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________________ णाणाजीवेहि जहरणभंगविषयपरूवणा ८७ १३६. प्रादेसेण णेरइएमु अट्ठएणं वि कम्माणं उक्कस्सभंगो । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वविंगलिंदिय-सव्वपंचिंदियतस-बादरपुढवि०-बाउ-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्जत्ताणं पंचमण-पंचवचि०-वेउव्वियका०-बेउव्वियमि०-आहार-आहारमि०-इत्थि०-पुरिस-अवगदवे०विभंग-आभि०-सुद०-अोधि०-मणपज्ज-संज-सामाइ०-छेदो०-परिहार-मुहुमसंप०संजदासंजद०-चक्खुदं०-अोधिदंस-तेउले-पम्मले-मुक्कले-सम्मादिहि-खइगवेदग-उवसम-सासण-सम्मामि०-सगिण त्ति । १४०. तिरिक्वेसु अहएणं क. जह• अजह• अत्थि बंधगा य अबंधगा य । एवं सव्वएईदिय-वादरपुढवि०-अाउ-तेउ०-वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेय. अपज्जत्ता तेसिं सुहुमपज्जत्तापज्जत्त० सव्ववणप्फदि-णिगोद-ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०असंज-किरणलेणील-काउल-अब्भवसि०-मिच्छादि-असएिण-अणाहारग त्ति। एवं णाणाजीवेहि भंगविचयं समत्तं । १३६. श्रादेशसे नारकियों में आठों ही कौंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चन्द्रिय, सब त्रस, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, विभङ्गशानी, प्राभिनिबोधिकहानी, श्रुतशानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संशी जीवोंके जानना चाहिए। १४०. तिर्यञ्चोंमें आठों कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अनेक जीव बन्धक हैं और अनेक जीव अबन्धक हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, इनके सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यशानी, श्रताशानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंझो और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । - विशेषार्थ-आशय यह है कि इन मार्गणाओंमें सर्वदा जघन्य स्थितिके बन्धक नाना जीव हैं और अजघन्य स्थितिके बन्धक नाना जीव हैं। इसलिए यहां अन्य भङ्ग सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार नानाजीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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