगो । असएिण. तिरिक्खोघं । ६६. आहार० सत्तएणं क० जह• जह• उक्क अंतो । अज० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । एवं बंधकालो समत्तो। ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत इनमें जघन्य स्थिति बन्धका काल उत्कृष्टके समान है। असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टियोंमें मत्यज्ञानियों के समान है। ९३. चक्षुदर्शनवालोंमें त्रसपर्याप्तकोंके समान है। अचवुदर्शनवाले और भव्य जीवों में ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि भन्योंमें अनादि-अपर्यवसित विकल्प नहीं होता। अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में कालअपने-अपने उत्कृष्टके समान है। ९४. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें काल अपने उत्कृष्टके समान है। पीत और पद्मलेश्यामें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल क्रमसै साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। शुक्ललेश्यामें सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। ९५. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें सात कंौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में पाठ कौका और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में सात कर्मोका काल उत्कृष्टके समान है । संशियोंमें पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंके समान काल है और. असंझियों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान काल है। ९६. आहारकों में सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्त. मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। १. मूलप्रतौ उक्क० जह० अंतो इति पाठः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्सअंतरपरूवणा अंतरपरूवणा ६७. बंधंतरं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सहिदिबंधंतरं जह• अंतो०, उक्क० अणंतकालमसंखे । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयुग० उक्क० जह० पुवकोडिदसवस्ससहस्साणि समयूणाणि, उक्क० अणंतकालमसंखे० । अणु० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरे । विशेषार्थ-इस प्रकरणमें जहाँ जो विशेषता थी,उसका हम स्पष्टीकरण कर आये हैं। साधारणतः सर्वत्र अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण प्राप्त होता है और जहाँ भवस्थिति ही कायस्थिति है,वहाँ तत्प्रमाण प्राप्त होता है। बहुत-सी ऐसी भी मार्गणाएँ हैं, जिनमें भवस्थिति और कायस्थितिका प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, इसलिए वहाँ उस मार्गणाका जो उत्कृष्ट काल हो तत्प्रमाण अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहना चाहिए । मात्र कुछ मार्गणाएँ इस नियमका अपवाद हैं। उदाहरणार्थ,मत्यशान और श्रुताशानका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है,पर इनमें अजघन्य स्थितिबन्ध का उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण ही प्राप्त होता है। सो इसका खुलासा सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जान लेना चाहिए । तथा इसी प्रकार सर्वत्र सब कौके जघन्य स्थितिबन्धके जघन्य और उत्कृष्ट कालका तथा अजघन्य स्थितिबन्धके जघन्य कालका खुलासा ओघ प्ररूपणाको और बन्धस्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । यहाँ इतना विशेष कहना है कि यहाँ सर्वत्र आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल नहीं कहा है । सो इसका कारण यह है कि जहाँ आयुकर्मका बन्ध सम्भव है,वहाँ आयुकर्म के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपलब्ध होता है। यही कारण है कि इसका कहीं भी निर्देश नहीं किया है। इसप्रकार बन्धकाल समाप्त हुआ। अन्तरपरूपणा ९७. बन्धका अन्तरकाल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । सर्वप्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है। इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमें से ओघकी अपेक्षा सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि और दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। विशेषार्थ-सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेके बाद पुनः उत्कृष्ट स्थितिवन्ध कमसे कम अन्तमुहूर्त कालके बाद होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । तथा जो संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोसे सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके एकेन्द्रिय और विकलत्रय पर्यायमें श्रावलिके असंख्यातवें भागमात्र पुगल परिवर्तनकाल तक परिभ्रमण कर पुनः संशी पंचेद्रिय पर्याप्त होकर उक्त कमौका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, उसके उक्त सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे हिदिबंधाहियारे ८. प्रादेसेण णेरइगेसु सत्तएणं कम्माणं उक्क० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० देसू० । अणुक्क. जह• एग०, उक्क० अंतो। आयुग उक्क० पत्थि अंतरं । अणुक्क० जह• अंतो, उक्क० छम्मासं देसू० । एवं सत्तपुढवीसु अप्पप्पणो हिदी देसूणा । view.. ......... उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है । इसीसे यहाँ उक्त कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्मुहूर्त होनेसे यहाँ इनके अनु ष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्टअन्तर अन्तर्महर्त कहा है। प्रोसे आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिकी श्रायुवाला तिर्यञ्च और मनुष्य अपने प्रथम त्रिभाग कालके शेष रहने पर करता है। यदि ऐसा जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और उसको अपकर्षण द्वारा दश हजार वर्ष प्रमाण करके प्रथम नरकमें या भवनवासी और व्यन्तरों में उत्पन्न होकर तथा वहां क्रमसे पूर्व कोटिप्रमाण आयुका बन्ध करके पुनःमनुष्य और तिर्यञ्चों में उत्पन्न होकर पुनः प्रथम त्रिभागमें तेतीस सोगर प्रमाण उत्कृष्ट आयुका बन्ध करता है, तो आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि और दस हजार वर्ष प्रमाण उपलब्ध होता है। यही कारण है कि इसका जघन्य अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, यह स्पष्ट ही है। जो जीव अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे आयकर्मका अनत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है उसके उसका जघन्य अन्तर अन्तमहर्त उपलब्ध होता है और जिस मनुष्य और तिर्यञ्चने प्रथम त्रिभागमें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया तथा इसके बाद द्वितीयादि समयोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया। अनन्तर उत्कृष्ट स्थितिके साथ वह देव या नारकी हुआ। पुनः वहाँ उसने आयुके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर पुनः आयुका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया,तो उसके आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका साधिक तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है। यही कारण है कि यहाँ आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है। ९८. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सात कोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। इसी प्रकार सात पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रत्येक पृथिवीमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। विशेषार्थ-सातों पृथिवियों में सातो कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे या कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयुके अन्तरसे हो सकता है। इसीसे यहाँ सातों कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सामान्यसे कुछ कम तेतीस सागर तथा प्रत्येक पृथिवीकी अपेक्षा कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। यहाँ आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अवसर यदि आता है, तो एकबार ही आता है। इसीसे आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं कहा है। शेष कथन सुगम है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सअंतरपरूवणा ६६. तिरिक्खेसु सत्तएणं कम्माणं अोघभंगो । आयु० उक्क पत्थि अंतरं । अणुक्क० जह• अंतो०, उक्क० तिषिण पलिदो० सादि । पंचिंदियतिरिक्ख०३ सत्तगणं क० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणु० ओघं । आयु० तिरिक्खोघं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. सत्तएणं कम्माणं उक्क० जहएणु० अंतो० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो । आयु० उक्क० जह• अंतो० समयूणं, उक्क० अंतो० । अणुक्क० जहएणुक्क० अंतो० । एवं सव्वअपज्जत्ताणं तसाणं थावराणं णादव्वं । मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो । १००. देवेसु सत्तएणं कम्माणं उक्क० जह• अंतो०, उक्क० अटारससागरो० सादिरे । अणु० जह० एग०, उक्क अंतो । आयु णिरयभंगो । एवं सचदेवाणं अप्पप्पणो हिदी देसूणा कादव्वा । १०१. एइंदिएसु सत्तएणं क० उक्क जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। ९९. तिर्यञ्चों में सात कर्मोंका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थिति बन्धका अन्तर नहीं है। आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है । आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्तकोंके जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंकी कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होनेसे इनमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध हो जाता है। १००. देवोंमें सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार सब देवोंके सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कहते समय वह कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। विशेषार्थ देवोंमें सात कोका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बारहवें कल्पतक होता है। इसीसे यहाँ सामान्य रूपसे देवोंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर प्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है । १०१. एकेन्द्रियों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ महाबंधे ठिदिबंधाहियारे अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयु० उक्क० जह• बावीसं वस्ससहस्साणि समयूणाणि, उक्क० अणंतकालमसंखे० । अणुक्क० जह• अंतो०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि सादि । बादर० सत्तएणं क० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० अंगुलस्स असंखे । पज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अणु० जह• एगस०, उक० अंतो० । सुहुम० सत्तएणं क. उक्क. जह• अंतो०, उक्क० अंगुलस्स असंखे । पज्जत्ते अंतोमु० । अणु० जह० एग०, उक्क अंतो० । आयु० सव्वेसिं उन जह• भवहिदी समयू । उक्कस्सेण सगट्टिदी । अणु० पगदिअंतरं । १०२. बेइंदि-तेइंदि०-चदुरिंदि० तेसिं चेव पज्जत्ता सत्तएणं क. उक्का जह अंतो०, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अणु० ओघं। आयुग. उक्क० जह बारस वस्साणि एगृणवरणरादिदियाणि छम्मासाणि समयूणाणि । उक्कर कायहिदी । अणुक्क जह• अंतो०, उक्क० बारसवस्साणि एगूणवर्गणरादिदियाणि छम्मासाणि सादिरेयाणि । समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुगल परिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रियोंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें यह उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। अनुत्कृष्टं स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म-एकेन्द्रियों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें यह उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इन सबके आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अपनी-अपनी भवस्थिति प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर प्रमाण है। १०२. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में तथा इन्हींके पर्याप्तकोंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय कम बारह वर्ष, एक समय कम उनचास रात्रिदिन और एक समय कम छह महीना है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक बारह वर्ष, साधिक उनचास दिन और साधिक छह महीना है।। विशेषार्थ-द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति बारह वर्ष, त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति उनचास दिन रात तथा चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति छह महीना है और इन सबकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है। इस स्थितिको ध्यानमें रखकर यहां सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका १. ध० पु ७,पृ. १४१ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सअंतरपरूवणा १०३. पंचिंदिय-तस० तेसिं चेव पज्जत्ता सत्तएणं क. उक. जह• अंतो, उक्त सगहिदी । अणु० ओघं । आयु० ओघं । णवरि उक्कस्सं कायट्ठिदी।। १०४. पुढवि० आउ-तेउ०-वाउ०-वणप्फदि-पत्तेय-णियोद० सत्तएणं क. उक्क. जह• अंतो०, उक्क० असंखेजा लोगा। पत्तेगे कायट्ठिदी। अणु० । ओघं । आयु० उक्क० जह• बावीसं वस्ससहस्साणि सत्तवस्ससह तिरिण रादिंदियाणि तिगिण वस्ससह० दसवस्ससह अंतो० समयू, उक्क कायट्टिदी। अणु० जह अंतो०, उका. भवहिदी सादिरे । एवमेदेसिं बादराणं । णवरि सत्तएणं कम्माणं उत्कृष्ट अन्तर तथा आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर तथा इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल मूलमें कही हुई विधिसे ले आना चाहिए। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अपनी-अपनी भवस्थिति प्रमाण कहा है सो इसका कारण यह है कि पूर्व पर्याय में जिस समय उत्कृष्ट आयुबन्ध हुआ,अगली पर्यायमें उसी समय उत्कृष्ट आयुबन्ध होनेपर एक समय कम अपनी-अपनी भवस्थिति प्रमाण जघन्य अन्तर-काल पा जाता है। शेष कथन सुगम है। १०३. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयु कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सागरोपमसहस्रप्रमाण, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण, प्रसकायिकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरप्रमाण और प्रसकायिकपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति दो हजार सागर प्रमाण है । इस कायस्थितिको ध्यानमें रखकर यहाँ सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल व आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए। शेष कथन सुगम है। १०४. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और निगोद जीवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंसंख्यात लोकप्रमाण है । प्रत्येक वनस्पतिकायकोंमें उत्कृष्ट अन्तर उनकी कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय कम बाईस हजार वर्ष, एक समय कम सात हजार वर्ष, एक समय कम तीन रात-दिन, एक समय कम तीन हजार वर्ष, दीमें एक समय कम दस हजार वर्ष और एक समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक भवस्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार इनके बादरोंमें अन्तरकाल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कर्मस्थितिप्रमाण है तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरोरमें सात 1. ध० पु. ७,१० १४२ व १५० । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ महाबंधे हिदिबंधाहियारे उक्त हिदि० उक्कस्सं कम्महिदी। बादरवणप्फदि० अंगुलस्स असंखे । एदेसि पज्जत्ताणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । आयुग० उक्क हिदि० जह० भवहिदी समयू, उक्क० सगहिदी । सव्वसुहुमाणं सुहुमेइंदियभंगो । १०५.पंचमण-पंचवचि० सत्तएणं क उक्क रणत्थि अंतरं। अणु० जह• एग, उक्क अंतो० । आयुग० उक्क० अणु० पत्थि अंतरं । एवं वेउव्वियका-आहारकाकोधादि४ । कायजोगि-ओरालि एवं चेव । णवरि आयु० उक्क पत्थि अंतरं । अणु० जह• अंतो०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि सत्तवस्सहस्साणि सादिरे । ओरालियमि०-वेउब्वियमि-आहारमि०-कम्मइग-अणाहारगेसु सत्तएणं क० उक्क० कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा इनके पर्याप्तकों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात हजार वर्ष है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम भवस्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। सब सूक्ष्मकायिकोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान जोनना चाहिए। विशेषार्थ-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति प्रत्येककी असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा निगोद जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति ढाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर तथा बादर निगोद इनकी उत्कृष्ट कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है। तथा इन सब बादर पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्षप्रमाण है।' इतनी विशेषता है कि बादर निगोद पर्याप्तकों उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इन सब सूक्ष्म जीवोंको उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है और इनके पर्याप्तकोंकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। इस प्रकार इस कायस्थितिको ध्यानमें रखकर यहाँ आठों कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए । शेष कथन सुगम है। १०५. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट तर अन्तर्मुहूर्त है। श्रायुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगी, आहारककायोगी और क्रोधादि चार कषायमें जानना चाहिए । काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक बाईस हजार वर्ष और साधिक सात हजार वर्ष है। औदारिकमिश्रकाययोगी वैक्रियिकमिश्रकायोगी, श्राहारकमिश्रकोययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में सात कोके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । औदारिकमिश्रकाययोगमें आयुकर्मके उत्कृष्ट १.ध० पु०७,पृ. १४३ । २. ध० पु. ७,पृ० १४८।३.१० पु. ७,पृ. १४४ और १४९ । १.ध.पु. ७,पृ० १४६ । ५. ध० पु.७,पु. १४९ । ६.३० पु. ७,०१४७ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सअंतरपरूवणा अणुक्क पत्थि अंतरं । आयु ओरालियमि० उक्क अणु० बादरएइंदियअपज्जत्तभंगो । आहारमिस्स० आयु० पत्थि अंतरं । १०६. इत्थि-पुरिस-णवुस. सत्तएणं कम्माणं उक्क० जह• अंतो०, उक्क. पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं अणंतकालमसंखे० । अणु० ओघं । आयु० तिएणं वि उक्क० जह० पुव्वकोडिदसवस्ससहस्साणि समयू। उक्क० अप्पप्पणो कायहिदी । अणु० जह' अंतो०, उक्कस्सेण पणवएणं पलिदो० सादि० तेत्तीसंसादि । अवगद० सत्तएणं क० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० जह• उक्क० अंतो। और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरका निर्देश बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। तथा आहारकमिश्रकाययोगमें आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-जिस जीवके प्रारम्भमें सात कोका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर बीचमें एक समयके लिए उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उसके पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगमेंसे कोई एक योगमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है और उपशम श्रेणिपर चढ़कर और पुनः उतरकर विवक्षित योगमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है उसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर उपलब्ध होता है। इन योगोंमेंसे प्रत्येकका काल इतना अल्प है जिससे इनमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध या दो बार उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट आयुकर्मका बन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरका तथा आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरका निषेध किया है। काययोगमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल सम्भव नहीं है,यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि जो पिछली बार काययोगमें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर चुका है, उसके दूसरी पर्यायमें पुनः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करने तक बीच में अनेक बार योगपरिवर्तन होकर मन, वचन और काय तीनों योग हो लेते हैं। हाँ, औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष प्रमाण होनेसे सामान्यसे काययोगमें साधिक बाईस हजार वर्ष प्रमाण तथा औदारिक काययोगमें साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण आयुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल अवश्य बन जाता है। शेष कथन सुगम है। १०६. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर तीनों वेदों में क्रमसे सौ पल्य पृथक्त्व सौ सागरपृथक्त्व' और असंख्यात पुनल परिवर्तनों में लगनेवाले कालके बराबर अनन्त काल है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल श्रोधके समान है। तीनों ही वेदोंमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम एक पूर्वकोटि और दस हजार वर्ष है । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर स्त्रीवेदमें साधिक पचपन पल्य तथा शेष दो वेदों में साधिक तेतीस सागर है। अपगतवेदमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। पाथे-तीनो घेदोकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्यपृथक्त्व, सौ सागरपृथक्स्व और अनन्त काल है। इसीसे यहाँ सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम उक्त 1.मूखपतौ जह• मह मंतो इति पाठ। १. ध० पु० ७,पृ० १५३ । ३. ध० पु. ७,३० १५६। १. ध० पु. ७,१० १५७। ५. देखो ध० पु० ०,१० १५८ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १०७. मदि०-सुद०-असंज-भवसि -अब्भवसि-मिच्छादि० मूलोघं । विभंगे सत्तएणं क० उक्क. जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० देसू० । अणु० अोघं । आयु० णिरयोघं । आभि-सुद० ओधि० सत्तएणं कम्मा० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० अोघं । आयु० उक्क० जह० पलिदो सादि०, उक्क० छावहिसाग० देस० । अणु० अोघं । एवं ओधिदं०-सम्मादि० । मणपज्जव० सत्तएणं क० उक्क पत्थि अंतरं । अणुक्क जहएणू० अंतो० । आयु० उक्क० एत्थि अंतरं। अणुक्क जह• अंतो०, उक्कस्सेण पुवकोडितिभागं देसू। एवं संजदाणं । सामाइ०-छेदो०-परिहार सत्तएणं क० उक० अणु० रणत्थि अंतरं । प्रायु मणपज्जवभंगो। एवं संजदासंजदा। प्रमाण कहा है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल अोध प्ररूपणामें जिस प्रकार घटित करके बतला आये हैं, उस प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी अपेक्षा उत्कृष्ट नरकायुका और स्त्रीवेद तथा पुरुषवेदकी अपेक्षा उत्कृष्ट देवायुका बन्ध कराके यह अन्तर काल लाना चाहिए । स्त्रीवेदी जीवकी उत्कृष्ट भवस्थिति पचपन पल्यप्रमाण और पुरुषवेदी व नपुंसकवेदीकी उत्कृष्ट भवस्थिति तेतीस सागर प्रमाण होनेसे आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर स्त्रीवेदमें साधिक पचपन पल्य तथा पुरुषवेद और नपुंसकवेदमें साधिक तेतीस सागर कहा है। अपगतवेदमें सात कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उपशमश्रेणीसे उतरते समय होता है। तथा इसके बाद वह सवेदी हो जाता है। इससे अपगतवेदमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा मरणके विना उपशान्त मोहका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त होनेसे अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है । १०७. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों में पाठों कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल मूलोधके समान है। विभङ्गज्ञानी जीवों में सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर' है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अोधके समान है। तथा आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर सामान्य नारकियोंके समान है। आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में सात कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक पल्यप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । मनः पर्ययज्ञानी जीवों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्महर्त है। आयकर्मक उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण है। इसी प्रकार संयत जीवोंमें जानना चाहिये। सामायिक संयत छेदोपस्थापना संयत और परिहारविशुद्धि संयतों में सात कर्मोके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । १. मूलप्रतौ प्रायु० जह• उक्त जह० इति पाठः। २. ध० पु. ७,पृ० १६३ । ३. तत्त्वा०, ० ४ सू० ३३ । ४.ध.पु. ७,पृ० १८०। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ उक्कस्सअंतरपरूवणा सुहुमसंप० छएणं कम्मा० उक्क० अणु० णत्थि अंतरं । १०८ चक्खुदसणी. तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं० ओघं । १०६ किएण-णील-काउ० सत्तएणं क० उक्क० जह• अंतो, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० सत्तारस-सत्तसागरो० देसू० । अणु० ओघं । आयु० उक्क पत्थि अंतरं । अणु० जह• अंतो, उक्क छम्मासं देसणं । तेउ-पम्माए सत्तएणं क० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० बे अट्ठारस सागरो० सादिरे । सेसं देवोघं । मुक्काए सत्तएणं आयुकर्मका भंग मनःपर्ययज्ञानके समान है। इसी प्रकार संयतासंयतोंके जानना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायः शुद्धिसंयतों में छह कौके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-विभङ्ग ज्ञानका उत्कृष्ट काल सातवें नरकमें उत्कृष्ट आयुवाले नारकीके कुछ कम तेतीस सागर होता है। इसीसे इसमें सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके सम्मुख हुए अविरत सम्यग्दृष्टिके होता है। यही कारण है कि इनमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । सौधर्म और ऐशान कल्पकी जघन्य स्थिति साधिक पल्यप्रमाण होती है। इसीसे इन तीन शानोंमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक पल्यप्रमाण कहा है। भवनत्रिकमें सम्यग्दृष्टिका उत्पाद नहीं होता, इसलिए इससे कम अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होता। मात्र यहाँ पूर्वकोटिके आयुवाले मनुष्यके प्रथम त्रिभागमें तेतीस सागरप्रमाण उत्कृष्ट आयुका बन्ध करावे । पुनः अपकर्षण द्वारा आयुको साधिक पल्यप्रमाण स्थापित कराके सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्पन्न करावे । अनन्तर पुनः पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न कराके प्रथम त्रिभागमें तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट अायुका बन्ध कराके यह अन्तरकाल ले आवे। इनमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल जो कुछ कम छयासठ सागरप्रमाण कहा है सो यह वेदकसम्यक्त्वके उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रखकर कहा है। यहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कराके प्रारम्भमें और अन्तमें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करानेसे यह अन्तरकाल प्राप्त होता है । शेष कथन सुगम है। १०८. चक्षुदर्शनी जीवोंमें त्रस पर्याप्तकोंके समान भंग है और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें ओघके समान है। विशेषार्थ-त्रस पर्याप्तकोंके समान चतुदर्शनी जीवोंकी कायस्थिति है, इसलिये इनमें आठ कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल त्रसपर्यातकोंके समान कहा है। शेष कथन सुगम है। १०९. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अोधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। पीत और पद्मलेश्यामें सात कर्मों में उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। शेष अन्तर सामान्य देवोंके समान है। शुक्ल Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे क० उक्क बं० जह• अंतो०, उक्क० अट्ठारस साग० सादि । अणुक्क० ओघं । आयु० देवभंगो तिषणं पि। ११० खइगस० सत्तएणं क० उक्क जह• अंतो, उक्क० तेत्तीस साग सादि। अणु० ओघ । आयु० उक्क पत्थि अंतरं । [अणुक्क पगदिअंतरं। 7 वेदग० सत्तएणं क. उक्क० अणु० पत्थि अंतरं। आयु० उक्क० जह० पलिदो० सादिरे०, उक्क० छावहिसाग० देसू० । अणु० पगदिअंतरं । उवसमस० सत्तएणं क० अोधिभंगो। सासणस० सम्मामि० अट्टएणं का सत्तएणं क. उक्क० अणु० पत्थि अंतरं । लेश्यामें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मका भंग तीनों ही लेश्याओं में सामान्य देवोंके समान है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्याका उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है। इसीसे इन लेश्याओंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है । मात्र नील और कापोत लेश्यामें यह कुछ कम उपलब्ध होता है। इन लेश्याओंका इतना बड़ा काल नरकमें ही उपलब्ध होता है और नरकमें आयुकर्मका बन्ध अधिकसे अधिक छह माह काल शेष रहनेपर होता है । इसीसे इन लेश्याओंमें आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम छह माह कहा है। पीत और पद्मलेश्याका उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। तथा शुक्ललेश्याका काल यद्यपि साधिक तेतीस सागर है.पर शकलेश्यामें सात कोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सहस्रार कल्पमें ही होता है। यही कारण है कि इन तीन लेश्याओंमें सातं कौके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल क्रमसे साधिक दो सागर,साधिक अठारह सागर और साधिक अठारह सागर कहा है। ११०. क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको अन्तर नहीं है। अनुकृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृति बन्धके अन्तरके समान है। वेदकसम्यग्यदृष्टियों में सात कमौके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक पल्यप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण है। अनुकृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिअन्तरके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियों में सात कर्माका अन्तर अवधिज्ञानीके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में क्रमसे आठ और सात कौके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-क्षायिकसम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे सात कर्मोंका अपने योग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है। कारण कि.उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध इससे कम अन्तरकाल से नहीं होता । तथा इसके साधिक तेतीस सागरके अन्तरसे भी सात कोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है । कारण कि क्षायिक सम्यग्दर्शनके होने पर यह जीव संसारमें साधिक तेतीस सागर कोलसे अधिक काल तक नहीं रहता। यतः यह जीव .ज्ञायिकसम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके प्रारम्भमें और अन्तमें सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करे और मध्यमें अनुकृष्ट स्थितिबन्ध करता रहे, तो यह अन्तरकाल उपलब्ध हो जाता है। यही कारण है कि इसके सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ annavra जहण्ण-अंतरपरूषणा १११ सणिण पंचिंदियपज्जत्तभंगो। असएिण सत्तएणं क० मूलोघं । आयु. उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह• अंतो०, उक्क० पुवकोडी सादिरे । ११२. आहार० सत्तएणं क० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अंगुलस्स असंखे । अणु० ओघं । आयु० अोघं । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । एवं उक्कस्सहिदिबंधतरं समत्तं । ११३. जहएणए पगदं । दुविधो णिद्देसो–ोघेण आदेसेण य। तत्थ अोघेण सत्तएणं कम्माणं जह• पत्थि अंतरं । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो । आयु०जह जह• खुद्दाभव० समयूणं, उक्क० बेसागरोवमसहस्साणि सादि । अज जह अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है । क्षायिकसम्यक्त्वमें देवायुके प्रकृतिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर एकपूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण कह आये हैं। वही यहां अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है। इसीसे यहां आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान कहा है शेष कथन सुगम है। १११. संशी जीवोंमें आठों कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर पञ्चद्रिय पर्याप्तकोंके समान है। असंशी जीवोंमें सात कौके स्थितिबन्धका अन्तर मूलोधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पूर्वकोटि है । विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी कायस्थिति सौ सागरपृथक्त्व है। यही संशियोंकी कायस्थिति है। इसीसे यहां संक्षियोंमें आठों कौके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान कहा है। मूलोघ प्ररूपणामें सात कर्मोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंशियोंकी मुख्यतासे कहा है। यही कारण है कि यहां सात कमौके स्थितिबन्धका अन्तरकाल मूलोघके समान घटित हो जाता है। शेष कथन सुगम है। ११२. आहारक जीवोंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थितिबंधका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-आहारकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। यहां इससे असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल लिया गया है। यही कारण है कि सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल उक्त प्रमाण कहा है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिबन्धान्तर समाप्त हुआ। ११३. अब जघन्य अन्तरकालका प्रकरण है। इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैश्रोध और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कोके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुद्रक भवप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो हजार सागर है। अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मु १, देखो ध० पु. ७,पृ. १५३ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सागरो ० सादिरे० । एवं चक्खुर्द ० - भवसि० । ११४. आदेसेण पेरइएस सत्तएणं क० जह० अ० रात्थि अंतरं । आयु० जह० णत्थि अंतरं । अज० उकस्सभंगो । एवं पढमपुढवि - देवोघं भवण० - वाणवें० । एवं चैव विदिया याव सत्तमिति । णवरि सत्तणं क० जह० जह० अंतो०, उक्क० सहिदी देणा । अजहरण ० अणुक्कस्तभंगो । हूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार चतुदर्शनी और भव्य जीवके जानना चाहिए । विशेषार्थ - श्रघसे सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है, इसलिए यहाँ सात कके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरका निषेध किया है। जो जीव उपशमश्रेणिमें सात कर्मों का एक समय के लिए प्रबन्धक होकर दूसरे समयमें मरणकर पुनः उनका बन्ध करने लगता है, उसके सात कम अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल उपलब्ध होता है और जो अन्तर्मुहूर्त के लिए प्रबन्धक होकर पुनः उनका बन्ध करता है, उसके सात कर्मोंके श्रजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है । इसीसे यहाँ श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। श्रायुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुद्रक भवग्रहण प्रमाण है । एक जीवने पूर्व भवमें जघन्य श्रायुका बन्ध किया । पुनः वही जीव दूसरे भवमें उसी समय जघन्य आयुका बन्ध करता है । इसीसे श्री कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम क्षुद्रकभवग्रहण प्रमाण कहा है। त्रस पर्याय में रहनेका उत्कृष्ट काल साधिक दो हजार सागर है। किसी जीवको इतने कालतक जघन्य श्रायुका बन्ध नहीं होता । यही कारण है कि जघन्य श्रायुके स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक दो हजार सागर कहा है । जघन्य स्थितिबन्धके सिवा जघन्य स्थितिबन्ध है । इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होता है । इसी से यहाँ श्रयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका यह अन्तर काल कहा है । आगे जहाँ श्रधके समान अन्तर काल श्रावे, उसे इसी प्रकार घटित करना चाहिए । ११४. आदेश से नारकियोंमें सात कर्मोंके जघन्य और श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य देव, भवनवासी और वानव्यन्तर देवांके जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ - नरक में सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध असंशीचर जीवके प्रथम और द्वितीय समय में सम्भव है और इसके बाद अजघन्य स्थितिबन्ध होता है । तथा जो श्रसंशीचर नहीं है, उसके सर्वदा अजघन्य स्थितिबन्ध होता है । इसीसे सामान्यसे नरकमें सात कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। श्रायुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे जघन्य आबाधा कालके रहने पर होता है । इसके बाद पुनः श्रायुकर्मका बन्ध नहीं होता । यही कारण है कि यहाँ आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका भी निषेध किया है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है, यह स्पष्ट ही है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण - तर परूवणा ७१ ११५. तिरिक्खेसु सत्तणं क० जह० जह० तो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० ओघं । आयु० जह० जह० खुद्दाभवग्गहणं समयूर्ण, उक्क पलिदोव० संखे० । अज० जह० अंतो०, उक्क० तिरिण पलिदो ० सादिरे० । पंचिंदियतिरिक्ख ०३ सत्तणं क० जह० जह० तो, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अज० श्रघं । आयु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क पुव्वकोडिपुधत्तं । अज० अणुकरसभंगो । वरि पज्जत - जोगिणी आयु० जह० णत्थि अंतरं । अज० पगदिअंतरं । पंचिदियतिरिक्खापज्जत्त० सत्तणं क० जह० जह० उक्क० अंतो० । अज० श्रघं । आयु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० अंतो० । अज० जह० अंतो० । एवं सव्वापज्जत्ताणं तसारणं थावराणं च । वरि मणुस पज्जत्त० सत्तां क० जह अज० णत्थि अंतरं । मणुस ० ३ सत्तरणं क० जह० जह० णत्थि अंतरं । आयु० पंचिंदियतिरिक्ख भंगो । जोदिसिय याव सव्वद्ध त्ति उक्कस्तभंगो | यतः असंशी जीव प्रथम नरकमें तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होता है, अतः प्रथम नरक, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवों में सामान्य नरकके समान प्ररूपणा बन जाती है । यही कारण है कि इन मार्गणाओं में सामान्य नरकके समान अन्तरकाल कहा है । द्वितीयादि पृथिवियों में जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध कभी भी सम्भव है । इसीसे इनमें जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनीअपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ११५. तिर्यञ्चों में सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर धके समान है । श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य प्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है । आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य श्रन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्त और योनिनी जीवोंमें श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्ध के अन्तरके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर ओधके समान है । आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्तकोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याकोंके सात कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । मनुष्य त्रिकमें सात कर्मों के जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । आयुकर्मके स्थितिबन्धका अन्तर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक अन्तर उत्कृष्टके समान है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबँधे ट्ठदिबंधाहियारे ११६. एइंदिए सत्तएां क० जह० जह० अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० श्रधं । श्रयुग० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० पलिदो ० असं० । अज० जह० तो०, उक्क० बावीसं वस्ससह ० सादिरे | बादरएइंदिय० सत्तएां क० जह० जह० अंतो०, उक्क० गुलस्स असंखे० । अज० श्रघं । सेसं तं चैव । बादरपज्जत्ते सत्तर क० जह० जह० तो०, उक्क० संखेज्जारिण वस्ससहस्साणि । अज० ओघं । आयु० जह० णत्थि अंतरं । अज० पगदितरं । सव्वबादरे पज्जत्त० आयु० जह० णत्थि अंतरं । अज० पगदितरं । मुहुमेदि० सत्तएरणं क० जह० जह० तो ०, उक्क • अंगुल असंखे० । अज० ओघं । यु० जह० जह० खुद्दाभव • समयू०, उक्क० पलिदो० असंखे ० । अज० जहरणुक तो । पज्जत्ते सत्तरणं क० अपज्जतभंगो | आयु० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० तो ० । ७२ विशेषार्थ - यद्यपि तिर्यञ्च सामान्यकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति अनन्त कालप्रमाण है, पर यह सब तिर्यञ्चकी है। इसीसे इनमें जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उनकी काय स्थितिप्रमाण न कहकर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है; क्योंकि जो तिर्यञ्च सूक्ष्म एकेन्द्रिय होकर परिभ्रमण करते हैं, उनकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण होती है और इनमें सामान्य तिर्यञ्चों की अपेक्षा सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है । तिर्यञ्चों में एकेन्द्रियों की मुख्यतासे जघन्य आयुका बन्ध अधिक से अधिक पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण काल तक नहीं होता । इसीसे इनमें प्रयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें काल प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ११६. एकेन्द्रियों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर श्रधके समान है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम तुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है । बादर एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर शोधके समान है। शेष अन्तर वही है। बादर पर्याप्तके सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर के समान है । श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है। सब बादर पर्याप्त जीवों में आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर श्रोघ के समान है । श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समयकम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट श्रन्तर पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यातकोंमें सात कर्मोंके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अपर्याप्तकोंके समान है । आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णांतरपरूवणा ७३ ११७. बेइंदि० -तेईदि ० चदुरिंदि० अहरणं कम्मारणं उकससभंगो । आयु० जह० जह० ओघं । उक्कस्सं सगट्टिदी | अज० अणुक्कस्तभंगो । एवं पज्जत्ता० । गवरि आयु० जह० णत्थि अंतरं । ११८. पंचिंदिय -तस० २ सत्तरगं कम्माणं मूलोघं । श्रयु० जह० जह० खुद्दाभव० समयूर्ण, उक्क० सगहिदी । पज्जत्ते णत्थि अंतरं । अ० श्रधं । 1 विशेषार्थ — सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी बातको ध्यान में रखकर एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके उत्कृष्ट अन्तरकालका खुलासा सामान्य तिर्यञ्चों की प्ररूपणाके समय कर ही आये हैं। एकेन्द्रिय जीवकी उत्कृष्ट भवस्थिति बाईस हजार वर्ष प्रमाण है । इसीसे इनके श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्षप्रमाण कहा है। बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति ङ्गुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीसे इनमें आठों कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । यही कारण है कि इनके सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण कहा है। इनके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध होने पर मर कर ये बादर पर्याप्त नहीं होते । इसीसे इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है; किन्तु यहाँ और सर्वत्र इतना विशेष समझना चाहिए कि जहाँ जिसकी कार्यस्थिति आदिप्रमाण अन्तरकाल कहा है वहाँ उस स्थितिके प्रारम्भ और अन्त में विवक्षित स्थितिका बन्ध कराकर इस प्रकार अन्तरकाल ले आवे । ११७. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में आठों कर्मोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्ट के समान है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल श्रोधके समान है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार इनके पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ --- द्वीन्द्रिय आदि पर्याप्तकोंके जघन्य श्रायु क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण बँधती है, जिससे वे भवान्तर में पर्याप्त नहीं रहते। इससे इनमें जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता । यही कारण है कि इनमें श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । शेष कथन स्पष्ट है । ११८. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, अस और जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रधके स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम क्षुल्लक अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में श्रयुकर्मके जघन्यं स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तथा सबके अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओधके समान है । सपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंके समान है । आयुकर्मके जघन्य भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट विशेषार्थ – पञ्चेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर है, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ सागर पृथक्त्व है, त्रस कायिकोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है और त्रसकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट कार्यस्थिति दो हजार सागर है । इसे ध्यानमें रखकर इन चारोंमें श्रायुकर्मके जघन्य १० Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ११६. पुढवि आउ-तेउ-वाउ-वणप्फदि-पत्तेग० सत्तएणं क० उक्कस्सभंगो। श्रायु० जह• जह• खुद्दाभव० समयूणं, उक्क० पलिदो० असंखे० । पज्जत्तगे णत्थि अंतरं । अजह पगदिअंतरं। णिगोदेसु सत्तएणं कम्माणं एइंदियभंगो । आयुग० सुहुमेइंदियभंगो । बादरणिगोद० सत्तएणं कम्माणं जह• जह• अंतो, उक्क० कम्महिदी । अज० ओघं । आयु० जह० [जह०] खुद्दाभव० समयू०, उक्क० पलिदो० असंखे० । अज० जहएणु० अंतो० । बादरणिगोदपज्ज. बादरपज्जत्तभंगो । सुहमणिगोद सत्तएणं क० जह• जह• अंतो०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । आयु० जह• जह• खुद्दाभव समयू०, उक्क पलिदो० असंखे० । अज० अणुक्कस्सभंगो । सुहमणिगोदपज्जत्ता० मुहुमएइंदियपज्जत्तभंगो। १२० पंचमण-पंचवचि० जह० अज. रणत्थि अंतरं। एवं कोधादि०४ । वरि लोभे मोहणी. ओघं । स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए । इनके पर्याप्तकोंमें आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालके निषेधका वही कारण है जो द्वीन्द्रिय आदि पर्याप्तकों में अन्तरकालका कथन करते समय बतला आये हैं। शेष कथन सुगम है। ११९. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और वनस्पति प्रत्येकशरीर जीवों में सात कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम क्षुल्लक भव ग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इनके पर्याप्तकोंमें आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। निगोद जीवों में सात कर्मोके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल एकेन्द्रियोंके समान है। तथा आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। बादर निगोद जीवोंमें सात कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कर्मस्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। बादर निगोद पर्याप्त जीवों में आठों कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। सूक्ष्म निगोद जीवोंमें सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमंहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गलके असंख्या प्रमाण है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कभ क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है। सूक्ष्मनिगोद पर्याप्तकोंमें पाठों कर्मोके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। १२०. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें आठ कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि लोभकषायमें मोहनीयका भङ्ग ओघके समान है। विशेषार्थ-लोभकषाय दसवें गुणस्थानतक होता है, इसलिए इसमें श्रोधके समान Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरणअंतरपरूवा १२१. कायजोगि० सत्तएणं क० ओघं। ओरालियका. सत्तएणं क. मणजोगिभंगो । आयु० उक्कस्सभंगो। ओरालियमिस्स० सत्तएणं क. उक्कस्सभंगो । आयु. मणुसअपज्जत्तभंगो । वेउन्वियका० सत्तएणं क. जह• णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयु० जह• अजह• पत्थि अंतरं। एवं आहारकायजो० । वेव्वियमि० सत्तएणं कल आहारमि० अट्ठएणं क. कम्मइ०-अणाहार० सत्तएणं का जह० अजह० णत्थि अंतरं । १२२. इत्थि -पुरिस-णवुस० सत्तएणं क. जह• अजह० णत्थि अतरं । आयु० जह० रणत्थि अंतरं । अज० अणुक्कस्सभंगो । णवरि गर्बुस० आयु० जह० जह० खुद्दाभव० समयूणं, उक्कस्सं सागरोवमसदपुधत्तं । अवगद० सत्तएणं० क० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । मोहनीय कर्मके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त घटित हो जाता है। शेष कथन सुगम है।। १२१. काययोगी जीवों में सात कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर श्रोधके समान है। औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मनोयोगियों के समान है। तथा आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में सात कौंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। तथा आयुकर्मका भङ्ग मनुष्य-अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिक काययोगी जीवों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार आहारककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में सात कर्मोंके और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में आठ कर्मोके तथा कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कमौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अम्तरकाल नहीं है। १२२. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों में सात कौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदमें आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम नुल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। अपगतवेदमें सात कर्मोके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-तीनों वेदोंमें सात कौंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनमें सात कौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। नपुंसकवेदमें आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण बतलानेका कारण यह है कि इतने कालतक यह जीव संशी पञ्चेन्द्रिय पर्यायमें रह सकता है जिससे इसके योग्य आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध न हो। इसके बाद यह एकेन्द्रिय पर्यायमें जाकर यथायोग्य काल आनेपर जघन्य श्रायुका बन्ध करता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १. मलप्रतौ श्रोघं एइंदियभंगो। ओरालियका इति पाठः। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे १२३. मदि-सुदअण्णा. सत्तएणं क० तिरिक्खोघं । आयु० मूलोघं । एवं असंजद०-अब्भवसि०-मिच्छादिहि त्ति । विभंगे णिरयोघं । आभि०-सुद-बोधि० सत्तएणं क० जह० णत्थि अतरं । अज० जह० एग०, उक्क. अतो. । आयु० जह. जह पलिदो० सादिरे०, उक्क० छावहिसागरो० सादि० । अज० अणुकस्सभंगो । एवं अोधिदं०-सम्मादिहि । मणपज्जव०-संजदा-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसंप०संजदासजदा० उक्कस्सभंगो । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो । १२४. छगणं लेस्साणं सत्तएणं क. जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयु० उक्कस्सभंगो । णवरि तेउ-पम्माणं यदि दंसणमोहखवगस्स दिज्जदि सत्तएणं क. जह० पत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो। १२५. खइग. सत्तएणं क० अोघं । श्रायु० जहणत्थि अंतरं। अज पगदिअतरं । वेदगस०सत्तएणं क० जह० णत्थि अंतरं । अ० जह० उक्क० अंतो। १२३. मत्यज्ञानी और श्रुताचानी जीवोंमें सात कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तथा आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मूलोधके समान है। इसी प्रकार असंयत, अभव्य और मिथ्याः दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । विभङ्गशानमें आठों कर्मोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सामान्य नारकियोंके समान है। आभिनिबोधिक झानी, श्रुतशानी और अवधिज्ञानी जीवों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर प्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धि संयत, सूक्ष्मसाम्पराय संयत और संयतासंयत जीवों में इनके उत्कृष्टके समान अन्तरकाल है। चक्षुदर्शनी जीवोंमें त्रसपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। १२४. छह लेश्यावाले जीवों में सात कौंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि पीत और पमलेश्यामें यदि दर्शन मोहनीयकी क्षपणा होती है,तो इनमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल तो नहीं ही है,पर अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-पहले जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश कर आये हैं। वहाँ पीत और पालेश्यामें जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी दो प्रकारका जीव बतलाया है-एक प्रमत्तसंयत जीव और दूसरा दर्शन मोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव । इसी बातको भ्यानमें रखकर यहाँ सात कमौके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल दो प्रकारसे कहा है। शेष कथन सुगम है। १२५. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में सात कमौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अोधके समान है। श्रायुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है। वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धको अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ فف उक्कस्सबंधसरिणयासंपरूवणा आयु० उकस्सभंगो । अज० जह० अंतो, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । उवसमस०सासण-सम्मामि० उक्कसभंगो । सागिण पंचिंदियपज्जत्तभंगो। असएिण. सत्तएणं क० तिरिक्खोघं । आयु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० पलिदो० असंखे । अज० जह० अतो०, उक्क० पुवकोडी सादिरे० । आहाराणुवादेण आहारा० अहएणं कम्माणं ओघं । एवं बंधतरं समत्तं । बंधसरिणयासपरूवणा १२६. बंधसएिणयासं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावरणीयस्स उक्स्सहिदिं बंधतो छएणं कम्माणं णियमा बंधगो । तं तु उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुकस्सा समयणमादि कादृण पलिदोवंमस्स असंखेज्जदिभागूणं बंधदि । आयुगस्स सिया बंधगो सिया अबंधगो, णियमा उक्कस्सा। आबाधा पुण भयणिज्जा । एवं छएणं कम्माणं । आयुगस्स उकस्सहिदिं बंधतो सत्तएणं कम्माणं णियमा बंधगा । तं तु उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा, उक्कस्सादो अणुक्कस्सा तिहाणपदिदं बंधदि-असंखेजघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सभी कर्मीका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। संज्ञी जीवोंमें आठों कर्मोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। असंशी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य तिर्योंके समान है। तथा आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय कम ल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण है। आहार मार्गणाके अनुवादसे आहारक जीवों में आठों कौके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। इस प्रकार बन्धान्तर समाप्त हुआ। बन्धसन्निकर्षप्ररूपणा १२६. बन्ध सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला छह कमौंका नियमसे बन्धक होता है, परन्तु उसे उत्कृष्ट बांधता है या अनुत्कृष्ट बाँधता है। यदि अनुत्कृष्ट बांधता है,तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समयसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक बांधता है । यह जीव आयु कर्मका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक नहीं होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट बांधता है, परन्तु श्राबाधा भजनीय होती है। इसी प्रकार छह कौके विषयमें जानना चाहिए। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाला जीव सात कर्मीका नियमसे बन्धक होता है । परन्तु उसे उत्कृष्ट बांधता है अथवा अनुत्कृष्ट बांधता है। यदि अनुत्कृष्ट बांधता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा वह तीन स्थान पतित बांधता है। असंख्यातवां Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जदिभागहीणं वा संखेजदिभागहीणं वा संखेजगुणहीणं वा । एवं अोघभंगो तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्व०३-मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगिओरालियका इत्थि०-पुरिस-णवूस-कोधादि०४-मदि-सुद-विभंगणा०-असंजद०चक्खुदं -[ अचक्खुदं०- ] किएणले --भवसि --अब्भवसि०-मिच्छादि०-सएिणआहारग त्ति । १२७. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं ओघं । णवरि आयु० ण बंधदि । आयु० उक्क बंधंतो सत्तएणं क. णियमा बंधगो। णियमा अणु० भाग हीन बांधता है अथवा संख्यातवां भाग हीन बांधता है अथवा संख्यात गुणहीन बांधता है । इस प्रकार ओघके समान तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रिय द्विक, त्रसद्विक, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यशानी, श्रुताशानी, विभङ्गशानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संक्षी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-एक पदार्थके साथ दूसरे पदार्थको मिलाकर विचार करना सन्निकर्ष है। यहाँ बन्धका प्रकरण है और सामान्यसे आठों कौके स्थितिबन्धका विचार चल रहा है, इसलिए इस सन्निकर्ष अनुयोगद्वारमें यह बतलाया गया है कि किस-किस कर्मका कितना स्थितिबन्ध होनेपर अन्य किन कर्मोंका कितना स्थितिबन्ध होता है। पहिले श्रोधसे विचार किया गया है। सब कर्म आठ हैं, उनमेंसे ज्ञानावरणीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर आयुके सिवा अन्य शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध नियमसे होता है। कारण कि ज्ञानावरणीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध मिथ्यात्वमें होनेसे वहाँ दर्शनावरणादि शेष छह कौका भी बन्ध होता है । यह तो मानी हुई बात है कि एक कर्मके स्थितिबन्धके योग्य उत्कृष्ट परिणाम होने पर अन्य कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम हो अथवा न भी हों, इसलिए जब शानावरणीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है,तब अन्य छह कर्मोंका स्थितिबन्ध उत्कृष्ट भी होता है और अनत्क्रष्ट भी होता है। यही बात दर्शनावरण आदिकी अपेक्षासे भी जान लेनी चाहिए। यह बात सुनिश्चित है कि आयुकर्मका बन्ध त्रिभागके पहिले नहीं होता, त्रिभागमें भी यदि आयुबन्धके योग्य परिणाम होते हैं तो ही होता है अन्यथा नहीं, इसलिए जो जीव ज्ञानावरणकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है,वह आयुकर्मका स्थितिबन्ध करता भी है और नहीं भी करता है। यदि करता है तो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही करता है। अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है । अब रहा आयुकर्म, सो आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला जीव सात कर्मीका नियमसे बन्धक होता है,यह तो सुनिस्थित है। केवल देखना यह है कि शेष कर्मोंकी स्थिति कितनी बँधती है सो यह बात उन-उन कर्मों के बन्धके योग्य परिणामों पर निर्भर है,इसलिए यहाँ यह बतलाया है कि आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला शेष सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति भी बाँधता है अथवा अनुत्कृष्ट स्थिति भी बाँधता है। यहाँ कुछ अन्य मार्गणाएँ गिनाई हैं, जिनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है। यहाँ इन मार्गणाओंके संकलनमें इस बातका ध्यान रक्खा गया है कि जिन मार्गणाओं में आठोंकर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है,वे मार्गणायें ही यहाँ ली गई हैं। १२७. आदेशसे नरक गतिमें नारकियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। आयुकर्मका Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सबंधसरिणयासपरूवणा संखेज्जगुणहीणं बंधदि । एवं सव्वणिरय - पंचिदियतिरिक्खापज्ज०-मरणुस पज्ज०सव्वदेव-पंचिंदिय-तस अपज्ज० - ओरालियमि० -- वेडव्वियका० आहारका० आहारमि०आभि० - सुद० - प्रधि०-मणपज्ज० - संजदा -सामाइ० - छेदो ० - परिहार० - संजदा' संजदअधिदं०-पील०- काउ० तेउ०- पम्म० सुक्कलेस्सा-सम्मादिट्ठि - खइगस०-वेदगस०-सास० । उवसम० सत्तएां क० । १२८. एइंदिए सत्तणं क० ओघं । आयुगं ए बंधुदि । आयुग० उक्क० बंधतो सत्तणं क० णियमा ऋणु । उक्क० अ० असंखेज्जभागहीणं बंधदि । एवं सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं णिगोदाणं च । गवरि विगलिंदिएस आयु० उक्क० बंधतो सत्तणं क ० संखेज्जभागहीणं बंधदि । ७९ १२६. वेउव्वियमि०-कम्मइ० -सम्मामि० - अरणाहार० सत्तणं० क० मूलोघं उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव सात कर्मोंका नियमसे बन्धक होता है । परन्तु नियमसे संख्यातगुणी हीन अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है । इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, पञ्चेद्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्यात, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिक काययोगी, आहारक काययोगी, श्राहारकमिश्र काययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृषि, और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिए। तथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके सात कर्मों का इसी प्रकार सन्निकर्ष है । विशेषार्थ - एक उपशम सम्यग्दृष्टि मार्गणाको छोड़कर यहाँ कही गई शेष सब मार्गणाओं में सात या आठ कर्मोका बन्ध सम्भव है । किन्तु इन मार्गणाओं में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंके होने पर आयुकर्मका बन्ध नहीं होता । और यह बात उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश करनेवाले अनुयोगद्वार से भलीभांति जानी जा सकती है । १२८. एकेन्द्रिय जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष श्रोघके समान है । इतनी विशेषता है कि यह आयुकर्मका बन्ध नहीं करता । आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव सात कर्मोंका नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है । तथापि उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातवें भागहीन करता है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पाँच स्थावरकायिक और निगोद जीवों के जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि विकलेन्द्रियों में आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव सात कमकी स्थिति अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा संख्यातवें भागहीन बाँधता है । 1 विशेषार्थ - एकेन्द्रियों और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें सात कर्मोमेंसे प्रत्येक के स्थितिबन्धके कुल भेद पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं और विकलत्रयोंमें पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसलिए एकेन्द्रियों और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धिके समान असंख्यात भागहानि ही सम्भव है तथा विकलत्रयों में दो वृद्धियोंके समान दो हानियाँ भी सम्भव हैं । यही कारण है कि यहाँ उक्त जीवोंमें इस बातको ध्यान में रखकर सन्निकर्ष का निर्देश किया है। १२९. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे दिदिबंधाहियारे आयु. वज्ज । अवगद० णाणावर० उक्क० बंधतो छण्णं कम्माणं णियमा बंधगो। णियमा उक्कस्सा । एवं छएणं कम्माणं । एवं मुहुमसंप० छएणं क० । १३०. असएिण. सत्तएणं कम्माणं ओघं । आयु० उक्क० सत्तएणं कम्माणं णियमा बंधगो। तं तु उक्क० अणु०१ विट्ठाणपदिदं बंधदि-असंखेज्जभागहीणं संखेजभागहीणं वा । एवमुक्कस्सो वंधसएिणयासो समत्तो। १३१. जहएणए पगदं। दुविधो सिद्दसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण णाणावरणीयस्स जहरणं हिदि बंधतो पंचएणं कम्माणं णियमा बंधदि । णियमा जहएण० । दोरणं पगदीणं अबंधगों। मोह० जहएणहिदिबंधगो जीवों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष मूलोघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओंमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। अपगतवेदमें शोनावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव छह कौंका नियमसे बन्धक होता है । तथा नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शेष छह कौके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयतके छह कर्मीका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ जितनी मार्गणाएँ ग्रहण की हैं, उन सबमें अायुकर्मका बन्ध नहीं होता; यह स्पष्ट है । अपगतवेद और सूक्ष्मसाम्परायमें एक समयका परिणाम एक-सी विशुद्धिको लिये हुए होता है, इसलिए एक कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर सबका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । यही कारण है कि यहाँ उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके सन्निकर्षका विधान नहीं किया। तथा मोहनीयका बन्ध नौवें गुणस्थान तक ही होता है,इसलिए सूक्ष्मसाम्परायमें मोहनीयके बिना छह कर्मका सन्निकर्ष कहा है। १३०. असंशी जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष अोधके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला सात कोका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु उसे अनुत्कृष्ट बाँधता है जो उत्कृष्टकी अपेक्षा दो स्थानपतित बाँधता है। या तो असंख्यातवाँ भागहीन बाँधता है या संख्यातवाँ भागहीन बाँधता है। विशेषार्थ-असंशियों में एकेन्द्रियसे लेकर असंशी पञ्चेन्द्रिय तक जीव लिये गए हैं। जो द्वीन्द्रियादिक जीव हैं वे श्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते समय शेष कौंका अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं और जो एकेन्द्रिय जीव हैं वे आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते समय अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे असंख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। इसीसे असंशी जीवोंमें उक्त प्रकारसे सन्निकर्ष कहा है। इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धसन्निकर्ष समाप्त हुआ। १३१. अब जघन्य सन्निकर्षका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैश्रोध और प्रादेश। उनमेंसे श्रोधकी अपेक्षा ज्ञानावरणको जघन्य स्थितिका बन्ध करने वाला पाँच कर्मों का नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है और दो प्रकृतियोंका प्रबन्धक होता है। मोहनीयकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला १. मूलप्रतौ अणु० बंधदि विट्ठाण-इति पाठः । २. मूलप्रतौ श्रबंधगो एवं पंचिंदि० जहएणुक्क० मोह० इति पाठः। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरणबंधसरिणयासपरूवणा छएणं क० णियमा बं० । णियमा अज० । जह० अज० संखेजगुणब्भहियं बंधदि । आयुगं ण बंधदि । आयु० जह• हिदि० बंधंतो सत्तएणं कम्माणं णियमा बंधदि । णियमा अजः । जह० अज असंखेजगुणब्भहियं बंधदि । एवं अोघभंगोमणुस०३पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका -इत्थिवे-पुरिसवेणबुस-अवगदवे-कोधादि०४-आभि०-सुद-बोधि०-मणपज्जव०-संजदा-चक्खुदं०अचक्खुदं-अोधिदं०-सुक्कले०-भवसि०-सम्मादि०-खइगस०-उवसम०-सरिण-आहारग त्ति । णवरि इत्थिवे. पाणाव. जह. छगणं कम्माणं णियमा जहएणा। आयुगं ण बंधदि । एवं छण्णं कम्माणं । एवं पुरिस-गवुस-कोध-माण-मायाकसायाणं । १३२. आदेसेण णिरएसु णाणावरणीयं जह• हिदी बं० छण्णं क० जीव छह कर्मोंका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। जो अजघन्य स्थिति जघन्य स्थितिकी अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक बाँधता है । यह आयुकर्मको नहीं बाँधता। आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कर्मोका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। जो जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य स्थिति असंख्यातगुणी अधिक बाँधता है। इस प्रकार अोधके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, प्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, अपगतवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, आभिनिबोधिकशानी, श्रतवानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संशी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदमें शानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला छह कौकी नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। किन्तु यह आयुकर्मको नहीं बाँधता। इसी प्रकार छह कर्मोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोधकषाय, मानकषाय और मायाकषायवाले जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें शानावरणादि छह कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है और मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरणमें होता है, किन्तु तब शेष छह कर्मोंका अजघन्य स्थितिबन्ध होता है। तथा आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मिथ्यात्व गुण स्थानमें होता है। इसी बीजपदको ध्यानमें रखकर यहां ओघसे सन्निकर्ष कहा है। यहां अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं, उनमेंसे कुछ को छोड़कर शेष सब मार्गणाओंमें यथासम्भव यह ओघप्ररूणा बन जाती है। किन्तु जिन मार्गणाओंमें कुछ विशेषता है, उसे जानकर उस मार्गणामें उतनी विशेषता कहनी चाहिए । उदाहरणार्थ, उपशमसम्यग्दृष्टि मार्गणामें उपशम श्रेणिकी अपेक्षा शानावरण आदिका स्थितिसन्निकर्ष कहना चाहिए और इसमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता;इस लिए इसकी अपेक्षासे सन्निकर्षका कथन नहीं करना चाहिए। स्त्रीवेद आदि मार्गणाओं में जो विशेषता है, वह अलगसे कही ही है। १३२. आदेशसे नारकियों में शानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव छह ११ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे णियमा० । तं तु जहण्णा' वा०२ समउत्तरमादिं कादण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागभहियं बंधदि । आयु० अबंधगा । एवं छण्णं कम्माणं । आयु० जह• हिदि० बं० सत्तणं क.' णियमा० ज० संखेज्जगुणब्भहियं बंधदि। एवं सव्वणिरयमणुसअपज्जत्त-सव्वदेव-वेउन्वियकायजोगि-अाहारका-आहारमि०-विभंग-परिहार०संजदासंजद-तेउ०पम्म०-वेदग०-सासण त्ति । १३३. तिरिक्खेसु सत्तएणं क. णिरयभंगो। आयु० जह• हिदि०० सत्तएणं क. णियमा अज' तिहाणपदिदं-असंखेज्जभागब्भहियं वा [ संखेज्जभागभहियं वा] संखेज्जगुणभहियं वा बंधदि । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०४ । णवरि जह० हिदि. वं० सत्तएणं क. णियमा० अज० विहाणपदिदं—संखेजदिभागभहियं वा संखेज कर्मोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु उनकी जघन्य स्थितिका बन्धक होता है अथवा अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है,तो एक समयसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक स्थितिका बन्धक होता है। यह जीव आयुकर्मका प्रबन्धक होता है। इसी प्रकार छह कौंकी अपेक्षा कथन करना चाहिए। आयुकर्मको जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कौकी नियमसे अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है । उसका बन्धक होता हुआ भी जघन्यकी अपेक्षा नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार सब नारकी, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, वैक्रियिककाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मालेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-अन्य कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध होते समय आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध नहीं होता और आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध होते समय अन्य कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध नहीं होता, यह सामान्य नियम है जो ओघ और आदेश दोनों प्रकारसे घटित होता है। इसलिए आयुकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके साथ अन्य कर्मोके घन्य स्थितिबन्धका सन्निकर्ष घटित नहीं होता:यह स्पष्ट ही है। साथ ही श्रेणिके सिवा अन्यत्र शेष सात कौमेंसे किसी एककी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्य कर्मकी अजघन्य स्थितिका ही बन्ध करता है। यह भी नियम है। इसी सिद्धान्तको ध्यानमें रखकर यहाँ उक्त प्रकारसे सन्निकर्ष कहा है। १३३. तिर्यञ्चों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका सन्निकर्ष नारकियोंके समान है। आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कर्मको नियमसे तीन स्थानपतित अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। जो या तो असंख्यात वाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है या संख्यातवाँभाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है अथवा संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पञ्चशेन्द्रिय तिर्यञ्च चतुष्कके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सात कर्मको नियमसे दो स्थानपतित अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। वह १. जहण्णा वा ४ सम-इति पाठः । २.मूलप्रतौ क० णियमा० णियमा० अज० इति पाठः । ३. अज बिहाणपदिदं इति पाठः । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ रणाणाजीवेहि उकस्सभंगविचयपरूवणा गुणब्भहियं वा । एवं पंचिंदिय-तसअपज्जत्ता । तिरिक्खोघभंगो ओरालियमि०मदि-सुद-असंजद-किरण--णील-काउ०-अब्भवसि-मिच्छा-असणिण त्ति । एवं चेव एइंदिय-वेइंदिया-तेइंदि०-चदुरिंदिय०-पंचका-णिगोदाणं च । वरि एइंदिय-थावरकाएसु आयु० जह० ट्ठिदिबं० सेसं असं०भागब्भहियं बंधदि । विगलिंदि० संखेज्जदिभागन्भहियं बंधदि । १३४. वेउव्वियमि०-कम्मइ०-सम्मामि-अण्णाहार. आयु० वज णिरयभंगो । अवगदवे० सत्तएणं क. सुहमसंप० छएणं कम्माणं अोघं । एवं जहएणसएिणयासो समत्तो। एवं बंधसएिणयासो समत्तो । णाणाजीवेहि भंगविचयपरूवणा १३५. णाणाजीवेहि भंगविचयं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । तत्थ इमं अट्ठपदं-ये पाणावरणीयस्स उक्कस्सियाए हिदीए बंधगा जीवा ते अणुक्कस्सियाए अबंधगा । ये अणुक्कस्सियाए हिदीए बंधगा जीवा ते उक्कस्सिया तो संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है अथवा संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार पद्धन्द्रिय अपर्याप्त और प्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंही जीवोंके सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जानना चाहिए । तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय और निगोद जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय और स्थावरकायिक जीवों में आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव शेष कर्मोकी असंख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तथा विकलेन्द्रियोंमें संख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है। विशेषार्थ-तिर्यश्चोंमें एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यश्च पञ्चन्द्रिय जीवोंका समावेश होता है। इसीसे यहाँ आयुकी जघन्य स्थितिके बन्धके समय शेष कर्मोंका जो बन्ध होता है,वह जघन्यसे अजघन्य तीन स्थानपतित होता है। ऐसा कहा है। एकेन्द्रियों और विकलप्रयके कथनका स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है। . १३४. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक .जीवोंमें आयुकर्मके सिवा शेष सन्निकर्ष नारकियोंके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोका तथा सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंमें छह कर्मोंका सन्निकर्ष श्रोधके समान है। विशेषार्थ-यहाँ कही गई मार्गणाओंमें आयु कर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ आयुकर्मको छोड़कर ऐसा कहा है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार जघन्य सन्निकर्ष समाप्त हुआ। इस प्रकार बन्धसन्निकर्ष समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविषयप्ररूपणा १३५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसमें यह अर्थप्रद है जो ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव होते हैं, वे उसकी अनुत्कृष्ट स्थितिके प्रबन्धक होते हैं। जो ज्ञानावरणकी अनुत्कृष्ट Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ महाबधे ट्ठिदिबंधाहियारे या हिदी बंधा । एवं पगदिं बंधति तेसु पगदं, अबंधगेसु' अव्ववहारो । एदेण पण दुविधो दिसो - ओण आदेसेण य तत्थ घेणं कम्मारणं उक्कस्सियाए द्विदीए सिया सन्वे अबंधगा, सिया अबंधगा य बंधगो य, सिया गाय बंधा य । एवं अणुक्कस्से वि । एवरि पडिलोमं भारिणदव्वं । एवमोघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि ओरालियकाय ० -ओरालियमि० - कम्मइ० - एसय० - कोधादि०४-मदि० -सुद० - असंजद ० चक्खु०-किरण० -पीलले ० - काउ०- भवसि ० - अब्भवसि० - मिच्छादि० - सरिण - आहार० - अरणाहारग त्ति । गवरि कम्मइ० - अरणाहार० सत्तri कम्माणं भाणिदव्वं । स्थितिके बन्धक जीव होते हैं, वे उसकी उत्कृष्ट स्थितिके श्रबन्धक होते हैं । इस प्रकार जो जीव प्रकृतिका बन्ध करते हैं, उनका यहां प्रकरण है । अबन्धकोंका प्रकरण नहीं है । इस पदकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमेंसे श्रोधकी अपेक्षा आठ कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके कदाचित् सब जीव प्रबन्धक हैं, कदाचित् बहुत जीव अबन्धक हैं और एक जीव बन्धक है तथा कदाचित् बहुत जीव प्रबन्धक हैं और बहुत जीव बन्धक हैं । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धमें भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वहां इससे प्रतिलोम रूपसे कथन करना चाहिए। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, श्रदारिकमिश्रकाय योगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नोललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, श्रभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्गविचय कहना चाहिए । विशेषार्थ - भङ्गविचय शब्दका अर्थ है-भेदोंका वर्गीकरण करना। यहां उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंके प्रबन्धकोंके साथ किस प्रकार कितने भङ्ग होते हैं, यह बतलाया गया है । आठों कर्मोंकी श्रोध उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कदाचित् एक भी नहीं होता, कदाचित् एक होता है और कदाचित् नाना होते हैं । तथा इसकी अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीव कदाचित् सब होते हैं. कदाचित् एक कम सब होते हैं और कदाचित् नाना होते हैं । इसलिए प्रबन्धकोंको मिलाकर इनके भङ्ग लानेपर इस प्रकार होते हैंकदाचित् ज्ञानावरणको उत्कृष्ट स्थितिके सब अबन्धक होते हैं, कदाचित् बहुत जोव प्रबन्धक होते हैं और एक जीव बन्धक होता है तथा कदाचित् बहुत जीव प्रबन्धक होते हैं और बहुत जीव बन्धक होते हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव बन्धक होते हैं । कदाचित् बहुत जीव बन्धक होते हैं और एक जीव प्रबन्धक होता है तथा कदाचित् बहुत जीव बन्धक होते हैं और बहुत जीव प्रबन्धक होते हैं। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें यह ओघ प्ररूपणा श्रविकल घटित हो जाती है; इसलिए उनके कथनको श्रधके समान कहा है । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध जहां जो सम्भव हो, वह लेना चाहिए। मात्र कार्मणकाययोग और अनाहारक इन दो मार्गणाओं में श्रायुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें सात कर्मोकी अपेक्षा भङ्गविचय कहना चाहिए । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणाजीवेहि उक्कस्सभंगविचयपरूवणा १३६. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं ओघं । आयु० उक्क० अणु० अभंगो । उक्कस्सं अबंधपुव्वं, अणुक्कस्सं बंधपुव्वं । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०-सव्वमणुस्स०-सव्वदेवा०-बेइंदि०-तेइंदि०-चदुरिंदि० तेसिं पज्जत्तापज्जत्ता. पंचिंदिय-तस० तेसिं पज्जत्तापज्जत्ता-बादरपुढविकाइय-आउ०-तेउ-वाउ०बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-पज्जत्ता० पंचमण-पंचवचि-बेउव्वियका-इत्थि-पुरिस०विभंग-आभि०-सुद०-अोधि०-मणपज्जव-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजदचक्खुदं०-अोधिदं०-तेउले-पम्मले० सुक्कले०-सम्मादि-खइग-वेदग-सएिण त्ति । गवरि मणुसअपज्जत्त. अहएणं कम्माणं विवरीदा अह भंगा कादव्वा । एवं आहार-आहारमि०-सासण त्ति । एवं चेव वेउवियमिस्स०-अवगद-मुहुमसं. उवसम-सम्मामि० अप्पप्पपगदी । १३७. एइंदिए० सत्तएणं क. उक्क अणुक्क. अत्थि बंधगा य अबंधगा य । आयु० अोघं । एवं बादर-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त० बादर-पुढविकाइय-अाउ०-तेउ०वाउ-बादरवणप्फदिपत्तेय अपज्जत्त० सव्वसुहुमपुढवि०-आउ-तेउ०-वाउ०-सब्ब १३६. आदेशसे नारकियोंमें सात कर्मोंका भङ्गविचय श्रोधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके आठ भङ्ग होते हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्धके भङ्ग प्रबन्धपूर्वक कहने चाहिए और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके भङ्ग बन्धपूर्वक कहने चाहिए । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सब देव, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा इन तीनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, पञ्चन्द्रिय और इनके पर्याप्त-अपर्याप्त, त्रस और इनके पर्याप्तअपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त. पाँचों मनोयोगी. पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत लेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि और संक्षी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें आठ कमौके विपरीत क्रमसे पाठ भङ्ग करने चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके पाठ भङ्ग कहने चाहिए । तथा इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपने-अपने कर्मोंके अनुसार भङ्ग कहने चाहिए। १३७. एकेन्द्रियों में सात कौंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके अनेक जीव बन्धक हैं और अनेक जीव अबन्धक हैं। आयुकर्मका भङ्गविचय ओघके समान है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अप प्ति, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सब सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सब सूक्ष्म अलकायिक, सब सूक्ष्म अग्निकायिक, सब सूक्ष्म वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, और सब निगोद Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ महाबंधे हिदिसंघाहियारे वणफदि-णिगोदाणं च । पुढवि०-प्राउ-तेउ०-वाउ० तेसिं बादर. बादरवणप्फदिपत्तेय० अहएणं कम्माणं मूलोघं । एवं उक्कस्सं समत्तं । १३८. जहएणगे पगदं। तं चेव अहपदं कादव्वं । तस्स दुविधो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सभंगो। आयु० जह अजह• अत्थि बंधगा य अबंधगा य। एवं अोघभंगो पुढवि०-आउ०-तेउवाउ० तेसिं चेव बादर० वणप्फदिपत्तेय-कायजोगि-अोरलियका०-णवुस-कोधादि०४अचक्खु०-भवसि०-आहारग त्ति । जीवोंके जानना चाहिए। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इन चारोंके बादर तथा बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर जीवोंके आठों कर्मोंका भङ्गविचय मूलोधके समान है। विशेषार्थ-ओघप्ररूपणामें उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव प्रबन्धक होते हैं, कदाचित् नाना जीव अबन्धक होते हैं और एक जीव बन्धक होता है तथा कदा. चित् नाना जीव अबन्धक होते हैं और नाना जीव बन्धक होते हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव बन्धक होते हैं, कदाचित् नाना जीव बन्धक होते हैं और एक जीव अबन्धक होता है और कदाचित् नाना जीव बन्धक होते हैं और नाना जीव अबन्धक होते हैं;यह बतला आये हैं। प्रकृतमें आयुकर्मकी अपेक्षा इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार उत्कृष्ट भङ्गविचय समाप्त हुआ। १३८, अब जघन्य भङ्गविचयका प्रकरण है। यहाँ अर्थपद पूर्वोक्त ही जानना चाहिए। इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे श्रोधकी अपेक्षा सात कोका भङ्गविचय उत्कृष्ट के समान है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अनेक जीव बन्धक है और अनेक जीव अबन्धक है। इस प्रकार श्रोधके समान पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इन चारोंके बादर, वनस्पतिकायिक, प्रत्येकशरीर, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहां ओघसे सात कर्मोका भङ्गविचय उत्कृष्टके समान है । सो इस कथन का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार ओघसे सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्गविचय कह पाये हैं, उस प्रकार यहां जघन्य स्थितिबन्धका कहना चाहिए और जिस प्रकार ओघसे सात कर्मोके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्गविचय कह पाये हैं, उस प्रकार यहां अजघन्य स्थितिबन्धका कहना चाहिए । इसके अनुसार निम्न भङ्ग उपलब्ध होते हैं-कदाचित् सब जीव जघन्य स्थितिके प्रबन्धक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव प्रबन्धक होते हैं और एक जीव बन्धक होता है, कदाचित् बहुत जीव अबन्धक होते हैं और बहुत जीव बन्धक होते हैं। अजघन्यकी अपेक्षा-कदाचित् सब जीव अजघन्य स्थितिके बन्धक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव बन्धक होते हैं, और एक जीव प्रबन्धक होता है तथा कदाचित् बहुत जीव बन्धक होते हैं और बात जीव प्रबन्धक होते हैं। आयकर्मका विचार स्पष्ट है, क्योंकि उसकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके बन्धक और प्रबन्धक जीव सतत उपलब्ध होते हैं। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई है,उनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है इसलिए उनका कथन ओघके समान कहा है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणाजीवेहि जहरणभंगविषयपरूवणा ८७ १३६. प्रादेसेण णेरइएमु अट्ठएणं वि कम्माणं उक्कस्सभंगो । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वविंगलिंदिय-सव्वपंचिंदियतस-बादरपुढवि०-बाउ-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्जत्ताणं पंचमण-पंचवचि०-वेउव्वियका०-बेउव्वियमि०-आहार-आहारमि०-इत्थि०-पुरिस-अवगदवे०विभंग-आभि०-सुद०-अोधि०-मणपज्ज-संज-सामाइ०-छेदो०-परिहार-मुहुमसंप०संजदासंजद०-चक्खुदं०-अोधिदंस-तेउले-पम्मले-मुक्कले-सम्मादिहि-खइगवेदग-उवसम-सासण-सम्मामि०-सगिण त्ति । १४०. तिरिक्वेसु अहएणं क. जह• अजह• अत्थि बंधगा य अबंधगा य । एवं सव्वएईदिय-वादरपुढवि०-अाउ-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेय. अपज्जत्ता तेसिं सुहुमपज्जत्तापज्जत्त० सव्ववणप्फदि-णिगोद-ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०असंज-किरणलेणील-काउल-अब्भवसि०-मिच्छादि-असएिण-अणाहारग त्ति। एवं णाणाजीवेहि भंगविचयं समत्तं । १३६. श्रादेशसे नारकियों में आठों ही कौंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चन्द्रिय, सब त्रस, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, विभङ्गशानी, प्राभिनिबोधिकहानी, श्रुतशानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संशी जीवोंके जानना चाहिए। १४०. तिर्यञ्चोंमें आठों कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अनेक जीव बन्धक हैं और अनेक जीव अबन्धक हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, इनके सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यशानी, श्रताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंझो और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । - विशेषार्थ-आशय यह है कि इन मार्गणाओंमें सर्वदा जघन्य स्थितिके बन्धक नाना जीव हैं और अजघन्य स्थितिके बन्धक नाना जीव हैं। इसलिए यहां अन्य भङ्ग सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार नानाजीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय समाप्त हुआ। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे भागाभागप्परूवणा १४१. भागाभागं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुविधो णिद्देसो—ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अहएणं वि कम्माणं उक्कस्सहिदिबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? अणंतभागो । अणुक्कस्सहिदिबंधगा जीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ?' अणंता भागा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि०-ओरालियका-ओरालियमि०-कम्पइ०-णवूस०--कोधादि०४-मदि०-सुद०असंज०-अचक्खुदं०-किरण०-णील-काउले०-भवसि-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असगिण-आहार-आणाहारग त्ति । १४२. आदेसेण णेरइएमु अहएणं कम्माणं उक्क बंध० केव० ? असंखेजदिभागो । अणुक्क० बंध. केव० ? असंखेज्जा भागा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज्जत्त-देव-भवणादि याव सहस्सार त्ति आणद याव अणुत्तरा त्ति सत्तएणं कम्माणं सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तसपज्जत्तापज्जत्त-सव्व भागाभागप्ररूपणा १४१. भागाभाग दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा आठों ही कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । इस प्रकार अोघके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिक काययोगो, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, नसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताक्षानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, चीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंही, आहारक और अनाहारक जीवोंका भागाभाग जानना चाहिए। विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले कुल जीव असंख्यात होते हैं। और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले अनन्त होते हैं। इस संख्याको ध्यानमें रख कर हो यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भाग प्रमाण कहे गये हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहु भाग प्रमाण कहे गये हैं । यहाँ पर गिनाई गई अन्य मार्गणाओंमें यह भागाभाग घटित हो जाता है, इसलिए उनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है। १४२. आदेशसे नारकियों में आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब नारकियोके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव आयुकर्मके बिना सात कर्मोके बन्धकी अपेक्षा प्रानतकल्पसे लेकर अनुत्तर विमानवासी देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, प्रस, असपर्याप्त और अपर्याप्त, सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक सब 1. मूलप्रतौ अणंतभागो इति पाठः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्सभागाभागपरूवणा पुढवि०-आउ-तेउ०-वाउ०-बादरवप्फदिपत्तेय-पंचमण--पंचवचि०--वेउव्वियवेउव्वियमि०-इत्थि०-पुरिस-विभंग-आभिल-सुद--ओधि०--संजदासंजद०-- चक्खुदं०-ओधिदं०-तेउ०-पम्मले०-सुक्कले०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसमस०सासण-सम्मामिच्छादि०-सरिण त्ति । १४३. मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु अट्ठएणं कम्माणं उक्क० हिदि० केवडि० ? संखेजदिभागो। अणुक्क बंध० केव० ? संखेजा भागा। एवं सव्वट्ठ-आहारआहारमि०-अवगदवे-मणपज्जव०-संजदा-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-मुहुमसं० । ............... अग्निकायिक, सब वायुकायिक, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, बैंक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगशानो, श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंका भागाभाग जानना चाहिए। विशेषार्थ-सामान्यसे आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव संख्यात हैं,फिर भी उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव असंख्यात गुणे हैं। यही कारण है कि यहाँ पाठों कर्मोंकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव सब नारकी जीवोंके असंख्यातवें भाग कहे हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारको जीव सब नारकी जीवोंके असंख्यात बहुभाग प्रमाण कहे हैं। यहाँ गिनाई गई अन्य सब मार्गणाओंमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है,इसी लिए उनके भागाभागका कथन सामान्य नारकियोंके समान कहा है। मात्र आयुकर्मकी अपेक्षा आनतकल्पसे लेकर अपराजित तकके देव, शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि इन मार्गणाओं में भागाभागके प्रमाणमें कुछ विशेषता है, जिसका निर्देश आगे करनेवाले हैं । यहाँ मूलमें 'अनुत्तरा' ऐसा पाट है, इससे पाँच अनुत्तर विमानोंका ग्रहण होना चाहिए, किन्तु सर्वार्थसिद्धिका भागाभाग स्वतन्त्र रूपसे कहा है इसलिए इस पद द्वारा चार अनुत्तर विमान ही लिए गए हैं। दूसरे सर्वार्थसिद्धिके अहमिन्द्रोंकी संख्या संख्यातप्रमाण ही है और यहाँ पर असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंका भागाभाग कहा गया है, इसलिए भी अनुत्तर पदसे यहाँ पर सर्वार्थसिद्धिका ग्रहण नहीं होता है । इस प्रकरणमें उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये दो ऐसी मार्गणाएं भी गिनाई हैं जिनमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए उनमें सात कर्मोंकी अपेक्षा यह भागाभाग जानना चाहिए। १४३. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं? संख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चादिए । विशेषार्थ-ये सब मार्गणाएँ संख्यात संख्यावाली हैं, इसीलिए उक्त प्रमाण भागाभाग १२ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे हिदिबंधाहियारे १४४. प्राणद याव अपराजिदा ति सुक्कले०-खइग. आयु. सव्वट्ठभंगो । १४५. एइंदिएमु सत्तएणं कम्माणं णिरयभंगो । आयु. ओघं । एवं वणप्फदिणियोदेसु । एवं उक्कस्सं सम्मत्तं । १४६. जहएणगे पगदं । दुविधो णिसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं जह• अजह• उक्कस्सभंगो । आयु० जह• हिदिबंध. केवडियो भागो ? असंखेज्जदिभागो। अजह• हिदि० केवडि० ? असंखेज्जा भागा। एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालियका०-गवुस०-कोधादि०४-अचक्खुद-भवसि०आहारग त्ति । rrormawww.sane.wan बन जाता है। मात्र इनमेंसे अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत इन दो मार्गणाओंमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें सात कर्मीको अपेक्षाभागाभाग जानना चाहिए। १४४. आनतकल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देव शुक्ल लेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयकर्मका भागाभाग सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान है। विशेषार्थ-ये सब मार्गणाएँ यद्यपि असंख्यात संख्यावाली हैं,तथापि इनमें श्रायुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनमें आयकर्मकी अपेक्षा सर्वार्थसिद्धिके समान भागाभाग हो जाता है। * १४५. एकेन्द्रियों में सात कर्मोंका भागाभाग नारकियोंके समान है। आयुकर्मका भागाभाग ओघके समान है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में जानना चाहिए। विशेषार्थ-यद्यपि ये मार्गणाएँ अनन्त संख्यावाली हैं, तथापि इनमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अपनी-अपनी जीवराशिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं, इसलिए इनका भागाभाग नारकियोंके समान कहा है । मात्र इनमें आयुकर्मकी अपेक्षा भागाभाग का विचार ओघके समान करना चाहिए, क्योंकि इन मार्गणाओंमें आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण ही होते हैं और शेष अनन्त बहुभाग प्रमाण जीव अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट भागाभाग समाप्त हुआ। १४६. अब जघन्य भागाभागका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका भागाभाग उत्कृष्टके समान है। आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार श्रोधके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-पहिले उत्कृष्ट भागाभागका विचार कर आए हैं,उसी प्रकार यहाँ भी विचार कर लेना चाहिए। मात्र आयुकर्मकी अपेक्षा इस भागाभागमें कुछ अन्तर है । यहाँ आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब जीव राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं, इसीलिए आयुकर्मकी जघन्य स्थितिको बाँधनेवाले जीव सब जीवराशिके Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सपरिमाणपरूवणा 9 11 १४७, मणुसपज्जत - मणुसिणीस आणद याव सव्वह त्ति आहार - आहारमि०अव गदवे ० - मरणपज्जव० - संजद ० - सामाइ० - छेदो ० - परिहार० - मुहुमसंप ० -मुक्कले ०. खइग० जह० अजह० उक्कस्सभंगो। सेसाणं सव्वेसिं सव्वपगदीणं जह० द्विदि ० के ० १ असं० भागो । अज० हिदि० के० १ असंखेज्जा भागा । एवं भागाभागा समत्तं । परिमाणपरूवणा १४८. परिमाणं दुविधं, जहणणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सगे पगदं । दुविधं — घेण आदेसेण य । तत्थ घेण अरणं कम्माणं उक्क० द्विदिबंध • केवडिया ? असंखेज्जा । अणुक्क० द्विदि० केव० १ अता । एवं ओघ भंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालियका० - ओरालियमि० कम्मइ० - वुंस० - कोधादि ० ४-मदि०सुद० - असंज० - अचक्खु०- किरण० - पील० - काउले ० - भवसि ० - अब्भवसि० -मिच्छादि०सरि ० - आहार० - अरणाहारग ति । ९१ श्रसंख्यातवें भागप्रमाण कहे हैं और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यात बहुभाग प्रमाण कहे हैं । १४७. मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका भागाभाग उत्कृष्टके समान है। शेष सब मार्गणाओं में जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । श्रजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । विशेषार्थ - यहां जितनी मार्गणाएँ कहीं है, उनमेंसे किन्हींकी संख्या संख्यात है, किन्हींकी संख्यात है और किन्हींकी अनन्त है । जिन मार्गणाओंका भागाभाग उत्कृष्टके समान कहा है, उनमें बहुतों की संख्या संख्यात है और कुछकी श्रसंख्यात, इत्यादि सब बातोंको ध्यान में रखकर भागाभागका विचार कर लेना चाहिए । इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ । परिमाणप्ररूपणा १४८. परिमाण दो प्रकारका है-ज - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमेंसे श्रोघकी अपेक्षा श्राठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? श्रसंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार श्रधके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिक काययोगी, श्रदारिक मिश्र काययोगी, कार्मण काययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, श्रचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नील लेण्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, श्रसंज्ञी, श्राहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीको देखते हुए स्पष्ट ज्ञात होता है कि से और इन मार्गणाओं में उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात से अधिक नहीं हो Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे १४६. आदेसेण णेरइएसु अहएणं कम्माणं उक्क० अणु० हिदिबंध० केव• ? असंखेजा। एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्जत्त० देवा भवणादि याव सहस्सार त्ति सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-तस-सव्वपुढवि०-आउ०तेउवाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेय-पंचमण-पंचवचि०-वेउव्वियका०-वेउव्वियमि०इत्थि-पुरिस-विभंग०-चक्खुदं० [तेउले०-] पम्मले०-सणिण त्ति । णवरि तेउ-पम्म उक्क० संखेज्जा। १५०. मणुस्सेसु अट्ठएणं कम्माणं उक्क हिदि. बंध केव० ? संखेज्जा । अणुक्क० हिदि० बंध० केव० ? असंखेज्जा । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वहःआहार-आहारमिल-अवगदवे-मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसं० सत्तएणं क० उक्क० अणुक्क. हिदिबंध० केव० ? संखेजा। १५१. सव्वएइंदि० सत्तएणं क. उक्क० अणुक्क० हिदिबंध० केव० ? सकते। उदाहरणार्थ-शानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त संक्लेश परिणामवाला मिथ्यादृष्टि जीव करता है। गणनाकी अपेक्षा ये असंख्यात ही होते हैं। यही कारण है कि यहांपर आठों कमौकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात बतलाए हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त कहे हैं। १४६. आदेशसे नारकियोंमें आठों कर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय, सब त्रस, सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, सब बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संशी जीवोंका परिमाण जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पीत लेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात होते हैं। विशेषार्थ-ये सब मार्गणाएँ असंख्यात संख्यावाली हैं और इनमें उत्कृष्ट स्थिति व अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात बन जाते हैं, इसलिए इनका उक्त प्रमाण परिमाण कहा है। जिन दो मार्गणाओंमें अपवाद है, उनका निर्देश अलगसे किया ही है। १५०. मनुष्योंमें आठों कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले कितने हैं ? असंख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धि संयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। विशेषार्थ-ये मनुष्य पर्याप्त आदि सब मार्गणाएँ संख्यात संख्यावाली हैं, इसलिए इनमें उक्त प्रमाण घटित हो जाता है। १५२. सव एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-परिमाणपरूवणा अणंता। आयु० उक्क. हिदिबं० केव० ? असंखेजा। अणु० हिदिवं. केव० ? अणंता । एवं सबवणप्फदि-णिगोदाणं ।। १५२. आभि०-सुद०-अोधि० सत्तएणं क. उक्क० अणुक्क. हिदिवं. केव० ? असंखेज्जा । आयु० उक्क संखेजा। अणु० हिदि० असंखेजा। एवं संजदासंजद-अोधि-सम्मादि-वेदग-सासण-सम्मामिच्छा० । आणद याव अवराइदा त्ति मुक्कले०-खइग० सत्तएणं क० उक्क० अणुक्क असंखेज्जा। आयु० मणुसिभंगो। १५३. जहएणए पगदं। दुविधो णिद्द सो—ोघेण श्रादेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तएणं क० जह• हिदिबंध केत्तिया ? संखेज्जा । अजह० के० ? अणंता । आयु० जह• अज० हिदि० अणंता । एवं कायजोगि-अओरालियका-णवुस०कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि-आहारग त्ति । जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार सब वनस्पति और सब निगोदिया जीवोंका परिमाण जानना चाहिए। विशेषार्थ-यद्यपि ये मार्गणाएँ अनन्त संख्यावाली हैं,तथापि इनमें आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तवें भाग प्रमाण ही होते हैं, इसलिए यहां इनकी संख्या असंख्यात बतलाई है। शेष कथन सुगम है। १५२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका परिमाण जानना चाहिए। आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके देव, शुक्ल लेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में सात कौंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात है। तथा आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव मनुष्यनियोंके समान हैं। विशेषार्थ-यहां गिनाई गई सब मार्गणाएँ असंख्यात संख्यावाली हैं.तथापि इनमें आयुकर्मकी अपेक्षा कुछ विशेषता है जिसका निर्देश अलग-अलग मूलमें किया ही है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार उत्कृष्ट परिमाण समाप्त हुआ। १५३. अब जघन्य परिमाणका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैमोघ और आदेश। उनमेंसे श्रोधकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंका परिमाण जानना चाहिए । विशेषार्थ-सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध क्षपकौणिमें होता है, इसलिए यहां Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे विदिबंधाहियारे १५४. आदेसेण णेरइएसु० उक्कस्सभंगो। तिरिक्खेसु अट्ठएणं कम्माणं जह• अजह• हिदिवं० केव• ? अणंता। एवं सव्वएइंदिय-वणफदि-णिगोद ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज-किरण-णील-काउ०--अब्भवसि०मिच्छादि-असएिण-अणाहारग त्ति ।। १५५. सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेव-विगलिंदिय-सव्व पुढवि०आउ-तेउवाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयः-वेउव्विय०-वेउव्वियमि-आहार-आहारमि०-मणपज्ज०-अवगदवे-संजदा-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसं० उक्कस्सभंगो। णवरि मणुसोघं आयु० जह• अजह० असंखेज्जा। १५६. पंचिंदिय-तस०२ सत्तएणं कम्माणं जह• बंधक संखेज्जा। अजह• असंखेज्जा। आयु० जह• अजह• असंखेज्जा । एवं पंचमण-पंचवचि०-इत्थि.. सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं। बाकी सब जीव अनन्त हैं, इसलिए अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त कहे हैं। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं; यह स्पष्ट ही है, क्योंकि एकेन्द्रिय आदि अधिकतर जीव इन दोनों आयुओंका बन्ध करते हैं। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसीलिए उनका परिमाण ओघके समान कहा है। १५४. आदेशसे नारकियोंमें आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण उत्कृष्टके समान है। तिर्यञ्चोंमें आठों कमौकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंही और अनाहारक मार्गणाओंमें परिमाण जानना चाहिए। १५५. सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सब देव, विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, सब बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, मनःपर्ययज्ञानी, अपगतवेदी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत मार्गणाओं में आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण अपने अपने उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि सामान्य मनुष्यों में श्रायुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले मनुष्य असंख्यात हैं। विशेषार्थ-पायुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले मनुष्योंमें अपर्याप्त मनुष्योंकी मुख्यता है, इसलिए यहां इनका परिमाण असंख्यात कहा है। शेष कथन सुगम है। १५६. पश्चेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय पर्याप्त, बस और असपर्याप्त जीवोंमें सात कौंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्ग Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-परिमाणपरूवणा पुरिस-विभंग-संजदासंजद०-चक्खुदं०-सणिण त्ति । १५७. आभि-सुद०-अोधि० अट्टएणं कम्माणं जह० संखेज्जा । अज असंखेज्जा । एवं अोधिदं०-सम्मादि०-वेदगस० । १५८. तेउ०-पम्मले० सत्तएणं क. जह• संखेज्जा। अजह. असंखेज्जा । आयुग० जह० अज. असंखे । १५६. सुक्कले०-खइग० सत्तएणं क. जह• संखेज्जा। अज० असंखेज्जा । आयु. जह• अज० संखेज्जा । १६०. सासण० सम्मामि० अहएणं कम्माणं सत्तएणं कम्माणं जह• अजह असंखेज्जा । एवं परिमाणं समत्तं । ज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी और संज्ञी मार्गणाओं में परिमाण जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो विभङ्गशानी और संयतासंयत जीव संयमके अभिमुख होता है,उसीके सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध सम्भव है। यतः ऐसे जीव संख्यात होते हैं,अतः इन दोनों मार्गणाओं में सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १५७. आभिनिबोधिकशाली, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में आठों कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदसम्यग्दृष्टि मार्गणाओंमें परिमाण जानना चाहिए। १५८. पीतलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवों में सात कर्मोको जघन्य स्थितिका बन्ध करने वाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। विशेषार्थ-सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयत जीव जो पीत और पद्मलेश्यावाले होते हैं, उनके सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है । इस अपेक्षासे इन दोनों मार्गणाओं में सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं । शेष कथन सुगम है। १५९. शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं तथा आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ मनुष्य ही करते हैं और वे संख्यात होते हैं । यद्यपि अन्य तीन गतियों में सञ्चयकी अपेक्षा ये असंख्यात होते हैं,पर गति और प्रागतिकी अपेक्षा ये संख्यातसे अधिक नहीं होते । यही कारण है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें या तो देवायुका बन्ध होता है या मनुष्यायु का । इसीसे इसमें आयुकर्म की जघन्य और अंजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले संख्यात कहे हैं। १६०. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में क्रमसे आठों कर्मों और सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात होते हैं। विशेषार्थ-इन दोनों मार्गणाओं मेंसे प्रत्येक मार्गणावाले जीवोंकी संख्या पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कही है। इससे यहाँ सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंकी असंख्यात संख्या प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती। इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे खेत्तपरूवणा १६१. खेत्तं दुविधं – जहररणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुविधो fueसो - घे आदेसेण य । तत्थ घेण हरणं कम्मारणं उक्क० हिदि-बंध० खेवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । अणुक्क० बंध० केव० ? सव्वलोगे । एसिं परिमाणे उक्क० द्विदिबंधगा असंखेज्जा अणुक्क० बंध० अरांता तेसिं उक्करस० बंध० केव० खेत्ते ? लोगस्स असं०, अणु० सव्वलोगे एइंदिय-पंचकाया मोत्तूर । सेसाणं सव्वेसिं सव्वे भंगा उक्क • अर०बंध लोगस्स असंखेज्ज • । १६२. एइंदिय-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त० सत्तएां कम्मारणं उक्क० अणु० सव्वलोगे । आयु० उक्क० लोगस्स असं ० । ० सव्वलोगे । बादरएइंदियपज्जत्तापज्जत्त० सत्तणणं कम्मागं उक्क० अ० बंध० के० ? सव्वलो० । आयु० ९६ क्षेत्र प्ररूपणा १६१. क्षेत्र दो प्रकारका है- - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है- उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमेंसे श्रोघकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका श्रसंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । जिनकी संख्या उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी अपेक्षा असंख्यात है और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धकी अपेक्षा अनन्त है, उनका उत्कृष्ट स्थितिके बन्धकी अपेक्षा कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवालोंका सब लोक क्षेत्र है । मात्र एकेन्द्रिय और पाँच स्थावर काय जीवोंको छोड़कर यह क्षेत्र कहा है । शेष सब जीवोंके सब भङ्ग अर्थात् उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले शेष जीवोंका क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । ० विशेषार्थ - श्रोघसे सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध संज्ञो पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवके संक्लेशरूप परिणामोंके होने पर होता है । तथा आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध इसके या सर्व विशुद्ध परिणामवाले संयतके होता है । यतः इनका क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उक्त प्रमाण क्षेत्र कहा है । तथा आठों कर्मों की अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है, यह स्पष्ट ही है । यहाँ शेष सब मार्गणाओं को तीन भागों में विभक्त कर दिया है । एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंको स्वतंत्र छोड़ दिया है, क्योंकि इनका क्षेत्र आगे कहनेवाले हैं। शेष अनन्त संख्यावाली मार्गणाओंका क्षेत्र यहीं बतला दिया है और शेष जितनी असंख्यात और संख्यात संख्यावाली मार्गणाएँ बचती हैं, उन सबमें सब पदों की अपेक्षा क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। शेष कथन सुगम है। १६२. एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके पर्याप्त - अपर्याप्त जीवों में सात कमी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त पर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । आयु कर्मको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ उक्कस्सखेत्तपरूवणा उक्क० लोगस्स असंखेज्ज । अणु लोग० संखेज्जदिभागे। १६३. पुढवि०-आउ०-तेउ० अहएणं कम्माणं मूलोघं । तेसिं मुहुमपज्जत्तापज्जत्त० एइंदियभंगो । बादरपुढवि -आउ०-तेउ० सत्तएणं क० उक्क० लोगस्स असं० । अणु० सव्वलोगे । आयु० उक्क० अणु० लोगस्स असंखेज्जदि० । बादरपुढवि०-पाउ-तेउ० पज्जत्ता० अहएणं क. उक्क० अणु० लोगस्स असं० । बादरपढवि०-आउ०-तेउ० अपज्जत्ता० सत्तएणं क. एइंदियभंगी। आयु० उक्क अणु लोगस्स असं० । जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जोवाका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। १६३. पृथिवीकायिक, जलकायिक और अग्निकायिक जीवोंमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र मूलोधके समान है। इन्हींके सूक्ष्म तथा पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंमें पाठ कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र एकेन्द्रियोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर अग्निकायिक जीवों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोकप्रमाण है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवों में आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर अग्निकायिक अपर्याप्त जीवोंमें सात कमौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र एकेन्द्रियोंके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-पृथिवीकायिक, जलकायिक और अग्निकायिक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है, इसलिए इनमें आठों कर्मोकी अपेक्षा क्षेत्र श्रोधके समान कहा है। पहले एकेन्द्रिय सूक्ष्म और उनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें आठों कर्मोंकी अपेक्षा क्षेत्रका विचार कर आये हैं । उसी प्रकार सूक्ष्म पृथिवीकायिक, और इनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें आठों कौंकी अपेक्षा क्षेत्र प्राप्त होता है, इसलिए इनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा है ।बादर पृथिवीकायिक, बादर जलेकायिक और बादर अग्निकायिक जीवोंका मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र होते हुए भी स्वस्थान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें सात कमौकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाले जीवोंका व आयुकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवालोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है। सात कर्मोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक है; यह स्पष्ट ही है। बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंका स्वस्थान, समुद्धात व उपपाद सभी पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है, इसलिए इनमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा है । यद्यपि बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर अग्निकायिक अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और मारणान्तिक समुद्धात व उपपादपदकी अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्र है, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे १६४. वाउ० सत्तएणं क. उक्क बं० केव० ? लोग संखेज्जदिभागे । अणु० सव्वलो० । आयु० अोघं । बादरवाउ० सत्तएणं क० उक्क० लोग० संखेज्ज । अणु० सव्वलो । आयु० उक्त लोग० असं० । अणु'० लोगस्स० संखेज । बादरवाउपज्जत्ता सत्तएणं क० उक्क० अणु० लोग० संखेज्ज । आयु० उक्क लोग० असं० । अणु० लोग० संखेज्ज.। बादरवाउअपज्ज सत्तएणं क० उक्क० अणु० सन्चलोगे। आयु० उक्क० लोग० असंखे० । अणु० लोग० संखेज्जदि० । सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त० सत्तएणं क० उक्क० अणु० सव्वलोगे। आयु० अोघं । तथापि इनमें सात कर्मीकी अपेक्षा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र एकेन्द्रियोंके समान प्राप्त होता है, इसलिए इस क्षेत्रको एकेन्द्रियोंके समान कहा है। पर इनका स्वस्थान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें, श्रायुकर्मको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। १६४. वायुकायिक जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र कितना है ? लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है। बादर वायुकायिक जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। आयकर्मको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। बादरवायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें सात कौंको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । सूक्ष्म वायुकायिक और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र श्रोधके समान है। विशेषार्थ-बादरवायुकायिक और उनमें अपर्याप्त जीवोंका स्वस्थान क्षेत्र लोकका संख्यातवां भागप्रमाण तथा मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पदकी अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्र है । बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका स्वस्थान समुद्धात और उपपादपदकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी विशेषताको ध्यानमें रख कर इन जीवोंमें सात कमौके व आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट क्षेत्र का विचार कर लेना चाहिए । मात्र आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्वत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है। १. मूलप्रती अणु० उक० संखेज. इति पाठः । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहणखेत्तपरूवणा ९९ ० १६५. वणप्फदि - रिगोद ० तेसिं सुहुमपज्जत्तापज्जत्त० सत्तरणं क० उक्क० अ० सव्वलोगे । आयु० ओघं । बादरवणफदि णिगोद० सत्तर क० सुमभंगो। आयु० मरणुभिंगो । बादरवणप्फदिपत्तेय - बादरपुढविकाइयभंगो। एवं उक्कस्सयं समत्तं । १६६. जहणगे पगदं । दुविधो गिद्द ेसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ घेण सत्तणं क० जह० द्विदिबंध केव० १ लोगस्स असंखेज्ज० । अज० सव्वलोगे | आयु० जह० अजह० सव्वलो० । एवं ओघभंगो कायजोगि ओरालियका० - एस० ० १६५. वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके सुक्ष्म और पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका क्षेत्र सब लोक है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र श्रधके समान है । बादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सूक्ष्म जीवोंके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र मनुष्यिनियोंके समान है बादरवनस्पति प्रत्येक शरीर जीवों में श्राठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र बादर पृथिवीकायिक जीवांके समान है । विशेषार्थ -- वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके सूक्ष्म और उनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवा सब लोक क्षेत्र है । इसीसे इनमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है । ओघ से आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर नेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोकप्रमाण बतला आये हैं । उक्त मार्गणावाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक होने से इनमें भी ओघप्ररूपणा घटित हो जाती है, इसलिए इनमें आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र श्रधके समान कहा है। पहले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंका क्षेत्र बतला श्राये हैं। वह क्षेत्र यहां बादरवनस्पतिकायिक और बादर निगोद जीवोंमें अविकल घटित जाता है इसलिए सात कमकी अपेक्षा इनकी प्ररूपणाको सूक्ष्म जीवोंके समान कहा है । वादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद जीवोंका स्वस्थान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और मनुष्यिनियोंका स्वस्थान क्षेत्र भी इतना ही है, इसलिए इन मार्गणाओंमें श्रायुकर्मकी अपेक्षा मनुष्यिनियोंके समान क्षेत्र कहा है । बादर पृथिवीकायिकका स्वस्थान क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और मारणान्तिक समुद्धात व उपपाद पदकी अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्र हैं । बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंका क्षेत्र भी इतना ही है । इसीसे इनमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र बादरपृथिवीकायिक जीवोंके समान कहा है । । इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्र समाप्त हुआ । १६६. अब जघन्य क्षेत्रका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोघ और आदेश । उनमें से श्रोघकी अपेक्षा सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । श्रजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार श्रोघके Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महाबंधे दिदिबंधाहियारे कोधादि०४-अचक्खुदं०-भवसि-आहारग त्ति । १६७. आदेसेण णेरइएमु उक्कस्सभंगो । एवं सव्वणिरय । १६८. तिरिक्खेसु सत्तएणक० जह० लोग संखे । अज० सव्वलोगे । आयु. ओघं । एवं एइंदिय-वाउ०-ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज-किरण णील०-काउ०-अब्भवसि०-मिच्छादि-असएिण-अणाहारग त्ति । १६६. बादरएइंदियपज्जत्तापज्जत्त० सत्तएणं क. जह• लोग० संखेज्ज। अज० सव्वलो० । आयु० जह• अज. लोग संखेज्ज । मुहुमेइंदि०पज्जत्तापजत्तसुहुमपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-मुहुमवण-सुहमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त अट्टएणं क० समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध क्षपकश्रेणीमें होता है, इसलिए इसका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । तथा अजघन्य स्थितिका बन्ध शेष सबके होता है और वे समस्त लोकमें व्याप्त हैं, इसलिए सात कौंकी अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवालोंका सब लोक क्षेत्र कहा। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थिति एकेन्द्रियादि अधिकतर जीव बाँधते हैं और वे सब लोकमें व्याप्त हैं, इसलिए आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह ओघ व्यवस्था अविकल उपलब्ध होती है, इसलिए उनका कथन अोधके समान कहा है। १६७. आदेशसे नारकियों में पाठों कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब नारकी जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-आशय यह है कि सामान्यसे और प्रत्येक पृथिवीके अलग-अलग नारकी जीव असंख्यात हैं तथा इनका क्षेत्र भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए आठों कौकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले उक्त नारकियोंका उत्कृष्टके समान ही क्षेत्र प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक मार्गणामें,उस मार्गणाके क्षेत्रको ध्यानमें लेकर विचार कर लेना चाहिर । १६८. तिर्यञ्चोंमें सात कमौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र ओधके समान है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, वायुकायिक, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, भीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी और अनाहारक मार्गणाओं में जानना चाहिए। १६९. बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंमें सात कमौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोका क्षेत्र सब लोक है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म वायु कायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्मनिगोद तथा इन सबके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंमें Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सफोसणपरूवणा जह० अजह० सव्वलो० । बादरपुढवि०-आउ०-तेउ० तेसिं च अपज्जत्ता० बादरवणप्फदि-णिगोदपज्जत्तापज्ज० बादरवणप्फदिपत्तेय० तस्सेव अपज्जत्त० सत्तएणं क० ओघं । आयु० णिरयभंगो। बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-पज्जत्ता० बादरवणप्फ०पत्तेयपज्जत्ता०अहएणं कम्माणं उक्करसभंगो। बादरवाउ०अपज्जत्ता. सत्तएणं क. तिरिक्खोघं । आयु. जह० अज० लोग० संखेज्ज । बादरवाउ०पज्जत्त० अहएणं क० जह, अजह० लोग० संखेज्ज० । सेसाणं सव्वेसिं सव्वे भंगा। एवं खेत्तं समत्तं । फोसणपरूवणा १७०. फोसणं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं। दुविधंओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण सत्तएणं कम्माणं उक्कस्सहिदिबंधगेहि केविडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० अह-तेरह चोदसभागा । अणुक्क० बंधः सव्वलो । आयु० उक्क० अणु० खेत्तभंगो। एवं श्रोधभंगो कायजोगि०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०अचक्खुदं०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि-आहारग त्ति । आठ कर्मोंकी जघन्य और अजधन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और इनके अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके अपर्याप्त जीवों में सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र ओघके समान है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र नारकियोंके समान है। बादर पृथ्वीकायिक, पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें आठ कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र उत्कृष्टके समान है। बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सामान्य तिर्योके समान है। आयकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवों में पाठ कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । शेष सब मार्गणाओं में सब भङ्ग होते हैं। इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। स्पर्शनप्ररूपणा १७०. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और श्रादेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, कुछ कम पाठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू' क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताहानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक मार्गणाओं में स्पर्शन जानना चाहिए । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १७१. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं क० उक्क० अणु० छच्चोद० । आयु० खेत्तभंगो। पढमाए खेत्तभंगो । विदियाए याव सत्तमा त्ति सत्तएणं क• उक्क अणु० बे-तिरिण-चत्तारि-पंच-छच्चोदस० । आयु० खेत्तभंगो । तिरिक्खेसु सत्तएणं क. उक० छच्चोद० । अणु० सव्वलोगो । आयु० खेत्तभंगो । एवं णवुस-किरणले । १७२. पंचिंदियतिरिक्ख०३ सत्तएणं क० उक्क० छच्चोद० । अणु० लोग० असंखे. सव्वलो० । आयु० खेत्तभंगो । __ विशेषार्थ-सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त संक्लेश परिणामवाले जीव करते हैं। इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतीत कालीन स्पर्शन विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा तेरह बटे चौदह राजू है। यही जानकर यहां उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन सुगम है। १७१. आदेशसे नारकियों में सात कौंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पहिली पृथ्वीमें आठों कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तकके नारकियों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने क्रमसे कुछ कम एक बटे चौदह राजू , कुछ कम दो बटे चौदह राजु, कुछ कम तीन बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू कुछ कम पांच बटे चौदह राजु और कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। तिर्यञ्चोंमें सात कमौकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार नपुंसकवेदी और कृष्णलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-सामान्य नोरकियोंका अतीत कालीन स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू है। प्रथम पृथिवीमें लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्शन है। द्वितीयादि पृथिवियों में कुछ टेचौदह राजू आदि स्पर्शन है । इसे ध्यानमें रखकर सामान्यसे नरकमें और प्रत्येक पृथिवीमें सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। तिर्यञ्चोंमें जो नीचे सातवीं पृथिवीतक मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, उन्हींके सात कौंकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू उपलब्ध होता है,यह जानकर उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है । शेष कथन सुगम है। १७२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें सात कौकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ--पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें कुछ कम छह बटे चौदह राजू का स्पष्टीकरण सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। इन तीन प्रकारके तिर्यञ्चोका वर्तमान नियास लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीत कालीन निवास मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा सर्व लोक है। यह जानकर इनमें सात कौंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले उक्त Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सफोसणपरूवणा १०३ १७३. