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________________ जहण्ण-अंतर परूवणा १२३ सत्तणं क ० जह० हिदिबं० जह० एग०, उक० छम्मासं । अज० णत्थि अंतरं । आयु० जह० अजह० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालियका ० - कोधादि ० ४ - अचक्खुदंसणि आहारग ति । २१५. सव्वणिरय - सव्व पंचिंदियतिरिक्ख-मरणुस पज्ज० - सव्वदेव सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस पज्ज० - वेडव्वि ० - वेडव्वियमि० - आहार ० - आहारमि० - विभंग०-परिहार० - संजदासंजद ० तेउ०- पम्म०- - वेदग० - सासरण ० -सम्मामि० एदेसिं उकस्सभंगो । २१६. तिरिक्खे हरणं क० जह० ज० रात्थि अंतरं । एवं सव्वएइंदिय - बादरपुढवि ० उ० तेउ०- वाउ ० अपज्जत्ता ० तेसिं चैव सव्वसुहुम० सव्ववरणफदि - रियोद० - बादरवण ० पत्ते ० अपज्जत्त० - ओरालियमि० - कम्मइ० -मदि० - सुद०संज० - किरण- पील- काउ० प्र०भवसि ० - मिच्छादि ० - अस रिण आहारगति । O आदेश । उनमें से श्रोघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । श्रायुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करने वाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार श्रोघके समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - क्षपक श्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण है । यही कारण है कि यहाँपर जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण कहा है। सात कर्मोंकी अजघन्य स्थितिका बन्ध और श्रयुकर्म की जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव निरन्तर उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनका अन्तर नहीं कहा है। यहाँ गिनाई गई अन्य मार्गणाओं में यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनका श्रन्तर श्रोघके समान कहा है । २१५. सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, विभङ्गशानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन मार्गणाओंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ - आशय यह है कि उत्कृष्ट काल प्ररूपणा में जिस प्रकार इन मार्गणाओं में आठ कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर कहा है, उसी प्रकार यहांपर जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल जानना चाहिए और जिस प्रकार वहां अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल कहा है, उसी प्रकार यहां अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल जानना चाहिए । २१६. तिर्यञ्चों में आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और उन्हीं के सब सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंत्री और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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