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________________ महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे ३. रिय- देवायूर्णं सव्वत्थोवा पंचिंदियस्स असरिणस्स पज्जत्तगस्स हिदिबं० | पंचिदियस्स सरिणस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंधद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । तिरिक्खमसाणं तेरस्यां जीवसमासागं द्विदिबंधद्वाणाणि तुल्लाणि थोत्राणि । पंचिदियस सस्सि पज्जत्तयस्स हिदिबं० [सं० गु० । २२२ ४. रियगदि - रियगदिपात्रोग्गाणुपुव्वीणं सव्वत्थोवा पंचिंदियस्स असरिणयस्स पज्जत्तयस्स द्विदिबं० | पंचिंदियस्स सरिणस्स पज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेज्ज० । देवगदि-वेजव्विय० - वेउव्विय • गोव ० -देवाणुपुव्वि ० सन्वत्थोवा पंचिदियस्स' असणिस्स पज्जत्तयस्स द्विदिवं । पंचिंदि० सरिणस्स अपज्जतस्स द्विदिवं ० संखेज्जगु० । तस्सेव पज्जत्त० हिदिबं० संखेज्जगु० । पटक, आहारक शरीर, आहारक श्रांगोपांग और तीर्थंकर इन प्रकृतियोंका सब जीव समासों में बन्ध नहीं होता तथा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके विषय में विशेष वक्तव्य है, इसलिए इन तेरह प्रकृतियोंके सिवा शेष १०७ प्रकृतियोंके स्थितिबन्धस्थानोंका श्रल्पबहुत्व जिस प्रकार मूल प्रकृतिस्थितिबन्धका कथन करते समय कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ३. पञ्चेन्द्रिय अशी पर्याप्त नरकायु और देवायुके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं। तेरह जीव समाके तिर्यञ्च श्रायु और मनुष्यायुके स्थितिबन्धस्थान तुल्य होकर स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - नरकायु और देवायुका स्थितिबन्ध श्रसंज्ञी पञ्चेन्द्रियके पल्यके श्रसंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता । तथा संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके वह तेतीस सागरतक होता है । इसीसे असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके इन दोनों श्रायुओं के स्थितिबन्धस्थानोंसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे कहे हैं। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धसे लेकर एक पूर्वकोटितक स्थितिबन्ध चौदहों जीवसमासोंमें सम्भव है । मात्र संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीन पल्यतक होता है । यही कारण है कि तेरह जीवसमासोंमें इन दोनों श्रायुओं के स्थितिबन्धस्थान तुल्य और सबसे स्तोक कहे हैं। तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तककें वे श्रसंख्यातगुणे कहे हैं; क्योंकि पूर्वकोटिके प्रमाणसे तीन पल्यका प्रमाण असंख्यातगुणा होता है । ४. पञ्चेन्द्रिय अशी पर्याप्तकके नरकगति और नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वीके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संही पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तकके देवगति, वैक्रियिक शरीर, वैकियिक श्राङ्गोपाङ्ग और देवगति प्रायोग्यानुपूर्वीके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक के स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे इसीके पर्याप्तक के स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - अशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिविकल्पोंसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त स्थितिबन्धस्थान उत्तरोत्तर संख्यातगुणे होते हैं यह स्पष्ट ही है, क्योंकि अशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातवां भाग कम एक हजार १. मूलप्रतौ पंचिदियस्स सष्णिस्स इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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