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________________ २०८ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे संखेज्जगुणा। ] 'संजदासंजद सत्तएणं क० सव्वत्थोवा [संखेज्जगुणवडि-हाणि । संखेज्जभागवभि-हा. दो वि तुल्ला सं०गु० । असंखेज्जभागवडि-हा० दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । अवहिदबं० असंखेज्जगुणा ।] ४१४. असएणीसु सत्तएणं क० सव्वत्थोवा संखेज्जगुणवडि-हा० । संखेज्जभागवड्ढि-हा० दो वि तुल्ला असं०गु०। असंखेज्जभागवड्ढि-हाणिव दो वि तुल्ला अणंतगुणा। अवहिदबं असंखेज्जगु० । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं वडिबंधे त्ति समत्तं । अज्झवसाणसमुदाहारो ४१५. अज्झवसाणसमुदाहारबंधे त्ति । तत्थ इमाणि तिषिण अणियोगद्दाराणि-पगदिसमुदाहारो हिदिसमुदाहारो तिव्वमंददा ति । गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातभाग वृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ४१४. असंझी जीवों में सात कर्मों की संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर अनन्तगुणे हैं । इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । अनाहारक जीवों में अपने सब पीका अल्पबहुत्व कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार वृद्धिबन्ध समाप्त हुआ। अध्यवसानसमुदाहारबन्ध __४१५. अब अध्यवसानसमुदाहारबन्धका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-प्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार और तीवमन्दता। विशेषार्थ-यहाँ स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंकी अध्यवसान संक्षा है और जिस अनुयोगद्वारमें इनकी अपेक्षा वर्णन किया गया है, उसकी अध्यवसानसमुदाहार संशा है। इन परिणामोंके निमित्तसे प्रत्येक कर्मके कितने विकल्प हो जाते हैं, एक-एक स्थितिके प्रति कितने-कितने परिणाम कारण होते हैं तथा उनकी तीव्रता और मन्दता किस प्रकारकी है; इन्हीं सब प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिए यहाँ इस अनुयोगद्वारके तीन भेद किये गये हैंप्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार और तीव्रमन्दता। पहले अनुयोगद्वारमें परिणामों अनुसार प्रत्येक कर्मके प्रकृतिविकल्प और उनका अल्पबहुत्व दिखलाया गया है। दूसरे अनुयोगद्वारमें प्रत्येक स्थितिके प्रति अध्यवसानोंका परिमाण, जघन्य स्थितिसे लेकर उत्तरोतर वे कितने अधिक है,इसका परिमाण और उनकी अनुकृष्टि रचनाका निर्देश किया गया १. संजदासंजद०......सत्तएणं क० सम्वत्थोवा अवत्तबं०,असंखेज्जगुणवतिहाणि दो वि तुल्ला संखेज्जगु०, संखेज्जगुणवविहा० असं० गु० । असंखेजगुणवडिहा० असंखेज्जगु० इति पाठः । २. मूलप्रती अजमवसाण... बंधे ति। तस्थ इमाणि तिषिण अणियोगदाराणि......पगदिसमुदाहारे ति... तत्थ इमाणि दुवे इति पाठः । के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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