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________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा २७. वेइंदि०-तेइंदि-चरिंदि० तेसिं चेव पज्जत्ताणं सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदि सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपण्णासाए सागरोवमसदस्स तिषिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा वे सत्तभागा। अंतोमु० आबाधा । [आबाधूणिया] कम्महिदी कम्म० । आयुग० उक्क हिदि० पुव्वकोडी। चत्तारिवस्साणि सोलसरादिंदियाणि सादिरेयाणि बे मासंच आबाधा। आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्म०।तेसिं चेव अपज्जताणं सत्तएणं कम्माणं उक्क० हिदिबं० एवं चेव । णवरि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागण ऊणियं । [ अंतोमुहुत्तमाबाधा।] कम्मट्टिदी कम्म० । आयु० पंचिंदिय-तिरिक्ख. अपज्जत्तभंगो। बन्ध होता है। एकेन्द्रियों में सात कर्मोंके स्थितिबन्धका यह बीजपद है। इसी बीजपदके अनुसार पृथिवी कायिक आदिके बादर, सूक्ष्म और इनके पर्याप्त, अपर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जानना चाहिये। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध सर्वत्र एक पूर्वकोटिप्रमाण होता है। मात्र अाबाधामें अन्तर है; क्योंकि सब जीवोंकी आयु अलग-अलग कही है। इसलिये जिसकी जितनी उत्कृष्ट आयु कही है, उसके अनुसार उसके श्रायुकर्मका उत्कृष्ट आबाधाकाल जानना चाहिये। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। २७. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इन्होंके पर्याप्त जीवोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे पच्चीस, पचास और सौ सागर का तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण होता है, चार वर्ष, साधिक सोलह रातदिन और दो महीना प्रमाण उत्कृष्ट आबाधा होती है तथा कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। इन्हीं अपर्याप्त जीवोंके सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध इसी प्रकार होता है। इतनी विशेषता है कि वह पल्यका संख्यातवाँ भाग कम होता है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-द्वीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पच्चीस सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण होता है, मोहनीयका पूरा पच्चीस सागरप्रमाण होता है तथा नाम और गोत्रका पच्चीस सागरका दो बटे सात भागप्रमाण होता है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके सर्वत्र पल्यका संख्यातवाँ भाग कम करनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। त्रीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पचास सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण होता है, मोहनीयका पूरा पचास सागरप्रमाण होता है तथा नाम और गोत्रका पचास सागरका दो बटे सात भागप्रमाण होता है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके सर्वत्र पल्यका संख्यातवाँ भाग कम करनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंके शानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सौ सागरका तीन बटे सात भागप्रमाण होता है, मोहनीयका पूरा सौ सागरप्रमाण होता है तथा नाम और गोत्रका सौ सागरका दो बटे सात भागप्रमाण होता है। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंके सर्वत्र पल्यका संख्यातवाँ भाग कम करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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