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________________ २२४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ७. विदियदंडओ देव-णिरयायुः । तदियदंडओ तिरिक्ख-मणुसायु० । चउत्थदंडओ णिरयगदिदुगं । पंचमदंडो देवगदि०४। तदो आहारदुगं तित्थयरं । सव्वसंकिलिहस्स हाणाणि यथाकमेण असंखेज्जगुणाणि । एवं विसोधिहाणाणि वि णेदव्वाणि सव्वेसु वि ,डएसु । ८. अप्पाबहुगं । पंचणाणा०-चदुदंसणा०-सादावेद-चदुसंज०-पुरिस-जस०उच्चागो०-पंचंतराइगाणं सव्वत्थोवा संजदस्स जहएणओ हिदिबंधो । बादरएइंदियपज्जत्तयस्स जहएणो हिदिबंधो असंखोज्जगु० । एवं याव पंचिंदिय० सएिण. मिच्छादिहि० पज्जत्तस्स उक्कस्सो हिदिबंधो संखेज्जगुणो त्ति । प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके चौदह जीवसमासोंमें संक्लेश-विशुद्धिस्थान जानने चाहिए;यह उक्त कथनका तात्पर्य है।। ७. दूसरा दण्डक देवायु और नरकायुका है। तीसरा दण्डक तिर्यञ्च आयु और मनुष्यायुका है । चौथा दण्डक नरकगतिद्विकका है। पाँचवाँ दण्डक देवगति चतुष्कका है। इसके बाद आहारक द्विक और तीर्थकर प्रकृति है। इनकी अपेक्षा सर्व संक्लेश स्थान क्रमसे प्रसंख्यातगणे हैं। तथा सभी दण्डकों में इसी प्रकार विशद्धि स्थान जानने चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें जो तेरह प्रकृतियाँ छोड़ दी गई थीं, उनके स्थितिबन्धस्थानोंके ही यहाँ संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका क्रमसे निर्देश किया गया है। प्रथम दण्डकमें कही गई १०७ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येकके जितने संक्लेशविशुद्धिस्थान होते हैं,उनसे दूसरे दण्डकमें कही गई देवायु और नरकायु इनमेंसे प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे तीसरे दण्डकमें कही गई तिर्यश्चायु और मनुष्यायु इन दो प्रकृतियों से प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे चौथे दण्डकमें कही गई नरकगति और नरकगति प्राय.यानुपूर्वी,इन दो प्रकृतियों से प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे पाँचवें दण्डकमें कही गई देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ इन चार प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगणे होते हैं। इनसे आहारकद्विकमेंसे प्रत्येकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं और इनसे तीर्थकर प्रकृतिके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। यहां मूलमें संक्लेशस्थान किसके कितने गुणे होते हैं यह कहा है और अन्तमें यह कहा है कि इसी प्रकार विशुद्धिस्थान भी जानने चाहिए। सो इस कथनका यह अभिप्राय है कि जिसके जितने संक्लेश स्थान होते हैं,उसके उतने ही विशुद्धिस्थान भी होते हैं। ८. अल्पबहुत्व, यथा--संयतके पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार सज्वलन, पुरुषवेद, यशाकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे बादर एकेन्द्रियपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इस प्रकार अन्तमें पञ्चेन्द्रिय संशी, मिथ्यादृष्टिपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इस स्थानके प्राप्त होनेतक अल्पबहुत्व जानना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ जो बाईस प्रकृतियां गिनाई हैं, उनमेंसे साता वेदनीय और चार सज्वलन इनका जघन्य स्थितिबन्ध नवमें गुणस्थानमें होता है और शेषका दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। इसीसे संयतके इनका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक कहा है। इसके आगे इनके स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व जिस प्रकार मूल प्रकृति स्थितिबन्धकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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