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________________ जहणखेत्तपरूवणा ९९ ० १६५. वणप्फदि - रिगोद ० तेसिं सुहुमपज्जत्तापज्जत्त० सत्तरणं क० उक्क० अ० सव्वलोगे । आयु० ओघं । बादरवणफदि णिगोद० सत्तर क० सुमभंगो। आयु० मरणुभिंगो । बादरवणप्फदिपत्तेय - बादरपुढविकाइयभंगो। एवं उक्कस्सयं समत्तं । १६६. जहणगे पगदं । दुविधो गिद्द ेसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ घेण सत्तणं क० जह० द्विदिबंध केव० १ लोगस्स असंखेज्ज० । अज० सव्वलोगे | आयु० जह० अजह० सव्वलो० । एवं ओघभंगो कायजोगि ओरालियका० - एस० ० १६५. वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके सुक्ष्म और पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका क्षेत्र सब लोक है । आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र श्रधके समान है । बादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सूक्ष्म जीवोंके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र मनुष्यिनियोंके समान है बादरवनस्पति प्रत्येक शरीर जीवों में श्राठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र बादर पृथिवीकायिक जीवांके समान है । विशेषार्थ -- वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके सूक्ष्म और उनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवा सब लोक क्षेत्र है । इसीसे इनमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है । ओघ से आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर नेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोकप्रमाण बतला आये हैं । उक्त मार्गणावाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक होने से इनमें भी ओघप्ररूपणा घटित हो जाती है, इसलिए इनमें आयुकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र श्रधके समान कहा है। पहले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंका क्षेत्र बतला श्राये हैं। वह क्षेत्र यहां बादरवनस्पतिकायिक और बादर निगोद जीवोंमें अविकल घटित जाता है इसलिए सात कमकी अपेक्षा इनकी प्ररूपणाको सूक्ष्म जीवोंके समान कहा है । वादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद जीवोंका स्वस्थान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और मनुष्यिनियोंका स्वस्थान क्षेत्र भी इतना ही है, इसलिए इन मार्गणाओंमें श्रायुकर्मकी अपेक्षा मनुष्यिनियोंके समान क्षेत्र कहा है । बादर पृथिवीकायिकका स्वस्थान क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और मारणान्तिक समुद्धात व उपपाद पदकी अपेक्षा सर्वलोक क्षेत्र हैं । बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंका क्षेत्र भी इतना ही है । इसीसे इनमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र बादरपृथिवीकायिक जीवोंके समान कहा है । । इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्र समाप्त हुआ । १६६. अब जघन्य क्षेत्रका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोघ और आदेश । उनमें से श्रोघकी अपेक्षा सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । श्रजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार श्रोघके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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