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________________ १५८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे भयणिज्जपदा तिगुणा अण्णोएणगुणा हवेज कादव्वा । धुवरहिदा रूवणा' धुवसहिदा तत्तिया चेव ॥ १ ॥ २६७. आयुगस्स दो वि पदा भयणिज्जा । एवं सव्वणिरयस्स सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तस अप-बादरपुढ०-आउ-तेउ०वाउ०-बादरवणप्फदि०पत्तेय पज्जत्त-वेबियका-इत्थि०-पुरिस-विभंग-सामा०छेदो-परिहार०-संजदासंजद०-तेउ०-पम्म०-वेदग त्ति । २६८. तिरिक्खेसु सत्तएणं क. भुज०-अप्पद -अवट्टि आयु० अवत्त०-अप्पदर० णियमा अस्थि । एवं तिरिक्खोघभंगो सव्वएइंदिय-पुढवि०-ग्राउ-तेउ०-वाउ०वादरपुढवि०-आउ-तेउल-बाउ० तेसिं चेव अप० तेसिं चेव सव्वमुहुम-सव्व-वणप्फदिणियोद-बादरवणप्फ पत्तेय तस्सेव अप० ओरालियमि०-गवुस०-कोधादि०४-मदि०सुद०-असंज-किरण-णील-काउ०-अब्भवसि०-मिच्छादि-असणिण त्ति । भजनीय पदोंका १ १ इस प्रकार विरलन करके तिगुना करे । पुनः उसी तिगुनी विरलित राशिका परस्परमें गुणा करे। इस क्रियाके करनेसे जो लब्ध प्राता है.उर लब्ध आता है,उससे अध्रुव भङ्ग एक कम होते हैं और ध्रुव भङ्ग सहित अध्रुवभङ्ग उक्त संख्याप्रमाण होते हैं ॥१॥ २९७. श्रायुकर्मके दोनों ही पद भजनीय हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ यहाँ सात कौंकी अपेक्षा अवस्थित बन्धवाले जीव नियमसे हैं। यह एक ध्रुव भङ्ग है और भुजगार व अल्पतर ये दो पद भजनीय हैं। अतएव पूर्वोक्त गाथामें कहे गये नियमके अनुसार इन दो का १, १ इस प्रकार विरलनकर तथा इन्हें ३, ३ इस प्रकार तिगुना कर इनका परस्परमें ३४३ =९ इस प्रकार गुणा करनेपर कुल ९ भङ्ग होते हैं । इनमें से ८ अध्रुव भङ्ग और एक ध्रुव भङ्ग है । ये ९ भङ्ग ज्ञानावरण आदि एक-एक कर्मको अपेक्षासे होते हैं। आयुकर्म के दोनों पद भजनीय हैं, इसलिए इनके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा एक संयोगी और द्विसंयोगी कुल आठ भङ्ग होते हैं। २६८. तिर्यञ्चों में सात कर्मीका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितका बन्ध करनेवाले जीव तथा आयुकर्मके प्रवक्तव्य और अल्पतरका बन्ध करनेवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके समान सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और इन सबके अपर्याप्त, तथा इनके ही सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इनके ही अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंशी जीवोंके जानना चाहिए। १. मूलप्रतौ-रहिदा रूवेण धुव इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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