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________________ भावपरूवणा १२५ धत्तं । आयु० उक्कस्सभंगो । एवं अोधिदं० । सुक्क०-सम्मादि०-खइग० आभिणि०भंगो । मणपज्ज. सत्तणं क. जह• जह० एगस०, उक० वासपुधत्तं । सेसाणं उक्कस्सभंगो। ___ २२०.संजदे सत्तएणं क० ओघ । आयु० उक्कस्सभंगो । एवं सामाइ०-छेदो० । परिहार० मणपज्जवभंगो । उवसम० सत्तएणं क० जह० जह० एग०, उक्क० वासपुध० । अज० जह० एग०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । एवं अंतरं समत्तं ।। भावपरूवणा २२१. भावाणुगमेण दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्क० पगदं। दुवि०ओघे० आदे० । तत्थ ओघेण अट्ठएणं कम्माणं उक्स्साणु बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं अणाहारग त्ति णेदव्वं । है कि अवधिज्ञानमें जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। प्रवधिज्ञानी जीवीके समान अवधिदशनी जीवोके जानना चाहिए। शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानियोंके समान है। मनःपर्ययज्ञानी जीवों में सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। शेषका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और अवधिदर्शनका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण होनेसे इन मार्गणाओंमें सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट है। २२०. संयतोंमें सात कोका भङ्ग ओघके समान है। आयु कर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयतोंका भङ्ग मनःपर्ययशानके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। विशेषार्थ-उपशम श्रेणिका जघन्य अन्तर. एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण होनेसे यहां उपशमसम्यक्त्वमें सात कौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण कहा उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात होनेसे इसमें इन्हीं सात कौका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात कहा है। शेष कथन सुगम है।। इस प्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ। भावप्ररूपणा २२१. भावानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा आठों कर्मोका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाले जीवोंका कौन-सा भाव है ? औदयिक भाव है। उसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १. ध० पु. ७५० ४६१,४६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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