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता० सत्तएणं क. उक्क० अणु० लोग० असंखे सव्वलोगो वा । आयु० खेत्तभंगो। एवं मणुसअपज्जत्त-सव्वविगलिंदियपंचिंदिय-तसअपज्जत्ता० बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०पज्जत्ता० बादरवणप्फदि०पत्तेयपज्जत्ता० । १७४. मणुस० सत्तएणं क० उक्क० खेत्तभंगो। अणु लोग० असंखे० सव्वलो०। आयु० खेत्तभंगो । देवेसु सत्तएणं क० उक्क० अणु० अह-णवचोदस० । आयु० उक्क० अणु० अहचोदस० । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं कादव्वं ।। १७५. एइंदिएसु सत्तएणं क० उक्क० अणु सव्वलोगो । आयु० उक्क० लोग० असंखे०। अणु० बंध० सव्वलोगो। एवं बादरएइंदियपज्जत्तापज्जत्ता० । णवरि तिर्यश्चोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन सुगम है। १७३. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, बादरपृथ्वीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीरपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ–पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंका वर्तमान कालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और मारणान्तिक व उपपाद पदकी अपेक्षा अतीतकालीन स्पर्शन सब लोक है। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं,उनका स्पर्शन इसी प्रकार है, इसलिए इनमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन सुगम है। १७४. मनुष्य त्रिकमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। विशेषार्थ-देव विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राज और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा कुछ कम नौ वटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं। किन्तु मारणान्तिक समुद्धात के समय आयुबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके आयुकर्मकी अपेक्षा केवल कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन कहा है। भवनवासी आदि देवोंमें अपने-अपने स्पर्शनको जानकर यहां यथासम्भव स्पर्शनका निर्देश करना चाहिए। शेष कथन सुगम है। १७५. एकेन्द्रियों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे आयु० अ० लोग० संखे० | मुहुमएइंदियपज्जत्तापज्ज० सत्तएां क० उ० प्र० सव्वलो ० ० । आयु० उक्क० लोग० असंखे० सव्वलो ० । ० सव्वलोगो । एवं सव्वसुहुमाणं । १७६. पंचिंदिय-तस०२ सत्तणं क० उक्क० अह-तेरह ० । अणु० चोदस० सव्वोलोगो वा । आयु॰ उक्क० खेत्तभंगो। [ अणुक्क० ] अट्ठचोदस० । एवं पंचमरण०पंचवचि० - इत्थि० - पुरिस० विभंग ० चक्खुदंसरिणति । स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सबलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सब सूक्ष्म जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ —यहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंमें आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन दो प्रकारका कहा है सो उसमें से लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन वर्तमान कालकी अपेक्षा कहा है और सब लोकप्रमाण स्पर्शन अतीत कालकी अपेक्षा कहा है। शेष कथनका विचार इन मार्गणाओंके स्पर्शनको देखकर कर लेना चाहिए । १७६. पञ्चेन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । श्रायुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगशानी और चक्षुदर्शनी जीवोंके जानना चाहिए | विशेषार्थ—यहाँ विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु स्पर्शन उपलब्ध होता है । यह सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा स्पर्शन है किन्तु अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा तो कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोक स्पर्शन उपलब्ध होता है । इनमें से कुछ कम आठ बटे चौदह राजु स्पर्शनका खुलासा पूर्ववत् है और सब लोकप्रमाण स्पर्शन मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा जानना चाहिए । कारण कि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले उक्त जीव सब लोक मारणान्तिक समुद्धात करते हुए उपलब्ध होते हैं । श्रयुकर्मकी अपेक्षा स्पर्शनका विचार करते हुए अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन केवल कुछ कम आठ बटे चौदह राजु कहा है सो इसका कारण यह है कि मारणान्तिक समुद्धात के समय आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, अतएव विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम श्राठ बटे चौदह राजु स्पर्शन ही यहाँ सम्भव है, इससे अधिक नहीं । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ उकस्सफोसपकवला १७७. पुढवि०-आउ-तेउ० तेसिं च बादर० सत्तएणं क० उक्क० लोग० असंखे. सबलो। अणु० सव्वलो०। आयु० खेत्तभंगो। बादरपुढवि०-आउ०-तेउ० अपज्जत्ता० सत्तएणं क• उक्क० अणु० सव्वलो । आयु० खेत्तभंगो। बादरवणप्फदिपत्तेय. बादरपुढविभंगो। वाउ० पुढवि भंगो। वरि जम्हि लोगस्स असंखे० तम्हि लोगस्स संखेज्ज । वरणप्फदि-णिगोद. पुढविकाइयभंगो। वरि सत्तएणं क. उक० सव्वलो० । १७८. ओरालियका० सत्तएणं क. उक० छच्चोद्दस । अणु० सव्वलो । आयुःखेत्तभंगो।ओरालियमि० अट्ठएणं क० उक्क लोग० असंखे । अणु० सव्वलो। वेउव्वियका० सत्तएणं क० उक्क अणु० अट्टतेरह' । आयु. उक्क० अणु० अट्ठ १७७. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और इनके बादर जीवों में सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातबे भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर अग्निकायिक अपर्याप्त जीवों में सात कर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों में आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन बादर पृथिवीकायिकके समान है। वायुकायिक जीवोंमें आठों कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन पृथिवीकायिकके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है,वहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग लेना चाहिए। वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में पाठों कर्मोकी उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन पृथ्वीकायिकोंक समान है। इतनी विशेषता है कि सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सव लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-यहाँ पृथिवीकायिक आदि जीवों में सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन वर्तमान कालकी अपेक्षासे कहा है। शेष स्पर्शन यहाँ कही गई मार्गणाओंके स्पर्शनका ध्यान रखकर जान लेना चाहिए। १७८. औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीवों में पाठ कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिककाययोगवाले जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। १, मूलप्रतौ -तेरह ० । श्रायु० उक्क० अणु० अढतेरह०, पाउ० इति पाठः । १४ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे चोद्दस० । वेउब्वियमि० - आहार० - आहारमि० - अवगद ० - मणपज्ज० - संजदा -सामाइ०छेदो० - परिहार - सुहुम संप० खेत्तभंगो । कम्मइ० - अणाहार० सत्तएणं क ० उक्क ० बारहचोद्दस॰ । अणु० सव्वलोगो । १७६. अभि० - मुद्०-ओधि० सत्तां क० उक्क० अ० अट्ठचोदस० । आयु ० उक्क॰ खेत्तभंगो। अणु० अ० । एवं ओधिदं सम्मादि ० खड्ग ० - वेदगस ० -उवसमस० । १८०. संजदासंजद० सत्तणं कम्माणं उक्क० खेत्त० । अणु छच्चोद्दस० । आयु० उक्क० अणु ० खेत्तभंगो । १८१. खील० - काउ सत्तरणं क० उक्क० चत्तारि - बे - चोदस० । अणु० सव्वलो ०, वैक्रियिक मिश्र काययोगवाले, श्राहारककाययोगवाले आहारकमिश्रकाययोगवाले, अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें आठ कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । कार्मणकाययोगवाले और अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले श्रदारिक काययोगी जीव नीचे सातवीं पृथिवी तक मारणान्तिक समुद्धात करते हैं इसलिए इनका कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन कहा है। श्रदारिकमिश्रकाययोगमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध उक्त योगवाले सब जीवोंके न होकर कतिपय जीवोंके ही होता है। जिनका कुल स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं होता, इसलिए इनका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है । मारणान्तिक समुद्धात में आयुबन्ध नहीं होता, इसलिए वैक्रियिककाययोगमें आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका स्पर्शन केवल कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण कहा है। १७९. श्राभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जोवने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें स्पर्शन जानना चाहिए । " विशेषार्थ—उक्त मार्गणाओं में कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन यथासम्भव विहारवत्स्वस्थान आदि पदोंकी अपेक्षा होता है। शेष कथन सुगम है । १८०. संयतासंयतों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । विशेषार्थ- संयतासंयतों का मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन होता है । १८१. नीललेश्यावाले और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवने क्रमसे कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्स-फोसणपरूवणा १०७ आयु० ओघं । तेउ०-पम्म-मुक्कले सत्तएणं क० उक्क० अणु० अह-णवचोदस० अट्ठचोदस० छच्चोइस० । आयु० उक्क० खेत्त । अणु० अट्ठ अहचोदस० छच्चोइस० । १८२. सासण सत्तएणं क. उक्क० अणु० अट्ठ-बारह । आयु० उक्क० खेत्तभंगो । अणु० अहचोदसः । सम्मामि० सत्तएणं क. उक• अणु० अट्ठचोइस० । असएिण० खेत्तः । एवं उक्कस्सफोसणं समत्तं । राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी अपेक्षा स्पर्शन श्रोधके समान है। पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले जीवों में सात कमौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने पीतलेश्याकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजू व कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका, पद्मलेश्याकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका और शुक्ललेश्याकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने क्रमसे कुछ कम आठ बटे चौदह राजू, कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-पाँचवीं पृथिवी यहाँसे कुछ कम चार राज और तीसरी पृथिवी कुछ कम दो राजू है । इसी बातको ध्यानमें रखकर नील और कापोतलेश्यामें क्रमसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कुछ कम चार राजू और कुछ कम दो राजू स्पर्शन कहा है। यह स्पर्शन मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा उपलब्ध होता है। शेष कथन स्पष्ट है । इतनी विशेपता है कि पीतलेश्यामें आयुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू होता है। कारण कि मारणान्तिक समुद्धातके समय आयुबन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ कुछ कम नौ बटे चौदह राजू स्पर्शन उपलब्ध नहीं होता। १८२. सासादन सम्यग्दृष्टियों में सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । असंक्षियोंमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-सासादनमें विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा कुछ बारह बटे चौदह राजू स्पर्शन होता है। आयुक बन्ध हात समय मारणान्तिक समुद्धात नहीं होता। इन बातोंको ध्यान रखकर सासादनमें उक्त स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शन समाप्त हुआ। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे १८३. जहा पगर्द | दुविधो द्दिसो - श्रघेण आदेसेण य । तत्थ श्रघेण अट्टणं क० जह० अज • खेत्तभंगो । एवं पढमपुढवि० - तिरिक्ख सव्वएइंदिय - पुढवि०उ० ते ० वाउ ० तेसिं बादर - बादर अपज्जत्ता० सव्ववणफदि - णिगोद ० - सव्वसुहुम० कायजो० ओरालियका० ओरालियमि० - बेडव्वियमि० आहार० - आहारमि० कम्मइय० बुस ० - अवगदवे० - कोधादि ०४-मदि० सुद० - मरणपज्जव ० -- संजद-- सामाइ० - छेदो ०. परिहार० - सुहुमसं०-असंजद ० - अचक्खुदं० - किरण ० -- पील० - काउ० -- भवसि० -- अन्भवसि० -मिच्छादि ० - असणि आहार - अणाहारगति । 01x १०८ १८४. आदेसेण रइएसु सत्तरगं कम्माणं जह० खेत्तभंगो। अज० अणुक्कस्सभंगो । आयु० खेत्तभंगो । विदियाए याव सत्तमा त्ति सत्तणं क० जह० खेत्त० । ज० अणु-भंगो । आयु० खेत्त० । १८३. अब जघन्य स्पर्शनका प्रकरण है । इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमें से ओघकी अपेक्षा आठ कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । इसी प्रकार पहली पृथ्वी, तिर्यञ्च, सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा इन पृथिवी आदि के बादर और बादर अपर्याप्त, सब वनस्पति, सब निगोद, सब सूक्ष्मकायिक, काययोगी, औदारिक काययोगी, श्रदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, अपगतवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, श्रसंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें आठों कर्मोकी जघन्य और जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन जानना चाहिए । विशेषार्थ- - सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है और इनका स्पर्शन क्षेत्र के समान ही है, क्योंकि इन जीवोंने त्रिकालमें लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक क्षेत्रका स्पर्शन नहीं किया। तथा सात कर्मोंकी अजघन्य और आयुकर्मकी जघन्य व अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान सब लोक है; यह स्पष्ट ही है, क्योंकि एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके ये स्थितियाँ यथायोग्य उपलब्ध होती हैं । यहाँ पहली पृथिवी आदि अन्य मार्गणाओं में स्पर्शन प्ररूपणा इसी प्रकार जानना चाहिए यह कहा है सो इस कथनका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार श्रोघ स्पर्शन अपने क्षेत्रके समान है, उसी प्रकार पहली पृथिवी आदि मार्गणाओं में प्राप्त होनेवाला स्पर्शन अपने-अपने क्षेत्रके समान है । उदाहरणार्थ, पहली पृथिवी में आठ कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । यहाँ प्राप्त होनेवाला स्पर्शन भी इसी प्रकार जानना चाहिए । १८४. आदेश से नारकियोंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्यस्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है । श्रायुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-फोसणपरूवणा १८५. पंचिंदियतिरिक्ख०४-सव्वमणुस-सव्वदेव-सच्चविगलिंदिय-सव्वपंचिंदियतस-बादरपुढवि०-आउ-तेउ०-चाउ०-पज्जत्ता० बादरवणप्फदिपत्तेय० तस्सेव पज्जत्तापज्जत्त० पंचमण-पंचवचिं०-इत्थि०-पुरिस-विभंग०-श्राभि०-सुद०-श्रोधि०-संजदासंजद-चक्खुदं०-अोधिदं०-तेउ०-पम्मले०-सुक्कले०--सम्मादि०-खइग०--वेदगस०-उवसमस०-सणिण त्ति एदेसि सव्वेसिं सत्तण्णं क० जह० खेत्त० । अज० अप्पप्पणो अणुक्कस्सफोसणभंगो । णवरि आयु० एसिं जहहिदिवं० खुद्दाभवग्गहणं तेसिं जह. खेत्तभंगो । अज० अणुभंगो । सेसाणं उक्कस्सभंगो । वरि जोदिसियादिउवरिमदेवाणं सत्तएणं क० जह० सव्वदेवाणं आयु० जहएणयस्स च विहारवद फोसणं कादव्वं । विशेषार्थ-जो असंशी जोव नरकमें उत्पन्न होते हैं, उन्हींके जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है। इसीसे नरकमें जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। कारण कि ये प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होते हैं,अतः इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । इनके सिवा शेष सब नारकियोंके अजघन्य स्थितिबन्ध होता है। यही कारण है कि अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीवोंका स्पर्शन अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंके समान कुछ कम छह बटे चौदह राजू कहा है। यह सामान्य नारकियोंके स्पर्शनका विचार है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंके स्पर्शनका विचार कर लेना चाहिए । मात्र प्रत्येक पृथिवीमें अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकियोंका स्पर्शन अपने-अपने अनुत्कृष्टके समान प्रत्येक पृथिवीके स्पर्शनके अनुसार कथन करना चाहिए । १८५. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च चतुष्क, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय, सब बस, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादरजलकायिकपर्याप्त, बादरअग्निकायिकपर्याप्त, बादरवायुकायिक पर्याप्त, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इन्हींके पर्याप्त-अपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गशानी, आभिनियोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले,, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, बेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संशी इन सब जीवों में सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन अपने-अपने अनुत्कृष्ट स्पर्शनके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें जिनके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुद्रक भवग्रहण प्रमाण होता है, उनके जघन्य स्थितिकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है। शेष सब जीवोंके आयुकर्मकी अपेक्षा स्पर्शन उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंसे लेकर ऊपरके देवोंके सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका और सब देवोंके आयु कर्मके जघन्य स्थितिबन्धका विहारवत् स्वस्थान पदके समान स्पर्शन जानना चाहिए। विशेषार्थ-भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें सात कौका जघन्य स्थितिबन्ध उत्पत्तिके प्रथम और द्वितीय समयमें उपलब्ध होता है, क्योंकि इनमें असंही जीव मरकर उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन दो प्रकारके देवोंको छोड़कर ज्योतिषियोंसे लेकर शेष सब देवोंके सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध और सब देवोंके आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध विहार Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे १८६. वेडव्त्रियका० सत्तणं क० जह० अहचोदस० । अज० अह-तेरह० । आयु० जह० अज० अहचोदस० । सासण० सत्तां क० जह० ज० ग्रह-बारह० । आयु० जह० चोदस० । सम्मामिच्छादि० सत्तणं क० जह० अज० ग्रहचोदस० । एवं फोसणं समत्तं । ११० कालपरूवणा १८७. कालं दुविधं - जहरणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुविधो गिद्द ेसोदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तणं क० उक० ट्ठिदिबं० केवचि ० १ जह० उक्क० पलिदोव० संखे० । अणुक्क० द्विदिवं० केवचि० ? सव्वद्धा । एगस ०, वत्स्वस्थानमें सम्भव होनेसे इनकी अपेक्षा जहाँ विहारवत्स्वस्थोनकी अपेक्षा जो स्पर्शन हो,उतना स्पर्शन होता है । इसी बातको ध्यानमें रखकर मूलमें इस स्पर्शनका विशेष रूप से अलग से उल्लेख किया है । शेष सब मार्गणाओं के सम्बन्धमें जहाँ जो विशेष बात कही है, उसे ध्यान में रखकर स्पर्शन प्राप्त कर लेना चाहिए । १८६. वैकियिककाययोगवाले जीवों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आयु कर्मकी जघन्य और जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बड़े चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मकी जघन्य और जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछकम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ — वैक्रियिककाययोगमें कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू स्पर्शन मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा उपलब्ध होता है। यहां इस अवस्था में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका व आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, अतः इस अपेक्षासे उक्त मार्गणा में यह स्पर्शन नहीं कहा है । किन्तु सासादन में मारणान्तिक समुद्धात के समय भी सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है, इसलिए इसमें सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू कहा है । मात्र मारणान्तिक समुद्धात के समय यहां आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे कुछ कम आठ वटे चौदह राजूप्रमाण ही स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ । कालप्ररूपणा १८७. काल दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । उसमें से श्रोत्रकी अपेक्षा सात कर्मोंको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका कितना Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्स-कालपरूवणा १११ आयु० उक्क० जह० एग०, उक्क० श्रावलियाए असंखेज्जदि० । अणु० सव्वद्धा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं पुढवि-आउ-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्ते-कायजोगिओरालियका०-ओरालियमि०-कम्मइग०-गवुस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंजद०अचक्खु०-किएण-पील०-काउ०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असरिण-आहारप्रणाहारग त्ति । णवरि कम्मइ०-अणाहार० सत्तएणं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० आवलियाए असंखेज्जदिभागो।। १८८. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं मूलोघो । आयु० उक्कस्स० ओघभंगो। अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख० देवा याव सहस्सार त्ति सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-तस-बादरपुढवि० आउ०-तेउ०-वाउ०पज्जत्ता० बादरवणप्फदिपत्तेय०पज्जत्ता० पंचमण०-पंचवचि०काल है ? सब काल है। शायुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, पृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनो, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी, आहारक और अनाहा. रक जीवोंमें काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कौकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-एक जीवकी अपेक्षा कालका विचार पहले कर आये हैं। यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार किया गया है। आशय यह है कि नाना जीव अन्तरके बिना पाठों कर्मोकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका कमसे कम कितने काल तक और अधि अधिक कितने काल तक बन्ध करते रहते हैं,इसी बातका इस अनुयोगद्वारमें निर्देश किया है। यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है;यह तो स्पट ही है, क्योंकि ओघसे अनन्तानन्त जीव और यहाँ गिनाई गई मार्गणाओंमेंसे प्रत्येक मार्गणावाले यथासम्भव अनन्त या असंख्यात जीव प्रति समय आठों कर्मोंकी उत्कृष्टके सिवा किसी न किसी स्थितिका अवश्य बन्ध करते हैं । उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध काल मूलमें निर्दिष्ट किया ही है । इसका आशय यह है कि जिस स्थितिका जघन्य या उत्कृष्ट जो काल कहा है, उतने काल तक किसी न किसी जीवके उस स्थितिका निरन्तर बन्ध होता रहता है। आगे अन्तरकाल आ जाता है। १८८. आदेशसे नारकियोंमें सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल मूलोधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, देव, सहस्रार कल्पतकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय, सब त्रस, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादरजलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे वेउव्विय०-इत्थि०-पुरिस-विभंग०-चक्खुदं०-तेउ०-पम्म०-सणिण त्ति । णवरि पंचमण-पंचवचि०-वेउव्वियका० आयु० अणु० जह० एग० । १८६. मणुसेसु सत्तएणं क. उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० सव्वद्धा । आयु० उक्क० जह० एग०, उक० संखेजसम० । अणु० णिरयभंगो । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सत्तएणं क. मणुसोघं। आयु० उक्क० जह० एग०, उक्क० संखेजसम० । अणु० जह० उक्क • अंतो० । एवं सव्वहे। मणुसअपज्ज. सत्तएणं क० उक्क० अणु० जह. एग०, उक्क० पलिदो० असंखे०। आयु० णिरयभंगो। शरीर पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगशानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संक्षी जीवों में स्पर्शन जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगो और वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें आयुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है। विशेषार्थ-नरकमें सब जीवराशि असंख्यात है और आयुकर्मका बन्ध प्रत्येक जीवके अन्य कर्मके समान सर्वदा होता नहीं, इस लिए वहाँ आयुकर्मको अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सर्वदा काल न होकर वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है,ऐसा यहाँ समझना चाहिए । तथा पाँच मनोयोग, पाँच वचनयोग और वैक्रियिककाययोग इनमेंसे प्रत्येक योगका जघन्य काल एक समय होनेसे इन योगोंमें आयुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। शेष कथन सुगम है। १८९. मनुष्यों में सात कौकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल नारकियोंके समान है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सामान्य मनुष्योंके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है। विशेषार्थ-मनुष्यों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध पर्याप्त अवस्थाके होने पर ही होता है और पर्याप्त मनुष्य संख्यात है। यही कारण है कि मनुष्योंमें सात कौकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कमसे कम एक समय तक होता है, इसलिए जघन्य काल एक समय कहा है तथा एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अब मान लो संख्यात मनुष्य एकके बाद एक उत्कृष्ट स्थितिबन्धका प्रारम्भ के उस सब कालका जोड़ अन्तर्मुहर्त ही होगा। इसलिए उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यतः Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सकालपरूषणा ११३ १६०. आणद याव अवराजिदा त्ति सत्तएणं कम्माणं ओघं । श्रायु० मणुसिभंगो। एवं मुक्कले०-खइग० । १६१. सव्वएइंदिय-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-बाउ-बादरवणप्फदिपत्तेय० अपज्जत्ता तेसिं चेव सव्वसुहुम० सव्ववणप्फदि-णिगोदाणं च सत्तएणं क० उक्क० अणु० मनुष्यगति मार्गणाके जीव निरन्तर उपलब्ध होते हैं, अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध सर्वदा पाये जानेके कारण इसका काल सर्वदा कहा है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध एक समय तक होता है, इसलिए यदि कोई एक मनुष्य प्रथम समयमें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और द्वितीयादि समयोंमें कोई आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं करता,तो मनुष्योंमें श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका एक समय काल उपलब्ध होता है और यदि संख्यात समय तक निरन्तर संख्यात मनुष्य आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते रहते है,तो श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका संख्यात समय काल उपलब्ध होता है। यहाँ आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका इससे अधिक काल उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि पर्याप्त मनुष्य ही उत्कृष्ट आयुका बन्ध करते हैं और वे संख्यात होते हैं। यही कारण है कि सामान्य मनुष्योंमें श्रायुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि एक बार में एक जीवके श्रायुकर्मका बन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है। तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि निरन्तर इतने काल तक नाना जीव आयुबन्ध कर सकते हैं। इसमें लब्ध्यपर्याप्त जीवोंकी प्रधानता होनेसे यह काल उपलब्ध होता है। यही कारण है कि मनुष्योंमें आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यह सामान्य मनुष्योंकी अपेक्षा काल घटित करके बतलाया है। मनुष्योंके शेष भेदों में इस कालको ध्यानमें रखकर कालका विचार कर लेना चाहिए। सर्वार्थसिद्धिके देव संख्यात होते हैं. इसलिए उनमें मनुयिनियोंके समान आठों कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा काल उपलब्ध होता है,यह स्पष्ट ही है। १९०. श्रानत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सात कर्मोकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है। आयु कर्मका भंग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में काल जानना चाहिए। विशेषार्थ-इन मार्गणाओंमें लगातार प्रोयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनमें आयु कर्मका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान कहा है। मनुष्यपर्याप्तकोंके समान न कहकर मनुष्यनियोंके समान कहनेका कारण यह है कि मनुष्य पर्याप्तकोंसे मनुष्यिनियोंकी संख्या तिगुनी होती है, जिससे उत्कृष्ट काल अधिक उपलब्ध होता है। १६१. सब एकेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इनके अपर्याप्त और इन्हींके सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सव्वद्धा । आयु० उक० नह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे० । अणु० सव्वद्धा । १६२. वेडव्वियमि० सत्तरणं कम्मारणं उक्क० अणु० हिदिबं० कालो जह० तो०, उक्क० पलिदो० श्रसंखे० । आहारका० सत्तरणं क० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयु० उक्क० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसमया । ऋणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आहारमि० सत्तणं क उक्क० अणु० जह० उक्क० अंतो० । आयु० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम० अंतो० । श्रवगद के सुहुम ० ० सत्तणं क० छणं क० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० ! १६३. आभि० - सुद० - श्रधि० सत्तणं क० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० । अणु० सव्वद्धा । आयु० उक्क० जह० एग०, उक्क० संखेज्ज० । youtयभंग | एवं अधिदं ० सम्मादि ० वेदग० । १६४. मणपज्ज० सत्तण्णं क० उक्क० जह० टक्क० अंतो० । अणु० सव्वद्धा । आयु० मसिभंगो। एवं संजद - सामाइ० - छेदो० - परिहार० । संजदासंजदा० ह करनेवाले जीवोंका काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है । १९२. वैक्रियिकमिश्रकाययोगवाले जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है । श्राहारककाययोगवाले जोवों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। श्रायुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आहारकमिश्रकाययोगवाले जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । श्रयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमसे संख्ात समय और अन्तर्मुहूर्त है । अपगतवेदवाले और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में क्रमसे सात और छह कर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ० १९३. आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है । आयुकर्म की उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल नारकियोंके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें काल जानना चाहिए। १९४. मन:पर्ययज्ञानवाले जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल श्रन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका काल सर्वदा है। श्रायुकर्मका भंग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार संयत, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहराणकालपरूवरणा ११५ कम्माणं अोधिभंगो । उवसम-सम्मामि० सत्तएणं क० उक्क० अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० । सासण. सत्तएणं क० मणुसअपज्जत्तभंगो । आयु० उक्क० जह० एग०, उक० संखेजसम० । अणु० देवोघं । एवं उक्कस्सकालं समत्तं । १६५. जहएणगे पगदं । दुविधो णिद्द सो—ोघेण आसेण य । तत्थ अोघेण सत्तएणं क. जह० हिदिवंध० जह० उक्क० अंतो० । अज० सव्वद्धा । आयु० जह० अज. सव्वद्धा । एवं ओघभंगो णवुस०-कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि०आहारग त्ति। १६६. प्रादेसेण णेरइएमु सनगणं क० जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे०। अज० सव्वद्धा। आयु० उक्कस्सभंगो। एवं पढमाए देव-भवणवाणवें० । विदियादि याव सत्तमा त्ति उक्करसभंगो। सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में काल जानना चाहिए। संयतासंयत जीवों में आठों कर्मोंका भङ्ग अवधिशानियों के समान है। उपशम सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सासादन सम्यग्दृष्टियों में सात कर्मोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सामान्य देवोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। १९५. अब जघन्य कालका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है तथा अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। श्रायु कर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्पदा है। इसी प्रकार अोधके समान नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ-सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १९६. प्रादेशसे नारकियों में सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक सब कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-यदि एक या नाना असंशी जीव मरकर नरकमें एक साथ उत्पन्न होते हैं और वहां तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका एक समय बन्ध करते हैं, तो सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है और पावलिके असंख्यात भागप्रमाण कालतक उत्पन्न होते रहते हैं, तो इतना काल उपलब्ध होता है। यही कारण है कि नरकमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। प्रथम पृथिवी, सामान्य देष, भवनवासी और Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ महाबंधे ठिदिबंधाहियारे १६७. तिरिक्खेसु अट्ठएणं क. जह० अज० सव्वद्धा। एवं सव्वएइंदियबादरपुढवि०-ग्राउ-तेउ०-वाउ०अपज्ज० तेसिं च सव्वसुहुम० सव्ववणप्फदिणिगोद०-बादरवण पत्तेय अपनत्ता० ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज०किएण-णील०-काउ०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असएिण-अणाहारग त्ति । पंचिंदियतिरिक्ख०४ अट्ठएणं क० जह० अज० उकस्सभंगो । १६८. मणुसेसु सत्तएणं क. अोघं । आयु० जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे० । अज० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे० । एवं मणुसपज्जत्त-मणसिणीसु । गवरि आयु० उकस्सभंगो। मणसअपज्ज. सत्तएणं क० जह० जह० एग०, उक० आवलियाए असंखे०। अज० जह. खुद्दाभवग्गहणं विसमयूणं, उक्क० पलिदो० असंखे० । आयु० उक्कस्सभंगो।। व्यन्तर देवोंमें यह काल इसी प्रकार उपलब्ध होता है, इसलिए इन मार्गणाओं में यह काल उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।। १९७. तिर्यञ्चोंमें आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त तथा इन्हींके सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च चतुष्कमें आठों कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध एकेन्द्रियोंके होता है और अजघन्य स्थितिका बन्ध यथासम्भव सबके होता है तथा आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका यथासम्भव सबके होता है और अजघन्य स्थितिका बन्ध भी सबके होता है, इसलिये यहां इनका सब काल बन जाता है। यहां गिनाई गई अन्य मार्गणाओं में भी इसी प्रकार सब काल घटित कर लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनाहारकोंके आयुकर्मकी स्थितिके बन्धका काल नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता । शेष कथन सुगम है। १९८. मनुष्यों में सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है। आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें श्रायुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पावलिके असंल्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल दो समय कम मुद्रक भषग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके भसंस्थातवें भागप्रमाण है। तथा आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णकालपरूवण ११७ १६६. जोदिसिय याव सव्वहा ति उक्कस्सभंगो। सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियतस०अपज्जत्त-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०पज्जत्ता० बादरवणप्फदिपत्तेय०पज्जताणं च मूलोघं । एवं पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं बादर० वणप्फदिपत्तेय० । णवरि आयु० अोघं । ___२००. पंचिंदिय-तस०२ सत्तएणं क. मूलोघं । आयु० णिरयभंगो। एवं इत्थि०-पुरिस-विभंग०-संजदासंजद०-चक्खुदं०-तेउ०-पम्मले०-सणिण ति ।। २०१. पंचमण-पंचवचि. सत्तएणं क० जह• जह० एग०, उक्क. अंतो। अज० सव्वद्धा। आयु० उक्कस्सभंगो । कायजोगि-ओरालियका० सत्तएणं क. मणजोगिभंगो। आयु० मूलोघं । वेउब्वियमि०-आहार-आहारमि०-मणपज्जा संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार-सम्मामि० जह• अज० उक्कस्सभंगो । अवगद. विशेषार्थ-मनुष्योंमें सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिको प्राप्त मनुष्योंकी मुख्यता है और अजघन्य स्थिति बन्धमें शेष सब मनुष्योंकी मुख्यता है, इसलिए यहाँ सात कर्मीकी जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका ओघके समान काल बन जाता है। आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध यथासम्भव सब मनुष्योंकी मुख्यता है, इसलिए यहाँ आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका मूलमें कहा हुआ काल बन जाता है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंकी संख्या संख्यात होनेसे इनमें आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान ही घटित होता है। १९९. ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, प्रस अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका भङ्ग मूलोघके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इनके बादर तथा वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है। २००. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, अस और सपर्याप्त जीवोंमें सात कौंका भङ्ग मूलोधके समान है। आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है, इसी प्रकार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गलानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पालेश्यावाले और संशी जीवोंके जानना चाहिए । २०१. पाँचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। आयुकर्मका मङ्ग उत्कृष्टके समान है। काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका मन मनोयोगियोंके समान है। आयुकर्मका भङ्ग मूलोधके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी आहारककाययोगी, प्राहारकमिश्रकाययोगी, मनम्पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत. छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सम्यग्मिथ्याडष्टि जीपोंमें आठों कर्मोंकी जपन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। अपगतवेदी Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सत्तण्णं क० सुहुम० छण्णं क० जह० मूलोघं । अ० अ० भंगो । २०२. आभि० -सुद०- ओधि० सुक्क० सम्मा० खइगसम्मा०- - वेदगस ० सतगं क० मूलोघं । सुक्काए खइग० आयु० मणुसिभंगो । सेसाणं उक्कस्सभंगो । २०३. उवसमस० सत्तणं क० जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे० । सासण० सत्तरणं क० जह० ज० जह० एग०, उक्क० पलिदो असंखे० । आयु० गिरयमंगो । एवं कालं समत्तं । अंतर परूवणा २०४. अंतरं दुविधं – जहणणयं उक्कस्यं च । उक्कस्सए पगदं । दुविधो सो - श्रघेण आदेसेण य । तत्थ श्रघेण ग्रहणं क० उकस्स डिदिबंधंतरं जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे असंखेज्जा सपिरिण- उस्सप्पिणी । अणु० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं पुढवि० आउ० ते ० - वाउ० तेसिं चेव बादर ० बादर०वण० पत्तेय ० कायजोग-रालियका ० -ओरालियमि० कम्मइ० स० • जीवों में सात कर्मोंकी और सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंमें छह कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल मूलोघके समान है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल अनुत्कृष्टके समान है । २०२. श्रभिनिवोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोंका भङ्ग मूलोघके समान है । शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें श्रायुकर्मका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है तथा शेष मार्गणाओं में आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है २०३. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मीको जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । श्रयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है । इस प्रकार काल समाप्त हुआ । अन्तरप्ररूपणा २०४. अन्तर दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । उनमें से श्रधकी अपेक्षा श्राठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकालके बराबर है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार श्रोघके समान सामान्य तिर्यञ्च पृथिवीकायिक, अलकायिक, अझिकायिक, वायुकायिक और इनके बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, श्रदारिकमिश्रकाययोगी, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्स-अन्तरपरूवणा कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज-अचक्खु-किएणणील.-काउ०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असएिण-आहाराणाहारग त्ति । ०५. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं उक्क० अणु० हिदिवंधंतरं ओघो । आयु० उक. जह० एग०, उक्क० अंगुल० अंसखे० असं० ओसप्पि. उस्सप्पि० । अणु० जह० एग०, उक्क चव्वीसं मुहु० अडदालीसं मुहुर्त पक्खं मासं बे मासं चत्तारि मासं छम्मासं बारसमासं । । २०६. पंचिंदिय-तिरिक्ख. सत्तएणं क. ओघं । आयु० उक्क० ओघं । कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंझी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा आठों कमौके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निरूपण किया गया है। प्रोघसे सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण है । सो इसका यह अभिप्राय है कि यदि सात कमौंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध न हो, तो कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक सात कौमेंसे प्रत्येक कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव नहीं होता। परन्तु अनुकृष्ट स्थितिके बन्धके लिए यह बात नहीं है । उसका बन्ध करनेवाले सब या बहुत जीव सर्वदा पाये जाते हैं । यह ओघ प्ररूपणा अन्य जिन मार्गणाओं में सम्भव है, उनका निरूपण ओघके समान है; ऐसा कहकर यहाँ उनका नाम निर्देश किया है। मात्र इनमेंसे कितनी ही मार्गणात्रोंमें श्रोध उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और कितनी ही मार्गणाओं में आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए । २०५. आदेशसे नारकियों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसपिणी कालके बराबर है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे चौबीस महर्त, अड़तालीस मुहूर्त, एक पक्ष, एक महीना', दो महीना, चार महीना, छह महीना और बारह महिना है। विशेषार्थ-नरक सामान्य, और प्रथम पृथिवी आदि सात पृथिवियोंमें आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल अलग-अलग है जो उक्त आठ स्थानों में उत्पत्तिके अन्तर कालके समान है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई जीव मरकर नरकमें उत्पन्न हो,तो कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक बारह मुहूर्त तक नहीं उत्पन्न होता। इसके बाद कोई न कोई जीव किसी न किसी नरकमें अवश्य ही उत्पन्न होता है। इन । इसी प्रकार प्रथमादि पृथिवियों में क्रमसे अड़तालीस मुहूर्त आदि काल प्रमाण उत्कृष्ट उत्पत्तिका अन्तर है। जो यह उत्पत्तिका अन्तर है, वही अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर है,यह उक्त कथमका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है। २०६. पञ्चद्रिय तिर्यञ्च चतुष्को सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। आयुकर्मकी Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० महाबंधे टिदिबंधाहियारे अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो। पज्जत्त-जोणिणीसु चउवीसं मुहुत्तं । अपज्जत्ते अंतो। २०७. मणुस०३ सत्तएणं क. अोघं । श्रायु० उक्क० ओघं । अणु० णिरयभंगो। मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि अट्टएणं क. अणु. जह० एग०, उक्क० पलिदो० असंखे । २०८. देवा० णिरयभंगो । णवरि सव्वढे आयु० अणुक्क० जह० एग०, उक्क पलिदो० संखेज। २०६. सव्वएइंदि०-बादरपुढवि०-अाउ-तेउ०-वाउ अपज्जत्ता तेसिं चेव सबसुहुम० सव्ववणप्फदि-णिगोद० बादरवण पत्तेय अपज्जत्त० सत्तएणं क उक्त अणु० णत्थि अंतरं । आयु० मूलोघं। सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-तस सव्वपंचिंदियतिरिक्खभंगो । बादरपुढवि०-ग्राउ-तेउ०पज्जत्ता० बादरवणप्फदि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर अोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। पर्याप्त तिर्यञ्च और योगिनी तिर्यञ्चोंमें उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है । तथा अपर्याप्त तिर्यञ्चोंमें अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहां पर्याप्त तिर्यश्च और योगिनी तिर्यञ्चोंमें चौबीस मुहूर्त आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कहा है। तथा सामान्य और अपर्याप्त तिर्यञ्चोंमें यह अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। सो इस कथनका यह तात्पर्य प्रतीत होता है कि यदि इस बीच आयुकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध न हो तो जिसका जितना अन्तरकाल कहा है, उतने कालतक उस-उस मार्गणामें आयुकर्मका बन्ध करनेवाला एक भी जीव नहीं होता। ___ २०७. मनुष्य त्रिकमें सात कौका भङ्ग ओघके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आठों कौकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। २०८. देवोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सर्वर्थसिद्धिमें श्रायुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धं करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके सख्यातवें भागप्रमाण है। २०९. सब एकेन्द्रिय, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादरअग्निकायिक अपर्याप्त, बादरवायुकायिक अपर्याप्त और उन्हींके सब सूक्ष्म, सब वनस्पति, सब निगोद, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवों में सात कौकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मका भङ्ग मूलोधके समान है। सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय और सब सोंका भङ्ग सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादरजलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सअंतरपरूषणा पज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्वभंगो। णवरि तेउ० आयु० अणु० जह० एग०, उक्क० चउवीसं मुहुत्तं । ___ २१०. पंचमण-पंचवचि०-वेउव्वियका०-इत्थि०-पुरिस-विभंग-चक्खुदं०सएिण. मणुसभंगो। वेउव्वियमि० सत्तएणं क. उक्क० ओघं । अणु० जह. एग०, उक्क० बारस मुहुत्त । आहार-आहारमि० अहरणं कम्माणं उक्क० अोघो । अणु० जह• एग०, उक्क० वासपुधत्तं । २११. अवगद-सुहुमसं० सत्तएणं क० छएणं क० उक० जह• एग, उक्क ० वासपुधत्तं । अणु० जह• एग०, उक्क छम्मासं । २१२. आभि०-सुद-प्रोधि० सत्तएणं क० अोघं । आयु० उक्क० अोघं । अणु० जह• एग०, उक्क० मासपुधत्तं । एवं अोधिदं०-मुक्कले०-सम्मादि०-खइगस०पर्याप्त जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक पर्याप्त जीवों में आयुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है। २१०. पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गशानी, चक्षुदर्शनी और संझी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। श्राहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है। विशेषार्थ-लोकमें वैक्रियिक मिश्रकाययोग कमसे कम एक समयतक और अधिकसे अधिक बारह मुहूर्ततक नहीं होता। इसी प्रकार आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। इसीसे वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें सात कमौके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त कहा है। तथा आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें आठों कर्मों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। २११. अपगतवेदी और सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवोंमें क्रमसे सात और छह कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है विशेषार्थ-उक्त मार्गणाओं में उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर उपशम श्रेणिके अन्तरकी और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर क्षपकश्रेणिके अन्तरकी अपेक्षासे कहा है। २१२. आमिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में सात कौका भङ्ग श्रोधके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग ओधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और १.ध० पु०.७,पृ. ४८५। २. ध पुक,पृ. ४८५ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वेदग० । गवरि खइग० आयु० अणु० उक्क ० बास धत्तं । मरणपज्ज सत्त कम्माणं ओघं । आयु० उक्क० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक्क ० एवं परिहार - संजद - सामाइ० - छेदो० । संजदासंजदा ० श्रधिभंगो | पुतं । C २१३. तेउ०- पम्प ० सत्तणं क० ओघं । आयु० उक्क० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक्क० अडदालीसं मुहुत्तं पक्खं । उवसम० सत्तणं क० उक्क० ओघं । अणु० ० जह० एग०, उक्क० सत्त रार्दिदियाणि । सासण० सम्मामि० मरणुस पज्जत्तभंगो । २१४. जहए पदं । दुविधो पिसो - श्रघेण देण य । तत्थ घेण उत्कृष्ट अन्तर मास पृथक्त्व है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, ● क्षायिक सम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । मन:पर्ययज्ञानो जीवोंमें सात कमका भङ्ग श्रधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए । संयतासंतोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है । विशेषार्थ - यहां जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं वे सब निरन्तर मार्गणाएँ हैं, इसलिए इनमें सात कर्मों के अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव निरन्तर पाये जाते हैं; यह तो स्पष्ट ही है । पर आयुकर्मका बन्ध सर्वदा न होकर त्रिभागमें तद्योग्य परिणामों के होनेपर ही होता है, इसलिए श्रायुकर्मके स्थितिबन्धकी अपेक्षा अन्तरकाल प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती। फिर भी वह अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धको अपेक्षा कितना होता है, यह ही स्वतन्त्र रूप से यहां बतलाया गया है। शेष कथन सुगम है । २१३. पीत लेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग श्रोघके समान है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे अड़तालीस मुहूर्त और एक पक्ष है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है । विशेषार्थ—पीत और पद्मलेश्या भी निरन्तर मार्गणाएँ हैं । तथापि इनमें श्रायुकर्मका सर्वदा बन्ध नहीं होता। इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर तो ओघके समान है और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कितना है, यही बात यहां स्वतन्त्र रूपसे बतलाई गई है । यहां कही गई उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये तीन सान्तर मार्गणाएँ हैं, इसलिए इनका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल है, . वही इनमें अपने-अपने कर्मोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर है । उसमें भी सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है, इसलिए इनका कथन मनुष्य अपर्याप्तकों के समान कहा है। शेष कथन सुगम है । २१४. जघन्य अन्तरका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-अंतर परूवणा १२३ सत्तणं क ० जह० हिदिबं० जह० एग०, उक० छम्मासं । अज० णत्थि अंतरं । आयु० जह० अजह० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालियका ० - कोधादि ० ४ - अचक्खुदंसणि आहारग ति । २१५. सव्वणिरय - सव्व पंचिंदियतिरिक्ख-मरणुस पज्ज० - सव्वदेव सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस पज्ज० - वेडव्वि ० - वेडव्वियमि० - आहार ० - आहारमि० - विभंग०-परिहार० - संजदासंजद ० तेउ०- पम्म०- - वेदग० - सासरण ० -सम्मामि० एदेसिं उकस्सभंगो । २१६. तिरिक्खे हरणं क० जह० ज० रात्थि अंतरं । एवं सव्वएइंदिय - बादरपुढवि ० उ० तेउ०- वाउ ० अपज्जत्ता ० तेसिं चैव सव्वसुहुम० सव्ववरणफदि - रियोद० - बादरवण ० पत्ते ० अपज्जत्त० - ओरालियमि० - कम्मइ० -मदि० - सुद०संज० - किरण- पील- काउ० प्र०भवसि ० - मिच्छादि ० - अस रिण आहारगति । O आदेश । उनमें से श्रोघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । श्रायुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करने वाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार श्रोघके समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - क्षपक श्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण है । यही कारण है कि यहाँपर जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण कहा है। सात कर्मोंकी अजघन्य स्थितिका बन्ध और श्रयुकर्म की जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव निरन्तर उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनका अन्तर नहीं कहा है। यहाँ गिनाई गई अन्य मार्गणाओं में यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनका श्रन्तर श्रोघके समान कहा है । २१५. सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, विभङ्गशानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन मार्गणाओंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ - आशय यह है कि उत्कृष्ट काल प्ररूपणा में जिस प्रकार इन मार्गणाओं में आठ कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर कहा है, उसी प्रकार यहांपर जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल जानना चाहिए और जिस प्रकार वहां अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल कहा है, उसी प्रकार यहां अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल जानना चाहिए । २१६. तिर्यञ्चों में आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और उन्हीं के सब सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंत्री और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे २१७. मणुस०३ सत्तएणं क० ओघं । णवरि मणुसिणीसु वासपुधत्तं । आयु० उक्कस्सभंगो। मणुसपज्जत्तभंगो पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-पुरिस०चक्खुदंसणि त्ति । गवरि पुरिस० सत्तएणं क. वासं सादिरेयं ।। २१८. पुढवि०-ग्राउ-तेउ०-वाउ० तेसिं बादर० बादरवणप्फदिपत्तेय० सत्तएणं क० उक्कस्सभंगो। आयु० अजह० जह० पत्थि अंतरं । तेसिं पज्जत्ता० उक्कस्सभंगो । इत्थि० उकस्सभंगो । गवरि सत्तएणं क० जह० जह० ए०, उक्क० वासपुधत्तं । एवं गर्नुस । णवरि आयु० ओघं । अवगदवे०-सुहुम० सत्तएणं क० छएणं क० जह० अज० जह० एगस०, उक्क० छम्मासं ।। २१६. आभि०-सुद-बोधि० सत्तएणं क. अोघं । णवरि अोधि० वासपु २१७. मनुष्यत्रिकमें सात कोका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुयिनियों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, प्रस, प्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, पुरुषवेदी और चक्षुदर्शनी जीवों में अन्तरकाल मनुष्यपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदी जीवों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है। विशेषार्थ-वैसे पुरुषवेदकी अपेक्षा क्षपकश्रेणीमें उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, पर 'मनुष्य पर्याप्त' शब्दसे पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण होता है,इसलिए मनुष्य पर्याप्त जीवों में सात कौंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान छह महीना कहा है । क्षपकश्रेणिमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है, इसलिये मनुष्यिनियों में सात कौंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका यह उत्कृष्ट अन्तर कहा है। शेष कथन स्पष्ट है। २१८. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इनके बादर तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों में सात कौकाभङ्ग उत्कृष्टके समान है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इनके पर्याप्त जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है स्त्रीवेदवाले जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदियों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मका भङ्ग अोधके समान है। अपगतवेदी और सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवों में क्रमसे सात कर्मों और छह कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट छह महीना है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना होनेसे अपगतवेद और सूक्ष्मसाम्परायसंयतका यही अन्तर उपलब्ध होता है। यही कारण है कि इन दोनों मार्गणाओं में क्रमसे सात और छह कौंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उक्त प्रमाण अन्तर काल कहा है। शेष कथन स्पष्ट है। २१६. आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कौकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर ओघके समान है। इतनी विशेषता Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपरूवणा १२५ धत्तं । आयु० उक्कस्सभंगो । एवं अोधिदं० । सुक्क०-सम्मादि०-खइग० आभिणि०भंगो । मणपज्ज. सत्तणं क. जह• जह० एगस०, उक० वासपुधत्तं । सेसाणं उक्कस्सभंगो। ___ २२०.संजदे सत्तएणं क० ओघ । आयु० उक्कस्सभंगो । एवं सामाइ०-छेदो० । परिहार० मणपज्जवभंगो । उवसम० सत्तएणं क० जह० जह० एग०, उक्क० वासपुध० । अज० जह० एग०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । एवं अंतरं समत्तं ।। भावपरूवणा २२१. भावाणुगमेण दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्क० पगदं। दुवि०ओघे० आदे० । तत्थ ओघेण अट्ठएणं कम्माणं उक्स्साणु बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं अणाहारग त्ति णेदव्वं । है कि अवधिज्ञानमें जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। प्रवधिज्ञानी जीवीके समान अवधिदशनी जीवोके जानना चाहिए। शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानियोंके समान है। मनःपर्ययज्ञानी जीवों में सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। शेषका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और अवधिदर्शनका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण होनेसे इन मार्गणाओंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट है। २२०. संयतोंमें सात कोका भङ्ग ओघके समान है। आयु कर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयतोंका भङ्ग मनःपर्ययशानके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। विशेषार्थ-उपशम श्रेणिका जघन्य अन्तर. एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण होनेसे यहां उपशमसम्यक्त्वमें सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण कहा उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात होनेसे इसमें इन्हीं सात कौका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात कहा है। शेष कथन सुगम है।। इस प्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ। भावप्ररूपणा २२१. भावानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा आठों कर्मोका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाले जीवोंका कौन-सा भाव है ? औदयिक भाव है। उसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १. ध० पु. ७५० ४६१,४६२ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंध ट्ठिदिबंधाहियारे २२२. जह० पदं । दुवि० – ओघे० दे० । तत्थ श्रघेण श्रहण क० जह० ज० को भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारगति ऐदव्वं । जीवमप्पाबहुगपरूवणा २२३. अप्पाबहुगं दुविधं - जीव अप्पा बहुगं चैव विदिअप्पाबहुगं चेव । जीवअप्पा बहुगं तिविधं - जहणणं उक्कस्सं जहण्णुक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०देसेण य । तत्थ घेण सव्वत्थोवा हरणं क० उक्तस्सगट्ठिदिबंधगा जीवा । अणु० ट्ठिदिबंधगा जीवा अांतगुणा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगिओरालिय० -ओरालियमि० कम्मइ० स० - कोधादि ० ४-मदि० - सुद० - असं०-अचक्खु०- किरण ० - गील० - काउ०- भवसि ० - अब्भवसि० - मिच्छादि ० - असरिण० - आहार०अरणाहारगति | १२६ २२२. अब जघन्य भावानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैघ और आदेश । उनमेंसे श्रोध की अपेक्षा आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कौनसा भाव है ? श्रदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - यद्यपि ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवों का कोई भी भाव होता है, पर यहां पर स्थितिबन्ध के कारणभूत भावका ग्रहण किया है । यह भाव सिवा औदयिकके अन्य नहीं हो सकता, इससे यहां एक मात्र श्रदयिक भावका निर्देश किया । अन्यत्र भी स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारणभूत भाव एकमात्र कषाय बतलाया है। इससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । इस प्रकार भावप्ररूपणा समाप्त हुई । जीव अल्पबहुत्व प्ररूपणा २२३. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - जीव अल्पबहुत्व और स्थिति अल्पबहुत्व | जीव अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है- जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमें से श्रोघकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, श्रदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी, आहारक और अनाहारक मार्गणाओं में जानना चाहिए । विशेषार्थ - यहाँ अल्पबहुत्व दो प्रकारका कहा है- जीव अल्पबहुत्व और स्थिति अल्पवद्दुत्व | कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका श्रघ और श्रादेशसे अल्पबहुत्व जिस प्रकरणमें कहा गया है, वह जीव अल्पबहुत्व प्ररूपणा है और जिस प्रकरणमें कर्मोंकी उत्कृष्टादि स्थिति, उनकी आबाधा आदिका अल्पबहुत्व कहा गया है, वह स्थिति अल्पबहुत्व है । उनमेंसे सर्वप्रथम जीव अल्प Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवअप्पा बहुग परूवणा ु २२४. देसेण रइएसु सव्वत्थोवा हरणं क० उक्क० बंध० । [ अणुक्कस्स-] द्विदिवं जीवा असंखेज्जगुणा । एवं गिरयभंगो सव्वेसिं असंखेज्जरासीणं । मणुसपज्जत - मणुसिणीसु सव्वत्थोवा अट्टणं क ० [उकस्सहिदि-] बं० जीवा । अणु० जीवा संखेज्जगुणा । एवं सव्वेसिं संखेज्जरासीणं । एइंदिय-वरणप्फदि-शियोदेसु आयु० मूलोघं । सत्तण्णं कम्माणं णिरयभंगो । ०बं० अज० २२५. जहगए पगदं । दुवि० - ओघे० दे० । श्रघेण - सत्तणं क० सव्वत्थोवा जह० । अज० बंध० जीवा अांतगु० । आयु० सव्वत्थोवा जह० बंध ० जीवा असंखेज्जगु० । एवमोघभंगो कायजोगि ओरालियका ० स ० - कोधादि ०४अक्खुर्द ० भवसि ० अणाहारग ति । सेसाणं सव्वेसिं परित्तापरित्ताणं रासीगं 'घेतू अट्टणं सत्तणं पि सव्वत्थोवा जह० हिदिबं० । अजह० द्विदिबं० जीवा असंखेज्जगुणा । संखेज्जरासीणं पि सव्वत्थोवा जह० । अजह ० संखेज्जगु० । २२६. जहण्णुक्कस्सए पगदं । दुवि० – ओघे० दे० । श्रघेण सव्वत्थोवा बहुत्वका आश्रय लेकर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहा गया है । श्रघसे आठों कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं, इसलिए उक्त प्रमाण अल्पबहुत्व कहा है । शेष कथन स्पष्ट है । २२४. देशसे नारकियों में आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार नारकियोंके समान सब असंख्यात राशियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार सब संख्यात राशियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें श्रयुकर्मका अल्पबहुत्व मूलोघके समान है । तथा सात कर्मोंका अल्पबहुत्व नारकियोंके समान है । २२५. जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रध और आदेश । श्रघसे सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगुणे हैं । श्रायुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार के समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषाय वाले, श्रचक्षुदर्शनी, भव्य, और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। शेष सब परीतापरीत राशियों को ग्रहणकर आठ कर्मों और सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । संख्यात राशियों की अपेक्षा भी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । श्रजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । २२६. जघन्योत्कृष्ट अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैश्रध निर्देश और देश निर्देश । उनमेंसे श्रोघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका १. मूलप्रत्तौ मोत्तण इति पाठः । २. मूलप्रतौ प्रजह० श्रसंखेज्जगु० इति पाठः । १२७ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे सत्तएणं क० जहहिदिबं० जीवा । उक्कस्साहिदिबंध० जीवा असंखेज्जगुणा । अजहएणमणुक्कस्सहिदिवं० जीवा अणंतगु० । आयुग० सव्वत्थोवा' उक्क डिदिबं० जीवा । जह हिदिवं० जीवा अणंतगु० । अज०अणु० असंखेजगु० । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालियका०-णस०-कोधादि०४-अचखुदं०-भवसि०-आहारग त्ति । २२७. आदेसेण ऐरइएसु सव्वत्थोवा सत्तएणं क० जहहिदिवं० । उक्क०हिदिबं० असंखेजगु० । अज०अणु० असं० गु० । आयु० सव्वत्थोवा उक० । जह ट्ठिदिवं. असं०गु० । अजहएणमणु०७० असं०गु० । एवं सव्वणिरय० देवाणं याव सहस्सार त्ति । २२८. तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा अण्णं कम्माणं उक्क०हिदिवं० जीवा । जह०हिदिबं० जी० अणंतगु० । अज०मणु० हिदिवं. असं०गु० । पंचिंदियतिरिक्ख०४ सव्वत्थोवा अट्टएणं कम्माणं उक्क० । जह० असं०गु० । [अज०मणु० असं गु० ।] एवं पंचिंदिय-तसअपज्ज० । ___ २२६. मणुसेसु सत्तएणं कम्माणं थोवा जहहिदिबं० । उक्क०हिदिबं. संखेज्जगु० । अज०मणु० असं०गु० । आयु० णिरयभंगो। एवं मणुसपज्जत्त-मणुबन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगुणे हैं। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करने वाले जीव सबसे स्तोक हैं । जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात गुणे हैं। इसी प्रकार अोधके समान काययोगी, औदारिक काययोगी,नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । २२७. आदेशसे नारकियोंमें सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य देव, सहस्रारकल्प तकके देवोंके जानना चाहिए । २२८. तिर्यञ्चोंमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जोव असंख्यातगुणे हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च चतुष्कमें आठों कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करने वाले जीव असंख्तातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवों के जानना चा २२९. मनुष्यों में सात कमौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे है । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असं १. मूलप्रतौ सम्वत्थोवा सत्तएणं क. उक्क० इति पाठः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन पावहुगपरूवणा १२९ सिणीसु | गवरि संखेज्जं कादव्वं । एवं सव्वट्टे । मणुस अपज्जत्ता ० गिरयभंगो । २३०. आरणद याव रणवगेवज्जा त्ति सत्तणं क० थोवा उक्क० हिदिबं० । [ जह० ] संखे० गु० । अजह०म० श्रसंखेज्जगु० । आयु० मणुसिभंगो । अणुद्दिसादि याव अवराइदा ति सत्तरगं क० थोवा जह० द्विदिबं० । उक्क० हिदिबं० संखेज्जगु० । ज०म० असंखेज्जगु० । आयु० मसिभंगो । २३१. एईदिएसु सत्तणं क० थोवा जह० हिदिबं० । उक्क० हिदिबंध ० संखेज्जगु० । ज०मद्विदिवं असंखेज्जगु० । आयु० मूलोघं । एवं सव्वएइंदिय- सव्वविगलिंदियसव्व पुढ वि० उ०- तेउ०- वाउ ० - वणप्फदि - रिणयोद ० - बादरवणप्फ of ० पत्तेय ० 1 वरि वफद -गियोदेसु यु० एइंदियभंगो । सेसाणं पंचिदियतिरिक्खभंगो । २३२. पंचिंदिय-तस० सत्तणं क० सव्वत्थोवा जह० द्विदिवं० । उक्कट्टिदिबं० असंखेज्जगु० । अज०म० द्विदिबं० असं० गु० । आयु० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एवं पंचमरण ० - पंचवचि ० - वेडव्वियका ० - वेडव्वियमि० इत्थि० - पुरिस० विभंग ०-संजदासंजद ० - चक्खुदं० तेउ०- पम्म० - सम्मामि ० - सरि ति । ओरालियमि० सव्वत्थोवा O ख्यात स्थानमें संख्यात कहना चाहिए । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए । मनुष्य पर्यातकों का भङ्ग नारकियोंके समान है । २३०. आनतकल्पसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले देव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले देव संख्यातगुणे हैं । इनसे श्रजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले देव श्रसंख्यातगुणे हैं। श्रयुकका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवों में सात कमकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले देव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले देव संख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले देव असंख्यात - गुणे हैं। आयुकर्मका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । २३१. एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणें हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । श्रायुकर्मका भङ्ग मूलोघके समान है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब कायिक, सब वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में आयुकर्मका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है और शेष मार्गणाओं में आयुकर्मका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोके समान है । २३२. पञ्चेन्द्रिय और प्रसकायिक जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यातगुणें हैं । इमसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणें हैं। आयुकर्मका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है। इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैकियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संशी जीवके जानना चाहिए । १७ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अट्ठएणं क० उक्क हिदिवं० । जहहिदिबं० अणंतगु० । अज०मणु हिदिवं० असं०गु० । एवं कम्मइ०-दि०-सुद०-असंज-किरण०-णील०-काउ०-भवसि०मिच्छादि०-असएिण-अणाहारग ति । आहार-आहारमि० सत्तएणं क. सव्वत्थोवा जहहिदिवं । उक्त हिदिबं० संखेज्जगु० । अज०मणु हिदिव० सं०गु० । आयु. मणुसिभंगो । एवं मणपज्जव-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहारग त्ति । अवगदवे०-सुहुमसं० सत्तएणं क० छएणं क० उक्क.हिदिवं. थोवा । जहहिदिबं० संखेज्जगु० । अज०मणु हिदिव० संखेज्जगु० । २३३. आभि-सुद०-अोधि० सत्तएणं क० सव्वत्योवा जहहिदिवं० । उक्क०हिदिबं. असं०गु० । अज०मणु हिदिबं. असं०गु० । आयु. सव्वत्थोवा उक्क० द्विदिबं० । जह०दिदिबं० संखेजगु० । अज०मणुहिदिवं. असं०गु० । एवं अोधिदं०-सम्मादि०-वेदगसम्मादि० । २३४. मुक्कले० सत्तएणं क०सव्वत्थोवा जह०हिदिबं०। उक्क डिदिबं. असं०गु० । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में पाठ कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक है। इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगणे हैं। इनसे अजा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार कार्मणकाययोगी, मत्यहानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंही और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अज घन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुण हैं। आयुकर्मका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। इसी प्रकार मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए। अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में क्रमसे सात कर्म और छह कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणें हैं। २३३. आभिनिबोधिकमानी, श्रुतशानी और अवधिज्ञानी जीवों में सात कौंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्य. ग्दृष्टिके जानना चाहिए । २३४. शुक्ललेश्यावाले जीवों में सात कमौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे १' मूलप्रतौ हिदिबं० सं० गु० इति पाठः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिदि अप्पा बहुगपरूवणा १३१ अज०म० द्विदिबं० [सं० गु० । आयु० मरपुसिभंगो। एवं खइगस० । उवसम० सत्तणं क० सव्वत्थोवा जह० द्विदिबं० । उक्क० असं० गु० । अज०मरणुद्विदिबं० असंखे० गु० । सासरण ० सव्वत्थोवा सत्तणं क० जह० द्विदिबं० । उक्क० हिदिबं० असं० गु० । अज०म० द्विदिबं० असं ० गु० । आयु० सव्वत्थोवा उक्क० द्विदिबं० । जह० द्विदिवं ० असं० गु० । अज०मणुद्विदिवं असं० गु० । एवं जीव अप्पाबहुगं समत्तं । हिदिअप्पाबहुगपरूवणा • २३५. ट्ठिदिअप्पा बहुगं तिविधं - जहणणयं उक्कस्सयं जहरगुक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । सव्वत्थोवा ग्रहणं कम्मारणं उकस्सओ हिदिबंधो । यद्विदिबंधो विसेसाधियो । एवं याव अणाहारग ति दव्वं । २३६. जहण्णए पगदं । अट्ठएणं कम्माणं सव्वत्थोवा जहरणओ हिदिबंधो । दिबंध विसेसाधियो । एवं याव अणाहारग ति दव्वं । २३७. जहण्णुक्कस्सए पगदं । दुवि घे० दे० । श्रघेण श्रहरणं कम्माणं सव्वत्थोवा जहरणद्विदिबंधो । यद्विदिबंधो विसेसाधियो । उक्कस्सद्विदिबंधो श्रसंखेज्जगु० । यद्विदिबंधो विसेसा० । एवं ओघभंगो मणुस ० ३ - पंचिंदिय-तस० २ - पंचमण० अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । श्रायुकर्मका भङ्ग मनुयिनियोंके समान जानना चाहिए। इसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिए । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यातगुणें हैं । इनसे जघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणें हैं। इनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणें हैं। इस प्रकार जीव अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । स्थिति अल्पत्वप्ररूपणा २३५. स्थिति अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है- जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । इसकी अपेक्षा आठ कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । २३६. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा आठों कमका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । २३७. जघन्य उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रघ और आदेश । श्रोधकी अपेक्षा आठ कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार श्रधके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका-इत्थि०-पुरिस०-णवुस०-कोधादि०४-आमि०सुद-श्रोधि०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-श्रोधिदं०-सुक्कले -भवसि-सम्मादि०-खइगस०उवसम-सएिण-आहारग त्ति । २३८. आदेसेण णेरइएसु अट्ठएणं क. सव्वत्थोवा जहहिदिबंधो । यहिदिबंधो विसेसाहिो । उक्त हिदिव० संखे गु० । यहिदिबंधो विसेसाधियो । एवं सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्खअपज्जा-मणुसअपज्जा-सव्वदेव-पंचिंदिय-तसअपज्ज-ओरालियमि०--वेन्धियमि-आहार-आहारमि०-कम्मइ०-सम्मामि०-- अणाहारग त्ति । २३६. तिरिक्खेमु सत्तएणं क. सबत्योवा जह हिदिबंधो। यहिदिबंधो विसे । उक्त हिदिव० सं०गु० । यहिदिवं. विसेसा०। आयु० जहहिदिवं० सव्वत्थोवा । यहिदिबंधो विसेसाधिो । उक्त ट्ठिदिवं. असंखेगु० । यहिदिबं. विसे । एवं तिरिक्खोघमंगो पंचिंदियतिरिक्ख०३-मदि०-सुद०-विभंग-असंज०किएण०-गील०-काउ०-तेउले०-पम्मले०-अब्भवसि०-सासण-मिच्छादिहि त्ति । २४०. एइंदिएसु सत्तएणं कम्माणं सव्वत्थोवा जहहिदिवं० । यढिदिवं. ...................................... मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, प्रचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संक्षी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। २३८. आदेशसे नारकियोंमें आठों कौका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ-वैक्रिषिकमिश्रकाययोगी और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन दो मार्गणाओं में प्रायुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें सात कर्मोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिए । २३९. तिर्यञ्चों में सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके समान पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, मत्यज्ञानी, श्रुताशाली, विमङ्गबानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पालेश्याषाले, प्रभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीबोंके जानना चाहिए । २४०. एकेन्द्रियों में सात कोका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयो ट्ठदिप्पा बहुगपरूवणा १३३ विसे० । उक्क० द्विदिबं० विसे० । यद्विदिबं० विसेसा० । आयुग० गिरयभंगो । एवं सव्वएइंदिय - विगलिंदिय-पंचकायाणं । २४१. अवगदवे० रंगारगाव - दंसरणाव० - मोह ० - अंतराइग० सव्वत्थोवा जह०हिदिबं० । यद्विदिबं० विसे० । उक्क० द्विदिवं संखेज्जगु । यद्विदिबं० विसे० | वेदीय - गामा-गोदाणं सव्वत्थोवा जह० द्विदिबं० । यहिदिबं० विसे० । उक्क०द्विदिबं० असं० गु० । यद्विदिबं० विसे० । २४२. मरणपज्ज० सत्तणं क० ओघं । आयु० गिरयभंगो । एवं संजदसामाइ ० - छेदो० । २४३. सुहुमसं० छण्णं कम्माणं सव्वत्थोवा जह० द्विदिबं० । यहिदिबं० विसे० । उक्क० द्विदिबं० संखेज्जगु० । यद्विदिबं० विसे० । २४४. परिहार० - संजदासंज० - वेदगस० देवभंगो । वरि वेदग० आयु० ओधिभंगो । असण्णि० सत्तणं क० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । आयु० मूलोघभंगो । एवं द्विदिप्पा बहुगं समत्तं । २४५. भूयो हिदिपाबहुगं दुविधं - सत्थारण अप्पाबहुगं चैव परत्थाणअप्पाबहुगं चैत्र । सत्थाणअप्पाबहुगं द्विदिअप्पा बहुगभंगो । परत्थारणप्पाबहुगं तिविधं - 1 विशेष अधिक है । श्रायुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है । इस प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच कायवाले जीवोंके जानना चाहिए। २४१. अपगतवेदी जीवोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रसंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २४२. मन:पर्ययज्ञान में सात कर्मोंका भङ्ग श्रधके समान है। आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंत जीवोंके जानना चाहिए । २४३. सूक्ष्मसाम्पराय संयतों में छह कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । २४४. परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सामान्य देवोंके समान अल्पबहुत्व है । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । असंशी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है और आयुकर्मका भङ्ग मूलोघके समान है । इस प्रकार स्थिति अष्पबहुत्व समाप्त हुआ । २४५. पुनः स्थिति अल्पबहुत्व दो प्रकारका है— स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व | स्वस्थान अल्पबहुत्व स्थिति अल्पबहुत्वके समान है । परस्थान अल्पबहुत्व Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vr ~ mrvivoriwwwvvvvvvvv महाबंधे द्विदिबंधाहियारे जहएणयं उक्स्स यं जहएणुकस्सं च । उकस्सए पगदं । दुवि०–ोघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण सव्वत्योवा आयु० उक्कहिदिबं० । यहिदिवं. विसे । णामा-गोदाणं उक्क हिदिबं० संखेज्जगु० । यहिदिबं० विसे० । चदुएणं क. उक्क हिदिबं विसे । यहिदिबं० विसे । मोह० उक्क हिदिवं. संखेज्जगु० । यहिदिवं० विसे । २४६. आदेसेण णेइरएमु सव्वत्थोवा आयु. उक्क हिदिबं । यहिदिबं० विसे । णामा-गोदाणं उक्क हिदिवं. असं० गु० । यहिदिवं० विसे । चदुषणं क. उक हिदिवं. विसे० । यहिदिवं० विसे० । मोह० उक हिदिबं० संखेज्जगु० । यहिदिबं० विसे । एवं सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्खअफजल-मणुसअपज्ज-सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं पंचिंदिय-तसअपज्ज-ओरालियमि०-वेउव्वियका०असएिण त्ति। २४७. अोघभंगो तिरिक्ख०४-मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०कायजोगि-ओरालियका०-इत्थि-पुरिस०-णवंस०-कोधादि०४-मदि-सुद-विभंगअसंज-चक्खुदं०-अचक्खुदं-किरण-पील-काउ०-तेउ०-पम्मले०-सुक्कले०-भवसि-अब्भवसि०-मिच्छादि-सरिण-आहारग त्ति । २४८. सव्वदेवा० णिरयभंगो। णवरि अणुदिस याव सव्वहा त्ति उवरि तीन प्रकारका है-जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २४६. आदेशसे नारकियों में प्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कमौका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सब नारको, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पांचों स्थावरकाय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, अस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिक काययोगी और असंशी जीवोंके जानना चाहिए। २४७. तिर्यश्च चतुष्क, मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियविक, प्रसद्विक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभंगवानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पनलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संक्षी और आहारक जीवोंके अोधके समान भङ्ग हैं। २४८. सब देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे १. मूलप्रतौ उवरि बहुतं. मोह० इति पाठः । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयो द्विदिअप्पाबहुगपरूवणा १३५ मोह० उक्क द्विदि० विसे । यहिदिबं० विसे । २४६. आहार-आहारमि० सव्वहभंगो। णवरि णामा-गोदा० संखेज्जगु० । वेउव्वियमि० सव्वत्थोवा णामा-गोदा उक्क हिदिबं० । यहिदिबं० विसे० । चदुषणं क० उक्क हिदिबं० विसे । यद्विदिवं. विसे । मोह० उक्क हिदिबं० सं० गु० । यहिदिबं० विसे । एवं कम्मइ०-सम्मामि०-अणाहारग त्ति । णवरि सम्मामि० मोह• उक्त हिदिवं विसे । यहिदिबं० विसे०।। २५०. अवगद० सव्वत्थोवा मोह० उक्त हिदिवं० । यहिदिबं० विसे । णाणाव०-दसणाव-अंतराइ० उक्क हिदिवं० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । णामागोदाणं उक्क हिदिवं असं गु० । यहिदिवं विसे । वेदणी०उक्क हिदिबं०विसे । यहि दिवं० विसे । २५१. आभि०-सुद०-अोधिदं० अट्टएणं क० मूलोघं । णवरि मोह० उक्काहिदिबं० विसे० । यहिदिव० विसे । एवं मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-अोधिदं-सम्मादि०-खइग० वेदग०-उवसम०-सासण त्ति । णवरि उवसमे आयु० णत्थि । लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २४६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कौंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ___२५०. अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे छानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २५१. श्राभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतहानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें आठों कर्मोका भङ्ग मलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उपशमसम्यक्त्वमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। १. मूलप्रतौ खहग० यहि दिबं० देदग इति पाठः । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ महाबंधे टिदिवंचाहिगारे २५२. सुहुमसंप० सव्वथोवा णाणाव०-दसणाव०-अंतराइ० उक्क द्विदिवं० । यहिदिवं० विसे । णामा-गोदाणं उक्क डिदिव० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । वेदणी. उक्क०हिदिवं. विसे० । [यहिदिबं० विसेसाहिो । एवं उक्कस्सं समत्तं । २५३. जहएणगे पगदं। सव्वत्थोवा आयु० जहहिदिबं० । यहिदिबं० विसे । मोह० जहहिदिबं. संखे०गु० । यहिदिबं० विसे० । णाणावर०-दसणावरअंतराइ० जहहिदिवं संगु० । यहिदिबं० विसे । णामागोदाणं जहहिदिवं० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । वेदणी. जहहिदिबं० विसे । याहिदिबं०विसे । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका०-पुरिस०-कोधादि०४-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-भवसि०-सएिण-आहारग ति । २५४. आदेसेण णेरइएसु उकस्सभंगो। णवरि विदियादि याव सत्तमा त्ति मोह. जह०हिदिवं० विसे० । यहिदिवं० विसे० । २५५. तिरिक्खेसु सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-सव्वदेव-सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचिंदिय-तसअपज्ज०-सव्वपंचकायाणं ओरालियमि०-मदि०-सुद०-विभंगअसंजद०-पंचले -अब्भवसि०-मिच्छादि०-असएिण त्ति एदेसि सव्वेसिं णिरयोघं । २५२. सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्र कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबना संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। २५३. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शना. वरण और अन्तरायकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थिति वशेष अधिक है। इससे वेदनीयकर्मको जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसीप्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, प्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भन्य, संशी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। २५४. आदेशसे नारकियों में अल्पबष्टुत्वका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीयकर्मका जघन्य स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २५५. तिर्यञ्चोंमें सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्यात, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, प्रसअपर्याप्त, सब पाँच स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताक्षानी, विभङ्गलानी, असंयत, पाँचलेश्याषाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंक्षी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयो ठिदिअप्पाबहुगपरूषणा णवरि जोदिसिय याव सव्वट्ठा त्ति वेउब्वियका०-तेउ०-पम्मले० विदियपुढविभंगो। एवं वेउव्वियमि० । णवरि आयु० णत्थि । २५६. कम्मइ०-सम्मामि०-अणाहारग त्ति उक्कस्सभंगो । श्राहार०-आहारमि०उक्कस्सभंगो। _२५७. इत्थि०-णवुस. सव्वत्थोवा आयु० जह० हिदिवं० । यहिदिवं. विसे । मोह० जह हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । णाणाव०-दसणाव०अंतराइ जहहिदिबं० संखे०गु०। यहिदिवं० विसे० । णामा-गोदाणं जह हिदिवं० असंखे०गु० । यहिदिवं० विसे०। वेदणी० जहहिदिबं० विसे० । यहिदिवं० विसे। अवगदवे. मूलोघं । गवरि आयुगं पत्थि । एवं सुहुमस ७ । पवरि मोह० वज्जः । २५८.आभि०-सुद-प्रोधि० सव्वत्थोवा मोह जहविदिबं०। यहिदिबं० विसे। णाणाव०-दसणाव०-अंतराइ० जहहिदिव० सं०गु० । यदिबं० विसे० । णामागोदाणं जहहिदिबं० संगु० । यहिदिबं० विसे । वेदणी० जहहिदिवं० विसे । यहिदिवं० विसे । आयु० जहहिदिबं० सं०गु: । यहिदिबं० विसे० । एवं ओघिदं० इन सबके अल्पबहुत्वका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव वैक्रियिककाययोगी, पीत लेश्यावाले और पद्म लेश्यावाले जीवों में अल्पबहुत्वका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका भङ्ग नहीं होता। २५६. कार्मणकाययोगी, सम्यगमिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंमें अल्पबहुत्वका मङ्ग उत्कृष्टके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें अल्पबहुत्वका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। २५७. स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें आयुकर्मका जघन्यस्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका जघन्यस्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। अपगतवेदी जीवों में अल्पबहुत्वका भङ्ग मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंके कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके मोहनीय कर्मको छोड़कर अल्पबहुत्व कहना चाहिए। २५८. श्राभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्या Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे मुक्कले०-सम्मादि०-खइग० । मणपज्जव०-संजद-सामाइ०-छेदो० श्रोधिभंगो। णवरि आयु० जह हिदिवं. असं०गु० । यहिदिवं० विसे०। परिहार० उक्कस्सोंगो । वेदगसम्मादि० विदियपुढविभंगो । उवसम० आयु. वज्ज मूलोघं । सासणे विदियपुढविभंगो । एवं जहएणयं समत्तं । २५६. जहएणुक्कस्सए पगदं। दुवि०–ोघे० आदे। अोघेण सव्वत्थोवा आयु. जह हिदिवं० । यहिदिवं० विसे । मोह० जहहिदिबं० सं०गु० । यहिदि० विसे । णाणाव०-दसणा०-अंतराइ० जह हिदिवं० सं०गु०। यहिदिवं० विसे । णामागोदाणं जह हिदिवं० सं०गु० । यहिदिव०विसे । वेदणीय जहहिदिवं०विसे । यहिदिवं० विसे । आयु उक्त हिदिवं. असं गु० । यहिदिवं० विसे० । णामा-गोदाणं उक्क हिदिव० सं०गु०। यहिदिवं. विसे० । तीसिगाणं उक्कस्सहिदिवं विसे । यहिदिबं. विसे। मोह. उक्क हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं. विसे । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०--कायजोगिओरालियका०-इत्थिल-पुरिस०-णवुस०-कोधादि०४-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०तगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें अल्पबहुत्वका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें अल्पबहुत्वका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में अल्पबहुत्वका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मके सिवा शेषका अल्पबहुत्व मूलोघके समान है। सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अल्पबहुत्व दूसरी पृथ्वीके समान है। इस प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। २५९. जघन्य उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीसिय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, सञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले. चक्षदर्शनी, अचक्षदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयो द्विदिअप्पाबहुगपरूवणा १३६ सणिण-आहारग नि । णवरि इत्थि-णवुस० णामा-गोदा० जहहिदिवं. असं०गु० । यहिदिबं० विसे । ___२६०. आदेसेण णेरइएसु सव्वत्थोवा आयु० जह हिदिबं० । यहिदिबं. विसे । उक्त हिदिव० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । णामा-गोदाणं जहहिदिवं. असं०गु० । यहिदिबं० विसे । णाणाव-दसणाव-वेदणी०-अंतराइ० जहहिदिवं विसे । यहिदिवं. विसे० । मोह० जहहिदि० सं०गु० । यहिदिबं० विसे । णामा-गोदाणं उक्त हिदिबं० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । तीसिगाणं उक्क हिदिबं० विसे । यहिदिबं० विसे । मोह० उक्क हिदिबं० संखेगु० । यहिदिबं० विसे । एवं पढमपुढवि०-देवोघं-भवण-वाणवेंतर त्ति । विदियाए याव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि मोह० जह हिदिबं० विसे० । यहिदिवं० विसे । णामा-गोदाणं उक्क ट्ठिदिबं० सं०गु० । यहिदिवं विसे । तीसिगाणं उक्त हिदिबं०विसे । यहिदिबं० विसे । मोह, उक्क हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । २६१. तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा आयु० जह हिदिवं०। यहिदिबं० विसे। णामा-गोदाणं जहहिदिवं असं गु०। यहिदिवं० विसे । चदुषणं क० जह०और नपुंसकवेदी जीवों में नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २६०. आदेशसे नारकियोंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे श्रायुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीसिय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार पहली प्रथिवी. सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तोसिय कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २६१. तिर्यञ्चोंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० महाबंधे टिदिबंधाहियारे द्विदिवं० विसे० । यहिदिबं० विसे० । मोह. जह हिदिव० सं०गु०। यहिदिवं० विसे । आयु० उक्क हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । णामा-गोदाणं उक्त हिदिबं० सं० गु०। यहिदिबं० विसे । तीसिगाणं उक्क हिदिवं० विसे । यहिदिबं० विसे । मोह० उक्क हिदिबं० सं०गु० । यहिदिवं विसे ।। २६२. पंचिंदियति०३-विभंगे. सव्वत्थोवा आयु. जहहिदिवं । यहिदिवं. विसे । उक्त हिदिवं. असं गु० । यहिदिवं० विसे० । णामा-गोदाणं जह०हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । चदुएणं क० जह हिदिबं. विसे । यहिदिवं० विसे । मोह० जहहिदिव० सं०गु०। यहिदिवं० विसे० । णामागोदाणं उक्क हिदिबं० सं०गु० । यहिदिबं० विसे० । तीसिगाणं उक्क हिदिबं० विसे । यहिदिबं० विसे०। मोह० उक्क हिदिव० सं०गु० । यहिदिबं० विसे । एवं असएिण० । वरि णामा-गोदाणं जह०हिदिवं. असंखेन्गुणं कादव्वं । ___ २६३. मदि०-सुद०-किरण०-णील०-काउ०-अब्भवसि०-मिच्छादि० तिरिक्खोघभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअप०-मणुसअप०-पंचिंदिय-तसअप०-ओरालियमि० णिरयभंगो । जोदिसिय-प्पहुडि याव उपरिमगेवज्जा त्ति विदियपुढविभंगो । अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीसियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २६२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक और विभङ्गशानी जीपोंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार कौंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीसियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार असंही जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा कहना चाहिए। २६३. मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अमव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान अल्पबहुत्व है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, अस अपर्याप्त और औदारिकमिश्रकाययोगी जीपोंमें नारकियोंके समान अल्पबहुत्व है। ज्योतिषियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयो द्विदिअप्पाबहुगपरूवणा १४१ अणुदिस याव सव्वहा त्ति आणदभंगो। णवरि मोह० उक्क डिदिबं० विसे । यहिदिबं० विसे० । ___ २६४. एइंदिएसु सव्वत्योवा आयु० जह हिदिवं० । यहिदिबं० विसे । उक.हिदिबं० सं०गु० । यहिदिवं० विसे । णामा-गोदाणं जह हिदिबं. असं०गु०। यहिदिबं० विसे । तेसिं चेव उक्कस्सहिदिबं० विसे । यहिदिबं० विसे० । चदुएणं क. जहहिदिवं० विसे०। यहिदिबं० विसे । तेसिं चेव उक्त हिदिबं० विसे । यहिदिबं० विसे० । मोह० जहहिदिबं० सं०गु०। यहिदिबं० विसे । तस्सेव उक्क हिदिबं० विसे । यहिदिबं० विसे० । एवं सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचकायाणं । २६५. वेउन्वियका विदियपुढविभंगो। एवं वेउव्वियमि० । वरि आयु० पत्थि । सम्मामिच्छादिट्टी. सव्वभंगो। आयु० पत्थि । अाहार०-आहारमि. सन्वट्ठभंगो। णवरिणामा-गोदाणं जह हिदिव० सं०गु० । कम्मइ०-अणाहारग त्ति पढमपुढविभंगो । आयु० पत्थि ।। २६६. अवगदवे० सव्वथोवा मोह० जहहिदिवं० । यहिदिवं० विसे । दूसरी पृथिवीके समान अल्पबहुत्व है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में आनत कल्पके समान अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि अनुदिशादिकमें मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २६४. एकेन्द्रियों में आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यात गुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे उन्हींका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे उन्हींका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयका जघन्य स्थिति बन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उसीका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और सब पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए। २६५, वैक्रियिक काययोगी जीवों में दसरी प्रथिवीके समान अल्पबहत्व है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान अल्पबहुत्व है। किन्तु इनके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनमें नाम और गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में पहली पृथिवीके समान अल्पबहुत्व है। पर इनके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। २६६. अपगतवेदी जीवों में मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तो । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર महाबंधे टिदिबंधाहियारे पाणाव०-दसणाव-अंतराइ० जह हिदिव० सं०गु०। यहिदिबं० विसे । णामा-गोदाणं जह• हिदिव० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । वेदणी. जहडिदिव विसे । यहिदिबं० विसे । मोह० उक्क हिदिव० सं०गु० । यहिदिब विसे । णाणाव०-दसणाव-अंतराइ० उक्क हिदिव० सं०गु० । यहिदिव० विसे । णामा-गोदाणं उक्क हिदिवं. असं गु० । यहिदिबं० विसे । वेदणी. उक-हिदिवं० विसे । [ यहिदिबंधो विसेसाहियो।] ___ २६७. आभि०-मुद०-प्रोधिः सव्वत्थोवा मोह. जहहिदिबं० । यहिदिवं०विसे । णाणाव-दसणाव-अंतराइ० जह हिदिव० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । णामा-गोदाणं जह हिदिव० संखेजगु० । यहिदिवं० विसे । वेदणीय जह हिदिबं० विसे । यहिदिवं० विसे० । आयु. जह हिदिव० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । तस्सेव उक्क हिदिवं. असं गु० । यहिदिवं. विसे । णामागोदाणं उक्क हिदिबं. संगु०। यहिदिवं० विसे० । तीसिगाणं उछ हिदिबं. विसे । यहिदिवं० विसे । मोह० उक्क हिदिबं० विसे । यहिदिवं. विसे । एवं ओधिदं०-सुक्कले-सम्मादि-खइग० । णवरि सुकले. मोह० उक्कहिदिबं. जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २६७. आभिनिबोधिकमानी, श्रुतज्ञानी और अवधिमानी जीवोंमें मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे ज्ञानाधरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तीसियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मनापर्ययज्ञानी, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयो हिदिअप्पाबहुगपरूवणा १४३ सं०गु० । यहिदिवं० विसे । मणपज्ज०-सामाइ०-छेदो० तं चेव । णवरि आयु० जह हिदिवं. असं गु० । यहिदिबं० विसे । तस्सेव उक्क हिदिबं० सं०गु० । यहिदिवं० विसे । २६८. परिहार०-संजदासंजद० आहारकायजोगिभंगो। सुहुमसंप० सव्वत्थोवा णाणाव०-दसणाव-अंतराइ० जह हिदिवं.। यहिदिवं० विसे । णामा-गोदाणं जह हिदिव० संखेजगु० । यहिदिवं० विसे । वेदणी• जह हिदिवं. विसे । यहिदिबं० विसे । णाणाव-दसणाव-अंतराइ० उक्कदिदिबं० सं०गु० । यहिदिवं. विसे । णामा-गोद० उक्क हिदिबं० सं०गु० । यहिदिबं० विसे । वेदणी० उक्क०हिदिबं० विसे० । यहिदिबं० विसे । असंज० मदिभंगो। २६६. तेउ०-पम्म सव्वत्थोवा आयुग० जह हिदिवं । यहिदिवं० विसे । तस्सेव उक्क हिदिवं. असं गु० । यहिदिवं० विसे । णामागोदाणं जह हिदिवं. संगु० । यहिदिवं० विसे । णाणाव-दसणाव-वेदणी-अंतराइ० जहहिदिवं. विसे । यहिदिवं० विसे० । मोह० जहहिदिबं० विसे० । यहिदिवं० विसे० । णामा-गोदाणं उक्त हिदिबं० सं०गु । यहिदिवं० विसे । सेसाणं तीसिगाणं सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके यही अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उसोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। २६८. परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंमें आहारक काययोगी जीवोंके समान अल्पबहुत्व है। सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कौका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्र कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंयतोंमें सब कौंका मत्यशानियोंके समान अल्पबहुत्व है। २६९. पीतलेश्या और पनलेश्यावाले जीवों में आयुकर्मका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नानापरण दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे शेष तीसियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महाबंधे दिदिबंधाहियारे उक्त हिदिबं० विसे । यहिदिवं. विसे । मोह० उक्क हिदिवं० सं०गु०। यहिबं० विसे । एवं वेदगस०-सासण. । णवरि मोह. उक्क हिदिवं. विसे । यहिदिवं० विसे। एवं परत्यागअप्पाबहुगं समत्तं । एवं भूयो हिदिअप्पाबहुगं समत्तं । एवं मूलपगदिहिदिबंधे चउवीसमणियोगद्दारं समत्तं । विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार भूयः स्थितिबन्ध अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार मूल प्रकृति-स्थितिबन्धमें चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे समुक्कित्तणाणुगमो भुजगारबंधो २७०. भुजगारबंधेत्ति तत्थ इमं पदं या एरि हिदी बंदि अरणंतरादिसक्काविदविदिक्कते समये अप्पदरादो बहुदरं बंधदि ति एसो भुजगारबंध गाम | पदबंधे त्ति तत्थ इमं पदं - या एसिंग हिदी बंधदि अरणंतरउस्सक्काविदविदिकंते समए बहुदरादो अप्पदरं बंधदि ति एसो अप्पदरबंध णाम । वदिबंधे त्ति तत्थ इमं पदं — यात्रो एरिंग द्विदीओ बंधदि अणंतर ओसकाविद- उस्सक्काविदविदिक्कते समए तत्तियाओ तत्तियाओ चैव बंधदि ति सो अवधि णाम । अवत्तव्वबंधे त्ति तत्थ इमं पदं - अबंधदो बंदि सो अत्तव्वबंध णाम । पदे पदे तत्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि - समुत्तिणा सामित्तं जाव अप्पाबहुगेति । समुत्तिणागमो २७१. समुत्तिणाए दुवि० – आवेण आदेसेण य । श्रघेण सत्तणं क० थि भुजगारबंधगा अप्परबंधगा अवदिबंधगा अवत्तव्वबंधगा य ! आयुगस्स भुजगारबन्धप्ररूपणा २७०. भुजगारबन्ध यथा-उसके सम्बन्धर्मे यह अर्थपद है - वर्तमान समयमें जिन स्थितियोंको बाँधता है, उन्हें अनन्तर अतिक्रान्त समयमें घटी हुई बाँधी गई अल्पतर स्थिति से बहुत बाँधता है, यह भुजगार बन्ध है । अल्पतरबन्ध यथा-उसके विषयमें यह अर्थपद है— वर्तमान समय में जिन स्थितियोंको बाँधता है, उन्हें अनन्तर श्रतिक्रान्त समयमें बढ़ी हुई बाँधी गई बहुतर स्थिति से अल्पतर बाँधता है, यह अल्पतरबन्ध है । अवस्थितबन्ध यथाइसके विषयमें यह अर्थपद है- वर्तमान समयमें जिन स्थितियोंको बाँधता है, उन्हें अनन्तर प्रतिक्रान्त समय में घटी हुई या बढ़ी हुई बाँधी गई स्थिति से उतनी ही उतनी ही बाँधता है, यह अवस्थितबन्ध है । श्रवक्तव्यबन्ध यथा— उसके विषय में यह श्रर्थपद है—बन्धका भाव होनेके बाद पुनः बाँधता है, यह वक्तव्यबन्ध है । इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार हैं- समुत्कीर्तना और स्वामित्वसे लेकर श्रल्पबहुत्व तक । विशेषार्थ - यहाँ भुजगार आदिके द्वारा बन्धका विचार किया जा रहा है । प्रथम समयमै अल्का बन्ध करके अनन्तर बहुतका बन्ध करना भुजगारबन्ध है । इसी प्रकार बहुतका बन्ध करके अल्पका बन्ध करना अल्पतरबन्ध है । पिछले समय में जितना बन्ध किया है, अगले समयमें उतना ही बन्ध करना श्रवस्थितबन्ध है और विवक्षित कर्मके बन्धका अभाव होने पर पुनः बन्ध होना श्रवक्लव्य बन्ध है । प्रकृतमें स्थितिबन्धका प्रकरण है, इसलिए ये चारों स्थितिबन्धकी अपेक्षा घटित करने चाहिए । यहाँ इसका विचार तेरह अनुयोगोंके द्वारा किया गया है । अनुयोगद्वार ये हैं- समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व | १४५ समुत्कीर्तनानुगम २७१. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है - श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंका भुजगारबन्ध करनेवाले जीव हैं, अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं, अवस्थितबन्ध करनेवाले जीव हैं और अवक्तव्यबन्ध करनेवाले जीव हैं । श्रायुकर्मका प्रवक्लव्य बन्ध १९ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारें ● for anoint अप्परबंधगा ये । एवं ओघभंगो मणुस ० ३-पंचिंदिय-तस०२पंचमण० - पंचवचि०- कायजोगि ओरालियका० - आभि० सुद० अधि०-मणएज्ज०-संजदचक्खु०- प्रचक्खु ० अधिदं ० - सुकले० - भवसि० - सम्मादि ० खइग०- सरिण- आहारग ति । २७२. वेडव्वियमि० -कम्मइ० - सम्मामि० णाहारग० सत्तएां क० सुहुमसं० छ० अत्थि भुज० अप्पद० अवदि० । अवगद ० - उवसमस० सत्तर क० अत्थि भुज० अप्पद० अवद्वि० अवत्तव्वबंधगा य । सेसाणं सव्वेसि सत्तराणं क० अस्थि भुज० [प्पदर० ] अवद्विदबंधगा य । आयु० मूलोघं । गवरि लोभे मोहणी० ओघं । करनेवाले जीव हैं और अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं । इसी प्रकार श्रधके समान मनुयत्रिक, पञ्चेन्द्रिय द्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, ग्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जोवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - श्रायुकर्मका प्रथम समयमें जो बन्ध होता है, वह अवक्तव्य ही होता है, क्योंकि बन्धमें अन्तर पड़कर पुनः बन्ध होना इसीका नाम अवक्तव्य है । इसे भुजगार, अल्पतर या अवस्थितबन्ध नहीं कह सकते, इसलिए इसकी श्रवक्तव्य संज्ञा है । तथा द्वितीयादि समय में अल्पतर बन्ध होता है, क्योंकि आयुकर्मका प्रथम समय में जो स्थितिबन्ध होता है, उससे द्वितीयादि समयों में उत्तरोत्तर वह हीन हीनतर ही होता है, ऐसा नियम है । यह तो श्रायुकर्मकी व्यवस्था हुई। अब रह गये शेष कर्म सो उनके भुजगार आदि चारों बन्ध सम्भव हैं। इनमें श्रवक्तव्य बन्ध तो उपशमश्रेणि पर चढ़कर पुनः प्रतिपातकी अपेक्षा या मरणकी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिए। तथा शेष तीन किसीके भी हो सकते हैं । पिछले समयकी अपेक्षा अगले समय में स्थितिबन्धकी वृद्धिके कारणभृत संक्लेश परिणामोंके होने पर भुजगार स्थितिबन्ध होता है, स्थितिबन्धकी हानिके कारणभूत विशुद्ध परिणामोंके होने पर अल्पतर स्थितिबन्ध होता है और अवस्थित स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंके होने पर अवस्थित स्थितिबन्ध होता है। शेष कथन सुगम है । २७२. वैक्रियिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक train सात कर्मोंका और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवों में छह कर्मोंका भुजगार बन्ध करनेवाले जीव हैं, अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं और अवस्थितबन्ध करनेवाले जीव हैं । अपगतवेदी और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोंका भुजगारबन्ध करनेवाले जीव हैं, अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं, अवस्थितबन्ध करनेवाले जीव हैं और अवक्तव्य बन्ध करनेवाले जीव हैं। शेष सब मार्गणाओं में सात कमौका भुजगारबन्ध करनेवाले जीव हैं, अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं और अवस्थितंबन्ध करनेवाले जीव हैं। तथा श्रायुकर्मका भङ्ग मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि लोभकषायवाले जीवों में मोहनीयकर्मका भङ्ग श्रधके समान है । विशेषार्थ - उपशम सम्यत्क्व और अपगतवेद उपशम श्रेणि पर चढ़ते और उतरते समय दोनों अवस्थाओं में उपलब्ध होते हैं, इसलिए इन दोनों मार्गणाओं में सात कर्मोंके चारों पद होते हैं । लोभकषाय सूक्ष्यसाम्पराय गुणस्थान तक होता है, इसलिए इसमें मोहनीय कर्मके चारों पद सम्भव हैं, शेष छह कर्मोंके नहीं; क्योंकि इस मार्गणा में शेष छह कर्मोंके भुजगार, श्रल्पतर और श्रवस्थित पद ही होते हैं। इसलिए इसमें मोहनीयका भङ्ग 1 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे सामित्ताग्रमो सामित्तागमो २७३. सामित्त गुगमेण दुविहो गिद्देसो — घेण देण य । तत्थ ओघेस सत्तणं क० भुज० अप्पद० [ अवधि० ] कस्स ? रणदरस्स । श्रवत्तव्वबंधो कस्स ? पदरस्स उवसमरणादो परिवदमाणगस्स मणुसस्स वा मणुसिणीए वा पढमसमयदेवस्स वा । एवं ओघभंगो मणुस ०३ - पंचिंदिय-तस०२- पंचमरण० - पंचवचि० कायजोगि ओरालियका० - अवगद ० - अभि० सुद०-धि ०-मरणपज्ज० संजद ० - चक्खु ० -अचक्खु०अधिदं० सुक्कले० - भवसि ० - सम्मादि ० खइग ० -उवसमस ० - सरिण आहारगति । स्वरि मणुस ०३ - पंचमरण० -- पंचवचि ०--ओरालियका० - श्रवगढ़ ० मरणपज्ज० -संजदा० सत्तण्णं क० अवत्तव्व ० कस्स ? रणदरस्स उवसमणादो परिवदमाणस्स । एदेसिं सव्वेसिं आयु० अवत्तव्वबंधो कस्स ? अरणदरस्स पढमसमए आयुबंधमाणस्स | ते परं पदबंधो । २७४. वेडव्वियमि० कम्मइ० सम्मामि० अणाहार० सत्तां क० भुज० अप० अवहि० कस्स १ अणदरस्स । एवं सुहुमसं० छरणं कम्माणं । सेसा - १४७ के समान कहा है; शेषका नहीं । इनके सिवा यहाँ अन्य जितनी मार्गणाओंका निर्देश किया है, उनमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति या उपशम श्रेणिके उपशान्त मोह गुणस्थानकी प्राप्ति होकर पुनः पतन सम्भव नहीं है, इसलिए उनमें सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका विधान नहीं किया । शेष कथन सुगम है । स्वामित्वानुगम २७३. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रघ और श्रादेश । उनमें से ओकी अपेक्षा सात कर्मोंके भुजगारबन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीच इनका स्वामी है । श्रवक्लव्यबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर मनुष्य या मनुष्यनो उपशमश्रेणिसे गिर रहा है या उपशमश्रेणिमें मरकर प्रथम समयवर्ती देव हुआ है, वह श्रवक्लव्यबन्धका स्वामी है । इस प्रकार ओधके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, अपगतवेदी, आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और श्राहारक जीवके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, श्रदारिककाययोगी, अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी और संयत जीवों में सात कर्मोंके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर जो उपशमश्रेणिसे पतित हो रहा है, वह सात कर्मोंके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी है । इन सब मार्गणाओं में श्रायुकर्मके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो प्रथम समयमें श्रायुकर्मका बन्ध कर रहा है, वह श्रवक्लव्य बन्धका स्वामी है । इससे आगे श्रल्पतरबन्ध होता है । २७४. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवों में सात कर्मोंके भुजगारबन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर उक्त मार्गणावाला जीव स्वामी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह क्रमोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका स्वामित्व जान लेना चाहिए। शेष सब Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सव्वेसिं सत्तएणं कम्माणं भुज० अप्पद० अवहिदि० कस्स ? अण्णदरस्स । आयु. मूलोघं । वरि लोभे मोह आघं ! कालारणुगमो २७५. कालाणुगमेण दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य ।तत्थ ओघेण सत्तएणं क० भुज० केवचिरं कालादो होंति ? जह• एगस०, उक्क चत्तारि सम । अप्पद० जह• एग०, उक्क तिरिण सम । अवडिद० जह• एग०, उक्क अंतो० । अवत्त० जहएणु० एगस० । आयु० अवत्त० जहएन० एगस० । अप्पद० जह उक्क अंतो । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं तस-तसपज्जत्ता० । णवरि तिरिक्खोघं अवत्तव्वं पत्थि । मार्गणाओं में सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तत्तत्मार्गणावाला जीव स्वामी है। श्रायुकर्मका भङ्ग मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि लोभकषायमें मोहनीय कर्मका भङ्ग ओघके समान है। विशेषार्थ-यहाँ पाठों कर्मोके भुजगारस्थितिबन्ध आदिमेंसे किसका ओघ और आदेश से कौन स्वामी है, इस बातका विचार किया गया है। ओघसे इनके स्वामित्वका विचार सुगम है और जिन मार्गणाओंमें ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, उनका विचार भी सुगम है। मात्र जिन मार्गणाओंमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव नहीं वहां सात कौंका श्रवक्तव्यबन्ध नहीं होता और जिन मार्गणाओं में आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, उनमें आयुकर्मकी अपेक्षा भङ्ग नहीं प्राप्त होते;इतना विशेष जानना चाहिए । __इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। कालानुगम २७५. कालानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोके भुजगारवन्धका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय है। अल्पतरवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अवस्थितबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। आयुकर्मके प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अल्पतरबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, त्रस और प्रसपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सामान्य तिर्यञ्चोंके सात कर्मोंका श्रवक्तव्यबन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-यहां भुजगार आदि बन्धोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल कितना है,यह बतलाया गया है। भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य काल एक समय है, यह स्पष्ट ही है। मात्र इनके उत्कृष्ट कालका विचार करना है। ओघसे भुजगारबन्ध और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट काल दो पर्यायोंकी अपेक्षा उपलब्ध होता है। जो एकेन्द्रिय आदि द्वीन्द्रिय आदिमें और पञ्चेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय आदिमें मरकर जन्म लेते हैं, उनके क्रमसे भुजगारबन्धका उत्कृष्ट काल चार समय और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट काल तीन समय उपलब्ध होता है। अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। कारण कि भुजगार या अल्पतर बन्ध होनेके बाद अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक समान स्थितिवन्ध Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे कालाणुगमो १४९ २७६. णिरएसु सत्तएणं क. भुज-अप्पद०बं० जह० एग०, उक्क० बे सम० । अवहिद० ओघं । आयु० अोघो चेव । एवं सव्वणिरय-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचकाय०-पंचमण-पंचवचि०--ओरालियमि०-वेउव्वियका०वेउनियमि०-आहार-आहारमि०-विभंग-मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-सासण त्ति । णवरि आयु० जोगेसु अप्पद० जह० एग० । आभि०-सुद०-अोधि०--प्रोधिदं०-तेउ०-पम्मले०-मुक्कले०-सम्मादि०-खइग०-वेदगउवसमस०-सणिण त्ति एवं चेव । णवरि भुज० जह० एग०, उक्क० तिषिण सम । एदेसि सव्वेसि सत्तएणं क० एसिं अवत्तव्वबं. यम्हि अत्थि तेसिं ओघं कादव्वं । होता रहता है । उपशान्तमोहसे सूक्ष्मसाम्परायमें आनेपर मोहनीय और आयुके बिना छह कर्मीका तथा सूक्ष्मसाम्परायसे अनिवृत्तिकरणमें आनेपर मोहनीयका अथवा उपशान्त मोहमें मरकर देव होनेपर प्रथम समयमें आयुके बिना सात कौका अवक्तव्यबन्ध होता है। इसीसे अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा है। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं,उनमें चारों पदोंका श्रोधके समान काल उपलब्ध हो जाता है। इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है। मात्र सामान्य तिर्यञ्चोंके उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे इनमें अवक्तव्य पदका निषेध किया है। आयुकर्मका मात्र त्रिभागमें या मरणके अन्तर्मुहूर्त काल पूर्व अन्तर्मुहूर्त कालतक बन्ध होता है। और वह बन्ध नियमसे प्रथम समयमें अवक्तव्य और इसके बाद अल्पतर ही होता है। यही कारण है कि इसमें विक्रव्य और अल्पतर ये दो पद कहकर इनका क्रमसे एक समय और अन्तर्महत काल कहा है। २७६. नारकियों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। अवस्थितबन्धका काल श्रोधके समान है। आयुकर्मका भङ्ग ओघके ही समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब मनुष्य, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पाँचों स्थावरकाय, पाँचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गशानी, मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि योगोंमें आयुकर्मके अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय है। आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संधी जीवों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगारबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। तथा इन सब सामान्य नारकी आदि पूर्वोक्त मार्गणाओं से जिन मार्गणात्रोंमें प्रवक्तव्यबन्ध है,वहां उसका काल ओघके समान कहना चाहिए । विशेषार्थ-एक पर्यायमें भुजगार और अल्पतरबन्ध लगातार अधिकसे अधिक दो समयतक होता है, इसलिए सामान्य नारकियों में या जो मार्गणाएँ एक पर्यायतक सीमित हैं या एक पर्यायके भीतर बदलती रहती हैं, उनमें भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। तथा प्राभिनिबोधिक ज्ञानी आदि मार्गणाएँ एक पर्यायतक ही सीमित नहीं हैं । पर्यायके बदलनेपर भी वे बनी रहती हैं, इसलिए इनमें भुजगार बन्धका Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहाबंधे हिदिबंधाहियारे २७७. पंचिंदियतिरिक्खेसु सत्तएणं कम्माणं भुज०-अप्प० जह• एम०, उक्क० तिएिस सम० । अवहिद आयुगं मूलोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्ज०-जोगिणीमु पंचिंदियतिरिक्खअप० पंचिंदि० तस्सेव प्रज्जत्तापज्जत्ता० ओरालियमि०-इत्थि०पुरिस०-असएिण०-आहारग त्ति । वरि पंचिंदि० तस्सेव प्रज्ज० अवत्त० ओघं। २७८. कायजोगि-णवुस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज-चक्खुदं०-अचक्खुदं०किएण-गील०-काउ०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि० सत्तएणं क. भुज० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम । अप्पद० जह• एग०, उक्क० तिगिण सम० । अवहि. जह० एग०, उक्क० अंतो० | आयु० अोघं । गवरि सत्तएणं क० यम्हि अवत्त. अत्थि तम्हि ओघं। २७६. कम्पइ०-अणाहा. सत्तएणं क० भुज०-अप्प० जहएणुक्क० एग० । अवहि० जह० एग०, उक्क तिरिण सम । २८०. अवगद० सत्तएणं क० भुज०-अप्प०-अवत्तव्व० जहएणु० एग० । अवहि. उत्कृष्ट काल तीन समय उपलब्ध होनेसे वह तीन समय कहा है। साधारणतः आयु कर्मके अल्पतरबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कह पाये हैं ,पर किसी भी योगमें योगपरिवर्तनकी अपेक्षा या अन्य प्रकारसे उसका जघन्य काल एक समय घटित हो जाता है, इसलिए योगों में आयुकर्मके अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। शेष कथन सुगम है। २७७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें सात कौके भुजगार और अल्पतर बन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अवस्थित बन्धका और आयुकर्मका भङ्ग मूलोधके समान है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च पर्याप्त, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च योनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय और उन्हींके पर्याप्त अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, असंझी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जोवोंमें सात कमौके प्रवक्तव्य बन्धका काल अोधके समान है। विशेषार्थ-यहाँ पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च और अन्य मार्गणाओं में भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट काल तीन समय दो पर्यायोंकी अपेक्षा कहा है। शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार आगे भी यथासम्भव कालका विचार कर लेना चाहिए। २८. काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सात कमौके भुजगार बन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय है। अल्पतर बन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अवस्थित बन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मका भङ्ग श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि सात कौका जिन मार्गणाओं में अवक्रव्य बन्ध है,उनमें उसका काल ओघके समान है। २७९ कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कौके भुजगार और अल्पतर बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित बन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। २८०. अपगतवेद्री जीवों में सात काँके भुजगार, अल्पतर और प्रवक्तव्य बन्नका Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजगारबंधे अंतराणुगमो। १५१ ओघ । सुहुमसे. छगणं क. भुज०-अप्प० जहएणु० एग । अवहि० ओघं । सम्मामि० सत्तएणं क० भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अवहि• ओघं। अंथवा आभि०-सुद०-ओधि०-सम्मादि०-खइगस०-सरिण-तिरिणले० भुज० जह एग०, उक्क० सस्थाणे दो लभदि । कालगद एक लभदि । एवं कालो समसो। अंतराणुगमो २८१. अंतरं दुवि०-ओघे० आदे । ओघे० सत्तएणं कम्माणं भुज-अप्पद०अवहि०बंधंतरं केवचिरं ? जह० एग०, उक्क० अंतो। अवत्त बंध० जह• अंतो०, उक० अद्धपोग्गल । आयु० अवत्त०-अप्प० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । एवं ओघभंगो अचक्खु०-भवसि । जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितबन्धका काल अोधके समान है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कर्मोके भुजगार और अल्पतर बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितबन्धका काल ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। अवस्थितबन्धका काल अोधके समान है। अथवा प्राभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी, अवधिशानी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संशी और तीन लेश्याओं में भुजगारबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल स्वस्थानमें दो समय और मरनेपर एक समय उपलब्ध होता है। इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। अन्तरानुगम २८१. अन्तर दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघकी अपेक्षा सात कर्मोके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्धका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। श्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल है। आयुकर्मके प्रवक्तव्य और अल्पतर बन्धका जघन्य अन्तरअन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार अोधके समान अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-भुजगार अल्पतर और अवस्थित बन्धोंके परस्पर एक दूसरेसे एक समयके लिए व्यवहित होनेपर इनका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है । तथा अवस्थित बन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे भुजगार और अल्पतर बन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है। जो जीव उपशमश्रेणीपर आरोहण करके अन्तर्मुहूर्त काल तक सात कौंका बन्ध नहीं करता है, उसके अवस्थित बन्धका अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। एकबार उपशमश्रेणीपर आरोहण करनेके बाद उतरकर पुनः उपशम श्रेणीपर आरोहण करके उपशान्तमोह होने में कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और अधिकसे अधिक कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल लगता है। इसीलिए सात कमौके प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण कहा है। एकबार आयुका बन्ध होनेके बाद पुनः दूसरी बार आयुके बन्ध होनेमें Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ महाबंधे विदिबंधाहियारे २८२. आदेसेण गैरइएसु सत्तएणं क. भुज-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवडि० जह० एग०, उक्क० बे सम । आयु० अवत्त-अप्पद० जह० अंतो०, उक्कस्सेण छम्मासं देसूणं । एवं सव्वणिरय-सव्वदेव-वेउव्वियमि०-विभंग । २८३. तिरिक्वेसु सत्तएणं क. भुज०-अप्प० अोघं । अवहि० जह• एग०, उक्क० चत्तारि सम । आयु अवत्त०-अप्पद० जह• अंतो०, उक्क तिरिण पलिदो० सादिरे । एवं णवुस०-मदि०-सुद०-असंज-किरण०-णील-काउ०-अब्भवसि०मिच्छादि० । णवरि आयु. किरण -णील-काउले णिरयभंगो। सेसाणं मूलोघं । कमसे कम अन्तर्मुहर्त और अधिकसे अधिक साधिक तेतीस सागर काल लगता है। इसीसे आयुकर्मके प्रवक्तव्य और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है। अचक्षुदर्शन और भव्य जीवों में यह व्यवस्था अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इनमें उक्त पदोंका अन्तरकाल अोधके समान कहा है। २८२. श्रादेशसे नारकियों में सात कौके भुजगार और अल्पतरवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। आयुकर्मके अवक्तव्य और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। इसी प्रकार सब नारकी, सब देव, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और विभङ्गशानी जीवोंके जानना चाहिए । २८३. तिर्यञ्चों में सात कौके भुजगार और अल्पतरबन्धका अन्तर ओघके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। आयुकर्मके अवक्तव्य और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवों में आयुकर्मके पदोंका अन्तर सामान्य नारकियोंके समान है। तथा शेष मार्गणाओंमें आयुकर्मके पदोंका अन्तर मलोघके समान है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ नरकमें सतत बनी रहती हैं। अन्यत्र इनका अन्तर्मुहूर्त काल उपलब्ध होता है, इसलिए आयुकर्मकी अपेक्षा दोनों पदोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छह महीना जैसा कि नारकियोंके कह आये हैं उसी प्रकार इन लेश्याओंमें प्राप्त होनेसे इनका अन्तरकाल सामान्य नार समान कहा है। तथा ओघसे आयुकर्मके दो पदोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर जिस प्रकार घटित करके बतला आये हैं,उसी प्रकार यहां कही गई नपुंसकवेदी, मत्यशानी, श्रुताशानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि मार्गणाओं में भी जान लेना चाहिए, क्योंकि नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर प्रमाण होनेसे जिसने पूर्वभवमें पूर्वकोटिके त्रिभागमें आयुबन्ध करके पुनः नरकगतिमें छह महीना कालके शेष रहनेपर आयुबन्ध किया है,उसके आयुकर्मके दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होता है। इन मार्गणाओं में इन पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है,यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे अंतराणुगमो १५३ २८४. पंचिंदियतिरिक्खेसु सत्तएणं क. भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवहि० जह० एग०, उक्क तिरिण सम० । आयु० तिरिक्खोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचिंदियतिरिक्खअप०-इत्थि०-पुरिस० असणिण त्ति । एदेसि आयु० विसेसो। पंचिंदियतिरिक्ख०अप० जहएणु० अंतो। इत्थि०-पुरिस०-असएिण. जह० अंतो०,उक्क० पणवणणं पलिदो सादि तेत्तीसं सा०सादि० पुव्वकोडी सादिरे । २८५. मणुस० सत्तएणं क. भुज०-अप्पद -अवहि० मूलोघं । अवत्त. जह अंतो०,उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । आयु० तिरिक्खोघं । मणुसअप० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि अवहि० उक्क० वे० सम०।। २८६. सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं आयु० मोत्तूण णिरयभंगो। सब२८४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। आयुकर्मके पदोंका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और असंशी जीवोंके जानना चाहिए,किन्तु इनके आयुकर्मके पदोंके अन्तरमें विशेषता है। यथापञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक जीवोंमें आयुकर्मके पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा स्त्रीवेदी,पुरुषवेदी और असंज्ञी जीवोंमें आयुकर्मके पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक पचपन पल्य, साधिक तेतीस सागर और साधिक एक पूर्वकोटि है। विशेषार्थ-यहाँ स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और असंशी जीवोंकी भवस्थितिको जानकर आयुकर्मके दोनों पदोंका उससे साधिक उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है। शेष कथन सुगम है। २८५. मनुष्यत्रिकमें सात कर्मोके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्धका अन्तर मूलोघके समान है। प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व है। आयुकर्मके पदोंका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों में पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवस्थित बन्धका उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें सात कौंके प्रवक्तव्य बन्धका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व कहनेका कारण इनकी अपनी-अपनी कायस्थिति है। क्योंकि जिसने अपनी-अपनी काय तिके प्रारम्भमें आठ वर्ष और अन्तर्महर्तके होने पर और अन्त में अन्तर्महर्त काल शेष रहने पर उपशमश्रेणि पर आरोहण कर उतरते समय सात कर्मीका अवक्तव्य बन्ध किया है, उसके इस पदका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण प्राप्त होता है। तथा मनुष्य अपर्याप्तमें भुजगार और अल्पतर बन्धका उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे इसमें अवस्थित बन्धका उत्कृष्ट अन्तर दो समय प्राप्त होता है। शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार आगे भी यथासम्भव भुजगार आदि पदोंका काल और उस उस मार्गणाकी कायस्थिति आदि जानकर अन्तरकाल ले आना चाहिए। २८६. सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पाँच स्थावरकाय जीवोंमें आयुकर्मको छोड़कर शेष कमौके पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है। सब सूक्ष्म और सब अपर्याप्तक २० Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सुहुम-सव्वअपज्जत्ताणं च आयु० पंचिंदियतिरिक्ख'अपज्जत्तभंगो । सेसाणं आयु० अवत्त०-अप्प० जह० अंतो०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि सादि० बारसवस्साणि एगुणवएणरादिदियाणि छम्मासं सादि० बावीस वस्ससह [सत्त वस्ससह ०] तिएिण रादिदियाणि तिएिणवस्ससह दसवस्ससह. सादि। सव्वणियोद० जहएमुक्क० अंतो। २८७. पंचिंदिय-तस० तेसिं पज्जत्ता० सत्तएणं क. भुज०-अप्पद०-अवहि. ओघं । अवत्तव्य जह० अंतो०, उक० कायहिदी। आयु० अोघं । एवं चक्खु०सगिण त्ति । आहारगा० एवं चेव । णवरि सत्तएणं क० अवत्तव्व० उक्क अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखे० ओसप्पिणिउस्सप्पिणीयो । पंचिंदियअपज्जचा. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । तसअपज्जत्तगे सत्तएणं कम्माणं भुज. अप्पद' जह एगस०, उक्क० अंतो० । अवहि० जह० ए०, उक्क० चत्तारि समयं । आयु. पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। २८८. पंचमण-पंचवचि०-वेव्वियका-आहारका-आहारमि० सत्तर का भुज-अप्प -अवहि देवोघं । आयु० अप्प०-अवत्त० णत्थि अंतरं । वरि पंचमण-पंचवचि० अट्टएणं क० अवत्त० णत्थि अंतरं। कायजोगी सत्तएणं क. भुज०जीवोंमें आयुकर्मके पदोंका अन्तर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तौके समान हैं। शेष मार्गणाओं में आयुकर्मके प्रवक्तव्य और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक बाईस हजार वर्ष, साधिक बारह वर्ष, साधिक उनचास दिन-रात, साधिक छह महीना, साधिक बाईस हजार वर्ष, साधिक सात हजार वर्ष, साधिक तीन दिन-रात, साधिक तीन हजार वर्ष और साधिक दश हजार वर्ष है। सब निगोद जीवोंमें आयुकर्मके सब पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। २८७. पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवों में सात कोके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्धका अन्तर ओघके समान है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी कायस्थिति प्रमाण है। आयुकर्मका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार चक्षुदर्शनी और संशी जीवोंके जानना चाहिए । आहारक जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सात कर्मोंके प्रवक्तव्य बन्धका उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । जो असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके बराबर है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें आठों कौके सम्भव पदोंका अन्तर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। त्रस अपर्याप्तकों में सात कमौके भुजगार और अल्पतर बन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। आयुकर्मके पदोंका अन्तर पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। २८८. पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, आहारककाययोगी, पाहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार अल्पतर और अवस्थित बन्धका अन्तर सामान्य देवोंके समान है। आयुकर्मके अल्पतर और प्रवक्तव्य पदका अन्तर नहीं है । इतनी विशेषता है कि पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें आठों कमौके प्रवक्तव्य पदका अन्तर नहीं है। काययोगी जीवों में सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित १. मूलप्रतौ-तिरिक्खपज्जत्तभंगो इति पाठः । २. मूलप्रती अप्पद० जह० अप० जह० एगस. इति पाठः । