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________________ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे ४५. तिरिक्खे सत्तणं कम्माणं ओघं । युगस्स मिच्छादिट्ठिस्स तप्पात्रोग्गसंकिलिहस्स । एवं पंचिदियतिरिक्ख० ३ । पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु सत्तां कम्मा उक्क हिदि० कस्म ? अरणदरस्स सरिणस्स सागारजागारसुदोवजुत्तस्स atravrataस्सियाए द्विदीए उक्कस्सए हिदिसंकिले से वट्टमाणस्स । आयुगस्स उक्क० द्विदि० कस्स० १ अरणद० सरिणस्स वा असरिणस्स वा सागारजागारमुदोवजुदस्स तप्पा ग्गविसुद्धस्स उक्क० आबाधाए उक्कस्सिए डिदिबंधे वट्टमाणस्स । ३४ ४६. मणुस ०४ - पंचिंदिय० २-तस० २-पंचमरण० पंचवचि ० 'कायजोगि श्रोरालिका० - कोधादि ०४ - मदि ० - मुद० - विभंग० -संज० - चक्खुर्द ० - अचक्खुदं ० - भवसि ०अभवसि ०-मिच्छादिट्ठिी - सरि-आहारग त्ति ओघभंगो । वरि संजम विरहिदाणं तपारगविसुद्ध ति ण भाणिदव्वं । आयुगस्स मणुसयपज्ज० - पंचिंदिय-तसप परिणामवाला नारकी जीव श्रायु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है । विशेषार्थ -नरक में आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटि प्रमाण होता है । तथा प्रारम्भके छह नरकोंमें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके नारकियोंके यह स्थिति - बन्ध सम्भव है, किन्तु सातवें नरकमें यह स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टिके ही होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन सुगम है । ४५, तिर्यञ्चों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन श्रोधके समान है । आयु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टि तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला तिर्यञ्च होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिक उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामी होते हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्यातकों में सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संशी है, साकार जागृत श्रुतोपयोग से उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य संक्लेशपरिणामवाला है, ऐसा कोई एक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव सात कर्मो के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो संशो है, या असंशी है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और उत्कृष्ट आबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है, ऐसा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ - संज्ञी या असंशी दोनों प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्याप्त जीव उनके योग्य पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट आयुका बन्ध करते हैं, इसलिये आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी दोनों को बतलाया है। शेष कथन सुगम है । ४६. मनुष्य चतुष्क, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिक काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, चतुदर्शनी, अचतुदर्शनी, भव्यसिद्धिक, श्रभव्यसिद्धिक, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके सब कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामित्वका कथन ओघके समान करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनमें जो मार्गणाएँ संयम रहित हैं, उनमें तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला जीव श्रायु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है; यह नहीं कहना चाहिये । तथा मनुष्य अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और अस अपर्याप्त मार्गणाओंमें १. मूलप्रतौ काजोगि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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