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________________ विषय-परिचय 'महाबन्ध' के चार भागों में से प्रकृतिबन्ध का प्रकाशन कई वर्ष पहले हो चुका है। यह स्थितिबन्ध है। इसके मुख्य अधिकार दो हैं-मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध । मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध के मुख्य अधिकार चार हैं-स्थितिबन्ध स्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डक-प्ररूपणा और अल्पबहुत्व। कुल संसारी जीवराशि चौदह जीवसमासों में विभक्त है। इनमें से एक-एक जीवसमास में अलग-अलग कितने स्थिति-विकल्प होते हैं; स्थितिबन्ध के कारणभूत संक्लेशस्थान और विशुद्धिस्थान कितने हैं और सबसे जघन्य स्थितिबन्ध से लेकर उत्तरोत्तर किसके कितना अधिक स्थितिबन्ध होता है; इन तीन का उत्तर अल्पबहुत्व की प्रक्रिया द्वारा स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा नामक पहले अनुयोगद्वार में दिया गया है। निषेक-प्ररूपणा का विचार दो अनुयोगों के द्वारा किया गया है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधा के द्वारा यह बतलाया गया है कि आयकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों का जितना स्थितिबन्ध होता है, उसमें से आबाधा के काल को कम करके जो स्थिति शेष रहती है उसके प्रथम समय में सबसे अधिक कर्म-परमाणु निक्षिप्त होते हैं और इसके आगे द्वितीयादि समयों में क्रम से उत्तरोत्तर एक-एक चयहीन कर्मपरमाणुओं का निक्षेप होता है। इस प्रकार विवक्षित समय में जिस कर्म के जितने कर्म-परमाणुओं का बन्ध होता है, उनका उक्त प्रकार से विभाग हो जाता है। पर आयु कर्म की अबाधा स्थितिबन्ध में सम्मिलित नहीं है, इसलिए इसको प्राप्त कर्मद्रव्य का विभाग आयुकर्म के स्थितिबन्ध के सब समयों में होता है। किस कर्म की कितनी आबाधा होती है, इस बात का भी यहाँ सकेत किया है। यहाँ जो कुछ बतलाया है, उसका भाव यह है कि एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति की सौ वर्ष प्रमाण अबाधा होती है। इस हिसाब से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागर होने से इनकी उत्कृष्ट अबाधा तीन हजार वर्ष प्राप्त होती है; मोहनीय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर होने से इसकी उत्कृष्ट अबाधा सात हजार वर्ष प्राप्त होती है और नाम व गोत्र कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागर होने से इनकी उत्कृष्ट अबाधा दो हजार वर्ष प्राप्त होती है। यह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर जो अबाधा प्राप्त होती है उसकी अपेक्षा जानना चाहिए। शेष तेरह जीवसमासों में सात कर्मों में से जिसके जिस कर्म का जितना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उसे ध्यान में रखकर अबाधा जाननी चाहिए। वह कितनी होती है, इसका निर्देश करते हुए वह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाई है। कारण कि अन्तःकोड़ाकोड़ी के भीतर जितना भी स्थितिबन्ध होता है, उस सबकी आबाधा अन्तर्मुहूर्त होती है ऐसा नियम है। मात्र आयुकर्म की आबाधा का विचार दूसरे प्रकार से किया गया है। यहाँ मूल प्रकृति स्थिबिबन्ध का प्रकरण होने से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर कहकर उसकी अबाधा एक पूर्वकोटि का त्रिभाग प्रमाण कहा गया है। यह तो सुविदित है कि आयुकर्म का तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य और तिर्यंच के ही होता है। किन्तु यहाँ आबाधा एक पूर्वकोटि का त्रिभाग कहने का कारण क्या है, यह विचारणीय है। जीवट्ठाण के चूलिका अनुयोगद्वार की छठी और सातवीं चूलिका में क्रम से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और जघन्य स्थितिबन्ध का निर्देश किया है। वहाँ छठी चूलिका के सूत्र क्रमांक २३ 'पुवकोडितिभागो आबाधा' व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं 'पुव्वकोडितिभागमादि काऊण जाव आसंखेपद्धा ति। जदि एदे आबाधावियप्पा आउअस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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