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________________ उक्कस्ससामित्तपरूवणा जत्ता. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। ४७. देवाणं णिरयभंगो याव सहस्सार त्ति । आणद याव उवरिमगेवजा त्ति सत्तएणं कम्माणं उक्क• हिदि. कस्स ? अण्णद० मिच्छादिहिस्स सागारजागार० तप्पाअोग्गसंकिलिहस्स । आयु देवभंगो। अणुद्दिस जाव सव्वहः त्ति सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदि० कस्स ? अएगदरस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । आयु. [उक्क. हिदि० कस्स । अण्णद० ] तप्पाअोग्गविसुद्धस्स० उक्क० वट्टमा० । आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तके समान जानना चाहिये। विशेषार्थ-पहले श्रोध प्ररूपणामें आयु कर्मके उत्कृष्ट स्थिति बन्धके स्वामीका कथन करते समय यह कह आये हैं कि जो संझी है, सम्यग्दृष्टि या मिथ्यावृष्टि है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रु तोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला या तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और उत्कृष्ट आबाधासे युक्त होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर रहा है,ऐसा मनुष्य या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिवाला जीव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है । सो यह कथन अविकल रूपसे यहाँ कही गई सभी मार्गणाओं में घटित होता है।क्या यह एक प्रश्न है जिसका समाधान करते हुए यहाँ मूलमें कहा गया है कि जो मार्गणाएँ संयम रहित हैं, उनमें यह कथन अधिकलरूपसे घटित नहीं होता; क्योंकि संयम रहित मार्गणाओंमें आयुकर्मका तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामवालेके न होकर तत्प्रायोग्य संक्लेशपरिणामवालेके ही होता है। वे मार्गणाएँ ये हैं-मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, विभंगशानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि । ऐसा नियम है कि मनुष्यायु, देवायु और तिर्यञ्चायुके सिवा शेष रहीं ११७ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवालोंके या तत्प्रायोग्य ईषत् मध्यम परिणामवालोंके ही होता है । इस नियमके अनुसार नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामवालेके नहीं हो सकता और इन मार्गणाओंमें आयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नरकायका ही होता है, क्योंकि इन मार्गणाओं में संयमकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं हो सकता। इसीलिये इन मार्गणाओंका वारण करने के लिये मूलमें उक्त कथन किया है। शेष कथन सुगम है। किन्तु मनुष्य अपर्याप्त जीव भी संशी ही होते हैं, इसलिये इनमें आयु कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन करते समय असंही विशेषण नहीं लगाना चाहिये। ४७. देवोंमें सहस्रार कल्पतक पाठों कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी नारकियोंके समान है । श्रानत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? मिथ्यादृष्टि साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला कोई भी देव सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। यहाँ आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका कथन सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला अन्यतर देव सात कर्मों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो साकार जागृत श्रृतोपयोगसे उपयुक्त है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है और उत्कृष्ट पाबाधाके साथ उत्कृष्ट स्थिति बन्ध कर रहा है,ऐसा अन्यतर देव आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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