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे अंतराणुगमो अप्प०-अवहि मूलोघं । अवत्त० णत्थि अंतरं। आयु. अप्पद०-अवत्त० जह० अंत्तो०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि सादि० । ओरालि. सत्तएणं क. मण०भंगो । आयु० अप्पद०-अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० सत्तवस्ससहस्साणि सादिरे । ओरालियमि० सत्तएणं कम्माणं भुज०-अप्पद० ओघं । अवहि. जह० एग०, उक्क० तिषिण सम० । आयु० अप० भंगो। वेउवियमि०-सम्मामि० सत्तएणं क. णिरयभंगो। कम्मइ०-अण्णाहा० सत्तएणं क. भुज०-अप्पद० णत्थि अंतरं । अवट्टि जहएणु० एग । २८६. अवगद० सत्तएणं क. भुज-अप्प० जहएणु० अंतो० । अवहि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । २६०. कोधादि०४ सत्तएणं क. भुज०-अप्प० अोघं । अवहि० जह० एग०, उक्क. चत्तारि सम । आयु. मणजोगिभंगो। रणवरि लोभे मोह० अवत्त. णत्यि अंतरं। पदोंका अन्तर मूलोघके समान है। अवक्तव्य पदका अन्तर नहीं है। आयुकर्मके अल्पतर और प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। औदारिक काययोगी जीवोंमें सात कमौके पदोंका अन्तर मनोयोगियोंके समान है। आयुकर्मके अल्पतर और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतर पदका अन्तर ओघके समान है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । आयुकर्मका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सात कौके सम्भव पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कमौके भुजगार और अल्पतर पदका अन्तर नहीं है । अवस्थित पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। २८९. अपगतवेदी जीवोंमें सात कमौके भुजगार और अल्पतर बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । प्रवक्तव्य बन्धको अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-अपगतवेदमें अवस्थितबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यहां भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। किन्तु यहां भुजगार और अल्पतरबन्धका काल एक समय होनेसे अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। तथा मोहनीयके बन्धकी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तमोहसे अन्तरित होकर और आयुके बिना शेष छह कर्मोंकी अपेक्षा उपशान्तमोहसे अन्तरित होकर अपगतवेदमें सात कौका अवस्थितबन्ध भी होता है, इसलिए यहां सात कर्मोंके अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इन कर्मोंका अवक्तव्य बन्ध उपशमश्रेणिसे उतरते समय एक बार होता है, इसलिये यहां श्रवक्तव्य बन्धके अन्तरका निषेध किया है। २९०. क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका अन्तर श्रोधके समान है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। आयुकर्मका भङ्ग मनोयोगियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि लोभक. षायमें मोहनीय कर्मके श्रवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे २६१. अभि० - सुद०-ओधि० सत्तणं क० भुज० - अप्पद ० अवहि० श्रघं । अवत्तव्व० जह० तो ०, उक्क० छावद्विसागरो० सादिरे० । श्रायु० ओघं । एवं विदं सम्मादि ० - खइग० । गवरि खड्ग० अवत्त० उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे० । मणपज्ज० सत्तणं कम्मा० भुज० - अप्प० - श्रवद्वि० ओघं । अवत्त० जह० तो ०, उक्क ० पुव्वकोडी देखा | आयु० अवत्त० - अप्पद० जह० तो ०, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । एवं संजदा० । एवं चेव सामाइ० - छेदो ० - परिहार० - संजदा संजद० । गवरि सत्तरणं क० अवद्वि० बेसम० । अवत्त० रात्थि । २६२. मुहुमसं० छण्णं कम्मारणं जहणु० भुज- अप्प० अंतो० । श्रवहि० जहराणु'० एस० । २६३. तेउ०- पम्म० सत्तरणं क० भुज० - अप्पद० उक्क० तिरिण सम० । आयु० देवोघं । एवं वेदणे । १५६ एग०, विशेषार्थ — यद्यपि लोभकषायमें मोहनीय कर्मका अवक्तव्य बन्ध होता है पर अन्तर काल उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि अन्तरकाल प्राप्त करने के लिए दो बार उपशमश्रेणि पर आरोहण कराना पड़ता है पर प्रत्येक कषायका इतना बड़ा काल नहीं है । इसीसे यहाँ लोभकषायमें मोहनीयके वक्तव्यबन्धके अन्तरका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है । 1 ओघं । अवधि० जह० वरि आयु० श्रधिभंगो । २९१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंके भुज - गार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका अन्तर श्रोघके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। आयुकर्मका भङ्ग श्रोधके समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवक्तव्य बन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्धका अन्तर श्रधके समान है । श्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । श्रायुकर्मके अवक्तव्य और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण है । इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सात कर्मोंके श्रवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। तथा इनके वक्तव्यबन्ध नहीं है । २९२. सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवों में छह कर्मोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । २६३. पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका अन्तर धके समान है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है । श्रायुकर्मका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका भङ्ग अवधि 2. मूलप्रतौ श्रवट्टि० जह० एस० इति पाठः । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ भुजगारबंधे णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो सुक्कले. सत्तएणं क० भुज०-अप्पद०-अवटि ओघं । अवत्तव्व० णत्थि अंतरं । आयु० देवोघं। २६४. उवसमस० सत्तएणं क० भुज०-अप्पद०-अवहि० ओघं । अवत्त० पत्थि अंतरं । सासणे सत्तएणं क० णिरयभंगो । आयु० दो वि पदाणत्थि अंतरं । एवं अंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो २६५. पाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुवि०-अोघे० प्रादे । ओघे० सत्तएणं क. भुज-अप्पद०-अवहिबंधगा णियमा अत्थि । सिया एदे य अवत्तव्यबंधगो य, सिया एदे य अवत्तव्यबंधगा य । आयु० अवत्त० अप्पदरबंधगा य णियमा अस्थि । एवं अोघभंगो कायजोगि-ओरालियका०-अचक्खुदं०-भवसि-आहारग त्ति । २६६. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं क. अवट्टिबंध० णियमा अत्थि । सेसपदाणि भयणिज्जाणि । शानियोंके समान है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार अल्पतर और अवस्थित बन्धका अन्तर ओघके समान है । प्रवक्तव्यबन्धका अन्तर नहीं है। आयुकर्मका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। २९४. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कमौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका अन्तर ओघके समान है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंके सब पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका अन्तर नहीं है। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम २९५. नानाजीवोंका अवलम्बन कर भङ्गविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सात कौंका भुजगार अल्पतर और अवस्थित बन्ध करने. वाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये है और प्रवक्तव्यबन्ध करनेवाला एक जीव है। कदाचित् ये हैं और अवक्तव्य बन्ध करनेवाले अनेक जीव हैं। आयुकर्मका प्रवक्तव्य और स्पतर बन्ध करनेवाले जीव नियमसे है। इस प्रकार प्रोघके समान काययोगी, औदारिक काययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजगारबन्ध आदिके भङ्ग लाये गये हैं। प्रोघसे सात कौका भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं । यह एक ध्रुव भङ्ग है । तथा ये और कदाचित् अवक्तव्य बन्ध करनेवाला एक जीव है अथवा ये और कदाचित् अवक्तव्य भङ्गवाले नाना जीव हैं। इस प्रकार ये दो अध्रुव भङ्ग है । कुल भङ्ग तोन होते हैं। आयुकर्मकी अपेक्षा प्रवक्तव्य और अल्पतरबन्धवाले जीव नियमसे हैं,यही एक ध्रुव भङ्ग होता है। यहां काययोगी आदि जो मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें यह व्यवस्था अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनका कथन श्रोधके समान कहा है। २९६. आदेशसे नारिकयोंमें सात कर्मीका अवस्थित बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं । तथा शेष पद भजनीय हैं । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे भयणिज्जपदा तिगुणा अण्णोएणगुणा हवेज कादव्वा । धुवरहिदा रूवणा' धुवसहिदा तत्तिया चेव ॥ १ ॥ २६७. आयुगस्स दो वि पदा भयणिज्जा । एवं सव्वणिरयस्स सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस अप-बादरपुढ०-आउ-तेउ०वाउ०-बादरवणप्फदि०पत्तेय पज्जत्त-वेबियका-इत्थि०-पुरिस-विभंग-सामा०छेदो-परिहार०-संजदासंजद०-तेउ०-पम्म०-वेदग त्ति । २६८. तिरिक्खेसु सत्तएणं क. भुज०-अप्पद -अवट्टि आयु० अवत्त०-अप्पदर० णियमा अस्थि । एवं तिरिक्खोघभंगो सव्वएइंदिय-पुढवि०-ग्राउ-तेउ०-वाउ०वादरपुढवि०-आउ-तेउल-बाउ० तेसिं चेव अप० तेसिं चेव सव्वमुहुम-सव्व-वणप्फदिणियोद-बादरवणप्फ पत्तेय तस्सेव अप० ओरालियमि०-गवुस०-कोधादि०४-मदि०सुद०-असंज-किरण-णील-काउ०-अब्भवसि०-मिच्छादि-असणिण त्ति । भजनीय पदोंका १ १ इस प्रकार विरलन करके तिगुना करे । पुनः उसी तिगुनी विरलित राशिका परस्परमें गुणा करे। इस क्रियाके करनेसे जो लब्ध प्राता है.उर लब्ध आता है,उससे अध्रुव भङ्ग एक कम होते हैं और ध्रुव भङ्ग सहित अध्रुवभङ्ग उक्त संख्याप्रमाण होते हैं ॥१॥ २९७. श्रायुकर्मके दोनों ही पद भजनीय हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ यहाँ सात कौंकी अपेक्षा अवस्थित बन्धवाले जीव नियमसे हैं। यह एक ध्रुव भङ्ग है और भुजगार व अल्पतर ये दो पद भजनीय हैं। अतएव पूर्वोक्त गाथामें कहे गये नियमके अनुसार इन दो का १, १ इस प्रकार विरलनकर तथा इन्हें ३, ३ इस प्रकार तिगुना कर इनका परस्परमें ३४३ =९ इस प्रकार गुणा करनेपर कुल ९ भङ्ग होते हैं । इनमें से ८ अध्रुव भङ्ग और एक ध्रुव भङ्ग है । ये ९ भङ्ग ज्ञानावरण आदि एक-एक कर्मको अपेक्षासे होते हैं। आयुकर्म के दोनों पद भजनीय हैं, इसलिए इनके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा एक संयोगी और द्विसंयोगी कुल आठ भङ्ग होते हैं। २६८. तिर्यञ्चों में सात कर्मीका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितका बन्ध करनेवाले जीव तथा आयुकर्मके प्रवक्तव्य और अल्पतरका बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके समान सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और इन सबके अपर्याप्त, तथा इनके ही सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इनके ही अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंशी जीवोंके जानना चाहिए। १. मूलप्रतौ-रहिदा रूवेण धुव इति पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे भागाभागागमो १५९ २६६. मणुस ० ३ सत्तएण क० बंधा यिमा अत्थि । सेसपदा भयfurt | ० दो व पदा भयणिज्जा । एवं पंचिदिय-तस० २- पंचमरण०-पंचवचि०अभि० सुद० अधि० - मरणपज्ज० - संजद ० - चक्खुदं ० - ओधिदं ० - सुकले ० -सम्मादि० खइग०- सरिणति । ३००. मणुसअप ग्रहणं क० सव्वपदा भयणिज्जा । एवं वेडव्वियमि०आहार० - आहारमि० - अवगद ० मुहुमसं०-उवसम० - सासण० - सम्मामि० । ३०१. कम्मइग० - रणाहार० सत्तणं क० भुज० अप्प ० - वहि ० रिणयमा अत्थि । भागाभागागमो । 1 ३०२. भागाभागाणु ० दुवि० – ओघे० दे० | ओघे० सत्तणं क० भुज ०अप्पद ० बंधगा सव्वजीवेहि केवडियो ? असंखेज्जदिभागो । अवट्टि० केव० ? असं खेज्जा भागा । अत्तव्वबंधगा केवडि० १ अतभागो । आयु० अवत्त० बंध०has ० १ असंखेज्जदिभागो । अप्पद ० बंध० केवडि० ? असंखेज्जा भागा । एवं 11 २९९. मनुष्यत्रिकमें सात कर्मोंके अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। श्रयुकर्मके दोनों ही पद भजनीय हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, श्रभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चतुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - यहां सात कमकी अपेक्षा ३ पद भजनीय होनेसे प्रत्येक कर्मका ध्रुव १ और अध्रुव २६ कुल २७ भङ्ग होते हैं । श्रायुकर्मके दोनों पद भजनीय होनेसे कुल ८ अध्रुव भट्ट होते हैं । ३००. मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें आठों कर्मोंके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्रकाय योगी, श्राहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए | विशेषार्थ - इन मार्गणाश्रमें से जिसमें सात कर्मोंकी अपेक्षा जितने पद सम्भव हों, उनके अनुसार अध्रुव भङ्ग ले आने चाहिए । नियमका निर्देश पहले ही कर आये हैं । ३०१. कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार, श्रल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं । इस प्रकार नाना जीवकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ । भागाभागानुगम ३०२. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ निर्देश और आदेश निर्देश । श्रधकी अपेक्षा सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । श्रवस्थित पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । आयुकर्मके वक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? श्रसंख्यातवें भागप्रभाण Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे आयु० याव अणाहारगत्ति दव्वं । श्रसंखेज्जजीविगाणं अांतजीविगाणं वा एदेसि सत्तणं पि कम्मारणं ओघे चेव । वरिये असंखेज्जा जीवा तेसिं सत्तएण कम्मारणं श्रवत्त० भुजगारेण सह भारिणदव्वं । ३०३. देसेण रइएस सत्तरगं क० भुज० अप्पद० सव्वजीवे ० haso ' ? संखेज्जदिभागो । अवहि ० के ० १ असंखेज्जा भागा । एवं सव्वेसिं असंखेज्जरासी खंतरासीणं वि श्रवत्तव्वबंधवज्जाणं । ० ३०४. मणुसपज्जत - मणुसिणीस घं । संखेज्जं कादव्वं । अवगद० सत्तरणं क० भुज० अप्पद ० - अवत्त ०बं० के ० १ संखेज्जदिभा० । अव०ि बं० केव० ९ संखेज्जा भागा। मुहुमसंप० छणं क० भुज० - अप्प० संखेज्जदिभागो । अहि० संखेज्जा भागा । सेसारणं सव्वाणं संखेज्जजीविगाणं सत्तणं क० भुज० - अप्प० संखेज्जदिभागो । अहि० संखेज्जा भागां । आयु० अवत्त० संखेज्जदिभागो । अप्पद० संखेज्जा भागा । सिं सत्तर क० अवत्त० अत्थि तेसिं संखेज्जजीविगाणं मणुसिभंगो । 1 हैं । अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ! श्रसंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार आयुकर्मकी अपेक्षा अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । असंख्यात जीववाली और अनन्त जीववाली मार्गणाओं में सात कर्मोंका कथन श्रधके समान ही है । इतनी विशेषता है कि जिनमें असंख्यात जीव हैं, उनमें सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका कथन भुजगारके साथ करना चाहिए । ३०३. आदेशसे नारकियों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव कितने भागप्रमाण हैं ? श्रसंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । श्रवक्लव्य बन्धके सिवा और पदोंका बन्ध करनेवाली और जितनी असंख्यात और अनन्त राशियाँ हैं, उन सबका भागाभाग इसी प्रकार जानना चाहिए । ३०४. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में सब पदका भागाभाग श्रधके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यात कहना चाहिए। अपगतवेदी जीवों में सात कर्मोंके भुजगार अल्पतर और अवक्तव्य पदोंका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कमौके भुजगार और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं, अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । शेष संख्यात संख्यावाली सब मार्गणात्रों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । आयुकर्मके अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । जिन मार्गणाओं में सात कमका प्रवक्तव्य पद होता है, उनमें संख्यात संख्यावाली राशियोंका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ । ५. मूलप्रतौ केवडि ? श्रसंखेज्जा भागा। श्रवद्वि० इति पाठः । २. मूलप्रतौ केव० संखेज्जा भा० । श्रवहि० इति पाठः । ३. मूलप्रतौ संखेज्जदिभागो श्रायु ० इति पाठः । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे परिमाणायुगमो परिमाणागमो O ३०५. परिमाणागमेण दुवि० – घे० दे० । श्रघे० सत्तर क० भुज ०प० - वडि० केत्तिया ? अता । अवत्त ० केत्तिया ? संखेज्जा । श्रयु० अवत्त ०[ अप्पद०] अता । एवमोघभंगो तिरिक्खोघं सव्व एइंदिय- सव्ववणप्फदि-रिणयोदकाय जोगि ओरालियका ० -ओरालियमि० स० - कोधादि ०४ - मदि ० -सुद० - संज० चक्खु०- किरण ० -पील० - काउ०- भवसि ० - अब्भवसि० - मिच्छादि ० - असरि० - आहा रगति । वरि कायजोगि ओरालियका ० - अचक्खु०- भवसि० - आहारग त्ति एदेसिं सत्तणं क० अवत्तव्व ० लोभे मोह० श्रवत्तन्वबंधगा च अस्थि । १६१ ३०६. आदेसेण णेरइएमु सत्तणं क० भुज० - अप्प० - अवट्ठि० आयु० दो विपदा संखेज्जा । एवं सव्वणिरय - सव्वपंचिंदियतिरिक्ख- मणुसअप ० देवा याव सहस्सार ति सव्वविगलिंदिय- सव्व पुढवि० उ० ते ० - वाउ ० - बादरवण ० पत्ते ० पंचिंदिय-तसअप०-वेउव्त्रियका ० - इत्थि ० - पुरिस० - विभंग ० - संजदासंजद ० - ते पम्मले ० - वेदग० - सासण ति । 0 -- ३०७, मणुसेसु सत्तएणं क० भुज० अप्प० अवद्वि० असंखेज्जा । अवत्त ० परिमाणानुगम ३०५. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोघ निर्देश और प्रदेश निर्देश । श्रधकी अपेक्षा सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । श्रयुकर्मके वक्तव्य और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं । इसी प्रकार श्रोघके समान सामान्य तिर्यञ्च, सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, काययोगी, श्रदारिक काययोगी, श्रदारिकमिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, श्रचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, श्रसंज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि काययोगी, श्रदारिक काययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक इन मार्गाओं में सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका और लोभ कषायमें मोहनीयके प्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव हैं । . ३०६. आदेशसे नारकियोंमें सात कर्मोंके भुजगार अल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव तथा श्रयुकर्मके दोनों ही पर्दोका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चं, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्यदेव, सहस्रार कल्पतक के देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, अस अपर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगशानी, संयतासंयत, पीतलेश्या वाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । ३०७. मनुष्यों में सात कर्मोंके भुजगार, श्रल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। आयुकर्मके २१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे संखेजा। आयु० दो वि पदा असंखेज्जा । एवं पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०. आभि०-सुद०-अोधि०-नवखुदं०-अोधिदं०-मुक्कले०-सम्मादि०-वइग० । [णवरि मुक्कले०-खइगस०] आयु० दो पदा संखेज्जा । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वे भंगा संखेज्जा । एवं सव्वह-आहार-आहारमि०-अवगदवे-मणपज्ज०--संजद०--सामाइ०छेदो०-परिहार०-मुहुमसंपरा० । __३०८, कम्मइ०-अणाहार० सत्तएणं क० भुज०-अप्प०-अवहि० अणंता । एवं परिमाणं समत्तं । खेत्ताणुगमो ३०६. खेत्तं दुवि०-अोघे० आदे० । ओघे० सत्तएणं क. भुज०-अप्प०अवहि. केवडि खेत्ते? सव्वलोगे। अवत्त लोग० असंखे भागे। आयु० अवत्त०अप्पद० सव्वलोगे। एवं सव्वअणंतरासीणं । णवरि तेसिं चेव सत्तएणं क० अवत्त० णत्थि । बादरएइंदियपज्जत्तापज्जत्त० आयु. लोग० असंखे०। वणप्फदिबादर-णियोद-पज्जत्तापज्जत्ता० आयु० लोग० असं०भागे । पुढवि०-आउ०-तेउ० दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय द्विक, प्रस द्विक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, आभिनिबोधिकशानी, श्रुतशानी, अवधिशानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सभी पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए । ३०८. कार्मण काययोगी और अनाहारक जीवों में सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं। इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। क्षेत्रानुगम ३०९. क्षेत्र दो प्रकारका है-श्रोध और श्रादेश। ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जोवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। आयुकर्मके श्रवक्तव्य और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार सब अनन्त राशियोका जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यह उन्हींका जानना चाहिए जिनके सात कर्मोका अवक्तव्य पद नहीं होता। बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में आयुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । बादर वनस्पति पर्याप्त और अपर्याप्त तथा निगोद पर्याप्त तथा अपर्याप्त जोवों में श्रायुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक तथा इनके बादर Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १६३ वाउ० तेसिं बादर-बादरअपज्ज० तेसिं चेव सव्वसुहुम०बादरवणप्फदि०पत्ते. तस्सेव अपज्ज० सव्वे भंगा सव्वलोगे। णवरि बादरेसु लोग असं० । वाउ० लोगस्स सखे० । सेसाणं संखेज-असंखेजरासीणं सव्वे भंगा लोगस्स असं० । णवरि वाउ. पज्जत्ते लोगस्स संखेजदिभागे । एवं खेत्तं समत्तं । फोसणाणुगमो ३१०. फोसणाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे०। ओघे० सत्तएणं क. भुज०-अप्प-अवढि०बंधगेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । अवत्त० लोग० असं० । आयु० अवत्त०-अप्पद० सव्वलोगो। एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं सव्वएइंदि०पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-चाउ० तेसिं अपज्जत्ता. तेसिं और बादर अपर्याप्त तथा इन्हींके सब सूक्ष्म बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इन्हींके अपर्याप्त जीवोंमें सब पदोंका क्षेत्र सब लोक है। इतनी विशेषता है कि बादरोंमें लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है और बादर वायुकायिकोंका लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। शेष रहीं संख्यात और असंख्यात राशियोंमें सब पदोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। इतनी विशेषता है कि वायुकायिक पर्याप्त जीवों में लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। विशेषार्थ-यहां भुजगारबन्ध आदिकी अपेक्षा क्षेत्रका विचार किया गया है। लोकमें प्रायः एकेन्द्रियादि सभी जीव सात कर्मोंका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्ध करते हैं, इसलिए इन पदोंका सामान्यरूपसे सब क्षेत्र कहा है। प्रवक्तव्यबन्ध उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले जीवोंके या मोहनीयकी अपेक्षा सूक्ष्मसाम्परायमें और सात कर्मोंकी अपेक्षा उपशान्तमोहमें मरकर देव होनेवाले जीवोंके होता है, यतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, अतः सात कमौके अवक्तव्य पदका बन्धवाले जीवोंका उक्त प्रमाण क्षेत्र कहा है। तथा आयुकर्मके दो पदोंकी प्राप्ति एकेन्द्रिय सब जीवोंके होती है, इसलिए आयुकर्मके दोनों पदवाले जीवोंका भी सब लोक क्षेत्र कहा है। यहां शेष मार्गणाओं में सम्भव पदोंके क्षेत्रका सामान्यरूपसे संकेत किया ही है । सो उस मार्गणाके क्षेत्रको जानकर यथासम्भव उसे घटित कर लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जिन मार्गणाओंमें सात कर्मोंका बन्ध होता है, उन सबमें सात कर्मोका प्रवक्तव्य पद नहीं होता, किन्तु जिन मार्गणाओंमें उपशमश्रेणिका आरोहण और अवरोहण सम्भव है,उन्हीं में अवक्तव्य पद होता है। सो सर्वत्र इस पदवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ३१०. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोकका स्पर्श किया है। प्रवक्तव्य पदका बन्ध करने वाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। आयुकर्मके प्रवक्तव्य और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, अलकायिक, अग्निकायिक, बायुकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायु. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे चेव सव्वसुहम० सव्ववणप्फदि णियोद-बादरवणप्फदिपत्तेय. तस्सेव अज्जत्ता । सव्वबादराणं आयु० दो पदा लोगस्स असं। णवरि बादरएइंदि०-बादरवाउ० लोगस्स संखेज । कायजोगि-अोरालियका-ओरालियमि०-गदुस-कोधादि०४मदि०-सुद-असंज-अचक्खु०-किरण--णील-काउ०-भवसि-अब्भवसि०मिच्छादि०-असरिण-आहारग त्ति ओघं । णवरि अवत्त० केसिं चेव पत्थि । येसिमत्थि तेसिमोघं । ३११. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं क. भुज-अप्प-अवहि छच्चो।सभा० । आयु० खेत्तभंगो । पढमपुढवि० खेत्तभंगो । विदियादि याव सत्तमा त्ति एवं चेव.। गवरि सगफोसणं । ३१२. सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तसअपज्जत्ता बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरवण पत्ते पज्जत्ता. सत्तएणं क०भुज०-अप्प०-अवहि लोगस्स असं० सव्वलोगो वा । णवरि बादरवाउ० लोगस्स संखे० सव्वलो । आयु० खेत्तभंगो। मणुस०३ सत्तएणं क. भुज-अप्प-अवहि० अपज्जत्तभंगो । अवत्त० अोघं । आयु० खेत्तभंगो । कायिक और इनके अपर्याप्त तथा इन्हींके सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इनके अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु सब बादरोंके प्रायकर्मके दो पदोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय और बादर वायुकायिक जीवोंका आयुकर्मके दो पदोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंही और आहारक जीवोंके सब पदोंका स्पर्शन ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमेंसे प्रवक्तव्य पद किन्हींके नहीं हैं। जिनके हैं उनके उसका स्पर्शन अोधके समान है। ३११. प्रादेशसे नारकियोंमें सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी पृथिवीका स्पर्शन कहना चाहिए। ३१२. सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, अस अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवों में सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक है । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें उक्त पदोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक है। तथा इन सब मार्गणाओंमें आयुकर्मके दोनों पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मनुष्यत्रिकमें सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। अवक्तव्य पदका स्पर्शन ओघके समान है । तथा आयुकर्मके दोनों पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे फोसणाणुगमो १६५ ३१३. देवेसु सत्तएणं क. भुज-अप्प-अवहि. अह-णवचो० । आयु० दो वि पदा अहचो० । भवण-वाणवें-जोदिसि० सत्तएणं क. भुज-अप्प०-अवहि० अधु-अह-णवचो० । आयु० दो वि पदा अधु-अहचो । सोधम्मीसाणे देवोघं । सणक्कुमार याव सहस्सार ति सव्वे भंगा अहचो० । आणदादि अच्चुदा त्ति छच्चो६० । उवरि खेत्तं ।। ३१४. पंचिंदिय-तस० तेसिं पज्जता. पंचमण-पंचवचि०-इत्थि-पुरिस०चक्खुदं०-सणिण त्ति सत्तएणं क. भुज०-अप्प-अवहि० अट्ठचो० सबलोगो वा । अवत्त० ओघं । आयु० दो वि पदा अहचो । ३१५. वेउव्विय० सत्तएणं क. भुजा-अप्प०-अवहि. अह-तेरहचो० । आयु० दो वि पदा अहचो० । वेउव्वियमि०-आहार०-आहारमि०-कम्मइ०-अवगद०-मणपज्ज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसं०-अणाहारग त्ति खेत्तभंगो। ३१६. विभंगे सत्तएणं क. भुज०-अप्प०-अवहि० अह-तेरहचोद्द० सव्वलो। आयु० दो वि पदा अट्टचो० । आभि-सुद०-अोधि० सत्तएणं क. तिएिणपदा० ३१३. देवोंमें सात कोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और नौ बटे चौदह राजू है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह राजू, आठ बटे चौदह राजू और नौ बटे चौदह राजू है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका स्पशन कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह राजु और आठ बटे चौदह राजू है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें सब पदोंका स्पर्शन सामान्य देवोंके समान है। सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। श्रानत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवों में सब पदोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू है। इससे आगेके देवों में सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। ३१४. पञ्चेन्द्रिय, त्रस और इन दोनोंके पर्याप्त, पाँचौ मनोयोगी, पाँची वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संशी जीवों में सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक है । अवक्तव्य पदका स्पर्शन ओघके समान है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका स्पर्शन कुछकम आठ बटे चौदह राजू है। ३१५. वैक्रियिककाययोगी जीवों में सात कमौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और तेरह बटे चौदह राजू है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययशानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और अनाहारक जीवोंके अपने सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। ३१६. विभगवान में सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू, कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू और सब लोक है। श्रायु मके दोनों पटोका स्पर्शन कळ कम आठ बटे चौदह राज है। श्रामिनिबोधिकहानी. श्रुतमानी और अवधिज्ञानी जीयों में सात कमौके तीन पदोका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महाबंधे हिदिबंधाहियारे अट्ठचो । अवत्त० खेत्तभंगो । आयु० दो पदा० अट्ठचो । एवं अोधिद०सम्मादि०-खइग०-वेदग । संजदासंज. सत्तएणं क. तिषिण पदा० छच्चो६० । आयु० खेत्तं । ३१७. तेउले. सत्तएणं क. भुज-अप्प-अवट्टि अट्ठ-णवचो । आयु. दो वि पदा अट्टचो० । पम्माए सव्वे भंगा अहचो । सुकाए सव्वे भंगा छच्चो० । णवरि सत्तएणं क० अवत्त० [खेत्त-7 भंगो। ३१८. सासण. सत्तएणं क. भुज०-अप्प०-अवहि०. अह-बारह० । आयु. दो पदा० अहचो० । सम्मामि० सत्तएणं क. भुज-अप्प०-अवहि० अहचोइस० । एवं फोसणं समत्तं । कालाणुगमो ३१६. कालाणुगमेण दुवि-ओघे० आदे। ओघे० सत्तएणं क. भुज०अप्प-अवहि केवचिरं कालादो होदि ? सव्वद्धा। अवत्त० जह• एग०, उक्क० संखेजसमयं । आयु० दो वि पदा० सव्वद्धा। एवं सव्वाणं अणंतरासीणं सगपदाणं । चौदह राजू है । प्रवक्तव्य पदका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । संयतासंयत जीवों में सात कमौके तीन पदोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू है। आयुकर्मके दोनों पदोका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। ___ ३१७. पीतलेश्यावाले जीवोंमें सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। पद्मलेश्यामें सब पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। शुक्ललेश्यामें सब पदोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू है। इतनी विशेषता है कि इनके सात कर्मों के प्रवक्तव्य पदका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। ३१८. सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में सात कमौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू है। आयकर्मके दोनों ही पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। सम्यग्मिथ्यार्दा जीवों में सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है। इस प्रकार स्पर्शनानुग़म समाप्त हुआ। कालानुगम ___३१९. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा सात कमौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका कितना काल है ? सब काल है। अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। आयुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीपोंका सब काल है। इसी प्रकार सब अनन्त राशियोंके अपने-अपने पदोंका काल जानना चाहिए । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे कालाणुगमो १६७ ३२०. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं क. भुज०-अप्प० जह० एग०, उक्क० आवलि असं० । अवटि सव्वद्धा। आयु० अवत्त० जह० एग०, उक्क० श्रावलि. असं० । अप्प० जह० अंतो, उक्क० पलिदो० असं० । एवं सव्वेसिं असंखेजरासीणं अवत्तव्वरहिदाणं सांतररासी असंखेज्जलोगरासी मोत्तूण । णवरि आणदादीणं आयु० अप्पदरवंध० जहएणु० अंतो। अवत्तव्ब० जह• एग०, उक्क० संखेजसम'। ३२१. मणुस-पंचिंदिय-तस०२ पज्जत्त० सत्तएणं क० भुज०-अप्प० जह० एग०, उक० श्रावलि. असं० । अवहि० सव्वद्धा । अवत्त० ओघं। आयु.णिरयभंगो । विशेषार्थ-यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा भुजगार आदि पदोंके कालका विचार किया जा रहा है। सात कौका प्रवक्तव्य पद उपशमश्रेणि पर चढ़कर उतरनेवाले और मरकर व होनेवाले जीवोंके होता है । यतः उपशम श्रेणिपर चढ़नेका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, इसलिए ओघसे सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है। ३२०. प्रादेशसे नारकियों में सात कौके भुजगार और अल्पतर पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थित पदका काल सर्वदा है। आयुकर्मके प्रवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवं भागप्रमाण है। अल्पतर पदका जघन्य काल अन्तमुहूते और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अवकाव्य पदसे रहित सब असंख्यात राशियोंका काल जानना चाहिए। किन्तु जो सान्तर राशियां हैं और असंख्यात लोकप्रमाण संख्यावाली राशियां हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनतादिकमें आयुकर्मके अल्पतर पदका वन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। विशेषार्थ-यह हम पहले ही बतला आये हैं कि आयुकर्मका बन्ध होनेके प्रथम समय में श्रवक्तव्य पद होता है। और अनन्तर अल्पतर पद होता है, इसलिए यहां यह प्रश्न होता है कि आयुकर्मके प्रवक्तव्य पदका उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण रहने पर अल्पतर पदका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान यह है कि एक या नाना जीवोंने आयुकर्मका प्रवक्तव्यबन्ध किया और दूसरे समयसे वे अल्पतरबन्ध करने लगे। पुनः अल्पतरबन्धके कालके समाप्त होनेके अन्तिम समयमें दूसरे जीवोंने अयक्तव्यबन्ध किया और उसके दूसरे समयसे वे अल्पतरबन्ध करने लगे। इसप्रकार निरन्तर रूपसे अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट काल लाने पर वह पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहां अल्पतरपदका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । अानतसे लेकर ऊपरके देव नियमसे मनुष्यायुका बन्ध करते हैं और गर्भज मनुष्य संख्यात होते हैं, इसलिए आनतादिमें आयुकर्मके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है। . __ ३२१. मनुष्य, पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवों में सात कौके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवे भागप्रमाण है। अवस्थित पदका काल सर्वदा है। तथा प्रवक्तव्यपदका काल ओघके १. मूलप्रतौ संखेजसम० णिरयभंगो। मणुस- इति पाठः । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे एवं पंचमण-पंचवचि०-आभि-सुद०-अोधि-प्रोधिदं०-सम्मादिहि-चक्खुदं०-सएिण त्ति । णवरि पंचमण०-पंचवचि० आयु० अप्प० जह० एग । मुक्कले०-खइग. एवं चेव । णवरि आयु० आणदभंगो।। ३२२. मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु सत्तएणं क. भुज-अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसमयं । अवहि. सव्वद्धा। आयुग अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेजसमयं । अप्पद० जहएणु० अंतो । एवं 'सव्वसंखेजरासीणं । येसि सत्तएणं क० अवत्तव्वं णत्थि तेसिं पि तं चेव यादव्वं । मणुसअपज्ज. सत्तएणं क. भुज-अप्प जह० एग०, उक्क० श्रावलि० असं० । अवहि० जह० एग०, उक्क० पलिदो० असं०। आयु. णिरयभंगो। एवं सासणः । एवं चेव वेउव्वियमि०सम्मामि० । आयु० पत्थि । ३२३. पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरपुढवि०- आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव अपज्ज. तेसिं सुहुम० बादरवणप्फदिपत्तेय. तस्सेव अपज. सव्वे भंगा सव्वद्धा । समान है। श्रायुकर्मके दोनों पदोंका काल नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, आभिनिबोधिक शानी, श्रुतज्ञानी, अवधिशानी, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, चक्षुदर्शनी और संशी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवों में आयुकर्मके अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय है। शुक्ललेश्यावाले और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में भी इसी प्रकार काल है । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मके दोनों पदोंका काल आनत कल्पके समान है। ___३२२.मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में सात कौके भुजगार और अवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवस्थित पदका काल सर्वदा है। आयुकर्मके प्रवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अल्पतर पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब संख्यात राशियोका काल जानना चाहिए । तथा जिन संख्यात राशियों में अवक्तव्य पदका बन्ध नहीं होता,उनमें भी यही काल जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सात कौके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। श्रायुकर्मके दोनों पदोका काल नारकियोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों के समान सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्र काययोगी और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जोवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके श्रायुकर्मका बन्ध नहीं होता। ३२३. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक तथा इनके अपर्याप्त और सक्षम, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके अपर्याप्त जीवों में सम्भव सब पदोंका काल सर्वदा है। १. मूलप्रतौ सम्वनसंखेजरासीणं इति पाठः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भुजगारबंधे अंतराणुगमो ३२४. आहार-आहारमि० सत्तएणं क. भुज-अप्पद० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसम० । अवहि० जह० एग०, उक्क० अंतो। आयु० अवत्तव्व० जह० एग०, उक० संखेज्जसम० । अप्प० जह• एग०, उक्क अंतो। ३२५. अवगद० सत्तएणं क. भुज-अप्प०-अवत्त० जह० एग०, उक्क. संखेज्जसम० । अवहि० जह० एग०, उक्क० अंतो । एवं सुहुमसं० छएणं क०। एवरि अवत्तव्वं पत्थि । कम्पइ०-अणाहा. सत्तएणं क. भुज-अप्प-अवहि० सव्वद्धा । एवं कालं समत्तं । अंतराणुगमो ३२६. अंतराणुगमेण दुवि०-अोघे० आदे० । अोघे० सत्तएणं क. भुज०अप्प०-अवहि० पत्थि अंतरं । अवत्तव्यवं. जह• एग०, उक्क वासपुधत्तं । आयु. दो पदा पत्थि अंतरं । एवं कायजोगि-ओरालिका०-अचक्खु०-भवसि-आहारग त्ति । ३२७. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं क. भुज-अप्प० जह• एग०, उक्क० ३२५. आहारककाययोगी और आहारकमिश्र काययोगी जीवों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके अवक्तव्यपदुका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ३२५. अपगतवेदवाले जीवों में सात कर्मोके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें छह कौके पदोंका काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पद नहीं होता। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कौके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। अन्तरानुगम ३२६.अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोधकी अपेक्षा सात कौके भूजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका अन्तरकाल नहीं है। अवतव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । आयुकर्मके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-उपशमश्रेणिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व होने से यहां सात कौके प्रवक्तव्यपदका अन्तर काल उक्नप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ३२७. श्रादेशसे नारकियोंमें सात कमौके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर १. मूलप्रतौ कम्मइ० भायु० सत्तएणं इति पाठः । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० महाबंधे टिदिबंधाहियारे अंतो । अवधि पत्थि अंतरं। आयु० दो पदा० जह० एग०, उक्क० चउवीसं मुहुत्तं । एवं सव्वणेरइएमु । आयु० परिवादीए अडदालीसं मुहुत्तं पक्खं मासं बे मासं चत्तारिमासं छम्मासं बारसमासं । एवं चेव देवाणं पि कादव्वं । णवरि सव्वट्ठ पलिदोवमस्स संखेज । ३२८. तिरिक्खेसु सव्वे भंगा पत्थि अंतरं । एवं सव्वएइंदिय-पुढवि०-आउःतेउ०-वाउ०-बादरपुढवि०-आउ-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव अप०-सुहुम०-सव्ववणप्फदि-णियोद-बादरवणप्फदिपत्तेय० तस्सेव अप० ओरालियमि०-कम्मइ०-एस०कोधादि०४-मदि०-सुद-असंज-किरण-णील-काउ०-अब्भव०--मिच्छा०असएिण-अणाहारग त्ति । णवरि लोभे मोह० ओघं । ३२६. सव्वपंचिंदियतिरिक्ख. सत्तएणं क. भुज-अप्पद० जह० एग०, उक अंतो० । अवहि पत्थि अंतरं । आयु० दो पदा० जहः एग०, उक्क० अंतो० । पज्जत-जोणिणीसु जह० एग०, उक्क० चउवीसं मुहु । अपज्ज० जह एग०, उक्क अंतो०। ३३०. मणुसअप० सव्वे भंगा जह० एग०, उक्क पलिदो० असं० । मणुस०३ काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके दोनों पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु आयुकर्मके दोनों पदोका क्रमसे अड़तालीस मुहूर्त, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चारमाह ,छह माह और बारह माह है। इसी प्रकार देवोंके भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें पल्यका संख्यातवां भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर है। ३२८. तिर्यनोंमें सम्भव सब पदोंका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बाद पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और इन्हींके अपर्याप्त व सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादिचार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत. लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि लोभकषायमें मोहकर्मके पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है। ३२९. सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें सात कमौके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके दो पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुंहूर्त है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियों में श्रायुकर्मके दो पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है । तथा अपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें अपने पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ३३०. मनुष्य अपर्याप्तकों में सम्भव सब पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्यत्रिकमें सात कमौके Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे अंतराणुगमो १७१ सत्तएणं क. भुज०-अप्पद०-अवहि आयु० दो पदा० पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो । सत्तएणं क. अवत्त० ओघं । सव्वविगलिंदिय० पचिंदियतिरिक्खभंगो। पंचिंदिय-तस० पंचिंदियतिरिक्रखपज्जत्तभंगो । णवरि सत्तएणं क० अवत्त ओघं । ३३१. बादरपुढवि०-आउ-तेउ०-वाउ-बादरवण पत्तेयपज्जत्ता० विगलिंदियअपज्जत्तभंगो । णवरि तेउका. आयु० दो वि पदा जह० एग०, उक्क० चउवीसं मुहु। ३३२. पंचमण-पंचवचि०-वेउब्वियका-इत्थिवे०-पुरिस-विभंग०-चक्खुदं०सणिण त्ति सगपदा० मणुसिभंगो । उचियमिस्स० सव्वे भंगे जह० एग०, उक्क० बारसमु० । आहार-आहारमि० सव्वे भंगे जह० एय०, उक्क० वासपुधत्तं ।। ३३३. अवगदवे० सत्तएणं क० भुज-अवत्त० जह० एग०, उक्क० वासपुधत्तं। अप्प०-अवहि० जह० एग०, उक्क० छम्मासं । एवं सुहमसं । सत्तएणं क० अवत्त० पत्थि अंतरं । भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंका तथा आयुकर्मके दो पदोंका अन्तरकाल पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंके समान है। सात कौके अवक्तव्य पदका अन्तरकाल ओघके समान है। सब विकलेन्द्रियों में सब पदोंका अन्तरकाल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। तथा पञ्चेन्द्रिय और प्रसोंमें सब पदोंका अन्तरकाल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंके समान है। इतनो विशेषता है कि सात कौके प्रवक्तव्य पदका अन्तरकाल ओघके समान है। ३३१. बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें सब पदोंका अन्तरकाल विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंमें आयुकर्मके दो पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है। ३३२. पाँचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गशानी, चक्षुदर्शनी और संधी जीवों में अपने-अपने पदोंका अन्तरकाल मनुष्यिनियोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में सब पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सब पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। ३३३. अपगतवेदमें सात कमौके भुजगार और प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीनो है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके सात कमौके प्रवक्तव्य पदका अन्तर नहीं होता। विशेषार्थ-भुजगार और अवतन्य पद उपशमश्रेणिमें होते हैं और उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसीसे यहां अपगतवेदी जीवोंके सात कौके भुजगार और अवक्तव्य पदोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा है। सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके भुजगार पदका यह अन्तर मोहनीयके विना छह कर्मोंका प्राप्त होता है। शेष कथन सुगम है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ३३४. आभि० - सुद० - श्रधि० सत्तणं क० मणुसभंगो । आयु० दो वि पदा० जह० एग०, उक० मासपुध० । एवं संजद - सामाइ ० -छेदो० -संजदासंजदअधिदं० सम्मादि' ० - वेदग० सगपदार्थं । एवं चेव मणपज्ज० । रणवरि आयु० दो १७२ • वि पदा० जह० एग०, उक्क० वासपुध० । एवं परिहार० - खइग० । ३३५. उ० - पम्म० देवभंगो । आयु० दो वि पदा० जह० एग०, उक्क ० दालीसं मुहु० पक्खं । सुक्काए अधिभंगो । ३३६. उवसम० सत्तणं क० भुज० - अप्पद ० - अवहि० जह० एग०, उक ० सत्त रादिदियाणि । अवत्त० ओघं । सासण० क० सम्मामि० सत्तर क० सव्वपदा० जह० एग०, उक्क पलिदो० । एवं अंतरं समत्तं । भावागमो ३३७. भावाणुगमेण दुवि० - ओघे० दे० । श्रघे० अहरणं क० सव्वपदा बंधा ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं जाव अरणाहारगति यादव्वं । ३३४. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंके सब पदों का अन्तर मनुष्योंके समान है। आयुकर्म के दोनों पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्व है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अपने-अपने पदोंका अन्तर जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मके दोनों ही पर्दोका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । मनःपर्ययशानियोंके समान परिहारविशुद्धिसंयत और क्षायिकसम्यदृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । ३३५. पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंके अपने सब पदों का अन्तरदेवोंके समान है । आयुकर्मके दोनों ही पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे अड़तालीस मुहूर्त और एक पक्ष है। शुक्ललेश्या में सब पदका अन्तर अवधिज्ञानियोंके समान है । ३३६. उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है । अवक्तव्य पदका अन्तर ओके समान है । सासादन सम्यग्दृष्टियों में आठों कर्मोंके और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में सात कर्मोंके सब पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । भावानुगम ३३७. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रघ और आदेश । श्रघसे आठ कर्मोंके सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका कौनसा भाव है ? श्रदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १. मूलप्रतौ सम्मामि वेदग इति पाठः । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजगारबंधे अप्पाबहुगाणुगमो अप्पा बहुगागमो ३३८. पाबहुगागमेण दुवि० - ओघे० दे० । श्रघे० सत्तरणं क० सव्वत्थोवा अवत्तव्वबंधगा । अप्पद • बंध० अांतगु० । भुज बं विसे० । अवहि ० बंध० असं० गु० । आयु० सव्वत्थोवा अवत्त ० बंधगा । अप्पद० असं ० गु० । एवं तिरिक्खोघं कायजोगि एस ० - कोधादि ० ४-मदि० सुद० - संज० - अचक्खु ०किरण० - पील० - काउ०- भवसि ० - अब्भवसि ० -मिच्छादि ० - आहारगति । गवरि एसिं अवत्त • रात्थि तेसिं सव्वत्थोवा अप्पद० । भुज० विसे० । श्रवद्वि० असं० गु० । ० ३३६. देसेण रइएस सत्तणं क० सव्वत्थोवा भुज० - अप्प० । अवहि० असं० गु० । आयु० श्रघं । एवं सव्वणिरय - सव्वपंचिंदियतिरिक्ख मणुसज्ज देवा याव अवराजिदा त्ति सव्वविगलिंदिय- सव्वपंचकाय ओरालियमि० -वेडव्दिय'०-वेडव्वियमि०-इत्थि ० - पुरिस० - संजदासंजद - तेउ०- पम्म० - ० - वेदग० ०-सासण० विशेषार्थ - कमकी भुजगार श्रादि स्थितिका बन्ध कषायसे होता है और कषाय श्रदयिक भाव है, इसलिए यहाँ एक ही भाव कहा है । यहाँ किसी भी मार्गणा में आदेश प्ररूपणा सम्भव नहीं है। ओघके समान ही सर्वत्र जानना चाहिए, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । अल्पबहुत्वानुगम ३३८. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे सात कके वक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगुणें हैं । इनसे भुजगार पदका बन्ध करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मके अवक्तव्यपदके बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्या - वाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जिन मार्गणाओं में सात कर्मोंका अवक्तव्य पद नहीं है, उनमें अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार पदका बन्ध करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं और इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणें हैं । ३३९, आदेश से नारकियोंमें सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरपदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । श्रयुकर्मके पदका अल्पबहुत्व श्रोधके समान है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, देव, अपराजित विमान तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पाँचों स्थावर काय, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, त्रवेदी, पुरुषवेदी, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंशी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि 1. मूलप्रतौ वेदय० वेडग्नियमि० इति पाठः । १७३ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे सम्मामि असणिण त्ति । णवरि आणदादि अवराजिदा त्ति आयु० संखेज्ज कादव्वं । ३४०. मणुसेसु सत्तएणं क० सव्वत्थोवा अवत्त । भुज-अप्पद० असं०गु० । अवहि असं० गु०। आयु. ओघं । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । वरि संखेज माणिदव्वं । एवं सव्वह०-आहार-आहारमि०-मणपज्ज०-संजद-सामाइ०छेदोवडा० । णवरि मणपज्ज०-संजद० सत्तएणं क० अवत्त० अत्थि संसाणं णत्थि । ३४१. पंचिंदय०२-पंचमण-पंचवचि०-आभि-सुद-बोधि-चक्खुदं०अोधिदं०-सुक्कले०-सम्मादि०-खइग-उवसम०--सरिण त्ति मणुसभंगो। वरिसुक्कले०-खइग० आयु० मणुसिभंगो । ३४२. तस०२ ओघं ! णवरि असंखेज्जं कादव्वं । एवं तसअप० । वरि अवत्तव्वं पत्थि । ओरालियका० ओघं । णवरि भुज-अप्प० तुल्लं । कम्मइ. सत्तएणं क० सव्वत्थोवा भुज०-अप्प० । अवहि. असं गु० । अवगद० सत्तएणं क० सव्वत्थोवा अवत्त० । भुज० संखेगु० । अप्पद० सं० । अवहि० सं गु० । आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें आयुकर्मके अल्पबहुत्वको कहते समय संख्यातगुणा कहना चाहिए। ३४०. मनुष्यों में सात कमौके प्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मके दोनों पदोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंके जानना जाहिए। इतनी विशेषता है यहाँ असंख्यातके स्थान पर संख्यात कहना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके सात कर्मीका प्रवक्तव्य पद है। शेषके नहीं है। ३४१. पञ्चेन्द्रियद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संक्षी जीवों में सब पदों का अल्पबहुत्व मनुष्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मके दोनों पदोंका अल्पबहुत्व मनुष्यिनियोंके समान है। ३४२. सद्विकमें सब पदोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अनन्तके स्थानमें असंख्यात कहना चाहिए । इसी प्रकार अस अपर्याप्तकोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके सात कौका प्रवक्तव्य पद नहीं होता। औदारिक काययोगी जीवों में सब पदोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके सात कमौके भुजगार और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव तुल्य होते हैं। कार्मणकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अपगतवेदी जीवों में सात कमौके प्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगारपदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्मसाम्परायिक संयत Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा १७५ मुहुमसं० छणं क० सव्वत्थोवा भुज० । अप्प० सं० गु० । [श्रवद्विद० संखेज्जगु० ] | अरणाहार० कम्मइगभंगो | एवं अपाबहुगं समत्तं । पदणिक्खेवो ३४३. पदरिक्खेवेत्ति तत्थ इमाणि तिरिण अणियोगद्दाराणि - समुक्कित्तणा सामित्तं अप्पाबहुगे त्ति । समुक्कित्तणा ✔1 ३४४. समुत्तिणं दुविधं - जहरणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०ओघे० दे० । श्रघे० सत्तणं क० अत्थि उकस्सिया वडी उक्क० हाणी उक० अवारणं । एवं याव अरणाहारग त्ति दव्वं । ३४५. जहण्णए पगदं । दुवि० - श्रघे० दे० । श्रघे० सत्तएां क० अत्थि जीवों में छह कम भुजगारपदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतर पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । अनाहारक जीवों में सात कर्मोंके अपने पदोंका अल्पबहुत्व कार्मणकाययोगवालोंके समान है । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । पदनिक्षेप ३४३. अब पदनिक्षेपका अधिकार है। इसके ये तीन अधिकार हैं- समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ! विशेषार्थ - यहाँ 'पद' शब्द से वृद्धि, हानि और श्रवस्थान इन तीन पदोंका ग्रहण किया गया है। ये तीनों पद उत्कृष्ट भी होते हैं और जघन्य भी । आशय यह है कि इस अनुयोगद्वार में यह बतलाया गया है कि कोई एक जीव यदि प्रथम समय में अपने योग्य जघन्य स्थितिबन्ध करता है और दूसरे समय में वह स्थितिको बढ़ाकर बन्ध करता है, तो उसके बन्धमें अधिकसे अधिक कितनी वृद्धि हो सकती है और कमसे कम कितनी वृद्धि हो सकती है । इसी प्रकार यदि कोई जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है और अनन्तर समयमें वह स्थितिको घटा कर बन्ध करता है, तो उस जीवके बन्धमें अधिक से अधिक कितनी हानि हो सकती है और कमसे कम कितनी हानि हो सकती है, यही सब विषय इस प्रकरण विविध अनुयोगोंके द्वारा दिखलाया गया है । वृद्धि और हानि होनेके बाद जो अवस्थित बन्ध होता है, उसे यहाँ अवस्थित बन्ध कहा है । यह जिस प्रकारकी वृद्धि और हानिके बाद होता है, उसका वही नाम पड़ता है । समुत्कीर्तना ३४४. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोघ्र और श्रादेश । श्रोध की अपेक्षा सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट श्रवस्थान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए । ३४५. जघन्यका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका - ओघ और Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जहरिया बढी [जहरिया हारणी] जह० अवद्वारणं । एवं याव अणाहारगत्ति दव्वं । सामित्तं • ३४६. सामित्तं दुवि० – जहणणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि० - श्रघे ० आदे० । श्रघेण सत्तणं क० उकस्सिया वड्डी कस्स होदि । याव दुहारिणययव मज्झस्स उवरिं अंतोकोडाको डिडिदिबंधमारणो उक्कस्यं संकिलेसं गदो उक्कस्यं दाहं गदो तो उक्कस्यं द्विदिबंधो तस्स उक्कस्सिया बढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स १ यो उक्कस्सहिदिबंधमाणो मदो एइंदियो जादो तपाओग्गजहराए पदिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी | उक्क० अवद्वाणं कस्स होदि ? उक्कस्सयं द्विदिबंध माणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पात्रोग्गजहराए हिदिबंधहाणे पडिदो तस्सेव से काले उक्क - स्यमवहाणं । एवमोघभंगो कायजोगि - कोधादि ० ४-मदि० - सुद० - असंज० - अचक्खुर्द ०भवसि० - अब्भवसि ० -मिच्छादि ० - आहारग ति । आदेश । श्रधकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य श्रवस्थान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए । इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई । स्वामित्व ३४६. स्वामित्व दो प्रकारका है-ज - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । ओकी अपेक्षा सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो दोस्थानिक यवमध्य के ऊपर अन्तकोटा कोटिसागरप्रमाण स्थितिका बन्ध करता हुआ उत्कृष्टसंक्लेश और उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होकर अनन्तर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है । जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए मर कर एकेन्द्रिय हो गया और वहां तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करने लगता है, उसके उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगके न रहने से संक्लेश परिणामोंसे च्युत होकर तत्प्रायोग्य जघग्य स्थितिबन्धस्थानको प्राप्त होता है, उसके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इस प्रकार श्रोघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी श्रुताशानी, असंयत, श्रचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ—यहां बन्धस्थितिकी वृद्धि, हानि और अवस्थानकी पदनिक्षेप संज्ञा है और जिस अनुयोगद्वार में इसका विचार किया जाता है, वह पदनिक्षेप अनुयोगद्वार है । यह वृद्धि, हानि और श्रवस्थान जघन्य भी होता है और उत्कृष्ट भी होता है। यहां सर्वप्रथम उत्कृष्टका विचार करते हुए वह किसके होता है; यह बतलाया गया है । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके जघन्य स्थितिबंध अन्तःकोटाकोटिसागरप्रमाण होता है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है । अब एक ऐसा जीव लो जो जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करने लगता है, तो यह स्थितिबन्धकी उत्कृष्ट वृद्धि होगी । यह उत्कृष्ट वृद्धि स्वस्थानमें ही सम्भव है, परस्थान में सम्भव नहीं, इसलिए यहां स्वस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि बतलाई Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदणिक्खेवे उक्कस्ससामित्तं १७७ ३४७. आदेसेण गैरइएमु सत्तएणं क० उक्कस्सिया वड्डी-अवहाणे ओघ । उक्कस्सिया हाणी कस्स होदि ? यो उक्कस्सयं हिदि बंधमाणो सागारक्वएण पडिभग्गो तप्पाओग्गजहएणए पडिदो तस्सेव उक्कस्सिया हाणी। एवं सव्वणिरय-पंचिंदिय० तिरिक्व०३-मणुस०३ देवा याव सहस्सार त्ति पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०ओरालि०-वेउव्वि०-इत्थि०-पुरिस०-णवूस०-विभंग०-चक्खुदं०-पंचले०-सणिण त्ति। ३४८. पंचिदियतिरिक्वअपज्ज. सत्तएणं क० उक्क० वड्डी कस्स० ? यो तप्पाओग्गजहएणयं हिदि बंधमाणो तप्पाअोग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो तप्पाअोग्गउक्कस्सयं हिदिबंधो तस्स उक्कस्सिया वड्डी । उक्कस्सिया हाणी कस्स होदि ? यो तप्पाओग्गउक्कस्सियं हिदि बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तपाओग्गजहएणए पदिदो तस्स उकस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवहाणं । एवं मणुसगई है। किन्तु उत्कृष्ट हानि परस्थानकी अपेक्षा प्राप्त होती है । कारण कि जो संक्षी पञ्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है,वह मरकर एकेन्द्रिय भी हो सकता है और वहां एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध करने लगता है। इस प्रकार उत्कृष्ट वृद्धि अन्तःकोडाकोडी कम सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण प्राप्त होती है और उत्कृष्ट हानि पल्यके असंख्यातवें भागसे न्यून एक सागर कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त होती है । जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगके क्षय होनेसे तत्प्रायोग्य जघन्य स्थिति बाँध कर दूसरे समयमें पुनः उसी स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है । परस्थानमें यह उत्कृष्ट अवस्थान सम्भव न होनेसे स्वस्थानको अपेक्षा ही इसका निर्देश किया है। शेष व्याख्यान स्पष्ट है। ३४७. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सात कौकी उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थान ओधके समान है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगका क्षय होनेसे संक्लेश परिणामोंकी हानि होकर तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, उसीके उत्कृष्ट हानि होती है । इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च त्रिक मनुष्य त्रिक, देव, सहस्रार कल्पतकके देव, पञ्चेन्द्रियद्विक, प्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, विभङ्गशानी, चक्षुदर्शनी, पाँच लेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ-पहले ओघकी अपेक्षा परस्थानका अवलम्बन लेकर उत्कृष्ट हानि बतलाई थी। यहाँ जो मार्गणा विवक्षित हो उसीमें उत्कृष्ट हानि लाना इष्ट है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराते हुए तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्ध करा कर यह उत्कृष्ट हानि लाई गई है। यहाँ जितनी मार्गणाऐं गिनाई गई हैं इन सबमें संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि अवस्था सम्भव होनेसे उनकी अपेक्षा यह कथनी करनी चाहिए । ३४८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोग का क्षय होनेसे संक्लेश परिणामोंकी हानिवश तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करने लगता है,उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा इसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। २३ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे रवह त्ति पज्ज० आणदादि उवरि सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचिंदियतसअपज्ज०-सव्वपंचका० ओरालियमि० वेडव्वियमि० श्राहार० - आहारमि० - आभि०सुद० अधि० - मणपज्ज० - संजद - सामाइ० - छेदोव० - परिहार० - संजदासंजद- प्रोधिदं०सुक्कले ०- सम्मादि ० - खड्ग ० - वेदग०-उवसमस० - सासरण० - सम्मामि० । तप्प ३४६. कम्मइ०-अणाहार० सत्तएां क० उक्कस्सिया वडी कस्स होदि ? यो जयं हिदि बंधमाणो तपाओगउकस्सयं संकिलेसं गदो तप्पाकस्यं द्विदिबंधो तस्स उक्कस्सिया वडी । उक्कस्सिया हारणी कस्स होदि ? यो पागकस्यं हिदि बंधमारणो सागारक्खए पडिभग्गो तप्पा ओग्गजहrue पदिदो तस्स उक्क० हाणी । उक्कस्सयमवद्वाणं कस्स होदि ? बादरएइंदियस्स तपारगडिदीदो हाणी उकस्सयं कादूर अवदिस्स तस्सेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं | ३५०. [अवगदवे०] सत्तएां क० उक्क० वड्डी कस्स होदि ? जवसामगस्स परिदमास्स यट्टिवादर सांपराइयस्स से काले सवेदो होहिदि ति तस्स उक्क० बड्डी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स होदि ? उवसामयइसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक के देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त सब पाँचों स्थावर काय, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, वैकियिक मिश्र काययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्र काययोगी, श्रभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - इन सब मार्गणाओं में आदेशसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । दूसरे यहाँ उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका जो कारण बतलाया है, वह सबमें घटित हो जाता है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंके समान कहा है । ३४९. कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए साकार उपयोगके क्षय होने से संक्लेश परिणामोंकी हानिवश तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करता है, उसके उत्कृष्ट हानि होती है । उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? जो बादर एकेन्द्रिय तत्प्रायोग्य उकृष्ट स्थितिमेंसे उत्कृष्ट हानि करके अवस्थित रहता है, उसके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट श्रवस्थान होता है । ३५०. गतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो उपशामक पतनको प्राप्त होता हुआ अनिवृत्तिवादर साम्परायको प्राप्त होकर अनन्तर समयमें वेदसहित होगा, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट श्रवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो उपशामक अनिवृत्तिबादर साम्पराय Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदणिक्खेवे जहएणसामित्तं १७६ अणियट्टिवादरसांपराइयस्स पढमादो हिदिबंधादो विदिए हिदिबंधे वट्टमाणयस्स तस्स उक० हाणी । एवं सुहुमसांपराइ छएणं क० । ३५१. असपिण. सत्तएणं क० उक्क० वड्डी कस्स होदि ? एइंदियो असएिणपंचिदिएसु उववरणो तस्स उक्क० वट्टी होदि। असएिणपंचिंदियो एइंदियेसु उववरणो तस्स उक्क. हाणी । उक्कस्सयमवहाणं असएिणपंचिंदिय० सत्याणं कादव्वं । __ ३५२. जहएणए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सत्तएणं क० जहएिणया वड्डी कस्स होदि ? यो समयणउक्कस्सियं हिदि बंधमाणो पुण्णाए हिदिवंधगद्धाए उकस्सयं संकिलेसं गदो उक्कस्सयं हिदिवंधो तस्स जहएिणया वड्डी । जहणिया हाणी कस्स होदि ? यो समयुत्तरं जहएणयं हिदि बंधमाणो पुरणाए हिदिबंधगद्धाए उक्कस्सयं विसोधिं गदो तस्स जहएणयं डिदिबंधो तस्स जहरिणया हाणी । एक्कदरत्थ अवहाणं । एवं सत्थाणं याव अण्णाहारग त्ति । मवरि अवगद०मुहुमसं० सत्तएणं कछएणं क० जहरिणया वड्डी कस्स होदि ? उवसामयस्स परिवदमाणस्स विदिए हिदिबंधे वट्टमाणस्स तस्स जह० वड्डी । जहएिणया हाणी कस्स० ? खवगस्स चरिमे द्विदिबंधे वट्टमाणस्स तस्स जह० हाणी। तम्हि चेव जहएणयमवहाणं । जीव प्रथम स्थितिबन्धके बाद द्वितीय स्थितिबन्धमें विद्यमान होता है, उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके छह कौकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान जानना चाहिए ।। ३५१. असंही जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किससे होती है ? जो एकेन्द्रिय असंही पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। जो असंशी पञ्चेन्द्रिय एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उत्कृष्ट अवस्थान असंक्षी पञ्चेन्द्रियके स्वस्थानकी अपेक्षा कहना चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ३५२. अब जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे सात कर्मोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हुए स्थितिबन्धके कालके पूर्ण हो जानेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, उसके जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? जो एक समय अधिक जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए जघन्य स्थितिबन्धके कालके पूर्ण हो जानेपर उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर जघन्य स्थितिबन्ध करता है, उसके जघन्य हानि होती है। तथा इनमेंसे किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है। इस प्रकार स्वस्थानकी अपेक्षा अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में क्रमसे सात और छह कौकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो उपशामक उपशम श्रेणिसे उतरते हुए दूसरे स्थितिबन्धका प्रारम्भ करता है,उसके जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किससे होती है ? जो क्षपक अन्तिम स्थितिबन्ध कर रहा है, उसके जघन्य हानि होती है और इसीमें जघन्य अवस्थान होता है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अप्पाबहुगं ३५३. अप्पाबहुगं दुवि०- -जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि-- ओघे० आदे० । ओघे० सत्तएणं कम्माणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी । उक्कस्सयमवहाणं विसेसाहियं । उक्क० हाणी विसेसा । ओघभंगो कायजोगि-कोधादि०४-मदि०सुद०-असंज०-अचक्खु०-भवसि०-अब्यवसि०-मिच्छादि०-पाहारग त्ति । ३५४. णिरएसु सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी । उक्कस्सिया हाणी उक्कस्सयमवहाणं च दो वि तुल्ला विसे । एवं सव्वाणं अणाहारग त्ति । वरि तिएणं मिस्सगाणं सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्सिया वड्डी अवहाणं च दो वि तुल्लाणि संखेज्जगु० । ३५५. कम्मइ०-अणाहा. सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सयमवहाणं । उक्क० वड्डी० सं०गु० । उक्क० हाणी विसे । अवगद० सत्तएणं क. सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । उक्क० वड्डी अवहाणं असं०गु० । णवरि घादीणं संखेज्जगुणाए। एवं सुहुमसं० छएणं क । णवरि सव्वेसिं घादीणं भंगो। ३५६. आभि०-सुद०-ओधि० सत्तएणं क० सव्वत्थोवा उक्क० हाणी अवहाणं । उक्क० वड्डी सं०गु० । एवं मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार-संजदासंजद ३५३. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ३५४. नारकियों में सात कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान ये दोनों तुल्य होकर विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक सबके अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तीनों मिश्रयोगवाले जीवोंके सात कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान ये दोनों तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। ३५५. कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में सात कौका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है और इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान असंख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि घाति कौकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान संख्यातगुण है। इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कौके उक्त पदोंका अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनके सब कर्मोके उक्त पदोंका अल्पबहुत्व घातिकौके समान है। ३५६. आभिनिबोधिकहानी, श्रुतक्षानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कमौकी उस्कृष्ट हानि और अवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उस्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संय Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदणिक्खेवे जहश्रन्यावद्दुर्ग १८१ श्रोधिदं० - सम्मादि० वेदगस०-उवसम० - सासण० सम्मामि० । mart fureभंगो यदि सत्था सामित्तं दिज्जदि । अथ मिच्छत्ताभिहस्स तदो बड्डी' संखे ०गुणं । खरगे रियभंगो | सरि० सव्वत्योवा उक० अवद्वाणं । उक्क० बड्डी सं०गु० । उक० हाणी विसेसाहिया । एवं उक्कस्सं समत्तं । क० ३५७. जहा पगदं । दुवि - ओघे० दे० । श्रघेण सरणं जहरिया बड़ी जहरिया हाणी जहरणयपत्रद्वारणं तिरिण वि तुल्लाणि । एवं या अणाहारगति । वरि अवगदवे० सव्वत्योवा सत्तएवं कम्मारणं जहfarar artit rarणं । जह० बढी सं०गु० । एवं समसंप व कम्मारणं । एवं असमतं । एवं पदशिवखेवं समते । तासंयत, श्रवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यण्टषिकाण्वधि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवीके जानना चाहिए। किन्तु इस विशेषता है कि यदि स्वस्थान की अपेक्षा स्वामित्व प्राप्त किया जाता है, तो नारकियोंके समान अपबहुत्व है और यदि मिथ्यात्वके अभिमुख हुए इन जीवोंका अल्पबहुत्व प्राप्त किया जाता है, तो वृद्धि संख्यातगुणी है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में उक्त पदोंका अल्पबहुत्व नारकियोंके समान है । श्रसंज्ञी जीवोंमें उत्कृष्ट श्रवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। विशेषार्थ - यहाँ आभिनिवोधिकज्ञानी से लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि तक जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, इन सब मार्गणावाले जीवोंका मिथ्यात्व गुणस्थान में भी गमन सम्भव है । उसमें भी सासादन गुणस्थानवाले तो नियमसे मिध्यात्वमें जाते हैं । इसलिए इन मार्गणाओं में अल्पबहुत्व दो प्रकारका प्राप्त होता है। जबतक ये मिध्यात्वके श्रभिमुख नहीं होते हैं, तब तक इनमें नारकियोंके समान अल्पबहुत्व है । अर्थात् सात कर्मोकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है और इससे उत्कृष्ट हानि व उत्कृष्ट अवस्थान ये दोनों तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। और जब ये मिथ्यात्व अभिमुख होते हैं, तब अल्पबहुत्व इस प्रकार होता है- सात कर्मोंकी उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान दोनों तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं और इससे उत्कृष्ट वृद्धि संख्यातगुणी है । यहाँ ओघ और आदेश से आयुकर्मका अल्पबहुत्व नहीं कहा है सो इसका कारण यह है कि आयुकर्मके स्थितिबन्धमें इस तरहकी वृद्धि, हानि और अवस्थान सम्भव नहीं है । उसमें केवल प्रथम समय के बन्धके बाद हानि ही होती है, इसलिए उसमें अल्पबहुत्व घटित नहीं होता । इस प्रकार उत्कृष्ट श्रल्पबहुत्व समाप्त हुआ । ३५७. अब जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । इसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रधसे सात कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान ये तीनों ही तुल्य हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मोंकी जघन्य हानि और अवस्थान सबसे स्तोक है। इनसे जघन्य वृद्धि संख्यातगुणी है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में छह कर्मोंका अल्पबहुत्व है । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ । १. मूलप्रतौ वड्डी समं गुणं इति पाठः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वह्निबंधो ३५८. वढिबंधे त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि - समुक्कित्तणा सामित्तं एवं याव अप्पाबहुगे ति । १८२ समुत्तिणा ३५६. समुत्तिणदाए दुविधो दिसो ---- ओघेण देण य । तत्थ घे सत्तएां क० अत्थि चत्तारिवढि ० चत्तारिहाणि ० अवद्विद० अवत्तव्वबंधगा य । आयु० for anaisगा य असंखेज्जभागहारिणबंधगा य । एवं आयु० याव अणाहारगति । यथा श्रघेण तथा मणुस ० ३ - पंचिंदिय-तस०२ - पंचमण० - पंचवचि०कायजोगि ओरालियका ० - भि० सुद० ओधि० - मरणपज्ज० -संजद ० - चक्खुर्द ० -चक्खुर्द ० धिदं०-सुकले ०- भवसि ०- सम्मादि० खइग०-उवसम० सरिण - आहारगति । वृद्धिबन्ध ३५८. अब वृद्धिबन्धका प्रकरण है । उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं - समुत्कीर्तना और स्वामित्व से लेकर अल्पबहुत्व तक । विशेषार्थ - जिसमें छह गुणी हानि - वृद्धिका विचार किया जाता है, उसे वृद्धि अनुयोगद्वार कहते हैं । यहाँ वृद्धि पद उपलक्षण है, इसलिए इस पद से हानिका भी ग्रहण हो जाता है । यहाँ स्थितिबन्धका प्रकरण होनेसे इसका नाम वृद्धिबन्ध पड़ा है। मुख्यरूपसे इसका विचार तेरह अनुयोगद्वारोंके द्वारा किया जाता है । प्रकृत में प्रारम्भके समुत्कीर्तना और स्वमित्व ये दो तथा अन्तिम अल्पबहुत्व इन तीनका नाम निर्देश किया है । सब अनुयोगद्वारों के नाम ये हैं- समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना 1 ३५९. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी चार वृद्धि, चार हानि, श्रवस्थित और अवक्तव्य पद का बन्ध करनेवाले जीव हैं। आयुकर्मके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले और असंख्यात भागहानिपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं । इसी प्रकार आयुकर्म की अपेक्षा अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । तथा शेष सात कर्मों की अपेक्षा जिस प्रकार श्रघमें कहा है, उसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिक काययोगी, श्रभिनि बोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चतुदर्शनी, श्रचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संक्षी और आहारक जीवों के जानना चाहिए । विशेषार्थ - आठों कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्धका पहले निर्देश कर आये हैं। साथ ही यह भी बतला श्राये हैं कि आयुकर्मका अवक्तव्यबन्ध होनेके बाद अल्पतरबन्ध ही होता है । इस प्रकार इन आठों कर्मोंके स्थितिबन्धके कुल विकल्पोंको देखते हुए इनमें अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि तथा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि तो कथमपि सम्भव नहीं हैं, क्योंकि कुल स्थितिविकल्प असंख्यात ही हैं, इसलिये इनमें ये दो वृद्धि Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहिबंधे समुक्कित्तणा १८३ ३६०. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं क०' अत्थि तिएिणवडि० तिएिणहाणिक अवडिदबंधगा य । एवं णिरयभंगो सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्जत्त-सव्वदेवपंचिंदिय-तसअपज्जत्त-ओरालियमि०--वेवि०-बउब्वियमि०-आहार-आहारमि०कम्मइ०-इत्थि०-पुरिस०-णवूस०-कोधादि०४--मदि०-सुद-विभंग-सामाइ०-छेदो०परिहार०-संजदासंजद०-असंजद-पंचले०-अब्भवसि--वेदगस०-सासणस--सम्मामिच्छादिहि-असएिण-अण्णाहारग त्ति । णवरि इत्थि०-पुरिस०-णqस०-कोधादि०४सामाइ०-छेदो० सत्तएणं क. अत्थि चत्तारिवडि० चत्तारिहाणि० अवहिदबंधगा य । लोभक० मोह अवत्तव्यबंधगा य । और दो हानि सम्भव नहीं है। यही कारण है कि यहाँ ओघसे सात कर्मोंकी चार वृद्धि और चार हानियोंका निर्देश किया है । अवस्थित और अवक्तव्यपद स्पष्ट ही हैं। अब रहा आयु. कर्म सो इसका जब बन्ध प्रारम्भ होता है, तब प्रथम समयमें एक मात्र अवक्तव्य पद ही होता है और अनन्तर अल्पतर पद होता है। फिर भी उस अल्पतर पदमें कौनसी हानि होती है, यही बतलानेके लिए यहाँ वह असंख्यातभागहानि ही होती है, यह स्पष्ट निर्देश किया है । इस प्रकार आठों कौमें कौन-कौन पद होते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है। यह तो स्पष्ट ही है कि नरकगति मार्गणासे लेकर अनाहारक मार्गणा तक सब मार्गणाओंमेंसे जिसमें आयुकर्मका बन्ध होता है,उसमें अवक्तव्य और असंख्यातभागहानि ये दो पद ही होते हैं।इसलिए इनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है,पर सात कर्मोंकी अपेक्षा भी अन्य जिन मार्गणा ओंमें यह ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, उनकी प्ररूपणा भी ओघले समान कही है। ऐसी मार्गणाओंका नाम निर्देश मूलमें किया ही है। ३६०. आदेशको अपेक्षा नारकियों में सात कौके तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं। इसी प्रकार नारकियोंके समान सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैकियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभङ्गलानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत,पाँच लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंक्षी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में सात कर्मोके चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव है । तथा लोभकषायमें मोहनीय कर्मके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं। विशेषार्थ-यहां असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां हैं। तथा असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानि ये तीन हानियां हैं। इनमें असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानिके मिलानेपर चार वृद्धियां और चार हानियां होती हैं। 1. मूलप्रतौ क० अवढि तिरिण इति पाठः। २. मलप्रतौ-भंगो सव्वमणुसतिरिक्खअपजत्त इति पाठः। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ३६१. एइंदिय-पंचका० सत्तणं क० अत्थि असंखेज्जभागवड्डि-हाणि श्रवद्विदबंधगा य । सव्वविगलिंदिए सत्तणं क० अत्थि असंखेज्जभागवड्डि- हारिण० संखेभागवडि-हारिण० अवद्विदबंधगा य । अवगद० णाणावर ० दंसणावर ० - अंतराइ अथ संखेज्जभागवड्डि-हारिण० संखेज्जगुणवड्डि-हारिण० अवद्विद० अवत्तव्वबंधगाय । वेदरणीय-सामा-गोदाणं अस्थि संखेज्जभागवडि- हाणि ० [ संखेज्जगुरणवडि-हारिण० ] असंखेज्जगुणवड्डि-हारिण० अवदि० अत्तव्वबंधगा य । मोहरणीय० अत्थि संखेज्जभागवड हारिण • अवद्विद० अवत्तव्वबंधगा य । मुहुमसंप० छणं क० अत्थि संखेज्ज भागवड -हारिण० अदिबंधगा य । एवं समुक्कित्तणा समत्ता । १८४ ३६२. सामित्ताणुगमेण दुवि० - ओ० आदेसे० । श्रघेण सत्तणं क० असंखेज्जभागवडि- हारिण-अवदिबंधो कस्स होदि ? अरणदरस्स एइंदियस्स बीइंदि० तीइंदि० चदुरिंदि० पंचिंदि० सरिण' ० असरिण० पंज्जत अपज्जत्तगस्स वा । संखेज्जभागवड्डि- हारिण० कस्स होदि ? अणदरस्स वेइंदियस्स वा तेइंदि० चदुरिंदि ० पंचिंदि० सरिण० अस रिग ० पज्ज० अपज्ज० | संखेज्जगुणवडि-हारिणबंधो कस्स होदि ? दर • पंचिदियस सरिणस्स वा पज्जत्तस्स वा अपज्जत्तस्स वा । असंखेज्ज 0 ३६१. एकेन्द्रिय और पाँचों स्थावरकाय जीवों में सात कर्मोंके असंख्यात भागवृद्धि, श्रसंख्यात भागहानि और अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं । सब विकलेन्द्रियों में सात कमौके श्रसंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव हैं। अपगतवेदी जीवोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात गुणहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव हैं । वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मके संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात गुणहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थित और श्रवक्कव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव हैं। मोहनीय कर्मके संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, श्रवस्थित और श्रवक्लव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव हैं । सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में छह कमौके संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव हैं । इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई । ३६२. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघकी अपेक्षा सात कर्मोंका असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागद्दानि और अवस्थित बन्ध किसके होता है ? अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय संशी और पञ्चेन्द्रिय श्रसंज्ञी इन सब पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके होता है । संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि बन्ध किसके होता है ? श्रन्यतर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय संशी और पञ्चेन्द्रिय असंशी इन सब पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके होता है। संख्यात गुणवृद्धि बन्ध और संख्यात गुणहानि बन्ध किसके होता है ? अन्यतर पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय संशी अपर्याप्त जीवके होता है । श्रसंख्यात गुणवृद्धिबन्ध किसके १. सरिणति सरिण० इति पाठः । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधे सामित्तं १८५ बंध कस होदि ? रणदरस्स उवसामणादो परिवदमाणस्स रिट्टि - बादरसांपराइगस्स पढमसमयदेवस्स वा । असंखेज्जगुणहाणिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स उवसामगस्स वा खवगस्स वा अणियट्टिवादरसांपराइगस्स । अत्तव्वबंध कस्स होदि ? अण्णदरस्स उवसामगस्स परिवदमाणस्स मणुसस्स वा मणुसि णीए वा पढमसमयदेवस्स वा । युगस्स अवत्तव्वबंधो कस्स होदि ? अणदरस्स पदमसमयत्र्त्रायुगबंधमाणस्स । तेण परं असंखेज्जभागहारिणबंधो । एवं कायजोगिअचक्खु ० - भवसि '० - आहारगति । · ३६३. श्रादेसेण रइएस सत्तरणं कम्माणं तिरिणवडि- हारिण-अवदिबंधो कस्स होदि ? दरस्स । आयु० दो विपदा ओघं । सव्वत्थ आयु० भंगो । एवं मदि० - सुद० - संज० - किरण ०-गील ०- काउ० - अब्भवसि ० - मिच्छादिट्ठि त्ति । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख- मणुस्स पज्जत - सव्वदेव पंचिंदिय-तस अपज्जत्ता - वेडव्विय ०वेडव्वियमि० - आहार० - आहारमि० - विभंग ०- परिहार० - संजदासंजद ० - ते ० – पम्मले ०. वेदग०' - सासण० - सम्मामि० गिरयभंगो कादव्वो । एइंदिए सत्तणं क० एगवडदबंध कस्स होदि १ अणदरस्स । एवं पंचकायाणं । विगलिंदिra सत्तरणं क० दोरिएणवड्डि-हारिण-अवद्विदबंधो कस्स होदि ? अणदरस्स । एवं होता है ? अन्यतर जो उपशम श्रेणिसे गिरकर अनिवृत्तिबादरसाम्पराय हुआ है अथवा प्रथम समयवर्ती देव हुआ है, उसके होता है । असंख्यात गुणहानिबन्ध किसके होता है ? अन्यतर उपशामक अनिवृत्तिबादर साम्परायिक जीवके अथवा क्षपक अनिवृत्तिबादर साम्परायिक जीवके होता है । अवक्लव्यबन्ध किसके होता है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले श्रन्यतर मनुष्य, मनुष्यनी और प्रथम समयवर्ती देवके होता है। आयुकर्मका प्रवक्तव्यबन्ध किसके होता है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती श्रायुकर्मका बन्ध करनेवाले जीवके होता है । इससे आगे आयुकर्मका असंख्यात भागहानिबन्ध होता है । इसी प्रकार काययोगी, श्रचक्षुदर्शनी, भव्य और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए । ३६३. प्रदेशसे नारकियोंमें सात कमका तीन वृद्धिबन्ध, तीन हानिबन्ध और श्रवस्थितबन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है । आयुकर्मके दोनों ही पदका स्वामित्व धके समान है। इसी प्रकार सर्वत्र आयुकर्मके दोनों पदोंका स्वामित्व के समान जानना चाहिए । इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त सब देव, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, श्राहारककाययोगी, श्राहारकमिश्रकाययोगी, विभंगशानी, परिहारिविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके नारकियोंके समान भङ्ग करना चाहिए। एकेन्द्रियों में सात कर्मोंका एक वृद्धिबन्ध, एक हानिबन्ध और अवस्थितबन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है । विकलेन्द्रियोंमें सात कर्मोंके दो वृद्धियोंका बन्ध, दो हानियोंका बन्ध और १. मूलप्रतौ भवसि० अणाहारग इति पाठः । २. मूलप्रतौ सव्वा श्रायुश्रोध - इति पाठः । १. मूलप्रतौ वेद्ग० सम्मादि० सासण० सम्मादि० णिरय - इति पाठः २४ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे असएिण। णवरि संखेज्जगुणवडिबंधो कस्स होदि ? अएणदरस्स एइंदिया विगलिंदियस्स वा विगलिंदिएमु असगिणपंचिंदिएसु उववज्जमाणस्स । संखेज्जगुणहाणि तबिवरीदं णेदव्वं । __ ३६४. मणुस०३ सत्तएणं क. अोघं । णवरि अवत्तव्यबंधो देवो त्तिण भाणिदव्यं । एवं ओरालियका-मणपज संजद० । ओरालियमि० तिरिक्खोघं कादव्वं । ३६५. पंचिंदिय-तस० तेसिं पज्जत्त० सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणि-अवहिदबंधो कस्स होदि ? अएणदरस्स । असंखेजगुणवड्डि-हाणि-अवत्तव्वं प्रोघं । एवं आभि०-सुद-प्रोधि०-चक्खुदं०-प्रोधिदं०-मुक्कले०-सम्मादिहि-खइग०-सणिण त्ति । पंचमण-पंचवचि० मणुसभंगो। ३६६. कम्मइ० सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणि-अवहिद० कस्स ? अण्णदरस्स । एवं अणाहार० । तिगिणवेद०--चत्तारिकसाय०-सामाइ०-छेदो. पंचिंदयभंगो । णवरि अवत्तव्वगंणत्थि । लोभे मोहणी अवत्तवं अत्थि । अवगद. पाणावर०-दसणावर०-अंतराइ० संखेजभागवडि-संखेजगुणवडि-अवत्तव्यबंधो अवस्थित बन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है। इसी प्रकार असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यात गुणवृद्धिबन्ध किसके होता है ? जो कोई एक एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय जीव मरकर विकलेन्द्रियोंमें और असंही पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, उसके होता है। इनके संख्यातगुणहानिबन्धका कथन इससे विपरीत क्रमसे जानना चाहिए। ३६४. मनुष्य त्रिकमें सात कौके सब पदोंका स्वामित्व ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य बन्धका स्वामी देव होता है, यह नहीं कहना चाहिए। इसी प्रकार औदारिक काययोगी, मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंके जानना चाहिए । औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें सम्भव सब पदोंका स्वामित्व सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहना चाहिए। ३६५. पञ्चन्द्रिय, त्रस और इनके पर्याप्त जीवों में सात कर्मोंकी तीन बृद्धियोंका बन्ध, तीन हानियोंका बन्ध और अवस्थितबन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है। असंख्यात गुणवृद्धिबन्ध, असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्त उन्धका स्वामित्व श्रोधके समान जानना चाहिए । इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और संशी जीवोंके जानना चाहिए । पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी जीवोंके सब पदोंका स्वामित्व मनुष्योंके समान है। ३६६. कार्मणकाययोगी जीवों में सात कर्मोकी तीन वृद्धियोंका बन्ध, तीन हानियोंका बन्ध और अवस्थितवन्ध किसके होता है ? अन्यतरके होता है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । तीन वेदवाले, चार कषायवाले, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके सब पदोंका स्वामित्व पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके प्रवक्तव्यपद नहीं है। किन्तु लोभकषायमें मोहनीय कर्मका प्रवक्तव्य पद है। अयगतवेदी जीवों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मकी संख्यातभाग वृद्धिका बन्ध, १. मूलप्रतौ अवत्तव्वं णत्थि इति पाठः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वदिवंधे कालो १८७ कस्स ? अण्णदरस्स उवसामगस्स परिवदमाणगस्स । दोहाणि अवहि० कस्स ? अएणदरस्स उवसामगस्स वा खवगस्स वा । एवं मोहणीयस्स संखेजभागवडिहाणि अवडिद. अवसव्वबंधगा य । वेदणीय-णामा-गोदाणं तिएिणवडिअवत्तव्वबंधो कस्स ? अएणदरस्स उवसामगस्स परिवदमाणस्स । तिएिणहाणिअवहिदबंधो कस्स होदि ? अएणदरस्स उवसामगस्स वा खवगस्स वा । मुहुमसंप० छएणं क० संखेज्जभागवड्डी कस्स ? अएणदरस्स उवसामगस्स परिवदमाणस्स । संखेज्जभागहाणि-अवट्ठिदबंधो कस्स ? अएणदरस्स उवसामगस्स वा खवगस्स वा । उवसमसम्मादिही अोधिभंगो। वरि खवग त्तिण भाणिदव्वं । एवं सामित्तं समत्तं । कालो ३६७. कालाणुगमेण दुवि०-ओघे० प्रादे० । ओघेण सत्तएणं क० चत्तारिवडि-तिएिणहाणिबंधो केव० ? जह० एग०, उक्क० सम० । असं गुणहाणिअवत्त०' जहएणुक्क० एग० । अवहि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । आयुग० दो वि पदा० भुजगारभंगो । एवं ओघभंगा एसिं चत्तारिवड्डि-हाणि० अवहिद० अवत्तव्वबंधगा य अत्थि तेसिं । णवरि मणुस०३-पंचमण-पंचवचि०-ओरालियका -इत्थिसंख्यातगुणवृद्धिका बन्ध और अवक्तव्य बन्ध किसके होता है ? किसी भी उपशामक गिरनेवालेके होता है। दो हानियोंका बन्ध और अवस्थित बन्ध किसके होता है ? किसी भी उपशामक और क्षपकके होता है। इसी प्रकार मोहनीयकी संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागहानि, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका स्वामी जानना चाहिए। वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मकी तीन वृद्धियोंका बन्ध और अवक्तव्यबन्ध किसके होता है। किसी भी उपशामक गिरनेवालेके होता है । तीन हानियोंका बन्ध और अवस्थितबन्ध किसके होता है ? किसी भी उपशामक और क्षपकके होता है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कर्मोकी संख्यातभागवृद्धिका वन्ध किसके होता है ? किसी भी उपशामक गिरनेवालेके होता है। संख्यातभागहानिबन्ध और अवस्थितबन्ध किसके होता है। किसी भी उपशामक और क्षपकके होता है। उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोमें सम्भव सब पदोका स्वामित्व अवधिशानियोके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँपर 'क्षपकके होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। काल ३६७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश। अोधकी अपेक्षा सात कोके चार वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यातगुणहानिबन्ध और प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका काल भुजगारबन्धके समान है। जिन मार्गणाओंमें चारों बृद्धियों, चारों हानियों, अवस्थित और अवक्तव्य पदका वन्ध करनेवाले जीव हैं ,उनमें सब पदोंका काल इसी प्रकार अोधके समान जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिक काययोगी, स्त्री १. मूलप्रतौ अवत्त० जह० एग इति पाठः । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे णवुस०-मणपज्जव-संजद-सामाइ०-छेदो० असंखेजगुणवडिबंधो० जहएणु० एगस । ३६८. आदेसेण णेरइएसु सत्तण्णं क. तिषिणहाणि-अवहिद० ओघं । कम्मइ०-अवगदवे०-सुहुमसं०-अणाहार वज्ज सेसाणं सगपदा णिरयभंगो । वरि असण्णि० संखेजगुणवडि-हाणि. जहएणु० एगस० । ____३६६. अवगद० तिषिणक० दोवडि-हाणि. वेदणी०-णामा-गोदाणं तिषिणवडि-हाणि मोहणी० एगवडि-हाणि जहण्णु० एगस । सत्तएणं क० अवहि०अवत्त० ओघं । सुहुमसं० छएणं क. एगवडि-हाणि जहएणुक० एग० । अवहि० ओघं । कम्मइ०-अणाहार० सत्तएणं क० तिएिणवडि-हाणि० जह० उक्क० एग० । अवहि० जह० एग०, उक० तिष्णि समयं । एवं कालं समत्तं । ३७०. अंतराणुगमेण दुवि०---ोघे आदे० । ओघेण सत्तएणं क० असंखेजभागवडि-हाणि-अवहिदबंधंतरं जह० एग०, उक्क० अंतो० । दोवडि-हाणिबंधंतरं वेदी, नपुंसकवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामयिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। विशेषार्थ-उपशामकके अनिवृत्तिकरणमें प्रथमबार और उसी समयमें मरकर देव होनेपर दूसरे समयमें उस पर्यायमें दूसरी बार असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध करनेसे असंख्यातवृद्धिबन्धका दो समय उत्कृष्ट काल उपलब्ध होता है। शेष कथन स्पष्ट है । ३६८. श्रादेशसे नारकियोंमें सात कौंकी तीन हानि और अवस्थितबन्धका काल ओघके समान है। कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और अनाहारक इन मार्गणाओंको छोड़कर शेष मार्गणाओंमें छापने-अपने पदोंका काल नारकियोंके समान है। इतनी बिशेषता है कि असंशी जीवोंमें संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ३६९. अपगतवेदी जीवों में तीन कौके दो वृद्धिबन्ध और दो हानिबन्धका, वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका तथा मोहनीयके एक वृद्धिबन्ध और एक हानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा सातों कंौके अवस्थितबन्ध और अवक्तव्यबन्धका काल ओघके समान है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कर्मोके एक वृद्धिबन्ध और एक हानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितबन्धका काल अोधके लमान है । कार्मणकाययोगी और ग्रानाहारक जाबों में सात कोके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक सत्य है। अवस्थित बन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। इस प्रकार कालं समाप्त हुआ। अन्तर ३०. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। श्रोघकी अपेक्षा सात कमौके असंख्यातभागवृद्धिबन्ध, असंख्यातभागहानिबन्ध और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट वान्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो वृद्धिबन्ध और दो हानिबन्ध का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहिबंधे अंतरं १८६ जह० एग०, उक्क० अणंतकालमसंखेजपुग्ग० । असंखेजगुणवडि० जह० एग०, उक्क० अद्धपोग्गलप० । असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वबंधंतरं जह• अंतो०, उक्क० अद्धपोग्गल । आयु० भुजगारभंगो । एवं ओघभंगो अचक्खु०-भवसि । ३७१. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं क० तिएिणवडि-हाणि. जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवहि जह• एग०, उक्क० बेसम० । एवं सव्वणिरय-मणुसअपज्जत-सव्वदेव० एइंदिय-विगलिंदियपंचकायाणं सगपदा० वेउव्विय-विभंग०परिहार०-संजदासंजद-तेउ०-पम्मले०-वेदगस०-सासण-सम्माभिः । ३७२. तिरिक्खेसु सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणि. ओघं । अवढि जह० एग, उक्क. चत्तारिसमः । एवं मदि०-सुद०-असंज०-अब्भवसि०-मिच्छादि । पंचिंदियतिरिक्ख०३ सत्तएणं क. दोवड्डि-हाणि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । संखेज्जगुणवडि-हाणिबंधंतरं जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अवहि० जह० एग०, उक्क तिरिण सम० । पंचिंदियतिरिक्व-अपज्ज. सत्तएणं क. तिएिण कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन है। असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। आयुकर्मके दोनों पदोंका अन्तर भुजगारबन्धके समान है। इसी प्रकार ओघके समान अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-जिन जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थितबन्ध होता है,उनके असंख्यातभागहानि और असंख्यातभागवृद्धिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है। जो जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त मोहमें रहकर गिरते हैं, उनके अवस्थितबन्धका अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। संख्यातभागवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणवृद्धिबन्ध तथा संख्यातभागहानिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्ध,ये एकेन्द्रियके नहीं होते, इसी बातको ध्यानमें रखकर इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है और असंख्यातगुणहानिबन्ध तथा असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध यतः श्रेणिमें ही होते है, अतः इनका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ३७१. आदेशसे नारकियोंमें सात कोके तीन वृद्धि और तीन हानि बन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इसी प्रकार सब नारकी, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंके तथा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकाय जीवोंके अपने-अपने पदोंका तथा वैक्रियिककाययोगी, विभङ्गशानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदगसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। ३७२. तिर्यञ्चोंमें सात कर्मोके तीन वृद्धि और तीन हानिबन्धका अन्तर श्रोधके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सात कर्मोके दो वृद्धि और दो होनिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय १. भंगो। सम्वद्धा एवं इति पाठः । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वडि-हाणि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवहि० जह० एग०, उक्क० तिरिण सम० । एवं पंचिंदिय'अपज्ज। ३७३. मणुस ३ सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणिबंधंतरं जह० एग०, उक्क. अंतो। एवं अवहि० । असं गुणवडि-हाणि-अवत्तव्वबं० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । ३७४. पंचिंदिय-तसपज्जत्ता सत्तएणं क. दोएिणवडि-हाणि-अवहिदबंधतरं जह० एग. उक० अंतो०। संखेज्जगुणवडि-हाणि पंचिंदियतिरिक्वभंगो । असंखेज्जगुणवडि-हाणि-अवत्तव्व० मूलोघं । णवरि सगहिदि भाणिदव्वं । तस-र. और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुण वृद्धि और संख्यागुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सात कौके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। इसी प्रकार अर्थात् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-पहले भुजगारबन्धका उत्कृष्ट काल चार समय बतला आये हैं, इसलिए यहाँ सामान्य तिर्यञ्चोंमें अवस्थित बन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल चार समय कहा है। परन्तु जो एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय विकलत्रय या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होगा, उसके ही यह अन्तर काल सम्भव है। वैसे अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल तीन समयसे अधिक उपलब्ध नहीं होता। यही कारण है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त जीवोंमें अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल तीन समय कहा है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। इसीसे इनमें संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण कहा है, क्योंकि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमेंसे किसीने कायस्थितिके प्रारम्भमें संख्यातगुणवृद्धिबन्ध या संख्यातगुणहानिबन्ध किया। पश्चात् अपनी कायस्थितिके अन्तमें यह बन्ध किया,तो कुछ कम उक्त काल प्रमाण यह अन्तर आ जाता है। अन्य मार्गणाओं में भी जहाँ कायस्थिति प्रमाण अन्तर कहा हो,वहाँ इसी प्रकार यह अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। ___ ३७३. मनुष्यत्रिकमें सात कर्मोके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अवस्थितबन्धका अन्तर है। असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। ३७४. पञ्चेन्द्रियपर्याप्त और असपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोके दो वृद्धिबन्ध, दो हानिबन्ध और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इनके संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यान्तगुणहानिबन्धका अन्तर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोके समान है। तथा असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध, असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्तव्यबन्धका अन्तर मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनका उत्कृष्ट अन्तर कहते समय वह अपनी. १. मूलप्रतौ पंचिंचिय-तिरिक्खअपज्जत्त० इति पाठः । २. मूलप्रतौ तसपज्जत्त इति पाठः । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह्निबंधे अंतरं १६१ अपजत • सत्तणं क० तिरिणवडि-हारिण० जह० एग०, उक्क० अंतो ० ' । अवद्वि० जह० एग०, उक्क० चत्तारिसमयं । ३७५. पंचमरण०-पंचवचि० सत्तणं क० तिरिणवड्डि हारिण- वडिदबं० रियभंगो । असंखेज्जगुणवड्डि-हारिण० जहण्णु० अंतो० । अवत्तव्वं णत्थि अंतरं । एवं कोधादि०४ । वरि अवहि० चत्तारिसम० । श्रवत्तव्वं पत्थि । लोभ मोह ० अत्तव्वं गत्थि अंतरं । ३७६. कायजोगि० सत्तणं क० असंखेज्जभागवड्डि-हारिण-असंखेज्जगुरणवाडीअदिबं० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दो वड्डि-हारिण० ओघं । संखेज्जगुणहारिण० म० भंगो | अवत्तव्वं पत्थि अंतरं । 1 ३७७. ओरालियका० मरण० भंगो | ओरालियमि ० [ वेडव्वियमि० ] पंचिंदियअप 1 अपनी काय स्थिति प्रमाण कहना चाहिए। त्रस अपर्याप्त जीवों में सात कर्मोके तीन वृद्धिबन्ध, तीन हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । 1 ३७५. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंके सात कमौके तीन वृद्धिबन्ध, तीन हानिबन्ध और श्रवस्थितबन्धका अन्तर नारकियोंके समान है । श्रसंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा वक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है । इसी प्रकार क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर चार समय है; तथा इनके अवक्तव्यबन्ध नहीं होता । मात्र लोभ कषायमें मोहनीय कर्मका अवशन्यबन्ध होता है, पर उसका अन्तर काल नहीं उपलब्ध होता । विशेषार्थ - एकेन्द्रिय या विकलत्रयके मरकर विकलत्रय या पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर भवके प्रथमादि समयोंमें मनोयोग और वचनयोग नहीं होता, इसलिए इन योगवाले जीव अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर नारकियोंके समान दो समय कहा है, किन्तु चारों कषायवाले जीवोंके उक्त प्रकारसे मरकर अन्य पर्याय में उत्पन्न होते समय एक कषायका सद्भाव बना रहता है, इसलिए इनके अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर चार समय घटित हो जानेके कारण वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । ३७६. काययोगी जीवोंमें सात कर्मोंके असंख्यात भागवृद्धिबन्ध, असंख्यात भागहानिबन्ध श्रसंख्यात गुणवृद्धिबन्ध और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धिवन्ध और दो हानिबन्धका अन्तर शोधके समान है । श्रसंख्यातगुणहानिबन्धका अन्तर मनोयोगियोंके समान है । इनके वक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ - किसी एक काययोगी जीवने उपशमश्रेणिसे उतरकर अनिवृत्तिकरण में श्रसंख्यातगुणवृद्धिबन्ध किया और एक समयका अन्तर देकर वह मरकर देव हो गया । इस प्रकार असंख्यात गुणवृद्धिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय देखकर यह श्रन्तर उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । ३७७. श्रदारिककाययोगी जीवोंमें सब पदका अन्तर मनोयोगियोंके समान १. मूलप्रती अंतो० । श्रवहिद० जह० एग० उक्क० अंतो० । श्रद्वि० इति पाठः । I Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे ज्जत्तभंगो। वेउब्वियमि० आयु. पत्थि । आहार-आहारमि० सत्तएणं क. णिरयभंगो । कम्मइ० सत्तएणं क. तिएिणवडि-हाणिबं. पत्थि अंतरं । अवहि० जहएणु० एगस। ३७८. इत्थि०-पुरिस. सत्तएणं क. बेवडि-हाणि० जह० एग०, उक्क. अंतो । संखेज्जगुण-वडि]हाणिबंध० जह० एग०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अवहि० जह० एग०, उक० तिरिण सम । इत्थि' असंखेज्जगुणवडिहाणि० जहएणु. अंतो० । एवं पुरिस० । वरि असंखेज्ज वड्डि. जह• एग०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । असंखेज्जगुणहाणि जह• अंतो० उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । णवुस० सत्तएणं क० तिरिणवड्डि-हाणि० ओघं । अवट्ठिद० जह० एग०, उक्क० चत्तारि समयं । असंखेज्जगुणवड्डि-हाणि० जहण्णु० अंतो । अवगद० णाणावर०-दसणावर०-अंतराइ० संखेज्जभागवडि-हाणि-संखेज्जगुणवडि-हाणि वेदणीय-णामागोदाणं तिएिणवडि-हाणि मोह. संखेजभागवडि-हाणि जहएणु० अंतो० । औदारिक मिश्रकाययोगी और वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में अपने पदोंका अन्तर पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। इनमें तथा आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कमौके अपने पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है। कार्मणकाययोगी जीवों में सात कौके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। ३७८. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंगें सात कोंके दो वृद्धिबन्ध और दो हानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। स्त्रीवेदमें असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इन दोनों पदोंका अन्तरकाल इसी प्रकार पुरुषवेदमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरपृथक्त्व है। असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नपुंसकवेदवाले जीवों में सात कौके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका अन्तर ओघके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। अपगतवेदवाले जीवों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके संख्यातभागवृद्धिबन्ध, संख्यातभागहानिबन्ध, संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्धका. वेदनीय. नाम और गोत्रकर्मके तीन वृद्धिबन्ध और तीन हानिबन्धका तथा मोहनीय कर्मके संख्यातभागवृद्धिबन्ध और संख्यातभागहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा १. मलप्रतौ संखजगुणहाणिवंधं० इति पाठः । २. मूलप्रतौ इस्थि० संखेजगुण-इति पाठः । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडिबंधे अंतरं सत्तएणं क अवहि० जह० एग०, उक्क अंतो० । अवत्तव्वं पत्थि अंतरं ।। ३७६. आभि०-सुद०-अोधि० सत्तएणं क० तिएिणवड्डि-हाणि-अवहिद० जह एग०, उक्क० अंतो० । असंखेजगुणवडि-हाणि-अवत्तव्व० जह० अंतो०, उक्क० छावहिसागरो० सादि० । णवरि वडि० एग० । एवं श्रोधिदं०-सम्मादि० । एवं खइग० । णवरि तेत्तीसं साग० सादिरे । मणपज्ज. सत्तएणं क• तिएिणवडि-हाणि-अवहि० ओधिभंगो । असंखेज्जगुणवडि-हाणि-अवत्तव्व. जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । एवं संजद। सात कौके अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है। विशेषार्थ-यद्यपि स्त्रीवेदी और नपुसकवेदी जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण करते समय और उतरते समय उपशमश्रेणिमें इन वेदोंके साथ मरण करते हैं,पर उनका मरणोत्तर कालमें वेद बदल जाता है। इसलिए इन दोनों वेदोंमें असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं प्राप्त होता। किन्तु पुरुषवेदी जीवका मरणोत्तर कालमें वही वेद बना रहता है, इसलिए इसमें असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण प्राप्त होता है। क्योंकि जो पुरुषवेदी जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण कर अनिवृत्तिकरण या सूक्ष्मसाम्परायमें मरकर देव होकर असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका प्रारम्भ करता है। पश्चात् पुरुषवेदके साथ कुछ कम सौ सागरपृथक्त्व कालतक परिभ्रमण करते हुए अपनी कायस्थितिके अन्तमें पुनः उपशमश्रेणिपर चढ़कर उतरते समय पुनः असंख्यातगणवद्धिबन्ध करता है उसके असं वृद्धिबन्धका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। तथा इसके असंख्यातगुणहानिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहनेका कारण यह है कि जो पुरुषवेदी उपशमश्रेणिपर आरोहण कर और अनिवृत्तिकरणमें असंख्यातगुणहानिबन्ध कर पश्चात् मरकर तेतीस सागर आयुके साथ देव होता है। पश्चात् वहांसे आकर और पुनः पुरुषवेदके साथ उपशमश्रोणिपर आरोहणकर अनिवृत्तिकरणमें असंख्यातगुणहानिबन्ध करता है, उसके इस पदका उक्त काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है। शेष कथन स्पष्ट है। ३७९. आभिनिबोधिकक्षानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सोत कौके तीन घृद्धिबन्ध, तीन हानिबन्ध और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध, असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। इतनी विशे. षता है कि असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके साधिक छयासठ सागरके स्थानमें साधिक तेतीस सागर कहना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानी जीवों में सात कर्मोके तीन वृद्धिबन्ध, सीन हानिबन्ध और अवस्थित बन्धका अन्तर अवधिज्ञानियोंके समान है। असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध, असंख्यातगुणहानिबन्ध और अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए। २५ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे __३८०. सामाइ०-छेदो० सत्तएणं क० णिरयभंगो । णवरि असंखेज्जगुण-वडिहाणि० जहएणु० अंतो०। परिहार०-संजदासंजद० सत्तएणं क. णिरयभंगो । मुहुमसंप० छएणं कम्माणं संखेजभागवड्डि-हाणि जह० उक्क० अंतो । अवहि. जहण्णु० एग० । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो। ३८१. तिषिणले. सत्तएणं क० णिरयभंगो। णवरि अवहि जह• एग० उक्क० चत्तारि समयं । मुक्काए आणदभंगो । णवरि असंखेजगुणवडि• जह० एग०, उक्क० अंतो० । असंखेजगुणहाणि० जहएणु० अंतो० । अवत्त० एत्थि अंतरं । ३८२. उवसम० सत्तएणं क० चत्तारि वडि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सुकाए भंगो । असरणीसु वडि-हाणि. ओघं । अवहि० जह० एग०, उक्क तिरिण समः । संखेज्जगुणवड्डि-हाणि जह• खुद्दा०, उक्क० अणंतकालमसं० । सएिण. पंचिंदियपज्जत्तभंगो । णवरि संखेज्जगुणवडि-हाणि• जह० एग०, उक्क० अंतो० । आहारा० ओघं । वरि सगहिदि भागिदव्वं । अणाहारा० कम्मइगभंगो । एवं अंतरं समत्तं । ३८०. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें सात कमौके अपने पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिवन्ध और असंख्यात. गुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवों में सात कौके अपने पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में छह कर्मोंके संख्यातभागवृद्धिबन्ध और संख्यातभागहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। चतुदर्शनी जीवोंमें सात कर्मोंके अपने पदोंका अन्तर त्रसपर्याप्तकोंके समान है। ३८१. तीन लेश्यावाले जीवोंमें सात कौके अपने पदोंका अन्तर नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। शुक्ललेश्यामें सात कौके अपने पदोंका अन्तर आनत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणवृद्धिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा अवक्तव्यबन्धका अन्तरकाल नहीं है। ३८२. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंके चार वृद्धिबन्ध, चार हानिबन्ध, अवस्थितबन्ध और अवनध्यबन्धका अन्तर शुक्ललेश्याके समान है। असंही जीवों में वृद्धिबन्ध और हानिबन्धका अन्तर ओघके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर तुल्लक भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । संशी जीवों में सात कर्मों के अपने पदोंका अन्तर पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिबन्ध और संख्यातगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। आहारक जीवों में सात कौके अपने पदोंका अन्तर ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहां असंख्यातगुणवृद्धिबन्ध और असंख्यातगुणहानिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कहते समय वह अपनी उत्कृष्ट कायस्थिति. प्रमाण कहना चाहिए । अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंके अपने पदोंका अन्तर कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है । इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहिबंधे णाणाजीवेहि भंगविचयो णाणाजीवेहि भंगविचयो ३८३. गाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो दुविधो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सत्तएणं कम्माणं असंखेज्जभागवडि० हाणि अवहिदबंधगा य णिंयमा अस्थि । सेसाणि पदाणि भयणिज्जाणि । आयु० दो वि पदा णियमा अत्थि । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघादि सव्वेसि अणंतरासीणं सगपदाणि । ३८४. मणुसअपज्जत्त-वेउव्वियमि-आहार-आहारमि०-अवगद०-सुहुमसं०उवसम-सासण-सम्मामि० सव्वपदाणि भयणिज्जाणि । ३८५. पुढवि०-आउ-तेउ-बाउ० तेसिं च बादर० बादरअपज्जत्ता० तेसिं सव्वसुहम० बादरवण पत्तेय तस्सेव अपज्जत्त० अहएणं क. सव्वपदाणि णियमा अत्थि। सेसाणं णिरयादि याव सणिण त्ति सत्तएणं क० अवहिणियमा अस्थि । सेसाणि पदाणि भयणिज्जाणि । आयु० दो पदाणि भयणिज्जाणि । एवं भंगविचयो समत्तो। नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ३८३. नाना जीवोंकी अपेक्षा मङ्गविचयानुगम दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोधसे सात कर्मोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं । आयुकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं। इस प्रकार अोधके समान सामान्य तिर्यञ्चोंसे लेकर सब अनन्त राशियोंके अपने-अपने पदोंके अनुसार भङ्ग जानने चाहिए। विशेषार्थ-कुल पद १० हैं-चार वृद्धिबन्ध, चार हानिबन्ध अवस्थितबन्ध और अवक्तव्यबन्ध । इनमें से ओघसे तीन पदवाले जीव नियमसे हैं, इसलिए यह एक ध्रुव भङ्ग है। तथा सात पद भजनीय होनेसे ३४३४३४३४३४३४३ = २१८७-१ = २१८६ अध्रुव भग होते हैं। तथा इनमें १ ध्रुव भङ्ग मिलानेपर ध्रुव और अध्रुव कुल भङ्ग २१८७ होते हैं । ३८४. मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि इन मार्गणाओं में सब पद भजनीय हैं। विशेषार्थ-मनुष्य अपर्याप्तकोंके ७ पद, वैक्रियिकमिश्रकाययोगीके पद, आहारककाययोगीके ७ पद, आहारकमिश्रकाययोगीके ७ पद, अपगतवेदीके ८, सूक्ष्मसाम्परायसंयत के ३, उपशमसम्यग्दृष्टिके १०, सासादनसम्यग्दृष्टिके ७ और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके ७ पद होते हैं । अतः सात पदवाली जितनी मार्गणाएँ हैं, उनमेंसे प्रत्येकमें २१८६, अपगतवेद मार्गामें ६५५८, सूक्ष्मसाम्परायसंयत मार्गणामें २६ और उपशम सम्यग्दृष्टि मार्गणामें ५९०४८ अध्रुवभङ्ग होते हैं । इन भङ्गोंके लानेकी विधि पहले कह आये हैं। ३८५. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त तथा इनके सब सूक्ष्म, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और इनके अपर्याप्त जीवों में पाठ कौके अपने-अपने सब पदवाले जीव नियमसे हैं। नारकियोंसे लेकर संक्षीतक शेष सब मार्गणाओंमें सात कर्मोंके अवस्थित पदवाले जीव नियमसे हैं। तथा शेष पद भजनीय हैं। तथा आयुकर्मके दोनों ही पद भजनीय हैं। _____ इस प्रकार भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ। 1. मूलप्रतौ सेसाणं पदाणि इति पाठः । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ महाबंधे हिदिबंधाहियारे भागाभागो ३८६. भागाभागाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सत्तएणं क० असंखेज्जभागवडि-हाणिबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? असंखेज्जदिभागो । अवहिदबंध केवडियो भागो ? असंखेज्जा भागा। सेसाणं पदाणं बंध. सव्व० केव० ? अणंतभागो । आयु० भुजगारभंगो सव्वत्थ । एवं अणंतरासीणं सव्वेसिं । णवरि सगपदाणि जाणिदव्वाणि । सेसाणं असंखेज्जजीवाणं अवहि. असंखेज्जा भागा। सेसपदाणि असंखेज्जदिभागो । संखेज्जजीवाणं पि अवहि० संखेज्जा भागा । सेसपदा० संखेजदिभागो । एवं भागाभागं समत्तं ।। परिमाणं ३८७. परिमाणाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० असंखेजभागवड्डिहाणि-अवहिदबंधगा केत्तिया ? अणंता । दोवड्डि-हाणिबंध असंखेज्जा । असंखेज्जगुणवडिहाणि-अवत्तव्वबंधगा संखेज्जा । आयु० दो पदा अणंता । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं एइंदिय-वरणप्फदि-णियोद-कायजोगि-ओरालियका-ओरालियमि० भागाभाग ३८६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे सात कौकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें आगप्रमाण हैं। अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। आयुकर्मके दोनों पदोंका भागामाग सर्वत्र भुजगार बन्धके समान है। इसी प्रकार सब अनन्त राशियोंका भागाभाग जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपने-अपने पदोको जानकर भागाभाग कहना चाहिए। शेष असंख्यात जीवप्रमाण मार्गणाओंमें अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव अपनी-अपनी राशिके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । तथा शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। संख्यात संख्यावाली मार्गणाओं में भी अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव अपनी-अपनी राशिके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। परिमाण २८७. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । असं. ख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। आयुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यवानी, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहिबंधे परिमाणं १९७ कम्मइ०-णवुस-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु०-किरण--णील-काउ०भवसि०-मिच्छादि०-असएिण-आहारग त्ति । णवरि सगपदाणि जाणिदव्वाणि । ३८८. मणुसेसु सत्तएणं क० तिरिणवडि-हाणि-अवहि० आयु दो पदा० असंखेजा। [सत्तएणं कम्माणं सेसपदा० संखेजा।] एवं पंचिंदिय-तस०२-पंचमणपंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-आभि०-सुद०-ओधि०-चक्खुद-बोधिदं०-मुक्कलेसम्मादि०-खइग०-सरिण त्ति । णवरि इत्थिवे-पुरिस. सत्तएणं क. अवत्त पत्थि । सुक्कले०-खइग० आयु० संखेजा। __ ३८६. मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु [ सव्वपदा] आहार-आहारमि-अवगदमणपज्ज०-संजद०-सामाइ०-छेदो०-परिहार-सुहुमसं० सगपदा संखेज्जा । सेसाणं णिरयादीणं अहणणं क. सगपदा० असंखेज्जा। गवरि आणदादि उवरिमदेवेसु आयु० दो वि पदा० संखेज्जा । उवसमस० मणुसोघं । एवं परिमाणं समत्तं । खेत्तं ३६०. खेत्ताणुगमेण दुवि०–ोघे आदे० । ओघे सत्तएणं कम्माणं याणि पदाणि परिमाणे अणंता असंखेज्जा लोगाणि ताणि सव्वलोगे। सेसाणि पदाणि श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंही और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनेअपने पद जानकर परिमाण कहना चाहिए। ३८८. मनुष्यों में सात कर्मोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका तथा आयुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । तथा सात कर्मोंके शेष तीन पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकक्षानी, श्रुतशानी, अवधिशानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, और संझी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवों में सात कमौके प्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव नहीं हैं। तथा शुक्ललेश्यावाले और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में आयुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। ३८९. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब पदोंका तथा आहारककाययोगी, आहा. रकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवों में अपने-अपने पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं । शेष नारकादि मार्गणाओंमें आठौँ कौके अपने-अपने पदोंका बन्ध करनेवाले जीवसंख्यात हैं । इतनी विशेषता है कि आनतादि ऊपरके देवों में आयुकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण सामान्य मनुष्यों के समान है । इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ। ३९०. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। श्रोधकी अपेक्षा सात कमौके जिन पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण अनन्त और असंख्यात १. मूलप्रतौ मणुसिणीसु सद्ध० आहार० इति पाठः । २. मूलप्रतौ पदा० असंखेज्जा इति पाठः । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे लोगस्स असं० । आयु० दो वि पदा सव्वलोगो । णवरि बादरएइंदिय-बादरवाउ आयुग० दो वि पदा० लोगस्स संखेज्ज । बादरवाउ०पज्जत्ता सव्वे भंगा लोगस्स संखेज्ज० । सेसबादर-बादरअपज्जत्ता० लोगस्स असंखेज्जदिभागे । सेसासु सव्वेसिं सव्वे भंगा लोग० असंखेज्जदिभागे । एवं खेत्त समत्तं । फोसणं ३६१. फोसणाणुगमेण दुवि०–ोघे० आदे० । ओघे० सत्तएणं क० असंखेज्जभागवड्डि-हाणि-अवहिदबंधगेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो। दोवडिहाणि० अहचोद्दस० सव्वलोगो वा। सेसपदा० खेत्तं । आयु. दो वि पदा० सव्वलोगे। ३६२. आदेसेण णेरइएमु सत्तएणं क. तिरिणवडि-हाणि-अवहिद० छच्चोइस० । आयु० खेत्तं । लोकप्रमाण है,उनका क्षेत्र सब लोक है। तथा शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय और वादर वायुकायिक जीवोंमें आयुकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यात भागप्रमाण है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। शेष रहे बादर और बादर अपर्याप्त जीवों में सब पदोका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष रहीं सब मार्गणाओंमें सब कौके सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। स्पर्शन ३९१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। श्रोधको अपेक्षा सात कर्मोकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोकका स्पर्श किया है। दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशेषार्थ-संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका बन्ध द्वीन्द्रिय आदि जीवोंके होता है तथा संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध पञ्चेन्द्रियोंके होता है यह पहले कह पाये हैं। इस दृष्टिसे इन पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक कहा है। विशेष खुलासा खुद्दाबन्धको देखकर कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है। ३६२. प्रादेशसे नारकियोंमें सात कोंकी तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है। आयुकर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। १. मूलप्रतौ खेत्तं । एवं भुजगारभंगो तिरिक्खेसु इति पाठः । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहिबंधे फोसणं ३६३. तिरिक्खेसु सत्तएणं क. बेवडि-हाणि. लोग. असं० सव्वलो० । सेसं ओघ । सव्वपंचिंदियतिरिक्खेसु सत्तएणं क० तिएिणवडि-हाणि-अवहि. लोग० असं० सव्वलो० । आयु० खेत्तं । एवं मणुसअप० । विगलिंदि० बेवडिहाणि-अवट्टि. तं चेव । पंचिंदिय-तसअप-मणुस ३ सत्तएणं क. तिएिणवड्डिहाणि-अवहि. पंचिंदियतिरिक्वभंगो । सेसं खेत्तं । देवेसु भुजगारभंगो । ३६४. सव्वएइंदिय-पुढवि०-आउ-तेउ०-वाउ०-वणप्फदिपत्तेय-णियोदेसु अहएणं क. सव्वपदा० सव्वलोगो । णवरि सव्वबादरएइंदिय-बादरपुढवि०-आउ०तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदि-णियोद-बादरवणप्फदिपत्तेय० आयु० खेत्तं । बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०पज्जत्ता० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । एवं बादरवाउ० पन्ज । णवरि लोग० संखेन्ज । ३६५. पंचिंदिय-तस०२ सत्तएणं क० तिण्णिवडि-हाणि-अवट्टि पहचोदस० सव्वलोगो वा । सेसपदा० खेत्तं । आयु० दो विपदा अहचो। एवं पंचमण-पंच ३९३. तिर्यञ्चों में सात कर्मोंकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन श्रोधके समान है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें सात कमौकी तीन वृद्धियों,तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। आयकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । विकलेन्द्रियों में अपने पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन इसी प्रकार है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, अस अपर्याप्त और मनुष्यत्रिकमें सात कर्मोंकी तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन पञ्चेन्द्रिय तिर्योंके समान है। शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । देवोंमें सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन भुजगारानुगम के समान है। ३९४. सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और निगोद जीवोंमें आठों कर्मोके सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है । इतनो विशेषता है कि सब बादर एकेन्द्रिय, सब बादर पृथिवीकायिक, सब बादर जलकायिक, सब बादर अग्निकायिक, सब बादर वायुकायिक, सब बादर वनस्पतिकायिक, सब बादर निगोद और सब बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों में आयु कर्मके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें लोकका संख्यातवाँ भागप्रमाण स्पर्शन है। ३९५. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विकमें सात कर्मोंकी तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसम० । २०० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे वचि०-इत्थि०-पुरिस-चक्खु-सरिण। ओघभंगो कायजोगि-कोधादि०४-मदि०सुद०-असंज-अचक्खुदं०-भवसि०-अब्भवसि-मिच्छादि-आहारग ति । एवं चेव ओरालि -ओरालियमि०-णवुस-किरण-णील-काउ० । णवरि तिरिक्खोघो कादव्यो। ३६६. वेउव्वियकायजो सत्तएणं क• तिएिणवडि-हाणि-अवहि अहतेरह । कम्मइ० खेत्तं । वरि बेवडि-हाणि केव० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असं० एक्कारहचो० । विभंगे अहचो०भा० सव्वलोगो। ३६७. आभि-सुद०-अोधि० सत्तएणं क० तिएिणवडि-हाणि-अवट्टि आयु० दो वि पदा अडचो० । सेसं खेत्तं । एवं अोधिदं०-सम्मादि-खइग-वेदगस० ३६८. तेउ० देवोघं । पम्मले० सब्वे भंगा अट्टचो । सुकाए छच्चोइस० । आयु कर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संशी जीवोंके जानना चाहिए । काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और अहारक जीवों में स्पर्शन ओघके समान है। तथा इसी प्रकार औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओं में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान स्पर्शन जानना चाहिए। ३९६. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सात कौकी तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवों का स्पर्शन क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग व कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है। विभङ्गहानी जीवों में अपने पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ वटे चौदह राजू', कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। ३९७. आभिनिबोधिकहानी, श्रुतशानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंकी तीन वृद्धियों,तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने तथा आयुकर्मके दोनों हो पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है। शेष पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। ३९८. पीतलेश्यावाले जीवोंने अपने सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन सामान्य देवोंके समान है। पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सब पदोका बन्ध करनेवाले जीवोंने कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है। शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें अपने सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है। १. मूलप्रतौ अट्ठतेरह बा० सम्व- इति पाठः । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढिबंधे कालो २०१ ३६६. सासणे सत्तणं क० तिरिणवडि-हारिण अवडि० अह - बारहचो० । आयु० दो विपदा बा० । सम्मामि० सत्तएणं क० तिविडि-हारिण अ० अ० । ४००. असरिण० सत्तण्णं क० एक्कवड्डि- हारिण अव०ि सव्वलो ० | दोवडिहारिण० लोग० सं० सव्वलो० । आयु० दो वि पदा सव्वलो० । अरणाहार० सत्तरणं क० असंखेज्जभागवडि-हारिण अवट्ठि० सव्वलो० । बेवढि हारिण० लोग ० असं० एक्कारसचो० | वेडव्वियमिस्सादि सेसं खेत्तं । एवं फोसणं समत्तं । कालो ४०१. कालागुगमेण दुवि० - ओघे० दे० । ओ० सत्तणं क० असंखेज्ज - भागवडि-हारिण-अवदिबंधगा केव० ? सव्वद्धा । बेवड्डि-हाणिबंध० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखेज्जदिभागो । असंखेज्जगुणवड्ढि -हारिण श्रवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेज्जसमयं । एवं जहि असंखेज्जगुणवडि-हारिण अवत्त ० तम्हि याव ३९९. