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________________ महाबंध ट्ठिदिबंधाहियारे २२२. जह० पदं । दुवि० – ओघे० दे० । तत्थ श्रघेण श्रहण क० जह० ज० को भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारगति ऐदव्वं । जीवमप्पाबहुगपरूवणा २२३. अप्पाबहुगं दुविधं - जीव अप्पा बहुगं चैव विदिअप्पाबहुगं चेव । जीवअप्पा बहुगं तिविधं - जहणणं उक्कस्सं जहण्णुक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुवि०देसेण य । तत्थ घेण सव्वत्थोवा हरणं क० उक्तस्सगट्ठिदिबंधगा जीवा । अणु० ट्ठिदिबंधगा जीवा अांतगुणा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगिओरालिय० -ओरालियमि० कम्मइ० स० - कोधादि ० ४-मदि० - सुद० - असं०-अचक्खु०- किरण ० - गील० - काउ०- भवसि ० - अब्भवसि० - मिच्छादि ० - असरिण० - आहार०अरणाहारगति | १२६ २२२. अब जघन्य भावानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैघ और आदेश । उनमेंसे श्रोध की अपेक्षा आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कौनसा भाव है ? श्रदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - यद्यपि ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवों का कोई भी भाव होता है, पर यहां पर स्थितिबन्ध के कारणभूत भावका ग्रहण किया है । यह भाव सिवा औदयिकके अन्य नहीं हो सकता, इससे यहां एक मात्र श्रदयिक भावका निर्देश किया । अन्यत्र भी स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारणभूत भाव एकमात्र कषाय बतलाया है। इससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । इस प्रकार भावप्ररूपणा समाप्त हुई । जीव अल्पबहुत्व प्ररूपणा २२३. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - जीव अल्पबहुत्व और स्थिति अल्पबहुत्व | जीव अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है- जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । उनमें से श्रोघकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, श्रदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी, आहारक और अनाहारक मार्गणाओं में जानना चाहिए । विशेषार्थ - यहाँ अल्पबहुत्व दो प्रकारका कहा है- जीव अल्पबहुत्व और स्थिति अल्पवद्दुत्व | कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका श्रघ और श्रादेशसे अल्पबहुत्व जिस प्रकरणमें कहा गया है, वह जीव अल्पबहुत्व प्ररूपणा है और जिस प्रकरणमें कर्मोंकी उत्कृष्टादि स्थिति, उनकी आबाधा आदिका अल्पबहुत्व कहा गया है, वह स्थिति अल्पबहुत्व है । उनमेंसे सर्वप्रथम जीव अल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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