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________________ उकस्सभागाभागपरूवणा पुढवि०-आउ-तेउ०-वाउ०-बादरवप्फदिपत्तेय-पंचमण--पंचवचि०--वेउव्वियवेउव्वियमि०-इत्थि०-पुरिस-विभंग-आभिल-सुद--ओधि०--संजदासंजद०-- चक्खुदं०-ओधिदं०-तेउ०-पम्मले०-सुक्कले०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसमस०सासण-सम्मामिच्छादि०-सरिण त्ति । १४३. मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु अट्ठएणं कम्माणं उक्क० हिदि० केवडि० ? संखेजदिभागो। अणुक्क बंध० केव० ? संखेजा भागा। एवं सव्वट्ठ-आहारआहारमि०-अवगदवे-मणपज्जव०-संजदा-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-मुहुमसं० । ............... अग्निकायिक, सब वायुकायिक, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, बैंक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगशानो, श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंका भागाभाग जानना चाहिए। विशेषार्थ-सामान्यसे आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव संख्यात हैं,फिर भी उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव असंख्यात गुणे हैं। यही कारण है कि यहाँ पाठों कर्मोंकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले नारकी जीव सब नारकी जीवोंके असंख्यातवें भाग कहे हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले नारको जीव सब नारकी जीवोंके असंख्यात बहुभाग प्रमाण कहे हैं। यहाँ गिनाई गई अन्य सब मार्गणाओंमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है,इसी लिए उनके भागाभागका कथन सामान्य नारकियोंके समान कहा है। मात्र आयुकर्मकी अपेक्षा आनतकल्पसे लेकर अपराजित तकके देव, शुक्ललेश्यावाले और क्षायिक सम्यग्दृष्टि इन मार्गणाओं में भागाभागके प्रमाणमें कुछ विशेषता है, जिसका निर्देश आगे करनेवाले हैं । यहाँ मूलमें 'अनुत्तरा' ऐसा पाट है, इससे पाँच अनुत्तर विमानोंका ग्रहण होना चाहिए, किन्तु सर्वार्थसिद्धिका भागाभाग स्वतन्त्र रूपसे कहा है इसलिए इस पद द्वारा चार अनुत्तर विमान ही लिए गए हैं। दूसरे सर्वार्थसिद्धिके अहमिन्द्रोंकी संख्या संख्यातप्रमाण ही है और यहाँ पर असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंका भागाभाग कहा गया है, इसलिए भी अनुत्तर पदसे यहाँ पर सर्वार्थसिद्धिका ग्रहण नहीं होता है । इस प्रकरणमें उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये दो ऐसी मार्गणाएं भी गिनाई हैं जिनमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, इसलिए उनमें सात कर्मोंकी अपेक्षा यह भागाभाग जानना चाहिए। १४३. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें आठों कर्मोंकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं? संख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चादिए । विशेषार्थ-ये सब मार्गणाएँ संख्यात संख्यावाली हैं, इसीलिए उक्त प्रमाण भागाभाग १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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