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________________ जहण्णट्ठिदिबंध अंतरकालपरूवणा २६१. सुकाए पंचणा० छदंसरणा०-सादासा० - चदुसंज० सत्तणोक ०-पंचिंदियतेजा ० - क ० - समचदु० - वरण ०४ - अगुरु ०४ - [ आदाव - ] पसत्थ० --तस०४ - थिराथिर-सुभासुभ-सुभग- सुस्सर - आदे० - जस० - जस० - णिमि० - तित्थय० उच्चा० - पंचतं० जह० हिदि ० पत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीगिद्धि ०३ - मिच्छ०-अताणुबंधि०४ जह० हिदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० अंतो०, उक्क० एकतीसं० देसू० । अट्ठक० -देवायु० जह० ज० पत्थि अंतरं । इत्थि० स० पंचसंठा०पंच संघ ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - अणादे० जह० अज० जह० अंतो० एग०, विशेषार्थ - पीतलेश्या में प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सर्वं विशुद्ध श्रप्रमत्तसंयतके होता है और इस लेश्याके कालके भीतर दूसरी बार जघन्य स्थितिबन्धके योग्य परिणाम उपलब्ध नहीं होते, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका काल दो प्रकारसे बतलाया है, सो इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जो अप्रमत्तसंयत जीव क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय स्थितिबन्धापसरण करते हुए इन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, उसके मजघन्य स्थिथिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है और जो स्वस्थानमें इनका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, उसके इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त उपलब्ध होता है। इससे वह दो प्रकारका कहा है । स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध यहाँ संयमके श्रभिमुख जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा इस लेश्यामें सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर होनेसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । साता आदि प्रकृतियोंमेंसे कुछका यहाँ अप्रमत्तसंयत जीवके और कुछका प्रमत्तसंयत जीवके जघन्य स्थितिबन्ध होता है । यहाँ भी लेश्याके कालके भीतर दो बार जघन्य स्थितिबन्ध नहीं होता, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका निषेध किया है। इसी प्रकार आगे भी स्वामित्वका विचारकर शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल जान लेना चाहिए । ४३१ २६१. शुक्ल लेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, श्रातप, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, यशःकोर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । आठ कषाय और देवायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःखर, और श्रनादेयके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और एक १. मूलप्रतौ अणादेय णीचागो० जह० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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