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________________ १२४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे २१७. मणुस०३ सत्तएणं क० ओघं । णवरि मणुसिणीसु वासपुधत्तं । आयु० उक्कस्सभंगो। मणुसपज्जत्तभंगो पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-पुरिस०चक्खुदंसणि त्ति । गवरि पुरिस० सत्तएणं क. वासं सादिरेयं ।। २१८. पुढवि०-ग्राउ-तेउ०-वाउ० तेसिं बादर० बादरवणप्फदिपत्तेय० सत्तएणं क० उक्कस्सभंगो। आयु० अजह० जह० पत्थि अंतरं । तेसिं पज्जत्ता० उक्कस्सभंगो । इत्थि० उकस्सभंगो । गवरि सत्तएणं क० जह० जह० ए०, उक्क० वासपुधत्तं । एवं गर्नुस । णवरि आयु० ओघं । अवगदवे०-सुहुम० सत्तएणं क० छएणं क० जह० अज० जह० एगस०, उक्क० छम्मासं ।। २१६. आभि०-सुद-बोधि० सत्तएणं क. अोघं । णवरि अोधि० वासपु २१७. मनुष्यत्रिकमें सात कोका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुयिनियों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, प्रस, प्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, पुरुषवेदी और चक्षुदर्शनी जीवों में अन्तरकाल मनुष्यपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदी जीवों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है। विशेषार्थ-वैसे पुरुषवेदकी अपेक्षा क्षपकश्रेणीमें उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, पर 'मनुष्य पर्याप्त' शब्दसे पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण होता है,इसलिए मनुष्य पर्याप्त जीवों में सात कौंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान छह महीना कहा है । क्षपकश्रेणिमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है, इसलिये मनुष्यिनियों में सात कौंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका यह उत्कृष्ट अन्तर कहा है। शेष कथन स्पष्ट है। २१८. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इनके बादर तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों में सात कौकाभङ्ग उत्कृष्टके समान है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इनके पर्याप्त जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है स्त्रीवेदवाले जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदियों में सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मका भङ्ग अोधके समान है। अपगतवेदी और सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवों में क्रमसे सात कर्मों और छह कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट छह महीना है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना होनेसे अपगतवेद और सूक्ष्मसाम्परायसंयतका यही अन्तर उपलब्ध होता है। यही कारण है कि इन दोनों मार्गणाओं में क्रमसे सात और छह कौंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उक्त प्रमाण अन्तर काल कहा है। शेष कथन स्पष्ट है। २१६. आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कौकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तर ओघके समान है। इतनी विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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