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदंह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है। आयुकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सात कर्मों की तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है 1 ४००. असंज्ञी जीवों में सात कर्मोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । श्रयुकर्मके दोनों ही पर्दोका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । अनाहारक जीवोंमें सात कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्श किया है । वैक्रियिकमिश्र आदि शेष मार्गणा में अपने पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ । काल ४०१. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है— श्रोध और आदेश । श्रघसे सात कर्मोंकी संख्यातभागवृद्धि, श्रसंख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है । दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । श्रसंख्यातगुणवृद्धि, श्रसंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । जिन मार्गणाओं में असंख्यात २६ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अणाहारगति णादच्वं । आयु० दो वि पदा सव्वद्धा । एवं अत- असंखेज्जलोगरासी अप्पप्पणो पदाणि । २०२ ४०२. आदेसेण खेरइएस सत्तरणं क० तिष्णिवडि-हारिण० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखेज्ज० । अवहि० सव्वद्धा । आयु० भुजगारभंगो । एवं सव्वा संखेज्जरासी । सव्वाणं संखेज्जरासीणं पि तं चैव । गवरि यम्हि आवलियाए असंज्जभागो तम्हि संखेज्जसमयं । भयरिगज्जरासीसु अवद्वि० जह० एग०, उक्क० पदिकालो । तिरिक्खगदीए सेसेसु घभंगो जाणिदूर खेदव्वं । एवं कालं समत्तं । अंतरं . ४०३. अंतराणुगमेण दुवि० - ओघे० दे० । ओघे० सत्तरणं क० असंखेज्ज - भागवड्डि-हारिण-अवद्वि० णत्थि अंतरं । बेवड्डि-हारिण० जह० एंग०, उक्क० अंतो० । एवं अ ंतरासीणं सव्वपदारिण । असंखेज्जगुणवड्डि अवत्त० जह० एग०, उक० वासपुधत्तं । असं० गुणहारिण० जह० ए०, उक्क० छम्मासं । एवं याव अरणाहारग गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य पद होते हैं, उनमें अनाहारक मार्गणा तक इसी प्रकार काल जानना चाहिए। श्रायुकर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल -सर्वदा है । इसी प्रकार अनन्त राशियों और असंख्यात लोकप्रमाण राशियोंका अपने-अपने पदों की अपेक्षा काल जानना चाहिए । 1 ४०२. आदेश से नारकियों में सात कर्मोंकी तीन वृद्धियों और तीन हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है | अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है । आयुकर्मके दोनों ही पर्दोका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल भुजगार बन्धके समान है । इसी प्रकार सब असंख्यात राशियोंका काल जानना चाहिए। तथा सब संख्यात राशियोंका काल भी इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि जहाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है, वहाँ संख्यात समय काल कहना चाहिए। तथा जितनी भजनीय राशियाँ हैं, उनमें अवस्थित पदकां बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपने- अपने प्रकृतिबन्धके कालके समान है । तिर्यञ्च गतिमें तथा शेष मार्गणाओं में श्रधके समान काल जानकर कथन करना चाहिए । इस प्रकार काल समाप्त हुआ ! अन्तर ४०३. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रघसे सात कर्मोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर काल नहीं है । दो वृद्धियों और दो हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनन्त राशियों के सब पदका अन्तरकाल जानना चाहिए। श्रसंख्यातगुणवृद्धि और श्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है। असंख्यात गुणहानिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढबंधे भावो अप्पा हुंगं २०३ त्ति । णवरि असंखेज्जगुणहाणि जाणिदव्वं । एदेसिं त्रयुगं दो पदा भुजगारभंगो । ४०४. रिए सत्तणं क० तिष्णिवड्डि-हारिण० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि॰ णत्थं अंतरं । आयु० भुजगारभंगो । यम्हि दो वड्डि हारिण० अत्थि ताम्हि सिं घं । सेसपदा० सव्वत्थ भुजगारभंगो । गवरि सांतररासीणं सव्वपदा० पगदिअंतरं । एवं अंतरं समत्तं । भावो ४०५. भावाणुगमेण दुवि० ओघे० दे० । ओघे० सत्तरणं क ० चत्तारिवडि - हारिण-वहि-वत्त ० बंधगा आयु० अवत्त० - असंखेज्जभागहाणिबंधगा त्ति को भाव ? दो भावो । एवं याव अणाहारगत्ति दव्वं । एवं भावं समत्तं । अप्पा बहुगं T ४०६. अप्पाबहुगं दुवि० - ओघे० दे० । श्रघे० सत्तणं क० सव्वत्थोवा अवत्तव्वबंधगा । असंखेज्जगुरणवढिबंधगा संखेज्जगुणा । असंखेज्जगुणहाणिबंधगा असंख्यात गुणहानिका अन्तर काल जानकर कहना चाहिए। इन सब जीवोंके आयु कर्मके दोनों ही पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर काल भुजगार बन्धके है 1 समान ४०४. नारकियों में सात कर्मोंकी तीन वृद्धियों और तान हानियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । श्रवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर काल नहीं है । आयुकर्मके दोनों ही पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर काल भुजगारबन्धके समान है। जिन मार्गणाओं में दो वृद्धियाँ और दो हानियाँ हैं उनमें उनका अन्तर काल श्रोधके समान है। तथा शेष पदोंका अन्तर काल सर्वत्र भुजगारबन्धके समान है। इतनी विशेषता है कि सान्तर राशियोंके सब पदोंका अन्तर काल प्रकृतिबन्ध अन्तरकालके समान है । इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ । भाव ४०५. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । श्रोघकी अपेक्षा सात कमी चार वृद्धियों, चार हानियों, अवस्थित और अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीवोंका तथा आयुकर्मके वक्लव्य और असंख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कौन-सा भाव है ? श्रदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार भाव समाप्त हुआ ! अल्पबहुत्व ४०६. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-- ओघ और आदेश । घसे सात कर्मों के अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यात गुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात गुणहानिका बन्ध क़रनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे संखेज्जगुणा । संखेज्जगुणवड्डि-हाणिबंधगा दो वि तुल्ला असंखेज्जगुणा । संखेजभागवडि-हाणिबंधगा दो वि तुल्ला असं०गु० । असंखेज्जभागवडि-हाणिबंधगा दो वि तुल्ला अणंतगुणा । अवहिद० असं०गु० । आयु. सव्वत्थोवा अवत्तबंधगा। असंखेज्जभागहाणि. असं गु० । आयु० एवं याव अणाहारग त्ति । णवरि जम्हि संखेज्जा जीवा तम्हि संखेज्जगुणं कादव्वं । एवं अोघभंगो कायजोगिओरालियकायजोगि-णवुस०-कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि-आहारग त्ति । एवरि एस०-कोध-माण-माया० सत्तएणं क. सव्वत्थोवा असंखेज्जगुणवडिबंधः । असंखेज्जगुणहाणिव० संखेज्जगु०। उवरि ओघं। एवं लोभे । णवरि मोहणी० ओघं । ४०७. आदेसेण णेरइएसु सत्तएणं क० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि-हाणिबंध। संखेज्जभागवडि-हाणिबंधगा दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । असंखेज्जभागवडि-हाणिबंधगा दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । अवहिबंध. असं०गु० । एवं सव्वणेरइएसु मणुसअपजत्त-सव्वदेव--उब्बिय--वेउब्बियमि०-विभंग-तेउ-पम्म०-वेदगससासण-सम्मामि० । वरि सबढे संखे० देवा । करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मके प्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। आयुकर्मकी अपेक्षा इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जिस मार्गणामें संख्यात जीव हैं,उसमें संख्यातगुणे कहना चाहिए । इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदी, क्रोध कषायवाले, मान कषायवाले और माया कषायवाले जीवोंमें सात कर्मोंकी असंख्यात गुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। तथा इसके आगेका अल्पबहुत्व ओघके समान है। इसी प्रकार लोभ कषायमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें मोहनीय कर्मके सब पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका अल्पबहुत्व ओघके समान है। ४०७. आदेशसे नारकियोंमें सात कर्मों की संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें देव संख्यातगुणे हैं। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिंधे अप्पा बहुगं २०५ ४०८. तिरिक्खे सत्तणं क० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवड्डि हारिण० | संखेज्जभागवड - हाणिबंध ० दो वि तुल्लाणि असं ० गु० । असंखेज्जभागवड्डि- हाणिबं० दो वितुल्ला तगु० । अवडि० असं० गु० । एवं ओरालियमि० - मदि० -सुद्०संज० - किरण ० - पील० काउ ० - अब्भवसि ० -मिच्छादिद्विति । पंचिदियतिरिक्खेसु सत्तएण क० सव्वत्थोवा [ संखेज्जगुणवडि-हारिणबंधया ।] संखेज्जभागवड्ढि -हारिणबंध दो वि तुला असं०गु० । असंखेज्जभागवड्डि- हाणिबं० दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । अदिबंध असं० गु० । एवं पंचिदिद्यतिरिक्खञ्चपज्जत्त-पंचिदिय-तसअपज्ज० । पंचिदियतिरिक्खपज्जत - जोगिणीसु एवं चैव । णवरि संखेज्जभागवड्डिहारिणबंध ० संखेज्जगुणं कादव्वं । ० ४०६. मणुसे सत्तणं क० सव्वत्थोवा अवतव्व० । असं० गुणवड्डि० संखेज्जगुणा । असंखेज्जगुणहारिण० संखेज्जगु० | संखेज्जगुणवड्डि- हाणि दो तुल्ला [ असंखेज्जगुरणा ।] संखेज्जभागवड्डि-हारिणवं ० दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । [असंखेज्जभागवड्डि-हारिणबंधया दो वि तुल्ला संखेज्जगुणा ।] अवधि ० ० सं० गु० । एवं मणुसपज्जत - मणुसिणीसु । गवरि संखेज्जगुणं कादव्वं । ४०८. तिर्यञ्चों में सात कर्मोकी संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करने वाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं । श्रसंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर अनन्तगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार श्रदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी : श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, और मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में सात कर्मोंकी संख्यातगुणव और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर श्रसंख्यातगुणे हैं । इनसे श्रसंख्यातभागवृद्धि और श्रसंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें इसी प्रकार जानना जाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यात भागवृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव्रोको संख्यातगुणा करना चाहिए । । ४०९. मनुष्यों में सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणहानि का बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्या भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे श्रसंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणे करना चाहिए । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ४१०. एइंदिय-पंचकायाणं सत्तएणं क. सव्वत्थोवा असंखेज्जभागवडिहाणिबं० । अवहि. असं गु० । विगलिंदिएमु सत्तएणं क. सव्वत्थोवा संखेज्जभागवडि-हाणिबं० । असंखेज्जभागवडि-हाणिवं. संखेज्जगु०। अवहि० असंखेज्जगु० । पंचिंदिय-तस० सत्तएणं क. [ सव्वत्थोवा अवत्तव्वबंधया । असंखेज्जगुणवडिबंधया संखेज्जगुणा । ] असं०गुणहाणि संखेज्जगु० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणिबं. असं०गु० । संखेज्जभागवडि-हाणि दो वि तुल्ला असं०गुणा । असंखेज्जभागवड्डि-हाणिबं. दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । अवहि. असं गु० । पंचिंदिय-तसपज्जत्तेसु तं चेव । णवरि संखेज्जभागवड्डि-हाणिव० संखेज्जगुणं कादव्वं । एवं पंचमण-पंचवचि०-इत्थि-पुरिस-चक्खुदं०-सणिण त्ति। णवरि इत्थि०-पुरिस० सत्तएणं क० अवत्तव्वं णत्थि। कम्मइगा० तिरिक्खोघं । आहार०-आहारमि०सव्वहभंगो। ४११. 'अवगद पाणावर०-[दसणावरण-अंतराय सव्वत्थोवा अवत्तव्वबं०। ४१०. एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकाय जीवों में सात कर्मीकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। विकलेन्द्रियों में सात कर्मोकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । पञ्चेन्द्रिय और त्रसकायिक जीवों में अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इससे असंख्यातगुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त और प्रसकायिक पर्याप्त जीवों में इसी प्रकार अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे करने चाहिए। इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संशी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेशेषता है कि स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें सात कौंका प्रवक्तव्य पद नहीं है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें अपने पदोंका अल्पबहुत्व सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में अपने पदोंका अल्पबहुत्व सर्वार्थसिद्धिके समान है। ४११. अपगतवेदी जीवोंमें शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके प्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यात गुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले १. मलप्रती अवगद० णाणावर०-श्रवत्तग्वबं०। संखेजभागवद्भि० असंखेजगु०। संखेजगुणवद्रिबं० संखेजगु० । संखेजभागहाणिबं० संखेजगु० । संखेजगुणहाणिबं० संखेजगु० । अवटि संखेजगु० । मोह. सम्वत्थोवा अवत्त० । संखेजभागवट्टिबं० संखेजगु०। संखेजगुणवडिबं० संखेजगु० । असं०गुणवडिबं० संखेजगु० । संखेजभागहाणिव० संखेजगु०, संखेज गुणहाणि बं० संखेजगु० असंखेजगुणहाणिबं० संखेजगुरु अवढि०६० सं०गु० इति पाठः । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Magisworgi P संखेज्जगुरणवड्डिबं० संखेज्जगु० । संखेज्जभागवड्डिबं० संखेज्जगु० | संखेज्जगुणहाणिबं० संखेज्जगु० | संखेज्जभागहारिणबं० संखेज्जगु० । अव०ि संखेज्जगु० । वेदरणीयगामा-गोदाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वबं० । असंखेज्जगुणवडिवं ० संखेज्जगु० | संखे - ज्जगुणवड्डिबं० संखेज्जगु० | संखेज्जभागवड्डिबं० संखेज्जगु० | संखेज्जगुणहाणिबं० संखेज्जगु० ० | संखेज्जगुणहाणिबं० संखेज्जगु० | संखेज्जभागहारिणबं० संखेज्जगु० । दिबं० संखेज्जगु० । मोह० सव्वत्थोवा प्रवत्त ० । संखेज्जभागवडिबं० संखेज्जगु० । संखेज्जभागहारिणबं० संखेज्जगु० । अवदिबं० संखेज्जगु० । ] ४१२. अभि० सुद०-अधि० सत्तणं क० सव्वत्थोवा अवत्तव्वबं० । असंखेज्जगुणवड्डि० सं०गु० | सेसं इत्थिभंगो । एवं ओधिदं०-मुक्कले० सम्मादि ० खइग ० । मपज्जव - संजद ० मणुसिभंगो । एवं सामाइ ० - छेदो० । वरि अवत्तव्यं णत्थि । परिहार० सव्वहभंगो । ४१३. [सुहुमसंपरायसंजदेसु छणं कम्माणं संखेज्जभागवड्डिबंधगा जीवा सव्वत्थोवा । संखेज्जभागहाणिबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । अवदिबंधगा जीवा २०७ I जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात गुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके वक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यात गुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यांत गुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात गुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। मोहनीय कर्मके वक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं । ४१२. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जोव सबसे स्तोक हैं । इनसे असंख्यात गुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इससे आगे शेष अल्पबहुत्व स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । मन:पर्ययज्ञानी और संयत जीवों में अपने सब पर्दोका अल्पबहुत्व मनुष्यिनियोंके समान है । इसी प्रकार सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवके जानना चाहिए। इतनी विशेपता है कि इनके अवक्तव्य पद नहीं है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके अपने पदोंका अल्पबहुत्व सर्वार्थसिद्धिके समान है। ४१३.. सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कर्मोंकी संख्यात भागवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पद की बन्ध करनेवाले जीव संख्यात गुणे हैं। संयतासंयत जीवोंमें सात कर्मों की संख्यात Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे संखेज्जगुणा। ] 'संजदासंजद सत्तएणं क० सव्वत्थोवा [संखेज्जगुणवडि-हाणि । संखेज्जभागवभि-हा. दो वि तुल्ला सं०गु० । असंखेज्जभागवडि-हा० दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । अवहिदबं० असंखेज्जगुणा ।] ४१४. असएणीसु सत्तएणं क० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवडि-हा० । संखेज्जभागवड्ढि-हा० दो वि तुल्ला असं०गु०। असंखेज्जभागवड्ढि-हाणिव दो वि तुल्ला अणंतगुणा। अवहिदबं असंखेज्जगु० । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं वडिबंधे त्ति समत्तं । अज्झवसाणसमुदाहारो ४१५. अज्झवसाणसमुदाहारबंधे त्ति । तत्थ इमाणि तिषिण अणियोगद्दाराणि-पगदिसमुदाहारो हिदिसमुदाहारो तिव्वमंददा ति । गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातभाग वृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ४१४. असंझी जीवों में सात कर्मों की संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर अनन्तगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । अनाहारक जीवों में अपने सब पीका अल्पबहुत्व कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार वृद्धिबन्ध समाप्त हुआ। अध्यवसानसमुदाहारबन्ध __४१५. अब अध्यवसानसमुदाहारबन्धका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-प्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार और तीवमन्दता। विशेषार्थ-यहाँ स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंकी अध्यवसान संक्षा है और जिस अनुयोगद्वारमें इनकी अपेक्षा वर्णन किया गया है, उसकी अध्यवसानसमुदाहार संशा है। इन परिणामोंके निमित्तसे प्रत्येक कर्मके कितने विकल्प हो जाते हैं, एक-एक स्थितिके प्रति कितने-कितने परिणाम कारण होते हैं तथा उनकी तीव्रता और मन्दता किस प्रकारकी है; इन्हीं सब प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिए यहाँ इस अनुयोगद्वारके तीन भेद किये गये हैंप्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार और तीव्रमन्दता। पहले अनुयोगद्वारमें परिणामों अनुसार प्रत्येक कर्मके प्रकृतिविकल्प और उनका अल्पबहुत्व दिखलाया गया है। दूसरे अनुयोगद्वारमें प्रत्येक स्थितिके प्रति अध्यवसानोंका परिमाण, जघन्य स्थितिसे लेकर उत्तरोतर वे कितने अधिक है,इसका परिमाण और उनकी अनुकृष्टि रचनाका निर्देश किया गया १. संजदासंजद०......सत्तएणं क० सम्वत्थोवा अवत्तबं०,असंखेज्जगुणवतिहाणि दो वि तुल्ला संखेज्जगु०, संखेज्जगुणवविहा० असं० गु० । असंखेजगुणवडिहा० असंखेज्जगु० इति पाठः । २. मूलप्रती अजमवसाण... बंधे ति। तस्थ इमाणि तिषिण अणियोगदाराणि......पगदिसमुदाहारे ति... तत्थ इमाणि दुवे इति पाठः । के Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रज्झवसाणसमुदाहारे पगदि-ट्ठिदिसमुदाहारो पदसमुदा ४१६. परादिसमुदाहारे त्ति । तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दराणि - पमाणाणुगमो पाहुति । पमाणागमेण दुवि० - ओघे० दे० । श्रघेण णाणावर - utte hair पगदीओ ? असंखेज्जलोगपगदी । एवं सत्तणं कम्माणं । एवं या अणाहारगति यादव्वं । एवरि अवगद ० - सुहुमसं० एगेगपरिणद्धार्यं । एवं पमाणागमो समत्तो । ४१७. अप्पाबहुगं दुवि० - ओघे० दे० । श्रघेण सव्वत्थोवा युगस्स पगदी' । गामा-गोदाणं पगदीओ असंखेज्जगुणा । णाणावरणीय दंसणावरणीय- वेदणीय- अंतराइगाणं चदुरहं वि पगदीओ असंखेज्जगुणाओ । मोहणीयस्स पगदी असंखेज्जगुरणाओ । एवं याव अरणाहारगत्ति दव्वं । दिसमुदाहारो ४१८, हिदिसमुदाहारे ति । तत्थ इमाणि तिरिण अणियोगद्दाराणि -- पमागागमो सेढिपरूवरणा अणुकड्डिपरूवणा चेदि । णाणावरणीयस्स जहरिणयाए द्विदीए हिदिबंध ज्भवसारणद्वाराणि असंखेज्जा लोगां । विदियाए द्विदिबंधज्झवसाणहै । तथा तीसरे अनुयोगद्वारमें उनके तीव्र, मन्द अनुभागका विचार किया गया है। इस प्रकार इस अनुयोगद्वारका क्या अभिप्राय है और उसमें कितने विषयोंका संकलन किया गया है; इस बातका विचार किया । २०९ प्रकृतिसमुदाहार ४१६. प्रकृतिसमुदाहारका प्रकरण है । उसमें ये दो अनुयोगद्वार हैं- प्रमाणानुगम और बहुत्व | प्रमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । घ ज्ञानावरण कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ? असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ हैं । इसी प्रकार शेष सात कमकी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। तथा इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें एकएक भेदसे सम्बद्ध प्रकृतियाँ हैं । इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ । ४१७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रोघसे श्रयुकर्मकी प्रकृतियाँ सबसे स्तोक हैं । इनसे नाम और गोत्रकर्मकी प्रकृतियाँ श्रसंख्यातगुणी हैं । इनसे शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्म इन चारों कर्मोंकी प्रकृतियाँ श्रसंख्यातगुणी हैं। इनसे मोहनीयकर्मकी प्रकृतियाँ श्रसंख्यातगुणी हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार प्रकृतिसमुदाहार समाप्त हुआ । स्थिति समुदाहार ४१८. अब स्थिति समुदाहारका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैंप्रमाणानुगम, श्रेणिप्ररूपणा और अनुकृष्टि प्ररूपणा । ज्ञानावरणकर्मकी जघन्य स्थितिके स्थिति aartaara स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं । दूसरी स्थितिके स्थिति बन्धाध्यवसाय १. पञ्चसं०] बन्धनक०, गा० १०७ । २. मूक्षप्रतौ लेजा भागा विदियाए इति पाठः । २७ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा। तदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेज्जा लोगा। एवं असंखेज्जा लोगा असंखेज्जा लोगा याव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं सत्तएणं कम्माणं । एवं याव अणाहारग त्ति । णवरि अवगद०-सुहुमसं० एगेगपरिणद्धाणं । एवं पमाणाणुगमो समत्तो। ४१६. सेढिपरूवणा दुविधा--अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । अणंतरोवणिधाए णाणावरणीयस्स जहरिणयाए हिदिबंधझवसाणहाणाणि थोवाणि । ण विदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि विसेसाधियाणि । तदियाए हिदीए हिदिबंधझवसाणहाणाणि विसे । एवं विसे० विसेसाधियाणि याव उक्कस्सियाए हिदि त्ति । एवं छएणं कम्माणं । आयुगस्स जहरिणयाए हिदीए डिदिबंधझवसाणहाणाणि सव्वत्थोवाणि । विदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । तदियाए हिदीए हिदिबंधझवसाणहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एवं असंखेज्जगुणाणि असंखेज्जगुणाणि याव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं ।। ४२०. परंपरोवणिधाए णाणावरणीयस्स जहएिणयाए हिदीए हिदिबंधझव स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। तीसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान. असंख्यातलोक असंख्यातलोक प्रमाण जानना चाहिए । इसी प्रकार सात कर्मोंके जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके एक-एक परिणाम हैं। इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ। श्रेणिप्ररूपणा ४१९. श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है--अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा शानावरणकी जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान सबसे थोड़े हैं। इनसे दूसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान विशेष अधिक हैं। इनसे तीसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान विशेष अधिक हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार छह कर्मोंके जानना चाहिए । आयुकर्मको जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान सबसे स्तोक है । इनसे दूसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात गुणे हैं । इनसे तीसरी स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात गुणे हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यातगुणे असंख्यात गुणे हैं । इस प्रकार अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिए। इस प्रकार अनन्तरोपनिया समाप्त हुई। ४२०. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा शातावरणकी अधन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय १. पञ्चसं० बन्धनक० गा० १०५ । २. मूलप्रतौ-हाणाणि असंखेज्जगुणाणि । विदियाए इति पाठः । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवसाणसमुदाहारे तिव्वमंददा २११ साहाहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जभागं गंतूरण दुगुरणवडिदा' । एवं याव बंधज्झवसाणदुगुणवड्डि-[हारिण- ]हाणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । खाणाडिदिबंधज्भवसाणदुगुणवड्ढि -हारिणद्वारणंतराणि अंगुलवग्गमूलच्छेदणयस्स असंखेज्जदिभागो । णाणाद्विदिबंधज्झवसाणद्गुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एयहिदिबंधज्भवसारणद्गुणवड्डि [हारिण - ]द्वारणंतरं असंखेज्जगुणं । एवं गादव्वं । ४२१. अणुड्डीए णाणावरणीयस्स जहरिणयाए हिदीए हिदिबंधज्भवसारणद्वाराणि याणि ताणि विदियाए द्विदीए डिदिबंधज्झवसाणडाणाणि अपुव्वाणि । विदिया हिदीए हिदिबंधज्भव साट्टाखाणि याणि ताणि तदियाए हिदीए हिदिबंध वसाडाणाणि अपुव्वाणि च । एवं पुव्वाणि अपुव्वाणि याव उक्कस्सियाए हिदि ति । एवं सत्तणं कम्माणं । तिव्वमंददा ४२२. तिव्वमंददाए गारणावरणीयस्स' जहरियाए हिदीए जहरणयं हिदिबंधकवसाणहाणं सव्वमंदाणुगभागं । तस्स उकस्सए अतगुणं । विदियाए हिदी जयं द्विदिबंधज्भवसागहाणं अतगुणं । तिस्से उक्कस्यं तगुणं । स्थानोंसे पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर वे दूने हो जाते हैं । इस प्रकार बन्धाध्यवसायद्विगुणवृद्धिहानिस्थानान्तर पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं और नानास्थितिबन्धाध्यवसायद्विगुणवृद्धिहानिस्थानान्तर अंगुल के वर्गमूलके अर्धच्छेदोके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । नानास्थितिबन्धाध्यवसायद्विगुणवृद्धिहानिस्थानान्तर स्तोक हैं । इनसे एकस्थितिबन्धाध्यवसायद्विगुणवृद्धिहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार शेष कमके जानना चाहिए । ४२१. अनुकृष्टिका कथन करनेपर ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिके जो स्थितिबन्धाव्यवसाय स्थान हैं, वे स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान दूसरी स्थितिके पूर्व हैं। दूसरी स्थिति के जो स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान हैं, वे स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान तीसरी स्थिति के पूर्व हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान पूर्व- अपूर्व हैं। इसी प्रकार सात कर्मोंके विषयमें जानना चाहिए । विशेषार्थ - जहां आगे के परिणामोंकी पिछले परिणामोंके साथ समानता होती है, वहां अनुकृष्टि रचना होती है । यहां प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान अपूर्व पूर्व हैं, इसलिए अनुकृष्टि रचना सम्भव नहीं है । उदाहरणार्थ, अधःकरण में जैसी अनुकृष्टि रचना होती है, वैसी यहां सम्भव नहीं है। किन्तु यहांकी रचना अपूर्वकरणके समान जाननी चाहिए । तीव्र - मन्दता ४२२ -- तीव्र - मन्दताकी अपेक्षा ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान सबसे मन्द अनुभागको लिये हुए है । इसका उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान अनन्तगुणे अनुभागको लिये हुए है। इससे दूसरी स्थितिका जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान अनन्तगुणे अनुभागको लिये हुए हैं। इससे इसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान अनन्तगुणे अनुभागको लिये हुए है। इससे तीसरी स्थितिका जघन्य १, पञ्चसं०] बन्धनक० गा० १०६ । २. पञ्चसं०] बन्धनक० गा० १०८ । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे तदियाए हिदीए जहएणयं अणंतगुणं । तिस्से उक्कस्सयं अणंतगुणं । एवमणंतगुणमणंतगुणं याव उकस्सियाए हिदि त्ति । एवं सत्तएणं कम्माणं । अज्झवसाणसमुदाहारो समत्तो । जीवसमुदाहारो ४२३. जीवसमुदाहारे त्ति । तत्थ ए णाणावरणीयस्स बंधगा जीवा ते दुविहासादबंधा चेव असादबंधा चेव । ए ते सादवंधगा जीवा ते तिविधा-चदुहाणबंधगा तिहाणबंधगा विहाणबंधगा । तत्थ येते असादबंधगा जीवा ते तिविधा---विहाणबंधगा तिहाणबंधगा चदुहाणबंधगा। सव्वविसुद्धा सादस्स चदुहाणबंधगा जीवा । तिहाणबंधगा जीवा संकिलिहतरा। विहाणवंधगा जीवा संकिलितरा । सव्वविसुद्धा असादस्स विडाणबंधगा जीवा । तिहाणबंधगा 'जीवा संकिलिहतरा। चदुद्दाणबंधगा जीवा संकिलितरा। ४२४. सादस्स चदुहाणबंधगा जीवाणाणावरणीयस्स जहएणयं हिदि बंधति । तिट्ठाणबंधगा जीवाणाणावरणीयस्स अजहएणाणुकस्सयं हिदि बंधंति । विहाणबंधगा जीवा सादावेदणीयस्स उकस्सयं हिदि बंधति । असाद० विहाणबंधगा जीवा सहाणेण णाणावरणीयस्स जहएणयं हिदि बंधति । तिहाणबंधगा जीवा पाणावर स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान अनन्तगुणे अनुभागको लिये हुए है। इससे इसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान अनन्तगुणे अनुभागको लिये हुए है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान उत्तरोत्तर अनन्तगुणे अनन्तगुणे अनुभागको लिये हुए है। इसी प्रकार सात कर्मोका जानना चाहिए। इस प्रकार तीव्रमन्दताका विचार समाप्त हुआ। इस प्रकार अध्यवसानसमुदाहार समाप्त हुश्रा। जीव समुदाहार ४२३. अब जीव समुदाहारका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा जो शानावरणकर्मका बन्ध करनेवाले जीव है,वे दो प्रकारके हैं-सातबन्धक और असातबन्धक । जो सातबन्धक जीव हैं,वे तीन प्रकारके हैं--चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । जो असात भक जीव हैं वे तीन प्रकारके हैं-द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतास्थानबन्धक । जो सबसे विशुद्ध होते हैं वे साताके चतुःस्थानबन्धक जीव हैं। इनसे त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं और इनसे द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं। जो सबसे विशुद्ध होते हैं,वे असाताके द्विस्थानबन्धक जीव हैं। इनसे त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं और इनसे चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं। . ४२४. साताके चतुःस्थानबन्धक जीव शानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं। त्रिस्थानबन्धक जीव शानावरणकर्मकी अजघन्यानुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । द्विस्थानबन्धक जीव साता वेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । असाताके द्विस्थानबन्धक जीव स्वस्थानकी अपेक्षा मानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं । त्रिस्थानबन्धक Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANAVRAvv जीवसमुदाहारो २१३ णीयस्स अजहएणमणुकस्सयं हिदि बंधंति । चदुहाणबंधगा जीवा असादस्स चेव उक्कस्सिया हिदि बंधति । ४२५. एदेसि परूवणदाए तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा य । अणंतरोवणिधाए सादस्स चदुट्ठाण० तिहाण. असादस्स विहाण. तिहाणबंधगा णाणावरणीयस्स जहरिणयाए हिदीए जीवा थोवा । विदियाए डिदीए जीवा विसेसाधिया। तदियाए हिदीए जीवा विसेसाधिया । एवं विसेसाधिया२ याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं विसेसहीणा। एवं विसेसहीणा विसेसहीणा याव सागरोवमसदपुधत्तं । सादस्स विहाणबंधगा जीवा असादस्स चदुहाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स जहरिणयाए हिदीए जीवा थोवा। विदियाए हिदीए जीवा विसेसाधिया । तदियाए हिदीए जीवा विसंसाधिया। एवं विसेसाधिया विसेसाधिया याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं विसेसहीणा । एवं विसेसहीणा २ याव सादस्स असादस्स य उकस्सिया हिदि ति । जीव ज्ञानावरण कर्मकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । चतुःस्थानबन्धक जीव असाता वेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं। ४२५. इनकी प्ररूपणा करनेपर ये दो अनुयोगद्वार होते हैं---अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा साताके चतुःस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धक तथा असाताके द्विस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धकजितने जीव हैं.उनमेंसे ज्ञानावरण कर्मकी अपने-अपने योग्य जघन्य स्थितिमें स्थित अर्थात् अपने-अपने योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे दूसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेष अधिक विशेष अधिक जीव हैं। तथा इससे आगे प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन जीव हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन विशेषहीन जीव हैं। तथा के द्विस्थानबन्धक और असाताके चतु:स्थानबन्धक जितने जीव है,उनमेंसेशानावरण कर्मकी अपने-अपने योग्य जघन्य स्थितिमें स्थित जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे दूसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेष अधिक विशेष अधिक जीव हैं। तथा इससे आगे प्रत्येक स्थितिमें उत्तरोत्तर विशेष हीन विशेषहीन जीव हैं। इस प्रकार साता और असाताको उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन विशेषहीन जीव हैं। विशेषार्थ यहां जीवोंके आलम्बनसे स्थितिबन्धका विचार किया गया है। साता और साता प्रतिपक्ष प्रकृतियां हैं। इसलिए जो साताका बन्ध करते हैं, वे असाताका बन्धनहीं करते और जो असाताका बन्ध करते हैं, वे साताका नहीं करते। इस हिसाबसे जीव दो प्रकारके होते हैं-सातबन्धक और असातबन्धक। साता प्रशस्त प्रकृति है और असाता अप्रशस्त । इसलिए साताके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध होनेपर स्थितिबन्ध जघन्य होता है और जघन्य अनुभागबन्ध होते समय स्थितिबन्ध उत्कृष्ट होता है। तथा असाताके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके समय स्थितिबन्ध उत्कृष्ट होता है और जघन्य अनुभागबन्धके समय स्थिति Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ महाबंधे दिदिबंधाहियारे बन्ध जघन्य होता है। यदि इन दोनों प्रकृतियोंके अनुभागका इस हिसाबसे विभाग किया जाता है,तो साताका चतुःस्थानिक,त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक इस क्रमसे अनुभाग उपलब्ध होता है और असाताका द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक इस क्रमसे अनुभाग उपलब्ध होता है। साताके चतुःस्थानिक अनुभागमें गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृत यह चार प्रकारका, त्रिस्थानिक अनुभागमें गुड़, खाँड़ और शर्करा यह तीन प्रकारका तथा द्विस्थानिक अनुभागमें गुड़ और खाँड़ यह दो प्रकारका अनुभाग होता है। असाताके चतुःस्थानिक अनुभागमें नीम, कांजी , विष और हलाहलरूप, त्रिस्थानिक अनुभागमें नीम, कांजी और विषरूप तथा द्विस्थानिक अनुभागमें नीम और कांजी रूप अनुभाग होता है। देखना यह है कि इनके साथ ज्ञानावरणका बन्ध होनेपर वह किस प्रकारका होता है। यह तो मानी हुई बात है कि शानावरण अप्रशस्त प्रकृति है, इसलिए साताके चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका, त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं और द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहां द्विस्थानबन्धक जीव शानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं; ऐसा न कहकर साताका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं, ऐसा क्यों कहा ? समाधान यह. है कि यद्यपि साताके द्विस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं,पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही करते हैं। ऐसा कोई नियम नहीं है किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे न्यून भी करते हैं, इसलिए उस प्रकारका विधान नहीं किया। इस प्रकार असाताके द्विस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणका जघन्य स्थितिबन्ध करते हैं। त्रिस्थानबन्धक जीव अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं और चतुःस्थानबन्धक जीव असाता वेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। इस प्रकार कुल जीव छह प्रकारके होते हैं--साताके चतुःस्थान बन्धक जीव, त्रिस्थानबन्धक जीव और द्विस्थानबन्धक जीव । तथा असाताके द्विस्थानबन्धक जीव, त्रिस्थानबन्धक जीव और चतुःस्थानबन्धक जीव । इनमेंसे प्रत्येकमें अपनेअपने योग्य ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे थोड़े हैं। दूसरी स्थितिका बन्ध करनेवाले विशेष अधिक हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण स्थिति विकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेष अधिक विशेष अधिक हैं और इससे आगे इतने ही स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेष हीन विशेष हीन हैं। आशय यह है कि जो सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव हैं, उनमेंसे कुछ जीव शानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं। इनसे कुछ अधिक जीव झानावरणकी इससे आगेकी स्थितिका बन्ध करते हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थिति विकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेष अधिक विशेष अधिक और आगे इतने ही स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन जीव शानावरणकी स्थितिका बन्ध करते हैं। उदाहरणार्थ-सातावेदनीयके चतुःस्थानयन्धक जीव ५२ हैं और ये ज्ञानावरणकी ५, ६, ७, ८ और ९ समयवाली स्थितिका बन्ध करते हैं,तो पूर्वोक्त हिसाबसे ५ समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले ८ जीव होते हैं, ६ समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले १२ जीव होते हैं, ७ समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले १६ जीव होते हैं, ८ समयवाली स्थितिका करनेवाले १०जीव होते हैं और ह समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले ६जीव होते हैं। इस उदाहरणसे स्पष्ट शात होता है कि पहले विशेष अधिक विशेष अधिक और अनन्तर विशेष हीन विशेष हीन जीव स्थितिका बन्ध करते हैं। इससे यवमध्यकी रचना हो जाती है, क्योंकि मध्यमें जीव सर्वाधिक हैं और दोनों ओर विशेषहीन विशेषहीन हैं। इसी प्रकार Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ जीवसमुदाहारो ४२६. परंपरोवणिधाए सादस्स चदुहाणबंधगा जीवा तिहाणबंधगा जीवा असादस्स विडाणबंधगा जीवा तिहाणबंधगा जीवा पाणावरणीयस्स जहणियाए हिदीए जीवेहितो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवडिदा । एवं दुगुणवडिदा दुगुणवडिदा याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणार याव सागरोवमसदपुधत्तं । एयजीवदुगुणवट्टिहाणिहाणंतराणि असंखेज्जाणि पलिदोवमस्स वग्गमूलाणि । णाणाजीवदुगुणवडिहाणिहाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो। णाणाजीवदुगुणवडिहाणिहाणंतराणि थोवाणि । एपजीवदुगुणवडिहाणिहाणंतरं असंखेज्जगुणं । ४२७. सादस्स विडाणबंधगा जीवा असादस्स चदुहाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स जहएिणयाए हिदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण' दुगुणवडिदा । [एवं दुगुणवडिदा ] दुगुणवडिदा याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव सादस्स असादस्स य उक्कस्सिया हिदि त्ति । एयजीवदुगुणवडिहाणि हाणंतरं असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणाजीवदुगुणवडिहाणिहाणतंराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो । णाणाजीवदुगुणवडि-हाणि-हाणंतसाताके त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक बन्धकी अपेक्षा तथा असाताके द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक बन्धकी अपेक्षा कथन करना चाहिए। ४२६. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा साता वेदनीयके जितने चतुःस्थान बन्धक और त्रिस्थानबन्धक जीव हैं । तथा असातावेदनीयके जितने द्विस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धक जीव हैं,उनमेंसे शानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिमें स्थित जितने जीव हैं,उनसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे दूने हो जाते हैं। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्वके प्राप्त होने तक वे दूने-दूने होते जाते हैं। इससे आगे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे आधे रह जाते हैं । इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्वके प्राप्त होने तक वे उत्तरोत्तर आधे-आधे रहते जाते हैं। यहाँएकजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके असं. ख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं और नानाजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । नानाजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं और इनसे एकजीव द्विगुणवृद्धिद्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। ४२७. सातावेदनीयके जितने द्विस्थानबन्धक जीव हैं और असातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव हैं, उनमेंसे शानावरणकी अपने योग्य जघन्य स्थितिके बन्धक जितने जीव हैं, उनसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिस्थान जाकर वे दूने हो जाते हैं। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्व प्राप्त होने तक वे दूने-दूने होते जाते हैं। इससे आगे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे आधे रह जाते हैं और इस प्रकार साता और असाताकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक वे आधे-आधे होते जाते हैं। यहाँ एकजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानि स्थानान्तर पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं और नानाजीव द्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यात भागप्रमाण होते हैं । इस प्रकार नाना १. मूलप्रती गंतूण दुगुणवडिदा हाणि दुगुण--इति पाठः । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे राणि थोवाणि । एयजीवद्गुणवड्डिहाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जगुणं । ४२८. सादस्स असादस्स य विद्याणियम्हि लियमा अणागारपाओग्गहाणाणि । सागरपारगडापाणि' सव्वत्थ । ४२६. 'सादस्स चट्ठाणिययवमज्झस्स हेहदो द्वाणाणि थोवाणि । उवरिं संखेज्जगुणाणि | सादस्स तिट्ठाणिययवमज्झस्स हेहदो द्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । Bafi द्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । सादस्सं विद्याणिययवमज्झस्स दो एयंतसागार - पाहाणाणि संखेज्जगुणाणि । मिस्सगाणि द्वाणाणि संखेज्जगुष्णाणि । सादस्स चैव विद्याणिययवमज्झस्स उवरिं मिस्सगाणि द्वाणापि संखेज्जगुणाणि । श्रसादविद्याणिययवमज्झस्स हेट्ठदो एयंतसागारपाओग्गद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । मिस्सगाणि द्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । श्रसादस्स चैव विद्याणिययवमज्झस्स उवरि मिस्सगाणि हाणाणि संखेज्जगुणाणि । एयंतसागारपात्रोग्गट्ठाणाणि जीवद्वगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं और इनसे एकजीव द्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है । विशेषार्थ - यहाँ साताके चतुःस्थानबन्धक श्रादि एक-एकके प्रति नानागुणवृद्धि या नाना गुणहानि कितनी होती हैं और एक-एकके प्रति निषेक कितने होते हैं, यह बतलाया गया है । यहाँ एकजीवद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर पदसे एक गुणवृद्धि व गुणहानिके भीतर जितने निषेक होते हैं, वे लिये गये हैं और नानाजीवद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर पदसे कुल द्विगुणवृद्धि व द्विगुणहानियोंका प्रमाण लिया गया है। इनमेंसे किसका कितना प्रमाण है: यह मूलमें दिया ही है । ४२८. साता और असाताके द्विस्थानिक बन्ध में अनाकार उपयोगके योग्य स्थान नियमसे हैं । तथा साकार उपयोगके योग्य स्थान सर्वत्र हैं । विशेषार्थ - यहाँ इन छह स्थानोंमें अनाकार उपयोगके योग्य स्थान कौन हैं और साकार उपयोगके योग्य स्थान कौन हैं, यह बतलाया गया है। वैसे तो सब स्थान साकार उपयोग योग्य हैं, पर अनाकार उपयोगके योग्य स्थान कुछ ही हैं और वे साता-साता दोनोंके द्विस्थान गत कुछ ही हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ४२९. साताके चतुःस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान स्तोक हैं। इनसे उपरिम स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे साताके त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे इसीके उपरिम स्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे साताके द्विस्थानिक यवमध्यके नीचे के सर्वथा साकार उपयोग योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे मिश्रस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे साताके ही द्विस्थानिक यवमध्यके उपरिम मिश्र स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे साताके द्विस्थानिक यवमध्यके नीचेके सर्वथा साकार उपयोगके योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे इसीके मिश्रस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे असाताके ही द्विस्थानिक यवमध्यके उपरिभ मिश्र स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे इसीके सर्वथा साकार प्रायोग्य स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे असाताके त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे उपरिम स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे श्रसाताके चतुःस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे साताका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मूलप्रतौ-हायाणि सब्वद्धा । सादस्स इति पाठः । २. पासं० बन्धक० गा० १११ । 1 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवसमुदाहारो २१७ संखेज्जगुणाणि । असादस्स तिहाणिययवमज्झस्स हेढदो हाणाणि संखेज्जगुपाणि । उवरिं संखेज्जगुणाणि । असादस्स चदुहाणिययवमझस्स हेढदो हाणाणि संखेज्जगुणाणि । सादस्स जहएणो हिदिबंधो संखेज्जगुणो । यहिदिबंधो विसेसाधियो। असादस्स' जहएणओ हिदिवंधो विसेसाधियो । यहिदिबंधो विसेसाधियो । एत्तो उक्कस्सयं दाहं गच्छदि त्ति सा हिदी संखेज्जगुणा। अंतोकोडाकोडी संखेज्जगुणा । सादस्स विहाणिययवमज्झस्स उवरिं एयंतसागारपाश्रोग्गहाणाणि संखेज्जगुणाणि । सादस्स उकस्सओ हिदिबंधो विसेसाधियो। यहिदिबंधो विसेसाधियो। दाहहिदी विसेसाधिया। असादस्स चदुढाणिययवमज्झस्स उवरिं हाणाणि विसेसाधियाणि। असादस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाधियो । यहिदिबंधो विसेसाधियो। इससे असाताका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होता है, इसलिए वह स्थिति संख्यातगुणी है। इससे अन्तः कोटाकोटि संख्यातगुणी है। इससे साताके द्विस्थानिक यवमध्यके उपरिम सर्वथा साकार प्रायोग्य स्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे साताका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे दाहस्थिति विशेष अधिक है । इससे असाताके चतुःस्थानिक यवमध्यके उपरिम स्थान विशेष अधिक हैं। इनसे असाताका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थिति बन्ध विशेष अधिक है। विशेषार्थ-पहले साताके चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक अनुभागका तथा असाताके द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभागका उल्लेख करके उनके आश्रयसे साकारप्रायोग्य, अनाकारप्रायोग्य और मिश्र स्थानोंका उल्लेख कर आये हैं। यहाँ इनको ध्यानमें रखकर स्थितिस्थानोंके अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है। इसका विचार पञ्चसंग्रह बन्धकरणमें भी किया है। वहाँ वह इस प्रकार दिया है-परावर्तमान शुभ प्रकृतियोंके चतुःस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थितिस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे उपरिम स्थान संख्यातगणे हैं। इनसे इन्हींके त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान संख्यातगणे हैं। इनसे उपरिम स्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे इन्हींके सर्वथा साकार प्रायोग्य द्विस्थानिक नीचेके स्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे यहींके मिश्रस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे उपरिम मिश्रस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे यहींके साकार प्रायोग्य उपरिम स्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे अशुभ द्विस्थानिक यवमध्यके नीचेके मिश्रस्थान संख्यातगुख हैं। इनसे द्विस्थानिक यवमध्यके नीचेके साकार प्रायोग्य स्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे यवमध्यके ऊपरके द्विस्थानिक साकार प्रायोग्य स्थान संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार यवमध्यके नीचे और ऊपरके त्रिस्थानिक स्थान संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार यवमध्यके नीचे और ऊपरके चतुःस्थानिक स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं। प्राचार्य मलयगिरिने इस अल्पबहुत्वमें परावर्तमान शुभ प्रकृतियों, परावर्तमान अशुभ प्रकृतियोंके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धका तथा डायस्थितिका अल्पबहुत्व भी सम्मिलित किया है। जिस स्थितिस्थानसे अपवर्तनाकरणके यशसे उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होता है, उतनी स्थितिका नाम डायस्थिति है। या जिस १. मलप्रतौ सादस्स जहएिणयानो इति पाठः । .. २८ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ४३०. पदे पदेण सव्वत्थोवा सादस्स चदुट्ठाणबंधगा जीवा । सादस्स चैव तद्वा बंधा जीवा संखेज्जगुणा । विट्ठाणबंध० संखेज्जगुणा । प्रसादस्स विद्वाणबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । श्रसादस्स चदुद्वाणबंधगा० संखेज्जगुणा । असादस्स तिट्ठाणबंधगा जीवा विसेसाधिया । एवं जीवममुदाहारे ति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं मूलपगदिहिदिबंधो समत्तो २१८ स्थितिस्थानसे मण्डूकप्लुति न्याय के अनुसार छलाँग मारकर स्थिति बँधती है, वह अधिक स्थिति डायस्थिति है । श्राचार्य मलयगिरिने डायस्थितिके ये दो अर्थ किये हैं। उन्होंने लिखा है कि उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थिति के कम कर देनेपर जो स्थिति शेष रहती है, वह डायस्थिति है; क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिका बन्ध करके ही उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है। अन्य प्रकारसे नहीं । ४३०. इस अर्धपदके अनुसार साताके चतुःस्थानिक बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे साताके ही त्रिस्थानिकबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे श्रसात के द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे साताके चतुःस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे साताके त्रिस्थानबन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार जीव समुदाहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । इस प्रकार मूल प्रकृतिस्थितिबन्ध समाप्त हुआ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAATTA उत्तरपयडिद्विदिबंधो RARAMMAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAWAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAARAM Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. उत्तरपगदिहिदिबंधो १. एत्तो उत्तरपगदिट्ठिदिबंधे पुव्वं गमणिज्जं । तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि भवंति । तं यथा-हिदिबंधहाणपरूवणा णिसेयपरूवणा आबाधाखंडयपरूवणा अप्पाबहुगे त्ति । छिदिबंधट्ठाणपरूवणा २. हिदिवंधहाणपरूवणदाए सव्वपगदीणं चदुअआयु-वेउव्वियछक्क-आहार०आहारअंगोवंग-तित्थयरवज्जाणं सव्वत्थोवा सुहुमस्स अपज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि। बादरस्स अपज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि । मुहुमस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंध० संखेज्जगु० । बादर 'पज्जत्त० हिदिबंध० संखेज्जगु० । एवं मूलपगदिबंधो याव पंचिंदियस्स सणिणस्स मिच्छादिहिस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि त्ति । उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध १. इससे आगे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका सर्व प्रथम विचार करते हैं। उसमें ये चार अनुयोगद्वार होते हैं । यथा-स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । विशेषार्थ-मूल्य प्रकृतियाँ आठ हैं और उनमेंसे प्रत्येकके उत्तर भेद अनेक हैं। उन्हें ही यहाँ पर उत्तर प्रकृति शब्द द्वारा कहा गया है । पहले मूल प्रकृति स्थितिबन्धका विस्तार के साथ विवेचन कर आये हैं। अब आगे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका विवेचन करनेवाले हैं। यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसके अधिकार और क्रम वही हैं जो मूलप्रकृति स्थितिबन्धका विवेचन करते समय कह आये हैं । मात्र यहाँ उन अधिकारों द्वारा उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका अवलम्बन लेकर विचार किया गया है। स्थितिबन्धस्थानमरूपणा २. अब स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणाका विचार करते हैं । उसको अपेक्षा सूक्ष्म अपर्याप्तके चार आयु, वैक्रियिकषटक, आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे बादर अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे सूक्ष्म पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे बादर पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवके स्थितिबन्धस्थान संख्या गुणे हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर मूल प्रकृति बन्धके समान अल्पबहुत्व है। विशेषार्थ-कुल बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १२० हैं। इनमेंसे नरकायु, देवायु, वैक्रियिक१. मूलप्रती बादर० अपज्जत्त० इति पाठः । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे ३. रिय- देवायूर्णं सव्वत्थोवा पंचिंदियस्स असरिणस्स पज्जत्तगस्स हिदिबं० | पंचिदियस्स सरिणस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंधद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । तिरिक्खमसाणं तेरस्यां जीवसमासागं द्विदिबंधद्वाणाणि तुल्लाणि थोत्राणि । पंचिदियस सस्सि पज्जत्तयस्स हिदिबं० [सं० गु० । २२२ ४. रियगदि - रियगदिपात्रोग्गाणुपुव्वीणं सव्वत्थोवा पंचिंदियस्स असरिणयस्स पज्जत्तयस्स द्विदिबं० | पंचिंदियस्स सरिणस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेज्ज० । देवगदि-वेजव्विय० - वेउव्विय • गोव ० -देवाणुपुव्वि ० सन्वत्थोवा पंचिदियस्स' असणिस्स पज्जत्तयस्स द्विदिवं । पंचिंदि० सरिणस्स अपज्जतस्स द्विदिवं ० संखेज्जगु० । तस्सेव पज्जत्त० हिदिबं० संखेज्जगु० । पटक, आहारक शरीर, आहारक श्रांगोपांग और तीर्थंकर इन प्रकृतियोंका सब जीव समासों में बन्ध नहीं होता तथा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके विषय में विशेष वक्तव्य है, इसलिए इन तेरह प्रकृतियोंके सिवा शेष १०७ प्रकृतियोंके स्थितिबन्धस्थानोंका श्रल्पबहुत्व जिस प्रकार मूल प्रकृतिस्थितिबन्धका कथन करते समय कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ३. पञ्चेन्द्रिय अशी पर्याप्त नरकायु और देवायुके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं। तेरह जीव समाके तिर्यञ्च श्रायु और मनुष्यायुके स्थितिबन्धस्थान तुल्य होकर स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - नरकायु और देवायुका स्थितिबन्ध श्रसंज्ञी पञ्चेन्द्रियके पल्यके श्रसंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता । तथा संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके वह तेतीस सागरतक होता है । इसीसे असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके इन दोनों श्रायुओं के स्थितिबन्धस्थानोंसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे कहे हैं। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धसे लेकर एक पूर्वकोटितक स्थितिबन्ध चौदहों जीवसमासोंमें सम्भव है । मात्र संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीन पल्यतक होता है । यही कारण है कि तेरह जीवसमासोंमें इन दोनों श्रायुओं के स्थितिबन्धस्थान तुल्य और सबसे स्तोक कहे हैं। तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तककें वे श्रसंख्यातगुणे कहे हैं; क्योंकि पूर्वकोटिके प्रमाणसे तीन पल्यका प्रमाण असंख्यातगुणा होता है । ४. पञ्चेन्द्रिय अशी पर्याप्तकके नरकगति और नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वीके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संही पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तकके देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैकियिक श्राङ्गोपाङ्ग और देवगति प्रायोग्यानुपूर्वीके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक के स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे इसीके पर्याप्तक के स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - अशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिविकल्पोंसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त स्थितिबन्धस्थान उत्तरोत्तर संख्यातगुणे होते हैं यह स्पष्ट ही है, क्योंकि अशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातवां भाग कम एक हजार १. मूलप्रतौ पंचिदियस्स सष्णिस्स इति पाठः । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ हिदिबंधट्ठाणपरूवणा ५. आहार-आहारंगो० सव्वत्थोवा अपुव्वकरण हिदिबंधहाणाणिः । संजदस्स हिदिबं० संखेज्जगु० । तित्थयरणामस्स' सव्वत्थोवा [ अपुवकरणहिदिबंधहाणाणि ।] संजदस्स हिदिवं० [संखेजगुणाणि।] संजदासंजदस्स हिदिव० संखेजगु०। असंजदस्स सम्मादिहिअपज्जत्त यस्स हिदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव पज्जत्त. हिदिबंध० संखेज्जगु०। ६. तासिं चेव पगदीणं पढमदंडो सव्वत्थोवा मुहुमस्स अपज्जत्तयस्स संकिलिहस्स हाणाणि । बादरअपज्ज० संकिलि हाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एवं याव पंचिंदियस्स सरिणस्स मिच्छादिहिस्स पज्जत्तयस्स संकिलिट्ठस्स हाणाणि असंखेज्जगुणाणि ति । एवं पढमदंडो। सागर प्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूरा एक हजार सागर प्रमाण होता है। यहां कुल स्थितिबन्ध विकल्प पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होते हैं। ५. अपूर्वकरणके आहारक शरीर और आहारक ऑङ्गोपाङ्गके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे संयतके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । अपूर्वकरणके तीर्थकर नामकर्मके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे संयतके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयतके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे असंयत सम्यग्दृष्टि अपप्तिकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। ___ विशेषार्थ-आहारकशरीर, आहारकशरोर आङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य और उत्क स्थितिबन्ध अन्तःकोटाकोटि सागरप्रमाण होता है, फिर भी जघन्य स्थितिबन्धसे इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है। यही कारण है कि यहाँ इन प्रकृतियोंके स्वामियोंके स्थितिबन्ध स्थानोंका अल्पबहुत्व उत्तरोत्तर संख्यातगुणा कहा है । मात्र आहारकद्विकका बन्ध संयतके ही होता है। इसलिये इनके स्थितिबन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व दो स्थानों में कहा है और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध संयत, संयतासंयत तथा पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त सम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए इसके स्थितिषन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व इन स्थानों में कहा है। ६. उन्हीं प्रकृतियोंका जो प्रथम दण्डक है,उनकी अपेक्षा सूक्ष्म अपर्याप्तकके संक्लेशरूप स्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे बादर अपर्याप्तकके संक्लेशरूप स्थान असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी, मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकके संक्लेशस्थान असंख्यातगुणे हैं।इस स्थानके प्राप्त होनेतक संक्लेश स्थानोंका कथन करना चाहिए । इस प्रकार प्रथम दण्डक समाप्त हुआ। विशेषार्थ- पहले १४ जीव-समासोंमें १०७ प्रकृतियोंके स्थितिबन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व बतला आये हैं। उन्हीं प्रकृतियोंके संक्लेशस्थानोंका यहाँ चौदह जीव-समासोंमें अल्पबहुत्व कहा गया है । मूलप्रकृति-स्थितिबन्ध स्थानोंका कथन करते समय संक्लेश विशुद्धिस्थानोंका चौदह जीवसमासोंमें जिस क्रमसे निर्देश किया है, उसी क्रमसे इस १. मूलप्रतौ अपुवकरणद्विदिबंधटाणाणि असंखे. गु० । संजदस्स इति पाठः । २. तित्थयरणामस्स विदिबं० सम्वत्थोवा संजदस्स हिदिबं० । सजदा इति पाठः । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ७. विदियदंडओ देव-णिरयायुः । तदियदंडओ तिरिक्ख-मणुसायु० । चउत्थदंडओ णिरयगदिदुगं । पंचमदंडो देवगदि०४। तदो आहारदुगं तित्थयरं । सव्वसंकिलिहस्स हाणाणि यथाकमेण असंखेज्जगुणाणि । एवं विसोधिहाणाणि वि णेदव्वाणि सव्वेसु वि ,डएसु । ८. अप्पाबहुगं । पंचणाणा०-चदुदंसणा०-सादावेद-चदुसंज०-पुरिस-जस०उच्चागो०-पंचंतराइगाणं सव्वत्थोवा संजदस्स जहएणओ हिदिबंधो । बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो हिदिबंधो असंखोज्जगु० । एवं याव पंचिंदिय० सएिण. मिच्छादिहि० पज्जत्तस्स उक्कस्सो हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति । प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके चौदह जीवसमासोंमें संक्लेश-विशुद्धिस्थान जानने चाहिए;यह उक्त कथनका तात्पर्य है।। ७. दूसरा दण्डक देवायु और नरकायुका है। तीसरा दण्डक तिर्यञ्च आयु और मनुष्यायुका है । चौथा दण्डक नरकगतिद्विकका है। पाँचवाँ दण्डक देवगति चतुष्कका है। इसके बाद आहारक द्विक और तीर्थकर प्रकृति है। इनकी अपेक्षा सर्व संक्लेश स्थान क्रमसे प्रसंख्यातगणे हैं। तथा सभी दण्डकों में इसी प्रकार विशद्धि स्थान जानने चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें जो तेरह प्रकृतियाँ छोड़ दी गई थीं, उनके स्थितिबन्धस्थानोंके ही यहाँ संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका क्रमसे निर्देश किया गया है। प्रथम दण्डकमें कही गई १०७ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येकके जितने संक्लेशविशुद्धिस्थान होते हैं,उनसे दूसरे दण्डकमें कही गई देवायु और नरकायु इनमेंसे प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे तीसरे दण्डकमें कही गई तिर्यश्चायु और मनुष्यायु इन दो प्रकृतियों से प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे चौथे दण्डकमें कही गई नरकगति और नरकगति प्राय.यानुपूर्वी,इन दो प्रकृतियों से प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे पाँचवें दण्डकमें कही गई देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ इन चार प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगणे होते हैं। इनसे आहारकद्विकमेंसे प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं और इनसे तीर्थकर प्रकृतिके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। यहां मूलमें संक्लेशस्थान किसके कितने गुणे होते हैं यह कहा है और अन्तमें यह कहा है कि इसी प्रकार विशुद्धिस्थान भी जानने चाहिए। सो इस कथनका यह अभिप्राय है कि जिसके जितने संक्लेश स्थान होते हैं,उसके उतने ही विशुद्धिस्थान भी होते हैं। ८. अल्पबहुत्व, यथा--संयतके पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार सज्वलन, पुरुषवेद, यशाकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे बादर एकेन्द्रियपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इस प्रकार अन्तमें पञ्चेन्द्रिय संशी, मिथ्यादृष्टिपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इस स्थानके प्राप्त होनेतक अल्पबहुत्व जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ जो बाईस प्रकृतियां गिनाई हैं, उनमेंसे साता वेदनीय और चार सज्वलन इनका जघन्य स्थितिबन्ध नवमें गुणस्थानमें होता है और शेषका दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। इसीसे संयतके इनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक कहा है। इसके आगे इनके स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व जिस प्रकार मूल प्रकृति स्थितिबन्धकी Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिदिबंधट्ठाणपरूवणा २२५ 8. थीणगिद्धितिय-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४-तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणुल-उज्जोव-णीचागोद सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो हिदिबंधो । एवं याव मिच्छादिहि ति णेदव्वं । णवरि सम्मादिहि बंधो पत्थि । १०. णिद्दा-पचला-छएणोकसाय-असाद-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्म०-समचदु०वएण०४-अगुरुग०४-पसत्थ-तस०४--थिराथिर-सुभासुभ--सुभग-सुस्सर-आदेज्ज०अजस-णिमिणणामाणं सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो०। एवं पंचिंदिय सएिण० पज्जत्तयस्स उक्कस्सो हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति । ११. अपच्चक्खाणावर०-मणुसगदि-ओरालिय०-ओरालिय०अंगो०-वज्जरिसभ०-मणुसाणु० सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो० । एवं याव पंचिंदिय सणिण मिच्छादिहि हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति । ण'वरि [ संजदे संजदासंजदे णत्थि । प्ररूपणाके समय कह आये हैं ,उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ९. स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टितक अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-मूल प्रकृति स्थितिबन्धका कथन करते समय बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकसे लेकर संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकतक जिस प्रकार अल्पबहुत्व कह आये हैं उसी प्रकार यहां कहना चाहिए । इन प्रकृतियोंका बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता यह स्पष्ट ही है। १०. निद्रा, प्रचला, छह नोकषाय, असाता वेदनीय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माण इन प्रकृतियोका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है। इस प्रकार आगे पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तकके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है, इस स्थानके प्राप्त होनेतक जानना चाहिए । विशेषार्थ-यहाँपर भी बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकसे लेकर पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तकतक जिस प्रकार मूल प्रकृति स्थितिबन्धका कथन करते समय अल्पबहुत्व कह पाये हैं उसी प्रकार जानना चाहिए । मात्र इनका बन्ध सम्यग्दृष्टि और संयतके भी होता है इतना विशेष जानकर अल्पबहुत्व कहना चाहिए। ११. अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी इन प्रकृतियोंका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है। इस प्रकार आगे पञ्चेन्द्रिय संझी मिथ्यादृष्टिके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है, इस स्थानके प्राप्त होनेतक अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका बन्ध संयत और संयतासंयतके नहीं होता। १.यावरि ........"सम्वरथोपा बादरएइंदिय-इति पाठः । २९ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १२. पच्चक्रवाणावर० ४] सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्ज. जह० । एवं याव पंचिंदिय-सएिण-मिच्छादिहिज्जत्तग त्ति । णवरि संजदे णत्थि ।। १३. इत्थि०-णवुस०-चदुजादि-पंचसंठाण-पंचसंघड-बादाव-अप्पसत्थवि०थावर०४-दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज. सव्वत्थोवा बादरएइंदियपज्जत्त० जह । एवं याव असणिण-पंचिंदिय-पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाधियो । तदो पंचिंदिय-सएिण-पज्जत्तयस्स जह• हिदिवं० संखेज्जगु० । तस्सेव अपज्जत्त जह• हिदिबं० संखेज्जगुः । [ तस्सेव अपज्जत्तयस्स उकस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो।] तस्सेव पज्जत्त० उक्क० ट्ठिदिवं० संखेज्जगु० । १४. णिरय-देवायूर्ण सव्वत्थोवा पंचिंदियस्स सणिणस्स असएिणस्स पज्जत्त. जह० हिदिबं । पंचिंदि० असणिण पज्जत्तयस्स उकस्स० हिदिवं. असंखेज्जगु० । पंचिदिय-सणिण-पज्जत्तयस्स उक्क० हिदिवं. असंखेज्जगु० । विशेषार्थ-इनका अल्पवहुत्व पूर्वोक्त प्रकारसे ही घटित कर लेना चाहिए। मात्र इनका बन्ध असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक ही होता है, इतना विशेष जानकर अल्पबहुत्व कहना चाहिए, क्योंकि इनकी बन्धव्युच्छित्ति चौथे गुणस्थानमें हो जाती है। आगे संयतासंयत और संयत जीवोंके इनका बन्ध नहीं होता। १२. प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तीक होता है। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त इस स्थानके प्राप्त होनेतक अल्पबहुत्व जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका बन्ध संयतके नहीं होता है। विशेषार्थ-देशसंयत गुणस्थानतक इन प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इतनी विशेषताको ध्यानमें रखकर इनका अल्पबहुत्व पूर्वोक्त विधिसे कहना चाहिए। १३. स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति आदि चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर चतष्क, दर्भग, दस्वर और अनादे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इस प्रकार क्रमसे आगे जाकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पञ्चेन्द्रिय संक्षी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संक्षी अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञो पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। विशेषार्थ-इन प्रकृतियोंका बन्ध सम्यग्दृष्टि और संयतके नहीं होता, इसलिए अल्पबहुत्वमेंसे इन स्थानोंके अल्पबहुत्वको कम करके उक्त प्रकारसे इनका अल्पबहुत्व कहना चाहिए,यह उक्त कथनका तात्पर्य है। १४. नरकायु और देवायुका पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय असंशी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे पञ्चेन्द्रिय असंही पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और असंझी पर्याप्तके उक्त दोनों आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध दस हजार वर्षप्रमाण होता है। पञ्चेन्द्रिय असंही पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थिति Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा २२७ १५. तिरिक्ख- मसाणं चोदसजीवसमासाणं जह० ट्ठिदि० तुल्ला थोवा । तेरसणं जीवसमासागं उक्क० द्विदिवं ० संखेज्जगु० । पंचिदिय- सरिए - पज्जत्तयस्स उक्क० द्विदिवं ० सं ० गु० । O १६. रियगदि-रियाणुपु० [ सव्वत्थोवा ] पंचिंदिय - असरिण - पज्जत्त ० जह० द्विदि० बं० । तस्सेव उक्क० द्विदिबं० विसेसाधियो । पंचिंदिय- सरि-पज्जत्त० जह० द्विदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव उक्क० हिदिबं० संखेज्जगु० । १७. देवदि ० ४ सव्वत्थोवा पंचिदियस्स असरि पज्जत्तयस्स जह० हिदिo | तस्सेव उक्क० द्विदिबं० विसे० । संजदस्स जह० ट्ठिदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव उक्कस्स ० विदिबं० संखेज्जगु० । एवं संजदासंजदा असंजदचत्तारि । पंचिदिय० सरिण० मिच्छादिद्वि० पज्जत्त० जह० द्विदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव उक्क० डिदि - बं० संखेज्जगु० । बन्ध तेतीस सागरप्रमाण होता है । यतः ये स्थितियाँ उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी हैं, इससे यहां उत्तरोत्तर असंख्यातगुण स्थितिबन्ध कहा है । १५. तिर्थञ्चायु और मनुष्यायुका चौदह जीवसमासोंमेंसे प्रत्येकके जघन्य स्थितिबन्ध एक समान और सबसे स्तोक होता है। इससे तेरह जीवसमासोंमेंसे प्रत्येकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है । इससे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । विशेषार्थ-चौदह जीवसमासोंमें उक्त दोनों आयुओंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण होता है । अन्तिम जीवसमासको छोड़कर शेष तेरहमें इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिवर्षप्रमाण होता है और पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीन ल्यप्रमाण होता है । यतः यहां प्रथमसे दूसरा संख्यातगुणा और दूसरेसे तीसरा असंख्यातगुणा है, अतः इनका उक्त प्रकारसे अल्पबहुत्व कहा है । १६. नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है । इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । इससे पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है। इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है । विशेषार्थ - यहाँ पर पञ्चेन्द्रिय अशी पर्याप्त के स्थितिबन्धके कुल विकल्प पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण हैं और पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तके श्रन्तः कोटाकोटि सागर से लेकर अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तक हैं । यही कारण है कि उक्त प्रकृतियोंका पूर्वोक्त जीवसमासोंमें उक्त प्रकार से अल्पबहुत्व घटित हो जाता है । १७. देवगतिचतुष्कका पञ्चेन्द्रिय श्रसंज्ञी पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे संयतके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इस प्रकार इससे आगे संयतासंयत और असंयतचतुष्कके अल्पबहुत्व कहना चाहिए। पुनः इससे पञ्चेन्द्रिय संशी factsष्टि पर्याप्त जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे 10 १८. [ आहारदुगस्स सव्वत्थोवा अपुव्वकरणस्स ] जह० द्विदिबं० । [ तस्सेवउक्कस्स० द्विदिबन्धो ] | संखेज्जगु० । अपमत्तसंज० जह० द्विदिबं० संखेज्जगु० | तस्सेव कस्स • द्विदिबं० संखेज्जगु० । तित्थयरस्स सव्वत्थोवा अपुव्वकरणस्स जह० हिदिबंध । तस्सेव उक्क० द्विदिबं० संखेज्जगु० । एवं याव संजदसम्मादिति त्ति दव्वं । एवं द्विदिबंधापरूवणा समत्ता । ० २२८ णिसेगपरूवणा १६. णिसेगपरूवणदाए दुवे अणियोगदाराणि - अरणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा य । अतरोवणिधाए पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिद्वीणं सव्वपगदी आयुवज्जाणं अपणो बाधं मोत्तूण यं पढमसमए [ पदेसग्गं खिसित्तं तं बहुगं । जं विदियसमए पदे णिमित्तं तं विसेसहीणं । जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं ] विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं विसे० याव उक्कस्सिया अष्पष्पणो हिदि ति । एवं पंचिदियस पिज्जत्त - श्रसणिपंचिंदिय-चदुरिं० - [ तेइंदिय- ] बीइंदि० - एइंदि०पज्जत्तापज्जत्त • सव्वपगदी सरिगभंगो । I विशेषार्थ - संयतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे संयतासंयतके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्त के जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे इसीके पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इस प्रकार सम्बन्ध मिलाकर देवagess स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व कहे। शेष कथन सुगम है । १८. आहारकद्विकका पूर्वकरणके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे श्रप्रमत्तसंयतके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। तीर्थकर प्रकृतिका अपूर्वकरणके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्याता है । इस प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि स्थानके प्राप्त होने तक अल्पबहुत्वका कथन करना - हिए । विशेषार्थ - श्राहारकद्विकका श्रप्रमत्तसंयत आदि दो और तीर्थकर प्रकृतिका असंयतसम्यग्दृष्टि आदि पाँच गुणस्थानोंमें बन्ध होता है, इसलिए इसी विशेषताको ध्यान में रखकर इनके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व कहा है । इस प्रकार स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई । निषेकप्ररूपणा १९. अब निषेकप्ररूपणाका कथन करते हैं। उसके ये दो अनुयोगद्वार हैं— श्रनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । श्रनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंके । कर्मके सिवा सब प्रकृतियोंके अपनी-अपनी आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्म परमाणु निक्षिप्त होते हैं, वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में निक्षिप्त होते हैं, वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में निक्षिप्त होते हैं, वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमें उत्तरोत्तर विशेषहीन- विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय संशी अपर्याप्त, अशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, अशी पञ्चेन्द्रिय अप Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवाधाकंडयपरूवणा २२९ २०. परंपरोवणिधाए पंचिंदियाणं सरणीणं असरणीणं पज्जत्तगाणं सव्वपगदीणं पढमसमयपदेसग्गादो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गतॄण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव उकस्सिया हिदि ति । २१. एयपदेसगुणहाणिहाणंतरं असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो। णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि थोवाणि। एयपदेसगुणहाणिहाणंतरमसंखेज्जगुणं । एवं पंचिंदियसरिण-असएिणअपज्जत्त-चदुरिंदि०-तीइदि०--बीइंदि०--एइंदि०पज्जत्तापज्जत्ताणं आयुगवज्जाणं सव्वपगदीणं । एवं णिसेगपरूवणा समत्ता । आबाधाकंडयपरूवणा २२. आवाधाखंडयपरूवरणदाए पंचिंदियाणं सएगीणं चदुरिंदि०-तीइंदि०बीइंदि०-एइंदि० आयुगवज्जाणं सव्वपगदीणं अप्पप्पणो उकस्सियादो हिदीदो समए समए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तं ओसक्किदूण एवं बाधाखडयं करेदि । एस कमो याव जहएणहिदि त्ति । प्ति, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, एकेन्द्रिय पर्याप्त और एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में सब प्रकृतियोंकी निषेकप्ररूपणा संशियोंके समान है। २०. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय असंशी पर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंके प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए परमाणुओंसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर वे द्विगुणहीन होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक वे द्विगुणहीन-द्विगुणहीन होते जाते हैं। २१. एकप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है और नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। इनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय असंही अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, एकेन्द्रिय पर्याप्त और एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आयुओंके सिवा शेष सब प्रकृतियोंकी परम्परोपनिधा जाननी चाहिए। इस प्रकार निषेकप्ररूपणा समाप्त हुई। आबाधाकाण्डकारूपणा २२. अब आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करते हैं। उसकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय संशी, पञ्चेन्द्रिय प्रसंशी, चतुरिन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवोंमें आयुकर्मके सिवा सब प्रकृतियोंका अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे समय-समय उतरते हुए पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति उतरकर एक आबाधाकाण्डक करता है और यह क्रम अपनी-अपनी जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक चालू रहता है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अप्पाबहुगपरूवणा २३. अप्पाबहुगं---पंचिंदियाणं सरणीणं पंचणाणा-चदुदं०-सादावेदणीचदुसंज०-पुरिस-जसगित्ति-उच्चागो-पंचंतरा० सव्वत्थोवा जहणिया आवाधा। जहएणो हिदिबंधो संखेज्जगुणो । आबाधाहाणाणि आवाधाखंडयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेज्जगुणाणि । उक्कस्सिया आवाधा विसेसाधिया । एवं याव उक्स्सो हिदिबंधो त्ति । २४. सेसाणं आयुगवज्जाणं सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा जहएिणया आबाधा । आबाधाहाणाणि आवाधारखण्डयाणि य दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आवाधा विसेसाहिया। उवरि मूलपगदिबंधो। आयुगाणमपि मूलपगदिभंगो। एवं असएिणपंचिंदिय-चदुरिं०-तीइं०-बीइं०-एइंदियाणं मूलपगदिभंगो कादव्वो । एवं अप्पाबहुगं समत्तं ।। चउवीसअणिोगदारपरूवणा २५. एदेण अट्टपदेण तत्थ इमाणि चदुवीसमणियोद्दाराणि-अद्धाच्छेदो अल्पबहुत्वप्ररूपणा २३. अब अल्पबहुत्वका विचार करते हैं। इसकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय संशी जीवोंके पाँचों ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीति, उच्चगोत्र और पाँचों अन्तराय प्रकृतियोंकी जघन्य आवाधा सबसे स्तोक है । इससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे आबाधास्थान और आवाधाकाण्डक ये दोनों समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक अल्पबहुत्व जानना चाहिए। २४. आयुके सिवा शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य आवाधा सबसे स्तोक है। इससे आबाधास्थान और पाबाधाकाण्डक ये दोनों समान होकर संख्यातगुणे हैं। इससे उत्कृष्ट श्राबाधा विशेष अधिक है। इससे आगे मूलप्रकृति स्थितिबन्धमें कहे गये अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिए । चारों आयुओंकी अपेक्षा भी अल्पबहुत्व मूलप्रकृति स्थितिबन्धमें कहे गये अल्पबहुत्वके समान जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार असंझी पञ्चेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय. त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, और एकेन्द्रिय जीवोंके मूल प्रकृतिस्थितिबन्धके समान अल्पबहत्व कहना चाहिए। विशेषार्थ-पहले मूलप्रकृति स्थितिबन्धका कथन करते समय चौदह जीवसमासों में मूल प्रकृतियोंका उनकी स्थितिका आश्रय लेकर अल्पबद्दुत्व कह पाये हैं। उसे ध्यानमें रखकर यहाँ पर भी प्रत्येक कर्मकी प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध आवाधा और आवाधाकाण्डकके आश्रयसे अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए,यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। चौबीस अनुयोगद्वारप्ररूपणा २५. इस अर्थ पदके अनुसार यहाँ ये चौबीस अनुयोगद्वार होते हैं-श्रद्धाछेद, सर्व Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ उक्कस्स-श्रद्धाच्छेदपरूवणा सव्वबंधो कोसव्वबंधो याव अप्पाबहुगे त्ति २४ । भुजगारबंधो पदणिक्खेश्रो वडिबंधो अज्झवसाणसमुदाहारो जीवसमुदाहारो त्ति । अद्धाच्छेदपरूवणा २६. अद्धाच्छेदो दुविधो-जहएणो उक्कस्सो य । उक्कस्सए पगदं । दुविधो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । ओघेण पंचणाणा०-णवदंसणा०-असादावे-पंचंतरा० उक्कस्सो हिदिबंधो तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ। तिगिण वस्ससहस्साणि आबाधा । आबाधूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो। २७. सादावेद-इत्थिवे-मणुसगदि-मणुसाणु० उक्क. हिदिबं० परणारस सागरोवमाणि कोडाकोडीओ। पण्णारस वाससदाणि आबाधा। आवाधू० कम्महिदी कम्मणिसेगो। २८. मिच्छत्तं उक्त हिदिवं० सत्तरि सागरोवमाणि कोडाकोडीयो'। सत्त वस्ससहस्साणि आबाधा । अबाधूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । सोलसकसा. उक्क० हिदि. चत्तालीसं सागरोवमणि कोडाकोडीओ । चत्तारि वस्ससहस्साणि आबाधा । आबाधृणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । पुरिस-हस्स-रदि-देवगदि-समचदु० बन्ध और नोसर्वबन्धसे लेकर अल्पबहुत्व तक २४ । भुजगारबन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिवन्ध, अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहार। विशेषार्थ-इन अधिकारोंके विषयमें हम मूलप्रकृतिस्थितिबन्धका विवेचन करते समय लिख आये हैं, इसलिए वहाँसे जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। अद्धाच्छेदप्ररूपणा २६. श्रद्धाच्छेद दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागर है। तीन हजार वर्ष आबाधा है, और आवाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। २७. साता वेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पन्द्रह कोडाकोड़ी सागर है । पन्द्रह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यून कर्म स्थितिप्रमाण कर्म निषेक है। २८. मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है, सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्म स्थितिप्रमाण कर्म निषेक है । सोलह कषायोंका उत्कृष्ट तिबन्ध चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है, चार हजार वर्ष प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यूम कर्मस्थिति प्रमाण कर्म निषेक है । पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, 1. दुक्खतिघादीणोघं । गो. क. गा० १२८ । २. सादिस्थीमणुदुगे तदवं तु । गो. क. गा० १२८। ३. 'सत्तरि दंसणमोहे।'-०क० गा० १२८। ४. 'चारित्तमोहे य पत्तालं।'-गो क. गा० १२८ । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वज्जरिसभ०- देवाणुपु० - पसत्थवि०-थिरादिळक० उच्चागो० उक्क० हिदि० दस सागरोमकोडाकोडीओ' । दस वस्ससदाणि आबाधा । आवाधूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । एवं सगवे ० -अरदि-सोग-भय-दुर्गुछ- रियगदि --तिरिक्खगदि- एइंदिय०पंचिंदिय०--ओरालिय०-वेडव्विय-- तेजा०- ० क० - हुडसंठा ० - श्रोरालिय० -- वेडब्बिय ० अंगो० - संमत्तसेवट्टसंवड ० इ० - वराग०४- णिरय - तिरिक्खाणु० - अगुरु ०४ - आदाउज्जो०अप्पसत्थवि० - [तस०] थावर - बादर - पज्जत्त- पत्तेय-अथिरादिळक - णिमिण - णीचागोदाणं उक० द्विदिबंध बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ' । वे वस्ससहस्साणि आबाधा । वाणिया कम्मदी कम्मणिसेगो । २६. णिरय-देवायूगं उक्क० द्विदि० तेत्तीस सागरोवम० । पुन्त्रकोडितिभागं वाधा | कम्पीकम्मणिसेगो । तिरिक्ख- मणुसायूगं उकस्स० द्विदि० तिि पलिदोवम० । पुव्वकोडितिभागं च आवाधा० । कम्महिदी कम्मणिसेगो । 1 ३०. बीइंदि० - इंदि० - चदुरिंदि० - वामण ० - खीलियसंघडण - मुहुम- अपज्जतसाधारण उक० हिदि० अहारस सागरोवमकोडाकोडीओ' । अहारस वाससदाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मद्विदी कम्मणिसेगो । एग्गोध० वज्जणारा० उक्क० वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादिक छह और उच्च गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दश कोड़ा-कोड़ी सागर है, एक हजार वर्ष प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्म स्थितिप्रमाण कर्म निषेक है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पञ्चेन्द्रियजाति, श्रदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्णंचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदिक छह, निर्माण और नीच गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । दो हजार वर्ष प्रमाण श्राबाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्म निषेक है । २९. नरकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर है । पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण श्रावाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्म निषेक है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पत्यप्रमाण है । पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण आवाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्म निषेक है। ३०. द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, कीलक संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है । अठारह सौ वर्ष बाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । १. 'हस्सर दिउच्चपुरिसे थिरछक्के सत्थगमणदेवदुगे । तस्सद्धं गो० क०, गा० १३२ । २. संठाणसंहदीणं चरिमस्सोघं ।'– गो० क०, गा० १२९ । ३. 'अरदीसोगे संढे तिरिक्खभय णिरयतेजुरालदुगे । वेगुब्वादावदुगे णीचे तसवण्ण श्रगुरुतिचउक्के ॥ १३० ॥ इगिपंचिंदियथावरणिमिणा लग्गमण श्रथिरछक्काणं । वीसं कोडाकोडी सागरणामाणमुक्कस्सं ॥१३१॥' गो० क० । ४. सुरणिरयाऊणोधं परतिरिथिाऊण तिथिय पल्ला गो० क०, गा० १३३ । ५. 'दुहीणमादि ति । - गो० क०, गा० १२९ । ६. अट्ठारस कोडाको डी वियलाणं सुहुमतिरहं च । गो० क०, गा० १२९ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-अद्धाच्छेदपरूवणा २३३ हिदि० वारस सागरोवमकोडाकोडीओ | बारस वस्ससदाणि आबाधा । आबाधूर्णिया कम्मदी कम्मणिसेगो । सादिय० - पारायसं० उक्क० द्विदि० चोदस सागरोवमकोडाकोडीओ । चोद्दस वस्ससदाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मद्विदी कम्मणिसेगो । खुज्जसं ० - श्रद्धा उक्क० डिदि ० सोलस सागरोवमकोडाकोडीओ । सोलस वस्ससदाणि आबाधा | आवाधूलिया कम्मद्विदी कम्मणिसेगो । आहार० - आहार ०अंगो० - तित्थय० उक्क० हिदि० अंतोकोडाकोडीओ | अंतोमुहुतं बाधा । आावाधूपिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । ० ३१. आदेसेण णेरइएस णाणावर ० - दंसणावरण - वेदणी०' मोहणी० छव्वीसं गामा - गोदे अंतराइ ० मूलोघं । तिरिक्ख - मणुसायुगाणं उक्क० हिदि ० पुव्वकोडी | छम्मासाणि आबा० । कम्म० कम्मणिसेगो । तित्थस्स उक्क० हिदि० तोकोडाकोडीओ | अंतोमुहुत्तं आबा० । आबाधू० कम्मट्ठि ० कम्मारिण० । एवं सत्तमु पुढवीसु । गवरि सत्तमा पुढवीए मरणुसगदि - मणुसारणुपुव्वि ० उच्चागो० उक्क० डिदि ० न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान और वज्रनाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बारह कोड़ाकोड़ी सागर है। बारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । स्वातिसंस्थान और नाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चौदह कोड़ाकोड़ी सागर है। चौदह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । कुब्जक संस्थान और अर्द्धनाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सोलह कोड़ाकोड़ी सागर है । सोलह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । आहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है । अन्तर्मुहूर्त श्राबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । ર विशेषार्थ- पहले मूल प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना होता है, यह बतला ये हैं । यहाँ उनकी उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना होता है, यह बतलाया गया है । किसी एक या एकसे अधिक उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जितना अधिक होता है, उसीको ध्यानमें रखकर पहले मूल प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा गया है । उदाहरणार्थ- मोहनीय कर्मका सत्तर कोटाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षासे कहा गया है। ३१. आदेश से नारकियोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियाँ, नाम, गोत्र और अन्तरायकी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि मूलोघके समान है । तिर्यञ्च श्रायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण है। छह माह प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधा न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवी में मनुष्यगति, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी और उच्च गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और १. 'अंतोकोडाकोडी आहार तित्थयरे ।" - गो० क० ग्रा० १३२ ॥ २. मूलप्रतौ मोहणी० चडवीसं णामा- इति पाठः । ३० Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अंतोकोडाकोडीओ। अंतोमुहुर्त आबाधा। आबाधू० कम्महि० कम्मणिसे० । चदुसु हेडिमासु तित्थयरं च णत्थि । ___३२. तिरिक्खेसु · पंचणा०-णवदंसणा-दोवेदणी०-मोहणी छवीसं णिरयतिरिक्ख-मणुसायु० मूलोघं । देवायु० उक्क० हिदि० बावीसं सागरोवमाणि । पुव्वकोडितिभागं आबाधा । कम्महि. कम्मणि । तिरिक्खतिय-एइंदि०-बीइंदि०तेइंदि०-चदुरिंदि०-ओरालिय०-वामण-ओरालि अंगो०-खीलिय०-असंपत्तसेवट्ट - तिरिक्खाणुपुव्वि-आदाउज्जोव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त०-साधार० उक्क० हिदि० अट्ठारस साग०कोडाकोडीअो। अहारस वाससदाणि आवा० । [आबाधू० कम्महि० कम्म- ] णिसेगो। सेसाणं णामपगदीणं गोद-अंतराइगाणं च मूलोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्वपंचिंदियतिरिक्वपज्जत्त-जोणिणीसु। पंचिंदियतिरिक्रवपज्जत्तेसु सव्वपगदीणं उक्क० हिदि० अंतोकोडाकोडीओ । अंतोमु० आबा० । आवाधू० कम्महि० कम्मणिसे० । णवरि तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क हिदि० पुचकोडी। अंतोमु० आबा । कम्महि० कम्मणिसे । ३३. मणुस०३ देवायु. आहारदुर्ग तित्थयरं च मूलोघं । सेसं पंचिंदियतिरिक्खमंगो । मणुसअपजत्ता. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा नीचेकी चार पृथिवियों में तीर्थकर प्रकृति नहीं है। ३२. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय, नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका कथन मूलोघके समान है। देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बाईस सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका विभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तिर्यश्च त्रिक, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, वामन संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलक संस्थान, अपम्प्रातासृपाटिका संहनन, तिर्यश्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोडाकोड़ी सागर है। अठारह सौ वर्ष प्रमाण श्रावाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा नामकर्मकी शेष प्रकृतियाँ, गोत्र और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि मूलोधके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवों में जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आवाधा से न्यन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटि प्रमाण है। अन्तर्मुहर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। ३३. मनुष्यत्रिकमें देवायु, आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रादि मूलोघके समान है। शेष भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों में पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-श्रद्धाच्छेदपरूवणा २३५ ३४. देवेमु पंचणा०-णवदंस०-दोवेदणीय०-मोहणी०छन्वीसपगदीओ णामस्स एइंदि०-आदाव-थावर० गोदंतराइयं च मूलोघं। दो आयु० सेसणाम. तित्थयरस्स णिरयोघं । भवणवासि-वाणवेंतर-जोदिसिय-सोधम्मीसाण. पंचिंदियजादि-वामणसंठा-ओरालि अंगो०-खीलिय०-असंपत्त०-अप्पसत्थवि०-तस-दुस्सर० उक्क० हिदि• अद्यारस सागरोवमकोडाकोडीअो । अटारस वस्ससदाणि आवाधा। आबाधू० कम्महि० कम्मणिसेगो । सेसाणं पगदीणं देवोघं । णवरि भवण-वाणवेंत०-जोदिसिय तित्थकरं पत्थि । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति णिरयभंगो। आणद याव सव्वह त्ति सव्वपगदीणं उक्कस्स. हिदि० अंतोकोडाकोडीओ। अंतोसुहु० आबा । [आबाधू० कम्महि कम्म-] णिसेगो । मनुसायु० देवोघं । ३५. एइंदिय-बादरएइंदिय० तस्सेव पज्जत्ता० पंचणाणा -गवदसणाअसाद-मिच्छत्त०-सोलसक०-णदुस-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छ०-तिरिक्खगदिएइंदिया-ओरालिय-तेजा-क०-हुडसंठा-वएण०४-तिरिक्खगदिपा-अगुरु०-उपधा०थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साधारण-अथिर-असुभ-दूभग-अणादेज-अजस०-णिमिणणीचागो०-पंचतरा० उक्क हिदि० सागरोवमस्स तिएिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा बे सत्तभागा । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्मट्टि ] कम्म ३४. देवोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय, नामकर्मकी एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर तथा गोत्र और अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्धादि मूलोघके समान है।दो आयु,नामकर्मकीशेष प्रकृतियाँ और तीर्थंकरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि सामान्य नारकियोंके समान है। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म ईशान-कल्पके देवों में पञ्चेन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलक संस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुस्वरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है। अठारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रादि सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें तीर्थकर प्रकृति नहीं है। सानत्कुमारसे लेकर सहसारकल्पतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। 'पानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। ३५. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त जीवोंमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पांच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे सेिगो । सेसाणं पगदीरणं उक्कस्स० द्विदि० सागरोवमस्स तिरिण सत्तभागा बे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबाधा० । [आबाधू० कम्मट्ठि ० ] कम्मणि० । तिरिक्ख - मणुसायुगाणं उक्क० द्विदि० पुव्वकोडी । सतवाससहस्सारिण सादिरे आबाधा । कम्मद्विदी कम्मणिसे० । बादरए इंदियअपज्जत्ता ० सुहुम० पज्जत्तापज्जत्ता० सव्वपगदीणं उक्कस्स • डिदि • सागरोवमस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा ने सत्तभागा पलिदोवमस्स श्रंखेज्जदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबा । [आबाधू० कम्महि० कम्म - ] पिसेगो । तिरिक्खमसायुगाणं उकस्स० द्विदि० पुव्वकोडी । तोमु० आबाधा० । [कम्महिदी कम्म- ] पिसेगो । • ० ३६. बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदिय० तेसिं चेव पज्जत्ता० पंचरणाणावर ० -दंसगावर० - असादवे ० - मिच्छत्त ० - सोलसक० याव पंचंतरा० सागरोanuary सागरोवमपणारसाए सागरोवमसदस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा [चत्तारि सत्तभागा] बे सत्तभागा । अंतो० आबा० । [ आबाधू० कम्पट्ठि० कम्म- ] सेिगो । सेसा सादादी उच्चागोदाणं तं चैव । वरि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊरिणया । अंतो० आबा० । [ आबाधू० ] कम्महिदी कम्मणि० । तिरिक्ख - मणुसायु उक्क० हिदि० पुव्वकोडी । चत्तारि वासाणि सोलस रादिंदियाणि सादि० बे मासं च बाधा० । [ कम्मट्टिदी ] कम्मणिसे० । तेसिं चेव अपज्जत्त० एक सागरका पल्यका श्रसंख्यातवां भाग कम तीन बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि प्रमाण है, साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। ३६. द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और इनके पर्याप्त जीवोंके पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व और सोलह कषायसे लेकर पाँच श्रन्तरायतक की प्रकृतियोंका क्रमसे पचीस सागरका, पचास सागरका और सौ सागरका तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । सातासे लेकर उच्च गोत्रतक शेष प्रकृतियोंका वही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । इतनी विशेषता है कि वह पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग कम है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्णकोटि वर्ष प्रमाण है । चार वर्ष, साधिक सोलह दिन रात और दो माह प्रमाण आबाधा है तथा कर्मस्थिति Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-श्रद्धाच्छेदपरूषणा २३७ सव्वपगदीणं सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपएणारसाए सागरोवमसदस्स तिषिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा बे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण उणिया । अंतोमु०. आवा० । [आबाधू० कम्महि०] कम्मणिसे० । तिरिक्खमणुसायू० उक्क० द्विदि० पंचिंदियतिरिक्वअपेज्जत्तभंगो । ३७. पंचिंदिय-तस० तेसिं चेव पज्जत्ता० मूलोघं । पंचिंदिय-तसअपज्ज० मणुसअपज्जत्तभंगो । पंचकायाणं एइदियभंगो। रणवरि तिरिक्रव-मणुसायुगस्स उक्क० हिदि० पुवकोडी । सत्त वस्ससहस्साणि सादिरेगाणि बे वस्ससहस्साणि सादिरे [तिणि वस्ससहस्साणि सादिरेगणि आवा०] तेउ०-वाउ तिरिक्खायु० उक्क० हिदि. पुवकोडी। एयरादिंदिया० एयं वाससहस्सं च आवाधा० । [ कम्मट्टिदी कम्म-] णिसेगो। ३८. पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० मूलोघं । ओरालियका० मणुसपज्जत्तभंगो । ओरालियमिस्स० मणुसअपज्जत्तभंगो। णवरि देवगदि०४ तित्थयरं उक्क० हिदि० अंतोकोडाकोडी । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि कम्म-] णिसे । वेउव्वियका० देवो । वेउव्वियमिस्स० सव्वपगदीओ पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । णवरि विसेसो जाणिदव्वो। आहार-आहारमिस्स. सग-सग उक्क. प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा इन्हींके अपर्याप्तकोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे पश्चीस सागरका, पचास सागरका और सौ सागरका पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहर्त प्रमाण श्रावाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषक है। तथा तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। ३७. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलोधके समान है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। तथा पाँच स्थावरकायिक जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्च आयु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। तथा पृथिवीकायिक जीवोंके साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण, जलकायिक जीवों के साधिक दो हजार वर्ष प्रमाण और वनस्पतिकायिक जीवोंके साधिक तीन हजार वर्षप्रमाण आबाधा है। अग्निकारिक और वायुकायिक जीवोंके तिर्यञ्चायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है। क्रमसे एक दिन रात और एक हजार वर्षप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। ३८. पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवोंका भङ्ग मृलोके समान है। औदारिक काययोगी जीवोंके मनुष्य पर्याप्तकोंके समान है। औदारिकमिश्रा काययोगी जीवोंके मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके देवगति चतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। वैक्रियिककाययोगी जीवोंके सामान्य देवोंके समान है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि विशेषका कथन जानकर कहना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे द्विदि० तोकोडाको ० | अंतोमुहुत्तं बाधा । [ आवाधू० कम्महि० कम्परिण० ] वरि देवायुगस्स तेत्तीस सागरो० । पुव्वकोडितिभागं आबा० । [ कम्मडिदी कम्म- ] रिसे० । केम्मइयका० सगपगदीणं ओरालियमिस्सकायजोगिभंगो । ३६. इत्थवेदगे बीड़ दि० - तीइंदि-चदुरिंदि ० - वामरण० - ओरालि० अंगोवं० खीलियसं० - असंपत्तसेवट्टसं ० मुहुम-अपज्जत्त - साधारण उक्क० द्विदि० अट्ठारस सागरोवमकोडाको ० । अट्ठारस वाससदाणि आबा० । [ आबाधू० कम्मट्ठि० कम्म- ] सेि० । सेसाणं मूलोघं । पुरिसवेदगेसु मूलोघं । एवंसंग० आदाव ० थावर० क० द्विदि० अट्ठारस सागरो० कोडाकोडी० । अट्ठारस वाससदाणि आबाधा । ( आवाधू ० कम्मट्ठि ० ) कम्मणिसे ० । सेसाणं मूलोघं । अवगदवे पंचणारणा०चदुदंसणा ० -पंचंतराइ उक्क० द्विदि० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । अंतोमु० आबाधा० । [ यात्राधू० कम्पट्टि० कम्म- ] गिसे० । सादावेद० - जसगि०-उच्चागो० क० हिदि० पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । अंतोमु० आबा० । [ आबाधू० कम्मट्ठ० ] कम्मणिसे ० । चदुसंज० उक्क० डिदि ० संखेज्जारिण वासाणि । अंतोमु० आबाधा० । [आबाधू०] कम्प० कम्मणिसे० । कोधादि ०४ मूलोघं । जीवों अपनी-अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । इतनी विशेषता है कि देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर प्रमाण है । पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । कार्मणकाययोगी जीवों के अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । ३९. स्त्रीवेदवाले जीवोंके द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संस्थान, श्रसम्प्राप्तासृपटिकासंहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अठारह सौ वर्ष प्रमाण बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । पुरुषवेदवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है। नपुंसक वेदवाले जीवोंके आतप और स्थावर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है । अठारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है। अपगतवेदवाले जीवोंके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और श्रावाधासे न्यून 'कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाधासे थून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । चार संज्वलनोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात वर्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोके समान है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-श्रद्धाच्छेदपरूवणा २३९ ४०. मदि-सुद०-विभंग मूलोघं । णवरि देवायु० उक्क० हिदि० एकत्तीसा०। पुवकोडितिभा० आवा० । [आराधृ० कम्महि० कम्म-] णिसे० । आभि०-सुद०-श्रोधि० सव्वपगदीणं उक० द्विदि० अंतोकोडाको०। अंतोमु० आबा । [आबाधू० कम्महि० कम्म-] णिसे०। णवरि मणुसायु० उक्क० हिदि. पुवकोडी । छम्मासं आबा० । [कम्महिदी कम्म-] णिसे० । देवायु० ओघं । मणपज्ज-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार० सगपगदीणं अोधिभंगो। ४१. सुहुमसं० पंचणाणा-चदुदंस-पंचंतरा० उक्क. हिदि मुहुत्तपुधनं । अंतोमु० श्राबाधा। [आवाधृ० कम्महि० कम्म-] णिसे । सादवे-जसगि०उच्चागो० उक्क० हिदि. मासपुधत्तं । अंतो० आवा० । [आबाधृ० कम्महि कम्म-] णिसेगो । अथवा पंचणा०-चदुदंस-पंचतरा० उक्क० हिदि० दिवसपुधत्तं ! अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि ० कम्म-] णिसे० । सादा०-जसगि०-उच्चा० उक्क० हिदि० वासपुधत्तं । अंतोमु० आबा । [आबाधू० कम्महि कम्म] णिसे । संजदासंजदा० संजदभंगो । णवरि देवायु० उक्त हिदि० वावीसं [सागरोवमाणि । पुव्वकोडितिभागं आवा० । [कम्मट्टिदी कम्म-] णिसे । असंजदा० मूलोघं । णवरि ४०. मत्यशानी, श्रुताशानी और विभंगशानी जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इकतीस सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण श्राबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। श्राभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है, श्रान्तर्मुहूर्त प्रमाण आवाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है। छह माह प्रमाण आवाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा देवायुका भङ्ग ओघके समान है। मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत. छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है। ४१. सूक्ष्म साम्पराय संयत जीवोंके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मुहर्त पृथक्त्व प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषक है। साता वेदनीय, यशःकीर्ति और उच्च गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मासपृथक्त्व प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेष है। अथवा पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्व प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण श्राबाधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा साता वेदनीय, यश-कीर्ति और उच्च गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। संयतासंयतोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग संयतोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बाईस सागर है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। असंयतोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग मलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुका Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० महाबंधे विदिबंधाहियारे देवायु० उक० द्विदि० एकत्तीस [सागरोवमाणि]। पुवकोडितिभागं आवा० । [कम्महिदी कम्म] णिसे। ४२. चक्खुदं०-अचक्खुदं० मूलोघं । ओधिदं० ओधिणाणिभंगो।। ४३. लेस्साणुवादेण किरणले. देवायु० उक्क० हिदि. सागरोवम० सादिरेग० । पुवकोडितिभागं आबा० । [कम्महिदी कम्म-] णिसे० । सेसं पवुसगभंगो। णील-काऊणं वेउव्वियछक्क-चत्तारिजादि-आदाव-थावर-मुहुम-अपज्जत्तसाधार-तित्थकरं उक्क, हिदि० अंतोकोडाको । अंतोमु० आवा० । [आवाधू० कम्महि०] कम्मणिसे० । णिरयायु० उक्क० हिदि सत्तारस-सत्तसागरोव० । पुव्वकोडितिभागं आवा० । [कम्महिदी] कम्मणिसे० । देवायु उक्क. हिदि० सागरोवम सादि । पुव्वकोडितिभागं आबा० । [कम्महिदी कम्म-] णिसे० । सेसं अोघभंगो। तेउए पंचिंदिय-ओरालिय अंगो०-असंपत्ता-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० उक्क० हिदि० अहारस साग । अहारस वाससदाणि आबा। [धावाधू० कम्मट्ठि] कम्मणिसे । सेसं मूलोघं । वरि तिरिवख-मणुसायु० उक्क० हिदि. पुवकोडी । छम्मासं च आबा० । [कम्मट्ठिदी कम्म-] णिसे ! देवायु० उक० हिदि बेसाग० सादिरे० । पुन्चकोडितिभागं आवा० । [कम्महिदी कम्म-] णिसे० । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इकतीस सागर है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। ४२. चक्षुदर्शनवाले और अचक्षुदर्शनवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका मा मुलोधके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है। ४३. लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले जीवोंके देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक एक सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके वैक्रियिक छह, चार जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और पाबाधासे न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे सत्रह सागर और सात सागर है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण श्राबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक एक सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि ओघके समान है। पीत लेश्यावाले जीवोंके पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुस्वर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह सागर प्रमाण है। अठारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। शेष प्रकृतियोंका भन्न मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण है । छह माह प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक दो सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। देव. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ उक्कस्स-अद्धाच्छेदपरूवणा देवगदि-वेउन्वि--आहार०-वउवि०-आहार०अंगोवं०-देवगदिपाश्रोग्ग०-तित्थयरं उक्क. हिदि० अंतोकोडाकोडी। अंतोमु० आग। [आवाधृ० कम्महि०] कम्मणि । पम्माए सहस्सारभंगो । णवरि देवगदि०४ तित्थयरं च तेउभंगो । देवायुग० अहारस साग० सादि० । पुवकोडितिभागं च आबा। [कम्महिदी कम्मणिसेगो] । सुक्कलेस्साए आणदभंगो। णवरि देवायु०-देवगदि०४ आहारकायजोगिभंगो। ४४. भवसिद्धिया० मूलोघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो। सम्मादि०-खइगस०-वेदग०-उवसमसम्मा०-सम्मामि०सगपगदीओ अोधिभंगो। सासणे सगपगदीओ उक्क० हिदि. अंतोकोडाकोडी। अंतोमु० आबा। आबाधू० कम्महि. कम्म-] णिसे० । रणवरि तिगिण आयु. मदिअएणाणिभंगो। मिच्छादि० अब्भवसिद्धिभंगो। ४५. सरिण मूलोघं । असएणीसु पंचणा०-णवदंसणा-असादा०-मिच्छत्त०सोलसक--णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-णिरयगदि-पंचिंदि-वेउव्विय-तेजा-कवेवि०अंगो-हुडसं०-वएण०४-णिरयाणुपु०४-अगुरु०-अप्पसत्थवि०-तसादि०४ MN गति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, आहारक आङ्गोपाङ्ग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। पद्मलेश्यावाले जीवोंके अपनी सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि सहस्रार कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके देवगति चतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि पीत लेश्यावाले जीवोंके समान है। तथा देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक अठारह सागर प्रमाण है । पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । शुक्ल लेश्यावाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि पानत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके देवायु और देवगतिचतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि आहारककाययोगी जीवोंके समान है। ४४. भव्य जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलोधके समान है। अभव्य जीवोंके मत्यशानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अवधिशानियोंके समान है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंके अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। इतनी विशेषता है कि तीन आयुओंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मत्यशानियोंके समान है। मिथ्यादृष्टि जीवोंके अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अभव्योंके समान है। ४५. संक्षी जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलोघके समान है। असंही जीवोंके पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी चतुष्क, अगुरुलघु, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसादि चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे अथिरादिलक-णिमिण-णीचागो०-पंचतरा० उक्क० हिदि० सागरोवमसहस्सस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा [चत्तारि सत्तभागा]|बे सत्तभागा। अंतोमु० आबा० । [आवाधू० कम्मदि० कम्म-] णिसे । सेसाणं सागरोवमसहस्सस्स तिगिण सत्तभागा बे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागण ऊणिया। अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्पट्टि कम्मणि.]। णिरय-देवायुगस्स उक्क० हिदि० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। पुवकोडितिभागं च आबाधा । [कम्महिदी कम्मणिसेगो] तिरिक्ख-मणुसायुगाणं उक्त हिदि० पुव्वकोडी। पुच्चकोडितिभागं च आवाधा । [कम्महिदी कम्मणिसेगो] । आहार० मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं उक्कस्सियं समत्तं । ४६. जहएणए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-चदुदंसणालोभसंज-पंचतरा० जहएणओ हिदिबंधो अंतोमुहुत्तं । अंतोमु० आबाधा। आबाधृणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । पंचदंसणा-असादावे. जहएण. हिदि० सागरोवमस्स तिषिण सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण ऊणिया । अंतोमु० आबा० । आबाधू० । सादावेद० जह० हिदि० बारस मुहुत्तं । अंतोमु० आबा० । आबाधू०। और पॉच अन्तराय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष प्रकृ. तियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक हजार सागरका पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग,चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । नरकायु और देवायका उत्कष्ट स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण है। पूर्वकोटिका विभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तथा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटिप्रमाण है । पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। आहारक जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलोधके समान है। तथा अनाहारक जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कार्मणकाययोगियोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। ४६. अब जघन्य स्थितिबन्ध श्रद्धाच्छेदका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोघसे पाँच ज्ञानावरण, चारः दर्शनावरण, लोभसंज्वलन और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । पाँच दर्शनावरण और असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और पाबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरण-अद्धाच्छेदपरूवणा २४३ ४७. मिच्छत्तं जह• हिदि० सागरोवमरस सत्त सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणिया । अंतो० आवा० । आबाधृ० । बारसक० जहएण. हिदिबं० सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा पलिदो० असंखेजदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आवा० । आवाधू० । कोधसंज० जह० हिदि वे मासं । अंतोमु० आवा० । [आबाधृ० कम्महि० कम्मणि.] । माणसंज. जह• हिदिबं० मासं । अंतोमु० आवा० । आवाधू० । मायासंज. जह. हिदिबं• अद्धमासं। अंतोमु० आवा० । आवाधू । पुरिसवे. जह. हिदिवं. 'अट्ठ वस्साणि । अंतोमु० अावा । आबाधू । ४८. णिरय-देवायुगस्स जह० हिदिबं० दस वस्ससहस्साणि। अंतोमु० आवा० । [कम्मछिदी कम्मणिसेगो] । तिरिक्ख-मणुस्सायुगस्स जह० हिदि. खुद्धाभवग्गहणं । अंतो० आवा० । [कम्महिदी कम्मणिसेगो] । ४६. वेउव्वियछक्क • जह• हिदि सागरोवमसहस्सस्स बे सत्तभागा पलिदो. संखेज्जदिभागेण ऊणिया। अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि.] । आहार-आहार०अंगो-तित्थय० जह• हिदिबं० अंतोकोडाकोडी। अंतोमु. आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि०] । जसगि०-उच्चागो० जह० हिदि. ४७. मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम सात बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबांधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । बारह कषायका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम चार बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध दो महीना है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण श्राबाधा है और बाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है । मान संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध एक महीना है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और पाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। माया संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध आधा महीना है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यन कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्षप्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। ४८. नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध दस हजार वर्ष है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आवाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध तुल्लकभवग्रहणप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। ४९. वैक्रियिकषटकका जघन्य स्थितिबन्ध एक हजार सागरका पल्यका संख्यातवाँभाग कम दो बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। आहारकशरीर.आहारक आडोपाङ और तीर्थंकर प्रक जघन्य स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासेन्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। यशःकीर्ति और उच्च गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध १. मूलप्रती हिदिबं० श्रद्धवयं० अतो-इति पाठः । २. मूलप्रतौ श्राबा० श्राबाधू० वेउ-इति पाठः । हातका Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे हिदिबंधाहियारे अहमु० । अंतो• आबा । [आबापू० कम्महि० कम्मणि.]। सेसाणं जह• हिदि० सागरोवमस्स बे सत्तभागा पलिदो० असंखेजदिभागेण ऊणिया। अंतोमु० आबा० [आबाधू० कम्महि० कम्म०] । ५०. आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीसु सव्वपगदीणं जह• हिदि० सागरोवमसहस्सस्स तिषिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागाचे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि.] । तिरिक्ख-मणुसायुगस्स जह• हिदिवं. अंतो० । अंतोमु. आबा । [कम्महिदी कम्मणिसेगो] | तित्थय० जह• हिदि० उकस्सभंगो । एवं पढमाए । विदियाए याव सत्तमा त्ति सव्वपगदीणं तित्थयरभंगो । णवरि आयु० णिरयभंगो । आठ मुहूर्त है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँभाग कम दो बटे सात भागप्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आवाधा है और आबाधासे न्यून कर्म स्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। विशेषार्थ-यहाँ पर अन्तमें शेष पद द्वारा जिन प्रकृतियोंका संकेत किया है,वे ये हैंस्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्च गति, मनुष्य गति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यञ्च गति प्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, प्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, अयशःकीति, निर्माण और नीचगोत्र । इन प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध एकेन्द्रियोंके भी होता है। इसलिए इनका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँभाग कम दो बटे सात भागप्रमाण कहा है। यद्यपि इन प्रकृतियोंमें मोहनीय सम्बन्धी कुछ प्रकृतियाँ हैं, पर उनका भी बन्ध इसी अनु. पातसे होता है। इसलिए उनका यहाँ नाम निर्देश किया है। इस सब कथनका विशेष व्याख्यान जीवस्थान चूलिकामें किया है । इसलिए वहाँसे जानना चाहिए। ५०. श्रादेशसे गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक हजार सागरका पल्यका संख्यातवाँभाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है । अन्तमुहर्तप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पहिली पृथ्वीमें जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सब पृथिवीयों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध तीर्थकर प्रकृतिके समान है । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सामान्य नारकियोंके समान है ।। विशेषार्थ-नरकमें अर्थात् प्रथम नरकमें असंही जीव मरकर उत्पन्न हो सकता है। और ऐसे जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम और द्वितीय समयमें सब प्रकृतियोंका असंहीके योग्य Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरण- अद्धाच्छेद परूवणा २४५ ५१. तिरिक्खेसु चदुरणं श्रायुगागं वेडव्वियछक्कं च मूलोघं । सेसाणं सव्वपगदी जह० द्विदि० सागरोवमस्स तिरिण [ सत्तभागा] सत्त सत्त भागा चत्तारि सत्तभागा वे सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण उणिया । अंतोमु० आबा० । आबाधू० । पंचिंदियतिरिक्ख ० ३ सव्वपगदीणं णिरयभंगो । श्रयुगाणं मूलोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खापज्जत्तेसु । ५२. मणुस ० ३ खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं सव्वपगदी जह० द्विदि० सागरोवमसहस्सस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा बे सत्तभागा पलिदोवम० संखेज्जदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबाधा । [ आबाधू० कम्महि० कम्मणि०] । चदुरणं आयुगाणं मूलोधं । वेडव्वियळकं [ आहार०] आहार० अंगो० तित्थयरं जह० द्विदि० अंतोकोडाकोडीओ | अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मरिण ० ] | मणुसपज्ज० पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो | ५३. देवगदीए देवा-भवण० - वाणवें० रियोघं । जोदिसि याव सव्वट्टत्ति विदियषुढविभंगो । सोधम्मीसाणे आयु० जह० हिदि ० तो ० | अंतोमु० आबा० । स्थितिबन्ध होता रहता है । इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर यहाँ नरकगति में और प्रथम नरक में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध कहा है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है, यह पहिले ही कह आये हैं । द्वितीयादि नरकों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध उक्त प्रमाण ही होता है । इसलिए यहाँ सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध तीर्थकर प्रकृतिके समान कहा है । ५१. तिर्यञ्चों में चार आयु और वैक्रियिक पटकका जघन्य स्थितिबन्ध मूलोघके समान है। शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तीन बढे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बढे सात भाग और दो बटे सात प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है । और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध नारकियोंके समान है । श्रायुओंका जघन्य स्थितिबन्ध मूलोधके समान है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्या कोंके जानना चाहिए । ५२. मनुष्यत्रिक में क्षपक प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध के समान है । शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक हजार सागरका पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग, और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण श्राबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । चार श्रायुओं का जघन्य स्थितिबन्ध मूलोघके समान है। वैक्रियिकषट्क, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है, अन्तमुहूर्त प्रमाण बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । मनुष्य पर्यातकों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । ५३. देवगतिमें सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सामान्य नारकियोंके समान है । तथा ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध दूसरी पृथिवीके समान है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है और Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ महाबंधे दिदिबंधाहियारे [कम्महिदी कम्मणिसेगो] । सणक्कुमार-माहिंदे मुहुत्तपुधत्तं । बम्ह-बम्हुत्तर-लांतवकाविहे दिवसांधत्तं । सुक्क-महासुक्क-सदर-सहस्सारे पक्खपुधत्तं । आणद-पाणदआरण-अच्चुद० मासपुधत्तं । उवरि सव्वाणं वासपुधत्तं । सव्वत्थ अंतोमु. आबा० । [कम्महिदी कम्मणिसेगो] । ५४. एइंदिएमु सगपगदीणं तिरिक्खोघं । सव्वविगलिंदिएसु सगपगदीणं [सागरोवमपणुवीसाए] सागरोवमपएणारसाए सागरोवमसदस्स तिएिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्त भागा के सत्तभागा पलिदो० संखेजदिभागेण ऊणिया । अंतो० आबा० । [ आबा.कम्मट्टि० कम्मणि ]। आयु० ओघं । पंचिंदिय०२ खवगपगदीणं मूलोघं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्वभंगो। पंचिंदियअपज्जत्त० मणुसअपज्जत्तभंगो। ५५. कायाणुवादेण पंचकायाणं एइंदियभंगो । तस०२ खवगपगदीणं चदुएणं आयुगाणं वेउव्वियछक्कस्स आहार-आहार अंगो० तित्थयरं च मूलोघं । सेसं बीइंदियभंगो । तसअपज्जत्त० बीइंदियभंगो। ५६. पंचमण-तिएिणवचि० खवगपगदीणं आयुगाणं च मूलोघं । सेसाणं कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पमें आयुकर्मकाजघन्य स्थितिबन्ध मुहूर्त पृथक्त्वप्रमाण है । ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ कल्पमें दिवसपृथक्त्व प्रमाण है। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पमें पक्षपृथक्त्व प्रमाण है। आनत, प्राणत, पारण और अच्युत कल्पमें मासपृथक्त्व प्रमाण है । इसके ऊपर सब देवोंके पायुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। ५४. एकेन्द्रियों में अपनी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आदि सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। सब विकलेन्द्रियों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध पश्चीस सागरका, पचार सागरका और सौ सागरका पल्यका संख्यातवां भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध आदि ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय द्विकमें क्षपक प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आदि मूलोधके समान है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आदि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकॉमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आदि मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है।। ___५५. कायमार्गणाके अनुवादसे पाँच स्थावरकायिक जीवोंके अपनी-अपनी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आदि एकेन्द्रियोंके समान है। प्रस द्विको क्षपक प्रकृतियोंका चार आयुओंका, वैक्रियिकषटक, आहारक शरीर, आहारकाङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध आदि मूलोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आदि द्वीन्द्रियोंके समान है। तथा प्रस अपर्याप्तकोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आदि द्वीन्द्रियोंके समान है। ५६. पाँचों मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियों और चार आयु. योका जघन्य स्थितिबन्ध आदि मूलोघके समान है। शेष प्रकृतियोंका जघन्यस्थितिबन्ध Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-श्रद्धाच्छेदपरूवणा २४७ जह० द्विदि० अंतोकोडाकोडी | अंतोमु० आबाधा० । [ आबाधू० कम्महि० कम्मणि०] । दोणि वचि० खवगपगदीणं चदुराणं श्रयुगाणं वेडव्वियछकं आहार० - आहार०ांगो० तित्थयरं च मूलोघं । सेसं बीइंदियपज्जत्तभंगो । कायजोगिओरालियकायजोगि० मूलोघं । ओरालियमिस्स० देवगदीच ०४ तित्थयरं च उक्कस्सभंगो । सेसारणं तिरिक्खोघं । वेउव्विय० सोधम्मभंगो | वेजव्वियमि० - आहार०आहारमि० उकस्सभंगो । देवायु० जह० हिदि० पलिदोवमपुधत्तं । तो ० आबा० । [कम्महिदी कम्मणिसेगो ] । कम्मइग० सगपगदीगं तिरिक्खोघं । णवरि देवगदि ०४ तित्थयरं च उक्कस्तभंगो | ५७. इत्थिवे० पंचरणा० चदुदंसणा ० पंचंतरा० जह० द्विदि० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । अंतो० आबा० । [आबाधू० कम्मट्टि० कम्मणि०] सादावे० - जसगि०उच्चागो० जह० हिदि० पलिदो ० असंखे० । अंतोमु० आबा० । [ आबाधूकम्महि० कम्मग्णिसेगो ] । चदुसंज० - पुरिसवे० जह० हिदि० संखेज्जाणि वाससहस्सारिण अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मरिण ० ] | सेसाणं पंचिंदिभंग | पुरिस० पंचणा० चदुदंसणा ० - पंचंतरा० जह० द्विदि० संखेज्जाणि वास अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधा से न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । दो वचनयोगी जीवों में क्षपक प्रकृतियों, चार आयु, वैक्रियिकषट्क, आहारक शरीर, श्राहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध आदि मूलोघके समान है। शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध आदि द्वीन्द्रियोंके समान है । काययोगी और औदारिकाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । औौदारिकमि काय योगी जीवों में देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। वैक्रियिकमिश्र काययोगी, आहारककाययोगी और श्राहारकमिश्रक्राययोगी जीवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि श्राहारक काययोगी और श्राहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध पल्य पृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण श्राबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । कार्मणकाययोगी जीवों में अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। - ५७. