SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जदिभागहीणं वा संखेजदिभागहीणं वा संखेजगुणहीणं वा । एवं अोघभंगो तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्व०३-मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगिओरालियका इत्थि०-पुरिस-णवूस-कोधादि०४-मदि-सुद-विभंगणा०-असंजद०चक्खुदं -[ अचक्खुदं०- ] किएणले --भवसि --अब्भवसि०-मिच्छादि०-सएिणआहारग त्ति । १२७. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु सत्तएणं कम्माणं ओघं । णवरि आयु० ण बंधदि । आयु० उक्क बंधंतो सत्तएणं क. णियमा बंधगो। णियमा अणु० भाग हीन बांधता है अथवा संख्यातवां भाग हीन बांधता है अथवा संख्यात गुणहीन बांधता है । इस प्रकार ओघके समान तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रिय द्विक, त्रसद्विक, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यशानी, श्रुताशानी, विभङ्गशानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संक्षी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-एक पदार्थके साथ दूसरे पदार्थको मिलाकर विचार करना सन्निकर्ष है। यहाँ बन्धका प्रकरण है और सामान्यसे आठों कौके स्थितिबन्धका विचार चल रहा है, इसलिए इस सन्निकर्ष अनुयोगद्वारमें यह बतलाया गया है कि किस-किस कर्मका कितना स्थितिबन्ध होनेपर अन्य किन कर्मोंका कितना स्थितिबन्ध होता है। पहिले श्रोधसे विचार किया गया है। सब कर्म आठ हैं, उनमेंसे ज्ञानावरणीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर आयुके सिवा अन्य शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध नियमसे होता है। कारण कि ज्ञानावरणीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध मिथ्यात्वमें होनेसे वहाँ दर्शनावरणादि शेष छह कौका भी बन्ध होता है । यह तो मानी हुई बात है कि एक कर्मके स्थितिबन्धके योग्य उत्कृष्ट परिणाम होने पर अन्य कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम हो अथवा न भी हों, इसलिए जब शानावरणीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है,तब अन्य छह कर्मोंका स्थितिबन्ध उत्कृष्ट भी होता है और अनत्क्रष्ट भी होता है। यही बात दर्शनावरण आदिकी अपेक्षासे भी जान लेनी चाहिए। यह बात सुनिश्चित है कि आयुकर्मका बन्ध त्रिभागके पहिले नहीं होता, त्रिभागमें भी यदि आयुबन्धके योग्य परिणाम होते हैं तो ही होता है अन्यथा नहीं, इसलिए जो जीव ज्ञानावरणकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है,वह आयुकर्मका स्थितिबन्ध करता भी है और नहीं भी करता है। यदि करता है तो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही करता है। अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है । अब रहा आयुकर्म, सो आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला जीव सात कर्मीका नियमसे बन्धक होता है,यह तो सुनिस्थित है। केवल देखना यह है कि शेष कर्मोंकी स्थिति कितनी बँधती है सो यह बात उन-उन कर्मों के बन्धके योग्य परिणामों पर निर्भर है,इसलिए यहाँ यह बतलाया है कि आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला शेष सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति भी बाँधता है अथवा अनुत्कृष्ट स्थिति भी बाँधता है। यहाँ कुछ अन्य मार्गणाएँ गिनाई हैं, जिनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है। यहाँ इन मार्गणाओंके संकलनमें इस बातका ध्यान रक्खा गया है कि जिन मार्गणाओं में आठोंकर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है,वे मार्गणायें ही यहाँ ली गई हैं। १२७. आदेशसे नरक गतिमें नारकियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। आयुकर्मका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy