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विषय-परिचय
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उत्कृष्ट आबाधा होगी, इस प्रकार जैसे यहाँ निषेकस्थिति और आबाधा का परस्पर सम्बन्ध है और इसलिए इन दोनों का संयुक्त निर्देश किया जाता है, उस प्रकार आयुकर्म की निषेकस्थिति के साथ आबाधा का कोई सम्बन्ध नहीं है । किन्तु कितनी ही आबाधा के रहने पर कितना ही निषेकस्थितिबन्ध हो सकता है। यही कारण है कि यहाँ आयुकर्म के प्रकरण में निषेकस्थिति और आबाधा का संयुक्त विवेचन नहीं किया गया है।
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यहाँ प्रकरण प्राप्त होने से एक बात का और निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है । जीवस्थान - चूलिका में इसी आयु के प्रकरण में आबाधा का निर्देश करने के अनन्तर सर्वत्र 'आबाधा' यह स्वतन्त्र सूत्र आता है।
इस प्रसंग से वीरसेन स्वामी ने जो कुछ कहा है, उसका भाव यह है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि के समयबद्धों में बन्धावलि के बाद अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमण रूप से बाधा दिखाई देती है, उस प्रकार आयुकर्म के निषेकों में अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमण रूप से बाधा नहीं होती, यह दिखलाने के लिए दूसरी बार 'आबाधा' इस सूत्र की रचना की है।
प्रश्न यह है कि क्या आयुकर्म में अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमण आदि नहीं होते। यदि होते हैं, तो यहाँ इनका निषेध क्यों किया गया है? और इस दृष्टि से बाधा रहित क्यों कहा है? समाधान यह है कि आयुकर्म की आबाधा शेष मुज्यमान आयु प्रमाण मानी गयी है। नियम यह है कि एक आयु का दूसरी आयु में संक्रमण नहीं होता। यहाँ भुज्यमान आयु अन्य है और बद्ध्यमान आयु अन्य है । मान लो कोई एक जीव मनुष्यायु का भोग कर रहा है और उसने पुनः मनुष्यायु का ही बन्ध किया है, तो भी ये एक आयु नहीं ठहरतीं और इसलिए बद्ध्यमान आयु का न तो भुज्यमान आयु में अपकर्षण होता है और न भुज्यमान आयु का बद्ध्यमान आयु में संक्रमण होता है। यही कारण है कि यहाँ आबाधा के भीतर निषेकस्थिति को बाधा रहित बतलाने के लिए 'आबाधा' इस सूत्र की स्वतन्त्र रचना की है। कदलीघात आदि से बद्ध्यमान आयु की आबाधा न्यून हो जाय, यह स्वतन्त्र बात है; पर बद्ध्यमान आयु के द्वारा अपकर्षण होकर और भुज्यमान आयु के द्वारा संक्रमण होकर वह न्यून नहीं हो सकती; यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
अनन्तरोपनिधा का विचार करने के बाद परम्परोपनिधा का विचार आता है । यहाँ बतलाया है कि प्रथम निषेक से आगे पल्य के असंख्यातवें भाग-प्रमाण स्थान जाने पर प्रथम निषेक में जितने कर्म- परमाणु निक्षिप्त होते हैं, उनसे वे आधे रह जाते हैं। इसी प्रकार जघन्य स्थिति के प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर पल्य के असंख्यातवें भाग-प्रमाण स्थान जाने पर वे आधे-आधे रहते जाते हैं । प्रत्येक गुणा-हानि के प्रति चय का प्रमाण आधा-आधा होता जाता है, इसलिए इस व्यवस्था के घटित हो जाने में कोई बाधा नहीं आती। मात्र कर्मस्थिति में से आबाधा काल को न्यून करके जो स्थिति शेष रहती है, उसमें यथासम्भव पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण नाना द्विगुणहानियाँ होती हैं, इसलिए यहाँ एक द्विगुणहानि का प्रमाण लाने के लिए पल्यके असंख्यातवें भाग से भाजित किया गया है।
मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सर्वाधिक है, इसलिए उसमें सबसे अधिक नाना द्विगुणहानियाँ उपलब्ध होती हैं। शेष कर्मों में जिनकी जितनी न्यून स्थिति है, उनमें उसी अनुपात से वे न्यून उपलब्ध होती हैं । सब कर्मों की सब जीवसमासों में निषेक रचना का यही क्रम है ।
'आबाधाकाण्डक' का विचार करते हुए बतलाया है कि उत्कृष्ट स्थिति से पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर इन सब स्थितिविकल्पों का एक आबाधाकाण्डक करता है। अर्थात् इतने स्थितिविकल्पों की उत्कृष्ट आबाधा होती है। इसके बाद इतने ही स्थितिविकल्पों की एक समय कम आबाधा होती है। इस प्रकार जघन्य स्थिति के प्राप्त होने तक आबाधा ले आनी चाहिए । यहाँ जितने स्थितिविकल्पों की एक आबाधा होती है, उसकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा है। इसे लाने का क्रम यह है कि उत्कृष्ट आबाधा का भाग आबाधा न्यून उत्कृष्ट स्थिति में देने पर एक आबाधाकाण्डक का प्रमाण आता है। सब जीवसमासों
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