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________________ ४३२ महाबंधे दिदिबंधाहियारे उक्क० एकत्तीसं सा० देसू ० । मणुसायु० देवभंगो । मणुसगदिपंचगस्स जह० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । देवगदि०४ जह.' पत्थि 'अंतरं। अज० ज०० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा. सादिरे । आहार०२ [जह ] पत्थि अंतरं । अज० जह० [उक्क०] अंतो । ___२६२. भवसिद्धिया० ओघं। अब्भवसिद्धिया मदि०भंगो। सम्मादिही० ओधिभंगो । खड्गस पढमदंडो ओधिभंगो। [ असादा० अरदि-सोग-अथिर-असुभअजस० जह० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीससाग० सादिरे । अज. जह० एग०, उक्क० अंतो०] अहक० जह० जह० अंतो, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि । अज. अोधिभंगो। [दो] आयु० उकस्सभंगो । मणुसगदिपंचगस्स देवगदि०४ सुकभंगो । आहार०२ जह० पत्थि अंतरं । अज जह• अंतो०, उक० तेत्तीसं साग, सादि । समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनोंका कुछ कम इकतीस सागर है। मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है। मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगति चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजधन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-जिन प्रकृतियोंका केवल मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके बन्ध होता है,उनमेंसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके अजयन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर और स्त्रीवेद आदिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है, सो यह नौवें वेयकमें प्रारम्भमें और अन्त में मिथ्यादृष्टि रखकर ले आना चाहिए । तथा मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर देवों में प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध कराके ले श्राना चाहिए । देवगतिचतुष्कका देवोंके बन्ध नहीं होनेसे उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। २९२. भव्य जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। अभव्य जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टियोंका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके समान है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्त्तिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिबन्ध जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अजघन्य स्थितिबन्धका भङ्ग अवधि शानियोंके समान है। दो आयुओंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । मनुष्यगतिपञ्चक और देवगति चतुष्कका भङ्ग शुक्ललेश्याके समान है। आहारकद्विकके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। १. मूलप्रती जह० अज्ज० णस्थि इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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