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________________ १३२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वेदग० । गवरि खइग० आयु० अणु० उक्क ० बास धत्तं । मरणपज्ज सत्त कम्माणं ओघं । आयु० उक्क० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक्क ० एवं परिहार - संजद - सामाइ० - छेदो० । संजदासंजदा ० श्रधिभंगो | पुतं । C २१३. तेउ०- पम्प ० सत्तणं क० ओघं । आयु० उक्क० श्रघं । अणु० जह० एग०, उक्क० अडदालीसं मुहुत्तं पक्खं । उवसम० सत्तणं क० उक्क० ओघं । अणु० ० जह० एग०, उक्क० सत्त रार्दिदियाणि । सासण० सम्मामि० मरणुस पज्जत्तभंगो । २१४. जहए पदं । दुविधो पिसो - श्रघेण देण य । तत्थ घेण उत्कृष्ट अन्तर मास पृथक्त्व है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, ● क्षायिक सम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मकी अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । मन:पर्ययज्ञानो जीवोंमें सात कमका भङ्ग श्रधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भङ्ग श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए । संयतासंतोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है । विशेषार्थ - यहां जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं वे सब निरन्तर मार्गणाएँ हैं, इसलिए इनमें सात कर्मों के अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव निरन्तर पाये जाते हैं; यह तो स्पष्ट ही है । पर आयुकर्मका बन्ध सर्वदा न होकर त्रिभागमें तद्योग्य परिणामों के होनेपर ही होता है, इसलिए श्रायुकर्मके स्थितिबन्धकी अपेक्षा अन्तरकाल प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती। फिर भी वह अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धको अपेक्षा कितना होता है, यह ही स्वतन्त्र रूप से यहां बतलाया गया है। शेष कथन सुगम है । २१३. पीत लेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग श्रोघके समान है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे अड़तालीस मुहूर्त और एक पक्ष है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है । विशेषार्थ—पीत और पद्मलेश्या भी निरन्तर मार्गणाएँ हैं । तथापि इनमें श्रायुकर्मका सर्वदा बन्ध नहीं होता। इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर तो ओघके समान है और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कितना है, यही बात यहां स्वतन्त्र रूपसे बतलाई गई है । यहां कही गई उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये तीन सान्तर मार्गणाएँ हैं, इसलिए इनका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल है, . वही इनमें अपने-अपने कर्मोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर है । उसमें भी सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका अन्तर मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है, इसलिए इनका कथन मनुष्य अपर्याप्तकों के समान कहा है। शेष कथन सुगम है । २१४. जघन्य अन्तरका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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