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । साता वेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और श्रावाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है और श्रावाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्म निषेक है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है । पुरुषवेदवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सदाणि । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि० ] | सादावेदणीयजस० - उच्चागोदं जह० हिदि० संखेज्जाणि वाससदाणि । अंतोमु० आबा० । [आवाधू० कम्मडि० कम्मणि०] । चदुसंज० जह० द्विदि० सोलस वस्साणि | अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्प०ि कम्मरिण ०] । पुरिसवेद० जह० हिदि० श्र वस्साणि | अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि० ] | सेसाणि पंचिंदियभंगो । सगवेद : पंचणा० चदुदंसणा ० -सादावे ० चदुसंज० - पुरिस०-जसगि०उच्चागो०-पंचंतरा० इत्थिवेदभंगो । सेसं मूलोघं । अवगदवे ० मूलोघं । ५८. कोधे पंचणा० चदुदंसणा ० - पंचंतरा० जह० द्विदि० संखेज्जाणि वासाणि । अंतो० [० आवा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि० ] | सादावे ० - जसगि०- उच्चागो० जह० ट्ठिदि० संखेज्जाणि बासस० । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि० ] चदुसंज० जह० द्विदि० वे मासं । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि० ] | माणे पंचणा० - चदुदंसणा पंचंतरा० जह० हिदि० वासपुधत्तं । अंतो० आबा । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि० ] | सादावे ० - जसगि०उच्चागो० जह० द्विदि० संखेज्जाणि वासारिण । अंतो० आबा० [ बाधू ० कम्मद्वि० कम्मणि०] । तिरिण संज० जह० हिदि० मासो | अंतोमु० अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्ष है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । साता वेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगो जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्ष है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। चार संज्वलनोंका जघन्य स्थितिबन्ध सोलह वर्ष है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्ष है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है, और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है । नपुंसक वेदवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है। अपगतवेदी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग लोके समान है । ५८. क्रोध कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । साता वेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्ष है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधा से न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । चार संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध दो महीना है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाधा से न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । मान कषायवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और श्रावाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्च गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्ष है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तीन Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-श्रद्धाच्छेदपरूवणा आबा० । [ आबाधू० कम्पट्ठि० कम्मणि० ] मायाए पंचरणा० - चदुदंसण०पंचतरा० मासपुधत्तं | अंतोमु० आबा । [आबाधू० कम्महि० कम्मरिण ० ] सादावे ०जसगि०-उच्चागो० जह० हिदिबं० वासपुधत्तं । अंतोमु० आवा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि० । ] दो संज० जह० द्विदि० पक्खो | अंतो० आबा० । [आबाधू ० कम्महि० कम्मणि० ] | सेसारणं सव्वपगदीरणं कोधादीणं तिरिएकसायाणं मूलोघं । लोभे सव्वपगदीणं मूलोघं । ५६. मदि ० - सुद० तिरिक्खोघं । विभंगे सगपगदी ० विदियपुढविभंगो । वरि चदुश्रायु० श्रर्घ । वेडन्वियछक्कं एइंदि ० बेइंदि० - तीइंदि० चदुरिंदि ० - आदाव- थावर - सुहुम अपज्जत्त-साधारणाणं च जह० द्विदिबं० अंतोकोडाकोडी | अंतो० आबा० । [आबाधू ० कम्प०ि कम्मणि०] । आभिणि० - सुद० अधि० खवगपगदीगं मूलोघं । मणुसायु० जह० द्विदि० वासपुधत्तं । अं० आबा । [ कम्महि० कम्मणि० ] | देवायु० जह० द्विदि० पलिदोवमं सादिरे० । अंतो० आबा० । [कम्महिदी कम्मणि० ] | सेसाणं आहारसरीरभंगो । मणपज्जवे देवायु० जह० हिदिबं० पलिदोवमपुधत्तं । तो० वा० । [ कम्महिदी कम्मणिसेगो ] | सेसाणं श्रधिभंगो । एवं संजदा० । संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध एक महीना है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । माया कषायवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध मासपृथक्त्व प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । साता वेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व प्रमाण है । श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। दो संज्वलनोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक पक्षप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तं प्रमाण श्राबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष सब प्रकृतियोंका और क्रोधादि तीन कषायोंका भङ्ग मूलोघके समान है । लोभ कषायवाले जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघ के समान है । 1 ५९. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध श्रादि सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है । इतनी विशेषता है कि चार आयुका भङ्ग ओघके समान है। वैक्रियिकषट्क, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोधके समान है । मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण श्राबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध साधिक पल्य प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्राहारकशरीरके समान है । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध पल्य पृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोघके समान है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए । ३२ २४९ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० महाबंधे द्विदिषधाहियारे ६०. सामाइ०-छेदो० पंचणा-चदुदंसणा-पंचंतरा० जह० हिदि० मुहुत्तपुधत्तं दिवसपुधत्तं वा। अंतो० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि ] । सादा-जसगि०-उच्चा० जह• हिदि० मासपु धत्तं । अंतो० आबा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि०]। सेसाणं मणपज्जवभंगो । परिहार-संजदासंजदा० आहारकायजोगिभंगो । सुहुमसं० छएणं क ोघं । असंजद० मदिभंगो। तित्थयर० उक्कस्सभंगो। ६१. चक्खु० खवगपगद्रीणं चदुएणं आयुगाणं वेव्वियछक्क०-आहारश्राहार अंगो० तित्थयरं मूलोघं । सेसाणं पगदीणं चदुरिंदियभंगो। अचक्खु. ओघभंगो । ओधिदं० अोधिणाणिभंगो। ६२. किएण-पील-काउ० असंजदभंगो । किएण-णील-काऊणं णिरयायु० जह• हिदि० सत्तारस-सत्तसागरो० सादिरे० दसवस्ससहस्साणि । अंतो० आबा०। [कम्मट्टिदी कम्मणिसेगो] । तेसिं चेव देवायु० जह. हिदि० दस वस्ससहस्साणि । अंतो० आबा० । [ कम्महिदी कम्मणिसेगो ] । अथवा किरण-णील० देवायु० जह० हिदि० पलिदो० असं० । अंतो० आबा० । [ कम्महिदी कम्मणिसेगो ]। काऊणं णिरय-देवायु० जह• हिदि० दसवस्स ६०. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण है अथवा दिवसपृथक्त्व. प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आवाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्म निषेक है। सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण श्राबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनःपर्ययझानियोंके समान है। परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंका भङ्ग आहारककाययोगी जीवोंके समान है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में छह कर्मोंका मङ्ग ओघके समान है। असंयत जीवों में अपनी प्रकृतियोंका भङ्गमत्यशानियों के समान है। तथा तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। ६१. चक्षुदर्शनी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका, चार आयुओंका और वैक्रियिकषट्क, आहारक शरीर, आहारक प्राङ्गोपाङ्ग तथा तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग मलोघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंकाभङ्ग चतुरिन्द्रिय जीवोंके समान है । अचक्षुदर्शनी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। तथा अवधिदर्शनी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है। ६२. कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें अपनी-अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग असंयत जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें नरकायुका जघन्य स्थितिवन्ध साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर और दश हजार वर्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तथा इन्हीं लेश्यावालोंके देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध दश हजार वर्ष प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । अथवा कृष्ण और नील लेश्यावालोंके देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । कापोत लेश्यावाले जीवोंके नरकायु और देवायुका जघन्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरण-श्रद्धाच्छेदपरूवणा २५१ सह० । अंतो० आबा । [ कम्म हिदी कम्मणि०] । तेउ० तिरिक्खम गुसायु • देवोघं । देवायु० जह० द्विदि० पलिदो० सादि० । अंतो० आबा० । [कम्म हिदी कम्मणिसेगो] । अथवा दसवस्ससहस्सारिण । अंतो० आबा० । [कम्म हिदी कम्म गो] | सेसा अंतोकोडा कोडि० । अंतो० आबा० । [आबाधू० कम्पट्ठि० कम्मणि० ] | पम्पाए तं चैव । देवायु० जह० हिदि० वे सागरो० सादि० | अंतो० आबा० । [ कम्म ट्ठिदी कम्मणिसेगो] । तिरिक्ख मणुसायु० जह० द्विदि० दिवसधत्तं । तो आबा० । [कम्प हिदी कम्मणिसेगो ] । एइंदिय० आदाव० थावरं च रात्थि । सुक्काए खवगपगदीणं श्रघं । मणुसायु० जह० हिदि० मासपुधत्तं । अंतो० आबा । [कम्महिदी कम्मणिसेगो] । देवायु० जह० द्विदि० अट्ठारससागरो० सादिरे० | अंतो० आबा० । [कम्मडिदी कम्मणिसेगो ] | सेसं वगेवेज्जभंगो । ६३. भवसिद्धिया० मूलोघं । अब्भवसिद्धिया० मदित्र०भंगो । सम्मादि०खड्ग • श्रधिभंगो | वेदगे आयु० अधिभंगो । सेसं विभंगभंगो । उवसमसम्मा० पंचरणा० चदुदंसणा ० - लोभसंज० पंचंतरा० जह० द्विदि० अंतो० । अंतो० आबा० । [आबाधू • कम्मणि० ] । सादावे० जह० द्विदि० चदुवीसं मुहुतं । अंतो० आबा० | स्थितिबन्ध दश हजार वर्ष प्रमाण हैं । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । पीतलेश्यावाले जीवोंके तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध साधिक पल्य प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । अथवा देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध दश हजार वर्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है । और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। पद्म लेश्यावाले जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध साधिक दो सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध दिवस पृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । इनके एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता । शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोघके समान है । मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण श्रबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध साधिक अठारह सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नव प्रैवेयकके समान है। ६३. भव्य जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । अभव्य जीवोंमें अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यनानियोंके समान है । सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें श्रायुकर्मका भङ्ग श्रवधिज्ञानियोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग विभङ्गज्ञानियोंके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध चौबीस मुहूर्त है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ महाबंधे हिदिबंधाहियारे [आबाधृ० कम्महि० कम्मणि.] । कोधसंज० जह• हिदि. चत्तारि मासं । अंतो. आबा० । [श्राबाधू० कम्महि० कम्मणि०] । माणसंजल• जह• हिदि. बे मासं । अंतो० आबा । [आबाधृ० कम्महि कम्मणि०] । मायासं० जह० द्विदि० मासं० । अंतो• आवा० । [आबाधू० कम्महि० कम्मणि.] । पुरिसवे. जह० हिदि० सोलसवस्साणि । अंतो० आबा० । [आबाधू० कम्मट्टि० कम्मणि.] । जसगि०-उच्चागो जह• हिदि० सोलसमुहुत्तं । अंतो० आबा०। [आवाधृ० कम्महि० कम्मणि.] । सेसाणं श्रोधिभंगो। सासणे तिरिक्ख-मणुसायु० णिरयोघं । देवायु० जह० हिदि० दसवस्ससहस्साणि । अंतो० आवा०। कम्महिदी कम्पणिसेगो] । सेसाणं संजदासंजदभंगो। एवं सम्मामि० । मिच्छादि० अन्भवसिद्धियभंगो । सएिण. मणुसभंगो। असणिण तिरिक्खोघं । आहार• मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं जहएणहिदि० समत्तं । एवं अद्धच्छेदो समत्तो । सव्वबंध-णोसव्वबंधपरूवणा ६४. यो सो सव्वबंधो पोसव्वबंधो णाम इमो दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण पंचणाणावरणीयाणं किं सव्वबंधो कोसव्वबंधो ? सव्वबंधो क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध चार महीना है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और पाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। मान संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध दो महीना है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और पाबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। माया संज्वलनका जघन्य स्थितिबन्ध एक महीना है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आवाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषक है। पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध सोलह वर्ष है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा है और अबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सोलह मुहूर्त है । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आवाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध आदि सामान्य नारकियोंके समान है। देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध दश हजार वर्षप्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग संयतासयतके समान है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । मिथ्यादृष्टियोंके अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग अभव्योंके समान है। संशी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। असंशी जीवोंमें तिर्यञ्चोंके समान है। आहारक जीवोंमें मूलोघके समान है तथा अनाहारकोंमें कार्मण काययोगियोंके समान है। इस प्रकार जघन्य स्थितिबन्ध अद्धाच्छेद समाप्त हुआ। इस प्रकार श्रद्धाच्छेद समाप्त हुआ। सर्वबन्ध-नोसर्वबन्धप्ररूपणा ६४. जो सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध है,उसका यह निर्देश दो प्रकारका है-मोष और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरणका क्या सर्वबन्ध होता है या नोसर्वबन्ध होता है ? सर्व Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ जहरण-अजहण्णबंधपरूषणा वा पोसव्वबंधो वा । सव्वाओ हिदीओ बंधमाणस्स सव्वबंधो। तदूर्ण बंधमाणस्स पोसव्वबंधो । एवं पगदीणं याव अणाहारगः त्ति णेदव्वं । उक्कस्सबंध-अणुक्कस्सबंधपरूवणा ६५. यो सो उक्कस्सबंधो अणुक्कस्सबंधो । तत्थ इमो दुवि० णिसो-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वपगदीणं हिदिबंधो किं उक्कस्सबंधो अणुक्कस्सबंधो ? उक्कस्सबंधो वा अणुक्कस्सबंधो वा । सव्वुक्कस्सियं हिदि बंधमाणस्स उक्कस्सबंधो। तदणं बंधमाणस्स अणुकस्सबंधो । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्वं । जहएण-अजहरणबंधपरूवणा ६६. यो सो जहएणबंधो अजहएणवंधो णाम तस्स इमो दुवि० णिसोओघे० प्रादे । ओघे० सव्वपगदीणं हिदिबंधो किं जहएणबंधो अजहएणवंधो ? जहएणबंधो वा अजहणणवंधो वा । सव्वजहरिणयं द्विदिं बंधमाणस्स जहएणबंधो। तदो उवरि बंधमाणस्स अजहणणबंधो । एवं याव अणाहारग तिणेदव्वं । बन्ध होता है और नोसर्वबन्ध होता है। सब स्थितियोंका बन्ध करनेवाले जीवके सर्वबन्ध होता है और इनसे न्यून स्थितियोंका बन्ध करनेवाले जीवके नोसर्वबन्ध होता है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंका अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिए। उत्कृष्टबन्ध-अनुत्कृष्टवन्धप्ररूपणा ६५. जो उत्कृष्टवन्ध और अनुत्कृष्टवन्ध है,उसका यह निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। भोघसे सब प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध क्या उत्कृष्टबन्ध होता है या अनुत्कृष्टबन्ध होता है? उत्कृष्टबन्ध भी होता है और अनुत्कृष्टबन्ध भी होता है। सबसे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उत्कृष्टबन्ध होता है और इससे न्यून स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके अनुत्कृष्टबन्ध होता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-उत्कृष्टबन्धमें ओघ और आदेशसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका प्रहण किया गया है और अनुत्कृष्टबन्धमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके सिवा शेष सब स्थितिबन्धोंका ग्रहण किया गया है। उदाहरणार्थ श्रोघसे मिथ्यात्व मोहनीयका सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध होने पर वह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा जाता है और इससे न्यून स्थितिबन्ध होने पर वह अनत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा जाता है। इसी प्रकार श्रादेशसे जिस मार्गणा में जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो,वह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है और शेष अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध है। जयन्यबन्ध--अजघन्यबन्धप्ररूपणा ६६. जो जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध है,उसका यह निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सव प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध क्या जघन्यबन्ध है या अजघन्यबन्ध है ? जघन्यबन्ध भी है और अजधन्यबन्ध भी है। सबसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके जघन्यबन्ध होता है और इससे अधिक स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके अजघन्यबन्ध होता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके समान यहाँ प्रोध और आदेशसे जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका विचार कर लेना चाहिए । ओघसे सबसे जघन्म स्थिति Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सादि- अणादि-धुव अद्भुवबंधपरूवणा ६७. यो सो सादियबंधो अणादिबंधो धुवबंधो श्रद्ध्रुवबंधो णाम तस्स इमो दुवि० द्दिसो - ओघे० दे० । श्रघे० पंचरणा० चदुदंस० - चंदुसंज० - पंचंतरा० उक्कस्सद्विदिबंधो अणुक्कस्सद्विदिबंधो जहण्णद्विदिबंधो किं सादियबंधी किं प्रणादियबंध किं धुवबंध किं अद्ध्रुवबंधो ? सादिय० अद्ध्रुवबंधो वा । अजहराणहिदिबंधो किं सादिय वा०४१ सादिय० अणादिय० धुव० ऋद्ध्रुव । सेसारणं सव्वपगदी उकस्स ० अणुकस्स० जह० जह० किं सादि०४ ? सादिय - अद्ध्रुवबंधो' । एवं श्रोघभंगो चक्खुर्द ० - भवसि० । वरि भवसिद्धिए धुवबंधो गत्थि । सेसाणं विरयादि याव पाहारगति किं सादि ० ४ १ सादिय - अद्ध्रुव बंधो । बन्ध पाँच ज्ञानावरणका अन्तर्मुहूर्त है और सब अजघन्य स्थितिबन्ध है । इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिए। सादि-अनादि ध्रुव अध्रुवबन्धप्ररूपणा ६७. जो सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध और अध्रुवबन्ध है, उसका यह निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । श्रघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या श्रनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और ध्रुव है । जघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या श्रध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। शेष सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध, जघन्य स्थितिबन्ध और अजघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है । इसी प्रकार के समान चतुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके ध्रुव बन्ध नहीं होता । शेष नरकगति से लेकर अनाहारकतक सब मार्गणाओं में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, अनुत्कृष्ट, स्थितिबन्ध जघन्य स्थितिबन्ध और अजघन्य स्थितिबन्ध क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अव है ? सादि और अध्रुव है । विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी बन्धन्युच्छित्ति और जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है। इसके पहले अनादिकालसे प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है । यतः इन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें अपने-अपने अन्तिम स्थितिबन्धके समय प्राप्त होता है, इसलिए इसके पहले अनादिकाल से होनेवाला इनका अजघन्यबन्ध ठहरता है । इसलिए तो यह अनादि है तथा जो जीव उपश्रम श्रेणिपर श्रारोहण कर और सूक्ष्म साम्परायके अन्तमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति कर उपशान्तमोह हो उपशमश्रेणीसे उतरते हुए पुनः इनके बन्धका प्रारम्भ करता है, उसके यह अजघन्य स्थितिबन्ध सादि होता है । ध्रुव और अध्रुव स्पष्ट ही हैं । इस प्रकार उक्त १८ प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध सादि, अनादि, ध्रुष और अध्रुवके भेदसे चार प्रकार का होता है । इन १८ प्रकृतियोंके शेष उत्कृष्टबन्ध आदि तीन तथा शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्टबन्ध श्रादि चार सादि और श्रध्रुष दो ही प्रकारके हैं, क्योंकि उक्त १८ प्रकृतियोंके उत्कृष्टबन्ध श्रादि तीन और शेषके उत्कृष्टबन्ध आदि चारों कादाचित्क होने से अनादि और १. गो० क० ना० १५३ । पञ्चसं० । २५४ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा सामित्तपरूवणा ६८. सामित्तं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०---ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदसणा०-असाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-एस-अरदिसोग-भय-दुगु-पंचिंदियजादि-तेजा-क०-हुंडसं०-वएण०४-अगुरु०४-अप्पसत्थवि० सस०४-अथिरादिछक्क-णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्कस्सओ हिदिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिंदियस्स सएिणस्स मिच्छादिहिस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागारजागार-सुदोवजोगजुत्तस्स उक्कस्सियाए हिदीए उक्कस्सए हिदिसंकिलिस्से वट्टमाणस्स अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स' । सादावेइत्थि-पुरिस -हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचसंठा-पंचसंघ०-मणुसाणु०-पसत्थविहाय०थिरादिछक्क-उच्चागो० उक्क० हिदि० कस्स ? तस्सेव पंचिंदियस्स सागार-जागार० ध्रुव नहीं हो सकते। पहले मूलप्रकृति स्थितिबन्ध प्रकरणमें शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय इन सात मूल प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धको सादि आदि चार प्रकार का बतलाया है और यहाँ केवल ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायके भेदोंमें ही यह घटित किया गया है. सो इसका कारण यह है कि आयुके विना शेष सात मूल प्रकृतियोंका अनादिसे निरन्तर बन्ध होता आया है,पर इन सबकी उत्तर प्रकृतियोंकी यह स्थिति नहीं है; इसलिए उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जिन कर्मों की उत्तर प्रकृतियोंमें यह व्यवस्था सम्भव हुई, उनमें ही उक्त प्रकारसे निर्देश किया है। यह श्रोधप्ररूपणा अचक्षुदर्शन और भव्य इन दो मार्गणाओंमें ही अविकल घटित होती है, क्योंकि ये मार्गणाएँ कादाचित्क नहीं है और क्रमसे क्षीणमोह व अयोगिकेवली गुणस्थानतक रहती हैं। इसलिए इनमें ओघके समान प्ररूपणा वन जाती है। केवल भव्यमार्गणामें ध्रुध विकल्प नहीं होता ; शेष कथन सुगम है । स्वामित्वप्ररूपणा ६८. स्वामित्वदो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दोप्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, गुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिरादि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थिति स्वामी कौन है ? जो पञ्चेन्द्रिय है, संशी है, मिथ्यादृष्टि है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकारजागृतश्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाममें अवस्थित है अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाला है,ऐसा चार गतिका अन्यतर जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादि छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो पञ्चेन्द्रिय है, साकार जागृत तत्प्रायोग्यसंक्लेशपरिणामवाला है और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ तत्प्रायोग्य संक्लेशरूप परि १. सेसाणं । उक्कस्ससंकिलिट्ठा चद्गदिया ईसिमझिमयां-गो. क०,गा० १३८ । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे तप्पाअोग्गसंकिलिहस्स उक्कस्सियाए हिदीए तप्पाओग्गसंकिलेसे वट्टमाणस्स । ६६. णिरयायु० उक्क० हिदिबंधो कस्स ? अएणदरस्स मणुसस्स वा तिरिक्खजोणिणीयस्स वा सणिण मिच्छादिहिस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागारजागार-सुदोवजुत्तस्स तप्पाओग्गसंकिलिहस्स उक्कस्सियाए आबाधाए उक्कस्सहिदि. वट्टमाणयस्स । तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क हिदि० कस्स ? अएण. मणुसस्स वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीयस्स वा सएिण० मिच्छादिहिस्स सागारजागार० तप्पाप्रोग्गविसुद्ध० उक्कस्सियाए आबाधाए उक्क० हिदिबं० वट्ट० । देवायु.' उक्क० द्विदिबं. कस्स ? अएणदरस्स पमत्तसंजदस्स सागार-जागारसुदोवजोगजुत्तस्स तप्पाप्रोग्गविसुद्धस्स उक्कस्सियाए आबाधाए उक्क० हिदिवं. बट्ट । ७०. णिस्यग-बेबि०-वेबि अंगोनं०-णिरयगदिपाश्रोग्गा० उक्क० हिदि० कस्स ? अएण. मणुसस्स वा पंचिंदियतिरिक्खस्स वा सएिण० मिच्छादिहिस्स सागार-जागारसुदोवजोगजुत्तस्स सव्वसंकिलिहस्स उक्क० ट्ठिदि० वट्टमाणस्स अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स वा । 'तिरिक्खगदि-अोरालिय-ओरालिय अंगोवं०-असंपत्तसेवट्टसंघ-तिरिक्खाणुपु०-उज्जोव० उक्क० हिदि कस्स० ? अएणदरस्स णिरयस्स णाममें अवस्थित है,ऐसा पूर्वोक्त चार गतिका संज्ञी जीव ही उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ६६. नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संशी है, मिथ्यादृष्टि है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकारजागृतश्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्यसंक्लेश परिणामवाला है और उत्कृष्ट आवाधाके साथ उत्कृष्टस्थितिबन्ध कर रहा है,ऐसा अन्यतर मनुष्य या तिर्यञ्चयोनि जीव नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संक्षी है, मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, तत्प्रायोग्यविशुद्ध परिणामवाला है और उत्कृष्ट आवाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है,ऐसा अन्यतर मनुष्य या तिर्यश्चयोनि जीवतिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्यविशुद्ध परिणामवाला है और उत्कृष्ट पाबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है,ऐसा अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ७०. नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संज्ञी है, मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, सबसे अधिक संक्लेश परिणामवाला है, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाला है,ऐसा अन्यतर मनुष्य या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च उक्त चार प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, औदारिक प्राङ्गोपार, असम्प्राप्तास्पाटिकासंहनन, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला १. 'देवाउगं पमत्तो'-गो० क०,गा० १३६ । २. णरतिरिया.... 'वेगुम्वियछक्कवियलसुहमतियं ।'-गो. क०,गा० १३७ । ३. सुरणिरया ओरालियतिरियदुगुज्जोवसंपत्तं ।'-गो० क०,गा.१३७ । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २५७ वा देवस्स वा मिच्छादिहि सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलिह० अथवा ईसिमज्झिमपरिणामस्स । 'देवगदि-तिएिणजादि-देवाणुपु०-सुहुम-अपज्जत्त-साधार० उक. हिदि० कस्स० १ अएण. मणुसस्स वा पंचिंदियतिरिक्खस्स वा सएिण. मिच्छादिहिस्स सागार-जागार० तप्पाअोग्ग० उकहिदि. तप्पाओग्गउक्कस्सए संकिलिहे वट्टमाणस्स । एईदिय-आदाव-थावर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएण. सोधम्मीसाणंतदेवेसु मिच्छादिहि. सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलिहस्स अथवा इसिमज्झिम० । 'आहार-आहार०अंगो० उक्क० हिदि. कस्स० ? अण्णदरस्स अप्पमत्तसंजदस्स सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलिह० पमत्ताभिमुहस्स । तित्थयर उक्क हिदि० कस्स० ? अण्णद० मणुसस्स असंजदसम्मादिहिस्स सागार-जागार० तप्पाओग्गस्स० मिच्छादिहिमुहस्स । है अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला है,ऐसा अन्यतर देव या नारकी जीव उक्त छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति, तीन जाति, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकास्वामी कौन है ? जो संशी है, मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य परिणामवाला है और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाममें अवस्थित है,ऐसा अन्यतर मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव उक्त आठ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला है,ऐसा सौधर्म और ऐशान कल्प तकके देवोंमेंसे अन्यतर देव उक्त तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आहारकशरीर और आहारक शरीर आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अभिमुख है,ऐसा अन्यतर अप्रमत्त संयत जीव उक्त दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमख है.ऐसा अन्यतर मनष्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव तीर्थङ्कर उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ यहाँ १४८ उत्तर प्रकृतियों से प्रत्येक प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार किया गया है। बन्धकी अपेक्षा पाँच बन्धन और पाँच संघातका पाँच शरीरमें अंत. भर्भाव हो जाता है तथा स्पर्शादिक २० के स्थानमें मूल चार लिये गये हैं तथा सम्यक् प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो अबन्ध प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इन अहाईस प्रकृतियोंके कम हो जाने पर कुल १२० प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । अतएव यहाँ इन्हीं १२० प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार किया गया है। यहाँ यह बात तो स्पष्ट ही है कि देवायु, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इन चार प्रकृतियोंके सिवा शेष ११६ प्रकृतियोंका उत्कृष्टस्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टि जीव ही करता है, क्योंकि इनके बन्धके योग्य उत्कृष्ट या अल्प,मध्यम १. परतिरिया....वेगुग्वियछक्कवियलसुहमतियं ।'-गो. क०, गा० १२७। २. देवा पुण एइंदियनादावं थावरं च । गो० क०,गा० १३८ । ३. 'आहारयमप्पमत्तविरदो दु।'-गो०० गा० १३६ । ५. 'तित्थयरं च मगुस्सो-गो०० गा० १३६ । प्रकृतिके ३ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ महाबंधे डिदिबंधाहियारे ७१. आदेसेण णेरइएमु पंचणा-णवदंसणा-असादावे-मिच्छत्त-सोलसक०-णवूस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-पांचिंदिय०-ओरालिय-तेजा०क०-हुंडसं०-ओरालि अंगो०-असंपत्तसेव०-वएण०४-तिरिक्वाणुपु०--अगुरु०४उज्जो-अप्पसत्थवि०-तस०४-अथिरादिलक्क-णिमिण-णीचागो-पंचंतरा० उक्क. परिणाम मिथ्यादृष्टिके ही होते हैं । उसमें भी किन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन गतिका जीव है.यह अलग-अलग बतलाया ही है। फिर भी,यहाँ प्रत्येक गतिका आश्रय लेकर विचार करते हैं नरकगति-५ शानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय और २६ मोहनीयका तथा नरकगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक, देवगतिद्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, आहारकद्विक, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और तीर्थङ्कर इन १८ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी ४९ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार नरकगतिमें कुल ९८ का ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । तथा तिर्यश्चायु,मनुष्यायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। कुल १०१ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। तिर्यञ्चगति-५ शानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय, २६ मोहनीय, देवायुके सिवा ३ आयुका तथा तिर्यञ्चगतिद्विक, औदारिकद्विक, आहारकद्विक, एकेन्द्रिय जाति, असंप्राप्ता टिकासंहनन, प्रातप, उद्योत, स्थावर और तीर्थङ्कर इन १२ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी शेष ५५ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार तिर्यञ्चगतिमें १०७ प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। तथा औदारिकद्विक, तिर्यश्चगतिद्विक, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत और स्थावर इन नौ प्रकृतियोंका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । कुल ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। मनुष्यगति–५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय, २६ मोहनीय, ४ आयुका तथा तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकद्विक, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन,आतप, उद्योत और स्थावर इन नौ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी ५८ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार मनुष्यगतिमें १११ प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अभिमुख हुए संक्लेश परिणामवाले अप्रमत्तसंयतके और तीर्थंकरका मिथ्यात्वके अभिमुख हुए असंयतसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। तथा तिर्यञ्चगतिमें गिनाई गई आदेश उत्कृष्ट स्थितिवन्धवाली ९ प्रकृतियोंका यहाँ भी आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। यहाँ सब प्रकृतियोंका बन्ध होता है। देवगति-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय, २६ मोहनीयका तथा नरकगतिद्विक, देवगतिद्विक, द्वीन्द्रिय आदि तीन जाति, वैक्रियिकद्विक, आहारकद्विक, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और तीर्थंकर इन १५ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी ५२ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार देवगतिमें कुल १०१ प्रकृतियोंका श्रोध उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । तथा तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और तीर्थकर प्रकृतिका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। कुल १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। ७१. आदेशसे नारकियोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुलरुघु चतुष्क, उद्योत, अप्रशस्तविहायो Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २५९ हिदि० कस्स ? अएणद० मिच्छादिहिस्स सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलि. अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स। सेसाणं उक्कस्स० हिदि० तस्सेव तप्पाओग्गसंकिलि० । तिरिक्खायु० उक्त हिदि० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादिहि० तप्पाओग्गविसुद्धस्स उक्कस्सियाए आबा [उक्क०] हिदि० वट्टमाणस्स। मणुसायु० उक्क० द्विदि० कस्स• ? अएण. सम्मादि० मिच्छादि तप्पाओग्गविसुद्धस्स उक्क आवा० उक्क० हिदि० वट्टमाणयस्स । तित्थयर० उक्क० हिदि० कस्स० ? असंजदसम्मादिहिस्स तपाओग्गसंकिलि। ७२. एवं सव्वासु पुढवीसु । णवरि चउत्थीबादीसु तित्थयरं पत्थि । सत्तमाए मणुसगइ-मणुसाणु:-उच्चागो० उक्क० डिदि० कस्स ? अण्ण० सम्मादिहिस्स तप्पाअोग्गसंकिलिह० मिच्छत्ताभिमुह । ७३. तिरिक्खेसु पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्त-सोलसकसा - णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-णिरयग०-पंचिंदिय०--तेजा-क०-हुडसंठा०--उ गति, त्रस चतुष्क, अस्थिरादिक छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि नारकी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वही जीव है। तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट बाबाधाके सात उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि नारकी तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्यविशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट आवाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि नारकी मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्यसंक्लेश परिणामवाला अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी है। ७२. इसी प्रकार सात पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चौथीसे लेकर सब पृथिवियोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है। तथा सातवीं पृथिवीमें मनुष्य गति, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूर्वी और उच्च गोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला और मिथ्यात्वके अभिमुख अन्यतर सम्यग्दृष्टि नारकी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-नरकगतिमें जितनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उनका नामनिर्देश पहिले कर आये हैं। यहाँ इतनी विशेष बात जाननी चाहिए कि तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध तीसरी पृथिवी तक होता है और सातवीं पृथिवीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्यग्दृष्टि नारकीके होता है। ७३. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय,नपुंसकवेद,अरति, शोक,भय, जुगुप्सा,नरकगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्र Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० महाबंधे दिदिबंधाहियारे व्वियअंगो०-वएण०४-णिरयाणु -अगुरु०४-अप्पसत्थवि०-तस०४-अथिरादिछक्क-- णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० पंचिंदिय० सएिण. मिच्छा. सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलिह० अथवा ईसिमझिमप० । सेसाणं तस्सेव पंचिंदिय० सएिण. मिच्छादि० सागार-जागार० तप्पाअोग्ग-संकिलि । देवायु० उक० हिदि० कस्स० ? अण्णदरस्स सम्मादिहि० तप्पाओग्गविसु० उक्क० आवा० । सेसाणं आयूणं ओघं । पंचिंदियतिरिक्ख०३ [तिरिक्खोघं] । ७४. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्ते पंचणाणावरणी०-णवदंसणा-असादावेमिच्छत्त-सोलसक०--रणवुस०--अरदि-सोग-भय-दुगु--तिरिक्खगदि--एइंदियजादि-- ओरालि-तेजा-क०-हुडसं०-वएण०४-तिरिक्खाणुपु०--अगुरु०-उप-थावर-सुहुमअपज्जत्त-साधार०-अथिरादिपंच०-णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदि. कस्स ? अण्ण० सएिणस्स सागार-जागार० उक० संकिलि० वट्टमाणस्स । सेसाणं तस्स चेव सएिण• तप्पाप्रोग्गसंकिलिह० उक्क० हिदि० वट्टमाण। दो आयु० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० सएिणस्स वा असएिणस्स वा तप्पाओग्गविसुद्धस्स। शस्त विहायोगति,सचतुष्क, अस्थिरादिक छह, निर्माण,नीचगात्र, और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है। पञ्चेन्द्रिय, संशी, मिथ्यादृष्टि, साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प,मध्यम परिणामवाला अन्यतर तिर्यश्च जीव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय, संशी, मिथ्यादृष्टि, साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वही जीव है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट आवाघाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा शेष आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च त्रिकों अपनी-अपनी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका स्वामी सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। ७४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवों में पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान वर्णचतुष्क, तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, गुरुलघु, उपधात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिरादिक पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर संशो जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी संशी, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला और उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला वही जीव है । दो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्यविशुद्ध परिणामवाला अन्यतर संशी या असंशी जीव दो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-तिर्यञ्च सामान्यके आहारकद्विक और तीर्थङ्करके विना कुल बन्धयोग्य १. मूलप्रतौ-तिरिक्खभंगो ३ पंचिंदिय-इति पाठः । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २६१ ७५. मणुस०३ आहार-अाहार०अंगो-तित्थयर०-आयु० चत्तारि श्रोधं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । मणुसअपज्जत्ता तिरिक्खअपजत्तभंगो।। ७६. देवगदीए पंचणा-णवदसणा०-असादा-मिच्छत्त-सोलसक०-णबुंस०-- अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्वगदि-एइंदि०-पंचिंदि-ओरालिय०-तेजा-क०-डंडसं०ओरालि०अंगो०-असंपत्तसेवट्टसंघ०-वएण०४-तिरिक्वाणुपु०-अगुरु०४-आदाउज्जो०अप्पसत्थविहा०-तस-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-अथिरादिलक्क-णीचागोद-पंचंतरा० उक्क -हिदि० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादिहि० सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणामस्स। दोआयु० तित्थयरं च णिरयभंगो। सेसाणं तप्पाओग्ग-संकिलि० मिच्छादिहि । प्रकृतियाँ ११७ हैं। इनमेंसे इसके १०७ प्रकृतियोंका श्रोधके समान उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और शेष रही देवायु तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक द्विक, असंप्रातासृपाटिकासंहनन, आतप, उद्योत और साधारण इन १० प्रकृतियों का आदेश स्थितिबन्ध होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें भी जान लेना चाहिये। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में पूर्वोक्त ११७ प्रकृतियों से देवायु, नरकायु और वैक्रियिक छह इन ८ प्रकृतियोंके कम कर देने पर कुल बन्धको प्राप्त होनेवाली १०६ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । सो इसके इन सब प्रकृतियोंका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि इन सब मार्गणाओं में किस अवस्थाके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है,इसका मूलमें निर्देश किया ही है। इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें जहाँ जिस अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उसका पृथक्-पृथक् निर्देश मूलमें किया है। ७५. मनुष्यत्रिकमें आहारकशरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, तीर्थकर प्रकृति और चार आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति बन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों में अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें सब अर्थात् १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है । इनमेंसे १११ का ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकद्विक, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, आतप, उद्योत तथा स्थावर इन ९ प्रकृतियोंका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । मनुष्य अपर्याप्तकोंका विचार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है; यह स्पष्ट ही है। ७६. देवगतिमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असंप्राप्तामृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिरादिक छह नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकास्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प,मध्यम परिणामवाला अन्यतर मिथ्याष्टि देव उक्त प्रक तियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयु और तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है, तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला मिथ्यादृष्टि देव है । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ७७. भवण-वाणवेत०-जोदिसि०-सोधम्मीसा० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा-मिच्छत्त-सोलसक०-णवुस-अरदि-सोग--भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदि०ओरालि०-तेजा-क० हुडसं०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगुरु०४-आदाउज्जो०-थावरबादर-पज्जत-पत्तेयसरीर-थिरादिपंच-णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदिवं० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादिहि० सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलिह. अथवा ईसिमझिमपरि० । सेसाणं तस्सेव सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलि० उक्कस्सहिदि० वट्टमा० । दोआयु० सोधम्मे तित्थयरं च देवोघं । एवं सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति विदियपुढविभंगो । ७८. अणादादि याव गवगेवजा त्ति पंचग्णा०-गवदंसणा०-असादावेमिच्छत्त-सोलसक--णवुस-अरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसगदि-पंचिंदियजादि-अोरालिया-तेजा-क-हुडसं०-ओरालिय०अंगो०-असंपत्तसेव०-वएण०४-मणुसाणु०अगुरु०४-अप्पसत्थवि०-तस०४-अथिरादिछक्क-णिमिण-णीचागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादि उक्क संकिलि० । सेसाणं तस्स चेव सागारजागार० तप्पाअोग्गसंकिलि । मणुसायु० उक० हिदि० कस्स० ? अएण० मिच्छादिहिस्स सम्मादिहिस्स वा तप्पाओग्गविसुद्धस्स । ७७. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा; तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, पातप,उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिरादिक पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला, अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला और उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला वही जीव है।वथादो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी और सौधर्मकल्पयुगलमें तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है। __७८. आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिरादिक छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वही जीव है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला, अन्यतर मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि उक्त देव मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्स-सामित्तपरूवणा ७६. अणुदिस याव सव्वह ति पंचणा-छदसणा-असादावे०-बारसक.पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छ-मणुसगदि-पंचिंदिय०-ओरालिय०-तेजा-क-समचदु०-ओरालिय अंगो०-बंजरिसमसं०-वरण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४--पसत्थवि०तस०४-अथिर-'असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज०-अजस०-णिमिण-तित्थयर०-उच्चागो०पंचत० उक्क० हिदि. कस्स० १ सव्वसंकिलि । सेसाणं तस्सेव सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलि । आयु० उक्क डिदि० कस्स० ? अण्ण० तप्पाओग्गविसुद्ध० उक. आबा० । ८०. एइंदिएमु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पवरि अएपद बादरस्स पज्जत्तस्स सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलि० । एवं बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्ता। एवरि यं उहिस्सदि तं गहणं कादव्वं । एदेण विधिणा बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिंदि० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। ७९. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? सबसे संक्लेश परिणामवाला उक्त देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वही जीव है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट श्राबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला उक्त देव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी है। विशेषार्थ देवों में कुल १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। उसमें भी एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध ऐशान कल्प तक ही होता है। भवनत्रिकोंमें तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध नहीं होता। देवोंमें पहले जिन १०१ प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा है, वह सहस्रार कल्प तक ही होता है। आगे अपने-अपने योग्य आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। तिर्यञ्चायु, तिर्यश्चद्विक और नीचगोत्रका बन्ध भी बारहवें कल्प तक ही होता है। आगे इनका बन्ध नहीं होता। इसलिए इतनी विशेषताओंको ध्यानमें रखकर देवोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व घटित करना चाहिए । मात्र नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, इसलिए वहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व सम्यग्दृष्टि देवोंके ही कहना चाहिए । यहाँ किस प्रकृतिका किस अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है यह सब विशेषतामूलमें कही ही है। ८०. एकेन्द्रियोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि साकारजागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त, अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जहाँ जिसका उद्देश्य हो वहाँ उसका ग्रहण करना चाहिए। इसी विधिसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। १. मूलप्रतौ-असुभदूभगदुस्सरमादेज- इति पाठः । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे __८१. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तेसु सव्वपगदीणं मूलोघं । वरि पंचिंदियगहणं कादच्वं । पंचिंदियअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । ८२. पुढविका णाणावरणादि अंतराइग त्ति उक्क डिदि० कस्स० १ अण्ण बादरस्स पज्जत्तस्स सागार-जागार० उक्क. संकिलि । सेसाणं सागार-जागार तप्पाओग्ग-संकिलि०। दोआयु० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० सागारजागार० तप्पाओग्गविसुद्ध० । एवं पंचकायाणं एइंदियभावेण णेदव्वं । णवरि तेउ-चाउकायाणं मणुसायु-मणुसगः-मणुसाणु०-उच्चागोदं णत्थि । विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंके नरकायु, देवायु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थकर इन ११ प्रकृतियोंके सिवा १०९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । सो एकेन्द्रियों में इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव होता है। यह स्पष्ट ही है। यहाँ पर अन्य जितनी मार्गणाएँ कही हैं,उनमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका विचार कर उनके स्वामित्वका कथन करना चाहिए । इन सबमार्गणाओंमें उक्त १०९ प्रकृतियोंकाबन्ध होता है । मात्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवों में उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते समय जिस प्रकार ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी योग्यताका निर्देश किया है,उसी प्रकार यहाँ भी उसका विचार कर लेना चाहिए । ८१. पञ्चेन्द्रिय और पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रियका ग्रहण करना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मूलोध प्ररूपणामें जो उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश करते समय गतियोंकी मुख्यतासे कहा है,वहाँ नरकगतिका या तिर्यश्चगतिका जीव ऐसा न कहकर पञ्चेन्द्रिय ऐसा सामान्य निर्देश करना चाहिए। शेष कथन सब मूलोधके समान है,यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ८२. पृथिवी कायिक जीवोंमें शानावरणसे लेकर अन्तराय तक.प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामो साकार जागृत तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला उक्त जीव है। दो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर बादर पर्याप्त पृथिवीकायिक जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार पाँच स्थावर कायिक जीवोंका एकेन्द्रिय जीवोंके समान कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्च गोत्रका बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-पहले एकेन्द्रियोंमें बन्ध योग्य १०९ प्रकृतियोंका निर्देश कर आये हैं । यतः पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रियोंके अवान्तर भेद हैं, अतः इनमें भी उन्हीं १०९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। मात्र अग्निकायिक और वायुकोयिक जीव इस नियमके अपवाद हैं। कारण कि उनमें मनुष्यायु, मनुष्यद्विक और उच्च गोत्रका बन्ध नहीं होता, इसलिए इन दो कायिक जीवोंमें १०५ प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। पहले लब्ध्यपर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी योग्यताका निर्देश कर आये हैं। उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए । अर्थात् ज्ञानावरणकी ५ आदि ६६ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३. तस-तसपज्जत्त० पज्जत्तभंगो | उक्कस्स सामित्तपरूवणा पंचिदियभंगो । तस अपज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्ख २६५ ८४. पंचमण० - तिरिणवचि० पंचरणा० एवदंसणा ०-सादा० - मिच्छत्त-सोलसक० - संग०-रदि-सोग-भय-दुगुच्छ-पंचिदिय ० - तेजा०-कम्मइय० - हुड संठावरण०४-अगुरु०४- अप्पसत्थवि ० -तस०४ - अथिरादिळक - णिमिण - णीचागो०- पंचतरा० उक्क० द्विदि० कस्स० ? अण्ण० चदुगदियस्स मिच्छादिडिस्स सागार - जागार ० उक्क० संकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणामस्स । सादावे ० - इत्थिवे ० - पुरिस०-हस्सरदि- मसगदि - पंचसंठा० - पंचसंघ० - मणुसा०--पसत्थवि० - थिरादिछक - उच्चागो० उक्क० द्विदि० कस्स० १ अरणदर० चदुगदियस्स मिच्छादिहिस्स सागार - जागार ० तप्पाग्गसंकिलि० । ८५. रियगदि वेडव्वि ० वेडव्वि ० अंगो० - णिरयाणु० उक० डिदि ० कस्स० ? द० तिरिक्खस्स वा मणुसस्स वा मिच्छादि० सागार - जा० उक्क०संकिलि० । तिरिक्खगदि - ओरालि० - ओरालि ० अंगो० - संपत्त सेव० --तिरिक्खाणुपु० -- उज्जोव ० उक्क० हिदि० कस्स ० १ अणद० देवस्स वा रइगस्स वा मिच्छादि० सागार - जा० संक्लेश परिणामों से होता है । साता वेदनीय आदि ४१ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य संक्लेश परिणामोंसे होता है और मनुष्यायु व तिर्यञ्चायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामोंसे होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ८३. सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है । तथा स पर्याप्त जीवोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्याप्तकोंके समान है । ८४. पाँचो मनोयोगी और तीन वचन योगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर श्रादिक छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच श्रन्तरायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला चार गतिका मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । साता वेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, मनुष्य नुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादिक छह और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर चार गतिका जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। 1 ८५. नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर तिर्यञ्च अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्च गति, औदारिकशरीर, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ठ ३४ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे 1 उक्क० संकि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणा० । चदुराणं युगाणं ओघं । एइंदिय०आदावथावर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० ईसारांतदेव० मिच्छादिट्टि० सागार- जा० उक्क०संकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणा० । देवगदि - तिणिजादिदेवाणुपु०-सुहुम-अपज्जत्त-साधार० उक० हिदि० कस्स ० १ अरणदर० मणुसस्स वा तिरिक्वस्स वामिच्छादिडि० सागार- जा० तप्पा ओग्गसंकिलि० । आहार० - आहार० अंगो० - तित्थयरं श्रधं । वचिजो० असच्चमो० सो चेव भंगो । वरि उक्कस्सI संकिलिद्वाणं तप्पा ओग्गसंकिलिद्वाणं च अपद० सरिणस्स त्ति भाणिदव्वं । ०-उप० ८६. कायजोगि॰ मूलोघं । ओरालियका • मणुसपज्जत्तभंगो । रावरि मणुस्सस्स वा तिरिक्खस्स वा पंचिंदिय० सरिण० त्ति भाणिदव्वं । ओरालियमि० पंचरणा०णवदंसणा०-सादावे०-मिच्छत्त- सोलसक० स ० - अरदि-सोग-भय-दुगु० -तिरिक्खगदि - एइंदि० - ओरालि ० -तेजा० क० - हुडसं ० चरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगुरु ०थावर मुहुम-अपज्जत्त-साधार०-अथिरादिपंच०-णीचागो० णिमिण-पंचतरा० उक्क० संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला अन्यतर देव और नारकी मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। चार आयुओंके उत्कृष्ट स्थिति-" बन्धका स्वामी श्रोघके समान है । एकेन्द्रियजाति, श्रातप और स्थावर के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला श्रन्यतर ऐशान कल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति, तीन जाति, देवगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जीव उक्त प्रकृतियोंके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा श्राहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी के समान है । वचनयोगी और असत्य मृषावचनयोगी जीवोंके इसी प्रकारका भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि यहाँपर उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला और तत्प्रायोग्य संक्केश परिणामवाला अन्यतर संशी जीव ऐसा कहना चाहिए । विशेषार्थ - पाँचौं मनोयोग और सत्य, असत्य, तथा उभय वचनयोग संक्षी पञ्चेन्द्रियके होते हैं। तथा सामान्य और अनुभय वचनयोग द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर होते हैं, पर यहाँ उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार चल रहा है, इसलिए इन दोनों वचनयोगोंकी अपेक्षा संज्ञी जीवके हो उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करना चाहिए । यहाँ सब योगों में बन्ध १२० प्रकृतियों का ही होता है। शेष विशेषता मूलमें कही ही है । ८६. काययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। श्रदारिककाययोगी जीवोंका भङ्ग मनुष्य पर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँपर पञ्चेन्द्रिय संशी, मनुष्य और तिर्यञ्च जीव स्वामी हैं, ऐसा कहना चाहिए । श्रीदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, ऋरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णंचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदिक पाँच, नीच गोत्र, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परि Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स सामित्तपरूवणा २६७ हिदि० कस्स० ? श्रएणदर मलुसस्स वा तिरिक्खस्स वा सागार- जा० उक्क० संकिलि० | देवगदि०४ - तित्थयर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्पद० सम्मा० तपाओग्गसंकलि० उक० संकिलि० वट्ट० । सेसाणं उक्क० हिदि० कस्स० ? tro मणुस० तिरिक्ख० पंचिदिय० सरिण ० सागार - जा० संकिलि० । दो आयु० मणुस पज्जत्तभंगो । तप्पाग्ग ८७. वेडव्विये पंचरणा० - रणवदंसणा ० - असादा०-मिच्छत्त-सोलसक०स०अरदि-सोग-भय-दुगु० - तिरिक्खग ०- ओरालि ० तेजा क० - हुडसंठा० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु०-अगु०४- उज्जोव ० - बादर- पज्जत्त-पत्तेयसरीर - अथिरादिपंच० - णिमिणणीचागो०- पंचंत राइगाणं उक्क० द्विदि० कस्स० ? अणद० देवस्स वा सहस्सारंतस्स रइगस्स वा मिच्छादि० सागार - जा० उक्क० संकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरि० । णामवाला अन्यतर मनुष्य और तिर्यश्च उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर मनुष्य और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय संशी श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा दो आयुओंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है । । विशेषार्थ - काययोग चारों गतियों में संभव है, इसलिए काययोगमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व श्रोघके समान बन जाता है। श्रदारिककाययोग तिर्यञ्च और मनुष्योंके ही होता है, इसलिए इसमें श्रधके समान सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व नहीं प्राप्त होता । अतः जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व श्रोघसे मनुष्य और तिर्यञ्चोके या मनुष्योंके कहा है, वह तो उसी प्रकार कहना चाहिए और जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व चार गतिके जीवोंके कहा है वह देव और नारकी के न कहकर केवल मनुष्य और तिर्यञ्चोंके ही कहना चाहिए। तथा जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी देव या देव और नारकी जीव कहा है, उनका स्वामी मनुष्य और तिर्यञ्चको कहना चाहिए। मात्र उनका इस योगमें आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है; इतना विशेष जानना चाहिए। औदारिकमिश्र काययोग भी मनुष्य और तिर्यञ्चके ही होता है। इसमें नरकायु, देवायु, नरकद्विक और आहारकद्विकके सिवा ११४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । शेष विशेषता मूलमें कही ही है । यहाँ जो खास बात ध्यान देने योग्य है, वह यह कि श्रदारिकमिश्र काययोगमें देवचतुष्कका बन्ध मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व सम्यग्दृष्टि जीवके घटित करके बतलाया है । ८७. वैक्रियिककाययोगमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरोर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिरादिक पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला अन्यतर सहस्रार कल्प तकका Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सादावे०-इत्थिवे-पुरिस-हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचसंठा-पंचसंघ०-मणुसाणु०पसत्थवि०-थिरादिछक्क०-उच्चागो उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्ण. पाणावरणभंगो । णवरि तप्पाओग्गसंकिलि०।। ८८. तिरिक्खायु० उक्क हिदि० कस्स. ? अएण० देवस्स वा णेरइगस्स वा मिच्छादि० तप्पाअोग्गविसुद्ध० । मणुसायु० उक्क० हिदि० कस्स. ? अएणद. देवस्स वा णेरइगस्स वा सम्मादिहिस्स वा मिच्छादि० तप्पाअोग्गविसुद्ध । तित्थयर० उक्क० हिदि कस्स० ? अण्णद. देवस्स वा गेरइगस्स वा सम्मा दिहिस्स उक्क संकिलि । एइंदि०-आदाव-थावर० देवोघं । पंचिंदिय-ओरालियअंगो०-असंपत्तसेव०-अप्पसत्थवि०-तस-दुस्सर० उक्क० द्विदि० कस्स० ? अएणदर० देवस्स सणक्कुमार याव सहस्सारंतस्स णेरइयस्स वा मिच्छादि० सागार-जा उक्क० संकिलि० । एवं चेव वेउव्वियमिस्स० । णवरि आयु० णत्थि । देव अथवा नारकी मिथ्यादृष्टि वैक्रियिक काययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी है । सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादिक छह और उच्च गोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर शानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला नारकी और देव जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। इतनी विशेषता है कि सत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वैक्रियिक काययोगी जीव इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ८. तिर्यञ्च आयुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर देव और नारकी मिथ्यादृष्टि वैक्रियिक काययोगी जीव तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर देव और नारकी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि वैक्रियिक काययोगी जीव मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर देव और नारकी सम्यग्दृष्टि वैक्रियिक काययोगी जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रिय आतप और स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य देवोंके समान है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका सहनन, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है १ साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकका देव और नारकी मिथ्यादृष्टि वैक्रियिक काययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्म का बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-वैक्रियिक काययोग देव और नारकियोंके होता है। इसमें बन्धयोग्य प्रकतियाँ १०४ हैं। इनमेंसे एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंका बन्ध नरकगतिमें नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी देव ही होता है। शेष सब प्रकृतियोंका बन्ध नारकी और देव दोनोंके होता है। इसलिए उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी देव और नारकी दोनों प्रकारके जीव कहे हैं। वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकस्स-सामित्तपरूषणा २६६ ८६. आहार-आहारमि• पंचणा०-छदंसणा-असादावे०-चदुसंज-पुरिसअरदि-सोग-भय-दुगु-देवगदि-पंचिंदिय-वेविय-तेजा-क-समचदु०-वेवियअंगो०-वएण०४-[देवगइपाओग्गाणुपुन्वि-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-अथिर-असुभसुभग-सुस्सर-आदे०-अजस-णिमिण-तित्थय०-उच्चागो०-पंचंतरा० उक्क हिदि० कस्स० १ अण्ण. सागार-जा० उक० संकिलि । सादावे०-हस्स-रदि०-थिर-सुभजस० उक० हिदि. कस्स० १ अण्ण. सागार-जागार० तप्पाअोग्गसंकिलि०। देवाउ० उक्क हिदि० कस्स० । अएणद० पमत्तसंज. सागार-जा० तप्पाओग्गविसुद्ध। १०. कम्मइग० पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्त-सोलसक०-गवुस०अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खग-ओरालि-तेजा०-क०-हुडसं०-वएण०४-तिरि-- आयुबन्ध नहीं होता, इसलिए पूर्वोक्त १०४ प्रकृतियों से तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु इन दो आयुओंको कम कर देने पर बन्ध योग्य कुल प्रकृतियाँ १०२ शेष रहती हैं। इनका वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें बन्ध होता है । शेष सब विशेषता मूलमें कही ही है। ८९. आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चे न्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-प्रमत्तसंयत जीवके ६३ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग छठे गुणस्थानमें ही होते हैं, इसलिए इनमें भी इन्हीं ६३ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। उसमें भी इन दोनों योगों में किन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है यह सब विशेषता मूलमें कही ही है। आहारक मिश्रकाययोगमें आयुबन्ध नहीं होता,यह बात गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ११८में कही है, पर यह बात वहाँ किस आधारसे कही गई है. यह स्पष्ट नहीं होता। 'महाबन्ध'मल ग्रन्थ है। इसमें तो सर्वत्र आहारकमिश्रकाययोगमें श्रायुबन्धका निर्देश किया है। यही कारण है कि यहाँ भी देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व दोनों योगवाले जीवोंके कहा है। ९०. कार्मणकाययोगमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, १. संकिलि० देवगदि० ४ उक० इति पाठः । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० महाबंधे दिदिबंधाहियारे क्खाणु०-अगु०-उप०-अथिरादिपंच-णिमिण-णीचागोद-पंचतरा० उक्क० हिदि. कस्स० ? अण्ण• चदुगदियस्स पंचिदियस्स सपिणस्स मिच्छादि सागार-जा. उक्क० संकिलि०। सादावे-इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचसंठा-पंचसंघ०मणुसगदिपाओग्ग०-पसत्थवि०-थिरादिछक्क-उच्चागो० उक्क० हिदि० कस्स. ? अण्णद० चद्गदियस्स पंचिंदियस्स सएिणस्स मिच्छादि० सागार-जा. तप्पाओ० संकिलि। ११. देवगदिचदु० उक्क० हिदि० कस्स० १ अण्ण. दुगदियस्स सम्मादिहिस्स सागार-जा० उक्क० संकिलिक । तित्थय० उक्क हिदि. कस्स० १ अएणद० तिगदियस्स सम्मादि० सागार-जा० उक्क० संकिलि । एइंदिय०-श्रादाव-थावर० · उक्क० हिदि कस्स० १ अण्ण० ईसाणंतदेवस्स सागार-जागार उक्क. संकिलिः । वरि एइंदि०-थावर० तिगदियस्स ति भाणिदव्वं । बीइंदि०-तीइंदि०-चदुरिंदि० उक्क० हिदि० कस्स० १ अएणद० तिरिक्खस्स वा मणुसस्स- वा सागार-जा. तप्पा संकिलि०। पंचिंदि०-ओरालि अंगो०-असंपत्तसेव०-अप्पसत्य-तसदुस्सर० उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण० देवस्स वा सहस्सारगस्स ऐरइगस्स वा अस्थिर आदिक पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर चारगतिका पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि कार्मणकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, स्थिरादिक छह और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतेर चार गतिका पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि कार्मणकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ९१. देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकारजागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर दो गतिका सम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी जीव उक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तोर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकारजागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर तीन गतिका सम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रियजाति, श्रातप और स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? साकारजागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामावाला अन्यतर ऐशान कल्पतकका देव उक्त प्रकृतियोंके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय और स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तीन गतिका जीव है;यहाँ कहना चाहिए । द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य कार्मणकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक आंगोपांग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस और दुस्वर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर सहस्रार कल्पका देव और नारकी मिथ्यादृष्टि कार्मण काययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २७१ मिच्छादि० सागार०-जा० सउक्कस्ससंकिलि । पर०-उस्सा०-उज्जोव-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरी उक्क० हिदि० कस्स० १ अएणद. देवस्स वा गैरइयस्स वा सागारजा० उक्क० संकिलि० । सुहुम०-अपज्ज०-साधार० उक्क हिदि० कस्स० १ अएणद. मणुसस्स वा तिरिक्खस्स वा पंचिंदि० सएिण. मिच्छादि० सागार-जा. उक्क० संकिलि। १२. इत्थिवे. पंचणा-णवदंस-असादावे-मिच्छत्त-सोलसक०-णवुसग०अरदि-सोग-भय-दुगु-तेजा-क-हुडसं०-वएण०४-अगुरु०४-बादर-पज्जत्त-पत्तेय - अथिरादिपंच-णिमिण-णीचागो-पंचंत० उक० हिदि० कस्स० १ अण्ण तिगदियस्स सएिणस्स मिच्छादि० सागार-जा० उक० संकिलि० अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स । सादावे-इत्थि-पुरिस-हस्स-रदि-मणुसगदि-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०छस्संघ०-मणुसाणु०-पसत्यवि०-थिरादिछक्क-उच्चा० उक्क हिदि० कस्स० १ अण्ण. तिगदियस्स सएिणस्स सागार-जा० तप्पाओ० उक०संकिलिः । ६३. णिरयायु० उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण. मणुसस्स वा तिरिक्खजोणिणियस्स वा सएिणस्स मिच्छादि० सागार-जा० तप्पाओग्गसंकिलि० उक्लस्सिपरघात, उच्छवास, उद्योत, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर देव और नारकी कार्मणकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर मनुष्य और तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय संक्षी और मिथ्यादृष्टि कार्मणकाययोगी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-कार्मणकाययोगमें चारों आयु, नरकद्विक और आहारकद्विक इन ८ प्रकतियोंके सिवा ११२ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। शेष विशेषता मूलमें कही ही है। ९२. स्त्रीवेदमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिरादिक पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प,मध्यम परिणामवाला अन्यतर तीन गतिका संशी मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदिक छह और उच्च गोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर तीन गतिका संशी स्त्रीवेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ९३. नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला और उत्कृष्ट आवाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें विद्यमान अन्यतर मनुष्य और तिर्यश्चयोनि संशी मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीव नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी जानना चाहिए । इतनी Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ महाबंधे हिदिबंधाहियारे याए आबाधाए उकस्सहिदि० वट्ट० । एवं तिरिक्ख-मणुसायणं । णवरि तप्पाओग्गविमुदस्स त्ति भाणिदव्वं । देवायुग० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणद० पमत्तसंजद० तप्पाअोग्गविसुद्धस्स उक्कस्सियाए आबाधाए उक्क हिदि० वट्ट । ६४. णिरयगदि-पंचिंदियजादि-वेउन्वि०-वेउवि अंगो०---णिरयाणु०-अप्पसत्यविहा०-तस-दुस्सर० उक्क० द्विदि कस्स० ? अण्णद० मणुसस्स वा तिरिक्खस्स वा सएिणस्स सागार-जा० उक्क संकिलिक अथवा ईसिमझिमपरि० । तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि०-तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०-थावर० उक्क० हिदि० कस्स. ? अएणदरीए सोधम्मीसाणंताए देवीए मिच्छादि सागार-जा० उक्क० संकिलि० अथवा ईसिमझिमपरिणा० । देवगदिदुग-तिरिणजादि-सुहुम-अपज्जत्त-साधारण उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणदरीए मणुसिणीए वा तिरिक्खिणीए वा सएपीए मिच्छादि० तप्पाओग्गसंकिलि० । आहार-आहार०अंगो० उक्क हिदि० कस्स०? अएण. अप्पमत्तसंजदस्स सागार-जा० उक्कस्ससंकिलि• पमत्ताभिमुहस्स। तित्थयर० उक्क० हिदि० कस्स० १ अण्णद० मणुसीए असंजदसम्मादिट्टीए सागार-जा० उक्कस्ससंकिलि । [एवं चेव पुरिसवेदे । एवरि सगविसेसो जाणिय भाणिदव्यो । विशेषता है कि तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला स्त्रीवेदी जीव इन दोनों आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है ऐसा यहाँ कहना चाहिए। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट पाबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें विद्यमान अन्यतर प्रमत्तसंयत स्त्रीवेदी जीव देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ६४. नरकगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, वैकियिक प्राङ्गोपाङ्ग, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस और दुस्वर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला अन्यतर मनुष्य और तिर्यश्च संशी स्त्रीवेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत और स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाली अथवा अल्प,मध्यम परिणामवाली अन्यतर सौधर्म और ऐशान कल्पकी देवी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगतिद्विक, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाली अन्यतर मनुष्यिनी और तिर्यचिनी संक्षी मिथ्यादृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी है । आहारक शरीर और आहारक प्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकास्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला और प्रमत्त संयत गुणस्थानके अभिमुख हुश्रा अन्यतर अप्रमत्तसंयत स्त्रीवेदी जीव उक्त दोनों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर मनुष्यनी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार पुरुषवेदमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी विशेषता जानकर कथन करना चाहिए । विशेषार्थ-स्त्रीवेदमें ओघके समान १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है । मात्र नारकियों में - 7 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सं सामितपरूवणा ५. सगवेदे पंचरणारणा० - रणवदंसरणा० श्रसादा०-मिच्छत्त-सोलसक०'सगवे -अरदि-सोग-भय-दुर्गुछा तेजा० -कम्म० - हुंड० - वरण ०४- अगुरु० ४ - बादरपज्जत्त- पत्तेय ० -अथिरादिपंच-रिणमिण-णीचागो ० - पंचंत ० उक० हिदि ० कस्स १ stro मस्सस्स वा तिरिक्खस्स वा ] रोरइयस्स वा पंचिंदियस्स सरिणस्स मिच्छादि ० सागार- जा० उक्क० । सादादीणं एवं चेव । गिरयगदिचदुक्कस्स उक्क ० हिदि० कस्स ० १ अरणद मणुसस्स वा तिरिक्खस्स वा पंचिंदि० सरिएस्स मिच्छादि ० सउक्कस्ससंकिलि० । तिरिक्खगदि-ओरालि:रालि० गो० - संपत्तसेवÉ० - तिरिक्खाणु० - उज्जोव ० उक्क० ट्ठिदि० कस्स ० १ arure रइय० मिच्छादि० सागार-जा० उक्क० संकिलि० अथवा इसिमज्झिमपरिणा । देवगदि - एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदिय० देवाणुपु० - आदाव- थावरसुहुम० - अपज्ज० - साधार० उक० डिदि० कस्स० १ अरण० मणुस० तिरिक्ख० पंचिंदि० सरिण० मिच्छादि० सागार-जा० तप्पात्रोग्गसंकलि० । सेसा पगदीर्ण मूलोघं । सागार-जा० २७३ नपुंसकवेदका उदय नहीं होता, इसलिए इनके सिवा शेष तीन गतिके जीव जहाँ जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है, यथायोग्य स्त्रीवेदमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी कहे गये हैं । पुरुषवेदका उदय भी नारकियोंके नहीं होता, इसलिए इनमें भी स्त्रीवेदी जीवोंके समान शेष तीन गतिके जीव सब प्रकृतियों के यथायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धके खामी हैं। अन्तर इतना है कि स्त्रीवेदके स्थानमें इनमें पुरुषवेद कहना चाहिए। तथा अन्य विशेषताएँ भी विचारकर उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करना चाहिए । ९५. नपुंसक वेदमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुडसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? कोई एक मनुष्य, तिर्यञ्च या नारकी जो पञ्चेन्द्रिय है, संशी है, मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । साता श्रादिका इसी प्रकार है। नरकगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और अपने योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला श्रन्यतर मनुष्य और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि नपुंसक वेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चगति, श्रदारिकशरीर, श्रदारिकशरीर श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, और उद्योत प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प, मध्यम परिणामवाला अन्यतर नारी मिथ्यादृष्टि नपुंसकवेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, श्रातप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर मनुष्य और तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि नपुंसकवेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोधके समान है । Jain Education Internation ३५ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ६६. अवगदवे० पंचणा०-चदुदंस०-सादावे-चदुसंज-जसगित्ति-उच्चागो०पंचंत० उक्क० हिदि० कस्स ? अएण. उवसमादो परिवदमाणस्स अणियट्टिबादरसांपराइयस्स से काले सवेदो होहिदि त्ति णदुंसगवेदाणुवहिस्स ।। ६७. कोधादिष्ट मूलोघं । मदि-सुद० मूलोघं । णवरि देवायु० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणद० मणुसस्स वा मणुसिणीए वा सागार-जा० तप्पाओग्गविसुद्धस्स । विभंगे मूलोघं । देवायु० मदिभंगो।। ८. आभि०-सुद०-अोधि० पंचणा-छदंस० असादा०-बारसक-पुरिसअरदि-सोग-भय-दुगुपंचिंदिय०-तेजा-का-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि०तस०४-अथिर-असुभ-सुभग--सुस्सर-आदे०--अजस-णिमिण-उच्चागो०-पंचंतरा० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणद० चदुगदियस्स असंजदसम्मादिहिस्स सागार-जा० उक्क०संकिलि• मिच्छत्ताभिमुहस्स चरिमे वट्टमाणयस्स । सादावे०-हस्स-रदि-थिर विशेषार्थ- नपुंसक वेद तीन गतियों में होता है,मात्र देव नपुंसक नहीं होते। इसलिए यहाँ तीन गतियोंकी अपेक्षा नपुंसकवेदमें जहाँ जिन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है,उसका निर्देश किया है । नपुंसकवेदमें भी १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है,यह स्पष्ट ही है। .९६, अपगतवेदमें पाँच शामावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर नपुंसक वेदसे उपशम श्रेणी पर चढ़कर गिरनेवाला अनिवृत्ति बादर साम्परायिक जीव जो तदनन्तर समयमें सवेदी होगा,वह अपगत वेदी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-अपगतवेदमें उक्त २१ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। फिर भी वह नपुंसकवेदसे उपशम श्रेणीपर चढ़कर गिरनेवाले अनिवृत्ति जीवके सवेदी होनेके पूर्व समयमें होता है, क्योंकि नपुंसकवेदका उपशम सर्वप्रथम और उदय अन्य वेदोंकी अपेक्षा बाद में होता है, इसलिए इस वेदसे अवेदी हुए जीवके सवेदी होनेके एक समय पूर्व अन्य वेदोंसे अवेदी हुए जीवकी अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है। ९७. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है । मत्यशानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका भङ्ग मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर मनुष्य और मनुष्यिनी, मत्यज्ञानी और श्रुताशानी जीव देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विभङ्गशानमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोधके समान है । देवायुका भक्त मत्यशानियोंके समान है। ९८. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतशानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति,त्रसचतष्क, अस्थिर, प्रथम, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला मिथ्यात्वके अभिमुख अन्तिम समयमें विद्यमान अन्यतर चार १. मूलप्रतौ कोडाकोडी मूलोघं इति पाठः । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-सामित्तपरूषणा २७५ सुभग-जसगि० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० चदुगदियस्स असंजदसम्मादि. सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलि. सत्याणे वट्टमाणयस्स। 88. देवायु० आहार-आहार अंगो० तित्थयरं च ओघ । मणुसायु० उक्क० हिदि कस्स० ? अण्ण देवस्स वा णेरइयस्स वा ति भाणिदव्वं । मणुसगदिओरालिय०-ओरालिय अभो०-वजरिस-मणुसाणु० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएणदर० देवस्स वा णेरइगस्स वा सागार-जा० उक्क०संकिलि० मिच्छताभिमुहस्स चरिमे उकस्सए हिदि० वट्टमाणयस्स । देवगदि०४ उक्क० हिदि० ६ स० ? अएण. असंजदसम्मादि० तिरिक्खस्स वा मणुसस्स वा सागार-जा० रक्क०संकिलि. मिच्छत्ताभिमुहस्स। गतिका असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेद. नीय, हास्य, रति, स्थिर, सुभग और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो चार गतिका असंयत सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और स्वस्थानमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ९९. देवायु, आहारक शरीर, अहारक आलोपान और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ?. अन्यतर देव और नारकी मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। ऐसा यहाँ कहना चाहिए । मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, मिथ्यात्वके अभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि, तिर्यश्च और मनुष्य जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-तीन अक्षानोंमें आहारकद्विक और तीर्थक्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। इनके सिवा ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, पर देवायुके सिवा इन सबका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टिके ही होता है, इसलिए इनमें देवायुके सिवा शेष ११६ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी ओघके समान कहा है। देवायुका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें अधिकसे अधिक स्थितिबन्ध ३१ सागर होता है,सो भी वह किसी भी मिथ्याष्टिके नहीं होता; किन्तु परम विशुद्ध परिणामवाले द्रव्यलिङ्गी साधुके होता है, इसलिए देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके सम्बन्धमें इतनी विशेषताजाननीचाहिए। आभिनिबोधिक ज्ञान आदि तीन सम्यरझानोंमें आहारकद्विकको मिलाकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्धको प्राप्त होनेवाली ७७ प्रकृतियोंके साथ कुल ७९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। सो इनमेंसे आहारकद्विकके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामित्व अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें जानना चाहिए । मात्र आहारकद्विकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व प्रमादके सम्मुख हुए अप्रमत्त संयत जीवके उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों के होने पर होता है। शेष विशेषताका निर्देश मूलमें किया ही है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे C 0 ●-- १००. मणपज्जवणाणीसु पंचरणा० - इदंसणा असादा० चदुसंज० - पुरिसवे ० अरदि- सोग-भय-दुगु० - देवर्गादि - पंचिंदि० - वेड व्विय० - तेजा० क० - समचदु० -- वेडव्वि ० अंगो०-वण्ण०४- देवाणुपु० - अगुरु ०४- पसत्थवि ० -तस० : ४- अथिर-सुभ-सुभग- सुस्सरआदे०- ० अजस० - रिणमिण - उच्चागो० पंचंत० उक्क० द्विदि० कस्स० १ अरण० पमत्तसंजदस्स सागार - जा० उक्क० संकिलि० उक्कस्सए द्विदिबंधे वट्टमाणस्स असंजमा - भिमुस्स चरिमे उकस्सए विदिबं० । सादावे ००-हस्स-रदि-थिर- सुभ-जसगित्ति ० उक्क० द्विदि० कस्स० १ अरण० पमत्तसंज० सत्थाणे सागार - जा० तप्पात्रोग्गसंकिलि० । २७६ १०१. देवायु० - आहार० - आहार • अंगो०- तित्थयरं उक्क० द्विदि० कस्स ० १ पत्तसंजदस्स सागार जा० उक्क० संकिलि० संजमाभिमुहस्स चरिमे उकस्सए हिदिबंधे वट्टमाणयस्स । एवं संजमाणुवादेण संजद० - सामाइ ० -छेदो० । वरि पढमदंडओ मिच्छात्ताभिमुहस्स । परिहारस्स वि तं चैव । णवरि सव्वाओ पगदीओ उक्कस्स संकिलि० सामाइय-छेदोव ० अभिमुहस्स भारिणदव्वं । १००. मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है, असंयमके श्रभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्त संयत जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । १०१. देवायु, आहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो प्रमत्तसंयत जीव साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, असंयमके श्रभिमुख है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार संयम मार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेता है कि प्रथम दण्डककी कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी यह जीव मिथ्यात्वके अभिमुख होने पर होता है । परिहारविशुद्धिसंयत जीवों के भी इसी प्रकार कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जो परिहारविशुद्धिसंयत जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिगामवाला हो और सामायिक छेदोपस्थापना के श्रभिमुख हो, वह सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है; ऐसा यहाँ कहना चाहिए। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स- सामित्तपरूवणा २७७ पंचरणा० चदुदं ० -सादावे ० - जसगि ० उच्चागो० - पंचंतरा० उवसामगस्स परिवदमाणस्स से काले अणिट्टी १०२. मुहुम संपरा ० उक्क० द्विदि० कस्स० ? अएण रोहिदि ति । १०३. संजदासंजद० पंचणा० छदंसणा ० - असादा० अट्ठक० - पुरिस०-अरदिसोप-भ -भय-दुगु० - देवर्गादि-पंचिंदिय० - वेडव्विय० -तेजा ० क० - समचदु० - वेडव्वि० अंगो० वण्ए०४- देवारपु० - अगु०४- पसत्थवि ० -- तस ०४- अथिर-- असुभ - सुभग-- मुस्सर-आदे० अजस० - णिमिरण - उच्चागो०- पंचंत० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्ण० तिरिक्ख० मरणुस - सागार - जा० उक्क० संकिलि० मिच्छत्ताभिमुहस्स । सादावे ० - हस्स-रदि-थिरसुभ-जसंग ० उक्क० ट्ठिदि० कस्स ० १ अरण० सत्थाणे तप्पा ओग्गसंकिलि० । देवायु० उक्क० द्विदे० कस्स० १ अरण० तिरिक्ख० मणुस० तप्पाओग्गविसुद्ध० । तित्थय ० विश्नार्थ - मन:पर्ययज्ञान में प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें बन्धको प्राप्त होनेवाली ६३ प्रकृतियाँ और आहारकद्विक इन ६५ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी संबंधी विशेषताका निर्देश मूलमें किया ही है। संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थपना संयत जीवोंके कथनमें मन:पर्ययज्ञानीके कथनसे कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि ये छठे गुणस्थानमें होते हैं । मात्र मन:पर्ययज्ञानमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्तष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन करते समय असंयमके सम्मुख होने पर ऐसा कहे और रक्त संयमोंमें मिथ्यात्वके सम्मुख होने पर ऐसा कहे । कारण स्पष्ट है । परिहारविशुद्धि र च्युत होकर जीव सामायिक या छेदोपस्थापनाको प्राप्त होता है, इसलिए इसमें प्रथम दरक के स्वामीका कथन करते समय इन दोनों संयमोंके सम्मुख हुए जीवके उत्कृष्ट स्वामित्व रहना चाहिए । I १०२. सूक्ष्साम्पराय संयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अशामक जीव जो उपशम श्रेणिसे गिर रहा है और तदनन्तर समय में श्रनिवृत्तिकरण गुणस्तनको प्राप्त होगा, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है १०३. संयतास्यत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, आठकषाय, पुरुषवेद, अरति शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरी, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णं चतुष्क, देवगति प्रायोम्यानुपूर्वी, गुरुलघुतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, स चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, अयशःकी, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है औ मिथ्यात्वके श्रभिमुख है, वह जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट · स्थितिबन्धका स्वामी है । रातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धव स्वामी कौन है ? अन्यतर संयतासंयत जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है और तत्प्रायोग्य संप्लेश परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके उत्दृष्टस्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो साकार Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ महाबंधे दिदिबंधाहियारे उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण. मणुसस्स सागार-जा० उक्क० संकिलि. असंजमाभिमुहस्सा । असंजद० मूलोघं । एवरि देवायु० मदि०भंगो।। १०४. चक्खु०-अचक्खु० मूलोघं । श्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो । १०५. किरणाए णवुसगभंगो। णवरि देवायु० उक्कहिदि० कस्स० अण्ण० मिच्छादि० सागर-जा० तप्पाओग्गविसुद्धस्स । पील-काऊणं पंचणागवदंसणा-असादा०-मिच्छत्त-सोलसक० एवं तिरिक्खगदिसंजुत्ताओ सव्वाअो उक्क० हिदि कस्स० ? अण्ण० णेरइय० मिच्छादि० सागार-जा० उक्क० हिदि० संविलि। सादादीणं पि तं चेव भंगो । णवरि तप्पागोग्गसंकिलि० । आयूणि ओघ । णवरि जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और असंयमके अभिमुख है,वह तीर्थका प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। असंयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति. बन्धका स्वामी मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें देवायुका ग मत्यक्षानियोंके समान है। विशेषार्थ-सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवों में जो उपशम श्रेणिसे उतरकर सूक्ष्मसाम्पराय संयत होते हैं और उसमें भी जो अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हते हैं,उनके ही वहाँ बँधनेवाली प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव होनेसे ऐसे जीव ही उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी कहे हैं। यहाँ कुल १७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, जिनका ना निर्देश मूलमें किया ही है। संयतासंयत मनुष्य और तिर्यंच दो गतिके जीव होते हैं। यहाँ कुल ६७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए इनमेंसे तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़ कः ६६ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी उक्त दोनों गतियोंका जीव कहा है। मात्र थैकर प्रकृतिका तिर्यश्रगतिमें नहीं होता. इसलिए उसके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वमी मनुष्यगतिका जीव कहा है। उत्कृष्ट स्वामित्वसम्बन्धी शेष विशेषताएँ मूलमें कही हीहैं। ____१०४. चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें आठों कर्मोंके उत्कास्थितिबन्धका स्वामी मूतोधके समान है । अवधिदर्शनी जीवों में अवधिज्ञानियोंके समान भन है। ' विशेषार्थ चक्षुदर्शन और अयक्षुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक होते हैं, इसलिए इनमें श्रोधके समान सब अर्थात् १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है। अवधिर्शन चौथे गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थानतक होता है, इसलिए इसमें असंयत सम्यग्दृष्टिके बन्धको प्राप्त होनेवाली ७७ और आहारकद्विक इन ७९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। शेष कान स्पष्ट ही है। १०५. कृष्णलेश्यामें नपुंसकवेदियोंके समान भङ्ग है। इली विशेषता है कि इनमें देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्या जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिन्धका स्वामी है। नीललेश्या कापोत लेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातादिनीय, मिथ्यात्व और सोलह कषाय तथा इसी प्रकार तिर्यश्चगति संयुक्त सब प्रकृतियोंके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, त्कृिष्ट स्थितिका बन्ध कर रहा है और संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितेबन्धका स्वामी है। साताआदिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी यही जीव है। इतत विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला उक्त जीव सातादिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्नका स्वामी है। आयुकर्मकी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है। इती विशेषता है कि देवायुके Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २७९ देवायु० उक्कल हिदि० कस्स० ? अण्ण० मिच्छादि० सम्मादि सागार०-जा० तप्पाओग्गविसुद्ध० । णिरयगदि-वेउव्विय अंगो०-णिरयाणुपु० उक० टिदि० कस्स: ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छादि० सागार-जा. उक०सकिलि । देवगांद [ एइंदि-बीइंदि० तेइंदि-चदुरिदिय ]-जादि-देवाणुपु०-आदाव-थावर---सुहुम-- अपज्जा-साधार० उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण तिरिक्व० मणुस० मिच्छादि० सागार-जा० तप्पाओग्गसंकिलि । 'णीलाए तित्थयर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएण. मणुसस्स तप्पाओग्गसंकिलि । काऊए णिरयोघं ।। १०६. तेऊए पंचणा०-णवदंसणा-असादा -मिच्छत्त-सोलसक०-णस०अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्वगदि-एइंदि० याव अंतराइग ति तिरिक्खगउत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि यासम्यग्दृष्टिजो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । नरकगति वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है १ अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रियजाति, देवगत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। नीललेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणाम वाला है,वह तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । कापोत लेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या चतुर्थ गुणस्थान तक होती हैं, इसलिए इनमें श्राहारकद्विकका बन्ध नहीं होता । शेष ११८ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । कृष्ण लेश्यामें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नपुंसकवेदके समान बतलाया है सो इसका कारण यह है कि नपुंसकवेदमें भी देवगतिके सिवा तीन गतिके जीव यथायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं और वही बात यहाँ भी है । मात्र देवायु इसका अपवाद है। कारण कि नपुंसकवेद नौवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए उसमें देवायुका श्रोध उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बन जाता है,पर कृष्ण लेश्यामें देवायुका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है। कारण कि यह लेश्या चौथे गुणस्थानतक होती है। उसमें भी अविरत सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा द्रव्यलिङ्गी साधु मिथ्यादृष्टिके देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अधिक होता है, इसलिए कृष्ण लेश्यामें विशुद्ध परिणामवाला मिथ्यादृष्टिजीव देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कहा है। नील और कापोत लेश्यामें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश मूलमें किया ही है । एक बात यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य है और वह यह कि नरकगतिमें कृष्ण लेश्याके समान नील लेश्यामें भी तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। इसलिए इस लेश्यामें तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी सम्यग्दृष्टि मनुष्य कहा है। १०६. तेजो लेश्यामें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, आसाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति और एकेन्द्रिय जातिसे १. मूलप्रतौ णीला च तित्थ- इति पाठः । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० महाबंधे हिदिबंधाहियारे दिसंजुत्तानो उक्क० हिदि. कस्स० ? अण्ण० सोधम्मीसाणंतदेवस्स मिच्छादि. सागार-जा० उक्क०संकिलि० अथवा ईसिमज्झिमपरिणा। सादावे-इत्यि०. पुरिस०-हस्स--रदि--मणुसगदि--पंचिंदिय०-पंचसंठाण--ओरालि०अंगो०- छस्संघड०-. मणुस०-दोविहा०-तस-थिरादिलक्क-दोसर-उच्चागोदा० उक्क. हिदि० कस्स? अण्ण देवस्स मिच्छादिहि तप्पाओग्गसंकिलि । तिरिक्वायु उक्क. हिदि. कस्स० १ अएण. देवस्स मिच्छादिहि० तप्पाअोग्गविसुद्धस्स । मणुसायु० उक्क० हिदि० कस्स ? अएण. देव० मिच्छादि० सम्मादिहिस्स वा तप्पाअोग्गविसुद्धः । देवायु उक्क हिदि. कस्स० ? अण्ण. पमत्तसंजदस्स तप्पाओग्गविसुद्ध० । देवगदि०४ उक्क हिदि. कस्स० ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस.' मिच्छादि. सागारजा० उक्क०संकिलि० । आहार-आहार०अंगोवंग० अोघे । तित्थक० उक्त हिदि० कस्स० ? अण्ण० देवस्स असंज. सागार-जा० उक्क संकिलि सात्थाणे वट्टमा० । पम्माए एवं चेव । गवरि याओ देवस्स ताओ सहस्सारभंगो।। लेकर अन्तराय तक तिर्यञ्चगतिसे संयुक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतरसौधर्म और ऐशान कल्पतकका देव जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है अथवा अल्प,मध्यम परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। साता वेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रसकाय, स्थिर श्रादिक छह, दो स्वर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतरदेव जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यश्च युके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो मिथ्यादृष्टि है अथवा सम्यग्दृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य अथवा तिर्यश्च जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और उकृष्ट संक्लेश परिणामवाला है,वह देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आहारकशरीर और आहारक श्राङ्गोपाङ्गके उकृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका कौन है ? अन्यतर देव जो असंयत सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और स्वस्थानवर्ती है,वह तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । पनलेश्यामें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिका स्वामी इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जिन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी देव है,उनका सहस्रार कल्पके समान भङ्ग जानना चाहिए। विशेषार्थ-पीतलेश्यामें नरकायु, नरकगतिद्विक, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन नौ प्रकृतियोंके सिवा शेष १११ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । इस लेश्यामें जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी जो जीव है,उसका अलग-अलग निर्देश किया ही है । मात्र तिर्यञ्चगति संयुक्त कहकर जिन प्रकृतियोंकानामनिर्देश 1. मूलप्रतौ मणुस० तिरिक्ख० मिच्छादि० इति पाठः । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्स-सामित्तपरूवणा २८१ १०७. सुक्काए पंचणा-णवदंसणा-असादा०--मिच्छत्त-सोलसक०-णवुस०-- भरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसगळ-पंचिंदियजादि-ओरालि-तेजा-क-हुडसं०-ओरालि.अंगो०-असंपत्तसेवट्ट-वएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४--अथिरादिछक्क-णिमिण-णीचा०-पंचत० उक्क. हिदि० कस्स० ? अण्ण. आणददेवस्स मिच्छादि० सागार-जा. तप्पा उक्क०संकिलि० । सादावे-इत्थिल-पुरिस-हस्सरदि-पंचसंठा-पंचसंघ०-पसत्यवि०-थिरादिछक्क-उच्चागो० उक्क. हिदि कस्स० ? अण्ण० तस्सेव आणददेवस्स तप्पाओग्गसंकिलि । मणुसायु० उक्क० हिदि. कस्स० ? अएण. देवस्स मिच्छादि० सम्मामि० तप्पाओग्गविसुद्ध० । देवायु. ओघं । देवगदि०४ उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छादि. सागार-जा० उक्क० संकिलि । आहार-आहार०अंगो० अोघं । तित्थयरं तेउभंगो। नहीं किया है, ये हैं–तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, छह संहनन, वर्णादि चार, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्वास, आतप, उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश-कीर्ति और नीचगोत्र । यहाँ मूलमें दोनों स्वरोंका अलगसे निर्देश किया है, इसलिए स्थिर आदि छहमें निर्माण प्रकृतिकी परिगणना कर लेनी चाहिए । तात्पर्य यह है कि पीतलेश्यामें कुल १११ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए दूसरे आदि दण्डकों में जिन प्रकृतियों का नामोल्लेख किया है,उनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ प्रथम दण्डकमें ले लेनी चाहिए । पनलेश्यामें पूर्वोक्त १११ प्रकृतियों में से एकेन्द्रियजातिआतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंके कम कर देने पर कुल १०८ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । शेष विशेषता मूलमें कही ही है। १०७, शुक्ल लेश्यामें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदा. रिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिरादिक छह निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर आनतकल्पकादेव जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदिक छह और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर वही श्रानत कल्पका देव जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतरदेव जो मिथ्यादृष्टि है या सम्यग्दृष्टि और तत्प्रायोग्य विशुद्धपरिणामवाला है,वह मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च या मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है,वह देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आहारक शरीर और आहारक प्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी प्रोधके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पीतलेश्याके समान है। विशेषार्थ शुक्ल लेश्यामें नरकायु, तिर्यञ्चायु, नरकगतिद्विक, तिर्यञ्चगतिद्विक, एके Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिवंधाहियारे १०८. भवसिद्धिया० मूलोघं । अन्भवसिद्धि० मदिय • भंगो । १०६. सम्मादि० - खइग ० अधिभंगो । वरि खड्गे याओ मिच्छत्ताभिमुहाओ पगदीओ असं० सत्याणे सागार- जा० तप्पा ओग्गसंकिलि० । एवं तप्पा ओग्गसंकिल • वेदगे श्रधिभंगो । एवं उवसम० । ११०. सासणे पंचणा० णवदंसणा ० श्रसादावे ० - सोलसक० - इत्थिवे ० -अरदिसोग-भय-दुगु० - तिरिक्खगदि-पंचिंदि० ओरालिय० - तेजा ० क ० - मणुसग ० -ओरालि०अंगो०- खीलियसंघ०-वरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगुरु ०४-उज्जोव - अप्पसत्थ०-तस० ४-न्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, श्रौन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, श्रातप, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण और नीचगोत्र इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता । कुल १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । शेष विशेषता मूलमें कही ही है । १०८. भव्य जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । तथा भव्य जीवोंमें मत्यशानियोंके समान है । २८२ विशेषार्थ - भव्यजीवोंमें श्रधप्ररूपणा और श्रभव्यजीवोंमें मत्यशानियोंकी प्ररूपणा श्रविकल घटित हो जाती है, इसलिए इन मार्गणाओं में अपनी-अपनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी क्रमसे श्रघ और मत्यज्ञानियोंके समान कहा है। 1 १०९. सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रवधिज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जो अवधिज्ञानी जिन प्रकृतियोंके मिथ्यात्वके श्रभिमुख होनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है, क्षायिकसम्यक्त्वमें उन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकारजागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला स्वस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि जीव होता है। इसी प्रकार वेदकसम्यक्त्वमें अवधिज्ञानियोंके समान तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला जीव अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति · बन्धका स्वामी होता है। तथा इसी प्रकार उपशम सम्यक्त्वमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी जानना चाहिए । विशेषार्थ – पहले अवधिज्ञानी जीवोंके ७९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, यह बतला आये हैं। उन्हींका बन्ध सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके होता है। तथा और सब विशेषताएँ भी एक समान हैं, इसलिए इन दोनों मार्गणाओंमें उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी अवधिज्ञानी जीवोंके समान कहा है। मात्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता, इसलिए अवधिज्ञानमें जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व मिथ्यात्वके सन्मुख हुए जीवको प्राप्त होता है, उनका स्वामित्वं क्षायिकसम्यक्त्वमें स्वस्थानवर्ती जीवके कहा है । वेदकसम्यग्दृष्टि और अवधिज्ञानीके कथनमें भी कोई अन्तर नहीं है, इसलिए वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में भी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व अवधिज्ञानी जीवोंके समान कहा है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंका और सब कथन तो इसी प्रकार है । मात्र इसके मनुष्यायु और देवायुका बन्ध नहीं होता, इसलिए इसके बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ७९ के स्थान - में ७७ कहनी चाहिए । ११०. सासादन सम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, मनुष्यगति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलित संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चानुपूर्वी, गुरुलघुचतुष्क, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसवतुष्क, अस्थिर श्रादिक Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्स-सामित्तपावणा २८३ अथिरादिछक्क-णिमिण-णीचागो०-पंचंत० उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण. चदुगदियस्स सागार-जा० उक्का संकिलि० मिच्छत्ताभिमुहस्स । सादावे-पुरिस०-हस्सरदि-मणुसगदि-चदुसंठा-चदुसंघ०-मणुसाणु०-पसत्थवि०--थिरादिछक्क-उच्चागो० उक्क० हिदि० कस्स० १ अएण० चदुगदियस्स तप्पाओग्गसंकिलि । तिरिक्ख-मणुसायुग• उक्क० हिदि. कस्स० ? अण्ण. तिरिक्व० मणुसस्स. तप्पासोग्गविसुद्ध । देवायु० उक्क० ट्ठिदि० कस्स ? मणुसस्स तप्पाओग्गविसुद्ध० । देवगदि०४ उक्क० ट्रिदि० कस्स० १ अण्ण० मणुस० तिरिक्ख० सागार-जा. तप्पाप्रोग्गसंकिलि। १११. सम्मामिच्छादि० पंचणा-छदंसणा-असादावे-बारसक-पुरिस०अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वएण०४-अगुरु०-४-पसत्थवि०तस०४ अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज०-अजस०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० उक्क० हिदि० कस्स० १ अण्ण० चदुगदियस्स सागार-जा० उक्कस्ससंकिलि० मिच्छात्ताभिमुहस्स । सादावे०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसगि० उक्क० हिदि० कस्स ? अण्ण. चदुछह, निर्माण, नीच गोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चारगतिका जीव जो साकारजागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यगति, चार संस्थान, चार संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदिक छह और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, वह उक्त दो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्टस्थितिबन्धकास्वामी कौन है ? अन्यतरमनुष्य जो तत्यायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य और तिर्यश्च जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-सासादनगुणस्थानमें जिन १६ प्रकृतियोंकी मिथ्यात्वमें बन्धन्युच्छित्ति होती है, उनका तथा तीर्थकर और आहारकद्विकका कुल १९ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। शेष १०१ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी सम्बन्धी विशेषता मूलमें कही ही है। १११. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में पांच शानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, असचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयशाकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है, वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुम और . Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे गदिय० सत्थाणे वट्टमाणयस्स सागार-जा तप्पागोग्गसंकिलि । देवगदि०४ उक्क० हिदि० कस्स ? अण्ण तिरिक्व० मणुस. सागार-जा० उक्क संकिलि• मिच्छाताभिमुह० । मणुसगदिपंच० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएण. देवस्स वा णेरइगस्स वा सागार-जा० उक्क० संकिलि० मिच्छत्ताभिमुह । मिच्छादिही० मदियभंगो। सएिण. मणजोगिभंगो। ११२. असगणीसु पंचणा-णवदंसणा-असादा--मिच्छत्त-सोलसकगवुस-अरदि-सोग-भय-दुगु-णिरयगदि-पंचिंदि०-वेउविय-तेजा-क०-हुडसंठा-वेरब्बिय अंगो०-वएण०४--णिरयाणु०-अगुरु०४-पसत्य-तस०४-अथिरादिछक्क-णिमि०-णीचा०-पंचंत० उक्त हिदि० कस्स ? अएण. पंचिंदि० सागार-जा० उक्क०संकिलि० । सेसाणं तप्पाओग्गसंकिलि० । णवरि तिगिण आयु० तपा० यशकीर्ति इन प्राकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है,वह देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमुख है.वह मनुष्यगति आदि पाँचके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मत्यशानियोंके समान है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वमें १६ और सासादनमें २५ की बन्धव्युच्छित्ति होती है। ये ४१ प्रकृतियाँ होती हैं । इनमें मनुष्यायु, देवायु, आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिके मिलानेपर कुल ४६ प्रकृतियां होती हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें इनका बन्ध नहीं होता। शेष ७४ प्रकृतियोंका होता है । इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में किस विशेषताके होनेपर होता है। यह मूलमें कहा ही है । देवगति चतुष्कका बन्ध देव और नारकी नहीं करते, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तिर्यश्च और मनुष्य कहा है । तथा मनुष्यगति पञ्चकका बन्ध मिश्र तिर्यश्च और मनुष्य नहीं करते, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी नारकी और देव कहा है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सब गतियों में होता है, इसलिए उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी चारों गतिके जीव कहे हैं। ११२. असंही जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, पञ्चेद्रिय जाति, वैक्रिपिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुंड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, चिगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर पञ्चन्द्रिय जीव जो साकार जागृत है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्यायोग्य संक्लेश परिणामवाला असंही जीव है। इतनी विशेषता है कि तीन मायुभोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला जीव है। आहारक Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ जहण्ण-सामित्तपरूवणा विमुद्धस्स । आहार० मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं उक्स्ससामित्तं समत्तं । ११३. जहएणए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-चदुदंसणासादावे-जसगि०-उच्चागो०-पंचंत० जहएणो हिदिबंधो कस्स होदि ? अण्णदरस्स खवगस्स सुहुमसांपराइगस्स चरिमे जहएणए हिदिबंधे वट्टमाणयस्स । पंचदंसणामिच्छत्त-बारसक०-हस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालिय०-तेजा-क-समचदु० ओरालि अंगो०-वजरिसभ०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि० जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. बादरएइंदियस्स सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तगदस्स सागार-जा० सुदोवजोगजुत्तस्स सव्वविसुद्धस्स जहएणहिदिवं० वट्ट । असादा०इत्थिवे०-णवुस-अरदि-सोग-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ-आदाव-अप्पसत्थवि०थावर-मुहुम-अपज्जत्त-साधार०-अथिरादिलक. जह• हिदि. कस्स० ? अएण. जीवों में सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है और अनाहारक जीवों में अपनी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कार्मण काययोगियोंके समान है। विशेषार्थ-असंक्षी जीवोंके आहारिक द्विक और तीर्थङ्करके बिना ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। आहारक मार्गणामें सब अर्थात् १२० प्रकृतियोंका बन्ध होता है और अनाहारक मार्गणामें कार्मणकाययोगके समान ११२ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। शेष कथन स्पष्ट हो है। यहां असंशियों में उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा पंचेन्द्रियोंकी मुख्यता होनेसे उन्हें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कहा है । तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी विशुद्ध परिणामवाला जीव कहा है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का एक पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकेन्द्रियादि जीवोंके भी होता है, इसलिए असं. शियों में इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कहते समय पञ्चन्द्रिय यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ११३. जघन्य स्वामित्वका प्रकरण है। उसको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और प्रादेश। ओघकी अपेक्षा पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर क्षपक जो सूक्ष्मसाम्परायसंयत है और अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है , वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धकास्वामी है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा,पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है और सर्व विशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी है । असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे बादरएइंदिय० सव्वाहि पज्जत्तीहि सागार- जा० तप्पात्रोग्गविसुद्ध० जह० डिदि ० वट्टमा० । चदुसंज० - पुरिस० जह० डिदि ० कस्स १ अरण० खवगस्स अणियबादरसंप० पप्पणो चरिमे जह० हिदि० वट्ट० । गिरयायु० जह० द्विदि० कस्स ० ? अण्ण० पंचिंदिय० सरिण असरिण० सागार जा० तप्पात्रोग्गविसुद्ध ० जहरियाए बाधाए जहरण० द्विदि० वट्टमा० । तिरिक्खायु० जह० द्विदि० कस्स ? अएण एइंदि० बीइंदि० तीइंदि० चदुरिंदि० पंचिंदि० सरिण० असरि० बादर • सुहुम० पज्जत्तापज्जत्त० सागार-जा० तप्पात्रोग्गसंकिलि० जह० आबाधाए ० अण्ण० जह० द्विदि० वट्टमा० । एवं मरणुसायु० । देवायु० जह० हिदि० कस्स० पंचिंदि० सरिण० असरिण० सागार-जा० तप्पा ओग्गसंकिलि० जह० आबा ० जह० द्विदि० वट्टमा० । ११४. गिरयग० - रिया० जह० द्विदि० कस्स ? अ० अस स्सि सागार - जा ० तप्पा ओग्गविसुद्ध० । तिरिक्खग० तिरिक्खाणु० - उज्जो०- णीचा० जह० द्विदि० कस्स० • बादर० तेउ० वाउ० पज्जत्तस्स सागार - जा० सव्वविसु ० । मसग ० - मणुसार जह० द्विदि० कस्स० १ अएण बादरपुढवि० उ० बादर つ अस्थिर आदि छह प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम - वाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। चार संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अनिवृत्ति क्षपक जो अपने-अपने अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और संक्षी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और जघन्य श्रबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय संशी या असंशी, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त या अपर्याप्त जो साकार 'जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार उक्त जीव मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर पञ्चेन्द्रिय संशी या असंशी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधा के साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । ११४. नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर संशी जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त दो प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीच गोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्य-सामित्तपरूवणा वरणफदि ० पज्जत्त० सागार - जा० सव्वविसुद्ध० जह० डिदि ० षट्टमा० । देवगदि०४ जह० द्विदि० कस्स० १ अण्ण० असरिण० सागार - जा० सव्वविसुद्ध ० जह० हिदि० वट्टमा० । आहार० - आहर०: र० अंगो० - तित्थय० जह० हिदि० कस्स० ? श्रएणद० अपुव्वकरणखवगस्स परभवियरणामाणं चरिमे जह० द्विदिबंधे वट्टमाणयस्स । स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह मनुष्यद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति चतुष्क के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर संशी जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । आहारक शरीर, श्राहारक आङ्गोपाङ्ग ओर तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो परभवसम्बन्धी नामकर्म की प्रकृतियों के अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। २८७ विशेषार्थ - यहाँ श्रघसे किम प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है यह बतलाया गया है । बन्ध योग्य कुल प्रकृतियां १२० हैं । उनमेंसे पांच ज्ञानावरण आदि १७ ऐसी प्रकृतियाँ हैं जिनका बन्ध क्षपक सूक्ष्मसाम्परायतक होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित उक्त जीवको कहा है। चार संज्वलन और पुरुषवेदका स्थितिबन्ध क्षपक अनिवृत्तिकरणके अपने अपने विवक्षित भाग तक होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उक्त जीवको कहा है। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका स्थितिबन्ध क्षपक पूर्वकरण के अमुक भागतक होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उक्त जीवको कहा है। इस प्रकार ये सब मिलाकर २५ प्रकृतियाँ हुई। अब शेष रहीं चार आयुके बिना ९१ प्रकृतियाँ सो इनमेंसे देवगति और नरकगति सम्बन्धी जो प्रकृतियाँ हैं उनका बन्ध एकेन्द्रिय और विकलत्रयके नहीं होता इसलिए उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रसंज्ञी जीवको कहा है। ऐसी प्रकृतियाँ कुल ६ हैं । ये है -नरकद्विक, देवद्विक और बैकियिकद्विक । अब शेष रहीं ८५ प्रकृतियां सो यद्यपि इनका जघन्य स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है पर एकेन्द्रियके अनेक भेद होनेसे एकेन्द्रियोंमें भी कौन-सा बादर पर्याप्त जीव किन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध करता है इसका स्वतन्त्र रूपसे विचार किया है। उदाहरणार्थafrates और वायुकायिक जीव मरकर नियमसे तिर्यञ्च ही होते हैं, इसलिए तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और श्रातपका जघन्य स्थितिबन्ध बादर अग्निका यिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव ही करते हैं। तथा मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके न होनेके कारण इनका जघन्य स्थितिबन्ध बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव करते हैं। यही कारण है कि इन तिर्यञ्चगति श्रादि चार और मनुष्यगति आदि दो प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पृथक्-पृथक् उक्त जीवोंको कहा है । यद्यपि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उच्चगोत्रका भी बन्ध नहीं करते पर उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध एकेन्द्रियके न होकर क्षपक श्रेणिमें होता है इसलिए उसे यहाँ नहीं गिनकर जिन प्रकृतियोंका क्षपक सूक्ष्म साम्पराय में जघन्य स्थितिबन्ध होता है Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ महाबंधे डिदिबंधाहियारे ११५. आदेसेण णेरइएसु पंचणा-णवदसणा०-सादावे-मिच्छत्त-सोलसक.. पुरिसके०-हस्स-रदि-भय-दुगु-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क-समचदु०ओरालि अंगो०-वज्जरिसभ०-वएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्थ० तस०४-थिरादिछक्क-णिमि०-णीचागो-पंचंत• जह• हिदि० कस्स ? अएण. असएिणपच्छागदस्स' पढम-विदियसमये णेरइगस्स सागार-जा. सव्वविसुद्ध० जह• हिदि० वट्ट । दोआयु० जह० हिदि० कस्स ? अएण. मिच्छादि० तप्पाओग्गसंकिलि. जह. आबा. जह• हिदि० वट्ट । तित्थय. जह• हिदि. कस्स. ? अएण. असंजदसम्मादि० सागार-जा० सव्वविमु० । सेसाणं असएिणपच्छागदस्स पढमविदियसमए णेरइगस्स सागार-जा० तप्पाओग्गविसु । एवं पढमाए । वहाँ गिन आये हैं। अब रहीं शेष ७९ प्रकृतियाँ सो इनका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त किसी भी जीवके उनके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होनेपर जघन्य स्थितिबन्ध हो सकता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवको कहा है। चार आयुओं में मनुष्यायु और तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध सब प्रकारके तिर्यश्च और मनुष्योंके हो सकता है। यही कारण है कि इन दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उक्त दो गतिका अन्यतर जीव कहा गया है। मात्र देवायु और नरकायुका जघन्य स्थितिबन्ध पश्चेन्द्रियसे नीचे किसी भी जीवके नहीं होता। इसलिए इन दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी संशी या असंज्ञी अन्यतर जीव कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि मलमें जी योग्यताएँ कहीं हैं, उनके साथ ही ये सब जीव उक्त सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामी होते हैं। ११५. आदेशसे नारकियों में पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्ण चतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंशी पर्यायसे आया हुआ नारकी जो प्रथम और द्वितीय समयमें स्थित है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिका बन्ध कर रहा है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि नारकी जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी जो साकार जागृत है और सबसे विशुद्ध परिणामवाला है,वह तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी असंक्षीचर, प्रथम और द्वितीय समयमें स्थित, साकार जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला नारकी जीव है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम नरकमें असंही जीव मरकर उत्पन्न होता है और इसके उत्पन्न १. मूलप्रतौ-पचागदस्स इति पाठः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण-सामितपरूवा २८९ ११६. विदियाए पंचणा-छदसणा-सादावे०-बारसक० पुरिस -हस्स-रदि. भय-दुगु-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालिय०-तेजा-क०-समचदु०-ओरालि अंगो०वजरिस-वएण ४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्य-तस०४-थिरादिलक-णिमि०. उच्चागो०-पंचंत• जह• हिदि० फस्स ! अण्ण. असंजद०सम्मा० सागार-जा. सव्वविसुद्ध. जह• हिदि० वट्ट । एवं तित्थयरस्स वि । यीणगिद्धितियमिच्छत्त-अणंतागुवषि०४ जह० हिदि. कस्स.? अएण. मिच्छादि० सागार-जा. सव्वविसु० सम्मत्ताभिमु. चरिमे जह• हिदि० वट्ट । असादा-अरदि-सोगअथिर-असुभ-अजस० जह० हिदि० कस्स. ? अएण. असंजदसम्मादिहि. सागार-जा० तप्पाओग्गविसु ! इत्यि-गवंस-तिरिक्खग०-पंचसंठा-पंचसंघ०तिरिक्खाणु-उज्जो०-अप्पसत्यवि०-भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा. जह० द्विदि. कस्स० १ अण्ण० मिच्छादि० सागार-जा. तप्पाओग्गविसु० जह• हिदि० वट्टमा० । दोआयु० णिरयोघं । एवं छसु पुढवीसु । वरि सत्तमाए थीणगिदि०३-मिच्छत्तअणंताणुबंधि४-तिरिक्खग-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचा० जह• हिदि० कस्स० ? होनेके प्रथम और द्वितीय समयमें असंशोके योग्य स्थितिबन्ध होता है। इसीसे यहां तीर्थ-. कर और दो आयुओंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी परिणामोंकी अपनी-अपनी विशेषताके साथ उक्त जीवको कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ११६. दूसरी पृथिवीमें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कवाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाल, वर्षभनाराच संहनन, वर्षचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है। अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी जो साकार जागृत है और सबसे विशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य तबन्धका स्वामी जानना चाहिए। स्यानगुद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि जो साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है, सम्यक्त्वके अभिमुख है और अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर अशुम और अयश-कीर्तिप्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जो साकार जागृत है और तत्यायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्गश्चानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्मग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितियन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर मिथ्यादृष्टि जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध है और जघन्य स्थितिवन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयुनोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार छहों पृथिषियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें स्त्यानगद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, तिर्यश्चगति, तिर्यशानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है। अन्यतर मिथ्यारष्टि Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे अएण• मिच्छादि० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० सम्मत्ताभिमुह० चरिमे जह. हिदि० वट्टमा । ११७. तिरिक्खेसु पंचणा-णवदसणा-असादावे-मिच्छत्त-सोलसक०परिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदिय-ओरालिय-तेजा-का-समचदु०-ओरालि अंग्गो०-वजरिसभ०-वरण ४-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ--णिमिपंचंत. जह० हिदि० कस्स. ? अएण. बादरएइंदि० सागार-जा० सव्वविसुद्धस्स जह० ट्ठिदि० वट्टमा० । सेसं मूलोघं । वरि उच्चा० मणुसगदिभंगो । ram जो साकार जागत है, सर्वविशुद्ध है, सम्यक्त्वके अभिमुख है और अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-दूसरी आदि पृथिवियोंमें असंशी जीव तो मरकर उत्पन्न होता नहीं, इसलिए यहां असंशोके योग्य स्थितिबन्ध सम्भव नहीं; फिर भी मिथ्यात्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वके सद्भावमें स्थितिबन्ध न्यून होता है, इसलिए यहां जिन प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके बन्ध होता है, उनका तद्योग्य श्रावस्थाके होने पर जघन्य स्थितिबन्ध कहा है और जिन प्रकृतियों सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता,उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टिको कहा है। एक बात अवश्य है कि मिथ्यादृष्टि दो प्रकारके होते हैं-एक स्वस्थान स्थित और दूसरे सम्यक्त्वके अभिमुख । यहां सम्यक्त्वसे तात्पर्य उपशम सम्यक्त्वसे है। आगममें उपशम सत्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके ३४ बन्धापसरण बतलाये हैं। उनके देखनेसे विदित होता है कि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए नारकीके स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, पांच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्वस्थान स्थित मिथ्यादृष्टि कहा गया है और स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए नारकीके भी होता रहता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ नारकी जीव कहा गया है। मात्र सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व गुणस्थानमें तिर्यञ्चगति, तिर्गञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका ही बन्ध होता है, इसलिए इसके सम्यक्त्वके अभिमुख होनेपर भी इनका बन्ध होता रहता है । यही कारण है कि सातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवको मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ११७. तिथंचोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ, वज्रषभनाराच संहनन, वर्ण अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिरादि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो साकार जाग्रत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनुष्यगतिके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीके समान है। सोचतषक. