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________________ उक्कस्सबंधसरिणयासपरूवणा संखेज्जगुणहीणं बंधदि । एवं सव्वणिरय - पंचिदियतिरिक्खापज्ज०-मरणुस पज्ज०सव्वदेव-पंचिंदिय-तस अपज्ज० - ओरालियमि० -- वेडव्वियका० आहारका० आहारमि०आभि० - सुद० - प्रधि०-मणपज्ज० - संजदा -सामाइ० - छेदो ० - परिहार० - संजदा' संजदअधिदं०-पील०- काउ० तेउ०- पम्म० सुक्कलेस्सा-सम्मादिट्ठि - खइगस०-वेदगस०-सास० । उवसम० सत्तएां क० । १२८. एइंदिए सत्तणं क० ओघं । आयुगं ए बंधुदि । आयुग० उक्क० बंधतो सत्तणं क० णियमा ऋणु । उक्क० अ० असंखेज्जभागहीणं बंधदि । एवं सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं णिगोदाणं च । गवरि विगलिंदिएस आयु० उक्क० बंधतो सत्तणं क ० संखेज्जभागहीणं बंधदि । ७९ १२६. वेउव्वियमि०-कम्मइ० -सम्मामि० - अरणाहार० सत्तणं० क० मूलोघं उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव सात कर्मोंका नियमसे बन्धक होता है । परन्तु नियमसे संख्यातगुणी हीन अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है । इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सब देव, पञ्चेद्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्यात, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिक काययोगी, आहारक काययोगी, श्राहारकमिश्र काययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृषि, और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिए। तथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके सात कर्मों का इसी प्रकार सन्निकर्ष है । विशेषार्थ - एक उपशम सम्यग्दृष्टि मार्गणाको छोड़कर यहाँ कही गई शेष सब मार्गणाओं में सात या आठ कर्मोका बन्ध सम्भव है । किन्तु इन मार्गणाओं में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंके होने पर आयुकर्मका बन्ध नहीं होता । और यह बात उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश करनेवाले अनुयोगद्वार से भलीभांति जानी जा सकती है । १२८. एकेन्द्रिय जीवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका सन्निकर्ष श्रोघके समान है । इतनी विशेषता है कि यह आयुकर्मका बन्ध नहीं करता । आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव सात कर्मोंका नियमसे अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है । तथापि उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातवें भागहीन करता है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पाँच स्थावरकायिक और निगोद जीवों के जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि विकलेन्द्रियों में आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाला जीव सात कमकी स्थिति अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा संख्यातवें भागहीन बाँधता है । 1 विशेषार्थ - एकेन्द्रियों और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें सात कर्मोमेंसे प्रत्येक के स्थितिबन्धके कुल भेद पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं और विकलत्रयोंमें पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसलिए एकेन्द्रियों और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धिके समान असंख्यात भागहानि ही सम्भव है तथा विकलत्रयों में दो वृद्धियोंके समान दो हानियाँ भी सम्भव हैं । यही कारण है कि यहाँ उक्त जीवोंमें इस बातको ध्यान में रखकर सन्निकर्ष का निर्देश किया है। १२९. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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