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महाबन्ध
सव्वणिसेयट्टिदीसु होंति तो पुव्वकोडितिभागो चेव उक्सस्सणिसेयट्ठिदीए किमटुं उच्चदे? ण; उक्कस्साबाधाए विणा उक्कस्सणिसेयट्ठिदीए चेव उक्कस्साबाधाउत्तादो।'
___ आशय यह है कि यहाँ पर सूत्र में नरकायु और देवायु की उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटि का त्रिभाग प्रमाण कही है। उससे पूर्वकोटि के त्रिभाग से लेकर आसंक्षेपाद्धा काल तक जितने अबाधा के विकल्प होते हैं, उन सबका ग्रहण होता है। इस पर प्रश्न यह होता है कि यदि आबाधा के ये सब विकल्प आयुकर्म की सब निषेक स्थितियों में होते हैं, तो उत्कृष्ट निषेक स्थिति की उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटि का त्रिभाग प्रमाण ही किसलिए कहते हैं? इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि उत्कृष्ट आबाधा का कथन किये बिना उत्कृष्ट निषेक स्थितिमात्र से उत्कृष्ट कर्मस्थिति नहीं प्राप्त होती है। यह बात बतलाने के लिए यहाँ उत्कृष्ट आबाधा कही है।
वीरसेन स्वामी के इस कथन का यह अभिप्राय है कि यद्यपि उत्कृष्ट आयु का बन्ध केवल उत्कृष्ट त्रिभाग में ही नहीं होता; वह उत्कृष्ट त्रिभाग से लेकर आसंक्षेपाद्धा काल के भीतर आये बन्ध के योग्य काल में कभी भी हो सकता है, पर यहाँ उत्कृष्ट कर्मस्थिति दिखलाने के लिए केवल उत्कृष्ट आबाधा कही
है।
स्थिति दो प्रकार की होती है-कर्मस्थिति और निषेकस्थिति। आयु कर्म की उत्कृष्ट निषेकस्थिति तेतीस सागर प्रमाण है और कर्मस्थिति पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर प्रमाण है। यहाँ इसी कर्मस्थिति का ज्ञान कराने के लिए उत्कृष्ट आबाधा कही है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
श्वेताम्बर 'कर्मप्रकृति' में चारों आयुओं के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का निर्देश करते समय उसका इस प्रकार निर्देश किया है
'तेत्तीसुदही सुरनारयाउ सेसाउ पल्लतिगं ॥' (कर्मप्रकृति बन्धनकरण, गाथा ७३) अर्थात् देवायु और नरकायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर प्रमाण होता है।
किन्तु इसकी टीका में 'पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानीति शेषः' यह वाक्य आया है। सो इस कथन से भी वीरसेन स्वामी के कथन की ही पुष्टि होती है। अर्थात् आयुकर्म की उत्कृष्ट निषेक स्थिति तेतीस सागर प्रमाण होती है। और उत्कृष्ट कर्म स्थिति पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर प्रमाण होती है।
यद्यपि 'महाबन्ध' में आगे भुजगार बन्ध का निरूपण करते समय आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट त्रिभाग के प्रथम समय में कहकर आगे अल्पतर बन्ध का ही निर्देश किया है। अब यदि वहाँ निषेक स्थिति का ग्रहण करते हैं तो पूर्वोक्त कथन के साथ बाधा आती है, इसलिए वीरसेन स्वामी के अभिप्राय को ध्यान में रखकर वहाँ कर्मस्थिति का ही ग्रहण करना चाहिए और इस प्रकार 'महाबन्ध' के पूरे कथन की सार्थकता भी हो जाती है तथा यह भी ज्ञात हो जाता है कि आयुकर्म का उत्कृष्ट निषेकस्थितिबन्ध केवल उत्कृष्ट विभाग में ही नहीं होकर आयुबन्ध के योग्य किसी काल में भी हो सकता है।
अब प्रश्न यह रह जाता है कि यदि मूल में आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आबाधा सहित लिखा गया है, तो केवल तेतीस सागर प्रमाण न कहकर पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक तेतीस सागर प्रमाण कहना चाहिए था। किन्त मल में ऐसा न कहकर केवल तेंतीस सागर प्रमाण ही कहा है, इसमें आबाधा काल को सम्मिलित नहीं किया गया है सो इसका क्या कारण है?
वीरसेन स्वामी के सामने भी यह प्रश्न था। उन्होंने जीवस्थान-चूलिका में इस प्रश्न का समाधान किया है। वे कहते हैं कि आयुकर्म के स्थितिबन्ध में निषेक और आबाधा अन्योन्याश्रित नहीं हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए निषेकस्थिति के साथ आबाधा का निर्देश नहीं किया है। आशय यह है कि जिस प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों की निषेकस्थिति और आबाधा का अन्योन्य सम्बन्ध है। अर्थात् यदि ज्ञानावरण का तीस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, तो उसकी आबाधा तीन हजार वर्ष प्रमाण ही होगी और एक आबाधाकाण्डक न्यून उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, तो एक समय कम तीन हजार वर्ष प्रमाण
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