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________________ २०६ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ४१०. एइंदिय-पंचकायाणं सत्तएणं क. सव्वत्थोवा असंखेज्जभागवडिहाणिबं० । अवहि. असं गु० । विगलिंदिएमु सत्तएणं क. सव्वत्थोवा संखेज्जभागवडि-हाणिबं० । असंखेज्जभागवडि-हाणिवं. संखेज्जगु०। अवहि० असंखेज्जगु० । पंचिंदिय-तस० सत्तएणं क. [ सव्वत्थोवा अवत्तव्वबंधया । असंखेज्जगुणवडिबंधया संखेज्जगुणा । ] असं०गुणहाणि संखेज्जगु० । संखेज्जगुणवड्डि-हाणिबं. असं०गु० । संखेज्जभागवडि-हाणि दो वि तुल्ला असं०गुणा । असंखेज्जभागवड्डि-हाणिबं. दो वि तुल्ला संखेज्जगु० । अवहि. असं गु० । पंचिंदिय-तसपज्जत्तेसु तं चेव । णवरि संखेज्जभागवड्डि-हाणिव० संखेज्जगुणं कादव्वं । एवं पंचमण-पंचवचि०-इत्थि-पुरिस-चक्खुदं०-सणिण त्ति। णवरि इत्थि०-पुरिस० सत्तएणं क० अवत्तव्वं णत्थि। कम्मइगा० तिरिक्खोघं । आहार०-आहारमि०सव्वहभंगो। ४११. 'अवगद पाणावर०-[दसणावरण-अंतराय सव्वत्थोवा अवत्तव्वबं०। ४१०. एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकाय जीवों में सात कर्मीकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। विकलेन्द्रियों में सात कर्मोकी संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । पञ्चेन्द्रिय और त्रसकायिक जीवों में अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इससे असंख्यातगुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यात गुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका बन्ध करनेवाले जीव दोनों ही समान होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त और प्रसकायिक पर्याप्त जीवों में इसी प्रकार अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका बन्ध करनेवाले जीव संख्यातगुणे करने चाहिए। इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संशी जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेशेषता है कि स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें सात कौंका प्रवक्तव्य पद नहीं है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें अपने पदोंका अल्पबहुत्व सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में अपने पदोंका अल्पबहुत्व सर्वार्थसिद्धिके समान है। ४११. अपगतवेदी जीवोंमें शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके प्रवक्तव्य पदका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे संख्यात गुणवृद्धिका बन्ध करनेवाले १. मलप्रती अवगद० णाणावर०-श्रवत्तग्वबं०। संखेजभागवद्भि० असंखेजगु०। संखेजगुणवद्रिबं० संखेजगु० । संखेजभागहाणिबं० संखेजगु० । संखेजगुणहाणिबं० संखेजगु० । अवटि संखेजगु० । मोह. सम्वत्थोवा अवत्त० । संखेजभागवट्टिबं० संखेजगु०। संखेजगुणवडिबं० संखेजगु० । असं०गुणवडिबं० संखेजगु० । संखेजभागहाणिव० संखेजगु०, संखेज गुणहाणि बं० संखेजगु० असंखेजगुणहाणिबं० संखेजगुरु अवढि०६० सं०गु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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