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएण-सामित्तपरूवणा २६१ ११८. पंचिंदियतिरिक्ख०३ पंचणा०-णवदंसणा-सादावे-मिच्छत्त-सोलसक०-पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-देवगदि-पचिंदि०-वेवि०-तेजा-कसमचदु०-वेउव्विय अंगो-वरण०४-देवाणुपु०-अगुरु०४-पसत्यवि• तस०-थिरादिछक्क-णिमिण-उच्चा-पंचंत० जह• हिदि० कस्स० १ अण्ण० असणिण सागार-जा. सव्वविसु० जह० हिदि० वट्टमा० । णिरय-देवायु० ओघं । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० हिदि० कस्स० ? अएण० सएिण. असगिण. पज्जत्तापज्जत्त० तप्पाओग्गसंकिलि० जह' [आबा०] । सेसाणं सो चेव सामीओ सागार-जा. तपाओग्गविसु० जह० हिदि० वट्ट । ११६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु पंचणा०-गवदंसः-सादावे०-मिच्छत्त-सोल विशेषार्थ-पहले श्रोधसे सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश कर आये हैं । वहां जिन प्रकृतियोंका क्षपक सूक्ष्मसाम्परायमें, क्षपक अनिवृत्तिकरणमें और क्षपक अपूर्वकरणमें जघन्य स्वामित्व कहा है,उनका यहां बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके जघन्य स्वामित्व कहना चाहिए । मात्र उच्चगोत्रका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं होता, इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके न कह कर मनुष्यगतिके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वके समान इसका स्वामी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव होता है। इतना विशेष कहना चाहिए । तिर्यञ्चगतिमें श्राहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, यह स्पष्ट ही है। ११८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवानुपूर्वो, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसकाय, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर असंक्षी जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी या असंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आवाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह उक्त दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्ध का साकार जागृत तत्प्रायोग्य विशुद्ध और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित वही जीव स्वामी है। विशेषार्थ-यहां चार आयुओंके सिवा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व असंही पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंकी मुख्यतासे कहा है। कारण कि पञ्चन्द्रिय तिर्यचत्रिक में इन्हींके सबसे जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है। किन्तु चार आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धके लिए यह नियम नहीं है। इतना अवश्य है कि नरकायु और देवायुका बन्ध पर्याप्तके ही होता है और शेष दो आयुओका बन्ध सबके होता है। ११६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानाधरण, नौ दर्शनावरण, साता Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ महाबंधे द्विविबंधाहियारे सक० - पुरिसवे ०-हस्स-रदि-भय-दुगु० - मणुसगदि-पंचिदिय० ओरालिय० -तेजा० क०समचदु० ओरालि० अंगो० दज्जरिसभ० - वरण ० ४ मणुसाणु ० -- गुरु ०४ - पसत्यवि० तस ०४ - थिरादिछक्क - णिमि० उच्चा० - पंचंत० जह० डिदि ० कस्स ० १ अण्ण० अस०ि सागार - जा० सव्वविसु० जह० द्विदि० वट्ट० । श्रसादा० - इत्थवे ०णवुस०-अरदि-सोग-तिरिक्खगदि-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्खाणु० - आदाउज्जो ० - अप्पसत्थ० - थावरादि ० ४ - अथिरादिछक-पीचा० जह० हिदि० कस्स० १ [अ०] सरिणस्स सागार- जा ० तप्पाश्रोग्गविसु ० जह० द्विदि० वट्ट० । दोश्रायु० जह० द्विदि० कस्स ? रण० सरिण० असरिण० सागार - जा ० तप्पा ओग्गसंकिलि ० 3 जह० आबा० जह० द्विदि० वट्ट० । १२०. मणुसेसु खवगपगदीगं मूलोघं । पंचदंस०-मिच्छत्त- बारसक०-हस्सरदि-भय- दुगु० -- मणुसग ० - पंचिंदि० - ओरालिय० – तेजा० क० - समचदु० - ओरालि ० वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंज्ञी जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चानुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि ४, स्थिर आदि छह और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संशी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । दो श्रायुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संशी या असंशी जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट है और जघन्य श्राबाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है, वह दो आयुओंके अन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ - पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त दो प्रकारके होते हैं—संशी और प्रसंशी । संशियोंसे असंशियोंके संख्यातगुणा हीन बन्ध होता है, इसलिए यहाँ इन्हींकी मुख्यतासे धनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व कहा गया है। मात्र मनुष्यायु और तिर्यश्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध उक्त दोनोंमेंसे किसीके भी हो सकता है, इसलिए इन दोनों श्रायुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उक्त दोनोंमेंसे कोई भी जीव कहा गया है । १२०. मनुष्यों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम्ण - सामित्त परूवणां ● अंगो० - वज्जरिसभ ० - वरण ०४- मसाणु ० गुरु ०४ - पसत्थ० -तस०४ - थिरादिपंच०णिमि० ० जह० द्विदि० कस्स० १ अण्ण० असरिणपच्छागदस्स पढमसमय-विदियसमयमणुसस्स सागार जा० सञ्वविसुद्ध ० । असादा० - इत्थि० एस ० -अरदि-सोगतिरिक्खगदि - चदुजादि ० [पंससंठा० - पंच संघ० - तिरिक्खाणु० - श्रादाउज्जोव - अप्पसत्य ०थावरादि ० ४ - अथिरादि०६ - णीचा० जह० द्विदिबं० कस्स ? अण्ण• असणिपच्छागदस्स पढमसमय - विदियसमयमणुसस्स सागार - जागार० ] तप्पा ओग्गविसुद्ध० । [णिरयाउ ० जह० द्विदि० कस्स १ अणदर० तप्पात्रोग्गविसुद्धस्स |] तिरिक्खमरसायु० जह० द्विदि० कस्स ० १ अण्णद० पज्जत्तापज्जत्ता० सागार - जा ० तप्पा - संकलि० । देवायु० जह० हिदि० कस्स० १ अएण ० तप्पाग्ग० संकिलि० । पिरयगदि - रिरयाणुपु० जह० द्विदि० कस्स० १ अरण० मिच्छादि० सागार-जा० तप्पामग्गविसुद्ध ० | देवगदि - वेडव्वि ० - आहार० - [ वेडव्विय अंगी ० आहार० ]- चंगो०देवाणुपु० - तित्थयर० जह० द्विदि० कस्स० ?' अएण अपुव्व० खवग० परभवियमाणं बंधचरिमे वट्टमा० । एवं मणुसपज्जत -मसिणीसु । वरि मणुसिणीसु श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ! जो असंशी मरकर मनुष्यगतिमें उत्पन्न हुआ है, ऐसा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती मनुष्य जो साकार जागृत है और सर्व विशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो असंशी मरकर मनुष्य हुआ है, ऐसा प्रथम और द्वितीय समयवर्ती मनुष्य जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला मनुष्य नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्य जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह उक्त दोनों आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला मनुष्य देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामबाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धकां स्वामी है । देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैrियिक आङ्गोपाङ्ग, श्राहारक शरीर, श्राहारक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो परभव सम्बन्धी नामकर्मकी बँधनेवाली प्रकृतियोंके बन्धके अन्तिम समयमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनी जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य १. प्रतौ जह• अप्पा सेसानं इति पाठः । २५३ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ महाबंधे दिदिबंधाहियारे तित्थयर० जह० ट्ठिदि० कस्स० १ अण्ण. अपुव्व० उवसम० परभवियणामारणं बंधचरिमे वट्ट० । मणुसअपज्जत्तगे पढमपुढविभंगो। १२१. देवगदीए देवेसु णिरयोघं । वरि एइंदिय-आदाव-थावर० असाद भंगो । एवं भवण-वाणवेत० । वरि तित्थयरंणत्थि । जोदिसिय-सोधम्मीसाण. विदियपुढविभंगो । णवरि एइंदिय-आदाव-थावर० इत्थिवेदभंगो। जोदिसिय तित्थयरं पत्थि । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति विदियपुढविभंगो । प्राणद० गवगेवज्जा त्ति तं चेव । वरि तिरिक्वायु० तिरिक्खगदितियं च पत्थि । अणुदिस याव सव्वट्ठा ति पंचणा०-छदंसणा-सादावे०-बारसक०-पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-मणुसगदी० एवं चेव पसत्यादिणामपगदीओ उच्चा०-पंचंत० जह० हिदि कस्स० ? अण्ण स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण उपशामक जो परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके अन्तिम समयमें अवस्थित है, वह स्वामी है। मनुष्य अपर्याप्तक जीवों में अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका खामी पहिली पृथिवीके समान है। विशेषार्थ-जिन २२ प्रकृतियोंका नौवें और दसवें गुणस्थानमें बन्ध होता है,वे यहाँ क्षपक प्रकृतियाँ कही गई हैं। वे ये हैं-पाँच शानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय । यतः क्षपक श्रेणिकी प्राप्ति मनुष्यगतिमें ही होती है, अतः मनुष्यों में इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व ओघके समान कहा है।शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीकानिर्देश अलग-अलग किया ही है। यहाँ मनुष्यिनियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उपशामक अपूर्वकरण जीव कहा है । इसका कारण यह है कि जो तीर्थङ्कर होता है, उसके जन्मसे पुरुषवेदका ही उदय होता है,ऐसा नियम है । अतएव जो तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध कर रहा है और स्त्रीवेदका उदय है,उसका उपशम श्रेणि पर आरोहण करना बन जाता है और इसी अपेक्षासे मनडियनी अपूर्णकरण उपशामकको तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है। १२१. देवगतिमें देवोंमें अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें एकेन्द्रिय पातप और स्थावर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी असाता प्रकृतिके बन्धके स्वामीकेसमान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके तीर्थङ्कर प्रकृति नहीं है। ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर प्रकृतियों के बन्धका खामी स्त्रीवेदके बन्धके स्वामीके समान है। तथा ज्योतिषीदेवोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है । सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें अपनी सब प्रकृतियों के जघन्य स्थिति बन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है। पानत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक वही जीव स्वामी है। इतनी विशेषता है कि इनके तिर्यश्च श्रायु और तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध नहीं होता । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच मानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति और इसी प्रकार नामकर्मकी प्रशस्त आदि प्रकृतियाँ, उञ्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतरदेव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असाता वेदनीय, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-सामित्तपरूवणा सागार-जा. तप्पाओग्गविमुद्ध० । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस जह० हिदि० कस्स० १ अएण. सागार-जा० तप्पाओग्गविसु । मणुसायु० जह• हिदि. कस्स० १ अएण. सागार-जा० तप्पाअोग्गसंकिलि। १२२. एइंदिएस पंचणा-णवदंसणा-सादावे-मिच्छत्त-सोलसक-पुरिसवेहस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-का--समचदु०--ओरालि अंगो०बजरिसभ०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्यवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमिण-पंचंत. जह हिदि. कस्स. १ अएण• बादर० सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदस्स सागारअरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है, वह मनु. व्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-देवों में असंही जीव मरकर उत्पन्न होता है और इसके प्रथम व द्वितीय समयमें असंझीके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध होता है। यही विशेषता नरकमें भी होती है, इसलिए देवोंमें अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी नारकियोंके समान कहा है । मात्र तीर्थंकर और दो आयुओका जघन्य स्थितिबन्ध पर्याप्त अवस्थामें जिस प्रकार नार. कियोंके कहा है,उसी प्रकार यहां कहना चाहिए । किन्तु नरकमें एकेन्द्रिय, आतप और स्थापर इन तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और देवोंके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी जिस प्रकार असाताप्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है, उसी प्रकार यहां कहना चाहिए । असंशी जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता हुआ भवनवासी और व्यन्तर देवों में ही मरकर उत्पन्न होता है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य देवोंके समान कहा है। मात्र इनके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। आगे सहस्रार कल्पतक दूसरी पृथिवीसे जघन्य स्वामित्वमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यहां सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान कहा है। विशेषता इतनी है कि ज्योतिषी देवोंके तीर्थकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता और ऐशान कल्पतक एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध होता है । सो इन तीन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी जिस प्रकार दूसरी पृथिवीमें स्त्रीवेदके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी घटित करके बतलाया है,उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। आनतादिकमें तिर्यश्चायु, तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध नहीं होता। शेष पूर्वोक्त प्रकृतियोंका होता है। सो इनमें भी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व दूसरी पृथिवीके समान घटित हो जाता है, अतः यहां भी जघन्य स्वामी दूसरी पृथिवीके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १२२. एकेन्द्रियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागत है, सर्व विशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें प्रव Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ महापंधे द्विविधाहियारे जा. सव्वविसु० जहः द्विदि० वट्ट । असादा०-इत्यि०-पुरिस०-णवुस-अरदिसोग-चदुजादि-पंचसंठा-पंचसंघ०-आदाव-अप्पसत्यवि०-थावरादि०४-अथिरादिछ. जह० हिदि० कस्स० ? अएण. बादर० सव्वाहि पज्जत्तीहि पजत्तगदस्स सागारजा० तप्पाओग्गविसु । दोआयु० जह० हिदि० कस्स• ? अएण. बादर० मुहुम० पजत्तापज. सागार-जा. तप्पागोग्गसंकिलि० । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणुपु०उज्जो०-णीचा. जह• हिदि० कस्स० १ अएण• बादरतेउ०-वाउजीवस्स सव्वाहिर पज्जत्तीहि पज्जत. सागार-जा० सव्वविसु । मणुसगदि-मणुसाणु०-उच्चा० जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण बादरपुढ० बादराउ० बादरवणप्फदि० सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्त० सागार-जा० सव्वविसु० । सबविगलिंदिय-पज्जत्तापज्जत्त. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचिंदि०२ खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्वभंगो । अपज्जत्ते तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। स्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि छह प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकारजागत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जो साकारजागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, तिर्यअवगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकारजागृत है और सर्व विशुद्ध है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर बादर प्रथिवीकायिक, बादरजलकायिक और बादर वनस्पतिकायिक जीव जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत है और सर्व विशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । सब विकलत्रय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान हैं। पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें आपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यऽचोंके समान है। इनके अपर्याप्तकोमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी तिर्यच अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बादर पर्याप्त एकेन्द्रियोंके होता है । मात्र तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध सब एकेन्द्रियोंके सम्भव है। विशेषता इतनी है कि तिर्यञ्चगति आदि चार प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध अग्निका यिक और वायुकायिक बादर पर्याप्त जीवोंके होता है, क्योंकि ये दोनों कायवाले जीव तिर्यउचगति सम्बन्धी प्रकृतियोंका ही सतत बन्ध करते है। इसलिए इनमें स्वभावतः जघन्य Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-सामित्तपरूवणा १२३. पुढवि०-आउ०-वणप्फदिपत्तेय-वणप्फदिका०-णियोदेसु पंचणागवदंस०-सादावे-मिच्छत्त-सोलसक०-पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-मणुसगदि एवं धुवणामाए याव उच्चागो०-पंचतरा. जह• हिदि० कस्स० ? अण्णा बादर० सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्त० सागार-जा० सव्व विसु० । सेसाणं वि एसेव । णवरि तप्पाओग्गविसुद्ध० । दोआयु० ओघ । बादरादीणं एइंदिय०-आदावेण णेदव्वं । एवं चेव तेउ-वाउका । वरि तिरिक्खगदि.'धुवं कादव्वं ।। १२४. तस-तसपजत्तेसु खवगपगदीणं अोघं। णिरय० देवायु० वेउब्वियछर्क च ओघं । दोआयु० जह• हिदि. कस्स ? अएण. बेइंदि तीइंदि० चदुरिंदि. पचिंदि० सएिण. असएिण. पज्जत्तापज्जत्त० तप्पाअोग्गसंकिलि । सेसामो पगदीओ मणुसगदिसंजुत्ताओ बीइंदियो करेदि सागार-जा० सन्चविसुद्धो। असा स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होते रहते हैं और मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव करते हैं, क्योंकि इनका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं होता। शेष कथन स्पष्ट १२३. पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और मनुष्यगतिसे लेकर जितनी नामकर्मकी ध्रुव प्रकृतियाँ हैं वे सब तथा उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंकेजघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर जो सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत है और सर्व विशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके भी जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी वही जीव है। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला जीव शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी रोधके समान है। इनके बादरादिकमें एकेन्द्रिय जाति और आतप प्रकृतियोंके साथ कथन करना चाहिए । इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके तिर्यश्चगति चतुष्कको ध्रुव कहना चाहिए । विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका खुलासा कर आये हैं। उसे ध्यानमें रखकर यहां जघन्य स्वामित्व जान लेना चाहिए। १२४. अस और उस पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओघके समान है। नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छह इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पश्चन्द्रिय संशी और पञ्चन्द्रिय असंशो तथा इन सबका पर्याप्त तथा अपर्याप्त जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह उक्त दोनों आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष मनुष्यगति सहित प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी साकार जागृत और सर्वविशुद्ध द्वीन्द्रिय जीव है । तथा असातादिक प्रकृतियोंके भी जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला वही द्वीन्द्रिय जीव है, तथा .. मूलप्रतौ सम्वाहि अपज्जत्तीहि इति पारः । २. मूलप्रतौ-गदि० दुवं कादव्वं इति पाठः । ३८ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे दादीणं पि सो चेव बीइंदि० तप्पाश्रोग्गविसुद्ध० । अपज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि बेइंदियो ति भाणिदव्वं । १२५. पंचमण-तिएिणवचि० खवगपगदीणं मूलोघं । णिदा-पचला. जह० हिदि कस्स० १ अएण. अपुव्वकरणखवग० णिहापचलाणं बंधचरिमे वट्टमारणस्स। थीणगिद्धितिय-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण० मणुस. मिच्छा० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० संजमाभिमुहस्स जह• हिदिवं० । असादा०अरदि०-[सोग]-अथिर-असुभ-अजस जह• हिदि० कस्स. ? अण्ण० पमत्तसंजदस्स सागार-जा० तप्पाअोग्गविसु० जह• हिदि० वट्ट । अपञ्चक्रवाणा०४ जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण. मणुस असंजदसम्मादिहि० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० संजमाभिमुहस्स जह० हिदि० वट्ट० । पञ्चक्खाणा०४ जह• हिदि० कस्स ? अएण. मणुसस्स संजदासंजद० सागार-जा० तप्पाओग्गसव्वविसु० संजमाभिमुह० जह इनके अपर्याप्तकोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि यहांपर भी द्वीन्द्रिय अपर्याप्तको जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहना चाहिए। विशेषार्थ--त्रस और त्रसपर्याप्त जीवों में पांच ज्ञानावरण आदि २५ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है । वैक्रियिक छहका जघन्य स्थितिबन्ध पञ्चन्द्रिय असंही पर्याप्तके होता है। नरकायु और देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध संज्ञी या असंशी पञ्चेन्द्रियके होता है । इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। त्रस अपर्याप्तकोंमें द्वीन्द्रिय अपर्याप्त सब जघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए त्रस अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी द्वोन्द्रिय अपर्याप्तक जीव कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। १२५. पांचों मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। निद्रा और प्रचला प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्ध का स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो निद्रा और प्रचलाके बन्धके अन्तिम समयमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। 'स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य मिथ्यादृष्टि जो साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है, संयमके अभिमुख है और जघन्य स्थितिन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी है । असाता वेदनीय, अगति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकोति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और जघन्य स्थितिबन्धमै अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो असंयत सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है, संयमके अभिमुख है और जघन्य स्थितिषन्धमें अवस्थित है वह उक्त चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो सयंतासंयत है, साकारजागृत है, तत्प्रायोग्य सर्व विशुद्ध है, संयमके अभिमुख है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है यह उक्त चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-सामित्तपरूवणा २९९ हिदि० वट्ट० । इन्थि०-णवुस-पचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थवि०-भग-दुस्सरअणादे० जह० हिदि० कस्स ? अण्ण० चदुगदियस्स मिच्छादि० सागार-जा. तप्पाअोग्गविसुद्ध० । हस्स-रदि-भय-दुगु. जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. अपुवकरणखवग० चरिमे जह• हिदि० वट्ट० । णिरयायु० जह० हिदि कस्स ? अएणद. दुगदिय० सागार-जा० तप्पाओग्गविसु० । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण तिरिक्ख० मणुस. तप्पाओग्ग-संकिलि० । देवायु० तं चेव । णिरयगदि-तिएिणजादि-णिरयाणुपु०-सुहुम-अपज०-साधार० जह• हिदि. कस्स० १ अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छादि० तप्पाओग्गविसु० । तिरिक्खगदितिरिक्खाणुपु०-उज्जो०-णीचागो० जह० हिदि० कस्स० १ अएण. सत्तमाए पुढवि० णेरइ० मिच्छादि० सागार-जा० सव्वविसु० सम्मत्ताभिमुह जह० हिदि० वट्ट० । मणुसग०-ओरालि०-ओरालि अंगो०-वज्जरिसभा-मणुसाणु० जह० हिदि कस्स. ? अण्ण० देव णेरइयस्स सम्मादि० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० । देवगदि-पंचिंदि०वेवि०-आहार-तेजा-क०-समचदु०-दोअंगो०-वरण०४-देवाणु०-अगु०४-पसस्थवि०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि०-तित्थय. जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण. स्वामी है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पांच संस्थान, पांच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका मिथ्यादृष्टि जीव जो साकारजागत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । हास्य, रति, भय और जुगुप्साके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर दो गतिका जीव जो साकार जागत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह नरकायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह उक्त दोनों आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी वही है । नरकगति, तीन जाति, नरक गत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्न प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सातवीं पृथिवीका नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकारजागृत है, सर्वविशुद्ध है, सम्यक्त्वके अभिमुख है और जघन्य स्थितिबन्ध अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रवृषभनाराचसंहनन और मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके अघन्य स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो सम्यग्दृष्टि है, साकारजागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति, पश्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक और आहारक दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि पाँच, निर्माण और तीर्थकर प्रक Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० महाबंधे द्विदिवंधाहियारे अपुव्वकरणखवग० परिभवियणामाणं बंधचरिमे जह• हिदि० वट्ट । एइंदि०. आदाव-थावर जह• हिदि० कस्स• ? अण्ण-तिगदियस्स मिच्छादि सागार-जा. तप्पाओग्गविसुद्ध । वचिजोगी. असच्चमोस. तसपज्जत्तभंगो। १२६. कायजोगि-ओरालियकायजोगि० मूलोघं । ओरालियमि० देवगदि०४तित्यय० जह० हिदि० कस्स० १ अएण. असंज. सागार-जा. सव्वविमु०। सेसाओ जाओ अत्थि ताओ तिरिक्खोघं । तियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो परमय सम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके अन्त में जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित वह जल प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तीन गतिका मिथ्यादृष्टि जीव जो साकारजागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी प्रसपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच मनोयोग और पाँच वचनयोगमें कौन जीव किन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है इसका विचार किया गया है। उसमें भी वचनयोग और असत्यमृषावचनयोग द्वीन्द्रियोंसे लेकर होता है इसलिए इनमें प्रसपर्याप्तकोंके समान सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व घटित हो जाता है, इसलिए उनका कथन प्रसपर्याप्तकोंके समान कहा है तथा शेषका स्वतन्त्र कथन किया है। यह तो स्पष्ट बात है कि पाँच मनोयोग और सत्य, असत्य और उमय वचनयोग एकेन्द्रियसे लेकर संशी पनन्द्रिय तक नहीं होते। केवल संक्षी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके होते हैं, इसलिए इनमें एकेन्द्रियोंसे लेकर असंझी पञ्चेन्द्रिय तकके जीवोंके होनेवाला स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है। अतः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में कहाँ किन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है इस दृष्टिसे इनमें सब प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका विचार किया गया है। यहाँ साधारणतः पहले और दूसरेगुणस्थानमें जिन प्रकृतियोंकीबन्धव्युच्छित्ति होती है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अधिकारी भेदसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें उपलब्ध होता है। इसी प्रकार आगे गुणस्थानों में जहाँ जिन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति कही है उस गुणस्थानमें उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति स्वामित्व उपलब्ध होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।मात्र चार आयकर्म सके अपवाद हैं। चारों आयुओका जघन्य स्थितिबन्ध अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धके योग्य सामग्रीके मिलने पर मिथ्यात्व गुणस्थानमें मनुष्य और तिर्यञ्चोंके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यश्च कहा गया है । सब प्रकृतियों के अपन्य स्थितिबन्धकी योग्यताका निर्देश मूलमें किया ही है। १२६. काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष जितनी प्रकृतियाँ हैं उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य तिर्यके समान है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-सामित्तपरुवणा ३०१ १२७. वेउव्वियका० पंचणा०-छदसणा०-सादावे०-बारसक-परिस-हस्सरदि-भय-दुगु-मणुसग०-पंचिंदि०-तिरिणसरीर०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरिसभ०-वएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-तित्थकरउच्चा०-पंचंत० जह• हिदि० कस्स० १ अएण. देवणेरइय० सम्मादि० सागारजा० सव्वविसुद्ध०। थीणगिद्धि३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जहरू हिदि० कस्स० ? अण्णद. देव.' णेरइ० मिच्छादि० सागार-जा० सम्मत्ताभिमुह । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह० हिदि० कस्स ? अण्ण देव० णेरइय० सम्मादि० सागार-जा. तप्पाअोग्गविसु० । इत्थि०-णवुस-पंचसंठा०पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादे०-णीचा जह० हिदि० लस्स० १ अएण देव णेरइय० मिच्छादि० सागार-जा० तप्पाओग्गविसु । दोआयु० जह• हिदि० कस्स० ? अण्णद० देव० णेरइय० मिच्छादि तप्पाओग्गसंकिलि । तिरिक्खग०तिरिक्वाणु-उज्जो०-णीचा० जहरू हिदि० कस्स ? अएणद० सत्तमाए पुढवीए मिच्छादि. सागार-जा. सव्वविसु० सम्मत्ताभिमुह । एइंदि०-आदाव-थावर १२७. वैक्रियिक काययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकतैजस-कार्मण तीन शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी : अन्यतर देव और नारकी जो मिथ्यादृष्टि है. साकार जागृत है और सम्यक्त्वके अभिमख है वष्ठ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असातावेदनीय, अरति. शोक. अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो सम्यग्दृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध है और वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट है वह उक्त दो आयु प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सातवों पृथिवीका नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और सम्यक्त्वके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रिय जाति, पातप और स्थावर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका १. मूलप्रतौ देवगदि गैरइय० इति पाउः । २. मलमतौ देषगवि णेरइय० इति पाठः । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे जह० ट्ठिदि० कस्स० १ अएण० ईसाणंतदेवस्स मिच्छादि० तप्पाओग्गविसु । एवं चेव वेउव्वियमि० । वरि आयु० पत्थि । स्वामी कौन है ? अन्यतर ऐशान कल्प तकका देव जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगवाले जीवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मकी दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-काययोग और औदारिककाययोग एकेन्द्रियसे लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक होते हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व मलोधके समान बन जाता है। औदारिकमिश्रकाययोगके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये चार गुणस्थान हैं । यहाँ सयोगकेवली गुणस्थानसे तो प्रयोजन ही नहीं। शेष तीन गुणस्थान तिर्यञ्च और मनुष्य दोनोंकी अपर्याप्त अवस्थामें होते हैं पर मनुष्य अपर्याप्तकोंकी अपेक्षा तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन सम्भव है, क्योंकि तिर्यञ्चोंमें एकेन्द्रियोंकी भी परिगणना होती है, इसलिए यहाँ औदारिकमिश्रकाययोगमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है। मात्र एकेन्द्रियोंके देवगति-चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। तथा औदारिकमिश्रकाययोगमें इनका बन्ध अविरत सम्यग्दृष्टिके ही होता है इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अलगसे कहा है। औदारिकमिश्रकाययोगमें नरकायु, देवायु, नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गका बन्ध नहीं होता, इस लिए इनके स्वामित्वका यहाँ प्रश्न ही नहीं उठता। वैक्रियिक काययोग देव और नारकियोंके होता है, इसलिए इस बातको ध्यानमें रखकर इस योगमें बँधनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व यथायोग्य जान लेना चाहिए। समझनेकी बात इतनी है कि जिन प्रकृतियोंकी मिथ्यादृष्टि और सासदनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्ति होती है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व मिथ्यादृष्टि वैक्रियिककाययोगी देव और नारकी को मूलमें कही गई विशेषताको ध्यान रखकर देना चाहिए और जिन प्रकृतियोंका आगे भी बन्ध होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अविरतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिककाययोगी देव और नारकीको देना चाहिए । मात्र तिर्यञ्चगति द्विक, उद्योत और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सातवीं पृथिवीके सम्यक्त्वके सम्मुख हुए सर्वविशुद्ध नारकीको ही कहना चाहिए, क्योंकि सातवीं पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि नारकीके मनुष्यगति द्विक और उच्चगोत्रका बन्ध नहीं होता, इसलिए उसके सम्यक्त्वके अभिमुख होनेपर भी उक्त चार प्रकृतियोंका बन्ध होता रहता है। अतएव सातवीं पृथिवीमें ही इनका जघन्य स्थितिबन्ध उपलब्ध होता है। इसी तरह वैक्रियिक काययोगमें तिर्यञ्चाय और मनुष्यायका उसके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध मिथ्यात्वमें ही उपलब्ध होता है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणाम मिथ्यादृष्टिके ही होते हैं। यही कारण है कि यहाँ वैक्रियिक काययोगमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व उक्त प्रकारसे कहा है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वके प्रति वैक्रियिककाययोगसे अन्य कोई विशेषता नहीं है। मात्र वैधियिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए जिन प्रकृतियोंके जधन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व वैक्रियिककाययोगमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-सामित्तपरूवणा ३०३ 0 १२८. आहार०-आहारमि० पंचणा० छदंसरणा० - सादावे ० - चदुसंज० - पुरिस हस्स-रदि-भय-दुगु ं०-देवगदि ० - पंचिंदि० - तिणिसरीर० - समचदु० - वेडव्वि० अंगो०वरण० ४- देवाणुपु० गुरु ०४ - पसत्थवि-तस०४-थिरादिछ० - णिमि० - तित्थय ०ऊच्चागो०- पंचंतरा० जह० द्विदि० कस्स० ? अण्ण० पमत्तसंजद० सागार-जा० सव्वविसु० । असादा० अरदि-सोग - अथिर असुभ अजस ० जह० हिदि० कस्स ० १ अण्ण० पमत्त० सागार- जा ० तप्पा ओग्गविसु० | देवायु० जह० हिदि ० कस्स ? अरण • सागार-जा० तप्पा ओग्गसंकलि० । कम्मइग० ओरालियमिस्सभंगो । raft यु० गत्थि । तित्थय० दुर्गादियस्स' । जीवके कहा है यहाँ उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व जो पर्याप्त होने पर सम्यक्त्वको प्राप्त होगा ऐसे जीवके जघन्य स्वामित्व कहना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें आयुका बन्ध नहीं होता यह स्पष्ट ही है । १२८. श्राहारककाययोगी और श्राहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिक-तैजस-कार्मण तीन शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । साता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामपाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । कार्मणकाययोगी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके आयुका बन्ध नहीं होता । तथा इनके तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी दो गतिका जीव है । विशेषार्थ - - आहारक काययोग और श्राहारकमिश्रकाययोग प्रमत्तसंयत जीवके होता है, इसलिए प्रमत्तसंयत जीवके बँधनेवाली प्रकृतियों की अपेक्षा यहाँ जघन्य स्वामित्व कहा है । विशेषता मूलमें कही हो है । श्रदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग के गुणस्थान एक समान ही हैं तथा औदारिकमिश्रकाययोगके समान यह योग भी एकेन्द्रियोंके होता है इसलिए इसमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व श्रदारिक मिश्र - काययोगके समान कहा है । मात्र यहाँ इतनी विशेषता है कि एक तो कार्मण काययोगमें श्रयुकर्मका बन्ध नहीं होता और दूसरे यद्यपि कार्मणकाययोग में नरकगति, मनुष्यगति और देवगतिके जीवके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध होता है पर इसके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी देवगति और मनुष्यगतिका जीव ही है, क्योंकि इसके योग्य सर्वविशुद्ध परिणाम इन दो गति कार्म काययोगी जीवके ही हो सकते हैं। १. मूलप्रतौ दुगदियस तित्थय० इस्थि० इति पाठः । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे १२६. इत्थि० - पुरिस ० प' चरणा० - चदुदंसणा ० - सादावे ० चदुसंज० - पुरिस०जसगि० - उच्चा० - प'चंत० जह० द्विदि० कस्स० १ अरण० अणियट्टि० खवग० जह० द्विदि० वट्ट० | आहार० - आहार० अंगो० - तित्थय ० मूलोघं । एवरि इत्थवेद ० तित्थय- अपुव्वकरणउवसामयस्स | सेसाणं पंचिदियतिरिक्खभंगो । एवं स ० खवगपगदी इत्थभंगो । सेसं सूलोघं । अवगदवेदे श्रघं । १३०. कोध० - माण० - माया० एवं सगभंगो । एवरि तित्थयरं श्रघं । लोभे मूलोघं । ३०४ १२९. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अनिवृत्तिक्षपक जो जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । आहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समन है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद में तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पूर्वकरण उपशामक जीव है । इनके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है । नपुंसकवेदी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्त्रोवेदी जीवोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । अपगतवेद में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोघके समान है । विशेषार्थ - स्त्रीवेद, पुरुषवेद अपने अपने सवेद भागतक होते हैं इसलिए इनमें दसर्वे गुणस्थान और नौवें गुणस्थानमें बँधनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी क्षपक अनिवृत्तिकरण जीवको कहा है, तथा इन दोनों वेदों का उदय अशी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके भी होता है, इसलिए शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान कहा है । मात्र श्राहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध अपूर्वकरण क्षपक होता है इसीलिए इन तीनों प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पूर्वकरण क्षपक जीवको कहा है। यहाँ यह बात सबसे अधिक ध्यान देने योग्य है कि जिसके तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता होती है वह पुरुषवेदके साथ ही क्षपक श्रेणीपर आरोहण करता है, क्योंकि जो जीव तीर्थकर होता है उसके जन्मसे एकमात्र पुरुषवेदका उदय होता इसलिए स्त्रीवेद में तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उपशामक अपूर्व करण है । जीवको कहा है । नपुंसक वेद में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्त्रीवेद के समान है यह तो स्पष्ट ही है । मात्र नपुंसक वेदका उदय एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर होता है इसलिए इसमें शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान कहा है । अपगतवेद में नौवें और दशवे गुणस्थान में बँधनेवाली प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है, क्योंकि यह संज्ञा नौवें गुणस्थान के श्रवेदभागसे प्रारम्भ होती है, इसलिए इसमें उक्त प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओघ के समान कहा है । १३०. क्रोध कषायवाले, मान कपायवाले और माया कपायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी नपुंसकवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओधके समान है। तथा लोभ कमायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है 1 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहष्ण-सामित्तपरूवणा ३०५ १३१. मदि० सुद० तिरिक्खोघं । विभंगे पंचरणा० - एवदंसणा० सादा०मिच्छ०- सोलसक० - पुरिस० - हस्स-रदि-भय-दुगुं ० -देवादि - पंचिंदि० - वेडव्वि ० - तेजा०क० समचदु० - वेडव्वि० अंगो ० -वरण ०४- देवाणु ० गुरु ०४ - पसत्थवि० -तस० ४-थिरादिछ० - णिमि० उच्चा० पंचंत० जह० हिदि० कस्स० ? अएण मणुस० सागारजा० सव्वविसु ० संजमाभिमुह० । श्रसादा० -अरदि-सोग- अथिर असुभ अजस० जह० ट्ठिदि० कस्स० ? अण्ण० चदुगदि० सत्थाणे सागार - जा० । इत्थि० एवं स ० - -पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थवि० दूर्भाग- दुस्सर - अरणादे० जह० हिदि० कस्स० ? अरण० चदुगदि ० तप्पा ओग्गविसुद्ध । श्रायुगाणं मण जोगिभंगो । तिरिक्खग० तिरिक्खाणुपु० - उज्जोव०-सीचा० जह० हिदि० कस्स ? रण० सत्तमा पुढवीए मिच्छादि ० सागार - जा० सव्वविसु सम्मत्ताभिमु० । गिरयगदि तिरिए जादि-रिया७० - मुहुम-अपज्ज० - साधार० जह० द्विदि० कस्स० ? अएण तिरिक्ख० मणुस ० तपारगविसु । मणुसग०-ओरालि०-ओरालि० अंगो० - वज्जरिस० – मरणुसागु० • विशेषार्थ - किसी भी कषायके उदयसे जीव क्षपक श्रेणीपर श्रारोहण करता है और उसके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए चारों कषायों में तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रधके समान कहा है। शेष कथन सुगम है । १३२. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । विभङ्गज्ञान में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैकियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर श्रादि छह, निर्माण उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके श्रभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । असाता वेदनीय, श्ररति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है और साकार जागृत है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर चार गतिका जीव जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मकी चार प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनोयोगी जीवोंके समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सातवीं पृथिवीका नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है और सम्यक्त्वके श्रभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। नरकगति, तीन जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्या ३९ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ महाबंधे हिदिबंधाहियारे जह० हिदि० कस्स० १ अएण. देव० णेरइयस्स सागार-जा. सव्वविसुद्ध० सम्मत्ताभिमुह । एइंदि०-आदाव-थावर० मणजोगिभंगो । १३२. आभि०-सुद०-अोधि० खवगपगदीणं मूलोघं । णिदा-पचलाणं जह. हिदि० कस्स० ? अण्ण. अपुवकरणखवग० चरिमे जह० द्विदि० वट्टमा० । असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह• हिदि० कस्स० १ अण्ण. पमत्तसंज. सागार-जा. तप्पाओग्गविसु । हस्स-रदि-भय-दुगु० जह• हिदि. कस्स० ? अएण. अपुव्व० खवग० चरिमे जह० हिदि० वट्ट । मणुसायु० जह. हिदि. कस्स. ? अण्ण० देव णेरइ. सागार-जा० तप्पाओग्गसंकिलि० । देवायु० नुपूर्वी इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और सम्यक्त्वके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । एकेन्द्रिय जाति, भातप और स्थावर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्ध का स्वामी मनोयोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-मत्यज्ञान और श्रुताशान तिर्यञ्चोंके भी होता है और इन दोनों मार्गणाओंमें जघन्य स्थितिबन्ध तिर्यञ्चोंकी अपेक्षा ही सम्भव है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी तिर्यञ्चोंके समान कहा है। विभङ्ग ज्ञान चारों गतियों में सम्भव है पर इसके रहते हुए संयमके अभिमुख परिणाम मनुष्यगतिमें ही हो सकते हैं और ऐसे जीवके ही जघन्य स्थितिबन्ध होगा, इसलिए प्रथम दण्डकमें कही हुई प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी संयमके अभिमुख विभङ्गज्ञानी मनुष्य कहा है। दूसरे और तीसरे दण्डकमें जो प्रकृतियाँ गिनाई हैं उनका जघन्य स्थितिबन्ध स्वस्थानमें ही सम्भव है, इसलिए उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी चारों गतिका विभङ्गज्ञानी जीव कहा है। सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टिके तिर्यञ्चगति आदिका ही बन्ध होता है. इसलिए सम्यक्त्वके अभिमुख होने पर भी इसके इन प्रकृतियोंका बन्ध होता रहता है। जब कि अन्यत्र ऐसी अवस्थाके प्राप्त होने पर इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं हो सकता है। यदि विचार कर देखा जाय तो विभङ्गशानमें ऐसे जीवके हो उक्त प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है। यही कारण है कि तिर्यञ्चगति आदि चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सातवीं पृथिवीका विभङ्गज्ञानी जीव कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। १३२. आभिनिबोधिकमानी, श्रुतज्ञानी और अवधिशानी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । निद्रा और प्रचला प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामो कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त दोनों प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर प्रमत्तसंयत जो साकार जाग्रत है और तत्प्रायोग्य विशद्ध परि है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षएक जो अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह मनुष्यायुके जघन्य Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण-सामिरापरूवरणा ३०७ जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण तिरिक्ख० मणुस तप्पाअोग्गसंकिलि। मणुसगओरालि०-ओरालि अंगो०-वजरिसभ०-मणुसाणु० जह० हिदि. कस्स० ? अपण. देव णेरइ. सागार-जा० सव्वविसुद्ध० । देवगदि एवं पसत्यत्तीसं जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. अपुव्व०खवग, परभवि० बंधचरिमे वट्ट० । अप्पचक्खा०४ जह० हिदि० कस्स० १ अण्ण. मणुस. असंज. सागार-जा० सव्वविसु० संजमाभिमुह । पच्चक्रवाणा०४ जह• हिदि० कस्स. ? अण्णद. मणुस० संजदासंजद० सागार-जा० सव्वविसु. संजमाभिमुह । मणपज्जव० अोधिभंगो । पवरि देवायु० जह• हिदि० कस्स. ? अण्ण. पमत्तसंज० तप्पाओ०संकिलि । १३३. संजदा० मणपजवभंगो। सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०स्थितिबन्धका स्वामी है । देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग,वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगतिसे लेकर प्रशस्त तीस प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जो परभव सम्बन्धी प्रकृतियोंके बन्धके अन्तमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। अप्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। प्रत्याख्यानावरण चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितियन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य संयतासंयत जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनःपर्ययज्ञानमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानीके समान है। इतनो विशेषता है कि देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थिति बन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-आभिनिबोधिक आदि तीन शान चौथेसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक होते हैं। इनमें क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति भी सम्भव है, इसलिए ३६ प्रकृतियोंका क्षपकोणिके आठवें गुणस्थानमें, ५ का नौवेंमें और १७ का दसर्वे में जघन्य स्वामित्व कहा है । शेष प्रकृतियोंके विषयमें जहां जिनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है और जिनके उनका बन्ध होता है इन दो बातोंको ध्यानमें रखकर उनके जघन्य स्वामित्वका विचार किया है। शेष विशेषताएँ मूलमें कही ही हैं। मनःपर्ययशान ६ छठवें गुणस्थानसे होता है । अतः जितनी प्रकृतियोंका बन्ध इसके होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व अवधिज्ञानी जीवके भी छठवें आदि गुणस्थानों में ही प्राप्त होता है, इसलिए मनापर्ययज्ञानमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानी जीवोंके समान कहा है। मात्र देवायु इसका अपवाद है। कारण कि देवाय का जघन्य स्थितिबन्ध अवधिज्ञानीके चतर्थ गणस्थान में होता है और मनःपर्ययशानमें प्रमत्तसंयतके होता है, इसलिए इतनी विशेषता अलगसे कही है। १३३. संयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनापर्यय Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे लोभसंज-जस०-उच्चा०-पंचंत, जह• हिदि. कस्स० १ अरण. अणियट्टिखवगरस चरिमे हिदि० वट्ट० । सेसं संजदभंगो । परिहार• आहारकायजोगिभंगो । णवरि सामित्तदो सहाणेसु याओ सम्वविसुद्धाश्रो ताओ दंसणमोहणीयखवगस्स से काले कदकरणिज्जो होहिदि त्ति अथवा सत्थाणे अप्पमत्तसव्वसुद्ध० । सेसाणं आहारकायजोगिभंगो । सुहुमसंपरा ओघं । १३४. संजदासंजदा. पंचणा०-छदंसणा-सादावे-अहकसा०-पुरिस-हस्सरदि-भय-दुगु-देवगदि-पसत्यहावीस-तित्थयर-उच्चा०-पंचंत० जह० हिदि. शानी जीवोंके समान है। सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, संज्वलन लोभ. यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अनिवृत्तिक्षपक जो अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके जधन्य स्थितिबन्धका स्वामी संयत जीवोंके समान है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी आहारककाययोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि स्वस्थानमें जो सर्वविशुद्ध परिणामोंसे बँधनेवाली प्रकृतियाँ हैं उनको जो तदनन्तर समयमें कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होगा ऐसा दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है, अथवा स्थानमें जो अप्रमतसंयत है, सर्व विशुद्ध परिणामवाला है वह उन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी आहारककाययोगी जीवोंके समान है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है।। विशेषार्थ-बन्धकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंकी स्थिति एक समान है, इसलिए संयतोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी मनःपर्ययज्ञानके समान कहा है। सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत मात्र नौवें गुणस्थानतक होते हैं इस लिए इनमें दसवें गुणस्थानमें बन्धव्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व क्षपक अनिवृत्तिकरणको दिया है। शेष स्थिति संयत जीवोंके समान है, इसलिए इन दोनों संयतोंके शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी संयत जीवोंके समान कहा है। परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वको दो भागोंमें विभक्त कर दिया है-जो वहां सर्वविशुद्ध परिणामोसे प्रकृतियोंका बन्ध होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अलगसे कहा है और शेष असाता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व आहारककायजोगी जीवोंके समान कहा है । आशय यह है कि पाँच शानावरण आदि जिन प्रकृतियोंका सातवें गुणस्थानमें बन्ध होता है उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी या तो जो अनन्तर समयमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि होगाऐसा कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जीव कहना चाहिए या खस्थानमें ही सर्वविशुद्ध परिणामवाला अप्रमत्तसंयत जीव कहना चाहिए और असाता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी आहारककाययोगी जीवोंके समान तत्प्रायोग्यविशुद्ध परिणामवाला प्रमत्तसंयत जीव कहना चाहिए । १३४. संयतासंयत जीवों में पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, पाठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ जहएण-सामित्तपरूवणा कस्स० ? अण्ण० मणुस० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० संजमाभिमुह । असादा०अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह• हिदि० कस्स० ? अण्ण. सत्थाणे तप्पाप्रोग्गविसद्ध० । देवायु० जह• हिदि० कस्स० ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० तप्पाअोग्गसंकिलि० । असंजदा० मदि०भंगो । एवरि तित्थयरं जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण० सम्मादि० मणुस० सागार-जा• सव्वविसु० संजमाभिमुह ।। १३५. चक्खुदं० खवगपगदीओ वेउब्बियलकं मूलोघं । सेसाणं चदुरिंदियपज्जत्तभंगो । अचक्खु. मूलोघं । प्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो । है। अन्यतर मनुष्य जो साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशाकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर स्वस्थानवर्ती तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणोमवाला जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायु के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असंयत जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मत्यज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेपता है कि तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि मनष्य जो साकारजाग्रत है, सर्व विशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है।। विशेषार्थ-संयतासंयतोंका एक ही गुणस्थान है। यहां संयमके सन्मुख हुए जीवके पाँच ज्ञानावरणादिका सबसे जघन्य स्थितिबन्ध होता है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्ध का स्वामी ऐसा मनुष्य कहा है और शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध स्वस्थानमें ही होता है अतः उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्वस्थानवर्ती तिर्यञ्च और मनुष्य कहा है। असं. यतों में जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा एकेन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी मुख्यता है। मत्यज्ञानियों में भी जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीका विचार एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा किया है, इसलिए असंयतोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मत्यज्ञानियोंके समान कहा है। मात्र जिन प्रकृतियोंका एकेन्द्रियोंके बन्ध नहीं होता उन प्रकृतियोंका विचार जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके विचारके समय कर आये हैं उस प्रकारसे करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चोंके या मत्यज्ञानियोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता इसलिए यहाँ इसके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अलगसे कहा है। १३५. चक्षुदर्शनवाले जीवों में क्षपक प्रकृतियाँ और वैक्रियिक छहके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी चतु. रिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है । अचक्षुदर्शनवाले जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोधके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानियोंके समान है। विशेषार्थ-चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रिय जीवोंसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होता है और अचक्षुदर्शन एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होता है। इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व मूलमें कही गई विधिके अनुसार बन जाता है। अवधिदर्शनीमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानियों के समान है यह स्पष्ट ही है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० महाबंधे टिदिबंधाहियारे १३६. [किएण-पील-काउ० अप्पप्पणो पगदीणं असंजदभंगो। णवरि] किएण-णील. तित्थय० जह• हिदि० कस्स० ? अण्ण. मणुस० असंजदस. सव्वविस० । काउ० णेरइ. सव्वविसः । १३७. तेऊए पंचणा-छदसणा-सादावे०-चदुसंज०-पुरिस०-हस्स-रदि-भयदुगु-देवगदि-पसत्थएक्कत्तीस-उच्चा०-पंचंत० जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण. अप्पमत्तसंज० सव्वविसु । थीणगिद्धि०३-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि. कस्स० ? अण्ण० मणुस. सव्वविसु. संजमाभिमुह० । असादा-अरदि-सोगअथिर-असुभ-अजस० जह• द्विदि० कस्स० ? अण्ण. पमत्तसंज० तप्पाअोग्गविसुद्ध० । अपच्चक्खाणा०४ जह० हिदि० कस्स० ? अएण. मणुस. असंजद० सागार-जा० सव्वविसु. संजमाभिमुह । पच्चक्रवाणा०४ जह० हिदि. कस्स. ? अएण. मणुस. संजदासंजद सागारजा० सव्वविसु० संजमाभिमुह । इत्थि० १३६. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें अपनी अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग असंयतों के समान है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण लेश्या और नील लेश्यावाले जीवों में तीर्थ कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो असंयत सम्यग्दृष्टि है और सर्वविशुद्ध है वह तीर्थ कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। कापोत लेश्यामें जो नारकी सर्वविशुद्ध है वह तीर्थ कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या असंयतोंके होती है और असंयतोंमें जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंकी नरकायु व देवायुकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियोंकी और नरकगति छहकी अपेक्षा असंशियोंकी मुख्यता है, इसलिए इन लेश्याओं में सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी असंयतोंके समान कहा है । मात्र तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध इन जीवोंके नहीं होता, इसलिए इसके जघन्य स्थितिवन्धके स्वामीका कथन अलगसे किया है। इतना अवश्य है कि नरकगतिमें तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध करनेवाले जीवके कृष्ण और नील लेश्या नहीं होती, इसलिए इन लेश्याओंमें तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य कहा है और कापोत लेश्यामें नारकी जीव कहा है। १३७. पीतलेश्यामें पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त इकतीस प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अप्रमत्त संयत जीव जो सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव जो तत्प्रायोग्यविशुद्धपरिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धकास्वामी है । अप्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो असंयत सम्यग्दृष्टि है साकारजागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। प्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो संयतासंयत है, साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके अभिमुख Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाहण्ण-सामित्तपरूवणा २११ णवुस०-एइंदियनादि-पंचसंठा-पंचसंघ-तिरिक्वाणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्यवि०थावर-भग-दुस्सर-अणादे०-गोचा० जह• हिदि. कस्स० १ अएण. देवस्स मिच्छा० तप्पाओग्गविसुद्ध । दोआयु० जह• हिदि० कस्स० १ अएण. देवस्स तप्पाओग्गसंकिलि० । देवायु० जह० हिदि० कस्स. ? अएण. तिरिक्व० मणुस० मिच्छादि० तप्पाओग्गसंकिलि । मणुसग०-ओरालि०-ओरालि अंगो०वजरिसभ -मणुसाणु० जह• हिदि० कस्स० ? अएण० देवस्स सम्मादि० सव्वविसुः । एवं पम्माए । वरि एइंदिय-आदाव-थावरं णत्थि । १३८. सुक्काए मणजोगिभंगो। रणवरि इत्थि०-णवुस-पंचसंठा-पंचसंघ०अप्पसत्य०-दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचागो० जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. देवस्स मिच्छादि० तप्पाओग्गविसुद्ध० । १३६. भवसिद्धि० ओघं । अब्भवसिद्धि० मदियभंगो। १४०. सम्मादि०-ख इग० अोधि भंगो । वेदगे पंचणा०-छदसणा०-सादावे है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। दो श्रायुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो सम्यग्दृष्टि है और सर्वविशद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार पद्म लेश्यामें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इस लेश्याबाले जीवोंके एकेन्द्रिय, पातप और स्थावर प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। १३८. शुक्ललेश्यामें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इसमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव जो मिथ्यादृष्टि है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। १३६. भव्य जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। अभव्य जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मत्यज्ञानियोंके समान है। १४०. सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिज्ञानियोंके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें पाँच झानावरण, छह Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे चदुसंज०-पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दुगु०-देवगदि-पसत्यएकत्तीस-उच्चागो०-पंचंत. जह• हिदि० कस्स० ? अएण, अप्पमत्तसंजद० सव्वविस० अथवा दंसणामोहखवगस्स कदकरणिज्जो होहिदि त्ति । सेसं ओधिभंगो। उवसम० श्रोधिभंगो । णवरि खवगपगदीणं उवसमगे कादव्वं । १४१. सासणे पंचणा-णवदसणा-सादावे. सोलसक०-पुरिस-हस्स-रदिभय०-दुगु-पचिंदिय०-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४थिरादिलक्क-णिमिण-उच्चागो०-पचंत• जह• हिदि कस्स० ? अण्ण. चदुगदि. सागार-जा० सव्वविसु० । असादा०-इत्थि० अरदि-सोग-चदुसंठा०-चदुसंघ०-अप्पसत्य-अथिरादिछक्क० जह• हिदि. कस्स० ? अण्ण ? चदुगदिय० सागार-जा. तप्पाओग्गविसु । तिरिकरवायु०-मणुसायु० जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण. देव० णेरइ० तप्पाअोग्गसंकिलि. अथवा चदुगदियस्स तप्पागोग्गसंकिलि० । देवायु० जह• हिदि० कस्स• ? अएण. तिरिक्व० मणुस तप्पाओ०संकिलि० । तिरिक्खगदि-तिरिक्रवाणुपु०-उज्जोव-णीचा. जह• हिदि० कस्त० ? अएण. दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि इकतीस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंकेजधन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अप्रमत्तसंयत जीव जो सर्वविशुद्ध है वह अथवा जो अनन्तर समयमें कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होगा ऐसा दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका स्वामी अवधिशानियोंके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी अवधिशानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उपशामकको कहना चाहिए। १४१. सासादनमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, बस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो साकार जागृत है और सर्वविशुद्ध है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छह प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह अथवा चार गतिका जीव जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह उक्त दोनों श्रायुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तियश्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है वह देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्च गति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्ण- सामित्तपरूवणा ३१३ सत्तमा पुढवीए रइ० सव्वविसु । मणुसग ० - ओरालि० ओरालि० अंगो०- वज्जरिसभ० - मणुसागु० जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण० देव० रइय० सव्वविसु० । देवदि ० ४ जह० हिदि० कस्स० ? अण्ण० तिरिक्ख० मरणुस ० सव्वविसु० । १४२. सम्मामिच्छा० पंचणा० - इदंसणा ० - सादावे ० - बारसक० - पुरिस०-हस्सरदि-भय-दुगु'०-पंचिंदि ० - तेजा ० क० - समचदु० - वरण ०४ गुरु ०४-पसत्थ० -तस०४थिरादिछक - रिणमिण - उच्चा०- पंचत० जह० हिदि० कस्स० ? अरण ० चदुगदियस्स सागार - जा० सव्ववसु० सम्पत्ताभिमुह० । असादावे ० -अरदि-सोग- अथिर-असुभअस० जह० हिदि ० कस्स० ? अण्ण० चदुगदियस्स सत्थाणे तप्पारगविसु० । मसग ०-ओरालि०-रालि० अंगो० वज्जरिसभ० - मणुसार ० जह० द्विदि० कस्स ? erro देव० रइ० सव्वविसु० सम्मत्ताभिमुह० देवगदि० ०४ जह० द्विदि० कस्स० ? अण्ण० तिरिक्ख० मपुस ० सागार-जा० सव्वविसु० सम्मत्ताभिमुह० । मिच्छादिट्ठी • मदिय० भंगो। सरिण० मणुसभंगो । असरिण० तिरिक्खोघं । आहार० मूलोघं । णाहार० कम्मइगभंगो | एवं जहएगो समत्तों । एवं सामित्तं समत्तं । ० है ? तर सातवीं पृथिवीका नारकी जो सर्वविशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्य गत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है ? अन्यतर देव और नारकी जो सर्वविशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्तर तिर्यश्च और मनुष्य जो सर्वविशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । १४२. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और सम्यक्त्वके श्रभिमुख है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । साता वेदनीय, रति, शोक, अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो स्वस्थानस्थित तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्य गति, औदारिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव और नारकी जो सर्वविशुद्ध है और सम्यक्त्वके अभिमुख है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। देवगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और सम्यक्त्व अभिमुख है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मिथ्यादृष्टि जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मत्यज्ञानियोंके समान है । संज्ञी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनुष्योंके समान है । श्रसंज्ञी जीवों में तिर्यञ्चोंके समान है । आहारक जोवोंमें मूलोघके समान है और अनाहारक जीवों में कार्मण काययोगी जीवोंके समान है । इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ । इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ । ४० Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे बंधकालपरूवणा O " १४३. कालं दुविधं – जहण्णयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि० - घे ० आदे० । घे पंचा०-वस० - मिच्छत्त- सोलसक० -भय-दुगु' ०-ओरालिय०तेजा ० क० - चरण०४ - अगु० -उव० - रिणमि० पंचंतराइगाणं उकस्सयो हिदिबंधो केवचिरं कालादो होदि ? जहरणेण एगसमयं उकस्से अंतोमुहुत्तं । अणुकस्सद्विदिवं ० केवचिरं ? जह० तो ० उक० अरांतकालं असंखेज्जपोग्गलपरियौं । वरि ओरालि० जह० एस० । सादासादा० - इत्थि० एस० - हस्स-रदि-अरदि-सोगरियगदि- एइंदि० - बीइंदि० तीइंदि० चदुरिंदि० आहारदुग-पंचसंठा०-पंच संघ०-रियागु० - आदाउज्जो० - अप्पसत्थवि ० थावरादि ०४ - थिराथिर - सुभासुभ- दूभग - दुस्सर-अरणादे० - जस० - अजस० उक्क० अ० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पुरिस० उक्क० हिदि ० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणुक्क० द्विदि० जह० एग०, सादि० । चदुराणं आयु० उक्क० द्विदि० जहण्णुक० एस० । जह० उक्क० अंतो० । एवं याव अणाहारगति सरिसो कालो । एस अक० द्विदि० जह० एग० । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० णीचा० उक्क० उक० वे छावहि० ३१४ अणुक्क० हिदि० वरि जोग- कसा बंधकाल प्ररूपणा १४३. काल दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है— ओघ और आदेश । घकी अपेक्षा पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका कितना काल है ! जघन्यकाल एक समय है और उत्कृटकाल अन्तमुहूर्त है। अनुष्ट स्थितिबन्धका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि श्रदारिक शरीर के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है । सातावेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, श्ररति, शोक, नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, आहारक द्विक, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशः कीर्ति और अयशःकीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पुरुष वेदके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है । चार आयुओं के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणातक चार श्रायुओं का समानकाल है । इतनी विशेषता है कि योगों में और कषायों में उनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्सट्रिदिबंधकालपरूवणा हिदि० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अणुक० जह० एग०, उक० असंखेज्जा लोगा। मणुसग०-वजरिसभ०-मणुसाणु उक्क० हिदि. जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणुक्क० जह• एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० । देवगदि०४ उक्क० हिदि जह• एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० हिदि० जह० एगस०, उक्क० तिषिण पलिदो० सादि० । पंचिंदि०-पर-उस्सास-तस-बादर पजत्त-पत्तेय० उक्क० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो । अणुक्क० द्विदि० जह• एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं । समचदु०पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे-उच्चा० उक्क हिदि• जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० हिदि० जह• एग०, उक्क० वेछावहिसाग० सादि० तिरिण पलिदो० देसू । ओरालि अंगो० उक्क• हिदि० जह० एग०, उक्क अंतो० । अणुक० हिदि० जह ० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । सत्तमादो णिग्गमंतस्स सादिरेयं । तित्थयरं उक्क० हिदि. जह• अंतो०, उक्क, अंतो। अणुक्क हिदि० जह० अंतो, उक० तेत्तीसं० सादि। उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है। देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुकृष्ट स्थितिबन्धकाजघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक तीन पल्य है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, त्रसकाय, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल एकसौ पचासी सागर है । समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है ओर उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है । औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तमुहर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तैतीस सागर है जो सातवीं पृथ्वीसे निकलनेवाले जीवके साधिक होता है । तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक तीन सागर है। विशेषार्थ-यहाँ एक जीवकी अपेक्षा कालका विचार किया जा रहा है। साधारणतः सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक होते हैं, इसलिए सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । मात्र तीर्थकर प्रकृति इस नियमका अपवाद है; क्यों कि उसकी कोई प्रतिपक्ष प्रकृति न होनेसे उसके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त है । यहां पर मुख्यरूपसे विचार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालके सम्बन्धमें करना है। यह हम पहले ही बतला आये हैं कि कुल बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ महाबंधे डिदिबंधाहियारे १४४. आदेसेण हैरइएमु पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक०-भयदुगुं०-तिरिक्खगदि-पंचिंदि०-ओरालिय०-तेजा०-क०-ओरालि अंगो०-वएण०४हैं और उनमें ज्ञानावरण पाँच आदि संतालीस ध्रुवाधनी प्रकृतियाँ हैं। इनमें औदारिक शरीरके मिलाने पर कुल ४८ प्रकृतियाँ होती हैं । इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल बतलाया है। सो इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके बाद इनका कमसे कम अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कालतक नियमसे होता है,तभी पुनः उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होते हैं। पर यदि कोई जीव त्रस पर्यायके बिना निरन्तर एकेन्द्रिय पर्यायमें परिभ्रमण करतारहे तो उसे उत्कृष्ट रूपसे अनन्तकाल लगता है। तब जाकर वह त्रस होता है और त्रस होनेपर भी संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त होनेपर ही इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है; अन्यथा नहीं। यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल कहा है। औदारिकशरीर ध्रुवबन्धिनी प्रकृति नहीं है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। पर एकेन्द्रिय पर्यायमें वैक्रियिक शरीरके बन्धकी योग्यता न होनेसे निरन्तर औदारिकशरीरका ही बन्ध होता रहता है, इसलिए ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके समान इसका भी उत्कृष्टकाल अनन्तकाल कहा है। इसके बाद साता आदि ४१ प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जो जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सो इसका कारण यह है कि आहारकद्विकके बिना ये सब प्रतिपक्ष प्रकृतियां हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त बन जाता है । तथा गुणस्थानोंके परिवर्तनके निमित्तसे आहारकद्विकका भी जघन्य काल एक समय बन जाता है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है। कोई जीव बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर साधिकदो छयासठ अर्थात् १३२ सागरतक सम्यक्त्वके साथ रह सकता है । इसीसे यहां पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कहा है, क्योकि इस जीवके न तो पुरुष वेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और न स्त्री वेद तथा नपुंसक वेदका ही बन्ध होता है । आयुोंका उत्कृष्ट त्रिभागके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, बाकी अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही होता है। इसीसे चारों आयुओंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहर्त कहा है। मात्र योग और कषायके परिवर्तनके कारण इन मार्गणाओंमें इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय भी बन जाता है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंको उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है । इनके इतने कालतक तिर्यञ्चद्विक और नीचगोत्रका ही बन्ध होता है । इसी से इन तीन प्रकृतियोके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसके इतने कालतक मनुष्यद्विक और वज्रर्षभनाराच संहननका नियमसे बन्ध होता है। इसीसे इन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा है। जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि जीव भोगभूमिमें जन्म लेता है, उसका दोनों पर्यायोंका काल साधिक तीन पल्य होता है । इसके देवगति चतुष्कका नियमसे बन्ध होता है । इसीसे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका उत्कृष्टकालसाधिक तीन पल्य कहा है। इसी प्रकार शेष रही प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालका विचार कर लेना चाहिए। १४४. आदेशसे नारकियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ११७ उक० तिरिक्खाणु ० - ० गुरु ०४-तस०४- रिणमि० णीचा० - पंचंत० उक० द्विदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणुक० हिदि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० । पुरिस० - मणुसग ०समचदु० - वज्जरिसभ ० - मरणुसारणु० -पसत्थवि ० सुभग-सुस्सर - आदे० - उच्चा ० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० | अक० हिदि० जह० एग०, उक० तेत्तीसं साग० सू० । तित्थयर० उक० द्विदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणुक० डिदि० जह० एग०, उक्क०, तिणिसागरो० सादि० । सेसारणं उक० अणुक्क० द्विदि० जह० एग०, उक० अंतो० । एवं सन्नगाए पुढवीए । वरि म सगदि० - उच्चा० उक्क० द्विदि० जह० ० । ० द्विदि० जह० "अंतो", मणुसाणु उक्क० तेत्तीसं साग० दे० । तित्थयरं च वज्ज० । पढमादि छट्टि त्ति तिरिक्खग०तिरिक्खाणु-णीचा० सादभंगो । सेसं खिरयोघं । वरि अप्पप्पणो हिदि कादव्वं । तित्थयर० उक्क० हिदि० रियोघं । ऋणु हिदि० जह० एग०, उक्क० सागरो० देस्र० तिथि साग० देसू० तिरिण साग० सादि० । 1 C शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर, आदेय और उसगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँपर मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । परन्तु यहाँपर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता । पहिली पृथिवीसे लेकर छठवीं पृथिवीतक तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके कालके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका उक्त काल सामान्य नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी - अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिए । तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल सामान्य नारकियोंके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रथमादि तीन पृथिवियोंमें क्रमसे कुछ कम एक सागर, कुछ कम तीन सागर और साधिक तीन सागर प्रमाण है । विशेषार्थ - सातवें नरकमें पाँच ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डकमें कहीं गईं ५९ प्रकुतियोंका मिथ्यादृष्टि नारकीके निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । दूसरे दण्डकमें कही गई पुरुषवेद आदि १० Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे १४५. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसक०भय-दुगु-ओरालि -तेजा-क०-वएण०४-अगुरु०४-उप०-णिमि-पंचंत० उक्क० हिदि० ओघं । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० अणंतकाल । पुरिस-देवगदिवेउव्विय-समचदु०-वेउवि० अंगो०-देवाणु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० उक्क हिदि० अोघं । अणु० हिदि० जह• एग०, उक० तिएिणपलिदो। तिरिक्वग-तिरिक्वाणुपु०-णीचा० उक्क० अणु० हिदि० अोघं । पंचिंदिय-परघादुस्सा.. तस०५ उक्क० हिदि० ओघं । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० तिषिण-पलिदो. सादिरे । सेसाणं उक्क० अणु० जह• एग०, उक्क अंतो। प्रकृतियों का सातवें नरकके सम्यग्दृष्टि नारकीके निरन्तर बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका तीसरे नरक तक ही वन्ध होता है। उसमें ऐसे जीवको साधिकं तीन सागरसे अधिक श्रायु नहीं प्राप्त होती, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है । नरकमें बँधनेवाली शेष सब प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। मात्र इनमें उद्योत प्रकृति प्रतिपक्ष नहीं है। तथापि इसका निरन्तर बन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भी उक्त काल कहा है। यह काल सातवीं पृथिवीकी मुख्यतासे कहा गया है इसलिए सातवीं पृथिवीमें यह काल इसी प्रकार घटित होता है। मात्र सातवीं पृथिवीमें मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि नारकीके केवल मनुष्यद्विक और उच्चगोत्रका बन्ध होनेके कारण इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही उपलब्ध होता है । शेष कथन सुगम है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका वन्ध तीसरे नरकतक ही होता है। १४५. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतष्क, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक शरीर प्राङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और उच्चगोत्र प्रकतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका काल अोधके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, परघात, उच्छवास और त्रसचतुष्क प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरण श्रादि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जो उत्कृष्ट काल अनन्तकाल कहा है सो इसका स्पष्टीकरण जिस प्रकार ओघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए । जो बद्ध तिर्यञ्चायु कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि या तायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यों में उत्पन्न होता है, उसके तिर्यञ्च Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सडिदिबंधकालपरूवणा १४६. पंचिंदियतिरिक्ख०३ धुविगाणं उक० हिदि० ओघं । अणु हिदि. जह एग०, उक० तिषिणपलिदो० पुबकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । पुरिस०देवगदि०-वेरवि०-समचदु०-वेउवि अंगो-देवाणुल-पसत्थवि-सुभग-सुस्सर-आदेउच्चा० उक. हिदि. ओघं । अणु० जह• एग०, उक्क० तिगिणपलिदो० । जोणिणीसु देसणं । [ पंचिंदिय-पर-उस्सा०-तस०४ तिरिक्खोघं । सेसाणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्त० सन्चपगदीणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। १४७. मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। वरि परिस०-देवगदि०४-पंचिंदिय पर्यायमें तीन पल्य कालतक निरन्तर पुरुषवेद आदि ग्यारह प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध नियमसे होता रहता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है। तिर्थश्चगतित्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोध प्ररूपणामें जिस प्रकार घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए। उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यहाँ उन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान कहा है। पञ्चेन्द्रियजाति आदि सात प्रकृतियोंका उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाला तिर्यञ्च साधिक तीन पल्यतक निरन्तर बन्ध करता है. इसलिए इसके अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १४६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें ध्रुववन्ध प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिपन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है। किन्तु योनिनी तिर्यञ्चों में इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास और त्रसचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इनके इतने कालतक ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। पुरुषवेद आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धके उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके कर आये हैं,उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए । मात्र सम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर योनिनी तिर्यञ्चोंमें नहों उत्पन्न होता, इसलिए इसमें इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। शेष कथन सुगम है। १४७. मनुष्यत्रिको पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे समचदु०-परघादुस्सा०-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० उक्क० ओघं । अणु० जह० एम०, उक्क० तिषिणपलिदो० सादि० । णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेद० देवगदि०४-समचदु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा उक्क० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क तिएिणपलिदो० देसू० । तित्थय. उक्क० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० पुचकोडी देसू०। आहार०-आहार अंगो० अोघं। मणुसअपज्ज० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। १४८. देवगदीए देवेसु पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दुगु मणुसग०-पचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क---समचदु०--ओरालि० अंगो०-वजरिसभावएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमिण-तिस्थय०-उच्चा-प'चंत० उक्क० ओघं । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० । थीणगिद्धि०३-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ उक्क० हिदि० ओघ । अणु० जह० एम०, पुरुषवेद, देवगति चतुष्क, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में पुरुषवेद, देवगति चतुष्क, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण है। तथा आहारक शरीर और आहारक श्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। मनुष्य अपर्यातकों में अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मनुष्यों में जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य होते हैं, वे मरकर तीन पल्यको आयुवाले मनष्यों में भी उत्पन्न होते हैं। इससे इनमें पुरुषवेद श्रादि ११ प्रक्रतियोंके अनकट बन्धका उत्कृष्ट काल तिर्यञ्चोंके समान तीन पल्य न कहकर साधिक तीन पल्य कहा है । पर ऐसा जीव मरकर मनुष्यनियोंमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिए. इनमें इन पुरुषवेद आदि ११ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । यद्यपि ओघसे तीर्थकर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, पर नरकगतिमें और यहां यह काल एक समय कहनेका कारण अन्य है। शेष कथन सुगम है। १४८. देवगतिमें देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूवा, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, वसचतुष्क, सुभग. सस्वर. आटेय. निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट स्थिति Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंध कालपरूवणा उक्क० एक्क्त्तीसं• । सेसा उक० द्विदि० अ० द्विदि० जह० एग०, उक्क० एवं सव्वदेवाणं अपष्पणो हिदी पादव्वा । १४६. इंदियाणुवादे एइंदिए धुविगाणं उक्क० ओघं । अ० जह० तो ०, उक्क॰ असंखेज्जा लोगा । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० - लीचा उक्क० अ० श्रघं । सेसा उक० अ० जह० एग०, उक्क० अंतो० । बादरे धुविगाणं उक्क० श्रोधं । ु ० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । बादरपज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससह - स्पाणि । तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० णीचा ० उक्क ओघं । अ० जह० एग० उक्क० कम्मदी । बादरपज्जत्ते संखेन्नाणि वस्ससहस्साथि । सेसाणं एइंदियोघं । बन्धका काल श्रोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सब देवोंके अपनी-अपनी स्थितिको ध्यान में रखकर काल जानना चाहिए । विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण श्रादि ५९ प्रकृतियोंका देवोंके मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों अवस्थाओं में सतत बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल सामान्य देवोंकी अपेक्षा तेतीस सागर कहा है । तथा दूसरे दण्डकमें कही गई स्त्यानगृद्धि आदि ८ प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता और देवोंके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। नौ श्रनुदिश और पाँच अनुत्तरवासी देवोंके दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका बन्ध ही नहीं होता। हां, प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका बन्ध अवश्य होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल जिसकी जितनी स्थिति है, उतना जानना चाहिए। पर भवनवासी देवोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके शेष देवोंके प्रथम और द्वितीय दण्डकमें कही गई सब प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए . इन सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल जहाँ जो उत्कृष्ट स्थिति हो, उतना जानना चाहिए | अब रह गया तीसरा दण्डक सो इसमें कही गई प्रकृतियोंमेंसे जहाँ जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका सर्वत्र जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है; क्योंकि ये सब प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है । १४९. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। बादर एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्ध वाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में तिर्यञ्चत्रिक प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल सामान्य एकेन्द्रियोंके समान है । કર ३२१ 10] Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे १५० वादरअपज्जत्त० निरिक्खअपज्जत्तभंगो। सुहमे धुविगाणं उक्क० ओघ । अणु० जह० अंतो०, उक्क० गुलस्स असंखे०। एवं तिरिक्वगदितिगं । णवरि अणु० जह० एग । सुहुम जत्ते सव्वाणं उक्क० अणु० जह• एग०, उक० अंतो० । सुहुमअपज्जत्तेसु धुविगाणं उक्क० ओघं । अणु० जहएणु० अंतो० । सेसाणं उक्क. अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो०। १५१. बीइंदि-तीइंदि०-चदुरिंदि• धुविगाणं उक्क० ओघ । अणु० जह० एग०, उक्क संखेजाणि वाससहस्साणि । सेसाणं उक. अणु० जह० एग०, उक्क० विशेषार्थ यद्यपि एकेन्द्रियोंकी कायस्थिति अनन्त काल प्रमाण है, तथापि एकेन्द्रियोंके दो भेद हैं-बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय । इनमेंसे बादरों में पर्याप्त होने पर एकेन्द्रियोंके योग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है; सूक्ष्म जीवोंमें नहीं । किन्तु यहाँ एकेन्द्रिय सामान्यकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है,इसासे एकन्द्रियोमे ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोक अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । तथा इनमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका निरन्तर बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और इनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्योत लोकप्रमाण है। ओघसे इन तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इतना ही कहा है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा है। बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है,इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। तथा बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति कर्मस्थिति प्रमाण होनेसे बादर एकेन्द्रियोंमें तिर्यश्चगतित्रिकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण कहा है। क्योंकि इन प्रकृतियोंका इतने काल तक निरंतर बन्ध इन्हीं जीवोंके होता है। वादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है,इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली और तिर्यञ्चगतित्रिक के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १५०. एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अङ्गलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगतित्रिकका काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है। सूक्ष्म पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्म अपर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। तथा अनुत्कष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। १५१. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा तो० । एवं पज्जत्तगे वि । अपज्जत्ता० तिरिक्खपज्जत्तभंगो । १५२. पंचिंदिय०२ पंचरणा० - रणवदंस० - मिच्छत्त- सोलसक० -भय-दुगु० - तेजा० क०-वरण ०४- अगुरु०-उप० - णिमि० पंचंत० उक्क० श्रघं । ऋणु० जह० एग०, उक्क ० सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुध० । पज्जत्ते सागरोवमसदपुधत्तं । तिरिक्खगदिओरालि०-ओरालि० अंगो० - तिरिक्खाणु०-णीचा० उक० ओघं । अणुक्क० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० सादि० । सेसाणं मूलोघं । पंचिदियअपज्जत्ते तिरिक्खअपज्जतभंगो | ३२३ १५३. कायावादेण पुढवि० - आउ० धुविगाणं उक्क० ओघं । अणुक० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । बादर० कम्महिदी ० । बादर० पज्जते संखेज्जारिण वस्ससहस्साणि । सेसारणं पगदीगं उक्क० अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो । 01 जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार इनके पर्याप्त जीवों में भी जानना चाहिए। इनके अपर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । विशेषार्थ - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण हैं, इसीलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण कहा है। शेष कंथन स्पष्ट ही है । १५२. पञ्चेन्द्रिय और पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिके एक हजार सागर और पर्याप्तकोंमें सौ सागर पृथक्त्व है । तिर्यञ्चगति, चौदारिक शरीर, श्रीदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीच गोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोधके समान है । पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है । विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी कायस्थितिको ध्यानमें रखकर कहा है। सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टिके तिर्यञ्चगति आदि पाँच प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है और वहाँसे निकलने पर संक्लेश परिणामवश अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका बन्ध होना सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १५३. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। इनके बादर जीवोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । बादर पर्याप्त जीवोंमें संख्यात हजार वर्षप्रमाण है। तथा इन सब जीवोंमें शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अपज्जत्तेसु एइंदियअपजत्तभंगो । सुहुमाणं सुहुमेइदियभंगो । णवरि अणु० जह० एग०, उक्क तिरिक्खगदितिगं सादभंगो। एवं तेउ० वाउ । णवरि तिरिक्खगदितिगं धुवं कादव्वं । वणप्फदि-णियोदेसु एइंदियभंगो । णवरि तिरिक्खगदितिय सादभंगो । बादरवणप्फदि० वादरपुढवि भंगो । १५४. तस०२ पंचिंदियभंगो । वरि कायहिदी कादवा। अपजत्ते पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। १५५. पंचमण-पंचवचि० सव्वपगदीणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क अंतो। १५६. कायजोगीसु पंचणा-णवदंस-मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगु०-ओराबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इनके अपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। इनके सूक्ष्म जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका काल सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल एकसमय है। तथा तिर्यश्चगतित्रिकके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका काल साता प्रकृतिके समान है। इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके तिर्यञ्चगतित्रिकका ध्रुवबन्ध होता है । वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भङ्ग साता प्रकृतिके समान है । बादर वनस्पतिकायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके उत्कृष्ट कालका खुलासा कर आये हैं,उसे ध्यानमें रखकर यहाँ कालका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। १५४. त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ इनकी कायस्थिति कहनी चाहिए । इनके अपर्याप्त जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-पहले पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । मात्र यहाँ पाँच ज्ञानावरण आदि ४७ ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और दो हजार सागर प्रमाण कहना चाहिए, क्योंकि इन जीवोंकी इतनी ही कायस्थिति है। १५५. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। विशेषार्थ-इन योगोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीसे इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त कहा है। १५६. काययोगो जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३२५ लिया-तेजा.-क-वएण०४-अगु०-उप-णिमि० पंचंत० उक्क० ओघं । अणुः जहरू एग०, उक्क० अरणंतकालं. । तिरिक्खगदितिगं उक्क० अणु० अोघं । सेसाणं मणजोगिभंगो । ओरालियका० धुविगाणं उक्क० ओघं । अणु द्विदि० जह• एग०, उक्क. बावीसं वस्ससहस्साणि देसू० । तिरिक्खगदितिगं उक० ओघं । अण. जह० एग०, उक्क तिरिण वस्ससहस्साणि देसू । सेसाणं कायजोगिभंगो।। १५७. ओरालियमि० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुओरालि-तेजा.-क०-वएण०४-अगु०-उप-णिमिल-तित्थय-पंचंतरा० उक्क० अणु० भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। तिर्यञ्चगतित्रिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मनोयोगी जीवोंके समान है। औदारिक काययोगवाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। तिर्यश्चगतित्रिकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल काययोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-काययोगका उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जोएकेन्द्रियोंकी मुख्यतासे उपलब्ध होता है । यही कारण है कि काययोगमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके निरन्तर तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका नियमसे बन्ध होता है और इनकी कायस्थिति असंख्यातलोक प्रमाण है। इन जीवोंके एक मात्र काययोग होता है,यह तो स्पष्ट ही है और ओघसे इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इसी अपेक्षासे असंख्यात लोक प्रमाण कह पाये हैं। यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उकृष्ट काल ओघके समान कहा है। औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। इसीसे इस योगवाले जीवोंके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु औदारिक काययोगकायह काल पृथिवीकायिकजीवोंके ही उपलब्ध होता है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं। उसमें भी अग्निकायिक जीवकी उत्कृष्ट श्रायु तीन दिवसमात्र है, इसलिए उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। हाँ, वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति अवश्य तीन हजार वर्षप्रमाण है। किन्तु इसमें औदारिक काययोगका काल किञ्चित् न्यून है। तिर्यञ्चत्रिकका इतने काल तक बन्ध औदारिक काययोगमें यहीं पर होता है, इसीसे औदारिक काययोगमें तिर्यञ्चत्रिक प्रकृतियोंके अनुत्कष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्षप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। १५७. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ महाबंधे ट्ठिदिखंघाहियारे जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं देवगदि०४ । अथवा से काले पजत्ती गाहिदि त्ति कीरदि तदो उक्क० जहएणु० एग० । अणु० जह• उक्क० अंतो० । सेसाणं परियत्तमाणियाणं उक्क० अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अथवा उक्क० जहएणु० एग० । अणु० जह० एग०, उक. अंतो । १५८. वेउब्धियका मणजोगिभंगो । वेउव्वियमिस्स० धुविगाणं तित्थयरस्स च अथवा पवत्त० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । से काले सरीरपज्जत्ती जाहिदि त्ति कीरदि तदो उक० जह० एग०, अणु० जह• अंतो० । सेसाणं ओरालियमिस्सभंगो। स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल जानना चाहिए। अथवा तदनन्तर समयमें पर्याप्तिको पूर्ण करेगा ऐसे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष परिवर्तनशील प्रकृतियोंके उत्त और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। अथवा इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। विशेषार्थ-औदारिकमिश्रकाययोगमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है इस प्रश्नका उत्तर दो प्रकारसे दिया गया है। मुलप्रकृति स्थितिबन्ध प्ररूपणामें स्वामित्वका विचार करते समय यह बतला आये हैं कि जिसके अगले समयमें शरीर पर्याप्ति पूर्ण होगी,ऐसा जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है और इस उत्तरप्रकृति स्थितिवन्ध प्ररू. पणामें स्वामित्वका विचार करते समय जो कुछ बतलाया है, उसका भाव यह है कि जो उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला या तद्योग्य संक्लेश परिणामवाला औदारिकमिश्रकाययोगी जीव है.वह अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण भत परिणामोंके होनेपर उस प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है। इन्हीं दो विचारोंके आधारपर यहाँ उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल दो प्रकारसे कहा गया है। प्रथम विचारके अनुसार प्रथम दण्डक और दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल केवल एक समय उपलब्ध होता है और दूसरे विचारके अनुसार वह कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १५८. वैक्रियिककाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मनोयोगी जीवोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अथवाप्रवर्तमान प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अथवा तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको पूर्ण करेगा,ऐसे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल औदारिकमिश्रकाययोगवाले जीवोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंध कालपरूवणा १५६. आहार० मणजोगिभंगो । आहारमिस्से धुविगाणं उकस्सं जहण्णुकस्सं० अंतो० । सेसाणं च उक्क० अ० जह० एग०, उक्क० अथवा deforefमस्सभंगो | १६० कम्मइग० पंचरणा० णवदंसणा ० -सादा०-मिच्छत्त- सोलसक० - एस ० हस्स - रदि - अरदि- सोग-भय- दुगु ० तिरिक्खर्गादि- एइंदि० - ओरालिय० - तेजा० - क० -- हुडसं ० ० -वरण ०४ - तिरिक्खणु ० गुरु ०४ - आदाउज्जो ० - थावर - बादर- मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेय-साधारण-थिराथिर - सुभासुभ- दूभग-- दुस्सर - अणादे० --जस ० --अजस ०णिमिण - पीचा० - पंचत० उक्क० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० जह० एग०, ३२७ कसं अंतो० । प्रकारका क्यों कहा है, इसके कारणका निर्देश श्रदारिक मिश्रकाय योगमें कालका निर्देश करते समय किया ही है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए। आशय यह है कि जब यह माना जाता है कि वैक्रियिक मिश्रकाययोगके सद्भावमें कभी भी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, तब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है और जब यह माना जाता है कि शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके अनन्तर पूर्वं समय में ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, तब इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त होता है। शेष कथन सुगम है। १५९. श्राहारक काययोगवाले जीवोंमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मनोयोगी जीवोंके समान है । श्राहारकमिश्रकाययोगमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृ तियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अथवा यहाँ भी वैक्रियिकमिश्रकाययोगके समान भङ्ग है । विशेपार्थ – आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होने से इसमें बन्धको प्राप्त होनेवाली सब प्रकृतियोंका मनोयोगियोंके समान जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त कहा है । आहारक मिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसलिए यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही उपलब्ध होता है । किन्तु जो ध्रुबन्धवाली प्रकृतियाँ नहीं हैं, उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । १६०. कार्मणकाययोगवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, श्रातप, उद्योत, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच श्रन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है। तथा शेष प्रकृतियोंके सकाय, Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे उक्क तिरिण सम । सेसाणं तस०-पज्जत्ताणं देवगदिपंचगस्स च उक्क० अणु. जह० एग०, उक्क० बेसम । १६१. इत्थिवेदेसु पंचणा-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसक०--भय-दुगुच्छ-- तेजा.क. वएण०४--अगु०-उप-णिमि-पंचंत उक्क हिदि० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । सादासा-इत्थि०-गवुस-हस्स-रदि-अरदि-सोगणिरयगदि-तिरिक्खगदि-जादि४-आहार०-पंचसंठा-अहार०अंगो०-पंचसंघ-णिरयतिरिक्खाणुपु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थवि०-थावरादि०४--थिराथिर-सुभासुभ-दूभगदुस्सर-अणादे-जस-अजस०-णीचा० उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क. अंतो० । पुरिस-मणुसगदि-पचिंदि०--समचदु०--ओरालि अंगो०--वजरिसभा--मणुसाणु०पसस्थवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चागो उक. ओघं । अणुक जह० एग०, पर्याप्त, तथा देवगति पञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। विशेषार्थ-जो एकेन्द्रिय जीव ब्रह्मलोकके कोणसे मरकर अधोलोकके कोणमें विदिशामें उत्पन्न होता है, उसके तीन समयवाली विग्रहगति होती है और उसके इन तीन समयों में कार्मणकाययोग होता है। ऐसा जीव एकेन्द्रिय होनेसे इसके किसी भी प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता। इसीसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है, क्योंकि यह यथासम्भव संशी तिर्यञ्च और मनुष्यके तथा देव और नारकीके होता है और इनके अधिकसे अधिक दो मोड़ेवाली ही विग्रहगति होती है। अब रहा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालका विचार सो यहाँ मूलमें जिन प्रकृतियोंका नामोल्लेख किया है,उनका बन्ध ऐसे जीवके भी होता रहता है, इसलिए इन पाँच शानावरण आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है। तथा शेष रहीं स्त्रीवेद, पुरुषवेद आदि कार्मण काययोगमें बँधनेवाली ३३ प्रकृतियाँ सो इनका तीन मोड़ा लेकर उत्पन्न होनेवाले कार्मणकाययोगी जीवके बन्ध नहीं होता, अतएव उनके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। यहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय स्पष्ट ही है, क्योंकि कार्मणकाययोगका ही जघन्य काल एक समय है । अतएव कार्मणकाययोगमें इनका जघन्य काल एक समय बन ही जाता है। १६१. स्त्रीवेदवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगति, तिर्यश्चगति, चार जाति, आहारक शरीर, पाँच संस्थान, आहारक आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अना. देय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, त्रसकाय, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३२६ उ० पणवरणं पलिदो० देसू० | देवगदि०४ उक्क० श्रधं । अ० जह० एग०, उक्क तिरिण पलिदो ० दे० । ओरालिय० पर ०- उस्सा० - बादर - पज्जत्त- पत्तेय उक्क० घं । अणु० जह० एग०, उक्क० पणवणं पलिदो ० सादि० । तित्थय ० उक्क ० जहण्णुक्क • अंतो० । अणु जह० एग०, उक्क० goaकोडी सू० । 0 १६२. पुरिसेषु मरणुसग०-ओरालि० ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ ० - मणुसार ० उक्क० ओघं । अणु० जह० एग० उक्क० तेत्तीसं सा० । सादादी इत्थिभंगो । धुविगाणं उक० श्रघो । अ० जह० एग०, उक्क सागरोवमसदपुधत्तं । सेसं बन्धका काल श्रोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है । देवगतिचतुष्क प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । औदारिक शरीर, परघात, उल्लास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक शरीर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है । विशेषार्थ - स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है, इसलिए प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि छ्यालीस प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है; क्योंकि ये ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका इतने काल तक बन्ध होता रहता है। दूसरे दण्डकमें कही गई साता वेदनीय आदि पैंतालीस प्रकृतियाँ परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं । इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तीसरे दण्डकमें कही गई पुरुषवेद आदि तेरह प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके भी बन्ध होता है और स्त्रीवेद में सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है। चौथे दण्डकमें कही गई देवगतिचतुष्कका उत्तम भोगभूमिमें सम्यग्दृष्टि अवस्थाके रहते हुए कुछ कम तीन पल्य तक सतत बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य प्रमाण कहा है। पाँचवें दण्डकमें कही गई श्रदारिक शरीर आदि छह प्रकृतियोंका देवी अवस्थाके मिलने पर निरन्तर बन्ध होता रहता है और देवीकी उत्कृष्ट भवस्थिति पचपन पल्य है । इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य कहा है । यहाँ साधिक कहनेका कारण यह है कि जो पूर्व पर्यायमें अन्तर्मुहूर्त काल तक इन प्रकृतियों का बन्ध करता है और तदनन्तर ऐशान कल्पमें जाकर देवी होता है, उसके यह काल साधिक पचपन पल्य पाया जाता है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १६२. पुरुषवेदवाले जीवोंमें मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतिर्योके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । साता आदिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल वेदी जीवोंके समान है । ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल धके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ सागर ४२ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे मूलोघं । वरि पंचिंदि० - पर० - उस्सा ० -तस०४ उक्क० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं । १६३. एवं सगे धुविगाणं ओरालिय० तिरिक्खगदितियं मूलोघं । सादादीगं इत्थिभंगो । पुरिसवेद० मणुसभ० समचदु० - वज्जरिसभ० - मरगुसागु० - पसत्थवि ०म्रुभग०-सुस्सर-आदे० उच्चागो० उक्क० द्विदि० ओघं । अणुक्कस्स० द्विदि० जहरागेण पृथक्त्व है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उल्लास, और त्रसचतुष्क प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल एक सौ त्रेसठ सागर है । विशेषार्थ - देव पर्यायमें तेतीस सागर कालतक मनुष्यगति श्रादि पाँच प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा है । साता आदि पैंतालीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धके काल का स्पष्टीकरण जिस प्रकार स्त्रीवेदी जीवके कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी प्राप्त होता है, इसलिए इनका काल स्त्रीवेदी जीवोंके समान कहा है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ सागर पृथक्त्व है । इतने कालतक पुरुषवेदमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण कहा है । यहाँ शेष प्रकृतियाँ २३ रहती हैं, जिनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान जाननेके लिए कहा है सो ओघ प्ररूपणामें इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल जिस प्रकार घटित करके बतला श्राये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय जाति श्रादि ७ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके उत्कृष्ट कालके कथनमें कुछ विशेषता है । श्रघसे इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल १८५ सागर बतला श्राये हैं, किन्तु पुरुषवेद में वह १६३ सागर उपलब्ध होता है । यथा— कोई एक मनुष्य द्रव्यलिङ्गी जीव ३१ सागरकी श्रायुके साथ अन्तिम वैयकमें उत्पन्न हुआ है । वहाँ भवके अन्त में उसने उपशम सम्यक्त्वके साथ वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया । पुनः वह वेदक सम्यक्त्वके साथ ६६ सागर कालतक रहकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । श्रनन्तर पुनः वेदक सम्यग्दृष्टि होकर उसके साथ ६६ सागर कालतक रहा। और अन्तमें मिथ्यादृष्टि हो गया। इस प्रकार इस जीवके १६३ सागर कालतक पञ्चेन्द्रिय जाति आदि सात प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता रहता है, इस लिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल १६३ सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। १६३. नपुंसक वेद में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ श्रदारिक शरीर और तिर्यञ्चगतित्रिक अर्थात् तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान है । साता आदिक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल स्त्रीवेदवाले जीवोंके समान है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३३१ एगसमयं, उक्कस्सेण तेत्तीसं साग० दे० । देवादि०४ उक्क० ओघं । अ० जह० एग०, उक्क ० पुव्वकोडी सू० । पंचिंदि० - ओरालि ० अंगो ० पर ० - उस्सा ० -तस०४ उक० प्रघो । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । तित्थय उक्क० श्रवं । अणु० जह० एग०, उक्क० तिरिए साग० सादि० । १६४. अवगादवेदे ० सव्वपगदी उक्क० अ० जह० एग०, उक्क० अंतो• । १६५. कसायावादे कोधादि०४ मरणजोगिभंगो । है । देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास और त्रस चतुष्क प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है। और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्टकाल साधिक तीन सागर है । विशेषार्थ -- नपुंसक वेद में सम्यक्त्वका उत्कृष्टकाल कुल कम तेतीस सागर है । इसीसे यहाँ पुरुषवेद आदि दस प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा है; क्योंकि इन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध इतने कालतक सम्यग्दृष्टिके ही हो सकता है । नपुंसकवेदमें सम्यक्त्वका उत्कृष्टकाल मनुष्य और तिर्यञ्चके कुछ कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है; इसीलिए यहाँ देवगति चतुष्कके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा है। क्योंकि जो नपुंसकवेदी मनुष्य या तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि होता है, उसके देवगति चतुष्कके नियमसे बन्ध होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि आठ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहनेका कारण यह है कि जिसने पूर्वभवमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर इन प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ किया है और जो मरकर तेतीस सागर आयुके साथ नरकमें उत्पन्न हुआ है, उसके उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होता है । तीर्थंकर प्रकृति के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण जिस प्रकार ओघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ जान लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है । १६४. अपगतवेदवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - अपगत वेदका जघन्य काल एक समय है, या जिस जीवने अपगतवेदमें बँधनेवाली प्रकृतियोंका एक समयतक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया और दूसरे समयमें वह मरकर देव हो गया, तो अपगतवेद में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध हो जाता है । इसीसे वह एक समय कहा है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, यह स्पष्ट हो है; क्योंकि यहाँ एक - एक स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । १६५. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधादि चार कपायोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मनोयोगी जीवोंके समान है । विशेषार्थ-चारों कषायका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यहाँ मनोयोगी जावोके समान सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १६६. मदि०-सुद० धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स च ओरालि ० मूलोघं । सादासा०-सत्तणोक०-णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठा ० - वस्संघ० -- णिरयाणु ० - आदा-उज्जो० - अप्पसत्थवि० - थावर - सुहुम - अपज्जत्त-साधार०-०--थिराथिर -- सुभासुभा - दूर्भाग-दुस्सर० - अणादे००-जस०० अंजस उक्क० अणु० जह० एग०, उक० अंतो० । मणुसग० - मणुसाणु० उक्क० ओघं । ऋणु० जह० एग०, उक्क० एकतीसं सा० सादिरे० । देवग दि-वेजव्वियस०-समचदु० - वेडव्वि ० अंगो०- देवाणु ० - पसत्थवि ० - सुभग- सुस्सरआदे० उच्चा० उक्क० श्रघो । अणु० जह० एग०, उक्क० तिरिण पलि देन० । पंचिंदि० - ओरालि • अंगो० पर० - उस्सा ० -तस०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । ३३२ १६६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ, तिर्यञ्चगति त्रिक और औदारिक शरीर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, छह संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । पञ्चेन्द्रियजाति, श्रौदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास और त्रस चतुष्क प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । I मनुष्य यु विशेषार्थ - ओघसे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कह श्राये हैं । यह काल एकेन्द्रियोंकी कायस्थितिकी मुख्यतासे कहा गया है । मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानका भी यही काल है। यही कारण है कि इन दोनों अज्ञानोंमें उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उक्त काल कहा है । एकेन्द्रियोंके श्रदारिक शरीरका नियमसे बन्ध होता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भी यही उत्कृष्ट काल कहा है । जिस मिथ्यादृष्टि मनुष्यने मरणके पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक मनुष्यगति और गत्यानुपूर्वीका बन्ध किया है और मरकर जो अन्तिम ग्रैवेयक में इकतीस सागरकी वाला मिथ्यादृष्टि देव होकर इनका बन्ध करता रहता है, उसके इन दोनों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका साधिक इकतीस सागर काल उपलब्ध होता है । इसीसे इन दोनों अज्ञानोंमें उक्त दोनों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । तीन पल्यकी युवाले तिर्यञ्च या मनुष्यके पर्याप्त अवस्थामें देवगति आदि दस प्रकृतियों का नियमसे बन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । जो मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यश्च मरणके पूर्व १. मूलप्रतौ - सुभासुभसुभगभग- इति पाठः । कहा Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्क सठ्ठिदिबंध कालपरूवणा १६७. विभंगे ० पंचरणा० एवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक० -भय-दुगु० - तिरिखग ० - पंचिंदि० ओरालि० - तेजा ० क ० --ओरालि अंगो० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगुरु०४-तस०४-रिणमि० णीचा० - पंचंत० उक० ओघं । अणु जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० सू० । मणुसग० - मरणुसार ० उक० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक० एकतीसं सा० सू० । सेसाणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । १६८. आभि० - सुद० -प्रोधि० पंचणा० - दंसणा ० चदुसंज० - पुरिस०-भयदुगु ० - पंचिंदि० - तेजा० क० - समचदु० वरण०४ - अगुरु ०४ - पसत्यवि० --तस० ४- सुभग-सुस्सर - आदे० - णिमिण-उच्चा० - पंचंत० उक्क० जह० तो ० । ० जह० अंतो०, उक्क० छावहिसागरो० सादि० । पच्चक्खाणा ०४ उक्क० जह० उक्क० अंतो० । ० जह० अंतो०, उक० बादालसागरो० सादि० | सादावे ० -हस्स - रदि- आहार० अन्तर्मुहूर्त काल तक पञ्चेन्द्रिय जाति आदि आठ प्रकृतियोंका बन्ध कर रहा है और मरकर तेतीस सागरकी युके साथ नरकमें उत्पन्न होनेपर वहाँ भी आयुके अन्तिम समय तक इनका निरन्तर बन्ध करता रहता है, उसकी अपेक्षा उक्त दोनों अज्ञानोंमें इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । १६७. विभङ्गशान में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, श्रीदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, दारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है | मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघ के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - विभङ्गज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । इतने काल तक इस ज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण आदि ५९ प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका सातवें नरक में मिथ्यादृष्टिके बन्ध नहीं होता, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल नौवें ग्रैवेयकमें विभङ्गज्ञानके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा कुछ कम इकतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । १६८.आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है 1 अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक व्यालीस ३३३ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ann.vvv....wvvarian ३३४ महाबंधे टिदिबंधादियारे आहारअंगो०-थिर-सुभ-जस० उक्क० अणु० जहएणु० ओघो। असादा०-अरदिसोग-अथिर-असुभ-अजस० उक्क० जह० उक्क० अंतो० । अणु० जह० एग०, उक्क. अंतो० । मणुस०-ओरालि०-ओरालि अंगो०-वज्जरिसभ०-मणुसाणु० उक्क, असादभंगो । अणु० जह• उक्क अंतो० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ उक्क० असादभंगो । अणु० जह• एग०, उक्क० तिएिण पलिदो सादि । अपच्चक्खाणा०-४तित्थय उक्क० अंतो०, अणु० जह• अंतो । उक्क० तेत्तीसं साग सादि । सागर है। साता वेदनीय, हास्य, रति, आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल श्रोधके समान है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशाकीर्ति प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल असाता प्रकृतिके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल असाता प्रकृतिके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। विशेषार्थ-श्रामिनिबोधिकशान आदि तीन शानोंका उत्कृष्ट काल चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर होनेसे इन तीन शानों में पाँच ज्ञानावरण आदि पैंतालीस प्रकृतियोंके अनुकर स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है। सम्यग्दृष्टि जीव संयमके बिना असंयम और संयमासंयमके साथ साधिक ब्यालीस सागर तक रहता है और इस कालमें इसके प्रत्याख्यानावरण चारका निरन्तर बन्ध होता रहता है। इसीसे यहाँ प्रत्याख्यानावरण चारके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक ब्यालीस कहा है। यह काल साधिक दो पूर्वकोटि अधिक ब्यालीस सागर होता है। इसके बाद यह जीव नियमसे संयम को प्राप्त करता है। देवोंकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है और इस कालके भीतर मनुष्यगति आदि पाँच प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर तीन पल्य की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है, उसके अन्तर्मुहूर्त न्यून पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य काल तक देवचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता रहता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है। जो सम्यग्दृष्टि जीव संयमके साथ मर कर तेतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होता है और वहांसे आकर मनुष्य होता है, उसके कुछ कम दो पूर्वकोटि काल अधिक तेतीस सागर काल तक तीर्थकर प्रकृतिका निरन्तर बन्ध होता रहता है । तथा इसी जीवके देव पर्यायमें और वहाँसे च्युत होनेके बाद संयमको प्राप्त होनेके पूर्व समय तक अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका निरन्तर बन्ध होता रहता है । यतः ये दोनों काल साधिक तेतीस सागर होते हैं, इसीसे यहां अप्रत्याख्यानावरण चार और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। यहां शेष कथनका विचार कर काल जान लेना चाहिए । सुगम होनेसे उसका हमने निर्देश नहीं किया। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सटिदिबंधकालपरूवणा ३३५ १६६. मणपज्जव० पंचणा-छदसणा०-चदुसंज-पुरिस०-भय-दुगुं -देवगदिपंचिंदिय०-वेउव्विय-तेजा-का-समचदु०-[ वेउवि० ] अंगो०-वएण०४-देवाणु०अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमि०-तित्थय०-उच्चा-पंचंत. उक्क जह० उक्क अंतो० । अणु० जह• एग०, उक्क० पुव्बकोडी देसू० । सादावे०हस्स-रदि-आहार०-आहार अंगो-थिर-सुभ-जस० उक० अणु० ओघं । असादा०अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० उक्क० जह० उक्क० अंतो० । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । एवं संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार। वरि परिहारे अणु० जह० अंतो० । मुहुमसंपरा० अवगदवेदभंगो । १६९. मनःपर्ययशानमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, क्रियिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उञ्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। सातावेदनीय, हास्य, रति, आहारकशरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिसंयतमें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अपगतवेदी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-जो मनःपर्ययशानी प्रमत्तसंयत जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है, असंयमके अभिमुख है, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है और अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें अवस्थित है, उसके पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। यतः उत्कृष्ट स्थितिबन्धका यह काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तहर्त कहा है। जो मनःपर्ययज्ञानी जीव उपशमश्रेणिसे उतरते समय अपने-अपने स्थानमें एक समय तक पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोका बन्ध करता है और दूसरे समयमें मर कर देव हो जाता है, उस मनापर्ययज्ञानी जीवके उक्त प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका एक समय काल प्राप्त होता है। इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा मनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि होनेके कारण इसमें उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण कहा है। असाता वेदनीय आदि तीसरे दण्डकमें कही गई छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पाँच झानावरण श्रादिके समान है, इसलिए इसके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। तथा जिस मनःपर्ययज्ञानीने इनकी बन्धव्युच्छित्ति कर दी और पुनः प्रमत्तसंयत होकर इनका एक समय तक बन्ध किया और दूसरे समयमें मर कर देव हो गया,उसके इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ महाबंधे टिदिबंधाहियारे १७०. संजदासंजदे धुविगाणं तित्थयरस्स च उक्क० जहएणु० अंतोमु० । अणु० जह• अंतो०, उक्क० पुचकोडी देसू० । सादादिबारस० अोधिभंगो । १७१. असंजदे धुविगाणं तिरिक्खगदि-मणुसगदि-देवगदि-ओरालिय०-वेउविय-दोअंगो-तिएिणप्राणु०-तित्थय-णीचागो०-सादादिपरियत्तमाणियाओ मूलोघं । पुरिसवे-पंचिंदि०-समचदु०-पर-उस्सा-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर का जघन्य काल एक समय प्राप्त होनेसे वह एक समय कहा है। तथा छठे गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। परिहारविशु संयम प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके ही होता है और इसका जघन्य काल अन्त. मुहर्त है, इसलिए इसमें और सब काल तो पूर्वोक्त प्रकार बन जाता है। मात्र जिन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है यह नहीं बनता, अतः वह अन्तमुहूर्त कहना चाहिए । शेष कथन सुगम है। १७०. संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्त. मुहर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। साता आदि बारह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अवधिचानी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-संयतासंयत गुणस्थानमें ५शानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और ५ अन्तराय ये ५३ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ है। और जिसके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है, उसकेस इन ५४ प्रकृतियोंका सतत बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंके होने पर अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में अवस्थित होने पर होता है और यह अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा संयमासंयमका जघन्य काल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण होनेसे इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि कहा है। साता आदि शेष १२ प्रकृतियाँ ये हैं-साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति, सो अवधिशानी जीवोंके इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जिस प्रकारसे काल घटित करके बतला आये हैं,उसी प्रकारसे यहां पर भी घटित कर लेना चाहिए। १७१. असंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ तथा तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तीन आनुपूर्वी, तीर्थङ्कर, नीचगोत्र और साता आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान है । तथा पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्लास, Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंघकालपरूवणा ३३७ आदे०-उच्चा० उक्क० हिदि० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि। १७२. चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं० मूलोघं । ओघिद० ओधिणाणिभंगो। १७३. किरणाए धुविगाणं उक्क० हिदि० ओघं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । सादासादा०-इत्थि०-णवुस-हस्स-रदि-अरदि-सोग-णिरयगदि-देवगदि]-चदुजादि-वेउचि०-पंचसंठा-वेवि०अंगो०-पंचसंघ०-णिरयगदिदेवाणुपु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ-थावरादि०४-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सरअण्णादे-जस-अजस० उक्क अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पुरिस०-मणुसग०-समचदु०-वजरिसभ०-मणुसाणु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० उक्क० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देमू० । तिरिक्खग०-पंचिंदि०ओरालि०-ओरालि०अंगो-तिरिक्खाणु-पर-उस्सा--तस०४-[णीचा ] उक्क० .ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । तित्थय. उक्क० अणु० जहएणु० अंतो० । एवं पील-काऊणं । वरि तिरिक्खगदितिगं सादभंगो। प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। १७२. चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल त्रसपर्याप्त जीवोंके समान है। अचक्षदर्शनवाले जीवों में मलोके समान है और अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिशानियोंके समान है। १७३. कृष्णलेश्यामें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगति, देवगति, चार जाति, वैक्रियिक शरीर, पाँच संस्थान, बैक्रियिक प्राङ्गोपाल, पाँच संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति और अयश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुखर, आदेय, और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास,सचतुष्क और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार नील लेश्यावाले और कापोत लेश्यावाले जीवोंके जामना ४३ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे तित्थय ० ० उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० उक्क० अंतो० । वरि काऊए अणु० जह० अंतो०, उक्क० तिरिण सा० सादि० १७४. तेऊए धुविगाणं पुरिस०- मणुस ० - समचदु० - वज्जरिसभ० मणुसाणु ०पसत्थवि०-सुभग- सुस्सर आदे० उच्चा० उक्क० ओघं । अ० जह० एग०, उक्क० चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगतित्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि कापोत लेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है । विशेषार्थ -- कृष्ण लेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर होनेसे इसमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । सातावेदनीय श्रदि ४४ प्रकृतियाँ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । पुरुषवेद आदि १० प्रकृतियोंका सातवें नरक में सम्यग्दृष्टिके नियमसे बन्ध होता है और वहाँ सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । तिर्यञ्चगति आदि १२ प्रकृतियोंका सातवें नरकमें मिथ्यादृष्टि नारकीके नियमसे बन्ध होता है और यहाँ मिथ्यात्वका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है । तथा जो जीव सातवें नरक जानेके सम्मुख होता है, उस जीवके नरकमें जानेके पूर्व व निकलनेके पश्चात् एक एक अन्तर्मुहूर्त कालतक कृष्ण लेश्या ही होती है। इसलिए उक्त प्रकृतियोंका इस कालमें भी बन्ध होता रहता है । यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर कहा है। कृष्ण लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध मनुष्यके ही सम्भव है और मनुष्य के इसका काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीसे इस प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। नील लेश्या और कापोत लेश्यामें इसी प्रकार जानना चाहिए । इस कथनका यह श्राशय है कि नील लेश्या और कापोत लेश्यामें सब प्रकृतियोंका काल अपने-अपने कालको ध्यान में रखकर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इन लेश्या वाले नरकों में मिथ्यादृष्टिके मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भी बन्ध होता है, इसलिए इन लेश्याओं में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इन तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल जिस प्रकार साता प्रकृतिका कहा है, उसी प्रकार जानना चाहिए | क्योंकि इन लेश्या वाले नरकोंमें इनकी प्रतिपक्षभूत मनुष्यगतित्रिकका भी मिथ्यादृष्टिके बन्ध होता है, इसलिए इनका साता प्रकृतिके समान ही काल उपलब्ध होता है। नील लेश्यामें भी तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध मनुष्यगतिमें ही सम्भव है, इसलिए नील लेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिकें अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । किन्तु कापोत लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नरकगतिमें भी होता है, इसलिए इस लेश्यामें इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १७४. पीत लेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ, पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूषणा ३३९ बेसाग. सादि० । तित्थय० उक्क० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसाग० सादि। सादादिछ -तिरिक्खगदि-देवगदि-एइंदि०-वेउवि०आहार०-पंचसंठा०-दोअंगो०-पंचसंघ०-दोआणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-थावरथिराथिर-सुभासुभ-भग-दुस्सर-अणादे-अजस०-णीचा० उक० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं पम्माए वि । णवरि अटारस सागरोवमाणि सादि । एइंदि० आदाव थावरं वज्ज । १७५. मुक्काए पंचणा-लसणा-वारसक-पुरिस०-भय-दुगु-मण सग०पंचिंदि०-तिएिणसरीर-समचदु०-ओरालि अंगो०-वज्जरिसम-विएण]४-मणुसाणु०अगुरु०४-पसत्यवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आदे--णिमि०-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत. उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग. सादि । एवरि मणुसगदिपंचगस्स अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । थीणगिद्धितियं मिच्छत्तं अणंताणुवंधि०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० एक्कत्तीसं और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक दो सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक दो सागर है। साताप्रादि छह.तिर्यञ्चगति.देवगति,एकेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर,पांच संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार पनलेश्यामें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पद्मलेश्यामें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल साधिक अठारह सागर है । तथा इस लेश्यावाले जीवोंके एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-पीत और पप्रलेश्या में अपने-अपने कालको ध्यानमें रखकर प्रथम दण्डक में कही गई प्रकृतियोंके व तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहा है। मात्र यह काल सम्यग्दृष्टि जीवके ही प्राप्त होगा। क्योंकि सम्यग्दृष्टि के ही इन प्रकृतियोंका इतने कालतक निरन्तर बन्ध सम्भव है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १७५. शुक्ललेश्यामें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीनशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक, आलोपाल, वर्षमनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति पञ्चकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे साग० सादि० । सेसारणं उक्क० अणु० सादभंगो । १७६. भवसिद्धि० ओघं । अव्भवसिद्धि० मदि० भंगो । सम्मादिट्ठी • ओषिभंगो । खइगसम्मादि० धुविगाणं उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे० । मणुसगदिपंचगस्स उक्क० श्रघं । ऋणु ० ० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० । देवगदिचदुरणं सेसारणं च यं । १७७. वेदगस० पंचरणा० छदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस० -भय-दुगु० - पंचिंदि०तेजा०० क० - समचदु०-वरण ० ४ - अगुरु ०४ - पसत्थवि ० -तस०४- सुभग- सुस्सर - आदे०रिणमि०-उच्चागो०-पंचंत०-उक्क० जह० अंतो० । अ० जह० अंतो०, उक्क - साधिक इकतीस सागर है । तथा शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके समान है । विशेषार्थ- शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । इतने काल तक इस श्यामें पाँच ज्ञानावरण आदि उनसठ प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । किंतु मनुष्यगतिपञ्चक अर्थात् मनुष्यगति, औदारिकशरीर, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन पाँच प्रकृतियों का बन्ध संयत मनुष्यके नहीं होता, इसलिए उक्त कालमें से संयत सम्बन्धी शुक्ल लेश्याके अन्तर्मुहूर्त काल कम कर देनेपर देवगति सम्बन्धी शुक्ल लेश्याका तेतीस सागर काल शेष रहता है । यही कारण है कि इन पाँच प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल केवल तेतीस सागर कहा है । मिथ्यादृष्टि शुक्ल लेश्यावाले जीवका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर होने से स्त्यानगृद्धि आदि आठ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । १७६. भव्य जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । श्रभव्य जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । सम्यग्दृष्टियों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । देवगतिचतुष्क और शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघ के समान है । विशेषार्थ - देवायुका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी बातको ध्यान में रखकर यहाँ क्षायिक सम्यक्त्वमें मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । 1 १७७. वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुखर, श्रदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३४१ छावहिसाग । सेसं ओधिभंगो। णवरि देवगदिचदुक्कं उक्क० जह• उक्क. अंतो। [अणुक्क० जह० अंतो, उक्क.] तिषिण पलिदो० देमू। १७८. उवसमस. ओधिभंगो । णवरि तित्थय० उक्क० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अण. जह० उक्क. अंतो । सेसं धुविगाणं उक्क० अणु० जह० [उक्क०] अंतो। १७६. सासणे पंचणा०-णवदंस०-सोलसक-भय-दुगु-तिएिणगदि-पंचिंदिय-चदुसरीर-समचदु०-दोअंगो०-वरण ४-तिषिणाणुपु०-अगुरु०४-पसत्थवि०-- तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमि०-णीचुच्चागो०-पंचंत० उक्क० ओधिभंगो। अणु० जह• एग०, उक्क० छावलियाओ। तिरिक्खगदितियं सत्तमाए उक्क० उक्कसं कालं होहिदि त्ति । मणुसग०-ओरालि०-ओरालिअंगो-मणुसाणु०-अणादे० देवस्स उक्कस्सभंगं भवदि । देवगदि-वेउन्वि०-समचदु०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० छयासठ सागर है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। विशेषार्थ-उत्तम भोगभूमिमें वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ देवगति चतुष्कके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। शेष कथन सुगम है। १७८. उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंके तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-उपशम सम्यग्दृष्टियों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है; इस कथनका यह अभिप्राय है कि अवधिज्ञानमें परावर्तमान प्रकृतियोंका काल जिस प्रकार कहा है, उस प्रकार उनका काल यहाँ भी कहना चाहिए। शेष यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और तीर्थङ्कर प्रकृतिके विषयमें जो विशेषता है, वह यहाँ अलगसे कही ही है। १७९. सासादनमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तीन गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तीन बानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह प्रावलि प्रमाण है। तिर्यञ्चगति त्रिकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल सातवीं पृथिवीमें होगा,ऐसा यहाँ समझना चाहिए । मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और अनादेय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट भंग देवके होता है। देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० उक्क. असंखेजवस्सायुगाणं तिरिक्खमणुसाणुगाणं उक्कस्सभंगं भवदि । सादासादा०-इत्थि०-पुरिस-हस्स-रदि-अरदिसोग-चदुसंठा-पंचसंघ०-उज्जो०-अप्पसत्य-थिराथिर-सुभासुभ-भग-दुस्सरअणादे जस-अजस० उक्क अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो। १८०. सम्मामि० पंचणा०-छदस-बारसक०-पुरिस-भय-दुगु-दोगदिपंचिंदि०-चदुसरीर-समचदु०-दोअंगो०-वज्जरिसभ०-वएण०४-दोबाणु०-अगुरु०४-- पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चागो-णिमि-पंचंत० उक्क० अणु. जहएणु० अंतो। सादा-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस. उक्क० अणु० अोघं । असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस०उक्क० जहएणु० अंतो० । अणु. ओघं । मिच्छादि० मदिभंगो । विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट भङ्ग असंख्यातवर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्योंके होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, चार संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्खर, अनादेय, यशःकीर्ति और अर्यशःकीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-अवधिज्ञानी जीवोंके पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण घटित करके बतला आये हैं,उसी प्रकार यहाँ भी उन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल जानना चाहिए । यहाँ एक श्रावलिसे ऊपर कालको अन्तर्मुहूर्त संशा है । तथा इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवलि है। सो इसका कारण यह है कि सासादन गुणस्थानका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवलि है। यद्यपि इन प्रकृतियों में कुछ परावर्तमान प्रकृतियाँ भी हैं, पर उनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक अलग-अलग गतिके जीव होनेसे यहाँ उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। इनके सिवा शेष सब परावर्तमान प्रकतियाँ हैं इसलिए उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। १८०. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चार शरीर, समचतुरनसंस्थान, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो भानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय, उच्चगोत्र निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। मिथ्यादृष्टि जीवों में अपनी सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३४३ १८१. सरि० पंचिदियपज्जत्तभंगो । असरिण० धुविगाणं ओरालि० तिरिक्खगदितिगं च चत्तारि यु० ओघो । सेसागं उक्क० अ० जह० एग०, उक्क ० तो ० । १८२. आहार० धुविगाणं तिरिक्खगदि-ओरालि० -तिरिक्खाणु ०-पीचा० उक्क० ओवं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स सं० । सेसा पगदी मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो | एवं उक्कस्सकालं समत्तं । विशेषार्थ — सम्यग्मिथ्यादृपि गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इसमें पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है । कारण कि जो मिथ्यात्वके श्रभिमुख उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला जीव होता है, उसके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और अन्यके अनुत्कृष्ट, इसलिए ये दोनों अन्तर्मुहूर्त से न्यून नहीं होते । यद्यपि इन प्रकृतियों में कुछ परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, पर उनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक अलग-अलग गतिके जीव होने से उनका भी वहीं काल बन जाता है । साता वेदनीय आदि छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध स्वस्थानमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है; क्योंकि एक तो इनका स्वस्थानमें बन्ध होता है और दूसरे ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इस कालके प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती । शेष साता वेदनीय श्रादि छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके श्रभिमुख हुए उत्कृष्ट संक्लेशवाले जीवके होता है । यतः यह बन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । पर ये प्रकृतियाँ भी परावर्तमान हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहा है। १८१. संशी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके समान है । श्रसंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगति त्रिक और चार श्रयुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ - पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जो काल घटित करके बतला आये हैं, उससे संशी जीवोंके कालमें कोई विशेषता नहीं है; इसलिए संज्ञी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १८२. आहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोधके समान है। अनाहारक जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल कार्मण काययोगी जीवोंके समान है । विशेषार्थ - आहारकों की उत्कृष्ट कार्यस्थिति अङ्गुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे १८३. जहएणए पगर्द। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे०-पंचणा०-चदुदंस०पंचंत० जह• हिदिबंधो केवचिरं कालादो होदि ? जहएणु० अंतो०, अजह चदुसंज०हिदि० केवचिरं०? तिभंग । सादि० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियई। पंचदस-बारसकल-भय-दुगु. तेजा-क० वएण०४-अगु०-उप०-णिमि० जह• हिदि० केवचिरं० १ जह० एम०, उक्क० अंतो० । अज० जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सादा०-[ आहारसरीर ] आहार०अंगो-जस० जह• हिदि० जहएणु० अंतो• अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असादा०-इत्थि०-णवूस०-हस्स-रदिअरदि-सोग-णिरयग-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ-णिरयाणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थवि०-थावरादि०४-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सर-अणादे०-अजस० जह 'अजह० जह० एग०, उक्क अंतो० । पुरिस० जह० जहएणु० अंतो० । अज. हिदि० जह० एग०, उक्क० वेछावहिसाग० सादि० । बातको ध्यानमें रखकर यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। जघन्य बन्धकाल १८३. जघन्य कालका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय प्रकतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका कितना काल है जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका कितना काल है ? अजघन्य स्थितिबन्धके तीन भङ्ग है-अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त । उनमेंसे सादि सान्त अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। पाँच दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मा शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपधात और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। साता वेदनीय, आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानु. पूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुम, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयशाकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य और अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेदके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। 1. मूलप्रतौ प्रज्जह० इति पाठः । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णढिदिबंधकालपरूवणा ३४५ १८४. चदुगणं आयुगाणं जह० हिदि० जहएणु० एग० । अज. जहएणु अंतो । एवं सव्वत्थ योग-कसायमग्गणाओ वज्ज । तिरिक्खग०-ओरालि -तिरिकरवाणु०-णीचा. जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । मणुसग०-वज्जरि०-मणुसाणु० जह• हिदि० जह० एग०, उक्क अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । देवगदि०४ जह० हिदि. जह• एग०, उक्क. अंतो० । अज० जह• एग०, उक्क० तिगिण पलिदो० सादिरे । पंचिंदि०-पर-उस्सा०-तस०४ जहरू हिदि० जह० एग०, उक्क. अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं। समचदु०-पसत्थवि०सुभग-सुस्सर-आदे० जह० हिदि० जह• एग०, उक्क. अंतो। अजह• जह. एग०, उक्क० बेछावहिसा० सादि० तिषिण पलिदो० देमू । ओरालि अंगो जह• जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग सादि० । तित्थय० जह• हिदि० जह० उक्क. अंतो० । अज० जह• अंतो०, उक्क'० तिषिण सा० सादि० । उच्चा० जह• हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज १८४. आयुकर्मकी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। योग और कषाय मार्गणाओको छोड़कर श्रायुकर्मके विषयमें इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उल्लास और प्रस चतुष्क प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एकसौ पचासी सागर है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर और आदेय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्योपम है। औदारिक शरीर प्राङ्गोपाङ्ग प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धकाजघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है। उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। १. मूलप्रती अंतो० अज्ज० जह० एग० उक्क अंतो. अज्ज. इति पाठः । २. मूलप्रतौ उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० इति पाठः । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे द्विदि० जह० एग०, उक्क० बेछावहिसा० सादि० तिरिए पलिदो ० सू० । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छ्यासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है । विशेषार्थ- पाँच ज्ञानावरण आदि १८ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध नृपक श्रेणिमें अन्तिम स्थितिबन्धके समय होता है, इसलिए उनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इन प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध अनादि - अनन्त, अनादिसान्त और सादि- सान्त तीन प्रकारका होता है । जो अन्य ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, उनका भी इसी प्रकार से तीन प्रकारका बन्ध होता है। उनमेंसे यहाँ सादि - सान्त अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल कहा गया है। जब यह श्रजघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः श्रेणि पर आरोहण करनेसे छूट जाता है, तब इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है और यदि कुछ कम अर्धपुद्गल काल तक यह जीव श्रेणि पर नहीं चढ़ता है, तो इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है । इसीसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। पाँच दर्शनावरण आदि २८ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है । यहाँ जघन्य स्थितिबन्ध का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि एक बार जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होनेके बाद वे पुनः कमसे कम अन्तर्मुहूर्त वाद होते हैं और उत्कृष्ट काल श्रसंख्यात लोक प्रमाण है; क्योंकि बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। सातावेदनीय श्रादि चार प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें अपने-अपने अन्तिम स्थितिबन्धके अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । जो जीव उपशमश्रेणिसे उतरते समय आहारकद्विकका एक समय के लिए बन्ध करता है और दूसरे समय में मरकर वह देव हो जाता है, उसके आहारकद्विकके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय उपलब्ध होता है। तथा इनके अजघन्य स्थिति बन्धका उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त ही है; क्योंकि एक तो ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और दूसरे सातवें और आठवें गुणस्थानका उत्कृष्ट काल ही अन्तर्मुहूर्त है। इसलिए तो इन दोनों प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है और साता व यशःकीर्ति ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। क्योंकि साता वेदनीय और यशःकीर्तिका एक समय के लिए अजघन्य स्थितिबन्ध हुआ और दूसरे समय में इनके स्थान में असातावेदनीय व अयशःकीर्तिका स्थितिबन्ध होने लगा तो इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है और यदि इनका निरन्तर स्थितिबन्ध होता रहा, तो वह अन्तर्मुहूर्त काल तक ही होगा। इसके बाद इनके स्थितिबन्धका काल समाप्त हो के कारण नियमसे इनका स्थान इनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियाँ ले लेंगी। इसलिए सातावेदनीय और यशःकीर्तिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । असातावेदनीय श्रादि ३८ प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएणट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३४७ १८५. आदेसेण णेरइगा धुविगाणं जह• हिदि० जह० एग०, उक्क० वेसम० । अजह० हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि बिसमयूणाणि, उक्क० हिदि० तेत्तीसं स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त इसलिए कहा है क्योंकि क समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। पुरुषवेद क्षपक प्रकृति है और क्षपक श्रेणिमें एक-एक स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है, इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय इसके प्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे है और नपुंसकवेद व स्त्रीवेदकी प्रथम व द्वितीय गुणस्थानमें बन्ध व्युच्छित्ति हो जानेके बाद जीव साधिक दो छयासठ सागर काल तक आगेके गुणस्थानोंमें बना रहनेसे इतने काल तक सतत इसका नियमसे बन्ध करता रहता है। इसलिए इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कहा है। आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध एक समय तक और अजघन्य स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्त तक होता है; ऐसा नियम है | इसलिए चारों आयुओंके जधन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है किन्तु योग और कषाय मार्गणामें इनके जघन्य स्थितिबन्धकी तरह अजघन्य स्थितिबन्धका भी जघन्य काल एक समय बन जाता है, क्योंकि किसी भी जीवके किसी एक कषाय और योगमें एक समय तक आयुका अजघन्य स्थितिबन्ध होकर दूसरे समयमें उसके उस योग और कषायका बदल जाना सम्भव है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए तिर्यञ्चगति आदि चार प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त होनेका कारण इन प्रकृतियोंका सप्रतिपक्ष होना है। आगे भी यथासम्भव यह काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सर्वार्थसिद्धिके देव अपनी आयुके प्रथम समयसे लेकर अन्त तक मनुष्यगति श्रादि तीन प्रकृतियोका नियमसे बन्ध करते रहते हैं, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि देवगतिचतुष्कका नियमसे बन्ध कर रहा है, उसके तीन पल्यकी आयुवाले जीवों में उत्पन्न होने पर भी उनका बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि सात प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका स्वभावसे जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त व अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। देवगति और नरकगतिमें इनका नियमसे बन्ध होता है; तिर्यञ्चगतिमें दूसरे गुणस्थानसे लेकर पांचवें गुणस्थान तक नियमसे बन्ध होता है और मनुष्यगतिमें दूसरे गुणस्थानसे लेकर अपनी-अपनी बन्ध-व्युच्छित्ति होने तक इनका नियमसे बन्ध होता है। अब यदि इन गतियों और इन प्रकृतियोंके बन्धके योग्य अवस्थाका विचार कर इनके बन्धके उत्कृष्ट कालका योग किया जाय, तो वह एक सौ पचासी सागरसे अधिक नहीं होता; इसीसे यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल एक सौ पचासो सागर कहा है। १८५. आदेशसे नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्यकाल दो Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे सा० । थीणगिद्धितिय-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि४-तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-णीचा. जह० [जह.] एग०, उक्क० बे सम० । अज. हिदि० जह० एग०, मिच्छत्त अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० । पुरिस०-मणुसग०-समचदु०-वज्जरिसभ०-मणुसाणु०पसत्यवि०-सुभग-सुस्सर-आदे-उच्चा० जह• हिदि० जह• एग०, उक्क० बेसम० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । तित्थय. जह• हिदि० जह. एग०, उक्क अंतो० । अज• हिदि० जह• एग०, उक्क तिएिण साग० सादि० । सेसाणं जह० हिदि० जह० एग०, उक्क. बे समय । अज हिदि० जह• एग०, उक्क० अंतो० । एवं पढमाए । णवरि तिरिक्खगदितिगं सादभंगो । पुरिस०[मणुसग० समचदु०-वज्जरिसभ०-मणुसाणु-पसत्थवि०-मुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा०] तित्थय. सागरोवमं देसूणं । धुविगाणं सागरोवम । समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्टकाल तेतीस 'सागर है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है किन्तु मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सबका तेतीस सागर है। पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृ उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल साधिक तीन सागर है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार पहिली पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके समान है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, 'सुस्वर, आदेय, उच्चगोत्र और तीर्थकर प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर है तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल एक सागर है। विशेषार्थ-संशी जीव मरकर नरकमें उत्पन्न होता है और ऐसे जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें या प्रथम व द्वितीय समयमें जघन्य स्थिति हो सकती है । इसीसे यहाँ सामान्यकी अपेक्षा व प्रथम नरकमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रक्रतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। तथ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अपनी-अपनी बन्धकी योग्यतानुसार अलग-अलग है यथा-ध्रवधन्धवाली प्रकृतियोंका सतत बन्ध होता रहता है और नरककी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष व उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। इसीसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल दो समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल दो समय Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहराट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३४९ १८६. विदयादि याव छहि त्ति थी गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंताणुबंधि ०४ जह० द्विदि० जह० अंतो० । अज० जह० एग०, मिच्छ० तो ०, उक्क० पप्पणो द्विदी | सेसाणं जह० अ० उक्क० भंगो । सत्तमाए थी गिद्धि ०३ मिच्छ० - अणंताणुबंधि ० ४ - तिरिक्खगदितिगं जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । कम करके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल कहा गया है। जो स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंका एक समयतक बन्ध करता है और दूसरे समय में मरकर अन्यगतिमें चला जाता है, उसके इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। नरकमें मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए मिथ्यात्व प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है । इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है; यह स्पष्ट ही है । इसीसे इन प्रकृतियोंके श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। पुरुषवेद आदि १० प्रकृतियाँ सप्रतिपक्ष हैं और इनका कमसे कम एक समयतक बन्ध होता है। ऐसा नियम है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा सम्यग्दृष्टि नारकी इनका नियमसे बन्ध करता है और नरकमें सम्यक्त्वका काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । जिस नारकीने तीर्थङ्कर प्रकृतिका एक समयतक जघन्य स्थितिबन्ध किया और दूसरे समय में वह जघन्य स्थितिबन्ध करने लगा, उसके इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है और नरकमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका निरन्तर बन्धकाल साधिक तीन सागर है; यह स्पष्ट ही है । इसीसे यहाँ इस प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर कहा है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनके निरन्तर बन्धका यहाँ जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यह काल उक्त प्रमाण कहा है। प्रथम नरकमें सब काल इसी प्रकार बन जाता है, किन्तु कुछ विशेषता है : यथा - प्रथम नरकमें तिर्यञ्चगति त्रिकके बन्धके समय इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका भी बन्ध सम्भव है, इसलिए साता प्रकृतिके समान इनके अजघन्य स्थितिबन्ध का जघन्यकाल एक समय और उत्कष्ट काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होने से यह काल साता प्रकृतिके समान कहा है। प्रथम नरककी उत्कट स्थिति एक सागर है, किन्तु यहाँ वेदक सम्यकत्वका काल कुछ कम एक सागर है; इसलिए यहाँ पुरुषवेद आदि १० और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर कहा है । किन्तु ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका मिथ्यात्व गुणस्थानमें निरन्तर बन्ध होता है, इस लिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल एक सागर कहा है । १८६. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठवीं पृथिवी तकके नारकियों में स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, किन्तु मिथ्यात्वा - मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान है । सातवीं पृथिवीमें स्त्यानद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार और तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य स्थितिबन्धका Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अज० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० । मणुसगळ-मणुसाणु०-उच्चा० जह• हिदि० जह• एग०, उक्क• अंतो० । अज० जह• अंतो, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । सेसं उक्क भंगो । णवरि धुविगाणं अज० जह• अंतो० । १८७. तिरिक्खेसु पंचणा-णवदसणा-मिच्छत्त-सोलसक-भय-दुगु-तिरिक्खग-अोरालि०-तेजा०-क०-वएण०४-तिरिक्खाणु-अगुरु०-उप०-णिमि०-णीचा०पंचंत० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । सेसाणं जह० अज० हिदि० उक्कस्सभंगो। पंचिंदियतिरिक्ख०३ सव्वपगदीणं जह• अज० उक्कस्सभंगो । पंचिंदियतिरिक्खअपजत्ता० सव्वपगदीणं जह० अज० उक्कस्सगो। जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-सम्यक्त्वके अभिमुख हुए द्वितीयादि पृथिवीके नारकीके अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित होने पर स्त्यानगृद्धि आदि पाठ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सातवीं पृथिवीमें इन प्रकृतियोंके व तिर्यश्चगति त्रिकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सातवीं पृथिवीमें जो असंयत सम्यग्दृष्टि स्वस्थानमें मनुष्यगति आदि तीनका कमसे कम एक समयतक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जघन्य स्थितिबन्ध करता है,उसके इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंका यह काल उक्त प्रमाण वहा है । तथा इन प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे यहाँ तीसरे व चौथे गुणस्थानका काल मिलाकर अधिकसे अधिक जितना होता है. उतने काल तक होता है। इसलिए अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। १८७. तिर्यश्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति,औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष प्रकतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्ट के समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिको सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहडिदिबंध कालपरूवणा ३५१ १८८. मणुस ०३ खत्रगपगदीणं धुविगाणं जह० हिदि० ओघं । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० तिरिण पलि० पुव्त्रकोडिपुधत्तं । पंचदंस० - वारसक ० -भयदुगु० - तेजा० क० - वरण ०४ - अगुरु० - उप० - णिमि० जह० हिदि० जह० एग, उक्क० बेसम० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० उक्कस्तभंगो । सादावे०आहार - आहार० अंगो० -जस० जह० ज० ओघं । असादा० - इत्थि० - एस०हस्स-रदि- अरदि-सोग - तिरिक्खग०- मणुसग ० चदुजादि - ओरालि० अंगो० - इस्संघ०दो० आदाउज्जो ० अप्पसत्थवि ० थावरादि ० ४ - थिराथिर- सुभासुभ- दूभग--दुस्सर-अणादे० - अजस० णीचागो० जह० द्विदि० जह० एग०, उक्क० वेसमयं । अज० हिदि ० उक्करसभंगो । मिच्छ० जह० द्विदि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अज० द्विदि० जह० सुद्धाभ० विसमयणं अंतो०, उक्क उक्करसभंगो । समचदु०पसत्थ० - सुभग०- सुस्सर-आदे० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० बे समयं । अज० जह० एग०, उक्क० तिरिए पलिदो० सादि० । मसिली देसू० । विशेषार्थ- - यह हम अनेक बार बतला आये हैं कि तिर्यञ्चों में सूक्ष्म जीवोंकी उत्कृष्ट काय स्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है। इसके बाद जीव नियमसे बादर और पर्याप्त होकर जघन्य स्थितिबन्ध करता है । इसीसे यहां पाँच ज्ञानावरण श्रादिकी अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है 1 १८८. मनुष्यत्रिकमें क्षपक ध्रुव प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है | अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पत्य है । पाँच दर्शनावरण, वारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघ-न्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट कालका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । सातावेदनीय, आहारकशरीर, आहारक श्रङ्गोपाङ्ग और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार जाति, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो श्रानुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःखर, अनादेय, अयशः कीर्ति और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल सामान्य मनुष्यों में दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण और शेष दो में अन्तर्मुहूर्त हैं । तथा उत्कृष्ट कालका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । पर मनुष्यनियोंमें उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । पुरुषवेद, देवगति चतुष्क और उच्च १. मूलप्रतौ जह० एग० खुद्धाभ० इति पाठः । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ महाबंघे ट्ठिदिबंधाहियारे पुरिस० - देवर्गादि४- उच्चा० जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क तिरिण पलिदो ० सादि० । मणुसिणीसु देसू० । णिरयगदि-रियाणुपु० जह० अ० उक्कस्सभंगो । पंचिंदि० पर ० उस्सा० -तस०४ जह० डिदि० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अज० जह० एग०, उक्क० तिरिए पलिदो० सादि० । तित्थय० जह० हिदि० ओघं । मणुसिणीसु तित्थय० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क ० पुव्वकोडी सू० । १८६. मणुस पज्ज० धुविगाणं जह० द्विदि० जह० एग०, उक्क० बे सम० । अज० जह० खुद्धाभव० बिसमयूर्ण, उक्क० अंतो० । सेसा जह० एग०, उक्क० बे समयं । अज० जह० एग, उक्क० तो ० । गोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है, पर मनुष्यिनियोंमें कुछ कम तीन पल्य है । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजधन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्लास और त्रस चतुष्क प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है | तीर्थङ्कर प्रकृति के जघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । पर मनुष्यिनियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है | अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । १८६. मनुष्य पर्यातकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लकभव ग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - यहाँ क्षपक प्रकृतियोंसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, और पाँच अन्तराय इन १८ प्रकृतियोंका ग्रहण किया है। मनुष्य त्रिकके उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति प्रमाण काल तक इनका निरन्तरबन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है । समचतुरस्रसंस्थान आदि पाँच और पुरुषवेद आदि छह प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टि मनुष्यके निरन्तर बन्ध होता रहता है । इसीसे यहां मनुष्य सामान्य और पर्याप्त मनुष्यके इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य और मनुष्यिनीके कुछ कम तीन पल्य कहा है। पञ्चे न्द्रिय जाति श्रादि सात प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टि मनुष्यके तो निरन्तर बन्ध होता ही है पर जो मनुष्य भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं उनके अन्तर्मुहूर्त काल पूर्व से भी इनका बन्ध होने में कोई बाधा नहीं आती । इसीसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है । यह काल सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यों में कुछ कम एक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य प्रमाण जानना चाहिए और मनुष्यिनियोंमें अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य जानना चाहिए । तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला मनुष्य मर कर मनुष्यों में Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरणटिदिबंधकालपरूवणा ३५३ १६०. देवेसु पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-भय-दुगु ०-ओरालि०-तेजा०-क०वएण०४-अगुरु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-णिमि०-पंचंत० जह० जह० एग०, उक्क० बे सम० । अज० हिदि० जह० दस वस्ससहस्साणि बिसमयूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सा० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० बे सम०, अज० जह० एग०, मिच्छ० अंतो०, उक्क० एक्कत्तीसं सा० । पुरिस०-मणुसग०-पंचिंदि०-समचदु०--ओरालि०अंगो०-वजरिसभ०-मणु साणु०पसत्थवि०-तस-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० जह० जह० एग०, उक्क० बेसम० । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । तित्थय. जह० अज० हिदि० उक्कस्सभंगो । सेसाणं जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० बेसम । अज० उक्कस्सभंगो । १६१. एवं भवण-वाणवें० । गवरि सगहिदी भाणिदव्वा । जोदिसि याव गवगेवज्जा त्ति जह० अज० हिदि० उक्करसभंगो। णवरि थीण गिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणुबंधि०४ जह० जह० उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, मिच्छ० अंतो०, उक्क० अप्पप्पणो हिदि त्ति । एवं णेदव्वं सव्वह त्ति । नहीं उत्पन्न होता । इसीसे यहां तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण कहा है। शेष काल विचार कर जान लेना चाहिए । १९०. देवोंमें पाँच शान वरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय,भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त,प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थतिबन्धका जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य बकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है ,मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सबका इकतीस सागर है। पुरुषवेद, अनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रषभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र प्रकृयोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उल्का समान है। १९१. इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए । इतः विशेषता है कि इनमें अपनी स्थिति कहनी चाहिए। ज्योतिषियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवों में जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि तक जानना चाहिए । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ११२. एइंदिएसु धुविगाणं तिरिक्खगदितिगं च तिरिक्खोघं । सेसाणं तिरिक्वअपज्जत्तभंगो । बादर धुविगाणं अंगुलस्स असंखे० । तिरिक्वगदितिगं जह'० ओघं। अज० जह० एग०, उक्क० कम्महिदी० । बादरपज्ज० अज० हिदि. जह० एग०, उक्क० संखेजाणि वस्ससहस्साणि । एवं तिरिक्खगदितिगं पि । सेसाणं जह० अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । बादरअपज्ज० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । मुहुमे धुविगाणं जह० हिदि० तिरिक्वोघं। अज० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । एवं तिरिक्खगदितिगं । सेसाणं जह० अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पजत्तापजत्तेसु सव्यपगदीणं तिरिकावअपज्जत्तभंगो । विशेषार्थ---पाँच ज्ञानावरण आदि ४५ प्रकृतियोंका देवोंके निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। मिथ्यात्वके साथ देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति इकतीस सागर है। इसीसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदि अाठ प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। देव सम्यग्दृष्टिके पुरुषवेद आदि तेरह प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है। इसीसे यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। असंही जीव भवनवासी और व्यन्तर देवों में ही मरकर उत्पन्न होता है, इसलिए देव सामान्यकी अपेक्षा यहाँ जो काल कहा है,वह उनमें भी घटित हो जाता है। मात्र अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहते समय वह उनकी भवस्थितिप्रमाण ही कहना चाहिए, क्योंकि देव सामान्यमें यह काल देवोंकी उत्कृष्ट स्थितिको ध्यानमें रखकर कहा है। शेष कालका स्पष्टीकरण जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिवन्धके कालके कथनके समय किया है.उसी प्रकार यहाँ पर भी कर लेना चाहिए। १९२. एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ और तिर्यञ्चगति त्रिकका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। बादर एकेन्द्रियोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य स्थितिवन्धका काल ओघके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कर्मस्थिति प्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतित्रिकका काल भी जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। बादर अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए । सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतित्रिकका काल जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। १. मूलप्रतौ जह० जह० श्रोधं इति पाठः । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णढिदिवंधकालपरूवणा ३५५ १६३. बेइं०-तेइं०-चदुरिं० तस्सेव पज्जत्तापज. उक्कस्सभंगो। पंचिंदिय०२ खवगपगदीणं ओघं । सेसाणं उक्कस्सभंगो । णवरि धुविगाणं अज० जह० अंतो०, उक्क० कायहिदी० । पंचिंदियअपजत्ता उक्कस्सभंगो । १६४. पंचकायाणं सव्वपगदीणं उक्कस्सभंगो। गवरि यम्हि अंतो० तम्हि जह० एग० कादव्वं । १६५. तस०२ खवगपगदीणं जह० ओघं । अज० अणु० भंगो । णवरि जह० अंतो० । सेसाणं धुविगाणं जह० ट्ठिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० विशेषार्थ-तिर्यश्च सामान्यके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और तिर्यञ्चगतित्रिकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त तथा अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण बतला आये हैं । यह काल यहाँ एकेन्द्रियों में इसी प्रकार उपलब्ध होता है, इसलिए यह कथन सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है । बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। यह तो स्पष्ट ही है,पर इनमें तिर्यञ्चगतित्रिकके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण कहनेका कारण यह है कि इन तीन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और बादर अग्निकायिक व बादर वायुकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है। इससे यहाँ यह काल इतना ही उपलब्ध होता है। इसी प्रकार शेष कालका भी विचार कर उसका कथन कर लेना चाहिए। १९३. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल कायस्थिति प्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-विकलत्रय और उनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवों में अपनी-अपनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जो काल कहा है, वही यहाँ जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १९४. पाँच स्थावर कायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि जहाँपर जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, वहाँपर जघन्य काल एक समय कहना चाहिए। विशेषार्थ--पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुस्क्रप स्थितिबन्धका जो काल कहा है. उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। मात्र जघन्य काल अन्तमुहर्त के स्थान में एक समय कहना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। १६५. त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अजघन्य स्थितिवन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका काल ज्ञाना Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहिया पाणावर भंगो । सेाणं उक्करसभंगो | तसअपज्ज० उक्कस्सभंगो । १६६. पंचमण० - पंचत्रचि ० सव्वपगदीगं जह० अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । चदुत्रयु० जह० द्विदि० जह० एग० । अज० जह० एग०, उक्क ० तो ० । १६७. कायजोगि० खवगपगदीणं जह० द्विदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अ० हिदि० जह० एग०, उक्क० अांतकालमसंखे० । वरि सादा० - पुरिस०जस०-उच्चा॰ अंतो० | सेसाणं धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स य जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० द्विदि० जह० एग०, उक्क० प्रसंखेज्जा लोगा । सेसारणं मजोगिभंगो । वरणके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । त्रस अपर्याप्तकों में अपनी सब' प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । १९६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । चार आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ-पाँचो मनोयोग और पाँचों वचनयोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यहाँ सब प्रकृतियोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। चारों आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका साधारणतः जघन्य और उत्कृष्ट काल यद्यपि अन्तमुहूर्त है, पर उक्त योगोंका जघन्य काल एक समय होनेसे यहाँ आयुओं के श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय बन जाता है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १९७. काययोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र के अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । विशेषार्थ - एक तो क्षपक प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है और दूसरे काययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट कार्यस्थिति अनन्त काल है । इसी बातको ध्यान में रखकर यहाँ क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक 'समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है । मात्र साता वेदनीय आदि चार क्षपक प्रकृतियोंका काययोगमें निरन्तर बन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक ही होता है, क्योंकि जिन गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर बन्ध होता है, उनमें काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही उपलब्ध होता है। इसलिए इन चार प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ जहएणट्ठिदिबंधकालपरूवणा १६८. ओरालिए धुविगाणं जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि देसू० । तिरिक्खगदितिरिक्खाणु०-णीचागो० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० द्विदि० जह० एग०, उक्क० तिणि वाससहस्साणि देसू० । सेसाणं कायजोगिभंगो । १६६. ओरालियमिस्से पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक० -भय-दुगु०ओरालिय-तेजा०-क०-वरण:-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत०-देवगदि०४-तित्थय. जह. अज० जह० उक्क० अंतो० । से काले सरीरपज्जत्तीहि जाहिदि त्ति यदि अधाप शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहनेका कारण यह है कि इनका काययोगकी अपेक्षा निरन्तर अजघन्य स्थितिबन्ध सूक्ष्म एकेन्द्रियों में होता रहता है और उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है। इसके बाद ये बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त होकर इनका जघन्य स्थितिबन्ध करते हैं। यही कारण है कि यहाँ शेष ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा तिर्यश्चगतित्रिकका निरन्तर बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए इन तीन प्रकृतियोंके भी अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १६८. औदारिक काययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धक जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जपन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूतें है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग काययोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाईस,हजार वर्ष है। इनके अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष तक औदारिक काययोग होता है । इसीसे औदारिक काययोगमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है तथा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति तीन हजार वर्ष है। इनके अन्तर्मुहूर्त कम तीन हजार वर्ष तक औदारिक काययोग होता है। इसीसे औदारिक काययोगमें तिर्यश्चगति निकके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष कहा है। क्योंकि इन तीन प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध औदारिक काययोगके रहते हुए यहीं पर सम्भव है। शेष कथन स्पट ही है। १९९. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कामण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, पाँच अन्तराय, देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको पूर्ण करेगा, इसलिए यदि अधःप्रवृत्तका यह काल लेते हैं तो जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। तथा Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ महाधे द्विविधाहियारे बजरस जह० अजह० जह० ए०, उक्क० अंतो० । संसारणं जह० अज० हिदि० जह० एग०, उक्क अंतो० । २००, वेजव्वियकां०-वेडव्नियभि० आहार० - आहारमि० उक्कस्तभंगो । कम्मइगका० पंचणा०-णवदंसणा ० - सादा सादा० - मिच्छ० - सोलसक० - एस० - हस्स-रदिअरदि-सोग- भय० - दुगुच्छ-तिरिक्ख० - एइंदिय० - तेजा०१०-कम्म०० - हुडसं०१०- वरण०४तिरिक्खाणु ० गु०४ - आदाउजो०-यावर - बादर- मुहुम ०-पज्जत्तापज्ज०-पत्तेग-साधारा -विरार-गुभासुभ- दुभग-अणादे० ० - जस० - अजस० - गिमिण-णीचा०- पंचत० जह० हिदि० ० एग०, उक्क० वे सम० । अज० जह० एग०, उक्क० तिरिण सम० । सेखलं जह० अजह जह० एग०, उक्क० तिरिण सम० । ] २०१. इत्थि० खवगपगदीगं जह० जहर तो । अज० जह० एग०, उक्क० पलिदोवमसदपुत्तं । पंचदंसणा०-मिच्छत्त-वारसक०-भय-दुगु' ०-तेजा०-०वराण०४-अगु०-उप०-णिमि० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, उक्क० पलिदोव मसदपुत्तं । सादा० - आहार० - आहार० अंगो०-जस० जह० अ० श्रघो । असादा० - इत्थि० एस० - हस्स-रदि-यरदि-सोग-दोगदि-चदु शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। २००, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी और आहारक मिश्र काययोगी जीवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृटके समान है। कार्मणकाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, श्रातप, उद्योत, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, छानादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल तीन समय है । २०१. स्त्रीवेद में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्व है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्व है । साता वेदनीय, श्राहारक शरीर, श्राहारक श्राङ्गोपाङ्ग और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य और श्रजघन्य स्थितिबन्धका काल के समान है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, दो गति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो श्रनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहणट्ठदिबंधकालपरूवणा जादि - पंचसंठारण-पंच संघरण- दो आरपुत्रि आदाउज्जो० अपसत्य ०-यावर०४-थिराथिर- सुभासुभ- [दूभग-दुस्सर- अणादेय] अज०-लीचागो० जह० ज० जह० एम०, उक्क० अंतो । पुरिस० उच्चागो० ओघं । एवरि अ० शुक्रसभंगो | आयु ओघं | मणुसग०-पंचिंदि० - समचदु० ओरालि० अंगो० वज्ज० मणुसा--सत्पतित तस-सुभग-सुस्सर-आदे'० जह० द्विदि० जह० एग०, उक्क० त्र्यंतो ० । अज० जह० एग०, उक्क० पणवण्णं पलिदो देसू० | देवगदि०४ उक्कस्तभंगो | ओरालि०पर०- उस्सा० - बादर-पज्जत्त पत्ते० जह० द्विदि संतोः । श्रज File, जह० एग०, उक्क० पणवणं पलि सादि० ० । अज० अणुकरसभंगो | तो० स्थावर चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, दय यशःकीर्ति और नीच गोत्र प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । इतनी विशेषता है कि इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। आयुकर्मकी चारों प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक शरीर श्रङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, स सुभग, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धक्त जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है । देवगति चतुष्कका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । यदारिक शरीर, परघात, उल्लास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है । तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जंघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है । ३५९ विशेषार्थ-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ पत्य पृथक्त्व प्रमाण है, इसलिए इसमें १८ क्षपक प्रकृतियों और पाँच दर्शनावरण आदि २९ प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण कहा है। स्त्रीवेद में पुरुषवेद और उच्चगोत्रके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पत्य कह आये हैं । वही जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल है, इसलिए यहाँ यह काल अनुत्कृष्टके समान कहा है । स्त्रीवेदमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है, इसलिए यहाँ मनुष्यगति आदि ११ प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है, क्योंकि देवी सम्यग्दृष्टिके इन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है । स्त्रीवेदी देवी के औदारिकशरीर श्रादि छह प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है । तथा देवी पर्याय छूटनेके बाद भी अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका बन्ध होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । १. मूलप्रतौ श्रादे० जस० जह० इति पाठः । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे २०२. पुरिसेसु खवगपगदीणं जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज. जह• अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । पुणो धुविगाणं जह० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज• जह० अंतो०, उक्क० कायट्टिदि० । सेसाणं उक्कस्सभंगो । २०३. णवुसगे खवगपगदीणं जह० हिदि. जहएणुकस्सेण अंतो० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अणंतकालमसंखे० । पुणो धुविगाणं तिरिक्वगदितिगस्स ओरालि तिरिक्खोघं । सेसाणं उक्कस्सभंगो । णवरि तित्थकर इत्थिवेदभंगो । ___ २०४. अवगदवे० सगपगदीणं जह० अोघं । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो० । कोधादि०४ उक्कस्सभंगो । णवरि खवगपगदीणं जह० ओघो।। २०५. मदि०-सुद० धुविगाणं तिरिक्खोघं । णवरि अज० जह• अंतो० । सेसाणं उक्कस्सभंगो । विभंगे उक्कस्सभंगो । णवरि पंचणाणादि सम्मत्ता० संजमामि २०२. पुरुषवेदवाले जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व है। पुनः ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी कायस्थिति प्रमाण है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल उत्कृष्टके समान है। २०३. नपुंसकवेदवाले जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके अघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट न अनन्त काल है जो असंख्यात पद्दल परिवर्तन प्रमाण है। पुनः ध्रुववन्धवाली प्रकृतियाँ तिर्यञ्चगतित्रिक और औदारिक शरीर प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। २०४. अपगतवेदवाले जीवोंमें अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल अोधके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। क्रोधादिक चार कषायवाले जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल ोधके समान है। विशेषार्थ-अपगतवेदमें बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणीमें अन्तर्मुहूर्त काल तक उपलब्ध होता है। प्रोघसे भी यह काल इसी प्रकार प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल प्रोघके समान कहा है। अप गतवेदमें उपशामकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इससे यहां अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। चार कषायोंमें क्षपक प्रतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके कालका स्पष्टी करण अपगतवेदके समान ही है । शेष कथन सुगम है। २०५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। विभङ्गशानी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरणादि प्रकतियों में से सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके और संयमके अभिमुख हुए जीवके उद्योतके Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३६१ मुहस्स यात्रो पगदीओ उज्जोववज्जारो तारो पग० जह• हिदि० उक्क० अंतो। २०६. आभि०-सुद०-प्रोधि० सादादिछएणं ओघसादभंगो। असादादिछक्कं अोघं । मणुसग०-ओरालि-अोरालि अंगो-बजरिसभ -मणुसाणु० जह• हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा । सेसाणं उक्कस्सभंगो । मणपज्ज-संजद-सामाइ०-छेदो० उक्कस्सभंगो। णवरि सादादि-असादादि० आभिणि भंगो । ___ २०७. परिहार० धुविमाणं अधापवत्त० जह० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अज. हिदि. जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । सेसाणं जह. अज० हिदि० जह• एग०, उक० अंतो० । अथवा दंसणमोहक्खवगस्स कदकरणिजस्स दिज्जदि तदो जह० हिदि० जह• उक्क० अंतो । अज हिदि० जह• अंतो०, उक० पुचकोडी देसूणं । सादा०-हस्स-रदि-आहारदुग-थिर-मुभ-जस० जह० [जह.] उक्क० अंतो० । अंज. जह० एग०, उक्क. अंतो० । असादा०-अरदि-सोगअथिर-असुभ-अजस० जह० अज हिदि. जह० एग०, उक्क० अंतो । सुहुमसं० सव्वपगदीणं जह० हिदि० ओघं । अज० द्विदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सिवा जिन प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। २०६. आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें साता आदिक छह प्रकृतियोंका भङ्ग ओघमें कहे गये साताप्रकृतिके समान है। असाता आदि छह प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्माहत है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि साता आदि और असाता आदि प्रकृतियोंका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान है। २०७. परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तहर्त है। अथवा मोहनीयकी क्षपणा करनेवाले कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जीवके इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व प्राप्त होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। साता वेदनीय, हास्य, रति, आहारकद्विक, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय ल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमहत है । सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल अोधके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे २०८. संजदासंजदे उक्कस्तभंगो । वरि सादादि - असादादि० आभिणि भंगो । संजदे धुविगाणं तिक्खिगदितिगं च मदिभंगो । सेसं उक्कस्तभंगो । २०६. चक्खुदंसणी • तसपज्जत्तभंगो | अचक्खुर्द • ओघं । श्रधिदं० श्रधिभिंगो । ० ३६२ २१०. किरण ० - गील० - काउ० उक्कस्सभंगो । । वरि तित्थयरं पीलभंगो । २११. तेउले० परिहारभंगो । वरि अष्पष्पणो पगदीओ जाणिदव्वा । धुविafteri अज • उक्क० सोधम्मभंगो । एवं पम्माए । वरि सगहिदी । २१२. सुकाए खवगपगदीणं जह० जह० उक्क० अंतो० । अज० द्विदि० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे० । श्रीणगिद्धि ०३ - मिच्छ०-ताणुबंधि०४ जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, मिच्छत्तं अंतो०, उक्क० एकत्तीस साग० सादिरे० । पुरिस० जह० हिदि०' ओघं । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । एवं अकसायाणं परियत्तमाणियाणं । मसग ० - ओरालि० ओरालि ० अंगो० - वज्जरिसभ० - मणुसार ० श्रधिभंगो | सादा० २०८. संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि साता आदि और साता श्रादिकका भङ्ग श्राभिनिबोधिकज्ञानके समान है । श्रसंयत जीवों में ध्रुव प्रकृतियाँ और तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान 1 २०९ चतुदर्शनी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग त्रस पर्याप्तकोंके समान है, चतुदर्शनी जीवों में श्रधके समान है । अवधिदर्शनी जीवोंमें अवधिज्ञानियोंके समान है । २१०. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेपता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग नील लेश्याके समान है । २११. पीत लेश्या परिहारविशुद्धिसंयत के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल सौधर्मकल्पके समान है । इसी प्रकार पद्म लेश्यामें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । २१२. शुक्ललेश्यामें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जधन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । पुरुषवेदके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल श्रोघके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार परिवर्तमान आठ कषायों का काल जानना चाहिए । मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्य गत्यानुपूर्वीका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके १. मूलप्रतौ हिदि० जह० श्रोधं इति पाठः । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएट्टिदिबंधकालपरूवणा हस्स-रदि-आहार-आहार०अंगो-थिर-मुभ-जस. ओधिभंगो। तप्पडिवक्रवाणं इत्थिवेदादि य परियत्तमाणियाणि ओघं । २१३. भवसिद्धिया० मूलोघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो । २१४. सम्मादिहि. आभिणिभंगो। खड्गसम्मादिही० ओधिभंगो। णवरि सगहिदि कादव्वं । एवं वेदगे । उवसम० पंचणा-छदसणा-बारसक-पुरिस०भय-दुगु-देवमदि-पंचिंदि० वेउबि-तेजा-का-समचदु०-वेउबि अंगो-वएण०४ समान है। साता वेदनीय, हास्य, रति, आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है । तथा इनके प्रतिपक्षभूत स्त्रीवेद आदि परिवर्तमान प्रकृतियोंका भङ्ग अोधके समान है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणिमें एक स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होता है, इसलिए शुक्ललेश्यामें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त कहा है। तथा शुक्ल लेश्यामें इनका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक साधिक तेतीस सागर काल तक निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। जो मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है, उसके स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है और वहाँ एक स्थितिबन्धका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्महुर्त कहा है। इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और. उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है; यह स्पष्ट ही है । मात्र मिथ्यात्व सप्रतिपक्ष प्रकृति न होनेसे उसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेद भी आपक प्रकृति है, इसलिए उसके जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान कहा है। तथा एक तो यह सप्रतिपक्ष प्रकृति है और दूसरे सम्यग्दृष्टिके एक मात्र तीन वेदोंमेंसे इसीका बन्ध होता है, इसलिए इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । तथा इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिए । मात्र एक तो, अप्रत्याख्यानावरण चारका अविरतसम्यग्दृष्टिके और प्रत्याख्यानावरण चारका संयतासंयतके जघन्य स्थितिबन्ध कहना चाहिए और दूसरे अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहते समय उसे देवोंकी तेतीस सागर आयुके प्रथम समयसे प्रारम्भ कर साधिक तेतीस सागर घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट हो है। २१३. भव्य जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघ के समान है। अभव्य जीवों में अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। २१४. सम्यग्दृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानियोंके समान है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवधिशानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इसी प्रकार वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए। उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे देवाणु-अगु०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमिण-तित्थय -उच्चा०-पंचंतरा. जह• हिदि. जह० एग, उक्क० अंतो० । अज० हिदि० जहएणु. अंतो० । णवरि देवगदि०४ अज० हिदि० जह० एग० । सेसाणं जह० अज० जह० एग०, उक्क० अंतो । वरि अहकसा०-मणुसगदिपंचगस्स जह• अज० जहएणु० अंतो । णवरि मणुसगदिपंचगस्स जह० सादभंगो । २१५. सासणे सम्मामिच्छे उक्कस्सभंगो। मिच्छादिही० मदिभंगो । सरणीसु सव्वपगदीणं जह• मणुसोघं । अज० अणुक्क० भंगो। णवरि केसि वज० अंतो० । असएणीसु उक्कस्सभंगो । णवरि धुविगाणं असंखेज्जा लोगा। चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके अजघन्य स्थितिबन्धको जघन्य काल एक समय है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंके और मनुष्य गतिपञ्चकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका काल साताके समान है। विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर, क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर और वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति छयासठ सागर है। इसे ध्यानमें रखकर इन सम्ययत्वों में अपनी अपनी प्रकृतियोंके अजयन्य स्थितिबन्धका जहां जो सम्भव हो काल कहना 'चाहिए । शेष विशेषताका निर्देश मूलमें किया ही है। यहां उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच झानावरण आदिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है सो इसका कारण यह है कि जो उपशम सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणिमें इनका एक समय तक जघन्य स्थितिबन्ध करता है और दूसरे समयमें मर कर वह देव होकर अजघन्य स्थितिबन्ध करने लगता है उसके इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। इसीसे वह एक समय कहा है। इसी प्रकार देवगति चतुष्कके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिए। कारण कि उपशम श्रेणिसे उतरते समय जो एक समयके लिए देवगतिचतुष्कका अजघन्य स्थितिबन्ध करता है और दूसरे समयमें मर कर उसके देव हो जाने पर वह इन प्रकृतियोंका प्रबन्धक हो जाता है, इसलिए यह काल भी एक समय उपलब्ध होता है। शेष कथन सुगम ही है। २१५. सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। मिथ्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानियोंके समान है। संशी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य मनुष्योंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि किन्हीं प्रकृतियोंका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं है। असंही जीवों में उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूषणा ३६५ २१६. आहारे धुविगाणं थीणगिद्धितियाणं च जह० हिदि. जह• एग०, उक्क० अंतो । अज हिदि० जह० एग०, उक्क अंगुलस्स असंखे० । णवरि खवगपगदीणं जह० हिदि० ओघं । सेसाणं पगदीणं ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं कालं समत्तं । अंतरकालपरूवणा २१७. अंतरं दुविध--जहएणय उक्कस्सयं च। उक्कस्सए पगर्द। दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-छदसणा०-सादासा०-चदुसंज--पुरिस-हस्स-रदिअरदि-सोग-भय-दुगुं ०-पंचिंदि०-तेजा०-क-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस-अजस-णिमि-पंचंत. उक्कस्सहिदिबंधंतरं केवचिरं कालादो होंति ? जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालमसंखे । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४इत्थिवे. उक्क हिदि० केवचिरं ? जह• अंतो०, उक्क० अणंतकालमसं० । अणु. जह० एग०, उक्क० बेछावहिसा० देसू । इत्थिवे. सादि । अट्ठक० उक० हिदि. ___२१६. आहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और स्त्यानगृद्धित्रिक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनाहारक जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार जघन्य काल समाप्त हुआ। इस प्रकार काल प्ररूपणा समाप्त हुई। अन्तर काल प्ररूपणा २१७. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और श्रादेश। श्रोधसे पाँचहानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय. असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, यशः कोर्ति, अयशाकोति, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुगलपरिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकाजघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कन दो छयासठ सागर है । उसमें भी स्त्रीवेदके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक दोण्यासठ सागर है। आठ कषायकेउत्कृष्ट Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जह अंतो०, उक्क० अणतकालमसंखे० । अणु० हिदि० जह• एग०, उक्क० पुवकोडि देसू० । णवुस-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अण्णादे०णीचा० उक्क० हिदि० जह० अंतो, उक्क० अणतकालं० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेछावट्ठिसाग० सादि० तिषिण पलिदो० देसूणा०। २१८. णिरयायु० उक्क० हिदि० जह० पुवकोडि-दसवस्ससहस्साणि समयणाणि, उक्क० अणंतकालं० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० अणतकालं० । तिरिक्खायु० उक्क० जह० पुव्वकोडी समयूण, उक्क० अणंतकालं० । अणु० जह अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । मणुसायु० उक्क० हिदि० जह० पुव्वकोडि 'समयू०, उक्क० अणंतकालं० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं० । देवायु० उक्क० जह० पुव्वकोडि-दसवस्ससहस्सं समयूणं, उक्क० अद्धपोग्गलं० । अणु० ज ह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं। २१६. वेउव्वियछक्कं उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकाल । अणु० जह० एग०, उक्क० अणंतकालं० । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु [ उज्जोव० ] उक्क० जह. स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्खर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। २१८. नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक पूर्वकोटि और एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम एक पूर्वकोटि और दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। २१९. वैक्रियिक छहके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल 1. मूलप्रतौ कोडि देसू० समयू० इति पाठः । २. मूलप्रतौ तिरिक्खाणु० उच्चा० उक्क० इति पाठः। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा अंतो०, उक्क० अणंतकालं० । अणु० जह० एग०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं । मणुसगदि-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० अणंतकालं० । अणु० जह० एग०, उक्क० असंखेज्जलोग० । एइं०-बेइं०-तेइं०-चदुरिंदि०-आदाव-थावर०४ उक्क० जह० अंतो०, उक० अणंतकालं० । अणु० जह• एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं। आहार-आहार०अंगो० उक्क० अणु० जह० अंतो०, उक्क अद्धपोग्गल । ओरालि०-ओरालि अंगो-बज्जरिसभ० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० अणंतकालं० । अणु० जह• एग०, उक्क० तिरिण पलि. सादि०। तित्थयरं [उक्क.] पत्थि । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । परिवर्तन प्रमाण है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ प्रेसठ सागर है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टअन्तर अनन्त काल है जो असंख्यातपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर है। आहारक शरीर और आहारक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ- एक बार उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होनेके बाद पुनः वे कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कालके बाद ही होते हैं। यही कारण है कि यहाँ चार आयु और तीर्थकर सवा शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल अन्तर्महर्त कहा है। तीर्थंकर प्रकृतिका अोघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नरकगतिके अभिमुख हुए संक्लेश परिणामवाले मनुष्यके होता है। यतः यह अवस्था दो बार नहीं उपलब्ध होती, अतः तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। चार आयुओंके सम्बन्धमें आगे विचार करनेवाले हैं हो। तथा संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त अवस्थाका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । इसीसे यहाँ देवायु, आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है, क्योंकि सबप्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके ही होता है; अन्यके नहीं देवायु और आहारकद्विकका बन्ध संयतके होता है और इसका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । इसीसे इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल न कहकर कुछ कम Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ महाबंधे दिदिबंधाहियारे अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल क्यों नहीं होता; यह कथन पहले कर ही पाये हैं। अब रहा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालका विचार सो सब प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कमसे कम एक समयके अन्तरसे होता है, इसलिए उक्त सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय कहा है। मात्र चार आयु आहारकद्विकमें कुछ विशेषता है, जिसका खुलासा आगे यथास्थान करेंगे ही। अब रहा सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके उत्कृष्ट अन्तर कालका विचार सो वह अलग-अलग कहा ही है । खुलासा इस प्रकार है पाँच ज्ञानावरण आदि जिन ५६ प्रकृतियोंका प्रथम दण्डकमें उल्लेख किया है,उनमेंसे कुछ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं और कुंछ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं। उनमें भी जो सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं,उनकी बन्धव्युच्छित्ति इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके पहले होती है और कुछ ऐसी प्रकृतियाँ हैं जिनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इन सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । स्त्यानगृद्धित आदि नौ प्रकृतियोंका बन्ध सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में नहीं होता और मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम दो छयासठ सागर है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम दो छयासठ सागर कहा है। परन्तु स्त्रीवेद सप्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे उसका यह अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागर उपलब्ध होता है। कारण कि जो जीव मिथ्यात्वमें आकर भी स्त्रीवेदका बन्ध न कर नपुसकवेद और पुरुषवेदका बन्ध करता है,उसके यह अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । संयम और संयमासंयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, इसलिए आठ कषायके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। कारण कि संयत जीवके प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका और संयतासंयत जीवके अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका बन्ध नहीं होता । इसके बाद इस जीवके असंयमको प्राप्त होनेपर उनका नियमसे बन्ध होने लगता है। नपुंसकवेद आदि सोलह प्रकृतियोंका बन्ध सासादन गुणस्थानतक होता है। यतः मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागर है, साथ ही ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियों हैं और इनका बन्ध भोगभूमिमें नहीं होता, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य कहा है। प्रायुप्रकिउत्कृष्ट अरि अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल स्पष्ट ही है । एकन्द्रियका उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है और इनके वैक्रियिकषटकका बन्ध नहीं होता या पञ्चेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है। इसीसे यहां वैक्रियिकषटकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल कहा है । तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता और सहस्रार कल्पसे आगे नहीं होता। यदि निरन्तररूपसे इस कालका विचार करते हैं, तो वह एक सौ प्रेसठ सागर होता है । इसीसे यहाँ इन तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल एक सौ बेसठ सागर कहा है । अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और इनकी कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है । इसीसे यहाँ इन तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। संयमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। इसीसे आहारकद्विकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण का है। शेष कथन स्पष्ट ही है। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सटिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३६६ २२०. प्रादेसेण णेरइएसु पंचणा-छदंस०-सादासा०-बारसक-पुरिस०हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि--ओरालि०-तेजा-क-समचदु०-ओरालि. अंगो०-वजरिसभ०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभगसुस्सर-आदे-जस-अजस०-णिमि०-पंचंत. उक्क० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णवुस-तिरिक्खगदि-पंचसंठा-पंचसंघ-तिरिक्रवाणु०-उज्जो०अप्पसत्थ-भग-दुस्सर-अणादे०-णीचागो० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देमू० । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा देसू० । दो आयु० उक० णत्थि अंतरं । अणु० जह• अंतो, उक्क छम्मासं देमू । एवं सव्वणेरइयाणं आयु० । मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० जह० अंतो०, उक्क• बावीसं साग० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं देसू० । तित्थय० उक्क० जह. अंतो०, उक्क० तिएिण साग० सादिरे० । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । २२१. एवं सु पुढवीसु । णवरि मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० सादभंगो । ___२२०. आदेशसे नारकियों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यशःकीर्ति, अयश कीर्ति, निर्माण और पॉच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। इसी प्रकार सब नारकियोंके आयुकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रक्रतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। २२१. इसी प्रकार छह पृथिवियोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग साता प्रकृतिके समान है। ४७ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियार सेसाणं पणो हिदी देणा । सत्तमाए रियोघं । वरि मणुसगदि-मणुसाणु० उच्चा० उक्क० अ० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० दे० । २२२. तिरिक्खे पंचणा० इदंस०-सादासा० - अहकसा० सत्तणोक० -पंचिंदियतेजा ० क० समचदु०-वरण ०४ - अगुरु ०४- पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर - सुभासुभ-सुभगसुस्सर-देव १० - जस० अजस० - णिमि० पंचंत० उक्क० अ० श्रघं । थी गिद्धि०३शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सातवीं पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि मनुध्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । विशेषार्थ - जो नारकी उत्पन्न होनेके बाद पर्याप्त होनेपर प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और अनन्तर मरणके पूर्व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, उसके उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर उपलब्ध होता है, इसलिए यह अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। नरकमें सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है और सम्यग्दृष्टि के स्त्यानगृद्धि तीन आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । तथा मिथ्यादृष्टि रहनेपर भी जन्मके प्रारम्भ में और अन्तमें पर्याप्त अवस्था में यदि उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तो इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भी वही कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है । इससे यह भी उक्त प्रमाण कहा है। और सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता इसलिए अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी कुछ कम तेतीस सागर कहा है । नरकमें मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टि नारकीके छठे नरकतक ही होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम बाईस सागर कहा है । पर सातवें नरकमें इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर बन जाता है । कारण कि सातवें नरकमें जो भवके प्रारम्भ में र अन्तमें सम्यग्दृष्टि होकर इनका बन्ध करता है और मध्य में कुछ कम तेतीस सागर कालतक मिथ्यादृष्टि रहकर इनका बन्ध नहीं करता उसके इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है | तीर्थङ्कर प्रकृतिका तीसरे नरकतक साधिक तीन सागरकी युवाले नारकी होनेतक ही बन्ध होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन सागर कहा है । यह नरकमें सामान्य से अन्तरकाल कहा है। प्रत्येक नरक में अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिको जानकर अन्तरकाल ले जाना चाहिए । मात्र छठे नरकतक मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि के भी होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल साताप्रकृतिके समान कहनेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २२२ तिर्यञ्चों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, आठ कषाय, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, देय, यशःकोर्ति, जयशःकीर्ति, निर्माण और पांच ग्रन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओोधके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सठ्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४-इत्थि० उक्क० हिदि० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तिषिण पलिदो० देसू० । अपञ्चक्खाणा०४-णवुस-तिरिक्खगदि-चदुजादि-अोरालि०पंचसंठा०.-ओरालि अंगो०--छस्संघ०--तिरिक्वाणुपु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्यवि०थावरादि०४-दूभग-दुस्सर-अण्णादे०-पीचा० उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० पुन्चकोडी देस० । णिरय-मणुस-देवायु० उक्क० हिदि० पत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं देसूणं । तिरिक्वायु० उक्क० ओघं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी सादिरे । वेउव्वियछक्क-मणुसग०मणुसाणु०-उच्चा० ओघं। २२३. पंचिंदियतिरिक्व०३ पढमदंडगेण सह देवगदि०४-उच्चा० कादव्वं । मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरण चार, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण है। तिर्यञ्च आयुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें उसी पर्यायमें उत्पन्न हुए सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । इसीसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। यहाँ भवके आदि और अन्तमें इन प्रकृतियोंका बन्ध कराकर यह अन्तर काल ले आना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरण चार आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि कहनेका कारण यह है कि संयतासंयत तिर्यचके अप्रत्याख्यानावरण चारका बन्ध नहीं होता और असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चके शेषका बन्ध नहीं होता। इसलिए प्रारम्भमें और अन्तमें इनका बन्ध करावे और मध्यमें कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमासंयम और सम्यक्त्व गुणके साथ रख कर उक्त अन्तर काल ले आवे । यद्यपि तिर्यञ्चकी उत्कृष्ट प्रायु तीन पल्यकी भी होती है.पर वहां संयमासंयम गुणके न प्राप्त होनेसे अप्रत्याख्यानावरण चारका अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होता और भोगभूमिमें नपुंसकवेद आदिका बन्ध नहीं होता, इसलिए वहाँ तिर्यश्चोंमें अन्तरका प्रश्न ही नहीं उठता, अतः इन सबके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। शेष कथन सुगम है। २२३. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तीनमें प्रथम दण्डकके साथ देवगति चतुष्क और उच्चगोत्रका कथन करना चाहिए । इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट १. मूलप्रती पंचिंदिय तिरिक्खोघो पढम-इति पाठः। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे 1 1 उक्क० द्विदि० जह० तो०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणु० जह० एस० उक्क० अंतो० । सेसाणं सव्वपगदीगं उक्क० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोटिपुधत्तं । ऋ० द्विदि० पगदिअंतरं । वरि तिरिणयु० तिरिक्खोघं । तिरिक्खायु० उक्क० जह० पुव्वकोडी समयूर्ण, उक्क० पुव्वकोडि धत्तं । पंचिदियतिरिक्ख ज० सव्वपगदी उक्क० जह० [उक्क० ] अंतो० । अणु० जह० एग०, उक्क० तो० । वरि तिरिक्खायु० उक्क० अणु० जह० अंतो० । मणुसायु० उक्क० त्थि अंतरं । अणुक्क जहराणु० तो ० । २२४. मणुस ० ३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो । वरि पच्चक्खाणा ०४ अपच्च क्खायावरणभंगो | मणुसायु० उक्क० जह० पुव्वकोडी समयू ०, उक्क ० पुव्वकोडिyधत्तं । अणु० जह० अंतो, उक्क० पुव्वकोडी सादि० | आहार ०२ उक्क० अणु ० तो०, उक्क० पुव्वकोडिषुधत्तं । तित्थय० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जहण्णु० तो० । मणुस अपज्ज० तिरिक्ख पज्जत्तभंगो । वरि तिरिक्खायु० उक्क० णत्थि जह० अन्तरपूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। इतनी विशेषता है कि तीन आयुओंका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोके समान है । तिर्यञ्च श्रयुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम एक पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्यातक सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेता है कि तिर्यञ्चाके उत्कृष्ट और अनुत्कुष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिककी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । तथापि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर्मभूमिमें ही उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्व कोटि पृथक्त्व कहा है । यहाँ पूर्वकोटिपृथक्त्वके प्रारम्भ और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर अन्तरकाल ले श्रावे । चार आयुओंके सिवा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी इसी प्रकार ले आवे। शेष कथन स्पष्ट ही है । २२४. मनुष्य चतुष्क में पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि प्रत्याख्यानावरणचारका भङ्ग श्रप्रत्याख्यानावरण चार के समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम एक पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्य पर्याप्तकों में तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है, इतनी विशेषता है कि तिर्य Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सहिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३७३ अंतरं । अणु० जह० उक्क० अंतो० । मणुसायु० उक्क० जह० अंतो० समयू०, उक० अंतो० । अणु० जह० उक० अंतो० । | २२५. देवे पंचा० - छदंसणा ० - सादासा० - बारसक० - ० - पुरिस० - हस्स-रदिअरदि-सोग-भय-दुगु० - मणुसग०-पंचिंदि० ओरालि ० - तेजा० - क० - समचदु० - ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ० ए०४-मरसारणु० - अगुरु ०४ - पसत्यवि० -तस०४-थिराथिर- सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे० - जस० - अजस० - णिमि० - तित्थय ० - उच्चा० - पंचंत ० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अहारस साग० सादि० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० | थी गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंतारणुबंधि० ४- इत्थि० - बुंस० पंचसंठा ० - पंचसंघ० - अप्पसत्थ-दूभग- दुस्सर - अणादे० - णीचा० उक० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठारस साग० सादि: । अणु० जह० एग०, उक्क० एकतीसं सांग० देसू० । दोश्रायु० णिरयभंगो । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० -उज्जो० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठा वायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहर्त है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - मनुष्यत्रिक में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोके समान है; यह स्पष्ट ही है । मात्र प्रत्याख्यानावरण चारके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल मनुष्य त्रिकमें कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण उपलब्ध होता है और प्रत्याख्यानावरण चारके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भी इतना ही उपलब्ध होता है । इसीसे यहां प्रत्याख्यानावरण चारका भङ्ग अप्रत्याख्यानावरण चारके समान है, ऐसा कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है । २२५. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक शरीर श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, यशःकीर्ति, यशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगुद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःखर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । दो आयुका भङ्ग नारकियोंके समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे रस साग० सादि० । अणु० जह• एग०, उक्क• अहारस साग० सादि । एइंदियआदाव-थावर० उक्क० अणु० जह• अंतो० एग०, [उक्क०] बे साग० सादि । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं णादूण णेदव्वं ।। ___ २२६. एइंदिएसु तिरिक्वायु० उक्क० जह• बावीसं० वस्ससहस्साणि समयू०, उक्क० अणंतकालं । अणुक० पगदिअंतरं । मणुसायु० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० पगदिअंतरं । मणुसग०-मणुसागु०-उच्चा० उक्क० अणु० जह० अंतो० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सेसाणं [उक्क०] जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना अन्तर जानकर कथन करना चाहिए। विशेषार्थ-देवों में ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सहस्रार कल्प तक होता है और सहस्रार कल्पमें उत्कृष्ट आयु साधिक अठारह सागर है, इसलिए यहाँ प्रथम व द्वितीय दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है। हॉभवके प्रारम्भ व अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करानेसे यह अन्तरकाल उपलब्ध होता है। मिथ्यादृष्टि जीव नौ ग्रैवेयक तक उत्पन्न होता है और अन्तिम प्रैवेयकके देवकी उत्कृष्ट प्राय इकतीस सागर है। इसीसे यहाँ दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा है। यहाँ प्रारम्भ और अन्तमें मिथ्यादृष्टि रखकर इन प्रकृतियोंका बन्ध करावे और मध्यमें कुछ कम इकतीस सागर तक सम्यग्दृष्टि रखकर इन प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल ले आवे । तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध सहस्रार कल्प तक होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। मात्र अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल लाते समय मध्यमें जीवको साधिक अठारह सागर कालतक सम्यग्दृष्टि रखे । एकेन्द्रिय जाति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्धऐशान कल्पतकहोता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। २२६. एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे अन्तर्महर्त और एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर. अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३७५ २२७. बादरे तिरिक्ख-मणुसायु०-मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा०वज्जाणं उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अंगुल असं० । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । तिरिक्वायु० उक्क० जह• बावीसं वासहस्साणि समयू०, उक्क. सगहिदी । अणु० पगदिअंतरं । मणुसायु० एइंदियोघं । मणुसग०-मणुसाणुपु०-उच्चा० उक्क० जह अंतो०, उक्क० अंगुल० असंखे । अणु० जह• एग०, उक्क० कम्महिदी० । २२८. बादरपज्जत्तेसु सव्वाणं उक्क० [जह•] अंतो०, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णवरि तिरिक्वायु० उक्क० जह०, बावीसं वाससहस्साणि समयू०, उक्क० सगहिदी० । अणु. पगदिअंतरं । मणुसायु० एइंदि०ओघं । मणुसग०-मणुसाणुपु०-उच्चा० उक्क० जह• अंतो' । अणु० जह एग०, उक्क० दो वि संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरअपज. तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २२६. सुहुमेइंदिएमु तिरिक्वायु० उक्क० जह० अंतो० समयू०, उक्क० कायहिदी० । अणु० पगदिअंतरं । मणुसायु, उक्क पत्थि अंतरं । अणु० पगदिअंतरं । २२७. बादर एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको छोड़कर शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य एकेन्द्रियोंके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कर्मस्थितिप्रमाण है।। २२८. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम वाईस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण : है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य एकेन्द्रियोंके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है तथा इन दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है । बादरअपर्याप्तकोंका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। ___२२९. सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यगति, १. मूलप्रतौ अंतो उक्क० अणु० इति पाठः । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ महाबंधे विदिबंधाहियारे मणुसगळ-मणुसाणु०-उच्चा० उक जह• अंतो० । अणु० जह० एग०, दोरणं पि असंखेज्जा लोगा। सेसाणं उक्क जह• अंतो, उक्क अंगुलस्स असं० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सुहुमाए पज्जत्तापज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २३०. बेइं०-तेई०-चदुरिं० तेसिं पज्जत्ता तिरिक्खायु० उक्क. जह० बारसवरिसाणि एगुणवएणरादिदियाणि छम्मासाणि समयू०, उक्क. तिएणं पि संखेज्जाणि वाससहस्साणि । अणु० पगदिअंतरं। मणुसायु० उक्क० रणत्थि अंतरं । अणु० पगदिअंतरं । सेसाणं उक्क. जह• अंतो०, उक्क. संखेज्जाणि वाससह मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उञ्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यातलोक प्रमाण है। शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष प्रमाण है। इसीसे एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष कहा है। तथा एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल प्रमाण है, इसलिए इनमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। एकेन्द्रिय जीव मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होता है, फिर तिर्यश्च नहीं रहता,इसलिए यहां मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिवन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एकेन्द्रियों में मनुष्यायु प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है;यह पष्ट हो है। जो एकेन्द्रिय असंख्यात लोक प्रमाण काल तक अग्निकायिक और वायुकायिक होकर परिभ्रमण करता रहता है, उसके इतने काल तक मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें इन तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। मात्र इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर काल लाते समय वह पृथिवीकायिक आदिकी कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करा कर ले आवे । एकेन्द्रियों में सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति भी असंख्यात लोकप्रमाण है और इनमें एकेन्द्रियोंको दृष्टिसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता, इसलिए एकेन्द्रियोंमें शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। इस प्रकार यह सामान्य एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा अन्तरकालका विचार किया। इसी प्रकार बादर आदि एकेन्द्रियोंकी कायस्थिति आदि जान कर अन्तरकालका निर्णय करना चाहिए। __२३०. द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बारह वर्ष, एक समय कम उनचास दिन रात और एक समय कम छह महीना है और उत्कृष्ट अन्तर तीनोंका संख्यात हजार वर्ष है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुस्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर १. मूलप्रतौ पज्जत्तापज्जता तिरि---इति पाठः । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ उक्कस्सदिदिबंधअंतरकालपरूवणा स्साणि । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अपज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। २३१. पंचिंदिय०२ णाणादि० ओघ । पढमदंडो ओघं । णवरि उक्क० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुत्तेण० । पज्जत्ते सागरोवमसदपुधः । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि० उक्क० हिदि० पंचणाणा०भंगो। अणु० ओघं । अहकसा० [उक्क०] णाणावरणभंगो । अणु० ओघं। णिरय-देवायु० उक्क हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि पुचकोडी समयू । उक्क० णाणावभंगो। अणु० जह• अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । तिरिक्खायु० उक्क० जह• पुन्वकोडी समयू०, उक्क० णाणावरणभंगो । अणु० जह• अंतो०, उक्क सागरोवमसदपुधत्तं । मणुसायु० उक्क तिरिक्वायुभंगो। अणु० जह• अंतो०, उक्क कायहिदी। णिरयगदि-एई०-बेई०-तेई०-चदुरिं-णिरयाणुपु०-आदाव-थावरादि०४ संख्यात हजार वर्ष है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इनके अपर्याप्तकोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंकी भवस्थिति और कायस्थितिको भ्यानमें रखकर अन्तरकालका विचार कर लेना चाहिए। जो द्वीन्द्रिय मरकर द्वीन्द्रिय होता है, त्रीन्द्रिय मरकर त्रीन्द्रिय होता है और चतुरिन्द्रिय मरकर चतुरिन्द्रिय होता है उसीके तिर्यश्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे एक समय कम बारह वर्ष, एक समय कम उनचास दिन रात और एक समय कम छह महीना उपलब्ध होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जहाँ एक मार्गणामें अपनी आयुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अपनी उत्कृष्ट श्रायुप्रमाण कहा है वहाँ इसी प्रकार स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । २३१. पञ्चेन्द्रियद्विकमें शानावरणादिकका भङ्ग ओघके समान है। प्रथम दण्डक बोधके समान है । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पञ्चेन्द्रियोंमें पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर है और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें सौ सागर पृथक्त्व है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भा पाँच ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धकाभङ्ग शोधके समान है। आठ कषायोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग ओघके समान है। नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर दस हजार वर्ष और एक समय कम एक पूर्वकोटि है। उत्कृष्ट अन्तर शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम एक पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धको जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग तिर्यश्चायु के समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग शानावरणके Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ महाबँधे ट्ठिदिबंधाहियारे सग० उक्क० णाणावर भंगो । अणु० जह० एग०, उक्क पंचासीदिसागरोवमसदं० । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणुपु० - उच्च ० उक्क० णाणावर णभंगो । अणु श्रधं । मणु- देवरादि-वेजव्वि० - वेडव्वि० अंगो० मणुस ० -देवाणुपु० गाणावर भंगो । अ० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० सादि० । ओरालि० - ओरालि० अंगो० वज्जरिसभ० उक्क० गाणावरणभंगो । अ० श्रघं । आहार०२ उक्क० अ० जह० तो०, उक्क० कार्यद्विदी० । तित्थय० योघं । अपज्जत्ता० तिरिक्खअपज्जतभंगो । रणवरि दो आयु० उक्क० जह० अंतो० समयू०, उक्क० अंतो० । अणु ० जह० अंतो०, उक्क० अंतो० । समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उच्च गोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग श्रोघके समान है। मनुष्यगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग श्रधके समान है । आहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । तथा तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है । पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकों में तिर्यञ्च अपर्याप्तकों के समान भङ्ग है । इतनी विशेपता है कि दो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – पञ्च न्द्रियोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथकत्व अधिक एक हजार सागर और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ सागर पृथक्त्व है इसलिए इनमें ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ कायस्थितिके प्रारम्भ में और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करा कर यह अन्तरकाल ले आवे । नरकायु और देवायुक्ने उत्कृष्ट स्थितिबन्धके जघन्य अन्तरका स्पष्टीकरण मूल प्रकृति स्थितिबन्धके समय जिस प्रकार किया है उसी प्रकार यहाँ कर लेना चाहिए। तथा इन दोनों आयुओंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व कहनेका कारण यह है कि कोई भी पञ्चेन्द्रिय इतने कालके बाद नरकायु और देवायुका नियमसे बन्ध करता है । तिर्यञ्चाके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके उत्कृष्ट अन्तरकालका स्पष्टीकरण भी इसी प्रकार करना चाहिए । मात्र मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल काय स्थिति प्रमाण कहा है सो इसका अभिप्राय यह है कि पञ्चेन्द्रिय रहते हुए अधिक से अधिक इतने कालतक मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता है । बीचमें बन्ध हो या न हो नियम नहीं है । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव अधिक से अधिक एक सौ पचासी सागर कालतक नरकगति आदि ग्यारह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करते, इसलिए इनमें इन प्रकृतियोंके Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा २३२. पुढविका० तिरिक्वायु० उक्क [जह.] वावीसं वाससहस्सा० समयू०, उक० असंखेज्जा लोगा । अणु पगदिअंतरं । मणुसायु० उक्क० पत्थि अंतरं। अणु पगदिअंतरं ! सेसाणं उक्क० जह• अंतो०, उक्क असंखेज्जा लोगा। अणु० जह एग०, उक्क० अंतो० । बादरपुढवि० तं चेव । वरि उक्क० जह• अंतो०, उक्क० कम्महिदी० । बादरपज्जत्ते संखेजाणि वाससहस्साणि । अपज्जत्ते तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । एवं आउ०-तेउ०-वाउ० । वरि तिरिक्वायु० उक्क० हिदि० जह• सत्तवस्ससहस्साणि तिषिण रादिदियाणि तिमिण वस्ससहस्साणि समयू०, उक्क० कायहिदी० । अणु० अप्पप्पणो पगदिअंतरं । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सो पचासी सागर कहा है। इसी प्रकार शेष अन्तरकालका विचार कर लेना चाहिए । २३२. पृथिवीकायिक जीवोंमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। शेष प्रकतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। बादर पृथिवीकायिक जीवों में यही अन्तर काल है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कर्मस्थिति प्रमाण है। बादर पर्याप्तक जीवों में संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । अपर्याप्त जीवोंमें तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इसी प्रकार जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम सात हजार वर्ष एक समय कम तीन दिन रात और एक समय कम तीन हजार वर्ष है तथा उत्कृष्ट अन्तर काल कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अपने अपने प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। विशेषार्थ-पृथिवीकायिककी भवस्थिति बाईस हजार वर्षप्रमाण और कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण होनेसे यहाँ तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनमें शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहनेका यही कारण है। बादर पृथिवीकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है, इसलिए इनमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके बिना शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कर्मस्थितिप्रमाण कहा है । बादर पर्याप्तकोंकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष कहा है । जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके कथनमें पृथिवीकायिक जीवोंके कथनसे कोई अन्तर नहीं है, इसलिए इनका कथन पृथिवीकायिक जीवोंके समान जाननेको कहा है। मात्र इनकी भवस्थितिमें अन्तर है, इसलिए इनमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर कहते समय वह एक समय कम अपनी अपनी उत्कृष्ट भवस्थितिप्रमाण कहा है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २३३. वणप्फदि० एइंदियभंगो । णवरि तिरिक्खायु. उक्क० हिदि० जह दसवस्ससहस्साणि समयू०, उक्क० अणंतकालं अंगुल. असं० संखेज्जाणि वस्स सहस्साणि । अणु० पगदिअंतरं । मणुसायु० उक्क० णत्थि अंतर। अणुक्क. पगदि अंतर । णवरि मणुसगदितिगस्स अणु० पगदिअंतरं। बादरवणप्फदिपत्ते. बादरपुढविभंगो । एवरि तिरिक्वायु उक्क० हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि समयू० । णिगोदे. दणप्फदिभंगो । गवरि बादरणियोदेसु सव्वेसु उक्क डिदि० जह० अंतो०, उक्क० कम्महिदी. । अणु० जह० एगस., उक्क० अंतो । एंवरि तिरिक्खायु० उक्क हिदि. जह• अंतो० समयू०, उक्क० पलिदो. असं० । अणु० पगदिअंतरं । णिगोदेसु पलिदो० असंखे०, बादरणिगोदपज्जत्ते संखेन्जाणि वाससहस्साणि । सव्वमुहुमाणं सुहुमएइंदियभंगो । रणवरि अप्पप्पणो कायहिदी भाणिदव्वा । २३३. वनस्पतिकायिक जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान अन्तर काल है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल, अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा संख्यात हजार वर्ष है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल प्रकृतिबन्धके अन्तर कालके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतित्रिकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल प्रकृतिबन्धके अन्तर कालके समान है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंमें बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम दस हजार वर्ष है। निगोद जीवों में वनस्पतिकायिक जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सब बादर निगोद जीवों में उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कर्मस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। निगोद जीवोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और बादर निगोद पर्याप्त जीवों में संख्यात हजार वर्ष है। सब सूक्ष्म जीवोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी कायस्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति बाईस हजार वर्ष है और वनस्पतिकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति दस हजार वर्ष है। तथा वनस्पतिकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकालप्रमाण, बादर वनस्पतिकायिकोंकी अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण और बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिकोंकी संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । इसीसे यहाँ इनमें तिर्यञ्चायु के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकायिकोंमें अनन्तकाल, इनके बादरोंमें अड्डुलके असंख्यातवें भागप्रमाण और इनके बादर पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्षप्रमाण कहा है। बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति भी दस हजार वर्ष है। इसीसे इनमें भी तिर्यश्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम दसह Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३८१ २३४. तस २ पंचिंदियभंगो । णवरि उक्क० हिदि. जह• अंतो०, उक्क० अप्पप्पणो कायहिदी० । तिगिण आयु० उक्क. हिदि० जह० पंचिंदियभंगो । उक्कल कायहिदी० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । मणुसायु० उक्क० अणु० ओघं । णवरि कायहिदी० । अपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २३५. पंचमण-पंचवचि० चदुअआयु०-आहार०२-तित्थय० उक. अणु० णत्थि अंतरं । सेसाणं उक्क०.णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतोमु. ? २३६. कायजोगीसु णिरय-देवायु-आहार २ उक्क. अणु० पत्थि अंतरं । तिरिक्वायु० उक्क० हिदि० पत्थि अंतरं । अणु० पगदिअंतरं। मणुसायु. उक० २३४. त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें पञ्चेन्द्रियों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी कायस्थिति प्रमाण है। तीन आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर पञ्चन्द्रिय जीवोंके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। मनुघ्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। त्रस अपर्याप्त जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-त्रसकायिक और प्रसकायिक पर्याप्त जीवोंकी कायस्थितिका उल्लेख अनेक बार कर आये हैं । उसे ध्यानमें रखकर यहां जो अन्तर कायस्थिति प्रमाण कहा है वह जान लेना चाहिए । नरकायु, तिर्यश्चायु और देवायुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण कहा है सो इसका स्पष्टीकरण यह है कि त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीव सौ सागर पृथक्त्वके बाद अवश्य ही नारकी, तिर्यश्च और देव होता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २३५. पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में चार आयु, आहारक द्विक और तोर्थ कर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-पांचों मनोयोगों और पांचों वचनयोगोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा इनमें मध्यमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है। इसीसे इनमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके सिवा शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । पर इस प्रकार एक योगमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए उसके अन्तरकालका निषेध किया है। अब रहीं प्रथम दण्डकमें कही गई चार आयु आदि सात प्रकृतियाँ सो इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। कारणका विचार स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए। २३६. काययोगी जीवोंमें नरकायु, देवायु और आहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे त्थि अंतरं । ० जह० तो ०, उक्क० अांतकालं असं० । सेसाणं उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० द्विदि० जह० एग०, उक० अंतो० । एवरि मणुसग०-मणु[० उच्चा० उक्क० हिंदि० पत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, संखेज्जा लोगा । सापु उक्क० अणु २३७. ओरालियका ० णिरय देवायु० - आहार ०२ - तित्थय ० उक० द्विदि० णत्थि अंतरं । तिरिक्ख - मणुसायु० उक्क० गत्थि अंतरं । अ० पगदिअंतरं । सेसारणं मणजोगिभंगो । २३८. ओरालियमिस्स० पंचणा० णवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० -भय-दुगु ० ओरालि० -तेजा० क ० -वरण ०४ गु०४- उप० - णिमि० पंचंत० उक्क० द्विदि० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० तो ० | देवगदि ०४ - तित्थय० धुविगाण भंगो । स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । विशेषार्थ - लब्ध्यपर्यातक मनुष्यके एकमात्र काययोग होता है । इसीसे काययोगमें मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध हो जाता है । जो मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध करके और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य होकर पुनः मनुष्यायुका अजघन्य स्थितिबन्ध करता है उसके मनुष्यायुके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल उपलब्ध होता है और जो प्रारम्भ में मनुष्यायुका बन्ध करके अनन्तकालतक काययोगके साथ रहकर अन्तमें मनुष्यायुका बन्ध करता है उसके मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल उपलब्ध होता है । इसीसे मनुष्यायुके श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २३७. औदारिक काययोगी जीवोंमें नरकायु, देवायु, श्राहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायु और मनुध्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर 'काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । विशेषार्थ - श्रदारिककाययोगमें तिर्यञ्चायु और मनुष्या युके प्रकृतिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष कह श्राये हैं वही यहाँ इन दोनों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन स्पष्ट ही है । २३८. श्रदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । शेष प्रकृ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सटिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३८३ सेसाणं उक्क० हिदि पत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। एवं अधापवत्तस्स । अथवा से काले पजत्ती जाहिदि ति सामित्तं दिजदि तदो धुविगाणं देवगदिपंचगस्स उक्क० अणु० पत्थि अंतरं । सेसाणं परियत्तमाणियाणं उक्क० रणत्थि अंतरं । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दो आयु० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २३६. वेउब्बिय०-आहार० मणजोगिभंगो। वेउब्विय-आहारमि० ओरालियमिस्सभंगो । कम्मइग० सव्वपगदीणं उक्क० अणु० णत्थि अंतरं ।। २४०. इत्थिवे. अोघं । पढमदंडओ सो चेव इत्थं वि। णवरि पलिदोवमसदपुधत्तं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०--अणंताणुबंधि०४--इत्थि०-णवुस-तिरिक्खगदिएइंदि-पंचसंठा-पंचसंघ--तिरिक्खाणु --आदउज्जो -अप्पसत्थ-थावर--भगदुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० गाणावरणभंगो। अणु० जह• एग०, उक्क. तियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अधःप्रवृत्तके जानना चाहिए । अथवा तदनन्तर समयमें पर्याप्तिको ग्रहण करेगा ऐसे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व प्राप्त होता है इसलिए ध्रुवबन्धवाली और देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष परिवर्तनशील प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो श्रायुओंका अन्तरकाल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध प्रकरणमें जो तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होगा वह सात कर्माके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कह आये हैं और यहाँ उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध प्रकरणमें तद्योग्य संक्लेश परिणामोंके होने पर अथवा उत्कृष्ट संक्तश परिरपामोके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है यह कहा है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ अन्तर कालका निरूपण दो प्रकारसे किया है। फिर भी हर हालतमें किसी भी कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं प्राप्त होता इतना स्पष्ट है। कारण कि औदारिकमिश्रकाययोगका काल इतना अल्प होता है जिसमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम नहीं प्राप्त होते। २३९. वैक्रियिककाययोगी और आहारक काययोगी जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें औदारिमश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। कार्मणकाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। २४०. स्त्रीवेदी जीवोंमें प्रोघके समान भङ्ग है। प्रथमदण्डक भी उसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि यहाँ सौ पल्य पृथक्त्व कहना चाहिए। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुखर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे पणवरणं पलिदोव० देसू । तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क० जह० पुन्चकोडि समयू०, उक्क० पाणावरणीयभंगो । अणु० जह• अंतो०, उक्क. पलिदो० सदपुधत्तं । णिरयायु० उक्क पत्थि अंतरं । अणु हिदि. जह० अंतो, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसू० । देवायु० उक्क० जह• दसवस्ससहस्साणि पुव्वकोडी समयू०, उक्क. कायहिदी० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० अहावरणं पलिदोवमाणि पुन्चकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । वेउव्वियछक्क-बीई०-तीइं०--चदुरिं०-मुहुम-अपज्ज०--साधार उक्क० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० णाणावभंगो । अणु० हिदि. जह• एग०, उक्क० पणवएणं पलिदो० सादि० । मणुस०-ओरालि०-ओरालि अंगो-वज्जरिसभ०-मणुसाणु० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० णाणाव भगो। अणु० जह एग०, उक्क तिरिण पलिदो० देसू० । आहार०२ उक० अणु० जह• अंतो०, उक्क० कायहिदी० । तित्थय० उक्क० अणु० पत्थि अंतरं । पल्य है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम एक पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिके त्रिभाग प्रमाण है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर दस हजार वर्ष और एक समय कम एक पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्य है । वैक्रियिक छह, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है । मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। श्राहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है। इसीसे यहां प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण कहा है। कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर यह अन्तर ले आना चाहिए । सम्यक्त्वके कालमें स्त्यानगृद्धि तीन आदि प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम पचवन पल्य कहा है। चारों प्राययोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालके विषयमें पहले अनेक बार निर्देश कर आये हैं । उसे ध्यानमें रखकर यहां अन्तरकाल जान लेना चाहिए । मात्र देवा युके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर जो पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्य Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३८५ २४१. पुरिसेसु पढमदंडो ओघं । णवरि उक्क. हिदि० जह• अंतो०, उक्क सागरोवमसदपुधत्तं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि. उक्क० णाणावभंगो । अणु० जह० एग०, उक्क० ओघ । णवुस-पंचसंठा०-पंचसंघ०अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्कस्सं गाणवर०भंगो। अणु० ओघं । णिरयायु० उक्क पत्थि अंतरं । अणु० इत्थि० भंगो। तिरिक्रव-मणुसायु० इत्थिभंगो । णवरि सगहिदी । देवायु उक्क० जह० दसवस्ससहस्साणि पुवकोडी समयू०, उक्क० णाणावर भंगो । अणु० जह० अंतो, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादि०। णिरयग-बेई०-तेइं०-चदुरिं-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि०४ उक्क. पाणाव०भंगो । अणु० जह० एग०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं । देवगदि०४ उक्क० हिदि पाणाव भंगो । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । कहा है सो उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि किसी स्त्रीवेदीने देवायुका पचवन पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध किया,पश्चात वह स्त्रीवेदके साथ पूर्वकोटि पृथक्त्व काल तक परिभ्रमण कर तीन पल्यकी आयुवाला स्त्रीवेदी हुश्रा और वहाँ छह महीना शेष रहने पर उसने पुनः देवायुका बन्ध किया,तो देवायुका यह अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। देवी पर्यायमें वैकियिक छह आदि बारह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और वहाँसे च्युत होनेके बाद भी अन्त त काल तक इनका बन्धन होना सम्भव है, क्योंकि ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक पचवन पल्य कहा है। सम्यग्दृष्टि मनुष्यनीके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। इसीसे स्त्रीवेदमें मनुध्यगति आदि पाँच प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है, क्योंकि मनुष्य सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता । शेष कथन स्पष्ट ही है। २४१. पुरुषवेदी जीवों में प्रथम दण्डक ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल शानावरणके समान है। अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्खर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल शानावरण के समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल स्त्रीवेदके समान है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर दस हजार वर्ष और एक समय कम एक पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरसाधिकतेतीस सागर है। नरकगति, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरक गत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर आदिचारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ बेसठ सागर है। देवगति चारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। मनुष्यगतिपञ्चकके Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ महाबँधे ट्ठिदिबंधा हियारे मणुसग दिपंचगस्स उक्क ० हिदि० णाणाव० भंगो । ऋणु० जह० एग०, उक्क० तिरिण पलिदो गादि० । आहार ०२ उक्क० अ० जह० अंतो०, उक्क० सगहिदी० । तित्थय० उक्क० रात्थि अंतरं । अणु० औघं 1 2 २४२. एस० पढमदंडओ मूलोघं । थी गिद्ध ०३ - मिच्छ० - प्रांता बंधि ०४ - इत्थि० स ० -तिरिक्खग ० पंचसंठा० - पंचसंघ० - तिरिक्खाणु० - उज्जो०अप्पसत्थ०-दूर्भाग- दुस्सर- अणादे० णीचागो० उक्क हिदि० ओघं । अर० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० देमू० । तिरि आयु० - वेडव्वियछक्क - मरणुसंग०-मरणु उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । ग्राहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनु त्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल के समान है । विशेषार्थ – पुरुषवेद की उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है । इसीसे इसमें प्रथम दण्कमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति का उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है । पुरुषवेद में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छ्यासठ सागर हैं । श्रघसे स्त्यानद्धि तीन आदि नौ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है । इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ओधके समान कहा है । मात्र स्त्रीवेद सप्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे यहाँ श्रोधके समान इसके अनुत्कष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छ्यासठ सागर कहना चाहिए। नपुंसकवेद आदि सोलह प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके तो बन्ध होता ही नहीं। साथ ही इनका कर्मभूमिज जीवके भी बन्ध नहीं होता। इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ओघसे साधिक दो छ्यासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य कहा है । पुरुषवेद यह अन्तर इसी प्रकार प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ यह ओघके समान कहा है । जो जीव दो छयासठ सागर तक सम्यग्दृष्टि और मध्य में सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहा और अन्तमें नौ ग्रैवेयक उत्कृष्ट युके साथ उत्पन्न हुआ, उसके एक सौ त्रेसठ सागर काल तक पुरुषवेद में नरकगति आदि दस प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहां इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर काल प्रमाण कहा है। उपशम श्रेणिपर चढ़ा हुआ जो जीव उतरते समय देवगतिचतुष्कका बन्ध करनेके अनन्तर पूर्व समय में मरकर तेतीस सागर की युवाला देव होता है उसके साधिक तेतीस सागर काल तक देवगति चतुष्कका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है । सम्यग्दृष्टि मनुष्यके मनुष्यगतिपञ्चकका बन्ध नहीं होता और मनुष्यके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । इसीसे यहाँ इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २४२. नपुंसकवेदमें प्रथम दण्डक मूलोधके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त, विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीन आयु, वैकियिक छह, मनुष्यगति, Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंध अंतरकालपरूवणा ३८७ साणु०-उच्चा०-आहार०२ उक्क० अ० ओघं । देवायु० उक्क० द्विदि० रात्थि अंतरं । अ० द्विदि० पगदिअंतरं । एइंदि० -वीइंदि ० - तीइंदि० चदुरिंदि ० आदावथावर०४ उक्क० पाणाव० भंगो । अर० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । तित्थय० मणुसभंगो । ओरालि० -ओरालि • अंगो ० - वज्जरिसभ० उक० पाणाव० भंगो० । अणु० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । एवं अडकसा० । २४३. अवगदवेदे सव्वपगदी उक्क यत्थि अं० । अणु० जह० उक्क० तो ० । मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र और आहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओधके समान है । देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति चतुरिन्द्रिय जाति आतप और स्थावर चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यों के समान है । श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि है । इसी प्रकार आठ कषायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल जानना चाहिए । विशेषार्थ - नरक में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । इसीसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। नरकमें एकेन्द्रिय जाति आदि नौ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे अन्तर्मुहूर्त कालतक और इनका बन्ध सम्भव नहीं है । इसीसे इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । नपुंसकवेदी सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यञ्चके कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक औदारिक शरीर आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण कहा है। यहाँ तिर्यञ्च पर्यायकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होगा । मात्र प्रारम्भमें और अन्तमें इनका बन्ध कराके यह अन्तरकाल ले आना चाहिए । शेष कथन सुगम है । २४३. अपगतवेदमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – नपुंसक वेदसे उपशम श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके उतरते समय सवेदी होनेके एक समय पहिले अपनी सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । इसलिए श्रपगत वेदमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के अन्तर कालका निषेध किया है तथा उपशान्त मोहका काल अन्तर्मुहूर्त होने से यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तमुहूर्त कहा है। चार संज्वलनकी बन्ध-व्युच्छिति होने के बाद उनका पुनः बन्ध अपगत वेदमें अन्तर्मुहूर्त कालके बाद ही होता है इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २४४. कोधादि०४ मणजोगिभंगो। २४५. मदि०-सुद० पंचणा-णवदंस-सादासा-मिच्छत्त-सोलसक-अहगोक-पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वरण ४-अगुरु०४-पसत्थ०-तस०४-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस:-अजस०-णिमि०-पंचंत. उक्क० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं । अणु० जह• एग०, उक० अंतो । णवुस०ओरालि०-पंचसंठा-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-अप्पसत्थ-दूभग-दुस्सर-अणादेपीचा० उक्क० डिदि० अोघं । अणु० जह• एग०, उक्क तिरिण पलिदो० देसू । चदुण्णायु०-वेउव्वियछ०-मणुसगळ-मणुसाणु०-उच्चा० मूलोघं। गवरि देवायु. उक्क द्विदि० जह० दसवस्ससहस्साणि पुवकोडी समयू०, उक्क० अणंतकालमसंखे । तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणुपु०-उज्जो० उक्क० ओघं । अणु हिदि० जह० एग०, उक्क० एकत्तीसं सा. सादि० । चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ उक्क० हिदि० ओघं । अणु० हिदि० जह• एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि । २४४. क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-मनोयोगका काल और चारों कषायोंका काल एक समान है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका अन्तरकाल मनोयोगी जीवोंके समान कहा है। २४५. मत्यज्ञानी, और ताज्ञानी जीवोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, साता और असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, पञ्चन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। नपुंसकवेद, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल- ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका अन्तर काल मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य अन्तर दस हजार वर्ष और एक समय कम एक पूर्वकोटि है । तथा उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अन्तरकाल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधश्रतरकालपरूवणा ३८९ २४६. विभंगे पंचणा०-णवदंसणा-सादासा-मिच्छ-सोलसक०-णवणोक.. तिरिक्खगदि-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क-छस्संठाण-पोरालि अंगो -छस्संघ--- वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगुरु०४--उज्जो०-दोविहा०-तस०४-धिरादिलक-णिमि०पीचा०-पंचंत० उक्क० हिदि० जह• अंतो०, उक्क तेत्तीस सा• दस० । अणु जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिरय-देवायु उक्क० अणु० हिदि० णत्थि अंतरं । तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क हिदि. णत्थि अंतरं । अणु० जद्द अंतो, उक्क. छम्मासं देसू०। वेउब्वियक-तिरिणजादि-सुहुम-अपज्जत-साधारण उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । मणुसगदिदुगं उच्चा० उक्क० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० बावीसं सा० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एइंदि०-आदाव-थावर० उक्क० जह० अंतो०, उक्क. बेसाग० सादि० । