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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे भागाभागप्परूवणा १४१. भागाभागं दुविधं-जहएणयं उक्कस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । दुविधो णिद्देसो—ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अहएणं वि कम्माणं उक्कस्सहिदिबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? अणंतभागो । अणुक्कस्सहिदिबंधगा जीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ?' अणंता भागा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि०-ओरालियका-ओरालियमि०-कम्पइ०-णवूस०--कोधादि०४-मदि०-सुद०असंज०-अचक्खुदं०-किरण०-णील-काउले०-भवसि-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असगिण-आहार-आणाहारग त्ति । १४२. आदेसेण णेरइएमु अहएणं कम्माणं उक्क बंध० केव० ? असंखेजदिभागो । अणुक्क० बंध. केव० ? असंखेज्जा भागा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज्जत्त-देव-भवणादि याव सहस्सार त्ति आणद याव अणुत्तरा त्ति सत्तएणं कम्माणं सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-तसपज्जत्तापज्जत्त-सव्व भागाभागप्ररूपणा १४१. भागाभाग दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा आठों ही कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्तवें भाग प्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । इस प्रकार अोघके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिक काययोगो, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, नसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताक्षानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, चीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंही, आहारक और अनाहारक जीवोंका भागाभाग जानना चाहिए। विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले कुल जीव असंख्यात होते हैं। और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले अनन्त होते हैं। इस संख्याको ध्यानमें रख कर हो यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भाग प्रमाण कहे गये हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहु भाग प्रमाण कहे गये हैं । यहाँ पर गिनाई गई अन्य मार्गणाओंमें यह भागाभाग घटित हो जाता है, इसलिए उनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है। १४२. आदेशसे नारकियों में आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सब नारकियोके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव आयुकर्मके बिना सात कर्मोके बन्धकी अपेक्षा प्रानतकल्पसे लेकर अनुत्तर विमानवासी देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, प्रस, असपर्याप्त और अपर्याप्त, सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक सब 1. मूलप्रतौ अणंतभागो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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