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________________ २२३ हिदिबंधट्ठाणपरूवणा ५. आहार-आहारंगो० सव्वत्थोवा अपुव्वकरण हिदिबंधहाणाणिः । संजदस्स हिदिबं० संखेज्जगु० । तित्थयरणामस्स' सव्वत्थोवा [ अपुवकरणहिदिबंधहाणाणि ।] संजदस्स हिदिवं० [संखेजगुणाणि।] संजदासंजदस्स हिदिव० संखेजगु०। असंजदस्स सम्मादिहिअपज्जत्त यस्स हिदिबं० संखेज्जगु० । तस्सेव पज्जत्त. हिदिबंध० संखेज्जगु०। ६. तासिं चेव पगदीणं पढमदंडो सव्वत्थोवा मुहुमस्स अपज्जत्तयस्स संकिलिहस्स हाणाणि । बादरअपज्ज० संकिलि हाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एवं याव पंचिंदियस्स सरिणस्स मिच्छादिहिस्स पज्जत्तयस्स संकिलिट्ठस्स हाणाणि असंखेज्जगुणाणि ति । एवं पढमदंडो। सागर प्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूरा एक हजार सागर प्रमाण होता है। यहां कुल स्थितिबन्ध विकल्प पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होते हैं। ५. अपूर्वकरणके आहारक शरीर और आहारक ऑङ्गोपाङ्गके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे संयतके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । अपूर्वकरणके तीर्थकर नामकर्मके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे संयतके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे संयतासंयतके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे असंयत सम्यग्दृष्टि अपप्तिकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। ___ विशेषार्थ-आहारकशरीर, आहारकशरोर आङ्गोपाङ्ग और तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य और उत्क स्थितिबन्ध अन्तःकोटाकोटि सागरप्रमाण होता है, फिर भी जघन्य स्थितिबन्धसे इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होता है। यही कारण है कि यहाँ इन प्रकृतियोंके स्वामियोंके स्थितिबन्ध स्थानोंका अल्पबहुत्व उत्तरोत्तर संख्यातगुणा कहा है । मात्र आहारकद्विकका बन्ध संयतके ही होता है। इसलिये इनके स्थितिबन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व दो स्थानों में कहा है और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध संयत, संयतासंयत तथा पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त सम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए इसके स्थितिषन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व इन स्थानों में कहा है। ६. उन्हीं प्रकृतियोंका जो प्रथम दण्डक है,उनकी अपेक्षा सूक्ष्म अपर्याप्तकके संक्लेशरूप स्थान सबसे स्तोक हैं। इनसे बादर अपर्याप्तकके संक्लेशरूप स्थान असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी, मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकके संक्लेशस्थान असंख्यातगुणे हैं।इस स्थानके प्राप्त होनेतक संक्लेश स्थानोंका कथन करना चाहिए । इस प्रकार प्रथम दण्डक समाप्त हुआ। विशेषार्थ- पहले १४ जीव-समासोंमें १०७ प्रकृतियोंके स्थितिबन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व बतला आये हैं। उन्हीं प्रकृतियोंके संक्लेशस्थानोंका यहाँ चौदह जीव-समासोंमें अल्पबहुत्व कहा गया है । मूलप्रकृति-स्थितिबन्ध स्थानोंका कथन करते समय संक्लेश विशुद्धिस्थानोंका चौदह जीवसमासोंमें जिस क्रमसे निर्देश किया है, उसी क्रमसे इस १. मूलप्रतौ अपुवकरणद्विदिबंधटाणाणि असंखे. गु० । संजदस्स इति पाठः । २. तित्थयरणामस्स विदिबं० सम्वत्थोवा संजदस्स हिदिबं० । सजदा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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