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________________ २५८ महाबंधे डिदिबंधाहियारे ७१. आदेसेण णेरइएमु पंचणा-णवदंसणा-असादावे-मिच्छत्त-सोलसक०-णवूस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खगदि-पांचिंदिय०-ओरालिय-तेजा०क०-हुंडसं०-ओरालि अंगो०-असंपत्तसेव०-वएण०४-तिरिक्वाणुपु०--अगुरु०४उज्जो-अप्पसत्थवि०-तस०४-अथिरादिलक्क-णिमिण-णीचागो-पंचंतरा० उक्क. परिणाम मिथ्यादृष्टिके ही होते हैं । उसमें भी किन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन गतिका जीव है.यह अलग-अलग बतलाया ही है। फिर भी,यहाँ प्रत्येक गतिका आश्रय लेकर विचार करते हैं नरकगति-५ शानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय और २६ मोहनीयका तथा नरकगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक, देवगतिद्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, आहारकद्विक, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और तीर्थङ्कर इन १८ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी ४९ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार नरकगतिमें कुल ९८ का ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । तथा तिर्यश्चायु,मनुष्यायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। कुल १०१ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। तिर्यञ्चगति-५ शानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय, २६ मोहनीय, देवायुके सिवा ३ आयुका तथा तिर्यञ्चगतिद्विक, औदारिकद्विक, आहारकद्विक, एकेन्द्रिय जाति, असंप्राप्ता टिकासंहनन, प्रातप, उद्योत, स्थावर और तीर्थङ्कर इन १२ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी शेष ५५ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार तिर्यञ्चगतिमें १०७ प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। तथा औदारिकद्विक, तिर्यश्चगतिद्विक, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत और स्थावर इन नौ प्रकृतियोंका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । कुल ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। मनुष्यगति–५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय, २६ मोहनीय, ४ आयुका तथा तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकद्विक, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन,आतप, उद्योत और स्थावर इन नौ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी ५८ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार मनुष्यगतिमें १११ प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अभिमुख हुए संक्लेश परिणामवाले अप्रमत्तसंयतके और तीर्थंकरका मिथ्यात्वके अभिमुख हुए असंयतसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। तथा तिर्यञ्चगतिमें गिनाई गई आदेश उत्कृष्ट स्थितिवन्धवाली ९ प्रकृतियोंका यहाँ भी आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। यहाँ सब प्रकृतियोंका बन्ध होता है। देवगति-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, २ वेदनीय, २६ मोहनीयका तथा नरकगतिद्विक, देवगतिद्विक, द्वीन्द्रिय आदि तीन जाति, वैक्रियिकद्विक, आहारकद्विक, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और तीर्थंकर इन १५ प्रकृतियोंके सिवा नामकर्मकी ५२ प्रकृतियोंका तथा २ गोत्र और ५ अन्तरायका इस प्रकार देवगतिमें कुल १०१ प्रकृतियोंका श्रोध उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । तथा तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और तीर्थकर प्रकृतिका आदेश उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। कुल १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। ७१. आदेशसे नारकियोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुलरुघु चतुष्क, उद्योत, अप्रशस्तविहायो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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