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________________ उक्कस्स-सामित्तपरूवणा २५७ वा देवस्स वा मिच्छादिहि सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलिह० अथवा ईसिमज्झिमपरिणामस्स । 'देवगदि-तिएिणजादि-देवाणुपु०-सुहुम-अपज्जत्त-साधार० उक. हिदि० कस्स० १ अएण. मणुसस्स वा पंचिंदियतिरिक्खस्स वा सएिण. मिच्छादिहिस्स सागार-जागार० तप्पाअोग्ग० उकहिदि. तप्पाओग्गउक्कस्सए संकिलिहे वट्टमाणस्स । एईदिय-आदाव-थावर० उक्क० हिदि० कस्स० ? अएण. सोधम्मीसाणंतदेवेसु मिच्छादिहि. सागार-जागार० उक्कस्ससंकिलिहस्स अथवा इसिमज्झिम० । 'आहार-आहार०अंगो० उक्क० हिदि. कस्स० ? अण्णदरस्स अप्पमत्तसंजदस्स सागार-जागार० तप्पाओग्गसंकिलिह० पमत्ताभिमुहस्स । तित्थयर उक्क हिदि० कस्स० ? अण्णद० मणुसस्स असंजदसम्मादिहिस्स सागार-जागार० तप्पाओग्गस्स० मिच्छादिहिमुहस्स । है अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला है,ऐसा अन्यतर देव या नारकी जीव उक्त छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । देवगति, तीन जाति, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकास्वामी कौन है ? जो संशी है, मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य परिणामवाला है और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाममें अवस्थित है,ऐसा अन्यतर मनुष्य अथवा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव उक्त आठ प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है अथवा अल्प मध्यम परिणामवाला है,ऐसा सौधर्म और ऐशान कल्प तकके देवोंमेंसे अन्यतर देव उक्त तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आहारकशरीर और आहारक शरीर आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो साकार जागृत है, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है और प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अभिमुख है,ऐसा अन्यतर अप्रमत्त संयत जीव उक्त दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और मिथ्यात्वके अभिमख है.ऐसा अन्यतर मनष्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव तीर्थङ्कर उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ यहाँ १४८ उत्तर प्रकृतियों से प्रत्येक प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार किया गया है। बन्धकी अपेक्षा पाँच बन्धन और पाँच संघातका पाँच शरीरमें अंत. भर्भाव हो जाता है तथा स्पर्शादिक २० के स्थानमें मूल चार लिये गये हैं तथा सम्यक् प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो अबन्ध प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इन अहाईस प्रकृतियोंके कम हो जाने पर कुल १२० प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । अतएव यहाँ इन्हीं १२० प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका विचार किया गया है। यहाँ यह बात तो स्पष्ट ही है कि देवायु, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर इन चार प्रकृतियोंके सिवा शेष ११६ प्रकृतियोंका उत्कृष्टस्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टि जीव ही करता है, क्योंकि इनके बन्धके योग्य उत्कृष्ट या अल्प,मध्यम १. परतिरिया....वेगुग्वियछक्कवियलसुहमतियं ।'-गो. क०, गा० १२७। २. देवा पुण एइंदियनादावं थावरं च । गो० क०,गा० १३८ । ३. 'आहारयमप्पमत्तविरदो दु।'-गो०० गा० १३६ । ५. 'तित्थयरं च मगुस्सो-गो०० गा० १३६ । प्रकृतिके ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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