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० ! २४६. विभङ्गशानमें पाँच ज्ञानाचरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नवकषाय, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर, अन्तर्मुहर्त है । नरकायु और देवायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यगति द्विक और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावरके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-नरकमें विभगवानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । इसीसे यहाँ पाँच शानावरण आदि ८७ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम. तेतीस सागर कहा है. । यहाँ प्रारम्भ और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर यह अन्तर काल ले आवे । वैक्रियिक छह आदि बारह प्रकृतियोंका बन्ध देव और नारकियोंके नहीं होता मनुष्य और तिर्यश्चोंके होता है। फिर भी, इनके विभङ्गशानके काल में इन प्रकृतियों के दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम नहीं होते, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। नरकमें मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका विभङ्गशानमें बन्ध छठे नरकतक ही होता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर कहा है । एकेन्द्रिय जाति आदि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २४७. आभि०-सुद०-अोधि० पंचणा-छदसणा-असादा-चदुसंज०-पुरिसअरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्यवि०. तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-मुस्सर-आदे०-अज०-णिमि०-तित्थय-उच्चागो०-पंचंत० उक्क.हिदि. णत्थि अंतरं । अणु जह• एग०, उक्क० अंतो० । सादावे-हस्सरदि-थिर-सुभ-जस० उक्क० हिदि० जह• अंतो०, उक्क० छावहि साग० सादि । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । मणुस-देवायु० उक्क० हिदि० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० छावहिसाग० सादि । देवायु० छावहिसाग० देसू० । अणु. जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सा० सादि। अहक उक्क हिदि० णत्थि अंतरं । अणु० ओघं । मणुसगदिपंचगस्स उक्क० एत्थि अंतरं। अणु० जह० वासपुधत्तं०, उक्क पुवकोडी० । देवगदि.४ उक्क० हिदि पत्थि अंतरं । अणु. जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि । आहार०२ उक्क. अणु० जह. अंतो०, उक्क० छावहिसा० सादि० तेत्तीसं सा० सादि । अथवा उव्वेल्लिज्जदि तदो उक्क० अणु० छावहिसा० सादि० दोहि पुव्वकोडीहि सादिरे । तीन प्रकृतियोंका बन्ध ऐशान कल्पतक होता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । यहाँ भी प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर यह अन्तर काल ले आवे । शेष कथन सुगम है।। २४७. ग्राभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पश्चे न्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशः. कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर श्रान्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक पल्य प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है ; किन्तु देवायुका कुछ कम छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल श्रोधके समान है। मनुष्यगति पाँचके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटि है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर और साधिक तेतीस सागर है। अथवा इनकी उद्वेलना करता है इसलिए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो पूर्वकोटि अधिक साधिक छयासठ सागर है। १. मूलप्रतौ अणु० जह० प्रोघं इति पाठः । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सट्ठि दिबंध अंतर कालपरूवणा ३९१ २४८. मरणपज्ज० पंचरणा० छदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस०-भय-दुगु० - देवर्गादिपंचिंदि० - वेउब्वि ० -तेजा० - क० - समचदु० - वेउच्चि ० अंगो० वर० ४ देवाणु ० - अगुरु०४पसत्यवि ० -तस० ४ - सुभग- सुस्सर - आदे० - णिमि० -- तित्थय० उच्चा०-- पंचत० उक्क० द्विदि० रात्थि अंतरं । अणु० जह० उक्क० अंतो० । सादा०-हस्स- रदि- थिर-मुभ विशेषार्थ -- उक्त तीन ज्ञानोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि ५२ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके श्रभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। तथा जो सातवें श्रादि गुणस्थानोंमें कमसे कम एक समय के for और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए इनका प्रबन्धक होकर पुनः मरणकर या उतरकर इनका बन्ध करता है, उसके इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । सातावेदनीय आदि छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यहाँ स्वस्थानवर्ती जीवके होता है और आभिनिबोधिक आदि तीनों शानोंका उत्कृष्ट काल साधिक छ्यासठ सागर है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छयासठ सागर कहा है । इन तीन शानोंका उत्कृष्ट काल चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर बतलाया है। उसे देखते हुए मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक छयासठ सागर बन जाता है, पर देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम छ्यासठ सागर ही उपलब्ध होता है; इसलिए यहाँ मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक छ्यासठ सागर और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम छयासठ सागर कहा है । इनके आठ कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध भी मिथ्यात्वके श्रभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। सम्यग्दृष्टि देवके मनुष्यगति पञ्चकst नियमसे बन्ध होता है । यह मनुष्योंमें कमसे कम वर्षपृथक्त्व प्रमाण और अधिक से अधिक पूर्वकोटि प्रमाण श्रायुके साथ उत्पन्न हुआ और मरकर पुनः देव हो गया। तो इसके मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिप्रमाण उपलब्ध होता है । इसीसे यहाँ यह अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। देवगतिचतुष्कका देव और नारकीके बन्ध नहीं होता । तथा नरकमें जाने के पहले और वहाँ से निकलने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका और भी बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल दो प्रकारसे बतलाया है । प्रथम अन्तर काल उद्वेलनाकी विवक्षा न करके कहा गया है और दूसरा अन्तर काल उद्वेलनाकी विवक्षासे कहा गया है। शेष कथन सुगम है । २४८. मनःपयर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पश्ञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ महाबँधे द्विदिबंधारियारे जस० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० goaकोडी सू० । अणुक्क० ओघं । असादा--अरदि-सोग-अथिर असुभ अजस० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० श्रघं । देवायु उक्क० हिदि० पत्थि अंतर । अणु० पगदिअंतरं । आहार०२ उक्क० जह० तो०, उक्क० पुञ्चकोडी देनू ० | ऋ० जह० उक्क० अंतो० । एवं संजदा० । सामाइ० - छेदो० धुविगाणं उक्क० अ० हिदि पत्थि अंतरं । सेसारणं मणपज्ज - भंगो | एवं परिहारे । मुहुमसंप० सव्वपगदीणं उक्क० अ० णत्थि अंतरं । संजदासंजद० परिहारभंगो । २४६. असंजदेसु पढमदंड ओघं । वरि अक० धुविगाणं सह भाणि - दव्वं । थी गिद्धि ३ - मिच्छ० - असंतारबंधि०४ - इत्थि० एस० - तिरिक्खगदि--पंचसंठा० - पंच संघ० - उज्जो० - तिरिक्खाणु' १०-- अप्पसत्थ०- -- दूभग- दुस्सर - अरणादे०-णीचा० उक्क० द्विदि० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सू० । और यशःकीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शोधके समान है । असातावेदनीय, रति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकोर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है । देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । श्राहारकद्विकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए। सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके जानना चाहिए। सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग परिहार विशुद्धिसंयत जीवोंके समान है । विशेषार्थ - मन:पर्ययज्ञानीके प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंयम अभिमुख होने पर होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । इसी दृष्टिसे असातावेदनीय आदि छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । यहाँ जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है, उसे प्रारम्भ में और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर ले आना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है । २४९. असंयत जीवोंमें प्रथम दण्डक ओधके समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कषायका कथन ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ करना चाहिए। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान; पाँच संहनन, उद्योत, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुखर, श्रनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतिका १. मूळप्रतौ - क्खायु० उज्जो० अप्प- इति पाठः । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३९३ चदुआयु०-वेउव्वियछक्क-मणुसगदि० मदि० भंगो। चदुगदि-आदाव-थावर०४ उक्क. हिदि० ओघं। अणु णवुसगभंगो। ओरालि -ओरालि अंगो-वजरिसभ० उक्क अणु० अोघं । तित्थय: उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० उक्क अंतो। चक्खुदंस. तसपज्जत्तभंगो । अचक्खु० मूलोघं । प्रोधिदं० अोधिणाणिभंगो । __ २५०. किएणले० पंचणा०-छदसणा०-असादा०-बारसक० अरदि-सोग-भयदुगु०--पंचिंदि०-तेजा-क०-वएण०४--अगुरु०४--तस०४--अथिर--असुभ--अजस०-- णिमि-पंचत० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० तेतीसं सा० सादि० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ० अणंताणुबंधि०४-णदुस-हुडसं०अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० णाणाव०भंगो। अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । सादा०-पुरिस०-हस्स-रदि-अओरालि-समचदु०भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। चार गति, आतप और स्थावर चारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। औदारिक शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहर्त है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग त्रसपर्याप्तकोंके समान है । अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग मूलोधके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग अवधिशानी जीवोंके समान है। __विशेषार्थ-असंयत जीवोंके आठ कषायोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ इनका निर्देश करनेकी सूचना की है । असंयत अवस्थामें स्त्यानगृद्धि तीन आदि २८ प्रकृतियोंका कुछ कम तेतीस सागर काल तक बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। यह अन्तर सातवें नरककी अपेक्षासे कहा गया है। क्योंकि देवों में जो तेतीस सागरको आयुके साथ उत्पन्न होता है,वह मनुष्य पर्यायमें आकर नियमसे संयमको प्राप्त करता है, इसलिए ऐसे जीवके इनका वन्ध ही नहीं होता, अतएव इस अपेनासे असंयमका काल लेने पर इन प्रकृतियोंके बन्धका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता । शेष कथन स्पष्ट ही है। २५०. कृष्ण लेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, अयश-कीति, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसक वेद, हुण्डकसंस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । साता वेदनीय, पुरुष वेद,हास्य, रति, औदारिक शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वजषभनाराच १. मूलप्रतौ गदि० विभंगमदि० भंगो इति पाठः । ५० Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ओरालि०अंगो०-वज्जरिसभ०-पसत्थ०-थिरादिछ, उक्क० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। इत्थिवे-तिरिक्खगदि-चदुसंठा-पंचसंघ०-तिरिक्वाणु-उज्जो० उक्क. सोदभंगो। अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । णिरय-देवायु० उक्क० अणु णत्थि अंतरं । तिरिक्खमणुसायु० उक्क० हिदि० णत्थि अंतरं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० छम्मासं देसू० । णिरयगदि-देवगदि-चदुजादि-दोना शु०-आदाव-थावरादि०४ उक्क० हिदि. पत्थि अंतरं । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो० । मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० बावीसं सा० देसू ० । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । वेउविय-वेउव्विय अंगो० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० बावीसं सा० । तित्थय० उक्क० अणु० णत्थि अंतर। २५१. पील-काऊ० पंचणा०-णवदंस०-सादासादा-बारसक०-पुरिस०-छएणोक०-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०--समचदु०--ओरालि०अंगो०-वजरि-- सभ०-वएण०४-मणुसाणु०--अगु०४--पसत्थ०--तस०४-थिराथिर--सुभासुभ-सुभग-- सुस्सर-आदे-जस-अजस-णिमि०-उच्चा-पंचंत० उक्क० जह. अंतो०, उक्क. संहनन, प्रशस्त विहायोगति और स्थिर आदिक छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरअन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर छह कम तेतीस सागर है। अनत्कृष्ट स्थिति बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद, तिर्यञ्चगति, चार संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी भार उद्योतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग साता प्रकृतिके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। नरकगति, देवगति. चार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप, स्थावर आदि चारके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है ओर उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। २५१. नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, छह नोकषाय, मनुष्य गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यशःकीर्ति, Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा सत्तारस-सत्तसाग० देमू । अणु० जह० एग०, उक्क. अंतो० । थीणगिद्धि ३मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णवुस-तिरिक्खग-पंचसंठा-पंचसंघ०--तिरि-- क्वाणु-उज्जो०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे-णीचा उक्क० णाणावभंगो। अणु० हिदि० जह• एग०, उक्क० सत्तारस-सत्तसाग० देसू० । णिरय-देवायु० उक्क० अणु. पत्थि अंतर। तिरिक्ख-मणुसायु० किएणभंगो। णिरयगदिदेवगदि-चदुजादि-दोआणु०-आदाव-थावरादि०४ उक्क. हिदि० पत्थि अंतर । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो। वेउव्वि-वेउव्वि०अंगो० उक्क० णस्थि अंतर । अणु० जह० एग०, उक्क सत्तारस-सत्तसाग० । तित्थय० उक्क० हिदि. जह० अंतो०, उक्क० तिएिण साग० सादि० । अणु० जह• एग०, उक्क अंतो० । णीलाए उक्क० पत्थि अंतर । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो। २५२. तेऊए पंचणा-छदंसणा-सादासादा-बारसक-पुरिस०-छएणोक०मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालिय-तेजा-क०-समचदु०--ओरालि अंगो०-वज्जरिसभ०-- वएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्थ०--तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-- अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर व कुछ कम सात सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्व, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर व कुछ कम सात सागर है। नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल कृष्ण लेश्याके समान है । नरकगति, देवगति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चोरके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्क्रष्ट अन्तर सत्रह सागर व सात सागर है। तीर्थर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। किन्तु नील लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। २५२. पीत लेश्यामें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेददनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, छह नोकषाय, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक' शरीर प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी,अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति,त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर,आदेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति, निर्माण, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे आदे-जस०-अजस-णिमि०-तित्थय -उच्चा-पंचंत० उक्क० जह• अंतो०, उक्क० बे साग. सादि । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०असांताणुबंधि०४-इत्थि०-णवूस-तिरिक्खग०-एइंदि०-पंचसंठा--पंचसंघ-तिरिक्वाणु-आदा०-उज्जो०-अप्पसत्थ -भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० णाणाव भंगो । अणु० जह• एग०, उक्कल बे साग० सादि० । तिरिक्ख०-मणुसायु० उक्क० हिदि पत्थि अंतर। अणु० जह• अंतो०, उक्क. छम्मासं देमूणं । देवायु०-आहारस०२ उक्क० अणु० णत्थि अंतर। देवगदि०४ उक्क. पत्थि अंतर । अणु० जह० पलिदो सादि०, उक्क० बेसाग० सादि० । पम्माए सो चेव भंगो। णवरि सगहिदी कादवा । एइंदिय०-आदाव-थावरच वजा । २५३. सुक्काए पंचणा-छदसणा-सादासा-बारसक०-सत्तणोक-मणुसग०--पंचिंदि०--ओरालि --तेजा०--क० --समचदु०--ओरालि०अंगो०--बज्जरिसभ०वएण०४-मणुसाणु-अगु०४-पसत्थ०--तस०४--थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सरआदे०-जस०-अजस०-णिमि०-तित्थय०-उच्चा-पंचंत० उक्क जह० अंतो, उक्क० अहारस साग० सादि । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। थीणगिद्धि०३ तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल शानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । देवायु और आहारक शरीर द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य प्रमाण है और उत्छ अन्तर साधिक दो सागर है। पद्मलेश्यामें यही भंग है। इतनी विशेषता है कि इनके अपनी स्थिति कहनी चाहिए । और इनके एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। २५३. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यश-कीर्ति, अयश कीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूघणा मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०--णबुस-पंचसंठा--पंचसंघ०-अप्पसत्थ०--द्भगदुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० णाणावभंगो। अणु० जह० एग०, उक्क० एक्कत्तीसं सा० देसू । मणुसायु. देवभंगो । देवायु० उक्क. अणु० पत्थि अंतरं । आहार०२ उक्क० हिदि. पत्थि अंतर। अणु० हिदि० जह• उक्क० अंतो० । देवगदि०४ उक्क० पत्थि अंतर । अणु० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि। २५४. भवसिद्धिया ओघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो । सम्मादिही. अोधिभंगो । खइगसम्मा० पंचणा०-छदसणा-सादासा-चदुसंज०-सत्तणोक०- पंचिंदियतेजा०-क-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-- सुस्सर-आदे०--जस०--अजस० --णिमि०-तित्थय०--उच्चा--पंचंत० उक्क० जह अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा. सादि० । अणु० ओघं । अहक० उक्क. पाणाव.. भंगो । अणु० ओघं । मणुस-देवायु० उक्क पत्थि अंतर । अणु० पगदिअंतर। मणुसगदिपंचगस्स उक्क हिदि. जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० देम् । अणु० जह• एग०, उक्क. अंतो० । देवगदि०४ उक्क० जह० अंतो० । अणु उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर देवोंके समान है । देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। २५४. भव्य जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। अभव्य जीवोंमें मत्यज्ञानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टियों में अवधिशानियों के समान है। क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में पाँच झानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण,तीर्थङ्कर, उचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्टस्थितिबन्धकाजघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जह० एग०, उक्क दो वि तेत्तीसं साग. सादि। आहार०२ उक्क. अणु० जह• अंतो०, उक्क तेत्तीसं साग० सादि० । २५५. घेदगे. पंचरणा०-छदंसणा०-चदुसंज-पुरिस-भय-दु०-पंचिंदिय-तेजा०क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग--सुस्सर--आदे०--णिमि०तित्थय-उच्चा०-पंचंत उक्क० अणु णत्थि अंतर। सादावे०-हस्स-रदि-थिर-सुभजस० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० छावट्टि० देसू०। अणु० अोघं । असादा०अरंदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० अोधिभंगो । दो आयु० उक्क० हिदि० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० छावहि साग० देसू० । अणु० अोधिभंगो। मणुसगदिपंचगस्स अोधिभंगो । देवगदि०४ उक्क० हिदि० णत्थि अंतर। अणु० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० तेत्तीसं साग० । आहार०२ उक्क० अणु० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । _२५६. उवसम० पंचणा०-छदंसणा--असादा०-चदुसंज०-पुरिस-अरदि-सोगभय-दुगु-[पंचिंदिय०-तेजा-क०-समचदु०-वरण४-अगुरु०४--पसत्थवि०-तस०४-- अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा दोनों ही उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतोस सागर है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। २५५. वेदक सम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ, और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है । असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिशानके समान है। दो आयुओके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है। मनुष्यगति पञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर तेतीस सागर है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। २५६. उपशम सम्यक्त्वमें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सट्ठिदिबंध अंतर कालपरूवणा ३९९ थिर-असुभ सुभग-सुस्सर - आदेय - अजस० - णिमिण - उच्चा० - पंचंत० ] श्रधिभंगो । सादा०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० तित्थय० उक्क० जह० उक्क० अंतो० । अणु० घं । अक० - देवर्गादि०४ उक्क० द्विदि० णत्थि अंतर ं । अणु० जहण्णु० अंतो० । मणुसगदिपंचग० उक्क० अणु० एत्थि अंतरं । आहार०२ उक्क० अ० जह० उक्क० तो ० । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है । साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर श्रोघके समान है। आठ कषाय और देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर है। विशेषार्थ - यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरण पाँच आदि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके भिमुख हुए जीवके होता है। तथा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि जो जीव इनका कमसे कम एक समयके लिए और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए अबन्धक होकर पुनः इनका बन्ध करता है, उसके जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है । अवधिज्ञानमें इन प्रकृतियोंका यह अन्तरकाल इसी प्रकार उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ यह अन्तरकाल अवधिज्ञानके समान कहा है । साता वेदनीय आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध स्वस्थानमें होता है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर श्रोघके समान कहा है। आठ कषाय और देवगतिचतुष्कका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होनेसे वह नहीं कहा है । तथा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि जिस जीवने इनकी उपशमसम्यक्त्वमें बन्धव्युच्छित्ति की, वह पुनः इनका बन्ध अन्तमुहूर्त कालके बाद ही करता है । मनुष्यगतिपञ्चकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए तो यहाँ इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है और उपशमसम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्यके इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए उपशमसम्यक्त्वमें इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । यद्यपि उपशमसम्यग्दृष्टि देव और नारकियोंके इनका बन्ध होता है, पर वहाँ मिथ्यात्व के अभिमुख होने के पूर्वतक इनका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही होता रहता है, इसलिए वहाँ भी इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल सम्भव नहीं है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि जो प्रमत्तसंयम के अभिमुख जीव होता है, उसके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । पुनः उसके अप्रमत्त होनेपर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध हो जाता है । १. मूलप्रतौ श्रणु० जह० जह० इति पाठः । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २५७. सासणे तिरिए आयु० उक्क० अणु० णत्थि अंतरं । सेसारणं उक्क० त्थ अंतरं । ० जह० एग०, उक्क० अंतो० । २५८. सम्मामि० सादासादा ० - हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर - सुभासुभ-जस० जस० उदसमसम्मादिहिभंगो । धुविगाणं उक्क० अणु० रात्थि अंतर । 1 २५६. मिच्छादिट्ठी • मदिभंगो । सरिए • पंचिंदियपज्जत्तभंगो। असरणी० चदुआयु० तिरिक्खोघं । वेडव्वियक्क मणुसगदि - मणुसाणु० उच्चा० उक्क० [ अणुक्क० ] ओषं । सेसारणं उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अतकालं ० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० | आहार० मूलोघं । वरि यहि अांतकालं तम्हि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । अणाहार कम्मइगभंगो । एवं उक्कस्यं अंतर समत्तं । ४०० २५७. सासादन में तीन आयुओं के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - सासादनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि है । इसमें आयुकर्मके बन्धके दो अपकर्ष काल सम्भव नहीं हैं। इसलिए तो यहाँ तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु इन तीन आयुओं के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है और एक पर्याय श्रायुकर्मका दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता नहीं, इसलिए यहाँ उक्त तीनों युके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के अन्तरकालका निषेध किया है । २५८. सम्यग्मिथ्यात्व में सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान है । तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदि सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और सम्यग्मिथ्यात्वका काल उपशमसम्यक्त्वके समान अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपशमसम्यक्त्वके समान घटित हो जाने के कारण वह उपयमसम्यक्त्वके समान कहा है। इनके सिवा यहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उनका सतत बन्ध होता रहता है । उसमें भी इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्व अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होनेसे उसका निषेध किया है। २५९. मिथ्यादृष्टि जोवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यशानियों के समान है । संज्ञी जीवों में पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है । श्रसंज्ञी जीवोंमें चार श्रायुओं का भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चके समान है । वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आहारक जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोधके समान है । इतनी विशेषता है कि में जहाँ अनन्त काल कहा है, वहाँ अङ्गुलका असंख्यातवाँ भाग कहना चाहिए । अनाहारकों में अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग कार्मर काययोगी जीवोंके समान है । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल समाप्त हुआ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहराणट्ठिदिबंध अंतर कालपरूवणा 0 २६०. जहए पदं । दुविधं - ओ० दे० । श्रघे० पंचणा० चदुदंस० सादावे ० चदुसंज० - पुरिस० - जस० - तित्थय० पंचंत० जह० हिदि० णत्थि अंतर | ज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । गिद्दा - पचला असादा०-हस्स-रदि-अरदि-सोगभय-दुगु ० -- पंचिंदि० -तेजा०[० - क० - समचदु० - वरण ०४ - अगुरु ०४ - पसत्थवि०--तस०४थिराथिर - सुभासुभ-सुभग-मुस्सर प्रादे० श्रजस० - णिमि० जह० जह० तो ०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । श्रीगिद्धितियं मिच्छत्तं ताणुबंधि०४ - इत्थि० जह० हिदि० जह० तो, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० जह० एग०, उक्क० वे छावहिसाग० देसू० । इत्थिवे ० सादिरे० । एवं अक० । वरि अज० उक्क पुव्वकोडी देसू० । बुंस० पंचसंठा०-पंच संघ०अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर - यणादे० - णीचा० जह० जह० अंतो, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० जह० एग०, उक्क० वे छावहिसाग० सादि० तिरिए पलिदो० सू० । २६१. रियायु० -देवायु० जह० हिदि० [जह०] दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० अतिकालं० । ज० जह० अंतो०, उक्क० अतकालं० । तिरिक्खायु० ४०१ २६०. अब जघन्य अन्तर कालका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश | ओघ पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, तीर्थकर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। निद्रा, प्रचला, श्रसाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, देय, अयशः कीर्ति और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेद प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर श्रसंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छ्यासठ सागर है । किन्तु स्त्रीवेदके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर है । इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल है । इतनी विशेषता है कि आठ कषायों के अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुखर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है । २६१. नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका जधन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर ५१ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ महाबधे ट्ठिदिबंधाहियारे जह० हिदि० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क. सागरोवमसहस्साणि सादि० । अज० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवत्रसदपुधत्तं । मणुसायु० जह० हिदि. जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० अगांतकालं० । अज० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं। वेउवियछ० जह० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं० । अज० जह० एग०, उक्क० अणंतकालं० । तिरिक्वग०-तिरिक्वाणु०-उज्जो० जह० हिदि० जह० अंतो०, उक्क अणंतकालं० । अज० जह० एग०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं । मणुसग०-मणुसाणु जह• हिदि० जह• अंतो०, अज० जह• एग०, उक्क० दो वि असंखेज्जा लोगा। चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ जह० जह० अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० जह० एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं। ओरालि०-ओरालि अंगो०-वजरिसभ० जह० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जह• एग०, उक्क० तिरिण पलिदो० सादि०। आहार०२ जह० हिदि० जह० रणत्थि अंतर। अज० हिदि. जह० अंतो०, उक्क• अद्धपोग्गलपरि । उच्चा० जह० हिदि० पत्थि अंतर । अज० ज० एग०, उक्क०. असंखेजा लोगा । एक समय कम तुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो हजार सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। वैक्रियिक छहके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और उद्योतके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और दोनोंका ही उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासो सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाल और वज्रर्षभनाराच संहननके जघन्य स्थितिबन्धकाजघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीनपल्य है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्क्रष्ट अन्तर अस लोकप्रमाण है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरपट्ठिदिबंध अंतर कालपरूवणा विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरण आदि बाईस प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । इनके ज धन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपशमश्रेणिकी अपेक्षासे कहा है । तात्पर्य यह है कि जो जीव उपशमश्रेणिमें इन प्रकृतियोंका कमसे कम एक समयके लिए और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए श्रबन्धक होकर पुनः इनका बन्ध करता है उसके इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है । निद्रा आदि बत्तीस प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका बन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कालके बाद होता है, क्योंकि अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है और बादर पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल श्रसंख्यात लोक प्रमाण है, इसलिए इन प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। तथा इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए स्त्यानगृद्धि तीन आदि नौ प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है और बादर पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागर है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर प्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद सप्रतिपक्ष प्रकृति है, इसलिए इसका यह अन्तर काल साधिक दो छ्यासठ सागर बन जाने से वह उक्त प्रमाण कहा है। अप्रत्याख्यानावरण चार और प्रत्याख्यानावरण चार इन आठ कषायका यह अन्तर काल अपनी विशेषताको ध्यान में रखकर इसी प्रकार प्राप्त होता है । मात्र संयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि प्रमाण होने से इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । नपुंसक वेद आदि सोलह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कातक और अधिक से अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालतक नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है । इसका स्पष्टीकरण पहले किया ही है। तथा इनका जघन्य स्थितिबन्ध कमसे कम एक समय तक नहीं होता, और अधिक से अधिक छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य काल तक नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो छ्यासठ सागर तथा कुछ कम तीन पल्य कहा है । देवायु और नरकायुका जघन्य स्थितिबन्ध पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष कहा है और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है । इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट हो है । तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है । और इसमेंसे एक समय जघन्य स्थितिबन्धमें लगता है इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर ४०३ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे एक समय कम शुल्लकभव ग्रहण प्रमाण कहा है। तथा त्रस पर्याप्तकी उत्कृष्ट कायस्थिति दो हजार सागर है और एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है इतने कालके भीतर तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध नियमसे नहीं होता। यहां एक ऐसा जीव लो जिसने तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबध किया है । इसके बाद वह कमसे त्रस पर्याप्त हो गया और अपनी कायस्थितिके भीतर उसने तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध नहीं किया। पुनः वह पर्याप्त एकेन्द्रियोंमें संख्यात हजार वर्षतक परिभ्रमण करता रहा। इसके बाद वह अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होता है और तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, इसलिए यहां तियञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो हजार सागर कहा है। एक बार आयुबन्धके बाद पुनः दूसरी बार आयुबन्धमें कमसे कम अन्तमुहूर्त काल लगता है, इसलिए तिर्यञ्चायुके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा एक जीवके निरन्तर यदि तिर्यञ्चायुका बन्ध नहीं होता है तो सौ सागर पृथकत्व कालतक नहीं होता, इसके बाद वह नियमसे तियश्चायुका बन्ध करता है, इसलिए इसके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण कहा है। मनुष्यगतिका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए यहां मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। शेष खुलासा तियञ्चायुके समान है। वकियिक छहके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तमुहर्त है और जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है। तथा एकेन्द्रियों और विकलत्रयमें अनन्त कालतक परिभ्रमण करते हुए इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। तिर्यञ्चगति आदि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध अनन्त काल तक नहीं होता और अजघन्य स्थितिबन्ध एक सौ त्रसठ सागर कालतक नहीं होता । इसीसे इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ प्रेसठ सागर कहा है। शेष बुलासा कि यक पटकके समान है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगतिद्वि काका बन्ध नहीं होता और इनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसीसे इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष स्पष्टी करण वैक्रियिकपटकके समान है । सूक्ष्म जीवोंकी कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है। इनके चार जाति आदि नौ प्रकृतियोंका ओघ जघन्य स्थितिबन्ध नहीं होता और इनका अजघन्य स्थितिवन्ध एक सौ पचासी सागर कालतक नहीं होता। इसीसे इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाग और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर कहा है। एक जीव जो छठवें नरकमें बाईस सागर प्रमाण आयुके अन्तमें वेदक सम्यग्दृष्टि हुआ। पुनः कुछ कम छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो गया। पुनः कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें इकतीस सागरप्रमाण आयुके साथ नौ ग्रैवेयकमें उत्पन्न हुआ। उसके एक सौ पचासी सागर काल तक चार जाति आदि प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है। तथा इसमेंसे प्रारम्भके बाईस सागर कम कर देने पर तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है। शेष अन्तर कालका स्पष्टीकरण वैक्रियिकपटकके समान है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके औदारिक शरीर आदि तीन प्रकृतियोंका ओघ जघन्य स्थितिबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहरणहिदिवंधअंतरकालपरूवणा ४०५ २६२. आदेसेण णेरइएमु पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-भय-दुगु-पंचिंदि०पोरालिय०-तेजा-क-ओरालि० अंगो०-वएण०४-अगुरु०४-तस०४-णिमि०-पंचंत० जह० अज० हिदि० णत्थि अंतर । थीणगिद्धितियं मिच्छत्तं अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि. णत्थि अंतर । अज० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । इत्थि०णवूस०-दोगदि--पंचसंठा०--पंचसंघ०-दोआणु०--उज्जो०--अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सरअण्णादे०-णीचुच्चा० जह• हिदि० पत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० तेतीसं सा० देस ! सादासा०-पुग्गि-हस्स-रदि-अरदि-सोग-समचदु०-वज्जरिस०-पसत्थ०थिराथिर-मासुभ सुभग सुमार-आ जम अजस०] जह' हिदि० पत्थि अंतर। अज० जह० एग०, उक्क. अंतो० । दो आयु० जह• हिदि० णत्थि अंतर । अन० द्विदि० जह० अंतो०, उक० छम्मासं देसू० । तित्थय० जह० ट्ठिदि० जह० अंतो०, उक्क० तिगिण सागरो० सादिक । अन. जह० एग०, उक्क० अंतो०। एवं पढ अन्तर असंख्यात लोकप्रमागा कहा है और मनुष्य सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता, इस लिए इनके अजघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है। शेष अन्तर कालका स्पष्टीकरण वैक्रियिकषटकके समान है। संयमका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए आहारकद्विकके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा उच्चगोत्रका अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके बन्धका नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। २६२. आदेशसे नारकियोंमें पाँन ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचनुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितियन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थिति बन्धका जघन्य अन्तर प्रान्तमगर्न है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पांच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग. दुस्वर, कानादय. नीचगोत्र और उञ्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है ! सानादनीय, असातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, समचतुरस्रस्थान, बसनामंहनन, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर और प्रादेय, यशःकीर्ति और अयशाकीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजयन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर स तीन सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्त १. जह० अज• जहरू हिदि इति पाठः । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे टिदिबंधाहियार माए । वरि मराहिदी आणिदनमा गुसदितिगं सदभंगो । विदियादि याव बहि त्ति उक्कस्सभंगा। रणवरि थीणगिद्धितियं मिच्छतं अणंताणुवंधि०४ जह० अज०जह० अंतो०, उक्क तिरिण-सत्त-दस-सत्तारस-बावीसं साग० देसू० । सत्तमाए एवं चेय णादव्वं । णवरि तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचा० जह० अज० थीणगिद्धितियभंगो । मणुसगदितिगं इत्थिभंगो। २६३. तिरिक्खेमु पंचणा०-छदंस०-सादासा०-अट्टक०-सत्तणोक०-पंचिंदि०मुहूर्त है। इसी प्रकार पहली पृथि में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा मनुष्यगति त्रिकका भङ्ग साता प्रकृतिके समान कहना चाहिए। सरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तीन सागर, कुछ कम सात सागर, कुछ कम दस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम बाईस सागर है। सातवीं पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर स्त्यानगृद्धित्रिकके समान है। तथा मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें असंज्ञी जीव मरकर उत्पन्न होता है और ऐसे नारकी जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम व द्वितीय समयमें जघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसीसे यहाँ दो आयु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इनके इसके सिवा पाँच शानावरण आदि ४८ प्रकृतियोंका निरन्तर अजघन्य स्थितिबन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य स्थितिवन्धके अन्तर कालका भी निषेध किया है। नरकमें सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है और सम्यग्दृष्टिके स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर यहाँ स्त्रीवेद आदि बाईस प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। उच्चगोत्रका सातवे नरकमें मिथ्यादृष्टिके बन्ध नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे इसके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तथा ये सब सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। प्रथम नरकमें यह व्यवस्था अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इसमें सब प्रकृतियोंका कथन सामान्य नारकियोंके समान कहा है । मात्र जहाँ कुछ कम तेतोस सागर कहा है वहाँ प्रथम नरककी स्थितिको ध्यानमें रखकर अन्तर कहना चाहिए। तथा यहाँ मनुष्यगतित्रिकका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि दोनोंके होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल साता प्रकृतिके समान कहा है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक उत्कृष्टके समान अन्तरकाल होनेका कारण यह है कि इन पृथिवियोंमें असंशी जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता। जिन प्रकृतियोंके सम्बन्धमें विशेषता है वह अलगसे कही ही है सो विचार कर जान लेना चाहिए। २६३. तिर्यञ्चों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, पाठ कषाय, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागादिदिबंधअंतरमहालकत्रणा ४०७ तेजा०-क०-समबदु चराण - ४-गरम निकासा भगसुस्सर-आदे०-जस-अजस-णिमि०--पंत, जह० हिदि जह, अता, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज. जह० एग०, उक्क० अंतो०। थीणगिद्धितियं मिच्छन्तं अणंताणुबंधिचदुरकं जह० डिदि० णाणाव० भंगो । अज० जह० एग०, उक्क० तिषिण पलिदो० देस० । एवं इत्थिरे । अपच्चक्रवाणा ४-बुस-चदुजादिओरालि०-पंचसंठा--ओरालि अंगो-संघ-आदाव-अप्पसत्थ०-थावरादि०४भग-दुस्सर दे जह- हिदि गाणा : भंगो। अज• हिदि० जह० एग०, उकक पुत्रकोडी देर । तिरिण आव, जह० हिदि त्थि अंतर अज. जह० अंतो, उपक पुव्यकोडितिभागं देस तिरिकवायु, जह• हिदि० जह खुद्दा० समयू, उक्क० पलिदो० असं० । अन० जह, अंतो, उक्कल पुव्बकोडी सादि । वेउब्बियछ -मणुसग०-मणुसाणु • अोघं । उच्चा० मणुसाणु भंगो। तिरिक्वग०-तिरिक्रवाणु०-णीचागो-उज्जो जह० हिदि जह• अंतो०, उक्क० अणंतकालं । अन० जह• एग०, उक्क • पुन्धकोडी देसू० ।। संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश-कीर्ति, अयशाकीर्ति, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य स्थितिवन्ध ज्ञानावरणके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण चार, नपुंसकवेद, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति बन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। तीन आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम तीसरा भाग है! तियेंञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाग है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है। वैक्रियिक छह, मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वीके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रोघके समान है। उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर मनुष्यानुपूर्वीके समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी. नीचगोत्र और उद्योतके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे दिदिबंधाहियारे २६४. पंचिंदियतिरिक्व ०३ जह० ट्ठिदि० उक्कभंगो । अज० अणुक्क भंगो । एवरि तिरिक्वायु: जह• हिदि. जह० खुद्दाभ समयू०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । पज्जत्त-जोगिणीमु जह. हिदि० जह० णत्थि अंतर । पंचिंदियतिरिक्खअपज. सव्वपगदीणं जह० अज० हिदि उक्कस्सभंगो । णवरि तिरिक्वायु० जह• हिदि. जह. खुद्दाभ० समयू०, उक्क अंतो० । अजर जह• उक्क० अंतो० । मणुसायु० जह.हिदि. णथि अंतर। अज- जहा उक्क० अंतो०। लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तिर्यञ्चोंमें वेदक सम्यक्त्वका काल कुछ कम तीन पल्य है इसलिए इनमें स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। यहाँ स्त्रीवेदकी स्थिति स्त्यानगृद्धिके समान है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर स्त्यानगृद्धि तीनके समान कहा है । संयमासंयमका काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है और मनुष्योंमें वहीं उत्पन्न हुए सम्यक्त्वका काल भी इतना ही है इसलिए अप्रत्याख्यानावरण चार आदि इकतीसके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण कहा है। तीन आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है तथा अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। तिर्यञ्चों में जो निरन्तर एकेन्द्रियों में परिभ्रमण करते रहते हैं उनमें तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध कमसे कम एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहणके बाद और अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके बाद नियमसे होता है, इसलिए इनमें तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम जुल्लकभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २६४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तीनमें जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बुल्लकभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। परन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है। मनुष्यायके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ--पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व वृधिक तीन पल्य है। परन्तु तीन पल्यको आयु प्राप्त होनेके बाद जीव नियमसे देव होता है। इसीसे यहाँ तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सामान्यसे पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है। इसमें पूर्वकोटि पृथक्त्व कालके प्रारम्भमें और अन्तमें तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध कराके यह अन्तर काल ले आना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ जहराणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा २६५. मणुस ३ पंचणा-छदंसणाo--चदुसंज०--भय-दुगु-तेजा.-क०-- वएण०४-अगु०-उप-णिमि-तित्थय ०-पंचंत० जह• हिदि० पत्थि अंतरं। अज० जह० उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुवधि०४ जह० हिदि.'णत्थि अंतरं । अज० हिदि० जह• अंतो०, उक्क० तिगिण पलिदो० देसू । एवं इत्थि० । णवरि अज० एग० । अट्ठक० जह• पत्थि अंतरं । अज० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी देस० । सादासा०-पुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-देवगदि-पंचिंदि०वेउवि०-समचदु०-वेउवि०अंगो०-देवाणु०-पर-उस्सा०-पसत्थ-तस०४-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस०-अजस०-उच्चा० जह० हिदि० पत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क०] अंतो० । णवुस०-तिरिक्व-मणुसगदि-चदुजादि-अोरालि०-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-आदाउज्जो -अप्पसत्थ०--थावरादि०४-दूभग-दुस्सर-अण्णादे०-णीचा. जह• हिदि. णत्थि अंतर । अज० द्विदि० जह० एग०, उक्क० पुचकोडी देसू० । तिएिणआयु० जह० हिदि० णत्थि अंतर । अज० हिदि. जह• अंतो०, उक्क० पुचकोडितिभागं देसू० । मणुसायु० जह० २६५. मनुष्यत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तरर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवानुपूर्वी, परघात, उछास, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। तीन आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। मनुष्यायुके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर १. मूलप्रतौ हिदि० जह० त्थि इति पाठः । ५२ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० महाबंधे द्विदिबंधाहियारे हिदि० जह० खुदाभव० समयू०, उक० पुव्वकोडिपुधत्तं । अज० जह० अंतो, उक्क पुव्वकोडी सादि ० | पज्जत्त - जोगिणीस मणुसागु० जह० हिदि० रात्थि अंतर | ज० द्विदि० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी सादि० । गिरयगदि-रियाणु० जह० जह० अंतो०, उक्क० goaकोडितं । अज० हिंदि० जह० एग०, उक्क० goaकोडी देसू० । आहार०२ जह० द्विदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० अंतो०, उक० पुव्वकोडि धत्तं । 5 २६६. मणुसपज्जत्ते धुविदारणं जह० अज पत्थि अंतरं । तिरिक्खायु० जह० हिदि ० पत्थि अंतर । अज० जह० उक्क० अंतो० । मणुसायु० जह० हिदि० जह० खुद्दाभ० समयू०, उक्क० अंतो० | अज० जह० उक्क० अंतो० । सेसाणं जह० हिदि ० पत्थि अंतर । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । । 1 एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट श्रन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है । किन्तु पर्याप्त और योनिनी मनुष्योंमें मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरपूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । विशेषार्थ - मनुष्यत्रिक में कुछ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है। और जिनका क्षपकश्रेणि में नहीं होता, उनमें से चार आयुत्रोंको छोड़कर शेषका असंज्ञीचर मनुष्य के भवके प्रथम और द्वितीय समय में होता है, इसलिए यहाँ जघन्य स्थितिबन्धमें अन्तर कालका निषेध किया है। शेष अन्तर कालका विचार सुगम है । २६६. मनुष्य पर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और जघन्य स्थिति - बन्धका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । श्रजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ -- जो संज्ञी जीव मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है, उसके उत्पन्न होने के प्रथम और द्वितीय समय में दो आयुके बिना शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरका निषेध किया है। तथा जो ध्रुवबन्धवाली प्रकृ तियाँहें उनका इसके बाद निरन्तर अजघन्य स्थितिबन्ध होता रहता है, इसलिए इनके जधन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । परन्तु इनके सिवा जो सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, उनका अदल-बदलके बन्ध होना सम्भव है, इसलिए उनके अजघन्य स्थितिबन्धका Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहराणट्ठिदिबंध अंतरकालपरूवणा ४११ २६७. देवेमु तित्थय. जह• हिदि. जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा. देसू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं णिरयोघं । एवरि सगहिदी । भवण०-वाणवेत. पढयपुढविभंगो। णवरि सागरो० सादि. पलिदो सादि० । जोदिसिय याव सव्वह त्ति उक्कस्सभंगो। णवरि थीणगिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणुबंधि०४ जह० अज' हिदि. जहअंतो०, उक्क० अप्पप्पणी हिदी । २६८.एइंदिए तिरिक्व०४ [जह०] जह• अंतो, उक्क अणंतकालं. अंगुलस्स असं० संखेज्जाणि वाससहस्साणि असंखेज्जा लोगा अंतोमु । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० यथासंखाए एइंदि०-बादर-बादरपज्जत-मुहुम-मुहुमपज्जत्ताणं । तिरिक्वायु० जह• हिदि० जह० खुद्दाभव समयू०, उक्क० पलिदो० असंखे० । अज० अणुक्क०अन्तर काल कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध हो जाता है, इसलिए शेष प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। २६७. देवों में तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । भवन. वासी और व्यन्तर देवों में प्रथम पृथिवीके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि साधिक एक सागर और साधिक एक पल्य कहना चाहिए । ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-देवोंमें तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिवन्ध अन्यतरके सर्वविशुद्ध परिणामोंसे होता है, इसलिए यहाँ जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है;यह स्पष्ट हो है । मूलमें शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर नारकियोंके समान कहकर अपनी स्थिति कहनेकी सूचना की है सो इसका यह अभिप्राय है कि जिन प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि और सासादनदृष्टिके ही वन्ध होता है, उनका नौवेयक तक, तिर्यञ्चगति आदिका सहस्रार कल्प तक और एकेन्द्रिय जाति आदि तीनका ऐशान कल्प तक बन्धका विधान करके इनका अन्तर काल इस हिसाबसे प्राप्त करे । शेष कथन सुगम है। २६८. एकेन्द्रियों में एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे अनन्त काल, अङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण, संख्यात हजार वर्ष, असंख्यात लोकप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम शुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग १. मूलप्रतौ अज० जह० द्विदि० इति पाठः । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे भंगो। सेसाणं उक्कस्सभंगो । बादरे तिरिक्वायुग० एइंदियभंगो । मुहुम-बादरपज्जत्ते तिरिक्वायु० जह• हिदि० जह० रणत्थि अंतर। सेसं उक्करसभंगो। अपज्जत्ता० तिरिक्खअपजत्तभंगो । सुहुमे तिरिक्वायु० जह० हिदि० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० पलिदो० असंखे० । अज० अणुक्क भंगो। सेसाणं उक्करसभंगो। सव्वाणं मणुसायु० जह० द्विदि. णत्थि अंतर । अज• हिदि० पगदिअंतर । ___२६६.बीइं०-तीइं०-चदुरिं० पजत्तापजत्ता० उक्कस्सभंगो । णवरि तिरिक्वायु० जह• जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० हिदि । पजते. जह० हिदि० पत्थि अंतर। अज० हिदि० अणुक० भंगो।। २७०. पंचिंदिय०२ खवगपगदीणं तित्थयरस्स जह० हिदि० णत्थि अंतर' । अज० ओघं। णिदापचला-असादा०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय--दुगु--देवगदि-- उत्कृष्टके समान है। बादरों में तिर्यञ्चायुका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। सूक्ष्म जीवोंमें और बादर पर्याप्त जीवोंमें तिर्यञ्चायु के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल नहीं है । तथा शेष भङ्ग उत्कृष्टके समान है । अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । सूक्ष्म एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इन सबके मनुष्यायके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और इनका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। तथा बादर एकेन्द्रियों में अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण, बादर पर्याप्त एकेन्द्रियों में संख्यात हजार वर्षप्रमाण, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें असंख्यात लोकप्रमाण और सूक्ष्म पर्याप्तकों में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है । इन सबके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है; यह स्पष्ट हो है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २६९. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक अवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण है। इनके पर्याप्तकोंमें जघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है तथा अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है। २७०. पञ्चेन्द्रियद्विको क्षपक प्रकृतियोंके और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। निद्रा, प्रचला, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएणहिदिबंधनंतरकालपरूवणा ४१३ पंचिंदि०--उव्विय-तेजा-क०---समचदु०-वउव्वि०अंगो०--वएण०४-देवाणु०अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-अजस-णिमि० जह• हि० जह० अंतो०, उक्क० कायहिदी० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पवरि देवगदि०४ अज० उक्क० तेत्तीसं साग. सादि० । गैरइय-देवायु० जह हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० कायहिदी० । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० कायहिदी० । अज. सव्वाणं उक्कभंगो। पज्जत्तगे तिरिक्ख-मणुसायु० जह• पत्थि अंतर। अज० पगदिअंतर । आहार०२ जह० पत्थि अंतर। अज. जह• अंतो०, उक० कायहिदी० । सेसाणं उक्कस्सभंगो । पंचिंदियअपज्जत्त० तिरिक्ख-मणुसायु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० अंतो० । अज० जह० उक्क० अंतो० । सेसं उक्कस्स गो। शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है. और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । तथा सबके अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। पर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चाय और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। आहारकद्विकके जघन्यस्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्यस्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्ट के समान है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें क्षपक प्रकृतियों और तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । यहाँ निद्रा आदि प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे असंशी जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण कहा है। यहाँ कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्त में असंशियों में उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए। देवगतिचतुष्कका देवोंके और नारकियोंके बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है । मात्र इनके सिवा निद्रादि शेष प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिके बन्धमें अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तका अन्तर पड़ता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २७१. पुढविका० तिरिक्खायु० एइंदियभंगो। सेसं उक्कस्सभंगो। एवं पंचकायाणं । तस०२ पंचिंदियभंगो । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । तसअपज्जत्त० पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। २७२. पंचमण-पंचवचि० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसक०-भयदुगु-चदुअआयु०-तिएिणसरीर०-आहार०अंगो०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०तित्थय०-पंचंत० जह• अज० णत्थि अंतरं। णवरि वचिजोगि०-असच्चमोस० पंचणा०एतदंस-मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगु-तेजा-क-वएण०४-अगुरुलहु०-उपघा०णिमि० अज० जह• एग०, उक्क० अंतो । सेसाणं जह• पत्थि अंतरं। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो०। २७३. कायजोगीसु खवगपगदीणं वेउव्वियछक्क-तित्थय. जह० पत्थि अंतरं । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिरय-देवायु० जह० अज० णत्थि २७१. पृथिवीकायिक जीवों में तिर्यञ्चायका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पाँच कायवाले जीवोंके जानना चाहिए। त्रस और अस पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। त्रस अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। २७२. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण,मिथ्यात्व, सोलह कषाय,भय, जुगुप्सा, चार आयु, तीन शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई शानावरणादि प्रकृतियों में से कुछ ऐसी प्रकतियाँ हैं जिनका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है और कुछ ऐसी प्रक्रतियाँ हैं जि जघन्य स्थितिबन्ध संयमके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयतके होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र वचनयोगी और अनुभयवचनयोगी जीवों में पाँच दर्शनावरण आदि प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध द्वीन्द्रिय पर्याप्तके होता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए यह उक्त प्रकारसे कहा है। यहाँ चार आयुओंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है,यह स्पष्ट ही है। २७३. काययोगी जीवों में क्षपकप्रकृतियाँ वैक्रियिक छह और तीर्थङ्कर इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरएक समय है और उत्कृष्ट प्रान्तर अन्तर्मुहूर्त है । नरकायु और देवायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएणठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ४१५ अंतरं । तिरिक्खायुः जह० हिदि तिरिक्खोघं । अज० अणुक्कस्सभंगो । मणुसा० मूलोघं । तिरिक्खगदि०४ एइंदियभंगो। मणुसग०-मणुसाणु० जह• जह०. अंतो०, अज० जह० एग०, उक्क० दोगणं पि असंखेज्जा लोगा। एवं उच्चा । वरि जह० णत्थि अंतरं। सेसाणं जह० हिदि० जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जह० एग०, उक्क अंतो। २७४.ओरालियका० खवगपगदीणं णेरइय-देवायु-आहारदुग-तित्थय० जह० अज० पत्थि अंतरं । सादासादा०-पुरिस-वेउव्वियछक्क-जसगि० जह० पत्थि अंतरं । अज० [जहएग०, उक्क० अंतो । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० हिदि पत्थि अंतरं । अज'. पगदिअंतरं । तिरिक्खगदि०४ जह० हिदि० जह• अंतो०, उक० तिषिण वाससहस्साणिं देसू। अज० जह० एग०, उक्क अंतो० । सेसाणं जह० जह० का अन्तरकाल नहीं है । तिर्यञ्चायके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है। मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मूलोघके समान है। तिर्यञ्चगति चारके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल एकेन्द्रियोंके समान है। मनुष्यगति और मनुष्य: गत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनोंका ही असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार उच्चगोत्रका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अंन्तर असंख्यात लोकंप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ--काययोगी जीवोंके प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। परन्तु जो जीव कार्ययोगमें उपशमश्रेणिमें इनका कमसे कम एक समयके लिए और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहर्त के लिए प्रबन्धक होकर और मरकर देव होनेपर काययोगके सद्भावमें ही पुनः इनका बन्ध्र करने लगता है, उसके इनके अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २७४. औदारिककाययोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियाँ,नरकाय, देवायु,आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, पुरुषवेद, वैक्रियिक छह और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कर अन्तर अन्तमुहर्त है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है। तिर्यञ्चगति चारके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन हजार वर्ष है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहूर्त है १. अज० जह० पगदि- इति पाठः । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अंतो०, उक्क० बावीसं वाससहस्साणि देसू० । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो०। २७५. ओरालियमि० उक्कस्सभंगो। केण कारणेण उक्कस्सभंगो ? येण बादरएइंदिए वि अधापवत्तो वा से काले सरीरपज्जत्ती जाहिदि त्ति वा सामित्तं दिएणं तेण कारणेण उक्कस्सभंगो । णवरि दो आयु० तसअपज्जत्तभंगो । और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-औदारिककाययोगमें क्षपक प्रकृतियाँ, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकणिमें होता है। तथा इसके सिवा अन्यत्र इस योगमें अजघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इस योगमें नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है,यह स्पष्ट ही है। सातावेदनीय, पुरुषवेद और यशःकोर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। वैक्रियिक छहका जघन्य स्थितिबन्ध सर्वविशुद्ध असंहीके होता है, पर इसके योगपरिवर्तन होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके भी जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । तथा ये सब प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है,इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । तिर्यञ्चगतिचतुष्कका जघन्य स्थितिबन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके होता है और वायुकायिक जीवोंमें औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्ष है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन हजार वर्ष कहा है। शेष प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके भी होता है और वहाँ औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। इसलिए यहाँ शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्षे कहा है। शेष कथन सुगम है। २७५. औदारिक मिश्रकाययोगमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। यहाँ उत्कृष्टके समान भङ्ग किस कारणसे है ? यतः बादर एकेन्द्रिय जीवमें भी अधःप्रवृत्त होता है अथवा तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त करेगा,उसे जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व प्राप्त होता है, इस कारणसे उत्कृष्टके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि दो आयुओंका भङ्ग त्रसअपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-औदारिक मिश्रकाययोगमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका विचार दो प्रकारसे किया है। बादर एकेन्द्रिय जीवके भी वह प्रकार सम्भव है, इसलिए यहाँ भी सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल उत्कृष्टके समान जानना चाहिए। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मात्र यहाँ बन्धको प्राप्त होनेवाली तिर्यश्चाय और मनुष्यायुके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है, जिसका निर्देश मूलमें अलगसे किया ही है। बात यह है कि अपर्याप्त अवस्थाके बाद भवान्तरमें भी औदारिक मिश्रकाययोगका सातत्य बना रहता है, इसलिए प्रस अपर्याप्तकोंमें उक्त दोनों आयुओंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल कह आये हैं, उसी प्रकार वह हाँ भी बन जाता है। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ४१७ २७६. वेउव्विय-वउव्वियमि० उक्कस्सभंगो। आहार-आहारमिस्स. मणजोगिभंगो। कम्मइगका० उक्कस्सभंगो। २७७. इत्थिवेदे० पंचणा-चदुदंस०-चदुसंज-तित्थय-पंचंत• जह• अज० पत्थि अंतरं। णिद्दा-पचला-असादा-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुच्छ--पंचिंदियजादि-तेजा०-का-समचदुः-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ[सुभग]-सुस्सर-आदे-[अजस-णिमि० जह० जह• अंतो०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इथि०-णवुस०-तिरिक्खगदि-एइंदि०-पंचसंठा-पंचसंघ-तिरिक्वाणु आदाउज्जो०--अप्पसत्थ०--थावर-भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० जह० अज० उक्कस्सभंगो। अहक जह० जह• अंतो०, उक्क पलिदो० सदपुधत्तं । अज• जह० एग०, उक० पुव्वकोडी देस। सादावे-पुरिस-जस-उच्चा० जह• हिदि. पत्थि अंतरं। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिरयायु० उकस्सभंगो। तिरिक्वमणुसायु० जह• हिदि० जह पत्थि अंतर । अज० अणुभंगो । देवायु० जह० हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । अज. २७६. वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्र कायययोगमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है तथा कार्मणकाययोगमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। २७७. स्त्रीवेदमें पाँच ज्ञानोवरण, चोर दर्शनावरण, चार संज्वलन, तीर्थकर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धको अन्तरकाल नहीं है। निद्रा,प्रचला, असाता वेदनीय, हास्य,रति, अरति, शोक,भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर,कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर,आदेय,अयश-कीर्ति, और निर्माण प्रकृतियोंकेजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य प्रथक्त्व है। स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार, स्त्रोवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चानुपूर्वी, अोतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नोचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल उत्कृष्टके समान है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। साता वेदनीय, पुरुषवेद, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। नरकायुका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। तिर्यञ्चायु और मनुष्योयुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल अनुत्कृष्टके समान है। देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थितिबन्धका १. मूलप्रतौ सुस्सर० श्रादा० णिमि० श्रादे० जह० इति पाउः । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे अणु भंगो। वेउव्वियछक्क०-तिएिणजा-मुहुम०--अपज्ज०-साधार० जह. अज० उक्क भंगो । मणुसगदिपंचगस्स जह० अज० उक्कभंगो। आहार०२ जह० हिदि. णत्थि अंतर। अजजह• अंतो०, उक्क कायहिदी. । २७८. पुरिस पंचणा-चदुदंस०-चदुसंज-पंचंत० जह० अज० णत्थि अंतर। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णवुस-पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादे०-णीचागो० जह० अज० उक्कस्सभंगो । णिद्दा-पचलाअसादा०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग--सुस्सर-अणादे०--अजस०णिमि० जह० हिदि० उक्कस्सभंगो। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । [अट्ठक० अन्तर काल अनुत्कृष्टके समान है। वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्त मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध आपकश्रेणी में होता है और इसके सिवा अन्यत्र अजघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध उपशम श्रेणीमें प्राप्त होता है,पर यहाँ इसके भी जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इसका भी निषेध किया है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्यपृथक्त्वप्रमाण है । जिस संशी स्त्रीवेदी जीवने इसके प्रारम्भ में और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध किया और मध्यमें अजघन्य स्थितिबन्ध किया, उसके दूसरे दण्डकमें कही गई निद्रा आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ पल्यपृथक्त्व उपलब्ध होता है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर इसी प्रकार ले आना चाहिये । तथा संयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि होनेसे यहाँ पाठ कषायोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । क्योंकि संयमासंयममें अप्रत्याख्यानावरण चारका और संयममें प्रत्याख्यानावरण चारका बन्ध नहीं होता। सातावेदनीय आदि चार प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ इनके अन्तरकालका निषेध किया है। फिर भी ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है इसीलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालके उपलब्ध होने में कोई बाधा नहीं आती । सामान्यतः प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इसलिए यह उक्त प्रकारसे कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २७८. पुरुषवेदमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार,स्त्रीवेद,नपुंसकवेद, पाँच संस्थान,नपुंसकवेद, पाँचसंहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ज. जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपु० । अज० जह० एग०, उक्क० पुन्वकोडी देस० । ] सादावे-पुरिस-जस०-तित्थय०-उच्चा० जह• पत्थि अंतरं । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिरयायु० उक्कभंगो । तिरिक्खमणुसायु० जह• हिदि. पत्थि अंतरं । अज० अणुक्कभंगो। देवायु० जह० जह० दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० कायहिदी० । अज. हिदि० पगदिअंतरं । णिरयगदि-चदुजा०-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि०४ उक्कस्सभंगो । तिरिक्खगदितिरिक्खाणु०-उज्जो० जह० अज० उक्कस्सभंगो। मणुसगदि-पंचगस्स जह• अज० उक्कस्सभंगो। देवगदि०४ जह० अज• उक्कस्सभंगो। आहार०२ जह• पत्थि अंतर। अज• जह• अंतो०, उक्क० कायहिदी। पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुखर, अनादेय, अयशःकीर्ति और और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सातावेदनीय, पुरुषवेद, यश-कीर्ति, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । नरकायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है। देवायके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है। नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, पातप और स्थावर आदि चार प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। देवगतिचतुष्कके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट प्रान्तर कायस्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-पुरुषवेदमें पाँच शानावरण आदि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें अपने-अपने बन्धके अन्तमें होता है। अन्यत्र अजघन्य स्थितिबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। सातावेदनीय आदि पाँच प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका तो निषेध किया है, पर तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा इनके सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेके कारण इनके अजघन्य स्थितिबन्धके प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती,इसलिये उसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त कहा है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० महाबंधे टिदिबंधाहियारे २७६. णवूस० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पंचंत० जह० अज० पत्थि अंतर। थीणगिद्धि०३-मिच्छ ०-अयंताणुबंधि०४-इत्थि०-णवूस०--पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थवि०-भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा. जह० हिदि. ओघं । अज. जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । णिद्दा-पचला-असादा०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुपंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि-तस०४-थिराथिर-सुभामुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-अजस-णिमि० जह• जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सादा०-पुरिस-जस० जह• अज० ओघं । दो आयु०-वेउव्वियछक्का-मणुसगळ-मणुसाणु० ओघं। तिरिक्खायु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अज० अोघं । देवायु तिरिक्खोघं । तिरिक्खग०तिरिक्खाणु०-उज्जो०-णीचा. जह• हिदि० जह० अंतोमु०, उक्क. अणंतकालं । तथा उपशमश्रेणिमें मरणकी अपेक्षा तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तोत्पर्य यह है कि जो उपशमश्रेणिमें एक समयके लिए अबन्धक होकर मरता है और देव होकर पुनः बन्ध करने लगता है, उसके एक समय अन्तरकाल उपलब्ध होता है और जो अन्तर्मुहूर्त प्रबन्धक होकर मरता है और देव होकर पुनः बन्ध करने लगता है, उसके अन्तर्मुहूर्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है । आहारकद्विकका भी जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है। इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा शेष कथन स्पष्ट ही है। २७६. नपुसकवेदमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्ध का अन्तरकाल अोधके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सातावेदनीय, पुरुषवेद और यश-कीर्तिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रोधके समान है । दो आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अोधके समान है। देवायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तरमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णट्ठिदिबंध अंतर कालपरूवणा ४२१ अ० अ० भंगो। चदुजादि आदाव थावरादि ०४ जह० श्रघं । अज० अणु० भंगो । ओरालि ०-ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ० [ जह० ] श्रघं । अज० जह० एग०, उक्क० yoकोडी मू० । अहक० जह० ज० श्रघं । आहार ०२ जह० हिदि० पत्थि अंतर । अज० ओघं । तित्थय० उक्कस्तभंगो । 1 २८०, अवगदवे ० सगपगदीणं जह० द्विदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । २८१. कोधादि ०४ खवगपगदीगं चदुआयु० - आहार ०२ जह० अज० णत्थि समान है। चार जाति, तप और स्थावर श्रादि चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके समान है । औदारिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग और वज्रेषभनाराचसंहननके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल के समान है । अजघन्य स्थितिबन्धका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। आठ कषायके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर श्रधके समान है । आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रोधके समान है। सीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ – नपुंसक वेद में प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालके न होनेका स्पष्टीकरण जिस प्रकार पुरुषवेद में कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । नपुंसकवेद में सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है और सम्यक्त्वके सद्भावमें स्त्रीवेद आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतिर्योका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट अन्तरकाल श्रसंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए यहाँ निद्रा आदि तीसरे दण्डकमें कही गईं प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है, इसलिए यहाँ तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्चके उसी पर्याय में उत्पन्न हुए सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, और इसके औदारिक शरीर आदि चार प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २८०. अपगतवेद में अपनी प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - अपगतवेद में अपनी सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें उपलब्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है तथा उपशम श्रेणिमें अपगतवेदीके अपनी प्रकृतियोंका अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। २८१. क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में क्षपक प्रकृतियों, चार आयु और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि मान Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ महाबंधे ट्ठिदिबंघाहियारे अंतर । णवरि माणस्स कोधसंज० अज. जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं मायाए दो संजल०, लोभ० [चत्तारि ] संजल० । सेसाणं जह० हिदि० पत्थि अंतर। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । २८२. मदि-सुद० पंचणा-णवदंसणा-सादासा-मिच्छ०-सोलसक-अहणोक०-पंचिंदिय-तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस-अजस-णिमि०-पंचंत० जह• हि० जह० अंतो०, उक्क० असंखेजा लोगा। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णबुंस-ओरालि० कषायमें क्रोध संज्वलनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार माया कषायमें दो संज्वलनोंका और लोभकषायमें चार संज्वलनोंका अन्तरकाल जानना चाहिए। तथा चारों कषायोंमें शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-चारों कषायोंमें चारों आयुओंका अजघन्य स्थितिबन्ध अन्तरके साथ दो वार सम्भव नहीं है और जघन्य स्थितिबन्ध एक बार ही होता है, इसलिए तो इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया। और क्षपक प्रकृतियों और आहारकद्विकका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है। साथ ही उपशम श्रेणिमें कषायोंके रहते हुए क्षपक प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती। यद्यपि आहारकद्विककी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, पर उपशमश्रेणि पर चढ़ते और उतरते हुए कषायमें परिवर्तन होता है और उपशान्तमोहमें कषायका अभाव हो जाता है, इसलिए इन चारों कषायोंमें न तो क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध होता है और न आहा रकद्विकके ही जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध होता है; इसलिए यहाँ इसका निषेध किया है। यहाँ शेष प्रकृतियोंका एक कषायमें दो बार जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। पर जिसके एक कषायमें कमसे कम एक समयके लिए और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है, उसके अन्य सब प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । यहाँ मानकषायमें क्रोधसंज्वलनके, मायाकषायमें क्रोध और मान संज्वलनके और लोभकषाय क्रोध, मान माया और लोभ संज्वलनके अजघन्य स्थितिबन्धका जो जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है ,वह उपशमश्रेणिमें मरणकी अपेक्षासे जानना चाहिए । कारण स्पष्ट है। २८२. मत्यज्ञान और श्रुतज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, आठ नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नपुंसकवेद, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहराणडिदिबंध अंतरकालपरूवणा ४२३ पंचसंठा० - ओरालि० अंगो० - इस्संघ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - अणादे० ज० ट्ठि० घं । अज० जह० एग०, उक्क० तिरिण पलिदो० देसू० । चदुआयु- वेड व्वियछकमणुसग ० - मणुसा० ओघं । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० उज्जो० जह० द्विदि० श्रघं । अज० जह० एग०, उक एकतीसं साग० सादि० । चदुजादि आदाव थावरादि ०४ जह० ज० एवं सगभंगो । खीचागो० ज० ट्टि० श्रघं । अज० जह० एग०, तिरिण पलिदो० दे० | उच्चा० जह० ज० जह० अंतो० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । उक्क० 1 २८३. विभंगे पंचणा० एवदंसणा०--मिच्छत्त- सोलसक० -भय- दुगु० -- णिरयश्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका अन्तरकाल के समान है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुव्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर ओघ के समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रधके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चार प्रकृतियोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नपुंसकवेदके समान है । नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रोघके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । उच्चगोत्र के जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनों का असंख्यात लोक प्रमाण है । 1 विशेषार्थ - इन दोनों अज्ञानोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्यातक जीवोंके होता है और इनकी कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है । यहाँ कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध करा कर यह अन्तरकाल लेना चाहिए । नपुंसकवेद श्रादि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका भोगभूमिमें बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ उनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका कुछ कम तीन पल्य अन्तरकाल कहा है । यहाँ इन प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबन्धका यह अन्तरकाल इसी प्रकार कहा है । यह तीन पल्य में कुछ कम कहा यह विचारणीय है । नीचगोत्रके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार जानना चाहिए । तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंका बारहवें कल्पके ऊपर बन्ध नहीं होता और वहाँ दोनों अज्ञानोंका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । इसीसे यहाँ उक्त प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल सांघिक सागर कहा है । ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे यह साघिक काल बन जाता है। जिस बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवने कार्यस्थितिके आदि में और अन्तमें उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध किया उसके तो इसके जघन्य स्थितिबन्धका असंख्यात लोक प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है तथा अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके इसका बन्ध नहीं होनेसे जघन्य स्थितिबन्धका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २८३. विभङ्गज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे देवायु० - तेजा ० - ० - वरण ०४ - गु० - उप० णिमि० - पंचंत० जह० अज० णत्थि अंतरं । सादा० - पुरिस [०-हस्स-रदि- वेडव्वियछ ० - चदुजादि - समचदु० - वज्जरिसभ ० - पर० - उस्सा० उज्जो०-पसत्थ०-तस०-बादर- मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त पत्तेय० - साधारण-थिरादिछक - णीचुच्चा० ज० द्विदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असादा०इत्थि० - ० -- अरदि -- सोग - पंचसंठा०--पंच संघ ० - अप्पसत्थ० अथिरादिक० जह० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० सू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । तिरिक्ख - मणुसायु० रियोघं । एइंदि० - आदाव - थावर० जह० जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दोगदि ओरालि० -ओरालि ०अंगो० - दो० ज० ट्ठि० रात्थि अंतर । अ० ज० एग०, उक्क० अंतो० । जुगुप्सा, नरकायु, देवायु, तैजसशरीर, कार्मणशरीर वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, वैक्रियिक छह, चार जाति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, परघात, उल्लास, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण, स्थिर आदि छह, नीच गोत्र और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर सामान्य नारकियोंके समान है । एकेन्द्रिय जाति, श्रातप और स्थावर के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो गति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग और दो आनुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—विभङ्गज्ञानमें नरकायु और देवायुके सिवा प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है, यह तो स्पष्ट ही है । इसी प्रकार इनके अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका यथायोग्य प्रभाव जान लेना चाहिए। सातावेदनीय आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । इनके अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल स्पष्ट ही है। जो नारकी भवके प्रारम्भ में पर्याप्त होने पर असातादि प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध करके पुनः भवके अन्त में बन्ध करता है, उसके इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहणट्ठदिबंध अंतर कालपरूवणा ४२५ २८४. भि० - सुद०-अधि० पंचरणा० - इदंसणा ० - सादा० चदुसंज० - पुरिस०हस्स-रदि-भय-दुगु० -पंचिंदि० - तेजा ० - ० - समचदु० - वरण ०४ - अगुरु ०४ - पसत्थ ०तस ०४ - थिरादिछक्क - णिमि० - तित्थय० उच्चा० - पंचंत० ज० हिदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । वरि शिक्षा - पचला अज० ज० उक्क० अंतो० । असादा०अरदि-सोग- अथिर-असुभ अजस० जह० [ जह०] अंतो०, उक० छावट्टिसाग० सादि० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० ! अक० ज० हि० ज० अंतो०, उक्क छावहिसाग० सादि० । अज० ज० अंतो०, उक्क० पुव्वको सू० । दो आयु० उकस्सभंगो | मणुसगदिपंचगस्स ज० डि० ज० अंतो०, उक्क० छावहिसाग ० सादि० । अ० ज० एग०, उक्क० पुव्वकोडी ० सादि० | देवगदि० ४ - आहार ०२ ज० द्वि० णत्थि अंतरं । अ० ज० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । I e २८४. श्रभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु४, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि निद्रा और प्रचलाके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । दो श्रायुओं का भङ्ग उत्कृष्टके समान है । मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । देवगति चतुष्क और श्राहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । विशेषार्थ- -इन तीन ज्ञानोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । तथा इनमें से कुछ तो सान्तर प्रकृतियाँ है, सब नहीं हैं, फिर भी उपशम श्रेणिमें मरणकी अपेक्षा इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त उपलब्ध होने से वह उक्त प्रमाण कहा है। इतनी विशेषता है कि आठवें गुणस्थानके जिस भाग में निद्रा और प्रचलाकी व्युच्छित्ति होती है, वह मरणसे रहित है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहूर्तं कहा है । जिस जीवने सम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रमत्तसंयत गुणस्थान में असाता आदिका जघन्य स्थितिबन्धं किया, पुनः वह साधिक छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहा और अन्तमें पुनः प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें जघन्य स्थितिबन्ध किया, उसके असाता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका ५४ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे __२८५. मणपज्ज. पंचणा-छदंसणा-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दुगु-देवगदिपंचिंदि०-तिरिणसरीर-समदु०-वेउव्वि०अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि-तित्थय०-उच्चा०-पंचंत. ज. पत्थि अंतरं । अज० ज० उक्क० अंतो० । सादा०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० ज० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० ज० ज० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । अज० ज० एग०, उक्क. अंतो। देवायु० उक्कस्सभंगो । आहार०२ ज. हि० णत्थि अंतरं । अज० ज० उक्क० अंतो० । एवं संजदाणं ।। उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर उपलब्ध होनेके कारण वह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक छयासठ सागर ले आना चाहिए । मात्र इनका जघन्य स्थितिबन्ध अविरत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवके करा कर यह अन्तरकाल लाना चाहिए । यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । सो यह अन्तर इतने कालतक संयतासंयत और संयत रख कर लाना चाहिए । मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी साधिक छयासठ सागर तक सम्यग्दृष्टि रखकर प्राप्त करना चाहिए । मात्र इस कालके प्रारम्भमें और अन्तमें देव और नारकोके जघन्य स्थितिबन्ध कराकर इसे लाना चाहिए । आहारकद्विकका जघन्य स्थितिबन्ध तपकश्रेणिमें प्राप्त होता है। इसलिए यहाँ इनके अन्तरकालका नि किया है । जो संयत जीव इनका अजघन्य स्थितिबन्ध करके और मर कर तेतीस सागरकी आयुके साथ देव होता है और वहाँसे आकर अप्रमत्त संयत होकर पुनः आहारकद्विकका बन्ध करता है उसके इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर प्राप्त होनेके कारण वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। २८५. मनःपर्ययज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, तीन शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वणेचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति. प्रसचतष्क. सभग. सुस्वर, श्रादेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । देवायुका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-मनःपर्ययज्ञान में प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। मनःपर्ययज्ञानमें इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद इनका बन्ध होता है. इसलिए यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ जहएणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा २८६. सामाइ०-छेदो० धुविगाणं ज० अज हि० णत्थि अंतरं। तित्थयरं धुविगाणं भंगो। सेसाणं मणपज्जवभंगो। परिहार० सव्वपगदीणं जह० ज० अंतो०, उक्क० पुन्वकोडी देमू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । मुहुमसांपराइ० सव्वपगदीणं जह० अज० पत्थि अंतरं । संजदासंजदा० धुविगाणं ज. अज० एत्थि अंतरं । परियत्तमाणियाणं संजदभंगो । आयु० परिहारभंगो।। २८७. असंज० पंचणा-छदंसणा-सादासा०-बारसक०-[सत्तणोक०-]पंचिंदि०तेजा०-क०-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थ-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभगसुस्सर-आदे०-जस०-अजस०-णिमि-पंचंत० ज० अज० मदि भंगो। थीणगिद्धि०३मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णस-पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थ-दूभग और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । यहाँ सातावेदनीय आदिका भी जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है, इसलिए इनके भी जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है। असाता वेदनीय आदिका जधन्य स्थितिबन्ध प्रमत्तसंयतके होता है। जो मनःपर्ययज्ञानके प्राप्त होनेके प्रारम्भमें और अन्तमें इनका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, उसके इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । संयम मार्गणाके कथनमें मनःपर्ययज्ञानके कथनसे कोई अन्तर नहीं है.इसलिए इसमें सब प्रकृतियोंके अघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मन:पर्ययज्ञानके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ___२८६. सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्ध प्रकृतियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग मनःपर्ययज्ञानके समान है । परिहारविशुद्धि संयत जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटि है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवों में सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । परावर्तमान प्रकृतियोंका भङ्ग संयतोंके समान है और दोनों श्रायुओंका भङ्ग परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके समान है। विशेषार्थ-इन सब संयमों में सब प्रकृतियोंका जो अन्तरकाल कहा है, उसे स्वामीका विचार कर ले आना चाहिये। विशेष बात न होनेसे यहाँ हमने अलग-अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। २८७. असंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, यश-कीर्ति, अयश-कीर्ति, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मत्यज्ञानियोंके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्ध Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे दुस्सर - अरणादे० ज० ओघं । अज० सगभंगो । चदुत्रायु० - वेडव्वियछ० - मणुसग०मसाणु ० - उच्चा० मदि० भंगो। तिरिक्खगदि ० ४ ज० जह० श्रधं । अज० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । चदुजा प्रदान - थावरादि०४ 'सगभंगो । ओरालि०-ओरालि० अंगो० वज्जरि० श्रोधं । तित्थय० ज० णत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । २८८. चक्खु० तसपज्जत्तभंगो | अचक्खु ० मूलोघं । श्रधिदं० श्रधिपाणिभंगो । 0 २८६. तिरिपलेस्साणं पंचरणा० दंसणा ० - सादासा० - बारसक००-सत्तणोक गिरयगदि - देवदि-पंचजादि-ओरालि० -तेजा ० क० - समचदु० ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ० - ० - चरण०४- दोत्राणु० गु००४ - [आदाव- ]पसत्थ० -तस०४ - [ थावर०४] थिराथिर-सुभासुभ-सुभग- सुस्सर - आदे० - जस० - अजस० - णिमि० - तित्थय ० - पंचंत० ज० द्वि० एत्थि अंतरं । अ० ज० एग०, उक्क० अंतो० । श्रीगिद्धि ० ३ - मिच्छ० - प्रांताणु०४ - इथि ० - ० - तिरिक्ख मणुसग० - पंचसंठा० - पंचसंघ० - दोश्राणुपु० - उज्जो०का अन्तरकाल श्रधके समान है । तथा श्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर नपुंसक वेदके समान है। चार श्रायु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग मत्यशानियोंके समान है । तिर्यञ्चगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर श्रधके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारका भङ्ग नपुंसक वेदी जीवोंके समान है। श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहनन का भङ्ग श्रधके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - सातवें नरकमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर होनेसे यहाँ अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेत्तीस सागर कहा है । यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध संयमके श्रभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है । २८८. चतुदर्शनवाले जीवोंमें सपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । श्रचक्षुदर्शनवाले जीवों में मूलोघके समान भङ्ग है । अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिज्ञानियोंके समान भङ्ग है । २८९. तीन लेश्याओं में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, नरकगति, देवगति, पाँच जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, श्रातप, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थावर चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, यशः कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, १. मूलप्रतौ गु०४ श्रपसत्थ तस ४ इति पाठः । - Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा अप्पसत्थ-दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचुच्चा० जह हिदि० णत्थि अंतरं। अज' जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सत्तारस सत्त सागरो० देसू० । णिरय-देवायु० जह० अज० णत्थि अंतरं । तिरिक्व-मणुसायु० णिरयभंगो। वेन्वि०-वेरवि अंगो० जह• हिदि. पत्थि अंतरं । अज० जह• एग०, उक्क० बावीसं सत्तारस सत्त साग । णवरि पील-काऊए मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० पढमदंडगे भाणिदव्वं । काऊए तित्थय जह• जह० अंतो०, उक्क. तिएिण साग० सादि । अज० जह'० एग०, उक्क० अंतो०। दुःस्वर, अनादेय, नीचगोत्र और उच्च गोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है। नरकायु और देवायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। तिर्यञ्चायु और मनु घ्यायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नारकियोंके समान है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर, सत्रह सागर और सात सागर है। इतनी विशेषता है कि नील और कापोत लेश्यामें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको प्रथम दण्डकमें कहना चाहिए । कापोत लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-कृष्ण लेश्यामें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर, नील लेश्यामें कुछ कम सत्रह सागर और कापोत लेश्यामें कुछ कम सात सागर है । इसीसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदिके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर इन लेश्याओं में उन्न प्रमाण कहा है । इतनी विशेषता है कि कृष्ण लेश्यामें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल मध्यमें कुछ कम तेतीस सागरतक मिथ्यादृष्टि रखकर ले आना चाहिये । कारण कि सातवें नरकमें इन तीन प्रकृतियोंका मिथ्या दृष्टिके बन्ध नहीं होता । तथा नील और कापोत लेश्यामें इनका बन्ध मिथ्यादृष्टिके भी होता है। यही कारण है कि मूलमें इन दोनों लेश्याओं में इन प्रकृतियोंका प्रथम दण्डक के साथ कथन करनेकी सूचना की है । यहाँ तीनों लेश्याओंमें जो जीव नरकगतिमें जाता है और वहाँसे आता है, उसके इन लेश्याप्रोके सद्भावम नरकगांत, देवगति, नरकानुपूर्वी और देवानुपूर्वीका बन्ध नहीं होता। इसीसे यहाँ इन तीन लेश्याओंमें इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा इसी प्रकार सातवें नरकमें जानेवाले जीवके कृष्णलेश्यामें वैक्रियिकद्विकका बन्ध नहीं होता। इन तीन लेश्याओंमें छठवें नरकतक जानेवाले जीवके नरक जाने के पूर्व और वहाँसे आनेके बाद इन लेश्याओं में अवश्य ही इन दोनों प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध सम्भव है। इसीसे इन तीन लेश्याओंमें इन दोनों प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे बाईस सागर, सत्रह सागर और सात सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। १. मूलप्रतौ जह० जह० एग० इति पोठः । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबंधे दिदिबंधाहियारे २६०. तेऊए पंचणा-छदसणा०-चदुसंज-भय-दुगु-तेजा-क०-वएण०४अगुरु०४-बादर-पज्जत्त-पतेय-णिमिण-तित्थय०-पंचंत. ज. पत्थि अंतरं । अज० ज० उक्क० अंतो० । अथवा जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जह० हिदि. पत्थि अंतरं । अज. जह• अंतो०, उक्क० बेसाग सादि । सादासा०-पुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-पंचिंदि०-समचदु०पसत्थवि०-तस-थावर०-] थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस-अजस०उच्चा० जह० हिदि० पत्थि अंतरं । अज. जह• एग०, उक्क० अंतो० । अहक०देवायु०-आहार०२ जह• अज० पत्थि अंतरं । इत्थि०-गवंस-तिरिक्खगदिएइंदि०-पंचसंठा-पंचसंघ-तिरिक्खाणु-आदाउज्जो०--अप्पसत्थ०-भग-दुस्सरअणादे०-णीचा. जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि० । अज० जह• एग०, उक्क० बेसाग० सादि० । तिरिक्ख-मणुसा० देवोघं । मणुसगदिपंचग० जह• जह०१ अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि । अज. जह० एग०, उक्क अंतो। देवगदि०४ जह० पत्थि अंतरं । अज० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० बेसाग० सादि । एवं पम्माए । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । पंचिंदिय-तस० पढमदंडगे पविट्ठ। ___ २९०. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अथवा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिषन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है, अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। आठ कषाय, देवायु और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन.तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो'सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। इसी प्रकार पद्म लेश्यामें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा पञ्चेन्द्रिय जाति और त्रसकाय ये दो प्रकृतियाँ प्रथम दण्डकमें सम्मिलित कर लेनी चाहिए। १. मूलप्रतौ जह० प्रज्ज० अंतो० इति पाठः । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णट्ठिदिबंध अंतरकालपरूवणा २६१. सुकाए पंचणा० छदंसरणा०-सादासा० - चदुसंज० सत्तणोक ०-पंचिंदियतेजा ० - क ० - समचदु० - वरण ०४ - अगुरु ०४ - [ आदाव - ] पसत्थ० --तस०४ - थिराथिर-सुभासुभ-सुभग- सुस्सर - आदे० - जस० - जस० - णिमि० - तित्थय० उच्चा० - पंचतं० जह० हिदि ० पत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीगिद्धि ०३ - मिच्छ०-अताणुबंधि०४ जह० हिदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० अंतो०, उक्क० एकतीसं० देसू० । अट्ठक० -देवायु० जह० ज० पत्थि अंतरं । इत्थि० स० पंचसंठा०पंच संघ ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - अणादे० जह० अज० जह० अंतो० एग०, विशेषार्थ - पीतलेश्या में प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सर्वं विशुद्ध श्रप्रमत्तसंयतके होता है और इस लेश्याके कालके भीतर दूसरी बार जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणाम उपलब्ध नहीं होते, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका काल दो प्रकारसे बतलाया है, सो इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जो अप्रमत्तसंयत जीव क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय स्थितिबन्धापसरण करते हुए इन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, उसके मजघन्य स्थिथिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है और जो स्वस्थानमें इनका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, उसके इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त उपलब्ध होता है। इससे वह दो प्रकारका कहा है । स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध यहाँ संयमके श्रभिमुख जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इस लेश्यामें सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर होनेसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । साता आदि प्रकृतियोंमेंसे कुछका यहाँ अप्रमत्तसंयत जीवके और कुछका प्रमत्तसंयत जीवके जघन्य स्थितिबन्ध होता है । यहाँ भी लेश्याके कालके भीतर दो बार जघन्य स्थितिबन्ध नहीं होता, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका निषेध किया है। इसी प्रकार आगे भी स्वामित्वका विचारकर शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल जान लेना चाहिए । ४३१ २६१. शुक्ल लेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, श्रातप, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, यशःकोर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । आठ कषाय और देवायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःखर, और श्रनादेयके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और एक १. मूलप्रतौ अणादेय णीचागो० जह० इति पाठः । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ महाबंधे दिदिबंधाहियारे उक्क० एकत्तीसं सा० देसू ० । मणुसायु० देवभंगो । मणुसगदिपंचगस्स जह० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । देवगदि०४ जह.' पत्थि 'अंतरं। अज० ज०० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा. सादिरे । आहार०२ [जह ] पत्थि अंतरं । अज० जह० [उक्क०] अंतो । ___२६२. भवसिद्धिया० ओघं। अब्भवसिद्धिया मदि०भंगो। सम्मादिही० ओधिभंगो । खड्गस पढमदंडो ओधिभंगो। [ असादा० अरदि-सोग-अथिर-असुभअजस० जह० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीससाग० सादिरे । अज. जह० एग०, उक्क० अंतो०] अहक० जह० जह० अंतो, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि । अज. अोधिभंगो। [दो] आयु० उकस्सभंगो । मणुसगदिपंचगस्स देवगदि०४ सुकभंगो । आहार०२ जह० पत्थि अंतरं । अज जह• अंतो०, उक० तेत्तीसं साग, सादि । समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनोंका कुछ कम इकतीस सागर है। मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है। मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-जिन प्रकृतियोंका केवल मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके बन्ध होता है,उनमेंसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके अजयन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर और स्त्रीवेद आदिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है, सो यह नौवें वेयकमें प्रारम्भमें और अन्त में मिथ्यादृष्टि रखकर ले आना चाहिए । तथा मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर देवों में प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध कराके ले श्राना चाहिए । देवगतिचतुष्कका देवोंके बन्ध नहीं होनेसे उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। २९२. भव्य जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। अभव्य जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टियोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्त्तिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिबन्ध जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग अवधि शानियोंके समान है। दो आयुओंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । मनुष्यगतिपञ्चक और देवगति चतुष्कका भङ्ग शुक्ललेश्याके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। १. मूलप्रती जह० अज्ज० णस्थि इति पाठः । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा २६३. वेदगे धुविगाणं जह• हिदि० पत्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतो० । सादा-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० जह० णत्थि अंतर। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० जह० [जह.] अंतो०, उक्क० छावट्टि साग० देसू० । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अहक० जह० जह० अंतो०, उक्क० छावहि देसू० । अज० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी देसू० । दोआयु० उक्कस्सभंगो । मणुसगदिपंचगस्स जह० जह० अंतो०, उक्क० छावहिसाग० देमू० । अज० जह० एग०, उक्क०' पुचकोडी । देवगदि०४ जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० पलिदो० सोदि०, उक० तेत्तीसं सा० । अथवा जह० जह• अंतो०, उक्क० छावहिसाग० देसू ० । अज० जह• एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । आहारदुर्ग जह० हिपत्थि अंतरं । अज० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० । तित्थय० विशेषार्थ-अप्रत्याख्यानावरण चार और प्रत्याख्यानावरण चारका जघन्य स्थितिवन्ध मनुष्य के होता है । जीव इनका जघन्य स्थितिबन्ध करके और मर कर तेतीस सागरकी आयुवाला देव होता है । पुनः वहाँसे आकर और मनुष्य होकर पुनः इनका जघन्य स्थितिबन्ध करता है.उसके इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार आहारकद्विकके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है। ___ २९३. वेदक सम्यक्त्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सातावेदनीय, हास्य,रति, स्थिर,शुभ, और यश-कीर्तिके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असातावेदनीय अरति,शोक, अस्थिर,अशुभ और अयश कीतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरअन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अाठ कषायोंके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। दो आयुओंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटि है । देवगतिचतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अथवा जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर १. मूलप्रतौ उक्क० अंतो० पुवकोडी देसू० सादि० देवगदि० इति पाठः । ५५ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे 1 धुविगाहि सह कादव्वा । धुविगाणं अथवा जह० जह० अंतो०, उक्क० छाबडि० देसू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं आयु० - तित्थयरवज्जाणं सव्वपगदी जह० डिदि ० [जह०] अंतो०, उक्क० छावहि० देसू० । अज० श्रधिभंगो । तित्थय० जह० ' जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । अज० जह० एग०, उक्क० तो ० । है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ गणना करनी चाहिये । अथवा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छ्यासठ सागर है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तं है। आयु और तीर्थकर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - वेदकसम्यक्त्वमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल दो प्रकारसे बतलाया है । सर्वप्रथम कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि विवक्षित प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी होता है; इस दृष्टिको ध्यान में रखकर अन्तरकाल कहा है। इस अपेक्षासे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और दूसरे दण्डकमें कही गई साता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति बन्धका अन्तर उपलब्ध नहीं होता है । वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर होने से यहाँ साता श्रादिके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागर कहा है । प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध कराने से यह अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इसी प्रकार आठ कषायके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्राप्त करना चाहिए । संयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि होने से यहाँ आठ कषयोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। मनुष्यगतिपञ्चकका जघन्य स्थितिबन्ध सर्वविशुद्ध देव और नारकीके होता है, इसलिए यहाँ इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि ये परिणाम अन्तर्मुहूर्त के बाद पुनः हो सकते हैं और यदि ये परिणाम वेदक सम्यक्त्वके कालके प्रारम्भमें और अन्तमें होते हैं तो इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छ्यासठ सागर उपलब्ध होने से वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, इसलिए जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और जो वेदक सम्यग्दृष्टि देव मर कर मनुष्य होता है और एक पूर्वकोटिप्रमाण आयुको बिताकर पुनः देव होता है, उसके न पाँच प्रकृतियोंके श्रजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटि देखा जाता है, इस लिए वह उक्त प्रमाण कहा है। देवगति चतुष्कका जघन्य स्थितिबन्ध जब कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिके होता है, तब इसके अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होनेसे उसका निषेध किया है । और देवोंमें इन चार प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, अतएव यहाँ अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य १. जह० एग० श्रंतो इति पाठः । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूषणा ४३५ २६४. उवसम पढमदंडो ओधिभंगो। असादा०-अरदि-सोग-मणुसगदिपंचगस्स० अथिर-असुभ-अजस० जह• जह• उक्क. अंतो० । अज जह० एग०, उक्क० अंतो० । अहक जहर० [अजह०] जह० उक्क० अंतो० । देवगदि०४ आहार०२-तित्थय० जह• पत्थि अंतरं। अज. जह. उक्क० अंतो० । णवरि तित्थय० अज जह० एग०, उक्क० अंतो० । अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है । अथवा अप्रमत्तके इनका जघन्य स्थितिबन्ध मानने पर जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ जघन्य अन्तर प्रमत्त गुणस्थानसे अन्तरित करके ले आना चाहिए और उत्कृष्ट अन्तर लानेके लिए कुछ कम छयासठ सागर कालके प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध करा कर ले आना चाहिए। इनके अजघन्य स्थितिबन्धकाजघन्य अन्तर एकसमय तक जघन्य स्थितिबन्ध करानेसे उपलब्ध होता है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर लाते समय उपशम श्रेणो पर पारोहण करा कर और उतार कर देवगति चतुष्कके बन्ध होने के एक समय पूर्व मरण करा कर तेतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न करानेसे प्राप्त होता है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार आगे भी अन्तरकालका विचार कर लेना चाहिये। २९४. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में प्रथम दण्डकका भङ्ग अवधिशामके समान है । असातावेदनीय, अरति, शोक, मनुष्यगतिपञ्चक, तथा अस्थिर, अशुभ और अयशाकीर्तिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ देवगतिचतुष्क आदि सात प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध उपशम श्रेणीमें होता है, इसलिए उसके अन्तरकालका निषेध किया है और उपशमश्रेणीपर आरोहण कर उतरनेमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि अपूर्वकरणके विवक्षित भागमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति होनेपर उपशम श्रेणीसे उतरकर पुनः उसी भागको प्राप्त होनेतक इन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । आहारकद्विकका अन्तरकाल प्रमत्तगुणस्थानमें लाकर और पुनः अप्रमत्त गुणस्थामें ले जानेसे भी प्राप्त किया जा सकता है। मात्र जो जीव अपूर्वकरणमें एक समयके लिए तीर्थङ्कर प्रकृतिका प्रबन्धक होकर और दूसरे समयमें मरकर देव होकर पुनः उसको बन्ध करने लगता है, उसके तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। १. भूलप्रतौ जह० अंतो० जह० इति पाठः । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ महाबंधे टिदिबंधाहियारे २६५. सासणे तिषिण आयु० जह• अज पत्थि अंतरं । सेसाणं सव्वपग० जह० णत्थि अंतर । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० ।। २६६. सम्मामि० धुविगाणं जह• अज० एत्थि अंतरं। सादा०-हस्स-रदिथिर-सुभ-जस० जह• पत्थि अंतर । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । तप्पडिपक्खाणं जह• हिदि. जहएणु० अंतो० । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो० । मिच्छादिट्टी० मदि०भंगो। २६७. सएणीसु पंचणा०-छदसणा-सादास्ग०-चदुसंज-सत्तणोक०-पंचिंदि०. तेजा-क०-समचदु०-वरण०४-अगु०४-पसत्थवि०--तस०४--थिराथिर-सुभासुभ-सुभगसुस्सर-आदे०-जस०-अजस-णिमि०-तित्थय०-पंचंत० जह• हिदि० णस्थि अंतर। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जह हिदि० णत्थि अंतर । अज. जह• अंतो०, उक्क वेछावहि साग० देसू० । एवं इत्थिवे० जह• हिदि० रणत्थि अंतर। अज० अोघं । अट्ठकसा. जह• पत्थि अंतर । अज. जह• अंतो०, उक्क० पुव्बकोडी देसू० । णवुस-पंचसंठा-पंचसंघ २९५. सासादनसम्यक्त्वमें तीन आयुओंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है।। २९६. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मिथ्यादृष्टियों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। विशेषार्भ-यहाँ स्वामित्वका विचारकर अन्तरकाल ले जाना चाहिए। २९७. संज्ञी जीवोंमें पाँच झानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिवन्धका अन्तर ओघके समान है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहएणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा अप्पसस्थ०-द्भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा. जह० पत्थि अंतर। अज. जह० एग०, उक्क० बेछावहि० सादि० तिएिण पलिदो० देसू० । णिरय-देवायु. जह० [जह.] दस वस्ससहस्साणि सादि०, उक्क. सगहिदी० । अज. अणु०भंगो। तिरिक्खमणुसायु० जह• जह० खुद्दाभव० समयु., उक्क० सगहिदी । अज० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । णिरयग०-णिरयाणु० जह० जह० अंतो०, उक्क. सगहिदी० । अज० जह• एग०, उक्क० पंचासीदिसागरोवमसदं० । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-उज्जो० जह• पत्थि अंतरं। अज० ओघं । मणुसगदिदेवगदि-उचि०-उवि अंगो०-दोआणु०-उच्चा० जह• पत्थि अंतर। अज. जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादिः । चदुजा०-आदाव-थावर०४ जह० णत्थि अंतरं। अज० ओघं । ओरालि-ओरालि०अंगो०-वजरिसभ. जह० पत्थि अंतर । अज० ओघं। आहार०२ जह० णत्थि अंतर। अज० जह• अंतो०, उक्क • सगहिदी। विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर,अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाला नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका मा अनुत्कृष्टके समान है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर है। तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। मनुष्यगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गीपाङ्ग, दो भानुपूर्वी और उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। चार जाति, आतप और स्थावर चारके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाले ओघके समान है। औदारिक शरीर, औदारिक आलोपान और वज्रर्षभनाराचसंहननके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रोधके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। ___ विशेषार्थ यहाँ अलग-अलग प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जो अन्तरकाल कहा है,उसका अन्य मार्गणाओं में अनेक बार स्पष्टीकरण कर आये हैं, उसे देखकर यहाँ अन्तरकालका विचार कर लेना चाहिए । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे जह० २६८. असरणी पंचरणा० णवदंसणा०-सादासादा०-मिच्छ०-सोलसक० -रणवक० - पंचजादि- तिरिणसरीर - बस्संठा० - श्रोरालि ० श्रंगो ० - इस्संघ ० - वण्ण०४अगु०४ - आदाव - दोविहा० - तस - थावरादिदस युगल - णिमि० - पंचत० जह० तो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० जह० एग०, उक्क० तो ० । चदु श्रयु०वेडव्वियछ ०- मणुसग ०- मणुसाणु० उच्चा० तिरिक्खोघं । तिरिक्खग ० - तिरिक्खाणु०उज्जो०- णीचा० जह० जह० अंतो०, उक्क० अतिकालं० । अज० जह० एग०, उक्क ० तो ० । उक० २६६. आहारगे खवगपगदीरणं जह० णत्थि अंतर । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० | थीणगिद्धि ० ३ - मिच्छत्त - श्रणंताणुबधि ०४ - इत्थि० जह० जह० अंतो०, सगहिदी० । अज० श्रघं । खिद्दा- पचला - असादा० - दणोक० - पंचिंदि०तेजा ० क० समचदु० - वरण ०४ - अगु०४ - पसत्थवि० -तस०४ - थिराथिर - सुभासुभ-सुभगसुसर दे० - [जस० ]णिमि० जह० जह० अंतो०, उक्क • अंगुलस्स असंखे० । अज० जह० एग०, उक्क • अंतो० । अट्ठक० जह० जह० अंतो०, उक्क० सगहिदी० | ज० श्रो । एस० पंचसंठा० - पंचसंघ० - अप्पसत्थ० -- दूर्भाग- दुस्सर - अरणादे० -णीचा० २९८. असंज्ञी जीवोंमें, पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, पाँच जाति, तीन शरीर, छह संहनन, श्रदारिक भाङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, दो विहायोगति, त्रस और स्थावर आदि दस युगल, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । चार श्रायु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, और उच्चगोत्र के जघन्य और प्रजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सामान्य तिर्यञ्चके समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । २९९. श्राहारक जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर ओके समान है। निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, छह नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीरं, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयशः कीर्ति और निर्माणके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । श्राठ कषायके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल के समान है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णटिदिबंधअंतरकालपरूवणा जह० द्विदि० जह० अंतो०, उक्क. सगहिदी० । अज० ओघं । णिरय-देषायु० जह० द्विदि० जह० दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० सगहिदी । अज. जह० अंतो०, उक्क अंगुलस्स असंखे । तिरिक्खायु० जह० हिदि० जह. खुद्दाभव० समयू०, उक्क० बेसाग० सहस्साणि सादिरे । अज० जह० अंतो०, उक्क. सागरोवमसदपुधत्तं । मणुस० जह• जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० सगहिदी । अज० जह अंतो०, उक्क० अंगुलस्स असं० । वेउन्वियछक्क-मणुसग०-मणुसाणु जह० जह० अंतो०, उक्क. सगहिदी। [अजह• जह० एग०, उक्क पुवकोडी ] तिरिक्वग-तिरिक्वाणु०-उज्जो जह• हिदि० जह० अंतो०, उक्क० सगहिदी० । अज० ओघं । चदुजादि-दाव-थावरादि०४ जह• हिदि. जह• अंतो०, उक्क० सगहिदी। अज० ओघं। ओरालि०-ओरालि अंगो०-वजरिसभ० जह० जह• अंतो०, उक्क० सगहिदी० । अज. ओघं । आहार०२ जह० हिदि. णत्थि अंतर। अज. जह० अंतो०, उक्क० सगहिदी० । अणाहार० कम्मइगभंगो । अंतर समत्तं । दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर ओधके समान है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तिर्यश्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो हजार सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यात भागप्रमाण है। वैक्रियिक छह, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्व कोटिवर्ष प्रमाण है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल श्रोधके समान है। औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। आहारकद्विककेजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । अनाहारक जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ -स्थापना : सन् 1944 उदेश्य झान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निमणि संस्थापक स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन स्व. श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्री अशोक कुमार जैन कार्यालय : 18. 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