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________________ १०० महाबंधे दिदिबंधाहियारे कोधादि०४-अचक्खुदं०-भवसि-आहारग त्ति । १६७. आदेसेण णेरइएमु उक्कस्सभंगो । एवं सव्वणिरय । १६८. तिरिक्खेसु सत्तएणक० जह० लोग संखे । अज० सव्वलोगे । आयु. ओघं । एवं एइंदिय-वाउ०-ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज-किरण णील०-काउ०-अब्भवसि०-मिच्छादि-असएिण-अणाहारग त्ति । १६६. बादरएइंदियपज्जत्तापज्जत्त० सत्तएणं क. जह• लोग० संखेज्ज। अज० सव्वलो० । आयु० जह• अज. लोग संखेज्ज । मुहुमेइंदि०पज्जत्तापजत्तसुहुमपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०-मुहुमवण-सुहमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त अट्टएणं क० समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध क्षपकश्रेणीमें होता है, इसलिए इसका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । तथा अजघन्य स्थितिका बन्ध शेष सबके होता है और वे समस्त लोकमें व्याप्त हैं, इसलिए सात कौंकी अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवालोंका सब लोक क्षेत्र कहा। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थिति एकेन्द्रियादि अधिकतर जीव बाँधते हैं और वे सब लोकमें व्याप्त हैं, इसलिए आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है। यहां अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह ओघ व्यवस्था अविकल उपलब्ध होती है, इसलिए उनका कथन अोधके समान कहा है। १६७. आदेशसे नारकियों में पाठों कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब नारकी जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-आशय यह है कि सामान्यसे और प्रत्येक पृथिवीके अलग-अलग नारकी जीव असंख्यात हैं तथा इनका क्षेत्र भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए आठों कौकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले उक्त नारकियोंका उत्कृष्टके समान ही क्षेत्र प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक मार्गणामें,उस मार्गणाके क्षेत्रको ध्यानमें लेकर विचार कर लेना चाहिर । १६८. तिर्यञ्चोंमें सात कमौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र ओधके समान है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, वायुकायिक, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, भीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी और अनाहारक मार्गणाओं में जानना चाहिए। १६९. बादर एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंमें सात कमौकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोका क्षेत्र सब लोक है। आयुकर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म वायु कायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्मनिगोद तथा इन सबके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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