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उक्कस्स-सामित्तपरूवणा
२५९ हिदि० कस्स ? अएणद० मिच्छादिहिस्स सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलि. अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स। सेसाणं उक्कस्स० हिदि० तस्सेव तप्पाओग्गसंकिलि० । तिरिक्खायु० उक्त हिदि० कस्स० ? अण्णद० मिच्छादिहि० तप्पाओग्गविसुद्धस्स उक्कस्सियाए आबा [उक्क०] हिदि० वट्टमाणस्स। मणुसायु० उक्क० द्विदि० कस्स• ? अएण. सम्मादि० मिच्छादि तप्पाओग्गविसुद्धस्स उक्क आवा० उक्क० हिदि० वट्टमाणयस्स । तित्थयर० उक्क० हिदि० कस्स० ? असंजदसम्मादिहिस्स तपाओग्गसंकिलि।
७२. एवं सव्वासु पुढवीसु । णवरि चउत्थीबादीसु तित्थयरं पत्थि । सत्तमाए मणुसगइ-मणुसाणु:-उच्चागो० उक्क० डिदि० कस्स ? अण्ण० सम्मादिहिस्स तप्पाअोग्गसंकिलिह० मिच्छत्ताभिमुह ।
७३. तिरिक्खेसु पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्त-सोलसकसा - णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-णिरयग०-पंचिंदिय०--तेजा-क०-हुडसंठा०--उ
गति, त्रस चतुष्क, अस्थिरादिक छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि नारकी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला वही जीव है। तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट बाबाधाके सात उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला अन्यतर मिथ्यादृष्टि नारकी तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्यविशुद्ध परिणामवाला और उत्कृष्ट आवाधाके साथ उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि नारकी मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्यसंक्लेश परिणामवाला अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका खामी है।
७२. इसी प्रकार सात पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चौथीसे लेकर सब पृथिवियोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है। तथा सातवीं पृथिवीमें मनुष्य गति, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूर्वी और उच्च गोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला और मिथ्यात्वके अभिमुख अन्यतर सम्यग्दृष्टि नारकी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है।
विशेषार्थ-नरकगतिमें जितनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, उनका नामनिर्देश पहिले कर आये हैं। यहाँ इतनी विशेष बात जाननी चाहिए कि तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध तीसरी पृथिवी तक होता है और सातवीं पृथिवीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्यग्दृष्टि नारकीके होता है।
७३. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय,नपुंसकवेद,अरति, शोक,भय, जुगुप्सा,नरकगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्र
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